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अर्चेयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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पार्वतीदेवी घोर तपस्या कर रही हैं आपलोग संसारके हितके लिये शीघ्रतापूर्वक वहाँ जाकर उन्हें अभिमत वस्तुकी प्राप्तिका विश्वास दिला तपस्या बंद करा दीजिये। 'बहुत अच्छा!' कहकर सप्तर्षिगण उस सिद्धसेवित शैलपर आये और पार्वतीदेवीसे मधुर वाणीमें बोले'बेटी! तुम किस उद्देश्यसे यहाँ तप कर रही हो?' पार्वतीदेवीने मुनियोंके गौरवका ध्यान रखकर आदर पूर्वक कहा – 'महात्माओ ! आपलोग समस्त प्राणियोंके मनोरथको जानते हैं। प्रायः सभी देहधारी ऐसी ही वस्तुकी अभिलाषा करते हैं, जो अत्यन्त दुर्लभ होती है। मैं भगवान् शङ्करको पतिरूपमें प्राप्त करनेका उद्योग कर रही हूँ। वे स्वभावसे ही दुराराध्य हैं। देवता और असुर भी जिनके स्वरूपको निश्चित रूपसे नहीं जानते, जो पारमार्थिक क्रियाओंके एकमात्र आधार हैं, जिन वीतराग महात्माने कामदेवको जलाकर भस्म कर डाला है, ऐसे महामहिम शिवको मेरी जैसी तुच्छ अबला किस प्रकार आराधनाद्वारा प्रसन्न कर सकती है।'
पार्वतीके यों कहने पर मुनियोंने उनके मनकी दृढ़ता जाननेके लिये कहा - ' -'बेटी! संसारमें दो तरहका सुख देखा जाता है— एक तो वह है, जिसका शरीरसे सम्बन्ध होता है और दूसरा वह, जो मनको शान्ति एवं आनन्द प्रदान करनेवाला होता है। यदि तुम अपने शरीरके लिये नित्य सुखकी इच्छा करती हो तो तुम्हें घृणित वेषमें रहनेवाले भूत-प्रेतोंके सङ्गी महादेवसे वह सुख कैसे मिल सकता है। अरी! वे फुफकारते हुए भयंकर भुजङ्गोको आभूषणरूपमें धारण करते हैं, श्मशानभूमिमें रहते हैं और रौद्ररूपधारी प्रमथगण सदा उनके साथ लगे रहते हैं। उनसे तो लक्ष्मीपति भगवान् श्रीविष्णु कहीं अच्छे हैं। वे इस जगत्के पालक हैं। उनके स्वरूपका कहीं ओर-छोर नहीं है तथा वे यज्ञभोगी देवताओंके स्वामी हैं। तुम उन्हें पानेकी इच्छा क्यों नहीं करतीं ? अथवा दूसरे किसी देवताको पानेसे भी तुम्हें मानसिक सुखकी प्राप्ति हो सकती हैं। जिस वरको तुम चाहती हो, उसके पानेमें ही बहुत क्लेश है; यदि कदाचित् प्राप्त भी हो गया तो वह निष्फल वृक्षके समान है— उससे तुम्हें
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
सुख नहीं मिल सकता।'
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उन श्रेष्ठ मुनियोंके ऐसा कहनेपर पार्वतीदेवी कुपित हो उठीं, उनके ओठ फड़कने लगे और वे क्रोधसे लाल आँखें करके बोलीं- 'महर्षियो! दुराग्रहीके लिये कौन-सी नीति है। जिनकी समझ उलटी है, उन्हें आजतक किसने राहपर लगाया है। मुझे भी ऐसी ही जानिये। अतः मेरे विषयमें अधिक विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। आप सब लोग प्रजापतिके समान हैं, सब कुछ देखने और समझनेवाले हैं; फिर भी यह निश्चय है कि आप उन जगत्प्रभु सनातन देव भगवान् शङ्करको नहीं जानते। वे अजन्मा, ईश्वर और अव्यक्त हैं। उनकी महिमाका माप-तौल नहीं है। उनके अलौकिक कमका उत्तम रहस्य समझना तो दूर रहा, उनके स्वरूपका बोध भी आवृत है। श्रीविष्णु और ब्रह्मा आदि देवेश्वर भी उन्हें यथार्थरूपसे नहीं जानते। ब्रह्मर्षियो! उनका आत्म-वैभव समस्त भुवनोंमें फैला हुआ है, सम्पूर्ण प्राणियोंके सामने प्रकट है; क्या उसे भी आपलोग नहीं जानते ? बताइये तो, यह आकाश किसका स्वरूप है ? यह अनि, यह वायु किसकी मूर्ति हैं? पृथ्वी और जल किसके विग्रह हैं ? तथा ये चन्द्रमा और सूर्य किसके नेत्र हैं ?'
पार्वतीदेवीकी बात सुनकर सप्तर्षिगण वहाँसे उस स्थानपर गये, जहाँ भगवान् शिव विराजमान थे। उन्होंने भक्तिपूर्वक नमस्कार करके भगवान् से कहा-' "स्वर्गके अधीश्वर महादेव! आप दयालु देवता हैं। गिरिराज हिमालयकी पुत्री आपके लिये तपस्या कर रही है। हमलोग उसका मनोरथ जानकर आपके पास आये हैं। आप योगमाया, महिमा और गुणोंके आश्रय हैं। आपको अपने निर्मल ऐश्वर्यपर गर्व नहीं है। शरीरधारियों में हमलोग अधिक पुण्यवान् हैं जो कि ऐसे महिमाशाली आपका दर्शन कर रहे हैं।' ऋषियोंके रमणीय एवं हितकर वचन सुनकर वागीश्वरोंमें श्रेष्ठ भगवान् शङ्कर मुसकराते हुए बोले 'मुनिवरो! मैं जानता हूँ लोक रक्षाकी दृष्टिसे वास्तवमें यह कार्य बहुत उत्तम है; किन्तु इस विषयमें मुझे हिमवान् पर्वतसे ही आशङ्का