________________
१३८
..अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पदापुराण
किसने छीन लिया है ? तुम आज ऐसे हो रहे हो मानो प्रकार उसकी सारी उद्दण्डता मैंने बतायी है। अब आप तुममें अब कुछ भी करनेकी शक्ति ही नहीं रह गयी है; ही हमारी गति हैं।' तुम्हारी कान्ति किसने हर ली?' ब्रह्माजीके इस प्रकार यों कहकर वायुदेवता चुप हो गये। तब ब्रह्माजीने पूछनेपर देवताओंने वायुको उत्तर देनेके लिये कहा। कहा-'देवताओ ! तारक नामका दैत्य देवता और उनसे प्रेरित होकर वायुने कहा-'भगवन् ! आप असुर-सबके लिये अवध्य है। जिसके द्वारा उसका चराचर जगत्की सारी बातें जानते हैं-आपसे क्या वध हो सकता है, वह पुरुष अभीतक त्रिलोकीमें पैदा ही छिपा है। सैकड़ों दैत्योंने मिलकर इन्द्र आदि बलिष्ठ नहीं हुआ। तारकासुर तपस्या कर रहा था। उस समय देवताओंको भी बलपूर्वक परास्त कर दिया है। आपके मैंने वरदान दे उसे अनुकूल बनाया और तपस्यासे रोका। आदेशसे स्वर्गलोक सदा ही यज्ञभोगी देवताओके उस दैत्यने सात दिनके बालकसे अपनी मृत्यु होनेका अधिकारमें रहता आया है। परन्तु इस समय तारकासुरने वरदान माँगा था। सात दिनका वही बालक उसे मार देवताओंका सारा विमान-समूह छीनकर उसे दुर्लभ कर सकता है, जो भगवान् शङ्करके वीर्यसे उत्पन्न हो। दिया है। देवताओंके निवासस्थान जिस मेरु पर्वतको हिमालयकी कन्या जो उमादेवी होगी, उसके गर्भसे आपने सम्पूर्ण पर्वतोंका राजा मानकर उसे सब प्रकारके उत्पन्न पुत्र अरणिसे प्रकट होनेवाले अग्निदेवकी भांति गुणोंमें बढ़ा-चढ़ा, यज्ञोंसे विभूषित तथा आकाशमें भी तेजस्वी होगा; अतः भगवान् शङ्करके अंशसे उमादेवी ग्रहों और नक्षत्रोंकी गतिका सीमा-प्रदेश बना रखा था, जिस पुत्रको जन्म देगी, उसका सामना करनेपर उसीको उस दानवने अपने निवास और विहारके लिये तारकासुर नष्ट हो जायगा।' ब्रह्माजीके ऐसा कहनेउपयोगी बनानेके उद्देश्यसे परिष्कृत किया है, उसके पर देवता उन्हें प्रणाम करके अपने-अपने स्थानको शिखरोंमें आवश्यक परिवर्तन और सुधार किया है। इस चले गये।
पार्वतीका जन्म, मदन-दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान्
शिवके साथ विवाह . तदनन्तर जगत्को शान्ति प्रदान करनेवाली लक्षणोंसे सम्पन्न हो गयी। इसी बीचमें गिरिराज हिमालयकी पत्नी मेनाने परम सुन्दर ब्राह्ममुहूर्तमें कार्य-साधन-परायण देवराज इन्द्रने देवताओद्वारा एक कन्याको जन्म दिया। उसके जन्म लेते ही समस्त सम्मानित देवर्षि नारदका स्मरण किया। इन्द्रका लोकोंमें निवास करनेवाले स्थावर, जङ्गम-सभी प्राणी अभिप्राय जानकर देवर्षि नारद बड़ी प्रसन्नताके साथ सुखी हो गये। आकाशमें भगवान् श्रीविष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, उनके भवनमें आये। उन्हें देखकर इन्द्र सिंहासनसे उठ वायु और अग्नि आदि हजारों देवता विमानोंपर बैठकर खड़े हुए और यथायोग्य पाद्य आदिके द्वारा उन्होंने हिमालय पर्वतके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। गन्धर्व नारदजीका पूजन किया। फिर नारदजीने जब उनकी गाने लगे। उस समय संसारमें हिमालय पर्वत समस्त कुशल पूछी तो इन्द्रने कहा-'मुने ! त्रिभुवनमें हमारी चराचर भूतोंके लिये सेव्य तथा आश्रय लेनेके योग्य हो कुशलका अङ्कर तो जम चुका है, अब उसमें फल गया-सब लोग वहाँ निवास और वहाँकी यात्रा करने लगनेका साधन उपस्थित करनेके लिये मैंने आपकी याद लगे। उत्सवका आनन्द ले देवता अपने-अपने स्थानको की है। ये सारी बातें आप जानते ही हैं, फिर भी आपने चले गये। गिरिराजकुमारी उमाको रूप, सौभाग्य और प्रश्न किया है इसलिये मैं बता रहा हूँ। विशेषतः अपने ज्ञान आदि गुणोंने विभूषित किया। इस प्रकार वह तीनों सुहृदोंके निकट अपना प्रयोजन बताकर प्रत्येक पुरुष लोकोंमें सबसे अधिक सुन्दरी और समस्त शुभ बड़ी शान्तिका अनुभव करता है। अतः जिस प्रकार