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सृष्टिखण्ड ]
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तारकासुरके जन्मकी कथा और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना •
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वह जन्मते ही समस्त शास्त्रोंमें पारङ्गत हो गया। उसने बड़ी भक्तिके साथ मातासे कहा- 'माँ मैं तुम्हारी किस आज्ञाका पालन करूँ ?' यह सुनकर दितिको बड़ा हर्ष हुआ। वह दैत्यराजसे बोली- 'बेटा! इन्द्रने मेरे बहुत-से पुत्रोंको मौतके घाट उतार दिया है। अतः उनका बदला लेनेके उद्देश्यसे तुम भी इन्द्रका वध करनेके लिये जाओ।' महाबली वज्राङ्ग 'बहुत अच्छा कहकर स्वर्गमें गया और अमोघ तेजवाले पाशसे इन्द्रको बाँधकर अपनी माँके पास ले आया- ठीक उसी तरह, जैसे कोई व्याध छोटे-से मृगको बाँध लाये। इसी समय ब्रह्माजी तथा महातपस्वी कश्यप मुनि उस स्थानपर आये, जहाँ वे दोनों माँ-बेटे निर्भय होकर खड़े थे। उन्हें देखकर ब्रह्मा और कश्यपजीने कहा- 'बेटा! इन्हें छोड़ दो, ये देवताओंके राजा हैं; इन्हें लेकर तुम क्या करोगे। सम्मानित पुरुषका अपमान ही उसका वध कहा गया है। यदि शत्रु अपने शत्रुके हाथमें आ जाय और वह दूसरेके गौरवसे छुटकारा पाये तो वह जीता हुआ भी प्रतिदिन चिन्तामग्न रहनेके कारण मृतकके ही समान हो जाता है।' यह सुनकर वज्राङ्गने ब्रह्माजी और कश्यपजीके चरणोंमें प्रणाम करते हुए कहा- 'मुझे इन्द्रको बाँधनेसे कोई मतलब नहीं है। मैंने तो माताकी आज्ञाका पालन किया है। देव! आप देवता और असुरोंके भी स्वामी तथा मेरे माननीय प्रपितामह हैं; अतएव आपकी आशाका पालन अवश्य करूँगा। यह लीजिये, मैंने इन्द्रको मुक्त कर दिया। मेरा मन तपस्यामें लगता है, अतः मेरी तपस्या ही निर्विघ्न पूरी हो -यह आशीर्वाद प्रदान कीजिये।'
ब्रह्माजी बोले- वत्स! तुम मेरी आज्ञाके अधीन रहकर तपस्या करो। तुम्हारे ऊपर कोई आपत्ति नहीं आ सकती। तुमने अपने इस शुद्ध भावसे जन्मका फल प्राप्त कर लिया।
यह कहकर ब्रह्माजीने बड़े-बड़े नेत्रोंवाली एक कन्या उत्पन्न की और उसे वज्राङ्गको पत्नीरूपमें अङ्गीकार करनेके लिये दे दिया। उस कन्याका नाम वराङ्गी बताकर ब्रह्माजी वहाँसे चले गये और वज्राङ्ग उसे
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साथ ले तपस्याके लिये वनमें चला गया। उस दैत्यराजके नेत्र कमलपत्रके समान विशाल एवं सुन्दर थे। उसकी बुद्धि शुद्ध थी तथा वह महान् तपस्वी था। उसने एक हजार वर्षोंतक बाँहें ऊपर उठाये खड़े होकर तपस्या की। तदनन्तर उसने एक हजार वर्षोंतक पानीके भीतर निवास किया। जलके भीतर प्रवेश कर जानेपर उसकी पत्नी वराङ्गी, जो बड़ी पतिव्रता थी, उसी सरोवरके तटपर चुपचाप बैठी रही और बिना कुछ खायेपिये घोर तपस्यामें प्रवृत्त हो गयी। उसके शरीरमें महान् तेज था। इसी बीचमें एक हजार वर्षोंका समय पूरा हो गया। तब ब्रह्माजी प्रसन्न होकर उस जलाशयके तटपर आये और वज्राङ्गसे इस प्रकार बोले— 'दितिनन्दन ! उठो, मैं तुम्हारी सारी कामनाएँ पूरी करूंगा।'
उनके ऐसा कहनेपर वज्राङ्ग बोला- 'भगवन् ! मेरे हृदयमें आसुर भाव न हो, मुझे अक्षय लोकोंकी प्राप्ति हो तथा जबतक यह शरीर रहे, तबतक तपस्यामें ही मेरा अनुराग बना रहे।' 'एवमस्तु' कहकर ब्रह्माजी अपने लोकको चले गये और संयमको स्थिर रखनेवाला वज्राङ्ग तपस्या समाप्त होनेपर जब घर लौटनेकी इच्छा करने लगा, तब उसे आश्रमपर अपनी स्त्री नहीं दिखायी दी। भूखसे आकुल होकर उसने पर्वतके घने जंगलमें फल मूल लेनेके लिये प्रवेश किया। वहाँ जाकर देखा उसकी पत्नी वृक्षकी ओटमें मुँह छिपाये दीनभावसे रो रही है। उसे इस अवस्थामें देख दितिकुमारने सान्त्वना देते हुए पूछा - 'कल्याणी ! किसने तुम्हारा अपकार करके यमलोकमें जानेकी इच्छा की है ?'
वराङ्गी बोली - प्राणनाथ! तुम्हारे जीते जी मेरी दशा अनाथकी-सी हो रही है। देवराज इन्द्रने भयंकर रूप धारण करके मुझे डराया है, आश्रमसे बाहर निकाल दिया है, मारा है और भूरि-भूरि कष्ट दिया है। मुझे अपने दुःखका अन्त नहीं दिखायी देता था; इसलिये मैं प्राणत्याग देनेका निश्चय कर चुकी थी। आप एक ऐसा पुत्र दीजिये, जो मुझे इस दुःखके समुद्रसे तार दे।
वराङ्गीके ऐसा कहनेपर दैत्यराज वज्राङ्गके नेत्र