Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 17 Jivajivabhigam Mool evam Vrutti Part 2
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमनमो नमो निम्मलदसणस्स म भाग 23 पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नम: सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि 17 आगम १४ “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं वृत्ति: [2] मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा। ~1~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा TAN जासतानाAAABागमा AAHENA HEORIEO EHINDISORomsontesta 424 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13TISTR SISTER आगम CATE आ नमो नमो निम्मलदंसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक SEIT आगम पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आजम अभिनव-संकलनकर्ता ~3~ Surger आगम आका आगम 21FOTIE आगम दिवाकर मुनिश्री दीपत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि ] TOTH आजम प्रत- प्राप्ति और पेज- सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम वाचना शताब्दी वर्ष माजी व ਕਸ ਦੇ ਸਮਾਗਮ ਵਲ ਵਧ ਰਹੇ ਤੇ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-१७] श्री जीवाजीवाभिगम ( उपांगसूत्रम्-३/२) नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “जीवाजीवाभिगम” मूलं एवं वृत्तिः (भाग - २) [मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः] [आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुनः संकलनकर्ता → मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.श्रुतमहर्षि) 'सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-१७ 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ श्री आगमोद्धारक-वाचना- शताब्दी वर्ष निमित्त 'आगम म-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट' ~5~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब | .जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी । गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। .चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए। .एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्यक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया : || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | .सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का | • भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। | .ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं। को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | . सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"... ......मुनि दीपरत्नसागर... - .. - .. - .. - .. - .. - .. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालने हो ... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हए तिसरे गच्छाधिपति थे पज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसरीश्वरजी. जो एक | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवन में देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी । भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना : | कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण : बारबार चालु हो गया- “ अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ... मुनि दीपरत्नसागर..... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजयगिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और । शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां ४० : | समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णो के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण के | : शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है। ... मुनि दीपरत्नसागर... . . - . . - . . - . . - . . - . . - . . - .. - .. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. . ____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे। समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते : है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय | मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है। समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का : वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने | जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय : दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है। ... मुनि दीपरत्नसागर [कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यास, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-.. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [-] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) - उद्देशक: [-], मूलं [-] प्रतिपत्ति: [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः NANANIANIANIANIANIANIANIANIARIANANIA: श्रेष्ट देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाः ५०. श्रीनीयाङ्गसंबद्ध श्रीमनि शिष्यपूर्वपरविरचितं श्रीमन्मलयगिर्याचार्यसूत्रितविवरणयुतं- श्रीमजीवाजीवाभिगमोपाङ्ग. -430 सेकः-शाह नगनभाई घेलाभाई जव्हेरी, अस्यैकः कार्याः । इदं पुस्तकं मुम्बय्यां-शाह नगीनभाई घेलाभाई जव्हेरी, ४२६ जरी बाजार इत्यनेन निर्णयसागरचन्त्रालये कोलभादवीच्या २३ तमे आलये रामचंद्र येमू शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम्. [ अम्य पुनर्मुद्रणायाः सर्वेऽधिकाराः स्वायत्ताः ] वीरसंवत् २४४९ 1415. विक्रस्य १९७५ मूल्यं ३-४-० terror as: 1000 ] जीवाजीवाभिगम ( उपांग) सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" ANUNUNUNUNINA For P&P [Rs. 3-4-0 ~9~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० मूलाका: २७२+९३ गाथा:] जीवाजीवाभिगम (उपांग) सत्रस्य विषयानक्रम दीप-अनुक्रमा: ३९८ मूलांक: विषय: | पृष्ठांक: । । मूलांक: | विषय: पृष्ठांक: । मूलांक: विषय: पृष्ठांक: ००१ | प्रथमा- विविधा प्रतिपत्ति १४० मनुष्याधिकार: ३२४ वैमानिक देवाधिकार: ३१९ जीवाभिगमस्य द्विविधे भेदे | मनुष्यस्य वैविध्यं उद्देशक: । एवं २ ३१९ + अजीवाभिगमस्य दविविधेभेदे | एकोरुकद्वीप-वर्णनं, आभासिक सौधर्मादिकल्पस्य विमानानि, | पृथिव्यादि जीवानाम् वर्णनं | आदि द्विपस्य स्थानादि वर्णनं | बाहल्यं, संस्थानं, उच्चत्वं, ०५२ | वितिया- त्रिविधा प्रतिपत्ति १५२ | देवाधिकार; वर्ण, प्रभा,गन्ध: स्पर्शः,रचना | संसारिजीवानाम त्रैविध्यं| देवानाम् चतुर्विधत्वं भवनवासी सौधर्मादि देवानाम संघयणं, --स्त्री, पुरुषः, नपुंसकम् | देवानाम् भवनं, पर्षदा, देव-देवी संस्थानं, वर्णादिः, पुदगल:, तृतीया- चतुर्विधा प्रतिपत्ति | संख्या, स्थिति:, व्यंतर-वर्णनं आहार,अवधिज्ञानं, समुदघात | नैरयिका: उदेशक: १ द्वीप-समुद्रः वेदना, ऋद्धिः, काम-भोग:, | नैरयिकस्य नाम्नं एवं गोत्रं स्थानं. संख्या, संस्थानं, जम्बू गत्यागति:, स्थिति: नरक-वर्णनं, नरकावासे गति द्वीपस्य वर्णनं, विजयदेवस्य- ०१२ । | ३४४ | चतुर्थी- पञ्चविधा प्रतिपत्ति | ३६३ |-आगति, नरकस्य अल्पबहत्व | अधिकार:, सुधर्मा आदि सभा:, ससारिजीवस्य पञ्चविधत्व । | नैरयिका: उदेशक: २ + ३ लवणसमुद्र-वर्णनं, जंबूद्वीपस्य ३४६ पञ्चमी- षडविधा प्रतिपत्ति | नरकस्य नाम्नं-आकार: , - अन्तर्गत दवीपस्य अधिकार: | संसारिजीवस्य षविधत्वं |-वेदना, संस्थानं, वर्ण, गन्धं, | धातकीखण्ड-कालोदसमुद्र-पुष्कर ३६५ षष्ठी- सप्तविधा प्रतिपत्ति | -स्पर्श, पुदगल:, संहननं, | वरद्वीप-मानुषोत्तरपर्वत आदि संसारिजीवस्य सप्तविधत्वं | -आहार, लेण्या, ज्ञानं, अज्ञानं | द्वीप-समुद्रानाम् अधिकार: | सप्तमी अष्टविधा प्रतिपत्ति | -योग, उपयोग, इत्यादि. | इन्द्रियविषयाधिकार: २९४ संसारिजीवस्य अष्टविधत्वं | तिर्यञ्चयोनिक: उदेशक: १. | पञ्च-इन्द्रियस्य विषया: ३६७ अष्टमी नवविधा प्रतिपत्ति | ४१० तिर्यञ्चयोनिकजीवानाम् भेदा: ३०७ ज्योतिष्क उद्देशक: ३०३ | संसारिजीवस्य नवविधत्वं | तिर्यञ्चयोनिक: उदेशक: २ | देवगति, वैक्रियशक्ति:, चन्द्र | -3०५ ३६८ नवमी- दशविधा प्रतिपत्ति |-संसारिजीवानाम् षविधत्वं | सूर्यपरिवारः, ज्योतिष्कदेवस्य | संसारिजीवस्य दशविधत्वं -पृथ्वीजीवानाम् षविधत्वं गतिक्षेत्र:, अन्तरं, नक्षत्रवर्णनं ३६९ | सर्वजीव-प्रतिपत्ति ४१९ | जीवानाम् संस्थिति-कालादिः संस्थानं,अग्रमहिषी,अल्पबहत्व | (अन्तर) प्रतिपत्ति २ - १० पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ३६९ ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['जीवाजीवाभिगम' - मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “जीवाजीवाभिगम सूत्रम्" के नामसे सन १९१९ (विक्रम संवत १९७५) में देवचंद्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धार द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी ) महाराज साहेब | हमारा ये प्रयास क्यों? इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमद्सागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर प्रतिपत्ति, उद्देशक, मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौन सी प्रतिपत्ति, उद्देशक, मूलसूत्रादि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || || ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है । हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक प्रतिपत्ति, उद्देशक, मूलसूत्र आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म०सा० की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये ‘सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग - १७ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है | ..... मुनि दीपरत्नसागर. ~11~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * - % श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः *- प्रत सूत्रांक [१३९] *- ३ प्रतिपत्तो मनुष्या० सिद्धायतनाधि *- | उद्देशः२ ॥२३२॥ -* सू०१३९ दीप अनुक्रम [१७७] -- सत्र-१३९ सभाए णं सुधम्माए उत्तरपुरस्थिमेणं एस्थ णं एगे महं सिद्धायतणे पपणत्ते अडतेरस जोयणाई आयामेणं छजोयणाई सकोसाइं विक्खंभेगं नव जोयणाई उहूं उपत्तेणं जाव गोमाणसिया बत्तब्बया जा चेव सहाए सुहम्माए बत्तव्बया सा चेव निरवसेसा भाणियब्बा तहेव दारा मुहमंडवा पेच्छाघरमंडवा झया धूभा चेइयरक्खा महिंदज्झया गंदाओ पुक्खरिणीओ, तंओ य सुधम्माए जहा पमाणं मणगुलियाण गोमाणसीया धूवयघडि ओ तहेव भूमिभागे उल्लोए य जाच मणिफासे ॥ तस्सणं सिद्धायतणस्स बहुमझदेसमाए एत्य णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेगं सब्वमणिमयी अच्छा०, तीसे णं मणिपेढियाए उपि एत्थ एगे मार देवच्छेदए पपणत्ते दो जोवणाई आयामविखंभेणं साइरेगाई दो जोयणाई उहूं उच्चत्तेणं सव्वरयणामए अच्छे ॥ तस्थ णं देवच्छेदए अट्ठसतं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्पमाणमेत्ताणं संणिखित्तं चिट्टा ॥ तासि णं जिणपडिमाणं अवमेयारवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहातवणिजमता हत्धतला अंकामयाईणक्खाई अंतोलोहियक्वपरिसेयाई कणगमया पादा कणगामया गोप्फा कणगामतीओ जंघाओ कणगामया जाणू कणगामया ऊरू कणगामयाओ गायलट्ठीओ तवणिजमतीओ णाभीओ रिट्ठामतीओ रोमरातीओ तवणिजमया चुचुया तवणिजमता सिरिवच्छा कणगमयाओ बाहाओ कणगमईओ पासाओ कणगमतीओ गीवाओ रिहामते मंसु 44-4-NCRACHA -*-- --- ॥२३२॥ -- Jaticiandi अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् अत्र द्वितीय भागे द्वीप-समुद्र अधिकारे सूत्र-१३९ आरभ्यते, तन्मध्ये सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकारः वर्तते ~12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -15 प्रत सूत्रांक [१३९] सिलप्पवालमया उट्ठा फलिहामया दंता तवणिजमतीओ जीहाओ तवणिजमया तालुया कणगमतीओ णासाओ अंतोलोहितक्खपरिसेयाओ अंकामयाई अच्छीणि अंतोलोहितक्खपरिसेताई पुलगमतीओ दिट्ठीओ रिट्ठामतीओ तारगाओ रिट्ठामयाई अच्छिपत्ताई रिहामतीओ भमुहाओ कणगामया कवोला कणगामया सवणा कणगामया णिडाला वहा बहरामतीओ सीसघडीओ तवणिजमतीओ केसंतकेसभूमीओ रिटामया उवरिमुद्धजा । तासिणं जिणपडिमाणं पिट्टतो पत्तयं पसेयं छत्तधारपडिमाओ पपणत्ताओ, ताओ णं छत्तधारपडिमाओ हिमरततकदंदसप्पकासाई सकोरेंटमल्लदामचलाई आतपत्तातिं सलीलं ओहारमाणीओ चिट्ठति ॥ तासि णं जिणपडिमाणं उभओ पासिं पत्तेयं पत्तेयं चामरधारपडिमाओ पन्नत्ताओ. ताओ गं चामरधारपडिमाओ चंदप्पहवहरवेरुलियनाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिज्जुजलविचित्तदंडाओ चिल्लियाओ संखककुंददगरयअमतमथितफेणपुंजसपिणकासाओ सुहमरयतदीहवालाओ धवलाओ चामराओ सलीलं ओहारेमाणीओ चिटुंति ॥ तासि णं जिणपडिमाणं पुरतो दो दो नागपडिमाओ दो २ जक्खपडिमाओ दो २ भूतपडिमाओ दो २ कुंडधारपडिमाओ विणओणयाओ पायवडियाओ पंजलिउडाओ संणिक्वित्ताओ चिट्ठति सव्वरयणामतीओ अच्छाओ सहाओ लण्हाओ घटाओ मट्ठाओ णीरयाओ णिप्पकाओ जाव पडिरूवाओ॥ तासिणं - 10- 28-%-54- दीप अनुक्रम [१७७] 2F%2561 2-24-28 %D सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकार: ~13 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [१३९] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥२३३॥ SC- C+ C दीप अनुक्रम [१७७] जिणपडिमाणं पुरतो अहसतं घंटाणं असतं चंदणकलसाणं एवं अट्ठसतं भिंगारगाणं एवं ३ प्रतिपत्तो आयंसगाणं थालाणं पातीणं सुपतिट्टकाणं मणगुलियाणं वानकरगाणं चित्ताणं रपणकरंडगाणं मनुष्या० हयकंठगाणं जाव उसकंटगाणं पुष्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुष्फपडलगाणं अट्ठसयं सिद्धायततेल्लसमुग्गाणं जाव धूवगडच्छुयाणं संणिखितं चिट्ठति ॥ तस्स णं सिद्धायतणस्स णं उप्पि नाधि० बहवे अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता उत्तिमागारा सोलसविहेहिं रयणेहिं उवसोभिया उद्देशः२ तंजहा-यणेहिं जाब रिटेहिं ।। (म०१३९) सू०१३९ 'सभाए मिलयादि, सभायाः सुधाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञतम् , अर्द्धवयोदश योजनान्यायामेन पट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भतो नव योजनान्यू ई मुचैस्वेनेत्यादि सर्व सुधविद्वक्तव्यं यावद् गोमानसीवक्तव्यता, तथा चाह--- हाजा चेव सभाए सुधम्माए वनव्वया सा चेव निरवसेसा भाणियवा जाव गोमाणसियाओ' इनि, फिमुक्तं भवति ?-यथा सुध-| आया: सभायाः पूर्वदक्षिणोत्तरवर्तीनि त्रीणि द्वाराणि, तेषां च द्वाराणां पुरतो मुखमण्डपाः, तेषां च मुखमण्डपानां पुरतः प्रेक्षागृह-| मण्डपाः, तेषां च प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतश्चैत्यस्तूपाः सप्रतिमाः, तेषां च चैत्यस्तूपानां पुरतश्चैत्यवृक्षाः, तेषां च चैत्यक्षाणां पुरतो महेन्द्रध्वजाः, तेषां च महेन्द्रध्वजानां पुरतो नन्दापुष्करिण्य उक्ताः, तदनन्तरं च सभायां सुधर्मायां षड् गुलिकासहस्राणि षड् गो-18 मानसीसहस्राण्यप्युक्तानि तथाऽत्रापि सर्वमनेनैव क्रमेण निरवशेष वक्तव्यम् , उल्लोकवर्णनं बहुसमरमणीयभूमिभागवर्णनमपि तथैव ।। तस्स णमित्यादि, तस्य (सिद्धायतनस्य ) बहुसमरमणीयस्य भूनिभागख वहुमध्यदेशभाने अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता दे K ॥३३॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकार: ~14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [१३९] योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनमेकं बाहल्येन सर्वमणिमयी अच्छा इत्यादि प्राग्वत् । तस्यान मणिपीठिकाया उपरि अत्र महानेको देवच्छन्दकः प्रज्ञप्तः सातिरेके द्वे योजने कई मुनेस्त्वेन द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां सर्वात्मना रत्नमया अक्छा इत्यादि प्राग्वत् ।। 'तत्थ णमित्यादि, तत्र देवच्छन्दके 'अष्टशतम् अष्टाधिकं शतं जिनप्रतिमानां जिनोत्सेधप्रमाणमात्राणां पञ्चधनुःशतप्रमाणानामिति भावः सन्निक्षि तिष्ठति ।। 'तासि णं जिणपडिमाण'मियादि, तासां जिनप्रतिमानामय मेतकूपो 'वर्णावासः' वर्णकनिवेश: प्रशमः, तपनीयमयानि हस्ततलपाइतलानि 'अङ्कमयाः' अङ्करत्नमया अन्त:-मध्ये लोहिताक्षरनप्रतिपेका नखाः, कनकमग्यो। जङ्गाः, कनकमयानि जानृनि, कनकमया ऊरवः, कनकमय्यो गात्रयष्टयः, तपनीयमया नाभयः, रिष्ठरत्रमय्यो रोमराजयः, तपनीयमया: 'चुचकाः' स्तनाग्रभागाः, तपनीयमयाः श्रीवृक्षाः (वत्साः) "शिलाप्रवालमयाः' विठुममया ओष्ठाः, स्फटिकमया दन्ताः। मनीयमथ्यो जिह्वाः, तपनीयमयानि तालुकानि, कनकमव्यो नासिका: अन्तर्लोहिताक्षरत्नप्रतिसेकाः, अङ्कमयानि अक्षीणि अन्तलोंहिताक्षप्रतिसेकानि. रिटरनमयोऽक्षिमध्यगतास्तारिकाः, रिटरनमयानि अक्षिपत्राणि, रिष्ठरत्नमय्यो ध्रुवः, कनकमयाः कपोला: कनकमयाः श्रवणा: कनकमय्यो ललाटपट्टिकाः, बञ्चमय्यः शीर्यपदिकाः. तपनीयमव्यः केशान्तकेशभूमयः, केशानामन्तभूमयः केशभू-17 मयश्चेति भावः, रिटमया उपरि मूर्वजा:-केशाः, तासां जिनप्रतिमान पृष्ठत एकैका छत्रधरप्रतिमा हेमरजतकुन्देन्दु (समान) प्रकाश सकोरिंदमाल्यदामधवलमातपत्रं गृहीला सलीलं धरन्ती तिष्ठति | 'तासि ण जिणपडिमाण मित्यादि, तासां जिनप्रतिमानां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोढ़े द्वे चमरधारप्रतिमे प्रज्ञप्ते, 'चंदप्पभवइरवेरुलियनाणामणिरयणखचितदंडाओ' इति चन्द्रप्रभ:-चन्द्रकान्तो वत्रं वैडूर्य च प्रतीतं चन्द्रप्रभवनवैडूर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु दण्डेषु ते तथा, एवंरूपाश्चिना:-नानाप्र दीप अनुक्रम [१७७] -- *- * सिद्धायतन अधिकार:, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकार: ~15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३९] दीप अनुक्रम [१७७] श्रीजीवा- कारा दण्डा येषां तानि तथा, सूत्रे स्त्रीवं प्राकृतवान्, 'सुहुमरययदीहवालाओ' इति सूक्ष्मा:-लक्ष्णा रजवस-रजतम्या वाला प्रतिपत्तौ जीवाभियेषां तानि तथा, 'संखंककुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निकासाओ धवलाओ चामराओ' इति प्रतीतं चामराणि गृहीत्वा सलील मनुष्या० मलयगि-18वीजयन्त्यतिप्ठन्ति ॥ तासि णमित्यादि, तासां जिनप्रतिमानां पुरतो वे द्वे नागप्रतिमे वेडे यक्षप्रतिमे दे भूतप्रतिमे द्वे || सिद्धायतरीयावृत्तिःकुण्डधारप्रतिमे संनिक्षिमे तिष्ठतः, ताश्च 'सम्बरयणामईओ अच्छाओं' इत्यादि प्रावत् ।। 'तत्थ णमित्यादि, तस्मिन्' देवच्छन्दके नवर्णन जिनप्रतिमानां पुरतोऽशतं घण्टानामष्टशतं चन्दन कलशानामष्टशनं भृङ्गाराणामष्टशतभादर्शानामष्टशतं स्थालानामष्टशतं पात्रीणामष्ट- उद्देशः२ ॥२३४॥ शतं सुप्रतिष्ठानामष्टशतं मनोगुलिकानां-पीठिकाविशेषरूपाणामष्टशतं वातकर काणामष्टशतं चित्राणां रत्नकरण्डकाणामष्टश हुवक-IRIT१३९ ण्ठानामष्टशतं गजफण्ठानामष्टशतं मरकण्ठानामष्टशतं किंनरकण्ठानामष्टशतं किंपुरुषकण्ठानामष्टशतं महोरगकण्ठानामष्टशतं गन्धर्व कण्ठानामष्टशतं वृपभकण्ठानामष्टशतं पुष्पचङ्गेरीणामष्टशतं माल्यचङ्गेरीणामष्टशतं चूर्गचङ्गेरीगामष्टशतं गन्धचङ्गेरीणामष्टशतं वस्त्रचनेहरीणामष्टशतमाभरणचङ्गेरीणामष्टशतं लोन स्तचझरीणां लोमहस्तका-मयूरपिच्छपुश्चनिकाः अष्टशतं पुष्पपटल कानामष्टशतं माल्यभोपटलकानां मुत्कलानि पुष्पाणि प्रथितानि माल्यानि अष्टशतं चूर्णपटलकानाम् , एवं गन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थलोमहस्त कपटल कानामपि प्रत्येक प्रत्येकमष्टशतं वक्तव्यम् , अष्टशतं सिंहासनानाभष्टशतं छत्राणामष्टशतं चामराणामष्टशतं तैलसमुद्कानामष्टशतं कोष्ठसमुकानामष्टशतं चोयकसमुद्रकानामष्टशतं वगरसमुद्कानामष्टशतमेलासमुद्गकानामष्टशतं हरितालसमुद्रकानामष्टशतं हिङ्गुलकसमुद्कानामष्टशतं मनःशिलासमुद्रकानामष्टशतं अंजनसमुद्रकानां, सर्वाण्यप्येतानि लादीनि परमसुरभिगन्धोपेतानि द्रष्टव्यानि, अष्टशतं N ||२३४॥ ध्वजानाम् , अत्र सङ्ग्रहणिगाथे-बंदणकलसा भिंगारगा य आयंसगा य थाला यापाईओ सुपइट्ठा मणगुलिया बायकरगा य ॥१॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकार: ~16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: A% A प्रत सूत्रांक [१३९] %ACY 5 % दीप अनुक्रम [१७७] चित्ता रयणकरंडा हयगयनरकंठगा य चंगेरी । पडला सिंहासणछत्तचामरा समुग्गयक(जु)या य ॥ २ ॥" अष्टशतं धूपकडुच्छुकानां संनिक्षिप्तं तिष्ठति ॥ 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य सिद्धायतनस्य उपरि अष्टावष्टी मालकानि, बजरछनालिछत्रादीनि तु प्राग्वत् ॥ तस्स णं सिद्धाययणस्स णं उत्तरपुरस्थिमेणं एस्थ णं एगा महं उववायसभा पणत्ता जहा सुधम्मा तहेब जाव गोमाणसीओ उपवायसभाएवि दारा मुहमंडवा सव्वं भूमिभागे तहेव जाव मणिफासो (सुहम्मासभावत्तब्वया भाणियचा जाव भूमीए फासो)॥ लस्म णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमजादेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेडिया पणत्ता जोयणं आयामविक्खंभेणं अहजोयणं पाहल्लेणं सब्वमणिमती अच्छा, नीसे णं मणिपेढियाए उपि एस्थ णं एगे महं देवसयणिजे पण्णत्ते, तस्मण देवसयणिजस्स वण्णओ, उववायसभाए णं उपि अट्ठमंगलगा झया छत्तातिछत्ता जाव उत्तिमागारा, तीसे गं उववायसभाए उत्तरपुरच्छिमेणं एस्थ णं एगे महं हरए पण्णते, से णं हरए अतेरसजोयणाई आयामेणं छकोसाति जोयणाई विक्खभेणं दस जोयणाई उब्वेहेणं अच्छे सण्हे वणओ जहेब गंदाणं पुक्वरिणीणं जाव तोरणवपणओ, तस्स णं हरतस्स उत्सरपुरथिमेणं एत्थ णं एगा महं अभिसेयसभा पणत्ता जहा सभासुधम्मा तं चेव निरवसेसं जाव गोमाणसीओ भूमिभाए उल्लोए तहेव ॥ तस्स बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एस्थ ण एगा महं मणिपेढिया पपणत्ता जोयणं आयामविक्खंभेणं 82%25 EKHESASRECE जीच०४० Jaicom सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकार: ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रतिपत्ती प्रत सूत्रांक [१४० श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः तिर्यगधि| कारे सिहायतन वर्णनं | उद्देशः२ |सू०१४० ॥२३५॥ अजोयणं पाहल्लेणं सब्वमणिमया अच्छा ॥ तीसे णं मणिपेढियाए उपि एस्थ णं महं एगे सीहासणे पण्णते, सीहासणवषणओ अपरिवारो ।। तत्थ णं विजयस्स देवस्स सुबहु अभिसेके भंडे संणिक्खित्ते चिट्ठति, अभिसेयसभाए उपि अवमंगलए जाव उत्तिमागारा सोलसविधेहिं रयणेहिं तीसे णं अभिसेयसभाए उत्तरपुरस्थिमेणं एस्थ णं एगा महं अलंकारियसभावत्तब्वया भाणियब्या जाव गोमाणसीओ मणिपेडियाओ जहा अभिसेयसभाए उप्पि सीहासणं स(अ) परिवारं ।। तस्थ णं विजयस्म देवस्स सुबहु अलंकारिए भंडे संनिक्खित्ते चिट्ठति, उत्तिमागारा अलंकारिय० उपि मंगलगा झया जाव (छत्ताइछत्ता)।तीसे णं आलंकारियसहाए उत्तरपुरस्थिमेणं एस्थ णं एगा महं ववसातसभा पण्णत्ता, अभिसेयसभावत्तब्वया जाव सीहासणं अपरिवार ॥त(ए)स्थणं विजयस्स देवस्स एगे महं पोत्थयरयणे संनिक्खित्ते चिट्ठति, तत्व ण पोत्थयरयणस्स अयमेयारवे यणावासे पन्नत्ते, तंजहा--रिहामतीओ कंचियाओ [रयतामताति पत्तकाई रिहामयातिं अक्खरा] तवणिजमए दोरेणाणामणिमए गंठी (अंकमयाई पत्ताह) वेरुलियमए लिप्पासणे तवणिजमती संकला रिट्ठमए छादने रिटामया मसी बहरामयी लेहणी रिट्ठामयाई अक्खराई धम्मिए सत्धे ववसायसभाए णं उप्पि अदृहमंगलगा झया छत्तातिछत्ता उत्तिमागारेति । तीसे णं दीप अनुक्रम [१७८] ॥२३५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकार: ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४० ] टीप अनुक्रम [१७८] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्तिः [3] - उद्देशक: [ ( द्वीप- समुद्र)], मूलं [१४०] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः Ja Eur inte वसा (उवा)यसभाए उत्तरपुरच्छिमेणं एगे महं बेलिपेढे पण्णत्ते दो जोयणाई आयामविक्रमेणं जोयणं वाहणं सव्वरयतामए अच्छे जाव पडिरूवे ॥ एत्थ णं तस्स णं बलिपेटस्स उत्तरपुरस्थिमेणं एगा महं णंदापुक्खरिणी पण्णत्ता जं चेव माणं हरयस्स तं चैव सव्वं ॥ ( सू० १४० ) 'तरस ण' मित्यादि, तस्य सिद्धायतनस्य उत्तरपूर्वस्यामत्र महत्लेका उपपातसभा प्रज्ञप्ता, तस्याच सुधर्मांसभाया इव प्रमाणं त्रीणि द्वाराणि तेषां च द्वाराणां पुरतो मुखमण्डपा इत्यादि सर्वं तावद्वक्तव्यं यावद् गोमानसीवर्णनं तदनन्तरमुद्धोकवर्णनं ततो भूमिभागवर्णनं तावद् यावन्मणीनां स्पर्शः, तथा चाह— 'मुहम्मसभावाव्यया भाणियन्वा जाब भूमीए फासो' इति ॥ 'तस्स ण'मित्यादि तस्य च बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेश भागेऽत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, योजनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहल्येन सर्वाना मणिमयी अच्छा इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं देवशयनीयं प्रशमं, तस्य स्वरूपवर्णनं यथा सुधर्मायां सभायां देवशयनीयस्य तस्य तथा द्रष्टव्यं तस्या अपि उपपातसभाया उपरि अष्टावष्टो मङ्गलकानीत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तीसे णमित्यादि, तस्था उपपातसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महानेको हृदः प्रज्ञप्तः, अर्द्धत्रयोदश योजनान्यायामेन पड् योजनानि सकोशानि विष्कम्भेन दश योजनान्युद्वेथेन 'अच्छे सहे रययाकूले' इत्यादि नन्दापुष्करिणीवत्सर्वनिरवशेषं वाच्यं तथा चाह- 'आयामुल्वेहेणं विक्संभेणं बन्नओ जो चेव नंदापुक्खरिणीण' मिति | 'तीसे ण'मित्यादि, स इद 9 ॥ — १ अन्न प्रथमं जीर्णपुस्तके मंदापुष्करिणी विवेचनं वर्त्तते पश्चात् बलिपीठस्य परं टीकायां प्रथमं वलिपीठस्य पश्चात् नंदायाः, एतदनुसारेण मयाऽप्यत्रैयं लिखितं २ अस्मा यमाणव्याख्याया मूलपाठो न दृश्यते पुस्तकेपु. सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत- जिनप्रतिमा अधिकार: For P&P Cy ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४०] वर्णनं उद्देशः २ दीप अनुक्रम [१७८] श्रीजीवा- एकया पायरवेदिकया एकेन च वनखण्डेन सर्वतः समन्तात्संपरिक्षितः, पद्मवरवेदिकाया वर्णनं बनपण्डवर्णनं च तावद् यावत् प्रतिपत्ती जीवाभि० तत्थ णं वहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ व आसयंति जाव विहरंती'ति, तस्य इदस्य 'त्रिदिशि' तिसपु दिक्षु त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि | | तिर्यगधिप्रज्ञप्तानि, तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां तोरणानां चे (वर्णनं पूर्ववत् ) 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य हदस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र मलयगि- कारे सिरीयावृत्तिः । महत्येकाऽभिषेकसभा प्राप्ता, साऽपि प्रमाणस्वरूपद्वारमुखमण्डपप्रेक्षागृह मण्डपचैत्यस्तूपवर्ण नादिप्रकारेण सुधीसभावाचावदक्तम्या या-14 द्वायतनबद् गोमानसीवक्तव्यता, तदनन्तरं तथैवोलोकवर्णनं भूमिभागवर्णनं च तावद् यावन्मणीनां स्पर्शः ॥ 'तस्स णमित्यादि, तस्य बहु॥२३६॥ समरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अन्न महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता योजनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामईयोजनं बाहल्येन | सर्वात्मना मणिमयी 'अच्छा सहा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् ।। 'तीसे णमित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं | सिंहासनं प्रज्ञप्तं, सिंहासनवर्णकः प्राग्वन् , नवरमत्र परिवारभूतानि भद्रासनानि न वक्तव्यानि ॥ 'तत्थ ण'मित्यादि, तस्मिन् सिंहा-18 सने विजयस्य देवस्य योग्यं सुबहु 'अभिषेकभाण्डम्' अभिषेकोपस्करः संनिक्षिप्तः तिष्ठति, तस्याश्चाभिषेकसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येकाऽलङ्कारसभा प्रज्ञप्ता, सा च प्रमाणस्वरुपद्वारत्रयमुखमण्डपप्रेक्षागृहगण्डपादिवर्णनप्रकारेणाभिषेकसभावत्तावद्वक्तव्या | यावंदपरिवारं सिंहासनम् ॥ 'तत्थ ण मिलादि, 'तत्र' सिंहासने विजयदेवस्य योग्यं सुबहु 'आलङ्कारिकम् अलङ्कारयोग्य भाण्ड संनिक्षिप्तं तिष्ठति ।। 'तीसे णमित्यादि, तस्या अलङ्कारसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका व्यवसायसभा प्रज्ञप्ता, सा चाभिषेकसभावत्प्रमाणस्वरूपद्वारत्रय मुखमण्डपादिवर्णकप्रकारेण तावद्भक्तव्या यावदपरिवारं सिंहासनम् || 'एत्य णमित्यादि, 'अत्र' सिंहा-IV॥२३६ ॥ अत्र संबंधबुदितो रयते. 4.- AR NI JoiceIRI अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकार: -~-20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 55 प्रत सूत्रांक [१४०] A दीप अनुक्रम [१७८] सने महदेकं पुस्तकरनं संनिक्षिप्तं तिष्ठति, तस्य च पुस्तकरजस्वायमेतद्रूपः वर्णावास वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः-'रिउमय्यौ' रिपरबासिके कम्पिके पुष्टके इति भावः, रजतमयो(तपनीयमयो)दवरको यत्र पत्राणि प्रोतानि सन्ति, नानामणिमयो प्रन्थिर्दवरकस्याची येन पत्राणि न निर्गच्छन्ति अङ्कमयानि' अङ्करबमयानि पत्राणि नानामणि वैडूर्व)मयं लिप्पासनं-मपीभाजनमित्यर्थः, तपनीयमयी शृङ्खला मषीभाजनसत्का रिष्ठरत्नमयमुपरितनं तस्य छादनं 'रिष्ठमयी' रिपुरनमयी मषी वनमयी लेखिनी रिठमयान्यक्षराणि धाम्भिक लेख्यं, तस्याश्च उपपातसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि महदेकं बलिपीठं प्रज्ञान द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनमेकं बाहल्येन 'अच्छे सण्हे' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् ।। 'तस्स णमित्यादि, तस्य बलिपीठस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका नन्दापुष्करिणी प्रज्ञप्ता, सा च हृद-14 प्रमाणा, इदस्वेव च तस्वा अपि त्रिसोपानवर्णनं तोरणवर्णनं च प्राग्वत् ॥ तदेवं वत्र याहग्भूता च राजधानी विजयस्य देवस्य तद्देतद् उपवर्णितं, सम्पति विजयो देवस्तत्रोत्पन्नस्तदा यदकरोद् यथा च तस्याभिषेकोऽभवत्तदुपदर्शयति तेणं कालेणं तेणं समएणं विजए देवे विजयाए रायहाणीए उचवातसभाए देवसयणिजंसि देवदसंतरिते अंगुलस्स असंखेजतिभागमेत्तीए बोंदीए विजयदेवताए उववणे ॥ तए णं से विजये देवे अहुणोववपणमेत्तए चेव समाणे पंचविहाए पजत्तीए पजत्तीभावं गच्छति, तंजहा -आहारपजत्तीए सरीरपजसीए इंदियपज्जत्तीए आणापाणुपत्तीए भासामणपजत्तीए ॥तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पंचविहाए पजत्तीए पजत्तीभावं गयस्स इमे एयारूवे अज्झस्थिए चिंतिए पस्थिते मणोगए संकप्पे समुप्पजिस्था-किंमे पुव्वं सेयं किं मे पच्छा सेयं किं मे पब्धि कर %% % % % सिद्धायतन अधिकारः, शाश्वत-जिनप्रतिमा अधिकारः, विजयदेव-अधिकार: ~21 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः प्रत सूत्रांक [१४१] %25% 814 6- 24 ३ प्रतिपत्ती तिर्यगधिकारे विज. यदेवाभि ॥२३७॥ णिजं कि मे पच्छा करणिज्जं किं मे पुबि वा पच्छा वा हिताए सुहाए खेमाए णीस्सेसयाते अणुगामियत्ताए भविस्सतीतिकटु एवं संपेहेति । तते णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववष्णगा देवा विजयस्स देवस्स इमं एतारूवं अज्झत्थितं चिंतियं पत्थियं मणोगयं संकल्प समुप्पपर्ण जाणित्ता जेणामेव से विजए देवे तेणामेव उवागच्छंति तेणामेव उवागच्छित्सा विजयं देवं करतलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कद्द जएणं विजएणं बद्धाति जएणं विजएणं वद्धावेता एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं विजयाए रायहाणीए सिद्धायतगंसि अट्ठसतं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमेत्ताणं संनिक्खितं चिट्ठति सभाए य सुधम्माए माणवए चेतियखंभे वइरामएसु गोलबद्दसमुग्गतेसु बहओ जिणसकहाओ सन्निक्खित्ताओ चिट्ठति जाओ णं देवाणुप्पियाणं अन्नेसिं च बहणं विजयरायहाणिवस्थव्वाणं देवाणं देवीण य अचणिजाओ वंदणिजाओ पूयणिज्जाओ सकारणिजाओ सम्माणणिजाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पज़वासणिज्जाओ एतपणं देवाणुप्पियाणं पुब्बिपि सेयं एतपणं देवाणुपियाणं पच्छावि सेयं एतपणं देवा० पुयि करणिजं पच्छा करणिजं एतपणं देवा० पुब्बि वा पच्छावा जाव आणुगामियत्ताते भविस्सतीतिकह महता महता जय(जय)सई पउंति ॥तएणं से विजए देवे तेसिं सामाणियपरिसोववपणगाणं देवाणं अंतिए एयम8 सोचा णिसम्म हह तुह जाव हियते देवसयणिज्जा उद्देशः २ सू०१४१ दीप अनुक्रम [१७९] ॥२३७॥ Jntacा अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~22 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] +SONG ओ अम्भुट्ठहरता दिब्बं देवदूसजुयलं परिहेइ २त्ता देवसयणिज्जाओ पञ्चोरुहइ २ हित्ता उपपातसभाओ पुरस्थिमेणं बारेण णिग्गच्छइ २त्ता जेणेव हरते तेणेव उवागच्छति उवागक्छित्सा हरयं अणुपदाहिण करेमाणे करेमाणे पुरस्थिमेणं तोरणेणं अणुप्पविसति २त्सा पुरस्थिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरुहति २ हरयं ओगाहति २त्ता जलावगाहणं करेति २त्ता जलमजणं करेति २त्ता जलकिहुं करेति रत्ता आयंते चोक्खे परमसूतिभूते हरतातो पयुत्तरति २त्ता जेणामेव अभिसेयसभा तेणामेव उवागच्छति २त्ता अभिसेयसभं पदाहिणं करेमाणे पुरथिमिल्लेणं बारेणं अणुपविसति २त्ता जेणेव सए सीहासणे तेणेव उवागच्छति २त्ता सीहासणवरगते पुरच्छाभिमुहे सपिणसपणे। तते णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववपणगा देवा आभिओगिते देवे सहावेंतिरसा एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! विजयस्स देवस्स महत्थं महग्धं महरिह विपुलं इंदाभिसेयं उवट्ठयेह ॥ तते णं ते आभिओगिता देवा सामाणियपरिसोववपणेहिं एवं बुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठ जाय हितया करतलपरिग्गहियं सिरसावसं मत्थए अंजलिं कह एवं देवा तहसि आणाए विणएणं वयणं पडिसुणतिरसा उत्तरपुरस्थिम दिसीभार्ग अवकर्मति २ सा बेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणंति २ सा संखेजाई जोयणाई दंडं णिसरति तं०-यणाणं जाध रिहाण, अहावायरे पोग्गले परिसाडंति २त्ता अहामुहमे पोग्गले परियायंति २ सा दोचंपि घेउ विजयदेव-अधिकार: ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥२३८॥ 15 प्रतिपच्ची | तिर्यगधिकारे बिजयदेवाभि पेका उद्देश:२ | सू०१४१ CASC564564SACROSAGE दीप अनुक्रम [१७९] ब्वियसमुग्धाएणं समोहणति २त्ता अट्ठसहस्सं सोवपिणयाणं कलसाणं अट्ठसहस्सं झप्पामयाणं कलसाणं अट्ठसहस्सं मणिमयाणं अट्टसहस्सं सुवण्णरुप्पामयाणं अट्ठसहस्सं सुवष्णमणिमयाणं अट्ठसहस्सं रुप्पामणिमयाणं अट्ठसहस्सं सुवषणरुप्पामताणं अट्टसहस्सं भोमेजाणं अट्ठसहस्सं भिंगारगाणं एवं आयंसगाणं थालाणं पातीणं सुपतिट्टकाणं चित्तार्ण रयणकरंडगाणं पुष्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुष्फपडलगाणं जाव लोमहत्थगपडलगाणं असतं सीहासणाणं छत्ताणं चामराणं अवपडगार्ण बहकाणं तबसिप्पाणं खोरकाणं पीणकाणं तेल्लसमुम्गकाणं अट्ठसतं धूवकढच्छयाणं विउव्वंति ते साभाविए विउव्विए य कलसे य जाव धूवकडच्छुए य गेण्हंति गेण्हित्ता विजयातो रायहाणीतो पडिनिक्खमंति २ सा ताए उकिटाए जाव उडुताए दिवाए देवगतीए तिरियमसंखेजाणं दीवसमुदाणं मज्झं मज्झेणं वीयीवयमाणा २ जेणेव खीरोदे समुद्दे तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता खीरोदगं गिण्हित्सा जातिं तत्थ उप्पलाई जाव सतसहस्सपत्ताति तातिं गिण्हति २त्सा जेणेव पुक्खरोदे समुद्दे तेणेव उवागच्छंति २ता पुक्खरोदगं गेहंति पुक्खरोदगं गिणिहत्ता जाति तत्थ उप्पलाई जाच सतसहस्सपत्ताई ताई गिण्हंति २त्ता जेणेव समयखेते जेणेव भरहेरवयातिं वासाई जेणेव मागधवरदामपभासाहं तित्थाई तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागकिछत्ता तित्थोदगं गिण्हंति २त्ता तित्वमहियं गेण्हंति २त्ता जेणेच गंगासिं २३८॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~24 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] धुरत्तारत्तवतीसलिला तेणेव उवागच्छति २त्ता सरितोदगं गेहति २त्ता उभओ तडमट्टियं गेपहंति गेण्हित्ता जेणेव चुल्लहिमवंतसिहरिषासधरपव्यता तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता सव्वतूबरे य सब्वपुप्फे य सव्वगंधे य सब्वमल्ले य सब्वोसहिसिहत्थए गिण्हंति सब्योसहिसिद्धत्थए गिहित्ता जेणेव पउमइहपुंडरीयदहा तेणेव उवागच्छंति तेणेव २ दहोदगंगेण्हंति जाति तस्थ उप्पलाई जाव सतसहस्सपत्ताई ताई गेण्हंति ताई गिण्हित्ता जेणेय हेमवयहेरण्णवयाई यासाई जेणेय रोहियरोहितंसमुवाणकूलरुप्पकूलाओ तेणेव उवागच्छति २त्ता सलिलोदगं गेण्हंति २त्ता उभओ तडमट्टियं गिण्हंति गेण्हित्ता जेणेव सहावातिमालवंतपरियागा बहवेतहपञ्चता तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता सव्वतुबरे य जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य गेहंति, सिद्धथए य गेमिहत्ता जेणेव महाहिमवंतरुप्पिवासघरपब्वता तेणेव उवागमछंति तेणेव उवागच्छित्ता सवपुष्के तं चेव जेणेव महापउमदहमहापुंडरीयदहा तेणेष उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता जाइं तत्थ उप्पलाई तं चेव जेणेव हरिवासे रम्मावासेति जेणेव हरकान्तहरिकतणरकंतनारिकताओ सलिलाओ तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्सा सलिलोदगं गेण्हंति सलिलोदगं गेण्हित्ता जेणेव वियडावइगंधावतिवटवेयहुपव्यया तेणेव उवागच्छंति सब्बपुष्फे य तं चेव जेणेव णिसहनीलवंतवासहरपक्वता तेणेव उवागकछंति तेणेव उवा विजयदेव-अधिकार: -~-25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती | तिर्यगधिकारे विज प्रत सूत्रांक [१४१] यदेवाभि XI षेकः ॥२३९॥ AAAAAACANADA उद्देशः२ सू०१४१ दीप अनुक्रम [१७९] गकिछत्ता सव्वतूवरे य तहेव जेणेव तिगिच्छिदहकेसरिदहा तेणेव उवागच्छति र सा जाई तस्थ उप्पलाइं तं चेव जेणेव पुब्वविदेहावरविदेहवासाई जेणेव सीयासीओयाओ महाणईओ जहा ईओ जेणेच सब्वचक्कवादिविजया जेणेव सव्वमागहवरदामपभासाई तित्थाई तहेब जहेव जेणेव सब्ववक्खारपब्बता सव्वतुवरे य जेणेव सव्वंतरणदीओ सलिलोदगं गेण्हंति २तं चेव जेणेव मंदरे पवते जेणेव भइसालवणे तेणेव उवागच्छंति सचतुवरे य जाव सम्वोसहिसिद्धस्थए गिण्हंति २सा जेणेव गंदणवणे तेणेव उवागच्छद २त्ता सव्वतुवरे जाव सम्वोसहिसिद्धस्थे य सरसं च गोसीसचंदणं गिण्हंति २ ता जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता सव्वतुबरे य जाव सब्बोसहिसिद्धत्थए य सरसगोसीसचंदणं दिव्वं च सुमणदामं गेण्हति गेण्हित्ता जेणेव पंडगवणे तेणामेव समुवागच्छंति तेणेव समुवा०२त्ता सब्बतूवरे जाव सम्वोसहिसिद्धत्थए सरसं च गोसीसचंदणं दिव्यं च सुमणोदामं दहरयमलयसुगंधिए य गंधे गेहंति २ त्ता एगतो मिलंति २त्ता जंबूद्दीवस्स पुरथिमिल्लेणं दारेणं णिग्गच्छंति पुरथिमिल्लेणं निग्गछित्ता लाए उफिद्वाए जाब दिव्वाए देवगतीए तिरियमसंखेजाणं दीवसमुदाणं मज्झमज्झेणं वीयीवयमाणा २ जेणेव विजया रायहाणी तेणेव उवागच्छंति २त्ता विजयं रायहाणिं अणुप्पयाहिणं करेमाणा २जेणेव अभिसेयसभा जेणेव विजए देवे तेणेव उवागच्छंति २त्ता करतलपरि ॥ २३९॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~26 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [१४१] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः विजयदेव अधिकार: हितं सिरसावतं मत्थए अंजलि कह जपणं विजएणं वद्भावेति विजयस्स देवस्स तं महत्थं महग्धं महरिहं विपुलं अभिसेयं वट्टवेति ॥ तते णं तं विजयदेवं चत्तारि य सामाणियसाहसीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ तिष्णि परिसाओ सत्त अणिया सत्त अणियाहिवई सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अने य बहवे विजयरायधाणिवत्थव्वगा वाणमंतरा देवाय देवीओ य तेहिं साभावितेहि उत्तरवेउब्विनेहिं य वरकमलपनिढाणेहिं सुरभिवरवारिपडिपुण्णेहिं चंदणचचाहिं आविद्धकंठेगुणेहिं पउप्पल पिधाणेहिं करतलसुकुमालकोमलपरिग्गहिएहिं अहस्साणं सोणियाणं कलसाणं रूप्पमयाणं ताव अट्टसहस्साणं भोमेयाणं कलसाणं सच्चोदहिं सव्यमहियाहिं सव्वनुवरेहिं सच्चपुष्फेहिं जाव सवोसहिसिद्धत्वएहिं सविट्टीए सव्वजत्तीए सव्वलेणं सव्वसमुदणं सव्वापरणं सञ्वविभूति सव्वविभूसाप सव्वसंभमेणं सव्वोरोहेणं Horse notगंधमलालंकारविभूसाए सव्वदिव्वतुडियणिणाएणं महया इहीए महया जन्ती महया वलेणं महता समुद्रणं महता तुरियजमगसमगपडुप्पवादितरवेणं संखपणवप मेरिहरिवरमुहिमुरवमुयंग दुहिहुडुकणिग्घोस संनिनादितरवेण महता महता इंद्राभिसेगेणं अभिसिंचन । तए णं तस्स विजयस्स देवस्स महता महता इंदाभिसेसि बहमाणंसि अप्पेगतिया देवा णचोदगं णातिमहियं पविरलफुसियं दिव्वं सुरभिं रयरेणुविणासणं गंधोदगवासं For P&Praise City ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [ १४१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ २४० ॥ Ja Ekemon in वासंति, अप्पेगतिया देवा हितरयं णहरयं भट्टरयं पसंतरयं उवसंतरयं करेति अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणिं सम्भितरबाहिरियं आसितसम्म जितोवलितं सित्तइसम्म हरत्यंतरावणवीहियं करेति अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणि मंचातिमंचकलित करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणिं णाणाविहरागरंजियऊसियजयविजयवेजयन्तीपडागातिपडागमंडितं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणिं लाउलोइयमहियं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिण्णपंचंगुलितलं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं उवचियचंदणकलसं चंदणघड सुकतोरणपडिदुवारदेसभागं करेति अप्पेगतिया देवा विजयं आसत्तोसत्तविषुलववग्धारितमलदामकलावं करेति अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि पंचवण्णसरससुरभिमुकपुष्कपुंजोवयारकलितं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं कालागुरुपवरकुंदुरुक्क तुरुक्क धूवडज्क्षंतमघमघेतगंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवद्विभूयं करंति अप्पेगइया देवा हिरण्णवासं वासंति अप्पेगइया देवा सुवण्णवासं वासंति, अप्पेगइया देवा एवं रयणवासं वइरवास पुष्वासं मलवासं गंधवासं चुण्णवासं वत्थवासं आहरणवासं अप्पेगझ्या देवा हिरण्णविधिं भाइति, एवं सुवणविधिं रयणविधिं वतिरविधिं पुष्कविधिं मविधिं पुण्णविधिं गंधविधि वत्थविधिं भाईति आभरणविधिं ॥ अप्पेगतिया देवा दुयं णहविधिं उवदंसेंति अप्पेगतिया ३ प्रतिपत्तौ तिर्यगधिकारे विजयदेवाभिपेकः उद्देशः २ सू० १४१ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव अधिकार: ~28~ ॥ २४० ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र -३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) • उद्देशक: [(द्वीप- समुद्र)], • मूलं [ १४१] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जी०स० ४२ बाहक विजयदेव अधिकार: विलंवितं विहिं जवदंसेति अप्पेगइया देवा दुतविलंबितं नाम विधिं वर्द्धमेति अप्पेगतिया देवा अंचियं विधिं उवदति अप्पेगतिया देवा रिभितं विधिं उवदंति अ० अंचि तरिभितं णाम दिव्यं विधिं उवदंति अप्पेगनिया देवा आरभई हविधिं उवसेति अप्पेगतिया देवा असो हविधिं उपसंति अप्पेगनिया देवा आरभडभमोलं णाम दिव्वं विधिं उवमेति अप्पेगतिया देवा उपायणिवापत संकुचियपसारियं रियारियं अंतसंसंतं णाम दिव्यं विधिं उवसेंति अप्पेगनिया देवा चउन्विधं वातियं वादेति, तंजातं विततं पणं सिरं, अप्पेगतिया देवा चच्त्रियं गेवं गातंति, तंजहा - उक्तियं पवतयं संदार्य रोहदावसाणं, अप्पेगतिया देवा चव्वियं अभिणयं अभियंति, जहा - दितियं पडंतिय सामन्तोवणिवानिय लोगमज्यावसायिं अपंगतिया देवा पीर्णनि अर्थगतिया देवा कारेंति अप्पेगनिया देवश लंडति अध्ये नानि अप्पेगनिया देवा पीति बुकारेति हति लासंति अप्पेगतिया देवा चुकारेनि अप्पेगतिया देवा अप्फोर्डति अपंगतिया देवा वरमंनि अप्पेगतिया देवा तिति छिंदति अप्पेगलिया देवा अकोति वरति निवतिं चिंति अपंगतिया देवा हसियं करें अप्पेगतिया देवा हरुलाइ करेंनि अप्पेगतिया देवा रहनघणातियं कति अप्पेगतिया देवा हयहेसि करेति त्यिगुलगुलाइयं करेंति रहघणघणाइयं करेति For P&Pase Cnly ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रतिपत्त. विजयद याभिषेकः श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ॥२४१॥ [१४१] तू०१४१ दीप अनुक्रम [१७९] mammmnama अप्पगतिया देवा उकछोलेनि अप्पेगतिया देवा पच्छोलेंति [अप्पेगतिया देवा उकिदि करेंति] अप्पेगनिया देवा उकिट्टीओ करति अप्पेगतिया देवा उच्छोलेंति पच्छोलिंति उकिहिओ करेंनि अप्पेगतिया देवा सीहणादं करंति अप्पेगतिया देवा पाददहरयं करेंति अप्पेगनिया देवा भूमिचवंडं दलयंनि अप्पेगतिया देवा सीह नादं पादहरयं भूमिचवेडं दलयंति, अप्पेगतिया देवा हकारति अप्पंगतिया देवा युकारंनि अप्पेगनिया देवा थकारैति अप्पे० पुकारति अप्पेगतिया देवा नामाई सावति अप्पेगनिया देवा इकारनि चुकारेंति थक्कारेति पुकारनि णामाई सार्वति अप्पेगतिया देवा उपतंति अवेगनिया देवा णिवयंति अप्पेगनिया देवा परिवयंति अप्पेगतिया दवा पुष्पयंनि णिवयंति परिवयंति अप्पेगतिया देवा जलेति अप्पेगतिया देवा तवंति अप्पेगतिया देवा पनयंति अप्पेगतिया देवा जलंति तबंनि पनवंति अप्पेगहया देवा गजेंति अप्पेगडया देवा विजुयायंति अप्पेगइया देवा वासंति अप्पेगड्या देवा गर्जति विजुयायंति वासंति अप्पेगतिया देवा देव सन्निवायं करेंनि अप्पेगतिया देवा देवुकलियं करति अप्पेगड्या देवा देवकार कई करेंतिअप्पेगतिया देवा दुहह करेंति अप्पगलिया देवा देवमन्निवायं देवउकलियं देवकहकह देवदुहह करति अप्पेगलिया देवा देवुजोयं करति अप्रेगनिया देवा विजयारं करति अप्पंगनिया देवा चेलुकम्वेवं करेंनि अपपेगतिया देवा देवुजोयं विजुनारं चेलुक्खेवं करति अपेगनिया देवा उपप RANCC-%A4%- ANITMIRMImanav-a ॥२४१॥ -imanaveenawana 9 : अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~30 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -- --- - -- प्रत सूत्रांक [१४१] -- लहत्थगता जाव सहस्सपत्ता घंटाहत्वगता कलसहस्थगता जाव धूवकटुच्छहस्थगता हह तुट्टा जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया विजयाए रायहाणीए सव्वतो समंता आधानि परिधावति ।। तए णं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ जाव सोलसआयरकग्वदेवसाहस्सीओ अपणे य बहवे विजयरायहाणीवत्थव्वा वाणमंतरा देवा य देवीओ य तेहिं वरकमलपनिहाणेहिं जाव असतेणं सोवपिणयाणं कलसाणं तं चेव जाय अट्टसएणं भोमेजाणं कलसाणं सम्बोद्गेहिं सव्वमडियाहिं सब्वतुवरेहिं सव्वपुप्फेहिं जाव सब्बोसहिसिद्धथएहिं सब्बिडीग जाब निग्घोसनाइयरवेणं महया १६दाभिसेएणं अभिसिंचंनि २ पत्तेयं र सिरसावतं अंजलिं कह एवं वयासि-जय जय नंदा! जय जय भदा! जय जय नंद भई ते अजियं जिणेहि जयं पालपाहि अजितं जिणेहि सत्तुपक्खं जितं पालेहि मित्तपक्वं जियमज्झ यसाहितं देव! निरुबसगं इंदो इव देवाणं चंद्रो इव ताराणं चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं भरहो इव मणुयाणं वहणि पलिओवमाई वहणि सागरोवमाणि चउपहं सामाणियसाहस्मीणं जाव आयरक्वदेवसाहस्सीणं विजयस्स देवस्स विजपाए रायहाणीए अण्णेसि च बहणं विजयरायहाणिवत्धव्याणं वाणमंतराणं देवाणं देवीण य आहेबचं जाव आणाईसरसेणायचं कारेमाणे पालेमाणे बिहराहित्तिकद्द महता २ सद्देणं जयजयसई पउंजंति ॥ (म०१४१)॥ - दीप अनुक्रम [१७९] - विजयदेव-अधिकार: ~31 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] श्रीजी तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि, तस्मिन काले लम्बिन समये विजयो देव उपपातसभायां देवशयनीय देवदूप्यान्तरित प्रतिपत्ता जीवाभि- प्रथमतोऽजुल्लासपेयभागमात्रयाइयगाहनया समुत्पन्नः ।। 'सरण गित्यादि, सुगमं नवरमिह भाषामनःपर्याप्योः समानिकालान्तरन्यविजयदेमलयगि- प्रायः शेषपर्याग्निकालान्तरापेक्षया सोकत्वादेफलेच विपक्षणमिति पंचविहाए पत्नत्तीय पत्तिभावं गन्छ' इत्युक्तम् । 'तएवाभिषेकः रीयावृत्तिःणमित्यादि, ससस्य विजयस्य देवका प्रध्यविधया पर्याया पर्याप्तभावं गतस्य सनोऽयम-एताप: संकल्पः समुदपयत. कथम्भूत: त. कथम्भूतः उद्देशः२ इत्याह-'मनोगतः' मनसि गतो-व्यवस्थितो नाद्यापि वत्रमा प्रकाशित स्वरूप इति भावः, पुनः कथम्भूतः १ इत्याह-'आध्या-- सू०१४१ ॥२४२ त्मिकः' आमन्यधि अध्यायं तन्त्र भव आध्यामिक आलविषय इति भावः, सहस्पश्च द्विधा भवति-कश्चिदध्यात्मिकोऽपरश्च चिन्ता-1 मकः, तवायं चिन्तात्मक इति प्रतिपादनार्थमाह--'चिन्तितः' चिन्ता संजाताऽग्मिनिति चिन्तिनश्चिन्तात्मक इति भावः, सोऽपि कश्चिदभिलाषालको भवति कश्चिदन्यथा, तत्रायमशिलापात्मकतया चाह-प्रार्थने प्रार्थो णिजन्तानच् प्रार्थः संजातोऽस्मिन्निति प्रार्थितो| ऽभिलापात्मक इति भावः, फिस्वरूपः ? इत्याह-कि म' इत्यादि, कि 'मे' मम पूर्व करणीयं कि मे पश्चारकरणीयं, तथा कि मे पूर्व कर्तुं श्रेयः किं में पञ्चाकर्तुं श्रेयः, तथा कि में पूर्वमपि च पञ्चादपि च हिताय भावप्रधानोऽयं निर्देशो हितत्वाय-परिणामसुन्दर तायै सुखाय-शम्र्मणे क्षेमायेति अयमपि भावप्रधानो निदेश: संगतत्वाय, निःश्रेयसाय-निश्चित कल्याणाय अनुगामिकतायै-परम्पसरया शुभानुबन्धसुखाय भविष्यतीति ।। 'तए णमित्यादि, 'ततः' एलचिन्तासमनन्तरमेव दिव्यानुभावतो विजयस्य देवस्य 'सामा|णियपरिमोववन्नगा देवा' इति सामानिकाः पपंदुपपन्न काश्च-अभ्यन्तरादिपर्पदुपगताः 'इमम्' अनन्तरोक्तम् 'एतद्रूपम्' अनन्त Til२४२॥ रोक्तिस्वरूपमाध्यामिक चिन्तितं प्रार्थितं मनोगतं सङ्कल्प समभिज्ञाय 'जेणेवेति यत्रै विज यो देवस्त त्रैवोपागच्छन्ति, उपागम्य च अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~32 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] १० -5 करयलपरिग्गहिय'मित्यादि योहस्तयोरन्योऽन्यान्तरितालिकयो: संपुटरूपतया यदेकत्र मीलनं सा अजलिस्तां करतलाभ्यां परिगृहीता-निष्पादिता करतलपरिगृहीता ताम् , आवर्तनमावतः शिरस्यावतों यस्याः सा शिरस्यावा, कण्ठेकाल उरसिलोमे त्यादिवनलक्समासः, तामत एव मस्तके कृत्वा जयेन विजयेन वापयन्ति-जय वं देव! विजय खं देवइत्येवं वर्धापयन्तीत्यर्थः, तत्र जय:-परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्र, विजयस्तु-परेपामसहमानानामभिभवोत्पादः, जयेन विजयेन च वापयिता एवमवादिपु:-'एवं खलु देवाणुपियाण'मित्यादि पाठसिद्धम् ।। 'तए णमित्यादि, 'ततः' एतद्वचनानन्तरं विजयो देवस्तेपां सामानिकप दुपपन्नकाना-सामानिकानां पर्पदुपपन्न कानां च देवानामन्ति के एनमर्थ 'श्रुत्वा' आकर्य 'निशम्य' नये परिणमय 'हतुहचित्तमाणदिए' इति दृष्टतुष्टोऽनीच तुष्ट इति भावः, अथवा हलो नाम विस्मयमापन्नो यथा शोभनमहो! एतैरुपदिष्पमिति, 'तुष्टः' सोपं कृतवान् यथा भव्ययभूद् यदेतैरिरथमुपदिष्टमिति, तोषवंशादेव चित्तमानन्दित-स्फीतीभूतं 'टुणदु ममृद्धी' इति वचनात , यस्य स चित्तानन्दितः, भायर्यादिदर्शनात्पानिको निष्पान्तस्य परनिपात: मकार: प्राकृत वादलामणिकन्तत: पदवयम्य पद्वय २ मीलनेन कर्मा धारयः, 'पीइमणे' इति प्रीतिर्मनसि यस्यासी प्रीनिमना जिनप्रतिमाऽचनविषयवहुमानपरायणमना इति भावः, ततः क्रमेण बहुमानोहत्कर्षवशान 'परमसोमणस्मिए' इति शोभनं मनो वस्यामौ सुमनामनन्य भावः मौमनग्यं परमं च तन् सौमनम्यं च परमसौमनस्यं । मजातमस्मिन्निति परमसीमनस्थितः, एतदेव व्यक्ती कुर्वन्ना--'हरिसबमविषयमाणहिया' हवशेन विस-पंद्-विस्तारयायि: हृदयं यस्य स हर्षवशत्रिसप्पंदव: देवशयनीबादभ्युनिष्ठति, अभ्युग्धाय च देवदूप्यं परिधने, परिधाय च उपपातमभानः पूर्वद्वारेण निर्गपठति, निर्गय च यत्रीय प्रदेशे जदतत्रोपागन्छनि, उपागला जदननु दक्षिणी कुला पूग तोर गेन नदमनुप्रविशति, पविश्य च दीप अनुक्रम [१७९] dya विजयदेव-अधिकार: ~33~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ला प्रत सूत्रांक [१४१] प्रतिपत विजयदनाभिर्षक: उद्देशः २ सु०१४१ दीप अनुक्रम [१७९] श्रीजीवा- प्रत्यवरोहति, मध्ये प्रविशतीति भावः, प्रत्यवरुह्य च दमवगाहते, अवगाहा जलमजनं करोति, कृत्वा च क्षणमात्रं जलक्रीडा जीवाभि० करोति, ततः 'आयते' इति नवानामपि श्रोतसां शुद्धोदकप्रक्षालनेनाऽऽचान्तो-गृहीताचमनश्वोन:-वल्पस्यापि शङ्कितमलस्यापनय- मलयगि- नात् , अत एव परमशुचिभूतो हदात प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य यत्रैव प्रदेशेऽभिषेकसभा तत्रैवोपागमाति, उपागल्याभिषेकसभामनुप्रद- रीयावृत्तिः [क्षिणीकुर्वन पूर्वद्वारेणानुप्रविशति, अनुप्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव च मणिपीठिकाया उपरि सिंहासनं तत्रोपागच्छति, उपागल सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषण्णः ॥ 'तए ण'मित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य सामानिकाः पर्पदुपपन्न काश्च देवाः 'आ॥४३॥ |भियोगिकान्' अभियोजनमभियोगः, प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यमाणत्वमिति भावः, अभियोगे नियुका आभियोगिकास्तान देवान 'श ब्दायन्ते' आकारयन्ति, शब्दायित्वा च तानेत्रमदादिपु:-'क्षिप्रमेव' शीघ्रमेव भो देवानां प्रिया:! विजयस्य देवस्य 'महार्थ' महान | Bअों -मणिकनकरबादिक रपयुभपमानो यस्मिन् स महार्थस्तं महाथै, तथा महान् अर्थ:-पूजा यत्र स महासं, मह-उत्सवमर्हतीति महाईस्तं 'विपुलं' विस्तीर्ण शकाभिषेकवद् इन्द्राभिषेकमुपस्थापयत ॥ 'तए णं ते' इत्यादि, ततस्ते आभियोगिका देवाः सामानिकपर्पदुपपन्न कवरेवमुक्ताः द्वितुट्टचित्तमाणं दिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसबसविसापमाणहियया करवलपरिग्गहियं दसपाह | सिरसावन्तं मस्यए अंजलि कह' इति पूर्ववन , विनयेन वचनं 'प्रतिशृण्वन्ति' अभ्युपगच्छन्ति, कथम्भूतेन विनयेन ' इत्याह-एवं देवा तहत्ति आणाए' इति हे देवाः ! एवं-यथैव यूयमादिशत तथैवाज्ञया-युष्मदादेशेन कुर्म इत्येवरूपण प्रतिश्रुत्य वचनमुत्तरपूर्व दिग्भागमीशानकोणमित्यर्थः तस्यात्यन्तप्रशस्तत्वात् 'अपामन्ति' गच्छन्ति अपक्रम्य च वैक्रियसमुद्घानेन-वैक्रियकरणाय प्रयत्नविशे- पण 'समोहणति' समवहन्यन्ते समबहता भवन्तीत्यर्थः, समवहताश्चात्मप्रदेशान् दूरतो विक्षिपन्ति, तथा चाह-संखेजाणि जो ॥२४३॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~34 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [ १४१] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः विजयदेव अधिकार: यणाणि दंड निसरंति' दण्ड इव दण्ड ऊर्द्धाविआयतः शरीरवाहस्यो जीवप्रदेशसमूहस्तं शरीरस्य बहिः सोयानि योजनानि यावत् 'निसृजन्ति' निष्काशयन्ति, निसृज्य च तथाविधान् पुगलानाददते, एतदेव दर्शयति तद्यथा-'रत्नानां' कर्केतनादीनां १ वाणां २ र्याणां ३ लोहिताक्षाणां ४ मसारगडानां ५ हंसगर्भाणा ६ पुलकानां ७ सौगन्धिकानां ८ ज्योतीरसानाम् ९ अञ्जनानाम् १० अखनपुलकानां १९ रजतानां १२ जातरूपाणाम् १३ अङ्कानां १४ स्फटिकानां १५ रिष्ठानां १६ यथावादरान असारान् पुगलान, परिशातयन्ति यथासूक्ष्मान-साराम पुलान् पर्याददते, पर्यादाय च चिकीर्षितरूपनिर्माणार्थ द्वितीयमपि वारं वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यन्ते समवहत्य यथोक्तानां रत्नादीनां योग्यान् यथावादरान पुलान परिशातयन्ति यथासूक्ष्मानाददते आदाय च 'अष्टसहस्रम् ' अष्टाधिकं सहस्रं सौवर्णिकानां फलानां विकुर्वन्ति १ अष्टसहस्रं रूप्यमयानाम् २ अष्टसहस्रं मणिमयानाम् ३ अष्टसहस्रं सुवर्णरूप्यमयानाम् ४ अष्टसहस्रं सुवर्णमणिमयानाम् ५ अष्टसहस्रं रूप्यमणिमयानाम् ६ अटसहस्रं सुवर्णरूप्यमणिमयानाम् ७ असहस्रं भौ मेयानाम् ८ अष्टसहस्रं शृङ्गाराणाम् ९, एवमादर्शस्थालपात्रीसुप्रतिष्ठमनोगुलिका वातकरक चित्ररत्नकरण्डकपुष्पच ङ्गेरीयावहोमहस्तचपुष्पपटलका व होमस्तकपटलकसिंहासनच्छत्रचामरसमुद्रकम्यजधूपकच्छुकानां प्रत्येकं प्रत्येक मष्टसहस्रं विकुर्वन्ति, विकुत्रिखा 'ताए | उकिट्टाए' इत्यादि पूर्व व्याख्यातार्थे यत्रैव क्षीरोदसमुद्रस्तत्रागच्छन्ति, आगत्य च क्षीरोदकं गृह्णन्ति, यानि च तत्र उत्पलानि पद्मानि कुमुदानि नलिनानि सुभगानि सौगन्धिकानि पुण्डरीकाणि महापुण्डरीकाणि शतपत्राणि सहस्रपत्राणि शतसहस्रपत्राणि च तानि गृहन्ति, गृहीला पुष्करोवे समुद्रे समागत्य तनोदकमुत्पादीनि च गृहन्ति, तदनन्तरं यत्रैव समयक्षेत्रं यत्रैव भरतैरावतानि क्षेत्राणि यन्त्रैव च तेषु भरतैरावतेषु वर्षेषु मागधवरदामप्रभासाख्यानि तीर्थानि तत्रैवोपागत्य तीर्थोदकं तीर्थमृत्तिकां च गृह्णन्ति ततो गङ्गा For P&Praise City ~35~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [१७९] श्रीजीवा- सिन्धुरक्तारक्तवतीपु महानदीपु नगुदकमुभयतटमृत्तिको च गृहन्ति, नतः शुलहिमवच्छिखरिषु समागत्य सर्वतुवरान-कषायान सर्वाणि प्रतिपत्तो जीवाभिजातिभेदेन पुष्पाणि सर्वान गन्धान्' गन्धवासादीन सर्वाणि माल्यानि-प्रथितादिभेदभिन्नानि सर्वोषधीः सिद्धार्थकांच गृहन्ति । मलयगि- हीला तदनन्तरं पाहदपुण्डरीकहदे पूपागत्य तदुदक मुत्पलादीनि च गृहन्ति, सत्तो हैमवतैरण्यवतेपु वपु रोहितारोहितांशासु वण- बाभिषेक रीयावृत्तिः कूलारूप्यकूलासु महानदीपु नयुदकमुभयतदमृत्तिकां तदनन्तरं शब्दापाविचिकटापातिवृत्तवैतादयेषु सर्वनुबरादीन ततो महाहिम हाउद्देशः२ विधिवपंधरपर्वतेपु सर्वतुबरादीन ततो महापद्ममहापौण्डरीकडूदेषु इदोदकमुत्पलादीनि च तदनन्तरं हरिवारम्यकवपु हरकान्ता | सू०१४१ ॥२४४।। हरिकान्तानरकान्तानारीकान्तामु महानदीषु सलिलोदकम् उभयतटमृत्तिकां च ततो गन्धापातिमाल्यवत्पर्यायवृत्तवैताइयेषु सर्वतुवरादीन है। ततो निषधनीलवर्षधरपर्वतेषु सर्वतुवरादीन तदनन्तरं तद्गतेपु तिगिच्छिके सरिमहादेषु हदोदक मुत्पलादीनि च ततः पूर्वविदेहापरविदेहेषु शीताशीतोदामहानदीषु नादकम उभयतटमृत्तिकां च तदनन्तरं सर्वेषु चक्रवत्तिविजेतव्यपु मागधबरदामप्रभासाख्यतीर्थेषु । तीर्थोदकानि तीर्थमृत्तिकाश्च ततः सर्वेषु वक्षस्कारपर्वतेषु सर्वतुवरादीन् तदनन्तरं सर्वास्वन्तरनदीपु नगुदकमुभयतटमृत्तिकाश्च ततो। मन्दरपर्वते भद्रशालवने सर्वतुवरादीन ततो नन्दनबने सर्वतुवरादीन सरसं च गोशीर्षचन्दनं ततः सौमनसबने सर्वतुवरादीन सरसं च गोशीर्षचन्दनं दिव्यं च सुमनोदाम गृहन्ति, ततः पण्कवने सर्वतुवरपुष्पगन्धमाल्यसरसगोशीपचन्दनदिव्य सुमनोदामानि 'दद्दरमलए | सुगंधिए व गिण्हंति' इति दर्दर:-चीवरावनकुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितं तत्र पकं वा यन्मलयोद्भवतया प्रसिद्धत्वान्मलयं-श्रीखण्डं येपु तान 'सुगन्धान' परमगन्धोपेतान गन्धान गृहन्ति, गृहीत्वा एकत्र मिलन्ति, मिलित्वा तया उत्कृष्टया दिव्यया देवगल्या यत्रैव | R॥२४४॥ |विजया राजधानी यन्नैव विजयो देवस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च करतलपरिगृहीतां शिरस्थावर्तिका मस्तकेऽजलि कृत्वा विजयं देवं जयेन अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~36 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] ---- - विजयेन बर्दापयन्ति, व पवित्वा महाथै महाधै महाई विपुलमिन्द्राभिषेकयोग्यं श्रीरोदकादि 'उपनयन्ति' समर्पयन्ति ।। 'तए ण'मित्यादि, ततो णमिति वाक्याल कारे तं विजयं देवं चत्वारि देवसामानिक सहमाणि चतम्रोऽयमहिप्यः सपरिवारास्तिमः पर्पदो यथाक्रममष्टदशद्वादशदेवसहस्रपरिमाणाः सप्तानीकानि मतानीकाधिपतयः पोडश आमरदेवमहालागि, अन्ये च यहवो विजयराजधानीवातव्या वानमन्तरा देवा देव्यश्च तै:-तगतदेवजनप्रसिद्धः स्वाभाविककुर्षिकैश्च नरकमलनिस्थानः सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णेश्चन्दनकृतचचाकै: 'आविद्धकण्ठेगुणैः' आरोपितकण्ठे रक्तसूचसन्तुभिः पद्मोत्यलपिचानः मुनु मार करत लपरिगृहीतैरनेकसह सक्यैः कलशैरिति | गम्यते, तानेब विभागतो दर्शयनि-अष्टसहस्रेण सौत्रर्णिकानां कन्टशानाम् , अश्वहण रुप्यमवानान , अष्टमहनेग मणिमयानाम् , अष्टसहस्रेण सुवर्णरूप्यमयानाम् , अष्टसहस्रग सुवर्णमणिमयानाम् , अष्टमहोगमध्यमणिमयानाम् , अष्टसहस्रण सुवर्णरूप्यमणिमयानाम , अष्टमहरेण भौमेयानो, सर्वस हरयाऽएभिः सहश्चतुःपष्टयधिकैः, तथा सर्वोदकः' सर्वतीर्थनद्याशुदकैः सर्वतुवरैः सर्वपुष्पैः सर्वगम्यैः सर्वगापैः सर्वोपधिसिद्धार्थ फैश्च सर्वर्या' परिवारादिकया 'सर्वद्यत्या' यथाशक्ति विस्फारितेन शरीरतेजसा 'सर्वबलेन' मामस्येन वस्त्रहम्न्यादिसैन्येन 'सर्वसमुदयेन' स्वखाभियोग्यादिसमस्त परिवारण 'मादरेण ममग्नयावन्छक्तितोलनेन 'सर्वविभूत्या' सम्बान्वन्तरक्रियकरणगाविवाहारवाद्विसम्पदा, तथा 'सर्वविभूषया' प्रावल्डकिफारोदारशृङ्गारकरणेन 'सव्यसंभमेण ति: सवोत्कृष्टन संभ्रमेण, सर्वोत्कृप्रसंधभी नाम इह बनायफविषयबहुमानख्वापनार्थपरा खनायककार्यसम्पादनाय यावच्छक्ति त्वरितख-IN रिता प्रवृत्तिः, सर्वपुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालकारेण, अत्र गन्धा-बासा माल्यानि-पुष्पदामानः अलङ्कारा-आभरणानि ततः समाहारो द्वन्द्वः, ततः सर्वदिव्यत्रुटितानि तेषां शब्दाः सर्वदिव्यत्रुटितशब्दास्तैः मह सर्वशब्देन विशेषणसमासः, 'सम्वदिव्वतुडियसहनि दीप अनुक्रम [१७९] -- 54 %- JaEL 4 विजयदेव-अधिकार: ~37 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत प्रतिपत्ता विजयदेवाभिषेक उद्देशः२ सू०१४१ सूत्रांक [१४१] दीप श्रीजीवा- नाएणमिनि सर्वाणि च तानि दिव्यत्रुटितानि च-दिव्यतूर्याणि च, एषामेकत्र मीलनेन यः संगतो नितरां नादो-महान् घोपः सर्व- जीवाभि० दिव्यश्रुटितशब्दसनिनादस्तेन, इह तुरुयेण्यपि सर्वशब्दो दृष्टो यथाऽनेन सर्व पीतं वृतमिति, तत आह.-'महया इहीए' इत्यादि, मलयगि-1 महल्या यायच्छक्तितुलितया 'ऋया' परिवारादिकया 'महया जुईए' इत्याद्यपि भावनीयं, तथा महता स्फूर्तिमता बराणा-प्रधा- रीयावृत्तिः नानां त्रुटितानां-आतोयानां यमकसमर्क-एककालं पटुभिः पुरुयैः प्रवादितानां यो रबस्तेन, एनदेव विशेपेणाचष्टे-'संखपणवपड- सहभेरिझल्लरिखरमुहिड्डुकमुरवमुइंगदुंदुहिनिग्घोससंनिनादितरवेणं' शजः प्रतीत: पणवो-भाण्डानां पटहः-प्रतीत: भेरी-रका मलरी-चौवनद्धा विस्तीर्णा वलयरूपा बरमुही-काहला हुइक्का-महाप्रमाणो मर्दलो मुरजः-स एवं लघुर्मुदङ्गो दुन्दुभि:-मेर्याकारा सङ्कटमुखी, तासा द्वन्द्रः, नामां निपो-महान ध्वानो नादितं च घण्टायामित्र पादनो तरकालभाषी सततध्वनितलमणो यो रवतेन महता महना इन्द्राभिषेकेणाभिपिश्चति ।। 'तए ण'मित्यादि, ततो णमिति पूर्वधन नम्प विजयस्य देवस्य 'महया' इति अतिशयन महति इन्द्राभिषेके वर्तमानेऽप्येकका देवा विजयां राजधानी, सप्तम्यर्थे द्वितीया प्राकृतखानतोऽयमर्थ:-बिजयायां राजधान्यां नात्युदके प्रभून जलसंपहभावतो वैरपोपपत्ते: नातिमृत्तिके अतिमृत्तिकाया अपि कदमम पलायां उत्साहद्भिजनकलाभावात् 'पविरलफिसिय मिति अविरलानि-धन भावे कर्दमसम्भवान् प्रकर्षेण यावता रेणवः स्थगिता भवन्ति नावन्मात्रेणोत्कर्षेण स्पृष्टानि-स्पर्शनानि यत्र वर्षे तन् प्रविरलस्पृष्टं 'रयरेणुविणामणति लक्षणतरा रेणुपुद्गला रजस्त एव स्थला रेणवः रजामि च रेणवश्च रोरेशरस्तेषां वि नाशनं रसोरेणुविनाशनं दिव्यं प्रधानं सुरभिगन्धोदकच वर्षन्ति, अप्येकका विजयां राजधानी समानामपि 'निहतरजसं निहतं सालो सम्यां सा निहतर जास्ता, तन्त्र निहनत्वं रजसः क्षणमात्रमुस्थानाभावेनापि संभवनि तत आह-'नटरजम' नष्ट-सर्वथाऽदश्यी-16 अनुक्रम [१७९] ॥२४५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र )], - मूलं [ १४१] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः भूतं रजो यत्र [ प्रस्थायं ७००० ] सा नपुरजास्तां, तथा भ्रष्टुं वातोद्भूततया राजधान्या दूरतः पलायितं रजो यस्याः सा भ्रष्टरजास्ताम् एतदेवैकार्थिकद्वयेन प्रकटयति- प्रशान्तरजसं उपशान्तरजसं कुर्वन्ति, अध्येकका देवा विजयां राजधानीम् 'आसिय संभजियोवलितं सितं सुइसम्म [र]] रत्थंतरायणवीहियं करेंति' इति किमुच्उटेन संमार्जितं कथवरशोधनेन उपमिमित्र गोमयादिनोपलियं, तथा सिक्तानि जलेनात एव शुचीनि पवित्राणि संमृष्टानि-कचवरापनयनेन रध्यान्तराणि आपणीयय इव हट्ट ते नाग इव आपणवीथयो रथ्याविशेषाञ्च यस्यां सा तथा तां कुर्वन्ति अध्यकका देवा मध्यामिकलितां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा नानाविधा विशिष्टा रागा येषु ते नानाविरागा नानाविरागैरुतेः कृतेः पताकातिपताकाभिश्च मण्डितां कुर्वन्ति, अध्येफका देवा लाउहोइयमहितां गोशीसरसरक्तचन्दनपर्ववचालितां कुर्वन्ति, अत्येकका देवा विजयां राजधानीमुपचितचन्दनकलशां कुर्वन्ति अध्येकका देवा चन्दनकृततोरणप्रतिहारदेशभागां कुर्वन्ति अध्येकका देवा विजयां राजधानीमासिकोत्सकविपुल वृत्तवग्धारित माल्यदास कलापां कुर्वन्ति अध्येकका देवा विजयां राजधानी पञ्चवर्ण सुरभिमुकपुष्प जोपचारकलितां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा विजयां राजधानी कायागुरुवरकुन्दुरुतुरु चायमानां गन्धताभिराम सुगन्धवरगन्धगन्धिकां गन्धवॐ तिभूतां कुर्वन्ति, एतेषां च पदानां व्याख्यानं पूर्ववत्, अध्येका देवा हिरण्यवर्षे वर्षन्ति, अत्येककाः सुवर्णवर्षमध्येका आभरणवर्ष ( रवमध्येकका ववमप्येककाः ) पुष्पवर्षमध्येकका माध्यमप्येकवर्ष वस्रवर्षे ( आभरणव) वर्धन्ति, अप्येकका देवा हिरण्यविधि - हिरण्यरूपं मङ्गलप्रकारं 'भाजयन्ति' विश्राणयन्ति शेषदेवेभ्यो ददतीति भावः एवं सुवर्णरत्नाभरणपुष्पमाल्यगन्धचूर्णवस्त्रविधिभाजनमपि भावनीयम् || 'अप्पेगइया देवा दुयं नट्टविहिं उवदंसंति' इत्यादि, इह द्वात्रिंशन्नाव्यविधयः, ते च येन क्रमेण विजयदेव अधिकार: For P&Praise City ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम श्रीजीचा- भगवनो बर्द्धमानस्वामिनः पुरतः सूर्याभदेवेन भाविता राजप्रश्नीयोपाङ्गे दर्शितातेन क्रमेण सिनेय जनानुग्रहार्थमुपदार्थ, प्रतिपत्ती जीवाभिमस्तिकलीवरसनन्दावर्तबर्द्धमानकभद्रासनकलशमत्स्यदर्पणरूपाष्टमङ्गलाकाराभिनयात्मकः प्रथमो नाट्यविधिः १, द्वितीय आवर्तन यावत व विजयदेमलयनि- णिप्रतिश्रेणिस्वस्तिकपुष्पमाणवकवर्डमानकमत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपुष्पावलिपद्मपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलतापालताभक्तिचित्राम- वाभिषेक रीयावृत्तिानयात्मकः२, तृतीय ईहामृगपभतुरगनरमकरविहगव्याल किन्नरहरुलरभचमरकुसरवनलताघालताभकिनचित्रात्मकः३, चतुर्थ उद्देशः २ च(तश्च) द्विधातोच (ता)कएकतश्चक्रवाल द्विधातश्चक्रयालचकार्द्धचक्रवालाभिनयात्मकः ४, पञ्चमभन्द्रावलिपविभक्तिसूर्याचलिभविभक्ति- सू०१४१ ॥२४६॥ यात्रलिपविभक्तिहंसावलीप्रविभक्तिसारावलिपविभक्तिमुक्तावलिअविभक्तिरनाबलिप्रविभक्तिपुष्पात्रलिअधिभक्तिनामा ५, पप्रचन्द्रोहमा विभक्तिसूर्योद्गमप्रविभक्त्यभिनयामक उद्गमनोमनाविभक्तिनामा ६, सप्तमश्चन्द्रागमनसूर्यागमन विभक्त्यभिनयामक आगमनागमनप्रविभक्तिनामा ७, अष्टमञ्चन्द्रावरणप्रविभक्तिसूर्यावरणप्रविभव्यभिनयात्मक आवरणावरणप्रविभक्तिनामा ८, नवमश्चन्द्रासमयनप्रविभतिसूर्यास्तमयनप्रविभक्त्यभिनयात्मकोऽस्तगयनास्तमयनप्रविभक्तिनामा ५, दशमञ्चन्द्रमण्डलपविभक्तिसूर्यमण्डलपविभक्तिनागभण्डलपविभक्तियक्षमण्डलपविभक्तिभूतमण्डलपविभक्त्यभिनयात्मको मण्डलप्रविभक्तिनामा १०, एकादश रुपभमण्डलपविभक्तिसिंहमण्डलमविभक्तियविलम्बितगजविलम्बितहविलसितगजविलसितमत्तयषिलसितमत्तगजविलसितमत्तय विलम्वितमत्तगजविलम्बिताभिनयों द्रुतविलम्बितनामा ११, द्वादश: सागरप्रविभक्तिनागप्रविभक्त्यभिनयासकः सागरनागपत्रिभक्तिनामा १२, त्रयोदशो नन्दानविभ|क्तिचम्पाप्रविभक्त्यभिनयासको नन्दाचम्पाप्रविभक्त्यात्मक: १३, चतुर्दशो मत्स्याण्डकप्रविभक्तिमकराण्डकपविभक्तिजारप्रविभक्तिमार ॥२४६ ॥ विभक्त्यभिनयासको मत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारप्रविभक्तिनामा १४, पञ्चदशः क इति ककारप्रविभक्तिः ख इति खकारप्रविभ-18 [१७९] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~40 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४९] दीप अनुक्रम [१७९] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्तिः (3) ----- उद्देशकः [( द्वीप समुद्र)]. मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जी०च० ४२ विजयदेव अधिकार: — तिर्ग इति गकारप्रविभक्ति इति वकारप्रविभक्तिर्ड इति उकारप्रविभक्तिरित्येवं क्रमभाविककारादिप्रविभक्तयभिनयासकः ककारखकारंगकारका रङकारप्रविभक्तिनामा १५, एवं पोडशश्धकार छकारजकार झकारत्रकारप्रविभक्तिनामा १६, सप्तदश: टकारठकारडकारतकारणकारप्रविभक्तिनामा १७, अष्टादशस्तकारथकारदकारधकारनकारप्रविभक्तिनामा १८, एकोनविंशतितमः पकारफकारप्रकारभकारमकारप्रविभक्तिनामा १९ विंशतितमोऽशोकपप्रविभक्त्याम्रपत्रप्रत्रिभक्तिज म्यूपत्रप्रविभक्तिकोशाम्बपलब प्रविभक्तयभिनयात्मकः पल्लव २ प्रविभक्तिनामा २० एकविंशतितमः पद्मलताप्रविभचयशोकलताप्रविभक्तिचम्पकलताप्रविभक्तिचूतलताप्रविभक्तिवनलताविभक्तिवासन्तीलताप्रविभक्तयतिमुक्तलताप्रविभक्तिश्यामलताप्रविभक्त्यभिनयात्मको लताप्रविभक्तिनामा २१, द्वाविंशतितमो द्रुतनामा २२, त्रयोविंशतितमो विलम्बितनामा २३, चतुर्विंशतितमो द्रुतविलम्बितनामा २४, पञ्चविंशतितमः अचितनामा २५, पशि तितमो रिभितनामा २६, सप्तविंशतितमोऽचितरिभितनामा २७, अष्टाविंशतितम आरभटनामा २८, एकोनत्रिंशचमो भसोलनामा २९, त्रिंशत्तम आरभटभसोलनामा ३०, एकत्रिंश उत्पातनिपातप्रसक्तसंकुचितप्रसारितरेकर चित भ्रान्तसंभ्रान्तनामा ३१ द्वात्रिंशत्त मस्तु चरमचरमनामानिबद्धनामा, स च सूर्याभदेवेन भगवतो वर्द्धमानखामिनः पुरतो भगवतश्चरमपूर्वमनुष्यभवचरमदेवलोक भवचरमच्यवनचरमगर्भसंहरणच रमभरतक्षेत्राबसविणीतीर्थकरजन्माभिषेक चरम बालभाव चरमयौवनचरमकामभोगचरम निष्क्रमणच रमतपञ्चरणचरमज्ञानोत्पादचरम तीर्थप्रवर्तनचरम परिनिर्वाणाभिनयालको भावितः ३२ । तत्रैतेषां द्वात्रिंशतो नाट्यविधीनां मध्ये कांचन नाट्यविधीनुपन्यस्यति अप्येकका देवाः तुतं-दुतनामकं द्वाविंशतितमं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति एवमध्येकका विलम्बितं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति, अप्येकका द्रुतविलम्बितं नाट्यविधि, अप्येकका अञ्चितं नाट्यविधि, अन्येकका रिभितं नाट्यविधि, जप्येकका अ For P&Praise City ~41~ Lam Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: विजयदे प्रत सूत्रांक उद्देशः२ सू०१४१ [१४१] - चितरिमितं नाट्यविधि, अप्येकका आरभट नाट्यविधि, अप्येकका भसोलं नाट्यविधि, अप्येकका आरभटभसोलं नाट्यविधिमुपजीवाभि दर्शयन्ति, अप्येकका देवा उत्पातनिपातम् उत्पातपूर्वो निपातो यस्मिन् स उत्पातनिपातस्तं, एवं निपातोत्पातं सङ्कुचितप्रसारित मलयगि- रियारिय'मिति गमनागमनं भ्रान्तसम्भ्रान्तं नाम, नाट्यविधि-सामान्यतो नर्तनविधि द्वात्रिंशद्विध्युत्तीर्णमुपदर्शवन्ति । अप्येकका रिवारिक रीयावृत्तिः दादेवाश्चतुर्विध वाद्यं वादयन्ति, तयथा-'ततं' मृदङ्गपटहादि 'विततं' वीणादिकं 'घन' कंसिकादि 'शुपिरं' काहलादि, अप्येकका ॥२४७॥ देवाश्चतुर्विधं गेयं गायन्ति, तद्यथा-'उत्क्षिप्त प्रथमतः समारभ्यमाणं 'प्रवृत्तम् उत्पावस्थातो विक्रान्तं मनाम्भरेण प्रवर्त्तमान मन्दायमिति-मध्यभागे मूर्छनादिगुणोपेततया मन्दं मन्दं पोलनात्मकं 'रोचितावसान'मिति रोचितं-यथोचितलक्षणोपेततया | भावितं सत्यापितमितियावद् अवसानं यस्य तद् रोचितावसानं । अप्येककाश्चतुर्विधमभिनयमभिनयन्ति, तद्यथा-वाान्तिकं प्रतिश्रुतिक सामान्यतोविनिपातिक लोकमध्यावसानिकमिति, एतेऽभिनयविधयो नाट्यकशलेभ्यो बेदितन्याः, अप्येकका देवाः | 'पीनयन्ति' पीनमात्मानं कुर्वन्ति स्थूला भवन्तीति भावः, अप्येकका देवाः 'ताण्डवयन्ति' ताण्डवरूपं नृत्यं कुर्वन्ति, अप्येकका| देवाः 'लास्ययन्ति' लास्वरूपं नृत्यं कुर्वन्ति, अप्वेकका देवाः 'छुकारेंति' छुत्कारं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा एतानि पीनत्वादीनि चत्वार्यपि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा उच्छलन्ति अप्येकका देवाः प्रोच्छलन्ति अप्येकका देवाविपदिको छिन्दन्ति अध्येककास्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा हयहेषितानि कुर्वन्ति अप्येकका देवा हस्तिगडगडायितं कुर्वन्ति अप्येकका रथपणपणायितं कुर्वन्ति अप्येकका देवावीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा आस्फोटयन्ति, भूम्यादिकमिति गम्यते, अप्येकका देवा वल्गन्ति, अप्वेकका देवाः सिंहनादं नदन्ति अप्येकका देवाः पाददर्दरक कुर्वन्ति अध्येकका देवा भूमिचपेटा ददति-भूमि चपेटयाऽऽस्फाल दीप अनुक्रम [१७९] - Jati अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-अधिकार: ~42 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४१] दीप अनुक्रम [१७९] यन्तीति भावः, अप्येकका देवा महता महता शब्देन 'रवन्ते' शब्दं कुर्वन्ति अप्येकका देवाश्चत्वार्यपि सिंहनादादीनि कुर्वन्ति, अध्येकका देवा 'हकारेंति' हकारं कुर्वन्ति अध्येकका देवाः 'वुकारेंति' मुखेन वुकारशब्दं कुर्वन्ति अध्येकका देवाः 'थक्कारेंति' थक इत्येवं महता शब्देन कुर्वन्ति अप्येककास्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा अवपतन्ति अप्येकका देवा उत्पतन्ति अप्येकका देवा: परिपतन्ति-तिर्यग्निपतन्तीत्यर्थः अप्येकका देवावीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येककाः 'ज्वलन्ति' ज्वालामालाकुला भवन्ति अग्येकका देवा: 'तपन्ति' तप्ता भवन्ति अप्येककाः प्रतपन्ति अप्येकका देवावीण्यपि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा गर्जयन्ति अप्येककाः 'विजुयारंति' विगुतं कुर्वन्ति अपवेकका देवा वर्ष वर्षन्ति अप्येककास्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अध्येकका देवा देवोत्कलिका कुर्वन्ति-देवानां वातस्येवोत्कलिका देवोत्कलिका तां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा देवकहकहं कुर्वन्ति--प्रभूतानां देवानां प्रमोदभरवशतः | खेच्छावचनोल: कोलाहलो देवकहकहस्तं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा देवदुहुदुहु के कुर्वन्ति-दुदुहकमित्यनुकरणवचनमेतत् , अप्येक-1 कात्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येकका देवाश्चेलोरक्षेपं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा बन्दनकलशहस्तगताः-वन्दनकलशा हस्ते गता येषां ते वन्दनकलशहस्तगताः, अप्येकका देवाः भृङ्गारकलशहस्तगताः, एवमादर्शस्थालपात्रीसुप्रतिष्ठकवातकरकचित्ररत्नकरण्डकपुष्पचङ्गेरीयावलोमहस्तपङ्गेरीपुष्पपटलकयावलोमहस्तपटलकसिंहासनचामरसैलसमुद्रकवावदजनसमुदकधूपकबुच्छुकहस्तगताः प्रत्येकमभिलाप्याः, हतुडे'त्यादि यावस्करणात् 'हहुतुहचित्तमाणंदिया पीतिमणा परमसोसणस्सिया हरिसवसविसपमाणहियया' इति परिग्रहः, सर्वतः समन्ताद् आधावन्ति प्रधावन्ति ।। 'तए णं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणियसाह्त्सीओ' इत्याद्यभिषेकनिगमनसूत्रमाशीर्वादसूत्रं च पाठसिद्धम् ।। 154525255 विजयदेव-अधिकार: ~43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 7 श्रीजीवाजीवाभि मलयगि प्रत सूत्रांक [१४२] R40 रीयावृत्तिः ३ प्रतिपत्ती विजयदे वकृता जिनपूजा उद्देशः२ सू०१४२ ॥२४८ ॥ - दीप अनुक्रम तए णं से विजए देवे महया २ इंदाभिसेएणं अभिसित्ते समाणे सीहासणाओ अम्भुढेव सीहासणाओ अब्भुटेता अभिसेयसभातो पुरस्थिमेणं दारेण पडिनिक्वमति २त्ता जेणामेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छति २ ता आलंकारियसभं अणुप्पयाहिणीकरमाणे २ परथिमेणं दारेणं अणुपविसति पुरथिमेणं दारेणं अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति २त्ता सीहासणवरगते पुरस्थाभिमुहे मषिणसपणे, तए णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोवधषणगा देवा आभिओगिए देवे सहावेंति २एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! विजयस्स देवस्स आलंकारियं भंडं उवणेह, तेणेव ते आलंकारियं भंडं जाव उवट्ठति ॥ तए से विजए देवे तपढमयाए पम्हलमालाए दिव्याए सुरभीए गंधकासाईए गाताई लहेति गाताई लहेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गाताई अणुलिंपति सरसेणं गोसीसचंदणेणं गाताई अणुलिंपेत्ता ततोऽणतरं च णं नासाणीसासवायवज्झं चक्खुहरं वण्णफरिसजु हतलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखइयंतकम्मं आगासफलिहसरिसप्पभं अहतं दिवं देवदसजुयलं णियंसेइ णियंसत्ता हारं पिणिद्वेइ हारं पिणिवेत्ता एवं एकावलिं पिर्णिधति एकावलि पिणिधेत्ता एवं एतेणं अभिलावेणं मुत्तावलिं कणगावलिं रयणावलिं कडगाई तुडियाई अंगयाई केयूराई दसमुद्दिताणंतकं कडिसुत्तकं तेअस्थिसुत्तगं मुरविं कंठमुरवि पालंयसि -- [१८०] - - ॥२४८॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम [१८०] कुंडलाई चूडामणिं चित्तरयणुकडं मउड पिजिंधेड़ पिणिधित्ता गंठिमवेढिमपूरिमसंघाइमेणं चउब्विहेणं मलेणं कप्पाक्वयंपिव अप्पाणं अलंकियविभूसितं करेति, कप्परक्वयंपिय अप्पार्ण अलंकियविभूसियं करेत्ता दहरमलयसुगंधगंधितेहिं गंधेहिं गाताई सुपिडति २त्ता दिव्वं च सुमणदाम पिणिद्धति ॥ तए णं से विजए देवे केसालंकारेणं वत्थालंकारेणं मल्लालंकारेणं आभरणालंकारेण चउबिहेणं अलंकारेणं अलंकिते विभूसिए समाणे पंडिपुष्णालंकारे सीहासणाओ अभुट्टेइ २त्ता आलंकारियसभाओ पुरच्छिमिल्लेणं दारेण पडिनिक्खमति २ ता जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छति २त्ता ववसायसभं अणुप्पदाहिणं करेमाणे २ पुरस्थिमिल्लेणं दारेणं अणुपविमति २त्ता जेणेव सीहासणे नेणेव उवागच्छति २त्ता सीहासणवरगते पुरस्थाभिमुहे सपिणसपणे । तते णं तस्स विजयस्स देवस्स आहिरोगिया देवा पोत्थयरयणं उवणेति ।। तए णं से विजए देवे पोत्थयरयणं गेण्हति रत्ता पोत्यथरयणं मुयति पोत्धयरणं मुएत्ता पोत्थयरयणं बिहाडेति पोन्धयरयणं विहाडेता पोत्थयरयणं वाएति पोत्थयरयणं वाएत्ता धम्मियं गरिम'खावितो यावर 'करेता' इत्ययं पाढोअतिसितसूत्रस्य दावेव रायले व्याख्यानुसारेण. १ असा व्याख्यान रयते. हि त्यादि यवन। करेना इख पाठः पाण्याने दृश्यते, केसासकारेणं' इत्यादि यावत् विभूमिए गमाणे इत्येतस्य व्यापाऽपि न दृश्यते । गंटिगे त्यादि यावत करेला' इत्येतस्य पिडिपुण्णालंकारे' इस्तेन सह संबंधो दृश्यते व्याख्यानुसारेण. ४ अयं पुस्तकदयेऽप्यत्रर रयतेऽतोऽहं व्याख्यानुसारेण मूलपाटे कत्तुं न शक्तोऽभूयम् . .M.in विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४२ ] दीप अनुक्रम [१८० ] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [ १४२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ २४९ ॥ बवसायं पगेण्हति धम्मियं ववसायं पगेण्हित्ता पोत्थयरयणं पडिणिक्खिवेइ २ ता सीहासणाओ अभुट्ठेति २त्ता ववसायसभाओ पुरथिमिल्लेणं द्वारेणं पडिणिक्खमइ २ सा जेणेव णंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २ ताणंदं पुक्खरिणि अणुष्पवाहिणीकरेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति २ता पुरथिमिलेणं तिसोपाणपडिरूवगएणं पञ्चोरुहति २ त्ता हत्यं पादं पक्खालेति २ ता एवं महं सेतं रयतामयं विमलसलिलपुष्णं मत्तगयमहामुहाकितिसमाणं भिगारं परिहति भिंगारं पगेहिता जाई तत्थ उप्पलाई पउमाई जाव सतसहस्सपत्ताई ताई गिण्हति २ ता दातो पुवरिणीतो पत्तरेइ २ ता जेणेव सिद्धायतणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ जाव अण्णे य बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य अप्पेगइया उप्पलहत्थगया जाय हत्थगया विजयं देवं पितो पितो अणुगच्छेति ॥ तप णं तस्स विजयस्स देवस्स बहवे आभिओगिया देवा देवीओ य कलसहस्थगता जाव धूवकच्हत्थगता विजयं देवं पितो २ अणुगच्छति । तते गं से विजय देवे चsहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव अण्णेहि य बहहिं वाणमंतरेहिं देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिवुढे सविडीए सव्वजत्तीए जाव णिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव सिद्धाययणे तेणेव उवागच्छति २ सा सिद्धायतणं अणुष्पग्राहिणीकरेमाणे २ पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति अणु For P&Panty अत्र मूल - संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव कृता जिन पूजा-अधिकार ~46~ ३ प्रतिपत्ती विजयदे वकृता जिनपूजा उद्देशः २ सू० १४२ ॥ २४९ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम पविसित्ता जेणेव देवच्छंदए तेणेव उवागच्छति २त्ता आलोए जिणपडिमाणं पणामं करेति २त्ता लोमहत्थगं गेहति लोमहत्वगं गेणिहत्ता जिणपडिमाओ लोमहत्थएणं पमजति २सा सुरभिणा गंधोदएणं पहाणेति २त्ता दिव्वाए सुरभिगंधकासाइए गाताई लहेति २त्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गाताणि अणुलिंपइ अणुलिंपेत्ता जिणपडिमाणं अहयाई सेताई दिव्याई देवदूसजुयलाई णियंसेइ नियंसेत्ता अग्गेहिं बरेहि य गंधेहि य मल्लेहि य अञ्चेति २त्ता पुष्कारहणं गंधारुहणं मल्लारुहर्ण वपणारहणं चुपणारहणं आभरणारुहणं करेति करेत्ता आसत्तोसत्तविउलबद्दवग्धारितमल्लदाम० करेति २ सा अच्छेहिं सण्हेहिं [ सेएहिं ] रययामएहिं अच्छरसातंदुलेहिं जिणपडिमाणं पुरतो अट्टमंगलए आलिहति सोत्थियसिरिवच्छ जाच दप्पण अट्टटर्मगलगे आलिहति आलिहिता कयग्गाहम्गहितकरतलपन्भट्ठविप्पमुफेण दसद्धवन्नेणं कुसुमेणं मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलितं करेति २त्ता चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंडं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवगंधुत्तमाणुविद्धं धूमवहिं विणिम्मुयंतं वेरुलियामयं कडुच्छुयं पग्गहित्तु पयत्तेण धूवं दाऊण जिणवराणं अट्ठसयविसुद्धगंधजुत्तेहिं महावित्तेहिं अस्थजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं संथुणइ २त्ता सत्तट्ट पयाई ओसरति सत्तट्टपयाई ओसरिता वामं जाणुं अंचेइ २ ता दाहिणं जाणुं धरणितलंसि णिवाडेइ तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणि [१८०] विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~47 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥२५॥ ३ प्रतिपत्ती विजयदे वकृता जिनपूजा उद्देशः२ सू०१४२ [१४२] दीप अनुक्रम [१८०] यलंसि णमेइ नमित्ता इसिं पशुण्णमति २त्ता कडयतुडियर्थभियाओ भुयाओ पडिसाहरति २त्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं क्यासी-मोऽत्थु णे अरिहंताणं भगवंताणं जाब सिद्धिगणामधेयं ठाणं संपत्ताणं निकट वंदति णमंसति वंदिता णमंसित्ता जेणेव सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छति २त्ता दिव्वाए उदगधाराए अन्भुक्खति २ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचगुलितलेणं मंडलं आलिहति २त्ता वबए दलयति चचए दलयित्सा कयग्गाहरगहियकरतलपन्भट्ठविमुक्केण दसवण्णणं कुसुमेणं मुक्कपुप्फपुंजोक्यारकलियं करेति २त्ता धूवं दलयति २ जेणेव सिद्धायतणस्स दाहिणिल्ले दारे तेणेव उवागच्छति २त्ता लोमहत्थयं गेपहइ २ दारचेडीओ य सालिभंजियाओ य वालस्वए य लोमहत्वएणं पमजति २ बहुमज्नदेसभाए सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं अणुलिंपति २ चच्चए दलयति २ पुष्फारुणं जाव आहरणारहण करेति २ आसत्तोसत्तविपुल जाव मल्लदामकलावं करेति २ कयग्गाहग्गहित जाव पुंजोवयारकलितं करेति २ धृवं दलयति २ जेणेव मुहमंडवरस बहुमज्झदेसभाए तेणेच उवागच्छति २त्ता बहुमज्झदेसभाए लोमहत्येणं पमजति २ दिवाए उदगधाराए अभुक्खेति २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलगं आलिहति २ चचए दलयति २ कयग्गाह जाव धूवं दलयति २ जेणेव मुहमंडवगस्स पञ्चस्थिमिल्ले दारे तेणेव IR॥२५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४२ ] दीप अनुक्रम [१८० ] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----- उद्देशकः [( द्वीप समुद्र )], - मूलं [ १४२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः tato लोमहत्थगं गेहति २ दारचेडीओ य सालिभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थगेण पमजति २ दिव्वाए उद्गधाराए अम्मुक्स्वेति २ सरसेणं गोसीसचंद्रणेणं जाव चचए दलयति २ आसतोसत्त० करगाह ध्रुवं दलयति २ जेणेव मुहमंडवगस्स उत्तरिल्ला णं खभपंती तेणेव उवागच्छर २ लोमहत्यगं परार सालभंजियाओ दिखाए उदगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं पुप्फाम्हणं जाव असत्तोसत्त० कयग्गाह० धूर्व दलयति जेणेव मुहमंडवस पुरस्थि मिले दारे तं चैव सव्वं भाणियवं जाव द्वारस्स अचणिया जेणेव दाहिणिल्ले दारे तं चैव ara terraricate बहुमज्झसभाए जेणेव वहरामए अक्वाडए जेणेव मणिपेढिया जेणेव सीहामणे व वागच्छति २ लोमहत्थगं गिपनि लोमहत्थगं गिरिहन्ता अक्खाडगं च सीहासणं च लोमहत्थगण मजति २ सा दिव्याए उद्गधाराएं अम्भु० पुष्फारुणं जाव धूर्व दलयति जेणेव पेच्छाघरमंडवपचत्थिमिले द्वारे दारचणिया उत्तरिल्ला संभपंती तहेव पुरथि मिल्ले दारे तहे जेणेव दाहिणिले दारे तब जेणेव चेतियथूभे तेणेव उवागच्छति २ ता लोमहन्थ गेहति २ ता चेतियधूमं लोमहत्वएणं पमजति २ दिव्वाए दग० सरसेण० पुष्कारहणं आसत्तोमत्त जाव धूर्व दलपति २ जेणेव पचत्थिमिल्ला मणिपेडिया जेणेव जिणपडिमा तेणेव उवागच्छति जिणपडिमाए आलोय पणामं करेइ २ त्ता लोमहत्थगं वहति २त्ता तं विजयदेव कृता जिन पूजा अधिकार For P&Praise City ~49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभिः मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती |विजयदे| वकृता जिनपूजा सूत्रांक [१४२] उद्देशः२ ॥२५१॥ सू०१४२ दीप अनुक्रम चेव सवं जं जिणपडिमाणं जाव सिद्धिगइनामधेनं ठाणं संपत्ताणं वंदति णमंसति, एवं उत्सरिल्लाएवि, एवं पुरस्थिमिल्लाएवि, एवं दाहिणिलाएवि, जेणेब चेइयरुक्खा दारविही य मणिपेडिया जेणेच महिंदज्झए दारविही, जेणेव दाहिणिल्ला नंदापुक्खरणी तेणेव उवा० लोमहत्वगं गेपहति चेतियाओ य तिसोपाणपडिरूवए य तोरणे य सालभंजियाओ य बालरूवए य लोमहत्थएण पमजति २त्ता दिब्वाए उदगधाराए सिंचति सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिंपति २ पुकामहणं जाय धूवं दलयति २ सिद्धायतणं अणुप्पयाहिणं करेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला णंदापुक्रवरिणी तेणेव उवागच्छति २त्ता तहेव महिंदज्झया चेतियम्कायो चेतियथभे पञ्चस्थिमिल्ला मणिपेडिया जिणपडिमा उत्तरिल्ला पुरथिमिल्ला दक्विणिला पेच्छाघरमंडबस्सवि तहेव जहा दक्खिणिहस्स पचत्थिमिल्ले दारे जाव दक्विजिल्ला गं ग्वंभपंती मुहमंडबस्सवि तिहं दाराणं अचणिया मणिकर्ण दक्विणिल्ला णं बभपंती उत्तरे दारे पुरच्छिमे दारे सेसं तेणेव कमेण जाव पुरस्थिमिल्ला णंदापुक्वरिणी जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव पहारेत्य गमणाए । तते णं तस्स विजयस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ एयप्पमिति जाय सविडीए जाव णाइयरवेणं जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छंति २त्ता तं गं सभं सुधम्म अणुप्पयाहिणीकरेमाणे २ पुरथिमिल्लेणं अणुपविसति २ आलोए जिणसकहाणं पणामं करेति २ जेणेव मणिपेदिया [१८०] ॥२५१॥ JEc अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~50~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - -- -- प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम जेणेव माणवचेतियक्खंभे जेणेव बहरामया गोलवदृसमुग्गका तेणेव उवागच्छति २ लोमहत्त्वयं गेण्हति २त्ता वइरामा गोलबद्दसमुग्गए लोमहत्वएण पमजह २त्ता वरामए गोलवहसमुग्गए विहाडेति २त्सा जिणसकहाओ लोमहत्थएणं पमज्जति २सा सुरभिणा गंधोदएणं तिसत्तखुत्तो जिणसकहाओ पक्ग्वालेति २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिंपइ २त्ता अग्गेहिं बरेहिं गंधेहिं मल्लेहि य अचिणति २त्ता धूर्व दलयति २त्ता वइरामएसु गोलवसमुग्गएम पडिणिक्विवति २त्ता माणवकं चेतियखभं लोमहत्थएणं पमजति २ दिवाए उदगधाराए अन्भुक्वेइ २ चा सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयति २ पुष्फारुहणं जाव आसत्तोसत्त० कयग्गाह धूवं दलपनि २ जेणेव सभाए मुधम्माए बहमनदेसभाए तं व जेणय सीहासणे तेणेव जहा दारचणिता जेणेव देवसयणिजे चेव जेणेव खुदागे महिंदज्झए तं चेव जेणेव पहरणकोसे चोप्पाले तेणेव उवागच्छति २ पत्तेयं २ पहरणाई लोमहत्थाणं पमजति पमलित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं तहेव सव्वं सेसंपि दक्षिणदारं आदिका तहेवणेयव्वं जाव पुरमिछमिल्ला गंदापुक्वरिणी सन्याणं सभाणं जहा सुधम्माए सभाए तहा अञ्चणिया उववायसभाए णवरि देवसयणिजस्स अचणिया सेसासु सीहासणाण अचणिया हरयस्न जहा गंवाए पुक्खरिणीए अचणिया, ववसायसभाए पोस्थयरयणं लोम० दिव्याए उद्गधारा, सरसेणं गोसीसचंदणेणं -- [१८०] -- - विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 44 प्रतिपत्ती विजयदे प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः चिकृता [१४२] जिनपूजा उद्देशः२ १२५२॥ सू०१४२ दीप अनुक्रम [१८०] अणुलिंपति अग्गेहिं वरेहिं गंधेहि य मल्लेहि य अचिणति २त्ता [मल्लेहि] सीहासणे लोमहत्यएणं पमजति जाव धूर्व दलयति सेर्स तं चेव णंदाए जहा हरयस्स तहा जेणेव पलिपीठं तेणेव उवागमति २सा अभिओगे देवे सहावेति २त्ता एवं वयासी-बिप्पामेव भो देवाणपिया! विजयाए रायहाणीए सिंघाडगेसु य तिएसु य याउकेसु य चचरेसु य चतुमुहेसु य महापहपहेसु य पासामु य पागारेसु य अदालएसु य चरियासु य दारेस य गोपुरस य तोरणेसु च बावीसुध पुकम्बरिणीमु य जाब विलपंतिगासु य आरामेसु य उजाणेसु य काणणेसु य बणेसु य वणसंडेसु य वणराइसु य अचणियं करेह करेत्ता ममेयमाणत्तियं खिप्पामेव पचप्पिणहता ते आभिओगिया देवा विजगणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा जाव हतुवा विणएणं पडिसुणेनि २ सा विजयाए राबहागीर सिंघाडगेसु य जाव अचणियं करता जेणेव विजार देवे देणेव उवागच्छन्ति २ चा एयमाणत्तियं पचप्पिणति ॥लए णं से विजए देवे तेसिणं आभिओगियाणं देवाणं अंतिए एवमटुं सोचा णिसम्म हहतुद्वचित्तमाणंदिय जाय हयहियए जेणेव अंदापुक्रवरिणी तेणेव उवागच्छति २त्ता पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं जाव हत्थपायं पक्खालेति २त्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए अंदापुक्खरिणीओ पसरति २त्ता जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव पहारेत्य गमणाए । तए णं से विजए देवे चउहिं सामाणियसाह -20-1-720-2 4-02 रकर २५२ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~52 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] स्सीहिं जाव सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं सब्धिहीए जाय निग्घोसनाइयरवेणं जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव उवागच्छति २ता सभं सुधम्म पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति २सा जेणेव मणिपेढिया तेणेव उवागच्छति २सा सीहासणवरगते पुरच्छाभिमुहे सण्णि सपणे ।। (मू०१४२) 'तए ण'मित्यादि, ततः स विजयो देवो वानमन्तरैः 'महया २' इति अनिशयेन महता इन्द्राभिषेकेणामिपिक्तः सन सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थायाभिषेकसभात: पूर्वद्वारेण विनिर्गत्य यौवालङ्कारसभा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यालङ्कारिकसभामनुप्रदक्षिणीकुर्वन पूर्वद्वारेणानुप्रविशति, अनुप्रविश्य च यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव च सिंहासनं तत्रोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः संनिषण्णः, ततस्तस्य विजयस्य देवस्याभियोग्या देवा सुबहु 'आलङ्कारिकम्' अलङ्कारयोग्यं भाण्टमुपनयन्ति ।। 'तए ण'मित्यादि, सत: स विजयो देवस्तस्मथमतया तस्यामलद्वारसभायां प्रथमतया पक्ष्मला च सा मुकुमारा च पक्षमलसुकुमारा तथा 'सुरभिगन्धकापायिक्या' सुरभिगन्धकषायद्रव्यपरिकम्मितवा लघुशाटिकयेति गम्यते गात्राणि रूक्षयति रुक्षयित्वा सरसेन गोशीर्षचन्दनेन गात्राण्यनुलिम्पति अनुलिप्य देवदूष्ययुगलं निधन इति योगः, कथम्भूतः ? इत्याह-नासानीसासवाय-| बझं नासिकानिःश्वासवातवाहां, एतेन शक्ष्णतामाह, 'चक्षुहर' चक्षुहरति-आत्मवशं नयति विशिष्टरूपातिशयकलित त्याचक्षुरं 'वर्णस्पर्श युक्तम्' अतिशाबिना वर्णेनातिशायिना स्पर्शेन युक्तं 'हयलालापेलवाइरेग'मिति हयलाला-अश्वलाला तस्या अपि पेलयमतिरेकेण हयलालापेलवातिरेकं नाम नाग्नैकाध्ये समासो बहुल'मिति समासः, अतिविशिष्टमृदुल लघुत्वगुणोपेतमिति भावः | 2062 दीप अनुक्रम [१८०] जीच.४३ विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~53 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक रीयावृत्तिः [१४२] दीप अनुक्रम [१८०] श्रीजीवा-11धवलं-घेतं कनकखचितानि-विकछुरितानि अन्तकर्माणि-अचलयोनलक्षणानि यख तत् कनकसवितातकर्म आकाश- ३ प्रतिपदी जीवाभिक स्फटिक नाम-अतिखच्छस्फटिकविशेषस्तत्समप्रभ दिव्यं 'देवदूष्ययुगल' देववस्व युग्मं निवस्ते' परिथत्ते, परिधाय हारादीन्या-IRI विजयदेमलयगि-1 भरणानि पिनयति, सत्र हारः-अष्टादशसरिक: अर्द्धहारो-नवसरिक: एकावली-विचित्रमणिका मुक्तावली-मुक्ताफलमयी| वकृता कनकावली-कनकमणिमयी प्रालम्वः-तपनीयमयो विचित्रमणिरत्नभक्तिचित्र आसनः प्रमाणेन स्वप्रमाण आभरणविशेष: कट-3 जिनपूजा कानि-कलाचिकाभरणानि त्रुटितानि-वाहुरक्षकाः अङ्गदानि-बाह्वाभरणविशेपा 'दशमुद्रिकाऽनन्तक' हस्ताङ्गुलिसम्बन्धि उद्देशः२ ४ मुद्रिकादशकं 'कुण्डले' कर्णाभरणे चूडामणिमिति-चूडामणि म सकलपार्थिवरत्न सर्वसारो देवेन्द्रमनुष्येन्द्रमूर्द्धकृतनिवासो निः- सू०१४२ शेपापमङ्गलाशान्तिरोगप्रमुखोपापहारकारी प्रवरलक्षणोपेतः परममङ्गलभूत आभरणविशेषः 'चित्तरयणसंकर्ड मउड मिति चित्राणि-नानाप्रकाराणि वानि रबानि तैः सङ्कटः चित्ररत्नसङ्कटः प्रभूतरननिचयोपेत इति भावः । 'तं दिव्यं सुमण दाम'ति में 'दिव्यां' प्रधानां पुष्पमालाम् । 'तए णं से विजए' इत्यादि, ग्रन्थिम-प्रथनं ग्रन्थस्तेन निर्वृत्तं प्रन्थिमं 'भावादिनः प्रत्ययः' यत् सूत्रादिना प्रध्यते तद् प्रन्थिममिति भावः, भरिमं यद् प्रन्थितं सद् वेष्ट्यते यथा पुष्पलम्बूसको गण्डूक इत्यर्थः, पूरिनं येन | वंशशलाकादिमयपञ्जरी पूर्यते, सालिम यत्परस्परतो नालसवातेन सङ्घात्यते, एवंविधन चतुर्विधेन माल्येन कल्पवृक्षमिवामानम-11 लङ्कृतविभूषितं करोति कृत्वा परिपूर्णालङ्कारः सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थायालङ्कारसभातः पूर्वेण द्वारेण निर्गय यत्रैव व्यवसाय-15 1॥२५३।। सभा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनबरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषण्णः । 'तए णमित्यादि, ततस्तस्व विजयस्य देवस्याभियोग्याः पुस्तकर नमुपनयन्ति ।। 'तए णमित्यादि, ततः स विजयो देवः पुस्त करनं गृहाति गृहीला पुस्तकरजमुत्सङ्गादाविति गम्यते मुञ्चति ACC अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक *-* [१४२] - मुक्त्वा विघाटयति विघाख्यानुप्रवाचयति अनु-परिपाट्या प्रकर्पग-विशिष्टार्थाचगमरूपेण वाचयति पाचविला 'धाम्भिक' धर्मानुदगतं व्यवसाय व्यवस्थति, कर्तुम भिलपतीति भावः, व्यवसायसभायाः शुभाध्यवसायनिवन्धनवान , क्षेत्रादेरपि कर्मक्षयोपशमादि हेतुत्वान् , उक्तच-"उद्यक्खयखओबसमोचसमा जंच कम्मुणो भणिया। दबं खेतं कालं भवं च भावं च संपप्प ॥ १॥" इति, धामिर्क व व्यवसायं व्यवसाय पुस्त करने प्रतिनिक्षिपत्ति प्रतिनिक्षिप्य सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय व्यवसायसभातः पूर्वद्वारेण विनिर्गमछति विनिर्गत्य यौन व्यवसायसभाया एवं पूर्वा नन्दापुष्करिणी तत्रैवोपागमति उपागत्य नन्दा पुष्करिणीमनुप्रदक्षिणीकुर्वन पूर्वतोरणेनानुप्रविशति प्रविश्य पूर्वेण त्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहति, मध्ये प्रविशतीति भावः, प्रत्यवरुद्ध हस्तपादी प्रक्षालयति प्रक्षाल्यै कं महान्तं श्रेतं रजतमयं विमलसलिलपूर्ण मत्तकरिमहामुखाकृतिसमानं भूषारं गृहाति गृहीत्वा यानि तत्रोपलानि पानि कुमुदानि नलिनानि यावत् शतसहस्रपत्राणि तानि गृहाति गृहीत्वा नन्दात: पुष्करिणीतः प्रत्युत्तरति प्रत्युत्तीर्य यत्रैव सिद्धायतनं तत्रैव प्रधावितवान गमनाय ।। 'तए ण'मित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य चत्वारि सामानिकदेवसहस्राणि चतसः सपरिवारा अपमहिप्य: तिस्रः पर्पदः सप्तानीकानि समानीकाधिपतयः पोडशात्मरक्षवेवसहस्राणि अन्ये च बहवो विजयराजधानीवास्तव्या वानमन्तरा देवाश्च देव्या अध्येकका उत्पलहस्तगता अप्येककाः पद्महस्तगता अध्येकफाः कुमुदहस्तगताः एवं नलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रशतसहसपत्रहस्तगताः क्रमेण प्रत्येक वाक्याः, विजयं देवं पृष्ठतः। पृष्ठतः परिपाट्येति भावः अनुगच्छन्ति ।। 'तए णमित्यादि, ततस्तस्य विजयस्व देवस्य यहब आभियोग्या देवा देव्यश्च अप्येकका बन्दनकलशहस्तगताः अध्येकका भूङ्गारहस्तगताः अप्येकका आदर्शहस्तगताः एवं खालपात्रीसुप्रतिष्ठवातकरकचित्ररत्नकरण्डक * दीप अनुक्रम % [१८०] % * - 29 विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~55 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- पुष्पचङ्गेरीयावलोमहस्तचङ्गेरीपुष्पपटलकयावलोमहस्तपटलकसिंहासनच्छत्रचामरतैलसमुद्कयावदजनसमुद्रकधूपकडुल्छुकहस्तगताः क- प्रतिपत्ती जीचाभिः मेण प्रत्येकमालायाः, विजयं देवं पृष्ठतः पृष्ठतोऽनुगच्छन्ति । ततः स विजयो देवश्चतुर्भिः सामानिकसहश्चतमुभिः सपरियाराभिर-बिजयदेमलयगि-टू पमहिषीभिस्तिसभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः पोडशभिरामरक्षदेवसहस्रैरन्यैश्च बहुभिर्विजयराजधानीवास्तव्यैवी- वकृता रीयावृत्तिः नमन्तरैर्देवी भिश्च साई संपरिवृतः सर्वां 'जाव निग्घोसनादितरवेण'मिति यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्यः-सव्व- जिनपूजा जुईए सव्वबलेण सव्वसमुदएणं सब्बविभूईए सम्बसंभमेणं सवपुष्फगंधमझालंकारेणं सब्बतुडियसद्दनिनाएणं मह्या इडीए महया उद्देशः२ ॥२५४॥ जुईए महया बलेणं महया समुदरणं महया वरतुडियजमगसमगपडप्पवाइयरवेणं संखपणवषडहभेरिग्रहरिखरमुहिहुडुफद्दुभि- सू०१४२ निग्धोसनादितरवेणं' अस्य व्याख्या प्राग्वन् । यत्रैव सिद्धायतनं तत्रयोपागच्छति, उपागत्य सिद्धायतनमनुप्रदक्षिणीकुर्वन पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्यालोक्य जिनप्रतिमानां प्रणामं करोति, कृत्वा यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव देवच्छन्दको यत्रैव जिनप्रतिमास्तत्रो-12 पागच्छति, उपागय लोमहस्तकं परामृशति परामृश्य च जिनप्रतिमाः प्रमार्जयति प्रमार्य दिव्ययोदकधारया नपयति नपयित्वा सरसेनाद्रेण गोशीर्षचन्दनेन गात्राण्यनुलिम्पति, अनुलिप्य 'अहतानि' अपरिमलितानि दिव्यानि देवदूष्ययुगलानि 'नियं-|| सईत्ति परिधापयति परिधाप्य 'अप्रैः अपरिभुक्तैः 'वरैः' प्रधानैर्गन्धैर्माल्यैश्वार्चयति । एतदेव सविस्तरमुपदर्शयति-पुष्पारोपणं है माल्यारोपणं वर्णकारोपणं चूर्गारोपणं गन्धारोपणम् आभरणारोपणं (च) करोति, कृत्वा तासां जिनप्रतिमानां पुरतः 'अच्छे स्वच्छै: 'श्लक्ष्णैः' मसृणै रजतमयैः, अच्छो रसो येषां तेऽच्छरसाः, प्रत्यासन्नवस्तुप्रतिविम्बाधारभूता इवातिनिर्मला इति भावः, ते च ते ॥२५४॥ |तन्दुलाश्चाच्छरसतन्दुलाः, पूर्वपदस्य दीर्घान्तता प्राकृतत्वात् , यथा 'वइरानया नेमा' इत्यादी, नैरष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गल [१८०] ock अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~56 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] कान्यालिखति, आलिख्य 'कयग्गाहगहिय'मित्यादि मैथुनप्रथमसंरम्भे मुखचुम्वनाद्यर्थं युवत्याः पञ्चाङ्गुलिभिः केशेषु प्रहणं कचग्राहस्तेन कचप्राहेण गृहीतं करतलाद्विमुक्तं सत् प्रभ्रष्टं करतलप्रभ्रष्टविमुक्त, प्राकृतत्वादेवं पदव्यत्ययः, तेन 'दशार्द्धवर्णेन पञ्चवर्णेन 'कुसुमेन' कुसुमसमूहेन 'पुष्पपुजोपचारकलितं' पुष्पपुज एवोपचार:-पूजा पुष्पपुखोपचारस्तेन कलितं-युक्तं करोति, कृत्वा च 'चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंड' चन्द्रप्रभवनवैडूर्यमयो विमलो दण्डो यस्य स तथा तं काञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्रं कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपेन गन्धोत्तमेनानुविद्धा कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपगन्धोत्तमानुविद्धा, प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययः, तां धूपत्ति विनिर्मुञ्चन्तं वैडूर्यमयं धूपकडुच्छुक प्रगृह्य प्रयतो धूपं दत्त्वा जिनवरेभ्यः, सूत्रे पष्ठी प्राकृतत्वात् , साष्टानि पदानि पश्चाद| पसृत्य दशाङ्गुलिमञ्जलिं मस्तके कृत्वा प्रयत: 'अहसयविसुद्धगंठजुत्तेहिं' इति विशुद्धो-निर्मलो लक्षणदोषरहित इति भावः यो प्रन्थः-शब्दसंदर्भस्तेन युक्तानि विशुद्धग्रन्थयुकानि अष्टशतं च तानि विशुद्धग्रन्थयुक्तानि च तैः 'अर्थयुक्तः' अर्थसारैः अपुनरुक्तैः । ५ महावृत्तः, तथाविधदेवलब्धेः प्रभाव एषः, संस्तौति संस्तुत्य वाम जानुं 'अञ्चति' उत्पाटयति दक्षिणं जानुं धरणितले 'निवाडेई' इति निपातयति लगयतीत्यर्थः 'त्रिकत्वः' तीन वारान मूर्बानं धरणितले 'नमेइ'त्ति नमयति नमयित्वा चेषत्प्रत्युन्नमयति, ईषत्प्रत्युग्नम्य कटकत्रुटितस्तम्भितौ भुजौ 'संहरति सक्कोचयति, संहृत्य करतलपरिगृहीतं शिरस्थावत मस्तकेऽजलि कृत्वैवमबादीन्-'नमोऽत्यु 'मित्यादि, नमोऽस्तु णमिति वाक्यालङ्कारे देवादिभ्योऽतिशयपूजामईन्तीत्यर्हन्तस्तेभ्यः, सूत्रे षष्ठी द्विधिभत्तीएँ भन्ना चउत्थी" इति प्राकृतलक्षणात् , ते चाईन्सो नामादिरूपा अपि सन्ति ततो भावात्प्रतिपस्यर्थमाह-भगवद्भ्यः' भगः-समयैश्वर्यादिलक्षणः स एषागस्तीति भगवन्तस्तेभ्यः, आदि:-धर्मस्य प्रथमा प्रवृत्चिस्तत्करणशीला आदिकरास्तेभ्यः, तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति दीप अनुक्रम [१८०] विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~57 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] प्रतिपत्ती विजयदे| वकृता | जिनपूजा उद्देशः २ सू०१४२ दीप अनुक्रम श्रीजीवा-18तीर्थ तस्करणशीलास्तीर्थकरातेभ्यः, स्वयं-अपरोपदेशेन सम्यग्वरबोधिप्रात्या बुद्धा मिध्यात्वनिद्रापगमसम्बोधेन स्वयंसंबद्धास्तेभ्यः जीवाभि० तथा पुरुषाणामुत्तमाः पुरुषोत्तमाः, भगवन्तो हि संसारमप्यावसन्तः सदा परार्थव्यसनिन उपसर्जनीकृतस्वार्थी उचितक्रिया- मलयगि- वन्तोऽदीनभावाः कृतज्ञतापतयोऽनुपहत्तचित्ता देवगुरुबहुमानिन इति भवन्ति पुरुषोचमास्तेभ्यः, तथा पुरुषाः सिंहा इव कर्मगजान् रीयावृत्तिः ॥ प्रति पुरुषसिंहास्तेभ्यः, तथा पुरुपा वरपुण्डरीकाणीव संसारजलासङ्गादिना धर्मकलापेनेति पुरुषवरपुण्डरीकाणि तेभ्यः, तथा पुरुषा। वरगन्धहस्तिन इव परचक्रदुर्भिक्षमारिप्रभृतिक्षुद्रगजनिराकरणेनेति पुरुषवरगन्धहस्तिनस्तेभ्यः, तथा लोको-भष्यसरवलोकसतस्य । ॥२५५॥ सकलकल्याणैकनिवन्धनतया भव्यखभाषेनोत्तमा लोकोत्तमास्तेभ्यः तथा लोकस्य-भव्यलोकस्य नाथा-योगक्षेमतो लोकनाथास्तेभ्यः, तत्र योगो-बीजाधानोद्भेदपोषणकरणं क्षेम-तदुपद्रवाद्यभावापादनं, तथा लोकस्य-प्राणिलोकस्य पञ्चास्तिकायासकस्य वा हितोपदेशेन | सम्यकप्ररूपणया वा हिता लोकहितास्तेभ्यः, तथा लोकस्य-देशनायोग्यस्य विशिष्टस्य प्रदीपा-येशनांशुभिर्यथाऽवस्थितवस्तुप्रकाशका| लोकप्रदीपालेभ्यः, तथा लोकस्य-उत्कृष्टमते व्यसवलोकस्य प्रद्योतनं प्रद्योतः प्रद्योतकत्व-विशिष्टज्ञानशक्तितत्करणशीला लोकप्रयो। तकराः, तथा च भवन्ति भगवत्प्रसादात् तत्क्षणमेव भगवन्तो गणभृतो विशिष्टज्ञानसम्पत्समन्विता यदशाद्' द्वादशाङ्गमारचयन्तीति तेभ्यः, तथाऽभयं-विशिष्टमासनः स्वास्थ्य निःश्रेयसधर्मभूमिकानिबन्धनभूता परमा धृतिरिति भावः, तद् अभयं ददतीत्यभयदास्तेभ्यः, सूत्रे च कप्रत्ययः स्वार्थिकः प्राकृत लक्षणवशात् , एवमन्यत्रापि, तथा चक्षुरिव चक्षुः-विशिष्ट आमधर्मस्तत्त्वावबोधनिबन्धन श्रद्धास्वभावः, श्रद्धाविहीनस्याचक्षुष्मत इव तत्वदर्शनायोगात् , तददातीति चक्षुर्दास्तेभ्यः, तथा मागों-विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगुणः | स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषस्तं ददतीति मार्गदास्तेभ्यः, तथा शरणं-संसारकान्तारंगतानामतिप्रबलरागादिपीडितानां समाश्वसनस्थान [१८०] C0 X ॥२५५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम कल्पं तत्वचिन्तारूपमध्यवसानं तहवतीति शरणदास्तेभ्यः, तथा बोधि:-जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिस्सा तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यग्दर्शनरूपां। ददतीति बोधिदास्तेभ्यः, तथा धर्म-चारित्ररूपं ददतीति धर्मदास्तेभ्यः कथं धर्मदा: १ इत्याह-धर्म दिशन्तीति धर्मादेशकास्तेभ्यः, तथा धर्मस्य नायका:--स्वामिनस्तद्वशीकरणात्तत्फलपरिभोगाच धर्मनायकास्तेभ्यः, धर्मस्य सारथय इव सम्यकप्रवर्तनयोगेन धर्मसारथयस्तेभ्यः, तथा धर्म एवं वर-प्रधानं चतुरन्तहेतुत्वात् चतुरन्तं २ चक्रमिव चतुरन्तचक्रं तेन वर्तितुं शीलं येषां ते धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्तिनस्तेभ्यः, तथाऽप्रतिहते-अप्रतिस्खलिते ायिकत्वाद् वरे-अधाने ज्ञानदर्शने धरन्तीति अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरा|भ्यः, तथा छादयति-आवरयतीति छदा-पातिकर्मचतुष्टयं व्यावृत्तं-अपगतं छा येभ्यस्ते व्यावृत्तछयानस्तेभ्यः, तथा रागद्वेष कषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गपातिकर्मशन जितवन्तो जिनाः अन्यान जापयन्तीति जापकास्तेभ्यो जिनेभ्यो जापकेभ्यः, तथा भवाकाणे स्वयं तीर्णा अन्यांश्च तारयन्तीति तीर्णास्तारकास्तेभ्यः, तथा केवलवेदसा अवगततत्त्वा बुद्धा अन्यांश्च बोधयन्तीति बोधकातेभ्यः | | मुक्ता:-कृतकल्या मितितार्था इति भावः, अन्यांश्च मोचयन्तीति मोचकास्तेभ्यः, सर्वज्ञेभ्य: सर्वदर्शिभ्यः, शिव-सर्वोपद्रवरहितत्वात् | अचलं' स्वाभाविकप्रायोगिकचलनक्रियाव्यपोहात् 'अरुज' शरीरमनसोरभावेनाऽऽधिव्याध्यसम्भवात् अनन्त-केवलासनाऽनन्तलात् 'अक्षय' विनाशकारणाभावात् 'अब्याबा' केनापि विवाधयितुमशक्यत्वान् न पुनरावृत्तिर्यस्मात्तदपुनरावृत्ति, सिध्यन्तिनिष्ठितार्था भवन्त्यस्यामिति सिद्धिः-लोकान्तक्षेत्रलक्षणा सैव गम्यमानत्वाद् गतिः सिद्धिगतिः २ रिति नामधेयं यस्य तस्सिद्धिगतिनामधेयं, तिप्ठत्यस्मिन्निति स्थान-व्यवहारतः सिद्धक्षेत्रं निश्चयतो यथाऽवस्थितं खं स्वरूपं, स्थानस्थानिनोरभेदोपचारातु सिद्धिगतिनाम-IN धेयं तत्संप्राप्तेभ्यः । एवं प्रणिपातदण्डकं पठित्वा 'वंदइ नमसई' इति वन्दते-ताः प्रतिमाश्चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन, नमस्करोति [१८०] विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४२ ] दीप अनुक्रम [१८० ] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [ १४२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा ३ प्रतिपचौ विजयदे वकृता ।। २५६ ।। पञ्चात्प्रणिधानादियोगेनेत्येके, अन्ये त्वभिद्धति-विरतिमवामेव प्रसिद्धश्चैत्यवन्दनविधिरन्येषां तथाऽभ्युपगमे कायोत्सर्गासिद्धेरिति व जीवाभि० न्दते सामान्येन, नमस्करीत्याशयवृद्धेरुत्थाननमस्कारेणेति तत्त्वमत्र भगवन्तः परमर्षयः केवलिनो विदन्ति ततो वन्दित्वा नमस्थित्वा मलयगि- 4 यत्रैव सिद्धायतनस्य बहुमध्यदेशभागस्तत्रैवोपागच्छति उपागत्य बहुमध्यदेशभागं दिव्ययोदकधारया 'अभ्युक्षति' अभिमुखं सिध्यति, रीयावृत्तिः अभ्युक्ष्य सरसेन गोशीर्षचन्दनेन पञ्चाङ्गुलितलं ददाति, दवा कचप्राहगृहीतेन करतलप्रस्रविमुक्तेन दशार्द्धवर्णेन 'कुसुमेन' कुसुम- ४ जिनपूजा जातेन पुष्पपुत्रोपचारकलितं करोति कृत्वा धूपं ददाति दत्त्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं गृह्णाति, गृहीत्वा तेन द्वारशाखाशालभञ्जिकाव्यालरूपकाणि च प्रमार्जयति, प्रसृज्य दिव्ययोदकधारयाऽभ्युक्षणं गोशीर्षचन्दनचच पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं करोति, ततो दक्षिणद्वारेण निर्गत्य यत्रैव दाक्षिणात्या मुखमण्डपस्य बहुमध्यदेश भागस्तत्रोपागच्छति, उपागल लोमहस्तकं परामृशति, परामृश्य च बहुमध्यदेशभागं लोमहस्तकेन प्रमार्जयति, प्रसृज्य दिव्ययोदकधारयाऽभ्युक्षणं सरसेन गोशीर्षचन्दनेन | पञ्चाङ्गुलितलं मण्डलमालिखति, कचमाहगृहीतेन करतलमभ्रष्टविमुक्तेन दशार्द्धवर्णेन कुसुमेन पुष्पपुञ्जोपचारकलितं करोति, कृत्वा धूपं ददाति, दवा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य पश्चिमं द्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तपरामर्शनं तेन च लोमहस्तकेन द्वारशाखाशालभञ्जिकाव्यालरूपकप्रमार्जनं उदकधारयाऽभ्युक्षणं गोशीर्षचन्दनचच पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं करोति कृत्वा यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्योत्तरद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववद् द्वाराचैनिकां करोति कृत्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य पूर्वद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववत्तत्राप्यर्धनिकां करोति, कृत्वा च दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य यत्रैव दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववत्तत्र पूजां विधाय तेन द्वारेण विनिर्गत्य यत्रैव दाक्षिणात्यः प्रेक्षागृह मण्डपो यत्रैव दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृह मण्डपस्य For P&Peale City उद्देशः २ सू० १४२ ~60~ ।। २५६ ।। अत्र मूल - संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव कृता जिन पूजा-अधिकार Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] 6- 25 बहुमध्यदेशभागो यत्रैव बनमयोऽशपाटको यत्रैव च मणिपीठिका यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं पराम- 15 शति, परामृश्याक्षपाटकं मणिपीठिका सिंहासनं च प्रमार्जयति, प्रमाज्योंदकधारयाऽभ्युक्ष्य चन्दनचर्चा पुष्पपूजां धूपदानं च करोति, कृत्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृहमण्डपस्योत्तरद्वारं तत्रैवोपागमछति, उपागत्य पूर्ववहारार्च निकां करोति, कृत्वा यत्रैव दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृहमण्डपस्य पूर्वद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्वद्वारार्च निकां करोति, कृत्वा यत्रैव तस्य दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृहमण्डपस्य दाक्षिणायं द्वारं तत्रोपागच्छति, उपागय तत्रार्चनिकां कृत्वा यत्रैव दाक्षिणात्यचैव्यस्तम्भसत्रोपागच्छति, उपागत्य स्तूपं मणिपीठिका च लोमहत केन प्रमृज्य दिव्ययोदकधारयाऽभ्युक्षति सरसगोशीपचन्दनचर्चा पुप्पाचारोहणधूपदानादि करोति, कृत्वा च यौव पा-IAN चात्या मणिपीठिका यत्रैव च पाश्चात्या जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति, उपागत्य जिनप्रतिमाया आलोके प्रणाम करोतीत्यादि पूर्ववद् यावन्नमस्थिला यत्रैवोत्तरा जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति, उपागत्य तत्रापि यावन्नमस्थित्वा यत्रैव पूर्वा जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति उपागत्य पूर्ववद् यावन्नमस्थित्वा यत्रैव दाक्षिणात्या जिनप्रतिमा पूर्ववत् सर्व तदेव यावन्नमसित्वा यत्रैव दाक्षिणात्यश्चैत्यवृक्षस्तत्रोपागच्छति, उपागल्य पूर्वयदर्च निकां करोति, कला च यत्रैव महेन्द्रध्वजस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववदर्च निकां विधाय यत्रैव दाक्षिणात्या नन्दापुष्करिणी तत्रैकोपागच्छति, उपागल्य लोमहस्तकं परामशति, परामृश्य तोरणानि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि शालभजिकाव्यालरूपकाणि च प्रमार्जयति, प्रमायं दिव्ययोदकधारया सिञ्चत्ति, सिक्त्वा सरसगोशीर्षचन्दनपश्चाङ्गुलितलप्रदानपुष्पाचारोहणधूपदानादि करोति, कृत्वा च सिद्धायतनमनुप्रदक्षिणीकृत्य यौवोत्तरा नन्दापुष्करिणी स तत्रोपागच्छति, 'उपागत्य पूर्ववस्सर्वं करोति, कृत्वा चौत्तराहे मादहेन्द्रपजे तदनन्तरमौत्तराहे पैत्यवृक्षे तत औत्तराहे चैत्यस्तूपे, ततः पश्चिमोत्तरपूर्वदक्षिणजिनप्रतिमासु पूर्ववत्सर्वा वक्तव्यता वक्तव्या, -- दीप अनुक्रम [१८०] - 8 % 2- विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~614 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम श्रीजीवा-1 तदनन्तरमौत्तराहे प्रेक्षागृहमण्डपे समागच्छति, तत्र दाक्षिणात्ये प्रेक्षागृहमण्डपे पूर्ववत्सर्व वक्तव्यं, तत उत्तरद्वारेण विनिर्गयौत्तराहे प्रतिपत्त जीवाभिमुखमण्डपे समागच्छति, तत्रापि दाक्षिणात्यमुखमण्डपवत्सर्वं कृत्वोत्तरद्वारेण विनिर्गमा सिद्धायतनस्य पूर्वद्वारे समागच्छति, तत्रार्च-11 | विजयदेमलयगि- निको पूर्ववत्कृला पूर्वस्य मुखमण्डपस्य दक्षिणोत्तरपूर्वद्वारेपु क्रमेणोक्तरूपां पूजां विधाय पूर्वद्वारेण विनिर्गत्य पूर्वप्रेक्षामण्डपे समागत्य वकृता रीयावृत्तिः पूर्ववदर्च निकां करोति, ततः पूर्वप्रकारेणैव क्रमेण चैत्यस्तूपजिनप्रतिमाचैत्यश्नमाहेन्द्रध्वजनन्दापुष्करिणीनां ततः सभायां सुधर्माया | जिनपूजा पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यालोके जिनसभा प्रणाम करोति, कृत्वा च यन्त्र माणवक-15 उद्देशः२ ॥२५७॥ त्यस्तम्भो यत्र बसमया गोलवृत्ताः समुद्र कास्त नागत्य समुद्रकान् गृहाति, गृहीला च विघाटयति, विघाटा लोमहस्तकेन प्रमार्जयति, सू०१४ प्रमायौंदकधारयाऽभ्युक्षति, अभ्युक्ष्य गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति, ततः प्रधानैर्गन्धमान्यैरर्थयति, अर्चयित्वा धूपं दहति, तदनन्तरं भूयोऽपि वनमयेषु गोलवृत्तसमुद्र केषु प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य तान् वनमयान गोलवृत्तसमुद्रकान स्वस्थाने प्रतिनिक्षिपति, प्रतिनिक्षिप्य तेषु। पुष्पगन्धमास्यवस्त्राभरणान्यारोपयति, ततो लोमहस्तकेन माणवक चैत्यस्तम्भ प्रमार्योदकधारयाऽभ्युक्ष्य चन्दनचर्चा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं च करोति, कृत्वा सिंहासनप्रदेशे समागत्य सिंहासनस्य लोमहस्तकेन प्रमार्जनादिरूपां पूर्ववदर्चनिको करोति, कृत्वा यत्र मणिपीठिका यत्र च देवशयनीयं तत्रोपागत्य मणिपीठिकाया देवशयनीयस्य च प्राग्वदर्च निकां करोति, तत उक्तप्रकारेणैव क्षुल्लकेन्द्रध्वजपूजां करोति, कृत्वा च यत्र चोप्पालको नाम प्रहरणकोशस्तत्र समागत्य लोमहसोन परिघरत्रप्रमुखाणि प्रहरणरजानि प्रमार्जयति, प्रमाज्योंदकधारयाऽभ्युक्षणं चन्दनचर्चा पुष्पाचारोपणं धूपदानं करोति, कृत्वा सभायाः सुधर्माया बहुमध्यदेशभागेऽर्च निकां पूर्ववरक P ॥२५७॥ रोति, कुला सभाया: सुधर्माया दक्षिणद्वारे समागत्यार्च निकां पूर्ववत्करोति, ततो दक्षिणद्वारे विनिर्गच्छति, इत ऊई यथैव सिद्धायत-1 [१८०] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम नानिष्कामतो दक्षिणद्वारादिका दक्षिगनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना पुनरपि प्रविशत उत्तरनन्दापुष्करिणीप्रभृतिका उत्तरान्ता ततो द्वितीयं | वारं निरक्रामतः पूर्वद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानार्च निका वक्तव्या तथैव मुधर्मायाः समाया अप्यन्यूनातिरिक्ता द्रष्टव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिण्या अनिका कृलोपपातसभा पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य च मणिपीठिकाया देवशयनीयस्य तदनन्तरं बहुमध्यदे-17 शभागे प्राग्वदर्चनिको विद्याक्ति, नतो दक्षिणद्वारेण समागत्य सस्वार्च निकां कुरुते, अत ऊर्द्धमत्रापि सिद्धायतनबदक्षिणद्वारादिकाx पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽर्चनिका वक्तव्या । ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतोऽपक्रम्य इदे समागत्य पूर्ववत्तोरणार्थनिकों करोति, कला पूर्वद्वारेणाभिषेकसभायां प्रविशति, प्रविश्य मणिपीठिकायाः सिंहासनस्याभिषेकमाण्डस्य बहुमध्यदेशभागस्य च पूर्ववदर्चनिको क्रमेण | करोति, तदनन्तरमत्रापि सिद्धायतनबदक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽर्थनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीत: पूर्वद्वारेण व्यवसायसमा प्रविशति प्रविश्य पुस्तकरत्नं लोमहस्तकेन प्रमृयोदकधारयाऽभ्युक्ष्य चन्दनेन पयित्वा बरगन्धमास्यैर यिखा। पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं च करोति. तदनन्तरं मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेणार्च निकां करोति, तदनन्तरमवापि सिद्धायवनबदक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानार्च निका वक्तव्या, नतः पूर्वनन्दापु-करिणीतो बलिपीठे समागत्य तस्य बहुमध्यदेशभागे पूर्ववदर्च निकां करोति, कृत्वा चोत्तरपूर्वस्यां नन्दापुष्करिण्यां समागत्य तस्यान्तोरणेषु पूर्ववर्चनिको कृलाऽऽभियोगिकान देवान शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीन्-'खिय्पामेवे त्यादि सुगम यावन् 'एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति' नवरं शृङ्गाटकत्रिकोणं स्थान त्रिक-यत्र र यात्रयं मिलति चतुष्क-चतुष्पथयुक्तं चत्वरं-बहुरध्यापातस्थानं चतुर्मुग्य-यस्माचतमुष्वपि दिक्षु पन्धानो निस्सरन्ति महापथो-राजपथः शेषः सामान्यः पन्थाः प्राकार:-प्रतीत; अट्टालका:-प्राकारस्योपरि भृत्याश्रयविशेषाः चरिका-अष्टह [१८०] विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~634 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] दीप अनुक्रम श्रीजीवा-दासप्रमाणो नगरप्राकारान्तरालमार्गः द्वाराणि- प्रासादादीनां गोपुराणि-प्राकारद्वाराणि तोरणानि-द्वारादिसम्बन्धीनि आगत्य रमन्तेऽत्र ३ प्रतिपत्तौ जीवाभिमाधषीलतागृहादिषु दम्पत्य इति स आरामः पुष्पादिसवृक्षसलमुत्सवादी बहुजनोपभोग्यमुद्यानं सामान्यवृक्षगृन्दं नगरासन्न काननं || | विजयदेमलयगि-18नगरविप्रकृष्ट वनं एकानेकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो बनपण्डः एकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो वनराजी ।। 'तए ण'मित्यादि, ततः स विजयो वकृता रीयावृत्तिःहादेवो बलिपीठे बलिविसर्जनं करोति, कुल्ला च यत्रैबोत्तरनन्दापुष्करिणी तत्रोपागच्छति, उपागत्योत्तरपूर्वी नन्दा पुष्करिणी प्रदक्षिणीकु- जिनपूजा सर्वन पूर्वतोरणेनानुप्रविशति, अनुप्रविश्य पूर्वत्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य हस्तपादौ प्रक्षालयति, प्रक्षाल्य नन्दापुष्क॥२५८॥ " रिणीतः प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य चतुर्भिः सामानिकसहस्रश्चतमृभिरप्रमहिपीभिः सपरिचाराभिस्तिमृभिः पशिः समभिरनीकैः सप्तभि- सू०१४२ रनीकाधिपतिभिः षोडशभिरामरक्षदेवसहखैरन्यैश्च बहुभिर्विजयराजधानीवास्तव्यैर्वानमन्तरैर्देवैर्देवीभिश्च साद संपरिखतः सर्वा याबदू दुन्दुभिनिर्घोषनादितरवेण विज याया राजधान्या मध्यंमध्येन यत्रैव सभा सुधर्मा सत्रोपागच्छति, उपागलय सभा सुधी पूर्वद्वारेणानुप्रविशति, अनुप्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः | सन्निषण्णः ॥ तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं परोयं २ पुन्वणत्थेसु भदासणेसु णिसीयंति । तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पुरथिमेणं पत्तेयं २ पुषणत्धेसु भहासणेमु णिसीयंति। तए णं तस्स विजयस्स ॥२५८॥ देवस्स वाहिणपुरस्थिमेणं अभितरियाए परिसाए अट्ट देवसाहस्सीओ पत्तेयं २ जाब णिसी [१८०] SAROKAR CASSC अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् विजयदेव-कृता जिन-पूजा-अधिकार ~644 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक X [१४३] - 2 यंति । एवं दक्खिणेणं मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ जाय णिसीदति । दाहिणपचस्थिमेणं याहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पत्तेपरजाव णिसीदति । तएणं तस्स विजयस्स देवस्स पचत्थिमेणं सत्त अणियाहिवती पत्तेयं २ जाव णिसीयंति । तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पुरस्थिमेणं दाहिणेणं पचस्थिमेणं उत्तरेणं सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ पत्तेयं २ पुब्वणत्थेसु महासणेमु णिसीदंति, तंजहा-पुरस्थिमेणं चत्तारि साहस्सीओ जाव उत्तरेणं ४ ॥ ते णं आयरक्खा सन्नद्धवद्धवम्मियकवया उप्पीलियसरासणपट्टिया पिणद्धगेबेजविमलवरचिंधपहा गहियाउहपहरणा तिणयाई तिसंधीणि बहरामया कोडीणि धणूई अहि गिज्झ परिपाइयकंडकलावा णीलपाणिणो पीयपाणिणो रत्तपाणिणो चावपाणिणो चारूपाणिणो चम्मपाणिणो खग्गपाणिणो दंडपाणिणो पासपाणिणो णीलपीयरत्राचावचारुचम्मखग्गदंडपासवरधरा आयरक्रवारक्खोवगा गुत्ता गुत्तपालिता जुत्ता जुत्तपालिता पत्तेयं २ समयतो विणयतो किंकरभूताविष चिट्ठति । विजयस्स गं भंते ! देवस्स केवतियं कालं ठिती पण्णसा?, गो०! एग पलिओवमं ठिती पण्णता, विजयस्स णं भंते! देवस्स सामाणियाणं देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता?, एग पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, एवंमहिहीए एवंमहजुतीए एवंमहत्यले एवंमहायसे एवंमहामुक्खे एवंमहाणुभागे विजए देवे २॥ (सू०१४३) दीप अनुक्रम [१८१] -5 % जी०च०४४४ ~65 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४३] दीप अनुक्रम [१८१] श्रीजीवा- ततस्तस्य विजयस्य देवस्यापरोत्तरेण-अपरोत्तरस्यां दिशि एवमुत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्वां दिशि च चत्वारि २ सामानिकदेवसहस्राणि चतुर्दा र प्रतिपत्ता जीवाभि० भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पूर्वस्यां दिशि चतस्रोऽपमहिप्यश्चतुर्यु भद्रासनेषु निषीदन्ति, ततस्तस्य विजयस्य विजयदेमलयगि- | देवस्य दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरिकायाः पर्षदोऽष्टौ देवसहस्राणि अष्टासु भद्रासनसहस्रेषु निपीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवस्य दक्षिणस्यांवपरिवाररीयावृत्तिः दिशि मध्यमिकाया: पर्षदो दश देवसहस्राणि दशसु भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पश्चिमायां दिशि बा- स्थित्यादिः शायाः पर्षदो द्वादश देवसहस्राणि द्वादशसु भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति । ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पश्चिमायां दिशि समानीकाधि- उद्देशः२ ॥२५९॥ पतयः सप्तसु भद्रासनेषु निषीदन्ति । ततस्तस्य विजयम्य देवस्य सर्वतः समन्तान् सर्वासु दिक्षु सामस्त्येन पोडश आत्मरक्षकदेवसहस्त्राणि 31 सू०१४३ दापोडशसु भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति, तद्यथा-चत्वारि सहस्राणि चतुर्यु भद्रासनसहखेषु पूर्वस्यां दिशि, एवं दक्षिणस्यां दिशि, एवं प्रत्येकं पश्चिमोत्तरयोरपि ।। ते चामरक्षाः सन्नबद्धवर्मितकवचाः, कवचं-तनुत्राणं वर्म-लोहमयकुतूलिकादिरूपं संजातमस्मिन्निति वमितं सन्नद्धं शरीरे आरोपणान पद्धं गाढतरबन्धनेन बन्धनान् वर्मितं कवचं यैस्ते सन्नपद्धर्मितकवचाः, 'उप्पीलियसरासणपट्टिया' इति उत्पीडिता-गाढीकृता शरा अस्यन्ते-क्षिप्यन्तेऽम्मिन्निति शरासन:-इषुधिस्तम्य पट्टिका येत्पीडितशरासनपट्टिकाः 'पिणद्धगेवेजविमलवरचिंधपट्टा' इति पिनत प्रवेय-प्रीवाभरणं विमलबरचिह्नपदृश्व गैस्ते पिनद्धबरबविमलवरचिह्नपट्टा: 'गहियाउहपहरणा' इति आयुध्यसेऽनेनेत्यायुध-खेटकादि प्रहरण-असिकुन्ताहि, गृहीतानि आयुधानि प्रहरणानि च यैस्ते गृहीतायुधप्रहरणा: 'त्रिनतानि' आदिमध्यावसानेषु नमनभावान् 'त्रिसन्धीनि' आदिमध्यावसानेषु सन्धिभावान् , यन्त्रमयकोटीनि धषि अभिगुह्म 'परियाइयकंडकलावा' इति पर्यात्त काण्डकलापा विचित्रकाण्डकलापयोगान् , केचित् 'नीलपाणय' इनि नील: काण्डकलाप अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~66~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४३] इति गम्यते पाणी येषां ते नीलपाणयः, एवं पीतपाणयः रक्तपाणय:, चापं पाणी येषां ते चापपाणयः, चारु:-प्रहरणविशेषः पाणौ येषां ते चारुपाणयः, चर्म-अङ्गुष्ठाकुल्योराच्छादनरूपं पाणी येषां ते चर्मपाणयः, एवं दण्डपाणयः खगपाणयः पाशपाणयः, एतदेय | च्या चष्टे-यथायोगं नीलपीतरक्तचापचारुचर्मदण्डपाशवरा आत्मरक्षाः, रक्षामुपगच्छन्ति-तदेकचित्ततया तत्परायणा वर्तन्त इति रक्षोपगा: 'गुप्ताः' न स्वामिभेदकारिणः तथा गुप्ता-पराप्रवेश्या पालि:-सेतुर्वेषां ते गुप्तपालिकाः, तथा 'युक्ताः सेवकगुणोपेततयोचिताः तथा युक्ता-परस्परं बद्धा न तु बृहृदन्तराला पालिर्येषां ते युक्तपालिकाः, प्रत्येक प्रत्येक समयत:-आचारत आचारेणेत्यर्थः बिनयतश्च किङ्करभूता इव तिष्ठन्ति, न खलु ते किङ्कराः, किन्तु तेऽपि मान्याः, तेषामपि पृथगासननिपातनात् , केवलं ते तदानीं | निजाचारपरिपालनतो विनीतत्वेन च तथाभूता इव तिष्ठन्ति तदुक्तं किङ्करभूता इवेति | 'तए णं से विजए' इत्यादि सुप्रतीतं यावद्विजयदेववक्तव्यतापरिसमामिः ।। तदेवमुक्ता विजयद्वारवक्तव्यता. सम्प्रति वैजयन्तद्वारवक्तव्यतामभिधित्सुराह कहिणं भंते ! जंबुद्दीवस्स वेजयंते णामं दारे पण्णते?, गोयमा! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स दक्षिणेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई अबाधाए जंबुद्दीबदीवदाहिणपेरते लवणसमुहदाहिणद्वस्स उत्तरेणं एत्थ णं जंबुद्दीवस्स २ वेजयंते णामं दारे पण्णसे अट्ट जोयणाई उई उच्चत्तेणं सवेव सब्बा वत्तब्वता जाव णिचे । कहि णं भंते ! रायहाणी?, दाहिणे णं जाव वेजयंते देवे २॥ कहिणं भंते! जंबुद्दीवस्स २ जयंते णाम दारे पण्णत्ते?, गोयमा! वहीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स पञ्चत्यिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई जंबुद्दीवपञ्चत्थिमपेरंते लवणसमुदपचत्थिमस्स पुर CSCG दीप अनुक्रम [१८१] ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४४-१४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४४-१४५] प्रतिपत्तौ वैजयन्तादीनि द्वा राणि सू०१४४ द्वारान्तरं | उद्देशः २ सू०१४५ % - श्रीजीवा- छिमेणं सीओदाए महाणदीए उपि एस्थ णं जंबुद्दीवस्स जयंते णाम दारे पण्णत्ते, तं चेव से जीवाभि पमाणं जयंते देवे पचत्थिमेणं से रायहाणी जाव महिहीए ॥ कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स अपरामलयगि-14 इए णाम वारे पपणते?, गोयमा! मंदरस्स उत्तरेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई अथाहाए जंबुरीयावृत्तिः । दीवे २ उत्तरपेरते लवणसमुदस्स उत्तरद्धस्स दाहिणणं एस्थ णं जंबुद्दीवे २ अपराहए णामं दारे पणते तं व पमाण, रायहाणी उत्तरेणं जाव अपराइए देवे, चउण्हवि अपणंमि जंबुद्दीवे ॥ 1॥२६॥ (सू०१४४) जंबुद्दीवस्त णं भंते! दीवस्स दारस्स य दारस्स य एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पपणते?, गोयमा। अउणासीति जोयणसहस्साई बावणं च जोयणाई देसूर्ण च अद्धजोयणं दारस्स य२ अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ॥ (सू०१४५) 'कहिणं भंते' इत्यादि सर्व पूर्ववत् , नबरमन्त्र वैजयन्तस्य द्वारस्य दक्षिणतस्तिर्यगसहयेयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिक्रम्येति वक्तव्यं, शेष प्राग्वत् ।। एवं जयन्तापराजितद्वारवक्तव्यताऽपि वाच्या, नवरं जयन्तद्वारस्य पश्चिमायां दिशि, अपराजितद्वारस्योत्तरतस्तिर्यग सयेयान द्वीपसमुद्रान् व्यतित्रज्येति वाच्यम् ॥ सम्प्रति विजयादिद्वाराणां परस्परमन्तरं प्रतिपिपादयिषुरिदमाह-'जंबुद्दीवस्स | पाणमित्यादि, जम्बूद्वीपस्य णमिति प्राग्वन भदन्त ! द्वीपस्य सम्बन्धिनो द्वारस्य च द्वारस्य चैतत् कियत्प्रमाणाबाधया-अन्तरित्वा प्रति घातेनान्तरं प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! एकोनाशीतियोजनसहस्राणि द्विपञ्चाशद् योजनानि देशोनं चाईयोजनं द्वारस्य च द्वारस्य चाबाधयाऽन्तरं प्रज्ञान, तथाहि-चतुर्णामपि द्वाराणा प्रत्येकमेकैकस्य कुञ्यस्य द्वारशाखापरपर्यायस्व बाहल्यं गब्यूर्त द्वाराणां च वि-| दीप अनुक्रम [१८२-१८३] 4*4-08 ॥२६ ॥ JEE अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४४-१४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: + -- + * प्रत सूत्रांक [१४४-१४५] 9 तारः प्रत्येक २ चत्वारि २ योजनानि, ततञ्चतुर्वपि द्वारेषु सर्वसपया कुख्यद्वारप्रमाणमष्टादश योजनानि, जम्बूद्वीपस्य च परिधिस्तिस्रो लक्षाः षोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके ६१६२२७ कोश त्रयं ३ अष्टाविंशं धनुःशतं १२८ त्रयोदशाङ्गुलानि एकमर्धाङ्गुल १३॥ मिति, असमाञ्च जम्बूद्वीपपरिधेः सकाशात्तानि कुड्यद्वारपरिमाणभूतान्यष्टादश योजनानि शोध्यन्ते, शोधितेषु च तेपुर परिधिसत्को योजनराशिरेवरूपो जात:-तिम्रो लक्षा: षोडश सहस्राणि द्वे शते नवोत्तरे ३१६२०९, शेषं तथैव, ततो योजनराशेश्चतुभिभीगो हियते, लब्धानि योजनानामेकोनाशीतिः सहस्राणि द्विपञ्चाशदधिकानि गम्यूतं चैकं ७९०५२ को० १, यानि च। परिधिसत्कानि त्रीणि गव्यूतानि तानि धनुस्खेन क्रियन्ते लब्धानि धनुषा पट् सहस्राणि, यदपि च परिधिसत्कमष्टाविंशं धनुःशतं | तदप्येतेपु धनुःषु मध्ये प्रक्षिप्यते, ततो जावो धनराशिरेकषष्टिः शतान्यष्टाविंशत्यधिकानि ६१२८, एपां चतुर्भािगो हियते, लब्धानि | धनुपां पश्चदश शतानि द्वात्रिंशदधिकानि १५३२, यान्यपि च त्रयोदशाङ्गुलानि तेषामपि चतुर्भिर्भागो हियते, लब्धानि त्रीणि अङ्ग-15 लानि, एतदपि सर्व देशोनमेकं गब्यूत मिति लब्धं देशोनगर्द्धयोजनं, उक्तं च--"कुदुवारपमाणं अट्ठारस जोयणाई परिहीए । सो-17 हिय चउहि विभत्तं इमो दारंतरं होई ॥ १॥ अउणासीइ सहस्सा बावण्णा अद्धजोयणं नूर्ण । दारस्स य दारस्स य अंतरमेयंश |विणिद्दिष्ट ।। २ जंबुद्दीवस्स भंते ! दीवस्स पएसा लवणं समुदं पुट्ठा?, हंता पुट्ठा ।। ते णं भंते! किं जंबुद्दीवे २ कुड्यद्वारप्रमाणमाद योजनानि परिधेः । शोधयित्वा बभबिके इदं द्वारान्तरे भवति ॥ १॥ एकोनाशीतिः सहस्राणि विपणन अयोजनमून द्वारस्य वारस्य चान्तरनेतत् बिनिदि २॥ दीप अनुक्रम [१८२-१८३] 4%259454545% ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४६ ] दीप अनुक्रम [१८४] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [ १४६ ] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ।। २६१ ॥ लवणसमुद्दे ?, गोयमा ! जबुद्दीवे दीवे नो खलु ते लवणसमुद्दे ।। लवणस्स णं भंते! समुहस्स पदेसा जंबूदीवं दीवं पुट्टा ?, हंता पुढा । ते णं भंते! किं लवणसमुद्दे जंबूदीवे दीवे?, गोयमा। लवणे णं ते समुद्दे नो खलु ते जंबुद्दीवे दीवे ॥ जंबूदीवे णं भंते! दीवे जीवा उद्दाहत्ता २ लवणसमुद्दे पचायति ?, गोपमा । अत्थेगतिया पचायंति अत्थेगतिया नो पञ्चायति ॥ लवणे णं भंते! समुदे जीवा उदाइसा २ जंबुद्दीवे २ पचायंति ?, गोयमा ! अस्थेगतिया पचायंति अत्थेगतिया नो पवायंति ॥ (मृ० १४६ ) 'जंबूद्दीवर णं भंते!' इत्यादि, जम्बूद्वीपस्य णमिति पूर्ववत् भदन्त ! द्वीपस्य 'प्रदेशाः स्वसमागतचरमरूपा लवणं समुद्र 'स्पृष्टाः ?' कर्तरि कप्रत्ययः स्पृष्टवन्तः, काका पाठ इति प्रार्थत्वावगतिः पृच्छतश्चायमभिप्रायः यदि स्पृष्टास्तर्हि वक्ष्यमाणं पृच्छयते नो चेचर्हि नेति भावः, भगवानाह इंतेत्यादि, 'इन्' इति प्रत्यवधारणे स्पृष्टाः ॥ एवमुक्ते भूयः प्रच्छवि - 'ते ण'मित्यादि, ते भ दन्त ! स्वसमागतचरमरूपाः प्रदेशाः किं जम्बूद्वीपः ? किंवा लवणसमुद्रः ?, इह यद् येन संस्पृष्टं तत्किचित्तपपदेश म भुवानमुपधं यथा सुराष्ट्रेभ्यः संकान्तो मगधदेशं मागध इति किञ्चित्पुनर्न तपपदेशभाग यथा तर्जन्या संस्था ज्येष्ठाऽङ्गुलिज्येष्ठैवेति, इहापि च जम्बूद्वीपचरमप्रदेशा लवणसमुद्रं पृष्टवन्तस्ततो व्यपदेशचिन्तायां संशय इति प्रत्रः, भगवानाह गौतम ! जम्बूद्वीप एव णमिति निपातस्यावधारणार्थखात् ते चरमप्रदेशा द्वीपो, जम्बूदीपसीमावर्तित्वान्, न खलु ते जम्बुद्वीपचरप्रदेशा लवणसमुद्रः, (न ते) जम्बूद्वीपसीमानमतिक्रम्य लवणसमुद्रसीमानमुपगता: किन्तु स्वसमागता एवं लवणसमुद्रं स्पृष्टवन्तस्तेन तटस्थतया संस्पर्शभावान् तर्जन्या For P&Pase Cly ४ ३ प्रतिपत्तौ स्पर्शोत्पातपृच्छा उद्देशः २ सू० १४६ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~70~ ।। २६१ ॥ watery w Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: %250 " 4- प्रत सूत्रांक [१४६]] % 2- % % संस्पृष्टा ज्येष्ठा१लिरिव ते खव्यपदेशं भजन्ते न व्यपदेशान्तरं, तथा चाह-नो खलु ते जम्बूद्वीपचरमप्रदेशा लत्रणसमुद्रः । एवं 'लवणम्स णं भंते ! समुदस्स पदेसा' इत्यादि लवणविषयमपि सूत्रं भावनीयम् ॥ 'जंबुद्दीवे णं भंते!' इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे ये जीवासे 'उद्दाइत्ता' इति 'अवद्राय र मृत्वा २ लवणसमुद्रे 'प्रत्यायान्ति' आगच्छन्ति ?, भगवानाह-गौतम अस्तीति निपातोऽत्र बहर्थः, सन्येकका जीवा ये 'अबदायावद्राय मृत्वा २ लबणसमुद्रे प्रत्यायान्ति, सन्त्येकका ये न प्रत्यायान्ति, जीवानां सथा तथा स्वस्वकर्मावशतया गतिवैचित्र्यसम्भवात् ।। एवं लवणमूत्रमपि भावनीयं ॥ सम्प्रति जम्बूद्वीप इति नानो निवन्धन जिज्ञासिपुः। प्रभं करोति से केणढणं भंते! एवं खुशति जंबूहीये २१, गोयमा! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं णीलवंतस्स दाहिणणं मालबनस्स वग्वारपव्वयस्स पचस्थिमेणं गंधमायणस्स बक्वारपब्वयस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं उत्तरकुरा णाम कुरा पण्णत्ता, पाईणपडीणायना उदीणदाहिणविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिता एकारस जोयणासहस्साई अट्ट बायाले जोयणसते दोपिण य एकोणवीसतिभागे जोयणस्स विखंभेणं ॥ तीसे जीवा पाईणपडीणायता दुहओ वक्खारपब्वयं पुट्ठा, पुरस्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिहह वक्खारपब्वनं पुट्टा पञ्चस्थिमिल्लाए कोडीए पञ्चस्थिमिल्लं वक्खारपश्वर्य पुढा, नेवणं जोयणसहस्साई आयामेणं, तीसे धणुपटुं दाहिणणं सहि जोयणसह दीप अनुक्रम [१८४] %% -% - ~71 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती उत्तरकुरुवर्णनं उद्देशः २ ससाई यतारि य अहारसुत्तरे जोयणसने दुवाल स य एकूणवीसतिभाए जोयणस्स परिक्वेवेणं पण्णत्ते ॥ उत्तरकुराए णं भंते! कुराए करिसए आगारभावपडोयारे पण्णसे?, गोयमा। बहसमरमणिज्जे भूमिभागे पपणले, से जहा णाम ए आलिंगपुक्खरेति वा जाव एवं एकोयदीववतब्वया जाव देवलोगपरिग्गहा गं ते मणुयगणा पण्णता समणाउसो!, णवरि हम णाणतंउधणुसहस्समूसिता दोछप्पना पिट्ठकरंडसता अट्ठमभत्तस्स आहारट्टे समुप्पजति तिषिण पलिओवमाई देसूणाई पलिओवमस्सासंखिजहभागेण ऊणगाई जहन्नेणं तिन्नि पलिओवमाई उकोसेणं एकूणपण्णराइंदियाई अणुपालणा, सेसं जहा एगूरुयाणं ।। उत्तरकुराए णं कुराए छविहा मणुस्सा अणुसजंति, तंजहा-पम्हगंधा १ मियगंधा २ अम्ममा ३ सहा ४ तेयालीसे ५ सणिचारी ६ (सू०१४७) 'सेकेणडेणं भंते ! इत्यादि, अथ केन 'अर्थेन' केन कारणेन भदन्त ! एवमुच्यते जम्बूद्वीपो द्वीप: इति, भगवानाह सू०१४७ ॥२६२॥ दीप अनुक्रम [१८५] १ यद्यपि सूपकारः जहा एगोरुपमतम्यवेति वाक्येनातिदिश्यते उत्तरकुरखरूपमशेष तथापि व्याख्यातमत्राशेष तत्, म कोशकद्वीपखवायसरे तांतशोऽपि व्याख्यातो वर्णनस्य, व्याख्यायकसूरिभिधान्यत्रातिदिश्यते कल्पमाविवर्णने यथोत्तरकुरुष्विति नान पतं मूलसूत्रं न च परावर्तिता व्याख्या, परमेतदनुमीयते गन्त टीकाकृद्धि प्राप्ता आदी अव कल्पवृक्षादिवर्णनयुक्ताः प्रधौपस्थितकोरुकवर्णनस्थाने च ता हिता अतिदिष्टाः स्युः, चिन्यमेतावदेवात्र यन सूत्रकारल्याऽवर्णनीय-12 पदार्थात्तिदेशस्तव सूत्रे, तत्र सामान्येन वर्णमें स्वादन विशेषेणेति युक्तं विवेचनमन्त्र तत्रभवदीयादर्शानुसारेण वा, अत एवात्र प्रतिसूत्रप्रतीक तिमलयगिरिशदानाम्. % ॥२६२॥ JEKAL अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् उत्तरकुरु-देवकुरु अधिकारस्य विशद्-वर्णनं आरभ्यते ~72 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] S दीप अनुक्रम [१८५] जम्बूद्वीपे णमिति वाक्यालङ्कारे द्वीपे मन्दरपर्वतस्य 'उत्तरेण उत्तरत: नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य 'दक्षिणेन' दक्षिणतो गन्धमादनस्य । वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरस्थिमेणंति पूर्वस्यां दिशि माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमायाम् 'अत्र' एतस्मिन् प्रदेश उत्तरकुरवो| नाम कुरवः प्रजाताः, सूत्र एकवचननिर्देशोऽकारान्त तानिर्देशश्च प्राकृतत्वान् , ताश्च कथम्भूताः? इत्याह-पाईणे'त्यादि। प्राचीनापाचीनायता उदग्दक्षिणविस्तीर्णा अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिता एकादश योजनसहस्राण्यष्टौ योजनशतानि 'द्विचत्वारिंशानि'। द्विचत्वारिंशदधिकानि द्वौ चैकोनविंशतिभागौ योजनस्य 'विष्कम्भेन' दक्षिणोचरतया विस्तारण, तथाहि-महाविदेहे मेरोरुत्तरत | उत्तरकुरवो दक्षिणतो दक्षिणकुरवः, ततो यो महाविदेहक्षेत्रस्य विष्कम्भस्तस्मान्मन्दरविष्कम्भे शोधिते यदवशिष्यते तवार्ड | यावत्परिमाणमेतावत्प्रत्येक दक्षिणकुरूणामुत्तरकुरूणां च विष्कम्भः, उक्तं च-"बइदेहा विक्खंभा मंदरविक्खंभसोहियद्धं जं । कुरुविक्षों जाणम्” इति, स च यथोक्तप्रमाण एव, तपाहि-महाविदेहे विष्कम्भन्त्रयस्त्रिंशद् योजनसहस्राणि षट् शतानि | चतुरशीत्यधिकानि योजनानां चतस्रः कला: ३३६८४ क०४, एतस्मान्मेरुविष्कम्भो दश योजनसहस्राणि शोध्यन्ते १०००० खितानि पश्चात्रयोविंशतिः सहस्राणि पट् शतानि चतुरशीत्यधिकानि योजनानां चतसः कला: २३६८४ क० ४, एतेषामढे लब्धान्येकादश सहस्राणि अष्टौ शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि योजनानां च कले ११८४२ ० २॥ 'तीसे' इत्यादि, तासामुत्तरकुरूणां जीवा उत्तरतो नीलवर्षधरसमीपे प्राचीनापाचीनायता उभवतः पूर्वपश्चिमभागाभ्यां वक्षस्कारपर्वतं यथाक्रमं माल्यवन्तं गन्धमादनं च 'स्पृष्टा' स्पृष्टवत्ती, एतदेव भावयति-पुरथिमिल्लाए' इत्यादि, पूर्वया 'कोट्या' अग्रभागेन पूर्व वक्षस्कारपर्वतं माल्यवदभिधानं 'स्पृष्टा' स्पृष्टवती 'पश्चिमया' पश्चिमदिगवलम्विन्या कोट्या पश्चिमवक्षस्कारपर्वसं गन्धमादनास्यं स्पृष्टा, सा च जीवा SCRACK JaEarnal ~73 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ॥ २६३॥ दीप अनुक्रम [१८५] आयामेन त्रिपञ्चाशद् योजनसहस्राणि, कथमिति चेदुच्यते-इह मेरोः पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि भद्रशालबनस्य यदायामेन परिमाणं प्रतिपत्ती यच मेरोविष्कम्भस्य तदेकन मीलितं गन्धमादनमाल्यवद्वक्षस्कारपर्वतमूलपृथुत्वपरिमाणरहितं यावत्प्रमाणं भवति तावदुत्तरकुरूणां उत्तरकुरुजीबायाः परिमाणम्, उक्तं च-मंदरपुम्वेणायय बावीस सहस्स भहसालवणं । दुगुणं मंदरसहियं दुसेलरहियं च कुरुजीवादी वर्णनं ॥१॥" तच्च यथोक्तप्रमाणमेव, तथाहि-मेरोः पूर्वस्यामपरस्यां च दिशि प्रत्येक भद्रशालवनस्य वैयपरिमाणं द्वाविंशनियोजनसह- | उद्देशः२ साणि, ततो द्वाविंशतिः सहस्राणि द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जालानि चतुश्चत्वारिंशन सहम्माणि ४४१००, मेरोश्च पृथुत्वपरिमाणं दश योज- सू०१४७ नसहखाणि १००००, तानि पूर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि चतुष्पञ्चाशत्सहस्राणि ५४०००, गन्धमादनस्य माल्यवतश्च वक्षस्कारपर्वतस्य प्रत्येक मूले पृथुत्वं पञ्च योजनशतानि, ततः पञ्च शतानि द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जातं योजनसहन, तन् पूर्वराशेरपनीयते, जातानि त्रिपञ्चाशद् योजनसहमाणि ५३०५० ॥ 'तीसे धणुपट्ट'मियादि, तासागुत्तरकुरूणां धनुःपूर्ण 'दक्षिणेन' दक्षिणतः, तञ्च | पष्टियोजनसहवाणि चत्वारि योजनशतानि अष्टादशोत्तराणि द्वादश एकोनविंशतिभागा योजनस्य परिक्षेपेण, द्वयोरपि हि गन्धमादनमाल्ययद्वक्षस्कारपर्वतयोरायामपरिमाणमेकत्र मीलितमुत्तरकुरूणां धनुःषष्ठपरिमाणं, "आयामो मेलाणं दोह व मिलिओ कुरुण धणुप?" इति वचनान् , गन्धमादनस्य माल्यवतश्च वक्षस्कारपर्वतस्य प्रत्येकमायामपरिमाणं त्रिंशद् योजनसहस्राणि द्वे शते नवोत्तरे षट् च कला: ३०२०९ क०६, उभवोश्व मिलिल आयामो यथोक्तपरिमाणो भवति ६०४१८ क. १२॥ 'उत्तरकुराएणं भंते ! इत्यादि, उत्तरकुरूणां भडन्त ! कुरूणां, सूत्रे एकवचनं प्राकृतवान् , कीदृश आकारभावम्यरूपम्य प्रन्यवनास-सम्भवः प्राप्तः ?, भगबानाह-गौतम! बहुसमरमणीयो भूमिभाग उत्तरकुरूणां प्रज्ञप्तः, से जहानामए-आलिंगपुस्वरेइ वा इत्यादि जगत्युपरि बनप-16 JaEarn अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~74 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] ण्डवर्ण कबत्ताबद्द्वक्तव्यं यावतणानां च मणीनां च वर्णो गन्धः स्पर्शः शब्दच सवर्णकः परिपूर्ण उक्तो भवति, पर्यन्तसूत्रं चेवम्'दिव्व नई सज गेयं पगीयाणं भवे एयासवे, हना सिया' इति ।। 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तर कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवे 'खुड्डा खुडियाओ वायीओ' इत्यादि, तथा त्रिसोपानप्रतिरूपाणि तोरणानि पर्वतकाः पर्वतकेयासनानि गृहकाणि गृहेष्वासनानि मण्डपका मण्डपेषु पृथिबीशिलापट्टकाः पूर्ववत् बक्तव्याः , तदनन्तरं चेदं वक्तव्यम्-'तत्थ णं बहवे उत्तरकुरा मणुस्सा मणुस्सीओ व आसयंति सयंति जाव कल्याणं फल वित्तिविसेसं पञ्चणुभवमाणा विहरन्ति' एतद्भयाख्याऽपि प्राग्वत् । । 'उत्तरकुराए णं भंते! कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु णमिति पूर्ववन् कुरुपु तत्र तत्र देशे 'तहि तहिं' इति तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्र-1 देशे बहवः सरिकागुरुमा: नवमालिकागुल्माः कोरण्डगुस्मा: वन्धुजीवकगुल्माः मनोवद्य गुल्माः वीयकगुल्मा: बाणगुल्मा: (कणवीरगुल्माः) कुछजकगुल्माः सिन्दुवारगुरुमा: जातिगुल्माः मुदरगुल्मा यूधिकागुल्मा: मल्लिकागुल्माः वासन्तिकगुल्माः वस्तुलगुल्माः कस्तूलगुल्माः सेवालगुल्मा: अगस्त्यगुल्माः मगदन्तिगुल्मा: चम्पकगुल्माः जातिगुल्माः नवनातिकागुल्माः कुन्दगुल्मा: महाकुन्दगुल्माः, सरिकादयो लोकत: प्रत्येतव्याः, गुल्मा नाम अस्वस्कन्धबहुकाण्डपत्रपुष्पफलोपेताः, ततः सर्वत्र विशेषणसमासः, सरिकादीनां मास्तिस्रः सह णिगाथा:-"सेरियए नोमालियकोरंटयबन्धुजीवगमणोजा । बीययबाणयकणवीरकुन तह सिंदुवारे व ॥ १॥ जाईमोग्गर तह जुहिया य तह महिया य वासंती । वरधुलकत्थुलसेवालगत्थिमगदंतिया चेव ॥ २ ॥ चंपकजाईनवनाइया व कुंदे तहा महाकुंदे ।। एवमणेगागारा हवंति गुम्मा मुणेयब्बा ॥ ३ ॥" ते णं गुम्मा' इत्यादि, 'ते' अनन्तरोदिता णमिति वाक्यालङ्कारे गुल्मा: 'दशाईवर्ण' पञ्चवर्ण 'कुसुम' जातानेकवचनं कुसुमसमूह 'कुसुमयन्ति' उत्पादयन्तीति भावः, येन कुसुमोत्पादनेन कुरूणां बहुसमरम ~75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] श्रीजीवा-हाणीयो भूमिभागो 'बायबियग्गसालेहिं 'तिवातेन विधुता:-कम्पिता वातविधुनास्ताव ता अपशाखाश्च वातबिधुतामशाखास्ताभिः, मूत्र प्रतिपत्तौ जीवाभिस्त्य निर्देश: प्राकृतलान् , मुक्तो यः पुष्पपुलः स एत्रोपचार:-पूजा मुक्तपुष्पपु जोपचारतेन कलितः भियाइतीव उपशोभमानस्तिष्ठति ॥ उत्तरकुरुमलयगि-18 उत्तरकुराएणं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य २ देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे यहूनि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतलान् , हरुतालवनानि | वर्णनं रीयावत्तिःदकतालबनानि मेरुतालबनानि शालबनानि सरलवनानि सम्पर्णवनानि पूगीफलीवनानि खरीबनानि नालिकेरीवनानि कुशविकुशवि- उद्देशः२ शुद्धवृक्षमूलानि, ते च वृक्षाः मूलमंतो कंदमंतो इत्यादि विशेषण जातं जगत्युपरिवनपण्टकवर्णकवनावत्परिभाषनीयं यावद् 'अणेगसग-1 सू०१४७ 1॥२६४॥ राजाणजोग्गगिल्लिथिलिसीयसंदमाणपडिमोयणेसु रम्मा पासाईया दरसणिजा अभिरूवा पडिरूवा' इति, भेरुतालादयो वृक्षजातिवि-||3| शेपाः शालादयः प्रतीता: ।। 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे | वर उद्दाला: कोदाला मोहालाः कृतमाला तृत्तमाला वृत्तमाला दन्तमाला: शृङ्गमाला: शङ्खमाला: श्वेतमाला नाम 'दुमगणाः' ४ इमजातिविशेषसमूहा: प्रज्ञप्ताः तीर्थकरगणधरैः हे श्रमण! हे आयुष्मन् , ते च कथम्भूताः ? इत्याह-कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला इत्यादि प्राग्वद् यावत् 'पडिमोयणा सुरम्मा' इति ।। 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्त्र तत्र तत्र प्रदेशे यह्वस्तिलका लवकाः छत्रोपगाः शिरीपाः सप्तपर्णाः लुब्धाः धवाः चन्दना: अर्जुना: नीपाः कुट जाः कदम्बा: पनसाः ४ शालाः तमाला: प्रियाला: प्रियङ्गवः पारापता राजवृक्षा नन्दिवृक्षाः, तिलकादयो लोकप्रतीताः, एते कथम्भूताः? इत्याह-कुशविकु-18 शविशुद्धवृक्षमूला इत्यादि सर्व प्राग्वद् यावत् 'पडिमोयणा सुरम्मा' इति ।। 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुपु ॥२६४ ।। तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्थ तन्त्र तत्र प्रदेशे बहवः पद्मलता नागलता अशोकलताश्चम्पलताभूतलता बनलता वासन्तिकलता-11 दीप अनुक्रम [१८५] 2-% Jiatical अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~76 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] ४ अतिमुक्तकलताः कुन्दलता: श्यामलताः, एताः सुप्रतीताः, 'निचं कुसुमियाओं' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् 'जाब पडिरूवाओ' इति ।। 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र सत्र प्रदेशे बहयो धनराजयः प्रजभाः, इन्हैकानेकजातीयानां वृक्षाणां पतयो वनराजयस्तत: पूर्वोतसूत्रेभ्योऽस्य भिन्नार्थतेति न पौनरुत्य, ताञ्च बनराजयः प्रज्ञप्ताः कृष्णाः कृष्णावभासा इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् ताबद्धक्तव्यं यावत् अणेगरहजाणजुम्गगिल्लिथिल्लिसीयर्सदमाणियपडिमोयणाओ सुरम्माओ जाव पडिरूवाओ' इति ।। 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो मत्ताङ्गका नाम दुमगणाः प्रज्ञाप्रा हे श्रमण! हे आयुष्मम् !, किंविशिष्टास्ते ? इत्याह-यथा से चंदप्पभमणिसलाग' इत्यादि, यथा चन्द्रप्रभादयो मद्यविधयो बहुप्रकारास्तत्र चन्द्रस्येव प्रभा-आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा, मणिशलाकेव मणिशलाका, वरं च तन् सीधु च वरसीधु, बरा च सा वारुणी च वरवारुणी 'सुजाबपुन्नपुष्फलयोयनिजाससारबहुदबजुत्तिसंभारकालसंधियआसव' इति इहासव:-पत्रादिवासकद्रव्यभेदादनेकप्रकारः, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायां लेश्यापदे रसचिन्तावसरे-पत्तासवेइ वा पुष्फासवेइ वा फलासवेइ वा चोयासवेइ वा' ततोऽत्र निर्याससारशब्दः पत्रादिभिः सह प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः, पत्रनियोससारः पुष्पनिर्याससारः फलनिर्याससारश्रोयनिर्याससारः, तत्र पत्रनिर्यासो-धातकीपत्ररसस्तत्प्रधान आसवः पत्रनियाँससारः, एवं पुष्पनिर्याससारः फलनिर्याससारश्च परिभावनीयः, चोयो-गन्धद्रव्यं तन्निससारश्चोयनिर्याससारः, सुजाता:-सुपरिपाकागताः, 'बहुद्रव्ययुक्तिसंभारा' इति बहूनां द्रव्याणामुपहकाणां युक्तयो-मीलनानि तासां संभार:-प्राभूत्यं येपु ते बहुद्रव्ययुक्तिसंभाराः, पुनः कथम्भूताः ? इत्याह-कालसंधिय' इति कालसन्धिनाः सन्धान सन्धा काले-खस्योचित सन्धा कालसन्धा सा संजातपामिति कालसन्धिता, वारकादिदर्शनादि जोच.४५ Jame! ~77 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] श्रीजीवा-लातप्रत्ययस्ततः पदद्वयपदद्वयमीलनेन विशेषणसमासः, सुजातपत्रपुष्पफलचोयनिर्याससारबहुद्रव्ययुक्तिसम्भारकालसन्धितासवाः, मधु-लप्रतिपत्ती जीवाभि० मेरकी-मद्यविशेषी, 'रिष्ठरत्नवर्णाभा' रिष्ठा या शास्त्रान्तरे जम्बूफलकलिकेति प्रसिद्धा, दुग्धजाति:-आस्वादत्तः क्षीरसरशी, प्रसन्ना- उत्तरकुरुमलयगि-18 सुराविशेषः, नेलकोऽपि सुराविशेषः, शतायुर्नाम या शतवारान् शोधिताऽपि खस्वरूपं न जहाति, 'खजूरमुद्दियासार' इति अ-भा वर्णन रीयावृत्तिः वापि सारशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, खजूरसारो मृट्ठीकासारः, तत्र ण(मू)लदलखर्जूरसारनिष्पन्न आसबविशेष: खजूरसारः, मृद्वीका- उद्देशः२ द्राक्षा तरसारनिष्पन्न आसवविशेषो मृवीकासारः, कापिशायितं-मद्यविशेषः, सुपक:-सुपरिपाकागतो यः क्षोदरस-दक्षुरसस्तनिष्पन्ना सू०१४७ ॥२६५॥ वरसुरा सुपकोदरसवरसुरा, कथम्भूता एते मद्यविशेषा:? इत्याह-वन्नगंधरसफासजुत्तबलविरियपरिणामा' वर्णेन सामादति-18| शायिना एवं गन्धेन रसेन स्पशेन च युक्ताः-सहिता बलवीर्यपरिणामा-बलहेतवो वीर्यपरिणामा येषां ते तथा, किमुक्तं भवति ?परमातिशयसंपन्नवर्णगन्धरसम्पर्बलहेतुभिर्यपरिणामै श्रोपेता इति, पुन: किंविशिष्टाः ? इत्याह-बहुप्रकाराः' बहवः प्रकारा येषां | जातिभेदेन ते बहुप्रकाराः, तथैव मत्ताङ्गका अपि द्रुमगणा मद्यविधिनोपपेता इति योगः, किंविशिष्टेन मद्यविधिना? इत्यत आहहा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए' इति न एक: अनेकः, तत्रानेक: अनेकजातीयोऽपि व्यक्तिभेदागवति तत आह-बहु-प्रभूतं विविधो-जातिभेदान्नानाप्रकारो बहुविविधः प्रभूतजातिभेदतो नानाविध इति भावः, स च केनापि निष्पादिवोऽपि संभाव्यते तत आह | -विश्रसया-स्वभावेन तथाविधक्षेत्रादिसामनीविशेषजनितेन परिणतो न पुनरीश्वरादिना निष्पादितो विश्रसापरिणतः, ततः पदत्रवस्य 8 पदद्वयपदद्वयमीलनेन कर्मधारयः, सूत्रे च स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वान् , ते च मद्यविधिनोपपता न ताडादिवृक्षा इवाङ्करादिपु किन्तु फलेषु ॥२५॥ तथा चाह-'फलेहिं पुण्णा वीसंदंति' अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया 'व्यत्ययोऽप्यासा'मिति वचनान , फलेषु मद्यविधिभिरिति गम्यते 'पूर्णाः ACTORSROGA 24 15 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] संभृताः 'विष्यन्दन्ति' सबन्ति, सामर्थ्यात्तानेवानन्तरोदितान् मद्यविधीन , कचित् 'विसदृति' इति पाठरतत्र विकसन्तीति व्याख्येयं, दकिमुक्तं भवति ?-तेषां फलानि परिपाकागतमद्यविधिभिः पूर्णानि स्फुटित्वा तान् मद्यविधीन मुञ्चन्तीति, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला:, मूलवन्त' इत्यादि प्राम्वद् यावत्प्रतिरूपका इति १ । 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो भृङ्गारका नाम द्रुमगणा: प्रज्ञप्ता हे अमण! हे आयुष्मन् ! 'जहा से' इत्यादि, यथा ते करकपटककलशकर्करीपादकाचनिकाउदङ्गवा नीसुप्रतिष्ठकविष्टरपारीचषकभृङ्गारककरोटिकासरकपरकपात्रीस्थालमल्लकचपलितदकवारकविचित्रपट्टकशुक्तिचारुपीनका भाजनविधयः, एते प्रायः प्रतीताः, नवरं पादकाञ्चनिका-पादधाबनयोग्या काञ्चनमयी पात्री उदको-येनोदकमुदच्यते वा नी-गलन्तिका सरको वंशमयच्छिकाः शिकाकृति: अप्रतीता लोकतो विशिष्टसंप्रदायाद्वाऽवसातव्याः, कथम्भूताः' इत्याह l-काञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्राः, पुनः कथम्भूताः' इत्याह-बहुप्रकारा:. एकैकस्मिन् विधाववान्तरानेकभेदभावात् , तथैव ते भृङ्गाङ्गका अपि दुमगणा: 'अणेगबहुविविहविस्ससापरिणयाए' इत्यस्य व्याख्या पूर्ववत् भाजनविधिनोपपेताः, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूल-14 वन्त इत्यादि प्राग्वद् यावत्प्रतिरूपाः २ ॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तन्त्र तत्र प्रदेशे बहवस्तुदिताङ्गका नाम मगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन !, 'जहा से' इत्यादि, यथा ते आलिझाप(मुख)म-15 दङ्गपणवपटहदर्दरककरदिडिण्डिमभम्भाहोरम्भाकणिताखरमुखीमकुन्दशलिकापिरलीवशकपरिवादिनीवंशवेणुवीणासुघोषाविपच्चीमहतीकाभीरिगसिका, तालिप वायत इति आलिझायः मुरवः-वाद्यविशेषः, एष यकारान्तशब्दः, मृदङ्गो-लघुमदलः, पणवो-भाण्ड-13 पटहो लघुपटहो वा पटहः-प्रतीतः, दर्दरकोऽपि तथैव, करटी-सुप्रसिद्धा, डिण्डिमः-प्रथमप्रस्तावनासूचकः पणवविशेषः, भम्भा ~79 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप श्रीजीवा- टका, होरम्भा-महाटका, कणिता-काचिद् वीणा, खरमुखी-काहला, मकुन्दो-मरुजवाद्यविशेषो योऽभिलीनं प्रायो पाद्यते, श- ३ प्रतिपत्ती जीवाभि०|||शिका-लघुशखरूपा तस्याः खरो मनाक् तीक्ष्णो भवति नतु शङ्खस्येवातिगम्भीरः, पिरलीवनको तृणरूपवायविशेषौ, परिवादिनी-15 उत्तरकुरुमलयगि-1|| सप्तसबीबीणा वंश:-प्रतीतो वेणु:-शविशेषः सुपोषा-वीणाविशेषः, विपञ्ची-तस्त्री वीणा महती-शततत्रिका, कच्छभी रिगसिका वर्णनं रीयावृत्तिः लोकतः प्रत्येतव्या, एताः कथम्भूताः ? इत्याह-'तलतालकंसतालसुसंपउत्ता' तलं-हस्तपुटं ताला:-प्रतीताः कांस्वताला:-कंसा-1 उद्देशः२ लिया एतैः 'सुसंप्रयुक्ताः' सुष्टु-अतिशयेन सम्यग्-यथोक्तनीत्या प्रयुक्ता:-संबद्धा आतोद्यविधयः-आतोषभेदाः, पुनः कथम्भूताः सू०१४७ ॥२६६॥ इत्याह-निउणगंधब्बसमयकुसलेहि फंदिया इति, निपुणं यथा भवति एवं गन्धर्वसमये-नाट्यसमये कुशलास्तैः स्पन्दिताव्यापारिता इति भावः, पुनः किंविशिष्टाः ? इत्याह-'त्रिस्थानकरणशुद्धाः' आदिमध्यावसानरूपेषु त्रिपु स्थानेषु करणेन-क्रियया यथोक्तबादनक्रियया शुद्धा अवदाता न पुनरवस्थानव्यापारणरूपदोषलेशेनापि कलकिताः, तथैव ते तुटिताङ्गका अपि हुमगणा अनेकबहुविविधविससापरिणतेन, अस्प व्याख्यानं प्राग्वन्, 'ततबिनसघन पिरेण ततं-वीणादिकं विततं-पटहादिकं पन-कांस्यतालादि शुपिरं-वंशादि, एतद्रूपेण चतुर्विधेनातोद्यविधिनोपपेताः, कुशविकृशविशुद्धवृक्षमूला: मूलवन्त इत्यादि प्राग्वद् बावत्प्रतिरूपकाः ३ । 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो दीपशिखा नाम हुमगणा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! यथा तत् सन्ध्याविरागसमये' सन्ध्यारूपो विरुद्धस्तिमिररूपलाद्रागः सन्ध्याविरागस्तत्समवे-तवसरे नव* निधिपते:-चक्रवर्तिन इव दीपिकाचक्रवालवृन्द-हस्खो दीपो दीपिका तासां चकवालं-सर्व परिमण्डलरूपं वृन्दं दीपिकाचक्रवालवृन्द, कथम्भूतमित्याह-'प्रभूतवत्ति' प्रभूता-बहुसङ्ख्याकाः स्थूरा वा वर्तयो यत्र तत्तथा, तथा 'पलित्तनेह ति पर्याप्त:-प्रतिपूर्णः स्नेहः अनुक्रम [१८५] %95 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] लादिरूपो यस्य तन् पर्याप्तस्नेह, धणिउज्जालिए' इति धणियं-अत्यर्थमुज्वालितम्, अत एव तिमिरमर्दक-तिमिरनाशकं, पुनः किविशिष्टमित्याह-कणगनिगरणकुसुमियपारियातगवणप्पगासे' कनकस्य निगरणं कनकनिगरणं गालितं कनकमिति भावः | | कुसुमितं च तत्पारिजातकवनं च कुसुमितपारिजातकवनं ततो द्वन्द्वसमासस्तद्वत्प्रकाश:-प्रभा आकारो यस्व तत्कनकनिगरणपारिजातकुसुमवनप्रकाशम् , एतावता समुदायविशेषणमुक्तम् , इदानी समुदायसमुदायिनोः कश्चिद्भेदभे)द इति ख्यापयन् समुदायविशेषणमेव | विवक्षुः समुदायिविशेषणान्याह-'कंचणमणिरयणे'त्यादि, दीपिकाभिः शोभमानमिति सम्बन्धः, कथम्भूताभिर्दापिकाभिः? अत आह-काश्चनमणिरत्नानां काञ्चनमणिरत्रमया विमला:-स्वाभाविकागन्तुकमलरहिता महार्हा-महोत्सवाहाः विचित्रा-विचित्रवर्णोपेता दण्ठा यास ताः काञ्चनमणिरत्नविमलमहार्ह विचित्रदण्डास्ताभिः, तथा सहसा-एककालं मालिताश्च ता उत्सर्पिताश्च वर्तुत्सर्पगेन सहसाप्रचालितोत्सपिताः, स्निग्ध-मनोहरं तेजो यासा ता: स्निग्धतेजसः, तथा दीप्यमानो-रजन्या भावान विमलोऽत्र धूल्याद्यपपगमेन प्रहगणो-प्रहसमूहस्तेन समा प्रभा यासां ता दीप्यमानविमलमहगणसमप्रभाः, ततः पद्यपदद्वयमीलनेन कर्मधारयसमासः, सहसापबालितोत्सर्पितस्निग्धतेजोदीप्यमानविमलग्रहगणसमप्रभास्ताभिः, तथा वितिमिराः करा यस्थासौ बितिमिरकरः स चासो सूरश्च वितिमिरकरसूरस्त स्खेव यः प्रसरति उद्द्योत:-प्रभासमूह तेन 'चिल्लियाहिति देशीपदमेतद् दीप्यमानाभिरित्यर्थः, चाला एव यदुजवलं प्रहसितमिव प्रहसितं वेनाभिरामा-अभिरमणीया ज्वालोज्वलप्रहसिताभिरामास्ताभिः, अत एव शोभमानाभिः शोभमानाः, तथैव दीपशिखा अपि दुमगणा अनेकबहुविविधविश्रसापरिणतोयोतविधिनोपेताः, कुशविकुश विशुद्धवृक्षमूला मूलवन्त इत्यादि प्राग्वद् यावन् प्रतिरूपा इति ४॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे % JaEl.com.in ~81~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४७ ] दीप अनुक्रम [१८५] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], • मूलं [ १४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥ २६७ ॥ श्रीजीवा- बहवो ज्योतिषिका नाम द्रुमगणाः प्रज्ञता है श्रमण ! हे आयुष्मन् ! यथा तद् अचिरोद्गतं शरदि सूर्यमण्डलं यदिवा यथैतद् उल्काजीवाभि० सहस्रं यथा वा दीप्यमाना विद्युत् अथवा यथा निर्धूमज्जलित उज्ज्वलः-उद्गता ज्वाला यस्य स तथा हुतवहः, सूत्रे च पदोपन्यासव्यमलयगित्यय: प्राकृतत्वात् ततः सर्वेषामेषां इन्द्रः समासः कथम्भूता एते ? इत्याह--' निर्द्धतधोयेत्यादि निर्मातेन नितरामग्निसंयोगेन रीयावृत्तिः यद् धौतं - शोधितं तप्तं च तपनीयं ये च किंशुकाशोकजपाकुसुमानां विमुकुलितानां विकसितानां पुञ्जाः ये च मणिरत्नकिरणा: यश्च जात्य हिङ्गुलकनिकरस्तद्रूपेभ्योऽव्यतिरेकेण - अतिशयेन यथायोगं वर्णतः प्रभया च रूपं स्वरूपं येषां ते निर्मातधौतप्ततपनीयकिंशु* काशोकजपाकुसुमविमुकुलितपुखमणिरत्र किरणजात्यहिकुलकनिकररूपातिरेकरूपाः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथैव ते ज्योतिपिका अपि दुमगणा अनेकबहुविविधविश्व सापरिणतेनोद्योतविधिनोपेताः कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूलवन्त इत्यादि प्राग्वद् याव त्प्रतिरूपाः ५ ॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवचित्राङ्गका नाम द्रुमगणाः प्रज्ञमा हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! यथा तन् प्रेक्षागृहं विचित्रं नानाविधवित्रोपेतम् अत एव रम्यं - रमयति मनांसि द्रष्टृणामिति रम्यं, बाहुलकात् कर्त्तरि यप्रत्ययः, बराच ताः कुसुमदाममालाञ्च प्रथितकुसुममाला वरकुसुमदाममालास्ताभिरुजवलं दे दीप्यमानत्वाद् वरकुसुमदाममालोजवलं, तथा भावान् विकसिततया मनोहरतया च देदीप्यमानो मुक्तो यः पुष्पपुओपचारस्तेन कदितं भास्वन्मुक्तपुष्पपु खोपचारकलितं, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथा विरहितानि - विरलीकृतानि विचित्राणि यानि माल्यानि प्रथितपुष्पमालास्तेषां यः श्रीसमुदयस्तेन प्रगतभं-अतीव परिपुष्टं विरहितविचित्रमाल्यश्रीसमुदयप्रगस्मं, तथा मन्धिमं यत् सूत्रेण प्र थितं वेष्टिमं यत्पुष्पमुकुट इव उपर्युपरि शिखरकृत्या मालास्थापनं पूरिमं- लघुछिद्रेषु पुष्पनिवेशेन पूर्वते सङ्घातिमं यत्पुष्पं पुष्पेण For P&Pealise City अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 82~ ३ प्रतिपत्तौ उत्तरकुरुवर्णनं उद्देशः २ सू० १४७ ॥ २६७ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - मूलं PUSTA प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] ML परस्परं नालप्रवेशेन संयोज्यते, प्रन्थिमं च वेष्टिमं च पूरिमं च सङ्घात्तिमं चेति समाहारो द्वन्द्वस्तेन माल्येन छेकशिस्पिना-परमदक्षण। शिल्पिना विभागरहितेन यद् यत्र योग्यं प्रन्धिमं वेष्टिमं पूरिमं सङ्घातिमं च तत्र तेन सर्वत:-सर्वासु दिक्षु समनुबद्धं. तथा प्रविरलैः -लम्बमानैः, तत्र विरलत्वं मनागप्यसंहतत्वमात्रेण भवति ततो विप्रकृष्टत्वप्रतिपादनार्थमाह-विप्रकृष्टैः-बृहदन्तरालैः पञ्चवर्णैः कुसुम-15 दामभि: शोभमानं 'वणमालाकयग्गए चेवेति वनमाला-चन्दनमाला कृताइ यस्य तद् वनमालाकृतामं तथाभूतं सद् दीप्यमानं, तथैव चित्राङ्गका अपि नाम द्रुमगणा अनेकबहुविविधविखसापरिणतेन प्रन्थिमवेष्टिमपूरिमसङ्घातिमेन चतुर्विधेन माल्यविधिनोपपेता: कुशविकुशविशुद्धबृक्षमूला मूलवन्त इत्यादि यावत्पतिरूपकाः ६॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे चित्ररसा नाम हुमगणा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन !, यथा तत्परमानं-पायसं भवेदिति सम्बन्धः, किंविशिष्टमित्याह-ये सुगन्धा:-प्रवरगन्धोपेता:, समासान्तविधेरनित्यत्वादतपस्य समासान्तस्याभावो यथा सुरभिगन्धेन वारिणा इत्यत्र, बरा:-प्रधाना दोषरहितक्षेत्रकालादिसामग्रीसंपादितामलामा इति भावः, कमलशालितन्दुलाः, यच विशिष्ट-विशि-16 प्टगवादिसम्बन्धि निरुपहतमिति-पाकादिभिरविनाशितं दुग्धं ते रार्द्ध-पर्क परमकलमशालिभिः परमदुग्धेन च यथोचितमात्रापाकेन । निष्पादितमित्यर्थः. तथा शारदं घृतं गुडः खण्ड मधु वा शर्करापरपर्यायं मेलितं यत्र तत् शारदघृतगुडखण्डमधुमेलितं, निष्ठान्तस्य परनिपातः प्राकृतलात मुखादिदर्शनाद्वा, अत एवातिरसमुत्तमवर्णगन्धवत् , यथा वा राशचक्रवर्तिनो भवेत् कुशलैः सूपपुरुषः-सूपकारैः पुरुषैः सजितो-निष्पादित: चतुष्कल्पसेकसिक्त इबौदनः, चत्वारश्च कल्पा: सेकविषया रसवतीशास्त्राभिज्ञेभ्यो भावनीयाः, स चौदनः किंविशिष्टः इत्याह-कलमशालिनिर्वतित:-कलमशालिमयो विपको-विशिष्टपरिपाकमागतः, 'सबाप्फमिउविसयसक ~83~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] श्रीजीवा-मालसिरथे' इति सदापानि-बाष्पं मुश्चन्ति मृदूमि-कोमलानि चतुष्कल्पसेकादिना परिकर्मितसाग विशदानि सर्वथा तुषादिमलापग-11३ प्रतिपत्ती जीवाभि० मात् सकलानि-परिपूर्णानि सित्थूनि यत्र स सबापमृदुविशदसकलसिस्थुः, अनेकानि यानि शालनकानि-पुष्पफलप्रभुतीनि ताला उत्तरकुरुमलयगि संयुक्त:-समुपेतोऽनेकशालनकसंयुक्तः, तथा चामोदक इति सम्बन्धः, किंविशिष्टः ? इत्याह-परिपूर्णानि-समतानि द्रव्याणि-एला- वर्णन रीयावृत्तिः प्रभृतीनि उपस्कृतानि-नियुक्तानि बत्र स परिपूर्णद्रव्योपस्कृतः, निष्ठान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात् , सुसंस्कृतो-यथोक्तमात्रानि-18| उद्देशः२ परितापादिना परमसंस्कारमुपनीतः, वर्णगन्धरसस्पर्शयुक्तबलवीर्यपरिणाम इति वर्णगन्धरसस्पर्शी: सामयादतिशायिभिर्युक्ताः-सहिता || बलवीयहेतवः परिणामा यस्य स तथा, अतिशाबिभिवर्णादिभिर्बलवीर्यहेतुपरिणामश्वोपपेता इति भावः, तत्र पल-शारीरं वीर्य-आन्त-| रोत्साहः, 'इंदियबलपुहिवद्धणे' इति, इन्द्रियाणां-चक्षुरादीनां बलं-स्वस्वविषयग्रहणपाटवमिन्द्रियबलं तस्य पुष्टि:-अतिशायी पोप इन्द्रियवलपुष्टिस्तां वर्धयति, नन्दादिलादनः, इन्द्रियबलपुष्टिवर्द्धनः, तथा क्षुञ्च पिपासा च क्षुत्पिपासे तयोर्मथनः क्षुत्पिपासामथनः, तथा प्रधान:-कथितो यो गुढो या कथितं-प्रधानं खण्डं यदिवा कथिता प्रधाना मत्स्यण्डी-खण्डशर्करा यच प्रधानं घृतं तानि उपनीतानि-योजितानि यस्मिन् स प्रधानकथितगुडखण्डमत्स्यण्डीघृतोपनीतः, निष्ठान्तस्य परनिपातोऽवापि सुखादिदर्शनात, स इव मोदकः लक्ष्यसमितिगर्भ:-अतिक्रमणकणिकामूलदलः प्रज्ञप्तः, तथैव चित्ररसा अपि दुमगणा अनेकबहुविविधविनसापरिणतेन भोजनविधिनोपपेताः, कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूलवन्तो यावत्प्रतिरूपाः ७ ॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, पत्तरकुरुषु कुरुपु | तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो मण्यङ्गका नाम हुमगणा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, यथा ते हारोऽहारो ॥२६८।। वेष्टनं मुकुटः कुण्डलं बामोत्तको हेमजालं मणिजालं कनकजालं सूत्रक मुशीकटकं खुडकाम(का ए)कावलिः कण्ठसूत्रं मकरिका उरस्कJantacR 2 * अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~84~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] धवेयर प्रोणीसूचक घडामणिः कनकतिलकं फुल्ल के सिद्धार्थक कर्णपाली शशी सूर्यो वृषभश्चक्र तलम तुडितं हस्तमाल - मा केयूर वलयं प्रालम्बमङ्गुलीयकं बलक्षं दीनारमालिका काञ्ची मेखला कलापः प्रतरं प्रानिहायक पादोज्वलं घण्टिका किष्टिणी रसोरुजालं वरनूपुरं चरणमालिका कनकनिगरमालिकेति भूषणविधयो बहुप्रकाराः, एते च लोकतः प्रत्येतव्याः, कथम्भूताः इत्याहकायनमणिरत्नभक्तिचित्राः, तथैव ते मण्यङ्गका अपि ठुमगणा अनेकबहुविविधविश्रसापरिणतेन भूषणविधिनोपेता:, कुशविकाश-15 विशुद्धवृक्षमूला वावत्प्रतिरूपा इति ८॥ 'उत्तरकुराए णं कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहयो गेहाकारा नाम दुमगणा: प्रज्ञप्ता हे अगण! हे आयुष्मन! यथा ते प्राकाराट्टालकचरिकाद्वारगोपुरमासादाकाशतलममण्डपैकशालकविशालकत्रिशालकचतुःशालकगर्भगृहमोहनगृहबलभीगृह चित्रशालमालिकभक्तिगृह वृत्तव्यस्रचतुरखनन्द्यावर्त्तसंस्थितानि पा-16 भारतलाही मुण्डमालाम्य, अथवा धवलगृहाणि अर्द्धमागधविभ्रमाणि शैलसुस्थितानि अर्द्धशैलसुखितानि कुटाकारागानि सुविधि कोष्ठकानि, तथाऽनेकानि गृहाणि शरणानि लयनानि 'अप्पेगें इति भवनविकल्या अत्र बहुविकल्पाः, एतेषां च परस्परं विशेषो| वास्तुविद्यातोऽवसातव्यः, कथम्भूता एते? इत्याह-'विडंगे'त्यादि, विटङ्कः-कपोतपाली जालवृन्द-गवाक्षसमूहः निहो-गृहकदे-15 शविशेषः अपवरक:-प्रतीतः चन्द्रशालिका-शिरोगृहं, एवंरूपाभिर्विभक्तिभिः कलिताः, तथैव गृहाकारा अपि हुमगणा अनेकबहुविविधविश्रसापरिणतेन भवन विधिनेति सम्बन्धः, किंविशिष्टेन? इत्याह-'सुहारुहणमहोत्ताराए' इति सुखेनारोहणं-ऊर्द्ध गमनं | सुखेनोत्तार:-अधस्तादवतरणं यस्य दर्दरसोपानपत्यादिभिः स सुखारोहमुखोत्तारखेन, तथा सुखेन निष्क्रमणं प्रवेशश्च यत्र स सुखनिष्क्रमणप्रवेशस्तेन, कथं सुखारोहसुखोत्तार:? इत्याह-दर्दरसोपानपतिकलितेन, हेतौ तृतीया, ततोऽयमर्थ:-यतो दर्दरसोपानपशिक KE-E% ~85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] प्रतिपत्ती उत्तरकुरुवर्णन उटेवाः२ सू०१४७ दीप अनुक्रम [१८५] श्रीजीवा- लितस्ततः सुखारोहसुखोत्तारः, 'पतिरिकसुहविहाराए' प्रतिरिक्ते-एकान्ते सुखविहारः-अवस्थानशयनादिरूपो वत्र प्रतिरिक्तसुखवि- जीवाभि हारस्तेनोपपता, सर्वत्र स्त्रीत्वनिर्देश: प्राकृतत्वात् , कुशविकुशविशुद्धवृक्षमूला मूलवन्त इत्यादि प्राग्वद् यावत्प्रतिरूपकाः ९॥ 'उत्तरकु-1 मलयगि- हराए णं कराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु कुरुषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस तत्र तत्र प्रदेशे बहवोऽननका नाम द्रुमगणा: प्रज्ञता रीयावृत्तिः श्रमण! हे आयुष्मन् !, 'जहा से इत्यादि, आजिनकं नाम-चर्ममयं वखं क्षोम-कपोसिकं कम्बल:-प्रतीतः दुकूलं-वखजातिविशेष: कौसेयं-सरितन्तुनिष्पन्न कालमृगपट्ट-कालमृगचर्म अंशुकचीनांशुकानि-दुकूलविशेषरूपाणि पट्टानि-प्रतीतानि आमरणचित्राणि- आभरणैचित्राणि-विचित्राणि आभरणचित्राणि 'सण्ह' इति भक्ष्णानि कल्याणकानि-परमवस्त्रलक्षणोपेतानि गम्भीराणि-निपुणशिलिपनिष्पादिततयाऽलम्बस्वकपमध्यानि 'नेहल'त्ति लेहलानि-स्निग्धानि 'गया(ज)लानि' उद्देश्यमानानि परिधीयमानानि वा गर्जयन्ति, शेष सम्प्रदायादवसातव्यं, तदन्तरेण सम्यक पाठशुद्धेरपि कर्तृमशक्तवात् , वस्त्रविधयो बहुप्रकारा भवेयुर्वरपट्टनोगता:-प्रसिद्धतत्तत्पत्तनविन निर्गता 'विविधवर्णरागकलिता' विविधैर्वणविविध राग:-मसिष्टारागादिभिः कलिताः, तथैवाननका अपि तुमगणा अनेकबहुविविधविमसापरिणतेन वख विधिनोपपेताः, कुशविकुशविशुद्धगुममूला मूलवन्त इत्यादि प्रारबदू यावत्प्रतिरूपाः १० । 'उत्तरकुराए णं भंते ! कुराए मणुयाणमित्यादि, उत्तरकुरुपु कुरुषु भवन्त ! 'मनुजाना' मनुष्याणां कीदृशः कीदृश आकारभावः, प्रत्यवतारस्वरूपसम्भव इति भावः, प्रातः, भगवानाह-गौतम! 'ते ण मिति पूर्ववन् मनुध्या 'अतीव' अतिशयेन सोम-दृष्टिसुभगं चारु रूपं येपो तेऽतीवसो मचारुरूपा: 'भोगुत्तमगयलक्खणा' इति उत्तमशब्दमा विशेषणस्यापि परनिपात: प्राकृतस्यात् , उत्तमाश्च ते भोगाश्च उत्तमभोगा- सनतानि-तत्संसूचकानि लक्षणानि येषां ते उत्तमभोगगतलक्षणाः, तथा भोगैः सश्रीका:-सशोभाका भोगसश्रीकाः, तथा सुजातानि -८२ २६९ -- अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~86 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र )], प्रतिपत्ति: [३], - मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः |||| Au यथोक्तप्रमाणोपपत्रत्वेन शोभनजन्मानि यानि सर्वाणि उर: शिरःप्रभृतीन्यङ्गानि तैः सुन्दरम-समयं वपुर्येषां ते सुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गाः, 'सुपइडियकुम्मचारुचरणा' इति सुष्ठु - शोभनं यथा भवति एवं प्रतिष्ठिताः कूर्मवदुन्नतत्वेन चारवञ्चरणाः पादा येषां ते सुप्रतिष्ठित कर्मचारुचरणा: 'रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालको लतला' इति रकं - लोहितमुत्पलपत्रम् सुदु मार्दवोपेतमकर्कश मिति भावः तचासुकुमारमपि संभवति यथा ष्टष्टपाषाणप्रतिमा तत आह-सुकुमारं - शिरीषकुसुमवदकठिनं कोमलं - मनोज्ञं चरणतलं *येषां ते रक्तोत्पलपत्रमृदु सुकुमारकोमलताः तथा 'नगनगर मगरसागर चकंकहरं कलक्खणंकिय चलणा' नगः-पर्वतः नगरमकरसागरचक्राणि प्रतीतानि अङ्करः- चन्द्रमा अङ्कः तस्यैव लाञ्छनं मृगः एवंरूपाणि यानि लक्षणानि तैरङ्कितौ चरणौ येषां ते नगनगरमकर सागर चक्राङ्कधरा लक्षणाङ्कितचरणा:, 'अणुपुञ्चसुसाहयंगुलीया' इति पूर्वस्याः पूर्वस्या अनु लघव इति गम्यते अनुपूर्वाः, किमुक्तं भवति ? - पूर्वस्याः पूर्वस्था उत्तरोत्तरा नवं नखेन हीनाः “नहं नहेण हीणाओ” इति सामुद्रिकशास्त्रवचनात् सुसंहता:-सुशिष्टा अलयो येषां ते अनुपूर्व सुसंहता कुलीकाः, 'उन्नयतणुतंवनिद्धनखा' उन्नता ऊ नतास्तनवस्ताम्रा: 'स्निग्धाः' स्निग्धच्छाया नखाः पागता इति सामर्थ्यलभ्यं तद्वर्णनाधिकाराद् येषां ते उन्नततनुतान्नस्निग्धनखाः, 'संठियमुसिलिडगूढगुल्फा' सम्यक्स्वरूपप्रमाणतया स्थितौ संस्थितौ सुष्टी-मांसल गुल्फौ गुटुको येषां ते संस्थितगूढगुल्फा:, 'एणी कुरुविंदवत्तवट्टाणुपुब्वजंघा' इति एण्या इव-हरिण्या इव कुरुविन्दस्यैव वर्त्त-सूत्रवलनकं तस्येव वृत्ते वर्तुळे आनुपूब्र्येण क्रमेण ऊर्द्ध स्थूरे स्थूरतरे इति गम्यं जते येषां ते एणीकुरुविन्दवर्त्तवृत्तानुपूर्वजाः 'समुग्गनिमग्गगूढजाणू समुद्रकस्येव-समुद्रकपक्षिण इव निममे - अन्तःप्रविष्टे गूढे - मांसलत्वादनुद्धते जानुनी - अष्ठीवन्तौ येषां ते समुद्रनिमन्नगूढजानवः, 'गयससणसुजायसन्निभोरू' गजो इसी श्वसिति - प्राणित्यनेनेति ~87~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - मूलं [RYBlake-प्रणीता वृत्ति प्रत सूत्रांक [१४७] दीप श्रीजीवा- श्वसन:-शुण्डादण्डः गजस्य श्वसनो गजश्वसनस्तस्य सुजातस्य-सुनिष्पन्नस्य सन्निभौ उरू येषां ते गजश्वसनसुजातसन्निभोरवः, सुजा- ३ प्रतिपत्ती जीवाभिवशब्दस्य विशेषणस्यापि सतः परनिपात: प्राकृतत्वात् , 'घरवारणमत्ततुल्लविक्कमविलासियगई अत्रापि मत्तशब्दस्य विशेष्यात्पर- उत्तरकुरुमलयगि-1 निपातः प्राकृतलान् , मत्तो-मदोन्मत्चो यो वर:-प्रधानो भद्रजातीयो वारणो-हस्ती तस्य तुल्य:-सदृशो विक्रमः-पराक्रमो बिलासितामा वर्णन रीचावृत्तिःसा-बिलास: संजातोऽस्या विलासिता तारकादिदर्शनादितप्रत्ययः विलासवती गति:-मनं येषां ते बरवारणमत्ततुल्यविक्रमविलासित- उद्देशः २ गतयः, 'पमुइयवरतुरगसीहवरवट्टियकडी' प्रमुदितो-रोगशोकायुपद्रवाभावात् , कचित्पुनरेवं पाठः पमुइयवरतुरगसिंहअइरेगव- सू०१४७ हियकडी' तत्र प्रमुदितयो-रोगशोकागुपद्रवरहितत्वेनातिपुष्टयोर्वरयोस्तुरगसिहयो: कट्याः सकाशादतिशयेन वनिता-वृत्तिः (ता) काटियपां रो प्रमुदितवरतुरगसिंहातिरेकर्तितकटयः, 'वरतुरवसुजायगुज्झदेसा' वरतुरगस्लेव सुजात:-संगुप्तस्पेन सुनिप्पनो गुपदेशो येषां ते वरतुरगसुजातगुणदेशाः, पाठान्तरं पिसत्यवरतुरगगुज्झदेसा' व्यक्तं, 'आइण्णहयच निरुवलेवा' आकीर्णो-गुणैाप्तः । स चासौ हयश्च आकीर्णहयस्तद्वन्निरुपलेपा-लेपरहितशरीरमला:, यथा जात्याश्वो मूत्रपुरीपाद्यनुपलिमगानो भवति तथा तेऽपीति भावः, 'साहयसोणंदमुसलदप्पणनिगरियवर कणगछरुसरिसवरवइरवलियमझा' संहृतसौनन्दं नाम ऊहाँकतमुदूपलाकृति कार्य वच मध्ये तनु उभयोः पार्वयोवृहन् , मुसलं-प्रतीतं, दर्पणशब्देनेहावयवे समुदायोपचारादर्पणगण्डो गृह्यते, तथा यन्निगरित-सारीकृतं बरकनकं तस्य-तन्मयं सरु:-खङ्गादिमुष्टिनिगरितवरकन करसरुस्तैः सदृशः तेषामिवेत्यर्थः, तथा वरवनस्येव क्षामो बलितो-वलयः ।। संजाता अस्य बलिस:-बलियोपेतो मध्यो-मध्यभागो येषां ते संहतसोनन्दमुसलदार्पणनिगरितवरकनकत्सरुसहशवरवञ्जवलितमध्याः ॥२७० ।। 'झसविहगसुजायपीणकुच्छी' झपो-मत्स्य: पक्षी-प्रवीतस्तयोरिव सुजातौ-सुनिष्पन्नौ जन्मदोषरहिताविति भावः पीनौ-उपचितो अनुक्रम [१८५] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 171 प्रत सूत्रांक [१४७] + कुक्षी येषां ते मत्स्यपक्षिसुजातपीनकुक्षयः, 'झपोदरा' झपस्येवोदरं येषां ते झपोदराः, 'सुइकरणा' इति शुचीनि-पवित्राणि निरुपलेपानीति भावः करणानि-चक्षुरादीनीन्द्रियाणि येषां ते शुचिकरणा:, कचिदेव पम्हवियडनाभा' इति पाठस्तव पद्मवद् विकटा-वितीर्णा नाभिर्येषां ते पनबिकटनाभाः, अत एव निर्देशादनाम्यपि समासान्त:, एवगुत्तरपदेऽपि, 'गंगावत्तयपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणवोहियअ(आ)कोसायंतपउमगंभीरवियडनाभा' गमावर्तक इत्र दक्षिणावर्ती तर बैरिव तरहैस्तिमृभिर्यलिभिर्भरा तरङ्गभङ्गरा रविकिरी:-सूर्यकरैस्तरुणं-नवं तत्प्रथमं तत्कालमियर्थः यद्बोधितं-उन्निद्रीकृतमत एवं 'आकोसायंत' इत्याकोशायमानं विकधीभवलियर्थः पयं तद्वद् गम्भीरा च विकटा च नाभियेषां ते गङ्गावर्तकप्रदक्षिणावर्ततयाभररविकिरणतरुणयोधिताकोशाय-14 मानपद्मगम्भीरविकटनामा:, 'उजुयसमसहियसुजायजञ्चतणुकसिणनिद्ध आइज्जलडहसुकुमालमि उरमणिज्जरोमराई' र जुका-न व का समान काप्युदन्तुरा सहिता-सन्तता न खपान्तरालव्यवच्छिन्ना सुजाता-जन्मा न तु कालादिवैगुण्याहुर्जन्मा अत एव जाया-IR प्रधाना तन्वी न तु स्थूरा कृष्णा न तु मर्कटवर्णा, कृष्णमपि किञ्चिन्निःनिकं भवति तन आह-निग्धा आदेया-दर्शनपथमुपगता |R सती उपादेया मुभगा इति भावः, एतदेव विशेषणद्वारेण समर्थयते-लउहा' सलवणिमा अत एवं आदेया, तथा सुकुमारा-अकठिना, तत्राकठिनमपि किधिकर्कशस्पर्श भवति तत आह-मृद्वी अत एव रमणीया रम्या रोमराजि:-तनहपतिर्येषां ते जुकसससहितमुजाखजात्यानुफुण स्निग्धादेवलदाह सुकुभारमृदुरमणीयरोनराजयः, 'सन्नयपासा' सम्बग-अयोऽयःक्रमेण नती पाच येते सन्नतपार्थाः अधोऽव:कमानतपार्या इत्यर्थः, नथा 'संगयपासा' इति संगती-देहप्रमाणोचिती पात्री येषां ने समसपार्था अत एष मुन्दरपार्थाः 'सुजायपासा' इति सुनिश्पत्नपार्थाः "मियमाइयपीणरइयपासा' मितं-परिमितं यथा भवसि देहानुसारेणेत्यर्थः आयता-दीयौं पीनी दीप अनुक्रम [१८५] -OCKAK 07-2 जी०च०४६ ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ २७१ ॥ उपचितौ मांसलाविति भावः रचितौ खखनामकर्मोदयनिर्वर्तितो रतिदी वा-रम्यौ पार्थो येषां ते तथा, 'अकरंडय कणगरुयगनिम्मलसुजायनिरुवयदेहधारी' अविद्यमानं मांसलतयाऽनुपलक्ष्यमाणं करण्डक--पृष्ठवंशास्त्रिकं यस्य देहस्य सोऽकरण्डकस्तं कनकस्येव रुचको रुचिर्यस्य स कनकरुचिस्तं निर्मलं - स्वाभावाविकागन्तुकमलरहितं सुजातं वीजाधानादारभ्य जन्मदोषरहितं निरुपहतं -- रादिदेशायुपद्रवरहितं देहं धारयन्तीत्येवंशीला अकरण्डककनकरुचक निर्मल सुजात निरुपदेहधारिणः 'कणगसिलायलुज्जलपसस्थ ४ समतलोवचियविच्छिन्नपिहुलवच्छा' कनकशिलातलबदुज्वलं च-निर्मलं प्रशस्तं च-अतिप्रशस्यं समतलं-न विपमोन्नतं उपचितं १ मांसलं विस्तीर्णम् ऊधोऽपेक्षया पृथुलं दक्षिणोत्तरतो वक्षो येषां ते कनकशिलातलो प्रशस्त समतलोपचितविस्तीर्णपृथुलवक्षसः 'सिरिवच्छेकियवच्छा' इति श्रीवृक्षेणाङ्कितं - लाञ्छितं त्रक्षो येषां ते श्रीः 'जुगसन्निभपीणरइयपीवरप उडठियसुसिलिडविसिषण थिरमुत्रद्धसंधी पुरवरफलिट्टियभुया' युगसन्निभौ-वृत्ततया आयततया च यूपस्यो पोनौ उपचितौ रतिदी-पश्यतां दृष्टिमुखी पीवरप्रकोष्ठो अकुशकला चिको संस्थितो विशिष्टसंस्थानी सुािः-संगताः विशिष्टाः प्रधानाः पनानिविडाः स्थिरा नातिलथाः सुबद्धा: - सायुभिः सुष्ठु नद्धाः सन्धयः-सन्धानानि ययोस्ती तथा पुरवरपरिघवन् महानगरार्गलाबद् [वर्त्तितौ च याहू येषां ते युगसन्निभपीनरतिदपीवर प्रकोष्ठ संस्थित मुष्टिविशिष्टघन स्थिर सुवसन्धिपुरवरपरिपवर्त्तितभुजाः, पाठान्तरं 'जुगसन्निभपीणरइयपठियोषचियधणविरसुद्धसु निगूढपब्वसंधी' युगसन्निभौ वर्तुलन पीनौ रतिदौ प्रकोष्ठो येषां ते तथा, तथा संस्थिताः सम्यस्थिता उपचिता-मांसला घनानिविडाः स्थिरा - अचाल्याः कुतः ? इत्याह- सुद्धा बन्धनबद्धा निगूढामांसलत्वादनुपलक्ष्याः पर्वसन्ध्यो हस्तादिगता येषां ते तथा ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, 'भुवगीसर विपुलभोगआयाणफलि For P&Praise City ३ प्रतिपत्तौ देवकुर्वधिकारः | उद्देशः २ १ सू० १४७ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~90~ ॥। २७१ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: मलं [FAST प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] हिउच्छूढदीहबाह' भुजगेश्वरो-नागराजस्तस्य यो विपुलो-महान् भोगो-देहो भुजगेश्वरविपुलभोगः तथा आदीयते-द्वारस्थगनाथ गृह्यत इत्यादानः स चासौ परिघश्न आदानपरिषः 'उच्छूढ'त्ति अवक्षिप्तः-अर्गलास्थानानिष्कासितो द्वारपृष्ठभागे दत्त इत्यर्थः, दतः। पूर्वपदेन विशेषणसमासः, विशेषणस्य परनिपात: प्राकृतत्वात् , भुजगेश्वरबिपुलभोगश्च आदानपरिधावक्षिप्तश्च ताविव दीर्थों बाहू । येषां ते तथा, 'रत्ततलोवतियमांसलसुजायअच्छिद्दजालपाणी' रक्ततलौ-लोहिततली अवपतितौ-क्रमेण हीयमानोपचयौ मृदुको -कोमलौ मांसलौ सुजाती-जन्मदोषरहितौ अच्छिद्रजालो-अङ्गल्यन्तरालसमूहरहितौ पाणी-हस्ती येषां ते तथा, पाठान्तरं रत्ततलोवश्यमसलसुजायपसत्वलक्खणअच्छिद्दजालपाणी' तत्र प्रशस्तलक्षणौ-शुभचिह्नाविति व्याख्येयं, शेष तथैव, 'पीवरकोमलवरंगुलीया' इति पीवरा:-स्वशरीरानुक्रमोपचयाः कोमला--मूदवो वरा:-प्रशस्तलक्षणोपेता अङ्गुलयो येषां ते पीपरकोमलवराङ्गुलिकाः, | पाठान्तरं 'पीवरवट्टियसुजायकोमलवरंगुलीया' व्यक्तम् , 'आयंवतलिणसुइरुइलनिद्धनखा' आताम्राईपद्रता: तलिना:-प्रतला: शुचय:-पवित्रा रुचिरा-दीक्षा: निग्धा-अरूक्षा नखा:-कररुहा येषां ते तथा आताप्रवलिनशुचिकचिरनिग्धनखाः, 'चंदपाणिलेखा' चन्द्र इव चन्द्राकारा पाणी रेखा येषां ते चन्द्रपाणिरेखाः, एवं सूर्यपाणिरेखाः शङ्खपाणिरेखाश्चक्रपाणिरेखा दिसौवस्तिको-दिमोक्षको दक्षिणावर्त्तः स्वस्तिक इत्यन्ये स पाणौ रेखा येषां से दिक्सौवतिकपाणिरेखाः, एनदेवानन्तरोक्तं विशेषणपश्चकं तत्प्रशस्तताप्रकर्षप्रति पादनाय साहबचनेनाह-चन्द्रसूर्यशङ्खचक्रदिकसौवस्तिकरेखाः, एतदनन्तरं कचिदेचं पाठ:--रविससिसंखवरचकसोस्थियविभिन्न181 मुबिरहयपाणिरेहा' व्यको नवरं विभक्ता-विभागवत्यः सुविरचिताः-मुष्ठ कृताः स्वकीयकर्मणा 'अणेगवरलक्खणुत्तमपसस्थसुइदारइयपाणिलेहा' अनेकै:-अनेकसहवरैः-प्रधानलेक्षणैरुत्तमाः प्रशस्ता:-प्रशंसासदीभूताः शुचय:-पवित्रा रचिताः-खकर्मणा निष्पा ~91 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] श्रीजीवा- दिताः पाणिरेखा थेपां ते अनेकवर लक्षणोत्तमप्रशस्लशुचिरचितपाणिरेखाः, 'वरमहिसवराहसिंहसद्दलउसभनागवरपडिपुष्णवि- प्रतिपत्ती जीवाभिमाउलखंधा' परमहिष:-प्रधानसौरभेयः बराह:-यूकरः सिंह:-केशरी शार्दूलो-व्याघ्रः ऋपभो-यूपभः नागवर:-प्रधानो गजः, एपा-हादेवकर्वमलयगि-15 मिव प्रतिपूर्णः-स्वप्रमाणेनाहीनो विपुलो-विस्तीर्णः स्कन्धः-अंशदेशो येषां ते वरमहिषवराहसिंहशार्दूलपभनागवरप्रतिपूर्णविपुल- धिकारः रीयावृत्तिः स्कन्धाः 'चउरंगुलसुष्पमाणकंवुवरसरिसगीवा' चतुरङ्गल-स्वाङ्गुलापेक्षया चतुरङ्गुलपमितं सुप्तु-शोभनं प्रमाणं यस्याः सा चतुर- उद्देशः २ अलसुप्रमाणा कम्बुवरसहशी-उन्नततया वलियोगेन च प्रधानशकसन्निभा श्रीवा येषां ते चतुरङ्गुल सुप्रमाणकम्बुवरसदृशनीवाःहसू०१४७ ॥२७॥ CI मसलसंठियसहलविपुलहणुया' मांसलं-उपचितमांसं सम्यक स्थितं संस्थितं विशिष्ट स्थानमित्यर्थः प्रशस्तं प्रशस्यलक्षणोपेतत्वान् । शार्दूलस्येव-व्यावस्येव विपुलं-विस्तीर्ण हनुकं येषां ते तथा, 'अवढियसुविभत्तमंसू' अवखितानि-अद्धिष्णूनि सुविभक्तानिविविक्तानि चित्राणि-अतिरम्यतयाऽमृतानि इमभूणि-कूर्चकेशा येषां तेऽवस्थितसुविभक्तचित्रमभवः 'ओयवियसिलप्पवालविंवफलसन्निभाधरोहा' ओयवियं-परिकर्मितं यत् शिलारूपं प्रवालं विहुममित्यर्थः बिम्बफलं--गोल्हाफलं तयोः सन्निभो रक्ततया उन्नतमध्यतयाऽधरओष्ठः-अधस्तनो दन्तरछदो येषां ते तथा, 'पंडुरससिसगल विमलनिम्मलसंखगोखीरफेणकुंददगरयमुणालिया-1 धवलदंतसेढी' पाण्डुरं-अकलकं यत् शशिशकलं-चन्द्रखण्डं विमल-आगन्तुकमलरहितो निर्मल:-स्वभावोत्थमलरहितो यः शङ्गः। गोभीरफेनः प्रतीतः शुन्द-कुन्दकुसुमं दुकरज-उदककणा: मृणालिका-विशं, एतद्वद्भवला दन्तश्रेणियेषां ते पाण्डुरशशिशकलविमलनिर्मलगोक्षीरफेनकुन्ददकरजोमृणालिकाधवलदन्तश्रेणय: 'अखंडदंता' इति अखण्डा:-सकला दन्ता येषां ते अखण्डदन्ताः 'अ-17॥२७२ ॥ प्फुडियदंता' अकुटिता-अजर्जरा राजिरहिता दन्ता येषां ते अस्फुटितदन्ताः, तथा सुजाता-जन्मदोषरहिता दन्ता ने सुजा 264 %- अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~92 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] तदन्ताः, तथाऽविरला-पना दन्ता येषां ते अविरलदन्ताः, 'एगदंतसेढीविय अणेगदंता' एकाकारा यन्तश्रेणियेषां ते तथा से इस परस्परानुपलक्ष्यमाणदन्तविभागत्वाद् अनेके दन्ता येषां ते अनेकदन्ताः, एवं नामाविरलदन्ता यथाऽनेकदन्ता अपि सन्त एकाकार-18 दन्तपतय इव लक्ष्यन्त इति भावः, 'हुयवहनिद्धंतधोयतत्ततवणिजरत्ततलतालुजीहा' हुतबहेन-अग्निना निर्मात सद् यत् । धौत-शोधितमलं तप्नं गपनीयं-सुवर्णविशेषस्तद्वद् रक्ते नले-हस्ततले तालु-काकु जिह्वा च-रसना येषां ते हुतवहनिर्मातधौतप्तमतपनीयरक्ततलतालुजिताः 'गरुलायय उतुंगनासा' गरुडस्येवायता-दीर्घा वरची-अवका तुझा-उन्नता नासा-नासिका येषां ते | गरुडायतकजुतुङ्गानासा: 'कोकासियधवलपत्तलच्छा' कोकासिते-पप्रवद्विकसिते धवले कचिद्देशे पत्रले-पक्ष्मवती अभिणी-लो-| चने येषां ते कोकासितववलपत्राक्षाः, एतदेव स्पष्टयति-विष्फालियपुंडरीयनयणा' विस्फारित-रविकिरणैर्विकासितं बरपुण्डरीके | -सितपनं तद्वनयने येषां ते विस्फारितगुण्डरीकनयनाः, कचिन् 'अबदालियपुंडरीयनयणा' इति पाठस्तत्रापि अवदालित-रविकिरणैर्विकासित मिति व्यास्येयं, 'आणामियचावरुइलतणुकसिणनिद्धभुया' आनामित्तं-पन्नामितमारोपितमिति भावः यच्चापंधनुस्तद् विरे-संस्थानविशेषभावतो रमणीये तनू-तनु के अक्षणपरिमितवालपपासकलान् कृष्णे-परमकालिमोपेते खिग्धे-मिग्धच्छाये ध्रुवो येषां ने आनामितचापरुचिरतनुकृष्णग्धिधकाः, कचिपाठः-आणामियचारुरुचिलकिण्हमराईमंटियसंगयआययसुजायभुमका' मा भानामितचापवद् रुचिरे कृष्णाभराजीव संस्थिते संगते-यथोक्तप्रमाणोपपने आयते-नी सुजाते-मुनिष्पन्ने | जन्मदोपरहितत्वा भुत्रौ येषां वे तथा, कचित्पुनरेवं पाठः-आणामियचावरुइलकिण्हरभराइतणुकसिणनिशुपया' तत्रानामितचापबद् रुचिरे-मनोशे कृष्णाभ्रराजीव-कालमैपरेखेव तनू-ननुके कुणे-काले सिग्धे-सच्छाये ध्रुवौ येषां ते तथा, 'आलीणपमा ॐ%ADKKM ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] ॥२७३॥ दीप अनुक्रम [१८५] श्रीजीवा- जुत्तसवणा' आलीनौ न तु टप्परौ प्रमाणयुक्तौ-प्रमाणोपेतो अवणौ-कर्णी येषां ने आलीनप्रमाणयुक्तश्रवणा:, अत एव 'सुस- ३ प्रतिपत्तौ जीवाभिवणा' शोभन श्रवणा: 'पीणमंसलकवोलदेसभागा' पीनौ-अकृशौ यतो मांसलौ-उपचिनी कपोलदेशो-गण्डभागौ मुखस्य देशभागौ देवकुर्वमलयगि-1 येषां ते पीनमांसलकपोलदेशभागाः, अथवा कपोलयोदेंशभागाः कपोलदेशभागाः कपोलावयवा इत्यर्थः पीना-मांसलाः कपोलदेशभागा [धिकारः रीयावृत्तिः येषां ते पीनमांसलकपोलदेशभागा: 'निब्बणसमलट्ठमट्टचंदद्धसमनिडाला' निर्बण-विस्फोटकादिक्षतरहितं सम-अविषमं अत एव | उद्देशः२ ल-मनोज्ञ मृष्टं-मसणं चन्द्रार्द्धसम-शशधरसमपविभागसदृशं ललाट-अलकं येषां ते निर्वगसमलष्टचन्द्रार्द्धसमललाटाः, सूत्रे 'निहा- सू०१४७ लेति प्राकृतलक्षणवशान , 'उडुवइपडिपुण्णसोमवयणा' प्राकृतलात्पदव्यत्ययः, प्रतिपूर्णोदुपति रिव--सम्पूर्णचन्द्र इव सोमं-सश्रीकं वदनं - ता येषां ते प्रतिपूर्णोडुपतिसोमबदनाः, 'घणनिचियसुबलक्खणुन्नयकूडागारनिहरिडियसिरा' पनं-अतिशयेन निचितं धननिचितं | प्रास-अतिशयेन यद्धानि-अवसितानि लक्षणानि यत्र तत् सुवद्धलक्षणं, उन्नत-मध्यभागे उच्च यस्कूटं तस्याकारो-मूर्तिस्तन्निभमुन्नतकूटाका-15 रसदृशमिति भावः पिण्डिनं-स्पकर्मणा संयोजितं शिरो येषां ते धननिचितसुबदलाणोन्नत फूटाकारनिभपिण्डितशिरस: 'छत्ताकारुत्तमंगदेसा' छत्राकार उत्तमाङ्गरूपो देशो येषां ते छत्राकारोत्तमाङ्गदेशाः 'दाडिमपुफापगासतवणिज्जसरिसनिम्मलसुजायकेसंतकेसभूमी' दाडिमपुष्पप्रकाशा-दाडिमपुष्पप्रतिमास्तपनीयसदृशाश्च निर्मला-आगन्नुकस्वाभाविकमलरहिताः केशान्ताः केशभूमिश्चकेशोत्पत्तिस्थानभूता मस्तकल्लग येषां ते दाडिमपुष्पप्रकाशतपनीयसदृशनिर्मलसुजानकेशान्तकेशभूमय: 'सामलिबोंडघणछोडियमिउविसयपसत्वसुहमलक्खणसुगंधसुन्दरभुयमोयगभिंगनीलकजलपहट्ठभमरगणान कुरवनिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसि-18|॥२७३ ।। रया' शाल्मली-वृक्षविशेष: स च प्रतीत एव तस्त्र बोण्डं-फलं तद्वच्छोटिता अपि धनं-अतिशयेन निचिता: शाल्मलीबोण्डपननि अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~94 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] AAAAANA दीप अनुक्रम [१८५] चितरछोटिताः, सोहफेशपाशं न कुर्वन्ति परिज्ञानाभावात् , केवलं छोटिता अपि तथास्वभावतया शाल्मली बोण्डाकारवद् पननि[चिता अवतिष्ठन्ते तत एतद्विशेषणोपादानं, तथा मृदवः-अकर्कशा विशदा-निर्मला: प्रशस्ला:-प्रशंसास्पदीभूताः सूक्ष्मा:-क्ष्णाः लक्षणा-लक्षणवन्तः सुगन्धा:-परमगन्धकलिता अत एव सुन्दराः, तथा भुजमोचको-रत्नविशेषः भृक्ष:-प्रतीतः नीलो-मरकतमणिः। | कजलं-प्रतीतं प्रहधः-प्रमुदितो भ्रमरगणः प्रहष्टभ्रमरगणः, प्रहयो हि भ्रमरगणस्तारुण्यावस्थायां भवति तदानी चासिकृष्ण इति प्रह-14 प्रहण, तद्वस्निग्धा भुजमोचकभृङ्गनीलकजलप्रहृष्टभ्रमरगणस्निग्धाः, तथा निकुरम्बा--निकुरम्बीभूताः सन्तो निचिता न तु विस्तृताः सन्तः परस्परसंहता निकुरम्बनिचिता ईषत्कुटिलाः प्रदक्षिणावर्ताश्च मूर्द्धनि शिरोजाबाला येषां ते शाल्मलीयोण्डयननि-1 चितच्छोटितमृदुविशदप्रशससूक्ष्मलक्षणसुगन्धसुन्दरभुजमोचकभृङ्गनीलकजलप्रहपभ्रमरगण स्निग्धनिकुरम्बनिचितप्रदक्षिणावर्त्तमूर्द्धशि- । रोजाः, 'लक्षणवंजणगुणोववेया' लनणानि-खस्तिकादीनि व्यञ्जनानि-मपतिलकादीनि गुणा:-क्षान्त्यादयस्तैरुपपेता-युक्ता लक्षणव्यजनगुणोपपेता: 'सुजायसुविभत्तसुरूवगा' सुजातं-सुनिष्पन्नं जन्मदोपरहितत्वान् सुविभक्त-अङ्गप्रत्यङ्गोपाङ्गानां यथोक्तवैविक्त्यभावात् सुरूपं-शोभनं रूपं समुदायगतं येषां ते सुजातमुविभक्तसुरूपका: 'पासाईया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ 'उत्तरकुराए णं भंते! कुराए' इत्यादि, उत्तरकुरुषु भदन्त ! कुरुषु मनुजीनां कीदृश आकारभावप्रत्यवतारः स्वरूपसम्भव इति भावः प्रज्ञप्तः?, भगवानाह-गौतम ! ता मनुष्यः सुजातसर्वाङ्गसुन्दर्य:-सुजातानि-यथोक्तप्रमाणोपेततया शोभनजन्मानि यानि सर्वाण्यगानि-उदरप्रभृतीनि तैः सुन्दर्य:-सुन्दराकारा: सुजातसर्वाङ्गसुन्दर्यः 'पहाणमहेलागुणजुत्ताओ' प्रधाना-अतिशायिनो ये महे-14 लागुणा:-प्रियंवदत्तभर्तचित्चानुवर्चकत्तप्रभृतयस्तैर्युक्ता-उपपेता: प्रधानमहेलागुणयुक्ताः 'कंतविसयमिउसुकुमालकुम्मसंठिवियसि CXCCC 644 ~95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], • मूलं [ १४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ २७४ ॥ उचलणा कान्ती - कमनीयौ विशदौ-निर्मलौ मृदू अकठिनौ सुकुमारौ - अकर्कशौ कर्मसंस्थितौ – कूर्मवदुन्नती विशिष्ट विशिष्टलक्ष गोपेतौ चरणौ यासां ताः कान्तविशद दुसुकुमारकूर्मवदुन्नतसंस्थितविशिष्टचरणाः 'उज्जुमउयपीवर साहयंगुलीओ' ऋजव:अबका मृदवः-अकठिना: पीवरा - अकृशाः पुष्टा- मांसलाः संहता:- सुक्षिष्ठा अङ्गुल्यो यासां ता मृदुकपीवर पुष्ट संहतालयः 'उन्नयरतियत लिन तं वसुइनिद्धनखा' उन्नता - ऊर्जुनता रतिदा- रमणीयास्त हिनाः - प्रतलास्ताम्रा-ईपद्रक्ताः शुचयः पवित्राः स्निग्धा:स्निग्धच्छाया नसा यासां ता उन्नतरविदालिनताम्रशुचिखिग्धनखाः 'रोमरहियवट्टल संठिय अजहन्न पसस्थलक्खणजंघाजुयला' रोमरहितं वृत्तं वर्तुलं लघुसंस्थितं - मनोज्ञसंस्थानं क्रमेणोद्ध स्थूरस्थूरतरमिति भावः, अजघन्यप्रशस्तलक्षणं जघन्य पदरहितशेपप्रश स्तलक्षणाङ्कितं जङ्घायुगलं यासां ता रोमरहितवृत्त लष्ट्रसंस्थिता जधन्यप्रशस्तलक्षणजङ्घायुगलाः 'सुनिम्मियगूढ जाणुमंडलसुबद्धा' सुष्ठुअतिशयेन निर्मितः सुनिर्मित एवं सुगूढं मांसलतयाऽनुपलक्ष्यमाणं जानुमण्डलं सुबद्ध-स्नायुभिरतीय वद्धं यासां ताः सुनिर्मित सुगूढजानुमण्डलसुद्धा, सुबद्धशब्दस्य निष्ठान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात् प्राकृतत्वाद्वा, 'कयली खंभातिरेगसंख्यिनिव्वणसुकुमालमउय कोमल अइविमल समसंहतसुजाय बद्धपीवर निरंतरोरू' कदलीस्तम्भाभ्यामतिरेकेण अतिशायितया संस्थितं - संस्थानं ययोस्ती कदलीस्तम्भातिरेक संस्थितौ निर्वणो विल्कोटकादिकृतक्षतरहितौ सुकुमारौ - अकर्कशी मृदू अकठिनौ कोमलौ-दृष्टिसुभगौ अतिविमलौ-सर्वथा स्वाभाविकागन्तुकमललेशेनाप्यकलङ्कितौ समसंहतौ- समप्रमाणौ सन्तौ संहतौ समसंहती सुजाता-जन्मदोपरहितौ वृत्तौ पर्तुलो पीवरी-मांसल निरन्तरौ - उपचितावयवतथाऽपान्तरालवर्जितो ऊरु यासां ताः कदलीस्तम्भातिरेकसंस्थितनिर्वणसु| कुमारसृदुकोमलाति विमलसम संहतसुजातवृत्त पीवर निरन्तरोरवः 'पट्टसंठियपसत्थविच्छिण्ण पिहुलसोणीओ' पट्टवत्- शिलापट्टकादि For P&Praise City ३ प्रतिपचौ देवकुर्वधिकारः अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~96~ उद्देशः २ सू० १४७ ॥ २७४ ॥ y Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] वत् संस्थिता पट्टसंस्थित्ता प्रशस्ता प्रशस्तलक्षणोपेत त्वाद् विस्तीर्णा ऊर्ध्वाधः पृथुला दक्षिणोत्तरतः श्रोणि:-कटेरप्रभागो यासां ताः पट्टसस्थितविस्तीर्णपृथुलोणय: 'वयणायामप्पमाणदुगुणियविसालमसलसुबद्धजहणवरधारणीओ' यदनस्य-मुखस्यायामप्रमाणं-द्वाद-18 शाङ्गुलानि तस्माद् द्विगुणित-द्विगुणप्रमाणे सद् विशालं वदनायामप्रमाणद्विगुणित विशालं मांसलमध्युपचितं सुबद्धं-अतीव सुबद्धावयवं न तु श्लथमिति भावः जघनवरं-वरजघनं, वरशब्दस्य विशेषणस्यापि सतः परनिपात: प्राकृतत्वात् , धारयन्तीत्येवंशीला बदनायाम-11 प्रमाणद्विगुणितविशालमांसलसुवद्धजयनवरधारिण्यः बिजविराइयपसत्थलक्खणनिरोदरतिवलीविणीयतणुनमियमज्झियाओं वनस्येव विराजितं वनविराजितं प्रशस्तानि लक्षणानि यत्र तत् प्रशस्तलक्षणं निरुदरं-विकृतोदररहितं त्रिवलीविनीतं-तिस्रो बलयो विनीता-विशेषतः प्रापिता यत्र तत् त्रिवलीविनीतं तनु-कृशं नतं तनुनतमीपन्नतमित्यर्थः मध्यं यासां ता वनविराजितप्रशस्तलक्षणनिरु-15 दरत्रिवलीविनीततनुनतमध्यकाः 'उज्जुयसमसंहियजच्चतणुकसिणनिद्धआएजलडहसुविभत्तसुजायसोभतरुइलरमणिज्जरोम-15 राई' ऋजुका-न वका समा-न काप्युदन्तुरा संहिता-सन्तता न लपान्तरालव्यवच्छिन्ना जात्या-प्रधाना तन्वी न तु स्थूरा कृष्णा न मर्कटवर्णा स्निग्धा-स्निग्धच्छाया आदेया-दर्शनपथप्राप्ता सन्ती उपादेया सुभगेति भावः, एतदेव समर्थयति-लटहा-सलवणिमाऽत एव | आदेया सुविभक्ता-सुविभागा सुजाता-जन्मदोषरहिता अत एव शोभमाना रुचिरा-दीपा रमणीया-द्रष्टुमनोरमणशीला रोमराजि र्यासां ता नजुकसमसहितजात्यतनुकृष्णस्निग्धादेवलट हसुविभक्त सुजातशोभमानरुचिररमणीयरोमराजयः गंगावत्तपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणपोहियआकोसायंतपउमगंभीरबियडनाभा' इति पूर्ववत्, 'अणुभडपसत्थपीणकुच्छीओ' भनुदा-अनुस्बणा प्रशस्ता-प्रशस्तलक्षणा पीना कुक्षिर्यासां ता अनुबटप्रशस्तपीनकक्षयः 'सन्नयपासा संगतपासा सुंदरपासा सुजायपासा मिय %EX ~97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप श्रीजीवा- माइयपीणरइयपासा अकरंब्यकणगरुयगनिम्मलमुजायनिरुवायगायलट्ठीओ' इति पूर्ववत् , 'कंचणकलससुप्पमाणसमसंहितसुजा-1 प्रतिपनी जीवाभिनयलढचूचुयआमेलगजमलजुगलयट्टियअन्भुन्नयरइयसंठियपओहराओं काथनकलशाविष काञ्चनकलशो सुप्रमाणौ-खशरी | देवकुर्वमलयगि- पूरानुसारिप्रमाणोपेती समी-नैको हीनो नैकोऽधिक इति भावः संहितौ-संतती अपान्तरालरहिताविति भावः सुजाती-जन्मदोषर-RINA रीयावृत्तिःहिती लष्टी-मनोज्ञौ चूक आमेलक:-आपीडकः शेखरो ययोस्तौ चूचुकापीडको 'जमलजुगले'ति यमलयुगलं-समश्रेणीकयुगलरूपी | उद्देशः२ वर्तिताविव वर्तितौ कठिनाविति भावः अभ्युन्नती-पत्युरभिमुखमुन्नती रतिद-रनिकारि संस्थितं-संस्थानं ययोसी रतिदसंस्थिती पयो॥ १७५॥ सू०१४७ धरौ यासा ताः काञ्चनकलशसुप्रमाणसमसंहितसुजातलष्टचूचुकापीडयमलयुगलवर्तिताभ्युन्नतरतिदसंस्थितपयोधरा: 'अणपव्यतणयते गोपुच्छबट्टसमसहितनमियआएज्जललियबाहाओं आनुपूर्येण-क्रमेण तनुको आनुपूर्व्यतनुको अत एव गोपुच्छवद् वृत्तौ-वर्तुली। सौ-समप्रमाणौ संहिती-खशरीरसंश्लिष्टौ नतौ स्कन्धदेशस्य नतत्वान् आदेयौ-अतिसुभगतयोपादेयी ललिती-मनोशष्टाकलिती। बाहू यासां ता आनुपूर्व्यतनुगोपुच्छवृत्तसंहितनतादेयललितबाहवः 'तंबनहा' ताम्रा-ईषद्रक्ता नखा:-कररुहा यासा तास्ताननखाः मसलग्गहत्था' मांसलौ अग्रहस्तौ बाह्वयभागवर्तिनौ हस्तौ बासा ता मासलाग्रहस्ता: 'पीवरकोमलवरंगुलीया' पीवरा-उपचिताः कोमला:-सुकुमारा बरा:-प्रमाणलक्षणोपेततया प्रधाना अङ्गुलयो वासा ता: पीवरकोमलवराङ्गुलिका: 'निद्धपाणिरेहा' निग्धाः । पाणी रेखा यासां ताः तथा, रविससिसंखचासोत्थियविभत्तविरइयपाणिलेहा' इति पूर्ववत् 'पीणुनयकक्खवक्खवस्थिप्पएसा पीना-उपचित्तावयवा उन्नता-अभ्युन्नता: कक्षावक्षोवस्तिरूपाः प्रदेशा यास ताः पीनोन्नतकक्षावक्षोवस्तिप्रदेशा: 'पडिपुष्णगलक ॥२७५॥ बोला' प्रतिपूर्णी गलकपोली च यास तास्तथा 'चउरंगुलसुप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा' पूर्ववत् 'मसलसंठियपसत्थहणुया' मांसलम् अनुक्रम [१८५] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~98~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] -उपचितमांसं संस्थितं-विशिष्टसंस्थान प्रशस्तं-प्रशस्तलक्षणोपेतं हनुकं यासां ता मामलसंस्थितप्रशस्तहनुका: 'दाडिमपुष्फप्पगास-8 पीवरप्पवराहरा' दाडिमपुष्पप्रकाशः पीवरः प्रवर:-सुभगोऽधरो यास ता दाडिमपुष्पप्रकाशपीवर प्रवराधराः 'सुंदरोत्तरोडा' व्यक्त 'दहिदगरयचंदकुंदवासंतियमउलधवल अच्छिद्दविमलदसणा' दधि-प्रतीतं दकरज-उदककणाः चन्द्र:-प्रतीतः कुन्द:-कुसुमं बास|न्तिकामुकुलबासन्तिकाकलिका तबला अपिछद्रा:-छिद्ररहिता बिमला-मलरहिता दशना-दन्ता यासा ता दधिदकरजचन्द्रकुन्दवासन्तिकामुकुलधवलाच्छिद्रविमलदशना: 'रत्तुष्पलपत्तमउयसूमालतालुजीहा' रक्तोत्पलवद् रक्तं मृदु-अकठिन सुकुमारंअकर्कशं तालु जिला प यासा ता रक्तोत्पलसूदुसुकुमारतालुजिहा: 'कंणइरमुकुल अकुडियअम्भुग्गयउजुतुंगनासा' कणयराअतिस्निग्धतया श्लक्ष्णलक्ष्णखेद कणाकीर्णा मुकुला-नासापुटद्वयत्रापि यथोक्तप्रमाणत या संपत्ताकारतया च मुकुलाकारा अभ्युद्गताअभ्युन्नता जुका-सरला तुझा-उच्चा नासा यासा तास्तथा, 'सारयनवकमलकु य कुवलयविमुक्कदलनिगरसरिसलक्खणंकियकंतनयणाओ' शारद-शरमासभाबि यन्नव-प्रत्यय कमल-पां कुमुदं-कैरवं कुवलयं-नीलोत्पलं तेर्विमुक्तो यो दलनिकरस्तत्सदृशे, किमुकं भवति ?-एवं नामायतदीचे मनोहारिणी नग्रने यन् शारदान्नवात् कमलाद्वा कुमुदादा कुवलयाद्वा उत्पता पत्रद्वयमिवावस्थितमाभातीति, लक्षणाकिते-प्रशस्त लक्षणोपेते नयने यासां ताः शारदनवकमलकुमुदकुवलयविमुकदलनिकरमहशलक्षणाङ्कितनयनाः, एनदेव किञ्चिद्विशेषार्थमाह-पत्तलचपलायंततंबलोयगाओ' पत्रले-पक्ष्मवती चपलायमाने ताने-कचित्प्रदेशे ईषद्क्ते लोचने यासां ताः पत्रलचपलायमानताम्रलोचना: 'आणामियचावरुइल किण्हभराइसंठियसंगयभागय मुजायभुमया अल्ली गपमा यजुत्तसवणा' इति पूर्ववन् , पीणमहरमणिज्जगंडलेहा' पीना-टपचिता भृष्टा-ममृणा रमणीया-रम्या गण्डोखा- बोलपाली यास ताः पीनमृष्टरमणीयगण्ड ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] X दीप अनुक्रम [१८५] श्रीजीवा- लेखा: 'चउरंसपसस्थसमनिडाला' चतुरस्र-चतुष्कोण प्रशस्त-प्रशस्तलक्षणोपेतं सम-अधिस्त या दक्षिणोत्तरतया च तुल्याप्रमाणे प्रतिपत्तौ जीवाभिललाटं यासां ताश्चतुरस्रप्रशस्तसमललाटा: 'कोमुईरयणिकरविमलपडिपुण्णसोमवयणा' कौमुदी-कात्तिकी पौर्णमासी तस्यां रज- देवकुर्वमलयगि-18निकर इन बिमल प्रतिपूर्ण सोमं च बदनं यास ताः को गुदीरजनिकरविमलप्रतिपूर्णसोमवदनाः, सोमशब्दस्य परनिपातः प्राकृतवान, 3ाधिकार यावृत्तिः छत्तुन्नयउत्तमंगाओं छत्रयन्मध्ये उन्ननमुत्तमाएं यासां ताश्छत्रोन्नतोत्तमाना: 'कुडिलसुसिणिद्धदीहसिरयाओ' कुटिलाः सु-14 उद्देशः२ स्निग्धा दीर्घा: शिरोजा यासां ताः कुटिलमुस्निग्धदीर्घशिरोजाः, छत्रध्वजयूपस्तूपदामनीकमण्डलुकलशवापीसौवस्तिकपताकायवमत्स्य सू०१४७ १२७६॥ कूर्मरथवरमकरशुकस्थालाङ्कशाप्टापदसुप्रतिष्ठकमयूरश्रीदामाभिषेकतोरणमेदिन्युधिवरभवनगिरिवरादर्शललितगजवृषभसिंहचामररूपा-16 णि उत्तमानि-प्रधानानि प्रशस्तानि-सामुद्रिक शास्त्रेषु प्रशंसास्पदीभूतानि द्वात्रिंशतं लक्षणानि धारयन्तीति छत्रचामरयावदुत्तमप्रशस्तद्वात्रिंशलक्षणधरा: 'हंससरिसगतीओ' हंसस्य सदृशी गतिर्यासां ना हंससदृशगतयः, कोकिलाया इव या मधुरा गीतया सुस्वरा: कोकिलामधुरगी:सुस्वराः, तथा कान्ता:-कमनीयाः, तथा सर्वस्य-तत्प्रत्यासन्नवर्सिनो लोकस्यानुमता:-संमता न मनागपि देण्या: | इति भाषः, व्यपगतवलिपलिताः, तथा ध्यङ्गदुर्वर्णव्याधिदौर्भाग्यशोकमुक्ताः, स्वप्रेऽपि तेषामसम्भवात् , खभावत एवं अंगार:-हार-1 रुपश्चारु:-प्रधानो वेषो यासां ताः स्वभावकारचारुवेषाः, तथा 'संगयगयहसियभणियचेद्वियविलाससंलावणिउणजुत्तोवयार-IN कुसला' सङ्गतं-सुनिष्टं यद् गत-गमनं हंसीगमनवत् हसितं-हसनं कपोलविकासि प्रेमसंदर्शि च भणितं-भणनं गम्भीर-मन्मथोदीपि च चेष्ठितं-चेष्टनं सकाममङ्गप्रत्यङ्गोपदर्शनादि विलासो-नेत्रविकारः संलाप:-पल्या सहासकामखहदयालार्पणक्षम परस्परसं-| भाषणं निपुण:-परमनैपुण्योपेतो युक्तश्च यः शेष उपचारस्तत्र कुशलाः संगतगतहसितभणितचेष्टितविलाससंलापनिपुणयुक्तोपचार %A5 6 % 4- *% २७६ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~100 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] कलिताः, एवंविधविशेषणाश्च स्वपति प्रति द्रष्टव्या न परपुरुष प्रति, तथा क्षेत्रवाभाव्यत: प्रतनु कामतया परपुरुष प्रति तासामभिलापासम्भवान् , पूर्वोक्तमेवार्थ संपिण्ड्याह-वरस्तनजयनबदनकरचरणनयनलावण्यवर्णयौवनविलासकलिता नन्दनवनचारिण्य इवाप्सरसः, 'अच्छेरपेच्छणिज्जा' इति आश्चर्यप्रेक्षणीयाः 'पासाईयाओं' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वन् । सम्प्रति स्त्रीपुंसविशेषमन्तरेण सामान्यतस्तत्रतामनुष्याणां स्वरूपं प्रतिपिपादयिपुरिदमाह-'ते णं मणुया ओहस्सरा' इत्यादि, ते उत्तरकुरुनिचासिनो मनुष्या ओघ:प्रवाही स्वरो येषां ते ओधस्वराः, हंसस्येव मधुरः खरो येषां ते हंसस्वराः, कौश्वस्येवाप्रयासविनिर्गतोऽपि दीर्घदेशव्यापी स्वरो येपां ते क्रौञ्चस्वराः, एवं सिंहवरा दुन्दुभिस्वरा नन्दिस्वराः, नन्द्या इव धोप:-अनुनादो येषां ते नन्दीघोषाः, मजु:-प्रियः खरो पां ते म स्वराः, मर्कोपो येषां ते म धोपाः, एतदेव पदयेन व्याचष्टे-सुस्वराः सुखरनिर्घोषाः 'परमुप्पलगंधसरिसनीसाससुर| भिवयणा' पद्म-कमलमुत्पलं-नीलोत्पलं अथवा पग-पनकाभिधानं गन्धद्रव्यं उत्पलम्-उत्पलकुष्ठ तयोर्गन्धेन-सौरभ्येण सदृशःसमो यो निःश्वासन सुरभिगन्धि वदनं-मुखं येषां ते पद्मोत्पलगन्धसरशनिःश्वाससुरभिवनाः, तथा छबी-विमन्त उदात्तवर्णया सुकुमारया च त्वचा युक्ता इति भावः 'निरायंकउत्तमपसत्थअइसेसनिरुवमतणू निरातङ्का-नीरोगा उत्तमा-उत्तमलक्षणोपेता | अतिशेषा-कर्मभूमकमनुष्यापेक्षयाऽतिशायिनी अत एव निरुपमा-उपमारहिता तनु:-शरीर येषां ते निरातकोत्तमप्रशस्तातिशेषनिरुपमतनयः, एतदेव सविशेषमाह-'जल्लमलकलंकसेयरयदोसवजियसरीरनिरुवलेवा' वाति च लगति चेति जल:-पुपोदरादित्वान्निष्पत्तिः खल्पप्रयत्नापनेयः स चासौ मलश्च जल्लमलः स च कलई च-दुष्टतिलकादिकं चित्रादिकं वा स्वेदश्च-प्रस्वेदः रजश्च-1 रेणुषो-मालिन्यकारिणी चेष्टा तेन वर्जितं निरुपलेपं च-मूत्रविष्ठागुपलेपरहितं शरीरं येषां ते जहमलकलङ्कखेदरजोदोपवर्जित ~101 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] S दीप अनुक्रम [१८५] श्रीजीवा- निरुपलेपशरीराः, सूत्रे च निरुपलेपशब्दस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , 'छायाउजोवियंगमंगा' छायथा-शरीरप्रभया उद्योतित-||३ प्रतिपत्ती जीवाभि म ङ्गमङ्गम्-अङ्गप्रत्यक्षं येषां ते तथा, 'अनुलोमवाउवेगा' अनुलोमः-अनुकूलो वायुवेग:-शरीरान्तर्वर्तिवातजवो येषां ते अनुलोम- देवकुर्वमलयगि- वायुवेगाः, वायुगुल्मरहितोदरमध्यप्रदेशा इति भावः, आह च मूलटीकाकार:-उदरमध्यप्रदेशे वायुगुल्मो येषां तेषामनुलोमोमाधिकारः रीयावृत्तिः बायुवेगो न भवति, तदभावाच तेषामनुलोमो भवति वायुवेगो मिथुनाना"मिति, 'कग्रहणी' इति कक:-पक्षिविशेषस्तस्येव ग्रहणि:-IX उद्देशः२ गुदाशयो नीरोगवीस्कतया येषां से कपहणयः, 'कवोयपरिणामा' कपोतस्येव-पक्षिविशेषम्य परिणाम-आहारपाको येषां ते क-1 सू०१४७ ॥२७७॥ पोतपरिणामाः, कपोतन्य हि जाठराग्निः पापाणलवानपि जरयतीति अतिः, एवं नेपामप्यत्यर्गलाहारग्रहणेऽपि न जातुचिप्यजीर्णदोषा भवन्तीति, 'सउणिपोसपितरोरुपरिणया' इति शकुनेरिव-पक्षिण इव पुरीपोत्सर्गे निपतया 'पोसंति पोस:-अपानदेशः 'पुसउत्समें पुरीपमुत्सृजन्त्यनेनेति व्युत्पत्तेः, तथा लघुपरिणामतया पृष्ठं च प्रतीतं अन्तर च-पृष्ठोदरयोरन्तराले पावित्यर्थः करू चेति | द्वन्द्वः ते परिणता येषां ते शकुनिपोसषुष्ठान्तरोरुपरिणताः, निष्टान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनान, 'बिग्गहियउन्नयकुच्छी' वि-II प्रहिता-मुष्टि प्राला उन्नता च कुभिर्येषां ते विग्रहितोन्नतकुनयः, वर्षभनाराचं संहननं येषां ते वर्षभनाराचसंहननाः, तथा सम चतुरमं च तम् संस्थानं च समचतुरमसंस्थानं तेन संस्थिताः समचतुरखसंस्थानसंस्थिताः, पधनु:सहस्रोच्छ्रिता:-त्रिगव्यूतप्रमाणोसोच्छ्रयाः, तथा तेपागुत्तरकुमवास्तव्यानां मनुष्याणां दे पृष्ठकरण्डकशते पट्पञ्चाशे-पटप चाशदधिके प्रज्ञमे तीर्थकरगणधरैः।। 'ते णं दामणुया' इत्यादि, ते उत्तरकुरुवातल्या मनुजाः प्रकृत्या-स्वभावेन भद्रका:-अपरानुपनामहे तुकायवाड्मनश्चेष्ठाः, तथा प्रकृत्या-स्वभावेन ॥२७७ ।। न तु परोपदेशतः परेभ्यो भयसो योपशान्ताः, तथा प्रकृत्या-स्वभावेन प्रतनव:-अतिमन्दीभूताः क्रोधमानमायालोभा येषां ते प्रक -KOKANESCRCLEARNA -CA अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~1024 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [१४७] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः तिप्रतमुक्रोधमानमाया लोभाः, अत एव मृदु-मनोज्ञं परिणामसुखावहमिति भावः यन्मादेवं तेन संपन्ना मृदुमावसंपन्ना न कपटमादेवीपेताः 'अलीणा' इति आसमन्तात्सर्वासु क्रियासु लीना-गुना आलीना नोल्वण चेष्टाकारिण इत्यर्थः, भद्रकाः- सफल तत्क्षेत्रोचितकल्यागभागिनः विनीता - बृहत्पुरुषविनयकरणशीलाः अस्पेच्छा- मणिकनकादिविषयप्रतिबन्धरहिता अत एवासन्निधिसचया न विद्यते सन्नि धिरूपः सञ्चयो येषां ते तथा 'विडिमंतर परिवसणा' विडिमान्तरेषु-शास्त्रान्तरेषु प्रासादाचाकृतिषु परिवसनं आकालमावासी येषां ते विडिमान्तर परिवसना: 'जहिच्छिय कामकामिणो यथेप्सितान् मनोवाञ्छितान् कामान्-शब्दादीन् कामयन्त इत्येवंशीला यथेप्सि तकामकामिनः, ते उत्तरकुरुवालच्या णमिति पूर्ववन् मनुजाः प्रज्ञता हे श्रमण ! हे आयुष्मन्! | 'तेसि णं भंते!' इत्यादि तेषां भदन्त ! उत्तरकुरु वास्तव्यानां मनुष्याणां 'केवइकालस्स ति सप्रम्यर्थे पष्ठी कियति काले गते भूय आहारार्थः समुत्पद्यते ?-आहारलक्षणं प्रयोजनमुपतिष्ठते ?, भगवानाह - गौतम! 'अष्टमभक्तस्य' अत्रापि सप्तम्यर्थे षष्टी अष्टमभकेऽतिक्रान्ते आहारार्थः समुत्ययते । 'ते णं भंते!' इत्यादि, ते उत्तरकुरुवाला भदन्त ! मनुष्याः किमाहारमाहारयन्ति ?, भगवानाह गौतम ! पृथिवीपुष्पफलाहाराः पृथिवीपुष्पफलानि च कल्पद्रुमाणामाहारो येषां ते तथा ते मनुजाः प्रज्ञता दे श्रमण ! हे आयुष्मन्! ॥ 'तेसि णं भंते' इत्यादि, तस्या भदन्त ! पृथिव्याः कीदृश आस्वादः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह - गौतम ! 