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अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
लिया। यह देख समुद्रको बड़ा भय हुआ और वह शरणार्थी होकर लक्ष्मणके पास पहुँचा। सुग्रीवने भी बहुत अनुनय-विनय की और कहा- 'प्रभो! इसे क्षमा कर दीजिये।' तब मैंने वह बाण मरुदेशमें फेंक दिया। इसके बाद समुद्रने मुझसे कहा- 'रघुनन्दन! आप मेरे ऊपर पुल बाँधकर जलराशिसे पूर्ण महासागरके पार चले जाइये।' तब मैंने वरुणके निवास स्थान समुद्रपर यह महान् पुल बाँधा था। श्रेष्ठ वानरोंने मिलकर तीन ही दिनोंमें यह कार्य पूरा किया था। पहले दिन उन्होंने चौदह योजनतक पुल बाँधा, दूसरे दिन छत्तीस योजनतक और तीसरे दिन सौ योजनतकका पूरा पुल तैयार कर दिया। देखो, यह लङ्का दिखायी दे रही है। इसका परकोटा और नगरद्वार—सब सोनेके बने हुए हैं। यहाँ वानरवीरोंने बहुत बड़ा घेरा डाला था। यहाँ नीलने राक्षसश्रेष्ठ प्रहस्तका वध किया था। इसी स्थानपर हनुमानजीने धूम्राक्षको मार गिराया था। यहीं सुग्रीवने महोदर और अतिकायको मौतके घाट उतारा था। इसी स्थानपर मैंने कुम्भकर्णको और लक्ष्मणने इन्द्रजित्को मारा था। तथा यहीं मैंने राक्षसराज दशग्रीवका वध किया था। यहाँ लोकपितामह ब्रह्माजी मुझसे वार्तालाप करनेके लिये पधारे थे। उनके साथ पार्वतीसहित त्रिशूलधारी भगवान् शङ्कर भी थे। हमारे पिता महाराज दशरथ भी स्वर्गलोकसे यहाँ पधारे थे। जानकीकी शुद्धि चाहनेवाले उन सभी लोगोंके समक्ष सीताने इस स्थानपर अग्निमें प्रवेश किया था और वे सर्वथा शुद्ध प्रमाणित हुई थीं। लङ्कापुरीके अधिष्ठाता देवताओंने भी सीताकी अग्नि परीक्षा देखी थी। पिताजीकी आज्ञासे मैंने सीताको स्वीकार किया। उसके बाद महाराजने मुझसे कहाबेटा! अब अयोध्याको जाओ।"
श्रीरामचन्द्रजी जब इस प्रकार बात कर रहे थे, पुष्पक विमान वहीं ठहरा रहा। उसी समय प्रधान प्रधान राक्षसोंने, जो वहाँ उपस्थित थे, तुरंत ही विभीषणके पास जा बड़े हर्षमें भरकर निवेदन किया- 'राक्षसराज सुग्रीवके साथ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी पधारे हैं, उनके साथ उन्हींकी-सी आकृतिवाले एक दूसरे पुरुष भी हैं।'
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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श्रीरामचन्द्रजी नगरके समीप आ गये हैं, यह समाचार सुनकर विभीषणने [प्रिय संवाद सुनानेवाले] उन दूतोंका विशेष सत्कार किया तथा उन्हें धन देकर उनके सभी मनोरथ पूर्ण किये। फिर लङ्कापुरीको सजानेकी आज्ञा देकर वे मन्त्रियोंके साथ बाहर निकले। मेरु पर्वतपर उदित हुए सूर्यकी भाँति भगवान् श्रीरामको विमानपर बैठे देख विभीषणने उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया
और कहा- 'भगवन्! आज मेरा जन्म सफल हुआ, मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो गये; क्योंकि आज मुझे आपके विश्व वन्द्य चरणोंका दर्शन मिला है। इस प्रकार श्रीरघुनाथजीका अभिवादन करके वे भरत और सुग्रीवसे भी गले लगकर मिले। तदनन्तर उन्होंने स्वर्गसे भी बढ़कर सुशोभित लङ्कापुरीमें सबको प्रवेश कराया और सब प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित रावणके जगमगाते हुए भवनमें उन्हें ठहराया जब श्रीरामचन्द्रजी आसनपर विराजमान हो गये, तब विभीषणने अर्घ्य निवेदन करके हाथ जोड़कर सुग्रीव और भरतसे कहा - 'यहाँ पधारे हुए भगवान् श्रीरामको भेंट करने योग्य कोई वस्तु मेरे पास नहीं है। यह लङ्कापुरी तो स्वयं भगवान्ने ही त्रिलोकीके लिये कण्टकरूप पापी शत्रुको मारकर मुझे