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अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
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[ संक्षिप्त पद्मपुराण
यज्ञोंकी सृष्टि की है। उन सबमें इतने ही ब्राह्मण ऋत्विज् जितना हो सके दान देना चाहिये।
ब्रह्माजीके यज्ञमें देवर्षि नारदको ब्रह्मा बनाया गया। गौतम ब्राह्मणाच्छंसी हुए। देवरातको पोता और देवलको आग्नीधके पदपर प्रतिष्ठित किया गया। अङ्गिराका उद्गाताके रूपमें वरण हुआ। पुलह प्रस्तोता बनाये गये। नारायण ऋषि प्रतिहर्ता हुए और अत्रि सुब्रह्मण्य कहलाये। उस यज्ञमें भृगु होता, वसिष्ठ मैत्रावरुणि, क्रतु अच्छावाक तथा च्यवन ग्रावस्तुत बनाये गये। मैं ( पुलस्त्य) अध्वर्यु था और शिबि प्रतिष्ठाता। बृहस्पति नेष्टा, सांशपायन उन्नेता और अपने पुत्र-पौत्रोंके साथ धर्म सदस्य थे। भरद्वाज, शमीक, पुरुकुत्स्य, युगन्धर, एणक, ताण्डिक, कोण, कुतप, गार्ग्य और वेदशिरा - ये दस चमसाध्वर्यु बनाये गये। कण्व आदि अन्य महर्षि तथा मार्कण्डेय और अगस्त्य मुनि अपने पुत्र, पौत्र, शिष्य तथा बान्धवोंके साथ उपस्थित होकर रात-दिन आलस्य छोड़कर उस यज्ञमें आवश्यक कार्य किया करते थे। मन्वन्तर व्यतीत होनेपर उस यज्ञका अवभृथ (यज्ञान्त-स्नान) हुआ। उस समय ब्रह्माको पूर्व दिशा, होताको दक्षिण दिशा, अध्वर्युको पश्चिम दिशा और उद्वाताको उत्तर दिशा दक्षिणाके रूपमें दी गयी ब्रह्माजीने समूची त्रिलोकी ऋत्विजोंको दक्षिणाके रूपमें दे दी। बुद्धिमान् पुरुषोंको यज्ञकी सिद्धिके लिये एक सौ दूध देनेवाली गौएँ दान करनी चाहिये। उनमेंसे यज्ञका निर्वाह करनेवाले प्रथम समुदायके ऋत्विजोंको अड़तालीस, द्वितीय समुदायवालोंको चौबीस, तृतीय समुदायको सोलह और चतुर्थ समुदायको बारह गौएँ देनी उचित हैं। इस प्रकार आग्नीध आदिको दक्षिणा देनी चाहिये। इसी संख्यामें गाँव, दास-दासी तथा भेड़ बकरियाँ भी देनी चाहिये। अवभृथ स्नानके बाद ब्राह्मणोंको षट्स भोजन देना चाहिये। स्वायम्भुव मनुका कथन है कि यजमान यज्ञके अन्तमें अपना सर्वस्व दान कर दे। अध्वर्यु और सदस्योंको अपनी इच्छाके अनुसार
बतलाये गये हैं। कोई-कोई ऊपर बताये हुए ऋत्विजोंके तदनन्तर देवाधिदेव ब्रह्माजीने भगवान् श्रीविष्णुके अतिरिक्त एक सदस्य और दस चमसाध्वर्युओंका साथ यज्ञान्त-स्नानके पश्चात् सब देवताओंको वरदान निर्वाचन चाहते हैं। दिये। उन्होंने इन्द्रको देवताओंका सूर्यको ग्रहोंसहित समस्त ज्योतिर्मण्डलका, चन्द्रमाको नक्षत्रोंका, वरुणको रसोंका, दक्षको प्रजापतियोंका, समुद्रको नदियोंका, धनाध्यक्ष कुबेरको यक्ष और राक्षसोंका, पिनाकधारी महादेवजीको सम्पूर्ण भूतगणोंका, मनुको मनुष्योंका, गरुड़को पक्षियोंका तथा वसिष्ठको ऋषियोंका स्वामी बनाया। इस प्रकार अनेकों वरदान देकर देवाधिदेव ब्रह्माजीने भगवान् विष्णु और शङ्करसे आदरपूर्वक कहा- आप दोनों पृथ्वीके समस्त तीर्थोंमें परम पूजनीय होंगे। आपके बिना कभी कोई भी तीर्थ पवित्र नहीं होगा। जहाँ कहीं शिवलिङ्ग या विष्णुकी प्रतिमाका दर्शन होगा, वही तीर्थ परम पवित्र और श्रेष्ठ फल देनेवाला हो सकता है। जो लोग पुष्प आदि वस्तुओंकी भेंट चढ़ाकर आपलोगोंकी तथा मेरी पूजा करेंगे, उन्हें कभी रोगका भय नहीं होगा। जिन राज्योंमें मेरा तथा आपलोगोंका पूजन आदि होगा, वहाँ भी क्रियाएँ सफल होंगी तथा और भी जिन-जिन फलोंकी प्राप्ति होगी, उन्हें सुनिये । वहाँकी प्रजाको कभी मानसिक चिन्ता, शारीरिक रोग, दैवी उपद्रव और क्षुधा आदिका भय नहीं होगा। प्रियजनोंसे वियोग और अप्रिय मनुष्योंसे संयोगकी भी सम्भावना नहीं होगी।' यह सुनकर भगवान् श्रीविष्णु ब्रह्माजीकी स्तुति करनेको उद्यत हुए।
भगवान् श्रीविष्णु बोले- जिनका कभी अन्त नहीं होता, जो विशुद्धचित्त और आत्मस्वरूप हैं, जिनके हजारों भुजाएँ हैं, जो सहस्त्र किरणोंवाले सूर्यकी भी उत्पत्तिके कारण हैं, जिनका शरीर और कर्म दोनों अत्यन्त शुद्ध हैं, उन सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीको नमस्कार है। जो समस्त विश्वकी पीड़ा हरनेवाले, कल्याणकारी, सहस्रों सूर्य और अग्निके समान प्रचण्ड तेजस्वी, सम्पूर्ण विद्याओंके आश्रय, चक्रधारी तथा समस्त ज्ञानेन्द्रियोंको व्याप्त करके स्थित हैं, उन परमेश्वरको सदा नमस्कार है। प्रभो! आप अनादि देव हैं। अपनी महिमासे कभी च्युत