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सृष्टिखण्ड ]
. श्रीरामका लङ्का आदि होते हुए गङ्गातटपर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना .
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विमानके आ जानेपर वे दोनों भाई उसपर आरूढ़ हुए। साधुवाद देने लगे और सबने भगवान्का दर्शन करके सबसे पहले वह विमान गान्धार देशमें गया, वहाँ प्रेमाश्रुओंसे गद्गद हो उन्हें प्रणाम किया।" भगवान्ने भरतके दोनों पुत्रोंसे मिलकर उनकी राजनीतिका निरीक्षण किया। इसके बाद पूर्व दिशामें जाकर वे लक्ष्मणके पुत्रोंसे मिले। उनके नगरोंमें छः रातें
JanamWU व्यतीत करके दोनों भाई राम और भरत दक्षिण दिशाकी ओर चले। गङ्गा-यमुनाके संगम-स्थान प्रयागमें जाकर महर्षि भरद्वाजको प्रणाम करके वे अत्रिमुनिके आश्रमपर
AMA गये। वहाँ अत्रिमुनिसे बातचीत करके दोनों भाइयोंने जनस्थानकी यात्रा की। [जनस्थानमें प्रवेश करते हुए। श्रीरामचन्द्रजी बोले-"भरत ! यही वह स्थान है, जहाँ दुरात्मा रावणने गृध्रराज जटायुको मारकर सीताका हरण किया था। जटायु हमारे पिताजीके मित्र थे। इस स्थानपर हमलोगोंका दुष्ट बुद्धिवाले कबन्धके साथ महान् युद्ध हुआ था। कबन्धको मारकर हमने उसे आगमें जला दिया था। मरते समय उसने बताया कि सीता रावणके घरमें हैं। उसने यह भी कहा कि 'आप ऋष्यमूक पर्वतपर जाइये। वहाँ सुग्रीव नामके वानर रहते हैं, वे सुग्रीव बोले-महाराज! आप दोनोंने किस आपके साथ मित्रता करेंगे।' यही वह पम्पा सरोवर है, कार्यसे यहाँ पधारनेकी कृपा की है, यह शीघ्र बताइये। जहाँ शबरी नामकी तपस्विनी रहती थी। यही वह स्थान सुग्रीवके इस प्रकार पूछनेपर श्रीरामचन्द्रजीकी है, जहाँ सुग्रीवके लिये मैने वालीको मारा था। वीर ! आज्ञासे भरतने लङ्कायात्राकी बात बतायी। तब सुग्रीवने 'वालीकी राजधानी किष्किन्धापुरी यह दिखायी दे रही कहा-'मैं भी आप दोनोंके साथ राक्षसराज विभीषणसे है। इसीमें धर्मात्मा वानरराज सुग्रीव अन्यान्य वानरोंके मिलनेके लिये लङ्कापुरीमें चलूँगा।' सुग्रीवके ऐसा साथ निवास करते हैं।' सुग्रीव उस समय अपने सभा- कहनेपर श्रीरघुनाथजीने कहा-'चलो।' फिर सुग्रीव, भवनमें विराजमान थे। इतनेमें ही भरत और श्रीरामचन्द्रजी श्रीराम और भरत-ये तीनों पुष्पक विमानपर बैठे। किष्किन्धापुरीमें जा पहुँचे। उन दोनों भाइयोंको उपस्थित तुरंत ही वह विमान समुद्रके उत्तर-तटपर जा पहुंचा। देख सुग्रीवने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। फिर उन दोनों उस समय श्रीरामने भरतसे कहा-'यही वह स्थान है, भाइयोंको सिंहासनपर बिठाकर सुग्रीवने अर्घ्य निवेदन जहाँ राक्षसराज विभीषण अपने चार मन्त्रियोंको साथ किया और साथ ही अपने-आपको भी उनके चरणोंमें लेकर प्राण बचानेके लिये मेरे पास आये थे। उसी समय अर्पित कर दिया। इस प्रकार जब परम धर्मात्मा लक्ष्मणने लङ्काके राज्यपर उनका अभिषेक किया था। श्रीरघुनाथजी सभामें विराजमान हुए तब अङ्गद, हनुमान, यहाँ मैं समुद्रके इस पार तीन दिनतक इस आशासे ठहरा नल, नील, पाटल और ऋक्षराज जाम्बवान् आदि सभी रहा कि यह मुझे दर्शन देगा और [सगरका पुत्र होनेके वानर-वीर सेनाओसहित वहाँ आये। अन्तःपुरकी सभी नाते] अपना कुटुम्बी समझकर मेरा कार्य करेगा। किन्तु स्त्रियाँ-रुमा और तारा आदि भी उपस्थित हुई। सबको तबतक इसने मुझे दर्शन नहीं दिया। यह देखकर चौथे अनुपम आनन्द प्राप्त हुआ। सब लोग भगवान्को दिन मैंने बड़े वेगसे धनुष चढ़ाकर हाथमें दिव्यास्त्र ले