'से जहा नामए' इत्यादि, तन्-लोके प्रसिद्धं यथा नाम 'ए' इति वाक्यालङ्कारेऽखण्डमिति या इतिशब्द उपमाभूतवस्तुनामपरिसमाप्तियोतकः, वाशब्दो विकल्पने एवं सर्वत्र, गुड इति या शर्करा इति वा इयं शर्करा काशादिप्रभवा द्रष्टव्या, मत्स्यण्डिका इति वा, मत्स्यण्डी-खण्डशर्करा, पटमोदक इति वा विसकन्द इति वा पुष्पोत्तरेति वा पद्मोत्तरेति वा विजया इति वा महाविजया इति वा उपमा इति वा अनुपमा इति वा प For P&Praise City ~ 103~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 6 20- प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] श्रीजीवा टमोदकादयः खाय विशेषा लोकतः प्रत्येतव्याः, चाउरके वा गोखीरें' इत्यादि बा, चातुरक्य-चतुःस्थानपरिणामपर्यन्तं सर्व- प्रतिपत्ती जावाभिपुण्ने शोद्भवेनुचारिणीनामनामशानां कृण्णानां यत्क्षीरं तदन्यान्याभ्यः कृष्णगोभ्य एव यथोक्तगुणाभ्यः पानं दीयते, तत्क्षीरमप्येवभूता-पता देवकुर्वमलयगि-18 भ्योऽन्याभ्यस्तरक्षीरमप्यन्याभ्य इति चतुःस्थानपरिणामपर्यन्तं, एवंभूतं यचातुरक्यं गोक्षीरं खण्डगुडमत्स्यण्डिकोपनीत-खण्डगु-131 राधिकारः रीयावृत्तिः इमत्स्पण्डिका उपनीता यत्र तत्तथा, मुखादिदर्शनान्निष्टान्तस्य परनिपातः, खण्डादिभिः सुरसता प्रापितमिति भावः, 'मदग्गिकढिए' उद्देशः २ मन्दमग्निना कथितं मन्दाग्निकथितम् , अत्यग्निकथितं हि बिरसं विगन्धादि च भवतीति मन्दग्रहण, वाचतिशयप्रतिपादनार्थमेवाहासू० १४७ ॥२७८॥ -वर्णेन-सामध्यादतिशायिना अन्यथा वर्णोपादाननैरर्थक्यापत्तेः उपपेतं-युक्तं, एवं गन्धेन रसेन स्पर्शन चातिशायिनोपपेतं, एवमुक्ते। गौतम आह-भगवन् ! भवेदेतपः पृथिव्या आस्वादः ?, भगबानाह-गौतम ! नायमर्थ: समर्थः, तस्याः पृथिव्या इतो-गुडखण्डशर्करादेरिटतर एव, यावरकरणान् कंततराए चेव पियतराए चेव मणामतराए चेति परिग्रहः, आस्वादः प्रज्ञप्तः ।। पुष्पफलादीनामा स्वादनं पृच्छन्नाह-'तेसिणं भंते ! पुष्फफलाण' मित्यादि, तेपो कल्पपादपसलकानां पुष्पफलानां कीदृश आस्वादः प्रज्ञप्तः ?, भहै गवानाह-गौतम ! 'से जहा नामए' इत्यादि तद्यथा नाम राज्ञः, स च राजा लोके कतिपयदेशाधिपतिरपि प्राप्यते तत आह-18 चतुरन्त चक्रवर्तिन:-चतुर्यु अन्तेपु त्रिसमुद्रहिमवत्परिच्छिन्नेषु चक्रेण वर्तितुं शीलं यस्यासौ चक्रवर्ती तसा कल्याण-एकान्तसुखा वह भोजनं शतसहस्रनिष्पन्नं-लक्षनिष्पन्नं वर्णेनातिशायिनेति गम्यते, एवं गन्धेन रसेन स्पर्शनोपपेतं, आस्वादनीयं सामान्येन विस्वा-* *दनीयं विशेषतस्तद्रसप्रकर्षमधिकृत्य दीपनीयमभिवृद्धिकरं, दीपयति हि जाठराग्निमिति दीपनीय, बाहुलकात्कयनीयप्रत्ययः, ए २७८ ।। दर्पणीय मुत्साहवृद्धिहेतुत्वान् , मदनीय मन्मथजननात् , बृहणीयं धातूपचयकारित्वात् , सर्वाणीन्द्रियाणि गात्रं च प्रहादयतीति स CARD-CLOCAL अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~104 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] वेन्द्रियगानप्रहादनीय, वैशयेन तत्प्रहादहेतुत्वात् , एवमुक्ते गौतम आह-भगवन् ! भवेदेतद्रपः पुष्पफलानामास्वादः १, भगवानाहगौतम! नायमर्थः समर्थः, तेषां पुष्पफलानामितश्चक्रवत्तिभोजनादिएतरादिरेवास्वादः प्रज्ञप्तः ॥ 'ते णं भंते!' इत्यादि, ते भदन्त ! मनुजास्त-अनन्तरोदितस्वरूपमाहारमाहार्य 'क वसती' कस्मिन्नुपाये 'उपयान्ति ?' उपगच्छन्ति, भगवानाह-गीतम! 'वृक्षगृहा-| लया' वृक्षरूपाणि गृहाणि आल्या-आश्रया येषां ते वृक्षगृहालयास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ता हे प्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'ते णं भंते। इत्यादि, ते भदन्त ! वृक्षाः 'किंसंस्थिताः' किगवसंस्थिताः प्रज्ञता:?, भगवानाह-गौतम! अप्येकका: कूटाकारसंस्थिताः शिखरा-1 कारसंथिता इत्यर्थः अप्येकका: प्रेक्षागृहसंस्थिताः अध्येककाश्छन्नसंस्थिता: अप्येकका वजसंस्थिताः अध्येकका: सूपसंस्थिताः अप्येककास्तोरणसं खिता: अध्येकका गोपुरसंस्थिताः, गोभिः पूर्यत इति गोपुरं-पुरद्वार, अध्येकका वेदिकासंस्थानसंस्थिताः, वेदिका-उप|वेशनयोग्या भूमिः, अप्येककाचोपालसंखिता इत्यर्थः, घोप्पालं नाम मनवारणं, अग्येकका अट्टालकसंस्थिताः अट्टालक:-प्राकारस्पो-1 पर्याश्रयविशेषः, अप्येकका वीथीसंस्थिता: वीथी-मार्गः, अध्येककाः प्रासादसंस्थिताः, राज्ञां देवतानां च भवनानि प्रासादाः उत्सेधबहुला वा प्रासादास चोभयेऽपि पर्यन्तशिखराः, हयं-शिखररहितं धनवता भवन, अप्येकका गवाक्षसंस्थिताः, गवाक्षो-वातायन, अध्येकका? वालाप्रपोतिकासंस्थिताः, वालाप्रपोतिका नाम तडागादिषु जल स्योपरि प्रासादा, अध्येकका बलभीसंस्थिताः, वलभी-गृहाणामाकछा-1 दन, अप्येकका परभवन विशिष्टसंस्थानसंस्थिताः, वरभवनं सामान्यतो विशिष्टं गई तस्येव यद् विशिष्ठं संस्थानं तेन संस्थिताः, शुभा | शीतला च छाया येषां ते शुभशीतलच्छायाले द्रुमगणाः प्रज्ञप्ता हे अमण! हे आयुष्मन् ! ।। 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु गृहाणि वाऽस्मद्गृहकल्पानि गृहायतनानि-तेषु गृहेषु देषां मनुष्याणामायतनानि-गमनानि गृहायतनानि ?,] दीप अनुक्रम [१८५] -- - - %* 4 JaEcarity ~105 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप श्रीजीवा- भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थों, वृक्षगृहालयास्ते मनुजाः प्रज्ञता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ॥ 'अस्थि णं भंते !' इत्यादि,शरमातपत्ता जीवाभि | सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु प्रामा इति वा यावत्सन्निवेशा इति वा, यावत्करणान्नगरादिपरिग्रहः, तत्र असन्ति बुझादीन गु-18दवकुर्वमलयगि- गानिति यदिवा गम्या:-शाखप्रसिद्धानामष्टादशानां कराणामिति प्रामाः, न विद्यते करो येषु तानि नकराणि, नखादय इति नि- धिकारः रीयावृत्तिः पातनान्नयोऽनादेशाभावः, निगमा:-प्रभूतबणिग्वर्गावासाः, पाशुप्राकारनिवद्धानि खेटानि. अलपाकारवेष्टितानि कर्वटानि, अर्द्धगृती-10 उद्देशः२ यगव्यूतान्तामरहितानि मडम्बानि, 'पट्टणाइ उनि पहूनानि पत्तनानि बा, उभयत्रापि प्राकृनवेन निर्देशस्य समानत्यान, तत्र यन्नी-हासू०१४७ ॥२७९॥ भिरेच गम्यं तत्पन. यत्पुनः शकटै|ट कैनौभित्र गम्यं तत्पत्तनं यथा भगकन्छ, उन च-पत्तनं शकटैगम्यं, घोट फैननॊभिरेव है। साच । नीभिरेव नु यद्गम्य, पट्टनं तरप्रवक्ष्यते ॥ १॥" द्रोणमुग्यानि-बाहुल्येन जलनिर्गभप्रवेशानि, आकरा-हिरण्याकरादयः, आ-12 अमा:-नापसावसथोपलभिता आश्रयाः, संवाधा-यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशाः, राजधान्यो यत्र नकरे पत्तनेऽन्यत्र वा स्वयं राजा वसति, सनिवेशा इति-सन्निवेशो यत्र सार्थादिरावासिनः, भगवानाह-गौतम! नायमर्थः समों, यद-यस्मान्ने पिछतकामगामिन:-14 ४ान इच्छित-इच्छाविषयीकृत नेछित, नायं न किन्तु नशब्द इत्यत्रा(ना)देशाभायो यथा 'नके द्वेषम्य पर्याया' इत्यत्र, नेच्छित-इच्छाया | अविषयीकृतं काम-खेच्छया गच्छन्तीत्येवंशीला नेछितकामगामिनले मनुजाः प्रज्ञप्ता हे अमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु 'असयः' अस्युपलक्षिताः सेवकाः पुरुषाः, मयीति वा मध्युपलक्षिता लेखनजीविनः, कृपिरिति कृषिकर्मोपजीविनः, 'पणीति पणितं पण्यमिति वा क्रयविक्रयोपजीविनः, वाणिज्यमिति वाणिज्यकलोपजीविनः', भगवा-12 नाह-गौतम! नायमर्थः समर्थों, व्यपगतासिमषीकृषिपण्यवाणिज्यास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन ! ॥ 'अस्थि णं भंते'। अनुक्रम [१८५] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~106~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 4 0 प्रत सूत्रांक [१४७] CLASSCOR -5646 दीप अनुक्रम [१८५] | इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु हिरण्यमिति वा-हिरण्यं-अघटितं सुवर्ण कांस्य-कांस्यभाजनजाति: 'दूसमिति वा दूष्य बस्त्रजातिः, मणिमौक्तिकशशिलाप्रवालसत्सारस्वापतेयानि वा, तत्र मणिमौक्तिकशाकशिलानवालानि प्रनीतानि सद्-विद्यमानं सारं -प्रधानं स्वापतेयं-धनं सत्सारस्वापतेयं, भगवानाह-इन्ता! अस्ति. 'नो चेव णमित्यादि, न पुनस्तेषां गनुजानां तद्विपयस्तीत्रो | ममत्वभावः समुत्पद्यते, मन्दरागादितया विशुद्धाशयलात् ॥ "अत्थि णं भंते !' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु राजेति वा राजा-चक्रवर्ती बलदेववासुदेवो महामाण्इलिको वा युवराज इति वा-उस्थिताशनः ईश्वरो-भोगिकादि, अणिमाद्यविधश्वर्ययुक्त ईश्वर इत्येके, तलवर इति वा, तलवरो नाम परितुष्टनरपतिप्रदत्तरवालातसौवर्णपट्टविभूपिनशिराः, कौटुम्बिक इति बा, कतिपयकु-18 | दुम्बप्रभुः कौटुम्बिका, माडम्बिक इति वा, यस्य प्रत्यासन्नं आमनगरादिकमपरं नास्ति तत्सर्वतश्छिन्नं जनाश्रयविशेषरूपं मडम्ब तहास्याधिपतिर्माडम्बिकः, इभ्य इति वा, भो-हस्ती तत्प्रमाणं द्रव्यमहतीतीभ्यः, यत्सत्कपुजीकृतहिरण्यरत्नादिव्येणान्तरितो हस्यपि | न दृश्यते सोऽधिकतरद्रव्यो वा इभ्य इत्यर्थः, श्रेष्ठीति वा श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूपितोत्तमाङ्गः पुरज्येष्ठो पणिग्विशेषः श्रेष्ठी, | सेनापतिरिति वा हस्त्यश्वरथपदातिसमुदायलक्षणाया: सेनायाः प्रभुः सेनापतिः, सार्थवाह इति वा, गणिमं धरिग मेजं पारिन्छ। चेव दबजायं तु । घेत्तूर्ण लाभत्थं वजह जो अन्नदेसं तु ॥ १॥ नित्रबहुमओ पसिद्धो दीणामाहाण वच्छलो पंथे । सो सस्थवाह-11 इनाम धणो व्व लोए समुब्बहइ ॥२॥" एतलक्षणयुक्तः सार्थवाहः, भगवानाह-गौतम! नायमर्थः समर्थो, व्यपगतद्धिसत्कारा-1 १ गमिमं धरिन मेयं परिच्छेयं चैव द्रव्यजातं तु । गृहीत्या लाभार्थ नजति योऽन्यदेशं तु ।।१॥ बहुमतः प्रसिद्धी दीनानाथानां वत्सलः पथि । स सार्थवाहनःम धन इव लोके समुहति ॥ २॥ 45-456-2-5 JaticNI ~107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवा प्रत सूत्रांक [१४७] दीप व्यपगता रद्धिः-विभवैश्वर्य सत्कारम-सेव्यतालक्षणो येभ्यस्ते तथा उत्तरकुरुवास्तव्या मनुजाः प्रज्ञता हे श्रमण! हे आयुष्मन ! 118 प्रतिपत्ती जीवाभि०11'अस्थिभंते इलादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु दास इति बा, दास:-आमरणं क्रयक्रीतः, प्रेष्य इति बा, प्रेष्यः- देवकुर्वमलयगि- प्रेषणयोग्यः, शिष्य इति वा, शिष्य:-उपाध्यायस्योपासकः, भृतक इत्ति वा, भृतको-नियतकालमधिकृत्य वेतनेन कर्मकरणाय धृतः, धिकारः रयावृत्तिभागिल्लए'ति वा भागिक इति बा, भागिको नाम द्वितीयांशस्य चतुर्थाशस्य वा प्राहकः, कर्मकारपुरुष इति वा, कर्मकारो लोहा-11 उद्देशः२ ॥२८॥ द्विारादिः कर्मकार: ?, भगवानाह-गौतम! नायमर्थः समों, व्यपगताभियोग्यास्ते मनुजा: प्रज्ञताः, अभिमुखं कर्मसु युज्यते व्यापार्यता सू०१४७ इति वाऽभियोग्यस्तस्य भावः कर्म का आभियोग्य, 'व्य जनाद् यपंचमस्य सरूपे वा' इत्येकस्य यकारस्य लोपः, व्यपगतमाभियोग्य जायेभ्यसे तथा हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! । 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, अस्ति भवन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुपु मातेति वा पितेति वा ] भ्रातेति वा भगिनीति वा भाति वा सुत इति वा दुहितेति वा स्नुपेति बा?, तत्र माता-जननी पित्ता-जनकः सहोदरो-भ्राता सहोदरी-भगिनी वधू:-भार्या मुत:-पुत्रः सुता-दुहिता पुत्रवधूः-स्नुपा, भगवानाह-हन्त ! अस्ति, तथाहि-या प्रसूते सा जननी,13 यो वीज निपिक्तवान् स पिता विवक्षितः पुरुषः, सह जातो यो भ्राता एकमातृपितृ कत्वात् , इतरा तस्य भगिनी, भोग्यत्वाद् भार्या, स्वमातापित्रोः स पुत्र इतरा दुहिता, स्वपुत्रभोग्यत्वात्सपेति, 'नो चेव ण मित्यादि, न पुनस्तेषां मनुजानां ती प्रेमरूपं बन्धनं स-1 मुत्पत्यते, तथा क्षेत्रस्वाभाव्यात् प्रतनुप्रेमबन्धनास्ते मनुजगणाः प्रज्ञता हे अमण! हे आयुष्मन् ! ।। 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति | भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु अरिरिति वा-शत्रु: वैरीति वा-जातिनियद्धवैरोपेतः, घातक इति वा, घातको योऽन्येन घातयति, वधक इति वा, वधक:-स्वयं हन्ता, प्रत्यनीक इति वा, प्रत्यनीक:-छिद्रान्वेषी, प्रत्यमित्र इति वा, प्रत्यमित्रो यः पूर्व मित्रं भूत्वा पश्चाद-| अनुक्रम [१८५] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - - प्रत सूत्रांक [१४७] - दीप अनुक्रम [१८५] Wiमित्रो जातः 1, भगवानाह-नायमर्थः समर्थों, व्यपगतवैरानुबन्धास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'अस्थि थे। भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तर कुरुपु कुरुषु मित्रमिति वा मित्रं-मेहविषयः, वयस्य इति वा-समानवया गाढतरनेहविषयः, | सखा इति वा-समानखानपानो गाढतमस्नेहस्थानं, सुहृदिति वा, सुहन्-मित्रमेव सकलकालमव्यभिचारि हितोपदेशदाथि प, साग|तिक इति वा, साङ्गतिकः-सङ्गतिमात्रघटित: ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थों, व्यपगतस्नेहानुरागास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ।। 'अस्थि पां भंते !' इत्यादि, अस्ति भदन्त : उत्तरकुरुपु कुरुपु आवाहा इति वा' आहूयन्ते स्वजनास्ताम्बूलदानाय यत्र स आवाह:-विवाहात्पूर्वस्ताम्बूलदानोत्सवः, वीवाहा इति वा, वीवाहः-परिणयनं, यज्ञा इति घा, यज्ञा:-प्रतिदिवसं खखेष्ट देवता| पूजाः, भाद्वानीति बा, श्राद्ध-पितक्रिया, थालीपाका इति वा, स्थालीपाक:-प्रतीतः, मृतपिण्डनिवेदनानीति वा-मृतेभ्यः श्मशाने तृतीयनवमादिषु दिनेषु पिण्डनिवेदनानि मृतपिण्डनिवेदनानि, चूडोपनयनानीति बा, चूडोपनयनं-शिरोमुण्डनं, सीमन्तोन्नयनानीति | वा, सीमन्तोन्नयनं-गर्भस्थापनं १, भगवाना-नायमर्थः समर्थो, व्यपगतापाहवीवाहयज्ञश्राद्धस्थालीपाकमृतपिण्डनिवेदनास्ते मनुजाः | प्रज्ञप्ता हे अमण! हे आयुष्मन् ! || 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु नटप्रेक्षेति वा नटा-नाटकानां नादयितारस्तेषां प्रेक्षा नटप्रेक्षा, नृत्यप्रेक्षेति वा, नृत्यन्ति स्म नृत्या-नृत्यविधायिनस्तेषां प्रेक्षा नृत्यप्रेक्षा इति वा, जलप्रेक्षेति बा, जला-वरनाखेलका राजस्तोत्रपाठका इत्यपरे तेषां प्रेक्षा जलप्रेक्षा, मलप्रेक्षेति बा, मल्ला:-प्रतीवाः, मौष्टिकप्रेक्षेति वा, मौष्टिका: महविशेषा एप ये भु| टिभिः प्रहरन्ति, विडम्बकप्रेक्षेति वा, विडम्बका-विदूषका नानावेपकारिण इत्यर्थः, कथकप्रेक्षेति बा, कथका: प्रतीता:, पुर्वकोक्षेति वा, प्लवका ये उत्प्लुत्य गर्तादिकं झम्पामिर्लयन्ति नयादिकं वा तरन्ति रोपां प्रेक्षा प्लवकप्रेक्षा, लासकप्रेक्षेति वा, लासका ये रास - AMACHAR +02- - ~109. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] श्रीजीवा- कान गायन्ति जयशब्दप्रयोक्तारो वा भाण्डास्तेषां प्रेक्षा लासकप्रेक्षा, आख्यायकप्रेक्षेति वा ये शुभाशुभमाख्यान्ति ते आख्यायकास्तेषां पतिपत्ती जीवाभिप्रेक्षा आख्यायकमेक्षा, ललप्रेक्षेति वा, लशा ये महावंशाग्रमारुह्य नृत्यन्ति तेषां प्रेक्षा लङ्गप्रेक्षा, मामेभेति वा, ये चित्रपट्टिकादि-10 देवकर्वमलयगि- हस्ता भिक्षां चरन्ति ते महारतेषां प्रेआ मोक्षा, 'तूणइलपेच्छाइ वा इति तूणाला-तूणाभिधानवाद्यविशेषयन्तस्तेषां प्रेक्षा तूणइ-18धिकारः रीयावृत्तिःप्रेक्षा, तुम्बवीणापेक्षेति वा, तुम्बयुक्ता वीणा येषां ते तुम्ववीणा:-तुम्बवीणावाद कानेपा प्रेक्षा, 'कावपिच्छाइ वेति कावा:-काव- उद्देशः२ हाडिवाहका रोपां प्रेक्षा, मागधप्रेक्षेति बा, मागधा-बन्दिभूतास्तेषां प्रेक्षा मागधप्रेक्षेति वा ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थो, व्यपग-10 सू०१४७ ॥२८॥ तकौतुकाने मनुजगणाः प्रज्ञमा हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरु कुरुषु इन्द्रमह है इति वा, इन्द्रः-दशकस्तस्य महः-प्रतिनियतदिवसभावी उत्सवः, स्कन्दमह इति बा, स्कन्द:-कार्तिकेयः, रुद्रमह इति वा, रुद्रः प्रतीतः, शिवमह इति बा, शिवो-देवताविशेषः, वैश्रमणमह इति वा, वैश्रमण:-उत्तरदिग्लोकपालः, नागमह इति वा, नागो-भवनपतिविशेषः, यक्षमह इति वा भूनमह इति वा, यक्षभूतौ-व्यन्तरविशेषौ, मकुन्दमह इति वा. मकुन्दो-बलदेवः, कूपमह इति वा तडाकमह इति वा नदीमह इनि वा इदमह इति वा पर्वतमह इति वा वृक्षमह इति वा चैत्यमह इति वा स्तूपमा इनि वा?, कूषादयः प्रतीताः, भगवानाह-नायमर्थः समर्थी. व्यपगतमहम हिमाले मनुजाः प्रशला हे श्रमण! हे आयुष्मन ! ।। 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, सन्ति हा भवन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु शकटानीति वा, शकटानि-प्रतीतानि, रथा बा, रथा द्विविधा-यानरथाः सामरथाच, तत्र सङ्कामरथस्य | प्राकारागुकारिणी फलकमयी बेदिकाऽपरस्य तु न भवतीति विशेषः, यानानीति या, यानं-गव्यादि. युग्यानीति या, युग्य-गोल्लविषयप्रसिद्धं ॥२८१॥ द्विहस्तप्रमाणं चतुरम्मवेदिकोपशोभितं जम्पानं, गिल्लय इति बा, गिहिई स्तिन उपरि कोहररूपा या मानुषं गिळतीव, थिल्लय इति वा, CAN - - अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - - - प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] लाटानां यद् अहुपाल्लाणं रुढं तदन्यविषये चिल्लिरित्युच्यते, शिविका इति वा, शियिका-कूटाकाराच्छादितो जम्पान विशेषः, सन्दमाणिया इति वा. सन्दमाणिया-पुरुषप्रमाणो जम्पानविशेषः, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, पादविहारचारिणरते मनुजा: प्रज्ञप्ता हे अगण! हे आयुप्मन् । 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! अश्वा इति वा हस्तिन इति वा उष्ट्रा इति वा गात्र इति वा महिपा इति वा खरा इति वा घोटका इति वा?, इह जात्या आशुगमनशीला अश्वाः शेषा घोटकाः, खरा-भाः, अजा इति वा एडका इति वा?, भगवानाहहन्त सन्ति, न पुनस्तेषां मनुजानां परिभोग्यतया 'हव्वं' शीत्रमागच्छन्ति ।। 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु गाव इति वा, गाव:-बीगव्यः, महिप्य इति वा उष्ट्रय इति वा अजा इति वा एडका इति वा', हन्त ! सन्ति, न पुनस्तेषां मनुष्याणामुपभोग्यतया हव्यं शीप्रमागच्छन्ति ।। अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुमपु फुरुपु सिंहा इति वा, सिंहः-पश्चाननः, ब्याना इति वा, व्याघ्रः-शार्दूलः, वृका इति वा, द्वीपिका इति वा बीपिका:-चित्रकाः, परक्षा इति वा, परस्सरा इति वा, परस्सरो-गण्डः, शृगाला इति वा, विडाला इति वा, शुनका इति वा, कालशुनका इति वा, को कन्तिका इति वा, को कन्तिकालकडिकाः, शशका इति वा, चिल्लला इति वा, चिल्ल-आरण्यक: पशुविशेष: ?, भगबानाह-हन्त ! सन्ति, न पुनस्से परस्परस्था | तेषां वा मनुजानां काश्चिदाबाधां वा प्रवायां वा छविच्छेदं वा कुर्वन्ति, प्रकृतिभद्रकासे श्वापद्गणाः प्रज्ञता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! । 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु शालय इति वा ब्रीहय इति वा गोधूमा इति वा यवा इति वा तिला इति वा इश्क्षव इति वा?, हन्त ! सन्ति न पुनस्तेषां मनुष्याणां परिभोग्यतया 'हवं' शीघ्रमागच्छन्ति । 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, | अस्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु स्थाणुरिति वा कण्टक इति वा हीरमिति वा, हीर-लघु कुत्सितं तृणं, शर्करेति वा, शर्करा-कर्क ~111 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] श्रीजीवा-प रकः, तृणकपवर इति वा पत्रकचवर इति वा अशुचीति वा, अशुचि-विगन्धं शरीरमलादि, प्रतीति वा प्रति-कृथित स्वस्वभावच-1 प्रतिपत्ती जीवाभि०1लितं त्रियासरवटकादिवत् , दुरभिगन्धमिति वा, दुरभिगन्धं मृत कलेवरादिवत् , अचोक्ष-अपवित्रमस्थ्यादिवत् ?, भगवानाह-मायमर्थः देवकुर्वमलयगि-1Mसमयों, व्यपगतवाणुकण्टकहीरशकरातृणकचवरपत्रकचपराशुचिपूतिदुरभिगन्धाचोक्षपरिवर्जिता उत्तरकुरवः प्राप्ताः श्रमणाधिकारः रीयावृत्तिःद्रमायुष्मन् ! ।। 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, अस्ति भदन्त ! उत्तर कुरुपु कुरुपु, गर्नेति वा, गर्ता-महती सहा, दरीति वा, दरी-मूपि- उद्देशः २ कादिकृता लम्बी खडा, घसीति वा, घसी-भूराजि:, भृगुरिति वा, भृगुः-प्रपातस्थानं, विपममिति बा, विषम-दुरारोहावरोहस्थानं, सू०१४७ ॥२८ ॥ धूलिरिति वा पत इति वा, धूलीपको प्रतीती, चलणीति वा, चलनी-चरणमात्रस्पर्शी कर्दमः १, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, उत्त-16 रकुरुपु कुरुपु बहुसमरमणीयो भूभागः प्रज्ञमो हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ।। 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! इंसा इति वा मसका इति वा ढङ्कणा इति वा, कचित् पिशुगा इति वा इति पाठस्तत्र पिशुका:-चंचढादयः, यूका इति वा लिक्षा इति वा ?, भग-1 शबानाह-नायमर्थः समर्थो, व्यपगतोपद्रवाः खलु उत्तरकुरवः प्रज्ञप्ता हे अमण ! हे आयुष्मन् ! ॥ 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति | भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु अहय इति वा अजगरा इति वा महोरगा इति वा ?, हन्त ! सन्ति न पुनस्तेऽन्योऽन्यस्य तेषां वा भनुजानां | काश्चिदाबाधां व्यायामां या छविच्छेदं वा कुर्वन्ति, प्रकृतिभद्रकास्ते व्यालकगणा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! ॥ 'अस्थि णं भंते | इत्यादि, सन्ति (मदन्त) ! उत्तरकुरुषु कुरुपु प्रहदण्डा इति वा, दण्डाकारव्यवस्थिता प्रहा पहदण्डा: ते चानोंपनिपातहेतुतया प्रतिषेध्या | न स्वरूपतः, एवं ग्रहमुशलानीति का, ग्रहगर्जितानि-ग्रहचारहेतुकानि गर्जितानि, इनानि स्वरूपतोऽपि प्रतिषेध्यानि, ग्रहयुद्धानीति | ॥२८२॥ वा, ग्रहयुद्धं नाम यदेको प्रहोऽन्यस्य प्रहस्य मध्येन याति, प्रहसङ्घाटका इति वा, प्रहसङ्घाटको नाम प्रयुग्मं, प्रहापसव्यानीति वा2 दीप अनुक्रम [१८५] 5 9c% PROCCO 4% Jantic अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], • मूलं [ १४७] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जी० ४८ Ja Econ अभ्राणीति वा, अभ्राणि सामान्याकारेण प्रतीतानि, अभ्रवृक्षा इति वा, अभ्रवृक्षा-वृक्षाकारपरिणतान्यभ्राणि, सन्ध्या इति वा ऋध्याकाले नीलाद्यभ्रपरिणतिरूपा प्रतीतैव गन्धर्वनगराणि सुरसदनप्रासादोपशोभितनगराकारतया तथाविधनभः परिणतपुद्गलराशिरूपाणि, एतान्यपि तत्र स्वरूपतोऽपि न भवन्ति, गर्जितानीति वा विद्युत इति वा, गर्जितानि विद्युतश्च प्रतीताः, उल्कापाता इति वा, उसका पाता योनि संमूच्छितञ्चननिपतनरूपा दिग्दाह इति वा दिग्दाहा-अन्यतरस्यां दिशि छिन्नमूलज्वलनज्वालाकरालिताम्वरप्रतिभासरूपाः, निर्माता इति वा निर्घातो विद्युत्रपातः पांशुवृष्टय इति वा पशुवृष्टयो- लिवर्षाणि ग्रूपका इति वा, ग्रूपकाः 'संझायावरणीय' इत्यादिनाऽऽवश्यकप्रन्थेन प्रतिपत्तव्याः वक्षदीप्तकानीति वा यक्षदीपकानि नाम नभसि दृश्यमानामिसहित: पिशाचः, धूमिकेति वा रूक्षा प्रविरला धूमाभा धूमिका, महिकेति वा खिग्धा घना घनत्वादेव भूमौ पतिता सातृणादिदर्शनद्वारेणोपलक्ष्य * माणा महिका, रजउद्घाता रजस्वला दिशः, चन्द्रोपरागा इति वा सूर्योपरागा इति वा चन्द्रोपरागः- चन्द्रग्रहणं सूर्योपरागः-सूर्यग्रहणं, वह गर्जितविद्युदुल्का दिग्दाह निर्घात पशुवृष्टियूपकयक्ष दीमक भूमिकामद्दिकार जउद्घाताः स्वरूपतोऽपि प्रतिषेध्याः, चन्द्रसूर्यग्रहणे वनर्थीपनिपातहेतुतया स्वरूपतस्तयोः प्रतिपेदुमशक्यत्वाम्, जम्बूद्वीपगतौ हि चन्द्रौ सूर्यौ वा तत्प्रकाशयतः एकस्य चन्द्रस्य ग्रहणे * सकलमनुष्यलोकवर्त्तिनां चन्द्राणामेकस्य सूर्यस्य ग्रहणे कलमनुष्यलोकवर्तिनां सूर्याणां ग्रहणमत इह क्षेत्र इव तत्रापि रूपचन्द्रसूर्योपरागप्रतिषेधासम्भवः, चन्द्रपरिवेषा इति वा सूर्यपरिवेष इति वा चन्द्रसूर्यपरिवेषाञ्चन्द्रादित्ययोः परितो वलयाकार परिणतिरूपाः प्रतीता एवं प्रतिचन्द्रा इति वा प्रतिसूर्वा इति वा प्रतिचन्द्र- उत्पातादिसूचको द्वितीयञ्चन्द्रः एवं द्वितीयः सूर्यः प्रतिसूर्यः, इन्द्रधनुरिति वा उदकमत्स्य इति या, इन्द्रधनुः प्रतीतं, तस्यैव खण्डमुदकमत्स्यः, कपिहसितानीति वा, कपिहसितानि-अकस्मान्न For P&Pase City ~113~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] श्रीजीवा- भसि नलीमशब्दरूपाणि, अमोघा इति वा, अमोघा:-सूर्यबिम्बस्याधः कदाचिदुपलभ्यमानशकटोद्धिसंस्थिता श्यामादिरेखा, एते ३ प्रतिपत्ती जीवाभि चन्द्रपरिषादयः स्वरूपतोऽपि प्रतिषेध्याः, प्राचीनवाता इति वा अपाचीनवाता इति वा यावत् शुद्धवासा इति वा, यावत्करणा- देवकुर्वमलयगि- क्षिणवातादिपरिग्रहः, एतेऽसुखहेतबो विकृतरूपाः प्रतिषेध्याः नतु सामान्येन, पूर्वादिवातस्य तत्रापि सम्भवात् , अामदाहा इति वा हाधिकारः रीयावृत्तिःपटानकरदाहा इति यावत्संनिवेशदाहा इति, यावत्करणान्निगमदाहखेटदाहादिपरिग्रहः, दार कृतश्च प्राणक्षय इति वा भूतक्षय इति वा || उद्देशः२ कुलक्षय इति वा, एते स्वरूपतोऽपि प्रतिषेध्याः, तथा चाह भगवान् गौतम : नायमर्थः समर्थ,, केपाश्विनर्थहेतुतया केषाश्चित्स्व॥२८३ ॥ रूपतन तन्त्र नेपामसम्भवान् । 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु डिम्बानीति बा, डिम्बानि-वदेशोत्था | विवाः, उमराणीति बा, इमराणि-परराजकता उपद्रवाः, कलहा इति वा, कलहा-बागयुद्धानि, बोला इति वा, बोला-आर्त्तानां बहूनां कलकलपूर्वको मेलापकः, क्षार इति वा, झार:-परस्परं मात्सर्य, वैराणीति वा, वैर-परस्परमसहनतया हिंस्यहिंसकभावाप्राध्यवसायः, महायुद्धानीति था, महायुद्ध-परस्परं मार्यमाणमारकतया युद्ध, महासङ्घामा इति वा, महासन्नाहा इति बा, महासङ्घामदश्चेटिककोणिकवन् , महासन्नाहो-नृहत्पुरुषाणामपि बहूनां य: सन्नाहः, महापुरुषनिपतनानीति वा, प्रतीतं, महाशस्त्रनिपतनानीति वा, महाशस्त्रनिपतनं-पन्नागवाणादीनां दिव्याखाणां प्रक्षेपणं, नागयाणादयो हि वाणा महाशस्त्राणि, तेषामद्भुत विचित्रशक्तिकत्वात् , तथाहि नागवाणा धनुध्यारोपिता बाणाकारा मुक्ताश्च सन्तो जाज्वल्यमानासडोल्कादण्डरूपास्ततः परशरीरे सक्रान्ता नागमूर्तीभूय पाशत्वमुपगच्छन्ति, तामसवाणाश पर्यन्ते सकलसवामभूमिव्यापिमहान्धतमसरूपतया परिणमन्ते, उक्तच-चित्रं श्रेणिक! ते वाणा, भवन्ति धनुराश्रिताः । उस्कारूपाश्व गमछन्तः, शरीरे नागमूर्तयः ॥ १॥ क्षणं वाणाः क्षणं दण्डाः, अणं पाशत्वमागताः ।। ||२८३॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~114~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] Sit दीप अनुक्रम [१८५] आकरा हाखभेदास्ते, यथाचिन्तितमूर्तयः ॥ २॥” इत्यादि, भगवानाह-नायमर्थः समों, व्यपगतडिम्बडमरकलहबोलक्षारवैरास्ते हामनुजाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन ! ।। 'अस्थि णं भंते' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु दुर्भूतानीति बा, दुर्भूतं अशिर्व, कुलरोगा इति वा मण्डलरोगा इति वा शिरोवेदनेति वा अक्षिवेदनेति वा कर्णवेदनेति वा नखवेदनेति वा दन्तवेदनेति वा काश इति वा श्वास इति वा शोष इति वा वर इति वा दाह इति वा कच्छूरिति वा खसर इति वा कुष्ठमिति वा अर्श इति वा अजीर्णमिति वा भगन्दर इवि वा इन्द्रग्रह इति वा स्कन्धप्रद इति वा कुमारसह इति वा नागग्रह इति वा यक्षप्रह इति वा भूतग्रह इति वा धनुर्मह इति या उद्वेग इति वा एकाहिका इति वा पाहिका इति वा च्याहिका इति वा चतुर्थका इति वा हृदयशलानीति ४वा मस्तकझूलानीति वा पार्श्वशूलानीति वा कुक्षिशूलानीति वा योनिशूलानीति वा प्राममारिरिति वा नकरमारिरिति वा निगममादारिरिति वा यावत्सन्निवेशमारिरिति वा, यावत्करणात् खेडकर्बटादिपरिग्रहः, मारिकृतशाणिक्षय इति वा जनक्षय इति वा धनक्षय इति वा कुलक्षय इति वा व्यसनभूतमनार्यतेति वा!, भगवानाह-नायमर्थः समर्थों, व्यपगतरोगातङ्कास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ता हे अमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'तेसि ण' मित्यादि, तेषामुत्तरकुरुवास्तव्यानां भदन्त ! मनुष्याणां कियन्तं कालं स्थिति:-अवस्थानं प्रज्ञप्ता ?, भग-1 वानाह-गौतम! जघन्येन देशोनानि त्रीणि पल्योपमानि, तत्र न ज्ञायते कियता देशेनोनानि? तत आह-पल्योपमस्यासोयभागेनोनानि, उत्कर्षतः परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि ॥ 'ते णं भंते' इत्यादि, ते उत्तरकुरुवास्तव्या भदन्त ! मनुजा: कालमासे 'कालं' |मरणं कला क गच्छन्ति ', एतदेव व्याचष्टे-कोत्पयन्ते ? इति, भगवानाह-गौतम! ते मनुजाः षण्मासावशेषायुपः कृतपरभवायुबन्धाः स्वकाले युगलं प्रसूत्रते, प्रसूय एकोनपञ्चाशतं रात्रिन्दिवानि तद् युगलमनुपालयन्ति, अनुपाल्य काशित्वा भुस्खा जृम्भयित्वा 40-45-45 ~115 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] श्रीजीवा- जीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥२८४॥ दीप अनुक्रम [१८५] 'अविष्टाः' स्यशरीरोत्थलेशरहिताः 'अव्यथिताः परेणानापादितदुःग्वा: 'अपरितापिताः' स्वत: परतो वाऽनुपजालकायमनःपरि- प्रतिपत्ती तापाः कालमासे कालं कला 'देवलोकेषु' भवनपत्याचाश्रयेपूत्पद्यन्ने, 'देवलोगपरिग्गहिया ण'मिति देवलोको-भवनपत्याथाश्रय-1 देवकुर्वरूपस्तथाक्षेत्रवाभाव्यतस्तद्योग्यायुर्वन्धनेन परिगृहीतो यैस्ते देवलोकपरिगृहीताः, निष्ठान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात् , णमिति हाधिकारः वाक्यालङ्कारे, ते मनुजाः प्रज्ञासा हे अमण! हे आयुष्मन् ! ॥ 'उत्तरकुराए णं भंते' इत्यादि, उत्तरकुरुयु कुरुषु भदन्त ! 'कति- उद्देशः २ विधाः' जातिभेदेन कतिप्रकारा मनुष्या: 'अनुसजन्ति ? सन्तानेनानुवर्त्तन्ते, भगवानाह-गौतम! पड्डिधा मनुजा अनुसजन्ति सू०१४७ तद्यथा-पद्मगन्धा इत्यादि, जातिवाचका इमे शब्दाः । अत्र विनेयज नानुग्रहायोत्तरकुरुविषयसूत्रसङ्कलनार्थ सङ्ग्रहणिगाथात्रयमाह"उसुजीवाधणुपट्ट भूमी गुम्मा य हेरुदाला। तिलगलयात्रणराई रुक्खा मणुया य आहारे ॥ १॥ गेहा गामा य असी हिरण राया। य दास माया य । अरिवरिए य मित्ते विवाहमहनलगडा व ॥२॥ आसा गावो सीहा साली खाणू य गदसाही। गहजुरोगठिइ उबट्टणा य अणुसजणा चेव ॥ ३॥ अस्य व्याख्या-प्रथमभुत्तर कुरुविषयमिपुजीवाधनुःपृष्ठप्रतिपादकं सूत्र, तदनन्तरं | भूमिरित्ति भूमिविषयं सूत्र, ततो 'गुम्मा' इति गुल्मविषयं, तदनन्तरं हेरुतालवनविषय, ततः 'उद्दाला' इति उद्दालादिविषय, तदनन्तरं 'तिलग' इति तिलकप दोपलक्षितं, ततो लताविषय, तदनन्तरं वनराजीविषयं, तत: 'रुक्खा' इति दश विधकल्पपादपविषया | दश सूत्रदण्डकाः, 'मणुया य' इति त्रयो मनुष्यविषयाः सूत्रदण्डकास्तद्यथा-आयः पुरुषविषयो द्वितीय: स्त्रीविषवस्तृतीयः सामान्यत | उभयविषय इति, तत: 'आहार' इति आहारविषयः, तदनन्तरं 'गेहा' इति गृहविषयौ द्वौ दण्डको, आद्यो गृहाकारवृक्षाभिधायी ॥२८४ । अपरो गेहावभावविषय इति, ततः 'गामा' इति ग्राभायभावः, तबनन्तरमसीति अस्याद्यभावविषयः, ततो हिरण्यादिविषयः, तद-18 JaEconneT LI अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~116 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१८५] नन्तरं राजायभावविषयः, ततो दासायभावविषयः, ततो मात्रादिविषयः, तदनन्तरम रिवैरिप्रभृतिप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं मित्रायभावविषयः, तदनन्तरं विवाहपदोपलक्षितस्तत्प्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं महप्रतिषेधविषयः, ततो नृत्यपदोपलक्षित: प्रेक्षाप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं शकटाविप्रतिषेधविषयः, ततोऽश्वादिपरिमोगप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं स्त्रीगव्यादिपरिभोगप्रतिषेधविषयः, ततः सिंहादिश्वापदविषयः, तदनन्तरं शास्यायुपभोगप्रतिषेधविषयः, ततः स्थाण्वादिप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं गादिप्रतिषेधविषयः, ततो दंशायभावविपयः, ततोऽयादिविषयः, तदनन्तरं 'गह' इति प्रहदण्डादिविषयः, ततः 'जुद्ध' इति युद्धपदोपलक्षितो हिम्बादिप्रतिषेधविषयः। सूत्रदण्डकः, ततो रोग इति रोगपदोपल मितो दुर्भूतादिप्रतिषेधविषयः, तदनन्तरं स्थितिसूर्य, ततोऽनुषजनसूत्रमिति ॥ सम्प्रत्युत्तरकुरुभावियमकपर्वतवक्तव्यतामाह कहिणं भंते ! उत्तरकुराए कुराए जनगा नाम दुवे पचता पन्नत्सा?, गोयमा! नीलवंतस्स वासघरपब्वयस्स दाहिणणं अट्ठचोसीसे जोयणसते चत्तारियसत्तभागे जोयणस्स अबाधाए सीताए महाणईए (पुथ्वपच्छिमेणं) उभओ फूले, इत्व णं उत्तर कुराए जमगा णाम दुवे पन्वता पण्णता एगमेगं जोयणसहस्सं उर्दु उचत्तेणं अट्ठाइजाई जोयणसताणि उब्वेहेणं मूले एगमेगं जोयणसहस्सं आयामविश्वभेणं मझे अट्ठमाई जोयणसताई आयामविखंभेर्ण उवरिं पंचजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं मूले तिपिण जोयणसहस्साइं एगं च वावडिं जोयणसतं किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं मज्झे दो जोपणसहस्साई तिन्नि य यावत्तरे जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्वेवणं % * -% * %% ** ** ~117~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४८] दीप अनुक्रम [१८६] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----- उद्देशकः [( द्वीप समुद्र )], - मूलं [ १४८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ २८५ ॥ va rafi पन्नri एक्कासीते जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, मूले विच्छि पण मझे संखित्ता उपिं तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिता सव्वकणगमया अच्छा सण्हा जाव प freat पत्तेयं २ परमवरबेड्या परिक्खित्ता पत्तेयं २ वणसंडपरिक्खित्ता, घण्णओ दोपहवि, तेसि जमगपव्वाणं उपि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते वण्णओ जाब आसयंति० ॥ तेसि णं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए परोयं २ पासावडेंसगा पण्णत्ता, ते पासावडेंसगा बावहिं जोयणाई अद्धजोयणं च उ उच्चत्तेनं एकत्तीस जोयणाई कोर्स च वि भेणं अभुगतमूसिता वण्णओ भूमिभागा उल्लोता दो जोयणाई मणिपेडियाओ वरसीहासणा सपरिवारा जाव जमगा चिति ॥ से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चति जमगा पञ्चता ? २, गोयमा ! जमणं पव्वसु तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहुओ खुड्डाखुड्डियाओ बाबीओ जाव बिलतिताओ, तासु णं खुड्डाखुड्डियासु जाव विलपतियासु बहूई उप्पलाई २ जाब सतसहस्सपत्ताई जमगर भाई जगवण्णाई, जमगा य एत्थ दो देवा महिडीया जाब पलिओयमद्वितीया परिव संति, ते णं तत्थ पसेयं पत्तेयं चउन्हें सामाणियसाहस्सीणं जाब जमगाण पव्वयाणं जम गाण य रायपाणीणं अण्णेसिं च बहूणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवचं जाव पालेमाणा विहरंति से लेणद्वेणं गोयमा ! एवं० जमगफवया २, अनुत्तरं च णं गोयमा ! जाव णिचा For P&Praise City ३ प्रतिपत्ती यमकप र्वताधिः उद्देशः २ सू० १४८ ~118~ | ।। २८५ ।। अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश: '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % % % प्रत सूत्रांक [१४८] % A5 ॥ कहिणं भंते! जमगाणं देवाणं जमगाओ नाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! जमगाणं पचयाणं उत्तरेणं तिरियमसंखेने दीवसमुद्दे वीइवतित्ता अण्णमि जंबूद्दीवे २ वारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एस्थ णं जमगाणं देवाणं जमगाओ णाम रायहाणीओ पण्णताओ वारस जोयणसहस्स जहा विजयस्स जाव महिड्डिया जमगा देवा जमगा देवा ॥ (सू०१४८) 'कहि णं भंते ! इत्यादि, क भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुपु यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ ?, भगवानाह-गौतम! नीलवतो वर्षधर-17 पर्वतस्य दाक्षिणात्याचरगान्तान्-चरमरूपात्पर्यन्तादृष्टौ योजनशतानि चतुर्विंशदधिकानि चतुरश्च योजनस्य सप्तभागान् अवाधया कृत्वा-अपान्तराले मुक्त्वेति भावः, अत्रान्तरे शीताया महानद्या: 'पूर्वपश्चिमेन' पूर्वपश्चिमयोदिशोरुभयो: कूलयो: 'अत्र' एतस्मिन् । प्रदेशे यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रशभौ, तदाथा-एक: पूर्वकूले एक: पश्चिमकूले, प्रत्येक चैक योजनसहस्रमुञ्चैस्त्वेन, अर्द्धतृतीयानि यो-10 जनशतान्युद्वेधेन-अवगाहेन, मेरुव्यतिरेकेण शेषशाश्वतपर्वतानां सामविशेषेणोवैस्त्वापेक्षया चतुर्भागत्यावगाहनाभावान् , मूले एकयोजनसहस्रं विष्कम्भत: १०००, मध्ये ऽष्टिमानि योजनशतानि ७५०, उपरि पञ्च योजनशतानि ५००, मूले त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वाप-द्वापयधिकं योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण प्रज्ञतौ ३१६२, मध्ये द्वे योजनसहने त्रीणि योजनशतानि | द्वासनतानि-द्वासप्तत्यधिकानि ३३७२ किचिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रज्ञमौ, उपरि एक योजनसहस्रं पञ्च चैकाशीतानि-एकाशीत्यधिकानि योजनशतानि किश्चिद्विशेषाधिकानि १५८१ परिक्षेपेण, एवं च ती मूले विस्तीणी मध्ये सद्धिमी उपरि च तनुकावत एवं गोपुच्छसंस्थानसंस्थिती, 'सव्यकणगमया' इति सर्वासना कनकमयो 'अच्छा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् , तौ च प्रत्येकं | दीप अनुक्रम [१८६] % 2-04-4-4-55 Jantacil ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४८] दीप अनुक्रम [१८६] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ २८६ ॥ प्रत्येकं पद्मवरवैदिकया परिक्षिप्तौ प्रत्येकं २ बनखण्डपरिक्षितौ पदावर वेदिकायको वनखण्डवर्णञ्च जगत्युपरिपावरवेदिकावनप ण्डवकवद् वक्तव्यः ॥ 'तेसि णं जमगपव्ययाण' मित्यादि, यमकपर्वतयोरुपरि प्रत्येकं बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, भूमिभागवर्णनं से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा' इत्यादि प्राग्वत्तावक्तव्यं यावद् वाणमंतरा देवाय देवीओ य आसयंति संयंति जाय पथणुभवमाणा विहरंति' | 'तेसि ण'मित्यादि, तयोर्वदुसगरमणीययोर्भूमि भागयोर्बहु मध्य देशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, तौ च प्रासादावतंसकौ द्वापष्ट्रियोजनान्यर्द्धयोजनं चोर्द्धमुचैस्त्वेन, एकत्रिंशद् योजनानि कोशं चैकं विष्कम्भेन, 'reerयमूसियहसिया इवेत्यादि यावत् पडिवा' इति प्रासादावतंसकवर्णन मुहोचवर्णनं भूमिभागवर्णनं मणिपीठिका वर्णनं सिंहासनवर्णनं विजयदूष्यवर्णनमङ्कुशवर्णनं दामवर्णनं च निरवशेषं प्राग्वद्वक्तव्यं, नवरमंत्र मणिपीठिकायाः प्रमाणमायामविष्कम्भाभ्यां द्वे योजने, याहस्येनैकं योजनं, शेषं तथैव । 'तेसि णं सिंहासणाण'मित्यादि, तयोः सिंहासनयोः प्रत्येकम् 'अवरुत्तरेणं'ति अपरोत्तरस्यां बायव्यामित्यर्थः उत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्यां दिशि अत एतासु विमृषु दिक्षु 'यमकयोः' यमकनानोर्यमकपर्यंतस्वामिनोर्देवयोः प्रत्येकं प्रत्येक चतुर्णां सामानिकसहस्राणां योग्यानि चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञतानि, एवमनेन क्रमेण सिंहासनपरिवारो वक्तव्यो यथा प्रावि | जयदेवस्य || 'तेसि ण' नित्यादि, तयोः प्रासादावतंसकयोः प्रत्येकगुपर्यष्टाष्टौ मङ्गलकानि प्रज्ञतानि इत्याद्यपि प्राग्वत्तावद्वन्यं या वत् 'सबसहरसपत्तगा' इति पदम् ॥ सम्प्रति नामनिबन्धनं विद्धिरिदमाह-अथ 'केनार्थेन' केन कारणेन एवमुच्यते--यमकपर्वतौ यमकपर्वतौ ? इति, भगवानाह - गौतम ! यमकपर्वतयोः णमिति वाक्यालङ्कारे क्षुल्लकक्षुल्लिकासु वापीपुष्करिणीपु यावद्विलप किषु बहूनि यावत्सहस्रपत्राणि 'यमकप्रभाणि' यसका नाम - शकुनिविशेपास्तत्प्रभानि तदाकाराणि, एतदेव व्याचष्टे यमकवर्णाभानि For P&Praise City ३ प्रतिपत्तौ यमकप र्वताधिव उद्देशः २ सू० १४८ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 120~ ॥ २८६ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४८] IN-यमकवर्णसदृशवर्णानीत्यर्थः, 'यमको च' यमकनामानौ च तत्र-तयोर्यमकपर्वतयोः खामिलेन द्वौ देवी महालको यावन्महाभागार पस्योपमस्थितिकी परिवसतः, ती च तन्त्र प्रत्येक चतुर्णा सामानिकसहस्राणां चतसूणामप्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिमृणामभ्यन्तरमध्यमबाह्यरूपाणां यथासमयमष्टदशद्वादशदेवसहस्रसयाकानां पर्षदां सपानामनीकानां सप्तानामनीकाधिपतीनां पोडशानामात्मरक्षदेवसहस्राणां 'जमगपव्ययाणं जमगाण य रायहाणीण मिति स्वस्व स्वस्य यमकपर्वतस्य स्वस्य खस्य यभिकाभिधाया राजधान्या अन्येषां च बहूनां वाणमन्तराणां देवानां देवीनां च स्वखयमिकाभिधराजधानीवास्तव्यानामाविषयं यावद्विहरतः, यावरकरणात् पो| रेवचं सामित्तं भट्टित्त'मित्यादिपरिग्रहः, ततो यमकाकारयमकवत्पिलादियोगाद्यमकाभिधदेवस्वामिकखाच ती यमकपर्वतावित्युच्येते, तथा चाह-'से एएणडेण'मित्यादि । सम्प्रति वमिकाभिधराजधानीस्थानं पृच्छति-कहि णं भंते' इत्यादि, क भदन्त ! यमकयोदेवयोः सम्बन्धिन्यौ यभिके नाम राजधान्यौ प्रज्ञता ?, भगवानाह-गौतम! यमकपर्वतयोरुत्तरतोऽन्यस्मिन्नसावेयतमे जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वादश योजनसहस्राणि अवगायात्रान्तरे यमकयोदेवयोः सम्बन्धिन्यौ यमिके नाम राजधान्यौ प्रक्षप्ते, ते चाविशेषेण विजयराजधानीसशे वक्तव्ये । सम्प्रति वक्तव्यतामभिधित्सुराह कहिणं भंत! उत्तरकुराए २ नीलपंतदहेणामं दहे पपणते?, गोयमा! जमगपञ्बयाणं वाहिणणं अदृचोत्तीसे जोयणसते चसारि सत्तभागा जोयणस्स अबाहाए सीताए महाणईए बहमज्झदेसभाए, एत्थ णं उत्तरकुराए २ नीलवंतहहे नामं दहे पन्नत्ते, उत्तरदक्षिणायए पाईणपढीणविच्छिन्ने एग जोयणसहस्सं आयामेणं पंच जोयणसताई विखंभेणं दस जोयणाई उच्वेहेणं अच्छे सण्हे रयतामत दीप अनुक्रम [१८६] CSSC-% ~121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४९] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती नीलबद्रदाधि० उद्देशः२ सू०१४९ ।। २८७॥ दीप अनुक्रम [१८७] PRACK कूले चउकोणे समतीरे जाव पडिरूवे उभओ पासिं दोहि य पउमवरवेदयाहिं वणसंडेहिं सव्यतो समंता संपरिक्खिसे दोण्हवि बण्णओ। भीलवंतदहस्स णं दहस्स तस्थ २ जाय बहवे तिसोवाणपडिरूवगा पपणत्ता, वपणओ भाणियब्बो जाव तोरणत्ति ॥ तस्स णं नीलवंतद्दहस्स णं दहस्स बहुमज्झदेसभाए एस्थ णं एगे महं पउमे पणते, जोयणं आयामविखंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अद्धजोयणं पाहल्लेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं दो कोसे ऊसिते जलंतातो सातिरेगाई दसद्धजोयणाई सब्वग्गेणं पपणत्ते ॥ तस्स णं पउमस्स अयमेयारूवे वपणावासे पण्णते, तंजहा-बहरामता मूला रिहामते कंदे वेरुलियामए नाले वेरुलियामता बाहिरपत्ता जंबूणयमया अम्भितरपत्ता तबणिजमया केसरा कणगामई कपिणया नाणामणिमया पुक्वरस्थिभुता ।। सा णं कपिणया अजोयणं आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं कोसं बाहल्लेणं सध्यप्पणा कणगमई अच्छा सण्हा जाच पडिरूबा ॥ तीसे णं कपिणयाए उवरि बहसमरमणिजे देसभाए पण्णत्ते जाव मणीहिं॥ तस्स णं बहसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खभेणं देसूर्ण कोसं उहूं उच्चत्तेणं अणेगखंभसतसंनिविट्ठ जाव वपणओ, तस्स णं भवणस्स तिदिसिं ततो दारा पणत्ता पुरथिमेणं दाहिणणं उत्तरेणं, ते णं दारा पंचधणुसयाई उई उच्चत्तेणं | ॥२८७॥ भत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~122 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - प्रत सूत्रांक -- [१४९] दीप अनुक्रम [१८७] अहाइजाई धणुसताई विखंभेणं तावतियं चेव पवेसेणं सेया बरकणगथूभियागा जाव वणमालाउत्ति ॥ तस्स णं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते से जहा नामए-आलिंगपक्खरेति वा जाव मणीर्ण वणओ॥ तस्सणं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहमजादेसभाए एत्थ णं मणिपेडिया पण्णत्ता, पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं अड्डाइजाई धणुसताई बाहल्लेणं सव्वमणिमई ॥ तीसे णं मणिपेटियाए उवरि एत्थ णं एगे महं देवसयणिजे पण्णत्ते, देवसयणिजस्स वण्णओ ।। सेणं पउमे अपणेणं अट्ठसतेणं तदजुबत्तप्पमाणमेत्ताण पउमाणं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ते ॥ ते णं पउमा अद्धजोयणं आयामविक्खंभेणं तं तिगुण सविसेसं परिक्खेवणं कोसं बाहल्लेणं दस जोयणाई उब्वेहेणं कोसं ऊसिया जलंताओ साइरेगाई ते दस जोयणाई सब्बग्गेणं पण्णत्ताई। तेसिणं पउमाणं अयमेयारूवे वपणाबासे पपणते, तंजहावहरामया मूला जाव णाणामणिमया पुक्खरस्थिभुगा । नाओ णं कपिणयाओ कोसं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं स० परि० अद्धकोसं बाहल्लेणं सब्बकणगामईओ अच्छाओ जाव पहिरूवाओ॥ तासिणं कणियाणं उपि बहसमरमणिजा भूमिभागा जाव मणीणं वणो गंधो फासो ॥ तस्स र्ण पउमस्स अवरुत्सरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं नीलवंतहहस्स कुमारस्स चउण्डं सामाणियसाहस्सीणं चत्तारि पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, एवं (एतेणं) सब्वो परिवारो ~123 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः *5% प्रत सूत्रांक [१४९] | दाधिक RE5 ३॥ २८८॥ दीप अनुक्रम [१८७] नवरि पउमाणं भाणितब्बो ॥ से णं पउमे अण्णेहिं तिहिं पउमवर परिक्वेवेहिं सब्बतो समंता प्रतिपत्ती संपरिक्खित्ते, तंजहा-अभितरेणं मज्झिमेणं याहिरएणं, अभितरएणं पउनपरिक्षेचे वत्तीसं नीलवद्रपउमसयसाहस्सीओ प०, मजिसमए णं पउमपरिक्खेवे चत्तालीसं पउभसयसाहस्सीओ पं० बाहिरए णं पउमपरिक्खेवे अडयालीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णताओ, एवामेव सपुव्यावरेणं | उद्देशः२ एगा पउमकोडी वीसं च पउमसतसहस्सा भवंतीति मक्खाया।से केणतुणं भंते! एवं वुचति- | सू०१४९ णीलवंतहहे दहे?, गोयमा! णीलवंतद्दहे णं तत्थ तत्थ जाई उप्पलाईजाय सतसहस्सपत्ताई नीलवंतप्पभातिं नीलवंतदहकुमारे यसो चेव गमो जाब नीलवंतदहे २॥ (मू०१४९) 'कहि णं भंते !' इत्यादि, क भदन्त ! उत्तरकुरुपु कुरुषु नीलवनदो नाम हदः प्रज्ञमः ?, भगवानाह-गौतम! यमकपर्वतयोदक्षिणाघरमान्तादुर्वाग् दक्षिणाभिमुखमष्टौ 'चतुस्विंशानि' चतुर्विंशदधिकानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागान् योजनस्यावाधया कृवेति गम्यते अपान्तराले मुक्त्वेति भावः, अत्रान्तरे शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागे 'एस्थ णति एतस्मिन्नवकाशे उत्तरकुरूपु कुरषु नीलबदूरदो नाम हदः प्रज्ञाप्त:, स च किंविशिष्टः ? इत्याह-उत्तरदक्षिणायत: प्राचीनापाचीनविस्तीर्णः, उत्तरदक्षिणाभ्यामबयवाभ्यामायत उत्तरदक्षिणायतः, प्राचीनापाचीनाभ्यामवयवाभ्यो विस्तीर्णः प्राचीनापाचीनविस्तीर्णः, एक योजनसहस्रमायामेन, पञ्च | योजनशतानि विष्कम्भतः, दश योजनान्युद्वेधेन-उण्डलेन, 'अच्छः' स्फटिकवद्भहिनिमलप्रदेश: लक्षणः' शक्ष्णपुद्गलनिर्मापितबहि:-H॥२८८ ॥ प्रदेशः, तथा रजतमयं-रूप्यमयं कूलं यस्यासौ रजतमयकूलः, इत्यादि विशेषणकदम्बकं जगत्युपरिवाप्यादिवत्ताबद्वक्तव्यं यावदिद। ~124 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१४९ ] दीप अनुक्रम [१८७] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [ १४९ ] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जी० ४९ पर्यन्तपदं 'पडित्थभमंत मच्छ कच्छप अणेगस उणमिहुणपरियरिए' इति 'उभओपासे' इत्यादि, स च नीलवन्नामा हृदः शीताया महानद्या उभयोः पार्श्वयोर्वहिर्विनिर्गतः, स तथाभूतः सन्नुभयोः पाश्वयोर्द्वाभ्यां पद्मवनवेदिकाभ्याम्, एकस्मिन् पार्श्वे एकया पद्मवरवेदिकया द्वितीये पार्श्वे द्वितीयया पद्मवरवेदिकयेत्यर्थः एवं द्वाभ्यां वनपण्डाभ्यां 'सर्वतः सर्वासु दिनु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्तः पद्मवश्वेदिकावनपण्डवर्णकञ्च प्राग्वत् ॥ नीलवंतदहस्त णं दहस्स तस्थ तत्थे'त्यादि, नीलबद्स्य णमिति वाक्यालङ्कारे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहूनि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि- प्रतिविशिष्टरूपकाणि त्रिसोपानानि प्रज्ञतानि, वर्णकस्तेषां प्राग्वद्वक्तव्यः || 'तेसि णमित्यादि तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं तोरणं प्रज्ञानं, 'ते णं तोरणा' इत्यादि तोरणवर्णनं पूर्ववत्तावद्वक्तभ्यं यावन् 'बहवो सबसहस्सप सत्यगा' इति पदम् || 'तस्स णमित्यादि, तस्य नीलवन्नाम्नो हृदस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र महद्देकं पद्मं प्रज्ञप्तं योजनमायामसो विष्कम्भतआयोजन बाहुल्येन दश योजनानि 'उद्वेधेन' उण्डलेन जलपर्यन्ताद् द्वौ कोशी उच्तं सर्वाण सातिरेकाणि दश योजनशतानि प्रज्ञप्तानि ॥ 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य पद्मस्य 'अर्थ' वक्ष्यमाण: 'एतद्रूपः' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणस्वरूपः 'वर्णावासः' वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-मयं मूलं रिष्ठरत्रमयः कन्दो वैज्ञरक्रमयो नालः, बेट्र्र्यरक्रमयानि ब्राह्मपत्राणि, जाम्बूनदमयान्यभ्यन्तरपत्राणि, तपनीयमयानि केसराणि कनकमयी पुष्करकर्णिका, नानामणिमयी पुष्कर स्थिबुका | 'सा णं कण्णिया अद्ध' मित्यादि, सा कर्णिकाऽर्द्धयोजनमायामविष्कम्भाभ्यां क्रोशमेकं वादस्वतः सर्वांना कनकमयी अच्छा यावत्प्रतिरूपा यावत्करणात् मण्हा उण्हा घट्टा मट्ठा नोरया' इत्यादि परिमहः । 'ती से णं कण्णिवाए' इत्यादि, तस्याः कर्णिकाया उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तद्वर्णनं च 'ले जहानामम् आलिंगपुक्खरेइ वेत्यादिना प्र For P&Pase Cnly ~ 125 ~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४९] प्रतिपत्तौ नीलबद्रदाधिक उद्देशः२ सू०१४९ दीप अनुक्रम [१८७] श्रीजीवा- दान्धेन विजयराजधान्या उपकारिकालयनस्येव तावद्वक्तव्यं यावन्मणीनां स्पर्शवक्तव्यतापरिसमाप्तिः ।। 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य बहु- जीवाभिक समरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महदेकं भवनं प्रज्ञप्तं क्रोशमायामतोऽर्द्धकोशं विष्कम्भतो देशोनं क्रोशमूर्द्धमुच्चैस्लेन, मलयगि- ४ अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टमित्यादि तद्वर्णनं विजयराजधानीगतसुधर्मसभाया इव तावद्वक्तव्यं यावदिदं सूत्रं "दिव्वतुडियसहसंपणदिते' रीयावृत्तिः इति, तदनन्तरं सूत्रमाह-'सव्वरयणामए' इत्यादि सर्वासना रत्नमयम् अच्छं यावत्प्रतिरूपं, यावत्करणात् 'सण्हे लण्हे घडे महे' इत्यादिपरिग्रहः । तस्स णमित्यादि तस्य भवनस्य 'त्रिदिशि' तिसुपु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकद्वारभावेन त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तयथा ॥२८९॥ ४/-पूर्वस्यामुत्तरस्यां दक्षिणस्याम् ॥ 'ते णं दारा' इत्यादि, तानि द्वाराणि पभधनु:शतानि ऊर्जुमुजैस्लेन, अर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि | विष्कम्भेन, तावदेव-अर्द्धतृतीयान्येव धनुःशतानीति भावः प्रवेशेन । 'सेयावरकणगथूभिया' इत्यादि द्वारवर्णनं विजयद्वारस्येव | तावविशेषेणावसातव्यं यावत् 'वणमालाओ' इति बनमालावतव्यतापरिसमाप्तिः ।। 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य भवनस्य उल्लोचोड|न्तर्थहुसमरमणीयो भूमिभागो मणीनां वर्णगन्धरसस्पर्शवर्णनं प्राग्वत् ।। 'तस्स णमित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे मणिपीठिका प्रज्ञमा, पचधनुःशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां अर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि बाहल्येन सर्वासना मणिमयी | अच्छा यावत्प्रतिरूपा इति प्राग्वन् । 'तीसे णमित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपयंत्र महदेकं देवशयनीयं प्रज्ञप्तं, शयनीयवर्णकः प्रा ग्वत् । 'तस्स णमित्यादि, तस्य भवनस्य उपर्यष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानीत्यादि पूर्ववचावद्वक्तव्यं यावदहवः सहस्रपत्रहस्तका हाइति ।। 'से णमित्यादि, तत्पशमन्येनाष्टशतेन पनानां तदद्धोंचलप्रमाणमात्राणां-तख मूलपाप्रमाणस्थाई तदर्द तच तद् उच्चत्व-| प्रमाणं च तदद्धोंचत्वप्रमाणं तन मात्रा येषां ते तानि तथा तेषां, 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्तं । तद् 12e अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४९] दीप अनुक्रम [१८७] होचवप्रमाणमेव तेषां भावयति-ते ण पउमा' इत्यादि, तानि पद्मानि प्रत्येकमयोजनमायामविष्कम्भाभ्यां क्रोशमेकं बाहल्येन | दश योजनशतानि उद्वेधेन कोशमेक जलपर्यन्तादुच्छ्रितं सातिरेकाणि दश योजनशतानि सर्वांप्रेण ।। 'तेसि णमित्यादि, तेषां पचानामयमेतपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, वज्ञमयानि मूलानि रिष्ठरत्नमयाः कन्दाः वैडूर्यरत्नमया नालाः तपनीयमयानि बाह्यपत्राणि जाम्बूनदमयानि अभ्यन्तरपत्राणि तपनीयमयानि केशराणि कनकमय्यः कर्णिकाः नानामणिमयाः पुष्करस्थिभुगाः ॥ 'ताओ णं कणियाओ' इत्यादि, ता: कर्णिकाः कोशमायामविष्कम्भाभ्यामर्दकोश बाहल्येन सर्वात्मना कनकमय: 'अच्छाओ जाव पडिरूवाओं इति प्राग्वत् ।। 'तासि णं कणियाण मित्यादि, तासां कर्णिकानामुपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस्य वर्णकः पूर्ववत्ता४ाबद्वक्तव्यो यावन्मणीनां स्पर्शः ॥ 'तस्स णमित्यादि, तस्य मूलभूतपदास्य 'अपरोत्तरेण' अपरोत्तरस्यां, एवमुत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्या, सर्वसङ्कलनया सिमष दिक्षु अत्र नीलवतो नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य चतुर्णा सामानिकसहस्राणां योग्यानि चत्वारि पद्मसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । 'एतेण मित्यादि, एतेनानन्तरोदितेनाभिलापेन यथा विजयस्य सिंहासनपरिवारोऽभिहितस्तबेहापि पनपरिवारो वक्तव्यः, ताथा-पूर्वस्यां दिशि चतसृणामप्रमहिपीणां योग्यानि चत्वारि महापानि, दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरपर्षदोऽष्टानां देवसहस्राणां योग्यान्यष्टौ पद्मसहस्राणि, दक्षिणस्यां मध्यमपर्षदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दश पद्मसहस्राणि, दक्षिणापरस्यां बाह्य-५ पर्षदो द्वादशानां देवसहस्राणां द्वादश पद्मसहस्राणि, पश्चिमायां समानामनीकाधिपतीनां योग्यानि सप्त महापद्यानि प्रशतानि, तदनन्तरं तस्य द्वितीयस्य पद्मपरिवेपस्य पृष्ठतश्चतस्पु दिक्षु षोडशानामामरक्षकदेवसहस्राणां योग्यानि षोडश पद्मसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-चलारि पासहस्राणि पूर्वस्यां दिशि चत्वारि पद्मसहस्राणि दक्षिणस्यां चत्वारि पद्मसहस्राणि पश्चिमायां चत्वारि पद्मसह C -A ~127~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४९] दीप अनुक्रम [१८७] श्रीजीवा- खाण्युत्तरस्यामिति । तदेवं मूलपनस्य त्रयः पद्मपरिवेषा अभूवन , अन्येऽपि च त्रयो विद्यन्त इति तत्प्रतिपादनार्थमाह से प्रतिपत्तौ जीवाभिपजमें' इत्यादि, तत् पद्ममन्यैरनन्तरोक्तपरिक्षेपत्रिकव्यतिरिक्तैखिभिः पद्मपरिवेषैः 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः सामस्त्येन | नीलबद्रमलयगि | संपरिक्षितं, तद्यथा-अभ्यन्तरेण मध्यमेन वाझेन च, तत्राभ्यन्तरे पद्मपरिक्षेपे सर्वसङ्ख्यया द्वात्रिंशत्पाशतसहस्राणि प्रजमानि दाधिक रीयावृत्तिः ३२०००००, मध्ये पापरिक्षेपे चत्वारिंशत् शतसहस्राणि ४००००००, बाये पद्मपरिक्षेपेऽष्टाचत्वारिंशत्पद्मशतसहस्राणि उद्देशः २ ४८००००० प्रज्ञप्तानि । एवमेव' अनेनैव प्रकारेण 'सपुवावरेण ति सह पूर्व यस्य येन वा सपूर्व सपूर्व च तद् अपरं च सपू-नहसू०१४९ ॥२९॥ पिरं तेन, पूर्वापरसमुदायेनेत्यर्थः, एका पद्मकोटी विंशतिश्च पद्मशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं मया शेपैश्व तीर्थकृद्भिः, एतेन सर्वतीभार्थकृतामविसंवादिवचनतामाह, कोठ्यादिका च सया स्वयं मीलनीया, द्वात्रिंशदादिशतसहस्राणामेकत्र मीलने यथोक्तसयाथा अ-IN वश्यं भावात् ।। सम्प्रति नामान्वर्थ पिच्छिपुराह–से केणटेणं भंते!' इत्यादि, अथ केनार्थेनैवमुच्यते नीलबड्दो नीलवद्हृदः ? इति, भगवानाह-गौतम ! नीलवद्हदे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहूनि 'उत्पलानि' पद्मानि यावसहस्रपत्राणि नीलवद्हदप्रभाणि-नीलवन्नाम इदाकाराणि 'नीलवद्वर्णानि नीलवन्नामवर्षधरपर्वतस्तद्वर्णानि नीलानीति भावः, नीलबन्नामा च नागकुमारेन्द्रो नागकुमारराजो महर्द्धिक इत्यादि यमकदेक्वन्निरवशेष बक्तव्यं यावद्विहरति, ततो यस्मात्तद्गतानि पद्मानि नीलवर्णानि नीलवन्नामा च तदधिपतिर्देवस्ततस्तद्योगादसौ नीलवन्नामा इदः, तथा चाह–से एएणडेण'मित्यादि । 'कहि । णं भंते ! नीलबंतदहस्से'त्यादि राजधानीविषयं सूत्र समस्तमपि प्राग्वत् ॥** नीलवंतहहस्स णं पुरथिमपचत्थिमेणं दस जोयणाई अबाधाए एत्थ णं दस दस कंचणगप -540 R ॥२९ ॥ Jantic | अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् गमूल-१८८] कहि णं भंते! नीलवंतस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो नीलवन्ता नाम रायहाणी? ....रायहाणी नीलवंतद्दहस्सुत्तरेणं अन्नंमि जंबुद्दीवे दिवे बारस जोयण सहस्साई जहा विजयस्स ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५०] दीप अनुक्रम [१८९] ब्बता पण्णत्ता, ते णं कंचणगपब्वता एगमेगं जोयणसतं उहुं उच्चत्तेणं पणवीसं २ जोयणाई उब्वेहेणं मूले एगमेगं जोयणसतं विक्खंभेणं मझे पण्णत्तरि जोयणाई [आयाम]विक्खंभेणं उरि पण्णासं जोयणाई बिक्खंभेणं मूले तिपिण सोले जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं मज दोन्नि सत्ततीसे जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवणं उवरि एगं अट्ठावणं जोयणसतं किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उपि तणुया गोपुग्छसंठाणसंठिता सव्वकंचणमया अच्छा, पत्तेयं २ पउमवरवेतिया० पत्तेयं २ वणसंडपरिक्खित्ता ॥ तेसि णं कंचणगपव्वताणं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव आसयंति० तेसि णं० पत्तेयं पत्तेयं पासायच.सगा सहयावढि जोयणाई उहुं उच्चत्तेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं मणिपेढिया दोजोयणिया सीहासणं सपरिवारा॥ से केपट्टेणं भंते! एवं बुचति-कंचणगपब्बता कंचणगपब्वता?, गोयमा! कंचणगेसु णं पश्यतेसु तत्व तत्थ वावीसु उप्पलाई जाच कंचणगवपणाभाति कंचणगा जाव देवा महिड्डीया जाय विहरंति, उत्सरेणं कंचणगाणं कंचणियाओ रायहाणीओ अपर्णमि जंबू० तहेव सव्वं भाणितव्वं ।। कहि णं भंते! उत्तराए कुराए उत्तरकुरूहहे पण्णत्ते?, गोयमा! नीलबंतहहस्स दाहिणणं अद्धचोत्तीसे जोयणसते, एवं सो चेव गमो णेतव्यो जो णीलवंतहहस्स सम्वेसि सरिसको दहसरिनामा य देवा, सब्वेसि पुरथिमपचत्थिमेणं ~129~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: TX4 प्रत RANAS सूत्रांक [१५०] दीप श्रीजीवा- कंचणगपव्वता दस २ एकप्पमाणा उत्तरेणं रायहाणीओ अपकमि जंबुद्दीवे । कहि णं भंते! प्रतिपत्ती जीवाभि चंदबहे एरावणदहे मालवंतद्दहे एवं एकेको पथ्यो ।। (स०१५०) काञ्चनपमलयगि- 'नीलवंतदहस्स णमित्यादि, नीलवतो हदस्य 'पुरस्थिमपञ्चत्थिमेणं ति पूर्वस्या पश्चिमायां च दिशि प्रत्येक दश दश योज 10वंताधिक रीयावृत्तिः नान्यबाधया कृलेति गम्यते, अपान्तराले मुक्खेति भावः, दश दश काञ्चनपर्वता दक्षिणोत्तरश्रेण्या प्रज्ञप्ताः, ते च काचनका: प-10 उद्दार बताः प्रत्येकमेकं योजनशतमूर्यमुपैरत्वेन पञ्चविंशतियोजनान्युद्वधेन मूले एकं योजनशतं विष्कम्भेन मध्ये पश्चसप्ततियोजनानि विष्क-15.1 ॥२९ ॥ *म्भेन उपरि पञ्चाशद् योजनानि विष्कम्भेन, मूले त्रीणि पोडशोत्तराणि योजनशतानि ३१६ किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण मध्ये द्वे समर्विशे योजनशते २२७ किञ्चिद्विशेषोने परिक्षेपेण उपर्येकमष्टापश्चाशं योजनशतं १५८ किञ्चिद्विशेषोनं परिक्षेपेण, अत एव | दामूले विस्तीर्णा मध्ये सद्धिमा उपरि तनुकाः अत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः सर्वासना कनकमया: 'अच्छा जाब पडिरूवा' इति | प्राग्बत् । तथा प्रलोकं प्रत्येक पायरयेविकया परिक्षिप्ता: प्रत्येक प्रत्येकं वनपण्डपरिभिप्ताश्च, परावरवेदिकावनपण्डवर्णनं प्राग्वत् ।। 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां काभानपर्वतानामुपरि बहुसमरमणीया भूमिभागाः प्रज्ञप्ताः, तेषां च वर्णनं प्राग्यत्तावद्वक्तव्यं यावत्तृणानां मणीनां च शब्दवर्णनमिति ।। 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्येक प्रासादाव तंसकाः प्रज्ञप्ताः, प्रासादवक्तव्यता यमकपर्वतोपरि प्रासादावतंसकयोरिव निरवशेषा वक्तव्या यावत्सपरिवारसिंहासनवक्तव्यतापरिस४ामाषिः । सम्प्रति नामान्वर्थ पिपूरिछारिदमाह से केणडेण मित्यादि प्राग्यावरं यस्मादुत्पलादीनि काञ्चनप्रभानि काञ्चननामानव | देवास्तन्न परिवसन्ति ततः काञ्चनप्रभोत्पलादियोगान् काचनकाभिधदेवस्वामिकत्वाच्च ते काचनका इति, तथा चाह-'से एएणद्वे अनुक्रम [१८९] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~130 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५०] दीप ण मित्यादि । काचनिकाच राजधान्यो यमिकाराजधानीबद् वक्तव्याः ।। 'कहिणं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे उतरकुरुपु कुरुपु उत्तरकुरुझ्दो नाम इदः प्रज्ञप्तः?, भगवानाह-गौतम! नीलबत्तो हृदस्य दाक्षिणात्याञ्चरमपर्यन्तादष्टौ 'चतुर्विंशानि' चतुस्त्रिंशदधिकानि योजनशतानि चतुरश्च योजनस्य सप्तभागान् अबाधया कृवेति गम्यते शीताया महानद्या बहुमथ्यदेशभागे अत्रोत्तरकुरुनामा इदः प्रज्ञमः, यथैव प्राग् नीलवतो इदस्यायामविष्कम्भोद्वेधपद्मवरवेदिकावनषण्डत्रिसोपानप्रतिरूपकतोरणमूलभूतमहापद्माष्टशतपद्मपरिवारपद्मशेषपद्मपरिक्षेपत्रयवक्तव्यतोका तथैवेहाप्यन्यूनातिरिक्ता वक्तव्या ॥ नामकरणं पिपूच्छिपुरिदमाह'से केणछेणं भंते!' इत्यादि प्राग्वन्नवरमुत्पलादीनि यस्माद् 'उत्तरकुरुहूदप्रभाणि' उत्तरकुरुहदाकाराणि तेन तानि तदाकारयोगात् उत्तरकुरुनामा च तत्र देवः परिवसति तेन तद्योगाद् इदोऽप्युत्तरकुरुः, न चैवमितरेतराश्रयदोपप्रसङ्गः, उभयेषामपि नानामनादिकालं तथा प्रवृत्ते:, एवमन्यत्रापि निदोषता भावनीया, उत्तरकुरुनामा च तत्र देवः परिवसति, तद्वक्तव्यता च नीलबन्नागकुमारवद्वक्तव्या, ततोऽप्यसावुत्तरकुरुरिति, राजधानीवक्तव्यता काञ्चनकपर्वतवक्तव्यता च राजधानीपर्यवसाना प्राम्वत् ॥ चन्द्र-हदवकव्यतामाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! उत्तरकुरुइदस्य दाक्षिणात्यामरमान्तादर्वाग् दक्षिणस्या दिशि अष्टौ चतुर्विंशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागान् योजनस्यावाधया कृलेति शेषः शीवाया महानद्या बहुमध्यदेशभागे 'अत्र' अस्मिन्नवकाशे उत्तरकुरुपु कुरुषु चन्द्रहदो नाम इदः प्रज्ञप्तः, अस्यापि नीलबहदस्येवायामविष्कम्भोद्वेषपद्मवरवेदिकावनषण्डत्रिसोपानप्रतिरूपकतोरणमूलभूतमहापद्माष्टशतपद्मपरिवारपद्मशेषपद्मपरिक्षेपत्रयवक्तव्यता वक्तव्या, नामान्वर्थसूत्रमपि तथैव, नवरं यस्मादुत्पलादीनि 'चन्द्रहदप्रभाणि' चन्द्रहदाकाराणि चन्द्रवर्णानि चन्द्रनामा च देवस्तत्र परिवसत्ति तस्माञ्चन्द्रहदाभोत्पलादियो अनुक्रम [१८९] ~131 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः [१५०] ॥२९२॥ -0-50 दीप अनुक्रम [१८९] गाच्चन्द्रदेवस्वामिकखान चन्दजद इति. चन्द्राराजधानीवक्तव्यता का भानपर्वतवक्तव्यता च राजधानीपर्यवसाना प्राग्वत् ।। साम्प्र-18 प्रतिपत्तो तमैरावतहरवक्तव्यतामाह-कहिण भंते' इत्यादि प्रअसूत्र पाठसिद्ध, निर्वचनमाह-गौतम! चन्द्र हृदस्य दाक्षिणात्यापरमान्ताद-18| काञ्चनपबांग दक्षिणस्यां दिशि अष्टौ चतुर्विंशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागान् योजनस्थावाधया कृत्वे ति शेषः शीताया महानया वंताधि बहुमध्यदेशभागे 'अत्र' एतस्मिन्नवकाशे ऐरावतहदो नाम हदः प्रज्ञप्तः, अस्यापि नीलवन्नाम्रो हपस्येवायामविष्कम्भादियतव्यता परिक्षेप-18 उद्देशा२ पर्यवसाना बक्तव्या, अन्वर्धसूत्रमपि तथैव, नवरं यस्मादुत्पलादीनि ऐरावतहदप्रभाणि, ऐरावतो नाम हस्ती तद्वर्णानि च ऐरावतश्च है। सू०१५० नामा तत्र देवः परिवसति तेन ऐरावतहद इति, ऐरावताराजधानी विजयराजधानीवन् काञ्चनकपर्वतवक्तव्यतापर्यवसाना तथैव ।। अधुना माल्यवनामहदबक्तव्यतामाह-कहि णं भंते' इत्यादि सुगर्म, भगवानाह-गौतम! ऐरावत हदस्य दाक्षिणात्याचरमान्तादगि दक्षिणस्यां दिशि अष्टौ चतुस्विंशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागान योजनस्य अबाधया कृलेति शेषः शीताया महानद्या बहुमध्यदेशभागे 'अत्र एतस्मिन्नबकाशे उत्तरकुरुपु कुरुपु माल्यवन्नामा हदः प्रज्ञप्तः, स च नीलबद्दयवदायाम विष्कम्भादिना तावद्वक्तव्यो यावत्पद्मवक्तव्यतापरिसमाप्तिः, नामान्वर्थसूत्रमपि तथैव यस्मादुत्पलादीनि 'माल्यवहदप्रभाणि' माल्यवइदाकाराणि, माल्यवन्नामा वक्षस्कारपर्वतस्तद्वर्णानि-तद्वर्णाभानि माल्यवन्नामा च तत्र देव: परिवसति तेन मास्यवद्द इति, भास्यवतीराजधानी विजयाराजधानीवद् वक्तव्या काश्चनकपर्वतवक्तव्यताऽवसाना प्राग्वत् ।। सम्प्रति जम्यूपश्चवक्तव्यतामाहकहिणं भंते ! उत्तरकुराए २ जंबुसुदंसणाए जंबुपेढे नाम पेढे पण्णत्ते?, गोयमा! जबद्दीवे २ ॥२९२॥ मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं नीलवंतस्स वासघरपब्वतस्स दाहिणणं मालवंतस्स वक्खा 8 2 *SGARCASCRRC 04- 2- अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~132 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम [१९०] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], प्रतिपत्ति: [३], • मूलं [१५१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः रपव्ययस्स पञ्चत्थिमेणं गंधमादणस्स वक्रखारपव्वयस्स पुरत्थिमेणं सीताए महाणदीए पुरस्थि मिल्ले कूले एत्थ उत्तरकुरुकुराए जंबूपेढे नाम पेढे पंचजोयणसताई आयामविक्खंभेणं पण्णरस एक्कासी जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं बहुमज्झदेसभाए बारस जोयणाई बाहूलेणं तदातरं चणं माताए २ पदेसे परिहाणीए सब्बेसु चरमंतेसु दो कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते सच्चजंत्रणतामए अच्छे जाव पडिरूवे ॥ से णं एगाए परमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सवतो समता संपरिवखेत्ते वण्णओ दोपहवि । तस्स णं जंबुपेढस्स चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवापडवा पण्णत्ता तं चैव जाव तोरणा जाव चत्तारि छत्ता ॥ तस्स णं जंबूपेदस्स उपि बहुसमरमणि भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामए आलिंगपुक्खरेतिवा जाव मणि० ॥ तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता अट्ट जोयणाई आयामविभेणं चत्तारि जोयणाएं बाहल्लेणं मणिमती अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा ॥ तीसे णं मणिपेडिया softwer is जंबूसुदंसणा पण्णत्ता अजोयणाई उ उच्चतेणं अजीर्ण बेणं दो जोयणातिं खंधे अड जोषणाएं विश्वंभे छ जोयणाई विडिमा बहुम सभाए अट्ट जोयणाई विक्रभेणं सातिरेगाई अह जोयणाई सcarगेणं पण्णत्ता, पहरामयमूला रयतसुपतिद्वियविडिमा, एवं चेतियस्वण्णओ जाव सब्बो रिट्ठामयविलकंदा For P&Permalise Cly ~ 133 ~ र कुछ से ऋरि छ% * %%%% Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: %% RE56--% प्रत SA प्रतिपत्ती जम्वूपीठाधिकारः उद्देशः२ सू०१५१ सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम [१९०] श्रीजीवा-IN बेरुलियरुइरक्खंधा सुजायवरजायस्वपढमगविसालसाला नाणामणिरयणविविहसाहप्पसाहजीवाभि वेरुलियपत्ततवणिजपत्राविंटा जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लवंकुरधरा विचित्तमणिरयणसुरमलयगि- हिकुसुमा फलभारनमियसाला सच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया अहियं मणोनिव्युइरीयावृत्तिः __करा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा।। (सू०१५१) ॥२९३॥ 'कहि णं भंते !' इत्यादि, क भवन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरकुरुपु जम्वाः सुदर्शनायाः, जम्वा हि द्वितीयं नाम सुदर्शनेति तत | | उक्तं सुदर्शनाया इति, जम्वाः सम्बन्धि पीठं जम्बूपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम! मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरपूर्वेण | उत्तरपूर्वस्यां नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य 'दक्षिणेन' दक्षिणतो गन्धमादनस्य वक्षस्कारपर्वतस्य 'पूर्वेण' पूर्वस्यां दिशि मास्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमायां शीताया महानद्याः पूर्वस्यामुत्तरकुरुपूर्वार्द्धस्य बहुमध्यदेशभागे 'अत्र' एतस्मिन्नवकाशे उत्तरकुरुषु कुरुषु जम्बा: सुदर्शनापरनामिकाया जम्बूपीठं प्रज्ञप्तं, पञ्च योजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यामेकं योजनसहस्रं पञ्चैकाशीतानि योजनशतानि किश्चिद्विशेषाधिकानि १५८१ परिक्षेपेण, बहुमध्यदेशभागे द्वादश योजनानि बाहत्येन, तदनन्तरं च मात्रया २ परिहीयमानं चरमपर्यन्तेषु द्वौ कोशी बाहल्येन सर्वासना जाम्बूनदमयम् , 'अच्छे' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत्, उक्तश्च- जंबूनयामयं जंबूपीढमुत्तरकुराएँ पुब्बद्धे । सीयाए पुबद्धे पंचसयायामविक्संभं ॥ १॥ पन्नरसेकासीए साहीए परिहिमझवाहलं । जोयणदुछक्कमसो हायंततेसु दो कोसा ॥ २॥" से णमित्यादि तत्' जम्बूपीठमेकया पद्मवरवेदिकया एकेन बनखण्डेन 'सर्वतः' सर्वासु | | दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन परिक्षिप्त, वेदिकावनषण्डयोर्वर्णक: प्राग्यद्वक्तव्यः । तस्य च जम्बूपीठस्य चतुर्दिशि एकैकस्यां दिशि | GACANCCASct ॥२९३ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~134 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५१] | एकैकत्रिसोपानप्रतिरूपकभावेन चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-प्रतिविशिष्टरूपाणि त्रिसोपानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एक पूर्वस्यामा दक्षिणस्यामेकं पश्चिमायामेकमुत्तरस्याम् ।। 'तेसि णमित्यादि, तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणामयमेतद्रपो वर्णावास: प्रज्ञाः, तद्यथा-बन| मया नेमा भूमेरू मुद्छन्तः प्रदेशा इत्यादि जगत्युपरिवाप्यादित्रिसोपानवत्ताबद्वक्तव्यं यावनानामणिमयाम्यवलम्बनानि अवल-12 म्बनवाहाच, तोरणान्यपि प्राग्वद्वाच्यानि ।। 'तस्स णं जंबूपेढस्स ण'मित्यादि, जम्बूपीठस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञतः, | स च से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा इत्यादि विजयाराजधान्युपकारिकालयनवत्तावद्वक्तव्यो यावन्मणीनां स्पर्शवक्तव्यतापरिसमाप्तिः, यावञ्च बहवो वानमन्तरा देवा देव्यश्वासते शेरते यावद् विहरन्तीति । 'तस्स णमित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अब महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहल्येन सर्वामना मणिमयी 'अरछा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् ॥ 'तीसे णमित्यादि, तस्वा मणिपीठिकाया उपरि बहुमध्यदेशभागे, अत्र |महती जम्बूः सुदर्शना प्रज्ञप्ता, अष्टौ योजनान्यूमुस्त्वेन, अर्द्धयोजनमुद्वेधेन, द्वे योजने स्कन्धः षड् योजनानि विडिमा-ऊर्छ । | विनिर्गता शाखा बहुमध्यदेशभागे अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां, सातिरेकान्यष्टौ योजनानि 'सर्वाप्रेण उद्वेधोगैस्त्वपरिमाणमी|लनेन, तस्यान जम्वा वज़मयानि मूलानि बस्याः सा बसमयमूला 'रययसुपइडियविडिमा' इति रजता-रजतमयी सुप्रतिष्ठिता, |विडिमा-बहुमध्यदेशभागे उडू विनिर्गता यस्याः सा रजतसुप्रतिष्ठितबिडिमा, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, 'रिडामयविजलकंदा वेरुलियरुइलखंधा' रिष्टमयो-रिष्ठरत्नमयः (विपुलः) कन्दो यस्याः सा रिष्ठरत्नमयकन्दा, तथा वैडूर्यरवमयो रुचिरो-दीप्यमानः स्कन्धो यस्याः सा बैडूर्यरुचिरस्कन्धा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयसमासः, 'सुजायवरजायरूवपढमगविसालसाला' सुजात-मूल SCSCRACROCACKAGRA दीप अनुक्रम [१९०] ~135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक मलयगि-18 [१५१] ॥२९४॥ दीप अनुक्रम [१९०] श्रीजीया- द्रव्यशुद्धं बरं-प्रधानं यत् जातरूपं सदामकाः प्रथमका-मूलभूता विशाला: शाला:-शाखा यस्याः सा सुजातवरजातरूपप्रथमकवि- प्रतिपत्ती जीवाभिमशालशाला: 'नाणामणिरयणविविहसाहप्पसाहबेरुलियपत्ततवणिजपत्तविंटा' नानामणिरत्नाना-नानामणिरत्नामिका विविधा जम्बूपीठा 15 शाखाप्रशाखा यस्याः सा तथा तथा वैडूर्याणि-वैडूर्यरत्रमयानि पत्राणि यस्याः सा तथा तपनीयानि-तपनीयमयानि पत्रवृन्तानि यस्याः काधिकारः रीयावृत्तिःसा तथा, ततः पदद्वय २ मीलनेन कर्मधारयः नानामणिरत्रविविधशाखाप्रशाखावैडूर्यपत्रतपनीयपत्रपृन्ताः, अपरे सौवणिक्यो मूल-18उद्देशः २ | शाखा: प्रशाखा रजतमध्य इत्युचुः, 'जंबूणयरत्तमजयसुकुमालपवालपलवकुरधरा' जाम्बूनदनामकसुवर्णविशेषमया रक्ता-रक-16 | सू०१५१ वर्णा मृदवो-मनोज्ञाः सुकुमारा:-सुकुमारस्पर्शा ये प्रवाला-ईपदुन्मीलितपत्रभावाः पहबाः संजालपरिपूर्णप्रथमपत्रभावरूपा वराकुरा: प्रथममुद्भिद्यमाना अडरास्ताम् धरन्तीति जाम्बूनदरक्तमृदुकसुकुमारप्रवालपल्वाङ्कुरधराः, कचित्पाठः-जंयुनयरत्तमध्यसुकुमालकोहैं। मलपलबकुरग्गसिहरा' तत्र जाम्बूनदानि रक्तानि मृदूनि-अकठिनानि मुकुमाराणि-अकर्कशस्पर्शानि कोमलानि-मनोज्ञानि प्रवालप-16 लवाङ्करा-यथोदितस्वरूपा अप्रशिखराणि च यस्याः सा तथा, अन्ये तु जम्बूनदमया अग्रप्रवाला अकरापरपर्याया राजता इत्याहुः, 81 विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभारनमियसाला' विचित्रमणिरत्नानि-विचित्रमणिरत्नमयानि सुरभीणि कुसुमानि फलानि सच तेषां भरेण नमिता-नागं प्राहिताः शाला:-शाखा यस्या: सा तथा, उक्तच-"मूला वइरमया से कंदो खंधो य रिहवेरुलिओ। सोवण्णियसाहप्पसाह तह जायरूवा य ॥ १॥ विडिमा रययवेरुलियपत्ततवाणिज्जपत्तविंटा य । पल्ला अग्गपवाला जंबूणयरायया | | ॥२९४ ॥ तीसे ॥ २ ॥" 'रयणमयापुप्फफला' इति 'सच्छाया' इति सती-शोभना छाया यस्याः सा सच्छाया, तथा सत्ती-शोभना प्रभा C Jantan अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~136~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशकः [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम यस्याः सा सत्यभा, अत एव सलीका सह उद्योतो यथा मणिरत्नानामुयोतभावात् सोयोता अधिक-अतिशयेन मनोनिति-1 करी 'पासाईया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् ।। जंबूए णं सुदंसणाए चउद्दिसिं चत्तारि साला पणत्ता, तंजहा-पुरस्थिमेणं दक्षिणेणं पञ्चस्थिमेणं उत्तरेणं, तत्थणं जे से पुरथिमिल्ले साले एस्थ णं एगे महं भवणे पपणत्ते एग कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूर्ण कोसं उई उच्चत्तेणं अणेगखंभावपणओ जाव भवणस्स दारं तं चेच पमाणं पंचधणुसतातिं उखु उचसेणं अहाइजाई विक्खंभेणं जाव वणमालाओ भूमिभागा उलोया मणिपेतिया पंचधणुसतिया देवसयणिज भाणियव्वं ।। तस्थ णं जे से दाहिणिल्ले साले एत्थ णं एगे महं पासायव.सए पण्णरो, कोसं च उहूं उसेणं अद्धकोसं आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गयमूसिय अंतो बहुसम उल्लोता। तस्स णं वहसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्मदेसमाए सीहासणं सपरिवार भाणियब्वं । तत्थ गंजे से पचस्थिमिल्ले साले एस्थ णं पासायव.सए पण्णते तं चेव पमाणं सीहासणं सपरिवार भाणियवं, सत्य णं जे से उत्तरिल्ले साले एस्थ णं एगे महं पासायचसए पपणते तं चेव पमाणं सीहासणं सपरिवारं । तत्थ णं जे से उपरिमविडिमे एस्थ णं एगे महं सिद्वायतणे कोसं आयामेणं अद्धकोसं विचमेणं देसूर्ण कोसं उहं उच्चत्तेणं अपेगखंभसतसन्निविटे यषणओ तिदिसि तओ दारा पंचधणुसता अड्डाइजधणुसयवि karnikCLOCAC-% AK [१९०] जी - 1 ~137 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५२] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ला प्रतिपत्ती जम्बूवृक्षाधिकारः उद्देशः२ सू०१५२ ॥२९५॥ गाथा: क्खंभा मणिपेढिया पंचधणुसतिया देवच्छंदओ पंचधणुसतविक्खंभो सातिरेगपंचधणुसउच्चत्ते । तत्थ णं देवच्छंदए अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेधप्पमाणाणं, एवं सव्वा सिद्धायतणवत्तव्वया भाणियब्वा जाव धूवकटुच्छया उत्तिमागारा सोलसविधेहि रयणेहिं उवेग चेव जंबू णं सुदंसणा मूले वारसहिं पचमवरवेदियाहिं सवतो समंता संपरिक्खिता, ताओ णं पउमवरवेतियाओ अद्धजोयणं उर्ख उच्चसेणं पंचधणुमताई विखंभेणं वपणओ। जंबू सुदंसणा अपणेणं अट्ठसतेणं जंबूर्ण तयडुचत्तप्पमाणमेसेणं सचतो समंता संपरिक्खित्ता ॥ ताओ णं जंबूओ चसारि जोयणाई उई उच्चत्तेणं कोसं चोव्वेधेणं जोयणं ग्बंधो कोसं विकावंभेणं तिषिण जोयणाई चिडिमा बहुमज्झदेसभाए चत्तारि जोयणाई विश्वंभेणं सातिरेगाईचत्तारि जोयणाई सव्वग्गेणं वहरामयमूला सो चेव चेनियमक्खवष्णओ ॥ जंबएणं सुदसणाए अवरुत्तरेणं उत्सरेणं उत्तरपुरस्थिमेणं एस्थणं अणाद्वियस्स चउपहं सामाणियसाहस्सीणं चसारि जंबूसाहस्सीओ पपणत्ताओ, जंजूए सुदंसणारा पुरथिमेणं एस्थ णं अणाढियरस देवस्स चउपहं अग्गमहिसीणं चत्तारि जंबूओ पण्णसाओ, एवं परिवारो सम्बो णायव्यो जंजूए जाय आयरक्खाणं ॥ जंबू णं सुदंसणा तिहिं जोयणसतेहिं वणसंडेहिं सवतो समंता संपरिक्खिसा, तंजहा-पटमेणं दोघेणं तबेणं । जंबूण सुदंसणाए पुरस्थिमेणं परमं वणसंह पपणास जोयणाई ओगाहिता एस्थ णं एगे मह दीप ram अनुक्रम [१९०-१९४] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], --------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - - प्रत सूत्रांक [१५२] d - - % गाथा: - भवणे पण्णत्ते, पुरथिमिल्ले भवणसरिसे भाणियध्वे जाच सयणिज्ज, एवं दाहिणेणं पचत्थिमेणं उत्तरेणं ॥ जंबूए णं सुदसणाए उत्तरपुरथिमेणं पढमं वणसंडं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता चसारि गंदापुक्खरिणीओ पपणत्ता, तंजहा-पउमा पउमप्पभा चेव कुमुदा कुमुपप्पमा । ताओणं गंदाओ पुक्खरिणीओ कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं पंचधणुसयाई उब्वेहेर्ण अच्छाओ सहाओ लपहाओ घट्ठाओ महाओ णिप्पकाओ णीरयाओ जाव पडिरूवाओ वपणओ भाणियचो जाय तोरणति ॥ तासि णं गांदापुक्खरिणीर्ण बहुमज्नदेसभाए एस्थ णं पासायवसए पण्णसे कोसप्पमाणे अद्धकोसं विकावंभो सो चेव सो वण्णओ जाय सीहासणं सपरिवारं । एवं दक्षिणपुरथिमेणवि एण्णास जोयणा चत्तारि गंदापक्वरिणीओ उप्पलगुम्मा नलिणा उप्पला उप्पलबरला तं चेव पमाणं तहेव पासायवडेंसगो तप्पमाणो । एवं दक्षिणपञ्चस्थिमेणवि पण्णासं जोयणाणं परं-भिंगा भिंगणिभा चेव अंजणा कजलप्पभा, सेसं तं चेव । जंबूए णं मुर्दसणाए उत्तरपुरस्थिमे पढम वणसंड पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एल्थ णं चत्तारि गंदाओ पुक्वरिणीओ पण्णसाओत-सिरिकना सिरिमहिया सिरिचंदा चेव तह य सिरिणिलया। तं चेव पमाणं तहेव पासायडिंसओ। जबए णं सदसणाए पुरथिमिल्लस्स भवणस्स उत्सरेणं उत्सरपुरथिमेणं पासायवडेंसगस्स दाहिणणं एस्थ णं एने महंकडे पणसे अह जोषणाई उई उच्चसेणं 4-5 दीप COCK.SAKSCRASHNA अनुक्रम [१९०-१९४] %-9-% 8 % new *50- k* ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५२] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि-८ प्रतिपत्ती जम्वृवृक्षाप्राधिकार उद्देशः२ सू०१५२ रीयावृत्तिः । १२९६ ॥ गाथा: मूले बारस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झे अढ जोयणाई आयामविक्रखंभेणं उवरिं चत्तारि जोय. णाई आयामविक्खंभेणं मूले सातिरेगाई सत्सतीसं जोयणाई परिक्खेवेणं मज्झे सातिरेगाई पणुवीसं जोयणाई परिक्खेवेणं उपरि सातिरेगाई यारस जोयणाई परिक्खेवेणं मूले विच्छिन्ने मजो संखिसे पपि तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सबजंबूणयामए अच्छे जाव पडिस्वे, सेणं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ते दोण्हषि वण्णओ ॥ तस्स णं कूडस्स उपरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव आसयंति०॥ तस्स णं बहसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एगं सिद्वायतणं कोसप्पमाणं सव्या सिद्वायतणवत्तब्वया । जंबूए णं सुदंसणाए पुरस्थिमस्स भवणस्स दाहिणणं दाहिणपुरस्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते तं चेव पमाणं सिद्धायतणं च । जंबूए णं सुदसणाए दाहिणिल्लस्स भवण पुरथिमेणं दाहिणपुरस्थिमस्स पासायव.सगस्स पचस्थिमेणं एत्थ णं एगे महं कडे पणते, दाहिणस्स भवणस्स परतो दाहिणपत्धिमिल्लस्स पासायवडिंसगस्स पुरस्थिमेणं एस्थ णं एगे महं कूडे जंबूतो पञ्चस्थिमिल्लस्स भवणस्स दाहिणेणं दाहिणपञ्चथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं एत्थ णं एगे महं कूडे प० तं चैव पमाणं सिद्धायतणं च, जंबूए पचत्थिमभवणउत्तरेणं उत्तरपचस्थिमस्स पासायवसगस्स दाहिणेणं एस्थ णं एगे महं दीप अनुक्रम [१९०-१९४] 1 ॥२९॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~140 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: C प्रत सूत्रांक [१५२] गाथा: ARRORROCE कूडे पपणते तं चेव पमाणं सिद्धायतणं च । जंबूए उत्तरस्स भवणस्स पञ्चस्थिमेणं उत्तरपञ्चत्धिमस्स पासायवडेंगस्स पुरस्थिमेणं एस्थ णं एगे कूडे पण्णत्ते, तं चेव, जंबूए उत्तरभवणस्स पुरस्थिमेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायवडेसगस्स पञ्चस्थिमेणं एत्थ णं एगे महं कडे पपणते, तं चेव पमाणं तहेव सिद्वायतणं । जंबू णं सुदंसणा अण्णेहिं बहहिं तिलएहिं लउएहिं जाव रायरुकावहिं हिंगुरुक्खेहिं जाव सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता । जंबूते णं सुदंसणाए उवरिं बहवे अहमंगलगा पण्णत्ता, तंजहा-सोत्थियसिरिवच्छ० किण्हा चामरज्झया जाव छत्तातिच्छत्ता । जंबूए णं सुदंसणाए दुवालस णामधेजा पण्णत्ता, तंजहा-सुदंसणा अमोहा य, सुप्पबुद्धा जसोधरा । विदेहजं सोमणसा. णियया णिचमंडिया ॥१॥ सुभद्दा य विसाला य, मुजाया सुमणीतिया । सुदंसणाए जंत्रूए, नामधेजा दुवालस ॥२॥से केणतुणं भंते! एवं बुच्चइ-जंबूसुदंसणा?, गोयमा! जंबूते णं सुदंसणाते जंबूदीवाहिवती अणाढिते णामं देवे महिडीए जाव पलि ओवमहितीए परिवसति, सेणं तत्थ चउपहं सामाणियसाहस्सीर्ण जाव जंबदीवस्स जं. बूए सुदसणाए अणाढियाते य रायधाणीए जाव विहरति । कहि णं भंते! अणाढियस्स जाव समत्ता वत्सब्बया रायवाणीए महिहीए। अदुत्तरं च णं गोयमा! जंबुद्दीवे २ तस्थ तत्थ देसे तर्हिर वहये जंबूरुक्खा जंबूवणा जंबूवणसंडा णिचं कुसुमिया जाव सिरीए अतीव उवसोभे दीप अनुक्रम [१९०-१९४] ~141 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५२ ] गाथा: दीप अनुक्रम [१९० -१९४] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [ ३ ], ------------ उद्देशकः [ ( द्वीप समुद्र)], • मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ २९७ ॥ Ja Ekemon माणा २ चिडंति से तेणणं गोयमा ! एवं बुधइ - जंबुद्दीये २, अदुसरं च णं गोयमा ! जंबुद्दीबस्स सासते णामधे पण्णसे, जन्न कयाचि णासि जाव णिचे | (सृ० १५२ ) 'जंबूर ण' मित्यादि, जम्ब्याः सुदर्शनायाश्चतुर्दिशि एकैकस्यां दिशि एकैकशाखा भावतयतस्रः शाखा: प्रज्ञताः, तद्यथा-एका पूर्वस्यामेका दक्षिणस्यामेका पश्चिमायामेकोत्तरस्यां तत्र या सा पूर्वंशाला, सूत्रे पुंस्खनिर्देश: प्राकृतत्वात् 'तस्स णमित्यादि, तस्या बहुमध्यदेशभागे अत्र महदेकं भवनं प्रज्ञमं, कोशमायामतोऽर्द्धक्रोशं विष्कम्भतो देशोनं क्रोशमूर्द्धमुचैस्त्वेन तस्य वर्णको द्वारादिवन्यता च प्रागुमहापद्मवत् तथा चाह' पमाणाइया महापमवत्तव्या भाणियब्वा अहीणमरिता जाव उप्पलहत्थगा' इति । 'तस्थ ण'मित्यादि, तत्र या सा दक्षिणात्या शाखा तत्या बहुमध्यदेशभागे अत्र महानेकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञतः, क्रोशमेकमूर्द्ध मुस्लेन, अर्द्धकोशं विष्कम्भेन, 'अब्भुग्गयमूसियपहसिया इवेत्यादि सद्वर्णनमुपहोचवर्णनं भूमिभागवर्णनं मणिपीठिकावर्णनं सिंहासनवर्णनं प्रारयत् नवरमंत्र मणिपीठिका पञ्चधनुःशतान्या या मविष्कम्भाभ्यामर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि बाहल्येन सिंहासनं च सपरिवारं वाच्यमिति, तस्य च प्रासादावतंसकस्योपरि बहून्यष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानीत्यादि तावद्वक्तव्यं यावद्वहवः सहस्रपत्रहस्तका इति यथा च दक्षिणस्यां शाखायां प्रासादावतंसक उक्तस्तथा पश्चिमायामुत्तरस्यामपि च प्रत्येकं वक्तव्यः जम्याः सुदर्शनाया उपरि विडिमाया बहुमध्यदेशभागे सिद्धायतनं तच पूर्वस्यां भवनमिव तद्वक्तव्यं यावन्मणिपीठिका वर्णनं, तत ऊर्द्धमेवं वक्तव्यं'तीसे ण'मित्यादि, तस्या मणिपीठिकायाः उपरि अत्र महानेको देवच्छन्दकः प्रज्ञप्तः, एवं पञ्चधनुःशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां पञ्चधनुःशतानि सातिरेकाणि ऊर्द्धमुचैरत्वेन सर्वात्मना रत्नमयः, अच्छ इत्यादि पूर्ववद् यावत्प्रतिरूप इति । तत्थ णं असयं जिणपडिमाणं For P&False City C ~ 142 ~ ३ प्रतिपत्ता जम्बूवृक्षाघिकारः उद्देशः २ सू० १५२ ।। २९७ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], --------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -- - प्रत सूत्रांक [१५२] गाथा: SROCK जिणुस्सेहपमाणमेत्ताणं सन्निक्खित्ताणं चिट्ठई' इत्यादि पूर्ववत्तावन्द्वक्तव्यं यावत् 'अट्टसयं धूवकल्याण सन्निक्खित्ताणं चिट्टई' इति | पदं, 'सिद्धाययणस्स उप्पि अहट्ठमंगलगा' इत्यादि पूर्ववत्तावद्वक्तव्यं यावत् 'सहस्सपत्तहत्थगा' इति, सर्वत्रापि च व्याख्याऽपि पूर्ववत् ।। 'जंबू णं सुदंसणा' इत्यादि, जम्यूः सुदर्शना द्वादशभिः पद्मवरवेदिकाभिः 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्येन संपरिक्षिप्ता । वेदिकावर्णनं प्राग्वत् । 'जंबू णमित्यादि, जम्बूः सुदर्शना अन्येन जम्वूनामष्टशतेन तद चत्वप्रमाणमात्रेण 'सर्वतः। सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्येन संपरिक्षिमा । तोचप्रमाणमेव भावयति-ताओ ण'मित्यादि, 'ता:' अष्टोत्तरशतसङ्गया जम्ब्या: प्रत्येकं चत्वारि योजनान्यूई मुथैरत्वेन कोशमुधेन योजनमेकं स्कन्धः क्रोशं वाहल्येन स्कन्धः, त्रीणि योजनानि विडिमाऊर्ल्ड विनिर्गता शाखा बहुमध्यदेशभागे चत्वारि योजनान्यायामविष्कम्भाभ्याम , ऊोधोरूपेण सातिरेकाणि चत्वारि योजनानि सर्वांप्रेण 'उद्वेधपरिमाणमीलनेनेति भावः । 'वइरामयमूलरययसुपइडिया बिडिमा' इत्यादिवर्णनं पूर्ववत्ताबद्वक्तव्यं यावदधिकं नयन-10 मनोनिर्वृत्तिकार्यः, प्रासादीया यावत्प्रतिरूपाः ॥ 'जंबूए णमित्यादि, अथए णं सुदसणाए' इत्यादि, जम्वा: सुदर्शनाया अवरो|त्तरस्यामुत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्या, अत एवामु तिसृषु विश्वनाहतस्य देवस्य जम्बूद्वीपाधिपतेश्चतुर्णा सामानिकसहस्राणां योग्यानि चलारि जम्बूसहस्राणि प्रज्ञतानि, पूर्वस्यां चतमृणामग्र महिपीणां योग्यानि चतस्रो, महाजम्या दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरवर्षदोऽष्टानां देवसहहसाणां योग्यान्यष्टौ जम्बूसहस्राणि, दक्षिणस्यां मध्यमपर्पदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दश जम्बूसहस्राणि, दक्षिणापरस्था वाह्यपर्पदो द्वादश देवसहस्राणां योग्यानि द्वादश जम्बूसहस्राणि, अपरस्यां समानामनीकाधिपतीनां योग्यानि सप्त महाजन्यः, तत: ससु दिक्षु पोडशानामारक्षदेवसहस्राणां योग्यानि षोडश जम्बूसहस्राणि प्रशवानि ॥ 'जंवू णं सुदंसणा' इत्यादि, सा जम्बूः सुद-13 दीप अनुक्रम [१९०-१९४] ~143 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], --------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५२] श्रीजीया- जीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः धिकारः ॥२९८॥ गाथा: र्शना त्रिभिः शतकै:-योजनशतप्रमाणैर्वनपण्डै: 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामरत्वेन संपरिक्षिप्ता, तद्यथा-अभ्यन्तरकेन प्रतिपत्ती मध्येन बाह्येन च । जम्वाः सुदर्शनायाः पूर्वस्यां दिशि प्रथमं वनपण्डं पञ्चाशतं योजनान्यवगायात्र महदेकं भवनं प्रज्ञप्तं, तच पूर्व-18 दिग्वर्षिभवनवद् वक्तव्यं यावत् शयनीयम् । जम्वाः सुदर्शनाया दक्षिणत: प्रथमं वनपण्डं पञ्चाशतं योजनान्यवगाद्यान्न महदेकं भवन प्रक्षत, एतदपि तथैव यावत् शयनीय, एवं पश्चिमायामुत्तरखां च प्रत्येकं च प्रत्येकं च प्रथमं वनपण्डं पञ्चाशतं योजनान्यवगाह्य भवन उद्देशः२ वक्तव्यं यावत् शयनीयम् ॥ 'जंबूए ण'मित्यादि, जम्बाः सुदर्शनाया उत्तरपूर्वस्वां-ईशानकोण इत्यर्थः प्रथमं वनपण्डं पञ्चाशतं. सू०१५२ योजनान्यवगायात्र महत्यश्चतस्रो नन्दापुष्करिण्यः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-पूर्वस्यां पद्मा-पद्माभिधाना, दक्षिणस्यां पद्मप्रभा, पश्चिमायां कुमुदा, उत्तरस्यां कुमुदप्रभा, ताश्च नन्दापुष्करिण्यः प्रत्येक क्रोशमायामेन अर्द्धकोशं विष्कम्भेन पञ्चधनु:शतान्युधेन, अच्छाओ सहाओं इत्यादि पुष्करिणीवर्णनं प्राग्वत्समस्तं यावत्प्रत्येक प्रत्येक पद्मवखेदिकया परिक्षिप्ताः प्रत्येक २ वनपण्डपरिक्षिप्ताः, पापरवेदिकावनपण्डवर्णनं प्राग्वत् ॥ 'तासि णमित्यादि, तासां पुष्करिणीनां प्रत्येक चतुर्दिशि एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञतानि, तेषां वर्णकः प्राग्वत् , तोरणान्यपि तथैव, तासां पुष्करिणीनां बहुमध्यदेशभागेऽत्र महानेकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञमः, स च जम्बूवृक्षदक्षिणपश्चिमशाखाभाविप्रासावत् प्रमाणादिना वक्तव्यो यावत् 'सहस्सपत्तहत्थगा' इति पदं, सर्वत्रापि च सिंहासनमनादृतदेवस्य सपरिवारम् । एवं दक्षिणपूर्वस्या दक्षिणापरस्यामुत्तरापरस्यां च प्रत्येक वक्तव्यं, नबरं नन्दापुष्करिणीनामनानात्वं, तच्चेदं-दक्षिणपूर्वस्या पूर्वादिक्रमेण उत्पलगुल्मा नलिना उत्पला उत्पलोजबला, दक्षिणपूर्वस्यां भृङ्गा भृङ्गनिभा अजना कजलप्रभा,8/॥२९८॥ अपरोत्तरस्यां श्रीकान्ता श्रीचन्द्रा श्रीनिलया श्रीमहिता, उक्तश्च-पउमा पउमप्पभा चेव, कुमुवा कुमुवपमा । उपलगुम्मा न ASCASSCOR COMSACARE CCESSORKSGACSCG दीप अनुक्रम [१९०-१९४] EARN अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~144 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: C R प्रत सूत्रांक [१५२] गाथा: लिणा, उपपला उप्पलुजला ॥ १ ॥ भिंगा भिंगनिभा चेव, अंजणा कजलप्पभा । सिरिकता सिरिचंदा, सिरिनिलया व सिरिम-13/ | हिया ॥ २॥" 'जंबूए णमित्यादि, जम्बा: सुदर्शनायाः पूर्व दिग्भाविनो भवनस्योत्तरतः उत्तरपूर्व दिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य दक्षिणतोऽत्र महानेक: कूटः प्रज्ञप्तः, अष्टौ वोजनान्यूई मुस्त्वेन, मूलेऽष्टी योजनानि विष्कम्भेन मध्ये षड् योजनानि उपरि चत्वारि | योजनानि, मूले सातिरेकाणि पाविंशतियोजनानि परिक्षेपत: मध्ये सातिरेकाण्यष्टादश योजनानि उपरि सातिरेकाणि द्वादश यो-16 जनानि परिक्षेपतः, तथा सति मूले विस्तीणों मध्ये सङ्क्षिप्त उपरि तनुकोऽत एवं गोपुच्छसंस्थानसंस्थित: सर्वासना जम्बूनदमयः, अच्छे जाव पडिरूवें' इति प्राग्वन , स च कूट एकया पद्मवरवेदिकया एकेन वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् परिक्षिप्तः, पद्मवरवेदिकावनपण्डवर्णनं प्राग्वत् । 'तस्स ण'मियादि, तस्स कूटस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स च से जहानामए आलिंगपुक्खरह वा' इत्यादि पूर्ववत्ताबदक्तव्यो यावत्तृणानां मणीनां च शब्दवर्णनम् ।। 'तस्स ण'मित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिमा गस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तं, तच्च जम्यूसुदर्शनोपरिबिडिमासिद्धायतनसदृशं वक्तव्यं यावदृष्टोत्तर शतं धूपकडच्छुकानामिति । एवं जम्भवाः सुदर्शनाया: पूर्वस्य भवनस्य दक्षिणतो दक्षिणपश्चिमत्व प्रासादावतंसकस्योत्तरतः, तथा दाक्षिणात्यस्य भवनस्य पूर्वतो दक्षिणपूर्वस्य प्रासादावतंसकस्य पश्चिमदिशि, तथा दाक्षिणात्यस्य भवनस्य परतो दक्षिणपश्चिमस्य प्रासादावतंसकस्य पू-| तः, तथा पाश्चात्यस भवनस्य पूर्वतो दक्षिणपश्चिमस्य प्रासादावतंसकस्योत्तरतः, तथा पश्चिमस्य भवनस्योत्तरत उत्तरपश्चिम प्रासा-] | दावतंसकस्य दक्षिणतः, तथोत्तरस्य भवनस्य पश्चिमायामुत्तरपश्चिमस्य प्रासादावतंसकस्य पूर्वतः, तथोत्तरसा भवनस्य पूर्वत उत्तरपू-| | वैस्य प्रासादावतंसफापरत: प्रत्येकमेकैकः कूटः पूषोकपमा णो वक्तव्यः, तेषां च कूटानामुपरि प्रत्येकमेकैक सिद्धायतन, तानि च दीप अनुक्रम [१९०-१९४] S CACACACADCASCANCE SCAM JaEconneKI ~145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५२] गाथा: श्रीजीवा- सिद्धायतनानि पूर्ववद्वाच्यानि, उक्ता- अगुसहकूडसरिसा सवे जवूनयामया भणिया । तेसुवरि जिणभवणा कोसपमाणा परम- प्रतिपत्ती जीवाभिम रम्मा ॥१॥" 'जंबूए णमित्यादि, जलवा: सुदर्शनाया द्वादश नामधेयानि प्रज्ञापानि, तयथा-'सुदंसणे'त्यादि, शोभनं दर्शनं- जम्बूवृक्षामलयगि- दृश्यमानता यस्या नयनमनोहारिवान् सा सुदर्शना १, यथा च तस्याः शोभनदर्शनं तथाऽये स्वयमेव सूत्रकृद् भावयिष्यति, 'अ-18धिकारः रीयावृत्तिः मोहा य इति मोघं-निष्फलं न मोधा अमोवा अनिष्फला इत्यर्थः, तथाहि-सा स्वस्वामिभावेन प्रतिपन्ना सती जम्बूद्वीपाधिपत्य-18| उद्देशः२ मुपजनयति, तदन्तरेण तद्विषयस्य स्वामिभावस्यैवायोगात् , ततोऽनिष्कलेति २. 'सुप्पबुद्धा' इति सुपु-अतिशयेन प्रबुद्धेव प्रबुद्धासू०१५२ ॥२९९॥ मणिकनकरत्रामा निरन्तरं सर्वतश्चाकचिक्येन सर्वकालमुन्निद्रेति भावः ३, 'जसोहरा' इति यशः सकलभुवनण्यापि धरतीति | यशोधरा लिहादित्वादच्, जम्बूद्वीपो हि विदितमहिमा भुवनत्रयेऽप्यनया जम्बोपलक्षितस्ततो भवति यथोकं यशोधारिसमस्या: ४, 'सुभद्दा य' इति शोभनं भई-कल्याणं यस्याः सा सुभद्रा, सकल कालं कल्याणभागिनीत्यर्थः, न हि तस्याः कदाचिरप्युपद्रवाः संभवन्ति, महडिकेनाधिष्ठितत्वात् ५. 'विसाला य' इति विशाला-विस्तीर्णा आयामविष्कम्भाभ्यामुचैरत्वेन चाष्टयोजनप्रमाणत्वात् ६, 'सुजाया' इति शोभनं जातं-जन्म यस्याः सा सुजाता, विशुद्धमणिकन करबमूलद्रव्यतया जन्मदोपरहितेति भावः ७, 'सुमणा इय' इति शोभनं मनो यस्याः सकाशाद् भवति सा सुगनाः, भवति हि तां पश्यतां महर्द्धिकानां मनः शोभनमतिरमणीयत्वात् ८, 'विदेहर्जबू' इति, विदेहेपु जम्बूर्विदेह जम्बूर्विदेहान्तर्गनोत्तरकुमकृतनिवासत्वात् ९, 'सोमणसा' इति सौमनस्य हेतुत्वान् सौमनस्या, नहि तां पश्यतः कस्यापि मनो दुष्टं भवति, केवलं तां दृष्ट्वा प्रीतमनास्तां सदाधिष्ठातारं च प्रशंसतीति १०, 'नियता' इति नियता १ भी प्रापभास्टमरणाः सर्ने जम्पगदमया भणिताः । तेषामुपरि जिनभवनानि कोशप्रमाणानि परमरम्याति ॥ १॥ 9-7-56* दीप -2- अनुक्रम [१९०-१९४] - ॥२२ 2 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~146~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१५२] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५२] गाथा: सर्वकालमवस्थिता शाश्वतत्वात् ११, 'नित्यमंडिता' सदा भूषणभूषितत्वात् १२ । 'सुदसणाए' इत्यादि तान्येतानि सुदर्शनाया ४ जन्या द्वादश नामधेयानि ॥ सम्प्रति सुदर्शनाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं पिपृच्छिपुरिदमाह-'से केणढणं भंते! इत्यादि प्रतीतं, निर्वचनमाह-'गोयमे त्यादि सुगम, नवरम् 'अणाढिए नामं देवें' इति, अनाहता:-अनादरक्रियाविषयीकृताः शेषा जम्बूदीपगता | देवा येनात्मनोऽत्यद्भुतं महर्द्धिकलमीक्षमाणेन सोऽनाहतः, सकलनिर्वचनभावार्थश्चायं-परमादेवं महर्द्धि को नाहतनामा देवस्तत्र परिवसति ततस्तस्य समस्ताऽपि स्फानिः तत्र कृताबासेति सा सुदर्शनाइनाहता, राजधानीवक्तव्यताऽपि प्राग्बतकव्या, तदेवं वस्मादे रूपया जम्बोपलक्षित एप द्वीपस्तस्माजम्बुद्धीप इत्युस्यते. अथवेदं जम्बुद्धीपशब्दप्रवृत्तिनिमित्तमिति दर्शयति-'अदुत्तरं च ण'-10 मित्यादि, अथान्यन् जम्बूद्वीपशब्दप्रवृत्तिकारणमिति गम्यते. गौतम! जम्बुद्वीपे द्वीपे उत्तरकुरुपु कुरुपु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य | तत्र तत्र प्रदेशे वहयो जम्बृवृक्षा जम्बनानि जम्वृषण्डा:. इहैकजातीयवृक्षसमुदायो वनं. अनेकजातीयवृक्षसमूहो वनपण्डः, केवलं प्रधानेन व्यपदेश इति अम्बवनं जम्बृपण्ड इति भेदेनोपार्ग. निचकुसुमिया इत्यादि विशेषणकदम्वकं प्राग्वत् , तत एप द्वीपो जम्बूहाद्वीपः, तथा चाह-से एएणट्टेण'मित्यादि । सम्प्रति जम्बूद्वीपगतचन्द्रादिसत्यापरिज्ञानार्थमाह जंबहीवे णं भंते ! दीवे कति चंद्रा पभासिंसु चा पभासंदिवा पभासिस्संनिया? कति भूरिया तर्विसु वा नरति वा तविरूनिवा? कति नक्वता जोयं जोयंस वा जोति वा जोएस्संनि वा? कति महरगहा चार चरिंसुवा चरिंति वा चरिस्संति वा? केवतिताओ तारागणकोडाकोडीओ सोहंसु वा सोनिया सोदेस्संसिवा?. गोयसा! जंबूहीवेणं दीवे दो चंदा पभासिसु दीप अनुक्रम [१९०-१९४] ~147 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१५३] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५३] श्रीजीवाजीवामिल मलचगिरीयावृत्तिः ॥३०॥ गाथा: वा ३ वो सूरिया सविसु वा ३ छप्पन नषता जोगं जोएंसु बा ३ छायत्तरं गहसतं चार प्रतिपत्ती यरिंस वा ३-एग व सतसहस्सं तेतीसंमन्टु अवे सहस्साई। णव व सया पक्षासा तारागणा 18 जम्बूद्वीपकोडकोठीणं ॥१॥ सोभिसुबा सोमंति या सोनिस्संति वा ।। (ख० १५३) चन्द्रसूर्याI 'जंबूहीये भंते ! दी। इलादि सुगर्म, नवरं पदप भ्वाशनझनागि एकैकल्य शशिनः परिवारेऽष्टाविंशतिनक्षत्राणां भावा धिकार पटसनतं प्रहशतमकैकं शशिनं प्रत्याशी पहाणां भावान , तकस्य शशिनः परिवार तारागणपरिमाणं पट्पष्टिः सहस्राणि नव श-4उद्देशः२ तानि पञ्चतनत्यधिकानि कोटी कोटीना, वक्ष्यति च-'छावद्विसहस्साई नव चेव सयाई पंचसवराई। एगससीपरिवारो तारागण- सू०१५३ कोडिकोडीणं ।। १॥" (६६९७५) जम्दीपे च द्वौ शशिनौ तदेतद् द्वाभ्यां गुण्यते ततः सूत्रोक्त परिमाणं भवति-एकं शतसहने त्रयविंशत्सहस्राणि नब शतानि पश्चाशदधिकानि कोटीकोटीनामिति । तदेवमुक्तो जम्बूद्वीपः, सम्पति लवणसमुद्रं विवक्षुरिदमाह जंबूद्दीवं णाम दीवं लवणे णामं समुद्दे बट्टे चलयागारसंठाणसंठिते सव्यतो समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठति ॥ लवणे णं भंते! समुद्दे कि समचकवालसंठिते विसमचकवालसंठिते?, गोयमा! समचकवालसंठिए नो विसमचकवालसंठिए ॥ लवणे णं भंते! समुद्र केवतियं चकबालविक्खंभेणं? केवतियं परिक्खेवेणं पण्णते?, गोयमा! लवणे णं समुदे दो जोयणसतसहस्साई चक्कचालविखंभेणं पन्नरस जोयणसयसहस्साई एगासीइसहस्साह सयमेगोणचत्तालीसे किंचिविसेसाहिए लवणोदधिणो चकवालपरिक्खेवेणं । से णं एकाए पजमवरयेदियाए एगेण य दीप अनुक्रम [१९५-१९७] SAR अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् अथ लवणसमुद्राधिकारः आरभ्यते ~148~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------- मूलं [१५४] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -- प्रत सूत्रांक [१५४] - - - गाथा वणसंडेणं सब्बतो समंता संपरिक्खित्ते चिट्ठह, दोपहवि चण्णओ। सा णं पउमवर अद्धजोयर्ण उहूं पंचधणुसयविवभेणं लवणसमुहसमियपरिक्वेवेणं, सेसं तहेव । से पां वणसंडे देसूगाई दो जोयणाई जाव विहरह।। लवणस्स णं भंते! समुहस्स कति दारा पण्णता?, गोयमा! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तंजहा-विजये बेजयंते जयंते अपराजिते । कहि णं भंते! लवणसमुइस्स विजए णामं दारे पपणत्ते?, गोयमा! लवणसमुहस्स पुरस्थिमपेरते धायइखंडस्स दीवस्स पुरस्थिमद्धस्स पञ्चस्थिमेणं सीओदाए महानदीए उपि एत्थ णं लवणस्स समुदस्स विजए णाम दारे पण्णसे अट्ठ जोयणाई उहुं उच्चत्तेणं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, एवं तं चेव सय्वं जहा जंबुद्दीवस्स विजयस्सरिसेवि (दारसरिसमेयंपि) रायहाणी पुरथिमेणं अपणंमि लवणसमुहे। कहि भंते ! लवणसमुहे बेजयंते नाम दारे पण्णते?, गोयमा! लवणसमुद्दे दाहिणपरंते धातइसंडदीवस्स दाहिणद्धस्स उत्तरेणं सेसं तं चेव सब्वं । एवं जयंतेवि, णवरि सीयाए महाणदीए उपि भाणियब्वे । एवं अपराजितेवि, णवरं दिसीभागो भाणियब्बो ॥ लवणस्स णं भंते । समुदस्स दारस्स घ २ एस णं केवतिय अवाधाए अंतरे पण्णसे ?, गोयमा!-'तिपणेव सतसह स्सा पंचाणउतिं भवे सहस्साई। दो जोयणसत असिता कोसं वारंतरे लवणे ॥१॥' जाव यथा अनेकेषु स्थानेष्वत्र मूलटीकापाठयोवैषम्यं तथान कचित् आदर्श चतुर्णामपि द्वाराणां सामम्येण वर्णनं दृश्यते मूले, न च ढीकानुसारी प्रागुतं च तदित्युपेक्षितं. दीप अनुक्रम [१९८-२००] जी०५१ JEleman inteAN ~149~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------- मूलं [१५४] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -* प्रत सूत्रांक [१५४] -* -- गाथा श्रीजीवा अवाधाए अंतरे पणत्ते । लवणस्स गं पएसा धायडसंड दीवं पट्टा, तहेव जहा जंबूदीवे धायइ- ३ प्रतिपत्तो जीवाभि. संडेवि सो चेव गमो । लवणे णं भंते! समुहे जीवा उदाइसा सो चेव विही, एवं धायइसं- लवणाधि मलयगि डेवि ॥ से केणढणं भंने! एवं वुचइ-लवणसमुद्दे २१. गोयमा! लवणे णं समुद्दे उदगे आ- | उद्देशः२ रीयावृत्तिः विले रहले लोणे लिंदे खारए कट्टए अप्पेजे बहुणं दुपयचउप्पयमियपसुपक्खिसिरीसवाणं सू०१५४ नण्णत्थ तजोणियाणं सत्ताणं, सोथिए एस्थ लवणाहिवई देवे महिहीए पलिओवमहिईए, से ॥३०१॥ णं तस्थ सामाणिय जाव लवणसमुहस्स सुस्थियाए रायहाणीए अण्णसिं जाव विहरइ, से एएणटेणं गो01 एवं बुचइ लवणे णं समुद्दे २, अदुत्तरं च णं गोलवणसमुहे सासए जाव णिचे ॥ (सू०१५४) | 'जंबद्दीवं दीव'मित्यादि जम्बूद्वीपं द्वीपं लवणो नाम समुद्रो वृत्तः' वर्तुलः, स च चन्द्रमण्डलवरमध्यपरिपूर्णोऽपि शनयेत तव |5 | आह-वलयाकारसंस्थानसंस्थिता' वलयाकार--मध्यशुषिरं यत्संस्थानं तेन संस्थितो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्येन 'परिक्षिष्य' वेष्टयित्वा विपनि ।। 'लवणे णं भंते!' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रः किं समचक्रवा|लसंस्थितो यद्वा विषमचक्रवालसंस्थितः, चक्रवालसंस्थानस्योभयथाऽपि दर्शनात, भगवानाह-गौतम! समचक्रवालसथितः सर्वत्र CIहिलायोजनप्रमाणतया चक्रवालस्य भावान , नो विषमचवालसंस्थितः ॥ सम्प्रति चकवाल विष्कम्भादिपरिमाणमेव पृच्छति-14 ।'