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सृष्टिखण्ड ]
. गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध.
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ब्रह्माजीने उन्हें गणोंका आधिपत्य प्रदान किया। जलको पीनेकी इच्छा करने लगीं। इतनेमें ही उन्हें सूर्यके
तत्पश्चात् परम सुन्दरी शिवा देवीने खेलमें ही एक समान तेजस्विनी छः कृत्तिकाएँ दिखायी दीं। वे कमलके वृक्ष बनाया। उससे अशोकका मनोहर अङ्कर फूट पत्तेमें उस सरोवरका जल लेकर जब अपने घरको जाने निकला। सुन्दर मुखवाली पार्वतीने उसका मङ्गल- लगी, तब पार्वती देवीने हर्षमें भरकर कहा-'देवियो! संस्कार किया। तब इन्द्रके पुरोहित बृहस्पति आदि कमलके पत्तेमें रखे हुए जलको मैं भी देखना चाहती ब्राह्मणों, देवताओं तथा मुनियोंने कहा-'देवि! हूँ।' वे बोलीं-'सुमुखि ! हम तुम्हें इसी शर्तपर जल बताइये, वृक्षोंके पौधे लगानेसे क्या फल होगा?' यह दे सकती हैं कि तुम्हारे प्रिय गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न हो, वह सुनकर पार्वती देवीका शरीर हर्षसे पुलकित हो उठा, वे हमारा भी पुत्र माना जाय एवं हममें भी मातृभाव अत्यन्त कल्याणमय वचन बोलीं- 'जो विज्ञ पुरुष ऐसे रखनेवाला तथा हमारा रक्षक हो । वह पुत्र तीनों लोकोंमें गाँवमें जहाँ जलका अभाव हो, कुआँ बनवाता है, वह विख्यात होगा।' उनकी बात सुनकर गिरिजाने कहाउसके जलकी जितनी बूंदें हों उतने वर्षतक स्वर्गमें 'अच्छा, ऐसा ही हो।' यह उत्तर पाकर कृत्तिकाओंको निवास करता है। दस कुओंके समान एक बावली, दस बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने कमल-पत्रमें स्थित जलमेंसे बावलियोंके समान एक सरोवर, दस सरोवरोके समान थोड़ा पार्वतीजीको भी दे दिया। उनके साथ पार्वतीने भी एक कन्या और दस कन्याओंके समान एक वृक्ष क्रमशः उस जलका पान किया। लगानेका फल होता है। यह शुभ मर्यादा नियत है। यह जल पीनेके बाद तुरंत ही रोग-शोकका नाश लोकको उन्नतिके पथपर ले जानेवाली है।' माता पार्वती करनेवाला एक सुन्दर और अद्भुत बालक भगवती देवीके यों कहनेपर बृहस्पति आदि ब्राह्मण उन्हें प्रणाम पार्वतीको दाहिनी कोख फाड़कर निकल आया। उसका करके अपने-अपने निवासस्थानको चले गये। शरीर सूर्यको किरणोंके समान प्रकाश-पुञ्जसे व्याप्त था।
उनके जानेके पश्चात् भगवान् शङ्कर पार्वतीके साथ उसने अपने हाथमें तीक्ष्ण शक्ति, शूल और अङ्कश अपने भवनमें गये। उस भवनमें चित्तको प्रसन्न करने- धारण कर रखे थे। वह अनिके समान तेजस्वी और वाले ऊँचे-ऊँचे चौबारे, अटारियाँ और गोपुर बने हुए सुवर्णके समान गोरे रंगका बालक कुत्सित दैत्योंको थे। वेदियोंपर मालाएँ शोभा पा रही थीं। सब ओर सोना मारनेके लिये प्रकट हुआ था; इसलिये उसका नाम जड़ा था। महलमें पुष्प बिखेरे हुए थे, जिनकी सुगन्धसे 'कुमार' हुआ। वह कृत्तिकाके दिये हुए जलसे उन्मत्त होकर भ्रमरगण गुंजार कर रहे थे। उस भवनमें शाखाओंसहित प्रकट हुआ था। वे कल्याणमयी शाखाएँ भगवान् श्रीशङ्करको पार्वतीजीके साथ निवास करते एक छहों मुखोंके रूपमें विस्तृत थीं; इन्हीं सब कारणोंसे वह हजार वर्ष व्यतीत हो गये। तब देवताओंने उतावले तीनों लोकोंमें विशाख, षण्मुख, स्कन्द, षडानन और होकर अग्निदेवको श्रीशङ्करजीकी चेष्टा जाननेके लिये कार्तिकेय आदि नामोंसे विख्यात हुआ। ब्रह्मा, श्रीविष्णु, भेजा। अग्निने तोतेका रूप धारण करके, जिससे पक्षी इन्द्र और सूर्य आदि समस्त देवताओंने चन्दन, माला, आते-जाते थे, उसी छिद्रके द्वारा शङ्करजीके महलमें सुन्दर धूप, खिलौने, छत्र, चैवर, भूषण और अङ्गराग प्रवेश किया और उन्हें गिरिजाके साथ एक शय्यापर आदिके द्वारा कुमार षडाननको सावधानीके साथ सोते देखा। तत्पश्चात् देवी पार्वती शय्यासे उठकर विधिपूर्वक सेनापतिके पदपर अभिषिक्त किया। भगवान कौतूहलवश एक सरोवरके तटपर गयीं, जो सुवर्णमय श्रीविष्णुने सब तरहके आयुध प्रदान किये। धनाध्यक्ष कमलोंसे सुशोभित था। वहाँ जाकर उन्होंने जलविहार कुबेरने दस लाख यक्षोंकी सेना दी। अग्निने तेज और किया। तदनन्तर वे सखियोंके साथ सरोवरके किनारे वायुने वाहन अर्पित किये। इस प्रकार देवताओंने प्रसन्न बैठी और उसके निर्मल पङ्कजोंसे सुशोभित स्वादिष्ट चित्तसे सूर्यके समान तेजस्वी स्कन्दको अनन्त पदार्थ संपन्यु-६