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• अर्चयस्य तुषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
दिखायी दिया। रघुनाथजीने देखा उस सरोवरके तटपर एक तपस्वी नीचा मुँह किये लटक रहा है और बड़ी कठोर तपस्या कर रहा है। भगवान् श्रीराम उस तपस्वीके पास जाकर बोले- 'तापस! मैं दशरथका पुत्र राम हूँ और कौतूहलवश तुमसे एक प्रश्न पूछता हूँ। मैं यह जानना चाहता हूँ, तुम किसलिये तपस्या करते हो, ठीक-ठीक बताओ तुम ब्राह्मण हो या दुर्जय क्षत्रिय ? तीसरे वर्णमें उत्पन्न वैश्य हो या शूद्र ? तपस्या सत्यस्वरूप और नित्य है। उसका उद्देश्य है-स्वर्गादि उत्तम लोकोंकी प्राप्ति । तप सात्त्विक, राजस और तामस तीन प्रकारका होता है। ब्रह्माजीने जगत्के उपकारके लिये तपस्याकी सृष्टि की है। [अतः परोपकारके उद्देश्यसे किया हुआ तप 'सात्त्विक' होता है; ] क्षत्रियोचित तेजकी प्राप्तिके लिये किया जानेवाला भयङ्कर तप 'राजस' कहलाता है तथा जो दूसरोंका नाश करनेके लिये [ अपने शरीरको अस्वाभाविक रूपसे कष्ट देते हुए तपस्या की जाती है, वह 'आसुर' (तामस) कही गयी है। तुम्हारा भाव आसुर जान पड़ता है; तथा मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुम द्विज नहीं हो।'
अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीरघुनाथजीके उपर्युक्त वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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शूद्र उसी अवस्थामें बोला- 'नृपश्रेष्ठ ! आपका स्वागत है। रघुनन्दन। चिरकालके बाद मुझे आपका दर्शन हुआ है। मैं आपके पुत्रके समान हूँ, आप मेरे लिये पिताके तुल्य हैं। क्योंकि राजा तो सभीके पिता होते हैं। महाराज! आप हमारे पूजनीय हैं। हम आपके राज्यमें तपस्या करते हैं; उसमें आपका भी भाग है। विधाताने पहलेसे ही ऐसी व्यवस्था कर दी है। राजन् ! आप धन्य हैं, जिनके राज्यमें तपस्वीलोग इस प्रकार सिद्धिकी इच्छा रखते हैं। मैं शूद्रयोनिमें उत्पन्न हुआ हूँ और कठोर तपस्यामें लगा हूँ। पृथ्वीनाथ! मैं झूठ नहीं बोलता; क्योंकि मुझे देवलोक प्राप्त करनेकी इच्छा है। काकुत्स्थ ! मेरा नाम शम्बूक है।'
वह इस प्रकार बातें कर ही रहा था कि श्रीरघुनाथजीने म्यानसे चमचमाती हुई तलवार निकाली और उसका उज्ज्वल मस्तक धड़से अलग कर दिया। उस शूद्रके मारे जानेपर इन्द्र और अग्नि आदि देवता 'साधु-साधु' कहकर बारम्बार श्रीरामचन्द्रजीकी प्रशंसा करने लगे। आकाशसे श्रीरामचन्द्रजीके ऊपर वायु देवताके छोड़े हुए दिव्य फूलोंकी सुगन्धभरी वृष्टि होने लगी। जिस क्षण यह शूद्र मारा गया, ठीक उसी समय वह बालक जी उठा ।
* महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा पुलस्त्यजी कहते हैं— तदनन्तर देवतालोग अपने बहुत-से विमानोंके साथ वहाँसे चल दिये। श्रीरामचन्द्रजीने भी शीघ्र ही महर्षि अगस्त्यके तपोवनकी ओर प्रस्थान किया। फिर श्रीरघुनाथजी पुष्पक विमानसे उतरे और मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यको प्रणाम करनेके लिये उनके समीप गये।
श्रीराम बोले- मुनिश्रेष्ठ ! मैं दशरथका पुत्र राम आपको प्रणाम करनेके लिये सेवामें उपस्थित हुआ हूँ। आप अपनी सौम्य दृष्टिसे मेरी ओर निहारिये ।
इतना कहकर उन्होंने बारम्बार मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया और कहा- 'भगवन्! मैं शम्बूक नामक शूद्रका वध करके आपका दर्शन करनेकी इच्छासे यहाँ
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आया हूँ कहिये, आपके शिष्य कुशलसे हैं न ? इस वनमें तो कोई उपद्रव नहीं है ?'
अगस्त्यजी बोले – रघुश्रेष्ठ ! आपका स्वागत है। जगद्वन्द्य सनातन परमेश्वर! आपके दर्शनसे आज मैं इन मुनियोंसहित पवित्र हो गया। आपके लिये यह अर्घ्य प्रस्तुत है, इसे स्वीकार करें। आप अपने अनेकों उत्तम गुणोंके कारण सदा सबके सम्मानपात्र हैं। मेरे हृदयमें तो आप सदा ही विराजमान रहते हैं, अतः मेरे परम पूज्य हैं। आपने अपने धर्मसे ब्राह्मणके मरे हुए बालकको जिला दिया। भगवन्! आज रातको आप यहाँ मेरे पास रहिये। महामते। कल सबेरे आप पुष्पक विमानसे अयोध्याको लौट जाइयेगा। सौम्य ! यह