लवणे णं भंते ! समुद्दे इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम व योजनशतसहने चकवालबिकम्भेन, जम्बूद्वीपविष्कम्भादे दीप NCCCC अनुक्रम [१९८-२०० अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~150 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------- मूलं [१५४] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा - XSACANCSCRICA तद्विष्कम्भस्य द्विगुणत्वात् , पञ्चदश योजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतमेकोनचत्वारिंशं प किश्चिद्विशेषोन परिक्षेपेण, परिक्षेपप्रमाणं चैतत् परिधिगणितभावनया स्वयं भावनीय क्षेत्रसमासटीकातो वा परिभावनीयम् ॥ 'से णमित्यादि, 'सः' लवणनामा समुद्र एकया पद्मवरवेदिकया, अष्ट्रयोजनोच्छ्रितजगत्युपरिभाविन्येति गम्यते, एकेन बनखण्डेन सर्वतः समन्तान् संपरिक्षिप्तः, सा च पदावरवेदिकाऽर्द्धयोजनमूर्द्धमुच्चैस्लेन पञ्चधनुःशतानि विष्कम्भतः परिक्षेपतो लवणसमुद्रपरिक्षेपप्रमाणा, वनखण्डो देशोने द्वे योजने, अभ्यन्तरोऽपि पावरवेदिकाया वनषण्ड एवंप्रमाण एव, उभयोरपि वर्णनं जम्बूद्वीपपद्मवरवेदिकावनषण्डनन् । सम्प्रति द्वारवक्तव्यतामभिधित्मुरिदमाह-'लवणस्स ां भंते !' इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य कति द्वाराणि अक्षतानि ?, भगवानाह-गौतम ! चत्वारि द्वाराणि प्राप्तानि, तद्यथा-विजयवैजयन्तजयन्तापराजिताख्यानि ॥ 'कहि णमित्यादि, क भदन्त ! लव| णसमुद्रस्य विजयनाम द्वारं प्रज्ञमं ?, भगवानाह-गौतम !, लवणसमुद्रस्य पूर्वपर्यन्ते धातकीखण्डद्वीपपूर्वार्द्धस्य पञ्चस्थिमेण'न्ति पश्चिमभागे, शीतोदाया महानद्या उपयंत्रान्तरे लवणसमुद्रस्य विजयनाम द्वारं प्रज्ञप्तं, अष्टौ योजनान्यूई मुच्चैस्त्लेन । एवं जम्बूद्वीपगतविजयद्वारसहशमेतदपि वक्तव्यं याबदहून्यष्टावष्टौ मङ्गलकानि यावद्हवः सहस्रपत्रहस्तका इति ॥ सम्प्रति विजयद्वारनामनिवन्धनं प्रतिपिपादविपुरिदमाह-से केणडेणं भंते' इत्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-विजयद्वार विजयद्वारम् । इति, भगवानाह-गौतम! विजये द्वारे विजयो नाम देवो महविको यावद् विजयाया राजधान्या अन्येषां च बहूनां विजयाराजधानीवास्तव्यानां वानमन्तराणां देवानां देवीनां चाधिपत्यं यावत्परिवसति, ततो विजयदेवस्यामिकत्वाद् विजयमिति, तथा चाह-'से एएणद्वेण मित्यादि सुगनं ।। 'कहिण भंते ! इत्यादि, क भदन्त ! विजयस्य देवस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतम ! विजयद्वारस्य दीप अनुक्रम [१९८-२०० ~151 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------- मूलं [१५४] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा श्रीजीवा- पूर्वस्यां दिशि तिवंगसङ्ग्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादश योजनसहस्राण्यवगायात्रान्तरे विजयस्य देवस्य | प्रतिपत्ती जीवाभि०४ विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, सा च जम्बूद्वीपविजयद्वाराधिपतिविजयाराजधानीवद्वक्तव्या ॥ सम्प्रति वैजयन्तद्वारप्रतिपादनार्थ- लवणाधिक मलयगि-16 माह-कहिणं भंते !' इत्यादि, क भदन्त ! लवणस्य समुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं !, भगवानाह-गौतम! लवणसमुद्रस्य उद्देशः२ रीयावृत्तिः दक्षिणपर्यन्ते धातकीखण्डद्वीपदाक्षिणार्द्धस्योत्तरतोऽत्र लवणसमुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रशत, एतद्वक्तव्यता सर्वाऽपि विजयद्वारबद- सू०१५४ 18 वसेया, नवरं राजधानी वैजयन्तद्वारा दक्षिणतो वेदितव्या ।। जयन्तद्वारप्रतिपादनार्थमाह-कहिणं भंते! इत्यादि, क भदन्त 18 लवणसमुद्रस्य जयन्तं द्वारं प्रज्ञतं ?, भगवानाह-गौतम! लवणसमुद्रस्य पश्चिमपर्यन्ते धातकीखण्डपश्चिमार्द्धस्य पूर्वतः शीताया महा नद्या उपरि लवणस्य समुद्रस्य जयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं, सद्वक्तव्यत्ताऽपि विजयद्वारवद् वक्तव्या, नवरं राजधानी जयन्तद्वारस्य पश्चिमसमभागे वक्तव्या । अपराजितद्वारप्रतिपादनार्थमाह-कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! लवणस्य समुद्रस्यापराजितं नाम द्वारं प्रज्ञप्नं ?, भगवानाह-गौतम! लवणसमुद्रस्योत्तरपर्यन्ते धातकीखण्डद्वीपोत्तरार्द्धस्य दक्षिणतोऽत्र लवणस्य समुद्रस्यापराजितं नाम द्वार प्रज्ञप्तं । एतद्वक्तव्यताऽपि विजयद्वारबग्निरवशेषा वक्तव्या, नवरं राजधानी अपराजितद्वारस्योत्तरतोऽवसातव्या ॥ सम्प्रति द्वारस्य द्वारस्यान्तरं प्रतिपादयितुकाम आह-लवणस्स णं भंते!' इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य द्वारस्य २ 'एस णमिति एतद् है अन्तरं कियत्या 'अबाधया' अन्तरालखाव्याघातरूपया प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम! त्रीणि योजनशतसहस्राणि पश्चनवतिः सह स्राणि अशीते द्वे योजनशते कोशश्चैको द्वारस्य द्वारस्याबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तं, तथाहि-एकैकस्य द्वारस्य पुथुत्वं चत्वारि योजनानि, ३ ३०२।। एकैकस्मिंश्च द्वारे पकैका द्वारशाखा क्रोशवाहल्या, द्वारे च द्वे द्वे शाखे, तत एकैकस्मिन् द्वारे प्रभुत्वं सामस्त्येन चिन्यमानं सार्द्धयो दीप अनुक्रम [१९८-२०० -- Jan अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा दीप अनुक्रम [१९८ -२००] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [ ३ ], ------------- उद्देशकः [ ( द्वीप - समुद्र )], - मूलं [ १५४ ] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja Ekemon in जनचतुष्टयप्रमाणं प्राप्यते, चतुर्णामपि द्वाराणामेकत्र पृथुलमीलने जातान्यष्टादशु योजनानि तानि लवणसमुद्रपरिश्यपरिमाणात् पञ्चदश शतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि एकोनचत्वारिंशं योजनशतं इत्येवंपरिमाणादपनीयन्ते, अपनीय च यच्छेषं तस्य चतुभिर्भागेऽपहृते बदागच्छति तत् द्वाराणां परस्परमन्तरपरिमाणं तच यथोक्तमेव, उक्तं च- "आसीया दोनि सया पणनउइसहरस तिन्नि लक्खा य । कोसो य अंतरं सागरस्स दाराण विक्रेयं ||१||" 'लवणस्स णं भंते! समुद्दस्स पदेसा' इत्यादि सूत्रचतुष्टयं प्राग्वद्भावनीयम् || सम्प्रति लवणसमुद्रनामान्वर्थं पृच्छति - ' से केणद्वेण 'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-लवणः समुद्रो लवणः समुद्रः ? इति, भगवानाह - गौतम ! लवणस्य समुद्रस्य उदकः 'आविलम्' अविमलमस्वच्छं प्रकृत्या 'रइल' रजोवत्, जलवृद्धि - हानिभ्यां पकबहुलमिति भावः, लवणं सान्निपातिकरसोपेतखालिन्द्र गोबराक्ष (ख्य) रसविशेषकलितत्वात्, 'क्ष' तीक्ष्णं लवणरसविशेपवत्त्वात्, 'कटुकं' कटुकरसोपेतलान्, अत एवोपद्रवन्नातादपेयं, केपामपेयम् ? - चतुष्पद मृगपक्षसरीसृपाणां, नान्यत्र 'तयोनिकेभ्यः' लवण समुद्रयोनिकेभ्यः सत्त्वेभ्यस्तेषां पेयमिति भावः, तद्योनिकतया तेषां तदाहारकत्वात्, तदेवं यस्मात्तस्योदकं लवणमतोऽसौ लवण: समुद्र इति, अन्यथ 'सुट्ठिए लवणाहिबई' इत्यादि सुगमं, नवरमेष भावार्थ:- यस्मात् सुस्थितनामा तदधिपतिः - लवणाविपति रिति स्वकल्पपुस्तके प्रसिद्धम्, आधिपत्यं च तस्याधिकृतसमुद्रस्य विषये नान्यस्य ततोऽप्यसौ लवणसमुद्र इति, तथा चाह - 'से एएणद्वेणमित्यादि ॥ सम्प्रति लवणसमुद्रगतचन्द्रादिसङ्ख्यापरिमाणप्रतिपादनार्थमाह लवणे णं भंते! समुद्दे कति चंद्रा पभासिंसु वा पभासिंति वा पभासिस्संति वा?, एवं पंचवि पुच्छा, गोयमा ! लवणसमुद्दे चत्तारि चंदा पभासिंसु वा ३ चत्तारि सूरिया तविंसु वा ३ बार For P&Praise Cly ~ 153~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------- मूलं [१५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५५] 4%2595%25% श्रीजीवासुत्तरं नक्खत्तसयं जोगं जोएंसु वा तिपिण बावपणा महग्गहसया चारं चरिंसु वा प्रतिपत्ती जीवाभि दुपिण सयसहस्सा सत्तहिं च सहस्सा नव य सया तारागणकोडाकोडीर्ण सोभं सोभिंसु लवणे मलयगिवा ३॥ (सू०१५५) चन्द्रायाः रीयावृत्तिः 'लवणे णं भंते! समुद्दे' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह-गौतम! चत्वारश्चन्द्राः प्रभासितवन्तः प्रभासन्ते प्रभासिष्यन्ते उद्दशा २ चत्वारः सूर्यास्तापितवन्तस्तापयन्ति तापयिष्यन्ति, ते च जम्बूद्वीपगतचन्द्रसूर्यैः सह समभेण्या प्रतिबद्धा वेदितव्याः, तद्यथा-दौड़ा सू० १५५ ॥३०३॥ है सूर्यो एकस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य श्रेण्या प्रतिवद्धी, द्वौ सूयौं द्वितीयस्य जम्बूद्वीपगतस्य सूर्यस्य, तथा द्वौ चन्द्रमसाकस्य जम्बू द्वीपगतस्य चन्द्रस्य समश्रेण्या प्रतिवद्धौ, द्वौ द्वितीयचन्द्रस्य, तौ चैवम्-यदा जम्बूद्वीपगत एकः सूर्यो मेरोदक्षिणतश्रारं चरति तदा | लवणसमुद्रेऽपि तेन सह समनेण्या प्रतिवद्ध एक: शिखाया अभ्यन्तरं चार चरति द्वितीयस्तेनैव सह श्रेण्या प्रतिबद्धः शिखायाः | परतः, तदैव च यो जम्बूद्वीपे मेरोगत्तरतश्चारं चरति तेन सह समश्रेण्या प्रतिबद्धो लवणसमुद्रे उत्तरत एकः शिखाया अभ्यन्तरं चार चरति, द्वितीयस्तु तेनैव सह समश्रेण्या प्रतिबद्धः शिखायाः परतः, एवं चन्द्रमसोऽपि जम्बूद्वीपगतचन्द्राभ्यां सह समश्रेणिप्र| तिवद्धा भावनीयाः, अत एव जम्बूद्वीप इव लवणसमुद्रेऽपि यदा मेरोदक्षिणतो दिवसः संभवति तदा मेरोरुत्तरतोऽपि लवणसमुद्रे दिवसः, यदा च मेरोरुत्तरतो लवणसमुद्रे दिवसस्तथा दक्षिणतोऽपि दिवसस्तदा प पूर्वस्या पश्चिमायो दिशि लवणसमुद्रे रात्रिः, यदा च | मेरोः पूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रे दिवसस्तदा पश्चिमायामपि दिवस:, यदा च पश्चिमायां दिवसस्तदा पूर्वदिश्यपि, तदा च मेरोदक्षि- ॥३०३ ॥ इणत उत्तरतश्च नियमतो रात्रिः, एवं धातकीखण्डादिष्वपि भावनीय, तद्गतानामपि चन्द्रसूर्याणां जम्बूद्वीपगतचन्द्रसूर्यैः सह समश्रेण्या 6REM दीप अनुक्रम [२०१] Joice अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~154 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 20 प्रत सूत्रांक [१५५] %*%25% है व्यवस्थितत्वात् , उक्तं च सूर्यप्रज्ञप्ती-"जया गं लवणसमुद्दे दाहिजड़े दिवसे भवइ तया गं उत्तरडेवि दिवसे हबइ, जया णं उत्तकरडे दिवसे हवइ तया पं लवणसमुहे पुरस्थिमपञ्चस्थिमेणं राई भवइ, एवं जहा जंबूडीवे दीवे तहेव" तथा "जया णं धायईसंडे दीवे दादाहिणड़े दिवसे भवइ तया गं उत्तरडेवि, जया णं उत्तरड़े दिवसे हवद तथा ण धायइसंडे दीवे मंदराणं पञ्चयाणं पुरथिमपञ्च थिमेणं राई हवइ, एवं जहा जंयूडीवे दीवे तहेव, कालोए जहा लवणे तहेव" तथा "जया णं अम्भितरपुक्खरखे दाहिणड़े दिवसे | भवह तयाणं उत्तरड़े दिवसे हवइ, जया णं उत्तरड़े दिवसे हवइ तया णं अभितरड़े मंदराणं पत्रयाण पुरस्थिमपञ्चस्थिमेणं राई हवइ, सेसं जहा जपूरीवे सहेच" आह-लवणसमुद्रे पोडश योजनसहरप्रमाणा शिखा ततः कथं चन्द्रसूर्याणां तत्र तत्र देशे। चारं चरतां न गतिव्याघातः , उच्यते, इह लवणसमुद्रवर्जेषु शेषेषु द्वीपसमुद्रेषु यानि ज्योतिष्कविमानानि तानि सर्वाण्यपि सामान्यरूपस्फटिकमयानि, यानि पुनर्लवणसमुद्रे ज्योतिष्कविमानानि तानि तथाजगत्स्वाभाव्यादुदकरकाटनस्वभावस्फटिकमयानि, तथा | चोक्तं सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्तो-"जोइसियविमाणाई सवाई हवंति फलिहमइयाई । दगफालियामया पुण लवणे जे जोइसविमाणा ॥१॥" ततो न तेषामुदकमध्ये चार चरतामुदकेन व्यापातः, अन्यच्च शेषद्वीपसमुद्रेषु चन्द्रसूर्यविमानान्यधोलेश्याकानि यानि पुनर्लवणसमुद्रे तानि तथाजगत्स्वाभाव्यादूज़लेश्याकानि तेन शिखायामपि सर्वत्र लवणसमुद्रे प्रकाशो भवति, अयं चार्थः प्रायो बहूनामप्रतीत इति । | संवादार्थमेतदर्थप्रतिपादको जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचितो विशेषणवतीप्रन्ध उपदयते-सोलससाहसियाए सिहाए कहं जो-18 इसियविधातो न भवति ?, तत्थ भन्नइ-जेण सूरपन्नत्तीए भणियं-"जोइसियविमाणाई सब्वाई हबंति फलिहमइयाई । दगफालिया। मया पुण लवणे जे जोइसविमाणा ॥ २॥" जं सन्नदीवसमुद्देसु फालियामयाई लवणसमुद्दे चेव केवलं दगफालियामयाई तत्थ इद-| 395%%-94544%A4-%250 दीप अनुक्रम [२०१] % ~155 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 28-%-9 प्रत सूत्रांक [१५५] दीप अनुक्रम [२०१] श्रीजीवा कामेव कारण मा उद्गेण विधातो भवउ इति, जंबूसूरपन्नत्तीए चेव भणियं-लवणमि उ जोइसिया उढुलेसा हवंति नायब्वा । तेण प्रतिपत्ता जीवाभि० परं जोइसिया अहलेसागा मुणेयव्या ॥१॥" तंपि उद्गमालावभासणस्थमेव लोगठिई एसा" इति । तथा द्वादशं नक्षत्रशतं एवं-16 लवणे मलयगि चत्वारो हि लवणसमुद्रे शशिनः, एकैकस्य च शशिन: परिवारेऽष्टाविंशतिनक्षत्राणि, ततोऽष्टाविंशतेश्चतुभिर्गुणने भवति द्वादशोत्तरं वेलावृद्धिः रीयावृत्तिः शतमिति । त्रीणि द्विपञ्चाशदधिकानि महामहशतानि, एकैकस्य शशिनः परिबारेऽष्टाशीतेहाणां भावात् , द्वे शतसहस्रे सप्तषष्टिः 18| उद्देशः२ | सहस्राणि नव शतानि तारागणकोटीकोटीनाम् २६७९००००००००००००००००, उक्तञ्च-चत्तारि चेव चंदा चत्तारि य सू- सू०१५६ ॥३०४॥ रिया लवणतोए । बारं नक्खत्तसर्थ गहाण तिन्नेव बावन्ना ॥ १॥ दो चेव सयसहस्सा सत्तट्ठी खलु भवे सहस्सा य । नव य सया* ४ालवणजले तारागणकोडिकोडीण ॥ २॥" इह लवणसमुद्रे चतुर्दश्यादिषु तिथिषु नदीमुखानामापूरण तो जलमतिरेकेण प्रवर्द्धमानगु-| पलक्ष्यते तत्र कारणं पिपूच्छिपुरिदमाह कम्हा णं भंते! लवणसमुद्दे चाउद्दसहमुद्दिष्टपुषिणमासिणीसु अतिरेगं २ वहुति वा हायति वा?, गोयमा! जंबुद्दीवस्स दीवस्स चउद्दिसि बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ लवणसमुई पंचाणउति २ जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एस्थ णं चत्तारि महालिंजरसंठाणसंठिया महइमहालया महापायाला पण्णत्ता, तंजहा-वलयामुहे केतूए जूवे ईसरे, ते णं महापाताला एगमेगं जोयणसयसहस्सं उब्वेहेणं मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं मजसे एगपदेसियाए सेढीए एगमेगं जोयणसतसहस्सं विक्खंभेणं उवरि मुहमूले दस जोयणसहस्साई विखंभेणं । तेसि णं भत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~156~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५६] SC+ महापायालाणं कुहा सव्यस्थ समा दसजोयणसतबाहल्ला पण्णत्ता सब्ववारामया अच्छा जाव पडिरूवा ॥ तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य अवकमंति विउक्कमति चयंति उवचयंति सासया णं ते कुड्डा दबट्टयाए वण्णपज्जवेहिं असासया ॥ तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डीया जाव पलिओबमद्वितीया परिवसंति, तंजहा-काले महाकाले बेलंबे पभंजणे ॥तेसि णं महापायालाणं तओ तिभागा पणत्ता, तंजहा-हेडिल्ले तिभागे मज्झिल्ले तिभागे उपरिमे तिभागे ॥ तेणं तिभागा तेत्तीस जोयणसहस्सा तिषिण य तेत्तीसं जोयणसतं जोयणतिभागं च बाहल्लेणं । तत्व ण जे से हेडिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाओ संचिट्ठति, तत्थ णं जे से मझिल्ले तिभागे एत्थ णं बाउकाए य आउकाए य संचिट्ठति, तत्थ णं जे से उवरिल्ले तिभागे एत्थ णं आउकाए संचिदृति, अदुत्तरं च णं गोयमा! लवणसमुद्दे तत्थ २ देसे बहवे खुड्डालिंजरसंठाणसंठिया खुरपायालकलसा पणत्ता, ते णं खुड्डा पाताला एगमेगं जोयणसहस्सं उब्वेहेणं मूले एगमेगं जोयणसतं विक्वंभेणं मजझे एगपदेसियाए सेढिए एगमेग जोयणसहस्सं विक्खंभेणं उपि महमूले एगमेगं जोयणसतं विक्खंभेणं । तेसिणं खुड्डागपायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दस जोयणाई थाहल्लेणं पण्णत्ता सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य जाव असासयावि, पत्तेयं र अपलिओवमहितीताहिं देवताहिं परिग्गहिया ॥ तेसि णं खुड़गपाता दीप अनुक्रम २०२] ESCSCACANCocksCACA SCSCRECONSCIAC-CE ~157. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५६ ] दीप अनुक्रम [२०२] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], ------- उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र)], • मूलं [१५६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३०५ ॥ लाणं ततो तिभागा प०, तंजा - हेडिले तिभागे मज्झिल्ले तिभागे उचरिल्ले तिभागे, ते णं तिभागा निणि तेती से जोयणसते जोयणतिभागं च बाहल्लेणं पण्णत्ते । तत्थ णं जे से हेडिल्ले तिभागे rashiओ मल्ले तिभागे वाउआए आउयाते य उवरिल्ले आउकाए, एवामेव सपुत्र्यावरेणं लवणसमुद्दे सत्त पायालसहस्सा अट्ट य चुलसीता पातालसता भवतीति मक्खाया ॥ तेसि णं महापायालाणं खडगपायालाण य हेहिममज्झिमल्लेसु तिभागेसु बहवे ओराला वाया संसेति संमुच्छिमति एयंति चलति कंपंति खुम्भंति घर्हति फेदति तं तं भावं परिणमंति तया णं से उदर उष्णामिजति, जया णं तेसिं महापापालाणं खुड्डागपायालाण व हेडिलमज्झि हेसु तिभागेसु नो बहवे ओराला जाव तं तं भावं न परिणमंति तया णं से उदर नो उन्नामिज्जह अंतरावि य णं ते वायं उदीरेंति अंतरावि य णं से उदगे उण्णामिज्जइ अंतरावि य ते वाया नो उदीरंति अंतरावि यणं से उदगे णो उष्णाभिज्जर, एवं खलु गोयमा! लवणसमुद्दे चाउद्दसमुfaggo मासिणी अइरेगं २ बहुति वा हायति वा ।। (सू० १५६ ) 'कम्हाणं भंते!' इत्यादि, कस्माद्रवन्त ! लवणसमुद्रे चतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टपौर्णमासीषु तिथिषु, अत्रोदिष्टा - अमावास्या पौर्णमासी प्रतीता, पूर्णो मासो यस्यां सा पौर्णमासी, 'प्रज्ञादित्वात्स्वार्थेऽण' अन्ये तु व्याचक्षते पूर्णो माः चन्द्रमा अस्यामिति पौर्णमासी, अणू तथैव, प्राकृतत्वाथ मूत्रे 'पुण्णमासिणी'ति पाठः, 'अइरेगं अगं' अतिशयेन अतिशयेन वर्द्धते हीयते वा ?, भगवानाह गौतम ३ प्रतिपत्ती लवणे बेलावृद्धिः उद्देशः २ सू० १५६ For P&Praise Cnly अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 158~ ॥ ३०५ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५६] दीप अनुक्रम २०२] जम्बूद्वीपे द्वीपे यो मन्दरपर्वतस्तस्य चतसृषु पूर्वादिषु दिक्षु लवणसमुद्रं पञ्चनवतिं पश्चनवति योजनसहस्राण्यवगायात्रान्तरे पलारो 'महइमहालया' अतिशयेन महान्तो महालि खरं-महापिडहं तत्संस्थानसंस्थिताः, कचित् 'महारंजरसंठाणसंठिया' इति पाठस्तत्रारजर:-अलि जर इति, महापातालकलशाः प्राप्ताः, उक्तं च--"पणनउइसहस्साई ओगाहित्ता चउद्दिसिं लवणं । चउरोऽलिंजरसंठाणसंठिया होति पायाला ॥१॥" वानेव नामतः कथयति, तद्यथा-मेरोः पूर्वस्यां दिशि वडवामुखः दक्षिणस्यां केयूप: अपरस्यां यूपः उत्तरस्यामीश्वरः, ते चत्वारोऽपि महापातालकलशा एकैकं योजनशतसहस्र-लक्षं उद्वेधेन मूले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेन |तत ऊर्द्ध एकप्रादेशिक्या श्रेण्या विष्कम्भतः प्रबर्द्धमाना २ मध्ये एकैकं योजनशतसहस्रं विष्कम्भेन तत अर्ब भूयोऽप्ये कप्रादेशिक्या श्रेण्या विष्कम्भतो हीयमाना हीयमाना उपरि मुखमूले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भतः, उक्तश्च-"जोयणसहस्सद्सगं मूले उवरिं पाच होति विच्छिण्णा । मज्झे व सयसहस्सं तेत्तियमेत्तं च ओगाढा ॥१॥" 'तेसि णमित्यादि, तेषां महापातालकलशानां कुख्याः सर्वत्र समा दश योजनशतबाहल्या योजनसहस्रबाहल्या इत्यर्थः, सर्वात्मना वज़मया: 'अच्छा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् ।। 'तत्थ पाण'मित्यादि, तेषु वनमयेषु कुत्येपु बहवो जीवाः पृथिवीकायिकाः पुनलाश्च 'अपनामन्ति' गच्छन्ति 'व्युत्क्रामन्ति' उत्पद्यन्ते जीचा इति सामर्थ्याद्गम्य, जीवानामेवोत्पत्तिधर्मकतया प्रसिद्धत्वान्, 'चीयन्ते' चयमुपगच्छन्ति 'उपचीयन्ते' उपचयमायान्ति, एतच्च पदवयं पुद्गलापेक्षं, पुद्गलानामेव चयापचयधर्मकतया व्यवहारान्, तत एवं सकल कालं तदाकारस्य सदाऽवस्थानात शाश्वतास्ते कुल्या द्रव्यार्थतया प्रज्ञमाः, वर्णपर्यायैः रसपर्यायैः गन्धपर्यायैः स्पर्शपर्यायैः पुनरशाश्वताः, वर्णादीनां प्रतिक्षणं कियत्कालादूी वाडन्यथाऽन्यथा भवनात् ।। 'तस्थ ण'मित्यादि, तत्र तेपु चतुर्पु पातालकलशेषु चत्वारो देवा महर्टिका यावत्करणान्महायुतिका इत्यादि ~159 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५६] दीप अनुक्रम [२०२] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], ------ उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र )], • मूलं [१५६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३०६ ॥ Jako परिग्रहः, पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, तयथा - 'काले' इत्यादि, वडवामुखे काल: केयूपे महाकाल: यूपे बेलम्बः ईश्वरे प्रभअनः ॥ 'तेसि ण'मित्यादि तेषां महापातालकलशानां प्रत्येकं प्रत्येकं त्रयविभागाः प्रज्ञताः, तद्यथा - अधस्तनविभागो मध्यमविभाग उपरितनविभागः ॥ 'ते पण 'मित्यादि, ते प्रयोऽपि त्रिभागास्त्रयविशद् योजनसहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशानि योजनात्रिभागं च वाहस्येन प्रशप्ताः । तत्र चतुर्ष्वपि पातालकलशेषु अधस्तनेषु त्रिभागेषु बातकायः संतिष्ठति, मध्यमेषु त्रिभागेषु वायुकायोउप्कायच, उपरितनेषु त्रिभागेष्वष्काय एव 'अदुत्तरं च णमित्यादि, अथान्यद् गौतम लवणसमुद्रे 'तस्थ तत्थ देसे तहिं तहिं "" इति तेषां पातालकलशानामन्तरेषु तत्र २ देशे तस्य २ देशस्य तत्र २ प्रदेशे हार जरसंस्थानसंस्थिताः बुद्धाः पातालकलशाः प्र शप्ताः, ते क्षुद्धाः पातालकलशा एकमेकं योजनसहस्रमुद्वेधेन मूले एकैकं योजनशतं विष्कम्भेन मध्ये एकैकं योजनसहस्रं विष्कम्भेन उपरि मुखमूले एकैकं योजनशतं विष्कम्भेन || 'तेसि ण'मित्यादि तेषां शुकपातालकलशानां कुड्याः सर्वत्र समा दश दश योजनानि बाहल्यतः उक्तञ्च – “जोयणसयविच्छिण्णा मूले उबरि दस सयाणि मज्झमि । ओगाढा य सहस्वं दसजोयणिया य से कुड्डा || १ ||" "सब्बवइरामया' इत्यादि प्राग्वद् यावत् 'फासपज्जवेहिं असासया' इति प्रत्येकं २ तेऽर्द्धपस्योपमस्थितिकाभि देवताभिः परिगृहीताः ॥ 'तेसि ण' मित्यादि तेषां कपाताल कलशानां प्रत्येकं २ त्रयस्त्रिभागाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अधस्तन विभागो मध्यमस्त्रिभाग उपरितनविभागः । 'ते ण'मित्यादि, ते त्रिभागाः प्रत्येकं त्रीणि योजनशतानि 'त्रयस्त्रिंशानि' त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनत्रिभागं च बाहुल्येन प्रशप्ताः, तत्र सर्वेषामपि क्षुल्लकपातालकलशानामधस्तनेषु त्रिभागेषु वायुकायः संतिष्ठति, मध्येषु त्रिभागेषु वायुकायोऽष्कायश्च, उपरितनेषु त्रिभागेष्वष्कायः संतिष्ठति, एवमेव 'सपूर्वापरेण' पूर्वापरसमुदायसङ्ख्यया सप्त पातालकलशसहस्राणि ३ प्रतिपत्तौ लवणे बेलावृद्धिः उद्देशः २ सू० १५६ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश: '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 160~ ॥ २०६ ॥ resyw Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५६] क्षुल्लकपातालकलशसहस्राणि, अष्टौ च पातालकलशशवानि-शुलकपातालकलशशतानि 'चतुरशीतानि' चतुरशीत्यधिकानि भवन्तीत्याख्यातं मया शेपैश्च तीर्थकृतिः, उक्तञ्च-अन्नेवि य पायाला खुट्टालंजरगसंठिया लबणे । अट्ठसया चुलसीया सत्त सहस्सा य सव्येवि ॥१॥ पायालाण विभागा सव्याणवि तिन्नि तिन्नि विन्नेया । हेहिमभागे वाऊ मझे वाऊ व उद्गं च ॥ २॥ बरि उदगं भणियं पढ़मगवीपसु बाउ संखुभिओ । उई वामइ उदगं परिवडुइ जलनिही खुभिभो ॥ ३॥" 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां शुलकपातालानां' क्षुलकपातालकलशानां महापातालानां चाधरतनमध्येषु त्रिभागेषु तथाजगरिस्थतिसाभाय्यात् प्रतिदिवसं द्विकुलस्तत्रापि चतुर्दश्यादिपु तिथिष्वतिरेकेण 'बहवः' अतिप्रभूता: 'उदाराः' अर्द्धगमनस्वभावाः प्रचलशक्तयश्व, छत्-प्राबल्येन आरो येषां। ते उदारा इति व्युत्पत्तेः, 'वाताः' वायवः 'संस्विद्यन्ते' उत्पत्त्यभिमुखीभवन्ति ततः क्षणानन्तरं 'संमूर्च्छन्ति' संमूर्छजन्मना लब्धामलामा भवन्ति ततः 'चलन्ति' कम्पन्ते वावानां चलनस्वभावत्लान्, तत: 'घट्टन्ते' परस्परं सट्टमाप्नुवन्ति, तदनन्तरं 'क्षुभ्यन्ते' जातमहाद्भुतशक्तिकाः सन्त ऊर्व मितस्ततो विप्रसरन्ति, सत: 'उदीरयन्ति' अन्यान् वातान् जलमपि चोन्-प्रायल्येन प्रेरयन्ति, त त देशकालोचितं मन्दं तीन मध्यम वा भावं परिणामं 'परिणमन्ति' धातूनामनेकार्थत्वात् प्रपद्यन्ते । 'जया ण तेसिं खड़ापायालाण'मित्यादि सुगर्म भावितत्वात् । 'तया णमित्यादि, तदा णमिति वाक्यालकारे 'तद्' उदकम् 'उन्नामिजतें' 'उन्नाम्यते अन्येऽपिच पातालकलशाः शुद्धारारमंस्थिता कपणे । अत शतानि चतुरशीतीनि सप्त सहसाणि च सर्वेऽपि ॥ १॥ पाताखानी विभागाः सर्वेषामपि तात्रयस्त्रयो विशेषाः । अधस्तनमागे दायुः, मध्ये वायुध उदकं च॥२॥ उपरितनभागे उदकं भणितं, प्रथमद्वितीययोः वायुः संक्षुभित । ऊई। वामयति (निकाश यति) उदकं परिवर्द्धते जलनिधिः शुभितः॥१॥ दीप अनुक्रम २०२] 3c जी०५२ ~161 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५६ ] दीप अनुक्रम [२०२] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], ------- उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र)], • मूलं [१५६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३०७ ॥ ऊर्द्धमुत्क्षिप्यत इति भाव: । 'जया ण'मित्यादि यदा पुनः 'ण'मिति पुनरर्थे निपातानामनेकार्थखान् तेषां कपातालानां महापा तालानां चाधनमध्यमेषु त्रिभागेषु नो बहव उदारा वाताः संबियन्ते इत्यादि प्राग्वत् 'तया ण'मित्यादि तदा तदुकं 'नोशाम्यते' नोर्द्धमुत्क्षिप्यते उत्क्षेपकाभावान् एतदेव स्वष्टतरसाह - 'अंतराविय णमित्यादि, 'अन्तरा' अहोरात्रमध्ये लि: प्रतिनियते कालविभागे पक्षमध्ये चतुर्दश्यादिषु तिथिष्यतिरेकेण ते वाताः तथाजगत्स्वाभाव्यादुवीर्यन्ते धातूनामनेकार्थत्वादुत्पद्यन्ते, रातोऽन्तराअहोरात्रमध्ये द्विकृत्वः प्रतिनियते कालविभागे पक्षमध्ये चतुर्दश्यादिषु तिथिषु अतिरेकेण तत उदकमुन्नाम्यते । 'अंतराविय ण'मित्यादि, 'अन्तरा' प्रतिनियतकालविभागादन्यत्र ते वाताः 'नोदीर्यन्ते' नोपयन्ते तदभावान् 'अन्तरा' प्रतिनियतकालविभागादअन्यन्त्र कालविभागे उदकं नोन्नाम्यते उन्नामकाभावान् तत एवं खलु गौतम! लवणसमुद्रे चतुर्दश्यम्युटिपूर्णमासीषु तिथिषु 'अ|तिरेकमतिरेकम्' अतिशयेनातिशयेन वर्द्धते हीयते वेति ॥ तदेवं चतुर्दश्यादिषु तिथिष्यतिरेकेण जलवृद्धौ कारणमुक्तमिदानीमहोरात्रमध्ये द्विकृखोऽतिरेकेण जलबूडी कारणमभिधित्सुराह लक्षणं भंते! समुद्दा तीसाए मुहताणं कतिखुत्तो अनिरे २ वहनि वा हायति वा?, गोमालवणं समुदे तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अतिरेगं २ बहुति या हायति वा ॥ से केभंते! एवं बइ-लणं समुड़े तीसाए मुत्ताणं दुक्खुत्तो अइरेगं २ बहर वा हाय वा?, गोमा ! हमने पायासु यह आपूरितेस पायालेस हायह, से तेणट्टेणं गोपमा ! लवणे समुद्दे तीसा मुत्ताणं तुक्खुत्तो अइरेगं अइरेगं वहुइ वा हायइ वा ॥ (० १५७ ) For P&Praise City पतिपत उप बेलाबुद्धिः उदेशः २ सू० १५५ ~ 162 ~ ॥ ३०७ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश: '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७] - - 'लवणे णं भंते ! समुद्दे इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रखिंशतो मुहूर्तानां मध्येऽहोरात्रमध्ये इति भावः 'कतिकृत्वः' कतिवारान अतिरेकमतिरेक वर्धते हीयते वा? इति. तदेवं (प्रो) भगवानाह-गौतम ! विकृत्योऽतिरेकमतिरेक वर्द्धते हीयते वा ॥ 'से केणटेण'मित्यादि प्रश्नसूत्र सुगमं. भगवानाह-गौतम! 'उद्धमत्सु' अधस्तनमध्यगविभागगतवातलोभवशाजा लमूर्द्धमुरिक्षपत्सु 'पातालेषु' पातालकलशेष महत्सु लघुपु च बर्द्धते 'आपूर्यमाणेषु' परिसंखिते पवने भूयो जलेन नियमाणेपु 'पातालेषु' पातालक-15 हालशेष महत्सु लघुषु च हीयते 'से एएणडे णमित्यादि उपसंहारवाक्यम् ॥ अधुना लवणशिखावक्तव्यतामाह लवणसिहा भंते ! केवतियं चकवालविकाव भेणं केवनियं अइरेगं २ पनि वा हायति चा?, गोयमा! लवणसीहाए णं दस जोगणसहस्साई चकवालविश्वभेणं देणं अद्धजोपणं अनिरगं बहुनि वा हायति चा॥ लवणस्स गांभंते ! समुदस्स कति णागसाहस्सीओ अम्भितरियं वेलं धारंलि ?, कह नागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं धरनि?. कह नागसाहस्सीओ अग्गोदयं घरैनि?. गोयमा! लवणसमुहस्स यायालीसंणागसाहस्सीओ अभितरियं वेलं धारनि, थावत्सरि णागसाहस्सीओ पाहिरियं वेलं धारंति, सहिणागसाहस्सीओ अग्गोदयं धानि, एवमेव सपुवा चरेणं एगा णागसलसाहस्सी चोवत्तरिं च णागसहस्सा भवतीति मक्खाया । (स०१५८) 'टवणसिहा णं भंते!' इसादि, लवणशिखा भदन्त ! कियच्चक्रबालविष्कम्भेन? किया 'अतिरेकमतिरेकम्' अतिशयेन २ वर्द्धते | नाहीयते वा ?, भगवानाइ-गौतम लवणशिखा सर्वतश्चक्रबालविष्कम्भतया 'समा'समप्रमाणा दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेन पक्रया दीप अनुक्रम [२०३] - -- - ~163 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५८] दीप अनुक्रम [२०४] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) ------- उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र)], • मूलं [१५८ ] प्रतिपत्तिः [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा. जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३०८ ॥ लरूपतया विस्तारेण 'देशोनमर्द्धयोजनं गब्यूतद्वयप्रमाणम् 'अतिरेकमतिरेकम्' अतिशयेनातिशयेन वर्द्धते हीयते वा, इयमंत्र भावना-लवणसमुद्रे जम्बूद्वीपाद घातकीखण्डडीपाञ्च प्रत्येकं पञ्चनवतिपञ्चनवतियोजन सहस्राणि गोतीर्थ, गोतीर्थं नाम तडागादिष्विव प्रवेशमार्गरूपो नीचो नीचतरो भूदेशो, गोतीर्थमिव गोतीर्थमिति व्युत्पत्तेः, मध्यभागावगाहस्तु दश योजनसहस्रप्रमाणविस्तारः, गोतीर्थे च जम्बूद्वीपवेदिकान्तसमीपे धातकीखण्ड वेदिकान्तसमीपे चाङ्गुलायेयभागः, ततः परं समतला भूभागादारभ्य क्रमेण प्रदेशहान्या वाचनीचत्वं नीचतरखं परिभावनीयं यावत्पश्वनवतियो जनसहस्राणि पञ्चनवतियोजन सहस्रपर्यन्तेषु समतल भूभागमपेक्ष्यण्डलं योजनसहस्रमेकं तथा जम्बूद्वीपवेदिकातो घातकीखण्डद्वीपवेदिकातच ? तत्र समतले भूभागे प्रथमतो जलवृद्धिरलोभागः, ततः समतल भूभागमेवाधिकत्व प्रदेशवृद्ध्या जलवृद्धिः क्रमेण परिवर्द्धमाना तावत्परिभावनीया यावदुभयतोऽपि पञ्चनववियोजनसहस्राणि पञ्चनवतियोजन सहलपर्यन्ते चोभयतोऽपि समतल भूभागमपेक्ष्य जलवृद्धिः सप्तयोजनशतानि, किमुक्तं भवति ?-तत्र प्रदेशे समतल भूभागमपेक्ष्यावगाहो योजन सहस्रं तदुपरि जलवृद्धिः सप्त योजनशतानीति, ततः परं मध्ये भागे दश|योजन सहस्र विस्तारेऽवगाहो योजनसहस्रं जलवृद्धिः पोडश योजनसहस्राणि, पाताल कलशगतवायुशोभे च तेषामुपर्यहोरात्रमध्ये द्वौ बारौ किञ्चिन्यूने द्वे गव्यूते उदकमतिरेकेण वर्द्धते पातालकलशगतवायुपशान्तौ च दीयते, उक्तञ्च पंचाणउयसहस्से गोतिस्थं उभयतोवि लवणस्स । जोयणस्याणि सत्त उदगपरिवुड्डीवि उभयोवि ॥ १ ॥ दस जोयणसाहस्सा लवणसिहा चालतो रुंदा । १ लवणस्य उभयतोऽपि जनवतिः सहस्राणि गोतीर्थं तु । उदकपरिवृद्धिरपि उभयतोऽपि यप्त योजनशतानि ॥ १ ॥ लवणशिया चक्रवाततो दश योज सहस्राणि दन्दा For P&False City ३ प्रतिपत्तौ बेलाधराः उद्देशः २ सू० १५८ ~ 164 ~ ॥ ३०८ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५८] दीप अनुक्रम [२०४] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) ------- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], • मूलं [१५८ ] प्रतिपत्तिः [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः सोलेससहस्स उषा सहरसमेगं च ओगाढा || २ || देसूणमद्धजोयणलवणसिहोवरि दुगं दुबे कालो । अइरेगं २ परिवर हायए बावि || ३ ||" सम्प्रति बेलन्धरवक्तव्यतामाह-- 'लवणस्स णं भंते!' इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य कियन्तो नागसहस्रा नागकुमाराणां भवनपतिनिकायान्तर्वर्त्तिनां सहस्रा आभ्यन्तरिकी-जम्बूद्वीपा भिमुखां वेलां शिखोपरिजलं शिखां च- अर्वाक् पतन्तीं 'धरन्ति' धारयन्ति ? कियन्तो नागसहस्रा बाह्यां धातकीखण्डाभिमुखां वेळां धातकीखण्डद्वीपमध्ये प्रविशन्तीं वारयन्ति ?, किवन्तो वा नागसहस्राः 'अग्रोदकं' देशोनयोजनार्द्धजलादुपरि वर्द्धमानं जलं 'घरन्ति' वारयन्ति ?, भगवानाह गौतम ! द्विचत्वारिंशन्नागस हस्राण्याभ्यन्तरिकी वेलां घरन्ति द्वासप्रतिनगसहस्राणि वाह्यां वेलां घरन्ति, पष्टिर्नागसहस्राण्यमोदकं घरन्ति उक्तश्व "अँडिंभतरियं वेलं धरंति लवणोदहिस्ल नागाणं बायाडीससहस्सा दुसत्तरिसहस्सा बाहिरियं ॥ १ ॥ सहिं नागसहस्सा धरंति अग्गोदयं समुदस्स" इति। एवमेव 'सपूर्वापरेण' पूर्वापरसमुदायेन एकं नागशतसहस्रं चतुःसप्ततिश्च नागशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातानि मया शेषैश्च वीर्यकृद्भिः । कति णं भंते! वेलंधरा णागराया पण्णत्ता?, गोपमा ! चत्तारि वेलंधरा नागराया पण्णत्ता, तंजा - गोधूमे सिवए संखे मणोसिलए ॥ एतेसि णं भंते! चउन्हं वेलंधरणागरायाणं कति " पोडश योजना उसा सहस्रमेकं चावगाडा ॥ २ ॥ देशोनमर्द्धयोजनं लवणशिखोपरि द्विवारं द्वयोः कालयोः । अतिरेकमतिरेक परिवर्द्धते हीयते वा ॥ ३ ॥ २ आभ्यन्तरकी वेलां भारयन्ति योगानां । द्विवावारिंशत्सहस्राणि द्विसप्ततिसहस्राणि बाह्यां ॥ १ ॥ पष्टिनांगसहस्राणि धारयन्ति अमोदकं समुद्रस्य । For P&Praise Cly ~ 165~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 4 प्रत सूत्रांक [१५९] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्तौ वेलन्धरा वासादिः 151 उद्देशः२ सू०१५९ 4 2- ॥३०९॥ गाथा E7% आवासपञ्चता पण्णता? गोयमा! चत्तारि आवासपव्यता पण्णता, तंजहा-गोभे उदगभासे संखे दगसीमाए ॥ कहिणं भंते! गोथूभस्म वेलंधरणागरायस्स गोभे णाम आवासपश्यते प. पणते?, गोयमा! जंबूदीचे दीवे मंदरस्स पुरथिमेणं लवणं समुई बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्य णं गोथूभस्स वेलंधरणागरायस्स गोथूभे णामं आवासपथ्यते पण्णत्ते सत्तरसएकवीसाईजोयणसताई उर्दु उच्चत्तेणं चत्तारि तीसे जोयणसते कोसं च उवेधेणं मूले दसयावीसे जोयणसते आपामविक्खंभेणं मज्झे सत्ततेवीसे जोयणसते उरि चत्तारि चउवीसे जोयणसए आयामविक्खंभेणं मृले तिपिण जोयणसहस्साई दोपिणा य बत्तीसुत्सरे जोयणसए किंचिबिसेसूणे परिक्खेवेणं मजले दो जोयणसहस्साई दोषिण प छलसीते जोधणसने किंचि. विसेसाहिए परिक्खेवेणं उवरि एग जोयणसहस्सं तिपिण य ईयाले जोयणसते किंचिबिसेसणे परिक्खेवेणं मूले विस्थिपणे मज्झे संखित्ते उप्पि तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्यकणगामए अच्छे जाव पडिरूवे ॥ से णं एगाए पउमवरवेदियाए एगेण च वणसंडेणं सवतो समंता संपरिक्खित्ते, दोण्हवि चण्णओ ॥ गोथूभस्स णं आवासपब्बतस्स उपरि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पपणत्ते जाव आसयंति ॥ तस्स णं बहुसमरमणि जस्स भूमिभागस्स बहुमजादेसभाए एल्थ एगे महं पासायवटेंसए बावहूँ जोयणद्धं च उई उच्चत्तेणं तं चेव पमाणं अद्ध आयाम दीप 62-% अनुक्रम [२०५-२०६] ॥३०९॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९] गाथा विखंभेणं बण्णओ जाय सीहासणं सपरिवारं ॥ से केणट्टेणं भंते! एवं बुचड़ गोथूभे आवास पच्चए २१, गोयना! गोथूभेणं आवासपश्यते तत्थ २ देसे तहिं २ बहुओ खुड्डाखुड्डियाओ जाव गोधूभवणाई बहइं उप्पलाई तहेव जाब गोथभे तस्य देवे महिहीए जाय पलि ओवमट्टि. तीए परिवसति, से णं तत्थ चउपहं सामाणियसाहस्सीणं जाब गोधूमयस्स आवासपञ्चतस्स गोथूभाए रायहाणीए जाब विहरति, से लेण?णं जाब णिवे। रायहाणि पुच्छा गोषमा गोधभस्स आवासपथ्यतस्स पुरथिमेणं तिरियमसंखेजे दीवसमुरे वीनिवइत्सा अण्णंमि लवणसमुदतं चेव पमाणं तहेव सब । कहिणं भंते! सिवगस्स वेलंधरणागरायस्स दओभासणामे आवासपब्बते पपणसे?, गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दक्षिणेणं लवणसमुई बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एस्थ ण सिवगस्स वेलंधरणागरायरस दोभासे णामं आवासपचते पपणरो, तं चेव पमाणं जं गोधुभस्स, णवरि सब्बअंकामए अच्छे जाव पडिरूवे जाब अहोभाणियच्चो, गोयमा! दोभासे णं आवासपब्बते लवणसमुदे अजोयणियावेसे दगं सब्यतो समंता ओभासेति उज्जोवेति तवति पभासेति सिबए इत्य देवे महिड्डीए जाव रायहाणी से दक्विणेणं सिविगा दओभासस्स सेसं तं चेव ॥ कहि णं भंते! संखस्स वेलंधरणागरायस्स संखे णामं आवासपश्यते पण्णत्ते?, गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे मंदरस्स पब्वयस्स पचस्थिमेणं बाया -04- 24-24 दीप * अनुक्रम [२०५-२०६] *-*- ~167~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१५९ ] गाथा दीप अनुक्रम [२०५ -२०६] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३/२ (मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [(द्वीप समुद्र)], मूलं [ १५९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि यावृत्तिः ॥ ३१० ॥ लीसं जोपणसहस्साइं एत्थ णं संखस्स० वेलंधर० संखे णामं आवासपव्यते तं चैव पमाणं णवरं सव्रणाम अच्छे से णं एगाए परमवरवेदिवाए एगेण य वणसंडेणं जाव अट्ठो बहूओ खुडाखुडिआओ जाव बहूई उप्पलाई संखाभाई संखवण्णाई संखवण्णाभाई संखे एस्थ देवे महिडीए जाब रायहाणीए पथत्थिमेणं संखस्स आवासपव्ययस्स संखा नाम रायहाणी तं चैव पमाणं ॥ कहि णं भंते! मणोसिलकस्स वेलंधरणागरायस्स उदगसीमाए णामं आवासपव्वते पण्णत्ते ?, गोयमा ! जंबुद्दी २ मंदरस्स उत्तरेणं लवणसमुदं बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहिता पत्थ णं मणोसिलगस्स वेलंघरणागरायस्स उद्गसीमाए णामं आवासपव्वते पण्णत्ते तं चैव पमाणं वरि सव्वफलिहामए अच्छे जाव अट्ठो, गोपमा ! दगसीमंते णं आवासकवते सीतासीतोदगाणं महाणदीणं तत्थ गतो सोए पडिहम्मति से तेणद्वेणं जाव णिचे मणोसिंलए एत्थ देवे महिडीए जाव से णं तत्थ चउण्हं सामाणिय० जाव विहरति ॥ कहि णं भंते! मणोसिलगरस वेलंधरणागरास्स मणोसिला णाम रायहाणी?, गोषमा! दगसीमस्स आवासपव्वयस्स उत्तरेणं तिरि० अण्णंम लवणे एत्थ णं मलोसिलिया णाम रायहाणी पण्णत्ता तं चैव पमाणं जाव मणोसिलाए देखे - कणगंकरययफालियमया व वेलंधराणमावासा | अणुवेलंधरराईण पञ्चया होंति रयणमया ॥ १ ॥ ( सू० १५९ ) For P&Praise City ३ प्रतिपत्तौ वेलन्धरावासादिः उद्देशः २ सू० १५९ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 168~ ॥ ३१० ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % प्रत सूत्रांक [१५९] 20 234% R% गाथा 'कति णं भंते !' इत्यादि, कति भदन्त ! वेलन्धरनागराजाः प्रज्ञप्ता:?, भगवानाह-चत्वारो वेलन्धरनागराजा: प्रज्ञप्तास्त यथा-15 गोस्तूपः शिवकः शसो मनःशिलाकः ।। 'एएसि णमित्यादि, एतेषां भदन्त ! चतुर्णी वेलन्धरनागराजानां कति आवासपर्वताः प्रशप्ता:१, भगवानाह-गौतम! एकैकस्य एकैकभावेन चत्वार आवासपर्वता: प्रज्ञप्तास्तद्यथा-गोस्लूप उदकभासः शो दकसीमः ।।। 'कहि णं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! अस्मिन् जम्बूद्वीपे यो मन्दरपर्वतस्तस्य पूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं द्वा| चत्वारिंशतं योजनसहनाण्यवगाहाच गोस्तूपस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य गोस्तूपो नाम आवासपर्वतः प्रज्ञप्तः, सप्तदश योजनशतानि | एकविंशान्यूईमुस्लेन, चत्वारि योजनशतानि त्रिंशदधिकानि कोशं चैकमुद्वेधेन, उच्छ्यापेक्षयाऽवगाहस्य चतुर्भागभावात् , मूले दश योजनशतानि द्वाविंशत्युत्तराणि विष्कम्भत:, मध्ये सप्त योजनशतानि त्रयोविंशत्युत्तराणि, उपरि चलारि योजनशतानि चतु-18 [विंशत्युत्तराणि, मूले त्रीणि योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्वात्रिंशदुत्तरे किञ्चिद्विशेषोने परिक्षेपेण, मध्ये द्वे योजनसहले दे च योजनशते चतुरशीते किचिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण, उपर्येक योजनसहस्रं त्रीणि योजनशतानि एकचलारिंशानि किश्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण, ततो मूले विस्तीणों मध्ये सहित उपरि तनुकः, अत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थितो गोपुच्छस्याप्येवमाकारखान्, सर्वासना | हजाम्बूनदयः, 'अच्छे जाव पद्धिरूवे' इति प्राग्वत् ॥ से णमित्यादि, 'स:' गोस्तूपनामा आवासपर्वत एकया पद्मवरवेदिकया | एकेन च वनपण्डेन 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः सामस्त्येन संपरिक्षितः, द्वयोरपि चानयोवेदिकावनषण्डयोर्वर्णकः प्राग्वन् । 'गोथूभस्स णमित्यादि, गोस्तूपस्य णमिति पूर्ववद् आवासपर्वतस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, से जहा नामए आलिंग-1 पुक्खरेइ वा' इत्यादि प्राग्वद् थावत्तत्र बहवो नागकुमारा देवा आसते शेरते यावद्विहरन्तीति ।। 'तस्स णमित्यादि, तस्य बहुसमर दीप अनुक्रम [२०५-२०६] CSCRocka- kok Gree ~169~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९] गाथा श्रीजीवा-लमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महानेकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञमः, स च विजयदेवस्य प्रासादावतंसकसदृशो वक्तव्यः, प्रतिपत्तो जीवाभिस चैव-सार्दानि द्वापष्टियोजनानि उस्लेन, सक्रोशान्येकत्रिंशद् योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां, प्रासादवर्णनमुल्लोचवर्णनं च प्रा- वेलन्धरामलयगि-1४ ग्वन् । तस्य च प्रासादावतंसकस्यान्तबहुमध्यदेशभागे महत्येका सर्वरत्नमयी मणिपीठिका, सा च योजनायामविष्कम्भप्रमाणा गन्यू-18वासादिः रीयावृत्तिः तद्वयबाहल्या, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि महदे के सिंहासनं, तचेन्द्रसामानिकादिदेवयोग्यैर्भद्रासनैः परिवृतमिति ।। 'से केणढेणं उदेशः२ भंते !' इत्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते गोस्तूप आवासपर्वतो गोस्तूप आवासपर्वत: ? इति, भगवानाह-गौतम! गोस्तूपे | सू०१५९ ॥३११॥ आवासपर्वते क्षुल्लासु क्षुल्लिकासु वापीषु यावद्विलपङ्किषु बहून्युत्पलानि यावन् शतसहस्रपत्राणि गोस्लूपप्रभागि गोस्तूपाकाराणि गोदस्तूपवर्णानि गोस्नूपवर्णस्पेवाभा-प्रतिभासो येषां तानि गोस्तूपवर्णाभानि, ततस्तानि तदाकारत्वात् तद्वर्णत्वात्तवर्णसादृश्याच गोस्तूपानीति है प्रसिद्धानि, तद्योगादावासपर्वतोऽपि गोस्तूपः, अनादिकालप्रवृत्तोऽयं व्यवहार इति तेन नेतरेतराश्रयदोषः, एवमुप्तरत्रापि भावनीय, ४ा तथा गोस्नूपश्चात्र भुजगेन्दो भुजगराजो महर्दिको यावत्करणान् महाद्युतिक इत्यादि परिप्रहः, स च चतुर्णा सामानिकसहस्राणां चतमृणामामहिपीणां सपरिवाराणां तिहणों पर्षदो सप्तानामनीकानां समानामनीकाधिपतीनां षोडशानामात्मरक्षदेवसहस्त्राणां गोस्तूप-14 स्यावासपर्वतस्य गोस्तूपायाश्च राजधान्या अन्येषां च बहूनां गोस्नूपराजधानीवास्तव्यानां देवानां देवीनां चाविषयं यावद्विहरति, ततो गोस्तूपदेवस्वामिकत्वान गोस्तूपः, 'से एएणडेण'मित्याग्रुपसंहारवाक्यं प्रतीतम् । सम्प्रति गोस्तूपा राजधानी पृच्छति-'कहि णं भंते!' दाइत्यादि, क भदन्त ! गोस्तूपस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य गोस्तूपा नाम राजधानी अज्ञमा?, भगवानाह-गौतम! गोस्तूपस्यावासपर्व-1 ॥११ तस्य पूर्ववा दिशा तिर्यगसयान द्वीपसमुद्रान व्यतित्रज्याम्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादश योजनसहस्राण्यवगायात्रान्तरे गोलूपस्य भुज-11 दीप अनुक्रम [२०५-२०६] Doe* अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~170 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(दवीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९] 64- -- %-02 गाथा मागेन्द्रस्य भुजगराजस्य गोस्लूपा नाम राजधानी प्रज्ञता, सा च विजयराजधानीसदृशी वक्तव्या ।। तदेवमुक्तो गोसूपोऽधुना दकाभा-18 सवक्तव्यतामा-'कहिं णं भंते ! सिवगस्से त्यादि प्रभसूत्रं पाठसिद्धं, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणतो लबणसमुद्रं द्वाचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाझात्रान्तरे शिवकस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य दकामासो नामावासपर्वत: प्रज्ञप्तः, स च गोस्लूपबदविशेषेण वक्तव्यो यावत्सपरिवारं सिंहासनम् । अधुना नामनिमित्तं पिपृच्छिपुराह-'से केणढेण'मित्यादि | प्रभसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम! दकाभास आवासपर्वतो लबणसमुद्रे सर्वासु दिक्षु स्वसीमातोऽष्टयोजनिके-अष्टयोजनप्रमाणे क्षेत्रे यदुदकं तत् 'समन्ततः' सामस्येनातिविशुद्धाङ्कनामरत्नमयलेन स्वप्रभयाऽवभासयति, एतदेव पर्यायत्रयेण व्याचष्टे-उद्योतयति ४चन्द्र इब तापयति सूर्य इव प्रभासयति ग्रहादिरिव ततो दकं पानीयमाभासयति-समन्तत: सर्वासु दिक्षु अवभासयतीति दुका भासः, अन्यच शिवको नामात्र पर्वतेपु भुजगेन्द्रो भुजगराजो महद्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति । 'से णं तत्थ चउहैं। सामाणियसाहस्सीण'मित्यादि प्राग्वन् नवरमत्र शिवका राजधानी वक्तव्या, तस्मिश्च परिवसति स आवासपर्वतो दकमध्येऽनीबा भासते-शोभते इति दकाभासः, 'से एएणवण मित्याधुपसंहारवाक्यं गतार्थ, शिवकाराजधानी दकामासस्यावासपर्वतस्य दक्षिण| तोऽन्यस्मिन् लवणसमुद्रे विजयाराजधानीव भावनीया || अधुना शहनामकावासपर्वतयक्तव्यतामाह--'कहि णं भंते! इयादि का भदन्त ! शशस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य शलो नामावासपर्वतः प्रजनः ?. भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्यनस्य । पशिमायां दिशि लवणसमुद्रं द्वाचवारिंशतं योजनसहनाण्यवगायात्रान्तरे शनुमा भुजगेनला भुजगराजन्य शको नामावासपर्यत:। प्रशतः, म च गोस्नुपपदविठोपेण तावद कन्यो यावत्सपरिवारं सिंहासना ।। इहानी नामनिवन्धनभिषिस्मुराह-से केणद्वेण मि - दीप 30- REN-04- -anusaaron अनुक्रम [२०५-२०६] - - --- DR. Aatin L--- ~171 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * % % प्रत सूत्रांक [१५९] A गाथा श्रीजीया- त्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-शझे आवासपर्वते अल्लासु क्षुल्लिकासु पापीपु यावद्विलपतिषु बहून्युत्पलानि यावत् शतसहस्रप-16 प्रतिपक्षी जीवाभि० प्राणि शङ्खाभानि-शङ्काकाराणि शशवर्णानि-घेतानीति भावः शसवर्णाभानि-प्रायः शङ्कवर्णसदशवर्णानि, शशधात्र भुजगेन्द्रो भुज- 1 बलम्धरामलयगि- गराजो महद्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति । 'से णं तत्थ चउण्ई सामाणियसाहस्सी णमित्यादि प्राग्वन , नवरमत्र शाखा कावासादिः रीयावृत्तिः राजधानी वक्तव्या, तदेवं यतस्तद्रतान्युत्पलादीनि शशाकाराणि शदेवस्वामिकञ्चायमतः शङ्ख इति, से एएण?ण'मित्याधुपसंहार वाक्यं गतार्थ, शशा राजधानी शास्यावासपर्वतस्य पश्चिमायां दिशि तिर्यगसीयान् द्वीपसमुद्रान व्यतित्रज्यान्यस्मिन् वणसमुद्रे | ०१५५ पविजयाराजधानीसरशी वक्तव्या ॥ सम्प्रति दकसीमापर्वतवक्तव्यतामाह-'कहि णं भंते!' इत्यादि प्रशसूत्रं प्रतीतं, भगवानाह-151 गौतम! जन्यूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरतो लवणसमुद्रं वाचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाहा 'अत्र' एतस्मिन्नवकाशे मनःशिलकस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य दकसीमो नामावासपर्वत: प्रज्ञप्तः, सोऽपि गोस्तूपपर्वतबदविशेषेण ताबद्वक्तव्यो यावत्सपरिवार सिंहासनम् ॥ इदानीं नामनिमित्तं विभणिपुराह-'से केणटेण'मित्यादि प्रतीतं, भगवानाह-गौतम! दुकसीने आवासपर्वते शीताशीतोयोर्महानद्योः श्रोतांसि-जलप्रवाहास्तत्र गतानि सस्माच तेन प्रतिहतानि प्रतिनिवर्तन्ते ततो दकसीमाकारित्वाद् दकसीमः, दफस्य सीमा-शीताशीतोदापानीयस्य सीमा यत्रासौ दकसीम इति व्युत्पत्तेः, अन्यच मनःशिलको भुजगेन्द्रो भुजगराजो महर्द्धिको यात्रपल्योपमस्थितिकः परिवसति । 'से णं तत्थ चउहं सामाणियसाहस्सीण'मित्यादि प्राग्वत् नवरं मनःशिलाऽन्न राजधानी वक्तव्या, ततो मनःशिलस्य देवस्य दके-लवणजळमध्ये सीमा, आवासचिन्तायां मर्यादा, 'अत्रे'ति दकसीमे, मनःशिला च राजधानी दूकसी- ॥३१२॥ मस्यावासपर्वतस्योत्तरतस्तियंगसपेयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे विजयाराजधानीव वक्तव्या । तदेवमुक्ताश्चत्वा 1- दीप अनुक्रम [२०५-२०६] Jams1 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~172 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१५९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९] गाथा रोऽपि वेलन्धराणामावासपर्वताः, सर्वत्र प गोस्लूपेनातिदेशः कृतः, अत्र च मूलदले विशेष सतस्तमभिधित्सुराह-कणर्गकरवयफा-1 लियमया य वेलंधराणमावासा । अणुवेलंधरराईण पम्नया होति रयणमया ॥ १॥" वेलन्धराणां-गोस्तूपादीनामावासा गोस्तूपादयश्वलार: पर्वता यथाक्रमं कनकाकरजतस्फटिकमया:, गोस्तूप: कनकमयो दकाभासोऽकरत्नमयः शो रजतमयो दफसीमः स्फटिकमय इति, तथा महता वेलन्धराणामादेशप्रतीच्छकतयाऽनुयायिनो वेलन्धराश्वानुवेलन्धराः ते च ते राजानश्च अनुवेलन्धरराजास्तेपामावासपर्वता रत्नमया भवन्ति ।। कहण भंते ! अणुवेलंधररायाणो पण्णत्ता?, गोयमा! चत्तारि अणुचेलंधरणागरायाणो पण्णत्ता. तंजहा-ककोडए कदमए केलासे अरुणप्पभे॥ एतेसि णं भंते! चउण्हं अणुवेलंधरणागरायाणं कति आवासपब्वया पन्नत्ता?, गोयमा! चत्तारि आवासपब्बया पण्णत्ता, तंजहा ककोडए १ कदमए २ कइलासे ३ अरुणप्पभे ४ ॥ कहि ण भंते! ककोडगस्स अणुवेलंधरणागरायस्स ककोहए णाम आवासपब्वते पण्णत्ते?, गोयमा! जंबुद्दीव २ मंदरस्स पब्धयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं लवणसमुई यायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं ककोडगस्स नागरायस्स ककोडए णाम आवासपञ्चते पण्णसे सत्तरस एकवीसाई जोयणसताई तं चेव पमाणं जं गोथभस्स - बरि सम्वरयणामए अच्छे जाव निरवसेसं जाव सपरिवारं अट्ठो से बहई उप्पलाई ककोडप्पभाई सेसं तं चेव णवरि ककोडगपवयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं, एवं तं चेव सव्यं, कहमस्सवि सो दीप अनुक्रम [२०५-२०६] जी०५३ ~173 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६० प्रतिपत्ती | अनुवेल धरराजा. | वासादिः उद्देशः२ दीप श्रीजीवा- येव गमओ अपरिसेसिओ, वरि दाहिणपुरच्छिमेणं आवासो विजुप्पभा रायहाणी दाहिणपुजीवाभि रधिमेणं, कहलासेवि एवं चेव, णवरि दाहिणपञ्चत्थिमेणं कयलासाचि रायहाणी ताए येच दि. मलयगि- साए, अरुणप्पभेचि उत्तरपञ्चस्थिमेणं रायहाणीवि ताए चेव दिसाए, चत्तारि विगप्पमाणा सरीयावृत्तिः ब्वरयणामया य ॥ (सू०१६०) 'कह णमित्यादि, कति भदन्त ! अनुवेलन्धरराजा: प्रज्ञप्ताः ?, भगवानाह-गौतम ! चत्वारोऽनुवेलन्धरराजा: प्रज्ञाप्तास्तद्यथा-क- 151 कोटकः १ कर्दमः २ कैलास: ३ अरुणप्रभश्च । 'एएसि णमित्यादि, एतेषां भदन्त ! चतुर्णाभनुवेलन्धरराजानां कति आवासप|वताः प्रज्ञप्ता: ?, भगवानाह-गौतम! एकैकस्य एकैकभावेन चत्वारोऽनुवेलन्धरराजानामावासपर्वताः प्रतास्तद्यथा-कर्कोटको विद्यु प्रभः कैलास: अरुणप्रभश्च, कर्कोटकस्य कर्कोटक: कर्दमस्य विद्युत्प्रभ: कैलाशय कैलाश: अरुणप्रभस्यारुणप्रभ इत्यर्थः । 'कहिणं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरपूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं द्वाचवारिंशतं | योजनसहस्राण्यवगाह्य 'अत्र' एतस्मिन्नवकाशे कर्कोटकस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य कर्कोटको नामावासपर्वतकः प्रज्ञप्तः, 'सत्तरसएक|वीसाई जोयणसयाई' इत्यादिका गोस्तूपस्यावासपर्वतस्य या वक्तव्यतोक्ता सैबेहापि अहीनानतिरिक्ता भणितव्या, नवरं सर्वरनमय ५ इति वक्तव्यं, नामनिमित्तचिन्तायामपि यस्माच क्षुल्लाञ्जलिकासु वापीषु यावद्विलपटिपु बहून्युत्पलानि यावत् शतसहस्रपत्राणि कोंदाटकप्रभाणि कर्कोटकाकाराणि ततस्तानि कर्कोटकादीनि व्यवहियन्ते तद्योगात्पर्वतोऽपि कर्कोटकः, तथा कर्कोटकनामा देवस्तत्र प ल्योपमस्थितिकः परिवसति तत्त: कॉटकस्वामित्वात्ककोंटकः, राजधान्वपि कर्कोट स्याबासपर्वतस्योत्तरपूर्वस्यां दिशि तियंगसहयेयान | अनुक्रम [२०७] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~174. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * * प्रत * सूत्रांक [१६०] द्वीपसमुद्रान व्यतित्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादश योजनसहस्राण्यवगाहा कर्कोटकाभिधाना विजयाराजधानीव प्रतिपत्तव्या । एवं कर्दमकैलाशारुणप्रभवक्तव्यताऽपि भावनीया, नवरं जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य लवणसमुद्रे दक्षिणपूर्वस्या कर्दमको दक्षिणाप रयां कैलाश: अपरोत्तरस्यामरुणप्रभः, नामनिमित्तचिन्तायामपि यस्मात्कर्दमके आवासपर्वते उत्पलादीनि कर्दमकप्रभाणि ततः कर्द४ामकभावना प्रागिव, अन्यच कर्दमके विद्युत्पभो नाम देवः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स च स्वभावाद् यक्षकर्दमप्रियः, यज्ञकर्दमो नाम कुडमागुरुक'रकस्तूरिकाचन्दनमेलापकः, उक्त च--"कुङ्कमागुरुकर्पूरकस्तूरीचन्दनानि च । महासुगन्धमित्युक्तं, नामतो यक्षकर्दमम् ॥ १॥ ततः प्राचुर्येण यक्षकर्दमसम्भवाचासौ पूर्वपदलोपे सत्यभामा भामेतिवन् कर्दम इत्युच्यते, कैलाशे कैलाशप्रभाण्युत्पलादीनि कैलाशनामा च तत्र देवः पल्योपमस्थितिक: परिवसति तत: कैलाश:, एवमरुणप्रभेऽपि वक्तव्यं, कर्दमकाराजधानी कर्दमस्यावासपर्वतस्य दक्षिणपूर्वया कैलाशा कैलाशस्यावासपर्वतस्य दक्षिणापरयाऽरुणप्रभा अरुणप्रभस्यावासपर्वतस्यापरोत्तरया तिर्यगसपेयान द्वीपसमुद्रान व्यतित्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रेऽरुणप्रभाराजधानी विजयाराजधानीव वाच्या । कहि णभंते! सुट्टियस्स लवणाहिवहस्स गोयमदीवे णामं दीये पण्णते?, गोयमा! जंबुद्दीचे दीचे मंदरस्स पब्वयस्स पचत्यिमेणं लवणसमुहं बारसजोयणसहस्सा ओगाहित्ता एत्थ णं सुट्टियस्स लवणाहिवइस्स गोयमदीवे २ पण्णत्ते, बारसजोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं सत्ततीसं जोयणसहस्साई नव य अडयाले जोयणसए किंचिविसेसोणे परिक्खेवेणं, जंबदीवंतेणं अद्धेकोणण उते जोयणाई चत्तालीसं पंचणउतिभागे जोयणस्स सिए जलंताओ लवणसमुई दीप अनुक्रम [२०७]] - ~175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१६१] दीप अनुक्रम [२०८] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], ------- उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र )], • मूलं [ १६१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३१४ ।। Jan Eberton तेगं दो कोसे ऊसिते जलताओ । से णं एगाए य पडमवरवेइयाए एगेणं वणसंदेणं सव्वतो स मंता तदेव वण्णओ दोहवि । गोयमदीवस्स णं दीवस्स अंतो जाव बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णसे, से जहानामए - आलिंग० जाव आसयति । तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेस भागे एत्थ णं सुट्टियस्स लवणाहिवइस्स एगे महं अइकीलावासे नामं भोमेजविहारे पण बावहिं जोषणाई अद्धजोयणं उद्धं उच्चत्तेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं अणेTradeन भवणवण्णओ भाणिपव्वो । अइकीलावासस्स णं भोमेज विहारस्स अंतो बहुसमरमणिले भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीणं भासो । तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभा एत्थ एगा मणिपेडिया पण्णत्ता । सा णं मणिपेडिया दो जोयणाई आयामणिं जोयणवाहणं सव्यमणिमयी अच्छा जाव पडिवा ॥ तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एत्थ णं देवसयणिजे पण्णत्ते वण्णओ ॥ से केणट्टेणं भंते! एवं वुञ्चति-गोयमदीवे णं दीवे?, तत्थ २ तर्हि २ बहु उप्पलाई जाव गोयमप्पभाई से एएणद्वेणं गोयमा ! जाव णिचे। कहि णं भंते! सुस्स लवणाहिवइस्स सुट्टिया णामं रायहाणी पण्णत्ता?, गोयमदीवस्स पचत्थिमेणं तिरियमसंखेने जाव अण्णंमि लवणसमुद्दे वारस जोपणसहस्साई ओगाहिता, एवं तहेव सव्वं वंजाव सुत्थि देवे ॥ ( सू० १६१ ) For P&False Cly ३ प्रतिपत्ती गौतम द्वीप: उद्देशः २ सु० १६१ ~176~ ॥ ३१४ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१६१] दीप अनुक्रम [२०८] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३/२ (मूलं + वृत्तिः) ------ उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र )], मूलं [१६१] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja Eben int 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त ! सुस्थितस्य लवणाधिपस्य गौतमद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह - गौतम ! जम्बूद्धीपस्य पश्चिमायां दिशि लवणसमुद्र द्वादश योजनसहस्राण्यवगाद्यात्रान्तरे सुस्थितस्य लवणाधिपस्य गौतमद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, द्वा| दश योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भाभ्यां सप्तत्रिंशद्] योजनसहस्राणि नव चाष्टाचत्वारिंशानि किञ्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण, 'जंबूदीवंतेण मिति जम्बूद्वीपदिशि 'अर्कैकोननवतीनि' अर्द्धमेकोननवतेषां तानि अर्कैकोननवतीनि सार्द्धाष्टाशीतिसयानीति भावः योजनानि चत्वारिंशतं च पञ्चनवतिभागान् योजनस्य 'जलान्तात्' जलपर्यन्तादूर्द्धमुच्छ्रितः, एतावान् जलस्योपरि प्रकट इत्यर्थः, 'लवणसमुद्रान्ते' लवणसमुद्रदिशि द्वौ कोशौ जलान्तादुच्छ्रितौ द्वावेव कोशौ जलस्योपरि प्रकट इत्यर्थः ॥ 'से ण'मित्यादि, स ए| कथा पद्मवरवैदिकया एकेन बनवण्डेन सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्तः द्वयोरपि वर्णनं प्राग्वत् । तस्य च गौतमद्वीपस्योपरि बहुसमरमणीय भूमिभागवर्णनं प्राग्वद् यावत्तृणानां मणीनां च शब्दवर्णनं बाप्यादिवर्णनं यावद्भवो वानमन्तरा देवा आसते शेरते यावद्विह रन्तीति । तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेश भागेऽत्र सुस्थितस्व लवणाधिपस्य योग्यो महानेकः 'अतिकीलावासः' अव्यर्थ क्रीडावासो नाम भौमेयविहार: प्रज्ञमः सार्द्धानि द्वापष्टिर्योजनान्यूर्द्धमुचैस्त्वेन एकत्रिंशतं च योजनानि कोशमेकं च विष्कम्भेन 'अणेगखंभसय सन्निविद्वे' इत्यादि भवनवर्णनहोचवर्णनं भूमिभागवर्णनं च प्राग्वत् । तस्य च बहुसमरमणीयस्व भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र महत्येका मणिपीठिका पक्षमा, सा योजनमायामविष्कम्भाभ्यां अर्द्धयोजनं चाहल्येन सर्वाना मणिमयी अच्छा यावत्प्रतिरूपा | 'तीसे ण'मियादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि देवशयनीयं तस्य वर्णक उपर्यष्टाष्टमङ्गलकादिकं च प्राग्वत् ॥ नामनिमित्तं पिपुच्छपुराह— 'से केणद्वेणमित्यादि, अथ 'केनार्थेन' केन कारणेन एवमुच्यते-गौतमद्वीपो नाम द्वीपः ?, भगवा For P&Praise Cnly ~ 177 ~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------- मूलं [१६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६१] दीप अनुक्रम श्रीजीवा- नाह-गौतमद्वीपस्य शाश्वतमिदं नामधेयं न कदाचिन्नासीदित्यादि प्राग्वन् । पुस्तकान्तरेषु पुनरेवं पाठ:-गोयमदीवेणं दीवे तत्थ प्रतिपत्ती जीवाभि० ट्रातत्य तहिं तहिं बहूइंजप्पलाई जाब सहस्सपत्ताई गोयमप्पभाई गोवमबन्नाई गोयमवण्णाभाई इति, एवं प्राग्वद् भावनीयः । सुस्थि- जम्बूगतमलयगि तश्चात्र लवणाधिपो महद्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स च तत्र चतुर्णा सामानिकसहस्राणां यावल्पोडशानामात्मरक्षक- चन्द्रसूर्यरीयावृत्तिः हादेवसहस्राणां गौतमद्वीपस्य सुस्थितायाश्च राजधान्या अन्येषां च बहूनां वानमन्तराणां देवानां देवीनां चाधिपत्यं यावद्विहरति, तताद्वीपाः दएवमेव शाश्वतनामत्वात् , पाठान्तरे सद्गतानि उत्पलादीनि गौतमनभाणीति गौतमानीति प्रसिद्धानि ततस्तद्योगान्तथा, तदधिपति-6 उद्देशः२ ॥ ३१५॥ गतिमाधिपतिरिति प्रसिद्धं इति सामन्यादेष गौतमद्वीप इति । उपसंहारमाह-'से तेण्डेण'मित्यादि गतार्थम् ।। सम्प्रति जम्बूढी- सू०१६२ पगतचन्द्रसत्कद्वीपप्रतिपादनार्थमाह कहिणं भंते ! जंबुद्दीवगाणं चंदाणं चंददीवा णाम दीवा पण्णत्ता?, गोयमा! जंबूडीवे २ मंदरस्स पबयस्स पुरच्छिमेणं लवणसमुदं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं जंजूदीवगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता, जंबुद्दीनेणं अढेकोणणउइ जोयणाई चत्तालीसं पंचाणउति भागे जोयणस्स ऊसिया जलंतातो लवणसमुदंतेणं दो कोसे ऊसिता जलंताओ, बारस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, सेसं तं चेव जहा गोतमदीवस्स परिक्खेचो पउमवरवेड्या पत्तेयं २ वणसंडपरि० दोपहवि वणओ बहुसमरमणिजा भूमिभागा जाव जोइसिया ॥३१५॥ देवा आसयंति । तेसि णं बहसमरमणिले भूमिभागे पासायब.सगा बावढि जोयणाई बहुम [२०८] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१६२-१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२ -१६६] गाथा जझ० मणिपेढियाओ दो जोयणाई जाच सीहासणा सपरिवारा भाणियब्वा तहेव अट्ठो, गोयमा! बहुसु खुड्डासु खुड्डियासु बहई उपपलाई चंदवण्णाभाई चंदा एस्थ देवा महिहीया जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, ते णं तत्थ पत्तेयं पत्तेयं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाब चंददीवाणं चंदाण य रायहाणीणं अन्नेसिं च बहणं जोतिसियाणं देवाणं देवीण य आहेवर्ष जाव विहरंति, से लेणदेणं गोयमा! चंददीया जाव णिचा । कहिण भंते! जंवडीवगाणं चंदाणं चंदाओ नाम रायहाणीओ पण्णताओ?, गोयमा! चंददीवाणं पुरस्थिमेणं तिरियं जाव अण्णमि जंबूहीये २ वारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता तं चेव पमाण जाव एमहिड्डीया चंदा देवा २॥ कहिण भंते ! जंबुद्दीवगाणं सराणं मरदीवा णाम दीवा पण्णत्ता?, गोयमा! जंबूहीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स पचस्थिमेणं लवणसमुह बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता तं चेव उच्चत्तं आयामविखंभेणं परिक्खेवो वेदिया वणसंडा भूमिभागा जाव आसयंति पासायव.सगाणं तं चेव पमाणं मणिपेदिया सीहासणा सपरिवारा अट्ठो उप्पलाई सूरप्पभाई सूरा एस्थ देवा जाव रायहाणीओ सकाणं दीवाणं पचस्थिमेणं अपणंमि जंबहीवे दीवे सेसं तं चेव जाव सरा देवा ।। (सू० १६२) कहि णं भंते! अभितरलावणगाणं चंदाणं चंददीचा णाम दीवा पपणत्ता, गोयमा! जंबहीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स पुरस्थिमेणं लवणसमुदं चारस जोयण दीप अनुक्रम [२०९ 456296- 04-10-%% -२१६] ~179 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१६२-१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवा-1 जीवाभि० [१६२ मलयनि ३ प्रतिपत्ती लवणगत चन्द्रसूर्यहाद्वीपादि उद्देशः२ सू०१६३ -१६६] रीयावृत्तिः ॥३१६॥ 2-545056Rociet-TEGORY गाथा सहस्सा ओगाहिसा एत्य णं अम्भितरलावणगाणं चंदाणं चंददीवा णाम दीवा पणत्ता. जहा जबडीवगा चंदा लहाभाणियब्वा वरि रायहाणीओ अपर्णमि लवणे सेसं तं चेव । एवं अभितरलावणगाणं सूराणचि लवणममुर थारस जोयणसहस्साई लहेब सव्वं जाव रायहाणीओ। कहिणमंते ! बाहिरलावणगाणं चंदाणं चंददीवा पण्णता?, गोयमा! लवणस्स समुहस्स पुरस्थिमिमाओ दियंताओ लवणसमुदं पचत्धिमेणं वारस जोयणसहस्साई ओगाहिसा एस्थ णं चाहिरलावणगाणं चंददीया नाम दीवा धपणत्ता धायतिसंडदीवंतेणं अद्वेकोणणवतिजोयणाईचत्तालीसं च पंचणउतिभागे जोयणस्स ऊसिता जलंतातो लवणसमुदंतेणं दो कोसे ऊ. सिता वारस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं पउमवरवेइया वणसंहा बहसमरमणिजा भमिभागा मणिपेठिया सीहासणा सपरिवारा सो चेव अहो रायहाणीओ सगाण दीवाणं पर स्थिमेणं तिरियमसं० अण्णंमि लवणसमुद्दे तहेव सव्वं । कहि णं भंते! बाहिरलावणगाणं सूराणं सूरदीवा णाम दीया पणत्ता? गोयमा! लवणसमुहपचस्थिमिल्लातो वेदियंताओ लवणसमुदं पुरस्थिमेणं बारस जोयणसहस्साई धायतिसंडदीवंतेणं अद्वेकूणणउतिं जोषणाई चत्तालीसं च पंचन उतिभागे जोयणस्स दो कोसे ऊसिया सेसं तहेव जाच रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पञ्चस्थिमेणं तिरियमसंखेजे लवणे चेव वारस जोषणा तहेव सर्व भाणियब्वं ॥ EMERGAOCOCCASIC दीप अनुक्रम [२०९-२१६] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~180 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१६२ -१६६] + गाथा दीप अनुक्रम [२०९ -२१६] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [ ३ ], • उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], -मूलं [१६२ १६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ( सू० १६३ ) कहि णं भंते! घायतिसंडदीवगाणं चंद्राणं चंददीवा पण्णत्ता ?, गोयमा ! धायतिiste tree पुरथिमिल्लाओ वेद्रियंताओ कालोयं णं समुहं वारस जोयणसहस्साई ओगाहिता एत्थ णं धायतिसंडदीवाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता, सच्चतो समता दो कोसा ऊसिता जलताओ बारस जोयणसहस्साई तहेव विक्खभपरिक्खेवो भूमिभागो पासा - यवसिया मणिपेडिया सीहासणा सपरिवारा अडो तहेव रायहाणीओ, सकाणं दीवाणं पुरथिमे अण्णंम पायतिसंडे दीवे मेसं तं चैव एवं सूरदीवावि, नवरं धायrista atarr पचत्थिमिला तो वेदियंताओ कालोयं णं समुदं बारस जोयण० तहेव सव्वं जाव रायहाणीओ सूराणं दीवाणं पचत्थिमेणं अण्णंम धायइसंडे दीवे सवं तहेव ॥ (सू० १६४ ) कहि णं भंते ! कालोयगाणं चंद्राणं चंद्रदीवा पण्णत्ता?, गोयमा ! कालोपसमुहस्स पुरच्छिमिल्लाओ वेदियंताओ कालो समुपस्थिमेण वारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं कालोपगचंद्राणं चंaatar at aint दो कोसा ऊसिता जलतातो सेसं तहेव जाव रायहाणीओ सगाणं atre पुरच्छिमेणं अण्णंम कालोयगसमुद्दे वारस जोयणा तं चैव सव्वं जाव चंदा देवा २ । एवं राणवि, वरं कालोयगपद्यत्थिमिलानो वेदिगंतातो कालोपसमुदपुरच्छिमेणं वारस जोयणसहस्साई ओगाहिता तदेव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पञ्चस्थिमेणं अण्णमि कालोपत For P&Peralise Cinly ~ 181 ~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१६२-१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२ -१६६] श्रीजीवा हेव सव्वं । एवं पुखरवरगाणं चंदाणं पुक्खरवरस्स दीवस्स पुरथिमिल्लाओ वेदियंताओ पुकख- है प्रतिपत्ती जीवाभि० रसभुदं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता चंददीवा अण्णमि पुकखरवरे दीवे रायहाणीओत- धातकीमलयगि हेव । एवं सूराणधि दीवा पुक्खरचरदीवस्स पचस्थिमिल्लाओ वेदियंताओ पुक्वरोदं समुई वा- कालोदचरीयावृत्तिः रस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता तहेव सव्वं जाव रायहाणीओ दीबिल्लगाणं दीवे समुद्दगाणं टान्द्रमूर्यसमुदे चेव एगाण अधिभतरपासे एगाणं बाहिरपासे रायहाणीओ दीविल्लगाणं दीवेसु समुह- द्वीपादिः ॥३१७॥ गाणं समुद्देसु सरिणामतेसु (सू० १६५ ) इमे गामा अणुगतब्वा, जंबुद्दीवे लवणे धायइ कालोद दिउद्देशः२ पुखरे वरुणे । खीर घय इक्खुबिरो यगंदी अमणवरे कुंडले रुयगे ॥१॥ आभरणवत्वगंधे जु सू०१६४प्पलतिलते य पुढवि णिहिरयणे । वासहरदहनईओ विजया वक्वारकप्पिदा ॥ २॥ पुरमंदरमावासा कडा णक्खसचंदमराय। एवं भाणियन्वं ।। (म०१०६) द्वीपस'कहिणं भंते !" इत्यादि । क भदन्त ! जम्बूद्वीपगतयोर्जम्बूद्वीपसत्कयोश्चन्द्रयोश्चन्द्रद्वीपौ नाम द्वीपी प्रज्ञप्ती ?, भगवानाह-गो-II मद्राः हायमे'त्यादि सर्व गौतमद्वीपत्रपरिभावनीयं, नवरमत्र जम्बूद्वीपस्य पूर्वम्यां दिशीति वक्तव्यं, तथा प्रासादावतंसको वक्तव्यः, तस्य पा-18सू०१६६ सयामादिप्रमाणं तथैव, नामनिमित्तचिन्तायामपि यस्माक्षुल्लिकावाप्यादिषु बहूनि उत्पलादीनि यावत्सहसपत्राणि चन्द्रप्रभाणि-चन्द्रव-5 नि, चन्द्रौ च ज्योतिपेन्द्रौ ज्योतिपराजी महद्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः, तो चन्द्रौ प्रत्येक चतुर्णा सामानिकसहस्राणां ॥३१७ ।। चतमृणामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिमृणां पर्षदां सपानामनीकानां समानामनीकाधिपतीनां पोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणां स्वस्थ KochACANCock गाथा दीप अनुक्रम [२०९-२१६] Janmit अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~182 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१६२ -१६६] + गाथा दीप अनुक्रम [२०९ -२१६] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३/२ (मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [३], उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], मूलं [ १६२ - १६६ ] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः स्वस्य चन्द्रद्वीपस्य स्वस्याश्चन्द्राभिधानाया राजधान्या अन्येषां च बहूनां ज्योतिषाणां देवानां देवीनां चाधिपत्यं यावद्विहरतः । तततोपलादीनां चन्द्राकारत्वाचन्द्रवर्णत्वाचन्द्रदेवस्या मिला तो चन्द्रद्वीप इति चन्द्राभिधे च राजधान्यौ तयोश्चन्द्रद्वीपयोः पूवैम्यां दिशि तिर्यगसोयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतित्रज्यान्यस्मिन जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वादश योजनसहस्राण्यवगा विजयाराजधानीसदृश्यो वक्तव्ये । एवं जम्बूद्वीपगतसूरसत्कसूर्यद्वीपात्रपि वक्तव्यौ, नवरं जम्बूद्वीपस्य पश्चिमायां दिशि एनमेत्र लवणसमुद्रमवगाह्य वक्तव्यं, राजधान्यावपि स्वकद्वीपयोः पश्चिमायां दिशि अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे वक्तव्ये, शेषं सर्व चन्द्रद्वीपवद्भावनीयं नवरं चन्द्रस्थाने सूर्यग्रहणमिति ॥ सम्प्रति लवणसमुद्रगत चन्द्रादित्यद्वीप वक्तव्यतामाह- 'कहि णं भंते!' इत्यादि, लवणे भवौ लावणिक अभ्यन्तरौ च तो लावणिकौ च अभ्यन्तरलावणिक शिखाया अर्वाकचारिणावित्यर्थः तयोः सूत्रे द्विवेऽपि बहुवचनं प्राकृतवान् शेषं सुगमं, भगवानाह - गौतम! जम्बूद्वीपस्य पूर्वस्यां दिशि एनमेव लवणसमुद्रं द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्य 'अत्र' एतस्मिन्नवकाशे अभ्यन्तरलावणिकयोश्चन्द्रयोअन्द्रद्वीपो नाम द्वीपो वक्तव्यों, इत्यादि जम्बूद्वीपगतचन्द्रसत्कचन्द्रद्वीपवन्निरवशेषं वक्तव्यं, नवरमन्त्र राजधान्यौ खकीययोपयोः पूर्वस्यां दिशि अन्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादश योजनसहस्राण्यवगाहा वेदितव्ये । एवमभ्यन्तरावणिक सूर्यसत्कसूर्यद्वीपावपि वक्तव्यो नवरं तौ जम्बूद्वीपस्य पश्चिमायां दिशि एनमेव लवणसमुद्रं द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्य वक्तव्यो राजधान्यावपि स्वकीययोः द्वीपयोः पश्चिमायां दिशि अन्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादशः योजनसहस्राण्यवगाह्येति । 'कहि णं भंते!" इत्यादि के भदन्त ! वालावणिकयोश्चन्द्रयोधन्द्रद्वीपो नाम द्वीपो प्रज्ञप्तौ ?, बालावणिको नाम स्वणसमुद्रे शिखाया बहिचारिणौ चन्द्रौ भगवानाह गौतम ! लवणसमुद्रस्य पूर्वस्माद्वेदिकान्तादवग् लवणसमुद्रं पश्चिमदिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्यान वाह्यलावणिकयोश्चन्द्रयो For P&Praise City ~ 183 ~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], --------------------उद्देशक: [(दवीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१६२-१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२ -१६६] गाथा श्रीजीवा- न्द्रद्वीपौ नाम द्वीपौ प्रज्ञप्ती, तौ च धातकीपण्डद्वीपान्तेन-धातकीपण्डद्वीपदिशि अकोननवतियोजनानि चत्वारिंशतं च पश्चनबति- प्रतिपत्ती जीवाभि० भागान् योजनस्वोदकादूईमुच्छ्रितो लवणसमुद्रदिशि द्वौ कोशी, शेषवक्तव्यताऽभ्यन्तरलावणिकचन्द्रद्वीपवरक्तव्या, अत्रापि च राज- चन्द्रसूर्यमलयगि-18 धाग्यो स्वकीययोद्वीपयोः पूर्वस्यां तिर्यगस होयान द्वीपसमुद्रान व्यतित्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे वक्तव्ये, एवं बाझालावणिकसूर्यसत्क- द्वीपादिः रीयावृत्तिः सूर्यद्वीपावपि वक्तव्यो, नबरमत्र लवणसमुद्रस्य पश्चिमाद् वेदिकान्तालवणसमुद्रं पूर्वस्यां दिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाोति व- उद्देशः |क्तव्यं, राजधान्यावपि स्वकयोपियोः पश्चिमायां दिशि अन्यस्मिन् लवणसमुद्रे इति ।। सम्प्रति धातकीपण्डगत चन्द्रादित्यद्वीपवक्तव्य-IN०१६६ नामभिधित्सुराह-'कहिणं भंते !' इत्यादि, क भदन्त! धातकीपण्डद्वीपगतानां चन्द्राणां, तत्र द्वादश चन्द्रा इति बहुवचनं, च-16 न्द्रद्वीपा नाम द्वीपा: प्रज्ञप्ता: ?, भगवानाह-गौतम! धातकीपण्डस्य द्वीपस्य पूर्वस्यां दिशि कालोई समुद्रं द्वादश योजनसहस्राण्यवगा-6 यात्र धातकीपण्डगतानां चन्द्राणां चन्द्रद्वीपा नाम द्वीपा: प्रज्ञप्ताः, ते च जम्बूद्वीपगतचन्द्रसत्कचन्द्रद्वीपवद्वक्तव्याः, नवरं ते सर्वाम् । दिक्षु जलादूई द्वौ कोशौ उच्छ्रिती इति वक्तव्यं, तत्र पानीयस्य सर्वत्रापि समत्वाद्, राजधान्योऽपि तेषां स्वकीयानां द्वीपानां पूर्वतस्तियंगसयान द्वीपसमुद्रान् व्यतित्रज्यान्यस्मिन् धातकीपण्डे द्वीपे द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह विजयाराजधानीवद्वक्तव्याः, एवं धातकीपण्डगतसूर्यसत्कसूर्यद्वीपा अपि वक्तव्याः, नवरं धातकीपण्डस्य पश्चिमान्ताद्वेदिकान्तात्कालोदसमुद्रं द्वादश योजनसहस्राण्यवगाय वक्तव्याः, राजधान्योऽपि स्वकीयानां सूरद्वीपानां पश्चिमविशि अन्यस्मिन् धातकीपण्डे द्वीपे शेष तथैव ॥ सम्प्रति कालोदस-13 मुद्रगतचन्द्रादित्यसत्कद्वीपबक्तव्यतां प्रतिपिपादयिपुराह-'कहिणं भंते!' इत्यादि, 'कालोयगाण'मिलयादि, क भदन्त ! 'कालोद-८॥३१८॥ गाना' कालोदसमुद्रसत्कानां चन्द्राणां चन्द्रद्वीपा नाम द्वीपा: प्रज्ञप्ताः', भगवानाह-गौतम! कालोदसमुद्रस्य पूर्वस्माद् वेदिकान्ता दीप अनुक्रम [२०९-२१६] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् ~184 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१६२-१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२ - -१६६] % गाथा तारकालोदसमदं पश्चिमदिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाहात्र कालोदसमुद्गतचन्द्राणां चन्द्रद्वीपा: प्रज्ञप्ता:, ते च सर्वासु दिक्ष जला दुईवी दीकोशावुद्रिती, शेष तथैव । राजधान्योऽपि स्वकीयानां द्वीपाना पूर्वस्त्यां दिशि तिर्यगसषेयान् द्वीपसमुद्रान व्यवित्रज्या४ाम्यस्मिन् कालोदसमुद्रे द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह विजयाराजधानीवद्वक्तव्याः । एवं कालोदगतसूर्यसत्कसूर्यद्वीपा अपि वक्तव्याः । नवरं कालोदसमुद्रस्य पश्चिमान्ताद्वेदिकान्तात्कालोइसमुद्रं पूर्वदिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाति नक्तव्यं, राजधान्योऽपि स्वकीयाना द्वीपानां पश्चिमदिशि अन्यस्मिन् कालोदसमुद्रे, शेष तथैव । एवं पुष्करवर द्वीपगतानां चन्द्राणां पुष्करवरद्वीपस्य पूर्वमा टेदिकातात्पुष्करोदसमुपं द्वादश योजनसहसाण्यवगाहा द्वीपा वक्तव्याः, गजधान्यः खकीयानां द्वीपानां पत्रिमदिशि लियंगसायान द्वीपसमुद्रान व्यतित्रज्यान्यग्मिन पुष्फरवरखीपे द्वादश योजनसहवाग्यवगाहा, पुष्करवरद्वीपगतसूर्याणां द्वीपाः पुष्करवरद्वीपस्य पश्चिमाता द्वेदिकान्तात्पुष्करवरसमुद्रं द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह प्रतिपत्तव्याः, राजधान्यः पुनः खकीयानां द्वीपानां पश्चिमदिशि नियंगसाका पायाम द्वीपसमुद्रान् व्यतिन्त्र ज्यान्यस्मिन् पुष्करपरतीपे द्वादशा योजनसहमाण्यवगाह, पुष्करवरसमुद्रगतचन्द्रसत्कचन्द्रद्वीपाः पुष्करवर-13 समुद्रख पूर्वम्मा दिकान्ताल्पश्चिमदिशि द्वादश योजनमहमाण्यवगाय प्रतिपत्तव्याः, राजधान्य: खकीयानांद्वीपानां पूर्वदिशि| नियंगसशयान दीपसमुद्रान व्यतित्रज्यान्यग्मिन पुष्फरवरम मुझे द्वादश बोजनसहनेभ्यः परतः, पुष्करपरसमुद्रगतसूर्यसत्कसूर्य दीपा: पुष्करबरसमुद्रख पश्चिगान्ताद्वेदिकान्तारपूर्वती द्वादश बोजनमहमाण्यवगाह्म, राजधान्यः पुनः स्वकीयाना द्वीपानां पश्चिमदिशि तियंगसलग्यान द्वीपसमुद्राम व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् पुष्करोदसमुद्रे झादश योजनसहमाण्यवगाहा प्रतिपत्तग्याः । एवं शेषद्वीपगनानामपि चन्द्राणां चन्द्रद्वीपगतात्पूर्वस्माद्वेदिकान्तादनन्तरे समुद्रे द्वादश योजनसहस्राण्यवगाय वक्तव्याः, सूर्याणां सूर्यद्वीपा: स्वखद्वीपगतात्पजी०५ % दीप अनुक्रम [२०९ % -R -२१६] % L ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], -------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१६२-१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * 1% प्रत सूत्रांक [१६२ -१६६] गाथा श्रीजीवा- श्रिमान्ताद्वेदिकान्तादनन्तरे समुद्रे, राजधान्यचन्द्राणामालीवचन्द्रद्वीपेभ्यः पूर्वदिशि अन्यस्मिन सदृशनामके २ द्वीपे, सूर्याणामप्या- प्रतिपनी जीवाभि |सीयसूर्यद्वीपेभ्यः पश्चिमदिशि तस्मिन्नेव सदृशनामके ऽन्यसिमन द्वीपे द्वादश योजनमहोभ्यः परतः, शेषसमुद्रगतानां तु चन्द्राणां देवीपामलयगि- चन्द्रद्वीपा: स्वखसमुद्रस्य पूर्वस्गाद्वेदिकान्तात्पनिमदिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाय, सूर्याणां तु स्वस्वसमुद्रस्य पश्चिमान्ताद्वेदिका- दिचन्द्रमरीयावृत्तिः तात्पूर्वदिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगाय, चन्द्राणां राजधान्यः स्वस्खदीपानां पूर्वदिशि अन्यस्मिन सहशनामके समुद्रे, सूर्याणां यद्वीपाः राजधान्यः स्वखतीपानां पश्चिमदिशि, केवलमवेतनशेषद्वीपसमुहगतानां चन्द्रसूर्याणां राजधान्योऽन्यस्मिन सरशनामके द्वीपे समुद्रे | उदेशः२ ॥३१९॥ 181वाडीतने वा पश्चात्तने वा प्रतिपत्तव्या नातन एवान्यथाइनवस्थाप्रसाके: ।। एतच देवद्वीपादोक् सूर्यवराभासं यावद्, देवडीपादिपु सू०१६। हैतु राजधानी: प्रति विशेषस्तमभिधित्सुराह कहिण भने ! देवहीवगाणं चंदाणं चंददीवा णाम दीया पपणता?, गोयमा! देवदीवस्स देवोदं समुदं पारस कोयणसहस्साई ओगाहित्ता नेणेच कमेण पुरथिमिल्लाओ बेइयंताओ जाब रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरस्थिमेणं देवहीवं ममुई असंखेजाई जोयणसहस्माई ओगाहित्ता एत्थ णं देवदीवधाणं चंदाणं चंदाओ णामं रायहाणीओ पपणत्ताओ, सेसं तं चेव, देवदीवचंदा दीवा, गवं सराणवि, णवरं पञ्चस्थिमिल्लाओ वेदियंताओ पञ्चत्थिमेणं च माणितव्वा, नमि चेव समुद्दे ॥ कहि भंते ! देवसमहगाणं चंदाणं चंददीवा णाम दीवा पण्णता?, गोयमा! देवोदगस्स समुइगस्स पुरथिमिल्लाओ वेदियंताओ देवोदगं समुदं पञ्चत्थिमेणं बारस जोयणसहस्साई तेणेव -64 दीप अनुक्रम [२०९-२१६] 0-9 6 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~186 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१६७ -१६९] दीप अनुक्रम [२१७ -२१९] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ /२ (मूलं + वृत्तिः ) ------ उद्देशक: [( द्वीप - समुद्र)], - मूलं [१६७-१६९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रतिपत्ति: [३], कमेण जाव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पञ्चत्थिमेणं देवोदगं समुद्दे असंखेलाई जोयणसहस्साई ओगाहित्ता त्थ णं देवोदगाणं चंद्राणं चंदाओ णामं रायहाणीओ पण्णत्ताओ, तं चैव सव्वं, एवं सुरागवि, णवरि देबोदगस्स पञ्चत्थिमिलानो वेतियंतातो देवोदगसमुदं पुरस्थिमेणं वारस atureहस्सा ओगाहित्ता राहाणीओ सगाणं २ दीचाणं पुरस्थिमेणं देवोदगं समुहं असंखेजाई जोयणसहस्साई | एवं जागे जब भूतेवि चण्डं दीवसमुद्दाणं । कहि णं भंते! सयंभूरसीवगाणं चंद्राणं चंडीचा गानं डीवा पण्णत्ता ?, सयंभुरमणस्स दीवस्स पुरथिमिलानो - fanta aierमणोगं सवार जोषणहस्साई तहेब रायहाणीओ सगाणं २ दीवाणं मेरो नमुदं पुरस्थमेणं असंखेझाई जोयण० संव, एवं सूराणवि, सर्वare effect दियंताओ हामी सकाणं २ दीवाणं पञ्चत्थिमिलाणं सयंभुरमणोदं समुदं असंज्ञा से तं चैव । कहि णं भंते! सयंभूरमनुकाणं चंद्रा, सर्वरस सहल पुरथिमिलाओ तितो ससुरमणं समुत्थिमेणं वारस जोवणसइस्साई ओगाहिता, सेसं तं चैव । एवं रागवि, सर्वमुरमणस्स पञ्चत्धिमिल्लाओ सर्वभुरमणोदं समुदं पुरत्थिमेणं वारस जोयणसहत्साई ओगाहित्ता रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरत्थिमेणं सयंरमणं समुहं असंखेजाई जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, एत्थ णं सर्पभुरमण जाव सूरादेवा For P&Pale City ~ 187 ~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१६७-१६९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवाः सूत्रांक [१६७-१६९] जीवाभिः मलयगिरीयावृत्तिः १३२०॥ 2-%9446 प्रतिपत्ती घालवणे वे लन्धरा धाः उ. है! च्छितोद त्वादिच उद्देशः२ -6-%% दीप अनुक्रम ।। (सूत्रं १६७) अस्थिणं भंते ! लवणसमुद्दे वेलंधराति वा णागराया खन्नाति वा अग्घाति वा सिंहाति या विजाती या हासवट्टीति?, हंता अस्थि । जहा णं भंते! लवणसमुद्दे अस्थि चेलंधराति या णागराया अग्घा सिंहा विजाती वा हासवडीति वा तहाणं बाहिरनेवि समुहेसु अस्थि वेलंधराइ वा णागरायाति या अग्याति वा सीहाति वा विजातीति वा हासबट्टीसि वा?, पो तिण? समझे। (मन्नं १३८) लवणे णभंते ! समुहे किं ऊसितोदने कि पत्थडोडो कि खुभिपजले कि अभियजले?, गोयमा! लवणे णं सम जसिओदगे नो पन्थडोदो मुभिाजले नो अक्खुभियजले । जहा णं भंते ! लवणे समुद्दे ओसिलोवगे नो पत्थडोदने म्युमिरानो अक्खुभियजरले सहा णं याहिरगा समुद्दा कि असिओदगा पत्थडोद्या खुभियजला अभियजला?, गोयमा! बाहिरगा समुहा नो उस्सितोदगा पत्थडोदगा नो खुभियाला अक्खुभियजला पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलहमाणा बोसहभाणा समभरघडताए चिट्ठति ।। अस्थि णं भंते! लवणसमुदे बहवो ओराला बलाहका संसेयंति संमुच्छंति वा वासं वासंति बा?, हंता अस्थि । जहा णं मंते ! लवणसमुदे बहवे ओराला बलाहका संसेयंति संभुच्छंति वासं वासंति वा तहा गं बाहिरएसुवि समुद्देसु बहवे ओराला बलाहका संसेयंति संमुळंति वासं वासंनि?, गो तिणढे समढे, से केण?ण भंते! एवं वुचति वाहिरगा णं समुद्दा पुण्णा पुषणप्पमाणा वोलट्टमाणा बोसमाणा समभरघडियाए -964 [२१७ -२१९] * ॥३२॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~188 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१६७-१६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६७-१६९] 6 चिट्ठति?, गोयमा! बाहिरएसु णं समुद्देसु बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए बकमंति विउकमंति चयंति उवचयंति, से तेणणं एवं बुचति-बाहिरगा समुहा पुण्णा पुषण. जाव समभरघडताए चिट्ठति ।।(सू०१६९) 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भवन्त देवदीपगानां चन्द्राणां चन्द्रद्वीपा नाम द्वीपाः प्रज्ञमा:?, भगवानाह-गौतम ! देवद्वीपस्य | पूर्वस्माद्वेदिकान्ताद् देवोदं समुद्र द्वादश योजनसहस्राण्यवगाहा अत्रान्तरे देवद्वीपगानां चन्द्राणां चन्द्रद्वीपा: प्रज्ञप्ता इत्यादि प्राग्वत्, राजधान्यः स्वकीयानां चन्द्रद्वीपानां पश्चिमदिशि तमेव देवद्वीपमसोयानि योजनसहनाण्यवगायात्रान्तरे देवद्वीपगाना चन्द्राणां |चन्द्रा नाम राजधान्यः प्रज्ञप्ताः, ता अपि विजयाराजधानीवद्वक्तव्याः ।। 'कहिणं भंते !' इत्यादि, क भदन्त ! देवद्वीपगानां सू र्याणां सूर्यद्वीपा नाम द्वीपा: प्रज्ञमा: ?, भगवानाह-गौसम ! देव द्वीपस्य पश्चिमान्ताद्वेदिकान्ताद् देवोदं समुद्र द्वादश योजनसहस्राण्यदावा त्यादि । राजधान्यः खकीयानां सूर्य द्वीपानां पूर्वस्यो दिशि तमेव देवद्वीपमस होयानि योजनसहस्राण्यपगाहोत्यादि । 'कहिणं भंते !' इत्यादि, क भदन्त ! देवसमुद्राणां चन्द्राणां चन्द्रद्वीपा नाम द्वीपा: प्रज्ञमा: ?, गौतम! देवोदस्य समुद्रस्य पूर्वस्माद्वेदिकान्ताहेबोदकं समुद्रं पश्चिमदिशि द्वादश योजनसहस्राण्यवगायात्रान्तरे देवोदसमुद्रगानां चन्द्राणां चन्द्रद्वीपाः प्रज्ञप्तास्ते च प्राग्वत् । राजधान्यः स्वकीयानां चन्द्रद्वीपाना पश्चिमदिशि देवोदकं समुद्रमसोयानि योजनसहमाण्यवगायात्रान्तरे वक्तव्याः, देवोदकस मुद्रगाना सूर्याणां सूर्यद्वीपा देवोदकस्य समुद्रस्य पश्चिमान्ताद्वेदिकान्तादू देवोदकं समुद्रं पूर्वदिशि द्वादश योजनसहसाण्यवगासानान्तरे वक्तव्याः, राजधान्योऽपि स्वकीयानां सूर्यद्वीपानां पूर्वदिशि देवोदकं समुद्रमसद्धयेयानि यो जनसहमाण्यवगाह्य, एवं नागयक्षभूतस्वयम्भूरमण 4SCLOCAL --2 दीप अनुक्रम [२१७ -२१९] -03 JEktamil ~189 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१६७ -१६९] दीप अनुक्रम [२१७ -२१९] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ (मूलं + वृत्ति:) ------ उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], मूलं [१६७- १६९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ५३२१ ॥ Ja Ekemon in प्रतिपत्ति: [३], द्वीपसमुद्रचन्द्रादित्यानामपि वक्तव्यं, डीपगतानां चन्द्रादित्यानां चन्द्रादित्यद्वीपा अनन्तरसमुद्रे, समुद्रगतानां तु स्वस्वसमुद्र एव राजधान्यो द्वीपगदानां चन्द्रादित्यानां स्वस्वद्वीपे समुद्रगतानां स्वम्यसमुद्रे, आह च मूलटीकाकारोऽपि " एवं शेषद्वीपरातचन्द्रादित्यानामपि द्वीपा अनन्तरसमुद्रेष्ववगन्तव्याः, राजधान्यश्च तेषां पूर्वापरतोऽसोयान द्वीपसमुद्रान् गत्वा ततोऽन्यस्मिन् सदृशनान्नि द्वीपे भवन्ति, अन्त्यानिमान् पञ्च द्वीपान् मुक्ला देवनागयक्षभूतस्वयम्भूरमणाख्यान, न तेषु चन्द्रादित्यानां राजधान्योऽन्यस्मिन् द्वीपे अपि तु स्वस्मिन्नेव पूर्वापरतो वेदिकान्तादसवेयानि योजन सहस्राण्यवगाह्य भवन्तीति" इह बहुधा सूत्रेषु पाठभेदाः परमेतावानेव सर्वत्राप्यर्थोऽनर्थभेदान्तरमित्येतदपाख्यानुसारेण सर्वेऽप्यनुगन्तस्या न मोग्धव्यमिति ॥ 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! लवणसमुद्रे वेलन्धरा इति वा नागराजाः, अग्घा इति वा खन्ना इति वा सीहा इति वा जाइ इति वा?, अग्पादयो मत्स्यकरूपविशेषाः, आह च चूर्णिन् “अग्घा खन्ना सीहा विजाई इति सच्छकच्छभा" इति वृद्धी जलस्येति गम्यते इति, भगवानाह गौतम सन्ति । 'जहा णं भंते! लवणसमुद्दे बेलंधरा इति वा' इत्यादि पाठसिद्धम् । 'लवणे णं भंते!' इत्यादि उवणो भदन्त समुद्रः किमुतोदकः प्रसादोदक:- प्रस्तटाकारतया स्थितमुदकं यस्य स तथा सर्वत: समोदक इति भावः क्षुभितं जलं यस्य स क्षुभितजलस्तत्प्रतिषेधादक्षुभितजल: ?, भगवानाह - गौतम ! उच्छ्रितोदको न प्रस्तटोदकः शुभितजलो नाक्षुभितजयः ॥ 'जहा णं भंते!' इत्यादि यथा भदन्त ! लवणसमुद्र उच्छ्रितोदक इत्यादि तथा वाह्या अपि समुद्राः किमुद्रितोदकाः प्रस्तटोदकाः श्रभितजला अक्षुभितजला: १, भगवानाह - गौतम! यायाः समुद्रा न उच्छ्रितोदकाः किन्तु प्रस्तटोकाः सर्वत्र समोदकलात् तथा न क्षुभितजला: किन्त्वक्षुभितजला: क्षोभहेतुपातालक शायभावान्, किन्तु ते पूर्णाः तत्र किञ्चिद्धीनमपि व्यवहारतः पूर्ण भवति तत आह For P&Palle Cinly ३ प्रतिपनी चन्द्रसूर्य दीपादि उद्देशः २ सू० १६० अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश: '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 190 ~ ।। ३२१ ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१६७ -१६९] दीप अनुक्रम [२१७ -२१९] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ /२ (मूलं + वृत्तिः ) ------ उद्देशक: [( द्वीप - समुद्र)], - मूलं [१६७-१६९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रतिपत्ति: [३], पूर्णप्रमाणाः स्वप्रमाणं यावज्वलेन पूर्णा इति भावः, 'बोसट्टमाणा' परिपूर्णभृततया ठन्त इवेति भाव:, 'बोलट्टमाणा' इति विशेषेण उन्तइवेत्यर्थः 'समभरघडत्ताए चिर्द्धति' इति समं परिपूर्ण भरो-भरणं यस्य स समभरः परिपूर्णभृत इत्यर्थः स चासो घट समभरघटस्तद्भावस्तत्ता तया समभूतघट इव विन्तीति भावः || 'अस्थि णं भंते!' इत्यादि, अस्येतद् भदन्त ! लवणसमुद्रे 'ओराला लाहका' उदारा मेघाः 'संस्त्रियन्ते' संमूर्च्छनाभिमुखीभवन्ति, तदनन्तरं संमूईन्सि, नतो 'वर्ष' पानीयं वर्षन्ति ?, भगवानाह - हन्त ! अस्ति || 'जहा णं भंते! लवणसमुद्दे' इत्यादि प्रतीतम् ॥ 'से केहेण मित्यादि, अथ केनार्थेन मदन्त ! एवमुच्यते बाह्याः समुद्राः पूर्णाः पूर्णप्रभाणाः ? इत्यादि ग्राम्यन्, भगवानाह - गौतम! या समुद्रेषु यह उद्योनिका जीवाः पुलाचोदकतया 'अपक्रामन्ति' गच्छन्ति 'व्युत्क्रामन्ति' उत्पयन्ते, एके गच्छन्त्यन्ये उत्पयन्त इति भाव:, तथा 'चीयन्ते' चयमुपगच्छन्ति'पचीयन्ते' उपचयमायान्ति एतच पुत्रान् प्रति द्रव्यं पुतलानामेव चयोपचयार्थप्रसिद्धेः 'से एएणद्वेण' मित्याद्युपसंहारवाक्यं प्रतीतं ॥ सम्प्रत्युद्वेषपरिवृद्धिं चिचिन्तविपुरिदमाह– लवणे णं ते! मुद्दे केवलियं उबेहपरिबुद्धीने पणसे, गोयमा! लवणस्स णं समुदस्स उमओपा पंचागत २ पदे गंता पदे उच्हपरिबुद्धीए पण्णले, पंचाणउति २ वालग्गाई गंता बाद उन्हरिडी पण्णत्ते, प० लिक्खाओ गंगा लिक्खा उपरि पंचाणउड़ जबाओ ज अंगुरियनीकुछी धणु [उच्छेदपरिबुद्दीए] गाउयजोयणजोपण सतजोयणसहस्साई ता जोयणसह उपरिबुद्धीए । लवणे णं भने समुदे केयतियं उस्सेह परिबुद्दीए पण्णत्ते ?, For P&Praise Cinly ~ 191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७०] दीप अनुक्रम [२२०] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], ------ उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र )], - मूलं [१७० ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३२२ ॥ गोमा ! लवणस्स णं समुदस्त उभओपासिं पंचाणतिं पदसे गंता सोलसपसे उसे परिव डीए पण्णसे, गोयमा ! लवणस्स णं समुहस्स एणेव कमेणं जाय पंचाणउनि २ जोयणसहस्सा गंता सोलस जोयणसहस्साई उत्सेधपरिडिए पण्णत्ते ॥ ( २०१७० १ 'लवणे णं भंते! समुद्दे' इत्यादि षणो भवन्त ! समुद्रः कियत्' कियन्ति योजनानि यावद् उपपरिया प्रज्ञप्तः किमुक्तं भवति ? - जम्बूद्वीपवेदिकान्तावण समुद्रवेदिकान्तायारभ्यो भयतोऽपि वणसमुद्रस्य क्रियन्ति योजनानि यावन् मात्रया मात्रया उद्वेधपरिवृद्धिरिति भगवानाह - गौतम! लवणसमुद्रे उभयोः पार्श्वयोर्ज म्यूद्वीपवेदिकान्तावणसमुद्रवेदिकान्तायारभ्येत्यर्थः पञ्चनवतिप्रदे शान् गत्वा प्रदेश उद्वेधपरिवृक्ष प्रज्ञप्तः इद् प्रदेशस्रसरेण्वादिरूपो द्रष्टव्यः पञ्चनवति वालामाणि गलैकं वालामुद्वेषपरिवृक्षा प्रशतं एवं दिक्षायवमध्याङ्गठवित तिर त्रिकुक्षिधनुर्गव्यूतयोजनयोजनशतसूत्राण्यपि भावनीयानि पञ्चनवति योजनसहस्राणि गत्या योजन सहस्रमुद्वेषपरिवृद्धया प्रज्ञतं त्रैराशिक भावना चैवं योजनादिषु द्रष्टव्या इहोभयतोऽपि पञ्चनववियोजनसहस्रपर्यन्ते योजनसहस्रमवगाहेन दृष्टं ततस्त्रैराशिक कमवतारः यदि पञ्चनवतिसहस्रपर्यन्ते योजनसहस्रमवगाहरूतः पञ्चनवतियोजनपर्यन्ते कोवगाह: ?, राशित्रयस्थापना - ९५०००।१००० ९५ । अत्रादिमध्ययो राश्योः शून्यत्रयस्यापवर्त्तना ९५/१/९५ ततो मध्यस्य राशेरेकरूपस्य अन्येन पञ्चनवतिलक्षणेन राशिना गुणनान् जाता पञ्चनवतिः, तत्राद्येन राशिना पञ्चनवतिलक्षणेन विभज्यते लब्धमेकं योजनं, उक्तन्ध "पंचाणउइसहस्से गंतूणं जोयणाणि उभभवि । जोयणसहस्तमेगं लवणे ओगाहओ होइ ॥ ६ ॥ पंचाणउण बंगे ( लवणे) गंतूणं जोयणाणि उभभवि जोवणमेगं लवणे ओगाहेणं मुयया ॥ १ ॥ पञ्चनववियोजनपर्यन्ते च यद्येकं यो For P&Praise City ३ प्रतिपत लवणे . द्वेधोत्सेधी उद्देश: म सू० १७० अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 192 ~ ।। ३२२ ।। wyw Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७०] जनमवगाहसतोऽर्थात्पञ्चनवतिगण्यूतपर्यन्ते एक गब्यून पश्चनवतिधनुःपर्यन्ते एकं धनुरित्यादि लब्धम् ।। सम्प्रत्युत्सेधमधिकृत्याह'लवणे णं भंते ! समुद्दे' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्र: ‘कियत्' कियन्ति योजनानि उत्सेधपरिवृख्या प्रजातः ?, एतदुक्तं मबति-जम्बूद्वीपवेदिकान्तालवणसमुद्रचेदिकान्ताचारभ्योभयतोऽपि लवणसमुद्रम्य कियत्या कियत्या मात्रया कियन्ति योजनानि याबदुत्सेधपरिसृद्धिः?, भगवानाह-गौतम' 'लवणस्सणं समुदस्संन्यादि, इह निश्चयतो लवणसमुद्रस्य जम्पूटीपवेदिकातो हालवणसमुद्रवेदिकानश्च समतले भूभागे प्रश्रमतो जलवृद्धिरकुलसहयेयभागः, समतलमेव भूभागमधिकृत्य प्रदेशका जलवृद्धिः । |क्रमण परिवर्धमाना ताबदवसेया याबदुभयतोऽपि पञ्चनवतियोजनसहमपर्यन्ते सप्त शतानि, ततः परं मध्यदेशभागे दश-| पायोजनसहमविस्तार पोडश योजनसहस्राणि, इह तु षोडशयोजनसहस्रप्रमाणायाः शिखायाः शिरसि उभयोश वेदिकान्तयोर्मूले वरिकायां दत्तायां यदपान्तराले किमपि जलरहितमा काशं तदपि करणगन्या तदाभाव्यमिति स जलं विपक्षिवाऽधिकृतमुच्यतेमालवणस्य समुद्रस्योभयतो जम्बूद्वीपवेदिकान्तालवणसमुद्रवेदिकान्तान पञ्चनवनि प्रदेशान गत्वा पोडश प्रदेशा उत्सेधपरिवृद्धिः प्रज्ञत्रा, पद नवति वालाप्राणि गला पोडश बालापाणि, एवं यावन् पञ्चनवति योजनसहस्राणि गत्वा पोदश योजनसहस्राणि, अत्रे-13 ट्रायं त्रैराशिकभावना-पचनपतियो जनसहस्रातिकमे पोदश योजनसहस्राणि जलोत्सेधस्ततः पञ्चनवतियोजनातिकमे क उत्सेधः , राशित्रयस्थापना-९५०००।१६०००।९५॥ अत्रादिमध्ययो राश्योः शून्यत्रिकस्यापवर्तना ९५।१६।९५, ततो मध्यभराशेः पोडशल-18 श्रणस्यान्टयेन पञ्चनवनिलयोन गुणने जातानि पञ्चश शतानि विशत्यधिकानि १५२०, एषामादिराशिना पञ्चनवतिलक्षणेन भागे वाहते लब्धानि पोडश योजनानि, उक्तश्च-पंचागइसहस्से गंतूणं जोयणागि उभोचि । उस्सेदेणं लवणो सोलससाहस्सिो दीप अनुक्रम [२२०] 2 % 4-6- ~193 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७०] दीप अनुक्रम [२२०] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [३], ------ उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र )], - मूलं [१७०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३२३ ।। भणिओ || १ || पंचाणउई लवणे संपूर्ण जोयणाणि उभओवि । उस्सेहेणं लवणो सोलस किल जोयणे होई ।। २ ।। तत्र यदि पयनववियोजनपर्यन्ते पोडशयोजनावगाहस्ततोऽर्थाभ्यते पञ्चनवतिगव्यूतपर्यन्ते पोडश गय्यूतानि पञ्चनवविवनुः पर्यन्ते पोडश धनूंपीत्यादि ॥ सम्प्रति गोतीर्थप्रतिपादनार्थमाह लवणस्स णं भंते! समुहस्स केमहालय गोतिस्थे पण्णत्ते ?, गोयमा! लवणस्स णं समुदस्स उओपास पंचाणउति २ जोयणसहस्माई गोतित्थं पण्णसं । लवणस्स णं भंते! समुदस्स के महालए गोनिन्यविरहिते वेतं पण्णसे, गोयमा ! लवणस्स णं समुहस्त दस जोयणसहस्साई गोनिस्थविरहिने ते पण्णत्ते । लवणस्स णं भंते! समुदस्स केमहालए उद्गमाले पण्णसे?, गोमा ! दस जोयणसहरमाई उद्गमाले पण्णत्ते ॥ ( सू० १७१) 'वर ते "द व मदत! समुद्रस्य किंमहत् मणमह गोवी प्रज्ञतं ?, गोतीर्थमित्र गोतीर्थक्रमेण नीचो नीचनरः प्रवेशमार्गः भगवानाह - गौतम! लवण समुद्रस्योभयोः पार्श्वयोवृद्वीपवेदिकान्ताहवणसमुद्रवेदिकान्ताचारभ्येत्यर्थः पञ्चनवतिं योजनम्याणि यावद् गोतीर्थ प्रनतम् उक्तञ्च "पंचाणउसले गोतित्थं उभयतो िणा" इति ।। 'लवणस्स णं भंते!" इत्यादि, लवणमा भइन्न ! समुद्रस्य 'किंमहत्' किंप्रमाणमहत्वं गोतीर्थविरहितं क्षेत्रं प्रज्ञतं ? भगवानाह ॥ २२३ ॥ गौतम! तणस्य समुद्र दश योजनसहस्राणि गोतीर्थविरहितं क्षेत्रं प्रशनम् ॥ 'लवणस्स णं भंते!" इत्यादि लवणस्य भदन्त ! For P&False City ३ प्रतिपनौ लवणे गोतीर्थ उद्देशः २ सू० १०१ ~ 194~ wyw अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -* प्रत सूत्रांक -- - [१७१] e समुद्रण 'किमहती विसारमधिकृत्य किं.प्रमाणहत्या उदकनाला-समपानीयोपरिभूला पोडशयोजनसहस्रोक्छ्या प्रज्ञा ?, भगवानाह-गौतम ' वा योजनसहस्राणि उदकमाला प्रज्ञता ॥ उधणे णं भंते ! समुद्दे किंसंठिए पदाते?, गोषमा! गोरिथसंठिते नावासंठाणसंठिते सिप्पिसंपुरसंठिए आसखंधसंठिने चलभिसंटिने बढे पलयागारसंठागसंहिते पण ते ॥ लवणे णं मंते ! समुद्दे केयतिवं चयापाल विक्वंभ ? फेवतियं परिक्वेवणं? केवलियं बहेणं ? फेवतियं . स्हेणं? फेवतियं सम्यगणं पणते?, गोवा ख्यणे णं समुद्दे दो जोयगसयसहस्साई चकवालविक्खंभेण पारस जोषणसतसहस्साएकासीलिं च सहस्साई सतं य इगुयालं किंचिदि मृणे परिग्वेषेणं, गंजोयणसहस्तं पञ्चवर्ण सोलस जोयणसहस्साई उस्सेहेणं सत्तरस जोवणसहस्साई सवग्गेणं एण्णसं (मू १७२) जइ भंते! लवणसनुदे दो जोयणसतसइस्लाई चशवालविक्खंभेणं पण्णरल जोगणहतसारलाई एकासीनि च सहस्साई सनं इगुयालं किंचि पिसेखणा परिमन्वेवेणं पगं जोपणसहर उठवणं लोलस जोपणलहरलाई उस्सेधे सत्तरस जोयणसहरसाई सचम्मेणं पणते । कम्हा भंने! लवगसमुहे जंबुहीनो उचीलेतिनो उपीलेति नो बेच एकादगं करैति?, गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीये भरहेरबएसु बासेसु अरहंतचगावहिवलदेवा वासुदेवा चारणा विज्ञाधरा समणा समणीओ साचया साथियाओ मणुया एगध दीप अनुक्रम [२२१] -k EXERNx0% % % F ~195 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७२ -१७३] दीप अनुक्रम [२२२ २२३] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) ------ उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र ) ], - मूलं [१७२-१७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवामि मलयगि यावृत्तिः ॥ ३२४ ॥ Ja Erin प्रतिपत्ति: [३], मनप या पतया पनिणीया पविता पतिको अल्लीमा भया विणीना मेनि पणिहाने उप्पी तो गोद करेति गंगापुरसारदा देहियाओं जाय पविमद्वितीया परिवति जाबो गोद कति माया पाए. मरण ते वा मानिसमा रोहिण्या महिला देवाओं महिदियाओ तासिं पण सरावात देवा महिट्टिया जाव पतिओ मट्टि तया परिव०, महाहिमरुपि वासहरपयतु देवा महिहिया जाय पलिओयमद्वितीया, ह रिवारम्भयवासे मया पति गंधावतिमालवतपरिता देव महिडीया, णिसनीलवनेषु वासरपव्यते देवा महिहीया, सव्वाओं दहदेवयाओ भाणियहवा, पउमद्दहति गिच्छिकेसरिदहासामु देवा महिहीयाओ तासि पणिहाए०, पुत्र्वविदेहावरवि वासे अरगचक्कवषिदेव वासुदेवा चारणा विज्ञाहरा समगा समणीओ सावगा सावियाओ मया पलि० तेसिं पणिहाए लवण, सीमासीतोदगासु सलिलासु देवता महिलीया०, देवकुरुउत्तरकुरुसु मणुया पगति सहगा, मंदरे पव्वते देवता महिडीया, जंबूए य सुदंसणाए For P&Praise Cinly अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश: '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 196 ~ प्रतिपत्ती दवणस्य विष्कम्भा दिउत्पी नाभावश्च उद्देशः २ सू० १७१ تیک ।। ३२४ ।। gentery urg Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७२-१७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७२-१७३] दीप अनुक्रम [२२२२२३] SARAKAR जंबूदीवाहिवती अणाढिए णाम देवे महिड्डीए जाव पलिओवमठितीए परिवसति तस्स पणिहाए लवणसमुरे नो जवीलेति नो उपपीलेति नो चेव णं एकोदगं करेति, अत्तरं च णं गोयमा! लोगहिती लोगाणुभावे जपणां लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीव॑ नो उचीलति नो उप्पीलेति नो चेच णमेगोदगं करेति ।। (सू०१७३) 'लवणे णं भंते !' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रः किंसंस्थित: प्रज्ञप्त: ?, भगवानाह-गौतम ! गोतीर्थसंस्थानसंस्थितः क्रमेण 2 नीचैचिस्तरामुद्रेवस्य भावात् , नाबासस्थितः चुनादुई नाव इव उभयोरपि पार्श्वयोः समतलं भूभागमपेक्ष्य क्रमेण जलवृद्धिसम्भवेन उन्नताकारत्वान् , 'सिप्पसंपुडसंठिते' इति मुक्तिकासंपुटसंस्थानसंस्थितः, उद्वेधजलस्य जलयुद्धिजलस्य चैकत्रमीलनचिन्तायां शुक्तिका मंपुढाकारसाहश्यसम्भवान्, 'अश्वस्कन्धसंस्थिता' उभयोरपि पार्श्वयोः पञ्चनवनियोजनसहनपर्यन्ते ऽश्वस्कन्धस्येवोन्नततया पोडशहायोजनसह प्रमाणोचस्त्वयोः शिरवाया भावान् , 'बलभीसंस्थितः' बलभीगृहसंस्थानसंस्थितः दशयोजनसहस्रप्रमाणविसारायाः शि खाया बलभीगृहाकाररूपतया प्रतिभासनात , तथा वृत्तो लवणसमुद्रो वलयाकारसंस्थितः, चक्रवालतया तस्यावस्थानात् ॥ सम्पनि! साविष्कम्भादिपरिमाणमेककालं विच्छिपुराह-'लवणे णं भंते ! समुहे' इत्यादि, लवणो भदन्त! समुद्रः कियणकबालविष्कम्मेन | कियपरिक्षपेण कियदुधेन-उण्डवेन कियदुत्सेधेन फियत्स/प्रेण-उत्सेधोधपरिमाणसामस्त्येन प्रज्ञातः ?, भगवानाह-गौतम ! लव-11 समुद्रो योजनशतसहस्रे चक्रबालविष्कम्भेन प्रज्ञामः, पञ्चदश योजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतं चैकोनचत्वारिंशं किचिद्विशेषोनं परिक्षेपेण प्राप्तः, एक योजनसहनमुद्वेधेन, पोडश योजनसहभाग्युत्सेधेन, सप्तदश योजनसहस्राणि सर्वाग्रेण-उत्सेधो --- - जी०५५ ~197 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७२ -१७३] दीप अनुक्रम [२२२ २२३] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम”- उपांगसूत्र- ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) ------ उद्देशकः [ ( द्वीप समुद्र)], प्रतिपत्तिः [3] - मूलं [ १७२ - १७३] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ।। ३२५ ।। | द्वेधमीलनचिन्तायां । इह लवणसमुद्रस्य पूर्वाचार्यैर्धनप्रतरगणितभावनाऽपि कृता सा विनेयजनानुग्रहाय दर्श्यते, तत्र प्रतरभावना क्रियते, प्रतरानयनार्थं चेदं करणं लवणसमुद्रसत्कविस्तारपरिमाणाद् द्विलक्षयोजनरूपाद् दश योजनसहस्राणि शोध्यन्ते तेषु च शोधितेषु यच्छेषं तस्यार्द्ध क्रियते, जातानि पञ्चनवतिः सहस्राणि यानि च प्राकू शोधितानि दश सहस्राणि तानि च तत्र प्रक्षिष्यन्ते, जातं पश्चोत्तरं लक्षं १०५००० एतच कोटीति व्यवहियते, अनया च कोट्या लवणसमुद्रस्य मध्यभागवत परिरयो नव लक्षा अष्टचत्वारिंशत्सहस्राणि पट शतानि त्र्यशीत्यधिकानि ९४८६८३ इत्येवंपरिमाणो गुण्यते, ततः प्रतरपरिमाणं भवति, तचेदं नवनवतिः कोटिशतानि एकषष्टिः कोटयः सप्तदश लक्षाः पञ्चदश सहस्राणि ९९६११७१५००० उक्तञ्च - "बित्थाराओ सोहिय दससहस्साई सेस अर्द्धमि । तं चैत्र पक्खिवित्ता लवणसमुदस्स सा कोडी ॥ १ ॥ लक्खं पंचसहस्सा कोडीए तीर्फे संगुणेऊणं । लवणस्स नज्झपरिही ताहे परं इमं होइ || २ || नवनउई कोडिसया एगद्दी कोटि लक्ख सत्तरसा । पन्नरस सहम्साणि य पयरं लवणस्स निद्दिहं ॥ ३ ॥” धनगणित भावना त्वं-इह लवणसमुद्रस्य शिया पोडश सहस्राणि योजनसहस्रमुद्वेधः सर्वसया सदश सहस्राणि तैः प्राक्तनं प्रतरपरिमाणं गुण्यते, ततो घनगुणितं भवति, तद-पोडश कोटीकोटयस्त्रिनवतिः कोटिशतसहस्राणि एकोनचत्वारिंशत् को| टिसहस्राणि नत्र कोटिशतानि पञ्चदशकोट्यधिकानि पञ्चाशल्लक्षाणि योजनानामिति १६९३३९९१५५००००००, उक्तञ्च - " जो यणसहस्स सोलस लवणसिहा अहोगया सहस्लेगं । पयरं सत्तरसहस्ससंगुणं लवणघणगणियं ॥ १ ॥ सोलस कोडाकोडी वेणउई कोडिसयस हसाओ । उणयालीससहस्सा नवकोडिसया य पन्नरसा || २ || पन्नास सयसहस्सा जोयणाणं भवे अणूलाई । लवणसमुद्द रसेयं जोयणसंखाऍ प्रणगणियं ॥ ३ ॥" आह-कथमेतावत्प्रमाणं लवणसमुद्रस्य घनगणितं भवति ? न हि सर्वत्र तस्य सप्तदशयो For P&Praise City --- ~ 198 ~ ३ प्रतिपत्त लवणस मुद्राधि० उद्देशः २ सू० १७३ ॥ ३२५ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश: '२' अत्र २ इति निरर्थकम् w Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७२ -१७३] दीप अनुक्रम [२२२ २२३] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ (मूलं + वृत्ति:) ------ उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र ) ], मूलं [१७२-१७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja Eber प्रतिपत्ति: [३], जनसहस्रप्रमाण उच्छ्रयः, किन्तु मध्यभाग एवं दशसहस्रप्रमाणविस्तारस्ततः कथं यथोक्तं धनगणितमुपपद्यते ? इति सत्यमेतत्, केबलं लवणशिस्यायाः शिरसि उभयोश्च वेदिकान्तयोरुपरि दवरिकायामेकान्तऋजुरूपायां दीयमानायां २ यदपान्तराले जलशून्यं क्षेत्रं तदपि करणगत्या तदाभाव्यमिति सजलं विवक्ष्यते, अत्रार्थे च दृष्टान्तो मन्दरपर्वतः तथाहि - मन्दरपर्वतस्य सर्वत्रैकादशभागपरिहाणिरूपवर्ण्यते, अथ च न सर्वत्रैकादशभागपरिहाणिः, किन्तु कापि कियती, केवलं मूलादारभ्य शिखरं यावदवरिकायां दत्तायां यदपान्तराले कापि कियदाकाशं तत्सर्वं करणगत्या मेरोराभाव्यमिति मेरुतया परिकल्प्य गणितज्ञाः सर्वत्रैकादशपरिभागहानि परिवर्णयन्ति तद्वदिदमपि यथोक्तं पनपरिमाणमिति, न चैतत्वमनीषिकाविजृम्भितं यत आह जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणो विशेषणवत्यामेतद्विचारप्रक्रमे "एवं उभयवेदयंताओ सोलसहरमुस्सेहस्स कन्नगईए जं लवणसमुद्दाभन्वं जलमुन्नपि खेत्तं तभ्स गणियं, जहा मंदरपव्वयस्स एकारसभागपरिहाणी कन्नगईए आगासरसवि तदाभव्वंतिकाउं भणिया तहा लवणसमुदस्सवि ||" इति || 'जइ णं * भंते!' इत्यादि, यदि भदन्त ! लवणसमुद्रो द्वे योजनशतसहस्रे चक्रवालविष्कम्भेन पञ्चदश योजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्त्राणि शतं चैकोनचत्वारिंशं किञ्चिद्विशेषानं परिक्षेपेण प्रज्ञतः, एकं योजनसहसमुद्वेधेन पोडश योजनसहस्राण्युत्सेधेन सप्तदश योजनसहस्राणि सर्वामेण प्रज्ञप्तः । तर्हि 'कम्हा णं भंते!' इत्यादि, कस्माद् भदन्त ! लवणसमुद्रो जम्बूद्वीपं द्वीपं न 'अवपीडयति' जलेन प्लावयति, न 'उत्पीडयति' ग्रावस्येन बाधते, नापि णमिति वाक्यालङ्कृती 'एकोदर्क' सर्वात्मनोदकलावितं करोति ?, भगवानाह - गौतम ! जम्बूद्वीपे भरतैरावतयोः क्षेत्रयोरन्तञ्चक्रवर्त्तिनो वलदेवा वासुदेवाः 'चारणाः' जङ्गाचारणमुनयो विद्याधराः 'श्रमणाः ' साधवः 'श्रमण्यः संयत्यः श्रावकाः श्राविकाः, एतत् सुषमदुष्पमादिकमरकनयमपेक्ष्योक्तं वेदितव्यं तत्रैवादादीनां यथायोगं सम्भ For P&Praise City ~ 199~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७२-१७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७२ -१७३] दीप अनुक्रम [२२२२२३] श्रीजीवा- 1वान , सुषममुपमादिकमधिकृत्याह-मनुष्याः प्रकृतिभद्रकाः प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभाः मृदुमादेवसंपन्ना आलीमा भद्रका वि-1 प्रतिपत्ती जीवाभिनीताः, एतपां व्याख्यानं प्रायन , तेपा 'प्रणिधया' प्रणिधानं प्रणिधा. उपसर्गादात' इत्यङ्प्रत्ययः, तान प्रणिधाय' अपेक्ष्य तेपालवणसमलयगि- प्रभावत इत्यर्थः, लवणसमुद्रो जम्द्वीपं द्वीपं नापीइयनीत्यादि, दुप्पमदुप्पमाात्रपि नापीच्यनि, भरतवैतामयावधिपतिदेवताप्र-समुद्राधिक रीयावृत्तिभावान , तथा भुहिमबकिछरसरिणोधरपर्वतयादवता महद्धिका याबरकरणान्महाद्युतिका इत्यादिपरिग्रहः परिवसन्ति सेपो 'प्रणि- उद्देशः २ धया' प्रभावेन लवणसमुद्रो जन्यूद्राप द्वीपं नावपी इयतीत्यादि । तथा हैमवतहरण्यवतोत्रर्षयोमनुजाः प्रकृतिभद्रका यावद् विनीता- सू० १७३ ॥ १२५ सेषां प्रणिधयेयादि पूर्ववन् , तथा नयारव वर्षयोयों यथाक्रमं शब्दापातिविकटापाती वृत्तवैतादयौ पर्वतो तयोर्देवो महद्धिको याव-14 पपल्योपमस्थितिको परिवसतस्तपा प्रणिधयेत्यादि पूर्ववन् । तथा महाहिमवटुक्मिवर्षवरपर्वतयादेवता महद्धिका इत्यादि तथैव । तथा| हरिवपरम्यकवर्षयोमनुजाः प्रकृतिभद्रका इत्यादि सर्व हैमवतवन , तथा तयोः क्षेत्रयोयथाक्रमं गन्यापातिभाल्यवत्पर्यायो यौ वृत्तवैताच्यपर्वतो तयोदेवी महर्टिकावित्यादि पूर्वत्रम् । तथा पूर्व विदेहापरविदह वर्षयोरइन्तश्चक्रयतिनो यायन्मनुजाः प्रकृतिभद्रका यावद् विनीतातेषां प्रणिवयेत्यादि पूर्ववन् । तथा देवकुरुक तर कुरुपु मनुजाः प्रकृतिभद्रका यावद्विनीतास्तेषां प्रणिध येत्यादि पूर्ववन् । तथा उत्तरकुरुषु कुरुपु जम्ब्वा सुदर्शनायामनाइतो नाम देवो जम्बूद्वीपाधिपतिः परिवसति तस्य 'प्रणिधया' प्रभावेनेत्यादि तथैव । अथान्यद् गौतम ! +कारणं, तदेवाह-लोकस्थितिरेपा-लोकानुभाव एप बलवणसमुद्रो जम्बूद्वीपं द्वीपं जलन नावपीडयतीत्यादि । तृतीयप्रतिपत्तावेघ मन्द रोद्देशकः समाप्तः । तदेवमुक्ता लवणसमुद्रवक्तव्यता, सम्प्रति धातकीपण्डवक्तव्यतामाह| लवणसमुहं धायइसंडे नाम दीवे चट्टे बलयागारसंठाणसंठिते सच्चतो समता संपरिक्खिवित्ता 24 Pitam अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् धातकीखण्डस्य अधिकारः आरभ्यते ~200 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ------------------- उद्देशक: [(दवीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१७४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७४] णं चिट्ठति, पायतिसंडे णं भंते ! दीवे किं समचकवालसंठिते विसमचकवालसंठिते?, गोयमा ! समचकवालसंठिते नो विसमचकवालसंठिते । धायइसंडे गं भंते ! दीये केवतियं चकवालविक्खंभेणं केवयं परिक्खेवणं पण्णते?, गोयमा! चत्तारि जोयणसतसहस्साई चकचालविक्वं. भणं एगपालीसं जोयणसतसहस्साई सजायणसहस्साई भवएगटे जोयणसते किंचिविसेसणे परिक्खेवेणं पणतं ॥ से णं एगाए पउभवरवंदियारा एगणं वणसंडेणं सब्बतो समंता संपरिकिवते दोपहवि वष्णओ दीवसमिया परिक्श्ववेणं । धायइसंडस्स णं भंते! दीवस्स कति दारा पण्णता?, गोयमा! चशारि दारा पण्णत्ता. विजए जयंते जयंते अपराजिए ॥ कहिणं भंते! धायइसंहस्स दीवस्स विजए णानं दारे पणते?, गोवमा धायइसंडपुरस्थिमपेरंते कालोयसमइपुरस्थिमद्धस्स पथरिथमेणं सीधाए महाणदीप गप्पं पस्थ गं धायइ विजए णामं द्वारे पपणाने तं चेव पनाणं, रायहाणीओ अपणमि धायहम दोचे, दीवस्स वत्सब्वया भाणियब्या, एवं चसारिवि दारा भाणियच्या ॥ धायसंडस्म भने ! दीवस्स दारस्स य २ एस णं केवायं अवाहाए अंतरे पपणते?, गोयमा। दस जोयणमयसहस्लाई सत्तावीसं च जोयणसहस्साई मनपणतीस जोयणसए तिन्निय कोस द्वारस्स य र अथाहार अंतर पण्णत्ते ।। धायहसंडस्स भंते! दीवस्स पदंसा कालोयगं समई पट्टा?, हना पुट्ठा ।। ते णं भंत! किं धायइसंडे दीवे कालोएस MAMAMACHAR गाथा: दीप अनुक्रम [२२४-२२७]] - ~ 2014 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ------------------- उद्देशक: [(दवीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१७४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७४] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः 400X4%CAks ३ प्रतिपत्ती धातकीखण्डाधि उद्देश:२ सू०१७४ ॥३२७॥ गाथा: +- मुहे ?, ते धायइसंडे नो खलु ते कालोयसमुहे । एवं कालोयस्मवि । धायइमंडद्दीवे जीवा उद्दाइत्ता २ कालोए समुदे पच्चायंति?, गोयमा! अत्धेगनिया पञ्चायति अत्धेगतिया नो पचायति । एवं कालोएवि अत्थे०प० अत्धेगतिया णो पञ्चायति ।। से केण?णं भंते ! एवं बुचलि-धायइसंडे दीये २१, गोपमा! धायइसंडे णं दीये तत्थ तत्थ देसे तहिं २ पएसे धायइक्वा धावइयाणा धायइसंडा णिचं कुसुमिया जाव उचसोभेमाणा २ चिटुंति, धायइमहाधायहरुक्वेसु सुदंसणपियदंसणा दुवे देवा महिहिया जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंनि से एएणद्वेण, अदुत्तरं च णं गोयमा! जाय णिचे ।। धायइमंडे णं भंते! दीवे कति चंदा पभासिंसु वा ३? कति सूरिया तर्विस या ३१ कह महग्गहा चारं चरिंसु वा ? कई णवत्ता जोगं जोइंसु ३? कह तारागणकोडाकोडीओ मोभेसु वा ३१, गोयमा! बारम चंदा पभासिंस वा ३, एवं-च उबीसं ससिरविणो णक्वत्त सता य तिन्नि छत्तीमा। एगं च गहसहस्म छप्पन्नं धायईसंडे॥१॥ अहेव सयसहस्सा तिषिण सहस्साई सत्त य सयाई। घायइसंडे दीवे तारागण कोडिकोडीणं ॥ २॥ सोभेसु वा ३॥ (सू०२७४) I 'लवणसमुद'मित्यादि, लवणसमुद्रं धातकीपण्डो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामम्त्येन संपरिशिष्य तिष्ठति ।। 'धायइसंडे णं दीये किं समचक्कवालसंठिए' इति सूत्रं लवणसमुद्रबद्भावनीयम् ।। 'धायइसंडे | -- दीप अनुक्रम [२२४-२२७]] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~202 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ------------------- उद्देशक: [(दवीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१७४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७४] गाथा: *-4452549-62% ण मित्यादि प्रश्नसूत्र मुगर्म, भगवानाह-गौतम ! चत्वारि योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेन, एकचत्वारिंशन योजनशतसहस्राणि | दश सहस्राणि नव च एकपष्टानि योजनशतानि किञ्चिद्विशे पोनानि परिक्षेपेण, उक्तश्च-एयालीसं लक्सा दस य सहस्साणि, जोयणाणं तु । नव य सया एगट्ठा किंचूणा परिरओ तम्स ।। ३।" 'से णमित्यादि, स धातकीखण्डो द्वीप एकया पायरवेदिकया अष्ट्रयोजनोठ्यजगत्युपरिभाविन्येति सामर्थ्यागम्यते, एकेन बनपण्डेन पावरवेदिकाबहिर्भूतेन सर्वतः समन्तात्संपरिक्षितः । द्वयोकारपि वर्णकः प्राग्वन । 'धायहसंडस्म णमित्यावि, धातकीपण्यस्व भदन्त ! द्वीपस्य कति द्वाराणि प्रामानि', भगवानाह-गौतम । चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञमानि, नयथा-विजयं पैजयन्तं जयन्तमपराजितं च ॥ 'कहिणं भंते' इत्यादि, क भवन्त' धानकीपण्वस्य द्वीपस्य विजयं नाम द्वार प्रक्ष ?, भगवानाह-गौतम! धातकीपण्डस्य द्वीपस्य पूर्वपर्यन्ते कालोदसमुद्रपूर्वार्द्धस्य पश्चिमदिशि शीताया। महानद्या उपरि 'अन' एतस्मिन्मन्तरे धातकीपण्डस्य द्वीपस्य विजयनाम द्वार प्रज्ञानं, तर जम्बूद्वीपविजयद्वारबदविशेषेण वेदितव्यं, नवरमन्त्र राजधानी अन्यस्मिन धातकीपण्डे द्वीपे वक्तव्या । 'कहि णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! धातकीपण्डद्वीपदक्षिणपर्यन्ते कालोदसमुद्रदक्षिणार्द्धस्योत्तरतोऽत्र धातकीपण्डस्य द्वीपस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रशतं, तदपि जम्बुद्वीपवैजयन्तद्वारवदबिशेपेण वक्तव्यं, नबरमत्रापि राजधानी अन्यस्मिन धातकीपण्डद्वीपे । 'कहिणं भंते!' इत्यादि प्रभसूत्रं गतार्थ, भगवानाहगौतम ! धातकीपण्डद्वीपपश्चिमपर्यन्ते कालोदसमुद्रपश्चिमार्द्धम्य पूर्वतः शीनोदाया महानद्या उपर्यत्र धातकीपण्डस्य द्वीपस्य जयन्तं | नाम द्वारं प्रज्ञतं. तदपि जम्बूद्वीपजयन्तद्वारवक्तव्यं, नवरं राजधानी अन्यस्मिन् धातकीपण्टे द्वीपे । 'कहिणं भंते!' इत्यादि। हा प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! धातकीपण्डद्वीपोत्तरार्द्धपर्यन्ते कालोदसमुद्रदक्षिणा स्य दक्षिणतोऽत्र धातकीपण्डस्य द्वीपस्यापरा दीप अनुक्रम [२२४-२२७]] ~203 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१७४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७४] गाथा: श्रीजीवा-13 जितं नाम द्वारं प्रज्ञा, तदपि जम्बूद्वीपगतापराजितद्वारबद्वक्तव्यं, नवरं राजधानी अन्यस्मिन् धातकीपण्डे द्वीपे । 'धायइसंडस्सणं|१३ प्रतिपत्तो जीवाभिभंते !' इत्यादि, धातकीपण्डस्य भदन्त ! द्वीपस्य द्वारस्य २ च परस्परमेतदन्तरं 'कियत्' किंप्रमाणम् 'अबाधया' अन्तरित्या व्याघातेन धातकीमलयशि- प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! दश योजनशतसहस्राणि सप्तविंशतियोजनसहस्राणि सप्त शतानि पञ्चनिशानि द्वारस्य २ परस्परमयाधया- खण्डाधिक यावत्तिान्तरं प्रशतं, तथाहिएकैकस्य द्वारस्य सवारशामस्य जम्बूदीपद्वारस्खेव पृथुखं साझानि चलारियोजनानि, ततश्चती द्वाराणामेका प्रथ- शार लपरिमाणमीलने जातान्यष्टादश योजनानि, तान्यनन्त रोक्कारपरिश्यमानान् ४११०९६१ शोध्यन्ते, शोधितेषु च तेषु जातं शेषमिदम्- ०१७४ ॥३२८ ॥ 1 एकचत्वारिंशशक्षा दश सहस्राणि नव शतानि त्रिचत्वारिंशदधिकानि ४११६५४३, एतेषां चतुर्भिर्भागे हते लब्धं यथोक्तं द्वाराणां परस्पर-18 मन्तरम् , उक्तच-पणतीसा सत्त सया सत्ताबीसा सहस्स दस लक्खा । पायइसंडे दारंतरं तु अवरं च कोसतियं ॥१॥"'धायइसइस णं भंते ! दीवस्स पएसा' इत्यादीनि चत्वारि सूत्राणि प्राग्वद्भावनीयानि ।। 'से केणटेणं भंते!' इत्यादि, अथ केनार्थन भदन्त । एवमुच्यते-धातकीपण्डो द्वीपो धातकीखण्डो द्वीपः१ इति, भगवाना--पातकीपण्डे द्वीपे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे बहवो धातकीवृक्षा वहयो धातकीवनपण्डा बहूनि धातकीवनानि, बनपण्डयोः प्रतिविशेषः पागेवोक्तः, निकुसुमिया' इत्यादि प्राग्वत् , 'धायइमहाधाय इरुक्खेसु एत्थ'मित्यादि पूर्वाद्धं उत्तरकुरुपु नीलबाहिरिसमीपे धातकीनामवृक्षोऽवतिष्ठते, पश्चिमार्दै उत्तरकुरुपु नीलवगिरिसमीपे महाधातकीनामवृक्षोऽवतिष्ठते, तौ च प्रमाणादिना 'जम्बृवृक्षवद्वेदितव्यो, तबोरत्र धातकीपण्डे द्वीपे यथाक्रम सुदर्श-10 नप्रियदर्शनौ द्वौ देवौ महद्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः, ततो धातकीपण्डोपलक्षितो द्वीपो धातकीपण्डद्वीपः, तथा चाह||॥ ३२८ ॥ - से एएणडेण'मित्यादि गताथै ॥ सम्प्रति चन्द्रादिबक्तव्यतामाह-'धायइसंडे णं भंते! दीवे कति चंदा पभासिंसु' इत्यादि | --84-%A5% दीप अनुक्रम [२२४-२२७]] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~204 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ------------------- उद्देशक: [(दवीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१७४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७४] असूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! धातकीपण्डे द्वादश चन्द्राः प्रभासितयन्तः प्रभासन्ते प्रभासिघ्यन्ते, द्वादश सूर्यास्तापितवन्तस्ता-18 दापयन्ति सापयिष्यन्ति, त्रीणि नक्षत्रशतानि पनिशानि योगं चन्द्रमसा सूर्येण च साई युक्तवन्तो युजन्ति योश्यन्ति, तत्र त्रीणि | पत्रिंशानि नक्षत्राणां शतानि, एकैकस्य शशिनः परिवारेऽष्टाविंशतेनक्षत्राणां भावान् , तथा एक षट्पञ्चाशदधिकं महाप्रहसहस्रं चार चरितवन्तचरन्ति चरिष्यन्ति, एकैकस्य शशिनः परिवारेऽष्टाशीमहामहागां भावान् , अष्टौ शतसहस्राणि प्रीणि सहस्राणि सम शतानि तारागणकोटीकोटीनां शोभितवन्तः शोभन्ते शोभयिष्यन्ते, एतदपि एकशशिनः तारापरिमाणं द्वादशभिर्गुणयिखा भाषनीयं, उक्तं च-बारस चंदा मूरा नक्खत्तसया य तिन्नि छत्तीसा । एगं च गहसहस्सं छप्पन्नं धायईसंडे ॥ १॥ अट्ठव सयसहस्सा तिन्नि | सहम्सा य सत्त व सया छ । धायइसंडे दीये तारागणकोडिकोडीओ ।। २' सम्प्रति कालोदसमुद्रवक्तव्यतामाइ धायइसंडणं दीवं कालोदे णामं समुद्दे वह बलयागारसंठाणसंठिते सवतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठद, कालोदे णं समुद्दे किं समचकवालसंठाणसंठित विसम०, गोयमा! समचकवालणो विसमयकवालसंठिते॥कालोदे णं भंते ! समुहे केवतियं चकवालविखंभण केवतियं परिक्खयेणं पण्णते?, गोयमा अट्ट जोयणसयसहस्साई चकवालविर्खभणं एकाणउति जोयणसयसहस्साई सत्तरि सहस्साईडच पंचुत्तरे जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते ॥ से गं एगाए पउमवरवेदियाए एगणं वणसंडेणं दोण्हवि धाओ॥ कालोयरस णं भंते! समुहस्स कति दारा पण्णता, गोयमा! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तंजहा-विजए वेजयंते जयंते अपराजिए । 82-2%-- गाथा: % % दीप अनुक्रम [२२४-२२७]] % % २-4- कालोदसमुद्राधिकारः आरभ्यते ~205 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ------------------- उद्देशक: [(दवीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१७५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३२९॥ ३ प्रतिपत्ती कालोदो. दध्यधिक *उद्देशः२ [१७५] गाथा: *-**- 44-10- 14 कहि णं भंते ! कालोदस्स समुहस्स विजए णामं दारे पण्णते?, गोयमा ! कालोदे समुरे पुरस्थिमपेरंने पुकवरवरदीवपुरथिमद्धस्स पचत्थिमेणं मीतोडाए महाणदीए उपि एस्थ णं कालोदस्स समुहस्म विजये णामं दारे पपणते, अडेव जोगणाई नं व पमाणं जाव रायहाणीओ । कहि णं भंते ! कालोयस्स समुहस्स बेजयंते णामं द्वारे सपणते?, गोषमा! कालोयसमुहस्स बक्षिणपेरंते पुषवरवरदीवर दक्षिणमा उत्रणं एत्य गं कालोयसमुहस्स वेजयंते नामं दारे पत्ते । कहिण भंते ! कालोयसमुहरस जयंने नामंदारे पाते?, गोयमा! कालोयसमुहस्त पञ्चस्थिमपेरंते पुकापरवरदीवास्प पचत्थिमदरस पुरथिमे मीण माणदीप उप्पि जयंते जामं दारे पण्णत्ते । कहिणं भंते ! अपराजिव नाम द्वारे पाण' गोयमा! कालोयसमुदस्स उत्तरदपेरंने पुकरवरदीयोतरवस्म दाहिगाओ एस्थ णं कालोयममुनस्स अपराजिए णामं दारे०, सेसं तं चेव ।। कालोयस्स णं भंने ! समुहमदारस्म य २ एस णं केवनियं२ अथाहारा अंतरे पणते?, गोधमा!-यावीस सयसहस्सा बाण उति खलु भवे महरसाई। छच सया बायाला दारंतर तिनि कोसा य॥१॥ दारम्स य २ आयाहाए अंतरे पपणसे । कानोइस्स णं भंते! समुदस्स पएसा पुक्खरवरदीव० तहेब, एवं पुकवरवरदीवस्मवि जीवा उदाइत्ता २तहेव भाणियव्वं ।। से केणट्टेणं भंते! एवं बुचति कालोए समुद्र २१, गोषणा ! कालोयस्म णं समुदस्स उदके आसले मासले पेसले कालए मासरा दीप अनुक्रम [२२८-२३४] - *-* ॥ ३२९!! *- अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ------------------- उद्देशक: [(दवीप-समुद्र)], ------------------ मूलं [१७५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७५] xnni-e- 1 * गाथा: सिवण्णाभे पगतीए उदगरसेणं पण्णत्ते, कालमहाकाला एत्थ दुवे देवा महिड्डीया जाय पलि ओवमद्वितीया परिवसंति, से तेणटेणं गोयमा! जाव णिचे ॥ कालोए भंते! समुद्दे कति चंदा पभासिंस वा ३? पुच्छा, गोयमा! कालोए णं समुद्दे बायालीसं चंदा पभासेंसु वा ३यायालीसं चंदा यायालीस च दियरा दित्ता । कालोदधिम्मि एते चरंति संबद्धलेसागा ॥१॥ णवत्ताण सहस्सं एगं बावत्तरं च सतमपणं । छच सना छण्णच्या महागहा तिपिण य सहस्मा ॥२॥ अठ्ठावीसं कालोदहिम्मि बारस य मयसहस्साई । नव य सया पन्नासा तारागणकोष्टि कोडीणं ॥ ३ ॥ सोभेसु वा ३॥ (मू०१७५) "धायइसंडे यां दीव'मित्यादि, धातकीपण्डं णमिति पूर्ववन् द्वीपं कालोदसमुद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्थितः सर्वतः समन्तात् | संपरिक्षिप्य' वेटयित्वा तिष्ठति ॥ कालोग णं समुहे कि समचक्वालसंठिए' इत्यादि प्राग्वत् ॥ कालोए णं भंते' इत्यादि। प्रभसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम ! अष्टौ योजनशनसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेन एकनवतिः योजनशतसहमणि सप्ततिः सहस्राणि पट शतानि पश्चोतराणि किञ्चिविशेषाधिकानि परिक्षेपेण, एक च योजनसहस्रमुढेधेनेति गम्यते, उक्त च-"अडेव। सयसहरुमा कालोओ चक्वालओ कंडो । जोयणसहस्समेगं ओगाहणं मुणेययो ।। १ ॥ इगन उइ सयसहस्सा हवंति तह सत्तरी सहस्सा य । छन्द लया पंचहिया कालोबहिपरिरओ एसो ॥२॥'सेणं एगाए' इत्यादि, स कालोदसमुद्र एकया पद्मवरदिकया ऽयोजनोजद्रयया जगत्युपरिभाविन्येति गम्यते, एकेन वनपण्डेन सर्वतः समन्तात्संपरिभितः, द्वयोरपि वर्गक: प्रा दीप अनुक्रम [२२८-२३४] 4%BE- 2-5 maan Junia ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७५]] गाथा: श्रीजीवा- ग्वत् ॥ 'कालोयस्स णं भंते!' इत्यादि, कालोदस्य समुद्रस्य भदन्त ! कति द्वाराणि प्रज्ञमानि, भगबानाह-गौतम! चत्वारि द्वा-८३ प्रतिपत्ती जीवाभि राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-विजयं वैजयन्तं जयन्तमपराजितं च ॥ क भदन्त ! कालोदस मुद्रस्य विजयं नाम द्वार प्रज्ञसं ?, गौतम कालोदोमलयगि- कालोदसमुद्रस्य पूर्वपर्यन्ते पुष्करवरद्वीपस्य पूर्वार्द्धस्य पश्चिमदिशि शीतोदाया महानचा उपयंत्र कालोदस्य समुद्रस्य विजयं नाम द्वारा दयधिक रीयावृत्तिः प्रज्ञप्तं, एवं विजयद्वारवक्तव्यता पूर्वानुसारेण वक्तव्या, नवरं राजधानी अन्यस्मिन् कालोदे समुद्रे । वैजयन्तद्वारप्रभसूत्रं सुगम, भग-18 उद्देशः२ वानाह-गौतम ! कालोदसमुद्रदक्षिणपर्यन्ते पुष्करवर द्वीपदक्षिणार्द्धस्योत्तरतोऽत्र कालोदसमुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं, एवं जम्बू | सू०१७५ ॥ ३३०॥ द्वीपगतवैजयन्तद्वारवक्तव्यं, नवरं राजधानी अन्यसिान् कालोदे समुद्रे । अयन्तद्वारप्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! कालोद समुद्रपश्चिमपर्यन्ते पुष्करवरद्वीपपश्चिमार्द्धस्य पूर्वतः शीताया महानद्या उपयंत्र कालोदसमुद्रस्य जयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं, एतदपि जनम्बूद्वीपगतजयन्तद्वारवत् , नवरं राजधानी अन्यस्मिन् कालोदे समुद्रे । अपराजितद्वारप्रभसूत्रमपि सुगम, भगवानाह-गौतम ! कालो-12 दसमुद्रोत्तरार्द्धपर्यन्ते पुष्करवरद्वीपोत्तरार्द्धस्य दक्षिणतोऽत्र कालोदसमुद्रस्यापराजितं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं, तदुपि जम्बूद्वीपगतापराजितद्वा-18 रवन् नवरं राजधानी अन्यस्मिन् कालोदसमुद्रे ॥ सन्प्रति द्वाराणां परस्परमन्तरं प्रतिपिपादयिपुराह-'कालोयस्स णं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम द्वाविंशतियोजनशतसहस्राणि द्विनवतिः सहस्राणि पड् योजनशतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि जयश्च कोशा द्वारस्य द्वारस्य परस्परमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तं, तथाहि-चतुर्णामपि द्वाराणामेकत्र पृथुलमीलनेऽष्टादश योजनानि कालो-| हैदसमुद्रपरिरयपरिमाणाद् ९१७०६०५ इत्येवंरूपात शोध्यन्ते, शोधितेषु च तेषु जातमिदम्-एकनवतिर्लक्षाः सप्ततिः सहस्राणि पञ्च ते शतानि सप्ताशीत्यधिकानि ९१७०५८७ च, तेषां चतुर्भिीगे हृते लब्धं यथोक्तं द्वाराणां परस्परमन्तरपरिमाण २२९२६४६ कोश:7 दीप अनुक्रम [२२८-२३४] ३३०॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: E % प्रत सूत्रांक [१७५] RRC- Rit %CE HoRENCC गाथा: A5 61३, उक्त च-"छायाला छच सया बाणश्य सहस्स लक्ख बाबीसं । कोसा य तिनि दारतरं तु कालोबहिस्स भवे ॥ १॥"कालो-11 यस्स णं भंते! समुदस्स पएसा इत्यादि सूत्रचतुष्टयं पूर्ववद्भावनीयम् ।। नामान्वर्थमभिधित्सुराह-से केणवेण'मित्यादि, अथ के-1 नार्थेन भदन्त ! एपमुच्यते कालोदः समुद्रः कालोदः समुद्रः? इति, भगवानाह-नौतम ! कालोदस्य समुद्रस्योदकं 'आसलम्' आखाद्यम् उदकरसलात् मांसलं गुरुधर्मकत्वात् पेशलं आस्वादमनोज्ञवात् 'काल' कृष्णम् , एतदेवोपमया प्रतिपादयति-मापराशिवर्णाम, उक्तञ्च-पगईए उद्गरसं कालोए उद्ग मासरासिनिमं" इति, तत: कालमुदकं यस्यासौ कालोदः, तथा कालमहाकाली च तत्र द्वौ देवौ पूर्वार्द्धपश्चिमाधिपती महाद्धिको यावत्सल्योपमस्थितिको परिवसतः, तत्र कालयोरुदकं यस्मिन् स कालोदः, तथा चाह-से एएणद्वेण मित्यादि सूत्रं पाठसिद्धं । एवरूपं च चन्द्रादीनां परिमाणमन्यत्राप्युक्तम्-"बायालीसं चंदा बायालीसं च | विणयरा दित्ता । कालोयहि म्नि एए चरंति संबद्धलेसागा ॥१॥ नक्षत्ताण सहस्सा सयं च बाबत्तरं मुणेयध्वं । छच्च सया छन्न उया गहाण तिन्नेव य सहस्सा ॥ २ ॥ अट्ठावीसं कालोयहिम्मि वारस य सबलहस्लाई । नव य सया पन्नासा तारागणकोडीकोडीणं ॥ ३॥" सम्प्रति पुष्करवर द्वीपवक्तव्यतामाह कालोयं णं समुदं पुक्खरवरे णाम दीवे चट्टे वलयागारसंठाणसंठिते सव्वतो समंता संपरिक तहेब जाव समचक्कवालसंठाणसंठिते नो विसमचकवालसंठाणसंठिए । पुक्खरवरे गं भंते ! दीवे १ अन्न यद्यपि मूत्रादसेंषु गाधाविक दयते इरमेय, पर प्रतिकारावासादशैषु न संभाब्यते सूत्ररूपतया सत्ताऽस्य परिमाणत्युदितं अन्यत्राप्युक्त मिति, - दीप अनुक्रम [२२८-२३४] -%25A SC M जी०५६अमेऽप्यनेकौये. * SAX पुष्करवरद्वीप-अधिकार: आरभ्यते ~209 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः [१७६] प्रतिपत्ती & पुष्करवका राधिक उद्देशः२ सू०१७६ गाथा: -2-%-45 केवतियं चकवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पणत्ते?, गोयमा! सोलस जोयणसतसहस्साई चकवालविक्खंभेणं-एगा जोयणकोडी बाणउति खलु भवे सयसहस्सा । अउणाणउर्ति अट्ठ सया चउणउया य [परिरओ] पुक्खरवरस्स ॥२॥ से णं एगाए पउमवरवेदियाए एगेण य यणसंडेण संपरि० दोण्हवि वपणओ ॥ पुक्खरवरस्स णं भंते! कति दारा पण्णता?, गोयमा! चत्तारि वारा पपपत्ता, तंजहा-विजए बेजयंते जयंते अपराजिते ॥ कहिणं भंते ! पुक्खरवरस्स दीवस्स विजए णामं दारे पपणते?, गोयमा! पुक्खरवरदीवपुरच्छिमपेरंते पुक्खरोदसमुहपुरच्छिमदस्स परस्थिमेणं एत्थ णं पुक्खरवरदीवस्स विजए णामं दारे पपणते तं चेव सव्वं, एवं चसारिवि दारा, सीयासीओदा णस्थि भाणितवाओ ॥ पुक्खरवरस्स णं भंते! दीवस्स दारस्सय २ एस ण केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णते?, गोयमा!-'अड्याल सयसहस्सा यावीसं खल्लु भवे सहस्साई । अगुणुत्तरा य चउरो दारंतर पुण्यरवरस्स ॥१॥ पदेसा दोण्हवि पुढा, जीवा दोसु भाणियब्वा ॥ से केणटेणं भंते ! एवं बुचति पुक्वरघरदीवे २१, गो० पुक्खरबरे णं दीवे तत्थ २ देसे तहिं २ बहवे पउमरुक्खा पउमवणसंडा णिचं कुसुमिता जाब चिट्ठति, पउममहापउमरुक्वे एस्थ णं पउमपुंडरीया णाम दुवे देवा महिहिया जाव पलिओवमट्टितीया परिबसंति, से तेण?णं गोयमा! एवं बुचति पुक्वरवरडीचे २ जाब निचे ॥ पुक्खरवरेणं 4 दीप अनुक्रम [२३५-२४९] 2-56 mayam अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७६] गाथा: भंते! दीवे केवइया चंदा पभासिंसु वा ३१, एवं पुच्छा,-चोयालं चंदसयं चउयालं चेव सूरियाण सयं । पुक्खरवरदीवंमि चरंति एते पभासेंता॥१॥चत्तारि सहस्साई बत्तीसं चेव होति णवत्ता । छच्च सया बावत्तर महग्गहा बारह सहस्सा ॥२॥ छपणउइ सयसहस्सा चत्तालीसं भये सहस्साई । चत्तारि सया पुक्खर [वर] तारागणकोडकोडीणं ॥३॥ सोभेसु वा ३॥ पुक्खरवरदीचस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं माणुसुत्तरे नामं पवते पण्णत्ते वढे वलयागारसंठाणसंठिते जे णं पुक्खरवरं दीवं दुहा विभयमाणे २ चिट्ठति, तंजहा-अम्भितरपुक्खरद्धं च बाहिरपुक्खरद्धं च ।। अम्भितरपुक्खरद्धे णं भंते ! केवतियं चकवालेणं परिक्खेवेणं पण्णते?, गोयमा अट्ट जोयणसयसहस्साई चकवालविक्खंभेणं-कोडी यायालीसा तीसं दोषिण य सया अगुणवणा। पुक्खरअद्धपरिरओ एवं च मणुस्सखेत्तस्स ॥१॥ से केण?णं भंते ! एवं बुञ्चति अम्भितरपुक्खरद्धे य २१, गोयमा! अभितरपुक्खरद्धेणं माणुसुत्सरेणं पब्बतेणं सव्वतो समंता संपरिक्खिते, से एएणतुणं गोयमा! अम्भितरपुक्खरहे य २, अदुत्तरं च णं जाव णिचे । अम्भितरपुक्खरहे णं भंते! केवतिया चंदा पभासिंसु वा ३ साचेव पुच्छा जाव तारागणकोडकोडीओ?, गोयमा!-चावरिंच चंदा यावत्तरिमेव दिणकरा दित्ता । पुकम्वरवरदीवढे चरंति एते पभासेंता ॥१॥ तिनि सया छत्तीसा छच सहस्सा महग्गहाणं तु । णखत्ताणं तु भवे सोलाइ दुवे सह दीप अनुक्रम [२३५ PCRORSC ONG -२४९] ~211 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) ཎྜཱཙྩེཝོཝཱ ཝཱ + ཊྛལླཱཡྻ [१७६] अनुक्रम -२४९] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) ------ उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र )], प्रतिपत्ति: [ ३ ], - मूलं [ १७६ ] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३३२ ॥ स्साई || २ || अडवाल सयसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साई । दोन्नि सया पुक्खरदे तारागणकोडिकोडीणं ॥ ३ ॥ सोनेंसु वा ३ || (सू० १७६ ) 'कालो मुद्द' भित्यादि, कालोदं णमिति वाक्यालङ्कारे समुद्रं पुष्करवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति । पुक्खरबरे णं दीवे किं समचकालसंठिएं इत्यादि प्राग्वत् ॥ विष्कम्भादिप्रतिपादनार्थमाह-'पुखरबरे णं भंते! दीवे' इत्यादि प्रनसूत्रं सुगमं, भगवानाह गौतम ! पोडश योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेन एका योजनकोटी द्विनवतिः शतसहस्राणि एकोननवतिः सहस्राणि अझै शतानि चतुर्नवतानि ९४ योजनानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः ॥ 'से ण'मि त्यादि, स पुष्करवरद्वीप एकया पद्मवश्वेदिकग्राऽष्टयोजनोच्छ्रयया जगत्युपरिभाविन्येति गम्यते, एकेन वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, द्वयोरपि वर्णकः पूर्ववन् । अधुना द्वारवतव्यतामाह - 'पुक्खरवरस्स णमित्यादि, पुष्करवरद्वीपस्य कति द्वाराणि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह - गौतम! चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-विजयं वैजयन्तं जयन्तमपराजितं च ॥ 'कहि णं भंते!" इत्यादि, क भदन्त ! पुष्करवरद्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह - गौतम! पुष्करवरद्वीपपूर्वार्द्धपर्यन्ते पुष्करोदस्य समुद्रस्य पश्चिम दिशि अत्र पुष्करवरद्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं तत्र जम्बूद्वीपविजयद्वारवदविशेषेण वक्तव्यं, नवरं राजधानी अन्यस्मिन् पुष्करवरद्वीपे वक्तव्या । एवं वैजयन्तादिसूत्राण्यणि भावनीयानि, सर्वत्र राजधानी अन्यस्मिन् पुsererद्वीपे ॥ सम्प्रति द्वराणां परस्परमन्तरमाह - ' पुक्खरवरदीवस्त्र णमित्यादि प्रनसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम! अष्टचत्वारिंशद् योजनशतसहस्राणि द्वाविंशनिर्योजनसहस्राणि चखारि योजनशतानि एकोनसप्ततानि द्वारस्य द्वारस्य च परस्परमवाधयाऽन्तरपरिमाणं चतुर्णामपि द्वाराणामेकत्र For P&Pale City अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~212~ ३ प्रतिपत्ती पुष्करवराधि० उद्देशः २ सू० १७६ ॥ ३३२ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७६] गाथा: पृथुत्वमीलनेऽष्टादश योजनानि, तानि पुष्करवरद्वीपपरिमाणाद् १९२८९८९४ इत्येवरूपात शोध्यन्ते, शोधितेषु च तेषु जातमिदम्४ाएका योजनकोटी द्विनवतिः शतसहस्राणि एकोननवतिः सहस्राणि अष्टौ शतानि पट्सप्पत्यधिकानि १९२८९८७६, तेषां चतुर्भि भीगे हृते लब्धं यथोक्त द्वाराणां परस्परमन्तरपरिमाणं ४८२२४६५ ।। पुक्खरवरदीवस्स णं भंते ! दीवस्स पएसा पुस्खरवरसमुई पुट्ठा?" इत्यादि सूत्रचतुष्टयं प्राग्वत् ।। सम्प्रति नामनिमित्तप्रतिपादनार्थमाह-से केणद्वेण मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते पुष्करवरद्वीपः २१ इति, भगवानाह-गौतम! पुष्करवरद्वीपे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र २ प्रदेशे वह्वः पद्मवृक्षाः, पद्मानि अतिविशालतया वृक्षा इव पावृक्षाः, पाखण्डा:-पद्मवनानि, खण्डवनयोर्विशेष: प्राग्वत् , 'निचं कुसुमिया' इत्यादि विशेष जातं प्राग्यन् । तथा पूर्वाद्धे उत्तरकुरुपु यः पद्मवृक्षः पश्चिमाबें उत्तर कुरुपु यो महापद्मवृक्षस्तयोरत्र पुष्करवरद्वीपे यथाक्रमं पद्मपुदण्डरीको द्वौ देवौ महद्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको यथाक्रम पूर्वार्धापरार्द्धाधिपती परिवसतः, तथा चोक्तम्-उमे य महापउमे रक्सा उत्तरकुरुसु जंबुसमा । एएसु बसंति सुरा पउमे तह पुंडरीए य ।। १॥" पद्मं च पुष्करमिति पुष्करवरोपलक्षितो द्वीपः पु-IN करवरो द्वीप: 'से एएणट्टेण'मित्यागुपसंहारवाक्यम् ॥ सम्प्रति चन्द्रादित्यादिपरिमाणमाह-'पुक्खरवरे'त्यादि पाठसिद्धं, नवरं नक्षत्रादिपरिमाणमष्टाविंशत्यादिसम्बवानि नक्षत्रादीनि चतुश्चलारिंशेन शतेन गुणयित्वा स्वयं परिभावनीयं, उक्तं चैयरूपं परिमाणमन्यत्रापि-चोयालं चंदसयं चोयालं व सूरियाण सयं । पुखरबरंमि दीवे चरंति एए पगासिंता ॥ १ ॥ चत्तारि सहस्साई पाच महापयो वृक्षी उत्तरकुरुषु जम्बूसमी । एतयोर्वसतः मुरो पापा श्रीकश्च ॥१॥२ चतुबत्वारिंशं चन्द्रशतं चतुश्चत्वारिंश चैव सूर्याणां । शतं । पुष्करसरे द्वीप परन्ति एते प्रकाशयन्तः ॥1॥ चत्वारि सहस्त्राणि, दीप अनुक्रम [२३५ AMACROCOCCOCOCCACASCAM -२४९] 6+%CCX ~2134 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७६] गाथा: श्रीजीवा- बत्तीस चेव होंति नक्षत्ता । छन्च सया बावत्तर महागहा वारससहरसा ॥ २॥ छन्नउइ सयसहस्सा चोयालीसं भवे सहस्साई प्रतिपत्ती जीवाभि० चत्वारिं च सयाई तारागणकोडिकोडीणं ॥ ३॥" इति । सम्प्रति मनुष्यक्षेत्रसीमाकारिमानुषोत्तरपर्वतवक्तव्यतामाह-'पुक्खरवर-4 पुष्करवमलयगि- दीवस्स ण'मित्यादि, पुष्करवरस्य णमिति वाक्याल कृतौ द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे मानुपोत्तरो नाम पर्वत: प्रज्ञप्तः, स च वृत्तः, वृत्तं च | राधि रीयावृत्तिःमध्यपूर्णमपि भवति यथा कौमुदीशशाङ्कमण्डलं ततस्तद्रूपताव्यवच्छेदार्थमाह-वलयाकारसंस्थानसंस्थितो, यः पुष्करवरं द्वीपं द्विधा उद्देशः२ सर्वासु दिक्षु विदिक्ष प विभजमानो विभजमानस्तिष्पति, केनोहेलेन द्विधा विभजमानस्तिष्ठति ? इत्यत आह-जयथा-अभ्यन्तरपुष्क-15सू०१७६ ॥ ३३३॥ तराई च बाह्यपुष्कराद्ध च, चशब्दो समुच्चये, किमुक्तं भवति ?-मानुपोत्तरात्पर्वतादर्वाग् यत्पुष्करा तदभ्यन्तरपुष्कराई, यत्पुनस्त-14 स्मान्मानुषोत्तरपर्वतात्परत: पुष्करार्द्ध तद् वाह्यपुष्करार्द्धमिति ।। 'अन्भितरपुक्खरद्धे णमित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौ-13 तम! अष्टौ योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेन एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशच्छतसहस्राणि त्रिंशत्सहस्राणि द्वे च योजनशते ४ एकोनपञ्चाशे किञ्चिद्विशेषाधिके परिझेपेण प्रज्ञप्तः ।। 'से केणटेण'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-अभ्यन्तरपुष्करार्द्ध-18 मभ्यन्तरपुष्करार्द्धम् ? इति, भगवानाह-गौतम ! अभ्यन्तरपुष्कराई मानुगोचरोत्तरेण पर्वतेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तं, ततो सामानुपोत्तरपर्वताभ्यन्तरे वर्तमानवादभ्यन्तरपुष्कराड, तथा चाह-से एएणट्रेण मित्यादि गतार्थ ।। 'अभितरपुक्खरद्धे णं भंते! Vाकर चंदा पभासिंसु?' इत्यादि चन्द्रादिपरिमाणसूत्र पाठसिद्ध, नवरं नक्षत्रादिपरिमाणमष्टाविंशत्यादीनि नक्षत्राणि ग्रासप्तत्या गुण-IN द्वात्रिंशवेव भवन्ति नक्षत्राणि । महापड़ा द्वादश सहस्राणि पद् शतानि द्विसप्ततानि ॥ २ ॥ पाणबातः शतसहस्राणि चतुश्चत्वारिंशत् सहस्राणि । चत्वारि न शतानि तारागणाः कोटी कोटीमा भवेयुः ॥३॥ दीप अनुक्रम [२३५-२४९] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~2144 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७६] गाथा: यिला परिभाषनीयं, उक्तं चैवंरूपं परिमाणमन्यत्रापि-वात्तरि च चंदा बावत्तरिमेव दिनयरा दित्ता । पुक्खरवरदीवड़े चरंति | एए पगासिता ॥ १ ॥ तिगि सबा छत्तीसा छच सहस्सा महग्गहाणं तु । नक्सत्ताणं तु भवे सोलाणि दुवे सहस्साणि ॥ २॥ अडयाल सयसहस्सा बावीस चेव तह सहस्साई । दो य सय पुरखरखे तारागण कोडिकोडीगं ॥ ३॥” इह सर्वत्र तारापरिमाणचि-1 न्सायां कोटीकोटयः कोट्य एव द्रष्टव्याः, तथा पूर्वसूरिव्याख्यानाद, अपरे उपछयाङ्गुलप्रमाण मनुमृत्य कोटीकोटीरेव समर्थयन्ति, ] | उक्तव्य-कोडाकोडी सन्नंतरं तु मनंति केइ धोत्रतया । अन्ने उस्सेहंगुलमाणं काऊण ताराणं ।। १॥" समयखेते ण भंते! केवतियं आयामविश्वंभेणं केवनिय परिक्वेवेणं पणते ?. गोयमा! पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं एगा जोयण कोडी जावम्भितरपुकावरद्धपरिरओ से भाणियग्यो जाव अउणपणे ।। से केणतुणं भंते! एवं बुञ्चति-माणुसखेसे २?, गोयमा! माणुसवेत्ते णं तिविधा मगुस्सा परिवसंति, जहा-कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अंतरदीवगा, से तेणतुणं गोयमा! एवं बुचति-माणुसम्वेत्ते माणुसग्वेत्ते ।। माणुसखेत्तेणं भंते! कति चंदा पभासेंसु बा ३१, कइ सूरा तबइंसु वा ३१, गोयना!-बत्तीसं चंदसयं वत्सीसं चेव मूरियाण सयं । सयलं मणुस्सलोयं चरति एते पभासेंता ॥१॥ एकारस य सहस्सा छप्पिय सोला महग्गहाणं तु । छच सया छपणउया णवत्ता तिपिण य सहस्सा ॥२॥ अइसीइ सयसहस्सा चत्तालीस सहस्स १ कोटी कोटाति संशान्तरं ( कोटीरूपं) मन्यन्ते केचित् क्षेत्रस्य स्तोकापात् । अन्ये उत्तेपाल मानं तारागां कृत्वा ( कोटी कोटी नि येव ) ॥1॥ दीप अनुक्रम [२३५-२४९] - - - समयक्षेत्र-अधिकारः आरभ्यते ~215 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७७] + गाथा: ॥१-३२॥ दीप अनुक्रम [२५० -२८६] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) ------ उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र )], प्रतिपत्तिः [३], - मूलं [ १७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३३४ ॥ मलोगंमि । सत्त य सता अणूणा तारागणकोटकोटीणं ॥ ३ ॥ सोमं सोनेंसु वा ३ ॥ एसो तारापिंडो सवसमासेण मणुयलोगंमि । बहिया पुण ताराओ जिणेहिं भणिया असंखेजा ॥ १ ॥ एवइयं तारगं जं भणियं माणुसंमि लोगंमि । चारं कलंबुयापुष्पसंठियं जोइस चरइ ||२|| रविससिगहनता एवइया आहिया मणुयलोए । जेसिं नामागोयं न पागया पन्नवेहिंति ॥ ३ ॥ छाडी पिडगाई चंदाइचा मणुपलोगंमि । दो चंदा दो सूरा य होति एकेक पिडe ॥ ४ ॥ छावट्टीपिडगाई नक्त्ताणं तु मणुयलोगंमि । छप्पनं नक्खता य होति एकेक पिडए ॥ ५ ॥ छावडी पिडगाई महागहाणं तु मणुयलोगंमि । छावतरं गहस्यं च होइ एकेकए पिडए ॥ ६ ॥ चत्तारि य पंतीओ चंदाइचाण मणुयलोगंमि । छावद्विय छावद्विय होइ य एकेकया पंती ॥ ७ ॥ छप्पनं पंतीओ नक्खत्ताणं तु मणुयलोगंमि । छावट्टी छावट्टी हवइ य एक्केकया पंती ॥ ८ ॥ छावसरं गाणं पंतिसयं होइ मणुयलोगंमि । छावट्ठी छावट्ठी य होति एके किया पंती ॥ ९ ॥ ते मेरु परियडन्ता पयाहिणावत्तमंडला सध्वे । अणवद्वियजोगेहिं चंदा सूरा गहगणा य ॥ १० ॥ नक्खन्तारगाणं अवट्टिया मंडला मुणेयब्वा । तेऽविय पयाहिणावत्तमेव मेरुं अणुचरंति ॥ ११ ॥ रणियरदिणयराणं उहे व अहे व संकमो नत्थि । मंडलसंकमणं पुण अभितरवाहिरं तिरिए ॥ १२ ॥ स्यणियरणियराणं नक्खत्ताणं महग्गहाणं च । चारविसेसेण भवे सुहदुक्खविही For P&False Cinly ३ प्रतिपत्तौ समयक्षेत्राधि० उद्देशः २ सू० १७७ ~216~ ॥ ३३४ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश: '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७७] + गाथा: ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [२५० -२८६] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) ------ उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र )], प्रतिपत्ति: [ ३ ], - मूलं [१७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः मस्साणं ॥ १३ ॥ तेसिं पविसंताणं तायकखेत्तं तु वहुए नियमा । तेणेव कमेण पुणो परिहायज्ञ निक्ताणं ॥ १४ ॥ सिं कलंबुयापुष्कसंठिया होइ तावतपहा । अंतो य संकुया बाहि वि स्थडा चंद्रसूरगणा ॥ १५ ॥ केणं बहुति चंदो परिहाणी केण होइ चंदस्स । कालो वा जोन्हो वाकेऽणुभावेण चंदस्स ।। १६ ।। किन्हं राहूविमाणं निचं चंद्रेण होइ अविरहियं । चउरंगुलari हिट्ठा चंदरस तं चरइ ॥ १७ ॥ बावहिं यावद्धिं दिवसे दिवसे उ सुकपक्वस्स । जं परिवह दो खदेड़ तं चैव कालेणं ॥ १८ ॥ पन्नरसहभागेण य चंद्रं पश्नरसमेव वरइ | पन्नरसइभागेण य पुणोषि तं चैव तिकमइ ॥ १९ ॥ एवं वह चंदो परिहाणी एव होइ चंदस्स । कालो वा जोन्हा वा तेणणुभावेण चंदस्स ॥ २० ॥ अंतो मणुस्सखेत्ते हवंति चारोवगा य उबवण्णा । पञ्चविहा जोइसिया चंदा सूरा गहगणा य ॥ २१ ॥ तेण परं जे सेसा चंदाइचगहतारनक्वता । after of afe are raट्टिया ते मुणेयच्या ॥ २२ ॥ दो चंदा इह दीवे चत्तारि य सागरे लवणतोए । घाइडे दीवे वारस चंद्राय सूराय || २३ || दो दो जंबूद्दीवे ससिसूरा दुगुणिया भवे लक्षणे लावणिगा य निगुणिया ससिसूरा घायईसंडे ॥ २४ ॥ धायइसंडपनि उद्दिद्वतिगुणिया भवे चंद्रा | आइलचंदसहिया अनंतराणंतरे खेते ॥ २५ ॥ रिक्खग्गहतारग्गं दीवसमुद्दे जहिच्छ से नाउं । तस्स ससीहिं गुणियं रिक्वग्गहतारगाणं तु ॥ २६ ॥ चंदातो सूरस्स य सूरा For P&Praise City ~217~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] सू० १७७ गाथा: ||१-३२|| श्रीजीवा चंदस्स अंतरं होइ । पन्नास सहस्साई तु जोयणाणं अणूणाई ॥२७॥ सूरस्प्त य सूरस्स य स- ३ प्रतिपत्तो जीवाभि सिणो ससिणो य अंतरं होई । बहियाओ मणुस्सनगस्स जोयणाणं सयसहस्सं ॥ २८ ॥ सूरंत | समयक्षे. मलयगि- रिया चंदा चंदंतरिया यदिणयरा दित्ता । चित्तरलेसागा सुहलेसा मंदलेसा य ।। २९ ।। अट्ठा त्राधि रीयावृत्तिः। सीई च गहा अट्ठावीसं च होंति नक्वत्ता । एगससीपरिवारो एसो ताराण वोच्छामि ॥ ३०॥ छावद्विसहस्साई नव चेव सयाई पंचसयराई। एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं ॥ ३१॥ बहियाओ माणुसनगस्स चंदसूराणऽवडिया जोगा। चंदा अभीड जुत्ता सूरा पुण होति पुस्सेहिं ॥ ३२ ॥ (सू०१७७) 'माणुसखेते ण'मित्यादि, मनुष्यक्षेत्रं भदन्त ! कियदायामविकम्मेन कियत्परिक्षेपेण प्रजामं ?, भगवानाह-गौतम! पञ्चचलारिंशद् योजनशतसहसाण्यायामविष्कम्भेन, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशत् शतसहस्राणि त्रिंशसहस्राणि द्वे योजनशते एकोनपभाशे किश्चिद्विशेषाधिके परिक्षेपेण प्रज्ञाप्त ॥ सम्प्रति नामनिमित्तममिधिल्सुराह-से केणद्वेण मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-मनुप्यक्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रं ? इति, भगवानाह-गौतम! मनुष्यक्षेत्रे त्रिविधा मनुष्याः परिवसन्ति, तद्यथा-कर्मभूमका अक. मर्मभूमका अन्तरद्वीपकाच, अन्यच मनुष्याणां जन्म मरणं चात्रैव क्षेत्रे न तदहिः, तथाहि-मनुष्या मनुष्यक्षेत्रमा बहिर्जन्मतो न भूता न भवन्ति न भविष्यन्ति च, तथा यदि नाम केनचिदेवेन दानवेन विद्याधरेण वा पूर्वानुपरनिर्यातमार्थमेवरूपा बुद्धिः क्रि-IN यते यथाऽयं मनुब्योऽस्मान् स्थानाद् उत्पाच्य मनुष्यक्षेत्रस्य बहिः प्रक्षिप्यतां येनोर्द्धशोपं शुष्वति म्रियते वेति तथाऽपि लोकानुभावा-161 दीप अनुक्रम [२५०-२८६] SEAR अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७७] + गाथा: ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [२५० -२८६] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) ------ उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र )], प्रतिपत्ति: [ ३ ], - मूलं [१७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः देव सा काचनाऽपि बुद्धिर्भूयः परावर्त्तते यथा संहरणमेत्र न भवति संहय वा भूयः समानयति तेन संहरणतोऽपि मनुष्यक्षेत्राहिमनुष्या मरणमधिकृत्य न भूता न भवन्ति न भविष्यन्ति च येऽपि जङ्घाचारिणो विद्याचारिणो वा नन्दीश्वरादीनपि यावच्छन्ति तेऽपि तत्र गता न मरणमञ्जुवते किन्तु मनुष्यक्षेत्रसमागता एव तेन मानुषोत्तरपर्वतसीमाकं मनुष्याणां सम्बन्धि क्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रमिति, तथा चाह - 'से एएणहेण मित्यादि गतार्थम् ॥ सम्प्रति मनुष्यक्षेत्रगत समस्तचन्द्रादिसापरिमाणमाह- 'मणुस्सखेत्ते णं भंते! कइ चंदा पभासिंसु' इत्यादि पाठसिद्ध उक्तं चैवंरूपं परिमाणमन्यत्रापि – “बत्तीसं चंदसयं बत्तीसं चैव सूरिया सयं । सयलं मणुस्सलोयं चरंति एक गासिंता ॥ १ ॥ एकारस य सहस्सा छपि य सोला महागहाणं तु । छथ सवा छनउया नक्खत्ता | तिन्निय सहस्सा || २ || अट्ठासीयं लक्खा चत्तालीस च तह सहस्साई । सत्त सया व अणूणा तारागणकोडकोडीणं ॥ ३ ॥ तत्र द्वात्रिंशं चन्द्रशतमेवं- द्वौ चन्द्रौ जम्बूद्वीपे चलारो लवणोदे द्वादश घातकीपण्डे द्वाचत्वारिंशत्कालोदे द्वासप्ततिरभ्यन्तरपुष्करा सर्व साया द्वात्रिंशं शर्त एवं सूर्याणामपि द्वात्रिंशं शतं परिभावनीयं नक्षत्रादिपरिमाणमष्टाविंशत्यादिनक्षत्रादीनि द्वात्रिंशेन शतेन गुणयित्वा परिभावनीयं ॥ सम्प्रति सकलमनुष्यलोकगततारागणस्योपसंहारमाह-'एषः' अनन्तरोक्तसङ्ख्याकस्तारापिण्डः सर्वसङ्ख्या मनुष्यलोके आख्यात इति गम्यते, वह्निः पुनर्गनुष्यलोकाद् यास्तारास्ता: 'जिनैः' सर्वज्ञस्तीर्थकृद्भिर्भणिता असङ्ख्याता द्वीपसमुद्रानामसङ्ख्यातवान् प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं च यथायोगं यातानामतानां च ताराणां सद्भावात् 'एतावत्' एतावत्समाकं 'तारायं' तारापरिमाणं यत् अनन्तरं भणितं मानुषे लोके तन् 'ज्योतिषं' ज्योतिपदेवविमानरूपं 'कदम्बपुष्पसंस्थितं' कदम्बपुष्पवद् अधः सङ्कुचितमुपरि विस्तीर्ण उत्तानीकृतार्द्ध कपित्थसंस्थानसंस्थितमिति भावः 'चारं चरति पारं प्रतिपद्यते, तथा जगत्स्वाभा For P&Praise City ~219~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] गाथा: ||१-३२|| श्रीजीवा व्यात् , ताराग्रहण चोपलक्षणं, नतः सूर्यादयोऽपि यथोक्तसङ्ख्याका मनुष्यलोके तथाजगत्ताभाव्याचारं प्रतिपद्यन्त इति दृष्टध्वं । स-4 प्रतिपत्तो जीवाभिः म्प्रत्येतद्तमेवोपसंहारमाह-रविशशिग्रहनक्षत्राणि, उपलक्षगनेतत् तारकाणि च, 'एतावन्ति' एतावत्सयाकानि सपूर्वा मनुष्य-IN| समयक्षेमलयगि | लोके, येषां किम् ? इत्याह-येषां सूर्यादीनां यथोक्तसङ्ख्याकानां सकलमनुष्यलोकभाविना प्रत्येक नामगोत्राणि, इहान्वर्थयुक्त नाम सि- त्राधिक रीयावृत्तिः | शान्तपरिभाषया नाम गोत्रमित्युच्यते, ततोऽयमर्थः-नामगोत्राणि-अन्वर्थयुक्तानि नामानि, यदिवा नामानि च गोत्राणि च नामगो-IG उद्देशः२ ॥३३६॥R त्राणि 'प्राकृताः' अनतिशायिनः पुरुषाः कदाचनापि न प्रजापयिष्यन्ति, केवलं यदा त्याह सर्वज्ञ एवं, तत इदं सूर्यादिसंवानं प्राक सपुरुषाप्रमेयं सर्वज्ञोपदिष्टमिति सम्यक् श्रद्धेयं ॥ इह द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यावेक पिटकमुच्यते, इत्थम्भूतानि च चन्द्रादित्यानां पिटकानि | सर्वसषया मनुष्यलोके षट्पष्टिसहयानि । अथ किंप्रमाणं पिटकमिति पिटकप्रमाण माह-एकै कस्मिन् पिटके द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यो भवत इति, किमुक्तं भवति ?-दौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यापित्येतावत्प्रमाणमेकैकचन्द्रादित्याना पिटकमिति, एवंप्रमाणं च पिटकं जम्बूद्वीपे एफ,12 द्वयोरेव चन्द्रमसोईयोरेव सूर्ययोस्तत्र भावतः, द्वे पिटके लवणसमुद्रे चतुर्गा चन्द्रमसां चतुर्णा सूर्याणां च तत्र भावान्, एवं षट् पि-13 टकानि धातकीपण्डे एकविंशतिः कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराढ़ें इति भवन्ति सर्वमीलने चन्द्रादित्यानां पटवष्टिः पिटकानि ॥ सर्वस्मिन्नपि मनुष्यलोके सर्वसङ्ग्य या नक्षत्राणां पिटकानि भवन्ति पट्पष्टिः, नक्षत्रपिटकपरिमाणं च शशिद्वयसम्बन्धिनक्षत्रसमापरिमाणं, तथा चाह-एककस्मिन् पिटके नक्षत्राणि भवन्ति पट्पञ्चाशत्, किमुक्तं भवति ?-पटपञ्चाशनक्षत्रसयाकमेकैक नक्षत्रपि-| टकमिति, अनापि पद्पष्टिसख्याभावनैवम्-एक नक्षत्रपिटकं जम्बूद्वीपे द्वे लवणसमुद्रे पट् धातकीपण्डे एकविंशतिः कालोदे षट्त्रिंश ॥३३६ दभ्यन्तरपुष्कराच इति ।। महाग्रहाणामप्यङ्गारकप्रभृतीनां सर्वस्मिन् मनुष्यलोके सर्वसङ्ख्यया पिटकानि भवन्ति पट्षष्टिः, ग्रह पिट-1 Im 5AGAR - दीप अनुक्रम [२५०-२८६] -- - - अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~220 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] CRECR गाथा: ||१-३२|| कपरिमाणं च शशिद्वयसम्बन्धिमहसल्यापरिमाणं, तथा चाह-एकैकस्मिन् पिटके भवति षट्सप्रतं-षट्सप्पत्यधिकं ग्रहशन, षट्स-| सत्यधिकमहशतपरिमाणमेकैकं महपिटकपरिमाणमिति भावः, षट्यष्टिसयाभावना प्राग्वत् ।। इह मनुष्यलोके चन्द्रादित्यानां पतयः | | पलयो भवन्ति, तद्यथा-वे पक्षी चन्द्राणां वे सूर्याणां, एकैका च पतिर्भवति षट्षष्टिः पट्पष्टि:-पट्षष्टिषट्षष्टिसूर्यादिसलया, तद्भावना चैवम्-एकः किल सूर्यों जम्बूद्वीपे मेरोदक्षिणभागे चारं चरन् वर्त्तते एक उत्तरभागे, एकश्चन्द्रमा मेरोः पूर्वभागे एकोऽ-13 परभागे, तत्र यो मेरोदक्षिणभागे सूर्यश्चारं चरन वर्त्तते ततः समश्नेणिव्यवस्थितौ द्वौ दक्षिणभागे एव सूर्यों लवणसमुद्रे पड् धातकी-11 पण्डे एकविंशति: कालोदे षट्त्रिंशदभ्यन्तरपुष्करायें, इत्यस्यामपि सूर्यपको सर्वसङ्ख्यया षट्पष्टिः सूर्याः, तथा बोऽपि च मेरोरुत्तरभागे सूर्यश्चारं चरन् वर्त्तते तस्यापि समश्रेण्या व्यवस्थितौ द्वौ उत्तरभागे सूर्यों लवणसमुद्रे पट धातकीपण्डे एकविंशतिः कालोदे। पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराढे इत्यस्यामपि सूर्यपकी मर्वसङ्ख्यया षट्षष्टिः सूर्याः, तथा यो मेरोः किल पूर्वभागे चारं परन् वर्तते चन्द्रमास्तत्समश्रेणिव्यवस्थिती द्वौ पूर्वभागे एव चन्द्रमसौ लवणसमुद्रे पत् धातकीपण्डे एकविंशतिः कालोदे पत्रिंशदभ्यन्तरपुरकरा इत्यस्यां चन्द्रपती सर्वसाझ्यया षट्पष्टिश्चन्द्रमसः, एवं यो मेरोरपरभागे चन्द्रमास्तन्मूलायामपि पती पद्धष्ठिश्चन्द्रमसो दिवव्याः ॥ नक्षत्राणां मनुष्यलोके सर्वसाध्वया पतयो भवन्ति षट्पंचाशत् , एकैका च पतिर्भवति पट्पष्टिः पट्पष्टि त झवपरिमाणा इत्यर्थः । नथाहि--किलास्मिन् जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽर्द्धभागे एकस्य शशिन: परिवारभूतान्यभिजिदादीन्यष्टाविंशतिसाव्यानि नक्षत्राणि क्रमेण ज्यवस्थितानि चारं चरन्ति, उत्तरतोऽर्द्धभागे द्वितीयस्य शशिन: परिवारभूतान्यष्टाविंशतिसयाकान्यभिजिदादीन्येव नक्षत्राणि क्रमेण = व्यवस्थितानि, तत्र दक्षिणतोऽर्द्धभागे यत्रामिजिन्नक्षत्र तत्समणिव्यवस्थिते द्वे अभिजिन्नक्षत्रे लवणममुद्रे पडू धातकीपण्डे एकाच % दीप अनुक्रम [२५०-२८६] 4--00225 8 ~221 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] प्रतिपत्ती समयक्षेत्राधिक उद्देशः२ सू०१७७ गाथा: ||१-३२|| श्रीजीवा- शतिः कालो पशिवभ्यन्तरपुष्कराखें इति, सर्वसङ्ख्या पद्धष्टिरभिजिन्नक्षत्राणि पलथा व्यवस्थितानि, एवं श्रवणादीन्यपि जीवाभिI दक्षिणतोऽर्बभागे पडूया व्यवस्थितानि पटूपष्ठिसल्याकानि भावनीयानि, उत्तरतोऽप्यईभागे बदभिजिन्नक्षत्रं तरसमश्रेणिव्यवस्थितेऽपि मलयगि- हाउत्तरभाग एवं अभिजिन्नक्षत्रे लवणसमुद्रे षड् धातकीपण्डे एकविंशतिः कालोदे पट्त्रिंशत्पुष्कराहें, एवं अवणादिपजयोऽपि रीयावृत्तिः प्रत्येक पट्पष्टिसलाका २ वेदितव्या इति भवंति सर्वस नुवया षट्पञ्चाशत्सया नक्षत्राणां पतयः, एकैका च पतिः षट्- पष्ठिसवेति ।। 'प्रहाणां' अङ्गारकप्रभृतीनां सर्वसहपया मनुष्यलोके पट्सप्तत्यधिकं पतिशतं भवति, एकैका च पतिर्भवति पट्पष्टिः, हा अत्रापीय भावना-जम्बूद्वीपे दक्षिणतोऽभागे एकस्य शशिन: परिवारभूता अङ्गारकप्रभूतयोऽष्टाशीतिर्महा उत्तरतोऽर्द्धभागे द्वितीयस्य 5 है। शशिनः परिवारभूता अङ्गारकप्रभृतय एवान्येऽष्टाशीतियहाः, तत्र दक्षिणतोऽर्द्धभागे योऽङ्गारकनामा प्रहस्तत्समश्रेणिव्यवस्थितौ दक्षिआणभाग एव द्वाबङ्गारको लक्षणसमुद्रे पडू धातकीपण्डे एकविंशतिः कालोदे षट्त्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराः इति, एवं शेषा अपि सप्ताशी निहाः पङ्ख्या व्यय स्थिताः प्रत्येक षट्पष्टिः २ वेदितव्याः, एवमुत्तरतोऽप्यर्द्धभागेऽजारकप्रभुतीनामष्टाशीतेहाणां पङ्ग्यः प्रत्येक है। पट्पष्टिसयाका २ भावनीया इति भवति सर्वसलया ग्रहाणां पट्सप्रतं पतिशतं, एकैका च पक्षिः षट्पष्ट्रिसङ्ख्याकेति ॥ 'ते' मनुष्य लोकवर्तिनः सर्वे चंद्राः सर्वे सूर्याः सर्वे ग्रहगणा अनवस्थितैर्यथायोगमन्यैरन्यैर्नक्षत्रैः सह योगमुपलक्षिताः 'पयाहिणावत्तमंडला' इति प्रकर्षेण सर्वामु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादीनां दक्षिण एव मेकर्भवति यस्मिन्नावर्ते-मण्डलपरिभ्रमणरूपे स प्रदक्षिण: २ आवत्तों येषां भण्डलाना तानि प्रदक्षिणावर्त्तानि तानि मण्डलानि मे (पति) येषां ते प्रदक्षिणावर्त्तमण्डला मेरुमनुलक्षीकृत्य चरन्ति, एतेनैतदुक्तं भवति-सूर्यादयः समस्ता अपि मनुष्यलोकवर्तिनः प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलगत्या परिभ्रमन्तीति, इह चन्द्रादित्यमहाणां मण्डलान्यनवस्थि दीप अनुक्रम [२५०-२८६] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~222 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] h-ko-httr गाथा: ||१-३२|| -2-90-91-96-08 ४ानानि, यथायोगमन्यस्मिन्नन्यस्मिन्मण्डले तेषां संचरिणुत्वात् , नक्षत्रतारकाणां तु मण्डलान्यनवस्थितान्येव, तथा चाह-नक्षत्राणां ! नारकाणां च मण्डलान्यवस्थितानि ज्ञातव्यानि, किमुक्तं भवति ?-आकालं प्रतिनियतमेकै नक्षत्राणां तारकाणां च मण्डलमिति, न चैवं व्यवस्थितमण्डलवोक्तावेवमाशङ्कनीयं यथा तेषां गतिरेव न भवतीति, यत आह-तेऽवि य' इत्यादि, तान्यपि नक्षत्राणि तारकाणि च, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश: प्राकृतवान् , प्रदक्षिणावर्त्तमेव, इहं क्रियाविशेषणं, मेरुमनुलक्ष्यीकृत्य परन्ति, एतच मे लक्ष्यीकृत्य है। तेषां प्रदक्षिणावर्तचरणं प्रत्यक्षत एवोपलक्ष्यत इति संचादि ।। 'रजनिकरदिनकराणां' चन्द्रादिलयानामूर्द्ध वाऽधो वा सङ्कमो न भवति तथा जगत्स्वाभाब्यान् , तिर्यक पुनर्मण्डलेपु सङ्क्रमणं भवति, किंविशिष्टमित्याह-साभ्यन्तरवाह्यम्' अध्यन्तरं च बाह्यं च | अभ्यन्तरबार्य सह अभ्यन्तरवायं यस्य येन वा तत् साभ्यन्तरवाहां, एतदुक्तं भवति ?-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतस्तावन्मण्डले । सक्रमणं यावत्सर्वबाहामण्डलं, सर्ववाहाच्च मण्डलादर्वाग मण्डलेषु तावत्सङ्गक्रमणं यावत्सर्वाभ्यन्तरमिति ॥ रजनिकरदिनक|राणां' चन्द्रादित्यानां नक्षत्राणां महापहाणां च 'चारविशेषेण तेन तेन चारेण सुखदुःखविधयो मनुष्याणां संभवन्ति, तथाहि-द्विविधानि सन्ति सदा मनुष्याणां कर्माणि, ताथा-शुभवेगानि अशुभवेद्यानि च, कर्मणां च सामान्यतो विपाकहेतषः पश्च, तद्यथा-18 द्रव्यं क्षेत्र कालो भावो भवन, उक्तश्च- उदयक्खयखओवसमोवसमा जं च कम्मुणो भणिया । दवं खेत्तं कालं भावं भवं च संपप्प ॥ १॥" शुभवेद्यानां च कर्मणां प्रायः शुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्री विधाकहेतुः, अशुभवेद्यानामशुभद्रव्यक्षेत्रादि सामग्री, ततो यदा येषां जन्मनक्षत्रारानुकूलश्चन्द्रादीनां चारस्तदा तेषां प्रायो यानि शुभवेद्यानि कर्माणि तानि तथाविधां विपाकसामग्रीमधिगम्य १ उदयः क्षयः क्षयोपशम उपशमो यच कर्मणो भगिताः । द्रव्यं क्षेत्र कालं भावं भवं च संप्राप्य ॥१॥ 26- 24 दीप अनुक्रम [२५०-२८६] ~223 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७७] + गाथा: ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [२५० -२८६] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) ------ उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र )], प्रतिपत्ति: [ ३ ], - मूलं [१७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः ॥ ३३८ ॥ विपाकं प्रपद्यन्ते, प्रपन्नविपाकानि शरीरनीरोगतासंपादनतो धनशुद्धिकरणेन च वैरोपशमनतः प्रियसंप्रयोगसंपादनतो वा यदिवा प्रारब्धाभीष्टप्रयोजननिष्पत्तिकरणतः सुखमुपजनयन्ति, अत एव महीयांसः परमविवेकिनः स्वल्पमपि प्रयोजनं शुभतिधिनत्रादावारभंते न तु यथा कथञ्चन, अत एव जिनानामपि भगवतामाझा प्रत्राजनादिकमधिकृत्यैवमवतिष्ठ यथा शुभक्षेत्रे शुभदिश मभिमुखीकृत्य शुभ तिथिनक्षत्रमुहूर्त्तादौ प्रनाजनप्रतारोपणादि कर्त्तव्यं नान्यथा, तथा चोक्तं पञ्चवस्तुके एसा जिणाण आशा * खेत्ताईया य कम्मुणो भणिया । उदयाइकारणं जं सम्दा सम्वस्थ जयव्वं ॥ १ ॥" अस्मा अक्षरगमनिका एवा जिनानामाज्ञा यथा शुभक्षेत्रे शुभां दिशमभिमुखीकृत्य शुभे तिथिनक्षत्र प्राजन तारोपणादि कर्त्तव्यं नान्यथा, अपिच-क्षेत्रादयोऽपि कर्म्मणामुदयादिकारणं भगवद्भिरुक्तास्ततोऽशुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्रीमवाप्य कदाचिदशुभवेद्यानि कर्माणि विपाकं गत्वोदयमासादयेयुः, तदुदये गृहीतन्त्रतभङ्गादिदोषप्रसङ्गः, शुभक्षेत्रादिसामग्री तु प्राप्य जनानां शुभकर्म्मविपाकसम्भव इति संभवति निर्विघ्नं सामायिकपरियाअनादि, तस्मादवश्यं छद्मस्थेन सर्वत्र शुभक्षेत्रादौ यतितव्यं, ये तु भगवन्तोऽतिशयमन्तस्ते अतिशयवलादेव निर्विनं सनिं वा स म्यगवगच्छन्ति ततो न शुभतिथिमुहूर्त्तादिकमपेक्षन्त इति तन्मार्गानुसरणं छद्मस्थानां न न्याय्यं तेन ये च परममुनिपर्युपासितप्रवचx नविडम्बका अपरिमलित जिनशासनोपनिषद्भूतशास्त्रगुरुपरम्परायातनिरवयविशद कालोचित सामाचारीप्रतिपन्थिनः स्वमविकल्पितसा | माचारीका अभिदधति-यथा न प्रत्राजनादिषु शुभतिथिनक्षत्रादिनिरीक्षणे यतितव्यं, न खलु भगवान् जगत्स्वामी प्रश्नाजनायोपस्थि तेषु शुभतिध्यादिनिरीक्षणं कृतवानिति तेऽपास्ता द्रष्टव्या इति । तेषां सूर्याचन्द्रमसां सर्वग्राह्यान्मण्डलाभ्यन्तरं प्रविशतां तावक्षेत्र प्रतिदिवस क्रमेण नियमादायामतो वर्द्धते येनैव च क्रमेण परिवर्द्धते तेनैव क्रमेण सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाद्वहिर्निष्कामतां परिहीयते, For P&P Cy श्रीजीवा - जीवाभि० ४ मलयगि रीयावृत्तिः ३ प्रतिपत्ती समयक्षेत्राधि० उद्देशः २ सू० १७७ ~ 224~ ।। ३३८ ।। jyo अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] गाथा: ||१-३२|| तथाहि-सर्वबाह्यमण्डले चारं चरतां सूर्याणां चन्द्रमसां च प्रत्येक जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दशधा प्रविभक्तस्य द्वौ दो भागो तापक्षेत्र, नतः । सूर्यस्याभ्यन्तरं प्रविशतः प्रतिमण्डलं षष्ट्यधिकषत्रिंशच्छतप्रविभक्तस्य द्वौ द्वौ भागौ तापक्षेत्रस्य वर्द्धते, चन्द्रमसस्तु मण्डलेषु प्रत्येक | पौर्णमासीसम्भवे क्रमेण प्रतिमण्डलं पविशतिर्भागाः सप्तविंशतितमस्य च भागस्यैकः समभागः, एवं च प्रतिमण्डलमभिवृद्धौ यदा | सर्वाभ्यन्तरमण्डले चार चरतम्लदा प्रत्येकं जम्बूद्वीपचक्रवालस्य त्रय: परिपूर्णा दशभागास्तापक्षेत्र, ततः पुनरपि सर्वाभ्यन्तरमण्डला द्वहिनिष्क्रमेण मूर्यस्य प्रतिमण्डलं पश्यधिकपत्रिंशकछतप्रविभक्तस्य जम्बूद्वीपचक्रवालस्य द्वौ द्वौ भागौ परिहीयेते, चन्द्रमसस्तु मण्डलेषु है प्रत्येक पौर्णमासीसम्भवे क्रमेण प्रतिमण्डलं पविंशतिर्भागाः सप्तविंशतितमस्य च भागस्य चैकः सप्तभाग इति ।। 'तेषां' चन्द्रसूर्याणां तापक्षेत्रपन्थाः कलम्बुयापुष्पं-नालिकापुष्पं सद्वत्संस्थिताः कलम्बुयापुष्पसंस्थिताः, एतदेव व्याचष्टे-अन्त:-मेकदिशि सङ्कुचिता बहि:लवणदिशि विस्तृताः, एतचन्द्रप्रहमी सूर्यप्राप्ती चतुर्षे प्राभृते सविस्तरं भाक्तिमिति ततोऽवधायम ॥ सम्प्रति चन्द्रमसमधिकृत्य | गौतमः प्रभयति-केन कारणेन शुक्लपक्षे वर्द्धते ? केन वा कारणेन चन्द्रस्य कृष्णपने परिहानिर्भवति? केन वा 'अनुभावेन' प्रभावेण चन्द्रस्यैक: पक्षः कृष्णो भवति एक: 'ज्योत्स्नः' शुक्लः? इति, एवमुक्त भगवानाह-इह द्विविधो राहुस्त यथा-पर्वराहुनित्यराहुश्च, वित्र पर्वराहुः स उच्यते य: कदाचिदकस्मात्समागत्य निजविमानेन चन्द्रविमानं सूर्यविमानं वाऽन्तरितं करोति, अन्तरिते च कुते लोके ग्रहणमिति प्रसिद्धिः, स इह न गृह्यते, यस्तु नित्यराहुस्तस्य विमानं कर्ण तथाजगत्स्वाभाव्याञ्चन्द्रेण सह नित्यं सर्वकालमविरहितं तथा 'चाउरंगुलेन' चतुरङ्कुलैरप्राप्त सन् 'चन्द्रस्य चन्द्रबिमानस्याधम्तावरति, तथैवं चरत् शुक्लपक्षे शनैः शनैः प्रकटीकरोति | चन्द्रमसं कृष्णपक्षे च शनैः शनैरावृणोति, तथा चाह-इह द्वापष्टिभागीकृतस्य चन्द्रविमानस्य द्वौ भागावुपरितनी मदाऽनावार्थमा भा दीप अनुक्रम [२५०-२८६] ~225 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक जीवाभि [१७७] गाथा: ||१-३२|| श्रीजीवा- वलाद्' अपाकृत्य शेषस्य पञ्चदशभिर्भागे हते ये चत्वारो भागा लभ्यन्ते ते द्वापष्टिशब्देनोल्यन्ते, अवयवे समुदायोपचारात्, एतथा प्रतिपत्ता व्याख्यानमेवस्यैव पूर्णिमुपजीव्य कृतं न खमनीषिकया, तथा च तदन्थ:-चन्द्रविमानं द्वापष्टिभागीक्रियते, ततः पञ्चदशभिर्भा- समयझे. मलयाग- गोऽपहियते, सत्र चत्वारो भागा द्वापष्टिभागानां पञ्चदशभागेन लभ्यन्ते शेषौ द्वौ, एतावद् दिने दिने शुकृपक्षस राहुणा मुच्यत" त्राधिक रीयावृत्तिः इति, एवं च सति यत्समवायाङ्गसूत्रम्-"मुकपक्खस्स दिवसे दिवसे बाबाढि बाबाई भागे परिवडई" इति, तदप्येवमेव व्याख्येय, उद्देशः२ ॥३३९॥1 संप्रदायवशाद्धि सूत्रं व्याख्येयं, न वमनीषिकया, अन्यथा महदाशातनाग्रसक्तेः, संप्रदायश्च यथोक्तस्वरूप इति, तत्र शुक्लपक्षस्य । दिवसे यद्-यस्मात्कारणाचन्द्रो द्वाषष्टिद्वापष्टिभागान-द्वाषष्ठिभागसत्कान चतुरश्चतुरो भागान यावत्परिवर्द्धते, कालेन-कृष्णपक्षेण पुनर्दिवसे २ तानेव द्वाषष्टिभागसत्कान चतुरश्चतुरो भागान 'प्रक्षपयति' परिहापयति, एतदेव त्याचप्ठे-कृष्णपक्षे प्रतिदिवसं राहुविहामानं खकीयेन पञ्चदशेन भागेन तं 'चन्द्र चन्द्रविमानं पञ्चदशमेव भार्ग 'वृणोति' आच्छादयति, शुक्लपक्षे पुनस्तमेव प्रतिदिवस सापश्चदशभागमात्सीयेन पञ्चदशेन भागेन 'व्यतिक्रामति' मुञ्चति, किमुक्तं भवति ?-कृष्णपझे प्रतिपद आरभ्यासीयेन पञ्चदशेन | पञ्चदशेन भागेन प्रतिदिवसमेकैकं पञ्चदशभागमुपरितनभागादारभ्यावृणोति, शुकुपक्षे तु प्रतिपद आरभ्य तेनैव क्रमेण प्रतिदिवस| मेकै पञ्चदशभागं प्रकटीकरोति, तेन जगति चन्द्रमण्डलस्य वृद्धिहानी प्रतिभासेते, खरूपतः पुनश्चन्द्रमण्डलमवस्थितमेव, तथा चाह-एवं राहुविमानेन प्रतिदिवसं क्रमेणानावरणकरणतो 'बर्द्धते' बर्द्धमानः प्रतिभासते चन्द्रः, एवं राहुविमानेन प्रतिदिवस कमेगावरणकरणतः परिहानिप्रतिभासो भवति चन्द्रा विषये, एतेनैव 'अनुभावेन' कारणेनैक: पक्षः कालः' कृष्णो भवति यत्र च-II x ॥३३९॥ न्द्रस्य परिहानिः प्रतिभासते, एकस्तु 'ज्योत्स्नः' शुक्लो यत्र चन्द्रविषयो वृद्धिप्रतिभासः ।। 'अन्तः' मध्ये 'मनुष्यक्षेत्रे' मनुण्यक्षेत्रस्य दीप अनुक्रम [२५०-२८६] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~226 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] गाथा: ||१-३२|| पञ्चविधा ज्योतिष्कास्तद्यथा-पन्द्राः सूर्या ग्रहगणाः चशब्दान्नक्षत्राणि तारकाश्च भवन्ति 'चारोपगा' चारयुक्ताः, 'तेने ति प्राक-1 तत्वात्पञ्चम्यर्थे तृतीया ततो मनुष्यक्षेत्रात्परं यानि शेषाणि 'चन्द्रादित्यग्रहतारानक्षत्राणि' चन्द्रादित्यमहतारानक्षत्रविमानानि, प्रसूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , तेषां नास्ति गति:-न स्वस्मात्स्थानाञ्चलनं नापि 'चारः' मण्डलगत्या परिभ्रमण किन्लवस्थिता न्येव तानि ज्ञातव्यानि ।। सम्प्रति प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चन्द्रादिसङ्कलनामाह- एगे जंयुद्दीवे दुगुणा लवणे च उग्गुणा होति । लावणगा काय तिगुणिया ससिसूरा धायइसंडे ॥१॥ द्वौ चन्द्रौ उपलक्षणमेतत् द्वौ सूर्यों च 'इह' अस्मिन् जम्बूद्वीपे, चत्वारः 'सागरे' समुद्रे 'लवणतोये लवणजले, धातकीपण्डे द्वीपे द्वादश चन्द्राश्च द्वादश सूर्याश्च ॥ एतदेव भयन्तरेण प्रतिपादयति-शशिनी सूयौँ जम्बू-1 द्वीपे द्वौ द्वौ, तावेव द्विगुणितो 'लवणे' लवणसमुद्रे भवतः, चत्वारो लवणसमुद्रे शशिनश्चत्वारश्च सूर्या भवन्तीत्यर्थः, द्वयोर्दाभ्यां गुआणने चतुर्भावात् , पाठान्तरम्-एवं जंबूहोवे दुगुणा लवणे च उग्गुणा होति "त्ति, 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण एकैको चन्द्रसूर्यो ज|म्बूद्वीपे द्विगुणौ भवतः, किमुक्तं भवति ?-नौ चन्द्रमसौ द्वौ सूर्यो जम्बूद्वीप इति, 'लवणे लवणसमुद्रे तावेवैकको सूर्याचन्द्रमसौ चतुर्गुणौ भवतः, चत्वारश्चन्द्राश्चत्वारः सूर्या लवणसमुद्रे भवन्तीति भावः, 'लावणिकाः' लवणसमुद्रभवाः शशिसूर्यास्विगुणिता धातकीपण्डे भवन्ति, द्वादश चन्द्रा द्वादश सूर्या धातकीपण्डे द्वीपे भवन्तीत्यर्थः ॥ सम्प्रति शेषद्वीपसमुद्रगतचन्द्रादित्यसयापरिज्ञानाय करणमाह-धातकीपण्डः प्रभुतिः-आदियेषां ते धातकीपण्डप्रभृतयस्तेषु धातकीपण्डप्रभृतिषु द्वीपेषु समुद्रेषु च ये उद्दिष्टाश्चन्द्रा द्वाद-1 शादयः उपलक्षणमेतत् सूर्या वा ते 'विगुणिताः' त्रिगुणीकृताः सन्त: 'आइल्लचंदसहिय'त्ति उद्दिष्टचन्द्रयुक्ताहीपासमुद्राद्वा प्राग जम्बूद्वीपमादि कृत्वा ये प्राक्तनाश्चन्द्रास्तैरादिनचन्द्रः, उपलक्षणमेतत् आदिमसूर्यैश्च सहिता यावन्तो भवन्ति एतावस्प्रमाणा अनन्तरे दीप अनुक्रम [२५०-२८६] ~227 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७७] गाथा: ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [२५०-२८६] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [ ३ ], ------ उद्देशकः [(द्वीप समुद्र)], - मूलं [१७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३४० ॥ 2 ऽनन्तरे कालोदादौ भवन्ति, तत्र धातकीपण्डे द्वीपे उद्दिष्टाञ्चन्द्रा द्वादश ते त्रिगुणाः क्रियन्ते जाताः पत्रिंशन्, आदिमचन्द्राः षट्, तद्यथा - द्वौ चन्द्रौ जम्बूद्वीपे चत्वारो लवणसमुद्रे, एतेरादिमचन्द्रः सहिता द्वाचत्वारिंशद्भवन्ति, एतावन्तः कालोदसमुद्रे चन्द्राः, एष एव विधिः सूर्याणामपि तेन सूर्या अपि तत्रैतावन्तो वेदितव्याः, तथा कालो समुद्रे द्वाचत्वारिंशचन्द्रमस उद्दिष्टास्ते त्रिगुणा: क्रियन्ते जाताः पट्टिशं शतं, आदिमचन्द्रा अष्टादश, तद्यथा हो जम्बूद्वीपे चलारो लवणसमुद्रे द्वादश धातकीपण्डे, एतैरादिमचन्द्रः सहितं पडिशं शतं चतुश्चत्वारिंशं शतं जातं एतावन्तः पुष्करवरद्वीपे चन्द्रा एतावन्त एव च सूर्याः, एवं सर्वेष्वपि द्वीपसमुद्रप्वेतकरणवशाचन्द्रसङ्ख्या प्रतिपत्तव्या सूर्याऽपि ॥ सम्प्रति प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं च ग्रहनक्षत्रतारापरिमाणज्ञानोपायमाह - अत्रामशब्दः परिमाणवाची, यत्र द्वीपे समुद्रे वा नक्षत्र परिमाणं परिमाणं तारापरिमाणं वा ज्ञातुमिच्छसि तस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा सम्बन्धिभिः शशिभिरेकस्य शशिनः परिवारभूतं नत्रपरिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाणं च गुणितं सद् यावद् भवति तावत्प्रमाणं तत्र द्वीपे समुद्रे वा नक्षत्र परिमाणं प्रहपरिमाणं तारापरिमाणमिति, यथा लवणसमुद्रे किल नक्षत्रादिपरिमाणं ज्ञातुमिष्टं लवणसमुद्रे च शशिनञ्चत्वारस्तत एकस्य शशिनः परिवारभूतानि यान्यष्टाविंशतिर्नक्षत्राणि तानि चतुर्भिर्गुण्यन्ते जातं द्वादशोत्तरं शतं एतावन्ति लवणसमुद्रे नक्षत्राणि, तथाऽष्टाशीतिर्महा एकस्य दाशिनः परिवारभूतास्ते चतुर्भिर्गुण्यन्ते जातानि त्रीणि शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि ३५२, एतावन्तो लवणसमुद्रे ग्रहाः, तथैकस्य शशिनः परिवारभूतानि तारागण कोटीकोटीनां पट्पष्टिः सहस्राणि नव शतानि पञ्चसतत्यधिकानि तानि चतुर्भिर्गुण्यन्ते, जातानि कोटीकोटीनां द्वे लक्षे सप्तषष्टिः सहस्राणि नव शतानि २६७९०००००००००००००० एतावत्यो लवणसमुद्रे तारागणकोटीकोटयः, एवंरूपा च नक्षत्रादीनां लवणसमुद्रे सहता प्रागेवोक्ता एवं सर्वेष्वपि द्वीपसमुद्रेषु नक्ष For P&Praise Cly ----- ~228~ ३ प्रतिपत्तो समयक्षे त्राधि० उद्देश: २ ४४ सू० १७७ ॥ ३४० ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश: '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], -------------------- मूलं [१७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -- - प्रत सूत्रांक [१७७] IES -- - - --- गाथा: ||१-३२|| त्रादिसङ्ग्यायरिमाणं भावनीयम् ।। सम्प्रति मनुप्यक्षेत्रावहिवासनां चन्द्रमाणां परस्परमन्तरपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह-मनुप्यनगस्य' मानुषोत्तरपर्वतस्य बहिश्चन्द्रात्सूर्यस्य सूर्याचन्द्रस्यान्तरं भवति 'अन्यूनानि परिपूर्णानि योजनानां पञ्चाशत् सहस्राणि, एतावता चन्द्रस्य सूर्यस्य च परस्परमन्तरमुक्तम् । इदानी चन्द्रस्य चन्द्रस्य सूर्यस्य सूर्यस्य च परस्परमन्तरमाह-'सूरस्स य सूरस्स य' इत्यादि, सूर्यस्य सूर्यस्य परस्परं चन्द्रस्य चन्द्रस्य परस्परमन्तरं भवति योजनानां शतसहसं-लभ, तथाहि-चन्द्रान्तरिताः सूर्याः सूयान्तरि| साश्चन्द्रा बहिव्यवस्थिताः, चन्द्रसूर्याणां च परस्परमन्तरं पश्चाशद्योजनसहस्राणि ५००००, ततश्चन्द्रस्य चन्द्रस्य सूर्यस्य मूर्यस्य च परस्परमन्तरं भवति योजनानां लक्ष, एतमेवमन्तरपरिमाणं सूचीश्रेण्या प्रतिपत्तव्यं न बलयाकारण्येति ।। सम्पति पहिश्चन्द्रम यांणां | पङ्गयाऽवस्थानमाह-नृलोकादहिः पञ्जयाऽवस्थिताः सूर्यान्तरिताश्चन्द्राश्चन्द्रान्तारता दिनकरा: 'दीप्ताः' दीप्यन्ते स्म भास्करा इत्यर्थः, कथम्भूतास्ते चन्द्रसूर्या: ? इत्याह-चित्रान्तरलेश्याकाः' चित्रमन्तरं लेश्या व प्रकाशरूपा येषां ते तथा, तत्र चिन्नमन्तरं चन्द्राणां सूर्यान्तरितत्वात् सूर्याणां चन्द्रान्तरितत्वात् , चित्रा लेश्या चन्द्रमसा शीतरश्मित्वान सूर्याणामुष्णर श्मित्वात् , लेश्याविशेषण दर्शनार्थमाह-'सुहलेसा मंदलेसा य' सुखलेश्याश्चन्द्रमसो, न शीतकाले मनुष्यलोक इबालसन्त शीतरश्मय इत्यर्थः, मन्दलेश्या: सूर्या | दान तु मनुष्यलोके निदाघसमय इय एकान्तोष्णरश्मय इत्यर्थः, आइ च तच्यार्थटीकाकारो हरिभद्रसूरिः- नात्यन्तं शीताश्चन्द्रमसः नात्यन्तोष्णा: सूर्याः किन्तु साधारणा द्वचोरपी"ति, इहेदमुक्तं भवति-यत्र द्वीपे समुद्रे वा नक्षत्रादिपरिमाणं ज्ञातुमिप्यते तत्रैकशशिपरिवारभूतं नक्षत्रादिपरिमाणं तावद्भिः शशिभिगुणयितव्यमिति । तत्रैकश शिपरिवारभूतानां प्रहादीनां परिमाणमाह- अहामीईत्यादि गाथाद्वयमपि पाठसिद्धम् ।। बहिः 'मनुष्यनगस्य' मनुप्यपर्वतम्य चन्द्रमूर्याणां योगा अवस्थिता न मनुष्यलोक इवान्यान्यन 4-%CR - - - - --- 6- - दीप अनुक्रम [२५०-२८६] -- - *-964 ~229~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७७] + गाथा: ॥१-३२॥ दीप अनुक्रम [२५० -२८६] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) ------ उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र )], प्रतिपत्ति: [ ३ ], - मूलं [१७७] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः क्षत्रसश्चारिणधाराभावान्, कचित् 'अवडिया तेया' इति पाठस्तत्रावस्थितानि तेजांसीति व्याख्येयं किमुक्तं भवति १-सूर्या: स देवानस्युण्णतेजसो न तु जातुचिदपि मनुष्यलोके ग्रीष्मकाल इवायुज्यतेजसः, चन्द्रमसोऽपि सदैवान तिशीतलेश्याका न पुनः कदाचनामलयगि- व्यन्तर्मनुष्यक्षेत्रस्य शिशिरकाल इवातिशीततेजस इति, तत्र प्रथमपाठपक्षे तानेवावस्थितान् योगानाह - 'चंदा अभिई' इत्यादि, द्वि- ५ रीयावृत्तिः * तीयपाठपक्षे तथेति पठयितथ्यं चन्द्राः सर्वेऽपि मनुष्यक्षेत्राद्वहिरभिजिता नक्षत्रेण युक्ताः, सूर्याः पुनर्भवन्ति पुष्यैर्युक्ता इति ॥ सप्रति मानुषोत्तर पर्वतोचैस्त्वादिप्रतिपादनार्थमाह--- ।। ३४१ ।। श्रीजीवा जीवाभि० माणुसुत्तरे णं भंते! पव्वते केवतियं उ उच्चतेणं? केवतियं उब्वेणं? केवनियं मूले विखम्भेणं? केवतियं मज्झे विश्वंभेणं केवनियं सिहरे विकखंभेणं? केवतियं अंतो गिरिपरिरएणं? केव तियं वाहिँ गिरिपरिरएणं केवतियं मज्झे गिरिपरिरएणं? केवतियं उयरि गिरिपरिरणं ?, गोयमा! माणुसुत्तरे णं पवने सत्तरस एकवीसाई जोयणसयाई उउच्चणं चारि तीसे जोयणसर कोच उन्हे मूले बसवावीमे जोपणसने विक्खंभेणं मज्झे सत्तनेवीमे जोयणसते विक्रमेण उवरि चारिचवीसे जोयणसने विक्खंभेणं अंतो गिरिपरिरएणं-एगा जोयणकोडी वाघालीसं च सय सहस्साई । तीमं च सहस्माई दोणि य अडणापपणे जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिवेवेणं, बाहिरगिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी बयालीस च सतसहस्साई छत्तीमं च सहस्साई मत्तचोइसोत्तरे जोगणसने परिक्लेवेणं, मज्झे गिरिपरिरएणं एगा जोयण For P&Praise City अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश: '२' अत्र २ इति निरर्थकम् मानुषोत्तरपर्वत- अधिकार: आरभ्यते ~230~ ३ प्रतिपत्ती मानुषोत्तराधि० उद्देशः २ सू० १७८ ॥ ३४९ ॥ My Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ERe% 4 प्रत सूत्रांक [१७८] %4-%- - *% 97% a --- कोडी बायालीसं च सतमहस्साई चोत्तीसं च सहस्सा अट्टनेवीसे जोपणसते परिक्वेवेणं, उपरि गिरिपरिगणं एगा जोयणकोडी यायालीसं च सयमहस्माई पत्तीसं च सहस्साई नव य बत्तीसे जोयणसते परिक्वेवणं, मले विच्छिन्ने सो संवि ते उपि नणुण अंनो सहे माझे उदग्गे बाहिं दरिसणिजे इसिं सनिगमपणे सीडणि माई अवजयरासिमंठाणसंठिने सम्बजंबूणयामा अच्छे सण्डे जाव पडिये. उनओपामि दो िपजमवरदियाहिं दोहि य वणसं सब्बतो सपना संपरिकिग्वत्ते वणओ दोण्हवि ॥ से केणटेणं भंने! एवं बुचति-माणुसुत्तरे परवते २१. गोयमा! माणुसम्म णं परवतस्म अंदो मणुया उम्पि सुवण्णा पाहिं देवा अनुत्तरं च णं गोयमा! माणुमुत्तरपन्जनगणुयाण कयाइ विनियहंस वा वीनिवयंति वा धीनिवइति वा णणध चारणेहिं या विज्ञाहरेहिं वा देवकम्मुणा वावि, से नेणष्टेणं गोयमा अत्तरं च णं जाव णिोति ।। जावं च णं माणुसुत्तरे पब्बते तावं च णं अस्सिलोए ति पचति, जावं च णं वासाति वा वासधरातिं वा तावं च अस्सि लोपति पयुवनि, जावं च णं गेहाइ वा गेहावयणाति वा ताचं च णं अस्सि लोएत्ति पवुचनि, जावं च णं गामाति वा जाब रायहाणीति वा तावं च णं अस्सिलोएत्ति पति, जायं च णं अरहना चक्रवट्टि बलदेवा वासुदेवा पडिवासुदेवा चारणा विजाहरा समणा समणीओ सावया सावियाओमणुया पगतिभद्दगा विणीता तावं च णं अस्सि दीप अनुक्रम [२८७] -- ** - mavasana JaEcink ~231 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७८] श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ॥३४२॥ 18 प्रतिपत्ती मानुषोत्तराधि० | उद्देशः २ सू०१७८ दीप अनुक्रम [२८७] लोएत्ति पचति, जावं च णं समयाति वा आवलियाति वा आणापाणइति वा थोवाइ या लवाइ वा मुहलाइ वा दिवसानि वा अहोरत्ताति वा पक्वाति वा मासाति वा उदति वा अयणाति या संवच्छराति वा जुगाति वा वाससताति वा वाससहस्साति वा वाससयसहस्साइ वा पुब्वंगाति वा पुग्वाति वा तुडियंगाति वा, एवं पुब्वे नुडिए अडडे अववे हरकए उप्पले पउमे - लिणे अपिछणिउरे अउने ण उते मउने चूलिया सीसपहेलिया जाय य सीसपहेलियंगेति वा सीसपहे. लियाति वा पलिओवमति वा सागरोवमेति वा उपसप्पिणीति वा ओसप्पिणीति वा तावं च णं अस्सि लोगे वुचति, जावं च णं बादरे विजुकारे बायरे थणियसद्दे तावं च णं अस्सि० जावं च णं यहवे ओराला बलाहका संसंयंति संमुच्छंनि वासं वासंति तावं च णं अस्सि लोए, जावं च णं वायरे तेउकाए तावं च णं अस्सि लोग, जावं च णं आगराति वा नदीउ वा णिहीति वा तावं च णं अस्सिलोगित्ति पचति, जावं च णं अगडाति वा णदीति वा नावं च णं अस्सि लोए जावं च णं चंदोवरागाति वा सूरोवरागाति वा चंदपरिएसाति वा सरपरिएसाति वा पडिचंदाति वा परिसराति वा इंदधणूइ वा उदगमच्छेद वा कपिहसिताणि वातावं च णं अस्सिलोगेति प०॥ जावं च णं चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं अभिगमणनिग्गमणवुहिणिवुहिअणवट्टियसंठाणसंठिती आपविजति तावं च णं अस्सि लोएत्ति पचति ।। (सू०१७८) CANCEREMORRECROCOCOCCAS ॥ ३४२ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~232 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७८] दीप अनुक्रम [२८७] 'माणुसुत्तरे णमित्यादि, मानुषोत्तरोणमिति वाक्यालङ्कारे पर्वतः 'कियत्' किंप्रमाणमूर्द्ध मुस्त्वेन ? कियदुद्वेधेन ? कियन्ग-1 लविष्कम्भेन ? कियदुपरिविष्कम्मेन ? किवद् 'अन्तगिरिपरिरयेण गिरेरन्त: परिक्षेपेण? कियद् 'वहिगिरिपरिरयेण गिरेवहि:परिच्छेदेन ? कियन् 'मूलगिरिपरिरयेण?' गिरेर्मूले परिरयेण, एवं कियन्मध्यगिरिपरिरयेण ?, एवं कियदुपरिगिरिपरिरयेण प्रशतः १, भगवानाह-गीतम! सप्तदश योजनशतानि एकविंशानि ऊर्द्ध मुस्खेन १७२१, चत्वारि त्रिंशानि योजनशतानि कोशमेक |च 'उद्वेधेन' उण्डखेन ४३०, मूले दश द्वाविंशत्युत्तराणि योजनशतानि विष्कम्भेन १०२२, मध्ये सप्त त्रयोविंशत्युत्तराणि योजनशतानि विष्कम्भत: ७२३, उपरि चत्वारि चतुर्विशत्युत्तराणि योजनशतानि विष्कम्भेन ४२४, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशच्छतसहस्राणि त्रिंशत्सहस्राणि द्वे एकोनपञ्चाशदधिके योजनशते किश्चिद्विशेषाधिके अन्तनिरिपरिरयेण १४२३०२४९, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशत् शतसहस्राणि पत्रिंशत्सहस्राणि सप्त चतुर्दशोनराणि योजनशतानि बहिनिरिपरिरयेण १४२३६७१४, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशत् शतसहस्राणि चतुविंशत्सहस्राणि अष्टौ त्रयोविंशत्युत्तराणि योजनशतानि मध्यगिरिपरिरयेण १५२३४८२३, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशतसहस्राणि द्वात्रिंशत्सहस्राणि नव च द्वात्रिंशदुत्तराणि योजनशतानि उपरिगिरिपरिरयेण १४२३|२९३२, इदं च मध्ये उपरि व गिरिपरिरयपरिमाणं बहिर्भागापेक्षमवसातव्यं, अभ्यन्तरं छिन्भटकतया मूले मध्ये उपरि च सर्वत्र | तुल्यपरिरयपरिमाणत्वान् , मूले विस्तीर्णोऽतिपृथुखान् , मध्ये संक्षिप्तो मध्यविस्तारखान् , उपरि तनुकः स्तोकबाहल्यभावान् । अन्तः पक्ष्णो मृष्ट इत्यर्थः मध्ये 'उदग्रः' प्रधानः बहिः 'दर्शनीयः' नयनमनोहारी 'ईषत्' मनाक् सन्निषण्णः सिंह निधीदनेन निषीदनात् , तथा चाह-'सिंहनिषादी' सिंहबन्निषीदतीत्येवंशीलः सिंह निषादी, यथा सिंहोऽतनं पादयुगलमुत्तम्य पश्चात्तनं तु पादयुग्मं स क जी०५८ JEace ~233 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७८] श्रीजीवा- जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः % -% दीप बोच्य पुताभ्यां मनागलग्नो निषीदति तथा निषण्णश्च शिरःप्रदेशे उन्नतः पश्चादागे तु निम्नो निम्नतरः एवं मानुपोत्तरोऽपि जम्बूद्वीप-ल प्रतिपत्ती दिशि छिन्नटकः स चोन्नतः पाश्चात्यभागे तूपरितनभागादारभ्य पृथुलप्रदेशवृद्ध्या निनोनिम्नतर इति, एतदेवातिव्यक्तमाह-अव- मानपोद्धजवरासिसंठाणसंठिए' इति अपगतमर्द्ध यस्य सोऽपार्द्धः स चासौ यत्रश्च राशिश्च अपार्द्धयवराशी तथोरिख यत्संस्थानं यस्य तेनात्तराधिक संस्थितः, यथा यवो राशिश्च धान्यानामपान्तराले उद्धोधोभागेन छिन्नो मध्यभागे छिन्नटङ्ग इन भवति बहिभागे तु शनैः शनैःला उद्देशः२ पृधुत्ववृक्षा निनो निम्नतरतद्वदेषोऽपि, यत्रग्रहणं पृथग्व्याख्यातमन्यत्र केवलापाईयवसंस्थानतयाऽपि प्रतिपादनात , उक्तश्च-- सू०१७८ बृणयामओ सो रम्मो अद्धजवसंठिओ भणिओ। सिंहनिसादीएणं दुहाको पुक्खरदीवो ॥१॥" 'सब्बजबूणयामए' इति सर्वा-161 सना जाम्बूनदमयः 'अच्छे जाव पडिरूवे' इति प्राग्वत् । 'उभओ पासिमित्यादि उभयोः पार्थयोरन्तर्भागे मध्यभागे चेत्यर्थः प्रत्येकमेकैकभावेन द्वाभ्यां पञ्चवरवेदिकाभ्यां बनखण्डाभ्यां च 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्ततः' सामस्त्येन संपरिक्षिप्तः, द्वयोरपि पद्मवरवेदिकावनखण्डयोः प्रमाणं वर्णकश्च प्राग्वन् । साम्प्रतं नामनिमिचमभिधित्सुराह-'से केणट्टेण'मित्यादि, अथ केनार्थेन । भदन्त ! एवमुच्यते-मानुपोत्तरः पर्वत: मानुषोत्तरः पर्वत: ? इति, भगवानाह-गौतम ! मानुपोत्तरपर्वतस्य 'अन्तः' मध्ये म-1 नुयाः उपरि 'सुवर्णाः' सुवर्णकुमारा देवाः बहिः सामान्यतो देवाः, ततो मनुष्याणामुत्तर:-पर इति मानुषोत्तरः । अथान्यद् गौतम ! मानुपोत्तरं पर्वतं मनुण्या न कदाचिदपि व्यतिनजितवन्तः व्यतित्रजन्ति व्यतिनजिप्यन्ति बा, किं सर्वथा न ! इत्याह-नान्यत्र, पारणेन पञ्चभ्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात् 'चारणात्' जसाचारपलब्धिसंपन्नान् विद्याधरात् देवकर्मण एवं क्रियया देवोत्पाद- M ॥३४३॥ मादित्यथैः, चारणाद्यो व्यतिनजन्यपि मानुषोत्तर पर्वतमिति तद्वर्जनं, ततो मानुषाणामुत्तर:-उपलरोडलगानीयत्वान्मानुपोत्तरः, REAST अनुक्रम [२८७] . अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~2344 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % % % % प्रत सूत्रांक [१७८] % % तधा चाह-'से एएणडेण मित्याधुपसंहारवाक्यं गतार्थ ॥ सम्प्रत्येतावानेव मनुष्यलोकोऽत्रैव च वर्षवर्षधरादय इत्येतन्सूत्रं प्रतिपादयितुकाम आह-'जावं च णमित्यादि, यावदयं मानुषोत्तरपर्वतस्तावत् 'अस्सिलोए' इति अयं मानुपलोक इति प्रोच्यते न परतः, तथा यावद्वर्षाणि-भरतादीनि क्षेत्राणीति वा वर्षधरपर्वता-हिमवदादय इति वा तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते न परतः, एतावता | किमुक्तं भवति वर्षाणि वर्षधरपर्वताश्च मनुष्यलोक एव नान्यनेति, एवमुत्तरत्रापि भाषनीयं, तथा यावद्हाणीति या गृहापतनानीति वा तत्र गृहाणि प्रतीतानि गृहापतनानीति-गृहेष्वागमनानि तावदयं मनुष्यलोक: प्रोच्यते, गृहाणि गृहापतनानि बाऽस्मिन्नेव मनुष्यलोके *नान्यत्रेति भावः, तथा प्रामा इति वा नकराणीति वा यावत्सन्निवेशा इति वा, यावत्करणान् खेटकवटादिपरिप्रस्तावदयं मनुष्यलोक । इति प्रोच्यते, अत्रापि भावार्थः प्राग्वन् , तथा यावदहन्तश्चक्रवर्जिनो बलदेवा वासुदेवाश्चारणा-जवाचारणविद्याधराः 'श्रमणा साधवः 'श्रमण्यः' संवत्यः आवका: श्राविकाच, तथा मनुष्याः प्रकृतिभद्रका इत्यादि यावद्विनीतारतावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, द्र अहंदादीनामत्रैव भावो नान्यत्रेति भावार्थः । तथा यायदुदारा बलाहका-मेघाः संस्विद्यन्ते संमूर्छन्ति-वर्षा वर्षन्ति, अस्य व्याख्यान | प्राग्वत् तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, मेघानामपि वपुकाणामत्रैव भावो नान्यत्रेति भावार्थः, तथा यावन् 'बादर' गुरुतरः 'स्तनितशब्दः' गर्जितशब्द इति, बादरो विद्युत्कार इति वा' बादरा-अतिबलतरा विद्युत् तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, तथा यावदयं वादरोऽग्निकायिकस्तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, बादराग्निकायिकस्यापि मनुष्यलोकात्परतोऽसम्भवात् , तथा यावदाकरा इति था, आकरा-हिरण्याकरादयः, नद्य इति वा निधय इति वा सावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, तेषामपि मनुष्यक्षेत्रादन्यत्रास-13 म्भवात् , तथा यावत्समया इति वा, समयः-परमनिरुद्धः कालविशेषो यस्याधो विभागः कर्तुं न शक्यते, स च सूचिकदारकस्तरुणो % दीप अनुक्रम [२८७] % % % 5% ~235 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७८] - बबलवानित्यादिपूर्वोक्तविशेषणविशिष्टो यावन्निपुणशिल्पोपगत एका महतींपदशाटिका पट्टाटिकां वा गृहीला शीघ्र हस्तमात्रमपसारयन् | जीवाभि यावता कालेनोपरितनतन्तुगतमुपरितनं पक्ष्म छिनत्ति ततोऽपि मनाक सूक्ष्मतरो, जपन्ययुक्तासलपातकसमयानां समुदाय: एकाब | मानुषोमलयगि-18 लिका, सोया आवलिका एक महासः सङ्ग्येयाऽऽवलिका नि:श्वास: उच्छासनिःश्वासी समुदितावेक आनप्राणकालः, कि मुक्त भ त्तराधि रीयावृत्तिः वति ?-दृष्टस्य नीरोगस्य श्रमबुभुक्षादिना निरुपकृष्टस्य यावता कालेनैताबुरासनिःश्वासौ भवतः तावान काल आनप्राणः, उक्तश्च उद्देशः२ "हट्टरस अणवकहरस, निरुवकिट्टस्स जंनुणो। एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति चुथए ।।१।" सप्त प्राणा एकः स्तोकः सप्त लोका एको सु०१७८ लव: सप्तसप्ततिसया लवा एको मुहूर्त:, उक्तश्च-"सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाण सत्तहत्तरिए, एस मुहुत्ते वियाहिए ॥ १॥"अस्मिश्च मुहूर्ते यद्यावलि काश्निन्यन्ते सदा तासामेका कोटी सप्तपष्टिर्लक्षाः समसप्ततिः सहस्राणि द्वे शते पोडशा-10 धिके, उक्तश्च-एगा कोडी सत्तादि लक्खा सत्तत्तरी सहस्सा य । दो य सया सोलहिया आवलियाणं मुहुर्तमि ।।१।।" उन्हासाश्च । मुहूर्ते त्रीणि सहस्राणि सप्त शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि, उक्तश्च-"तिन्नि सहस्सा सप्त य सयाई देवत्तरि च ऊसासा । एस मुहुत्तो भणिओ सब्बेहिं अणंतनाणीहिं ॥१॥"त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणोऽहोरात्रः, पञ्चदशाहोरात्रः पक्षः, द्वौ पक्षी मासः, द्वौ मासौ ऋतुः, ते| च पद्, तद्यथा--प्रायुड वर्षारात्रः शरद् हेमन्तः वसन्तः प्रीष्मश्च, तत्र-आषाढाचा अस्तव' इति वचनाद् आषाढ श्रावणी प्रावृद | भाद्रपदाश्वयुजी वर्षांरात्रः कार्तिकमार्गशीपों शरद् पौपमाघौ हेमन्तः फाल्गुन चैत्रौ वसन्तः वैशाख ज्येष्ठौ ग्रीष्मः, ये खभिदधति वसन्ताद्या कत्तषः ( इति वसन्तः) ग्रीष्मः प्रावृदशरयो हेमन्तः शिशिर इति पहिति तदप्रमाणमवसातव्यं, जैनमतोत्तीर्णत्वान् , त्रय हैरतवोऽयन, हे अयने संवत्सरः, पञ्चसंवत्सरं युगं, विंशतियुगःनि वर्षशत, इहाहोराने मासे वर्षे वर्षशते चोच्छ्रासपरिमाणमेषं पू दीप अनुक्रम [२८७] - - - - - - अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७८] दीप अनुक्रम [ २८७] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) ------- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], प्रतिपत्ति: [ ३ ], - मूलं [ १७८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja Edemon int वैसूरिभि: संकलितम् "एवं च सयसहस्स उसासाणं तु तेरस सहस्सा । नउपसणं अहिया दिवसनिसिं होति विन्नेया ।। १ ।। | ( ११३९०) । मासेऽवि य ऊसासा लक्खा तित्तीस सहस पणनउई। सत्त सवाई जाणसु कहियाई पुञ्चसूरीहिं ||२|| (३३९५७००) । चत्तारि य फोडीओ लक्खा सत्तेव होति नायव्वा अडयालीससहस्सा चारसया होति बरिसेणं ॥ ३ ॥" (४०७४८४०० ) । दृश वर्षशतानि वर्षसहस्रं शतं वर्षसहस्राणां वर्षशतसहस्रं चतुरशीतिः वर्षशतसहस्राणि एकं पूर्वाङ्ग चतुरशीतिः पूर्वाङ्गशतसहस्राणि एक पूर्व, चतुरशीतिः पूर्व वर्षशतसहस्राणि एकं त्रुटिता, चतुरशीतिः बुटिताङ्गशतसहस्राणि एकं त्रुटितं चतुरशीतिखुटितशतसहस्राणि एकमडडा, चतुरशीतिरडडाङ्गशतसहस्राणि एकमडड, चतुरशीतिरडडशतसहस्राणि एकमवाङ्ग चतुरशीतिरववाङ्गशतसहस्राणि एकमवयं चतुरशीतिरववशतसहस्राणि एकं हुहुका, चतुरशीतिहुकाङ्गशतसहस्राणि एक हुहुकं, चतुरशीतिहुकशतसहस्राणि एकमुत्पलाङ्ग, चतुरशीतिरुत्पलाङ्गशतसहस्राणि एकमुत्पलं, चतुरशीतिरुत्पलशतसहस्राणि एकं पद्मा चतुरशीतिः पद्माङ्गशतसहस्राणि एकं पद्मं चतुरशीतिः पद्मशतसहस्राणि एकं नलिनाङ्गं, चतुरशीतिर्नलिनाङ्गशतसहस्राणि एकं नलिनं, चतुरशीतिर्नलिन शतसहस्राणि एक मर्थनिकुरा, चतुरशीतिरर्थनिकुराङ्गशतसहस्राणि एकमर्थनिकुरं, चतुरशीतिरर्थनिकुरशतसहस्राणि एकमयुतानं, चतु रशीतिरयुताङ्गशतसहस्राणि एकमयुतं चतुरशीतिरयुतशतसहस्राणि एकं प्रयुतानं चतुरशीतिः प्रयुताङ्गशतसहस्राणि एकं प्रयुतं, चतुरशीतिः प्रयुतशतसहस्राणि एकं नयुतानं चतुरशीतिर्नयुताङ्गदातसहस्राणि एकं नयुतं चतुरशीतिर्नयुतशतसहस्राणि एकं चूलि - काङ्क्ष, चतुरशीतिभूलिकाङ्गशतसहस्राणि एका चूलिका, चतुरशीतिचूलिकाशतसहस्राणि एकं शीर्षप्रहेलिका, चतुरशीतिः शीर्षलिकाङ्गशतसहस्राणि एका शीर्षप्रहेलिका, एतावानेव गणितस्य विपयोऽतः परमोपनिक कालपरिमाणं एतदेवाह - पल्योपममिति का, For P&Pase Cinly ~237~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१७८] दीप अनुक्रम [२८७] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------- उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र)], - मूलं [ १७८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३४५ ॥ पत्थोपमस्वरूपं सङ्ग्रहणिटीकातोऽवसात त्र्यं तत्र सविस्तरमभिहितलान्, पस्योपमानां दश कोटीको एक सागरोपमं, दश कोटीकोट्यः सागरोपमाणां सुपमसुषमाद्यरकक्रमेण एकाऽवसर्पिणी, सागरोपमाणां दश कोटीको एक दुष्पम दुष्यमाद्य रककमेणैकोत्स पिंणी, तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, अन्यत्रैर्वरूपकालपरिमाणासम्भवान् कालद्रव्यस्य मनुष्यक्षेत्र एव भावात् ॥ 'जावं च णमित्यादि यावचन्द्रोपरागा इति सूर्योपरागा इति वा चन्द्रपरिवेषा इति वा सूर्यपरिचेपा इति वा प्रतिचन्द्रा इति वा प्रतिसूर्या इति वा इन्द्रधनुरिति वा उदकमत्स्या इति वा कपिहसितमिति वा एतेषामर्थः प्राग्वत्तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, अन्यत्रैषामभाव इति भावः । 'जावं च णमित्यादि यावच्चन्द्रसूर्यग्रहगणनचत्रतारारूपाणि सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश: प्राकृतत्वान्, णमिति वाक्याद्वारे अभिगमनं - सर्वत्राद्यान्मण्डलाभ्यन्तरप्रवेशनं निर्गमनं सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाद्वहिर्गमनं वृद्धि:-शुपक्षे चन्द्रमसो वृद्धिप्रतिभास: निर्वृद्धि: वृद्धेरभावः, कृष्णपक्षे चन्द्रमस एवं हानिप्रतिभास इति भावः, अनवस्थितं सन्ततं चारप्रवृत्त्या यत्संस्थानं सम्यगवस्थानमनवस्थितसंस्थानं, एतेषां द्वन्द्वौः संस्थितानि यथायोगं व्यवस्थितानि अभिगमन निर्गमन वृद्धि निर्बुद्धयनवस्थितसंस्थानसंस्थितानीति व्याख्यायन्ते तावदयं मनुष्यलोक इति प्रोच्यते, अन्यत्र चन्द्रादीनामभिगमनाद्यसम्भवात् ॥ अंतो णं भंते! मणुस्खेत्तस्स जे चंदिमसूरियगहगणणक्खतताराख्या ते णं भदन्त ! देवा किं उबवण्णा कप्पोबवण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णगा चारद्वितीया गतिरतिया गतिमाणगा ?, गोयमा ! ते णं देवा णो उद्घोववण्णगा णो कप्पोचवण्णगा विमाणोववण्णगा चावण्णा नो चारद्वतीया गतिरतिया गतिसमावण्णगा उहमुहकलंय पुष्प संठाणसंटि For P&P ३ प्रतिपत्तौ अन्तर्वहि ~238~ चन्द्रादी नां ऊर्ध्वो पपन्नत्वादि उद्देशः २ सू० १७९ ॥ ३४५ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७९] तेहिं जोयणसाहस्सितेहिं तावखेत्तेहिं साहस्सियाहिं बाहिरियाहिं वेउब्वियाहिं परिसाहिं महयाहयनहगीतवादिततंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडप्पवादितरवेणं दिव्वाई भोगभोगाईमुंजमाणा महया उक्कडिसीहणायवोलकलकलसहेण विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाणा अच्छयपब्वयरायं पदाहिणावत्तमंडलयारं अणुपरियडंति ॥ तेसि भंते! देवाणं इंदे चवति से कहमिदाणिं पकरेंति?, गोयमा! ताहे चत्तारि पंच सामाणिया तं ठाणं उवसंपजित्ताणं विहरंति जाव तत्थ अन्ने इंदे उववण्णे भवति ॥ इंदट्ठाणे णं भंते ! केवतियं कालं विरहिते उववातेणं?, गोयमा! जहपणेणं एकं समयं उक्कोसेणं छम्मासा ।। बहिया णं भंते! मणुस्सखेत्तस्स जे चंदिमसूरियगहणक्वत्ततारारूवा ते णं भंते! देवा किं उड्डोववण्णगा कप्पोववरणगा विमाणोचवण्णगा चारोववष्णगा चारद्वितीया गतिरतिया गतिसमावण्णगा?, गोयमा! ते णं देवा णो उहोवव. पणगा नो कप्पोववपणगा विमाणोववन्नगा नो चारोववष्णगा चारद्वितीया नो गतिरतिया नो गतिसमावणगा पकिगसंठाणसंठितेहिं जोयणसतसाहस्सिएहिं तावक्खेत्तेहिं साहस्सियाहि य बाहिराहिं वेचब्बियाहिं परिसाहिं महताहतणगीयवाइयरवेणं दिवाई भोगभोगाई मुंजमाणा सुहलेस्सा सीयलेस्सा मंदलेस्सा मंदायरलेस्सा चित्तंतरलेसागा कूडा इव ठाणहिता अण्णोपणसमोगाढाहिं लेसाहिं ते पदेसे सब्बतो समंता ओभासेंति उज्जोवेंति तवंति पभासेंति ॥ दीप अनुक्रम [२८८] ROCOCADKANGACARROCAKACANC1500 ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः प्रत सूत्रांक [१७९]] दीप अनुक्रम [२८८] जया णं भंते! तेसिं देवाणं ईदे चयति से कहमिदाणिं पकरैति?, गोयमा! जाव चत्तारि प्रतिपत्ती पंच सामाणिया तं ठाणं उपसंपजित्ताणं विहरंति जाव तस्थ अण्णे उबवणे भवति । अन्तर्बहिइंदट्ठाणे णं भंते! केवतियं कालं विरहओ उबवातेणं, गोयमा! जहण्णेणं एक समय उकोसेणं |श्चन्द्रादीछम्मासा ।। (सू०१७९) नांऊवा'अंतो णमित्यादि, 'अन्तः' मध्ये णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! मानुपोत्तरस्य पर्वतस्य ये चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारुपास्ने भ- पपन्नत्वादि दन्त ! देवाः किमूडोपपन्ना:?-सौधर्मादिभ्यो द्वादशभ्यः कल्पेभ्य ऊर्द्धमुपपन्ना ड्रोपपन्नाः कल्पेषु-सौधर्मादिषु उपपन्नाः कल्पोप-10 | उद्देशः२ पन्नाः बिमानेपु-सामान्यरूपेषु उपपन्ना विमानोपपन्ना: चारो-मण्डलगत्या परिभ्रमणं तमुपपन्ना-आश्रितवन्तश्वारोपपन्नाः चारस्य- सू० १७९ यथोक्तरूपस्य स्थिति:-अभावो येषां ते चारस्थितिका अपगतचारा इत्यर्थः गती रतिः-आसक्ति: प्रीतियेषां ते गतिरतिकाः, एतेन गतौ रतिमात्र मुक्त, सम्प्रति साक्षाद्गति प्रभयति-गतिसमापन्नाः गतिसमापन्ना:-गतियुक्ताः, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगबानाहगौतम! ते देवा नोडोपपन्नास्तथा चारोपपन्नाचारसहिता नो चारस्थितिकाः, तथा स्वभावतोऽपि गतिरतिकाः साक्षागतियुक्ताश्च, नालिकापुष्पसंस्थानसंस्थितैः 'योजनसाहनिकैः' अनेक योजनसहस्रप्रमाणैस्तापक्षेत्रैः 'साहनिकाभिः' अनेकसहस्र सहयाभिर्वाह्याभिः पर्षद्भिः, अन बहुवचनं व्यक्त्यपेक्षया, 'वैकुर्विकाभिः' विकुर्वितनानारूपधारिणीभिः 'महयाहयनटुगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमु-10 इंगपडुप्पवाइयरवेण मिति पूर्ववन् 'दिव्यान्' प्रधानात् भोगाही भोगाः-शब्दादयो भोगभोगास्तान मुजानास्तथा स्वभावतो गतिर-15॥३४६ ॥ तिकैर्वाह्यपर्पदन्तर्गतवैवेगेन गच्छत्सु विमानेषु 'उत्कृष्टतः उत्कर्षवशेन ये मुच्यन्ते सिंहनादादयश्च क्रियन्ते थोलाः, बोलो नाम *40** Jati अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~240 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -- - प्रत सूत्रांक [१७९]] A ISIमुखे हसं दवा महता शब्देन पूत्करणं, यह कलकलो-व्याकुलशब्दसमूहस्तद्रवेण महता ममुद्रवभूतमिव कुर्वाणा मेसमिति योगः / किंविशिष्टम् ? इत्याह-'अच्छम्' अतीवनिर्मलजाभ्यूनमयत्वान् रनबहुलत्वाब 'पर्वतराज' पर्वतेन्नं प्रदक्षिणावर्तमण्डल धार यथा भवति तथा मेरुमनुलक्षीकृत्य 'परिअडंति' पर्यटन्ति । पुन: प्रभयति-तेसि णं भंते!' इत्यादि, तेषां भदन्त ! ज्योतिष्कदे-1 वानां यदा इन्द्रव्यवते नदा ते देवा 'इदानीम्' इन्द्रविरहकाले कथं प्रकुर्वन्ति ?, भगवानाहु-गौतम ! बावञ्चत्वारः पञ्च या सामानिका देवाः समुदितीभूय 'तत्स्थानम्' इन्द्रस्थानमुपसंपद्य 'विहरन्ति' तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति, संजाती शुरुकवानादिकपश्चा-1 लबन , कियन्तं कालं यावत्तदिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति इति चेदत आह-यावदन्यस्त वेन्द्र उपपन्नो भवति ।। 'इंदट्ठाणे ण'मित्यादि, इन्द्रस्थानं भदन्त ! कियन्तं कालमुपपातेन विरहिन प्रशप्तम् , भगवानाह-गौतम! जघन्येने के समयं यावदुत्कर्षत: पण्मासान् ।। 'पहिया ण'मित्यादि, बहिर्भदन्त ! मानुपोत्तरस्य पर्वतस्य ये चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपारने भदन्त ! देवाः किमूछोपपन्ना: ? इत्यादि। प्राग्वन् , भगवानाह-गौतम! नोडोपपन्नका नापि कल्पोपपन्नाः किन्तु विमानोपपन्नास्तथा नो चारोपपन्नाः किन्तु चारस्थितिका: अत एवं नो गतिरत यो नापि गतिसमापनका: 'पकिट्टगसंठाणसंठिएहि ति पकेटकसंस्थानसंस्थित योजनशतसाहसिकरातपक्षेत्रः ट्रायथा इष्टका आयामतो दीर्घा भवति विस्तरतस्तु स्तोका चतुरस्रा च नेपामपि मनुष्यक्षेत्राहियवस्थितानां चन्द्रसूर्याणामातपक्षेत्रा-1 ग्यायामतोऽनेक योजनशनसहनप्रमाणानि विस्तरव एकयोजनशतसहस्राणि चतुरमाणि चेति, तेरित्थम्भूतैरातपक्षेत्रैः साहम्बिका-15 ४ भि:-अनेकसहस्रमायाभिर्यायाभिः पर्षद्भिः, अत्रापि बहुवचनं व्यक्त्यपेक्षया, 'महयाहये त्यादि यावत्समुद्रवभूतमिव कुर्वन्त इनि प्रासावन , कथम्भूना:? इत्याह-शुभलेश्याः , एतथ विशेपर्ण चन्द्रमसः प्रति, तेन नातिशीतनेजस: किन्तु मुखोत्पादहेतुपरमलेश्याका दीप अनुक्रम [२८८] CANDROKANCock 5 4-0- ~241 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७९] श्रीजीवा- इत्यर्थः, मन्दलेश्या, एतग विशेषण सूर्यान् प्रति, तथा च एतदेव व्याचष्टे-'मन्दातपलेश्याः ' मन्दा नात्युषणखभावा आतपरूपा] प्रतिपत्ती जीवाभि०ी लेश्या-रश्मिसातो येषां ते तथा, पुनः कथम्भूताश्चन्द्रादित्या:? इत्याह-'चित्रान्तरलेश्याः' चित्रमन्तरं लेश्या च येषां ते तथा, पुष्करवरमलयगि-हाभावार्थश्वास्य पदस्य प्रागेवोपदर्शितः, त इन्थम्भूताश्चन्द्रादित्याः परस्परमवगाढाभिर्लेश्याभिः, तथाहि-चन्द्रमसा सूर्याणां च प्रत्येक पुष्करोदरीयावृत्तिः लेश्या योजनशतसहसप्रमाणविस्तारा, चन्द्रसूर्याणां च सूचीपतया व्यवस्थितानां परस्परमन्तरं पञ्चाशद् योजनसहस्राणि, ततश्चन्द्र-14 वरुणवरप्रभासम्मिाः सूर्यप्रभाः सूर्यप्रभासम्मिश्नाश्च चन्द्रप्रभाः इतीत्थं परस्परमवगाढाभिलेश्याभिः कूटानीव-पर्वतोपरिव्यवस्थित शिस्त्ररा-15 ॥३४७॥ वरुणोदाः णीव 'स्थानस्थिताः' सदैवैकन खाने स्थितास्तान् तान् प्रदेशान् स्वस्खप्रत्यासन्नान् उद्योतयन्ति अवभासयन्ति तापन्ति प्रकाश-15 उद्देशः२ यन्ति ।। 'तेसि णं भंते ! देवाणं जाहे इंदे चयई'यादि प्राम्यन् ।। पुक्खरवरपणं दीवं पुक्खरोदे णामं समुद्र बट्टे वलयागारसंठाणसंठिते जाव संपरिक्विवित्ताणं चिट्ठति ॥ पुक्खरोदे णं भंते ! समुद्दे केवतियं चकबालविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवणं पण्णसे?, गोपमा! संखेजाई जोयणसयसहस्साई चकवालविक्खंभेणं संखेजाई जोयणसयसहस्साई परिक्वेवेणं पपणत्ते ॥ पुक्खरोदस्स णं समुहस्स कति दारा पणत्ता?, गोयमा! चत्तारि दारा पपणत्ता तहेव सवं पुक्खरोदसमुहपुरस्थिमपेरंते वरुणवरदीवपुरस्थिमदस्स पचत्थिमेणं एस्थ णं पुक्खरोदस्स विजए नाम दारे पपणत्ते, एवं सेसाणवि । दारंतरंमि संखेजाई जोयणसयसह ॥३४७॥ स्साई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते । पदेसा जीवा य तहेव । से केणट्टेणं भंते ! एवं वुचति?-पुक्ख 258477 दीप अनुक्रम [२८८] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् पुष्करोद-आदि समुद्राधिकार: आरभ्यते ~242 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 4 प्रत सूत्रांक [१८०] - -45 दीप अनुक्रम [२८९-२९१] रोदे समुद्दे २१, गोयमा! पुक्खरोदस्स णं समुदस्स उदगे अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे पगतीए उदगरसेणं सिरिधरसिरिप्पभा य दो देवा जाव महिड्डीया जाव पलिओबमद्वितीया परिवसंति, से एतेण?णं जाव णिचे । पुक्खरोदे णं भंते! समुद्दे केवतिया चंदा पभासिसुवा ३१, संखेजा चंदा पभासेंस वा३ जाव तारागण कोडीकोडीउ सोमेसु वा ३॥ पुक्खरोदे णं समहे वरुणचरेणं दीवेणं संपरि० बढे वलयागारे जाब चिट्ठति, तहेव समचकवालसंठिते केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं? केवइयं परिक्वेवणं? पण्णत्ता, गोयमा! संबिजाई जोयणसयसहस्साई चकवालविखंभेणं संखेजाई जोयणसतसहस्साई परिक्वेवेणं पण्णत्ते, पउमवरयेदियावणसंडवण्णओ दारंतरं पदेसा जीवा तहेव सव्वं ॥ से केणतुणं भंते! एवं बुच्चइ वरुणवरे दीवे २१, गोयमा! वरुणवरे पं दीवे तत्व २ देसे २ तहिं २ बहुओ खुड्डा खुड्डियाओ जाव बिलपंतियाओ अच्छाओ पत्तेयं २ पउमवरचेइयापरि० वण वारुणिवरोदगपडिहस्थाओ पासातीलाओ४, तासु णं खुड्डाखुड्डियासु जाव बिलपंतियासु बहवे उप्पायपव्वता जाव खडहडगा सब्वफलिहामया अच्छा तहेव वरुणवरुणप्पभा य एत्थ दो देवा महिड्डीया परिवसंति, से नेणतुणं जाव णिचे । जोतिसं सव्वं संखेजगणं जाव तारागणकोडिकोडीओ। वरुणवरण्णं दीवं वरुणोदे णामं समुद्दे बट्टे बलया. जाब चिट्ठति, समचक्क विसमचक्कवि तहेव सव्वं भाणियव्वं, विक्खंभपरिक्षेवो संखिजाई %25EK % 2-% ~2434 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवा % जीवाभिः प्रत सूत्रांक KER मलयगिरीयावृत्तिः। [१८०] प्रतिपत्ती पुष्करवरपुष्करोदवरुणवरवरुणोदा उद्देशः२ सू०१८० ॥३४८॥ 5 - A जोयणसहस्साई दारंतरं च पउमवर० वणसंडे पएसा जीवा अट्ठो गोयमा! वारुणोदस्स णं समुद्दस्स उदए से जहा नामए चंदप्पभाइ वा मणिसिलागाइ वा घरसीधुवरवारुणीह या पसासवेइ वा पुपकासवेइ वा चोयासवेइ वा फलासवेइ वा महुमेराइ वा जातिप्पसमाइ वा खार सारेइ वा मुद्दियासारेर वा कापिसायणाइ वा सुपक्कग्वोयरसेह वा पभूतसंभारसंचिता पोसमाससतभिसयजोगवत्तिता निरुवहतविसिट्टदिन्नकालोक्यारा सुधोता उधोसग (मयपत्ता) अट्टपिट्टपुट्ठा (पिट्ठ निहिजा) [मुखईतवरकिमदिषणकद्दमा कोपसन्ना अच्छा वरवारुणी अतिरसा जंबूफलपुट्ठवन्ना सुजाता ईसिउट्ठावलंबिणी अहियमधुरपेजा ईसासिरत्तणेसा कोमलकबोलकरणी जाव आसादिता विसदिता अणिहुयसंलावकरणहरिसपीतिजणणी संतोसततषियोकहावधिभमविलासबेल्लहलगमणकरणी विरणमधियसत्तजणणी य होति संगामदेसकालेकयरणसमरपसरकरणी कढियाणविलुपयतिहिययाण मउयकरणी य होति उववेसिता समाणा गर्ति स्थलावेति य सयलंमिवि सुभासवुप्पालिया समरभग्गवणोसहयारसुरभिरसदीविया सुगंधा आसायणिजा विस्सायणिजा पीणणिज्जा दप्पणिज्जा मयणिज्जा सम्विदियगातपल्हायणिवा] आसला मांसला पेसला (ईसी ओढावलंबिणी ईसी तंबच्छिकरणी ईसी वोच्छेया कटुआ) वपणेणं उबवेया गंधेणं उववेया रसेणं उबवेया फासेणं उववेया, भवे एयारूवे सिया?, गोयमा! दीप अनुक्रम [२८९-२९१] 40-50-624 4%A6-% IN||३४८॥ TA अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~244 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: %%ES प्रत सूत्रांक [१८०] KRK4 दीप अनुक्रम [२८९-२९१] नो इण समझे, वारुणस्स णं समुदस्स उदए एत्तो इट्ठतरे जाव उदए। से एएणद्वेणं एवं बच्चतिक, तत्थ णं वाणिवाकणकता देवा महिडीया० जाव परिवसंति, से एगणद्वेणं जाव णिचे, सव्यं जोइससंखिज्जे केण नायव्वं वामणवरे णं दीवे कइ चंदा पभासिसुवा ३१ ॥ (सू० १८०) 'पुक्खरवरपण'मित्यादि, पुष्करवर णमिति वाक्यालकारे द्वीपं पुष्करोदो नाम समुद्री पृत्ती वलयाकारसंखानसंस्थितः समन्तासंपरिक्षिप्य तिष्ठति ।। 'पुक्सरोदे गं भंते ! समुदे कि समचक्रवालमंठिए' इत्यादि प्राग्वन् । सम्पति विष्कम्भादिप्रतिपादनार्थमाह | --'पुक्सरोदे णमित्यादि, पुष्करोदो भदन्त ! समुद्रः कियञ्चक्रबालविष्कम्भेन कियपरिक्षेपण प्रशनः , भगवानाह-गौतम ! ससोयानि योजनशतसहमाणि चक्रवालविकन्भेन सल्ययानि योजनशतसहस्राणि परिशेषेण प्रज्ञतः । 'से णमित्यादि, स पुष्करोदः । समुद्र गल्या पद्मवरयेनिकया सामर्यादपयोजनोच्छ्रयजगत्युपरिभाविन्या एकेन बनखण्डेन सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्तः ।। 'पुक्खपारोदसणं भंते !' इत्यादि पुकदम्ब भदन्त : समुद्रस्य कति द्वाराणि प्रज्ञतानि ?, भगवानाह-गौतम' चत्वारि द्वाराणि प्रामामि नद्यथा-विजयं वैजयन्तं जयन्तमपराजित, क भदन्त ! पृष्करोदसमुद्रम विजयं नाम द्वारं प्रक्षप्रम्', भगवानाह-गौतम पुष्करो भादसमुद्रम्य पूपियन्ते ऽपर परम्य पश्चिमदिशि, आत्र पुस्कशेदम मुद्रम्प विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं, सच जम्यूतीपविजयद्वारबद्ध तय, नबरं राशनी अम्पमिभ पुस्करोरे समुद्रे । 