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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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लगा। भरपेट उस मोटे-ताजे मुर्देका मांस खाकर वह सोचनेके बाद कहा-'तात ! पृथ्वीपर कुछ दान किये फिर सरोवरमें उतरा और उसकी शोभा निहारकर फिर बिना यहाँ कोई वस्तु खानेको नहीं मिलती। तुमने उस शीघ्र ही स्वर्गकी ओर जाने लगा। उस शोभा-सम्पन्न जन्ममें भिखमंगेको कभी भीखतक नहीं दी। [जब तुम देवोपम पुरुषको ऊपर जाते देख मैंने कहा-'स्वर्ग- राजभवनमें रहकर राज्य करते थे, उस समय भूलसे या लोकके निवासी महाभाग ! [तनिक ठहरो] । मैं तुमसे मोहवश तुम्हारे द्वारा किसी अतिथिको भोजन नहीं मिला एक बात पूछता हूँ-तुम्हारी यह कैसी अवस्था है? है। इसलिये यहाँ रहते हुए भी तुम्हें भूख-प्यासका कष्ट तुम कौन हो? देखनेमें तो तुम देवताके समान जान भोगना पड़ता है। राजेन्द्र ! भाँति-भांतिके आहारोंसे पड़ते हो; किन्तु तुम्हारा भोजन बहुत ही घृणित है। जिसको तुमने भलीभाँति पुष्ट किया था, वह तुम्हारा सौम्य ! ऐसा भोजन क्यों करते हो और कहाँ रहते हैं ?' उत्तम शरीर पड़ा हुआ है; उसीका मांस खाओ, उसीसे
रघुनन्दन ! मेरी बात सुनकर उस स्वर्गवासी पुरुषने तुम्हारी तृप्ति होगी।' हाथ जोड़कर कहा-"विप्रवर ! मेरा जैसा वृत्तान्त है, "ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर मैंने पुनः उनसे निवेदन उसे आप सुनिये। पूर्वकालकी बात है, विदर्भदेशमें मेरे किया-'प्रभो ! अपने शरीरका भक्षण कर लेनेपर भी महायशस्वी पिता राज्य करते थे। वे वसुदेवके नामसे फिर मेरे लिये दूसरा कोई आहार नहीं रह जाता है। त्रिलोकीमें विख्यात और परम धार्मिक थे। उनके दो जिससे इस शरीरकी भूख मिट सके तथा जो कभी स्त्रियाँ थीं। उन दोनोंसे एक-एक करके दो पुत्र हुए। मैं चुकनेवाला न हो, ऐसा कोई भोजन मुझे देनेकी कृपा उनका ज्येष्ठ पुत्र था। लोग मुझे श्वेत कहते थे। मेरे छोटे कीजिये।' तब ब्रह्माजीने कहा-'तुम्हारा शरीर ही भाईका नाम सुरथ था। पिताकी मृत्युके बाद अक्षय बना दिया गया है। उसे प्रतिदिन खाकर तुम पुरवासियोंने विदर्भदेशके राज्यपर मेरा अभिषेक कर तृप्तिका अनुभव करते रहोगे। इस प्रकार अपने ही दिया। तब मैं वहाँ पूर्ण सावधानीके साथ राज्य सञ्चालन शरीरका मांस खाते जब तुम्हें सौ वर्ष पूरे हो जायेंगे, उस करने लगा। इस प्रकार राज्य और प्रजाका पालन करते समय तुम्हारे विशाल एवं दुर्गम तपोवनमें महर्षि अगस्त्य मुझे कई हजार वर्ष बीत गये। एक दिन किसी निमित्तको पधारेंगे। उनके आनेपर तुम संकटसे छूट जाओगे। लेकर मुझे प्रबल वैराग्य हो गया और मैं मरणपर्यन्त राजर्षे ! वे इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं और असुरोंका तपस्याका निश्चय करके इस तपोवनमें चला आया। भी उद्धार करने में समर्थ हैं, फिर तुम्हारे इस घृणित राज्यपर मैंने अपने भाई महारथी सुरथका अभिषेक कर आहारको छुड़ाना उनके लिये कौन बड़ी बात है।' दिया था। फिर इस सरोवरपर आकर मैंने अत्यन्त कठोर भगवान् ब्रह्माजीका यह कथन सुनकर मैं अपने शरीरके तपस्या आरम्भ की। अस्सी हजार वर्षांतक इस वनमें मांसका घृणित भोजन करने लगा। विप्रवर ! यह कभी मेरी तपस्या चालू रही। उसके प्रभावसे मुझे भुवनोंमें नष्ट नहीं होता तथा इससे मेरी पूर्ण तृप्ति भी हो जाती है। सर्वश्रेष्ठ कल्याणमय ब्रह्मलोककी प्राप्ति हुई। किन्तु वहाँ न जाने कब वे मुनि इस वनमें आकर मुझे दर्शन देंगे, पहुँचनेपर मुझे भूख और प्यास अधिक सताने लगी। यही सोचते हुए मुझे सौ वर्ष पूरे हो गये हैं। ब्रह्मन् ! मेरी इन्द्रियाँ तलमला उठीं। मैंने त्रिलोकीके सर्वश्रेष्ठ अब अगस्त्य मुनि ही मेरे सहायक होंगे, यह बिलकुल देवता ब्रह्माजीसे पूछा-'भगवन् ! यह लोक तो भूख निश्चित बात है।" और प्याससे रहित सुना गया है; यह मुझे किस कर्मका राजा श्वेतका यह कथन सुनकर तथा उनके उस फल प्राप्त हुआ है कि भूख और प्यास यहाँ भी मेरा घृणित आहारपर दृष्टि डालकर मैंने कहा-'अच्छा, तो पिण्ड नहीं छोड़ती? देव ! शीघ्र बताइये, मेरा आहार तुम्हारे सौभाग्यसे मैं आ गया, अब निःसन्देह तुम्हारा क्या है?' महामुने! इसपर ब्रह्माजीने बहुत देरतक उद्धार करूँगा।' तब वे मुझे पहचानकर दण्डकी भांति