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सृष्टिखण्ड ]
• ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन .
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करके मेरा दर्शन करता है, वह मोक्षका अधिकारी होकर पड़ती। एकान्त और सुरक्षित गृहमें ही पितरोंके श्राद्धका मेरे लोकमें निवास करता है। जो पुष्प, नैवेद्य एवं धूप विधान है; क्योंकि बाहर नीच पुरुषोंकी दृष्टि से दूषित हो चढ़ाता और ब्राह्मणोंको [भोजनादिसे] तृप्त करता है, जानेपर यह पितरोंको नहीं पहुँचता। आत्मकल्याणकी साथ ही जो स्थिरतापूर्वक ध्यान लगाता है, वह शीघ्र ही इच्छा रखनेवाले पुरुषको गुप्तरूपसे ही पिण्डदान करना परमेश्वरको प्राप्त कर लेता है। उसे पुण्यका श्रेष्ठ फल चाहिये। यदि श्राद्धमें दिया जानेवाला पक्कान्न साधारण तथा अन्तमें मोक्ष प्राप्त होता है। जो इन तीर्थोकी यात्रा मनुष्य देख लेते हैं, तो उससे कभी पितरोंकी तृप्ति नहीं करता या कराता है अथवा जो इस प्रसङ्गको सुनता है, होती। मनुजीका कथन है कि तीर्थोंमें श्राद्धके लिये वह भी समस्त पापोंसे छुटकारा पा जाता है। शङ्कर ! ब्राह्मणकी परीक्षा नहीं करनी चाहिये। जो भी अनकी इस विषयमें अधिक क्या कहा जाय-इन तीर्थोकी यात्रा इच्छासे अपने पास आ जाय, उसे भोजन करा देना करनेसे अप्राप्य वस्तुकी प्राप्ति होती है और सारा पाप नष्ट चाहिये।'* श्राद्धके योग्य समय हो या न हो-तीर्थ में हो जाता है। जिन्होंने पुष्कर तीर्थमें अपनी पत्नीके दिये हुए पहुंचते ही मनुष्यको सर्वदा सान, तर्पण और श्राद्ध पुष्करके जलसे सन्ध्या करके गायत्रीका जप किया है, करना चाहिये। पिण्डदान करना तो बहुत ही उत्तम है, उन्होंने मानो सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कर लिया। वह पितरोंको अधिक प्रिय है। जब अपने वंशका कोई
पुष्कर तीर्थके पवित्र जलको झारी अथवा मिट्टीके व्यक्ति तीर्थमें जाता है तब पितर बड़ी आशासे उसकी करवेमें ले आकर सायंकालमें एकाग्र मनसे प्राणायाम- ओर देखते हैं, उससे जल पानेकी अभिलाषा रखते हैं; पूर्वक सन्ध्योपासन करना चाहिये। शङ्कर ! इस प्रकार अतः इस कार्य में विलम्ब नहीं करना चाहिये । और यदि सन्ध्या करनेका जो फल है, उसका अब श्रवण करो। दूसरा कोई इस कार्यको करना चाहता हो तो उसमें विघ्न उस पुरुषको एक ही दिनकी सन्ध्यासे बारह वर्षों तक नहीं डालना चाहिये। सत्ययुगमें पुष्करका, त्रेतामें सन्ध्योपासन करनेका फल मिल जाता है। पुष्करमें स्रान नैमिषारण्यका, द्वापरमें कुरुक्षेत्र तथा कलियुगमें करनेपर अश्वमेध यज्ञका फल होता है, दान करनेसे गङ्गाजीका आश्रय लेना चाहिये। अन्यत्रका किया हुआ उसके दसगुने और उपवास करनेसे अनन्तगुने फलकी पाप तीर्थमें जानेपर कम हो जाता है; किन्तु तीर्थका किया प्राप्ति होती है। यह बात मैंने स्वयं [भलीभाँति हुआ पाप अन्यत्र कहीं नहीं छूटता। जो सबेरे और सोच-विचारकर] कही है। तीर्थसे अपने डेरेपर आकर शामको हाथ जोड़कर पुष्कर तीर्थका स्मरण करता है, शास्त्रीय विधिके अनुसार पिण्डदानपूर्वक पितरोंका श्राद्ध उसे समस्त तीर्थोमें आचमन करनेका फल प्राप्त हो जाता करना चाहिये। ऐसा करनेसे उसके पितर ब्रह्माके एक है। जो पुष्करमें इन्द्रिय-संयमपूर्वक रहकर प्रातःकाल दिन (एक कल्प) तक तृप्त रहते हैं। शिवजी ! अपने और सन्ध्याके समय आचमन करता है, उसे सम्पूर्ण डेरेमें आकर पिण्डदान करनेवालोंको तीर्थकी अपेक्षा यज्ञोंका फल प्राप्त होता है। तथा वह ब्रह्मलोकको जाता अठगुना अधिक पुण्य होता है; क्योंकि वहाँ द्विजातियो- है। जो बारह वर्ष, बारह दिन, एक मास अथवा पक्षभर द्वारा दिये जाते हुए पिण्डदानपर नीच पुरुषोंकी दृष्टि नहीं भी पुष्करमें निवास करता है, वह परम गतिको प्राप्त
• तीर्थेषु ब्राह्मणं नैव परीक्षेत कथंचन । अन्नार्थिनमनुप्राप्त भोज्यं तु मनुरब्रवीत् ।।
(२९ । २१२)
कृते युगे पुष्कराणि त्रेतायां नैमिषं स्मृतम् । द्वापरे च कुरुक्षेत्रं कलौ गङ्गा समाश्रयेत्॥
यदन्यत्रकृतं पापं तीथे तद्याति लापवम्।न तीर्थकृतमन्यत्र कचित् पाप व्यपोहति ॥
(२९-२२८)