'कहि मितादि, क भदन्त पुस्करोदसमुद्रस्य बैजयन्तं नाम द्वारं प्रजाम', भगवाना--गौतम गरोनस मुद्रस्य दक्षिणपर्यन्तेऽभगवरहीवभिनाईयोत्तरतोऽत्र पुष्करोदममुद्रा बैजयन्तं नाम द्वार प्रभावन ।। जी०५९ I भदन्त ! पुष्करोदसमुद्रस्य जयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञतम् , भगवानाह-गौतम ! पुष्करोदसमुद्रस्य पश्चिमपर्यन्तेऽरुणवरदीपप निमाईमा ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८० ] दीप अनुक्रम [ २८९ -२९१] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], मूलं [१८० ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र -[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० ॥ ३४९ ॥ पूर्वतोऽत्र पुष्करोदसमुद्रस्य जयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं तदपि जीवनजगतद्वारयत् न राजधानी अन्यमिम पुष्करोदसमुद्रे ॥ 'कहि ण'मियादि, क भदन्त ! करोदसमुद्रस्यापराजितं नाम द्वारं want? भगवानादगौतम! पुष्करोदसमुद्रस्योत्तरपर्यन्तेऽमलयगिरीपस्य दक्षिणतोऽत्र पुष्करोदसमुद्रम्यापराजितं नाम द्वारं प्रज्ञम् एतदपि पापराजितद्वारवतव्यं, नवरं राजधानी रीयावृत्तिः । अन्यस्मिन् पुष्करोदसमुद्रे || 'पुक्खरोदस्स ण'मिन्दादि करोदस्य भन्द ! समुद्रस्य द्वारस्य द्वारस्य च परस्परसन्तरमेतत् कियत् 'अवाधया' अन्तरित्या व्यापातरूपया प्रज्ञतम् ? भगवानाह गौतम सोयानि योजना द्वारस्य द्वारम्य च परस्परमवाधया ऽन्तरं प्रम् || पिए यदि प्रदेश जीवोपपातचतुष्टयं तथैव पूर्ववन्नमदवरोयम्स णं भंते! समुहस्स पणमा अरुणवरं दीव पुट्टा ?, हंता ! बुढा, ते भंते! सरोदे समुदे रे दीवे?, गोयमा ! पुत्ररोप णं समुदे तो अशणवरे दीवे। अरुणवरस्स भंते! दो पल क्रोणं समुदं पुट्टा ?, हंसा बुढा, ने भंते! किं व दीवे खरीदे समुद्दे ?, गोपमा ! अरुणवरे दीपे तो खलु ते पुश्वरोप समुद्दे पुक्खरोए णं भंते! समुदे जीवr separ se दीवे पचायति ?, गोयमा ! अत्येगइया ॐ मायंति अथेगइया नोपायति । अरुणवरे णं भंते! दीवे जीवा उदाता खरीदे समुदे० " इति (पुष्करोदान्वर्थे) भगवानाह - गौतम! पुष्करोदस्य णमिति पूर्ववन् समुद्रस्योदकम् 'अच्छम्' अनाविलं 'पथ्यं' न रोगहेतु: 'जात्यं' न विजनिमन् 'तनु' लघुपरिणामं 'स्फटिकवर्णाभं' स्फटिकरवच्छायं प्रकृत्योदकरसं प्रज्ञनं, श्रीधरश्रीप्रभौ चात्र-पुष्करोदे समुद्रे हो देवो महर्द्धिको यावत्पस्योपमस्थितिको परिवसतः, ततस्ताभ्यां सपरिवाराभ्यां गगनमिव चन्द्रादित्याभ्यां महनक्षत्रादिपरिवारोपेताभ्यां नदुदकमवभासत इति, पुकरमिवोदकं यस्यासौ पुष्करोद:, तथा पाह' से एएणण' मित्याद्युपसंहारवाक्यम् एक्परोप णं भंते! समुद्दे कइ चंदा पभा For P&Palise City प्रतिपनी पुष्करवारुणाः उद्देशः २ म०१:० ~246~ ॥ ३४९ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: *% २५. - --- प्रत सूत्रांक [१८०] A4%A 9 सिसु ?' इत्यादि पाठसिद्ध, सर्वत्र सहयेयमय निर्वचनभावात् ॥ 'पुक्खरोदणं समुद्दमित्यादि, पुष्करोदं णमिति पूर्ववत् समुद्र। वरुणवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकारसंस्थान संस्थितः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति । अत्रापि पुष्करोदसमुद्रवज्ञवालविष्कम्भ-| परिक्षेपवेदिकावनखण्डद्वारतदन्तरप्रदेशजीवोपपातवक्तव्यता वक्तव्या ॥ सम्नति नामान्यर्थमभिधित्सुराह-से केणटेण'मित्यादि। | अथ केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते वरुणवरो द्वीपो करुणवरो द्वीपः इति, भगवानाह-गौतम ! वरुणवरस्य द्वीपस्य तत्र तत्र देशे तस्य। तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे वहवः 'खुट्टा सुडियाओ जाब विलपंतियाओ यावत्करणान् पुक्खरणीशो गुंजालियाभो दीहियाओ सराओ सरपंतियाओ सरसरपंतियाओ बिलपंतीओ अच्छाओ जाव महुररसणिचतातों इति यावत्करणान् सहाओ रयणमयकुलाओ समतीराओ बइरामयपासाणाओ तवणिजतलाओ सुवण्णसुझरययबालुयाओ येरुलियमणिकालियपडलप नोयडाओ सुहोयाराओ सुहृत्ताराओ| नाणामणितित्थसुत्रद्धाओ चाउकोणाओ अणुपुब्बसुजायवष्पगंभीरसीयलजलाओ संछन्नपत्तभिसमुणालाओ बहुलुप्पलकुमुयनलिणसुभगसोगंधियाओ पुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोबचियाओ छप्पयपरिभुजमाणकमलाओ अच्छविमलसलिलपडिपुण्णाओ पडिह-18 स्थगभमन्तमच्छकच्छभअणेगसउणगणमिहुणविचरियसटुण्णइयमहुरसरनाझ्याओ" अस्य व्याख्यानं प्राग्वत् । 'वारुणीवरोदगपडिह-13 | स्थाओं' इत्यादि, वारुणिवरे च वरवारुणीव यद् उदकं तेन 'पडिहत्याओं' प्रतिपूर्णाः पसेयं पत्तेयं पउमवरवेड्यापरिक्खित्ताओ पासाईयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरुवाओ' इति पाठसिद्धम् । 'तिसोवानतोरणा' इति तासां निसोपानानि तोरणानि च प्रत्येकं वक्तव्यानि, तानि चैवम्-'तासि णं खुट्टाखुड़ियाणं वावीणं पुक्खरिणीण दीहियाणं गुंजालियाणं सरसियाणं सरपंतियाणं सरसरपंतियाणं बिलपंतियाण पत्तेयं २ चउदिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पन्नता, तेसि तिसोपाणपडिरूवगाणं इमे एयारुले दीप अनुक्रम [२८९-२९१] - * -MAM ~2474 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८०] दीप अनुक्रम [२८९-२९१] श्रीजीवा- वण्णावासे पन्नत्ते, तंजहा-वइरामया नेमा रिद्वामया पइट्ठाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्णरुप्पमया फलगा बइरामया संधी लोहियक्व- प्रतिपत्तो जीवाभि मइओ सूईओ नाणामणिमया अवलंबणा अवलंवणवाहाओ पासाईया दरसणिजा अभिरुवा पडिरुत्रा, तेसि पं तिसोवाणपडिरूवगाणं 31 पुष्करमलयगि-16 पुरतो पत्तेयं २ तोरणा पण्णता, ते ण तोरणा नाणामणिमया नाणामणिमएसु खंभेसु उवनिविट्ठा विवि मुत्ततरोबचिया विविहतारारू-1 वारणाः रीयावृत्तिः वोववेया ईहामिगउसभतुरगनरमगरविहगबालगकिन्नरककसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवरखेड्यापरिंगयाभिरामा | उद्देशः२ विजाहरजमलजुगलजंतजुत्ताविव अञ्चीसहस्समालिणीया रुबगसहस्सकलिया भिसमाणा भिभिसमाणा चक्बुहोयणलेसा सुहफासासू० १८० सस्सिरीया पासाईया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरुवा, तेसि ण तोरणार्ण उवरि अट्ठह मंगलगा पन्नत्ता, तंजहा-सोस्थियसिरिवछनंदियावत्तवद्धमाणगमदासणकलसमल्छदापणा सन्धरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । तेसि ण तोरणाणं उबार वहवे किण्ह-11 चामर झवा नीलचामरझया लोहियचामरझया हालिद चामरज्झया सुकिल्लचामरज्झ या अच्छा सहा रुप्पपट्टा बरामयदंडा जल-18 यामलगंधिया सुरम्मा पासाईया दरसणिजा अभिरुवा पतिरूवा । तेसि गं तोरणाणं उबरि बहवे छत्ताइन्हत्ता पड़ागाइपडागा घंटाजुयला उप्पलहत्थया कुमुयहत्वया नलिणहत्थगा सुभगहत्थगा सोगंधियहत्यगा पोंडरियहत्थगा महापोंडरीयहत्यगा सतपत्तहत्वगा| सहस्सपत्तहस्थगा सयसहस्सपत्तहत्थगा सव्वरयणामया अच्छा सहा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पका निकडच्छाया | सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया पासाईया दुरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा ।” अस्य व्याख्या पूर्ववत् । तासि णं खुट्टाखुहियाणे वावीण युक्खरिणीणं जाव बिलपंतिवाणं तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे उपायपवगा निययपव्ययगा जगतीपब्धयगा दारुपब्वयगा मंडवगा PM * ॥३५०॥ दगमंडवगा दकमालगा दगपासाया उसङगा खडखडगा अंदोलगा पक्खंदोलगा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिम्बा । इनि प्रा 298- -2 - 2 0 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~248 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८०] दीप अनुक्रम [२८९-२९१] हैम्बत् । तेसु णं पध्वयगेसु जाव पक्खंदोलगेसु बहवे हंसासणाई उन्नयासणाई पणयासणाई दीहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाई पउमासणाई सीहासणाई दिसासोवस्थियासणाई सम्वफालियामयाई अच्छाई जाव पडिरूबाई । वरुणवरस्स णं दीवस्म तत्य तत्थ देसे तहिं नहिं बहबे आलीघरगा मालीघरगा केयइधरगा अरुछणघरगा पेच्छणघरगा मजणघरगा पसाहणघरगा गत्तपरगा मोहणपरगा चित्तहरगा मालघरगा जालघरगा कुसुमघरगा सञ्चालियामया अच्छा जाव पडिरूवा । तेसु णं आलीधरएसु जाव कुसुमघरएसु वहये इंसासणाई जाव दिसासोवस्थियासणाई सम्वफालियामयाई अच्छाई जाब पडिरूवाई। वरुणवरे णं दीवेणं तस्थ २ | देसे तहिं २ बहवे जातिमंडवगा जूहियामंडवगा मल्लियामंडवगा नवमालियामंडवगा वासंतियमंडवगा दहिवासइमंडवगा सूरुल्लियामडवगा तंबोलमंडवगा अफायामंडवगा अइमुत्तमंडवगा मुद्दियामंडवगा मालुयामंङबगा सामलयामंडवगा सव्वफालिहामया अच्छा जाव पडिरूवा । तेसु णं जाइमंडवेसु जाव सामलयामंडवेसु बहबे पुढविसिलापट्टगा पन्नता, अप्पेगइया हंसासणसंठिया अप्पेगइया कोंचासणसंठिया जाब अप्पेगइया दिसासोवस्थियासणसंठिया अपपेगइया बरसायणनिसिहसंठाणसंठिया सवफालियामया अच्छा जाव पडिरूवा, तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति सयंति चिट्ठति निसीयंति तुबटुंति रमति ललंति कीडंति पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुम्परकताणं सुभाण कडाणं कम्माणं कलाणाणं फलवित्तित्रिसेसे पञ्चणुभवमाणा बिहरंति' एतत्सर्व प्राग्वद् व्याख्येय, नवरं पुस्तके वन्यथाऽन्यथा पाठ इनि यथाऽवस्थित पाठप्रतिपत्त्यर्थ सूत्रमपि लिखितमस्ति, तदेवं यस्माद्वरवारुणीवात्र वाप्यादिपूदकं तस्मादेष द्वीपो वरुणवरः, अन्यश्च वरुण वरुणनभौ चात्र वरुणवरे द्वीपे ड्री देवौ महादिको यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतस्तस्माद्वरुणधरो-त्रगणदेवप्रधानः, तथा चाह-से एएणद्वेण मित्यादि । चन्द्रादिसञ्जयाप्रतिपादनार्थमाह-वरुणवरे गं दीवे कइ चंदा पभासिसु' इत्यादि Jama ~249~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८०] दीप अनुक्रम [२८९-२९१] श्रीजीवा- पाठसिद्ध सर्वत्र सयेयतयाऽभिधानात् ।। 'वरुणवरणं दीव'मित्यादि, वरुणवरमिति पूर्ववत् , बरुणोदः समुद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्था-151३ प्रतिपत्ती नसंस्थितः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति, यथैव पुष्करोदसमुद्रस्य वक्तव्यता तथैवास्यापि वावजीबोपपातसूत्रद्वयम् ।। सम्प्रति नाम-16 मलयगि- निबन्धनमभिधित्सुराह-'से केणडेण मिलयादि,अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते वरुणोदः समुद्रो वरुणोदः समुद्रः इति,भगवानाही वारुणाः रीयावृत्तिः | -गौतम! वरुणोदस्य समुद्रस्योदकं, सा लोकप्रसिद्धा यथा नाम-'चन्द्रप्रभेति वा चन्द्रम्येव प्रभा-आकारो यस्याः सा चन्द्र-18/ उद्दशा२ प्रभा-सुराविशेषः, इतिशब्द उपमाभूतवस्तुपरिसमापियोतकः, वाशब्दः समुच्चये, एवमन्यत्रापि, मणिशलाकेव मणिशलाका वरं च तत्सीधु च २ वरा चासौ वारुणी च वरवारुणी, धातकीपत्ररससार आसव: पत्रासवः, एवं पुष्पासवः फलासवश्च परिभावनीयः, चोयो-गन्धद्रव्यं तत्सार: आसबञ्चोयासवः, मधुमेरको लोकादवसातव्यौ (मद्य) बिशेषौ, जातिपुष्पवासिता प्रसन्ना जातिप्रसन्ना, मूलदल-18 | वर्जूरसार आसवः ग्वजूरसारः, मृबीका-द्राक्षा नत्सारनिष्पन्न आसवो मृवीकासारः 'कापिशयनं' मयविशेष: सुपक्कः-सुपरिपाका| गतो यः क्षोदरस-इक्षुरसस्तनिष्पन्न आसवः सुपके रसः, अष्टवारपिष्टप्रदाननिष्पन्ना अष्ट्रपिष्टनिष्टिता जम्बूफलकालिवरप्रसन्ना सुराविशेषः, उत्कर्षेण मदं प्राप्ता उत्कर्षमदप्राप्ता 'आमला' आस्वादनीया 'मांसला' बहला 'पेसला' मनोक्षा ईषद् ओष्ठमबल-13 |म्बते-ततः परमतिप्रकृष्टास्वादगुणरसोपेतवान् झटिति परतः प्रयाति ईपदोठावलम्बिनी, तथा ईपत्ताम्राक्षिकरणी, तथा ईषत्-म-] | नाग व्यवच्छेद-पानोत्तरकालं कटुका तीक्ष्णेति भावः एलागुपहकद्रव्यसमायोगान, तथा वर्णेनाविशायिना एवं गन्धेन स्पर्शनो-14 पपेता 'आस्वादनीया' महतामप्यास्वादयितुं योग्या 'विस्वादनीया' विशेषत आस्वादयितुं योग्या अतिपरमास्वादनीयरसोपेतवान्,81 दादीपयति जाठराग्निमिति दीपनीया 'कृद्वहल'मिति वचनात्कर्तर्यनीयप्रायः, एवं मदयतीति मदनीया-मन्मथजननी मुंहतीति बूंह-1 ORGARCACACAN अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~250 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 405 प्रत सूत्रांक [१८०] पणीया धातूपचयकारित्वात् सर्वेन्द्रियाणि गात्रं च प्रवाइयतीति सवेंन्द्रियगात्रमहादनीया । एवमुक्ते गौतम आह-भगवन ! भवेदे तपं वरुणोदकसमुद्रस्योदकम् ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, वरुणोदस्य णमिति यस्मादर्थे निपातानामनेकार्थत्वात् समुद्रस्योदकम् इतः पूर्वस्मात्सुरादिविशेषसमूहादिष्टतरमेव कान्ततरमेव प्रियतरमेव मनोज्ञतरमेव मनापतरमेवास्वादेन प्रज्ञप्त, ततो वारुणीबोदकं यस्यासौ वारुणोदः, तथा वारुणिवारुणकान्तौ चात्र वारुणोदे समुद्रे यथाक्रम पूर्वापरार्द्धाधिपती महर्चिको देवी यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः, ततो वारुणेर्वारुण कान्तरूप च सम्बन्धि उदकं यस्यासौ बारुणोदः, पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः, तथा चाह-'से एएणद्वेण मित्यायुपसंहारवाक्य', चन्द्रादिसूत्र प्राग्वन् ।। वारुणवरण समुह खीरवरे णाम दीवे बट्टे जाव चिट्ठति सब्ब संखेजगं विक्वंभे य परिक्वेवो य जाव अहो, वह ओ खुट्टा० वावीओ जाव सरसरपंतियाओ खीरोदगपडिहस्थाओ पासातीयाओ४, तासु णं खुडियासु जाव बिलपंतियासु बहवे उपायपब्बयगा सब्बरयणामया जाव पडिरूवा, पुंडरीगपुक्खरदंता एत्थ दो देवा महिड्डीया जाव परिवसंति, से एतेणवेणं जाव निचे जोतिसं सब्वं संखेजं ॥ खीरवरपणं दीवं खीरोए नाम समुहे बहे बलयागारसंठाणसंठिते जाव परिक्विवित्ता णं चिट्ठति, समचकवालसंठिते नो विसमचकवालसंठिने, संवेजाई जोयणस० विक्खखपरिक्वेवो तहेव सब्बं जाव अहो, गोयमा! खीरोयस्स णं समुहस्स उदगं [से जहाणामए-सुउसुहीमारुपपणअजुणतरुणसरसपत्तकोमल अस्थिग्गत्तणग्गपोंडगवरुच्छुचारिणीणं लवं 44444 दीप अनुक्रम [२८९-२९१] ~251 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: म X-RAM प्रत सूत्रांक [१८१] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः दीप अनुक्रम [२९२] COCOMSONAL गपत्तपुष्फपल्लवककोलगसफलरुक्खयहुगुच्छगुम्मकलितमलट्ठिमधुपयुरपिप्पलीफलितबल्लिचरविव- प्रतिपत्ती रचारिणीणं अप्पोदगपीतसइरससमभूमिभागणिभयसुहोसियाणं सुप्पेसितसुहातरोगपरिवजि क्षीरवरताण णिरुवहतसरीरिणं कालप्पसविणीणं वितियततियसामप्पसूताणं अंजणवरगवलवलयज भा क्षीरोदौ लघरजचंजणरिट्ठभमरपभूयसमप्पभाणं कुंडदोहणाणं बद्धत्थीपत्थुताण रूढाणं मधुमासकाले उद्देशः २ संगहनेहो अजचातुरकेव होज तासिं खीरे मधुररसविवगच्छबहुदध्वसंपउत्ते पत्तेयं मंद सू० १८१ ग्गिसुकढिते आउरो] खंडगुडमच्छंडितोववेते रपणो चाउरंतचक्कयहिस्स उचढविते आसायणिजे विस्सायणिज्ने पीणणिजे जाव सम्बिदियगातपल्हातणिजे जाव वण्णेणं उवचिते जाव फासेणं, भवे एयारूवे सिया?, णो इणद्वे समद्दे, खीरोदस्स णं से उदए एसोयराए व जाव आसाएणं पण्णत्ते, विमलविमलप्पभा एत्य दो देवा महिड्डीया जाय परिवसंति, से तेणद्वेण संखेज चंदा जाव तारा ॥ (सू०१८२) 'वरुणोदण्ण'मित्यादि, वरुणोदं णमिति पूर्ववत् समुद्र क्षीरवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात्सं-16 परिक्षिप्य तिष्ठति, एवं चैव वरुणवरद्वीपस्य वक्तव्यता सैवेहापि द्रष्टव्या यावजीवोपपातसूत्रम् । सम्प्रति नामान्बर्थमभिधित्सुराह-11 | 'से केणद्वेण मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते क्षीरवरो द्वीपः क्षीरवरो द्वीप:?, प्रभूतजनोक्तिसङ्ग्रहाथै वीप्सायां द्विवचनं, G ॥३५२॥ भगवानाह-गौतम! क्षीरवरे द्वीपे तत्र तन्न देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे 'बयो खुट्टाखुडियाओ वावीओं इत्यादि वरुणवरती अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~252 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८१] दीप अनुक्रम [२९२] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], मूलं [१८१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र -[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः पवत्सर्वं वक्तव्यं यावत् 'वाणमंतरा देवा देवीओ य आसवंति सयंति जाव विहरंति' नवरमत्र वाप्यादयः क्षीरोदपरिपूर्णा वक्तव्याः, पर्वताः पर्वतेष्वासनानि गृहकाणि गृहकेध्यासनानि मण्डपका मण्डपकेषु पृथिवीशिलापट्टकाः सर्वरत्नमया पाण्याः शेषं तथैव, पुण्डरीकपुष्पदन्तौ चात्र क्षीरवरे द्वीपे यथाक्रमं पूर्वार्दापरार्द्धाधिपती द्वौ देवी महर्द्धिको यावत्पस्थोपमस्थितिको परिवसतस्ततो यस्मात्तत्र वाप्यादिपूदकं क्षीरतुल्यं क्षीरक्षीरप्रभौ च तदधिपती देवाविति स द्वीपः क्षीरवरः, तथा चाह- 'से एएणट्टेण' मित्यायुपसंहारवाक्यं, चन्द्रादिसूत्रं प्राम्बत् || 'खीरखरण' मित्यादि, क्षीरवरं णमिति पूर्ववत् द्वीपं क्षीरोदो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात्सं परिक्षिप्य तिष्ठति, शेषा वक्तव्यता क्षीरवरद्वीपस्येव वक्तव्या यावज्जीवोपपातसूत्रम् ॥ सम्प्रति नामनिमित्तमभिधित्सुराह' से केणद्वेण' मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते क्षीरोदः समुद्रः क्षीरोदः समुद्रः ? इति भगवानाह – गौतम! क्षीरोदस्य समुद्रस्योदकं यथा राहञ्चक्रवर्त्तिनश्चातुरक्यं चतुःस्थानपरिणामपर्यन्तं गोक्षीरं चतुःस्थानपरिणामपर्यन्तता च प्रागेव व्याख्याता, 'खण्डगुडमत्स्यण्डिकोपनीतं' खण्डगुडमत्स्यण्डिकाभिरतिशयेन प्रापितरसं प्रयत्नेन मन्दाग्निना कथितम्, अत्यभिपरितापे वैरस्यापत्तेः, अत एवाह-वर्णेनोपपेतं गन्धेनोपपेतं रसेनोपपेतं स्पर्शेनोपपेतम् आस्वादनीयं विस्वादनीयं दीपनीयं दर्पणीयं मदनीयं वृंहणीयं सर्वेन्द्रियगात्रग्रहादनीयमिति पूर्ववत् एवमुक्ते गौतम आह-'भवे एयारूये' भवेरक्षीरसमुद्रस्योदकमेतद्रपम् ? भगवानाह - गौतम ! नायमर्थः समर्थः, क्षीरोदस्य यस्मात्समुद्रस्योदकम् 'इतः' यथोक्तरूपात्क्षीरादिष्टतरमेव यावन्मनआपतरमेवाखादेन प्रमं विमलविमलप्रभौ च यथाक्रमं पूर्वापरार्द्धाधिपती द्वौ देवौ महर्द्धिको यावत्पस्योपमस्थितिको परिवसतः ततः क्षीरमि For P&Praise City ~253~ X Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८१] दीप अनुक्रम [२९२] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [३], ------- उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र)], - मूलं [१८१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३५३ ॥ वोदकं यस्य क्षीरवन्निर्मलस्वभावयोः सुरयोः सम्बन्धि उदकं यत्रेति वा क्षीरोदः तथा चाह से एएणद्वेणमित्यादि गतार्थम् ॥ | सम्प्रति चन्द्रादित्यसङ्ख्याप्रतिपादनार्थमाह- 'खीरोए णं भंते! समुहे' इत्यादि सुगमम् ।। खीरोदपणं समुदं घयवरे णामं दीचे बट्टे वलयागारसंठाणसंठिते जाव परिचिहति समचक्रवाल• at faaro संवेजविखंभपरि० पदेसा जाब अडो, गोयमा ! घयवरे णं दीवे तत्थ २ बहवे खुड्डाखुडीओ वावीओ जाव घयोगपतिहत्याओं उपायपब्बगा जाव खडड० सव्वकंचणमया अच्छा जाव पडिवा, कणकणयप्पमा एत्थ दो देवा महिडीया चंदा संखेजा ॥ घयवरणं दीवं च घतोदे णाम समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते जाव चिट्ठति, समचक० तहेव दारपदेसा जीवा अहो, गोमा ! घयोदस्स णं समुद्दस्स उद्ए से जहा० पष्फुल्लसल्लविमुकलकणियारसरसवसुविबुद्धकोरेंटदामपिंडिततरस्स निद्वगुणतेयदीवियनिरुवयविसिद्धसुंदरतरस्स सुजायदहिमहियतद्दिवस गहियनवणीयपटुवणावियमुकडियउद्दावसज्जवीसंद्रियस्म अहियं पीवरसुरहिगंधमणहरमडुरपरिणामदरिसणिजस्स पत्थनिम्मलसुहोय भोगस्स सरयकालंमि होज गोधतव 1 डीकामूलपादयोर्महृद्वैपम्यमत्र । प्रफुलली विमुलकर्णिकारसमुविकोरण्ट कदामपितितरस्य विश्यगुणतेजोदीभस्य निश्पहत विशिष्ठ सुन्दरतरस्य सुजातदधिमधने तदिवसगृहीतनवनीत पटु संगृहीतोत्कथित उदामसचोविस्वन्दितस्य अधिकपीवरसुरभिगन्धमनोहरमधुर परिणाम दर्शनीयस् पम्प निर्मल मुखोपभोग्य शरत्काले भवेत् गोष्टतवरस्य मण्डः इवि छाया प्रा अग्रेऽप्येवं पाठवैपम्ये ज्ञेयं. . For P&False Cly ३ प्रतिपनी घृतवरघृतोदक्षोदरक्षो दोदरः उद्देशः २ सू० १८२ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश: '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 254 ~ ॥ ३५३ ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८२] रस्स मंटए, भवे एतारखे सिया?, णो तिणढे समढे, गोषमा! घतोदस्स णं समुदस्स एत्तो इट्टतर जाव अस्साएणं प० कंतसुकता एस्थ दो देवा महिद्दीया जाव परिवसंति सेसं तं चेय जाव तारागणकोडीकोडीओ। घतोदपणं समुई खोदवरे णामं दीये चट्टे वलयागारे जाव चिट्ठति तहेव जाव अट्ठो, खोतवरे णं दीवे तत्थ २ देसे २ तहिं २ खुड्डावावीओ जाव खोदोदगपडिहत्थाओ उपपातपञ्चयता सब्यवेरुलियामया जाव पडिरूवा, सुप्पभमहप्पमा य दो देवा महिहीया जाब परिवसंति, से एतेणं. सव्वं जोतिसं तं चेव जाव तारा०॥ खोयवरपणं दीवं खोदोदे नाम समुदे बढे वलया. जाव संखेजाई जोयणसतपरिक्खेवेणं जाव अडे, गोयमा! योदोदस्स णं समुदस्स उदए जहा से० आसलमांसलपसत्यवीसंतनिदसुकुमालभूमिभागे सुच्छिन्ने सुक लढविसिनिमबहयाजीयवावीतसुकासजपयत्तनिउणपरिकम्मअणुपालिपसुबुहिनुहाणं सुजाताणं लवणतणदोसबजियाणं णयायपरिबहियाण निम्मातसुंदराणं रसेणं परिणयमउपीणपोरभंगुरसुजाघमधुररसपुष्कविरिइयाणं उबद्दवविबजियाणं सीयपरिफासियाणं अभिणयलयग्गाणं अपालिताणं निभायणिच्छोडियवाडिगाणं अवणितमूलाणं गठिपरिमोहिनाणं कुसलणरकप्पिपाणं उब्वर्ण जाव पोडियाणं बलवगणरजतजन्तपरिगालितमत्ताणं खोयरसे होजा वत्थपरिपूए चाउमातगसुवासिते अहियपत्थलहुके वष्णोववेते तहेव, भवे एयारूवे सिया ?, णो तिणवे समडे, :4%ACARAMAGAR दीप अनुक्रम [२९३] ~255 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८२] दीप अनुक्रम [२९३] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [३], ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [१८२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३५४ ॥ खोयरसस्स णं समुदस्स उदए एस्तो इतरए चैव जाव आसाएणं प० पुण्णभद्दमाणिभद्दा य (पुण्णपुण्णभदा) इत्थ दुवे देवा जाव परिवर्तति, सेसं तहेव, जोइस संखेजं चंद्रा० ॥ (सू० १८२) 'खीरोदण्णं समुद' मित्यादि, क्षीरोदं णमिति पूर्ववम् समुद्रं धृतवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति, अत्रापि चक्रवालविष्कम्भपरिक्षेपपद्मवर वेदिकावनपण्डद्वारान्तरप्रदेश जीवोपपात वक्तव्यता पूर्ववत् ॥ सम्प्रति नामनिमित्तमभिधित्सुराह - 'से केणद्वेणमित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-पृतवरो द्वीपो पृतवरो द्वीपः ?, भगवानाह गी तम ! घृतवरे द्वीपे 'तत्थ तत्थ देसे तहिं इत्यादि, अरुणवरद्वीपवत्सर्वं तावद्वक्तव्यं यावत् 'वानमंतरा देवाय देवीओ य आसवंति संयंति यावद् विहरंति' इति, नवरं वाप्यादयो धृतोदकपरिपूर्णा इति वक्तव्याः, तथा पर्वताः पर्वतेष्वासनानि गृहकाणि गृहकेध्यासनानि गण्डपका मण्डपकेषु पृथ्वीशिलापट्टकाः सर्वालना कनकमया इति वक्तव्यं, कनककनकप्रभौ चात्र देवों यथाक्रमं पूर्वाद्धपरार्द्धाधिपती महर्द्धिको यावत्पस्योपमस्थितिको परिवसतः ततो घृतोदकवाप्यादियोगाद् घृतवर्णदेवस्वामिकत्वाश्च घृतवरो दीप इति तथा चाह-'से एएणद्वेण' मित्यादि चन्द्रादित्यादिसासूत्रं प्राग्वत् ॥ 'घयवरण्णं दीव' मित्यादि, घृतवरं द्वीपं घृतोदो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्थान संस्थितः सर्वतः समन्तात्परिक्षिप्य तिष्ठति, शेषं यथा घृतवरस्य द्वीपस्य यावज्जीवोपपातसूत्रम् ॥ इदानीं नामनिमित्तमभिधित्सुराह - 'से केणद्वेण 'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते धृतोदः समुद्रो घृतोदः समुद्रः ? इति भगवानाह - गौतम ! प्रतोदस्य समुद्रस्योदकं स यथा नाम सकललोकप्रसिद्धः 'शारदिकः' शरत्कालभावी गोघृतवरस्य मण्डः घृतसङ्घातस्य यदुपरिभागस्थितं घृतं स मण्ड इत्यभिधीयते सार इत्यर्थः तथा चाह मूलटीकाकार:- "घृतमण्डो घृतसार" इति सुकवितो - यथाऽग्निपरिता For P&False Cly ३ प्रतिपत्तौ घृतवरघृ तोदक्षोदवरक्षोदोदाः उद्देशः २ सू० १८२ ~256~ ॥ ३५४ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८२] दीप अनुक्रम [२९३] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) ------- उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र)], प्रतिपत्ति: [३], - मूलं [१८२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जी० ६० Jacin पतापित:, तदानामद्वार: (उद्दावः) - स्थानान्तरेध्वयाप्यसङ्क्रामितः सद्योविस्यन्दितः -- तत्कालनिष्पादितो विश्रान्तः- उपशान्तकथवरः सहकीकर्णिकारपुष्पवर्णाभो वर्णेनोपपेतो गन्धेन रसेन स्पर्शेनोपपेत आस्वादनीयो विस्वादनीयो दीपनीयो मदनीयो बृंहणीयः सर्वेन्द्रियगात्रप्रह्लादनीयः एवमुक्ते गौतम आह- 'भवे एयारूत्रे' भवेद् घृतोदस्य समुद्रस्योदकमेतद्रूपं ?, भगवानाह - नायमर्थः समर्थः धृतोदस्य यस्मात्समुद्रस्योदकम् 'इतः' यथोक्तस्वरूपाद् घृतादिष्टतरमेव यावन्मन आपतरमेवाखादेन प्रज्ञप्तं, कान्तसुकान्ती च यथाक्रमं पूर्वार्द्धपश्चिमार्द्धाधिपती भत्र घृतोदे समुद्रे महर्द्धिको यावत्पस्योपमस्थितिको परिवसतः, ततो घृतमिवोदकं यस्यासौ घृतोदः, तथा चाह 'से एएणद्वेण 'मित्यादि सुगमं चन्द्रादिसङ्ख्यासूत्रमपि सुगमम् ॥ 'घतोदण्ण' मित्यादि, पृतोदं पमिति वाक्यालङ्कारे समुद्रं क्षोदवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति, चक्रवालविष्कम्भपरिक्षेपद्वारादिवक्तव्यता तथैव याव जीवोपपातसूत्रम् ॥ सम्प्रति नामान्यर्थमभिधित्सुराह – 'से केणट्टेण' मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते क्षोदवरो द्वीपः २ १ इति, भगवानाह - गौतम ! क्षोदवरे द्वीपे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेशे 'बहवे खुड्डाखुडियाओ वावीओ' इत्यादि पूर्ववत्तावद्वक्तव्यं यावद् 'वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति सयंति जाय विहरंति' नवरं वाप्यादयः क्षोदोदकपरिपूर्णा इति वक्तव्यं तथा पर्वतकाः पर्वतेध्यासनानि गृहकाणि गृहकेध्यासनानि मण्डपका मण्डपकेषु पृथिवीशिलापट्टकाः सर्वात्मना वैदूर्यमयाः प्रज्ञमाः, सुप्रभमहाप्रभौ च यथाक्रमं पूर्वापरार्द्राधिपती द्वौ देवावत्र क्षोदवरे द्वीपे महर्द्धिको यावत्पस्योपमस्थितिको परिवसतः, ततः क्षोदोदकवाप्यादियोगात्क्षोदवरः स द्वीपः, एतदेवाह — 'से एएणट्टेण'मित्यादि, चन्द्रादिसूत्रं प्राग्वत् ॥ 'खोयवरणं दीवमित्यादि क्षोदवरं णमिति पूर्ववद् द्वीपं क्षोदोदो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकार संस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति । चक्रवाल For P&Pase City ~257~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८२] दीप अनुक्रम [२९३] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [३], ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [१८२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३५५ ॥ विष्कम्भादिवक्तव्यता पूर्ववद् यावज्जीवोपपातसूत्रम् ॥ सम्प्रति नामनिमित्तमभिधित्सुराह - ' से केणद्वेग 'मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते क्षोदोदः समुद्रः २ १ इति, भगवानाह श्रोदोदस्य समुद्रस्योदकं यथा नाम भ्रूणां जात्यानां जात्यत्वमेवाह'वरपुंडगाणं' विशिष्टानां पुण्ड्रदेशोद्भवानां हरितानां शाडुलानां 'भेरण्डेक्षूणां वा' भरण्डदेशोद्भवानां वा इभ्रूणां 'कालपोराणं ति कृष्णपर्वणाम् उपरितनपत्रसमूहापेक्षया हरितालवत्पिञ्जराणाम् 'अपनीतमूलानाम्' अपनीतमू उत्रिभागानां त्रिभाग निर्वाटितवाटानां ऊर्द्धभागादपि त्रिभागहीनानामिति भावः मध्यत्रिभागावशेषाणामिति समुदायार्थः 'गंठिपरि सोहियाणं'ति ग्रन्थिः पर्वग्रन्थिः शो- + धितः-अपनीतो येभ्यस्ते तथा तेषां मूलन्निभागे उपरितनत्रिभागे पर्वग्रन्थौ च नातिसमीचीनो रस इति तद्वर्जनं क्षोदरसो भवेद् २ 'वस्त्रपरिपूत' ऋणवस्त्रपरिपूतः चतुर्जातकेन सुष्ठु अतिशयेन वासितधतुर्जातकवासितः, चतुर्जातकं त्वगेला केसराख्यगन्धद्रव्यमरिचालकं, उक्ता — "खगेलाकै सरैस्तुल्यं, त्रिसुगन्धं विजातकम् । मरिचेन समायुक्तं, चतुर्जातकमुच्यते ॥ १ ॥ " अधिकं-अतिशयेन पध्यं न रोगहेतुः लघुः परिणामः वर्णेन सामर्थ्यादतिशायिना उपपेतः एवं गन्धेन रसेन स्पर्शेनोपपेत आस्वादनीयो दर्पणीयो मदनीयो बृंहणीयः सर्वेन्द्रियगात्रप्रहादनीयः एवमुक्ते गौतम आह— 'भवे एयारूवें' भवेद् भगवन ! भोदोदसमुद्रस्योदकमेत १, भगवानाह - गौतम ! नायमर्थः समर्थः, क्षोदोदस्य यस्मात्समुद्रस्योदकम् 'अस्मात्' यथोक्तरूपात्क्षोदरसादिष्टतरमेव यावन्मनआपतरमेवास्वादेन प्रज्ञप्तम् इह प्रविरलपुस्तकेऽन्यथाऽपि पाठो दृश्यते सोऽप्येतदनुसारेण व्याख्येयो, बहुषु तु पुस्तकेषु न दृष्ट इति न लिखितः पूर्णपूर्णप्रभा च यथाक्रमं पूर्वार्द्धाराधिपती 'अत्र' श्रोदोदे समुद्रे द्वौ देवौ महर्द्धिको यावत्पल्योपस्थितिको परिवसतः, ततः क्षोद इव क्षोदरस इवोदकं यस्य स क्षोदोदः, तथा चाह- 'से एएणद्वेणमित्यादि । चन्द्रादिसासूत्रं प्राग्वत् ॥ ३ प्रतिपत्तौ घृतवरघृतोदक्षोदवरक्षो दोदाः ~258~ उद्देशः २ सू० १८२ ।। ३५५ ।। अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [३], ------- उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र)], - मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः खोदोदणं समुदं णंदीसरवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठिते तहेव जाव परिक्खेवो । परमव२० वणसंडपरि० द्वारा दारंतरपदे से जीवा तहेव ।। से केणट्टेणं भंते!, गोयमा ! देसे २ बहुओ खुडा० वावीओ जाव विलपतियाओ खोदोदगपडिहत्थाओं उपायपदवगा सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिवा | अदुत्तरं च णं गोयमा ! दिसरदीवचक्कवाल विक्खंभबहुमज्झ सभागे एत्थ उहिसिं चारि अंजणपव्वता पण्णत्ता, ते णं अंजणपव्वयमा चतुरसीतिजोयणसहस्साई उहूँ उच्चतेणं एगमेगं जोयणसहस्सं उब्वेहेणं मूले साइरेगाई दस जोयणसहस्साइं धरणियले दस जोयणसहस्सा आयामविक्खंभेणं ततोऽणंतरं च णं माताए २ पदेसपरिहाणीए परिहायमाणा २ उवरिं एगमेगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं मूले एकतीसं जोयणसहस्साई छच तेवीसे जोयणसते किंचिविसेसाहिया परिक्खेवेणं धरणियले एकतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसते देणे परिक्खेवेणं सिहरतले तिणि जोयणसहस्साइं एकं च यावहं जोयसतं किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ता मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उपिं तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिता सब्वंजणामया अच्छा जाव पत्तेयं २ पडमवरवेदियापरि० पतेयं २ वणसंडपरिखित्ता वण्णओ ॥ तेसि णं अंजणपञ्चयाणं उबर पत्तेयं २ बहुसमरमणिजो भूमिभागो पण्णत्तो, से जहाणामए-आलिंगपुक्स्वरेति वा जाव संयंति ॥ तेसि णं बहुसमरमणिजाणं नन्दीश्वरद्वीपस्य अधिकार: आरभ्यते For P&False Cnly ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपत्ती नन्दीश्वराधिकारः उद्देशा२ सू०१८३ दीप अनुक्रम [२९४] भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं २ सिद्धायतणा एकमेकं जोयणसतं आयामेणं पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं यावत्तरि जोयणाई उहूं उच्चत्तेणं अणेगखंभसतसंनिविट्ठा वपणओ॥ तेसि णं सिद्धायतणाणं पत्तेयं २ चउद्दिसिं चत्तारि दारा पण्णत्ता-देवद्दारे असुरहारे णागद्दारे सुवण्णहारे, तस्थ णं चत्तारि देवा महिहीया जाव पलिओपमद्वितीया परिवसंति, तंजहा-देवे असुरे णागे सुवणे, ते णं दारा सोलस जोयणाई उई उच्चत्तेणं अट्ट जोयणाई विक्खंभेणं तावतियं चेव पवेसेणं सेता वरकणग. वन्नओ जाव वणमाला । तेसि णं दाराणं चउद्दिर्सि चत्तारि मुहमंडवा पण्णता, ते णं मुहमंडवा एगमेगं जोयणसतं आयामेण पंचास जोयणाई विक्खंभेणं साइरेगाणं सोलस जोयणाई उखु उच्चत्तेणं वण्णओ ॥ तेसि णं मुहमंडवाणं चउदि(तिदि)सिं चत्तारि (तिपिण) दारा पणत्ता, ते पण दारा सोलस जोयणाई उहूं उच्चत्तेणं अट्ठ जोयणाई विक्खभेणं तावतियं चेव पवेसणं सेसं तं चेव जाव वणमालाओ। एवं पेच्छाघरमंडवावि, तं चेव पमाणं जं मुहमंडवाणं, दारावि तहेव, णवरि बहुमज्झदेसे पेच्छाघरमंडवाणं अक्वाडगा मणिपेदियाओ अद्धजोयणप्पमाणाओ सीहासणा अपरिवारा जाच दामा थूभाई चउद्दिसिं तहेव णवरि सोलसजोयणप्पमाणा सातिरेगाई सोलस जोयणाई उचा सेसं तहेव जाय जिणपडिमा। चेयरुक्खा तहेब चउद्दिसि तं चेव पमाण जहा विजयाए रायहाणीए णवरि मणिपेढियाए सो IP॥ ३५६॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~260 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) ------- उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र)], - मूलं [१८३] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः लसजोयणप्पमाणाओ, तेसि णं चेहयरुक्खाणं चउद्दिसिं चत्तारि मणिपेढियाओ अजोयणविभाओ जोयणबाहलाओ महिंदज्झया चउसद्विजोयणुचा जोयणोब्बेधा जोयणविक्वंभा सेसं तं चैव । एवं चउदिसिं चत्तारि णंदापुक्खरिणीओ, गवरि खोयरसपडिपुण्णाओ जोयणसतं आयामेण पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं पण्णासं जोयणाई उब्वेषेणं सेसं तं चेव, म णुगुलियाणं गोमाणसीण य अडयालीस २ सहस्साइं पुरच्छिमेणवि सोलस पञ्चत्थिमेणवि सोलस दाहिणेवि अट्ट उत्तरेणवि अट्ठ साहस्सीओ तहेव सेसं उल्लोया भूमिभागा जाव बहुम ज्झदेस भागे, मणिपेडिया सोलस जोयणा आयामविक्खंभेणं अट्ट जोयणाई बाहल्लेणं तारिसं मणिपीढियाणं उपि देवच्छंदगा सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं सातिरेगाई सोलस जोयणाई उहूं उच्चतेणं सव्वरयण० अट्ठसयं जिणपरिमाणं सव्वो सो चेव गमो जहेव वैमाणिfeatures || तत्थ णं जे से पुरच्छिमिल्ले अंजणपच्यते तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि णंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तंजा-दुत्तरा य णंदा आणंदा मंदिवद्वणा । (नंदिसेणा अमोघाय गोथूभा य सुदंसणा ) ताओ गंदापुक्खरिणीओ एगमेगं जोधणसतसहस्सं आयामविवखभेणं दस जोयणाई उच्बेणं अच्छाओ सण्हाओ पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेदिया. पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता तत्थ तत्थ जाव सोवाणपडिरूवगा तोरणा ॥ तासि णं पुक्खरिणीणं For P&Praise City ~261~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३५७॥ ३ प्रतिपत्ती नन्दीश्वराधिकारः उद्देशः२ सू०१८३ [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] SAMANAR-OCTOR बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं दहिमुहपब्वया चउसहि जोयणसहस्साई उहूं उच्चत्तेणं एग जोयणसहस्सं उब्बेहेर्ण सम्बत्यसमा पल्लगसंठाणसंठिता दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं एकतीसं जोयणसहस्साई छच तेवीसे जोयणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ता सव्वरयणामया अच्छा जाव पडि. रूवा, तहा पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेड्या. वणसंडवपणओ बहुसम० जाव आसयंति सयंति । सिद्धायतणं तं चेव पमाणं अंजणपव्वएसु सचेव वत्तब्वया णिरवसेसं भाणियब्वं जाच उम्पि अट्ठमंगलगा ॥ तत्व णं जे से दक्खिणिल्ले अंजणपन्वते तस्स णं चउहिसिं चत्तारि गंदाओ पुक्खरिणीओ पपणसाओ, तंजहा-भद्दा य विसाला य कुमुया पुंडरिगिणी, (नन्दुत्तरा य नंदा आनन्दा नन्दिबहणा) तं चेव पमाणं तं चेव दहिमुहा पव्वया तं चेव पमाणं जाव सिद्धाय तणा ॥ तत्थ णं जे से पञ्चत्धिमिल्ले अंजणगपव्वए तस्स णं चउदिसिं चत्तारि गंदा पुक्खरिणीओ पपणत्ताओ, तंजहा-दिसेणा अमोहा य, गोत्थूभा य सुदंसणा, (भहा विसाला कुमुदा पुंडरिकिणी) तं चेव सव्वं भाणियब्वं जाव सिद्धायतणा ॥ तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले अंजणपब्बते तस्स णं चउदिसि चत्तारि गंदापक्खरिणीओ, तंजहा-विजया वेजयंती जयंती अपराजिया, सेसं तहेव जाव सिद्धायतणा सव्वा ते चिय वणणा णातव्वा ।। तत्थ णं बहवे भवणवइवाणमंतरजोतिसियवेमाणिया देवा चाउमासियापडिवएमु संवच्छरिएसु वा अण्णेसु यहूसु जिण R ॥३५७॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~262 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: *16464 प्रत सूत्रांक [१८३] जम्मणणिक्खमणणाणुष्पत्तिपरिणिव्वाणमादिएमु य देवकजेसु य देवसमुदएसु य देवसमितीसु य देवसमवाएमु य देवपओयणेसु य एगंतओ सहिता समुवागता समाणा पमुदितपक्कीलिया अट्ठाहितारुवाओ महामहिमाओ करेमाणा पालेमाणा सुहंसुहेणं विहरति । कहलासहरिवाहणा य तस्थ दुचे देवा महिहीया जाव पलिओक्मद्वितीया परिवसंति, से एतेणद्वेणं गोयमा! जाव णिचा जोतिसं संखेजं ॥ (सू० १८३) 'खोदोदण्णं समुद्द'मित्यादि, क्षोदोदं णमिति पूर्ववत् समुद्रं नन्दीश्वरवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः| समन्तात्संपरिक्षिप्य तिष्ठति । चक्रवालविष्कम्भपरिक्षेपादिवक्तव्यता प्राग्वद् यावजीवोपपातसूत्रम् ॥ सम्प्रति नामनिमित्तनभिधिसुराह-'से केणद्वेण मित्यादि, अथ केनार्थेन-केन कारणेन भदन्त ! एवमुच्यते-नन्दीश्वरवरो द्वीपो नन्दीश्वरवरो द्वीपः । इति, भगवानाह-गौतम नन्दीश्वरवरे द्वीपे बहवः 'खुड्डाखुड्डियाओ वावीओ' इत्यादि प्रागुक्तं सर्व तावद्वक्तव्यं यावन् 'याणमन्तरा दे-13 या देवीओ य आसयंति सयंति जाव विहरंति' नवरमत्र वाप्यादयः क्षोदोदकप्रतिपूर्णा वक्तव्याः, पर्वतकाः पर्वतकेष्वासनानि गृहाणि गृहकेष्वासनानि मंडपका मंडपकेषु शिलापट्टकाः सर्वालना बसमया:, शेषं तथैव ॥ 'अदुत्तरं च णं गोयमा' इत्यादि, अथा-IN न्यद् गौतम! नन्दीश्वरवरे चत्वारो दिश: समाहृताश्चतुर्दिक तस्मिन् चकबालविष्कम्भेन मध्यदेशभागे एकैकस्वां दिशि एकैकभावेन x चत्वारोऽजनपर्वताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पूर्वेण-पूर्वस्यां दिशि, एवं पश्चिमायां दक्षिणस्यामुत्तरस्याम् ॥ 'ते ण'मित्यादि, ते अञ्चनपर्वताश्चतुरशीतियोजनसहस्राण्यूईमुच्चैस्त्वेन एक योजनसहस्रमुद्वेधेन मूले सातिरेकाणि दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेन धरणितले दशY 15623625 दीप अनुक्रम [२९४] ~263 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३]), ------- उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र)], - मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३५८ ॥ योजन सहस्राण्यायामविष्कम्भेन तदनन्तरं च मात्रया परिहीयमानाः परिहीयमाना उपयेकैकं योजनसहस्रमायामविष्कम्भेन मूले एकत्रिंशद् योजनसहस्राणि पट्त्रयोविंशानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि ३१६२३ परिक्षेपेण धरणितले एकत्रिंशद् योजन सहस्राणि षट्त्रयोविंशानि योजनशतानि देशोनानि परिक्षेपेण ३१६२३ उपरि श्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वाषष्टं योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिक ३१६२ परिक्षेपेण, ततो मूले विस्तीर्णा मध्ये संक्षिप्ता उपरि तनुकाः अत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः सर्वांना 'अञ्जनमयाः' अञ्जनरत्नालका: 'अच्छा जान पडिरुवा' इति प्राग्वत् प्रत्येकं २ पद्मवरवेदिकया परिक्षिप्ताः प्रत्येकं २ वनपण्डपरिक्षिप्ताः पद्मवरवेदिकावनपण्डवर्णनं प्राग्वत् ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेपाम अनपर्वतानां प्रत्येकं प्रत्येकमुपरि बहुसमरमणीयो भूमि भागः प्रशप्तः, तस्य ' से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा' इत्यादिवर्णनं जम्बूद्वीपजगत्या उपरितनभागस्येव तावद्वक्तव्यं यावत् 'तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयति सति जाब बिहरंति' | 'तेसि ण'मित्यादि तेषां बहुसमरमणीयानां भूमिभा गानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तं तानि च सिद्धायतनानि प्रत्येकं प्रत्येकमेकं योजनशतमायामेन पञ्चाशयो| जनानि विष्कम्भेन द्विसप्ततियोंजनानि ऊर्द्धमुचैस्त्वेन, अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टानीत्यादि तद्वर्णनं विजय देवसुधर्म सभावद्वक्कण्यम् ॥ 'तेसि ण' मित्यादि तेषां सिद्धायतनानां प्रत्येकं 'चतुर्दिशि' चतसृपु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन, चखारि द्वाराणि प्रज्ञ तानि तद्यथा- पूर्वेण पूर्वस्याम् एवं दक्षिणस्यां पश्चिमायामुत्तरस्यां तत्र पूर्वस्यां दिशि द्वारं देवद्वारं, देवनामकस्य तदधिपतेस्तत्र भावात् एवं दक्षिणस्यामसुरद्वारं पश्चिमायां नागद्वारमुत्तरस्यां सुवर्णद्वारम् || 'तत्थे'त्यादि तत्र तेषु चतुर्षु द्वारेषु यथाक्रमं चत्वारो ॥ ३५८ ॥ देवा महर्द्धिका यावत्पल्योपमस्थितयः परिवसन्ति, तद्यथा देव इत्यादि पूर्ववत्, पूर्वद्वारे देवनामा दक्षिणद्वारेऽसुरनामा पश्चिमद्वारे For P&Palle Chy ३ प्रतिपत्तौ नन्दीश्वराधिकारः उद्देशः २. सू० १८३ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~264~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] नागनामा उत्तरद्वारे सुवर्णनामा ॥ 'ते णं दारा' इत्यादि, तानि द्वाराणि षोडश योजनानि प्रत्येकाईमुस्खेनाष्टौ योजनानि विष्कम्भतः, 'तावइयं चेव'त्ति तावदेव-अष्टावेव योजनानीति भावः प्रवेशेन 'सेया बरकणगथूभियागा ईहामिय उसमतुरगणरनगरविहग-1 वालगकिन्नरकरुसरभचमरकुंजरवणळयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवरवेश्यापरिगयाभिरामा विजाहरजमलजुगलजन्तजुत्ता इव अच्चीसहस्समालिणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणा भिन्भिसमाणा चक्खुलोषणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा, वन्नओ तेसिं दारागं इमो होइ, तंजहा-बहरामया नेमा रिट्ठामया पाट्ठाणा बेरुलियरुइलखंभा जायरूबोबचियपवरपंचयन्नमणिरयणकुट्टिमतला हंसगम्भमया | एलुगा गोमेजमया इंदकीला जोईरसमया उत्तरंगा लोहियक्खमईओ दारचेडाओ (पिंडीओ) पेरुलियामया कबाडा लोहियक्खम-| ईओ सूईओ वइरामया संधी नाणामणिमया समुग्गया वइरामईओ अग्गलाओ अग्गलापासाया रथयामईओ आवत्तणपेढियाओ अंकोत्तरपामा निरंतरघणकवाडा भित्तीसु चेव भित्तिगुलिया छप्पन्ना तिन्नि होति गोमाणसीओवि तत्तिया नाणामणिरयणजालपिंज रमणिवंसगलोहियक्खपहिवंसगरययभोम्मा अंकामया पक्खा पक्रवाहाओ जोईरसमया वंसकवेल्लुगा य रवयामईओ पट्टियाओ जा-11 181 यरूवमईओ ओहाटणीओ बइरामईओ उबरि पुंछणीओ सबसेयरययामए अच्छायणे अंकामयकणगकूडतचणिजधूभियागा सेया | संखदलविमलनिम्मलदहियणगोखीरफेणरययनिगरप्पगासद्धचंदचित्ता नाणामणिमयदामालंकिया अंतो बहिं च सण्हतयणिजरुइलवा-16 लुयापस्थडा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाईया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूया' एतच यद्यपि विजयद्वारवर्णनायामपि व्यागया 12 तथाऽपि स्थानाशून्यार्थ किश्चियाख्यायते-श्वेतानि अरनबाहुल्याद्वरकनकस्तूपिकानि ईहामृगऋषभतुरगमरमकरविहगव्यालककिनररुरुसरभचमरकुंजरवमलतापग्रलताभक्तिचित्राणि प्रतीतं, तथा स्तम्भोगताभिः-स्तम्भोपरिवर्तिनीभिर्व घरामवीभिर्वेदिकाभिः | ~265 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] श्रीजीवा- जीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः दीप अनुक्रम [२९४] परिगतानि सन्ति यानि अभिरमणीयानि तानि स्तम्भोदतवरवनवेदिकाभिः परिगताभिरामाणि, विद्याधरयोर्वेद यमल-समश्रेणीकं ३ प्रतिपत्ती युगलं तेषां यत्राणि-अपञ्चास्तैर्युक्तानीव, अचिषां सहस्रैर्मालनीयानि अधि:सहस्रमालनीयानि-परिवारणीयानि, किमुक्तं भवति ?-10 नन्दीश्वएवं नाम प्रभासमुदयोपेतानि येनैवं संभावनोपजायते यथा नूनमेतानि न स्वाभाविकप्रभासमुदयोपेतानि किन्तु विशिष्टविद्याशक्ति- राधिकारः मत्पुरुषविशेषप्रपञ्चायुक्तानीति रूपकसहस्रकलितानि 'भिसमाणा' इति दीप्यमानानि 'भिम्भिसमाणा' इति अतिशयेन दीप्यमानानि | उद्देशः२ 'चक्खुलोयणलेसा' इति चक्षुः कर्तृ लोकने-अवलोकने लिशतीव-दर्शनीयत्वातिशयत: लिष्यतीव यत्र तानि चक्षुर्लोकनलेशानि सू. १८३ शुभस्पर्शानि सश्रीकाणि रूपकाणि यन्त्र तानि सश्रीकरूपाणि वर्णो-वर्णकनिवेशतेषां द्वाराणामयं भवति, तद्यथा-यजमया नेमा-14 भूमिभागादूर्द्ध निष्कामन्त: प्रदेशा रिझमयानि प्रतिष्ठानानि-मूलपादाः 'वैडूर्यरुचिरस्तम्भानि' जातरूपोपचितप्रवरपञ्चवर्णमणिरत्न-1 | कुट्टिमतलानि हंसगर्भमयाः 'एलुका:' देहल्यः गोमेयकरत्नमया इन्द्रकीला ज्योतीरसमयानि उत्तराङ्गानि लोहिताक्षमयाः 'द्वारपिण्ड्यः द्वारशाखा: बैडूर्यमयी कपाटौ लोहिताक्षमय्यः सूचय:-फलकद्वयसन्धिविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीया बसमयाः 'सन्धयः' स-18 न्धिमेला: फलकानां नानामणिमया: 'समुद्काः' चूति (सूची)गृहाणि वमया अर्गला: (अर्गलाप्रासादा:-) प्रासादे यत्रार्गलाः प्रविशन्ति है रजतमय्य आवर्तनपीठिकाः, आवर्तनपीठिका यत्रेन्द्रकीलको निवेशितः, 'अंकोत्तरपासा' इति अङ्का-अङ्करत्नमया उत्तरपार्धा येषां | तानि तधा, निरन्तरको-लघुच्छिद्रैरपि रहितौ धनी कपाटौ येषां तानि निरन्तरघनकपाटानि, 'भित्तीसु चेवे'त्यादि, तेषां द्वाराणामुभयोः पार्श्वयोर्भिसिपु-भित्तिसमीपे भित्तिगता-भित्तिसंबद्धा गुलिका:-पीठिका भित्तिगुलिकास्तिस्रः षट्पञ्चाशद्भवन्ति पट्पश्चा-18||३५९॥ शनिकप्रमाणा भवन्ति 'गोमाणसिया तत्तिया' इति तावत्य एवं षट्पञ्चाशत्रिकप्रमाणा एव 'गोमानस्या' शय्याः, तथा 'ना Jational अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % I E% %ER प्रत सूत्रांक [१८३] % * दीप अनुक्रम [२९४] 24tar.khara नामणिरत्नानि' नानामणिरत्नमयानि व्यालकरूपाणि लीलास्थितशालभलिकाश्च येषां तानि तथा, रजतमयाः कूटाः, कूटो-माड-| भागः, पत्रमया: 'उत्सेधाः' शिखराणि तपनीयमया: 'उल्लोकाः' उपरितनभागाः, मणयो-मणिमया वंशा येषां तानि मणिवंशकानि, लोहिताक्षा:-लोहिताक्षमयाः प्रतिवंशा येषां तानि लोहिताक्षप्रतिवंशकानि, रजता-रजतमयी भूमिर्येषां तानि रजतभूमानि, प्राकृतवासमासान्तो मकारस्य च द्विस्वं, मणिवंशकानि लोहिताक्षप्रतिवंशकानि रजतभूमानि नानामणिरत्नमयानि जालपअराणि | गवाक्षापरपर्यायाणि येषु द्वारेपु तानि तथा, पदानामन्यथोपनिपातः प्राकृतत्त्वान् , अङ्कमया: पक्षा: पक्षबाहवश्व, पक्षाः (प्रतीताः)। पक्षवाहनोऽपि तदेकदेशभूताः, ज्योतीरसामया वंशा महान्तः पूज्यवंशा: 'वंसकवेल्या य' महतां पृष्ठवंशानामुभयतस्तियकस्याप्यमाना वंशाः वंशकवेलुकानि प्रतीतानि रजतमयपट्टिकाः कवेलुकानामुपरिकम्बास्थानीया: जातरूपमय्योऽवघाटिन्यः आच्छादनहेतुकम्बोपरिस्थाप्यमानमहाप्रमाणकिलिचस्थानीया वनमय्योऽवघाटिनीनामुपरिपुन्छन्यो-निविडतराच्छादनहेतुश्शक्षणतरतृणविशेषस्थानीयाः सर्वश्वेतं रजतमयं पुन्छनीनामुपरि कवेटुकानामध आच्छादनम् , 'अंकामयकणगकूडतवणिज्जथूभियागा' इति अङ्कमयानि-बाहुल्येनाक रत्नमयानि पक्षपक्षवाहादीनामकरनात्मकस्थात् कनक-कनकमयं कूट-शिखरं येषां तानि कनककूटानि, तपनीया:-तपनीयमध्यः स्तूपिका-लघुशिखररूपा येषां तानि तथा, तत: पदत्रयस्य पदद्वय २ मीलनेन कर्मधारयः, एतेन यत् प्राक् सामान्यत उत्क्षिप्तं 'सेया वरकणगथूभियागा' इति तदेव प्रपञ्चतो भावितं, सम्प्रति तदेव श्वेतत्वं भूय उपसंहारव्याजेन दर्शयति-'सेया श्वेतत्वमेवोपमया द्रढयति'सह्यदलविमलनिम्मलदहियणगोखीरफेणरययनिगरप्पगासद्धचंदचित्ता' विमलं यत् शङ्खदलं-शवशकलं कचित् शङ्कतलेतिपाठस्तत्र शहतलं-शङ्खस्योपरितनो भागो यश्च निर्मलो दधिधनो-पनीभूतं दधि यश्च गोक्षीरफेनो यश्च रजतनिकरस्तद्वत्प्रकाश:-प्र --* % 6 ~267 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: जीवाभि प्रत सूत्रांक [१८३] दीप श्रीजीवा-1 तिमता येषां तानि तथाऽर्द्धचन्द्रश्चित्राणि-नानारूपाणि आश्चर्यभूतानि वा अर्द्धचन्द्रचित्राणि, तत्त: पूर्वपदेन विशेषणसमासः, नाना-6 प्रतिपत्तौ | मणिमयीभिर्दामभिरलकृतानि नानामणिभवदामाल कृतानि अन्तर्वहिश्च लक्ष्णतपनीयरुचिरवालुकानां प्रस्तट:-प्रस्तारो येषु तानिनन्दीश्वमलयगि-IC तथा, शुभस्पर्शानि सश्रीकरूपाणि प्रासादीयानि दर्शनीयानि अभिरूपाणि प्रतिरूपाणि व्यक्तम् ।। 'तेसि णं दाराण'मित्यादि, तेषां राधिकार रीयावृत्तिः द्वाराणागुभयोः पार्श्वयोरेकै कषेधिकीभावेन 'दुहतो' इति द्विधातो-द्विप्रकारायौ नैधिक्यां नैपेथिकी-निपीदनस्थान द्वारकुत्यस-18 उद्देशः। ॥३६०॥ मीपे नितम्ब इत्यर्थः षोडश पोडश बन्दनकलशा: प्रज्ञप्ताः, वर्णकस्तेषां वाच्यः, स चैत्रम्-'ते णं बंदणकलसा वरकमलपहाणा सुर- स. १८३ भिवरवारिपडिपुण्णा चंदणकयचच्चागा आविद्धकंठेगुणा पत्रमुप्पलपिहाणा सब्बरयणामया अच्छा जाव पडिरूबा महया महया इंद-18 कुंभसमाणा पन्नत्ता समणाउसो! व्यक्तं नवरं 'महया महया' इति अतिशयेन महान्त: इन्द्रकुम्भसमाना:' महाकुम्भप्रमाणकुम्भ-18 सदृशाः, 'एवं नेयव्वं जाव सोलस वणमालाओ पन्नत्ताओं' एवम्' अनेन प्रकारेण तावन्नेत्तव्यं यावत्पोडश बनमाला: प्रज्ञप्ता तच्चैवम्-'तेसिणं दाराणं उभओ पासिं दुहतो निसीहियाए सोलस सोलस नागदंतया पन्नत्ता, ते णं नागदतगा मुत्ताजालंतरूसिया ४ हेमजालगवक्खजालखिखिणीजालपरिक्खित्ता अभुग्गया निसढा तिरियं सुसंपग्गहिया अहे पन्नगद्धरूवा पन्नगसंठाणसंठिया सव्वव-16 इरामया अच्छा जाव पडिरूवा महया महया गयदत्तसमाणा पन्नत्ता समणाउसो, तेसु णं नागदंतकेसु बहवे किण्हसुत्तवावग्धारि-13 यमल्लदामकलावा नीलसुत्तयट्टबग्घारियमल्लदामकलाका०, ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया अण्णमण्णमसंपत्ता पु-18 व्वावरदाहिणुत्तरागएहि बाएहिं मंदाय मंदायमेइजमाणा एइज्जमाणा पलंबमाणा पलंयमाणा पझंझमाणा पझंझमाणा ओरालेणं मणु-16 मेणं मणहरेणं कण्णमणनिन्खुइकरेणं सद्देणं ते पपसे सव्वतो समंता आपूरेमाणा सिरीए अईव उबसोभेमाणा चिटुंति, तेसि णं अनुक्रम [२९४] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] % X दीप अनुक्रम [२९४] नागवंशाणं उवरिं अन्ने सोलस सोलस नागदतया मुत्ताजाखेतरोसिया हेमजाल जाव महया महया गयदंतसमाणा पन्नत्ता समणाउसो!, | तेमु ण नागदतएसु वह रखवामया सिकगा पन्नत्ता, तेसु णं रययामएसु सिकगेसु बहवे वेरुलियमयाओ भूवघडियामो पण्णताओ, ताओ णं धूवघडियाओ कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूनमघमतगंधुद्धयाभिरामातो सुगंधवरगंधियाओ गंधपट्टिभूयाओ ओरालेणं मगुनेणं घाणमणनिम्बुइकरेणं गंधेणं ते पएसे आपूरेभाणीओ आपूरेमाणीओ चिट्ठति । तेसि णं दाराणं उभओ पासि दुहतो निसी-1 हियाए सोलस सोलस सालभंजियाओ पन्नत्ताओ, ताओ णं सालभंजियाओ लीलट्ठियाओ सुयलंकियाओ णाणाविहरागवसणाभो| रत्तावंगाओ असियकेसीओ मिउक्सियपसत्वलक्षणसंवेलियरगसिरयाओ नाणामहपिणद्धाओ मुट्ठिगेमासुमझाओ आमेलजमलजुगलवट्टियअम्भुन्नयपीणरश्यसंठियपओहराओ इसिं असोगवरपायवसमुट्ठियाओ वामहत्यगहियग्गसालाओ ईसिं अद्धच्छिकटक्वचिद्विपहिं स्टूसेमाणीओ विव पक्खु लोयणलेसाओ अण्णमण्णं खिजमाणीओ इव पुढविपरिमाणाओ सासयभावमुवगयाओ चंदाणणातो। चंदविलासिणीतो चंदद्धसमनिटालाओ चंदाहियसोमदंसणाओ उका इव उजोवेमाणीओ विजुषणमरीइसूरदिपंततेयअहिगतरसनिकासाओ सिंगारागारचारवेसाओ पासाईयाओ दरिसणिजाओ अभिरूवाओ पहिरूवाओ। तेसिणं दाराणं उभो पासि दहओ निसीहिआए सोलस २ जालकडगा पण्णचा सञ्चरयणामया अच्छा जाब पतिरूवा, तेसि णं दाराणं उभओ पासि दुहतो निसी| हियाए सोलस सोलस घंटाओ पण्णताओ । तासि णं घंटाणं इमे एयारूचे वण्णावासे पन्नते-जंबूणयामईओ घंटामो बराम-1 | ईओ लालाओ नाणामणिमया घंटापासाशी तवणिजमयाओ संकलाओ रययामया रजूओ । साओ णं घंढाओ ओहस्सराओ मेहस्सराओ हंसस्सराओ कोंचस्सराओ सीहस्सराओ दुंदुभिस्सराओ नंदिसराओ नंदिघोसाओ मंजुस्सराओ मंजुघोसाओ सुस्सराओ सु -- जी० ६१ ~269 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [३]), ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगियावृत्तिः ॥ ३६१ ॥ स्मरनिग्धोसाओ ओरालेणं मणुत्रेणं कण्णमणनित्रयुकरेणं सरेण ते पएसे सवतो समंता आपूरेमाणीओ सिरीए अतीव उवसोहे| माणीओ डवसोमाणीतो चिति । तेसि णं दाराणं उभओ पासि तो निसीहियाए सोलस सोलस वणमालाओ पण्णत्ताओ, | ताओ णं वणमालाओ नाणादुमलय किसलयपल्लवसमाउलाओ छप्पयपरिभुजमाणसोमंतसस्सिरीयातो सव्वरयणामईओ पासाईयाओ जाव पडिरुवाओं इति पाठसिद्धमेतत् नवरं नागदन्तसूत्रे नागदन्ता-अङ्कुटकाः, 'मुत्ताजालतरूसिए' इत्यादि, मुक्ताजालानामन्तरेषु यानि उच्छ्रितानि-लम्बमानानि हेमजालानि - हेममयदाम समूहा यानि गवाक्षजालानि - गवाक्षाकृतिरत्नविशेषदामसमूहाः यानि च किङ्किणीघण्टाजालानि द्रघण्टासमूहातैः परिक्षिताः सर्वतो व्याप्ताः 'अच्भुग्गया' इति अभिमुखमुद्रता अभ्युद्गताः अग्रिमभागे मनागू उन्नता इति भाव: 'अभिनिसिट्टा' इति अभिमुखं वहिर्भागाभिमुखं निसृष्टा अभिनिमृष्टाः 'तिरियं सुसंपरिगहिया' इति तिर्यग् भित्तिप्रदेशैः सुष्ठु - अतिशयेन सम्यग् मनागप्यचलनेन परिगृहीताः 'अहेपन्नगद्धरूया' अधः - अधस्तनं यत् पन्नगस्यार्जु तस्येत्र रूपं आकारी येणं ते तथा अधः पन्नगार्द्धवदतिसरला दीर्घाश्चेति भावः, एतदेव व्याचष्टे - पन्नगार्द्धसंस्थानसंस्थिताः, 'किण्हसुत्तबट्ट्वग्धारियमलदामकलावा' इति, कृष्णसूत्रबद्धा बम्बारिया अवलंबिता माल्यदामकलापा:-पुष्पमालासमूहाः, एवं नीललोहितहारिद्रठसूत्रबद्धा अपि वाण्याः, 'तवणिजलंबूसगा' इति दानामप्रिमभागे गोलकाकृतिमण्डनविशेषो लम्बूसगः 'सुत्रष्णपयरगर्मडिया' इति सुवर्णप्रतरेण-सुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सुवर्णप्रतरकमण्डितानि, सालभञ्जिकासूत्रे 'आमेलगजमलजुगलबडियअब्भुन्नयपीणरश्य संठियपओहराओ' इति पीनं पीवरं रचितं तथाजगत्स्थितिस्वाभाव्याद् रतिदं वा संस्थितं संस्थानं यकाभ्यां तो पीनरचितसंस्थितौ पीनरतिदसंस्थितौ वा आमेलक-मापीडः शेखरक इत्यर्थः तस्य यमलं- समश्रेणीकं यद् युगलं-इन्द्रं तद्वद् वर्त्तिती-व For P&Praise City ३ प्रतिपत्ती नन्दीश्व राधिकारः उद्देशः २ सू० १८३ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश: '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~ 270~ ॥ ३६१ ॥ Ayur Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] 4 4 दीप अनुक्रम [२९४] स्वभावावुपचितकठिनभावाविति भावः अभ्युनतो पीनरचितसंस्थितौ च पयोधरौ यासां ता: तथा 'लूसेमाणीओ इवेति मुष्णन्त्य, इव सुरजनानां मनासीति गम्यते, शेषं प्रायः प्रतीतं, प्रागेवानेकशो भावितत्वान् । 'तेसि णं दाराणमुस्पिमित्यादि तेषां द्वाराणामुपरि | प्रत्येक प्रत्येकमष्टावष्टी मङ्गलकानि स्वस्तिकादीनि प्रज्ञतानि सर्वरवमयानि अच्छानि यावत्प्रतिरूपकाणि ॥ 'तेसि णं दाराण मि त्यादि, तेषां द्वाराणां पुरतः प्रत्येक प्रत्येकं मुखमण्डपा: प्रज्ञनाः, 'ते णमित्यादि, ते मुखमण्डपा एक योजनशतमायामेन पञ्चाशद् हायोजनानि विष्कम्भेन सातिरेकाणि पोडश योजनानि ऊर्द्ध मुच्चस्त्वेन अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टा इत्यादि विजयदेवसुधर्मासभाया इव वर्णनं | तावद्वक्तव्यं यावत्प्रतिरूपा ।। 'तेसि जमित्यादि, तेषां मुखमण्डपाना प्रत्येक प्रत्येक 'चतुर्दिनिदिशि' चत [ति] मृपु दिनु एकैकस्यां दिशि | एकैकभावेन चत्वारि [त्रीणि] द्वाराणि प्रज्ञप्तानि । 'ते णं दारा' इत्यादि, तानि द्वाराणि पोडश योजनानि ऊर्द्ध मुच्चस्त्वेन अष्टौ योज-13 नानि विष्कम्भेन 'तावहयं चेव' अष्टावेव योजनानि प्रवेशेन 'सेया बरकणगथूभियागा' इति द्वारवर्णनं प्रावतावद्वक्तव्यं यावदुपर्य-11 टावष्टौ मङ्गलकानि-स्वस्तिकादीनि, तेषामुलोचवर्णनं प्राग्वत् । तेषां च मुखमण्डपानागुपरि प्रत्येक प्रत्येकमष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि । मङ्गलकानि सर्वरत्नमयानि अल्छानि यावत्प्रतिरूपकाणि, बहवः कृष्ण चामरत्रता इत्यादि प्राव यावद् बहवः सहस्रपत्रहस्तका इति ।। 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां मुखमण्डपानां पुरतः प्रत्येक प्रत्येक प्रेक्षागृहमण्डपाः प्रज्ञप्ता: तेऽपि मुखमण्डपवरप्रमाणतो वक्तव्याः, तेषामप्युल्लोचवर्णन भूमिभागवर्णनं च प्राग्नन् । तेषां बहुसगरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकमक्षपाटकाः | प्रक्षमाः ।। 'ते णमित्यादि, ते अक्षपाटका वषमया: 'अच्छा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वन् ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेषामक्षपाटकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्येक मणिपीठिका: प्रज्ञाताः, ताश्च मणिपीठिका अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योज %--5626 64-5% 82-%E0 ~271 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४ ] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम”- उपांगसूत्र- ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [३], ------ उद्देशकः [(दद्वीप-समुद्र)]. - मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः ।। ३६२ ।। नानि बाहल्येन सर्वाना मणिमय्योऽच्छा इत्यादि प्राग्वत् ॥ 'तासि ण'मित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं २ सिंहासनं प्रज्ञप्तं तेषां च सिंहासनानां वर्णनं विजयदृष्यवर्णनमकुशवर्णनं दामवर्णनं च प्राग्वत् ॥ तेषां च प्रेक्षागृह मण्डपानामुपरि प्रत्येकं प्रत्ये कमष्टाष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि यावदू बहवः सहस्रपत्रहस्तका इति । 'तेसि ण'मित्यादि, तेपां प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतः प्र त्येकं प्रत्येकं मणिपीठिका: प्रशताः, ताथ मणिपीठिका: प्रत्येकं प्रत्येकं पोडश योजनाम्यायामविष्कम्भाभ्यां अष्टौ योजनानि बाहस्थेन ४ सर्वाना मणिमय्योऽच्छा इत्यादि प्राग्वद् यावत्प्रतिरूपाः || 'तासि ण' मित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं २ चैत्यस्तूपाः प्रज्ञप्ताः ॥ 'ते णं चेइयथूभा' इत्यादि ते चैत्यस्तूपाः पोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां सातिरेकाणि पोडश योजनान्यूर्द्धमुचे - स्त्वेन ते च शङ्खान्ददकर जो ऽमृत मथितफेनपुञ्जसंनिकाशा 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् यावत्प्रतिरूपाः ॥ 'तेसि णमित्यादि, तेपां चैत्यस्तूपानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि प्राग्वद् यावद् बहवः सहस्रपत्रहस्तकाः ॥ 'तेसि ण'मि त्यादि तेषां चैत्यस्तूपानां प्रत्येकं प्रत्येकं 'चतुर्दिशि' चतसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकमणिपीठिकाभावेन चतस्रो मणिपीठिका: प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिका अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहल्येन सर्वाना मणिमध्यो यावत्प्रतिरूपाः ॥ 'तासि ण'मित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि एकैकस्या मणिपीठिकाया उपरि एकैकप्रतिमाभावेन चतस्रो जिनप्रतिमा जिनोत्सेधप्रमाणमात्राः पश्चधनुःशतप्रमाणा इत्यर्थः सर्वासना रत्नमय्यः संपङ्कासननिषण्णाः स्तूपाभिमुख्यस्तिष्ठन्ति तद्यथापूर्वस्यां दिशि ऋषभा दक्षिणस्यां वर्द्धमाना: अपरस्यां चन्द्राननाः उत्तरस्यां वारिपेणाः ॥ 'तेसि ण'मित्यादि तेषां चैत्यस्तूपानां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं मणिपीठिका: प्रशप्ताः, ताख मणिपीठिका: षोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यामष्टी योजनानि वाहस्येन सर्वासना श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः For P&Praise Ch अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश: '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~272~ ३ प्रतिपत्ती नन्दीबराधिकारः उद्देशः २ सू० १८३ ।। ३६२ ।। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------ उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], मूलं [१८३ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः मणिमय्योऽच्छा यावत्प्रतिरूपाः ॥ 'तासि णमित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं प्रत्येकं चैत्यवृक्षः प्रज्ञप्तः ते च चैत्यवृक्षा अष्टौ योजनान्यूर्द्धमुच्चैस्त्वेन अर्द्धयोजनमुद्वेधेन द्वे योजने उचैस्त्वेन स्कन्धः स एवार्द्धयोजनं विष्कम्भेन यावद्वदुमध्यदेशभागे क विनिर्गता शाखा - विडिमा सा पड़ योजनान्यूर्द्धमुच्चैस्त्वेन, साऽपि चार्द्धयोजनं विष्कम्भेन, सर्वाप्रेण सातिरेकाण्यष्टौ योजनानि प्रज्ञता । 'तेसि णमयमेयारूवे अण्णावासे पण्णत्ते' इत्यादि चैत्यवृक्षवर्णनं विजयराजधानीगतचैत्यवृक्षवद्भावनीयं यावल तावर्णनमिति । 'तेसि ण' मित्यादि तेषां चैत्यवृक्षाणामुपरि अावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि तावद् यावत्सहस्रपत्र हस्तका: सर्वरत्रमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः ॥ 'तेसि णमित्यादि तेषां चैत्यवृक्षाणां पुरतः प्रत्येकं मणिपीठिका: प्रज्ञप्ताः, ताच मणिपीठिका अष्टौ योजनाम्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहुल्येन सर्वासना मणिमय्योऽच्छा यावत्प्रतिरूपाः ॥ 'तासि ण'मित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं २ महेन्द्रध्वजः प्रज्ञप्तः ते च महेन्द्रध्वजाः षष्टिर्योजनाम्यूर्द्धमुचैस्त्वेन योजनमुद्वेधेन योजनं विकम्भेन वश्रमया इत्यादि वर्णनं विजयदेवराजधानीगतमहेन्द्रध्वज वद्वेदितव्यं यावत्तेषां महेन्द्रध्वजानामुपरि अष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचाभरध्वजा यावद् बहवः सहस्रपग्रहस्तकाः सर्वरत्नमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः ।। 'तेसि ण'मित्यादि तेषां महेन्द्रध्वजानां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं नन्दाभिधाना पुष्करिणी प्रज्ञता, 'ताओ नंदाओ पुक्खरिणीओ' इत्यादि, ताश्च नन्दापुष्करिण्य एकैकं योजनशतमायामविष्कम्भाभ्यां पञ्चाशद् योजनानि विष्कम्भेन दश योजनान्युद्वेधेन 'अच्छाओ सहाओ रययमयकुलाओ' इत्यादि पुष्करिणीवर्णनं जगत्युपरिपुष्करिणीवद्वक्तव्यं नवरं 'खोदरसपडिपुण्णाओं' इति वक्तव्यं, ताञ्च नन्दापुष्करिण्यः प्रत्येकं प्रत्येकं पावर | वेदिकया प्रत्येकं प्रत्येकं वनखण्डेन च परिक्षिप्ताः, तासां च नन्दापुष्करिणीनां त्रिदिशि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि तेषां वर्णनं For P&Praise City ~273~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] श्रीजीवा-18| तोरणवर्णनं च प्राग्वत् । इदमन्यदधिकं पुस्तकान्तरे दृश्यते-'तासि णं पुक्खरिणीणं चउहिसिं पत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तंजहा प्रतिपत्तौ जीवाभि -पुरच्छिमेणं दाहिणेणं पशस्थिमेणं उत्तरेणं-"पुब्वेण असोगवणं दाहिणतो होइ चंपगत्रणं तु (सत्तपण्णवणं) । अवरेण चंपगवणं नन्दीश्वमलयगि- चूयवणं उत्तरे पासे ॥१॥"'तेसु णमित्यादि, तेषु सिद्धायतनेषु प्रत्येकं प्रत्येकमष्टचत्वारिंशत् गुलिकासहस्राणि, गुलिका:-पी- राधिकारः रीयावृत्तिः13 ठिका अभिधीयन्ते, ताच मनोगुलिकापेक्षया प्रमाणतः क्षुल्लास्तासां सहस्राणि गुलिकासहस्राणि प्रज्ञतानि, तयथा-पूर्वखां दिशि|का उद्देशा२ ॥३३३॥ पोडश सहस्राणि पश्रिमायां षोडश सहस्राणि दक्षिणस्यामष्टौ सहस्राणि उत्तरस्यामष्ठौ सहस्राणि । 'तासु णं गुलियासु बहवे सु- सू०१८३ वण्णरूप्पामया फलगा पन्नत्ता' इत्यादि विजयदेवराजधानीगतसुधासभायामिव बक्तव्यं यावद्दामवर्णनं ॥ 'तेसु णमित्यादि, तेषु सिद्धायतनेषु प्रत्येकं प्रत्येकमष्टचत्वारिंशत् मनोगुलिकासहस्राणि प्रज्ञाप्तानि, गुलिकापेक्ष्या प्रमाणतो महतीतराः, तयथा-पूर्वस्या का दिशि षोडश सहस्राणि पश्चिमायां षोडश सहस्राणि दक्षिणस्यामष्टौ सहस्राणि उत्तरस्यामष्टी सहस्राणि, एतास्वपि फलकनागदन्तकमाल्यदामवर्णनं प्राग्वत् ।। 'तेसु णं सिद्धायतणेसु' इत्यादि, तेषु सिद्धायतनेषु प्रत्येक प्रत्येकमष्टचलारिंशद्गोमानुष्यः शय्यारूपाः स्थानविशेषास्तासां सहस्राणि प्राप्तानि, तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि षोडश सहस्राणि पश्चिमायाँ पोडश सहस्राणि दक्षिणस्यामष्टौ उत्तरस्यामष्टौ सहस्राणि, सास्वपि फलकवर्णनं नागदन्तवर्णनं सिककवर्णनं धूपघटिकावर्णनं प्राग्वत् ॥ 'तेसि णं सिद्भायतणाण'मित्यादि उल्लोकवर्णनमन्तहसमरमणीयभूमिभागवर्णनं शब्दवजै प्राग्वत् ॥'तेसि ण बहसमरमणिजाणं भूमिभागाण'मियादि, तेषां बहु-IN | समरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक २ मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, तात्र मणिपीठिकाः षोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यामष्टी योजनानि बाहल्येन सर्वांना मणिमय्यो यावत्प्रतिरूपकाः ॥'तासि णमित्यादि, तास च मणिपीठिकानामुपरि +84 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~2744 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] प्रत्येक २ देवच्छन्दक: प्रज्ञप्तः, ते च देवच्छन्दकाः षोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां सातिरेकाणि षोडश योजनान्यूईमुच्चैस्त्वेन सामना रत्नमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः 'तेसु णमित्यादि, तेषु देवच्छन्दकेषु प्रत्येक २ मष्टशतं जिनप्रतिमानां जिनोत्सेधप्रमाणमात्राणां पञ्चधनुःशतप्रमाणानामित्यर्थः सन्निक्षिप्तं तिष्ठति प्रतिमावर्णनादि विजयदेवराजधानीगतसिद्धायतनवत्तावद्वक्तव्यं यावदष्टशतं धूपकडुच्छुकानाम ।। 'तेसि णमित्यादि. तेषां सिद्धायतनानामुपरि प्रत्येकं प्रत्येकमष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा यावदहवः सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरबमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः ।। 'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र तेषु चतुर्व जनपर्वतेषु मध्ये योऽसौ | पूर्वदिग्भावी अञ्जनकपर्वतस्तस्य 'चतुर्दिशि चतमपु दिनु एकैकम्यां दिशि एकैकनन्दापुष्करिणीभावेन चतस्रो नन्दापुरकरिण्यः | प्रज्ञप्तास्तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि नन्दिषेणा दक्षिणस्याममोघा अपरस्यां गोस्तुपा उत्तरस्यां सुदर्शना, नाश्च पुष्करिण्य एक योजनशतमहस्रमायामविष्कम्भाभ्यां त्रीणि योजनशतसहस्राणि पोडश सहवाणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके श्रीणि गव्यूतानि अपाविशं धनुःशतं त्रयोदशाङ्गलानि अाफूलं च किश्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण प्रज्ञमाः, दश योजनान्युद्वेधेन, 'अच्छाओ सहाओ श्ययामचकूलाओं इत्यादि जगत्युपरिपुष्करिणीव निरवशेषं वक्तव्यं नवरं घटाओ सनतीराओ खोदोदगपडिपुण्णाओ' इति विशेषः, ताश्च प्रत्येक प्रत्येक पावरवेदिकया वनखण्डेन च परिसिमाः, अत्रापीदमन्यदधिकं पुस्तकान्तरे दृश्यते--तासि गं पुक्खरिणीणं पत्तेयं पत्तेयं चउद्दिसि । चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता तंजहा-पुरच्छिमेणं दाहिणेणं अवरेणं उत्तरेणं, पुग्येण असोगवणं जाव चूयवर्ण उत्तरे पासे' एवं शेषाच-18 नपर्वतसम्बन्धिनीनामपि नन्दापुष्करिणीनां वाच्यम् ॥'तासि ण'मित्यादि, तासां पुष्करिणीनां वहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं दधिमुखनामा पर्वतः प्रज्ञप्तः, 'ते णमित्यादि, ते दृधिमुखपर्वताश्चतुःषष्टियोजनसहस्राणि ऊर्द्धमुच्चैरत्वेन एक योजनसहस्रमुढेधेन सर्वत्र | CA%A9 -% A दीप अनुक्रम [२९४] 5 % ty ~275 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२९४] श्रीजीवा-15समाः पल्यतसंस्थानसंस्थिता दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेन एकत्रिंशद् योजनसहस्राणि षट् 'त्रयोविंशानि' प्रयोविंशत्यधिकानि || प्रतिपत्ती जीवाभियोजनशतानि परिक्षेपेण प्रज्ञमाः सर्वात्मना स्फटिकमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः प्रत्येक प्रत्येक पद्मवरवेदिकया परिक्षिमाः प्रत्येकं २ | नन्दीश्वमलयगि- वनखण्टेन परिक्षिमाः । 'तेसि ण'मित्यादि, तेषां दधिमुखपर्वतानामुपरि प्रत्येक २ बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञतः, तस्य हाब्द-13 | राधिकार रीयावृत्तिःवर्णनं साबद्वक्तव्यं यावद्दयो धानमन्तरा देवा देवीओ य आसयंति सयंति जाब विहरंति' । 'तेसि णमित्यादि, तेषां बहुसमरमणी-18 | उद्देशः२ यानो भमिभागान बहमध्यदेशभागे प्रत्येक २ सिद्धायतनं प्रश, सिद्धायतनवक्तव्यता प्रमाणादिका असनपर्वतोपरिसिखायतनव-IN | सू०१८३ ॥३६४॥ द्वक्तव्या यावदष्टशतं प्रत्येक प्रत्येक धूपकडुनछुकानामिति ।। 'तत्थ णं जे से दाहिणे अंजणगपब्बए' इत्यादि, दक्षिणा जनकपर्वत-12 | स्यापि पूर्व दिग्भाव्य जनकपर्वतस्येव निरबशेपं वक्तव्यं, नवरं नन्दापुष्करिणीनां नामनानात्वं तद्यथा-पूर्वस्यां नन्दोत्तरा दक्षिणस्यां नन्दा अपरस्यामानन्दा उत्तरस्यां नन्दिवर्द्धना, शेषं तथैव ।। 'तत्थ णं जे से पञ्चस्थिमिले अंजणगपव्यते तस्स णं च उद्दिसिं चत्वारि' इत्यादि, पूर्व दिग्भाव्य जनपर्वतस्येव पश्चिम दिग्भाव्यसनपर्वतस्यापि वक्तव्यं यावत्प्रत्येक प्रत्येकमष्टशतं धूपकडलछुकाना, नवरं? नन्दापुष्करिणीनां नामनानात्वं, तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि भद्रा दक्षिणस्यां विशाला अपरस्यां कुमुदा उत्तरस्यां पुण्डरीकिणी, शेषं तथैव ॥ एवमुत्तरदिग्भाग्य जनकपर्वते वक्तव्यं, नवरमत्रापि नन्दापुष्करिणीनां नामनानात्वं, तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि विजया दक्षिणस्यां वैजयन्ता अपरस्यां जयन्ता उत्तरस्थामपराजिता, शेषं तथैव यावत्प्रत्येक प्रत्येकमष्टशतं धूपकडुच्छुकानामिति । षोडशानामपि चामीपां| H ॥३६४॥ ४ वापीनामपान्तराले प्रत्येकं प्रत्येक रतिकरपर्वतौ जिनभवनमण्डितशिखरौ शास्त्रान्तरेऽभिहिताविति सर्वसधया नन्दीश्वरद्वीपे द्वापश्चा शत् सिद्धायतनानि । 'तत्य 'मित्यादि, 'तत्र' तेषु सिद्धायतनेषु णमिति पूर्ववत् बहवो भवनपतिवानमन्तरज्योतिष्कवैमानिका 3896-6 JEmaina अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~276 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] CSC-25 दीप अनुक्रम [२९४] 18 देवाचातुर्मासिकेपु पर्युषणायामन्येषु च बहुषु जिनजन्मनिष्क्रमणज्ञानोत्पादपरिनिर्वाणादिषु देवकार्येषु देवसमितिपु, एतदेव पर्याय- 11 येन ध्याचष्टे-देवसमवायेपु देवसमुदायेषु आगताः प्रमुदितप्रक्रीडिता अष्टाहिकारूपा महामहिमाः कुर्वन्तः सुखंसुखेन 'विहरन्ति'। भासते । अदुत्तरं च णं गोयमा!' इत्यादि, अथान्यद् गौतम! नन्दीश्वरवरे द्वीपे चक्रवालविष्कम्भेन बहुमध्यदेशभागे चतस्प। विदिक्षु एकैफयां विदिशि एकैकभावेन चत्वारो रतिकरपर्वताः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-एक उत्तरपूर्वस्यां द्वितीयो दक्षिणपूर्वस्वां तृतीयो दक्षिणापरस्यां चतुर्थं उत्तरापरस्याम् ।। 'ते 'मित्यादि, ते रतिकरपर्वता दश योजनसहस्राण्यूजभुस्खेन एक योजनसहस्रमुढेधेन सर्वत्रसमा ग्रहरीसंस्थानसंस्थित्ता दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेन एकत्रिंशद् योजनसहस्राणि षट्त्रयोविंशानि योजनशतानि परिपेण | सर्वात्मना रवमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः, तत्र योऽसावुत्तरपूर्वो रतिकरपर्वतस्तस्य 'चतुर्दिशि' चतुर्दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकराजधानीमाबेन ईशानस देवेन्द्रस्य देवराजस्य चत्तमूणामयमहिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाणाश्चतस्रो राजधान्यः प्रज्ञप्तास्तपथा-पूर्वस्यां दिशि : नन्दोत्तरा दक्षिणस्यां नन्दा पश्चिमायामुत्तरकुरा उत्तरस्यां देवकुरा, तत्र कृष्णाया:-कृष्णनामिकाया अप्रमहिष्या नन्दोत्तरा कृष्ण राज्या नन्दा रामाया उत्तरकुरा रामरक्षिताथा देवकुरा, तत्र योऽसौ दक्षिणपूर्वो रविकरपर्वतस्तस्य चतुर्दिशि शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवहाराजसा चतसृणागतमहिपीणां जम्बूद्वीपप्रमाणाश्चतस्रो राजधान्यः प्रज्ञातास्तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि सुमना: दक्षिणस्यां सौमनसा अपरस्याग चिर्माली उत्तरस्यां मनोरमा, सन्न 'पद्माया' पद्मनामिकाया अग्रमहिध्या सुमनाः शिवाया: सौमनसा शच्याश्वाचिर्माली अञ्जुकाया ४ा मनोरमा, तत्र योऽसौ दक्षिणपश्चिमो रतिकरपर्वतस्तस्य चतुर्दिशि शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतसृणामग्रमहिषीणां जम्बूद्वीपप्रमादाणाश्चतस्रो राजधान्यः प्रज्ञतास्तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि भूता दक्षिणास्यां भूतावतंसा अपरस्यां गोस्तूपा उत्तरस्वां सुदर्शना, तत्र 'अम ROCCANOCTOCACAMAR ~277 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] दीप श्रीजीवा-1 लायाः अमलनामिकाया अपमहिण्या भूता राजधानी अप्सरसो भूतावतंसिका नवमिकाया गोस्तूपा रोहिण्याः सुदर्शना, तन यो- ३ प्रतिपत्ती जीवाभि० इसावुत्तरपश्चिमो रतिकरपर्वतस्तस्य चतुर्दिशि ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतमृणामप्रमहिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाणाश्चतस्रो राज-12 नन्दीश्वमलयगि- धान्यः प्रशप्तास्तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि रत्ना दक्षिणस्यां रोच्चया अपरस्यां सर्वरना उत्तरस्यां रत्नसञ्चया, तत्र वसुनामिकाया अप्रम-18 रोद: रीयावृत्तिःहिल्या रा वसुप्रामाया रत्नोचया वसुमित्रायाः सर्वरना वसुंधराया रजसञ्चया । रतिकरपर्वतचतुष्टयवक्तव्यता के चित्पुस्तकेषु स-| उद्देशः२ वथा न दृश्यते । कैलासहरियाहननामानौ च द्वौ देवो तत्र यथाक्रमं पूर्वापरा धिपती महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको परिव- सू० १८४ ॥ ३६५॥ सतः, सत एवं नन्द्या-समृद्ध्या 'टुनटु' समृद्धौ' इति वचनात् ईश्वर:-रफातिमान न तु नाग्नेति नन्दीश्वरः, तथा चाह-'से एए-14 णद्वेण'मित्याग्रुपसंहारवाक्यं प्रतीतं. चन्द्रादिसल्या सूत्रं प्राग्वन् ।। णंदिस्सरवरपणं दीवं गंदीसरोदे णामं समुहे बद्दे वलयागारसंठाणसंठिते जाव सव्वं तहेव अट्ठो जो खोदोदगस्स जाव सुमणसोमणसभद्दा एस्थ दो देवा महिडीया जाव परिवसंति सेसं तहेब जाव तारग्गं ।। (सू०१८४) 'नंदीसरपण मित्यादि, नन्दीश्वरं पमिति पूर्ववत् नन्दीश्वरोदो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् | संपरिक्षिप्य तितति यथैव क्षोदोदकसमुद्रस्य वक्तव्यता तथैवास्याप्यर्थसहिता वक्तव्या, नवरमत्र सुमनसुगनसौ च द्वौ देवौ वक्तव्यौ, ॥३६५॥ सावतिशयेन स्फीताविति नन्दीश्वरयोरुदकं यन्नासौ नन्दीश्वरोदः, अथवा नन्दीश्वरवरं दीपं परिबेष्ट स्थित इति नन्दीश्वरं प्रति लम अनुक्रम [२९४] FORCELLBAM -64-5% %4- अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् नन्दीश्वर-समुद्र आदि द्वीप-सम्द्राधिकारः आरभ्यते ~278~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८४] I X मुदकं यस्यासौ नन्दीश्वरोदः, एवं सर्वत्रापि समुद्रेषु द्वीपेषु च व्युत्पत्तियथायोग भावनीया । एवमेते जम्बूद्वीपादयो नन्दीवरसमुद्रपर्यवसाना एकमलावतारा उक्ताः, अत ऊर्द्ध मरुणादीन द्वीपान समुद्रांश्च प्रत्येकं त्रिप्रत्यवतारान् विवक्षुराह गंदीसरोदं समुई अरुणे णामं दीये वढे वलयागार जाव संपरिक्वित्ता णं चिट्ठति । असणे णं भंते दीये किं समचकवालसंठिले चिरूमनकवालसंठिए?, गोयमा! समचलवालसंठिमे नो विसमचकवालसंठिने, केवतियं चकवालवि० संठिने?. संखेजाई जोयणर यसहवाई चकवालविखंभेणं संखेज़ाई जोयणसयसहस्साई परिकावे वेणं पण्णत्ते, पजमबरवण दारा दारंतरा य तहेच संखेमाईजोयणसतसहस्साई दारंतरं जाव अहो. वावीओ खोनोगपटिहस्थाओ उप्पातपस्वयका सब्यवदरामया अच्छा, असोग बीतमोगा य एस्थ वे देवा सहिहीया जाब परिवसंति, से लेण जाव संग्वेजं सव्वं ॥ अमगाणं दीयं अरुणोदे णामं समुहे तस्ममि महेन्द परिक्खेवो अट्टो ग्योतोदगे णवरि सुभ समणभद्दा एस्थ दो देवा महिडीया सेसं नहेच ॥ अरुणोदगं समुई अरुणवरे णामं दीवे वट्टे चलयागारठाण तहेगा संग्वेजग सन्दं जाच अट्टो कोयोदगपटिहस्थाओ उपायपब्बनया सब्ववहरामया अच्छा, अरुणवरहरुणवरमहामहा दो देवा महिहीया । एवं अरुणवरोदेति समुहे जाग देवा अरुणवरअरुणमहावरा यस्य दोरया सेर्स तहेव ।। अरुणवरोपणं समुई अरुणवरावभासे णामं दीये बट्टे जाव देवा अरुपवराव मालमहा Ch-44544102444 दीप अनुक्रम [२९५] - mamerammarMINENTAmmymame 87-%2554- miaamwaRINTRIERIMAR 2-% ~279 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % श्रीजीवाश्रीवाभि ET - प्रत सूत्रांक [१८५] 04-% पतिपत्ती त्रिप्रत्यबताराद्वी घसमुद्राः | उद्देशः२ सू०१८५ - -- -- - कणवरावभासमहाभदा पत्य दो देवा जहिहीया । एवं अरुणवरावभासे सधुर चरि देवा अरुणवरावभासवरामणवरावभासमहावरा पत्य दो दवा महिहीया ॥ कुंडले दीये डलमटकडलमहाभदा दो दवा महिहीथा, कुंडलादे समुद्दे चक्खुसुभचक्खुकता एस्थ दो देवा म०। कुंडलबरे दीये कुंडलवरभाहकुंडलवरमहामहा एत्य दो देवा महिडीया, कुंडलवरोदे समुहे कुंडलवर [चर] कुंडलवरमहाबरा पत्य दा दवा म०॥ कुंडलवरावभासे दीच कुंडलवरावभासभरकुंडलवरावभासमहामहा पत्थ दो देवा०॥ कुंडलबरोभासोदे समुरे कुंडलवरोभासवरकुंडलवरोभासमहावरा एथ दो देवा म जावपलिओवभट्ठितीया परिवसंति ।। कुंडलवरोभासं णं समुई हचगे णामं दीवे बट्टे वलया जाब चिट्ठति, किं समचक विसमचकवाल०?, गोयमा! समचकवाला नो विसमचकवाल संटिते, केवतियं चकवाल पण्णते?, सव्वट्ठ मणोरमा एस्थ दो देवा सेसं तहेव । रूपगोदे नाम समुदे जहा खोदोदे समुद्दे संग्वेजाई जोयणसतसहस्साई चकवालवि० संखेजाई जोयणसतसहस्साई परिक्खेवेर्ण दारा दारंतरंपि संखेजाई जोतिसंपि सव्वं संखेज भाणियवं, अट्ठोवि जहेव खोदोदस्स नवरि सुमणसोमणसा एस्थ दो देवा महिहीया तहेव रुथगाओ आवृत्तं असंखेज़ विक्खंभा परिक्खेवो दारा दारंतरं च जोइसं च सवं असंखेज भाणियव्वं । रुयगोदणं समुई रुयगवरं णं दीचे बट्टे रुयगवरभहरूयगवरमहामहा एत्य दो दीप अनुक्रम [२९६-३००] -- *4 32 -- 164* - अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~280 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८५] दीप अनुक्रम [२९६ -३००] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ (मूलं + वृत्ति:) ------ उद्देशकः [ ( द्वीप - समुद्र )], मूलं [१८५] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः जी० ६२ **%% देवा रुगवरोदे eurवररुयगवरमहावरा एत्थ दो देवा महिडीया । रुपगवरावभासे दीवे रुगवरावभास भद्दरुपगवरावभासमहाभदा एत्थ दो देवा महिहीया । रुपगवरावभासे समुद्दे रुयगवरावभासवररुयगवरावभासमहावरा एत्थ० || हारदीवे हारभदहारमहाभद्दा एत्थ० । हारसमुद्दे हारबरहारवरमहावरा एत्थ दो देवा महिडीया । हारवरोदे हारवरभहहारवरमहाभद्दा एत्थ दो देवा महिहीया । हारवरोए समुद्दे हारबरहारवरमहावरा एत्थ । हारवरावभासे दीवे हारवरावभासभद्दहारवरावभासमहाभद्दा एत्थ० । हारवरावभासोए समुद्दे हारवरावभासवरहारवरावभासमहावरा एत्थ० । एवं सव्वेवि तिपडोयारा नेतव्वा जाव सूरवरोभासोए समुद्दे, दीवे भहनामा घरनामा होंति उदहीसु, जाव पच्छिमभावं च खोतवरादीसु सयंभूरमणपज्जते बावीओ खोओदगपडिहत्थाओं पव्ययका य सञ्चवइरामया । देवदीये दीये २ दो देवा महिडीया देवभद्ददेवमहाभद्दा एत्थ० देवोदे समुद्दे देववरदेव महावरा एत्थ० जाव सयंभूरमणे दीवे सयंभूरमण भदसयंभूरमणमहाभद्दा एत्थ दो देवा महिडीया । सर्वभुरमणणं दीवं सयंभुरमणोदे नामं समुदे वट्टे वलया० जाव असंखेज्जाई जोगणसतसहस्साई परिक्खेवेणं जाब अहो, गोमा ! सरमणोदए उदए अच्छे पत्थे जचे तणुए फलिहण्णाभे पगतीए उद्गरसेणं पण्णसे, For P&Pase City ~281~ *%* texty Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: I प्रत सूत्रांक [१८५]] दीप अनुक्रम [२९६-३००] श्रीजीवा- सयंभुरमणवरसयंभुरमणमहावरा इत्थ दो देवा महि डीया, सेसं तहेव जाव असंखेजाओ तारा- प्रतिपत्ती जीवाभि० गणकोडिकोडीओ सोभेसु वा ३ ॥ (सू०१८५) त्रिप्रत्यवमलयगि 'नंदीसरवरोदण्णं समुद्द'मित्यादि, नन्दीश्वरोदं समुद्रमरुणो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितो यावत्परिक्षिप्य ति- तारा द्वीरीयावृत्तिति । यैव मोदवरद्वीपवक्तव्यता सैवात्राप्यर्थसहिता वक्तव्या, नवरमत्र वाध्यादयः क्षीरो(नोदो)दकपरिपूर्णाः, पर्वतादयस्तु सर्वासना पसमुद्राः ॥६६७॥ वअमया वक्तव्याः, अशोकवीतशोकौ च द्वौ देवी, स च देवप्रभया पर्वतादिगतवरत्नप्रभया चारुण इति अरुणनामा । 'अरुण- उद्देशः २ 11ण मित्यादि, अरुणं णमिति पूर्ववत् द्वीपमरुणोदो नाग समुद्रो वृत्तो बलयाकारसंस्थानसंखिनः सर्वतः समन्तासंपरिक्षिप्य तिष्ठति ।।४सू०१५ हायव क्षोदोदकसमुद्रवक्तव्यता सैवेहापि वक्तव्या, नवरमत्र सुभद्रसुमनोभद्रनामानों द्वौ देवौ वक्तव्यौ, ततोऽरुणद्वीपपरिक्षेपी यदिवा। सुभद्रसुमनोभद्रदेवाभरणात्याऽरुण-आरक्तमुदकं यस्यासावरुणोदयः ।। 'अरुणोदण्ण मित्यादि, अरुणोदं समुद्रमरुणवरो नाम द्वीपो, वृत्तो वलयाकारसंस्थितो यावत्परिक्षिप्य तिष्ठति । अत्रापि वक्तव्यता सैव नबरमत्रारुणवरभद्रारुणवरमहाभद्रौ देवौ वाच्यो, नामव्युतात्पत्तिभावनाऽपि स्वधिया भावनीया ॥ अरुणवरद्वीपमहणबरोदो नाम समुद्रो वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितो यावत्परिक्षिप्य ति यति । अत्रापि वक्तव्यता सैय नवरमरुणवरारुणमहावराचत्र देवौ ॥ अरुणवरोदं समुद्रमरुणवरावभासो नाम द्वीपो वृत्तो यावत्परि-14 क्षिप्य तिष्ठति, बक्तव्यता अन्नापि क्षोदवरद्वीपबत् नबरमन्नारुणवरावभासभद्रारुणवरावभासमहाभद्री देवो । अरुणावभासं द्वीपम-18 दारुणावभासो नाम समुद्रो वृत्तो यावत्परिक्षिप्य तिष्ठति, वक्तव्यताऽत्रापि क्षोदोदसमुद्रवन् नबरमत्रारुणवरावभासवरारुणपराधभास-11 ॥३६७॥ महावरी देवौ । तदेवमाणो द्वीपः समुद्रश्च त्रिप्रत्यवतार उक्तस्तद्यथा--अरुणो द्वीपोऽरुणः समुद्रः अरुणवरो द्वीपः अरुणवरः समुद्रः।। -447 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~282 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८५ ] दीप अनुक्रम [२९६-३००] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) ------- उद्देशक: [ ( द्वीप - समुद्र)], प्रतिपत्ति: [३]), - मूलं [१८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः अरुणवरावभासो द्वीपोsरुणवरावभासः समुद्रः || एवं कुण्डलो द्वीपः कुण्डलः समुद्रव त्रिप्रयवतारो वक्तव्यतयथा-अरुणवरावभा ससमुद्रपरिक्षेपी कुण्डलो द्वीपः तत्परिक्षेषी कुण्डलः समुद्रः तत्परिक्षेपी कुण्डलवरो द्वीपः तत्परिक्षेपी कुण्डलवरः समुद्रः तत्परिक्षेपी कुण्डलवरावभासो द्वीपः तत्परिक्षेपी कुण्डलवरावभासः समुद्रः वक्तव्यता सर्वत्रापि क्षोदवरद्वीपददया नवरं देवतानामिदं नामनानात्वं - कुण्डले द्वीपे कुण्डलभद्रकुण्डलमहाभद्रौ द्वौ देवौ, कुण्डलसमुद्रे चक्षुः शुभचक्षुः कान्तौ कुण्डलवरे द्वीपे कुण्डवरभद्रकुण्डलवरमहाभद्रौ कुण्डलवरे समुद्रे कुण्डलवरकुण्डलवरमहावरौ कुण्डलवरावभासे द्वीपे कुण्डलवरावभासभद्रकुण्डलवरायभासमहाभद्रा, कुण्डलवरावभासे समुद्रे कुण्डलवरावभासवरकुण्डलवरावभासमहावरौ । कुण्डलवरावभाससमुद्रपरिक्षेषी रुचको द्वीपो रुचकद्वीपपरिक्षेषी रुचकः समुद्रः तत्परिक्षेषी रुचकवरो द्वीपस्वपरिक्षेषी रुचकारः समुद्रः तत्परिक्षेषी रुचकवरावभासो द्वीपः तत्परिक्षेषी रुचकवरावभासः समुद्रः, वक्तव्यता सर्वत्रापि श्रावत् नवरं देवनामनानालं, रुचके द्वीपे सर्वार्थमनोरमा देवी, रुचकलमुद्रे सुमनःसौमनसौ, naat द्वीपे overcreenमहानदी, रुचकचरे समुद्रे रुचकवररुचकवरमहावरों, रुचकवरावभासे द्वीपे रुचकवरावभासभद्रश्चकवरावभासमहाभदौ, रुचकवरावभासे समुद्रे रुचकवरावभासवररुचक्रवरावभासमहावरी, एतावता प्र न्थेन यदन्यत्र पश्यते— “जंबूद्दीने लवणे धायर काढोय पुक्खरे वरुणे । खीरघवखोयनंदी अरुणवरे कुंडले रुपगे || १ ||" इक्षितद्वावितम् । अत ऊर्द्ध तु यानि लोके शङ्खध्वजकलशश्रीवत्सादीनि शुभानि नामानि तन्नामानो द्वीपसमुद्राः प्रत्येताः सर्वेऽपि च त्रिप्रत्यवतारा: अपान्तराले च भुजगवरः कुशवरः कौश्चवर इति । तथा यानि कानिचिदाभरणनामानि हारार्द्धहारप्रभृतीनि यानि वस्तुनामानि आजिनादीनि यानि गन्धनामानि कोठादीनि यान्युत्पडनामानि जलरुहचन्द्रोद्योतमुखाणि यानि च तिलकप्रभृतीनि For P&P Cy ~283~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८५] दीप अनुक्रम [२९६ -३००] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [३], ----- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र)], - मूलं [१८५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः | वृक्षनामानि यानि च पृथिव्या: “पुढबीसवरात्रालुया उबले सिला य लोसे" इत्यादि पत्रिंशद्भेदभिन्नाया निधीनां नवानां स्नानां चतुर्दशानां चक्रवर्त्तिसम्बन्धिनां वर्षपर्वतानां दादीनां हयानां पद्ममापद्मानां नदीनां गङ्गासिन्धुप्रभृतीनां महानदीनां अन्तरनदीनां च विजयानां कण्ठादीनां द्वात्रिंशतो वक्षस्कारपर्वतानां माल्यवदादीनां कल्पानां - सौधर्मादीनां द्वादशानाम् इन्द्राणां शक्रादीनां दशानां कुरूणां देवकुरुत्तरकुरूणां मन्दरस्य मेरो आवासानां शक्रादिसम्बन्धिनां प्रत्यासन्नादीनां भवनपत्यादिसम्ब न्धिनां कूटानां मदादिसम्बन्धिनां नक्षत्राणां कृतिकादीनामष्टाविंशतेः चन्द्रा सूर्याणां च नामानि तानि सर्वाण्यपि द्वीपसमुद्रेषु त्रिप्रत्यवताराणि वक्तव्यानीति दिदर्शचिराह' एवं हारदीवे' इत्यादि, एवं च हारो द्वीपो हारोदः समुद्रः, हारबरो द्वीपो हारवरः समुद्रः, हारवरावभासो द्वीपो हारवरावभासः समुद्रः, द्वीपसमुद्रयव्यता पूर्ववत् नवरं हारे द्वीपे हारमद्रहारमहाभद्रौ देवी हारे समुद्रे हारबरहारमहावरौ, हारबरे द्वीपे हारवरभद्रहारवर महामंत्री, हारबरे समुद्र हारबरहारवरमहावरी, हारवरावभासे द्वीपे हारवरावभासभद्रदारवरावभासमहाभद्रा, हारबरावभासे समुद्रे हारवरावभासवरहारवरावभासमहावरी । एवं दोषाणामध्याभ| रणनाम्नां त्रिप्रयवतारो वक्तव्यः अर्द्धहारो द्वीपः अर्द्धहारः समुद्रः, अर्द्धहारबरो द्वीपः अर्द्धहारबरः समुद्रः, अर्द्धहारवरावभासो द्वीपः अर्द्धहारवरावभासः समुद्रः, कनकावलिद्वीपः कनकाबलिसमुद्रः कनकावलिवरो द्वीपः का० ० समुद्रः कनकावलिवरावभासो | द्वीपः कनकावलिवरावभासः समुद्रः, रनावलिद्वीपः रत्नावलिः समुद्रः स्त्रावडिवरो द्वीप: रत्नावलिवरः समुद्रः, रत्नावलीवरावभासो | द्वीप: रत्नावलीवरावभासः समुद्रः मुक्तावली द्वीपः मुक्तावली समुद्रः मुक्तावलीवरो द्वीपः मुक्तावडीवरः समुद्रः मुक्तावलिवरावभासो द्वीपो मुक्तावलिवरावभासः समुद्रः । वस्तुनामचिन्तायामपि आजिनो द्वीपः आजिनः समुद्रः, आजिनवरो द्वीपः आजिनवरः समुद्रः, आ For P&Praise Chly अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् श्रीजीवा जीवाभिः मलयगि यावृतिः ।। १६८ ।। ~284~ ३ प्रतिपत्तों त्रिप्रत्ययतारा द्वी पसमुद्राः उद्देशः २ सू० १८५ ।। ३६८ ॥ ty My Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: _ भाग-1 जाली निगम पाव-भार मूल तिः - - - प्रत सूत्रांक [१८५] r -yea जिनवरावभासो द्वीप: आजिनवररावभासः समुद्र इत्यादि । देवचिन्ताबामपि अर्द्धहारे द्वीपऽर्द्धहारभद्रार्द्धहारमहाभद्रा देवी, अर्द्धहारे । समुद्रेऽर्द्धहारवराहारमहावरी, अहारवरे द्वीपेऽद्वहारवरभद्रा हारवरमहाभद्रौ, अद्धहारवरे समुद्रहारवगहारवरनहावरी, अर्बहारावभासे द्वीपेऽजहारदरावभासनद्राहारवरावभासमहाभद्रौ, अर्द्धहारवरावभासे समुद्रेऽद्विारबरावभासवराहारवरावभास-1 महापरी, कनकापलिपीपे कनकाबलिभद्रफनकालिमहामनी, कनफायली समुद्रे कनकायलिवरकनकावलिमहावरी, कनकायलिबरे। द्वीपे कनकालिपरभामा नकाबलिपरमहाभद्री, कनकालिबरे समुद्रे कनकाबलिवर कनकावलिवरमहायरी, कनकावलिवरापभासे द्वीप कनकालिबराबभालभद्र कग कावलिबराबभासमहाभद्रौ, कनकावलिवरावभासे समुद्रे कनकावलिवरावभासबरकनकावलिवरावभासमहाबरी, रमावली द्वीप रमाबलिभदरबावलिमहाभद्री, रमाबली समुरबावलिबररत्नावलिमहावरी, रमावलियरे द्वीपे रसायलिपरभद्ररनावलिकरमहाभद्री, रापलिबरे समुद्र रमावलिवररत्नावलीवर महावरी, रजावलिवरावभासे द्वीपे रमावलिवरावभासभरबाय-1 लिबराबभासमहाभद्री, रनावलिबरावमासे समुद्र रत्नावलिवरावभासवररत्नावलियराबभालमहावरी, मुक्तावली द्वीपे मुक्तावलिभद्रमुक्तावलिमहाभद्रौ, भुक्तावली समुद्र मुक्तावलिबरयुक्तावलिमहावरी, मुक्तावलिबरे द्वीपे मुक्तावलिवरभद्रमुक्तावलिबरमहाभद्री, मुक्ताविलियरे समुद्रे मुकाबलिवर मुक्तावलिमहावरी, मुक्तावलिवरावभासे द्वीपे मुक्तावलिबराबभासभद्रमुक्तावलिवरावभासमहाभद्री, मुक्ता बलिवरावभासे समुत्रे मुकाबलिवरावभासबरमुक्तावलिवरावभासनहापरी, आजिने द्वीपे आजिनभद्राजिनमहाभद्री, आजिने समुद्रे आ| जिनवराजिनवरमहावरी, आजिनवरे द्वीपे आजिनवरभद्राजिनबरमहाभद्री, आजिनवरे समुद्रे आजिनवराजिनवरमहायरी, आजिन१ वरावभासे द्वीपे आजिनवरावभासभद्राजिनवरायभासमहाभद्रौ, आजिनवरावभासे समुद्रे आजिनवरावभासवराजिनवरावभासमहा दीप अनुक्रम [२९६-३००] -* * - Jamai ~285 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८५]] % श्रीजीवा- बरौ । एवं सर्वत्रापि त्रिः प्रत्यवतारो देवानां नामानि च भावनीयानि यावत् सूर्यो द्वीप : सूर्यः समुद्रः, सूर्यवरो द्वीपः सूर्यवरः स-16/३ प्रतिपत्ती जीवाभि मुद्रः, सूर्यवरावभासो द्वीपः सूर्यवरावभास: समुद्रः, आह् च मूलचूर्णिकृत्-अरुणाई द्वीपसमुद्रा तिपडोयारा यावत् सूर्यावभासः त्रिप्रत्यवमलयगि- समुद्रः" तत्र सूर्य द्वीपे सूर्यभद्रसूर्यमहाभद्रौ देवी, सूर्ये समुद्रे सूर्यवरसूर्यमहावरौ, सूर्यवरे द्वीपे सूर्यवरभद्रसूर्यवरमहाभद्री, सूर्यवरे | ताराद्वीरीयावृत्तिः समुद्र सूर्यवरसूर्यमहावरी, सूर्यवरावभासे द्वीपे सूर्यवरावभासभद्रसूर्यवरावभासगहाभद्रौ, सूर्यवरावभासे समुद्रे सूर्यवरावभासवरसूर्य-161पसमुद्राः हवरात्रभासमहावरौ । सूर्यवरावभाससमुद्रात्परं यदस्ति तदाह-सूरवरावभासण्णं समुदं देव नामं दीवे यट्टेइत्यादि, सूर्यवरा-6 उद्देशः२ ॥३६९॥ भासं णमिति पूर्वयन समुद्रं देवो नाम द्वीपो वृत्तो बलयाकारसंस्थानसंस्थितः समन्तात्संपरिक्षिप्य निति । देवेणं भंते ! दीवे किसू०१८५ समचकवालसंठिने विसमचकबालसंठिए?, गोयमा समचकवाल संठिप नो बिसमचकपालसंठिए, देवे णं भंते . दीवे केवइयं चकवालबिकवभेणं केवइयं परिक्वेणं पनते ?, गोयमा ! असंखे जाई जोयगसहस्साई चक्कबाल विश्वंभेणं, [अन्धाश्रम ११००.] असंखेनाई जोयणसयसहस्साई परिक्षेत्रण पन्नत्ते, से गं एगाए पजमबरबेश्याए एगणं वणसं टेणं परिक्खित्ते' सुगम, नवरम् एकया पद्मवरवेदिकयाऽप्रयोजनोच्छ्यजगत्युपरिभाविन्येति द्रष्टव्यं, एवमेकेन बनपण्डेन च, इदं तु सूर्व बहुपु पुस्तकेषु न दृश्यते केचिन् 'त हे वे'त्यतिदेश इति लिखितं ॥ 'कइ णं भंते !' इत्यादि, कति भदन्त ! देवस्य द्वीपस्य द्वाराणि प्रज्ञमानि?, भगवानाह-गौतम! च-HI कावारि द्वाराणि प्रज्ञशानि, तगाथा-विजयं वैजयन्तं जयन्तमपराजितं ।। कहिणं भंते ! देवस्त दीवस्से' यादि, के भदन्त ! देवस्य | हाद्वीपम्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञाप्रम् ?. भगवानाह-गौतम देवद्वीपपूर्वार्द्धपर्धन्ते देवसमुद्रस्य पूर्वा(पश्चा) बस्य पश्चिमदिशि अत्र' एतस्मि-131॥३६९ ।। नवकाशे विजयं नाम द्वारं प्रज्ञ, प्रमाणं वर्णकश्च जम्बूद्वीपविजयद्वारवन , नामान्वर्थमूत्रमपि तथैव ।। 'कहिणं भंते' इत्यादि का दीप अनुक्रम [२९६-३००] *444 % अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~286 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८५] भदन्त ! विजयस्य देवस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता?. भगवानाह-गौतम ! विजयसा द्वारस्व पश्चिगदिशि तिर्यगसोयानिश योजनशतसहस्राण्यवगायात्रान्तरे विजयस्य देवय विजया नाम राजधानी प्रशमा, सा च जन्यूद्वीपविजयद्वाराधिपतिविजयदेवषेत्रका वक्ततया । एवं वैजयन्तजयन्तापराजितद्वारयतथ्यताऽपि भावनीया, ज्योतिष वक्तव्यता सोऽध्यसोयतया वतच्या, पासायनिमतावानपि देवभद्रपेयर हामद्रो बक्तब्यौ, शेष समादीत! 'देव दीवमित्यादेिवामिति पूर्वचन हाचा सो तो वलयाकार संस्थानसंस्थितो वापरपरिशिदीत सामावारालाविभूताशितदेव नवरयोग पाएर मावि धारको वनर्याशेपरन्ते नागडीपी (पवाद दिनिधि रानी विजारमण पश्चिमदिशि नि . राजधानी जिपवारसा पगिविशिवलियासजियममा वकया । द बैजयन्तजयारतापराजिना - माया राजिनामापविमा यथायोडागा, जो या तीर सदागमहाभी का देयः गरमागः समुदा नर जनावरमा करना, व्यरं । दीप अनुक्रम [२९६-३००] mommanmaamera:AKerarmseement न्यू रायडीरे खयरमणमटानभूमपणमहामहो. सारी मा. मुखपभूवनयभूगावरी. देवादिषु एवमुच बनु द्वीप मायनियतारता यति, तामीले बरयाः सदा वाह.. रे दागे उक्ले भूए य सबम्भूरमाणे भए भनियो। मुजदीकाकारोऽन्याह-वादयोऽन्या सकाकारा" इति, पूर्णिकारोऽप्याह-वे नागे जस्खे भूए च सयंभूरमणे पोऽनिसमा पभ एक काः प्रतिपत्तम्या:" नन्दीधरातिद्वीपान खवम्भूरमणद्वीपपर्यवसानानामवचिन्तायां बाप्यः पुष्करिण्य: च-1 --- ~287 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], ---------------------- मूलं [१८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८५] द्वीपसमु SCRX दीप अनुक्रम [२९६-३००] श्रीजीवा- शब्दाद् दीपिकादयश्च क्षीरो(मोदी)दकपरिपूर्णा वक्तव्याः, पर्वतादयश्च सर्वासना वनमयाः, नन्दीश्वरसमुद्रादीनां भूतसमुद्रपर्यवसानानाम 8 प्रतिपत्तौ जीवाभिकन्व र्थचिन्तायामुदकमिक्षुरससदृशं वक्तव्यं, स्वयम्भूरमणसमुद्रस्य पुष्करोदसदृशं, 'रुयगाईण मित्यादि प्रथमोऽसायप्रमाणतया रुचक-18 सहनामामलयगि- |नामा यो द्वीपस्तदादीनां द्वीपसमुद्राणां विष्कम्भपरिक्षेपद्वारान्तराणि ज्योतिक चाविशेपेणासयेयं वेदितव्यं ।। साम्प्रतमेकैकेन जम्यू- 1नोऽसंख्या रीयावृतिःद्वीपादिनाना कियन्तो द्वीपा: समुद्राश्च ? इति निर्णतुकाम आहकेवइया भंते ! वहीवा दीवा णामधेजेहिं पपणत्ता?, गोयमा! असंखेजा जवुहीवा २ नाम द्राःलब॥३७॥ धेजेहिं पण्णता, केवतिया णं भने! लवणसमुद्दा २ पण्णता?, गोयमा! असंखेजा लवणसमुदा णोदाधुनामधेजेहिं पक्षणता, एवं चायतिसंडावि, एवं जाव असंग्जा सूरदीया नामधेजेहि य । एगे | दक देवे दीवे पण्णते एगे देवोदे समुद्दे पपणते, एवं णागे जक्वे भूने जाव एगे सयंभूरमणे दीवे उद्देशः२ एगे सयंभूरमणसमुद्दे णामधेजेणं पण्णत्ते ॥ (सू०१८६) लवणसणं भंते ! समुदस्स उदए सू०१८६केरिसए अस्साएणं पण्णते?, गोयमा! लवणस्स उदए आइले रइले लिंदे लवणे कटुए अपेजे १८७ बहणं दुपयचप्पयमिगपसुपक्विसरिसवाणं णपणत्थ तजोणियाणं सत्ताणं ॥ कालोपस्स णं मंते! समुदस्स उदए केरिसए अस्सारणं पण्णते?, गोयमा! आसले पेसले मांसले कालए ॥३७०॥ भासरासिवण्णाभे पगतीए उदगरसेणं पण्णत्ते ॥ पुक्खरोदगस्स पं भंते! समुदस्स उदए केरिसए पपणते?, गोयमा। अच्छे जच्चे तणुए फालियवण्णाभे पगतीए उद्गरसेणं पण्णत्ते ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~288 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१८६-१८७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % और प्रत सूत्रांक [१८६-१८७] वरुणोदस्स णं भंते, गोयमा! से जहा णामए-पत्तासवेति वा चोयासवेति वा खज़रसारेति वा सुपिकखोतरसेति वा मेरएति वा काविसायणेति वा चंदप्पभाति वा मणसिलाति वा बरसीधूति वा पचरवारुणी वा अट्ठपिट्ठपरिणिहिताति वा जंबुफलकालिया वरप्पसण्णा उकोसमदप्पत्ता इंसिउट्टावलंबिणी ईसितंबच्छिकरणी ईसिवोच्छेयकरणी आसला मांसला पेसला वणेणं उबवेता जाव णो तिगडे समढे, वारुणोदए इत्तो इट्टतरए चेव जाव अस्साएणं प० । खीरोदस्स णं भंते। उदए केरिसए अस्साएणं पण्णत्ते?, गोषमा! से जहा णामए-रनो चाउरंतचकवहिस्स चाउरके गोखीरे पजत्तिमंदग्गिसुकहिते आउत्तरखंडमच्छंडितोक्वेते वणेणं उववेते जाच फासेण उबवेए, भवे एयारवे सिया?, णो तिणढे समठे, गोयमा! खीरोयस्स. एसो इट्ट जाव अस्साएणं पण्णत्ते । घतोदस्स णं से जहा णामए सारतिकस्स गोषयवरस्स मंडे सल्लइकपिणयारपुप्फवण्णाभे सुकडित उदारसज्झवीसंदिते वणेणं उववेते जाव फासेण य उववेए, भवे एयारवे सिया?, णो तिणडे समढे, इत्तो इट्टयरो० खोदोदस्स से जहा णामए उच्छृण जचपुंडकाण हरियालपिंडराणं भेडछणाण वा कालपोराणं तिभागनिव्वाडियवाडगाणं बलवगणरजतपरिगालियमित्ताणं जे य रसे होजा वत्थपरिपूए चाउज्जातगसुवासिते अहियपत्थे लहए वणेणं उववेए जाच भवेयारूवे सिया?, नो तिणढे समढे, पत्तो इद्दयरा०, एवं सेस -% दीप अनुक्रम [३०१-३०२] JataIR ~289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१८६ -१८७] दीप अनुक्रम [ ३०१ -३०२] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र -३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) ------- उद्देशक: [ ( द्वीप समुद्र )], - मूलं [१८६-१८७ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३७१ ।। प्रतिपत्ति: [३], गाणवि समुद्दाणं भेदो जाव सयंभुरमणस्स, णवरि अच्छे जचे पत्थे जहा पुक्खरोदस्स || कति णं भंते! समुद्दा परोगरसा पण्णत्ता?, गोयमा ! चत्तारि समुद्दा पत्तेगरसा पण्णत्ता, तंजहालवणे वरुणोदे खीरोदे घयोदे ॥ कति णं भंते! समुद्दा पगतीए उदगरसे णं पण्णसा?, गोयमा ! तओ समुद्दा पगती उदगरसेणं पण्णत्ता, तंजहा- कालोए पुक्खरोए सर्वभुरमणे, अवसेसा समुद्दा उस्सण्णं खोतरसा पं० समणाउसो ! | (सू० १८७ ) 'केवइया णमित्यादि कियन्तो भदन्त ! जम्बूद्वीपा द्वीपाः प्रज्ञप्ता: १, जम्बूद्वीपादिनाम्ना कियन्तो द्वीपाः प्रशता इत्यर्थः एवमुक्ते भगवानाह - गौतम! असलेया जम्बूद्वीपा द्वीपाः प्राप्ताः जम्बूद्वीपा इति नाम्नाऽसया द्वीपा इति भावः एवं लवण इति नाम्ना| सोया: समुद्राः, धातकीषण्ड इति नान्नाऽसया द्वीपा:, कालोद इति नाम्रायाः समुद्राः, एवं यावत्सूर्यवरावभास इति नानासश्वेयाः समुद्राः, तथा चाह- 'एवं जाव' इत्यादि, एवं' उक्तेन प्रकारेण तावद्वाच्यं यावदसङ्ख्याः सूर्याः सूर्य इति नाम्रा * विप्रव्यवतारपतितेनेति गम्यते, अरुणादारभ्य देवद्वीपाद सर्वेषामेव त्रिप्रत्यवतारतयाऽनन्तरमेवाभिधानात् समुद्राः प्रज्ञप्ताः ॥ सम्प्रति देवादीनधिकृत्य प्रश्ननिर्वचनसूत्राण्याह- 'कड् णं भंते' इत्यादि, कति भदन्त ! देवद्वीपाः प्रज्ञप्ताः ?, भगवानाह - गौतम ! एको देवद्वीपः प्रज्ञप्तः, एवं दशाप्येते एकाकारा वक्तव्याः, तथा चाह एवं जाब एंगे सयंभूरमणे समुद्दे पनते' इति । 'लवणे णं समुद्दे केरिसए आसाएणं पन्नत्ते ?' इत्यादीनि तु लवणकालोदपुष्करोदवरुणोदक्षीरोदधृतोदक्षोदोदविषयाणि सप्त सूत्राणि स्वयं भा वनीयानि, भावार्थस्य प्रागेवाभिहितत्वात् शेषाः समुद्रा यथा क्षोदोदः समुद्रस्तथा प्रतिपत्तव्याः, नवरं स्वयम्भूरमणसमुद्रो यथा For P&Praise Cly ३ प्रतिपत लवणोदायुदकं उद्देशः २ ~290~ सू० १८७ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - द्वीप - समुद्राधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ॥ १७१ ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१८६-१८७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % % % E प्रत सूत्रांक [१८६-१८७] 2-% 1% पुष्करोदः ।। सम्प्रति ये प्रत्येकरसा ये च प्रकृत्युदकरसास्तान वैविक्त्येनाह-कइ णं भंते! इत्यादि, कति भदन्त ! समुद्राः 'प्रत्येकअरसाः' समुद्रान्तरैः सहासाधारणरसा: प्रज्ञप्ता:?, भगवानाह-गौतम! चत्वारः प्रत्येकरसाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-लवणोदः वरुणोदः क्षी-1 रोदः घृतोदः, न हि लवणो वरुणोदः क्षीरोदो वृतोदो वाऽन्यः समुद्रो यथोक्तरस: समस्ति तत एते चत्वारोऽपि प्रत्येकरसाः ।। 'कइ णमित्यादि, कति भदन्त ! समुद्राः प्रकृल्या उदकरसाः प्रज्ञप्ताः?, भगवानाह-गौतम! त्रयः समुद्राः प्रकृया उदकरसेन प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कालोदः पुष्करोदः स्वयम्भूरगणः, अवशेषाः समुद्राः 'उस्सन्न' बाहुल्येन क्षोदरसाः प्रज्ञप्ताः ।। कति णं भंते! समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पण्णता?, गोयमा तओ समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पण्णत्ता, तंजहा-लवणे कालोए सयंभुरमणे, अवसेसा समुदा अप्पमच्छकच्छमाइण्णा पण्णत्ता समणाउसो! ।। लवणे णं भंते! समुद्दे कति मच्छजातिकुलकोडिजोणीपमुहसयसहस्सा पण्णता?, गोयमा! सत्स मच्छजातिकुलकोडीजोणीसमुहसतसहस्सा पण्णत्ता । कालोए णं भंत! समुद्दे कति मच्छजाति०पण्णत्ता?, गोयमा! नव मच्छजातिकुलकोडीजोणी०॥ सयंभुरमणे णं भंते! समुद्दे, अद्धतेरस मच्छजातिकुलकोडीजोणीपमुहसतसहस्सा पण्णता । लवणे णं भंते समुद्दे मच्छाणं केमहालिया सरीरोगाणा पण्णत्ता गो०?, जहणेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उकोसेणं पंचजोयणसयाई॥ एवं कालोए उ० सत्त जोयणसताई ॥ सयंभूरमणे जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजति उकोसेणं दस जोयणसताई ॥ (सू० १८८) दीप अनुक्रम [३०१-३०२] ~291 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [१८८] दीप अनुक्रम [३०३] श्रीजीवा- 'कइ णं भंते!' इत्यादि, कति भदन्त ! समुद्रा बहुमत्स्यकच्छपाकीर्णा: प्रज्ञमाः ?, भगवानाह-गौतम! त्रयः समुद्राः बहुमत्स्य-16 प्रतिपत्ती जीचाभिकच्छपाकीर्णाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-लवणः कालोदः खयम्भूरमणः, अवशेषाः समुद्रा अल्पमत्स्यकच्छपाकीर्णाः प्रज्ञाः न पुनर्निमत्स्यकमलयगि-18 छपा: प्रज्ञप्ता हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! ॥ सम्प्रवि लवणादिषु मत्स्यकुरकोडिपरिज्ञानार्थमाह-'लवणे णं भंते!' इत्यादि, लवणे मत्स्य करीयावृत्तिः भवन्त ! समुद्रे 'कति' किंप्रमाणानि जातिप्रधानानि कुलानि २ जातिकुलानो कोटयो जातिकुलकोटयः मत्स्यानां जातिकुलकोटयो म च्छपाः पजातिकुलकोटबस्तासा योनिप्रमुखाणि-योनिप्रवाहाणि शतसहस्राणि प्रामानि?, इहैकस्यामपि चोनौ अनेकानि जातिकुलानि म- सू०२८८ ॥३७ वन्ति, यथा एफ.सामेव छगणयोनौ इमिकोटि कुलमिलियाकुलं पृश्चिककुछमित्यादि तत उकं वोनिप्रमुखशतसहनापीति, भगवानाह- द्वीपोद गौतम! सप्त जलमत्स्य जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि, एवं कालोदसूत्र स्वयम्भूरमणसूत्रमपि भावनीयं, नवरं कालोहेमाधिमानं नव गत्यजासिकुल कोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि, खयम्भूरभणसमुद्रेऽत्रयोदश ॥ अधुना लवणादिपु मत्स्यप्रमाणभिधित्मराह- उदेशः २ 'लवणे णं भंते!' इत्यादि, लवणे भदन्त ! समुद्रे मत्स्यानां 'केमहालिका' किंमहती शरीरानगाहना प्रशता?, भगवानाह-गौतम सू० १८९ जधन्येनालासोयभाग उत्कर्पण पञ्च योजनशतानि ॥ एवं कालोदस्वयम्भूरमणसमुद्रविषये अपि सूत्रे भावनीये, नबर कालोदे । उत्कर्षतः सप्त योजनशतानि स्वयम्भूरमणे योजनसहस्रम् ॥ केबतिया णं भंते! दीवसमुद्दा नामधेजेहिं पण्णता?, गोयमा! जावतिया लोगे सुभा णामा सु'भा वपणा जाव सुभा फासा एवंतिया दीवसमुद्दा नामधेजेहिं पपणत्ता ॥ केवतिया णभंत! ।। ३७२।। दीवसमुद्दा उद्धारसमएणं पपणत्ता ?, गोयमा! जावतिया अट्ठाइजाणं सागरोवमाणं उद्धारसमया अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-द्वीप-समुद्राधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम् ~292 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१८९-१९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८९-१९०] दीप अनुक्रम [३०४-३०५] एवतिया दीवसमुद्दा उद्धारसमएणं पन्नत्ता ॥ (सू० १८९) दीवसमुद्दा णं भंते! किं पुढविपरिणामा आउपरिणामा जीवपरिणामा पुग्गलपरिणामा?, गोयमा! पुढविपरिणामावि आउपरिणामावि जीवपरिणामावि पुग्गलपरिणामावि ॥ दीवसमुद्देसु णं भंते! सव्वपाणा सव्वभूया सब्वजीचा सव्वसत्ता पुढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववष्णपुख्या?, हंता! गोयमा! असति अदुवा अर्णतखुत्तो (सू०१९०) इति दीवसमुद्दा समत्ता ॥ 'केवड्या णं भंते!' इत्यादि, कियन्तो भवन्त! द्वीपसमुद्रा नामधेयैः प्राप्ताः ?, यदि नाम समातुमिष्यन्ते तदा कियन्तस्ते | प्रज्ञप्ता इत्यर्थः, इयमत्र भावना-दीकैकेन नानाऽसया द्वीपा असयेया: समुद्राः प्रोच्यन्ते अन्तिमान देवादीन् पञ्च द्वीपान् पञ्च समुद्रान मुक्त्या, ततः सर्वसङ्ख्यया कियन्ति द्वीपसमुद्राणां नामानि ? इति, भगवानाह-गौतम! यावन्ति लोके सामान्यत: 'शुभानि नामानि शङ्खचक्रस्वस्तिककलशश्रीवत्सादीनि 'शुभा वर्णाः शुभा गन्धाः शुभा रसाः शुभाः स्पर्शाः' शुभवर्णनामानि शुभगन्धनामानि शुभरसनामानि शुभस्पर्शनामानि, पतावन्तो द्वीपसमुद्रा नामधेयैः प्रज्ञप्ताः, एतावन्ति द्वीपसमुद्राणां नामधेयानीति भावः ।।। सम्प्रत्युद्धारसागरोपमप्रमाणतो द्वीपसमुद्रपरिमाणमाह-केवइया णं भंते! इत्यादि, कियन्तो भदन्त! द्वीपसमुद्राः 'उद्धारेण' - | द्वारपल्योपमसागरोपमप्रमाणेन प्रज्ञप्ता: १, भगवानाह-हे गौतम! यावन्तोऽर्द्धतृतीयानामुद्धारसागरोपमाणां उद्धारसमया:-एकैकेन(क) सूक्ष्मवालाप्रापहारसमचा एतावन्तो द्वीपसमुद्रा उद्धारेण प्रज्ञप्ताः, उक्त च-"उद्धारसागराणं अट्टाइजाण जत्तिया समया । दुगुणादुगुणपवित्थर दीवोदहि रजु एवइया |॥१॥"'दीवसमुद्दा णं भंते !' इत्यादि । द्वीपसमुद्रा णमिति पूर्ववत् भदन्त ! किं पृथिवीपरि जी०६३ JaEcont % ~293 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------उद्देशक: [(द्वीप-समुद्र)], --------------------- मूलं [१८९-१९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८९ श्रीजीवा- जीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ३ प्रतिपत्ती पुद्गलपरिणाम: उद्देशः२ सू०१९१ -१९०] दीप अनुक्रम [३०४-३०५] णामा अप्परिणामा जीवपरिणामाः पुदलपरिणामाः १, भगवानाह-गौतम! पृथिवीपरिणामा अपि अप्परिणामा अपि जीवपरिणामा अपि पुद्गल परिणामा अपि, पृथ्व्यन्जीवपुदलपरिणामात्मकत्वात्सर्वंद्वीपसमुद्राणाम् ॥ 'दीवसमुद्देसु णं भंते ! सबपाणा सधभूया' इत्यादि, द्वीपसमुद्रेषु णमिति पूर्ववत् सर्वेष्वपि गम्यते भदन्त! सर्वे 'प्राणाः' द्वीन्द्रियादयः सर्वे 'भूताः' तरवः सर्वे 'जीवा' पञ्चेन्द्रियाः सर्वे 'सत्वाः' पृथिव्यावयः उत्पन्नपूर्वाः?, भगवानाह-गौतम! असकृदुत्पन्नपूर्वा अथवाऽनन्तकृत्वः, सर्वेषामपि सांव्यवहारिफराश्यन्तर्गतानां जीवानां सर्वेषु स्थानेषु प्रायोऽनन्तश उत्पादात् ।। तदेवं द्वीपसमुद्रवक्तव्यता गता ।। सम्प्रति द्वीपसमुद्राणां पुद्गलप- [रिणामलात् तेषां च पुगलानां विशिष्टपरिणामपरिणतानामिन्द्रियमाझलादिन्द्रियविषयपुगलपरिणाममाह कतिविहे गं भंते इंदियधिसए पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते?, गोयमा! पंचविहे इंदियविसए पोग्गलपरिणामे पण्णसे, तंजहा-सोतिंदियविसए जाव फासिंदियविसए । सोतेंदियविसए णं भंते! पोग्गलपरिणामे कतिविहे पण्णसे?, गोयमा! दुबिहे पण्णत्ते, तंजहा-सुभिसहपरिणामे य दुन्भिसहपरिणामे य, एवं चक्विदियविसयादिएहिवि सुरूवपरिणामे य दुरूवपरिणामे य । एवं सुरभिगंधपरिणामे य दुरभिगंधपरिणामे य, एवं सुरसपरिणामे य दूरसपरिणामे य, एवं १ यद्यपि मात्र तृतीयप्रतिपत्तिसमाप्तिानी किंचित् तथापि अने ज्योतिकवत्तव्यतापूत्तौं चतुर्थप्रतिपत्ती ज्योतिष्क उद्देशक इति पैमानिकाधिकारसपूती । च चतुर्थप्रतिपत्ती वैमानिकालय उद्देशक इति च सूचनात् गम्यते यदुत अन्न तृतीयप्रतिपत्तिः समाप्ता, यद्वा तत्र चतुर्विधानां प्रतिपरिर्या सा चतुर्थप्रतिपत्तिरिति व्याख्येयं, यतः प्रतिपादयिष्यति तदनन्तरं पञ्चविधजीवप्रतिपादनमथ्यात्रनुयाः प्रतिपत्तेरारम्भ, अभ्यद्वोधम बिरोधि कारण सुधीभिः । ॥३७३॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-इन्द्रियविषयाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् तृतीय-प्रतिपत्तौ द्वीप-समुद्राधिकार: परिसमाप्त: अथ इन्द्रियविषयाधिकारः आरब्ध: ~294 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(इन्द्रियविषयाधिकार)], --------------------- मूलं [१९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 24.COM [१९१] सुफासपरिणामे य दुफासपरिणामे य ॥ से नूर्ण भंते! उच्चावएसु सहपरिणामेसु उच्चाबएसु रूबपरिणामेसु एवं गंधपरिणामेसु रसपरिणामेसु फासपरिणामेसु परिणममाणा पोग्गला परिणमतीति बत्सवं सिया?, हंता गोयमा! उच्चावएसु सहपरिणामेसु परिणममाणा पोग्गला परिणमंतिसि वत्तब्वं सिया, से गुणं भंते! सुन्भिसद्दा पोग्गला दुन्भिसत्ताए परिणमंति तुभिसहा पोग्गला सुब्भिसत्ताए परिणमंति?, हंता गोयमा! सुम्भिसद्दा दुब्भिसहत्ताए परिणमंति दुन्भिसद्दा सुन्भिसहत्ताए परिणमंति, से पूर्ण भंते ! सुरुवा पुग्गला दूरूवत्ताए परिणमंति दुरूवा पुग्गला सुरूवत्ताए०१, हंता गोयमा०!, एवं सुब्भिगंधा पोग्गला दुन्भिगंधत्ताए परिणमंति दुम्मिगंधा पोग्गला सुम्भिगंधत्ताए परिणमंति?, हंता गोयमा०1 एवं सुफासा दुफास ताए, सुरसा दूरसत्ताए०१, हंता गोयमा ! ।। (सू०१९१) 'कइविहे णं भंते !' इत्यादि, कतिविधो भदन्त ! इन्द्रियविषयः पुद्गलपरिणामः प्रज्ञमः, भगवानाह-गौतम ! पञ्चविध इन्द्रियविषयः पुद्गलपरिणामः प्राप्तः, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियविषय इत्यादि सुगम, 'सुम्भिसद्दपरिणाम' इति शुभः शब्दपरिणामः 'दुब्भिसदपरिणामे' इति अशुभ: शब्दपरिणामः ॥ 'से गुणं भंते !' इत्यादि, अथ 'नूनं निश्चितमेतद् भदन्त ! 'उच्चावचैः' उत्तमाधमैः | शब्दपरिणामैयोवस्पर्शपरिणामैः परिणमन्त: पुद्गलाः परिणमन्तीति वक्तव्यं स्यात् ?, परिणमन्तीति ते वक्तव्या भवेयुरित्यर्थः, भगवा-10 नाह-'हन्ता गोयमा!' इत्यादि, हन्तेति प्रत्यवधारणे स्वादेव वक्तव्यमिति भावः, परिणामस्य यथावस्थितस्य भावात् , तथा तथा दीप अनुक्रम [३०६] -09 ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(इन्द्रियविषयाधिकार)], --------------------- मूलं [१९१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९१] न्धनं च दीप अनुक्रम [३०६] श्रीजीवा- द्रव्यक्षेत्रादिसामग्रीवशतस्तत्तद्रूपास्कन्दनं हि परिणामः, स च तत्रास्तीति न कश्चित्तथाऽभिधाने दोपः ॥ से पूर्ण भंते!' इत्यादि, प्रतिपत्ती जीवाभि अथ 'नून' निश्चितमेतद् भदन्त ! 'शुभशब्दाः ' शुभशब्दरूपाः पुद्गला अशुभशब्दतया परिणमन्ति अशुभशब्दा वा पुद्गला: शुभश-18| देवकृतः मलयगि-दाव्दतया?, भगवानाह-दन्त गौतम! इत्यादि सुप्रतीतं, एतेन सान्वयं परिणाममाह, अन्यथा तद्यो(दयो) गादसत: सत्ताऽनुपपत्तेररीयावृत्तिः शातिप्रसङ्गात् ।। एवं रूपरसगन्धस्पर्शेष्वयात्मीयात्मीयाभिलापेन द्वी द्वाबालापको वक्तग्यो ।। बालग्रदेवे णं भंते! महिहीए जाव महाणुभागे पुब्बामेव पोग्गलं खवित्ता पभू तमेव अणुपरिवहिताणं ॥ ३७४॥ गिणिहत्तए?, हंता पभू, से केणढे णं भंते ! एवं चुचति-देवे णं महिड्डीए जाय गिपिहत्तए?, गो उद्देशः२ यमा! पोग्गले खित्ते समाणे पुब्बामेव सिग्घगती भवित्ता तओ पच्छा मंदगती भवति. देवेणं सू.१९२ महिहीए जाव महाणुभागे पुब्बंपि पच्छावि सीहे सीहगती (तुरिए तुरियगती) चेव से तेणटेणं गोयमा! एवं बुञ्चति जाव एवं अणुपरियट्टित्ताणं गेपिहराए । देवे णं भंते! महिहीए बाहिरए पोगले अपरियाइत्ता पुब्बामेव बाल अच्छित्ता अभेत्ता प गंठित्तए?, मो इणढे समढे १, देवे णं भंते ! महिहिए वाहिरए पुग्गले अपरियाइत्ता पुब्बामेव बालं छित्ता भित्ता पभू गंठित्तए?, नो इणढे समढे २, देवे णं भंते! महिहीए वाहिरए पुग्गले परियाइत्ता पुवामेव बालं अच्छित्ता अभित्ता पभू गंठित्तए ?, मो इणढे समढे ३, देवे णं भंते ! महिड्डीए जाव महाणुभागे बाहिरे पोग्गले परियाइत्ता पुण्यामेव बाल छेत्ता भेत्ता पभू गंठित्तए?, हंता पभू ४,तं चेवणं गठिं छउमत्थे ण जाणति ॥३७४। II.KI अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-देवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् तृतीय-प्रतिपत्तौ इन्द्रियविषयाधिकार: परिसमाप्त: अथ देवाधिकारः आरब्ध: ~296~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(देवाधिकार)], --------------------- मूलं [१९२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९२] ण पासति एवंमुहमं च ण गढिया ३, देवेण भंते! महिहीए पुब्बामेव यालं अच्छेत्ता अभेत्ता पभू दीहिकरित्तए वा हस्सीकरित्तए वा?, नो तिणट्टे समढे ४, एवं चत्तारिवि गमा, पढमविइयभंगेसु अपरियाइत्ता एगंतरियगा अच्छेसा अभेत्ता, सेसं तहेव, तं चेव सिद्धिं छउमत्थे ण जाणति ण पासति एमुहम च णं दीहिकरेज वा हस्सीकरेज वा ॥ (सू०१९२) 31 'देवेणं भंते!' इत्यादि, देवो भदन्त ! महद्धिकः यावत्कारणात् महायुतिको महावलो महायशा महानुभाग इति परिग्रहः।४ दएषां व्याख्यानं पूर्ववत्, पूर्वमेव 'पुद्गलं' लेट्वादिकं प्रयत्नेनेति गम्यते हित्वा 'प्रभुः' समर्थस्तमेव पुद्गलं क्षिप्तं भूमावपतितं सन्तम् 'अनुपरिवर्त्य' प्रादक्षिण्येन परिभ्रम्य ग्रहीतुम्?, भगवानाह-हन्त ! प्रभुः, देवस्य प्रभूतशक्तिकत्वात् ।। एतदेव जिशासिषुः पृच्छति 31-'से केणतुणं भंते !' इत्यादि, (प्रभसूत्रं सुगम) भगवानाह-गौतम! पुद्गलः क्षिप्तः सन् पूर्वमेव शीघ्रगतिर्भवति प्रयत्नजनितसंदस्कारस्यातितीव्रखात्, पश्चान्मन्दगतिः संस्कारस्व मन्दमन्दतया भवनात्, देवः पुनः पूर्वमपि पश्चादपि च शीघ्र उत्साह विशेषेण शीघ्रगति: साक्षाच्छीधगमनेन, एतदेव व्याचष्टे-त्वरितस्त्वरितगतिर्भवतीति, 'से एएणटेण नित्याग्रुपसंहारवाक्यं गतार्थम् ॥ 'देवे भंते!' इत्यादि, देवो भदन्त ! महर्द्धिको यावन्महानुभागो बायान् पुद्गलान् 'अपर्यादाय' अगृहीला बालं अच्छिस्वा अभित्त्वा दतवस्यमेव सन्तमिति भावः तच्छरीरस्य मनागपि विक्रियामनापायेति तात्पर्यार्थः प्रभुः 'ग्रन्थयितुं' दृढबन्धनबद्धीकर्तुम् ?, भगवा नाह-नायमर्थः समर्थः, बाह्यपुद्गलानादानेन तच्छरीरस्य मनागपि विक्रियानापादने बन्धनस्य कर्तुमशक्यत्वात् , एतेन देवोऽप्यनिव४ाधनां क्रियां न करोति, विशिष्टसामध्यस्यापि नियन्धनविषयत्वादित्यावेदितं । द्वितीयसूत्रे बालं छित्त्वा भित्त्वेति विशेषः, शेषं तथैव, दीप अनुक्रम [३०७] Fe ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(देवाधिकार)], --------------------- मूलं [१९२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९२] श्रीजीवा- जीवाभि० मलयगिरौयावृत्तिः ॥ ३७५॥ दीप अनुक्रम [३०७] 3%25433 अत्रापि प्रथयितुमशक्ति: उभवकारणजन्यस्य कार्यस्यैकतरस्यापि कारणस्याभावेऽभावात् । तृतीयसूत्रे बाह्यान् पुद्गलान् पर्यादाय बाल- प्रतिपत्ती मच्छित्त्वाऽभित्वेति विशेषः । चतुर्थे बाह्यान् पुद्गलानादाय बालं छित्त्वा भित्त्येति विशेषः, अत्र प्रथयितुं प्रभुरिति वक्तव्यं, कारण-15 चन्द्रादेर| सामन्यस्य सम्भवात् , तप पन्धि छयस्थो मनुष्यो न जानाति न पश्यति, किमुक्तं भवति ।-स बालोऽन्यो वा तटस्थः पुरुषोऽन-IN धासमोपतिशयी न जानाति ज्ञानेन न पश्यति चक्षुषा 'एवं खलु सुहमं च णं गढेजा' एवं खलु सूक्ष्मं देवो प्रथयेत् ॥ एवं बालदीर्घइस्वीक- रिताराः रणविषयाण्यपि चखारि सूत्राणि भावनीयानि नवरं तं च णं सिद्धि'मिति, ता-जस्वीकरणसिविं दीर्धीकरणसिद्धिं वा, शेष प्रतीतम् ॥ देवसामर्थ्य प्रत्यासत्यैव ज्योतिष्कावधिकृत्याह | ग्रहादिप अस्थि णं भंते! चंदिमसूरियाणं हिटिपि तारारूवा अ[पि तुल्लावि समंपि तारारूवा अणुंपि रिवार तुल्लावि उम्पिपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि?, हंता अस्थि, से केणटेणं भंते! एवं बुचति- उद्देशः२ अस्थि णं चंदिमसूरियाणं जाव उम्पिपि तारारूवा अणुंपि तुल्लावि?, गोयमा! जहा जहा णं तेसिं देवाणं तवनियमबंभचेरवासाई [उक्कडाई] उस्सियाई भवंति तहा तहा णं तेर्सि देवाणं एवं पण्णायति अणुत्ते वा तुल्लत्ते वा, से एएणडेणं गोयमा! अस्थि णं चंदिममूरियाणं उप्पिपि तारारूवा अणुंपि तुल्हाधि० ॥ (सू०१९३) एगमेगस्स णं चंदिमसूरियस्स-अट्ठासीतिं च गहा ॥३७५॥ अट्ठावीसं च होइ नक्खत्ता । एगससीपरिवारो एत्तो ताराण चोच्छामि ॥१॥ छावट्ठिसहस्साईणव चेव सयाई पंचसयराई। एगससीपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं ॥२॥ (सू०१९४) सू०१९४ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ज्योतिष्कदेवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- २' अत्र २ इति निरर्थकम् तृतीय-प्रतिपत्तौ देवाधिकार: परिसमाप्त: अथ ज्योतिष्क-उद्देशक: आरब्ध: ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ------------------- उद्देशकः [(ज्योतिष्क)], ------------------ मूलं [१९३-१९४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९३ -१९४] गाथा: 'अस्थि णं भंते! चंदिमसूरियाण'मित्यादि, अस्ति भदन्त ! चन्द्रसूर्याणां सामान्यतो बहुवचनं, हिडिपि-क्षेत्रापेक्षयाऽधस्सना अपि 'तारारूपाः' तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवा युतिविभवलेश्यादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि हीना अपीत्यर्थः, केचित्तुल्या अपि, तथा स-12 ममपि चन्द्रविमानः सूर्यविमानैश्च क्षेत्रापेक्षया सगण्यपि व्यवस्थितास्तारारूपाः देवा: लाश्चन्द्रसूर्याणां देवानां द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य केचिदणयोऽपि केषितुल्या अपि तथा चन्द्रविमानानां सूर्यविमानानां चोपर्यपि ये व्यवस्थितास्तारारूपा देवास्तेऽपि चन्द्रसूर्याणां देवाना गुतिविभवादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि केचितुल्या अपि ?, भगवानाह-'हन्ता अस्थि' यदेतत्वया पृष्टं तत्सर्व तथैवास्ति ।। एवमुक्त पुनः प्रभवति-से केणटेणं भंते ! एवं वुञ्चति अस्थि णं चंदिमसूरियाण'मित्यादि, भगवानाह-गौतम! 'जहा जहा ण'मित्यादि, यथा यथा णमिति वाक्यालङ्कारे तेषां देवानां-तारारूपविमानाधिष्ठातृणां प्राग्भवे तपोनियमब्रह्मचर्याणि 'उत्सृतानि' उत्कृष्टानि भवन्ति, तत्र तपो-नमस्कारसहितादि नियमस्तु-अहिंसादि ब्रह्मचर्य-वस्तिनिरोधादि उत्सृतानीत्युपलक्षणं तेन वथा यथाऽनुत्सृतान्यपि द्रष्टव्यं, अन्यथाऽणु खायोगात् , तथा तथा तेषां देवानां तस्मिन् तारारूपविमानाधिष्ठातृभने एतं प्रज्ञायते, तद्यथा-अणुत्वं तुल्यलं चेति, 'से| एएणद्वेण मित्यादि, किमुक्तं भवति-कैः प्राग्भवे तपोनियमनहाचर्याणि मन्दानि कृतानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातृदेवभवमनुप्राप्राश्चन्द्रसूर्येभ्यो देवेभ्यो द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य हीना भवन्ति, यैस्तु भवान्तरे सपोनियमब्रह्मचर्याणि अत्युत्कटान्यासेवितानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातरूपं देवभवमनुप्राप्ता गुतिविभवादिकमपेक्ष्य चन्द्रसूर्यदेवैः सह समाना भवन्ति, न चैतदनुपपन्न, दृश्यन्ते हि | मनुष्यलोके केचित् जन्मान्तरोपचिततथाविधपुण्यप्रारभारा राजत्वमप्राप्ता अपि राज्ञा सह तुल्यविभवा इति ॥ 'एगमेगस्त णं भंते ! चंदिमसूरियस्से'त्यादि, एकैकस्य भदन्त! चन्द्रसूर्यस्थ, अनेन च पदेन यथा नक्षत्रादीनां चन्द्रः स्वामी तथा सूर्योऽपि, तस्यापी दीप अनुक्रम [३०८-३११] ~299 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ------------------- उद्देशक: (ज्योतिष्क)], ------------------ मूलं [१९३-१९४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९३ -१९४] गाथा: श्रीजीवा- न्द्रत्वाद् (ते) युति ख्यापयन्ति, कियन्ति नक्षत्राणि परिवार: प्रज्ञप्तः ?, कियन्तो महाप्रहा-अङ्गारकादयः परिवारः प्रज्ञप्तः, कियत्यस्ता-18 प्रतिपत्ती जीवाभि रागणकोटीकोट्यः परिवार: प्रज्ञप्तः ?, इह भूयान पुस्तकेषु वाचनाभेदो गलितानि च सूत्राणि बहुषु पुस्तकेषु ततो यथाऽवस्थितबा-16 मेरुलोकामख्यगि- चनाभेदप्रतिपत्त्यर्थ गलितसूत्रोद्धरणाथै चैवं सुगमान्यपि वित्रियन्ते, भगवानाइ-गौतम! एकैकस्य चन्द्रसूर्यस्याष्टाविंशतिनक्षत्राणि || न्तपरस्परीयावृत्तिः परिवारः प्राप्तः, अष्टाशीतिर्महाग्रहाः परिवार: प्रज्ञप्तः । 'छावद्विसहस्साई इति गाथा, षट्षष्टिः सहस्राणि नव चैव शतानि पञ्च-18 | रावाधा दसप्तानि एकशशिपरिवारखारागणकाटीकोटीनां, कोटीकोटीति कोट्या एव सब्जा, ततस्तारागणकोटीनामिति द्रष्टव्यम् ।। ॥३७६॥ उद्देश. जंबूदीवे ण भंते! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ केवतियं अबाधाए जो सू० १९५ तिसं चार चरति?, गोयमा! एक्कारसहिं एकवीसेहिं जोयणसएहिं अबाधाए जोतिसं चारं चरति, एवं दक्खिणिल्लाओ पञ्चस्थिमिल्लाओ उत्तरिल्लाओ एक्षारसहि एकवीसेहिं जोयण जाव चारं चरति ॥ लोगताओ भंते! केवतियं अयाधाए जोतिसे पण्णत्ते?, गोयमा! एकारसहिं एकारेहिं जोयणसतेहिं अबाधाए जोतिसे पण्णत्ते । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ केवतियं अवाहाए सब्बहेडिल्ले तारारूवे चारं चरति? केवतियं अयाधाए सूरविमाणे चारं चरति? केवतियं अबाधाए चंदविमाणे चारं चरति ? केवतियं अवा ॥३७६॥ धाए सव्वउचरिल्ले तारारूचे चारं चरति?, गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढचीए बहसमरमणि सत्तहिं णउएहिं जोयणसतेहिं अवाहाए जोतिसं (सव्व) हेडिल्ले तारारूवे चारं चरति, अहिं दीप SCRENCESO CAKACT अनुक्रम [३०८-३११] Ekcmanish अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ज्योतिष्कदेवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम्, ~300 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [१९५-१९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 560 [१९५ -१९६] जोयणसतेहिं अबाधाए सूरविमाणे चारं चरति, अट्टहिं असीएहिं जोयणसतेहिं अबाधाए चंदविमाणे चारं चरति, नवहिं जोयणसएहिं अवाहाए सव्वउवरिल्ले तारारूवे चारं चरति ॥ सव्यहेडिमिल्लाओ णं भंते! तारारुवाओ केवतियं अबाहाए सूरविमाणे चारं चरइ? केवइयं अवाहाए चंदविमाणे चारं चरइ? केवतियं अवाहाए सब्वउवरिल्ले तारारूवे चारं चरह?, गोयमा! सब्बहेडिल्लाओ णं दसहिं जोयणेहिं सूरविमाणे चारं चरति उतीए जोयणेहिं अवाधाए चंदविमाणे चारं चरति दसुत्तरे जोयणसते अवाधाए सव्वोपरिल्ले तारारूवे चारं चरइ॥ सूरविमाणाओ णं भंते! केवतियं अबाधाए चंदविमाणे चारं चरति ? केवतियं सब्ववरिल्ले तारारूवे चारं चरति?, गोयमा! सूरविमाणाओणं असीए जोयणेहिं चंदविमाणे चारं चरति, जोयणसय अबाधाए सम्बोवरिल्ले तारारूचे चारं चरति ॥ चंदविमाणाओ णं भंते! केवतिय अबाधाए सब्बउबरिल्ले तारारूचे चारं चरति?, गोयमा! चंदविमाणाओ र्ण वीसाए जोयणेहिं अबाधाए सब्बउवरिल्ले तारारूवे चारं चरह, एवामेव सपुब्बावरेर्ण दसुत्तरसतजोयणवाहल्ले तिरियमसंखेजे जोतिसविसए पण्णत्ते ॥ (सू०११५) जंबूदीवे णं भंते ! कयरे णक्खत्ते सव्वभितरिल्लं चार चरंति? कयरे नक्खत्ते सव्वयाहिरिल्लं चारं चरइ? कयरे नक्खत्ते सव्वउवरिल्लं चार चरति ? कयरे नक्खत्ते सव्वहिडिल्लं चारं चरति ?, गोयमा! जंबूदीवे णं दीवे अभी दीप अनुक्रम [३१२-३१३] *CESCAPRICASA ~ 301 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१९५ -१९६] दीप अनुक्रम [३१२- -३१३] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [३], ------- उद्देशक: [ ( ज्योतिष्क)], - मूलं [१९५-१९६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीघा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३७७ ॥ Un desten Inte इन सव्वभितरिलं चारं चरति मूले णक्खत्ते सव्यबाहिरिलं चारं चरड़ साती णक्खते सोवरलं चारं चरति भरणीणक्खत्ते सव्वहेट्ठिल्लं चारं चरति । (सू० १९६ ) 'जंबूदीवे ण' भित्यादि' जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य सकलवियैग्लोकमध्यवर्त्तिनं कियत्क्षेत्रमवाधया सर्वतः कृत्वा 'ज्योतिषं ' ज्योतिश्चक्रं 'चारं चरति मण्डलला परिभ्रमति १, भगवानाह - गौतम! एकादश योजनशतानि 'एकविंशानि' एकविंशत्यधिकानि अवाधया ज्योतिषं चारं चरति, किमुक्कं भवति ? - मेरोः सर्वत एकादश योजनशतान्येकविंशत्यधिकानि मुक्ला तदनन्तरं चक्रवालतथा ज्योतिश्चकं चारं चरति । 'लोगंताओ णं भंते!' इत्यादि, लोकान्तादवग् णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! कियत्क्षेत्रमबाधया अपान्तराले कृत्वा ज्योतिषं प्रशप्तम् ?, भगवानाह गीतम! एकादश योजनशतानि 'एकादशानि' एकादशोत्तराण्यबाधया कृत्वा ज्योतिषं प्रज्ञतम् || 'इमीसे णं भंते!' इत्यादि, 'अस्य' यत्र वयं व्यवस्थिता रत्नप्रभायां पृथिव्यां बहुसमरमणीयात् भूमिभागात् आरभ्य कियद्वाधया कृत्वाऽधस्तनं तारारूपं ज्योतिषं चारं चरति ?, कियदवाधया कृत्वा सूर्यविमानं चारं चरति ?, कियदबाधया कृत्वा चन्द्रविमानं कियद्याधया कृलोपरितनं तारारूपं ज्योतिषं चारं चरति ?, भगवानाह गौतम ! सप्त योजनशतानि नवत्यधिकान्यबाधया कृत्वाऽधस्तनं तारारूपं चारं चरति, अष्ट योजनशतान्यवाधया कृत्वा सूर्यविमानं, अष्टौ योजनशतान्यशीतान्यबाधया कृत्वा चन्द्रविमानं, नव योजनशतानि पूर्णान्यवाधया कृत्वोपरितनं तारारूपं ज्योतिषं चारं चरति । (सन्ध) ढिल्लाओ णं भंते!" इत्यादि, अधाना भदन्त ! तारारूपात् कियदबाधया कृत्वा सूर्यविमानं चारं चरति ? कियदवाधया कृत्वा चन्द्रविमानं चारं चरति १ कियदबाधयोपरितनं तारारूपम् १, भगवानाह - गौतम ! दश योजनान्ययाधया कृत्वा सूर्यविमानं चारं चरति, तत एवाधस्वनातारा For P&Pal Use Chil प्रतिपत्ती अन्तर्वा ह्योपर्यध स्तनास्ता - राम ~302~ उद्देशः २ सू० १९६ ॥ ३७७ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - ज्योतिष्कदेवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम्, Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [१९५-१९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९५ -१९६] रूपान्नवति योजनान्यबाधया कला चन्द्रविमानं तत एवाधस्तनात्तारारूपाद्दशोत्तरं योजनशतमवाधया कृलोपरितनं तारारूपं ज्योतिष चारं चरति ।। 'सुरविमाणाओ णं भंते!' इत्यादि, सूर्यविमानाद् भदन्त ! कियवाधया कृत्वा चन्द्रविमान चारं चरति ?, कियवाधयोपरितनं तारारूपम् ?, भगवानाह-गौतम ! अशीति योजनान्यबाधया कृत्वा चन्द्रविमानं चारं चरति, तत एव सूर्यविमानायोजनशतमबाधया कृत्योपरितनं तारारूपम् ।। 'चंदविमाणाओ णं भंते !' इत्यादि, चन्द्रविमानादन्त ! कियवाधया कृषोपरि नं तारारूपं चार चरति ?, भगवानाह-गौतम! विंशतियोजनान्यवाधया कृलोपरितनं तारारूपं चारं चरति ॥ 'जंबूदीवे गं| |भंते ।.इत्यादि, जम्बूद्वीपे भवन्त ! द्वीपे कतरत् , 'बहूनां प्रो डतमधे ति बहूनामपि निर्धायें उतरः, नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तर-सर्वेषाम न्येषा नक्षत्राणामभ्यन्तरं 'चार मण्डलगत्या परिभ्रमणं चरति ?, कतरत् नक्षत्रं 'सर्ववाद्य' सर्वेषां नक्षत्राणां बहिर्वतिनं चारं 'चआरति प्रतिपद्यते ?, कतरत् नक्षत्रं 'सर्वोपरितनं सर्वेषां नक्षत्राणामुपरितनं चारं चरति !, कतरन नक्षत्रं सर्वाधस्तनं चार चरति ?, भगवानाह-गौतम! अभिजिनक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरं चारं चरति, मूल: पुनर्नक्षत्र सर्वबाह्यं चार चरति, खातिर्नक्षत्र सर्वोपरितनं चारं चरति, भरणीनक्षत्रं सर्वाधस्तनं चार चरति, उक्तञ्च-"सब्बाभितरऽभीई मूलो पुण सम्वबाहिरो होइ । सम्बोवरिं तु साई भरणी पुण सव्वहेहिलिया ॥१॥" चंदविमाणे णं भंते ! किंसंहिते पण्णते?, गोयमा! अद्धकविट्ठगसंठाणसंठिते सव्वफालितामए अन्भुगतमूसितपहसिते घण्णओ, एवं सूरविमाणेवि नक्खत्तविमाणेवि ताराविमाणेवि अद्धकविट्ठसंठाणसंठिते ॥ चंदविमाणे णं भंते! केवतियं आयामविखंभेणं ? केवतियं परिक्खेवेणं ? दीप अनुक्रम [३१२-३१३] ~303 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१९७] दीप अनुक्रम [३१४] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [ ३ ], ----- उद्देशकः [(ज्योतिष्क)], • मूलं [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३७८ ॥ Ja min hari बाणं पण्णत्ते?, गोयमा ! छप्पन्ने एगसद्विभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अट्ठावीसं एगसद्विभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते ॥ सूरविमाणसवि सचैव पुच्छा, गोयमा ! अडयालीसं एगसट्टिभागे जोयणस्स आयामविक्रमेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं चउवीस एगसट्टिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पन्नते ॥ एवं गहविमावि अद्धजोयणं आयामधिक्खंभेणं सविसेसं परि० कोर्स बाहल्लेणं ॥ णक्खत्तविमाणेणं कोसं आयामविक्रमेणं तं तिगुणं सविसेसं परि० अद्धको बाहल्लेणं प० ताराविमाणे अद्धकोसं आयामचिक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परि० पंचधणुसवाई बाहल्लेणं पण्णत्ते ॥ (सू० १९७) 'चंदविमाणे णं भंते!' इत्यादि, चन्द्रविमानं भदन्त ! 'किंसंस्थितं' किमिव संस्थितं २ प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह - गौतम! 'अर्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितम्' उत्तानीकृतमर्द्धकपित्थं तस्येव यत् संस्थानं तेन संस्थितमर्द्ध कपित्थसंस्थानसंस्थितं, आह-यदि चन्द्रविमानमुत्तानीकृतार्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितं तत उदयकालेऽस्तमयकाले वा यदिवा तिर्यक् परिभ्रमत् पौर्णमास्यां कस्मात्तदर्द्ध कपित्थफलाकारं नोपलभ्यते ?, कामं शिरस उपरि वर्त्तमानं वर्तुलमुपलभ्यते, अर्द्धकपित्थस्त्र शिरस उपरि दूरमवस्थापितस्य परभागादर्शनतो वर्चुल तथा दृश्यमानत्वात् उच्यते, इहार्द्धकपित्थफलाकारं चन्द्रविभानं न सामस्त्येन प्रतिपत्तव्यं, किन्तु तस्य विमानस्य पीठं, तस्य च पीठस्योपरि चन्द्रदेवस्य - ज्योतिश्चक्रराजस्य प्रासादः, स च प्रासादखथा कथञ्चनापि व्यवस्थितो यथा पीठेन सह भूयान् वर्तुल आ कारो भवति, स च दूरभावादेकान्ततः समवृत्ततया जनानां प्रतिभासते ततो न कश्चिद्दोषः, न चैतत् स्वमनीषिकाया विजृम्भितं, For P&Praise Cnly ३ प्रतिपत्तौ चन्द्रादिसंस्थाना | यामादि उद्देशः सू० १९७ ~304~ ॥ ३७८ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - ज्योतिष्कदेवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम्, Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९७] दीप अनुक्रम [३१४] यत एतदेव जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन विशेषणवत्यामाक्षेपपुरस्सरमुक्तम्-"अद्धकविट्ठागारा उदयस्थमणमि कह न दीसंति । ससिसूराण विमाणा सिरियक्खेत्ते ठियाणं च ॥ १॥ उत्ताणकविट्ठागारं पीढं तदुवरिं च पासाओ। वट्टालेखेण ततो समवर्ट दूरभावादो ॥ २॥” तथा सर्व-निरवशेष स्फटिकविशेषमणिमयं सर्थस्फटिकमयं तथाऽभ्युद्गता-आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उस्मृता:-प्रबलत्या सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा तथा सितं अभ्युद्गतोत्सृतप्रभासितं, यावत्करणात् 'विविहमणिरयणभत्तिचित्ते वाउद्धयविजयवेजयन्तीपडागछत्तातिछत्तकलिए तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे जालंतररयणपंजलोम्मीलियमणिकणगथूभियागे वियसियसयवत्तपुंडरीवतिलगरयणवचंदचित्ते अंतो बहिं च सण्हे तयणिजवालुयापत्थडे सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासाईए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवें' इति, तत्र विविधा-अनेकप्रकारा मणय:-चन्द्रकान्तादयो रत्नानि च-कतनादीनि तेषां भक्कयो-विच्छित्तिविशेषास्ताभिश्चित्रं-अनेकरूपबद् आश्चर्यवद्वा विविधमणिरत्नभक्तिचित्रं, तथा वातोद्भूता-वायुकम्पिता विजयः-अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्त्यभिधानाः पताका विजयबैजयन्त्यः, अथवा विजया इति वैजयन्तीनां पार्थकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्यो विजयवैजयन्य:पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः, छत्रातिच्छत्राणि-उपर्युपरिस्थितातपत्राणि : कलितं वावोद्भुतविजयवेजयन्तीपताकाकलितं तुज-उचम् अत एव 'गगणतलमणुलिहंतसिहर' गगनतळमनुलिखवू-अभिलङ्घयद् गगनतलानुलिखच्छिखरं, तथा जालानि-जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि यत्र तजालान्तररलं, 'सूत्रे चात्र प्रथमैकवचनलोपो द्रष्टव्यः, तथा पजरा उन्मीलितमिव-बहिष्कृतमिव पजरोन्मीलितमिव, यथा हि किल किमपि वस्तु पजराद्-वंशादिमयमच्छावनविशेषाद् बहिस्कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायखात् शोभते तथा सदपि विमानमिति भावः, तथा मणिकनकानां सम्बन्धिनी स्तूपिका जी०६४ ~305 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवा- जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः प्रतिपसी चन्द्रादिसंस्थानायामादि उद्देशः२ सू०१९७ [१९७ दीप अनुक्रम [३१४] शिखरं यस्य वत् मणिकनकस्तूरिकाकं, तभा विकसितानि यानि शवपत्राषि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतिलेन स्थितानि तिल- काश्च-मित्यादिषु पुण्ड्राणि रत्नमयाचार्द्धचन्द्रा द्वारादिपु तैभित्रं विकसितशतपनपुण्डरीकतिलकरत्नाईचन्द्रचित्रम् , 'अंतो बहिं च सण्हे इत्यादि अञ्चनपर्वतोपरिसिद्धायतनद्वारवत् , 'एवं सूरविमाणेवी'त्यादि, एवं-चन्द्रविमानमिव सूर्यविमानमपि वक्तव्यं महविमानमपि | नक्षत्रविमानमपि ताराविमानमपि, ज्योतिर्विमानानां प्राय एकरूपलात् ॥'चंदविमाणे णं भंते ! इत्यादि, चन्द्रविमानं भदन्त ! किय- दायामविष्कम्भेन कियत्परिक्षेपेण कियाहल्येन प्राप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! पट्पञ्चाशतमेकषष्ठिभागान् योजनस्यायामविष्कम्भेन, तदेवायामविष्कम्भमानं त्रिगुणं संविशेष परिक्षेपेण, अष्टाविंशतिमेकषष्टिभागान योजनस्य बाहल्येन प्रज्ञप्तम् ।। 'सूरविमाणे णं भंते इत्यादि प्रभसूत्र प्राग्वत् , भगवानाह-गौतम ! अष्टचत्वारिंशतमेकपष्टिभागान योजनस्यायामविष्कम्भेन, तदेवायामविष्कम्भमानं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण, चतुर्विंशतिमेकषष्टिभागान योजनस्य बाहल्येन ॥ 'गहविमाणे णं भंते! इत्यादि प्रभसूत्रं तथैव, भगवानाह-गौतम! अर्द्धयोजनमायामविष्कम्भेन तदेवार्द्धचोजनं त्रिगुणं सविशेष परिझेपेण क्रोशं थाइल्येन || 'नक्खत्तविमाणे णं| भंते!' इत्यादि प्रभसूत्रं तथैव, भगवानाइ-गौतम! क्रोशमेकमायामविष्कम्भेन तदेवायामविष्कम्भपरिमाणं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण अर्द्धक्रोशं च बाहल्येन प्रज्ञाप्तम् ।। 'ताराविमाणे णं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्रं तथैव, भगवानाह-गौतम! अर्द्धकोशमायामविकम्भेन तदेवायामविष्कम्भावामपरिमाणं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेज, पञ्चधनुःशतानि वाइल्येन प्रज्ञप्तम् , एवंपरिमाणं च वाराविमानमुत्कृष्टस्थितिकस्ख तारादेवस्य सम्बन्धि द्रष्टव्यं, जघन्यवितिकस्य तु पञ्चधनु:शतान्यायामविष्कम्भेन भर्द्धतृतीयानि धनुःश- तानि बाहल्येन, उक्त च तत्वार्थभाष्ये- अष्टचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाः सूर्यमण्डलविष्कम्भः, चन्द्रमसः षट्पञ्चाशत् , प्रहा SC ॥३७९॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ज्योतिष्कदेवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम्, ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: य प्रत सूत्रांक [१९७] दीप अनुक्रम [३१४] णामड़योजन, गल्यूतं नक्षत्राणां, सर्वोत्कृष्टायास्ताराया भर्द्धकोशः, जघन्यायाः पञ्चधनु:शसानि, विष्कम्भार्द्धवाहल्याच भवन्ति सवें सूर्यादयो नृलोके" इति ॥ चंदविमाणे णं भंते ! कति देवसाहस्सीओ परिवहति?, गोयमा! चंदविमाणस्स णं पुरच्छिमेणं. सेयाणं सुभगाणं मुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरयषणिगरप्पगासाणं (महुगुलियपिंगलक्खाण) थिरलट्ठ [पउह] वदृषीवरसुसिलिट्ठसुविसिट्ठतिक्खदादाविडंबितमुहाणं रतुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुजीहाणं पिसत्थसत्यवेरुलियभिसंतकक्कडनहाणं] विसालपीवरोरुपडिपुषणविउलखंधाणं मिउविसयपसत्वसुहुमलक्खणविच्छिण्णकेसरसडोषसोभिताणं चंकमितललियपुलितधवलगवितगतीणं उस्सियसुणिम्मियसुजायअप्फोडियणंगूलाणं वइरामयणक्खाणं बइरामयदन्ताणं बयरामयदाढाणं तवणिजजीहाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिजजोत्तगसुजोतितार्ण कामगमाणं पीतिगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमियगतीणं अमियबलवीरियपुरिसकारपरकमाणं महता अपफोडियसीहनातीयबोलकलयलरवेणं महुरेण मणहरेण य पूरिता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ सीहरूवधारिणं देवाणं पुरच्छिमिल्लं बाहं परिवहति । चंदविमाणस्स णं दक्षिणेण सेयाण सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधियणगोखीरफेणरययणियरप्पगासाणं वइरामयकुंभजुयलमुहितपीवरवरवहरसोंडवट्टियदि ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [१९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ३प्रतिपत्ती चन्द्रादिवाहनानि का उद्देशः२ सू० १९८ [१९८] दीप त्तसुरत्तपउमप्पकासाणं अक्षुण्णयगुणा (मुहा) णं तवणिजविसालचंचल चलंतचवलकपणविमलुजलाणं मधुवणभिसंतणिपिंगलपत्तलतिवण्णमणिरयणलोयणाणं अन्भुग्गतमउलमल्लियाणं धवलसरिससंठितणिब्बणदढकसिणफालियामयसुजायदंतमुसलोवसोभिताणं कंचणकोसीपविहृदंतग्गविमलमणिरयणरुहरपेरंतचित्तरूवगविरापिताणं तवणिजविसालतिलगपमुहपरिमंडिताणं णाणामणिरयणमुद्धगेवेजबहगलयवरभूसणाणं बेरुलियविचित्तदरणिम्मलवइरामयतिक्खलढअंकुसकुंभजुयलतरोदियाणं तवणिजसुबद्धकच्छदप्पियवलुद्धराणं जंबूणयविमलघणमंडलवइरामयलालाललियतालणाणामणिरयणघण्टपासगरयतामघरजूबद्धलंबितघंटाजुयलमहरसरमणहराणं अल्लीणपमाणजुत्तवहियसुजातलक्खणपसत्थतवणिजवालगत्तपरिपुच्छणाणं उयवियपडिपुपणकुम्मचलणलहुविकमाणं अंकामयणक्खाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिजजीहाणं तवणिजजोसगसुजोतियाणं कामकमाणं पीतिकमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमियगतीणं अमियबलवीरियपुरिसकारपरकमाणं महया गंभीरगुलगुलाइयरवेणं महुरेणं मणहरेणं पूरेन्ता अंबरं दिसाओ यसोभयंता च सारि देवसाहस्सीओ गयरूवधारीणं देवाणं दक्खिणिल्लं पाहं परिवहति । चंदविमाणस्स णं पचत्थिमेणं सेताणं सुभगाणं सुप्पभाणं चंकमियललियपुलितचलचवलककुदसालीणं सण्णयपासाणं संगयपासाणं सुजायपासाणं मियमाइतपीणरइतपासाणं झसविहगसुजात अनुक्रम [३१५] ॥३८ ॥ W atrayam भत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ज्योतिष्कदेवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम्, ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [१९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९८] CRACONGRACK दीप कुच्छीणं पसत्थणिद्धमधुगुलितभिसंतपिंगलक्खाणं विसालपीवरोरुपडिपुषणविष उखंधाणं बद्दपडिपुण्णविपुलकवोलकलिताणं घणणिचितसुबद्धलक्खणुण्णतईसिआणयवसभोट्ठाणं चंकमितललितपुलियचकवालचवलगचितगतीणं पीवरोरुवाहियसुसंठितकडीणं ओलंबपलंबलक्खणपमाणजुत्तपसस्थरमणिजवालगंडाणं समखुरवालधाणीणं समलिहिततिक्खग्गसिंगाणं तणुसुहुमसुजातणिद्धलोमच्छविधराणं उवचितमंसलविसालपडिपुण्णखुद्दपमुहपुंडराणं (खंधपएससुंदराण) वेरुलियभिसंतकडक्खसुणिरिक्खणाणं जुत्तप्पमाणप्पधाणलक्षणपसत्थरमणिजगग्गरगलसोभिताणं घग्घरगसुबद्धकण्ठपरिमंडियाणं नाणामणिकणगरयणघण्टवेयच्छगसुकयरतियमालियाणं वरघंटागलगलियसोभंतसस्सिरीयाणं पउमुप्पलभसलसुरभिमालाविभूसिताणं वहरखुराण विविधविखुराणं फालियामयदंताणं तवणिजजीहाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिजजोत्तगसुजोत्तियाण कामकमाणं पीतिकमाणं मणोगमाणं मणोरमाण मणोहराणं अमितगतीणं अमियबलचीरियपुरिसपारपरकमाणं महया गंभीरगज्जियरवेणं मधुरेण मणहरेण य पूरेता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ वसभरूवधारिणं देवाणं पचस्थिमिहलं वाई परिवहति । चंदविमाणस्स णं उत्सरेणं सेयाणं सुभगार्ण सुप्पभाणं जचाणतरमल्लिहायणाणं हरिमेलामदुलमल्लियच्छाणं घणणिचितमुबद्धलक्खणुण्णताचंकमि (चंचुचि) यललियपुलियचलचवलचंचलगतीर्ण अनुक्रम [३१५] ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१९८] दीप अनुक्रम [३१५] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [ ३ ], ----- उद्देशकः [(ज्योतिष्क)], मूलं [१९८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र -[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवामि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३८१ ॥ Ja Ein लंघणवग्गणधावणधारणतिवइजईणसिक्खितगईणं सण्णतपासाणं लतलामगलायवर भूसणाणं संणयपासाणं संगतपासाणं सुजायपासाणं मितमायितपीणरयपासाणं झसविहगसुजातकुच्छीणं पीणपीवरवहितसुसंठितकडीणं ओलंबपल्बलक्खणपमाणजु तपसत्थरमणिज्जवालगंडाणं तणुसुमसुजायणिद्धलोमच्छविधराणं मिडविसयपसत्थसुहुमलक्खणधिकिष्ण के सरबालिघराणं ललियस विलासगति (ललं तथासगल) लाडवरभूसणाणं मुहमंडगोलचमरथासगपरिमंडियकडीणं तवणिजखुराणं तवणिज्जजीहाणं तवणिजतालुयाणं तवणिजजोत्तगजोतियाणं कामगमाणं पीतिगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमितगतीणं अमिघवलवीरियपुरिसयारपरक माणं महया हयहेसियकिलकिलाइयरवेण महुरेणं मणहरेण य पूरेंता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ हयख्वधारीणं उत्तरिल्लं वाहं परिवर्हति ॥ एवं सुरविमाणस्सवि पुच्छा, गोयमा ! सोलस देवसाहस्सीओ परिवहति पुष्वकमेणं ॥ एवं गहविमाणस्सवि पुच्छा, गोमा ! अट्ट देवसाहसीओ परिवर्हति पुष्वकमेणं, दो देवाणं साहस्सीओ पुरथिमिल्लं बाह परिबर्हति दो देवाणं साहस्सीओ दक्खिणिलं दो देवाणं साहस्सीओ पचत्थिमं दो देवसाहस्सी धारीणं उतरलं बाहं परिवहति ॥ एवं णक्खत्तविमाणस्सवि पुच्छा, गोयमा ! चसारि अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - ज्योतिष्कदेवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम्, ~ 310~ ३ प्रतिपतौ चन्द्रादिवाहनानि उद्देशः २ सू० १९८ ॥ ३८१ ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [१९८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९८] कर दीप देवसाहस्सीओ परिवहंति, सीहरूषधारीणं देवाणं पंचदेवसता पुरथिमिल्लं बाहं परिवहंति एवं चउद्दिसिंपि ॥ (सू० १९८) 'चंदविमाणे णं भंते!' इत्यादि, चन्द्रविमानं णमिति वाक्यालकारे भदन्त ! कति देवसहस्राणि परिवहन्ति ?, भगवानाह-गौतम!18 षोडश देवसहस्राणि परिवहन्ति, तद्यथा-पूर्वेण-पूर्वतः, एवं दक्षिणेन पश्चिमेन उत्तरेण, तत्र पूर्वेण सिंहरूपधारिणां देवानां चत्वारि सहस्राणि परिवहन्ति, दक्षिणेन गजरूपधारिणां देवानां चत्वारि सहस्राणि, पश्चिमेन वृषभरूपधारिणां देवानां चत्वारि सहस्राणि, उत्तरे-12 पाश्वरूपधारिणां देवानां चलारि देवसहस्राणि, इयमत्र भावना-चन्द्रादिविमानानि तथाजगत्स्वाभाव्यान्निरालम्बनान्येव वहन्त्यवतिष्ठन्ते,8 केबलमाभियोगिका देवास्ते तथाविधनामकर्मोदयवशात्समानजातीयानां हीनजातीयाना वा निजस्फातिविशेषप्रदर्शनार्थमात्मानं बहु मन्यमानाः प्रमोदभृतः सततवहनशीलेषु विमानेष्वधः स्थित्ला केचिस्सिहरूपाणि केचिद्गजरूपाणि केचियभरूपाणि केचिदश्वरूपाणि कृत्वा तानि विमानानि वहन्ति, न चैतदनुपपन्नं, यथा हि कोऽपि तथाविधाभियोग्यनामकोपभोगभागी दासोऽन्येषां समानजातीयानां हीनजातीयानां वा पूर्वपरिचितानामेवमहं नायकस्यास्य सुप्रसिद्धस्य संमत इति निजस्फातिविशेषप्रदर्शनार्थ सर्वमपि खोचितं कर्म | नायकसमक्षं प्रमुदित: करोति, तथाऽऽभियोगिका देवास्तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगभाजः समानजातीयानां हीनजातीयानां वा देवानामन्येषामेवं वयं समृद्धा यत्सकललोकप्रसिद्धानां चन्द्रादीनां विमानानि वहाम इति निजस्कातिविशेषप्रदर्शनार्थमात्मानं बहु मन्यमाना उक्तप्रकारेण चन्द्रादिविमानानि वहन्ति । एवं सूर्यादिविमानविषवाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, अत्र जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति|सरके सहणिगाथे-"सोलस देवसहस्सा बहंति चंदेसु चेत्र सूरेसु । अद्वेष सहस्साई एककमि गह विमाणे ॥ १॥ चत्तारि सहस्साई अनुक्रम [३१५] ~311 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [१९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९८] दीप श्रीजीवा-13ानखत्तमि व हवंति एकेके । दो चेव सहस्साई ताराहवेकमेकमि ॥२॥" कचित्सिंहादीनां वर्णनं दृश्यते सद्बहुषु पुस्तकेषु न दृष्ट-131३ प्रतिपत्ती जीवाभिनमित्युपेक्षितं, अवश्यं चेत्तद्वयात्यानेन प्रयोजनं तर्हि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका परिभावनीया, तत्र सविस्तरं तयाख्यानस्य कुतत्लान् ॥ शीघ्रमन्दमलयगि IN गती अल्पएतेसिणं भंते चंदिमसूरियगहगणणक्खत्ततारारूवाणं कयरे कयरेहिंतो सिग्धगती वा मंदगती रीयावृत्तिः वा?, गोयमा! चंदेहिंतो सूरा सिग्धगती सूरेहिंतो गहा सिग्घगती गहेहिंतो णक्खत्ता सिग्ध महर्षिक ॥३८२॥ गती णक्खत्तेहितो तारा सिग्घगती, सब्बप्पगती चंदा सबसिग्घगतीओ तारारूवे ।। (स०१९९) त्वादिः एएसि णं भंतेचंदिमजावतारारूवाणं कयरे २ हिंतो अप्पिडिया वा महिहिया वा?, गोयमा! उद्देश:२ तारारूवेहिंतो णक्खत्ता महिहीया णक्वत्तेहिंतो गहा महिड्डीया गहेहिंतो सूरा महिड्डीया सूरे सू०१९९ २०० हिंतो चंदा महिड्डीया, सबप्पलिया तारारूवा सव्वमहिड्डीया चंदा ॥ (सू० २००) 'एएसि णमित्यादि, एतेषां चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां मध्ये कतरे कतरेभ्योऽल्पगतयः? कतरे कतरेभ्यः शीघ्रगतयः ?, भग-18 वानाह-गौतम! चन्द्रेभ्यः सूर्याः शीघ्रगतयः सूर्येभ्यो ग्रहाः शीघ्रगतयः प्रहेभ्यो नक्षत्राणि शीत्रगतीनि नक्षत्रेभ्यस्तारारूपाः शीघ्रगतयः, चन्द्रेणाहोरात्राकमणीयस्य क्षेत्रस्य सूर्यादिमिहीनहीनतरेणाहोरात्रेणाक्रम्यमाणत्वात् , एतच सविस्तरं चन्द्रप्रज्ञप्ती सूर्यप्रज्ञप्ती भावितमिति ततोऽवधाय, एवं च सर्वमन्दगतयश्चन्द्राः सर्वशीघ्रगतयस्ताराः ॥ 'एएसि ण मिलादि, एतेषां भदन्त ! चन्द्रसूर्यग्रहह्न- X ॥३८२॥ अत्रतारारूपाणां मध्ये कतरे कतरेभ्योऽल्पर्द्धिकाः कतरे कतरेभ्यो महचिका: , भगवानाह-गौतम! तारकेभ्यो नक्षत्राणि महर्दिकानि | अनुक्रम [३१५] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ज्योतिष्कदेवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम्, ~312 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [१९९ -२००] दीप अनुक्रम [३१६ ३१७] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ /२ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [ ३ ], ------- उद्देशक: [ ( ज्योतिष्क)], - मूलं [१९९-२००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः बृहत्स्थितिकत्वात् एवं नक्षत्रेभ्यो महा महर्दिकाः, प्रदेभ्यः सूर्या महार्दिकाः सूर्येभ्यञ्चन्द्रा महर्द्धिकाः एवं सर्वास्पर्द्धयस्तारा: सर्वमहर्द्धयश्चन्द्राः ॥ सम्प्रति जम्बूद्वीपे ताराणां परस्परमन्तरप्रतिपादनार्थमाह जंबूदीवे षणं भंते! दीवे ताराख्वस्स २ एस णं केवतियं अबाधाएं अंतरे पण्णत्ते ?, गोयमा ! दुविहे अंतरे पण्णत्ते, तंजहा - वाघातिमे य निव्वाघाइमे य, तत्थ णं जे से बाघातिमे से जहणणेणं दोणिय छावडे जोयणसए उक्कोसेणं वारस जोयणसहस्साई दोणि य वायाले जोपणसए तारास्वस्स २ य अवाहाए अंतरे पण्णत्ते । तत्थ णं जे से शिवाघातिमे से जवणेणं पंचधणुसवाई उक्कोसेणं दो गाडघाई तारारूव जाव अंतरे पण्णसे || (सू०२०१) चंद्रस्स णं भंते! जोतिसिंदस्स जोतिसरन्नो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा - चंद्रप्रभा दोसिणाभा अचिमाली पभंकरा, एत्थ णं एगमेगाए देवीए बस्तारि चतारि देवसाहसीओ परिवारे य, पभू णं ततो एगनेगा देवी अण्णाई चत्तारि २ देविसहरसाई परिवारं fastoore, एवमेव पुत्र्यावरेणं सोलस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, से तंतुडिए । (सू०२०२) पभूणं भंते! चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया चंद्रवसिए विमाणे सभाए सुधम्माए चंदसि सीहासांसि तुडिएण सद्धिं दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरितए ?, णो तिणट्टे समहे । से केणद्वेगं भंते! एवं बुचति नो पभू चंदे जोतिसराया चंडवडेंसर विमाणे सभाए सुम्मा For P&Pase Cnly ~313~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२०१ -२०४] दीप अनुक्रम [३१८ -३२१] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ /२ (मूलं + वृत्तिः ) ----- उद्देशकः [( ज्योतिष्क)], • मूलं [२०१-२०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३८३ ॥ प्रतिपत्ति: [ ३ ], चंसि सीहाससि तुडिएणं सद्धिं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरितए १, गोयमा ! - दस्स जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो चंदवडेंसर विमाणे सभाए सुधम्माए माणवर्गसि चेतियखंift वरामएस गोलवहसमुग्गएसु बहुयाओ जिणस कहाओ सर्पिणखित्ताओ चिति, जाओ णं चंदस्स जोतिसिंदस्स जोतिसरन्नो अन्नेसिं च बहूणं जोतिसियाणं देवाण य देवीण य अचणिजाओ जाव पज्जुवासणिजाओ, तासिं पणिहाए नो पभू चंदे जोतिसराया चंद्र वडिं० जाव चंदसि सीहाससि जाव भुंजमाणे विहरिसए से एएणद्वेणं गोयमा ! नो पभू चंदे जोतिसराया चंदवडेंसए विमाणे सभाए सुधम्माए चंदंसि सीहासणंसि तुडिएण सद्धिं दिव्बाई भोग भोगाई मुंजमाणे विहरिए, अनुत्तरं चणं गोयमा ! पभू चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया चंदवडिसए बिमाणे सभाए सुषमाए चंदसि सीहासांसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव सोलसहिं आयरक्खदेवाणं साहस्सीहिं अन्नेहिं बहूहिं जोतिसिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपुरिवडे महयाहयणहगीइवाइपसंतीतलतालतुडियघणमुइंग पडुप्पवाइयरवेणं दिब्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरिक्तए, केवलं परियारतुडिएण सद्धिं भोग भोगाई बुद्धीए नो चेव णं मेहुणवत्तियं ॥ ( सू० २०३ ) सूरस्स णं भंते! जोतिसिंद्स्स जोतिसरनो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा—सूरप्पभा आयवाभा अचिमाली पभंकरा, एवं अवसेसं For P&P Cy ३ प्रतिपत्तौ तारान्तरं त्रुटिकं अमैथुनं सू र्यादिदेव्यः उद्देशः २ सू० २०१२०४ ~314~ ॥ २८३ ॥ अत्र मूल - संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते— ज्योतिष्कदेवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश :- '२' अत्र २ इति निरर्थकम्, Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [२०१-२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१-२०४] जहा चंदस्स णवरिं सूरवर्डिसए विमाणे सूरंसि सीहासणंसि, तहेव सब्वेसिपि गहाईणं चत्तारि अग्गमहिसीओ० तंजहा-विजया वेजयंती जयंती अपराजिया, लेसिपि तहेव । (सू० २०४) 'जंबूदीवे णं भंते ! दीये'इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे तारावास्ताराया एतदन्तरं कियाधया प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम!| सद्विविधमन्तरं प्रज्ञान, तद्यथा-व्यापातिम निर्व्याघातिमं च, व्याहननं व्याधात:-पर्वतादिस्खलनं तेन निर्वृत्तं व्यापातिम भावादिम' इति इमप्रत्ययः, निळघातिम-व्याघातिमान्निर्गत स्वाभाविकमित्यर्थः, तत्र यन्निाधातिमं तजघन्येन पञ्च धनु:शतानि उत्कर्षतो द्वे गब्यूते, तत्र यद् व्याघातिम तजघन्येन द्वे योजनशते 'षट्पष्टे षट्पट्याधिके, एतच निषधकूढादिकमपेक्ष्य थेदितव्यं, तथाहिनिषधपर्वतः स्वभावादप्युच्चैश्चत्वारि योजनशतानि तस्योपरि पञ्च योजनशतोचानि कूटानि, तानि च मूले पञ्च योजनशतान्यायाम| विष्कम्भाभ्यां मध्ये त्रीणि योजनशतानि पश्वसप्तत्यधिकानि उपर्यतृतीयानि योजनशवानि, सेषां चोपरितनभागसमश्रेणिप्रदेशे तथाजगरस्वाभाच्यादृष्टावष्टौ योजनान्युभवतोऽवाधया कृत्वा ताराविमानानि परिभ्रमन्ति, ततो जघन्यतो व्याधातिममन्तरं हे योजनशते षषष्टयाधिके भवति, उत्कर्षतो द्वादश योजनसहस्राणि द्वे योजनशवे द्वाचत्वारिंशदधिके, एतम भेरुमपेक्ष्य द्रष्टव्य, तथाहि-मेल| दंश योजनसहस्राणि मेरोचोभयतोऽबाधया एकादश योजनशतान्येकविंशत्यधिकानि, तत: सर्वसङ्ख्यामीलने द्वादश योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्वाचत्वारिंशदधिके, कचित्सर्वत्र 'वाघाइए निव्वाघाइए' इति पाठस्तत्र व्याघातो-यथोक्तरूपोऽस्यास्तीति व्याघातिकम्, 'अतोऽनेकस्वरादिति मत्वर्थीय इकप्रत्ययः, व्याघातिकान्निर्गतं निल्चातिकमिति ॥ 'चंदस्स णं भंते !' इत्यादि, चन्द्रस्य भदन्त ! ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य 'कति' कियत्सङ्ख्याका अग्रमहिष्यः प्रज्ञाता:?, भगवानाह-गौतम ! चतस्रोऽयमहिध्यः प्राप्ताः, दीप अनुक्रम [३१८-३२१] ~315 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२०१ -२०४] दीप अनुक्रम [३१८ -३२१] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [ ३ ], ------- उद्देशक: [ ( ज्योतिष्क)], - मूलं [२०१-२०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ३८४ ॥ तद्यथा चन्द्रप्रभा १ 'दोसिणाभा' इति ज्योत्स्नाभा २ अर्चिर्माली ३ प्रभङ्करा ४ | 'तत्थ ण'मित्यादि, 'तत्र' तासु चतसृषु अप्र| महिषीषु मध्ये एकैकस्या देव्याश्रवारि २ देवीसहस्राणि परिवारः प्रज्ञप्तः किमुक्तं भवति ?- एकैकाऽयमहिषी चतुण २ देवीसहस्राणां पट्टराझी, एकैब सा इत्थम्भूताऽयमहिषी परिवारावसरे तथाविधां ज्योतिष्कराजचन्द्रदेवेच्छामुपलभ्य प्रभुरन्यानि आलसमानरूपाणि चत्वारि देवीसहस्राणि विकुर्वितुं स्वाभाविकानि पुनः 'एवमेव' उक्तप्रकारेणैव 'सपूर्वापरेण' पूर्वापरमीलनेन पोडश [प्र थाम् ११५०० ] देवीसहस्राणि चन्द्रदेवस्य भवन्ति, 'सेत्तं तुडिए' तदेतावत् 'तुटिकम्' अन्तःपुरम् आह चूर्णिकृत् – 'तुटिकमन्तःपुरमुपदिश्यते' इति ॥ 'पभू णं भंते!' इत्यादि, प्रभुर्भदन्त ! चन्द्रो ज्योतिषेन्द्रो ज्योतिपराजश्चन्द्रावतंस के विमाने सभायां ५ सुधर्मायां चन्द्रे सिंहासने 'तुटिकेन' अन्तःपुरेण सार्द्धं दिव्यान् भोगभोगान् सुखमानः 'विहर्तुम्' आसितुम् ? भगवानाह गोतम ! नायमर्थः समर्थः । अत्रैव कारणं पृच्छति' से केणट्टेणमित्यादि तदेव, भगवानाह - गौतम ! चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योति - पराजस्य चन्द्रावतंस के विमाने सभायां सुधर्मायां माणवकचैत्यस्तम्भे वज्रमयेषु गोलवृत्तसमुद्रकेषु तेषु च यथा तिष्ठन्ति तथा विज| यराजधानीगत सुधर्मांसभायामिव द्रष्टव्यं वहूनि जिनसक्थीनि संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति यानि सूत्रे खीलनिर्देश: प्राकृतत्वात् चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य अर्चनीयानि पुष्पादिभिर्वन्दनीयानि विशिषैः स्तोत्रैः स्तोतव्यानि पूजनीयानि वस्त्रादिभिः स त्कारणीयानि आदरप्रतिपत्त्या सन्माननीयानि जिनोचितप्रतिपश्या कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमिति पर्युपासनीयानि, 'तासिं पणिहाए' इति तेषां प्रणिधया तान्याश्रित्य नो प्रभुश्चन्द्रो ज्योतिषराजश्चन्द्रावतंस के विमाने यावद्विहर्तुमिति । 'पभू णं गोयमा' इत्यादि, प्रभुगतम ! चन्द्रो ज्योतिषेन्द्रो ज्योतिषराजञ्चन्द्रावतंस के विमाने सभायां सुधर्मायां चन्द्रसिंहासने चतुर्भिः सामानिकसह सैश्चतसृ ३ प्रतिपत्ती तारान्तरं त्रुटिकं अमैथुनं सूर्यादिदेव्यः उद्देशः २ [सू०२०१२०४ ~316~ ॥ ३८४ ॥ For P&Pealise Cnly अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते - ज्योतिष्कदेवाधिकारः एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम्, my w Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [२०१-२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - St प्रत सूत्रांक [२०१-२०४] ट्राभिरममहिषीभिः सपरिवारामिस्तिमृभिः पद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः पोडशभिरामरक्षकदेवसहरन्यैश्च बहुभि ज्योतिषैर्देवैर्देवीभिश्च साई संपरिवृतः 'महयाहयेयादि पूर्ववत् यावदिन्यान् भोगभोगान् भुखानो विदर्तुमिति, न पुन: 'मैथुनप्रत्यय' मैथुननिमित्तं दिव्यान् स्पर्शादीन भुजानो विहन्तुं प्रभुरिति ॥ 'सूरस्स णं भंते।' इत्यादि, सूरस्थ भदन्त ! ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिपराजस्य कति अनमहिष्यः प्रज्ञाप्ताः १, भगवानाह-गौतम! चतस्रोऽप्रमहिष्यः प्राप्ताः, तबधा-सूर्यप्रभा आतपाभा अधिर्माली | प्रभक्तरा । 'तत्थ णं एगमेगाए देवीए' इत्यादि चन्द्रवत्तावद्वक्तव्यं यावत् 'नो चेव णं मेहुणवत्तिय' नवरं सूर्यावतंसके विमाने | सूर्ये सिंहासने इति वक्तव्यं, शेषं तथैव ।।। X चंदविमाणे णं भंते! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता, एवं जहा ठितीपए तहा भाणियब्बा जाव ताराणं ।। (सू०२०५) 'चंदविमाणे णे भंते!' इत्यादि, चन्द्रविमाने भदन्त! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः ?, भगवानाह-गीतम! जघन्येन चतुर्भागपल्योपम-चतुर्भागः पस्योपमस्य चतुर्भागपल्योपममर्द्धपिप्पलीवत्, अत्रापि चिरन्तनव्याकरणेऽयं समासः, यदिवा चतुर्भागमात्र पल्योपमं चतुर्भागपल्योपममिति विशेषणसमासः पल्योपमस्य चतुर्भाग इत्यर्थः, उत्कर्षत: पल्योपमं वर्षशतसहस्राभ्यधिक, चन्द्रविमाने हि चन्द्रदेव उत्पद्यते अन्ये च तत्सामानिकामरक्षादवः, तत्रामरक्षादीनां यथोक्ता जघन्या स्थितिः उत्कृष्टा चन्द्रमा तत्सामानिकानां वा । 'चंदविमाणे णं भंते!' इत्यादि, चन्द्रविमाने भदन्त ! देवीनां कियन्तं कालं खितिः प्रज्ञप्ता?, भगवानाह-गौतम! जघन्येन चतुर्भागपल्योपममुत्कर्षतः पल्योपमा पञ्चाशता वर्षसहस्रैरभ्यधिक । एवं सूर्यादिविमानविषयाण्यपि स्थितिसूत्राणि वा दीप अनुक्रम [३१८-३२१] जी. ६५ ~317~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(ज्योतिष्क)], --------------------- मूलं [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रतिपत्ती ज्यो. उद्देशः २ | चन्द्रादे स्थितिः सू० २०५ अल्पवहुत्वं सू०२०६ [२०५] श्रीजीया- च्यानि, नवरं सूर्यविमाने देवानां जघन्यतश्चतुर्भागपल्योपममुस्कर्षत: पल्पोपमं वर्षसहस्राभ्यधिक, देवीनां जघन्यतश्चतुर्भागपल्योप- बीवाभि ममुत्कर्षतोऽर्द्धपल्योपमं पञ्चभिर्वर्षशतैरभ्यधिक, प्रहबिमानदेवानां जघन्यतश्चतुर्भागपल्योपममुत्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपम, देवीनां उत्कृ- मलयगि- मर्धपल्योपमं जघन्येन चतुर्भागपल्योपम, नक्षत्रविमाने देवानां जघन्यतश्चतुर्भागपल्योपममुत्कर्षतोऽर्द्धपल्योपम, देवीनां उत्कृष्टतोऽ- रीयावृत्तिःधिकचतुर्भागपल्योपमं जघन्येन चतुर्भागपल्योपम, ताराबिमाने जघन्येनाष्टभागपल्योपममुत्कर्षतचतुर्भागपल्योपर्म, देवीनां जघन्य तोऽष्टभागपल्योपममुत्कर्षतः सातिरेकमष्टभागपल्योपममिति ॥ एतेसि णं भंते! चंदिमसूरियगहणक्षत्सतारारूवाणं कयरेशहितो अप्पा चा पहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! चंदिमसूरिया एते णं दोषिणवि तुल्ला सम्वत्थोवा संखेजगुणा णक्खत्ता संखेजगुणा गहा संखेजगुणाओ तारगाओ ॥ (सू०२०६) जोइसुद्देसओ समत्तो॥ 'एतेसि णं भंते !' इत्यादि, एतेषां भदन्त ! चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणां कतरे कतरेभ्योऽस्पा: कतरे कतरेभ्यो बहुका था? कतरे कतरैस्तुल्या:?, अत्र विभक्तिपरिणामेन तृतीया व्याख्येया, कतरे कतरेभ्यो विशेषाधिका:, भगवानाह-गौतम! चन्द्रसूर्यो। एते दयेऽपि परस्परं तुल्याः, प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चन्द्रसूर्याणां समसयाकलात् , शेषेभ्यो ग्रहादिभ्यः सर्वेऽपि स्तोकाः, तेभ्यो नदक्षत्राणि सोयगुणानि अष्टाविंशतिगुणत्वात् , तेभ्योऽपि ग्रहाः सहयेयगुणा: सातिरेकत्रिगुणत्वात् , तेभ्योऽपि तारा: सहमेयगुणाः प्रभूतकोटीकोटीगुणत्वात् ।। इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाभिगमटीकायां चतुर्थप्रतिपत्तौ ज्योतिषोदेशकः समाप्तः ।। दीप अनुक्रम [३२२] CAKACCE -- अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-ज्योतिष्कदेवाधिकार: एक एव वर्तते, तत् कारणात् उद्देश:- '२' अत्र २ इति निरर्थकम्, ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक न् [२०७] दीप अनुक्रम [३२४] उक्ता ज्योतिषवक्तव्यता, सम्प्रति वैमानिकवक्तव्यतामाह कहि ण भंते! घेमाणियाणं देवाणं विमाणा पण्णत्ता?, कहिणं भंते! वेमाणिया देवा परिषसंति?, जहा ठाणपदे तहा सव्वं भाणियन्वं णवरं परिसाओ भाणितव्याओ जाव सुके, अन्नेसिं च बहण सोधम्मकप्पवासीणं देवाण य देवीण य जाव विहरंति ॥ (सू०२०७) 'कहि णं भंते ! वेमाणियाण मित्यादि, क भदन्त ! वैमानिकानां देवानां विमानानि प्रज्ञप्तानि ?, तथा क भदन्त ! वैमानिका देवाः | परिवसन्ति ?, भगवानाह-गौतम! अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयाद् भूमिभागाद् रुषकोपलक्षितादिति भावः अर्द्ध चन्द्रसूर्यप्रहनक्षत्रतारारूपाणामप्युपरि बहूनि योजनानि बहूनि योजनशतानि बहूनि योजनसहस्राणि बहूनि योजनशतसहस्राणि बहीयोजनकोटी-11 कोटी: ऊर्दू, दूरमुरप्लुत्य-चुला गत्वा, एतञ्च सार्द्धरजपलक्षणं, तथा चोक्तम्- सोहम्मंमि दिवडा अट्टाइजा य रज्जु माहिदे । बंभंमि | अद्धपंचम छ अथुए सत्त लोगते ।। १॥ [ सौधर्मे सार्थ सार्धे द्वे रजू माहेन्द्रे । ब्रह्मदेवलोके अर्धपञ्चमा: षड् अच्युते सप्त लोकान्ते ॥ १ ॥] 'एत्थ णमित्यादि, 'अत्र' एतस्मिन् सार्द्धरजूपलक्षिते क्षेत्रे ईषत्प्रारभारादर्वाक् सौधर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकला-1 |न्तकशुक्रसहस्रारानतप्राणतारणाच्युतत्रैवेयकानुत्तरेषु स्थानेषु 'अत्र' एतस्मिन् वैमानिकानां चतुरशीतिर्विमानावासशतसहस्राणि सप्तनवतिः सहस्राणि त्रयोविंशतिर्विमानानि ८४९७०२३ भवन्तीत्याख्यातानि, इयं च सवा-बत्तीसअट्ठवीसा बारसअट्ठ चउरो सबसहस्सा" इत्यादिसङ्ख्यापरिमीलनेन भावनीया ।। 'ते णं विमाणा' इत्यादि, तानि विमानानि सर्वरबमयानि 'अच्छा सहा लहा। घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निकंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । तृतीय-प्रतिपत्तौ ज्योतिष्क-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ वैमानिक-उद्देशक: (१) आरब्ध: ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०७] दीप अनुक्रम [३२४] श्रीजीवा-MIएत्थ णमित्यादि, एतेषु विमानेषु बहवो वैमानिका देवाः परिवसन्ति, तद्यथा-सौधर्मा ईशाना यावद् गैवेयका अनुत्तराः, एते च प्रतिस्पी जीवाभि व्यपदेशास्तात्स्यादवगन्तव्याः, यथा पचालदेशनिवासिनः पचाला:, एते च कथम्भूताः इत्याह-'ते णमित्यादि, ते सौधर्मा-18वैमानिक मलयगि-16दयोऽयुतपर्यवसाना यथाक्रम मृगमहिषवराहसिंहच्छगलदईरहयगजपति जगखड्गवृषभाङ्कविडिमप्रकटितचिह्नमुकुटाः, मृगादिरूपाणि उदेशात रीयावृत्तिः INप्रकटितानि चिहानि मकटे येषां ते तथेति भावः, तद्यथा-सौधर्मदेवा मृगरूपप्रकटितचिह्नमुकुटा: ईशानदेवा महिषरूपप्रकटितचिव- वैमानिक मुकुटाः सनत्कुमारदेवा वराहरूपप्रकटितचिदगुकुटाः माहेन्द्रदेवा: सिंहरूपप्रकटितमुकुटचिट्ठाः ब्रह्मलोकदेवाश्छगलरूपप्रकटितमुकु- देवाः ॥३८६॥ दाटचिहा: लान्तकदेवा द१ररूपप्रकटित मुकुटचिह्नाः शुक्रकल्पदेवा हयमुकुटचिह्नाः सहस्रारकल्पदेवा गअपत्तिमुकुटचिह्नाः आनतक-| सू०१०७ स्पदेवा भुजगमुकुटचिट्ठाः, प्राणतकल्पदेवाः खड्गमुकुटचिहाः, खड्गः चतुष्पद विशेष आटव्यः, आरणकल्पदेवा धृषभमुकुटचिहा: अच्युतकल्पदेवा विडिममुकुटचिट्ठाः तथा प्रशिथिलवरमुकुटकिरीटधारिणः, 'वरकुंडलुजोवियाणणा' इति वराभ्यां कुण्डलाभ्यामुद्योतित-भास्वरीकृतमाननं येषां ते वरकुण्डलोद्योतिताननाः, 'मउडदित्तसिरया' मुकुटेन दीप्तं शिरो येषां ते मुकुटदीप्तशिरसः | रक्ताभा-रक्तवर्णाः, एतदेव सविशेषमाह-पउमपम्हगोरा' पद्मपक्ष्मवत्-पद्मपत्रवद् गौराः पद्मपक्ष्मगौरा: श्रेयांस:-परमप्रशस्याः | शुभवर्णगन्धस्पर्शा: 'उत्तमविकुर्विणः' उत्तम विकुर्वन्तीत्येवंशीला उत्तमविकुर्विगः, 'विविहवत्थमल्लधारी' विविधानि शुभात् शुभतराणि वस्त्राणि माल्यानि च धारयन्तीत्येवंशीला विविधवस्वमाल्यधारिणः महर्दिका महायुतयो महायशसो महाबला महानुभागा महासौख्याः तथा हारविराइववच्छा कडगतुडियथंभियभुया संगयकुंडलमट्टगंडयलकण्णपीढधारी विचित्तहत्याभरणा विचित्तमाला-IN ॥३८६॥ 8 मतली कल्लाणगपवरमलाणुलेवणा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिब्बेणं वपणेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्येणं संपवणेणं ~320 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ----------------------उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 444 [२०७] विश्वेण संठाणेणं दिवाए इड्डीए दिवाए जुईए दिवाए पभाए दिव्वाए छायाए दिवाए अञ्चीए दिव्वेणं तेएणं दिनाए लेसाए दस दिसाभो जोवेमाणा' इति प्रागुक्तासुरकुमारवन्नेतन्यम् ॥'ते णं तत्थ साणं साण'मित्यादि, ते वैमानिका देवाः शक्रादयोऽ-1 च्युतपर्यवसानास्तत्र स्वस्खकल्पे स्वेषां स्वेषां विमानावासशतसहस्राणां खेषां स्वेषां सामानिकसहस्राणां खेषां स्वेषां त्रायशिकानां खेषां तेषां लोकपालानां स्वासां खासामपमहिषीणां सपरिवाराणां खासा २ पर्षदां स्वेषां स्वेषामनीकानां खेषां खेषामनीकाधिपतीनां खेषां खेषामामरक्षदेवसहस्राणां, अन्येषां च बहूनां देवानां देवीनां च 'आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टितं महबरगतं आणाईसरसे-| दाणापर्ण कारेमाणा पालेमाणा महयाहयनहगीयवाइयततीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पबाइयरवेणं दिव्बाई भोगभोगाई मुंजमाणा वि हरंती'ति ॥ 'कहि णं भंते!' इत्यादि, क भदन्त! सौधर्मकदेवानां विमानानि प्रज्ञप्तानि?, तथा क भदन्त ! सौधर्मकल्पदेवाः परि-1 वसन्ति ?, भगवानाह-गौतम! 'जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमि-1 भागाओ उई चंदिमसूरिमगहणक्खत्ततारारूवाणं बहूणि जोयणाई बहूणि जोवणसयाई बहूणि जोवणसहस्साई बहणि जोयणसय-13 सहस्साई उई दूर उत्पइत्ता' इति प्राग्वत्, 'पत्थ ण' 'अत्र' एतस्मिन् सार्द्धरजपलक्षिते क्षेत्रे सौधर्मो नाम कल्पः प्राप्तः, सच| प्राचीनापाचीनायत उदग्दक्षिणविस्तीर्णः अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थित: मेरोदक्षिणतस्तस्य भावात् , 'अर्चिाली' भीषि-किरणालेषा माला अधिर्माला सा अस्यास्तीति अचिर्माली सर्वतः किरणमालापरिवृत इत्यर्थः, एतदेवोपमया द्रढयति-दझालराशिवर्णाभिः प्रभाभिः पनरागादिसम्बन्धिनीभिर्जाज्वल्यमानतया देदीप्यमानाङ्गारराशिवर्णाभप्रभाणां अत्यन्तोत्कटतवा साक्षावकारराशिरिख मल-1 नवभासत इति भावः, असोया योजनकोटाकोटयः परिक्षेपेण सर्वासना रत्नमयोऽच्छः, यावत्करणात् 'सण्हे लण्हे घटे महे' इत्या दीप अनुक्रम [३२४] ~321 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२०७] दीप अनुक्रम [३२४] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" उपांगसूत्र- ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) प्रतिपत्ति: [३], ------ उद्देशकः [(वैमानिक)- १], - मूलं [२०७] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि यावृत्तिः ॥ ३८७ ॥ - - दिपरिग्रहः || 'तत्थ णमित्यादि, 'तत्थ ण'मिति पूर्ववत्, सौधर्मकल्पे द्वात्रिंशद् विमानावासशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं मया शेपैश्व तीर्थकृद्भिः ॥ 'ते णं विमाणा' इत्यादि, तानि विमानानि सर्वासना रत्नमयानि अच्छानि यावत्प्रतिरूपाणि अत्रापि यावत्करणात् 'सण्हा लव्हा घट्टा मट्ठा' इत्यादिपरिग्रहः ॥ 'तेसि ण' मित्यादि तेषां विमानानां बहुमध्ये पञ्चावतंसका विमानावतंसकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा' - 'असोगबर्डिसए' इति, पूर्वस्यां दिशि अशोकावतंसकः दक्षिणस्यां सप्तपर्णावतंसकः अपरस्यां चम्पकावतंसकः उत्तरस्यां चूतावतंसकः मध्ये तेषां सौधर्मावतंसकः ॥ 'ते णं वडेंसया' इत्यादि ते पञ्चाप्यवतंसकाः सर्वासना रत्नमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः, अत्रापि यावत्करणात् 'सन्हा उण्हा घट्टा मट्ठा' इत्यादिपरिग्रहः । 'एत्थ णमित्यादि, 'अत्र' एतेषु द्वात्रिंशत्शतसहस्रसत्येषु विमानेषु बहवः सौधर्मका:- सौधर्मा एव सौधर्म्मका देवाः परिवसन्ति 'महिडिया जान दस दिसाओ उज्जोवेमाणा' अत्र यावत्करणात् 'महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा' इत्यादिप्रागुक्तपरिग्रहः, 'ते णं तत्थ साणं साणं विमाणाणं साणं साणं सामाणियाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिमाणं साणं २ अणियाणं साणं २ अणियाहिवईणं साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिं च बहूणं जाव विहरंति' सुगमं ॥ 'सके य एत्थ' इत्यादि, अत्र - एतस्मिन् सौधर्मे कल्पे शक्रः शकनात् शक्रो देवेन्द्रो देवराजः परिवसति, स च कथम्भूतः १ इत्याह- 'वज्रपाणि: ' व पाणावस्य वज्रपाणि: असुरपुरदारणात् पुरन्दरः, 'सयकऊ' इति शतं क्रतूनां प्रतिमानां - अभिग्रहविशेषाणां श्रमणोपासकपञ्चमप्रतिमरूपाणां कार्त्तिकश्रेष्ठिभवापेक्षया यस्य स शतक्रतुः, 'सहस्वक्खे' इति सहस्रमणां यस्यासौ सहस्राक्षः, इन्द्रस्य हि किल मत्रिणां पञ्च शतान्यालना सह परिपूर्णानि सन्ति तदीयानामक्ष्णामिन्द्रप्रयोजनव्यापृतत्वाद् इन्द्रसम्बन्धीनि विवक्षितानीति सहस्राक्षलं, 'मघवं' इति मघा-म For P&P Cy ~ 322 ~ ३ प्रतिपत्तौ वैमानि० उद्देशः १ वैमानिक देवाः सू० २०७ ॥ ३८७ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०७] दीप अनुक्रम [३२४] माने यस्य वशे सन्ति स मघवान् , पाको नाम बलवान् रिपुः स शिष्यते--निराक्रियते येन स पाकशासनः, दक्षिणाईलोका-1 धिपतिः मेरोदक्षिणत: सर्वस्यापि तदाभाव्यत्वात् , द्वात्रिंशद्विमानावासशतसहस्राधिपतिः, सौधर्म कल्पे एतावतो पिमानापासघातसहस्राणां भावात, ऐरावणवाहनः, ऐरावणनानो गजपतेस्तद्वाहनस्य भावात् , सुरेन्द्रः सौधर्मवासिनां सुराणां सर्वेषामपि तदाशावतिवात, 'अरयंवरवत्थधरे' इति अरनांसि-रजोरहितानि स्वच्छतया अम्बरवद् अम्बराणि वस्त्राणि धारयतीति अरजोऽम्बरवस्त्रधरः, 'आलइयमालमउडे' इति माला च मुकुटश्च मालामुकुट आलिङ्गितं-आधिद्धं मालामुकुट येन स नालिङ्गितमालामुकुटः, कृतकण्ठेमाल आविद्धशिरसिमुकुट इति भावः, 'नवहेमचारुचित्तचंचल कुण्डल विलिहिज्जमाणगंडे' नवमिव-प्रत्यममिव हेम यत्र ते नबहेमनी नवहेमभ्यां चारुचित्राभ्यां चञ्चलाभ्यां कुण्डलाभ्यां विलिख्यमानौ गण्डौ यस्य स तथा, 'महिदिए जाब दसदिसाओ उज्जोवेमाणे पभासेमाणे' अत्र यावत्करणात् 'महजईए महाबले महायसे' इत्यादि पूर्वोक्तपरिग्रहः, सौधर्मे कसे सौधर्मावतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां शके सिंहासने से णं तत्थ बत्तीसाए' इत्यादि स तत्र द्वात्रिंशतो विमानावासशतसहस्राणां चतुरशीतेः सामानिकसहस्राणां त्रयविंशतस्रायविंशकानां चतुर्णा लोकपालानामष्टानामप्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिसृणां पर्षदां सप्तानामनीकानां सप्तानामनीकाधिपतीनां चतमृणां चतुरशीतीनामामरक्षदेवसहस्राणां अन्वेषां च बहूनां सौधर्मकल्पवासिनां वैमानिकानां देवानां पेनी च आहेब जाव दिव्वाई भोगभोगाई मुंजमाणे विहरई' अत्र यावत्करणात् 'पोरेवचं सामित्तं भट्टित्त'मित्यादि परिग्रहः ॥ सकस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरन्नो कति परिसाओ पन्नत्ताओ?, गोयमा तओ परिसाओ पपणसाओ, तंजहा-समिता चंडा जाता, अभितरिया समिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाता ~323 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रतिपचौ | वैमा० उद्देशा श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः प्रत सूत्रांक [२०८] सू०७४ दीप अनुक्रम [३२५] CA4%ACC+ ॥सकसणं भंते! देविंदस्स देवरन्नो अम्भितरियाए परिसाए कति देवसाहस्सीओ पपणत्ताओ?. मज्झिमियाए परि तहेव बाहिरियाए पुच्छा, गोयमा! सफास्स देविंदस्स देवरनो अभितरियाए परिसाए वारस देवसाहस्सीओ पण्णताओ मज्झिमियाए परिसाए चउदस देवसाहस्सीओ पपणताओ वाहिरियाए परिसाए सोलस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तहा अम्भितरियाए परिसाए सत्स देवीसयाणि मज्झिमियाए छच्च देवीसयाणि बाहिरियाए पंच देवीसयाणि पन्नत्ताई।सकस्स णं भंते! देविंदस्सदेवरनो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? एवं मज्झिमिपाए बाहिरियाएवि, गोयमा सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अम्भितरियाए परिसाए पंच पलिओचमाई ठिती पण्णतामज्झिमियाए परिसाए चत्तारि पलिओषमाई ठिती, पण्णत्ता बाहिरियाए परिसाए देवाणं तिन्नि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता, देवीणं ठिती, अम्भितरियाए परिसाए देवीणं तिन्नि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्तामज्झिमियाए दुन्नि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ताबाहिरियाएपरिसाए एग पलिओवमं ठिती पण्णता, अट्ठो सो चेव जहा भवणवासीणं ॥ कहि णं भंते! ईसाणकाणं देवाणं विमाणा पण्णता? तहेव सब्वं जाव ईसाणे एत्व देविंदे देव.जाव विहरति। ईसाणस्स णं भंते। देविंदस्स देवरपणो कति परिसाओ पण्णताओ?, गोयमा! तओ परिसाओ पण्णसाओ, तंजहा-समिता चंडा जाता, तहेव सब्वं णघरं अभितरियाए परिसाए दस देवसा 6. R ~324 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०८] हस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ, बाहिरियाए चउद्दस देवसाहस्सीओ, देवीणं पुच्छा, अभितरियाए णव देवीसता पणत्ता मज्झिमियाए परिसाए अह देवीसता पणत्ता वाहिरियाए परिसाए सत्त देविसता पण्णत्ता, देवाणं० ठिती पं०१, अभितरियाए परिसाए देवाणं सत्त पलिओचमाई ठिती पणत्ता मज्झिमियाए छ पलिओवमाई बाहिरियाए पंच पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता । देवीणं पुच्छा, अभितरियाए साइरेगाई पंच पलिओवमाई मज्झिमियाए परिसाए चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता बाहिरियाए परिसाए तिपिण पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता, अट्ठो तहेव भाणियब्यो ॥ सर्णकुमाराणं पुच्छा तहेव ठाणपदगमेणं जाव सणकुमारस्स तओ परिसाओ समिताई तहेव, णवरिं अम्भितरियाए परिसाए अट्ट देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ पण्णसाओ, बाहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, अम्भितरियाए परिसाए देवीणं ठिती अद्धपंचमाई सागरोवमाइं पंच पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता मजिशमियाए परिसाए अद्धपंचमाई सागरोवमाईचत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए अद्धपंचमाई सागरोवमाई तिपिण पलिओबमाई ठिती पण्णत्ता, अहो सो चेव ।। एवं माहिंदस्सवि तहेव तओ परिसाओ णवरि अम्भितरियाए परिसाए छद्देवसाहस्सीओ पपणसाओ, मज्झिमियाए दीप अनुक्रम [३२५] OCOCCE%ACADAKARE 23-2-968 ~325 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः PERS ३ प्रतिपत्ती वैमा० उद्देशः१ पर्षद: सू०२०८ सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम [३२५] परिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, बाहिरियाए दस देवसाहस्सीओ पपणत्ताओ, ठिती देवाणं अभितरियाए परिसाए अपंचमाई सागरोवमाई सत्त य पलिओ० ठिती पण्णत्ता, मजिामियाए परिसाए पंच सागरोवमाई छच पलिओवमाई, बाहिरियाए परिसाए अद्धपंचमाई सागरोबमाई पंच य पलिओवमाई ठिती पं० तहेव सब्वेसिं इंदाण ठाणपपगमेणं विमाणाणि वुधा ततो पच्छा परिसाओ पत्तेयं २ बुञ्चति ॥ बंभस्सवि तओ परिसाओ पपणत्ताओ अम्भितरियाए चत्तारि देवसाहस्सीओ मज्झिमियाए छ देवसाहस्सीओ बाहिरियाए अट्ट देवसाहस्सीओ, देचाणं ठिती अभितरियाए परिसाए अद्धणवमाइं सागरोवमाइं पंच य पलिओवमाई मज्झिमियाए परिसाए अद्धनवमाईचत्तारि पलिओवमाई बाहिरियाए अद्वनवमाइं सागरोवमाई तिषिण प पलिओवमाई अट्ठो सो चेव ॥ लंतगस्सवि जाव तओ परिसाओ जाव अभितरियाए परिसाए दो चेव साहस्सीओ मज्झिमियाए चत्तारि देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ बाहिरियाए छद्देवसाहस्सीओ पण्णताओ, ठिती भाणियव्वा-अभितरियाए परिसाए वारस सागरोवमाई सत्त पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए पारस सागरोवमाई छच्च पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता बाहिरियाए परिसाए वारस सागरोवमाई पंच पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता ।। महासुक्कस्सवि जाव तओ परिसाओजाव अभितरियाए एगंदेवसहस्सं मज्झिमियाए दो देवसा 2-964 CALCCACAAS 8- ३८९॥ ~326 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम [३२५] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३/२ (मूलं + वृत्तिः) ------ उद्देशक: [ ( वैमानिक ) - १], - मूलं [२०८] प्रतिपत्ति: [३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः 'हस्सीओ पन्नताओ बाहिरियाए चत्तारि देवसाहस्सीओ, अभितरियाए परिसाए अद्धसोलस सागरोवमाई पंच पलिओबमाई मज्झिमियाए अद्वसोलस सागरोवमाई चत्तारि पलिओ माई बाहिरियाए अद्धसोलस सागरोवमाई तिष्णि पलिओदमाई अट्ठो सो चैव ॥ सहस्सारे पुच्छा जाव अभितरियाए परिसाए पंच देवसया मसिमियाए परि० एगा देवसाहस्सी बाहिरियाए दो देव साहसीओ पत्ता ठिती अभितरियाए अद्धद्वारस सागरोवमाई सत्त पलिओ माई ठिती पण्णत्ता एवं मज्झिमियाए अट्ठारस छप्पलिओ माई बाहिरियाए अट्ठारस सागरोमाई पंच पलिओ माई अट्ठो सो चेव ॥ आणयपाणयस्सवि पुच्छा जाय तओ परिसाओ णवरि अभितरियाए अडाइज्जा देवसया मज्झिमियाए पंच देवसया बाहिरियाए एगा देवसाहस्सी fort अभितरियाए एगूणवीस सागरोवमाई पंच य पलिओनाई एवं मज्झि० एगोणवीस सागरोवमाई चत्तारिय पलिओ माई बाहिरियाए परिसाए एगूणवीसं सागरोवमाई तिण्णि य पलिओ माई ठिती अट्ठो सो चेव । कहि णं भंते! आरणअनुपाणं देवाणं तहेव अचुए सपरिवारे जाव विहरति, अनुयस्स णं देविंदस्स तओ परिसाओ पण्णत्ताओ अभितरपरि० दे वाणं पणवीस सयं मज्झिम० अढाइजा सया बाहिरय० पंचसया अभितरियाए एकवीसं सागरोवमा सत्त य पलिओ माई मज्झि० एकवीससागर० छप्पलि० बाहिर० एकवीसं सागरो० For P&Pase City ~327~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम [३२५] श्रीजीवाजीवाभि० पंच य पलिओचमाई ठिती पण्णत्ता | कहिणं भंते! हेटिमगेवेनगाणं देवाणं विमाणा पण्णता? प्रतिपत्ती मलयगि-15 कहिणं भंते! हेहिमगवेजगा देवा परिवसंति? जहेव ठाणपए तहेव, एवं मज्झिमगेवजा उच वैमा० रिमगेविनगा अणुसरा य जाव अहमिंदा नाम ते देवा पणत्ता समणाउसो।। (सू०२०८)॥ उद्देशः१ रीयावृत्तिः पढमो बेमाणियउद्देसओ॥ पपर्दः ॥३९०॥ 'सकस्स णं भंते !' इत्यादि, शक्रस्य भवन्त ! देवेन्द्रस्य देवराजस्य कति पर्षदः प्रज्ञता: ?, भगवानाह-गौतम! तिस्रः पर्षदः प्र- सू०२०८ शप्ताः, तद्यथा- शमिका चण्डा जाता, अभ्यन्तरिका शमिका मध्यमिका चण्डा बाया जाता ॥ 'सकस्स णं भंते ! देविंदस्स | | देवरण्णो अभितरियाए' इत्यादि प्रअषदं सुप्रतीतं, भगवानाह-गौतम! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि द्वादश | देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि मध्यमिकायां चतुर्दश देवसहस्राणि बाह्यायां षोडश देवमहस्राणि, तथाऽभ्यन्तरिकार्या पर्षदि सप्त देवीशतानि मध्यमिकायां षड् देवीशतानि वाह्यायां पच देवीशक्षानि || 'सकस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए दे-18 वाणं केवइ काल' मित्यादि प्रापर्ट सुप्रतीतं, भगवानाह-गौतम! शक्रख देवेन्द्रस्य देवराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि पञ्च पल्योप-16 मानि स्थितिः अज्ञप्ता, मध्यमिकायां चत्वारि पल्योपमानि, बाह्मायां पर्षदि त्रीणि पल्योपमानि, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां | त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः प्रजमा, मध्यमिकायर्या द्वे पल्योपमे, बाह्यायामेकं पल्योपमं । 'से केणद्वेणं भंते! एवं वुचति सकस्सx देवेंदस्स देवरन्नो तओ परिसाओं' इत्यादि सकलमपि सूत्रं चमरवक्तव्यतायामिव भावनीयम् ।। 'कहिणं भंते ! ईसाणगदेवाणं है। विमाणा पण्णता? कहि णं भंते! ईसाणगदेवा परिवति' इत्यादि सर्व सौधर्मचद्वक्तव्यं नवरं मंदरस्स पब्बयस्स उत्तरेण ~328~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम [३२५] तथा 'भट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा भवतीति मक्खायं तथा पञ्चावतंसका:-पूर्वस्यामकावतंसको दक्षिणस्यां स्फटिकावतंसक: अपरयां रजतावतंसकः उत्तरस्यां जातरूपावतंसकः मध्ये ईशानावतंसकः, तथा शूलपाणिर्वृषभवाहनः, तथाऽशीते: सामानिकसहस्राणां चतसृणामशीवीनामामरक्षदेवसहस्राणां, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्पदि दश देवसहस्राणि मध्यमिकायां द्वादश बाह्यायां चतुर्दश, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि नब देवीशतानि मध्यमिकायागष्टी देवीशतानि बाह्यायां सप्त देवीशतानि, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्पदि देचानां सप्त पल्योपमानि मध्यमिकायां षट् बाह्यायां पञ्च, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां पथ पल्योपमानि मध्यमिकायां चलारि। बाबायां त्रीणि, शेष सर्व शक्रवत् ।। कहि णं भंते ! सर्णकुमाराणं देवाणं विमाणा पन्नत्ता?, कहि णं भंते! सर्णकुमारा देवा परिवसंति?' इति पाठसिद्ध, भगवानाह-गौतम! 'सोहम्मस्स कप्पस्स उप्पि सपक्ख सपडिदिसि बहूई जोयणाई बहूई जोयणसयाई बाई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसयसहस्साई बहुईओ जोयणकोडोओ बहूईओ जोयणकोडाकोडिओ उई दूर बीवइत्ता एत्य गं सर्णकुमारे नाम कप्पे पन्नत्ते' इति पाठसिद्ध, नवरं 'सपक्वं सपडिदिसि' समानाः पक्षा:-पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपाः पार्था यस्मिन् दूरमुत्पतने तत् सपक्षं 'समानस्य धर्मादिपु चेति समानस्य सभावः, तथा समानाः प्रतिदिशो-विदिशो यत्र तत् सप्रतिदिक् । पाईगपडीणायते उईजदाहिणविच्छिणे' इत्यादि सौधर्मकल्पबन्निरवशेषं वक्तव्यं, नवरं 'वारस विमाणावाससयसहस्सा भवतीति म खाय'मिति वक्तव्यं, तथा पञ्चानामवतंसकानां मध्ये चत्वारस्त एवाशोकावतंसकादयो मध्ये सनत्कुमारावतंसकः, अप्रमहिष्यो न बउक्तव्यास्तत्र परिगृहीतदेवीनामसम्भवात् , तथा 'सर्णकुमारे कप्पे सर्णकुमारवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए सणंकुमारंसि सीहास सि से णं तत्थ बारसहं बिनाणावाससयसहस्त्राणं बावत्तरीए सामाणियसाहस्सीर्ण' तथा 'चउण्हं बाबत्तराणं आयरक्खदेवसा -- -- जी०६६ ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम [३२५] श्रीजीवा- हस्सीण तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षद्यष्टौ देवसहस्राणि मध्यमिकायां दश बाझायों द्वादश, देवीपर्षदो न वक्तव्याः, तथाऽभ्यन्तरिकाय प्रतिपत्ती जीवाभि. पर्षदि देवानामपश्चमानि सागरोपमाणि पञ्च पल्योपमानि स्थितिः मध्यमिकायाम पञ्चमानि सागरोपमाणि चखारि पल्योप- वैमा० मलयगि- मानि बाह्यायाम पञ्चमानि सागरोपमाणि त्रीणि पल्योपमानि, शेषं शक्रवत् ॥ "कहि णं भंते! माहिंदगदेवाणं विमाणा पन्नता, उद्देशः १ रीयावृत्तिःपदाकहिणं भंते! माहिंदगदेवा परिवसंति ?, गोयमा! ईसाणस्स कप्पस्स उपि सपक्वं सपडिदिसि बहूई जोयणाई जाव उप्पएत्ता देवलोक॥३९१॥ एल्थ ण माहिये कप्पे पणत्ते' इति पूर्ववत् , 'पाईगपडीणायए उईणदाहिणविच्छिन्ने' इत्यादि सर्व शेष सनत्कुमारवनिरवशेष व- पत्स्थितव्यं, नवरमन्त्राष्टौ विमानावासशतसहस्राणि, अवतंसकाश्चत्वार ईशानवत् , तद्यथा-अङ्कावतंसक: स्फटिकावतंसको रजतावतंसको I त्यादि जातरूपावतंसको मध्ये माहेन्द्रावतंसकः । तथाऽऽधिपत्यचिन्तायाम् 'अढण्हं विमाणावाससबसहस्साणं सत्तरीए सामाणियसाहस्सीणं सू०२०८ चटण्हं सत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीण इति, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि घडू देवसहस्राणि मध्यमिकायामष्ठौ देवसहस्राणि बाह्यायां दश अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानामपञ्चमानि सागरोपमाणि पञ्च पल्योपमानि, शेषं सर्व यथा सनत्कुमारस्य ॥ 'कहि णं भंते ! | बंभलोगदेवाणं विमाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते ! बंभलोगदेवा परिवसंति?, गोयमा! सणकुमारमाहिंदाणं कप्पा उप्पि सपक्खं सप-] डिदिसिं बहूई जोषणाई जाव उप्पइत्ता एत्थ णं बंभलोगे नाम कप्पे पन्नत्ते पाईणपडिणायए उदीणदाहिणविच्छिन्ने पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए अनिमाली इंगालरासिवण्णा' इति पूर्वबद्भावनीयं शेषं यथा सनत्कुमारस्य तथा वक्तव्यं, नवरमन्त्र चलारि विमा-| नावासशतसहस्राणि, अवतंसका अपि चखारन्तथैव, तद्यथा-अशोकावतंसकः सप्तपर्णावतंसकः पम्पकावतंसकः चूतावतंसक: मध्ये | नहालोकावतंसकः, आधिपत्यचिन्तायामपि 'चउण्डं विमाणावाससयसहस्साणं सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ड य सट्ठीणमायर-IN ~330 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - - प्रत सूत्रांक ----- [२०८] क्खदेवसाहस्सीण'मिति, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि चत्वारि देवसहस्राणि मध्यसिकायां घड् देवसहस्राणि बाह्यायामष्टो देवसहस्राणि, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानामर्द्धनवमानि सागरोपमाणि पञ्च पल्योपमानि स्थितिः मध्यमिकायां पर्पदि अर्द्धनवमानि सागरो*पमाणि चलारि पल्योपमानि बाह्यायामनवमानि सागरोपमाणि त्रीणि च पल्योपमानि, शेषं यथा सनकुमारस्य । 'कहि णं भंते !! लंतगलोगदेवाण विमाणा पन्नत्ता? कहि गं भंते ! लंतगदेवा परिवसंति !, गो०! भलोयस्स कप्पस्स उप्पि सपक्वं सपडिदिसि बाई | जोयणाई जाव उप्पइत्ता एत्य गं लंतए नामं कप्पे पन्नत्ते पाईणपडिणायते उदीणदाहिणविछिपणे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए अधिमाली' इत्यादि ब्रह्मलोकवत् नवरमत्र पञ्चाशद्विमानावाससहस्राणि वक्तव्यानि, अवतंसकाश्चत्वार ईशानवत् , तयथा-अतावतंसकः स्फटिकावतंसकः रजतावतंसक: जातरूपावतंसक: मध्ये लन्तकावतंसकः, आधिपत्यचिन्तायां 'पण्णासाए विमाणावाससयसहस्साणं | पण्णासाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य पण्णासाणमायरक्खदेवसाहस्सी' तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि द्वे देवसहस्रे मध्यगिकायां चत्वारि बाझायाँ पट्, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां द्वादश सागरोपमाणि सप्त च पल्योपमानि खितिः मध्यमिकायां द्वादश | सागरोपमाणि षट् च पल्योपमानि बाह्यायां द्वादश सागरोपमाणि पञ्च पल्योपमानि || कहि णं भंते ! महासुकगदेवाणं विमाणा पण्णता? कहि पं भंते ! महासुकागदेवा परिवसन्ति ?, गोयमा! लंतगकप्पस्स उवरि सपक्खं सपडिदिसि बहूई जोयणाई जाब उ-1 प्पइत्ता एत्थ णं महामुकनामे कप्पे पन्नत्ते पाईणपडिणायते उदीणदाहिणविच्छिष्णे पडिपुत्रचंदसंठाणसंठिते' इत्यादि सर्वं ब्रह्मलोकवत् , हानबरमत्र चत्वारिंशद् विमानावाससहस्राणि वक्तव्यानि, अवतंसकाश्चत्वारस्तथैव, तद्यथा-अशोकावतंसकः सप्तपर्णावतंसक: चम्पका वतंसक: चूतावतंसक: मध्ये शुक्रावतंसकः, आधिपत्यचिन्तायो पत्तालीसाए विमाणावाससहस्साणं चत्तालीसाए सामाणियसाहस्तीणं दीप अनुक्रम [३२५] X ~331 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०८] दीप अनुक्रम [३२५] श्रीजीवा- चउण्हं चत्तालीसाणमायरक्खदेवसाहस्सीण'मिति, तथाऽभ्यन्त रिकायां पर्षदि एक देवसहसं मध्यमिकायां रे देवसहसे याह्यायां प्रतिपक्षी जीवाभि० चलारि देवसहस्राणि, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि अर्द्धपोडश सागरोपमाणि पञ्च पल्वोपमानि थितिः मध्यमिकायां षोडश साग-3 वैमा मलयगि-1 रोपमाणि चत्वारि पस्योपमानि बाह्यायामद्धषोडश सागरोपमाणि चीणि पस्योपमानि शेषं पूर्ववत् ॥ 'कहि णं भंते! सहस्सारदेवाण उद्देशान रोयावृत्तिः बिमाणा पण्णता ? कहि गं भंते ! सहस्सारदेवा परिवसंति', गोयमा! महासुकरस कप्पस्स उप्पि सपक्वं सपडिदिसि बहूई जोप- देवलोक॥३९२ ॥ गाई जाव उपदत्ता एस्थ णं सहस्सारे नाभं कप्पे पन्नत्ते पाईणपडीणायए पदीणदाहिणविच्छिन्ने पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए' -1:पस्थित्यादि ब्रह्मलोकवत् नवरमन्त्र घड विमानावाससहस्राणि वक्तव्यानि, अवतंसका एवम्-अङ्कावतंसक: स्फटिकावतंसक: रजतावतंसक: त्यादि जातरूपावतंसक: मध्ये सहस्रारावतंसकः, आधिपत्यचिन्तायां 'इण्हं विमाणावाससहस्साणं तीसाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं वी-10सू०२०८ कासाणं आयरक्सदेवसाहस्सीणं' तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि पञ्च देवशतानि मध्यमिकाथामेकं देवसहस्रं बाह्यायां हे देवसहने, तथा-13 |ऽभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवानां सार्द्राष्टादशसागरोपमाणि सप्त च पल्योपमानि मपमिकायां पर्षदि अष्टादश सागरोपमाणि षट् च ।। कपल्योपमानि थाहायाममा॑ष्टादशसागरोपमाणि पञ्च पस्योपमानि शेपं पूर्ववत् ॥ 'कहि णं भंते ! आणयपाणयनामे दुवे कप्पा प-IN जाणता? कहि णं भंते ! आणयपाणयगा देवा परिवसंति ?, गोयमा! सहस्सारकप्पस्स उम्पि सपक्खं सपडिदिसि बहूई जोयणाई जाव उप्पइत्ता एत्ध णं आणयपाणयनाम दुवे कल्पा पन्नचा पाईणपडीगायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया अचिमाली इंगालरासिप्पमा' इत्यादि सनत्कुमारवत् , नवरं तत्थ णं आणयपाणवदेवाणं चत्तारि विमाणावाससया भवतीति मक्खाय'मिति ब-16 ॥३९२॥ हैतन्यं, अवतंसका: अशोकावतंसकः सप्तपर्णावतंसक: चम्पकावतंसक: चूताववंसफ: मध्ये प्राणतावतंसकः, आधिपत्यचिन्तायां 'च ~332 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 4564 प्रत सूत्रांक 5 [२०८] दीप अनुक्रम [३२५] उहं विमाणावाससवाणं वीसाए सामाणियसाहस्सीणं असीए आयरक्खदेवसाहस्सीणं' तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि अर्द्धतृतीयानि देवशतानि मध्यमिकायां पञ्च देवशतानि बाथायामेकं देवसहस्र, तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानामबैकोनविंशतिः सागरोपमाणि दिपश्च पल्योपमानि स्थितिः मध्यमिकायागबैंकोनविंशतिः सागरोपमाणि चत्वारि च पल्योपमानि बाह्यायामर्दुकोनविंशतिः सागरो पमाणि त्रीणि च पस्योपनानि शेषं पूर्ववत् ।। 'कहि पं भंते ! आरणअनुयानानं दुवे कप्पा पण्णता ? कहि णं भंते ! आरणअचुजायगा देवा परिवसति, गोयमा! आणयपाणयाणं कप्पाणं उवरि सपक्वं सपडिदिसि बहूई जोयणाई जाव उप्पइत्ता एत्थ गं आरण अयानाम दुवे कप्पा पन्नत्ता पाईणपडीणायया उदीपदाहिणविच्छिष्णा अशचंदसंठाणसंठिया अधिमाली इंगालरासिवण्णाभा। भइत्यादि पूर्ववन् , नवरमर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थितलं प्रत्येकापेक्षया मेरोदक्षिणोत्तर विभागेनावस्थानान्, समुदितौ तु परिपूर्णचन्द्रसंस्थानौ | द्रष्टव्यौ, तथा त्रीणि विमानावासशतानि वक्तव्यानि, अवतंसका इमे-अशोकावतंसकः स्फटिकावतंसक: रजतावतंसकः जातरूपावतंसक: मध्येऽच्युतावतंसकः, आधिपत्यचिन्तायां 'तिण्हं विमाणावाससयाणं दसहं सामाणिवसाहस्सीणं चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीण तथा चात्र विमानावाससहणिगाथे-बत्तीस १ दाबीसा २ बारस ३ अट्ठ ४ चउरो सयसहस्सा ५ । पन्ना ६ चत्तालीसा ७ छच्च सहस्सा सहस्सारे ८ ॥१॥ आणयपाणथकप्पे चत्तारि सवाऽऽरणशुए त्तिन्नि । सत्त विमापसयाई चउसुवि एएसु कप्पेसु ॥ २॥" सामानिकसङ्कणिगाथा-"चउरासीई असीई बावत्तरि सत्तरी व सट्ठी य । पण्णा चचालीसा तीसा वीसा दस सहस्सा ॥१॥" तथाऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि पञ्चविश देवशतं मध्यमिकायाम तृतीयानि देवशतानि बाधायां पञ्च देवशतानि, तथाऽभ्यन्तरिकायाँ पर्षदि देवानामेकविंशतिः सागरोपमाणि सप्त च पस्योपमानि मध्यमिकायां पर्षदि एकविंशतिः सागरोपमाणि | 9%84542 ~333 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०८] त्यादि दीप अनुक्रम [३२५] श्रीजीवा-15पद् च पल्योपमानि बाह्यायामेकविंशतिः सागरोपमाणि पञ्च पल्योपमानि, शेषं पूर्ववत् ।। 'कहि भंते ! हेडिमगेवेजगाणं देवाणं | ३ प्रतिपत्ती जीवाभि विमाणा पन्नत्ता? कहि णं भंते! हेद्विमगेवेजगा देवा परिवसंति?, गोयमा! आरणअधुयाणं कप्पाणं उबरिं सपक्खं सपडिदिसि 4 मलयगि- यहूई जोवणाई जाव उड़े दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं हेडिमगेवेजगाणं देवाणं तओ हेडिमगेवेजविमाणा पण्णत्ता पाईणपडीणायया उदीणदा- उद्देशः१ रीयावृत्तिःठा हिणविच्छिण्णा पडिपुष्णचंदसंठाणसंठिता अचिमाली भासरासिवण्णाभा असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्वंभेणं असं-151 देवलोक खेजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेण सव्वत्थरयणामया अच्छा जाव पष्ठिरूबा, तत्व णं हेहिमगेवेजगाणं देवाणं एकारसुत्रे दापत्स्थि॥३९॥ गेबिजविमाणावाससए पन्नते, ते णं विमाणा अच्छा जाय पडिरूवा, तत्थ णं हेट्रिमगेवेजगा देवा परिवसंति' पाठसिद्ध, 'सव्वे || | समडिया' इत्यादि सर्वे-निरवशेषाः समा ऋद्धिर्येषां ते समर्द्धिकाः, एवं सो समयुतिकाः सर्वे समवला: सर्वे समयशसः सवें स-18|सू० २०८ समानुभागा: सर्वे समसौख्याः, अनिन्द्रा-न विद्यते इन्द्र:-अधिपतिर्येषां ते अनिन्द्राः, अप्रेषा-न विद्यते प्रेपा-पेण्यलं येषां ते अ-18 प्रेपाः, न विद्यते पुरोहित:-शान्तिकर्मकारी येषामशान्तेरभावात्ते अपुरोहिताः, किंरूपाः पुनस्ते ? इत्याह-अहमिन्द्रा नाम ते देवगणाः प्रज्ञप्ता: हे अमण! हे आयुष्मन् ! ॥ एवं मध्यमवेयकसूत्रमुपरितनौवेयकसूत्रमपि भावनीय, नवरमियं विमानसशासाहणि:-12 "एकामुत्तर हिटिमेसु १११ सत्तुत्तरं च मज्झिमए १०७ । सयमेगं उबरिमए १०० पंचेव अणुत्तरविमाणा ५॥ १॥" 'कहि [४ VIभंते ! अणुत्तरोववाइवाणं देवाणं विमाणा पन्नत्ता? कहिणं भंते ! अणुत्तरोक्वाइया देवा परिवसंति', गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए । पुढवीए बहुसमरमणिजामो भूमिभागाओ उई चंदिमसूरगहगणनक्खत्ततारारूवाणं बहूणि जोयणाई बहूणि जोयणसयाणि जाव पहूईओ01॥३९॥ दाजोयणकोडाकोडीओ उई दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाणसणकुमारमाहिदयंभलोगलंतगसुक्कसहस्सारआणयपाणयआरणअनुयकप्पे तिन्नि | %EOCRACTROCROCOCOCOct ~3344 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-१], --------------------- मूलं [२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * प्रत सूत्रांक GAR -X4 [२०८] य अट्ठारसुत्तरे गेवेजगविमाणावाससए वीइबइत्ता तेण परं दूरं गया नीरया निम्मला वितिमिरा विसुद्धा पंचदिसि पंच अणुचरा महइ-10 महालया विमाणा पन्नत्ता, तंजहा-विजये वैजयंते जयंते अपराजिते सबट्ठसिद्धे' इदं पाठसिद्धं, नबरं तिनि अटारसुत्तरे' इति त्रीणि अष्टादशोतराणि विमानावासशतानि, तत्रैकादशोत्तर शतमधस्तनौवेयकप्रस्तटेषु सप्तोत्तरं शतं मध्यमवेयकेषु परिपूर्ण शत-18 मुपरितनप्रैवेयकप्रस्तटेषु, सर्वसङ्ख्यया भवन्ति त्रीणि अष्टादशोत्तराणि, 'नीरजांसि' आगन्तुकरजोविरहात् 'निर्मलानि' खाभाविक-| मलाभावात् 'वितिमिराणि' रत्नप्रभावितानप्रभावेन सर्वासु विक्षु विदिक्षु चापहततमस्काण्डत्वान् 'विशुद्धानि' कचिदपि कलङ्कलेशस्थाप्यसम्भवात् , 'पंचदिसि' इति पञ्च पूर्वदक्षिणापरोत्तरमध्यमरूपा दिश: समाहताः पञ्चदिक् तस्मिन , तत्र पूर्वस्यां दिशि विजयं दक्षिणस्यां वैजयन्तं पश्चिमायां जयन्तं उत्तरस्यामपराजितं मध्ये सर्वार्थसिद्धम् , ते णं विमाणा' इत्यादि पूर्ववत् यावत् 'अहमिदा नामं ते देवगणा पत्ता समणाउसो' ।। इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाभिगमटीकायां चतुर्थप्रतिपत्ती वैमानिकाधिकारे प्रथमो वैमानिकोद्देशकः समाप्तः ।। सम्प्रति द्वितीयो वक्तव्यस्तत्रेदं सूत्रम् सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणपुढवी किंपइट्ठिया पण्णता?, गोयमा! घणोदहिपइडिया । सर्णकुमारमार्हिदेसु कप्पेसु विमाणपुढवी किंपइट्ठिया पण्णत्ता?, गोयमा! घणवायपइडिया पण्णत्ता । बंभलोए ण भंते! कप्पे विमाणपुढवीणं पुच्छा, घणवायपइडिया पण्णता । लंतए णं भंते! पुच्छा, गोयमा! तदुभयपइट्ठिया । महासुक्कसहस्सारेसुवि तदुभयपइडिया । आणय जाव दीप अनुक्रम [३२५] ACCO तृतीय-प्रतिपत्तौ वैमानिक-उद्देशकः (१) परिसमाप्त: अथ वैमानिक-उद्देशक: (२) आरब्ध: ~335. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: NI वैमा० प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥३९४॥ [२०९] दीप अनुक्रम [३२६] अधुएसु णं भंते ! कप्पेसु पुच्छा, ओवासंतरपइट्ठिया । गेविजविमाणपुढवीणं पुच्छा, गोयमा! प्रतिपत्तौ ____ओवासंतरपइडिया । अणुत्तरोक्वाइयपुच्छा ओवासंतरपइडिया ॥ (सू० २०९) 'सोहम्मीसाणेसु णं भंते' इत्यादि सौधर्मशानयोः, सूत्रे द्विवचनेऽपि बहुवचनं प्राकृतलात् , उक्तश्च-बहुपयणेण दुषया उद्देशा१ छट्टिविभत्तीऍ भन्नइ चउत्थी । जह हत्था तह पाया नमोऽत्थु देवाहिदेवाणं ॥ १॥"[बहुवचनेन द्विवचनं षष्ठीविभक्त्या भण्वते च-18 तुर्थी । यथा हस्तौ तथा पादौ नमोऽस्तु देवाधिदेवेभ्यः ॥ १॥] भदन्त ! कल्पयोर्विमानपृथिवी "किंप्रतिष्ठिता' कस्मिन् प्रतिष्ठिता है। | धार -किमानया किमाधारेत्यर्थः प्रज्ञप्ता?, भगवानाह-गौतम! धनोदधिप्रतिष्ठिता प्रज्ञता, एवं सनत्कुमारमाहेन्द्रेपु धनवातप्रतिष्ठिता, सू०२०९ ब्रह्मालोकेऽपि धनवातप्रतिष्ठिता, लान्तके 'तदुभयप्रतिष्ठिता' घनोदधिधनवानप्रतिष्ठिता, महाशुक्रसहस्रारयोरपि तदुभयप्रतिष्ठिता, | विमानपुआनतप्राणवारणाच्युते जयकाशान्तरप्रतिष्ठिता-आकाशप्रतिष्ठिता, एवं प्रैत्रेयकविमानपृथिवी अनुत्तरविमानपृथिवी च, उक्तञ्च- थ्वीबाहल्यं "धणोदहिपइहाणा सुरभवणा दोसु होति कप्पेसु । तिसु वायपइट्टाणा तदुभयपइडिया तीसु ॥ १॥ तेण परं उवरिमगा आगास-121 सू० २१० तरपइट्ठिया सब्वे । एस पइट्ठाणविही उड़े लोए विमाणाणं ॥२॥" अधुना पृथिवीथाहल्यप्रतिपादनार्थमाह सोहम्मीसाणकप्पेसु विमाणपुढवी केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ता?, गोयमा! सत्तावीसं जोयणसयाई याहल्लेणं पण्णत्ता, एवं पुच्छा, सणकुमारमाहिंदेसु छब्बीसं जोयणसयाई । बंभलंतए पंचवीसं । महासुकसहस्सारसु चउचीसं । आणयपाणयारणाचुएसु तेवीसं सयाई । गेचिजवि. || ३९४॥ माणपुढवी पावीसं । अणुत्तरविमाणपुढवी एकवीसं जोयणसपाई पाहल्लेणं ॥ (सू०२१०) अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देश: २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देश: । इति मुद्रितं ~336~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] दीप सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु विमाणा केवइयं उखु उच्चत्तेणं?, गोयमा! पंच जोयणसयाई उहुं उयत्सेणं । सणंकुमारमाहिंदेसु छजोयणसयाई, बंभलंतएसु सत्त, महामुक्कसहस्सारेसु अट्ट, आणयपाणएसु ४ नव गेवेजविमाणाणं भंते! केवइयं उहुं उ०, दस जोयणसयाई, अणुत्तरविमाणाणं एकारस जोयणसपाई उहूं उच्चत्तेणं ।। (सू०२११) सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेस विमाणा किंसंठिया पण्णता?, गोयमा! दुविहा पणत्ता, तंजहा-आवलियापविट्ठा वाहिरा य, तत्थ णं जे ते आवलियापविट्ठा ते तिविहा पपणत्ता, तंजहा-वटा तंसा चउरंसा, तस्थ णं जे ते आवलियबाहिरा ते णं णाणासंठिया पण्णत्ता, एवं जाय गेविजबिमाणा, अणुत्तरोववाइयविमाणा दुविहा पण्णता, तंजहा-वहे य तंसा य॥ (सू०२१२) सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा केवतियं आयामविक्खंभेणं केवतियं परिक्खे वेणं पण्णता?, गोयमा! दुविहा पण्णता, तंजहा-संखेजवित्थडा य असंखेजबित्थडा य, जहा णरगा तहा जाव अणुत्तरोववातिया संखेजविस्थडा य असंखेजविस्थडा य, तत्थ णं जे से संखेजविस्थडे से जंबुद्दीवप्पमाणे असंखेजविस्थडा असंखेजाई जोयणसयाई जाव परिक्खेवेणं पणत्ता ।। सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! विमाणा कतिवण्णा पन्नत्ता?, गोयमा! पंचवपणा पण्णत्सा, संजहा-किण्हा नीला लोहिया हालिद्दा सुकिल्ला, सर्णकुमारमाहिंदेसु चउवण्णा नीला जाव सुकिल्ला, बंभलोगलंतएसुवि तिवण्णा COCOCCORDCRORESCREG 4%9-%ACROGRES अनुक्रम [३२७ -३३२] ~337 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२१० -२१५] दीप अनुक्रम [३२७ -३३२] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ (मूलं + वृत्ति:) ------- उद्देशक: [ ( वैमानिक)-२], - मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रतिपत्ति: [३], श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ३९५ ॥ लोहिया जावला, महासुक्कसहस्सारेसु दुवण्णा - हालिद्दा य सुकिल्ला य, आणयपाणतारणsery सुकिल्ला, गेविजविमाणा सुकिल्ला, अणुत्तरोववातियविमाणा परमसुकिल्ला वण्णेणं पण्णत्ता || सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु विमाणा केरिसया पभाए पण्णत्ता ?, गोयमा ! णिचालोआ णिज्जोया सर्व पभाए पण्णत्ता जाव अणुत्तरोवधातियविमाणा णिचालोआ णिजोता सयं पभा पण्णत्ता ॥ सोधम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु विमाणा केरिसया गंधेणं पण्णत्ता ?, गोमा ! से जहा नामए – कोट्ठपुडाण वा जाब गंधेणं पण्णत्ता, एवं जाव एतो इयरागा चेव जाव अणुत्तरविमाणा || सोहम्मीसाणेसु विमाणा केरिसया फासेणं पण्णत्ता ?, से जहा णामए- आइति वा रूतेति वा सव्वो फासो भाणियन्वो जाव अणुत्तरोववातियविमाणा ॥ सोहम्मीसाणेसु णं भंते! (कप्पेसु) विमाणा केमहालिया पण्णत्ता?, गोयमा ! अयण्णं जंबुदीवे २ सव्वीसमुद्दा सो चैव गमो जाव छम्मासे वीवजा जाव अत्थेगतिया चिमणावासा नो वीइवएजा जाव अणुसरोववातियविमाणा अत्थेगतियं विमाणं बीतिवएजा अत्थेगतिए नो वीड़वएज्जा | सोहम्मीसाणेसु णं भंते! विमाणा किंमया पण्णत्ता?, गोयमा ! सव्वरयणामया पण्णत्ता, तत्थ णं बहवे जीवा य पोग्गला य वकमंति विउकमंति चयंति उवचयंति, सासया णं ते विमाणा दव्वट्ट्याए जाव फासपजवेहिं असासता जाव अणुतरोववातिया वि For P&P Cy ३ प्रतिपत्ती वैमा० उद्देशः १ उच्चत्वसं स्थाने ~338~ सु०२११ २१२ आयामादि सू० २१३ ।। ३९५ ।। अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते — वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देशः २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देशः १ इति मुद्रितं Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२१० -२१५] दीप अनुक्रम [३२७ -३३२] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ /२ (मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ------ उद्देशक: [ ( वैमानिक ) -२], • मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि प्रणीता वृत्तिः माणा ॥ सोहम्मीसाणे णं देवा कओहिंतो उधवजंति ?, उबवातो नेयब्बो जहा बकंतीए तिरियमणुए पंचदिए समुच्छिमवजिएसु, उबवाओ वकंतीगमेणं जाव अणुत्तरो० ॥ सोहम्मीसा देवा एसमएणं केवतिया उबवजंति ?, गोयमा! जत्रेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा उक्को सेणं संखेजा वा असंखेज्जा वा उववज्जंति, एवं जाब सहस्सारे, आणतादी गेवेज्जा अणुत्तरा य एको वा दो वा तिष्णि वा उक्कोसेणं संखेजा वा उबवजंति | सोहम्मीसाणेसु णं भंते! देवा समए २ अवहीरमाणा २ केवतिएणं कालेणं अवहिया सिया ?, गोयमा ! तेणं असंखेजा समए २ अवहीरमाणा २ असंखेजाहिं उस्सप्पिणीहिं अवहीरंति नो चेव णं अवहिया सिया जाव सहरसारो, आणतादिगेसु चउसुवि, गेवेज्जेसु अणुत्तरेसु य समए समए जाव केवतिकालेणं अव हिया सिया?, गोयमा! ते णं असंखेजा समए २ अवहीरमाणा पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागमेसेणं अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया ॥ सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु देवाणं केमहालया सरीरोगाहणा पण्णत्ता?, गोयमा ! दुबिहा सरीरा पण्णत्ता, तंजहा - भवधारणिजाय उत्तरवेडविया य, तत्थ णं जे से भवधारणिजे से जहनेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागो उक्कोसेणं सत्त रयणीओ, तत्थ णं जे से उत्तरवेउब्विए से जपणेणं अंगुलस संखेजतिभागो उक्कोसेणं जोगणसतसहस्सं, एवं एकेका ओसारेसाणं जाव अणुत्तराणं एका रयणी, For P&Praise City ~339~ www Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ----------------------उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५]] श्रीजीवाजीवामि मलयगिरीयावृत्तिः ४३ प्रतिपत्ती वैमा० उद्देशः१ संहननसंस्थाने सू०२१४ देववर्णादि | सू०२१५ ॥३९६॥ गेविजणुत्तराणं एगे भवधारणिजे सरीरे उत्तरवेउब्विया नत्थि ॥ (सू०२१३) सोहम्मीसाणेसु णं देवाणं सरीरगा किसंघपणी पण्णत्ता?, गोयमा! छहं संघयणाणं असंघयणी पपणत्ता?, नेवढि नेव छिरा नवि पहारूणेव संघयणमस्थि, जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव ते तेसिं संघातत्ताए परिणमंति जाव अगुत्तरोववातिया ॥ सोहम्मीसाणेसु देवाणं सरीरगा किंसंठिता पण्णता?, गोयमा। दुविहा सरीरा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्विया य, तस्थ णं जे ते भवधारणिजा ते समचरंससंठाणसंठिता पण्णत्ता, तस्थ णं जे ते उत्तरयेउविधा ते णाणासंठाणसंठिया पण्णत्ता जाव अघुओ, अवेउब्विया गेविजणुत्तरा, भवधारणिजा समचउरंससंठाणसंठिता उत्तरवेउब्बिया णस्थि ॥ (सू०२१४) सोहम्मीसाणेसु देवा केरिसया वण्णेणं पन्नसा?. गोयमा! कणगत्तपरत्ताभा वण्णेणं पण्णत्ता । सर्णकुमारमाहिदेसु णं पउमपम्हगोरा वण्णेणं पण्णत्ता | बंभलोगे णं भंते! गोयमा! अल्लमधुगवण्णाभा वण्णणं पण्णत्ता, एवं जाव गेवेज्जा, अणुत्तरोववातिया परमसुकिल्ला वपणेणं पन्नत्ता । सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु देवाणं सरीरगा केरिसया गंधणं पण्णत्ता?, गोयमा! से जहा णामए-कोहपुडाण वा तदेव सवं जाव मणामतरता चेव गंधेणं पण्णत्ता जाव अणुत्तरोववाइया । सोहम्मीसाणेसु देवाणं सरीरगा केरिसया फासेणं पण्णता?, गोयमा! थिरमउयणिद्धसुकुमालच्छविफासेणं पण्णत्ता, एवं जाव अ दीप अनुक्रम [३२७-३३२] ॥ ३९६॥ JaElim अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देश: २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देश: । इति मुद्रितं ~340 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत 4-2CAR सूत्रांक [२१०-२१५] दीप गुत्तरोववातिया । सोहम्मीसाणदेवाणं केरिसगा पुग्गला उस्सासत्ताए परिणमंति?, गोयमा! जे पोग्गला इट्टा कंता जाव ते तेसिं उस्सासत्ताए परिणमंति जाव अणुत्तरोववातिया, एवं आहारत्ताएघि जाव अणुत्तरोववातिया ॥ सोहम्मीसाणदेवाणं कति लेस्साओ पण्णत्ताओ?, गोयमा। एगा तेउलेस्सा पण्णत्ता । सर्णकुमारमाहिदेसु एगा पम्हलेस्सा, एवं बंभलोगेवि पम्हा, सेसेसु एका सुक्कलेस्सा, अणुत्तरोववातियाणं एका परमसुकलेस्सा । सोहम्मीसाणदेवा किं सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्टी?, तिपिणवि, जाव अंतिमगेवेजा देवा सम्मदिहीवि मिच्छाविट्ठीवि सम्मामिच्छादिट्ठीवि, अणुत्तरोववातिया सम्मदिट्ठी णो मिच्छादिट्ठी णो सम्मामिच्छादिट्टी॥ सोहम्मीसाणा किं णाणी अण्णाणी?, गोयमा! दोवि, तिण्णि णाणा तिषिण अपणाणा णियमा जाव गेवेजा, अणुत्तरोववातिया नाणी नो अण्णाणी तिपिण णाणा णियमा। तिविधे जोगे दुविहे उवयोगे सव्वेसिं जाव अणुत्तरा ॥ (सू०२१५) 'सोहम्मीसाणेसु णमित्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमानपृथ्वी 'कियत्' किंप्रमाणा बाहल्येन प्रज्ञप्ता, गौतम! सप्तविंशतियोजनशतानि बाल्येन प्रज्ञप्ता, एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः पविशतियोजनशतानि बक्तव्यानि, ब्रह्मलोकलान्तकयोः पञ्चविंशतिः, महाशुक्रसहस्रारयोश्चतुर्विंशतिः, आनतप्राणतारणाच्युतकल्पेषु त्रयोविंशतिः, प्रैवेयकेषु द्वाविंशतिः, अनुत्तरविमानेवैकविंशतियोंजनशतानि ॥ सम्प्रति विमानानामुस्वपरिमाणं प्रतिपिपादयिषुराह-'सोहम्मीसाणेसु अनुक्रम [३२७ 60-4 -३३२] जी०६७ ~341 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] सू० २१४ बीजीवा- भते' इत्यादि, यह विमानं महानगरकल्प तस्य चोपरि वनखण्डप्राकाराः प्रासादादयः, तत्र पूर्वेण सूत्रकदम्बकेन विमानपूथिवीबाह- प्रतिपचौ जीवानि. ल्यमुक्तं, अनेन प्रासादापेक्षया उच्चत्वमुच्यत इति गर्भः, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमानानि कियद् अर्ध्वमुच्चैस्खेन प्रजातानि?, वैमा० मलयनि- भगवानाह-गौतम! पञ्च योजनशतानि ऊर्द्धमुच्चैस्खेन प्राप्तानि, मूलपासादादीनां तत्र पचयोजनशतोच्छ्यप्रमाणवात् , एवं शेष- उदेशः१ रीयावृत्तिःसत्रायविभाजन सूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः पड़ योजनशतानि वक्तव्यानि, ब्रह्मलोकलान्तकयोः सप्त योजनशतानि, महा- 2 संहनन१३९७॥ शुक्रसहस्त्रारयोरष्टौ योजनशतानि, आनतप्राणतारणाच्युतेषु कल्पेषु नव योजनशतानि, प्रैवेयकेषु दश योजनशतानि, अनुत्तरेष्वेकादश संस्थाने योजनशतानि, सर्वत्रापि विमानानि बाहल्योचलमीलनेन द्वात्रिंशद्योजनशतानि, उपर्युपरि बाह्यमु(ल्यहानिवदु)चे स्त्वस्य वृद्धिभावात् , उक्तश्च- सत्तावीससवाई आदिमकप्पेसु पुढविवाहल्लं । एककहाणि सेसे दुदुगे य दुगे चउक्क य ॥१॥ पंचसउच्चत्तेणं आदिमकप्पेसु | होति य विमाणा। एकेकवुद्धि सेसे दु तुगे व दुगे चउके य ॥२॥ गेवेजगुत्तरेसु पसेव कमो त हाणिबुडीए । एककमि विमाणा दोनिवि | सू० २१५ मिलिया उ बत्तीसं ॥३॥" [सप्तविंशतिः शतानि आयकल्पयोः पृथ्वीवाहल्यं । एकैकहानिः शेषेषु द्वयोयोईयोश्चतुष्के च ॥१॥ ऊर्वोच्चलेन पञ्च शतानि आवकल्पयोर्भवन्ति विमानानि । एकैकवृद्धिः शेषेषु योयोश्च द्विके चतुष्के च ॥२॥ अवेयकानुत्तरयोरेष एव क्रमो हानिवृद्धयोः । एकैकस्मिन् विमानानि द्वाबपि मीलयित्वा द्वात्रिंशच्छतानि ॥ ३॥] सम्प्रति संस्थाननिरूपपार्थमाह-'सोहम्मीसाणेसु णं भंते !' इत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोविमानानि किंसंस्थितानि प्रज्ञप्तानि ?, भगबानाह- ३९७॥ गौतम! द्विविधानि प्राप्तानि, तद्यथा-आवलिकाप्रविष्टानि आवलिकाबाह्यानि च, तत्रावलिकाप्रविष्टानि नाम यानि पूर्वादिषु चतसृषु दिक्षु श्रेण्या व्यवस्थितानि, यानि पुनरावलिकाप्रविष्टानां प्राङ्गणप्रदेशे कुसुमप्रकर इव यतस्ततो विप्रकीर्णानि तान्यावठिकाबाह्यानि, दीप अनुक्रम [३२७ देववर्णादि -३३२] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देश: २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देश: । इति मुद्रितं ~342 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत %99-2001 सूत्रांक [२१०-२१५] दीप तानि पुष्पावकीर्णानीत्युच्यन्ते, पुष्पाणीव इतस्ततोऽवकीर्णानि-विप्रकीर्णानि पुष्पावकीर्णानि इति व्युत्पत्तिः, तानि च मध्यवर्तिनो। रविमानेन्द्रस्य दक्षिणतोऽपरत उत्तरतश्च विद्यन्ते न तु पूर्वस्यां दिशि, उक्तच्च-पुप्फावकिण्णगा पुण दाहिणतो पच्छिमेण उत्तरतो। पुग्वेण विमाणेदस्स नत्यि पुष्फाबकिष्णा उ ॥१॥" 'तस्थ ण'मित्यादि, तत्रावलिकाप्रविष्टाऽऽवलिकाबाह्येषु मध्ये यानि तानि भावलिकाप्रविष्टानि तानि त्रिविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-वृत्तानि व्यस्राणि चतुरस्राणि, इहावलिकाप्रविष्टानि प्रतिप्रस्तट विमानेन्द्रकस्व पूर्वदक्षिणापरोत्तररूपासु चतसृषु दिक्षु श्रेण्या व्यवस्थितानि, विमानेन्द्रकश्च सबोंऽपि वृत्तः, ततः पार्थवृत्तीनि चतसृष्वपि दिक्षु ज्यमाणि, तेषां पृष्ठतश्चतसृष्वपि विक्षु चतुरस्राणि, तेषां पुष्टतो वृत्तानि, ततोऽपि भूयोऽपि व्यस्राणि ततोऽपि चतुरस्राणीत्येवमावलिकापर्यन्तः, तत्र विविधान्येवावलिकाप्रविष्टानि ॥ 'तत्थ ण मित्यादि, तत्र यानि आवलिकाबाहानि तानि नानासंस्थानसंस्थितानि प्रज्ञप्तानि, तथाहि-कानिचिन्नन्द्यावर्ताकाराणि कानिचित्स्वस्तिकाकाराणि कानिचित् खड्गाकाराणीत्यादि, उक्तच-आबलियासु विमाणा बट्टा तसा तहेब चउरंसा । पुप्फावकिण्णगा पुण अणेगविहरूवसंठाणा ॥१॥" एवं तावद्वाच्यं यावद् पैवेयकविमानानि, तान्येव यावदावलिकाप्रविष्टानामावलिकाबाद्यानां च भावात् , परत आवलिकाप्रविष्टान्येव, तथा चाह-'अणुत्तरविमाणा णं भंते! विमाणा किंसंठिया पन्नता?' इत्यादि प्रभसूत्र, भगवानाह-गौतम ! द्विविधानि प्रजातानि, नद्यथा-'बट्टे य तंसा य, मध्यवर्सिसर्वार्थसिनावाख्यं विमानं दृत्तं, शेषाणि विजयादीनि चत्वार्यपि त्र्यम्राणि, उक्तचाएग व तंसा चउरो य अणुत्तरविमाणा।" । अधुनाऽऽयामवि४ कम्भादिपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मीसाणेसुणं भंते !' इत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमानानि कियद् आवामविराकम्भेन कियत्परिक्षेपेण प्रजातानि?, भगवानाह-गौतम ! द्विविधानि विमानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सद्ध्येयविस्तृतान्यसङ्क्वेयविस्तृतानि च, अनुक्रम [३२७ 646 -३३२] ~343 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५]] मलयगि दीप अनुक्रम [३२७ श्रीजीवा- तत्र यानि तानि सोयविस्तृतानि सोयानि योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भेन असङ्ख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण, तत्र यानि ता- प्रतिपत्ती जीवाभिमन्यसोयविस्तृतानि असलयेयानि योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भेन असक्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण, एवं तावद्वाच्यं यावद् पैवेय-15 | कविमानानि, तानि यावत् सहयविस्तृतानामसोयविस्तृतानां च बाहल्येन भावात् न तु परतः, तथा चाह--'अणुत्तरविमाणे ण भंते! उद्देशः१ रीयावृत्तिः केवइयं आयामविक्खंभेण मित्यादि प्रश्नसूत्र सुगम, भगवानाह-द्विविधानि प्रजातानि, तद्यथा-सोयविस्तृतानि असावे यविस्तृतानि च, संहनन सर्वार्थसिद्धं सोयविस्तृतं शेषाण्यसह्यपेयविस्तृतानीति भावः, तत्र यत्तत्सालयविस्तृतं तद् एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेन त्रीणि संस्थाने ॥३९८॥ योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके योजनानां क्रोशत्रिकमष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदशाङ्गुलानि एकमर्दाकुल- सू०२१४ मिति परिक्षेपेण, तत्र यानि तान्यसहयेयविस्तृतानि तान्यसङ्खयेयानि योजनसहस्राण्यायामविष्कंभेन असंख्येयानि योजनसहस्राणि देववर्णादि कापरिक्षेपेण प्रज्ञप्तानि ॥ सम्प्रति वर्णप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मीसाणेसु णं भंते!' इत्यादि, सौधर्मशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमा- सू०२१५ नानि कतिवर्णानि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! पञ्चवर्णानि, तद्यथा-कृष्णानि नीलानि लोहितानि हारिद्राणि शुक्लानि, एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोश्चतुर्वर्णानि कृष्णवर्णाभावात् , ब्रह्मलोकलान्तकयोखिवर्णानि कृष्णनीलवर्णाभावात् , महाशुक्रसहस्रारयोर्तुिवर्णानि कृष्णनीलहारिद्रवर्णाभावात् , आनतप्राणतारणाच्युत कल्पेषु एकवर्णानि, शुक्लवर्णस्यैकस्य भावात् , मवेयकविमानानि अनुत्तरविमानानि च परमशुक्लानि, उक्तश्च-"सोहम्मि पंचवण्णा एकहीणा उ जा सहस्सारे । दो दो तुल्ला कप्पा तेण परं पुंडरीयाई ॥१॥" सम्प्रति प्रभाप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मीसाणेसु ण'मित्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयो- ३९८॥ विमानानि कीदृशानि प्रभया प्रज्ञप्तानि?, कीदृशी तेषां प्रभा प्रज्ञतेति भावः, भगवानाह-गौतम! प्रभया प्रज्ञप्तानि 'नित्यालोकानि' -३३२] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देश: २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देश: । इति मुद्रितं ~3444 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] दीप नियमालोको-दर्शनं हश्यमानता येषां तानि नियालोकानि न तु जातुचिदपि तमसाऽऽश्रीयन्त इति भावः, कर्थ नियालोकानि | इति हेतुद्वारेण विशेषणमाइ-नित्योद्योतानि, 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति हेतोः प्रथमा, ततोऽयमर्थ:यस्मानित्य-सतत्तमप्रतिघमुद्द्योतो-दीप्यमानता येषां तानि(तथा)ततो नित्यालोकानि, सततमुद्योतमानता च परसापेक्षाऽपि संभाव्येत | यथा मेरोः स्फटिककाण्डस्य सूर्यरश्मिसम्पर्कतः, तत आह-स्वयंप्रभाणि स्वयं सूर्यादिप्रभावत् देदीप्यमानता येषां तानि तथा, एवं निरन्तरं | तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरविमानानि ।। सम्प्रति गन्धप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मीसाणेसु णं भंते!' इत्यादि, सौधर्मशानयोभदन्त ! कल्पयोर्विमानानि कीदृशानि गन्धेन प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! 'से जहानामए कोहपुडाण वा चंपकपुडाण वा दमणगपुडाण वा कुंकुमपुडाण वा चंदणपुडाण वा उसीरपुडाण वा मरुयापुडाण वा जाईपुडाण वा जूहियापुडाण वा मल्लियापुडाण वा हाणमणिया-12 ॐापुडाण वा केयापुडाण वा पाटलिपुडाण वा नोमालियापुडाण वा बासपुडाण वा कप्पूरपुडाण वा अणुवायंसि उभिजमाणाण ना कुट्टिजमाणाण वा रुविजमाणाण वा उकीरिजमाणाण वा बिक्खरिजमाणाण वा परिभुजमाणाण वा परिभाइजमाणाण वा भंडाओ | वा भंड साहरिजमाणाण वा मोराला मणुण्णा मगहरा घाणमणनिबुइकरा सव्वतो समंता गंधा अभिनिस्सरंति, भवे एयारूवे | 8|सिया, नो इणद्वे समझे, ते णं विमाणा एत्तो इटुतरा चेव कंततरा चेव मणुनतरा चेव मणामतरा चेव गंधेणं पण्णत्ता' अस्य | दव्याख्या पूर्ववत्, एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरविमानानि ।। सम्प्रति स्पर्शप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मीसाणेस ण'मित्यादि सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमानानि कीदृशानि स्पर्शन प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! से जहानामए अधणेइ वा रूतेइ वा 18|यूरेइ वा नवणीपद वा हंसगम्भतूलीइ वा सिरीसकुसुमनिचए वा पवालकुसुमपत्तरासीइ वा, भवे एयारूये, मो इणढे समढे, ते णंx अनुक्रम [३२७ -३३२] Jatical ~345 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] दीप अनुक्रम [३२७-३३२] श्रीजीवा- विमाणा इतो इहतरा चेव कंततरा चेव मणुनतरा चेव मणायतरा चेव फासेणं पण्णत्ता' इति पूर्ववत्, एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं 8/३ प्रतिपत्ती जीवामियावदनुत्तरविमानानि ॥ सम्प्रति महत्त्वप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु' इत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त वैमा० मलयगि- कल्पयोर्षिभानानि "किंमहान्ति' किंप्रमाणमहत्त्वानि प्रज्ञप्तानि !, भगवानाह-गौतम! 'अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि जम्बू- उद्देशः१ रोयावृत्तिः द्वीपवाक्यं परिपूर्णभेवं द्रष्टव्यं 'सव्वहीबसमुदाणं सबभंतराए सव्वखुड़ाए वढे तेलापूपसंठाणसंठिते वट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए 31 संहनन दिवट्टे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एक जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिन्नि व जोयणसयसहस्सा सोलस सहस्सा दो य सया स-16 संस्थाने ॥ ३९९॥ चावीसा तिन्नि य कोसे अट्ठावीसं धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्न,' इदं च पूर्ववद् भावनीय, सू०२१४ देको नाम महर्बिको यावन्महाभागः यावत्करणात् महाद्युतिक इत्यादिपरिग्रहः, 'जाव इणामेव' 'इणानेवेति यावदिदानीमेव, अ- देववर्णादि लिनेन चप्पुटिकानयानुकरणपुरस्सरमत्यन्तं काळस्तोकत्वं इतिकृत्वा केवलकल्प-परिपूर्ण जम्बूद्वीपं द्वीपं त्रिभिरप्सरोनिपाते:-तिमृभि-ला |सू०२१५ श्वप्पुटिकाभिरित्यर्थः त्रिसप्तकल:-एकविंशतिवारान् 'अनुपरिवर्त्य' प्रादक्षिण्येन परिभ्रम्य 'हवं' शीघ्रमागच्छेत् ‘से णं देखें इत्यादि, स देवस्तया सकलदेवजनप्रसिद्धया पूर्वदृष्टान्तभावितया 'उत्कृष्टया' अतिशायिन्या 'तुरियाए चलाए चंडाए सिग्याए उजुयाए जवणाए छेयाए' अमीषां पदानां व्याख्यानं पूर्ववत् , "दिव्यया' देवगल्या व्यतिव्रजन् यावदेकाह वा पहं वा उत्कर्षत: प-16 एमासान व्यतिव्रजन् तत्रास्त्येककं विमानं यद् व्यतिव्रजेत् अस्त्येक विमा यन्न व्यतिव्रजेत् , 'एवंमहालिया ण' एतावंति महान्ति | गौतम! विमानानि प्राप्तानि, एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरविमानानि ॥ 'सोहम्मीसाणेसु ण'मित्यादि, सौधर्मेशानयोभ-18॥२९९ ॥ दन्त ! कल्पयोर्विमानानि किंयानि प्रज्ञानानि ?, भगवानाह-गौतम! सर्वासना रबमयानि अच्छानि यावत्मतिरूपाणि । 'नत्य ण-18 JusticeIGI अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देश: २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देश: । इति मुद्रितं ~346 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] दीप मित्यादि, तत्र-तेषु किमानेषु बहनो जीवा:-पृथ्वीकायरूपाः पुगलाच 'अपकामम्ति' गच्छन्ति 'व्युत्कामन्ति' उत्पद्यन्ते, तथा|| 'चीयन्ते' चयसुपगच्छन्ति 'जपचीयन्ते' उपचयमुपगच्छन्ति, एतत् पुद्गलापेक्षं विशेषणं, पुद्रलानामेव चयोपचयधर्मकत्वात् , शाश्वतानि भदम्त! विमानानि द्रव्यार्थत्या प्रजातानि?, वर्णपर्यायै रसपर्यायैर्गन्धपर्यायैः स्पर्शपर्यायैरशाश्वतानि प्रज्ञातानि, एवं निरन्तरं ताबद्वक्तव्यं यावदनुत्तरविमानानि ॥ 'सोहम्मीसाणेसु णं भंते! इत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त! कल्पयोर्देवाः कुतो योनेरुद्धृत्योप| धन्ते ? किं नैरयिकेभ्यः ? इत्यादि यथा 'व्युत्क्रान्ती' व्युत्क्रान्त्याख्थे षष्ठे पदे प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यं यावदनुत्तरोपपातिका देवाः, इह तु अन्यगौरवमयाम लिख्यते भूयात् हि स ग्रन्थः । सम्प्रति कियन्त एकस्मिन् समये उत्पद्यन्ते । इति निरूपणार्थमाइ-'सो-1k हम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवा एकस्मिन् समये, सूत्रे तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतखात् , कियन्त उत्पद्यन्ते ?, भगवानाह* II-गौतम! जघन्येन एको द्वौ वा त्रयो वा, पत्कर्षत: सोया वाऽसोया वा तिरधामपि गर्भजपञ्चेन्द्रियाणां तत्रोत्पादात्, एवं | नावद्वक्तव्यं यावत्सहस्रारकल्पः, 'आणयदेवा णं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनैको द्वौ त्रयो वा उत्कर्षत: मायेयाः, मनुष्याणामेव तत्रोत्पादान , तेषां कोटीकोटीप्रमाणत्वात् , एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरोपपातिका देवाः ॥ सम्प्रति कालतोऽपहारत: परिमाणमाह-सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मशानयोर्भदन्त! कल्पयोदेवा: समये समये एकैकदेवापहारेणाप-18 हियमाणा अपहियमाणा: कियता कालेनापडियन्ते , भगवानाह-गौतम! असोयास्ते देवाः समये समये एकैकदेवापहारेणापहियमाणा: २ असोयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते, एतायता किमुक्तं भवति?-असत्येयासूत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणा: सौधर्मेशानदेवा इति, एवमुत्तरत्रापि भावना भावनीया, एतच्च कल्पनामात्रं परिमाणावधारणार्थमुक्तं न पुनस्ते कदाच अनुक्रम [३२७-३३२] RC+9 ~347 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२१० -२१५] दीप अनुक्रम [३२७ -३३२] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ (मूलं + वृत्ति:) ------- उद्देशक: [ ( वैमानिक)-२], - मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ४०० ॥ Ja Eco in प्रतिपत्ति: [३], ५ नापि केनाप्यपहृताः स्युः, तथा चाह - 'नो चेव णं अवहिया सिया' एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावत्सहस्रार कल्पदेवाः, 'आणयपाणय आरणअच्चुरसु' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! आगतप्राणतारणाच्युतेषु कल्पेषु देवा असलेयाः, ते च समये समये एकैकापहारेणापहियमाणाः पस्योपमस्य-क्षेत्रपल्योपमस्य सूक्ष्मस्यायेयभागमात्रेण कालेनापहियन्ते, किमुक्तं भवति' -सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमास येयभागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणास्ते भवन्तीति, एवं मैवेयकदेवा अनुत्तरोपपातिनोऽपि वाच्याः ॥ स- 8 म्प्रति शरीरावगाहनामानप्रतिपादनार्थमाह- 'सोहम्मीसाणेसु णं भंते!" इत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां 'किंमहालया' इति किं महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह - गौतम! द्विविधा प्रज्ञता, तद्यथा भवधारणीया उत्तरवेक्रिया च तत्र या सा भवधारणीया सा जघन्यतोऽङ्गुलायेयमागमात्रा उत्कर्षतः सप्त रत्नयः, तत्र या सा उत्तरवैक्रिया सा जघन्यतोऽङ्गुलस्य स - छोयं भागं यावत् न त्वसङ्ख्येयं तथाविधप्रयत्नाभावात्, उत्कर्षत एकं योजनशतसहस्रं एवं तावद्वाच्यं यावदच्युतकल्पो, नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोरुत्कर्षतो भवधारणीया पडू रत्नयः, ब्रह्मलोकलान्तकेषु पञ्च महाशुक्रसहस्रारयोश्चत्वारः, आनतप्राणतारणाच्युतेषु त्रयः, 'गेवेज्जगदेवा णं भंते!' इत्यादि, मैवेयकदेवानां भदन्त ! किंमहती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह - गौतम ! मैवेयकदेवानामेकं भवधारणीयं शरीरं प्रशप्तं न तूत्तरवैक्रियं शक्तौ सत्यामपि प्रयोजनाभावात्तदकरणात्, तदपि च भवधारणीयं जघन्यतोकुलासोयभागमात्रमुत्कर्षतो द्वौ रत्नी, एवमनुत्तरोपपातसूत्रमपि वक्तव्यं, नवरमुत्कर्षत एका रनिरिति वाच्यम् ॥ सम्प्रति संहननमधिकृत्याह - 'सोहम्मी' त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां शरीराणि 'किंसंहननानि' किं संहननं येषां तानि तथा प्रशप्तानि ?, भगवानाह - गौतम ! षण्णां संहननानामन्यतमेनापि संहननेनासंहननानीति, संहननस्यास्थिरचनात्मकत्वात् तेषां चास्थ्या For P&False City ३ प्रतिपत्तौ बैमा० उद्देशः १ संहनन संस्थाने ~ 348 ~ सू० २१४ देववर्णादि सू० २१५ ॥ ४०० ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते — वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देशः २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देशः १ इति मुद्रितं Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] दीप दीनामसम्भवात् , तथा पाह-'नेवट्ठी' इत्यादि, नैवास्थि तेषां शरीरेषु नापि शिरा-पीवाधमनिर्नापि खाषि-शेष शिराजाल,SH किन्तु ये पुद्गला इष्टाः कान्ता: प्रिया मनोज्ञा मनआपतरा एतेषां व्याख्यानं प्राग्वन् ते तेषां सङ्घाततया परिणमन्ति ततः संहन-14 नाभावः, एवं तावद्वाच्यं यावदनुत्तरोपपातिकानां देवानां ।। सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मीसाणेसु' इत्यादि प्रभसूत्रं | सुगम, भगवानाह-गौतम! तेषां शरीरकाणि द्विविधानि प्रज्ञतानि, तद्यथा-भवधारणीयानि उत्तरवैक्रियाणि च, तत्र यद् भवधारणीयं तत्समचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थितं प्रज्ञप्त, देवानां भवप्रख्यतः प्रायः शुभनामकर्मोदयभावान्, तत्र यदुत्तरवैकियं तत् नानासंस्थानसंस्थितं प्रज्ञप्तं, तस्वेच्छया निर्वय॑मानलात्, एवं तावद्वक्तव्यं यावदच्युत: कल्पः, 'गेविजगदेवाण'मित्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! अवेयकदेवानामेकं भवधारणीयं शरीरं तच्च समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितं प्रज्ञत, एवमनुत्तरोपपातिसूत्रमपि । अधुना वर्णप्रतिपादनार्थमाह-सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां शरीरकाणि कीदृशानि वर्णेन प्रज्ञप्तानि?, भगवानाह गौतम! कनकत्वगुयुक्तानि कनकलगिव रक्ता आभा-छाया येषां तानि तथा वर्णेन प्रज्ञातानि, उत्तप्तकनकवर्णानीति भावः, एवं शेष-18 3|सूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोब्रह्मलोकेऽपि च पद्मपक्ष्मगौराणि, पाकेसरतुल्याबदातवर्णानीति भावः, ततः परं ६ लान्तकादिषु यथोत्तरं शुक्छशुक्लत्तरशुलतमानि, अनुत्तरोपपातिनां परमशुक्लानि, उक्तव्य-कणगचयरत्तामा सुरवसभा दोसु होति *कप्पेसु । तिसु होति पम्हगोरा तेण परं सुकिला देवा ।। १॥" सम्प्रति गन्धप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मी'त्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगबानाह-गौतम! 'से जहानामए-कोटपुडाण वा' इत्यादि विमानवद्भावनीयं, एवं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरोपपातिनाम् । स-16 साम्प्रति स्पर्शप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां शरीरकाणि कीदृशानि स्पर्शेन प्रज्ञप्तानि ?, अनुक्रम [३२७ ACHAR -३३२] ~349 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] दीप मीजीवा- भगवानाह-गौतम ! 'थिरमजयणिद्धसुकुमाला फासेणं पण्णत्ता' इति स्थिराणि नतु मनुष्याणामिव विशरारुभावं विभ्राणानि प्रतिपत्ती जीवाभिमृदूनि-अकठिनानि निग्धानि-सिग्धछायानि नतु रूक्षाणि सुकुमाराणि नतु कर्कशानि ततो विशेषणसमासः, स्पर्शन प्रज्ञप्तानि, वैमा० मळ्यगि एवं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरोपपातिनां देवानां शरीरकाणि ॥ साम्प्रतमुच्छासप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयो-15 उद्देशः१ रीयावृत्तिः भदन्त ! कल्पयोर्देवानां कीदृशाः पुद्गला उच्छासतया परिणमन्ति ?, भगवानाह-गौतम! ये पुद्गला इष्टाः कान्ताः प्रिया मनोबा दन्त कल्पवान संहनन॥४०१॥ मनापा एतेषां व्याख्यानं प्राग्वत् ते तेषामुच्छासतया परिणमन्ति, एवं तावद्वाच्यं यावदनुत्तरोपपातिका देवाः । एवमाहारसूत्रा- संस्थाने ण्यपि ।। सम्प्रति लेश्याप्रतिपादनार्थमाह-सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां कति लेश्या: प्रज्ञप्ता:?, भगवा-14 सू०२१४ नाह-गीतम! एका तेजोलेश्या, इदं प्राचुर्यमङ्गीकृत्य प्रोच्यते, यावता पुनः कश्चित्तथाविधद्रव्यसम्पर्कतोऽन्याऽपि लेश्या यथास-IIदेववर्णादि म्भवं प्रतिपत्तव्या, सनत्कुमारमाहेन्द्रविषयं प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! एका पश्चलेश्या प्रज्ञप्ता, एवं अझलोकेऽपि, लान्तके | सू०२१५ प्रभसूत्रं सुगम, निर्वचनं-गौतम! एका शुक्लेश्या प्रज्ञप्ता, एवं यावदनुत्तरोपपातिका देवाः, उक्तश्च-"किण्हानीलाकाउतेउलेसा |य भवणवंतरिया । जोइससोहम्मीसाण तेउलेसा मुणेबन्दा ॥ १॥ कप्पे सणकुमारे माहिदे चेव बंभलोए य । एएमु पम्हलेसा तेण परं सुकलेसा उ ॥ २॥" सम्प्रति दर्शनं चिचिन्तयिषुराह-'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त! कल्पयोर्देवा गमिति वाक्यालकारे किं सम्यग्दृष्टयो मिथ्वादृष्टयः सम्यग्मिध्यादृष्टयः?, भगवानाह-गौतम! सम्यग्दृष्टयोऽपि मिथ्यादृष्टयोऽपि सम्यग्मिध्यादृट-19 योऽपि, एवं यावद् प्रैवेयकदेवाः, अनुत्तरोपपातिनः सम्यग्दृष्टय एव बफव्याः न मिच्यादृष्टयो नापि सम्बग्मिध्यादृष्टयः तेषां तथा-IN४०१॥ स्वभाबलात् ॥ सम्प्रसि ज्ञानाहानचिन्तां चिकीर्षुराह-सोहम्मी'त्यादि प्रभसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम! हानिनोऽप्यज्ञानिनो अनुक्रम [३२७ -३३२] JEscix अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते-वैमानिकदेवाधिकारस्य उद्देश: २ इति वर्तते, तत् स्थाने मुद्रण-दोषात् उद्देश: । इति मुद्रितं ~350 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [३], ---------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], --------------------- मूलं [२१०-२१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१०-२१५] kkk दीप पि, तत्र ये ज्ञानिनस्ते नियमात्रिज्ञानिनस्तद्यथा-आभिनिबोधिकहानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनः, ये अज्ञानिनस्ते नियमात् व्यज्ञाहै निनस्तद्यथा-मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिनश्च, एवं तावद्वाच्यं यावद् अबेयकाः, अनुत्तरोपपातिनो ज्ञानिन एक वक्तव्याः, योगसूत्राणि पाठसिद्धानि ॥ सम्प्रत्यवधिक्षेत्रपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह सोहम्मीसाणदेवा ओहिणा केवतियं खेतं जाणंति पासंति?, गोयमा! जहणेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उकोसेणं अवही जाव रयणप्पभा पुढवी उर्दु जाव साई विमाणाई तिरियं जाव असंखेजा दीवसमुद्दा [एवं सकीसाणा पढमं दोचं च सर्णकुमारमाहिंदा । तचं च बंभलंतग सुक्कसहस्सारग चउत्थी ॥ १ ॥ आणयपाणयकप्पे देवा पासंति पंचर्मि पुढवीं । तं चेव आरणय ओहीनाणेण पासंति ॥२॥छट्ठी हेट्ठिममज्झिमगेवेज्जा सत्तर्मि च उवरिल्ला । संभिपणलोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा ॥३॥] (सू० २१६) 'सोहम्मी'खादि, सौधर्मेशानयोभदन्त ! कल्पयोर्देवाः कियक्षेत्रमवधिना जानन्ति शानेन पश्यन्ति दर्शनेन ?, भगवानाह-गौतम! जघन्येनाकुलस्यासयेयभार्ग, अन पर आह-नन्बलासङ्ख्येयभागमात्रक्षेत्रपरिमितोऽवधिः सर्वजघन्यो भवति, सर्वजघन्यश्चावधिस्तिर्यग्मनुष्येष्वेव न शेषेषु, यत आह भाष्यकारः स्वकृतभाष्यटीकायाम्-'उत्कृष्टो मनुष्येष्वेव नान्येपु, मनुष्यतिर्यग्योनिष्वेव जघन्यो नान्येषु, शेषाणां मध्यम एवे"ति तत्कथमिह सर्वजघन्य उक्तः ?, उच्यते, सौधर्मादिदेवानां पारभाविकोऽप्युपपातकालेऽवधिः संभवति स एव कदाचित्सर्वजघन्योऽपि उपपातानन्तरं तु तद्भवज: ततो न कश्चिद्दोषः, आह च जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण:-"वेमा अनुक्रम [३२७ -३३२] ~351 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [३], ---------------------उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------------------- मूलं [२१६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक २१६] श्रीजीवा- णियाणमंगुलभागमसंखं जहन्नओ होइ (ओही)। उववाए परभविओ तब्भवजो होइ तो पच्छा ।। १॥" 'उकोसेणं एवं यथा- प्रतिपत्ती जीवाभि | ऽवधिपदे प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यं, तचैवम्-'उकोसेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए हेहिले चरमंते' अधस्तनाचरमपर्यन्ताद्वै मा० 13 यावदित्यर्थः 'तिरियं जाव असंखेने दीवसमुहे, उई जाव सगाई विमाणाई स्वकीयानि विमानानि स्वकीय विमानस्तूपध्वजादिकं याव-18| उद्देशः२ रीयावृत्तिः |दित्यर्थः 'जाणंति पासंति, एवं सर्णकुमारमाहिंदावि, नवरं अहे जान दोबाए सकरप्पभाए पुढवीए हेहिले चरिमंते, एवं बंभलोगलं- वैमानिका मतगदेवावि, नवरं अहे जाव तच्चाए पुढवीए, महासुकसहस्सारगदेवा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेहिले चरिमंते, आणयपाणयआ- नामवधिः ॥४०२॥ रणधुयदेवा अहे जाव पंचमीए पुढबीए धूमप्पभाए हेदिल्ले परिमंते, हेटिममज्झिमगेवेजगदेवा हट्ठीए तमप्पभाए पुढवीए हेडिल्ले च-18 सू०२१६ रिमंते, उबरिमगेवेवगा देवा अहे जाव सत्तमाए पुढवीए हेहिल्ले चरिमंते, अणुत्तरोषवाइयदेवा णं भंते ! केवइयं खेत्तं ओहिणा जा-18|समुद्घागंति पासंति ?, गोयमा ! संभिन्नं लोगनालि' परिपूर्ण चतुर्दशरजवालिका लोकनाडीमित्यर्थः 'ओहिणा जाणंति पासंति' इति, उक्तश्च तादि -'सकीसाणा पढम दोथं च सर्णकुमारमाहिंदा । तच्चं च बंभलंतग सुकसहस्सारण चउत्थि ।। १ ।। आणयपाणयकप्पे देवा पासंति ४ परवा पासात सू०२१७ |पंचमि पुढविं । तं व आरणश्य ओहीनाणेण पासंति ॥ २॥ छढि हिटिममज्झिमगेविजा सत्तमि च उवरिल्ला । संभिन्नलोगनालि पासंति अणुत्तरा देवा ।। ३ ।। सम्प्रति समुद्घातप्रतिपादनार्थमाह सोहम्मीसाणेसु णं भंते! देवाणं कति समुग्धाता पण्णत्ता?, गोयमा! पंच समुग्धाता पण्णत्ता, तंजहा-वेदणासमुरघाते कसाय० मारणंतिय० वेउब्बिय० तेजससमुग्घाते एवं जाव अधुए। गेवेजाणं आदिल्ला तिपिण समुग्धाता पण्णत्ता ॥ सोहम्मीसाणदेवा केरिसयं खुधपिवासं पच दीप अनुक्रम [३३३-३३६] *-*-964 ॥४०२ SCAR JanaPAL ~352 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------------------- मूलं [२१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१७] णुब्भवमाणा विहरंति?, गोयमा! पत्थि खुधापिवासं पचणुभवमाणा विहरति जाव अणुत्तरोववातिया ॥ सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु देवा एगत्तं प्र विउवित्तए पुहत्तं पभू विउब्बित्तए?, हंता पभू, एगसं विउब्वेमाणा एगिदियख्वं वा जाव पंचिंदियरूवं वा पुहत्तं विउब्बेमाणा एगिदियरूवाणि वा जाव पंचिंदियरूवाणि वा, ताई संग्वेजाइपि असंखेजाइपि सरिसाई पिअसरिसाइंपि संपदाइंपि असंबद्धाइंपि रूवाई विउव्यंति विउवित्ता अप्पणा जहिरिछयाई कजाई करेंति जाव अचुओ, गेवेजणुत्तरोववातिया देवा किं एग पभू विउवित्तए पुहुत्तं पभू विउवित्तए?, गोयमा ! एगत्तंपि पुहुत्तंपि, नो चेव णं संपत्तीए निउब्बिसु वा विउब्बति वा विउव्यिस्संति वा ॥ सोहम्मीसाणदेवा केरिसयं सायासोक्खं पञ्चणुम्भवमाणा विहरंति ?, गोयमा! मणुपणा सहा जाव मणुषणा फासा जाव गेविजा, अणुत्तरोववाइया अणुत्तरा सहा जाव फासा।। सोहम्मीसाणेसु देवाणं केरिसगा इड्डी पण्णत्ता,गोयमा! महिड्डीया महजुइया जाव महाणुभागा इडीए पं० जाब अचुओ, गेवेजणुत्तरा य सब्वे महिहीया जाच सव्ये महाणुभागा अणिंदा जाव अहमिंदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो! ।। (सू० २१७) 'सोहम्मी'त्यादि प्रभसूर्य सुगम, भगवानाह-गौतम पम समुदूधाता: प्रज्ञतास्तद्यथा-वेदनासमुद्घातः कषायसमुदूपातो मरमाणसमुद्घातो क्रियसमुद्घातस्तैजससमुद्घात:, एतेषां वरूपं प्रागेत्र द्विविधप्रतिपत्ताभिहितं, उत्तरौ द्वौ समुद्घातौ न भवतः, आ -- दीप अनुक्रम [३३७] जी०६८ ~353 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------------------- मूलं [२१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१७] श्रीजीवा- हारकलब्धिकेवलित्वाभावात् , एवं तावद्वाच्यं यावदच्युतः कल्पः, 'गेवेजगदेवाणभंते!' इत्यादि प्रश्रसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-15 प्रतिपत्तौ जीवाभि गौतम! पञ्च समुद्घाताः प्रज्ञप्तास्तयथा-वेदनाममुद्घात इत्यादि, एते च पञ्चापि तेषां शक्तित: प्रतिपत्तव्याः, कर्त्तव्यतया तु तत्र वैमानिकामलयगि- त्रय एव, तथा चाह-नो चेवण' मित्यादि, नैव कदाचनापि वैक्रियतैजससमुद्घाताभ्यां समवहताः समवहन्यन्ते समवहनिष्यन्तेानां समुद्रीयावृत्ति प्रयोजनाभावतः प्रकृत्युपशान्ततया च क्रियसमुद्घातारम्भासम्भवात् , एवमनुत्तरोपपातिकानामपि वक्तव्यम् ।। 'सोहम्मी'त्यादि,राघातादि कसौधर्मशानयोर्भदन्त ! कल्पयोवाः कीदृशं क्षुच्च पिपासा च क्षुत्पिपासं प्रत्यनुभवन्तो 'बिहरन्ति' आसते?, गौतम! नास्त्येतद् यत्ते उद्देशः२ क्षुत्पिपास प्रत्यनुभवन्तो विहरन्तीति, एवं यावदनुत्तरोपपातिकाः ॥ 'सोहम्मीसाणेसु ण'मित्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्दैवाः 8| सू०२१७ |'एकत्वम्' एकरूपं विकुवितुं प्रभवः पृथक्वं ?--बहूनीत्यर्थः, भगवानाह-गौतम! एकत्वमपि प्रभवो विकुर्वितुं पृथक्लमपि प्रभवो अविकर्षितुं, एकवं विकुर्वन्त एकेन्द्रियरूपं वा द्वीन्द्रियरूपं या त्रीन्द्रियरूपं वा चतुरिन्द्रियरूपं वा पञ्चेन्द्रियरूपं वा विकृषितुं, पृथक्लं | बिकुर्वन्त एकेन्द्रिवरूपाणि यावत्पञ्चेन्द्रियरूपाणि वा, तान्यपि सहयेयानि विकुर्वन्ति अस यानि वा, तान्यपि 'सदृशानि' सजातीयानि | हैवा 'असहशानि' विजातीयानि 'संबद्धानि' आत्मनि समवेतानि 'असंबद्धानि' आत्मपदेशेभ्यः पृथग्भूतानि प्रासादयटपटादीनि, यथा चतुर्दशपूर्वधरा घटाद् घटसहस्रं पटापटसहस्रं कुर्वन्ति, विकुर्विवा पश्चाद् यादृच्छिकानि कार्याणि कुर्वन्ति, एवं तावद्याबदल्युतकल्पदेवाः, गेवेजगदेवाणं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्रतीतं, भगवानाह-गौतम! एकत्वमपि प्रभवो विकुर्वितुं पृथक्त्वमपि, 'नो चेत्रण'मित्यादि, नैव | | |४०३॥ पुन: 'सम्पत्त्या' साक्षाद्वैक्रियरूपसम्पादनेन विकुर्वितबन्तो विकुर्वन्ति विकुर्विष्यन्ति एवमनुत्तरोपपातिका अपि वक्तव्याः ॥'सोहम्मीत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त! कल्पयोर्देवाः कीदृशं 'सातसौख्यं सासं-आवादरूपं सौख्यं सातसौरुष प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ?, दीप अनुक्रम [३३७] A%* ~354 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------------------- मूलं [२१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१७] दीप अनुक्रम [३३७] भगवानाह-गौतम! मनोज्ञा: शब्दा मनोज्ञानि रूपाणि मनोज्ञा गन्धा मनोज्ञा रसा: मनोज्ञाः स्पर्शा: एवरूपं सातसौख्यं प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति, एवं तावद्वाच्यं यावद्वैवेयकदेवाः, 'अणुत्तरोववाइयाण'मित्यादि प्रअसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! अनुत्तराः। शब्दा यावदनुतराः स्पर्शाः इत्येवंरूपं सातसौख्य प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ।। साम्प्रतमृद्धिप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मे-10 शानयोर्भदन्त ! कल्पयोबा: कीडशा ऋजया प्रज्ञप्ता:, भगवानाह-गौतम! महर्द्विका यावन्महानुभागाः, अमीषा पदानां व्याख्यान पूर्ववत्, एवं सावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरोपपातिका देवाः ॥ सम्प्रति विभूषाप्रतिपादनार्थमाह सोहम्मीसाणा देवा केरिसया विभसाए पपणत्ता?, गोयमा! दुविहा पण्णता, तंजहा-बेउवियसरीरा य अवेउब्वियसरीरा य, तत्थ णं जे ते वेउब्वियसरीरा ते हारविराइयवच्छा जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा जाव पडिरूवा, तत्थ णं जे ते अवेउब्बियसरीरा ते णं आभरणवसणरहिता पगतित्था विभूसाए पपणत्ता ॥ सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु देवीओ केरिसियाओ विभूसाए एण्णत्ताओ?, गोयमा! दुविधाओ पपणत्ताओ, तंजहा-वेब्वियसरीराओ य अवेउब्वियसरीराओ य, तत्थ णं जाओ घेउब्वियसरीराओ ताओ सुवण्णसहालाओ सुवण्णसद्दालाई वत्थाई पवर परिहिताओ चंदाणणाओ चंदविलासिणीओ चंदद्धसमणिडालाओ सिंगारागारचारुवेसाओ संगय जाव पासातीयाओ जाव पडिरूवा, तत्थ णं जाओ अवेउब्बियसरीराओ ताओ णं आभरणवसणरहियाओ पगतित्थाओ विभूसाए पण्णत्ताओ, KAMACHCECACANAMANCACA% ~355 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------------------- मूलं [२१८-२२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक -- [२१८ - -२२० श्रीजीवा सेसेसु देवा देवीओ णत्थि जाव अचुओ, गेवेजगदेवा केरिसया विभूसाए?, गोयमा! प्रतिपत्तौ जीवाभि० आभरणवसणरहिया, एवं देवी णत्यि भाणियब्वं, पगनित्था विभूसाए पण्णता, एवं अणुत्त- वैमानिकामलयगिरावि ।। (सू०२१८) सोहम्मीसाणेसुदेवा केरिसए कामभोगे पचणुभवमाणा विहरति?, गो नां भूषारीयावृत्तिः यमा! इहा सद्दा इट्टा रूवा जाब फासा, एवं जाव गेवेजा, अतुतरोववातियाणं अणुत्तरा सदा कामभोजाव अणुसरा फासा ॥ (सू० २१९) ठिती सम्वेसिं भागिपब्वा, देवित्ताएवि, अणंतरं चयंति गाःस्थितिः ॥४०४॥ चइत्ता जे जहिं गच्छंति तं भाणियव्यं ।। (सू० २२०) उद्देशः२ 'सोहम्मी'त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां शरीरकाणि कीदृशानि विभूपया प्रजातानि', भगवानाह-गौतम! द्विविधानि सू०२१८० प्रज्ञाप्तानि, तद्यथा-भवधारणीयानि उत्तरवैक्रियाणि च, तत्र यानि तानि भवधारणीयानि तानि आभरणवसनरहितानि प्रकृतिस्थानि | विभूषया प्रज्ञप्तानि, स्वाभाविक्येव तेषां विभूषा नौपाधिकीति भावः, तत्र यानि तानि उत्तरवैक्रियरूपाणि शरीराणि तानि 'हारविराइयवच्छा' इत्यादि पूर्वोक्तं तावद्वतव्यं यावत् 'दस दिसाओ उजोवेमाणा पभासमाणा पासाईया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरूवा | विभूसाए पन्नत्ता' अस्य व्याख्या पूर्ववत्, एवं देवीष्वपि नवरं 'ताओ णं अच्छराओ सुवण्णसद्दालाओं' इति नूपुरादिनिषोंउपयुक्ताः 'सुवण्णसद्दालाई वत्थाई पवरपरिहिताओं सकिङ्किणीकानि वस्राणि प्रवरं-अत्युस्ट यथा भवत्येवं परिहितवन्त्य इति । *भावः, 'चंदाणणाओ चंदविलासिणीमो चंदद्धसमनिडालाओ चंदाहियसोमदसणाओ उका इव उज्जोत्रमाणीभो बिजपणमरीइसूरदिप-13 ततेयअहिययरस निकासाओ सिंगारागारचारुवेसाओ पासाईयाओ दुरिसणिज्जाओ अभिरूबाओं' इति प्राग्वत् , एवं देवानां शरीर-18 दीप अनुक्रम [३३८३४०] | २२० JaEcons ~356 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२१८ -२२०] दीप अनुक्रम [३३८ ३४०] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) - मूलं [२१८-२२०] प्रतिपत्ति: [३], --------- उद्देशक: [ ( वैमानिक)-२ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः विभूषा तावद्वाच्या यावदच्युतः कल्पः, देव्यस्तु सनत्कुमारादिषु न सन्तीति न तत्सूत्रं तत्र वाच्यं 'गेवेजगदेवा णं भंते! सरीरा केरिसगा विभूसाए पन्नता ? गोयमा ! गेवेज्जगदेवाणं एगे भवधारणिजे सरीरे ते णं आभरणवसणरहिया पगइत्था विभूसाए पण्णत्ता' इति पाठः, एवमनुत्तरोपपातिका अपि वाच्याः ॥ सम्प्रति कामभोगप्रतिपादनार्थमाह- 'सोहम्मी' व्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोः कीदृशान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येकं वेदयमाना विहरन्ति ?, भगवानाह - गौतम! इष्टान् शब्दान् इष्टानि रूपाणि इष्टान् गन्धान् इष्टान् रसान् इष्टान् सन् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति एवं यावद् मैवेयकदेवाः, अनुत्तरोपपातिकसूत्रेषु अनुत्तरानिति वक्तव्यम् ॥ अधुना स्थितिप्रतिपादनार्थमाह- 'सोहम्मगदेवाण' मित्यादि, सौधर्म्मक देवानां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह गौतम ! जघन्यत एक पस्योपममुत्कर्षतो द्वे सागरोपमे, एवमीशाने जघन्यत एकं सातिरेकं पस्योपममुत्कर्षतो द्वे सातिरेके सागरोपमे, सनत्कुमारे जघन्यतो द्वे सागरोपमे उत्कर्षतः सप्त सागरोपमाणि माहेन्द्रे जघन्यतः सातिरेके द्वे सागरोपमे उत्क पेतः सातिरेकाणि सप्त सागरोपमाणि ब्रह्मलोके जघन्यतः सप्त सागरोपमाणि उत्कर्षतो दश सागरोपमाणि, लान्सके जघन्यतो दशसागरोपमाणि उत्कर्षतञ्चतुर्दश सागरोपमाणि, महाशुके जघन्यतञ्चतुर्दश सागरोपमाणि उत्कर्षतः सप्तदश सहस्रारे जघन्यतः सप्तदश ४ सागरोपमाणि उत्कर्षतोऽष्टादश, आनतकल्पे जघन्यतोऽष्टादश सागरोपमाणि उत्कर्षत एकोनविंशतिः प्राणते जघन्यत एकोनविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतो विंशतिः, आरणे जघन्यतो विंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षत एकविंशतिः, अच्युते जघन्यत एकविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतो द्वाविंशतिः, अपस्वनाधस्तनयैवेयकस्तटे जघन्यतो द्वाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतस्त्रयोविंशतिः, अधस्तनमध्यमत्रैवेयक प्रस्तटे जघन्यतस्त्रयोविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतञ्चतुवैिशतिः, अधस्तनोपरितनयैवेयकप्रस्तटे जघन्यतञ्चतुर्विंशतिः सा For P&Pale Cly ----- ~357~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------------------- मूलं [२१८-२२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१८ -२२०] -- श्रीजीवा-18 गरोपमाणि उत्कर्षतः पञ्चविंशतिः, मध्यमायतनगवेयकप्रस्तटे जघन्यतः पञ्चविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतः षडविंशतिः, मध्यम-18३ प्रतिपत्ती जीवाभि मध्यमप्रैचेयकप्रस्तटे जघन्यतः षड्विंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षत: सप्तविंशतिः, मध्यमोपरितनौवेयकप्रस्तटे जघन्यत: सप्तविंशतिः मानिका मलयगि-10 |सागरोपमाणि उत्कर्षतोऽष्टविंशतिः, उपरितनाधस्तनौवेयकप्रस्तटे जघन्यतोऽष्टाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षत एकोनत्रिंशत् , उप नां भूषारीयावृत्तिः रितनमध्यमौवेयकप्रस्तटे जघन्यत एकोनत्रिंशत्सागरोपमाणि उत्कर्षतविंशत् , उपरितनोपरितनौवेयकप्रस्तटे जघन्यतस्त्रिंशस्सागरो-121 181 कामभो॥४०५॥ीपमाणि उत्कर्षत एकत्रिंशत् , विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु जघन्यत एकत्रिंशत्सागरोपमाणि उत्कर्पतस्त्रयस्त्रिंशत् , सर्वार्थसिद्धे म-18 गाःस्थितिः हाविमानेऽजघन्योत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि ॥ सम्प्रत्युद्वर्तनामाह-'सोहम्मगदेवाणमित्यादि, सौधर्मकदेवा भदन्त ! अनन्तरं उद्देशः२ सू०२१८अव्यवधानेन च्यवित्वा क गच्छन्ति !, एतदेव ब्याचष्टे-कोत्पद्यन्ते ?, किं नैरषिकेषु गच्छन्ति यावदेवेषु गच्छन्ति ?, भगवानाह-गौतम! गो. नेरइएसु उववजति' इत्यादि यथा प्रज्ञापनायां पष्ठे व्युत्क्रान्यास्यपदे तथा बक्तव्यं, एष च सङ्केपार्थ:-पादर-13 पर्याप्तेषु पृथिव्यवनस्पतिपु पर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्येषु च सयातवर्षायुकेषु, एवमीशानदेवा अपि, सनत्कुमा-g रादयः सहस्रारपर्यन्ताः पर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्येष्वेव सवातवर्षायुष्केषु नै केन्द्रियेष्वपि, आनतादयो यावदनुत्तरोपपातिका न तिर्यपञ्चेन्द्रियेष्वपि किन्तु यथोक्तरूपेषु मनुष्येषु ।। सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पे सब्वपाणा सव्वभूया जाव सत्ता पुढविकाइयत्ताए जाव वण ॥४०५॥ स्सतिकाइयत्ताए देवत्ताए देवित्ताए आसणसयण जाव भंडोवगरणत्ताए उववष्णपुवा?, हंता - २२० - - दीप अनुक्रम [३३८३४०] - - - ~358~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र-३/२ (मूलं+वृत्ति:) प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------------------- मूलं [२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२१] गोयमा! असई अदुवा अर्णतखुत्सो, सेसेसु कप्पेसु एवं चेव, णवरि नो वेवणं देवित्ताए जाव गेवेजगा, अणुत्तरोववातिएसवि एवं, णो चेव णं देवत्ताए देविसाए । सेसं देवा ॥ (सू०२२१) 'सोहम्मे णमित्यादि, सौधर्मे भदन्त! कल्पे द्वात्रिंशद् विमानायासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् विमाने सर्वे प्राणाः सर्वे भूताः। सर्वे जीवाः सर्वे सत्त्वाः, अमीपां व्याख्यानमिदम्-प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूताश्च तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा उद्दीरिताः॥१॥" पृथ्वीकायतया देवतया देवीतचा, इह च बहुषु पुस्तकेन्वेतावदेव सूत्रं दृश्यते, कचित्पुनरेतदपिर -'आउकाइयत्ताए तेउकाइयत्ताएं इत्यादि तन्न सम्यगवगच्छामस्तेजस्कायस्य तत्रासम्भवात् , 'आसणे'त्यादि, आसनं-सिंहासनादि शयनं-पल्यतः सम्भा:-प्रासादाद्यवष्टम्भहेतवः भाण्डमात्रोपकरणं-हारार्द्धहारकुण्डलादि तत्तयोत्पन्नपूर्वाः १, भगवानाह-गौतम! 'असकृत्' अनेकवारमुत्पन्नपूर्बो इति सम्बन्धः, अथवा 'अनन्तकृत्वः' अनन्तान् वारान , सांव्यवहारिकराश्यन्तर्गतै वैः सर्वस्था-15 नानां प्रायोऽनन्तश: प्राप्नत्वात् , एवमीशानेऽपि वक्तव्यं, सनत्कुमारेऽप्येवमेव, नवरं 'नो चेव णं देविताए' इति विशेषः तत्र देवीनामुत्पादाभावात् , एवं यावद् अवेयकाणि, पंचसु णं भंते ! अणुत्तरे' इत्यादि पाठसिद्धं नवरं 'नो चेव णं देवित्ताए' इति, अनन्तकत्लो देवत्वस्य प्रतिषेधो विजयादिषु चतुर्दोत्कर्षतोऽपि वारद्वयं सर्वार्थसिद्धे महाविमाने एकवारं गमनसम्भवात् , तत ऊर्द्धमवश्यं म-11 नुष्यभवासादनेन मुक्तिप्राप्तः, देवीत्वस्य च प्रतिषेधस्तत्रोत्पादासम्भवात् ॥ सम्पत्ति चतुर्विधानामपि जीवानां सामान्यतो भवस्थिति कायस्थितिं च प्रतिपिपादयिषुराह नेरइयाणं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साई उक्को GANGACACANC+CHAY दीप अनुक्रम [३४१] ~359 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------------------- मूलं [२२२-२२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत CAR सूत्रांक [२२२-२२३] दीप श्रीजीवा- सेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, एवं सब्वेसि पुच्छा, तिरिक्खजोणियाणं जहन्नेणं अंतोमु. उक्कोसेणं ४३ प्रतिपत्ती जीवाभि तिन्नि पलिओवमाई, एवं मणुस्साणवि, देवाणं जहा रतियाणं ।। देवणेरइयाणं जा चेव ठिती विमानेषु मलयगि- सचेव संचिट्ठणा, तिरिक्खजोणियस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तो उक्कोसेणं वणस्सतिकालो, मणुस्से णं देवादितरीयावृत्तिः भंते ! मणुस्सेति कालतो केवचिरं होति?, गोयमा! जहणणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलि- योत्पाद: ओवमाई पुब्बकोडिपुहृत्समभहियाई ॥णेइरयमणुस्सदेवाणं अंतरं जहन्नेणं अंतोमु० उको- | गतिचतुसेणं वणस्सतिकालो। तिरिक्खजोणियस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं सागरोपमसय- प्कस्थित्यपुहत्तसाइरेगं ।। (स०२२२) एतेसिणं भंते! रइयाणं जाव देवाण य कयरे०१. गोयमा! न्तरेअल्पसव्वत्योवा मणुस्सा रहया असं० देवा असं०तिरिया अणंतगुणा, सेतं चउब्विहा संसार बहुत्वं समावण्णगा जीवा पण्णत्ता ॥ (सू०२२३) | उद्देशा२ 'नेरइयाणं भंते ! केवइयं काल' मित्यादि, नैरविकाणां जघन्यतः स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि, एतद् रत्नप्रभाप्रथमप्रसटमपेक्ष्योक्तं,81 सू०२२१दाउस्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशसागरोपमाणि, एतत्सप्तमनरकपृथिव्यपेक्षया, तिर्यग्योनिकानां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, एतरे-IN २२३ | बकुर्वादिकमपेक्ष्य द्रष्टव्यं, एवं मनुष्याणामपि, देवानां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि, एतद्भवनपतिव्यन्तरानधिकृत्यावबोद्धव्यं, उत्कर्ष-121 |तस्त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि, तानि विजयायपेक्ष्य ।। 'नेरइयाणं भंते!' इत्यादि, नैरयि को भदन्त ! नैरयिकत्वेन कालत: कियचिरं |Amwal भवति?, भगवानाह-गौतम ! 'जा चेव भवहिई सा चेव संचिट्ठणावि' यैव भवस्थिति: सैव 'संचिट्ठणावि' कायस्थितिरपि, नैर EOGHAR RE5%95%-45-% अनुक्रम [३४२३४३] R ~360 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------------------- मूलं [२२२-२२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२-२२३] दीप अनुक्रम [३४२३४३] यिकस्याव्यवधानेन भूयो नैरयिकेपूत्पादाभावात् , 'नो नेरइए नेरइएसु उववजई' इति वचनात् , 'तिरिक्खजोणिए णं भंते!' इत्यादि । प्रभसूत्रं प्राग्वत् , गौतम! जघन्यतोऽन्लर्मुहूर्त, तदनन्तरं भूखा मनुष्यादाबुत्पादात् , उत्कर्षतोऽनन्त कालं, वनस्पतिकायिकेष्वनन्तकालमवस्थानात् , तमेवानन्तकालं निरूपयति-वनस्पतिकालः, यावान् शास्त्रान्तरे बनस्पतिकाल उक्तस्तावन्तं कालमित्यर्थः, स चैवम् |-अर्णताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अणंता लोगा असंखेजा पुग्गलपरियट्टा, ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए| असंखेज्जइभागों' सुगमम् , मनुष्यविषयं प्रभसूत्रं पाठसिद्ध, निर्वचन--गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तदनन्तरं मृला तिथंगादिषूत्पादभावादिति, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि, तानि च महाविदेहादिषु सप्तसु मनुष्यभवेषु पूर्वकोट्यायुष्केषु अ-18 टमे च देवकुर्वादिषुत्पद्यमानस्य वेदितव्यानि । देवानां तु नैरविकवद् वैव भवस्थितिः सैच कायस्थितिरपि, देवानामपि मृत्वा भूयोऽ-12 दिनन्तरं देवत्वेनोत्पादाभावात् । "नो देवे देवेसु उववजई” इति बचनात् । साम्प्रतमन्तरं चिचिन्तयिपुराह-'नेरइयस्स णं भंते'! इत्यादि, नैरपिकस्य भदन्त ! अन्तरं-नैरयिकत्वात्परिभ्रष्टस्य भूयो नैरयिकलप्राप्रपान्तरालं कालत: कियधिरं भवति ?, कियन्तं कालं यावद्भवतीत्यर्थः, भगवानाह-जघन्येनान्तर्मुहूर्त, कथमिति चेत् , उच्यते, नरकादुत्य मनुष्यभवे तिर्यग्भचे वाऽन्तर्मुहू स्थित्वा भूयो नरकेषुत्पादात् , तत्र मनुष्यभवभावनेयम्-कश्चिन्नरकाबुद्धत्य गर्भजमनुष्यलेनोत्पया सर्वामिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तो विशिष्टसंज्ञानोपेतो वैक्रियलब्धिमान राज्याद्याकाङ्की परचक्राद्युपद्रवमाकर्ण्य स्वशक्तिप्रभावतश्चतुरटं सैन्यं विकुर्वित्वा सवामयिला च महारौद्रध्या-1 नोपगतो गर्भस्थ एव कालं करोति कृत्वा च कालं भूयो नरकेपुत्पद्यते तत एवमन्तर्मुहूर्त, निर्यग्भवे नरकादुतो गर्भव्युत्क्रान्तिकतन्दुलमत्स्यत्वेनोत्पद्य महारौद्रध्यानोपगतोऽन्तर्मुहूर्त जीवित्या भूगो नरकेषु जात इति, उत्कर्षतोऽनन्त कालं, स चानन्तः कालः - - -- -- - - ~361 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [३], --------------------- उद्देशक: [(वैमानिक)-२], ------------------- मूलं [२२२-२२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२-२२३] श्रीजीवा- परम्परया वनस्पतिपूत्पादादवसातव्यः, तथा दाह-वनस्पतिकालः, स च प्रागेवोक्तः । तिर्यग्योनिविषयं प्रभसूत्र पूर्ववत् , निर्वचन- प्रतिपत्ती जीवाभि जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तच्च कस्यापि तिर्थक्त्वेन मृत्वा मनुष्यभवेऽन्तर्मुहूर्व स्थित्वा भूयस्ति र्यकत्वेनोत्पद्यमानस्य द्रष्टव्यं, उत्कर्षतः साति-3/ विमानेषु रेफ सागरोपमशतगृथक्त्वं, सच नैरन्तर्येण देवनारकमनुष्यभरभ्रमणेनावसातव्यं । मनुष्यविषयमपि प्रभसूत्र तथैव, निर्वचनं-जध- देवादितसवावृत्ति न्येनान्तर्मुहूर्त, तच्च मनुष्यभवादुडुल्य तिर्यग्भवेऽन्तर्मुहूर्त स्थित्ला भूयो मनुष्यत्वेनोत्पद्यमानस्यावसातव्यं, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, स योत्पादः ॥४०७॥ हचानन्तः कालः प्रागुक्तो वनस्पतिकालः । देवविषयमपि प्रभसूत्रं सुगनं, निर्वचनं जघन्येनान्तर्मुहूर्त, कश्चिदेवभवाचयुत्या गर्भजमनु-181 गतिचतुदायलेनोत्पश्च सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तो विशिष्ट सब्ज्ञानोपेतस्तथाविधस्य श्रमणस्य श्रमणोपासकस्य वाऽन्ते धर्मामार्य वचः श्रुखा धर्म-16 कस्थित्य ध्यानोपगतो गर्भस्थ एव कालं करोति कालं च कृत्वा देवेपूस्पयते तत एवमन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, स चानन्त: कालो य- |न्तरेअल्पहाथोक्तस्वरूपो वनस्पतिकालः प्रतिपत्तव्यः ।। साम्प्रतमल्पबहुत्वमाह-एएसि 'मित्यादि प्रभसूत्रं पाठसिद्ध, भगवानाह-गौतम । बहुत्वं सर्वस्तोका मनुष्याः, श्रेण्यसोयभागवर्तिनमःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यो नैरयिका असङ्ख्ययगुणाः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेयत्प्र- उद्देशः२ यम वर्गमूलं तहितीयेन वर्गमूलेन गुण्यते गुणिते च सति यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशा-IV सू०२२१स्तावत्प्रमाणत्वात्तेषां, तेभ्यो देवा असोयगुणाः, व्याराणां ज्योतिष्कागां च नैरयिकेभ्योऽप्यसयेयगुणतया महादण्डके पठितत्वात् । २२३ तेभ्योऽपि तिर्ययोऽनन्ताः, वनस्पतिजीवानामनन्तानन्तत्वात् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाभिगमटीकायां चतुर्विधप्रतिपत्तौ। विमानाधिकारे द्वितीयो वैमानिकोदेशकः समाप्तः, तत्समाप्तौ च समान चतुर्विधा प्रतिपत्तिः ।। ॥४०७॥ दीप अनुक्रम [३४२ ३४३] तृतीय-प्रतिपत्तौ वैमानिक-उद्देशकः (२) परिसमाप्त:, तत् समाप्ते वैमानिक-उद्देशक: अपि परिसमाप्त: अत्र तृतीया "चतुर्विधा" प्रतिपत्ति: परिसमाप्ता: ~362 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [४], --------------------- उद्देशक: -, ------------------- मूलं [२२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: अथ पञ्चविधजीवाख्या चतुर्था प्रतिपत्तिः। %759-7-% प्रत सूत्रांक [२२४] % --*- 4 + दीप अनुक्रम 04 -- तदेवमुक्ता चतुर्विधा प्रतिपत्तिः, सम्प्रति क्रमप्राप्तां पञ्चविधप्रतिपत्तिमाह तत्थ जे ते एवमाहंसु-पंचविहा संसारसमावणगा जीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तं०-एगिदिया बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचिंदिया से किं तं एगिदिया?, २ विहा पण्णता, तंजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य, एवं जाव पंचिंदिया दुविहा-पजसगा य अपजसगा य । एगिदियस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिती पणता?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमहत्तं उकोसेणं बावीसं वाससहस्साई, बेइंदिय० जहन्नेणं अंतोमु० उक्कोसेणं बारस संबच्छराणि, एवं तेइंदियस्स एगणपपर्ण राइंदियाणं, चाउरिदियस्स छम्मासा, पंचेंदियस्स जह० अंतोमु० उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरो. बमाई, अपजत्तएगिदियस्स णं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमु० उकोसेणवि अंतो० एवं सब्वेसि, पजत्तेगिंदियाणं णं जाव पंचिन्दियाणं पुच्छा, जहन्नेणं अंतो० उक्को. बाबीसं चाससहस्साई अंतमुहत्तोणाई. एवं उक्कोसियावि ठिती अंतोमुहत्तोणा सब्वेर्सि पजत्ताणं कायब्बा ॥ एगिदिए णं भंते। एगिदिएत्ति कालओ केबचिरं होइ?, गोयमा! जहनेणं अंतोमु. उको वणस्ततिकालो। बेइंदियस्स भंते ! बेइंदियत्ति कालओ केवचिरं होइ?, जह• अंतो * [३४४] - --0 4 -4. अथ चतुर्थी “पञ्चविधा" प्रतिपत्ति: आरब्धा: संसारिजीवानाम् पञ्चविधत्वेन प्ररुपणं- एकेन्द्रियात् पञ्चेन्द्रिय-पर्यन्त जीवाधिकार: आरभ्यते ~363 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [४], --------------------- उद्देशक: -, ------------------- मूलं [२२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक Kask%A7 [२२४] ॥४०८॥ दीप अनुक्रम [३४४] मु० उकोसेणं संखेनं कालं जाव चउरिदिए संखेनं कालं, पंचेंदिए णं भंते! पंचिंदिएति का- प्रतिपत्ती लओ केवचिरं होइ?, गोयमा! जह• अंतोमु० उक्को० सागरोवमसहस्सं सातिरेगं ॥ एगिदिए णं अपजत्तए णं भंते ! कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! जहनेणं अंतोमु. उक्कोसेणवि अंतो यादिभेदमुहत्तं जाव पंचिंदियअपजत्तए । पजत्तगएगिदिए णं भंते! कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! स्थित्यन्तजहोणं अंतोमुहतं उकोसेणं संखिजाई वाससहस्साई । एवं बेइंदिएवि, णवरिं संखेजाई वा राणि साई । तेइंदिए णं भंते ! संग्वेजा राइंदिया। चउरिदिए f० संखेजा मासा पजत्तपंचिदिए सा- उद्देशः २ गरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं ।। एगिदियस्स णं भंते! केवतियं कालं अंतर होति?, गोयमा! जह- सू०२२४ पणेणं अंतोमुहरा उक्कोसेणं दो सागरोयमसहस्माई संखेजवासमभहियाई।दियस्स णं अंतरं कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बणस्सइकालो । एवं तेइंदि यस्स चउरिदियस्स पंचेंदियस्स, अपजत्तगाणं एवं चेव, पजत्तगाणवि एवं चेव ॥ (सू० २२४) 'तत्धे'त्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्त:-पञ्चविधा: संसारसमापन्नका जीवाः प्रज्ञपाते 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेणोक्तवन्तः, तमेव प्रकारमाह-तद्यथा-एकेन्द्रिया द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाचतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः, अमीषां पदानां व्याख्यानं प्राग्वत् ॥ 'से किं तमित्या-18| दीनि पच पर्याप्तापर्याप्तसूत्राणि, 'पगिदिवस्स गं भंते ! केवइयं कालं ठिई ?' इत्यादीनि पञ्च स्थितिसूत्राणि पाठसिद्धानि, अपर्याप्तक ॥४०८ विशेषणविशिष्टान्यपि पश्च स्थितिसूत्राणि पाठसिद्धानि, नवरं जपन्यादन्तर्मुहूर्तादुरकृष्टमन्तर्मुहूर्स बृहत्तरमवसातव्यं, पर्याप्त विशेषण Jus अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~364 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [४], --------------------- उद्देशक: -, ------------------- मूलं [२२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [૨૪] 44 -- विशिष्टान्यपि पञ्च स्थितिसूत्राणि सुप्रतीतानि, नवरमुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्रादीन्यन्तर्मुहूर्तोनानि, अपर्याप्तककालेनान्तर्मुहर्तेन हीनत्वात् ।। सम्प्रति कायस्थितिप्रतिपादनार्थमाह-एगिदिए णं भंते! एगिदिए'त्ति इत्यादि, जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तदनन्तरं मृखा। द्वीन्द्रियादिपूत्पादान , उत्कर्पतोऽनन्तं कालं, अनन्तकालमेव निरूपयति-वनस्पतिकालः, वनस्पतिकाल सौकेन्द्रियत्वात् एकेन्द्रियपदे तस्यापि। परिग्रहात, वनस्पतिकालन प्रागेवोक्तः । द्वित्रिचतुरिन्द्रियसूत्रे सवयेयं कालं-सोयानि वर्षसहस्राणि "विगलिदिवाण वाससहस्सा संखेजा" इति वचनात् , पभेन्द्रियसूचे सातिरेकं सागरोपमसहस्रं, तच नैरयिकतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवभवभ्रमणेन वेदितव्यं ।। 'एगिंदियापजत्लए ण भंते' इत्यादि, जघन्यत उत्कर्पतोऽन्तर्मुहूर्तमपर्याप्पलब्धेरेतावत्कालप्रमाणत्वात् , एवं शेषाण्यपि चत्वार्यपर्याप्तकसूत्राणि भावनीयानि, एकेन्द्रियपर्याप्तकसूत्रे सवषयानि वर्षसहस्राणि, एकेन्द्रियस्य हि पृथिवीकायस्योत्कर्षतो द्वात्रिंशतिवर्षसहस्राणि भयस्थितिः अप्कायस्य सप्त वर्षसहस्राणि तेजस्कायस्य त्रीणि रात्रिन्दिवानि वायुकायस्व त्रीणि वर्षसहस्राणि वनस्पतिकायस्व दश वर्षसहस्राणि, ततो निरन्तरकतिपयपर्याप्तभवसङ्कलनया साधेयान्येव वर्षसहस्राणि घटन्त इति । द्वीन्द्रियपर्याप्तसूत्रे उत्कर्षत: सधेयानि वर्षाणि, द्वीन्द्रियस्य हि उत्कर्षतो| भवस्थितिपरिमाणं द्वादश वर्षाणि न च सर्वेष्वपि भवेपूत्कृष्टा स्थितिस्ततः कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवसङ्कलनयापि सोयानि वर्षाण्येव लभ्यन्ते न तु वर्षशतानि वर्षसहस्राणि वा । त्रीन्द्रियपर्याप्तसूत्रे सोयानि रात्रिन्दिवानि, तेषां भवस्थितरुत्कर्षतोऽप्येकोनपञ्चाशद्दिनमानतया कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवसङ्कलनायामपि सहयेयानां रात्रिन्दिवानामेव लभ्यमानत्वात् । चतुरिन्द्रियपर्याप्तसूत्रे सोया मासास्तेषां भवस्थितेरुत्फतः पण्मासप्रमाणतया कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवकालसङ्कलनया सोयानां मासानां प्राप्यमानलात् । पञ्चेन्द्रियपर्याप्तसूत्रे सागरोपमशतपृथक्वं सातिरेक, तच पूर्ववत् ॥ 'एगिंदियस्स णं भंते ! अंतरं कालतो केवचिर होइ?' इति दीप -- - -- अनुक्रम [३४४] - जी०६९ ~365 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [४], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवा- जीवामि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥४०९॥ [૨૪] दीप अनुक्रम [३४४] प्रसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, त केन्द्रियादुद्धृत्य द्वीन्द्रियादावन्तर्मुहूत्तै स्थित्वा भूय एकेन्द्रियत्वेनोत्पद्यमा- प्रतिपत्ती नस्य वेदितव्यं, उत्कर्षतो द्वे सागरोपमसहस्र सयवर्षाभ्यधिके,. यावानेव हि त्रसकायस्य कायस्थितिकालस्तावदेवैकेन्द्रियस्यान्तरं, एकेन्द्रिसकायस्थितिकालश्च यथोक्तप्रमाणः, तथा च वक्ष्यति-तलकाइए णं भंते ! तसकायत्ति कालतो केवचिरं होइ, गोयमा ! जह- यादिस्थिणेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमन्महियाई। द्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियसूत्रेषु जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तथा त्यादि पूर्वप्रकारेण भावनीयं, उत्कर्षतः सर्वत्रापि वनस्पतिकालः, द्वीन्द्रियादिभ्य उद्धृत्य वनस्पतिषु यथोक्तप्रमाणमनन्तमपि कालमवस्थानात् । उद्देशः २ यथैवामूनि पञ्च सूत्राप्यन्तरविषयाण्यौधिकान्युक्तानि तथैव पर्याप्त विषयाण्यपर्याप्त विषयाण्यपि भणनीयानि, तानि चैवम्-'एगि-181 | सू०२२४ दियअपजत्तस्स णं भंते ! अंतरं कालतो केवचिरं होइ?, गोवमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तमुकोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाई, बेइंदियअपजत्तरस र्ण भंते ! अंतरं कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! जहण्णण अंतोमुहुर्त उफोसेणं अतं कालं व-19 णस्सइकालो, एवं जाब पंचेंदियअपज्जत्तस्स ।' एवं पञ्च पर्याप्तसूत्राण्यपि वक्तव्यानि || साम्नतमस्पबहुलमाह एएसिणं भंते! एगिदि बेई० तेई० चउ० पंचिंदियाणं कयरेशहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सब्वत्थोवा पंचेंदिया चरिंदिया विसेसाहिया तेइंदिया वि. सेसाहिया बेइंदिया विसेसाहिया एगिदिया अणंतगुणा । एवं अपजत्तगाणं सव्वत्थोवा पंचेंदिया ०९॥ अपजत्तगा चउरिदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया तेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया बेईदिया अपज्जत्तगाविसेसाहिया एगिदिया अपज्जत्सगा अणंतगुणा सइंदियाप० वि०॥सब्वत्थोवा चतुरिं अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~366~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) horosc प्रत सूत्रांक [२२५] दीप अनुक्रम [ ३४५ ] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र -३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्तिः [४], • उद्देशक: [-], • मूलं [ २२५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः दिया पज्जतगा पंचेंदिया पजन्तगा विसेसाहिया बेंदियपञ्चत्तगा विसेसाहिया तेइंदियपज्जन्तगा विसेसाहिया एगिंदियपजत्तगा अनंतगुणा, सइंदिया पजत्तगा बिसेसाहिया । एतेसि णं भंते! सइंद्रियाणं पञ्जन्तगअपजत्तगाणं कयरे २१, गोयमा ! सव्वत्थोवा सइंदिया अपजसगा सदिया पसगा संखेज्जगुणा । एवं एगिंदियावि ॥ एतेसि णं भंते । बेइंद्रियाणं पजत्तापजत्तगाणं अप्पा ?, गोयमा ! सव्वत्थोवा बेइंदिया पज्जत्तगा अपजसगा असंखेज्जगुणा, एवं तेंद्रियचउरिदियपंचेंद्रियावि || एसि णं भंते! एगिंदियाणं वेइंदि० तेइंदि० चउरिंदि० पंचेंद्रियाण य पत्तगाण व अपजतगाणं य कयरे २१, गोयमा ! सव्वत्थोवा चउरिंदिया पचत्तगा पंचेंदिया पजत्तगा विसेसाहिया बेइंदिया पज्जसगा विसेसाहिया लेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया पंचदिया अपनन्तगा असंखेजगुणा चउरिंदिया अपजत्ता विसेसाहिया तेइंदियअपज्जन्ता विसेसाहिया बेइंदिया अपजत्ता विसेसाहिया एगिंदियअपलत्ता अनंतगुणा सइंदिया अपलत्ता विसेसाहिया एर्गिदियपज्जन्ता संखेजगुणा सदियपजत्ता विसेसाहिया सइंदिया विसेसाहिया । सेत्तं पंचविधा संसारसमावण्णगा जीवा ॥ ( सू० २२५ ) 'एएसि ण' मित्यादि प्रनसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम! सर्वलोकाः पञ्चेन्द्रियाः सङ्ख्येययोजनकोटीकोटीप्रमाणविष्कम्भसूचीप्रमितप्रतरासको माग वस पेय श्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, विष्कम्भसूच्यास्तेषां प्रभूत For P&Pale Cinly ~367~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [४], --------------------- उद्देशक: -, ------------------- मूलं [२२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२५] दीप श्रीजीवा-सङ्ख्ययोजनकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि त्रीन्द्रिया विशेषाधिकास्तेषां विष्कम्भसूच्याः प्रभूततरसपेययोजनकोटीकोटी- प्रतिपत्ती जीवाभि- प्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि द्वीन्द्रिया विशेषाधिकास्तेषां विष्कम्भसूथ्या: प्रभूततमसाययोजनकोटीकोटीमानखात्, तेभ्य एकेन्द्रिया 81 एकेन्द्रिमलयगि- अनन्तगुणाः, बनस्पतीनामनन्तानन्तत्वात् ॥ सम्प्रत्येतेषामेवापर्याप्त विशेषणविशिष्टानामल्पबहुत्वमाह-एएसि ण'मित्यादि प्रसूत्रीयाद्यल्परीयावृत्तिः पाठसिद्धं, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रिया अपर्याप्तकाः, एकस्मिन् प्रतरे यावन्त्यनुलासवेयभागमात्राणि खण्डानि ताव-IPI बहवं प्रमाणत्वात् , तेभ्याचतुरिन्द्रियापर्याप्ता विशेषाधिकाः प्रभूततरानुलासयभागखण्डप्रमाणत्वात् , तेभ्यश्रीन्द्रियापर्याप्ता विशेषाधिकाः | ॥४१०॥ प्रभूततरप्रतराखलासक्येयभागखण्डप्रमाणत्वात् , तेभ्यो द्वीन्द्रिवापर्याप्ता विशेषाधिका: प्रभूततमप्रतराङ्गुलासययभागखण्डमानत्वात् , सू० २२५ तेभ्य एकेन्द्रियापर्याप्ता अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामपर्याप्तानामनन्तानन्ततया सदा प्राप्यमाणत्वात् ॥ अधुनतेषामेव पर्याप्तविशेषणविशिष्टानामल्पबहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोकाश्चतुरिन्द्रिया:पर्याप्ता यतोऽल्पायुषश्चतुरिन्द्रियास्तत: प्रभूतकालमवस्थानाभावात् पृच्छासमये स्तोका अवाप्यन्ते, ते च स्तोका अपि प्रतरे यावन्त्यनुलासययभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणा वेदितव्याः, तेभ्यः पञ्चेन्द्रियपर्याप्ता विशेषाधिकाः, प्रभूततराखलासपेयभागखण्डमानत्वात् , तेभ्योऽपि | द्वीन्द्रियाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः प्रभूततरप्रतराङ्गुलसद्ध्येयभागवण्डप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि त्रीन्द्रियपर्याप्ता विशेषाधिकाः, खभावत एव तेषां प्रभूततराहुलसोयभागखण्डप्रमाणत्वात् , तेभ्य एकेन्द्रिया: पर्याप्ता अनन्तगुणाः, वनस्पतिकाविकानां पर्याप्तानामनन्तलात् ।। साम्प्रतमेतेषामेव प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तानां समुदितानामस्पबहुलमभिधित्सुः प्रथमत एकेन्द्रियाणामाह-एएसि ण'मित्यादि ॥४१०॥ प्रश्नसूत्रं गतं, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोका एकेन्द्रिया अपर्याप्ताः, पर्याप्तकाः सोयगुणाः, एकेन्द्रियेषु हि बहवः सूक्ष्माः सर्वलो SCAS अनुक्रम [३४५] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~368 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [४], --------------------- उद्देशक: -, ------------------- मूलं [२२५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक कापन्नत्वात् , सूक्ष्माश्चापर्याप्ताः सर्वस्तोकाः पर्याप्ताः सहधेयगुणाः, द्वीन्द्रियसूत्रे सर्वस्तोका द्वीन्द्रियापर्याप्ता यावन्ति प्रतरेऽङ्गुलस्य सयभागमात्राणि खण्डानि तावत्रमाणत्वात् तेषां, तेभ्योऽपर्याप्ता असश्येयगुणाः प्रतरगतामुलासधेयभागवण्डप्रमाणत्वात् , एवं त्रिचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाल्पबहुखान्यपि वक्तव्यानि ॥ साम्प्रतमेकेन्द्रियाणां समुदितानां पर्याप्तापर्याप्तानामल्पबहुखमाह-एएसिस णमित्यादि, इदं प्रागुक्ततृतीयद्वितीयाल्पबहुत्वभावनानुसारेण स्वयं भावनीयं, तत्त्वतो भावितत्वात् , उपसंहारमाह-'सेत्तं पंचविहा' इत्यादि ।। इतिश्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाभिगमटीकायां पञ्चविधा प्रविपत्तिः चतुर्थी समाप्ता । [२२५] दीप अनुक्रम [३४५] उक्ता, पञ्चविधा प्रतिपत्तिरधुना क्रमप्राप्तां पडिधप्रतिपत्तिमभिधित्सुराहतत्थ गंजे ते एवमासु छविहा संसारसमावण्णमा जीवा ते एवमासु, तंजहा-पुढविकाइया आउकाइया तेउ० वाजवणस्सतिकाइया तसकाइया॥ से किं तं पुढवि०, पुढवी० दुविहा पण्णता तं०-सुहमपुढविक्काइया बादरपुढविकाइया, सुहमपुढविकाइया दुविहा पण्णता, तंजहा-पज्जत्तगा य अपजत्रागा या एवं बायरपुढविकाइयावि, एवं चउकएणं भेएणं आउतेउवाउचणस्सतिकाइयाणं चतुणेयब्वा । से किं तं तसकाइया,२ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य॥ (सू० २२६) पुढविकाइयस्सणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा जहणणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई, एवं सब्वेसि ठिती णेयव्वा, तसकाइयस्स जहन्नेणं Jnts अत्र चतुर्थी “पञ्चविधा प्रतिपत्ति: परिसमाप्ता: अथ पञ्चमी "षविधा" प्रतिपाति: आरब्धा: ... संसारिजीवानाम् षड्विधत्वेन प्ररुपणं-पृथ्वि, अप, तेउ, वायु, वनस्पतिपर्यन्त एवं त्रस-जीवाधिकार: आरभ्यते ~369~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], -------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२२६-२२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६-२२८] गाथा श्रीजीवा- अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, अपजत्तगाणं सब्बेसि जहन्नेणवि उक्कोसेणवि अंतो- ५ प्रतिपत्ती जीवाभि मुहतं, पजत्तगाणं सब्वेसिं उकोसिया ठिती अंतोमुहत्तऊणा कायव्वा ॥ (सू०२२७) पुढविका- पृथ्व्यादीमलयगि- इए णं भंते! पुढविकाइयत्तिकालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुसं उक्कोसेणं ना भेदाः रीयावृत्तिः असंखेज कालं जाव असंखेजा लोया।एवं जाव आउ० तेउवाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणे अर्णतं स्थितिःका॥४११॥ कालं जाव आवलियाए असंखेजतिभागो।तसकाइए णं भंते ! जहमेणं अंतोम० उक्कोस्सेणं वो यस्थितिः सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाई । अपजत्तगाणं छण्हवि जहण्णेणवि कोसेणवि उद्देशः२ अंतोमुहुत्तं, पजत्तगाणं-'वाससहस्सा संखा पुढविदगाणिलतरूण पज्जत्ता । तेक राइदिसंखा सू०२२६तससागरसंतपुहुत्ताई ॥१॥ पजसगाणवि सव्वेसिं एवं ॥ पुढविकाइयस्स णं भंते! केव २२८ तियं कालं अंतरं होति?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणफतिकालो । एवं आउतेउवाउकाइयाणं वणस्सइकालो, तसकाइयाणवि, वणस्सइकाइयस्स पुरविकाइयकालो । एवं अपजत्तगाणवि वणस्सइकालो, वणस्सईणं पुढविकालो, पजत्तगाणवि एवं चेव वणस्सइकालो, पजत्तवणस्सईणं पुढविकालो ॥ (सू०२२८) 'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तः पद्विधाः संसारसमापनका जीवास्ते 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेणोक्तवन्तः, तमेव प्रकार-18॥४१॥ दमाह, तद्यथा-पृथ्वीकाथिका इत्यादि प्राग् व्याख्यातं ॥ 'से कि तं पुढविक्काइया' इत्यादीनि पृथिव्यलेजोवायुवनस्पतिविषयाणि त्रीणि दीप अनुक्रम [३४६-३५०] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~370 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२२६ -२२८] गाथा दीप अनुक्रम [ ३४६ -३५०] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्तिः) ------- उद्देशक: [-], मूलं [२२६-२२८] + गाथा प्रतिपत्ति: [ ५ ], ---- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः त्रीणि सकायविषयमेकमिति सर्वसङ्गाया पोटश सूत्राणि पाठसिद्धानि । 'पुढविकाइयस्स णं भंते ।' इत्यादि स्थितिविषयं सूत्रप सुप्रतीतं, तत्र जघन्यं सर्वत्राप्यन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पृथिवीकायिकस्य द्वाविंशतिर्वर्षसहस्राणि tarfarer aप्त तेजस्कायिकस्य त्रीणि रात्रिन्दिवानि वातकायस्य त्रीणि वर्षसहस्राणि वनस्पतिकायस्य दशवर्षसहस्राणि सकायस्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । अपर्याप्तविपयाण्यपि षट् सूत्राणि पाठसिद्धानि, सर्वत्र जघन्यत उत्कर्षतान्तर्मुहूर्त्ताभिधानात् नवरमुत्कृष्टमन्तर्मुहूर्त्त बृहत्तरं वेदितव्यं । पर्यातविषया षट्सूत्री पाठसिद्धा, नवरमन्तर्मुहूतनवं अपर्याप्तकालभाविनाऽऽन्तर्मुहूर्त्तेन हीनत्वात् ॥ सम्प्रति कार्यस्थितिमाह – 'पुढ | विकाइए णं भंते! पुढविकाइय'त्ति इत्यादि प्रसूनं सुगमं, भगवानाह - गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, पृथ्वीकायादुद्धृत्यान्यन्त्रान्तमुहूर्त्त स्थित्वा भूयः पृथिवीकायत्वेन कस्याप्युत्पादात्, उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयं कालं, तमेत्र कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-असङ्ख्या उत्सर्पिव्यवसर्पिण्यः, एषा कालतो मार्गणा, क्षेत्रतोऽसङ्ख्या लोकाः, किमुक्तं भवति ? - असङ्ख्येयेषु लोकप्रमाणेष्वाकाशखण्डेषु प्रतिसमयमेकैकप्रदेशापहारे यावता कालेन तान्ययान्यपि लोकाकाशखण्डानि निर्लेपितानि भवन्ति तावन्तमसङ्ख्येयं कालं यावदिति । | एवमप्तेजोवायुसुत्राण्यपि वक्तव्यानि । वनस्पतिसूत्रे जघन्यं तथैव, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं तमेव कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-अनन्ता उत्सर्पिण्यव सर्पिण्यः, कालत एषा मार्गेणा, क्षेत्रतोऽनन्ता लोका:- अनन्तानन्तेषु लोकालोकाकाशेषु प्रतिसमय मे कैकप्रदेशापहारे यावता कालेन तान्यपि लोकालोकाकाशखण्डानि निर्लेपानि भवन्ति तावन्तमनन्तकालमित्यर्थः, तमेव पुलपरावर्त्तेन निरूपयति-असलेयाः पुद्गलपरावर्त्ताः, पुलपरावर्त्तखरूपं पञ्चसङ्ग्रहटीकातो भावनीयं पुद्गलपरावर्त्तगतमेवासयेयत्वं निर्द्धारयति - ते ण'मित्यादि, ते पुद्रलपरावर्त्ता आवलिकाया असङ्ख्येयो भागः, आवलिकाया असयेये भागे यावन्तः समयास्तावन्त इत्यर्थः अयं चार्थीऽन्यत्रापि For P&Pale Cly ~371~ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], -------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२२६-२२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६-२२८] श्रीजीवा- जीवाभि मलयगि- रीयावृत्तिः ॥४१२॥ उद्देश.२ गाथा सद्धेपेणोक्त:- अस्संखोसप्पिणीसप्पिणीउ एगिदियाण य चउण्डं । ता चेव ऊ अणता वणस्सईए उ बोद्धव्या ॥१॥" सकायसूत्रे ||8/५प्रतिपत्तों सागरोपमसहस्रे साहयेयवर्षाभ्यधिके, एतायत एवाव्यवधानेन त्रसकायत्वकालस्य केवलवेदसोपलब्धत्वात् । अपर्याप्त विषयायां षट्सूध्यांदा पृथ्व्यादीसर्वत्रापि जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त्तम् , अपर्याप्तलब्धरुत्कर्षतोऽप्येतावत्कालप्रमाणत्वात् । पृथिवीकायिकपर्याप्तसूत्रे उत्कर्षत: सह-शना भेदाः सर्वत्रापि अपनी | यानि वर्षसहस्राणि, पृथिवीकायिकस्य हि भवस्थितिरुत्कर्षतोऽपि द्वाविंशतिवर्षसहवाणि ततः कतिपयनिरन्तरपर्याप्तभवमीलने सहये-४स्थितिःकायानि वर्षसहस्राणि लभ्यन्ते नाधिक । एवमष्कायिकसूत्रेऽपि वक्तव्यं, तेजस्कायिकसूत्रे सवेवानि रात्रिन्दिवानि, तेजस्कायिकस्य हियस्थितिः भवस्थितिरुत्कर्षतोऽपि त्रीणि रानिन्दिवानि, ततो निरन्तरकतिपयपर्याप्तभवसङ्कलनायामपि सोयानि रानिन्दिवानि लभ्यन्ते न तु मासा वर्षाणि वर्षसहस्राणि वा। वायुकायिकसूत्रं वनस्पतिकायिकसूत्रं पृथिवीकायिकसूत्रवत् । त्रसकायसूत्रे सागरोपमशतपृथक्त्वं सा-18सू०२२६तिरेकम् ।। सम्प्रत्यन्तरनिरूपणार्थमाह-'पुढविकाइयस्स णं भंते ! इत्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मु-दा २२८ हूर्त पृथिवीकायादृद्धृत्यान्यत्रान्तर्मुहूर्त खिला भूयः पृथिवीकायिकखेन कस्यचिदुत्पादात्, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, स चानन्तः कालः प्रागुक्तस्वरूपो वनस्पतिकाल: प्रतिपत्तव्यः, पृथिवीकायादुद्धृत्य तावन्तं कालं बनस्पतिष्ववस्थानसम्भवात् । एक्लप्तेजोवायुप्रससूत्राण्यपि भावनीयानि । वनस्पतिसूत्रे उत्कर्षतोऽसझवेयं कालम् 'असंखेजाओ उस्तप्पिणीओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो असंखेजा लोगा' इति वक्तव्यं, वनस्पतिकायादुद्दत्य पृथिव्यादिष्ववस्थानात् तेषु च सर्वेषप्युत्कर्षतोऽप्येतावत्कालभावात् । सम्प्रत्यल्पबाखमाहअप्पायरयं-सव्वस्थोवा तसकाइया तेउकाइया असंखेजगुणा पुढविकाइया बिसेसाहिया आज ॥४१२॥ काइया विसेसाहिया वाउकाहया विसेसाहिया वणस्सतिकाइया अर्णतगुणा एवं अपजत्तगावि दीप अनुक्रम [३४६-३५०] 4%ASSAGE अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~372 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: -, ------------------- मूलं [२२९-२३०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२९ -२३०] दीप पजत्रागावि ॥ एतेसि णं भंते! पुढविकाइयाणं पजत्तगाण अपज्जत्तगाण य कयरेशहितो अप्पा वा एवं जाव विसेसाहिया?, गोयमा! सव्वत्थोवा पुढविकाइया अपज्जत्तगा पुढविकाइया पजत्तगा संखेजगुणा, एतेसि पं० सव्वस्थोवा आउक्काइया अपजत्तगा पजत्तगा संखेज्जगुणा जाब वणस्सतिकाइयावि, सब्वस्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा तसकाइया अपजत्तगा असंखेजगुणा । एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं जाव तसकाइयाणं पज्जत्तगअपज्जत्तगाण य कयरेशहितो अप्पा वा ४१, सव्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा तसकाइया अपज्जत्तगा असंखेनगुणा तेउकाइया अपजत्ता असंखेजगुणा पुढविक्काइया आउक्काइया बाउक्काइया अपजत्तगा विसेसाहिया तेउकाइया पजत्तगा संखेजगुणा पुढविआउवाउपजत्तगा विसेसाहिया, वणस्सतिकाइया अपजसगा अणंतगुणा, सकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया, वणस्सतिकाइया पजसगा संखेज्वगुणा, सकाइया पजत्तगा बिसेसाहिया ॥ (सूत्रं २२९) सुहमस्स गं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णता?. गोषमा! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणवि अंतोमुहत्तं एवं जाव सुहमणिओयस्स, एवं अपज्जत्तगाणवि पज्जत्तगाणवि जहण्णेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं ॥ (सू०२३०) 'एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोकाखसकायिकाः, द्वीन्द्रियादीनामेव त्रसकायलात् तेषां च शेषकायापेक्षयाऽल्पवात् , तेभ्यस्तेजस्का-| अनुक्रम [३५१ -३५२] 64962 ~3730 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२२९-२३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२९-२३० दीप श्रीजीवा- यिका असल्येयगुणाः, असायेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्यः पृथिवीकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूतासयलोकाकाशप्रदेश- ५प्रतिपत्तौ जीवाभिमाणत्वात् तेषां च शेषकायापेक्षयाऽल्पलात् , तेभ्योऽप्काथिका विशेषाधिकाः, प्रभूततरासययभागलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , पृथ्व्यादीमलयगि तेभ्यो वायुकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासक्यलोकाकाशप्रदेशमानत्वात् , तेभ्यो वनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, अनन्तलोका- नामल्पबरीयावृत्तिः है काशप्रदेशमानलात् ॥ साम्प्रतमेतेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमल्पबहुलमाह-एएसि णमित्यादि, एतदपि तथैव । अधुनैतेषामेव हुत्वं सू॥४१३॥ पर्याप्तानामल्पबद्त्वमाह-'एएसि ण'मित्यादि, एतदपि तथैव ।। साम्प्रतमेतेषामेव पृथिवीकायादीनां प्रत्येक पर्याप्तापर्याप्तगताल्पव- मस्य स्थिहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोकाः पृथिवीकायिका अपर्याप्ताः पर्याप्ताः सोयगुणाः, पृथिवीकायिका हि बहवः सूक्ष्माः तिः सकललोकगतत्वात् , तेषु च पर्याप्ताः सपेयगुणाः, पवमप्लेजोवायुवनस्पतिसूत्राणि भावनीयामि, त्रसकायसूत्रे सर्वसतोकाः पर्याप्तास्त्र- उद्देशः२ सकाविका अपर्याप्तका असहयगुणाः, प्रसकायानां पर्याप्तानां यथाक्रमं प्रतरगताङ्गुलसक्येयभागखण्डप्रमाणत्वात् ॥ साम्प-10सू०२२९. तमेतेषां समुदितानां पर्याप्तापर्याप्तानामल्पबहुखमाह-एएसिणं भंते। इत्यादि, सर्वसोकाखसकायिकाः पर्याप्तास्तेभ्यससकायिका अपर्याप्ता असोयगुणाः, अत्र कारणं प्रागेवोक्तं, ततसेजस्कायिका अपर्याप्ता असायगुणा: असल्यलोकाकाशप्रदेशप्रमाणलात्, ततः पृथिव्यव्याययोऽपर्याप्तका: क्रमेण विशेषाधिकाः प्रभूतप्रभूततरप्रभूततमासाहयलोकाकाशप्रदेशराशिभानत्वात् , तदनन्तरं तेज-1 स्कायिकाः पर्याप्ता: सोयगुणाः, सूक्ष्मेवपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तानां सोयगुणत्वात् , ततः पृथिव्यब्वायवः पर्याप्ताः क्रमेण विशेषाधिका:, ततो वनस्पतिकायिका अपर्याप्ता अनन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशराशिमानलात् , तेभ्यो पनस्पतिकायिका: पर्याप्ताः सोयगुणाः ॥४१३॥ सूक्ष्मेष्यपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तानां सोयगुणत्वात् सूक्ष्माश्च सर्ववव इति तदपेक्षमिदमल्पबहुखम् ।। सम्प्रत्यमीषामेव कायानां सूक्ष्माणां 15 २३.. अनुक्रम [३५१ -३५२] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~374 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: -, ------------------- मूलं [२२९-२३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत % सूत्रांक [२२९ % C -२३०] % दीप साखियादि चिचिन्तयिषुराह-'सुहुमस्स णं भंते' इत्यादि, सूक्ष्मस्व सामान्यतो निगोदरूपस्यानिगोदरूपस्य वा भदन्त ! कियन्तं कालं | स्थिति: प्रज्ञप्ता, भगवानाह-गौतम! जयन्वेनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षेणाप्यन्तर्मुहूर्त, नवरमुत्कर्षतो विशेषाधिकमवसातव्यम् , अन्यथोत्कर्षायोगात् । एवं सूक्ष्मपृथिवीकायाप्कायिकतेजस्कायिकवायुकायिकबनस्पतिकायसूक्ष्मनिगोदविषयाण्यपि षट् सूत्राणि वक्तव्यानि, अथ सूक्ष्मवनस्पतिर्निगोदा एव ततस्तत्सूत्रेणैव गतमिति किमर्थ पृथग् निगोदसूत्र ?, तद्युक्तं सम्यग्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् , सूक्ष्मवनस्पतयो हि जीवा विवक्षिताः, सूक्ष्मनिगोदास्तु प्रत्येकमनन्तानां जीवानामाधारभूताः शरीररूपास्ततो न कश्चिद्दोषः, उक्कच-गोला य असंखेजा असंखनिगोदो य गोलओ भणिओ । एकिकमि निगोए अणंतजीवा मुणेयम्बा ॥१॥ एगो असंखभागो वट्टर उठबट्टणोववायमि । एगनिगोदे निचं एवं सेसेसुवि स एव ॥२॥ अंतोमुहुत्तमेत्तं ठिई निगोयाण जंति निद्दिवा । पट्टति निगोया तम्हा अंतोमुहत्तेणं ॥३॥" आसामक्षरगमनिका सूक्ष्मनिगोदैः सकल एव लोकः सर्वतो व्याप्तोऽखनचूर्णपूर्णसमुद्रवत्, तस्मिन्नित्यं निगोदैयाप्ते लोके निगोदमात्रावगाहना असोया निगोदा वृत्ताकारा बृहत्प्रमाणा गोलका इति व्यपदिश्यन्ते, निगोद इति च नाम अ-18 नन्तानां जीवानामेकं शरीरं, तत उक्तम्-असोया गोलाः, एकैकनिश्च गोलकेऽसोया निगोदा एकैकश्च निगोदः अनन्तजीव इति, एकस्मिंश्च निगोदे येऽनन्ता जीवास्तेषामेकोऽसयतमो भागः प्रतिसमयमुद्वर्त्ततेऽन्यश्चोत्पद्यते, तथा हि विवक्षिते समये विवक्षितस्य निगोदस्सैकोऽसलयेयतमो भाग उद्वर्त्ततेऽन्यश्चासल्येयतमो भागस्तस्मिन्नपूर्व उत्पद्यते, द्वितीयेऽपि समयेऽन्योऽसयेयभाग उद्वर्त्तते अन्यश्वापूर्व उत्पद्यते, एवं सकलकालमनुसमयमुनोपपाती, अत एव 'एगनिगोदे निच'मिति नित्यमहणं, यथा चैकस्मिन्निगोदे तथा| सर्वेष्वप्यसोयेषु सर्वलोकन्यापिषु निगोवेषु प्रतिपत्तव्यं, सर्वेषामपि च निगोदानां निगोदजीवानां स्थितिर्विनिर्दिष्टाऽन्तर्मुहूर्तमात्रं tc. अनुक्रम [३५१ -३५२] Cottk5 ~375 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: -, ------------------- मूलं [२२९-२३०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२९ -२३०] दीप अनुक्रम [३५१ श्रीजीवा-दातस्मात्सर्वेऽपि निगोदा अनुसमयमद्वर्तनोत्पाताभ्यामन्तर्मुहर्तमात्रेण परावर्तन्ते न च शून्या भवन्तीति । एवं सप्तसूत्री अपर्याप्पविषया जीवाभि० सप्तसूत्री पर्याप्तविषया वक्तव्या, सर्वत्रापि जघन्यत उत्कर्षतवान्तर्मुहूर्तम् । सम्प्रति कायस्थितिमाह | सूक्ष्मस्य मलयगिसुहुमे णं भंते! सुहमेत्ति कालतो केवचिरं होति?, गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहसं उक्कोसेणं अ कायस्थिरीयावृत्तिः संखेजकालं जाव असंखेजा लोया, सब्वेसिं पुढविकालो जाव सुहमणिओयस्स पुढविकालो. तिरन्तरं च ॥४१४॥ अपजत्तगाणं सब्थेसिं जहणणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं, एवं पजत्तगाणवि सम्वेसिं जहण्णेणवि उद्देश:२ उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं ॥ (सू०२३१) सुहमस्स णं भंते! केवतियं कालं अंतरं होति?, गोयमा! सू०२३१जहणणं अंतोमु० उको० असंखेनं कालं कालओ असंखेजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ २३२ खेत्तओ अंगुलस्स असंखेजतिभागो, सुहमवणस्सतिकाइयस्स सुहमणिओयस्सवि जाव असं खेजहभागो। पुढविकाइयादीणं वणस्सतिकालो। एवं अपजत्तगाणं पजत्सगाणवि ॥ (सू०२३२) । 'सुहमे णं भंते ! सुहमेत्तिकालओं' इत्यादि प्रश्रसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहर्तम् , अन्तर्मुहानन्तरं वाद-1.. रपृथिव्यादाबुत्पादात् , उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयकालं, तमेवासापेयकालं कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-असोया उत्सपिण्यवसापिण्यः, एषा कालतो मार्गणा क्षेत्रतोऽसया लोकाः, असायेयानां लोकाकाशानां प्रतिसमयमेकैकाकाशप्रदेशापहारे यावता कालेन निर्लेपता भ-18 वति तावान असलेयः काल इति भावः । एवं सूक्ष्मपृथिव्यतेजोवायुवनस्पतिनिगोदसूत्राण्यपि भावनीयानि । सम्प्रति सूक्ष्मादी-IC॥४१४॥ नामेवापर्याप्तानां कायस्थितिमभिधित्सुराह-'सुहमअपज्जत्तए णं भंते' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्यतोऽ -३५२] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~376 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - ___ प्रतिपत्ति: [१], - -- उद्देशक: [-], ------ मूलं [२३१-२३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३१-२३२] दीप न्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्तम् , अपर्याप्तस्थावरस्यैतावत्कालप्रमाणवात् , एवं सूक्ष्मापर्याप्तपृथिव्यादिविषयाऽपि षट्सूत्री लक्तव्या। एवं | पर्याप्त विषयाऽपि सप्तसूत्री ।। साम्प्रतमन्तरं चिचिन्तयिषुराह-सुहुमस्स ण'मित्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनाम्तमुहर्स, सूक्ष्मात्य बादरपुथिव्यादावन्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयः सूक्ष्मपृथिव्यादौ कस्याप्युत्पादात् , उत्कर्षतोऽसलपेयं कालं, तमेवासायं कालं कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-असोया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, कालत एषा मार्गणा, क्षेत्रतोलस्यासयो भागः । किमुक्तं भवति ?-अालमात्रक्षेत्रस्यासहपेयतमे भागे ये आकाशप्रदेशास्ते प्रतिसमवमेकैकप्रदेशापहारे यावतीभिरुत्सर्पिण्यवसपिणी-1 भिनिलेपा भवन्ति तावत्य इति ॥ 'सुहमपुढविक्काइयस्त णं भंते! इत्यादि प्रभसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुशहूर्त्त, सद्भावना प्रागिव, उत्कर्षतोऽनन्त कालं, 'जाव आवलियाए असंखिजइभागो' इति यावत्करणादेवं परिपूर्णपाठः-अणताओ उस्सप्पिणीभीसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अर्णता लोगा असंखेजा पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेजहभागो' अस्य | व्याख्या पूर्ववत्, भावना लेषम्-सूक्ष्मपृथिवीकायिको हि सूक्ष्मपृथिवीकायिकभवादुद्दयानन्तर्येण पारम्पर्येण वा वनस्पतिष्यपि मध्ये गच्छति तन्त्र पोत्कर्षत एतावन्त कालं विष्ठतीति भवति यथोक्तप्रमाणमन्तरं, एवं सूक्ष्माप्कायिकतेजस्कायिकवायुकायिकसुत्राण्यपि। वक्तव्यानि । सूक्ष्मवनस्पतिकाधिकसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽसङ्ख्ययं कालं, स चासण्येयः कालः पृथिवीकालो वक्तव्यः, स चैवम् -असंखेजा उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो असंखेजा लोगा' इति, सूक्ष्मवनस्पतिकायभवाजतो हि बादरवनस्पतिषु । सूक्ष्मवादरथिव्यादिषु चोल्पयते तत्र च सर्वत्राप्युत्कर्षतोऽप्येतावन्तं कालमवस्थानमिति यथोक्तप्रमाणभवान्तर, एवं सुक्ष्मनिगोदस्या अनुक्रम [३५३ -३५४] जी०७० ~377 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३३] दीप अनुक्रम [३५५] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ (मूलं + वृत्ति:) • उद्देशक: [-], • मूलं [२३३] प्रतिपत्ति: [ ५ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ४१५ ॥ व्यन्तरं वक्तव्यं यथा चेयमौधिकी सप्तसूत्री उक्ता तथाऽपर्याप्तविषया सप्तसूत्री पर्याप्तविया च सप्तसूत्री वक्तव्या, नानावाभावात् ॥ ५ प्रतिपत्ती - साम्प्रतमेतेषामरूपबहुत्वमाह - सूक्ष्माल्पबहुत्वं उद्देशः २ सू० २३३ एवं अप्पा बहुगं, सव्वत्यो वा सुमते काइया सुमपुढ विकाइया विसेसाहिया सुहुम आउबाऊ वि साहिया सुमणिओया असंखेजगुणा सुहुमवणस्सतिकाइया अनंतगुणा सुहमा बिसेसाहिया, एवं अपज्जतगाणं, पज्जत्तगाणवि एवं चैव ॥ एतेसि णं भंते! सुहमाणं पता पत्ताणं कयरे०१, सव्वत्थोवासुमा अपजत्तगा संखेज्जगुणा पज्जन्त्तगा एवं जाव सुहुमणिगोया ।। एएसि णं भंते! हुमाणं सुहमपुढविकाइयाणं जाव सुहमणिओयाण य पत्ता पत्ता कयरे २१, सन्वत्थोवा सुहुमते काइया अपञ्चत्तगा सुहुमपुढविकाइया अपनत्तगा विसेसाहिया मुहुमआउ अपजत्ता विसेसाहिया सुहुमवाउअपलता विसेसाहिया मुहुमते काइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा सुमढविआउवा उपजतगा विसेसाहिया सुहुमणिओया अपज्जन्तगा असंखेजगुणा सुहुमणिओया पज्जतगा संखेज्जगुणा सुहुमवणस्सतिकाइया अपज्जन्तगा अनंतगुणा सुहुमअपजत्ता विसेसाहिया सुहुमषणस्सपलसगा संखेज्जगुणा मुहुम पज्जता विसेसाहिया ॥ (सू० २३३ ) 'एएस 'मित्यादि, सर्वलोकाः सूक्ष्मतेजस्कायिका:, असले यलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात्, तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिका विशेषाभिकाः प्रभूतासयेयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणत्वात्, तेभ्यः सूक्ष्माकायिका विशेषाधिकाः प्रभूततरासयेवलोकाकाशप्रमाणत्वात्, For P&Praise Cnly ।। ४१५ ।। अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते— एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~378~ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: -------------------- मूलं [२३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३३] S ISIभ्यः सूक्ष्मवायुकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासोबलोकाकाशप्रदेशराशिमानत्यान् , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा असङ्ख्येयगुणाः तेषां । दाप्रतिगोलकमसमययत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिनिगोदमनन्तानां सहायात् , तेभ्य: सामान्यतः सूक्ष्मा | विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथ्वीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् , तेषामौधिकानामिदमल्पबहुत्वम् । इदानीमेतेषामेवापर्याप्तानामाह-ए-| ४ एसिणं भंते ! सुहुमअपज्जत्ताण मित्यादि सर्व प्राग्वद् भावनीयं । साम्प्रतमेतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुत्वमाह-एएसिणं साभंते ! सुहमपज्जत्तगाण'मित्यादि, इदमपि प्रागुक्तकमेणैव भावनीयं ।। अधुनाऽमीषामेव सूरैमादीनां प्रत्येक पर्याप्तापर्याप्तगतान्यल्प बहुलान्याह-एएसि णं भंते ! सुहुमाणं पज्जत्तगाणमित्यादि, इह बादरेषु पर्याप्तभ्योऽपर्याप्ता असोयगुणाः, एफैकपर्याप्तनिश्रया असाधेयानामपर्याप्तानामुत्पादात् , तथा पोत प्रज्ञापनायां प्रथमे प्रज्ञापनाख्ये पड़े-"पजत्तगनिस्साए अपजत्तगा बकमंति, जस्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा" इति, सूक्ष्मेषु पुनर्नायं क्रमः, पर्याप्ताश्चापर्याप्तापेक्षया चिरकालावस्थायिन इति सदैव ते बहवो | लभ्यन्ते तत उक्तं सर्वस्तोका: सूक्ष्मा अपर्याप्ताः तेभ्यः सूक्ष्मा: पर्याप्तकाः सोयगुणाः, एवं पृथ्वीकायादिष्वपि प्रत्येक भावनीयम् ॥ | गतं चतुर्थमल्पबहुत्वमिदानीं सर्वेषां समुदितानां पर्याप्तापर्याप्तानां पञ्चममल्पबहुत्वमाह-एएसि ण'मित्यादि, सर्वस्त्रोकाः सूक्ष्मतेदजस्कायिका अपर्याप्ताः, कारणं प्रागेवोक्तं, तेभ्यः सूक्ष्मपुथिव्यब्वायवोऽपर्याप्ताः क्रमेण विशेषाधिकाः, अत्रापि कारणं प्रागेवोक्त तेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिकाः पर्याप्ता: सोयगुणाः, अपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तानां सङ्ख्येयगुणानामेव भावितत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मपृथिव्यव्वा-14 यवः पर्याप्ताः क्रमेण विशेषाधिकाः, कारणं प्रागेवोक्तं, ततः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ता असोयगुणास्तेषामतिप्राचुर्यात् , तेभ्य: सूक्ष्मा लानिगोदाः पर्याप्ताः सहधेयगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तानामोधतः सोयगुणलात् , तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपर्याप्त मन STOCOCCACTICE दीप अनुक्रम [३५५] JanEdi.canam inted ~379 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३३] दीप अनुक्रम [३५५] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [ ५ ], • उद्देशक: [-], • मूलं [२३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ४१६ ॥ न्तगुणाः, प्रतिनिगोदमनन्तानां तेषां भावात् तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथ्वीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका: पर्याप्ताः सङ्ख्यगुणाः, सूक्ष्मेषु हि अपर्याप्तेभ्यः पर्याप्ताः सवगुणाः यच्चापान्तराले विशेपाधिकत्वं तदल्पमिति न सङ्घयेयगुणत्वव्याघातः, तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिव्यादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् ॥ सम्प्रति बादरादीनां स्थित्यादि निरूपयति- वायरस्स णं भंते! केवतियं कालं दिती पण्णत्ता?, गोयमा! जहनेणं अंतोमु० उक्को० तेत्तीसं सागरोमाई ठिई पण्णत्ता, एवं बाघरतसकाइयस्सवि वायरपुढवीकाइयस्स बावीसवास सहस्साई बायरआउस सत्तवास सहस्सं वायरतेउस्स तिष्णि राइंदिया वायरवाउस्स तिष्णि वाससहस्साई वायरवण० दसवास सहरसाई, एवं पत्तेयसरीरवादरस्सवि, णिओयरस जहन्त्रेणवि उक्कोसेणवि अंतोमु०, एवं बायरणिओयस्सवि, अपजत्तगाणं सम्बेसिं अंतोमुद्दत्तं, पज्जत्तगाणं उक्कोसिया ठिई अंतोमुहणा कायव्वा सब्वेसिं ॥ ( सू० २३४ ) 'बायरस्त णं भंते!' इत्यादि प्रनसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त तत ऊर्द्ध मरणात्, उत्कर्षतख वशित्सागरोपमाणि, एवं बादरपृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिप्रत्येकवाद र वनस्पतिनिगोदद्वादर निगो द्वादरत्र सकायिकसूत्राण्यपि वक्तव्यानि, सर्वत्र हि जधन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कर्षचिन्तायामयं विशेष:- चादरपृथिवीकायिकस्योत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि बादराकायिकस्य सप्त वर्षसहस्राणि बादरतेजस्कायिकस्य त्रीणि रात्रिन्दिवानि बादरवायुकायिकस्य त्रीणि वर्षसहस्राणि सामान्यतो बादरवनस्पतिकाविकस्य For P&Peale Cly ५ प्रतिपत्तौ बादरस्य स्थितिः | उद्देशः २ सू० २३४ ~380~ ॥ ४१६ ।। अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते— एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३४] दीप अनुक्रम [३५६ ] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [ ५ ], • उद्देशक: [-], [------ मूलं [२३४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः दश वर्षसहस्राणि प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायस्य दश वर्षसहस्राणि सामान्यतो निगोदस्य जघन्येनाप्युत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्त बादरनिगोदस्य जघन्यत उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्त बादरत्रसकायस्त्र जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि ॥ सम्प्रत्येतेषामेव सामान्यतो बादरादीनां दशानामपर्याप्तानां स्थिति चिचिन्तयिषुः सूत्रदशक माह - 'बायरअपजत्तगस्स णं भंते!" इत्यादि पाठसिद्धं, सर्वत्र जघन्यत उत्कर्षतञ्चान्तर्मुहूर्त्ताभिधानात् ॥ साम्प्रतमेतेषामेव पर्याप्तानां स्थितिं चिन्तयति — 'बांदरपज्जत्तगरस णं भंते!' इत्यादि, जघन्यतः सर्वत्राप्यन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः सामान्यतो वादरस्य त्रयत्रिंशत्लागरोपमाण्यन्तर्मुहूर्त्तानानि, अपर्याप्तकावस्था भाविनाऽन्तर्मुहू चैनोनत्वात् एवं बादरपृथिवीकायिकपर्याप्तकस्य द्वाविंशतिर्वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूतनानि, बादराप्कायिकस्य पर्याप्तकस्य सप्त वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूर्त्तेनानि बादरतेजस्कायिकपर्याप्तकस्य त्रीणि रात्रिन्दिवानि अन्तर्मुहूतनानि, बादरवायुकायिकपर्याप्तस्य त्रीणि वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूतनानि वादरवनस्पतिकाय पर्याप्तकस्य दश वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूर्त्तनानि, प्रत्येकवादरवनस्पतिकायिकपर्यातकस्यापि दश वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूतनानि, सामान्यतो निगोदपर्याप्तकस्य बादरनिगोदपर्याप्तकस्य च जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्त, बादरत्रसकायिकपर्याप्तस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतस्य त्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहूतौनानि ॥ साम्प्रतं कायस्थि तिमाह वायरे णं भंते! बायरेति कालओ केवचिरं होति ?, जह० अंतो० उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ खेतओ अंगुलस्स असंखेजति भागो, बायरपुढविकाइआडवा पतेयसरीरबादरवणस्स इकाइयस्स बायरनिओयस्स० [बायरवणस्सइस्स जह० For P&Praise Cinly ~381~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [9], --------------------- उद्देशक: [-], ------------------- मूलं [२३५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३५] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥४१७॥ गाथा: * सू०२३५ अंतो० को असं असं उस्स० कालओ खेसओ अंगु० असं० पत्तेगसरीरयादरवणस्सतिकाइ- ५ प्रतिपच्ची यस्स वायरनिगोअस्स पुढवीव, बायरणिओयस्सणं जह० अन्तोउको० अर्णतं कालं अर्णता उस्स० | बादरस्य कालओ खेत्तओ अड्डाइजा पोग्गल०] एतेसिं जहपणेणं अंतोमु उक्कोसेणं सत्तरि सागरोवमको कायस्थिडाकोडीओ संखातीयाओ समाओ अंगुलअसंखभागो तहा-असंखेजा उ० ओहे य वापरतरुअणुबंधो सेसओ वोच्छं । उस्सप्पिणि २ अडाइयपोग्गलाण परियद्दा ॥ उदधिसहस्सा खलु उद्देशः२ साधिया होंति तसकाए ॥१॥ अंसोमुहुत्तकालो होइ अपजत्तगाण सम्वेसि ।। पज्जत्तवायरस्स य वायरतसकाइयस्सावि ॥२॥ एतेसिं ठिई सागरोवमसतपुहत्तं साइरेगं । तेउस्स संख राईदिया] दुविहणिओए मुहुत्तमद्धं तु। सेसाणं संखेजा वाससहस्सा य सबेर्सि ॥३॥ (सू०२३५) ___ 'बायरे णं भंते ! इत्यादि प्रभसूत्र पाठसिद्ध, भगवानाह-गौतम! जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसहयं कालं, तमेवासयेयं । कालं कालक्षेत्राभ्यां निरूपवति-असंखेजाओ उस्सप्पिणीमोसप्पिणीओ कालतो खेत्ततो अंगुलस्स असंखेज्जइभागों' अस्य ब्याख्या प्राग्वत् । बादरपृथ्वीकायिकसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः सप्ततिः सागरोपमकोटीकोटयः, एवं बादराकायिकबादरतेजस्कायिकवादरवायुकापिकानामपि, सामान्यतो बादरवनस्पतिकाबिकसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसङ्ख्ययं कालं, तमेव कालक्षेत्राभ्यां नि3 रूपयति-असोया उत्सर्पिण्यवसपिण्यः कालत: क्षेत्रतोऽङ्गुलस्यासोयभागः । प्रत्येकवादरवनस्पतिकायिकसूत्र बादरपृथ्वीकायिक- ॥४१७॥ बत्, सामान्यतो निगोदसूत्रे जपसोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽनन्तं कालं, तस्यैव कालक्षेत्राभ्यां निरूपणं करोति-अनन्ता उत्सर्पिण्यव स दीप अनुक्रम [३५७३६०] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~382 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: H], ------------------- मूलं [२३५] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३५] गाथा: सपिण्यः, एषा कालत: प्ररूपणा, क्षेत्रतोऽर्द्धतृतीयाः पुद्रलपरावर्ताः । वादरनिगोदसूर्व वादरपृथ्वीकायिकवत् । बादरासकायसूत्रे | काजघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो वे सागरोपमसहसे सयवर्षाभ्यधिके । साम्प्रतमेतेषामेवापर्याप्ताना कायस्थितिं निरूपयन् सूत्रदशक माह-बायरअपज्जत्तए ण भंते! बायरअपज्जत्तएत्ति कालतों' इत्यादि सर्वत्र जघन्येनोत्कर्वेण चान्तर्मुहूर्तम् । अधुनैतेषामेव । पर्याप्तानां कायस्थितिमाह-'बायरपज्जत्तए णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तद्भावना | प्रावत् , उत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्वं सातिरेक, तत ऊर्द्धमवश्यं वादरस्थ सत: पर्वाप्पलब्धिविच्युतेः । बादरपृथिवीकायिकपर्याप्तसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षत: सश्येयानि वर्षसहस्राणि, तत ऊर्दू तथास्वाभाव्या बादरपृथिवीकायस्य सतः पर्याप्तिलम्धिभ्रंशात् । एवमकायसूत्रमपि वक्तव्यं, तेजस्कायसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः सङ्ख्येयानि रात्रिन्दिवानि, तेजस्कायिकस्य हि उत्कृष्टा भवस्थितिः । त्रीणि रात्रिन्दिवानि, उत्कृष्टस्थितिकस्ख पर्याप्तभवा निरन्तरं कतिपया एवेति साधेयान्येव रात्रिन्दिवानि । वायुकायिकसामान्यबादरदि वनस्पतिकायप्रत्येकबादरवनस्पतिकायसूत्राण्यपि यादरपर्याप्तपृथिवीकायसूत्रवत् । सामान्यतो निगोदपर्याप्तसूत्रे च जघन्यत उपकर्षत-18 श्वान्तर्मुहूर्त, बादरत्रसकायपर्याप्तसूत्र जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षत: सागरोपमशतपुथक्त्वं सातिरेक, तय नैरयिकतिर्यग्मनुष्यदेवभवभ्रमणेन पूरयितव्यम् ॥ साम्प्रतमन्तरं प्रतिपिपादयिषुराह-- अंतरं बायरस्स बायरवणस्सतिस्स णिओयस्स बायरणिओयस्स एतेसिं चउपहवि पुढविकालो जाव असंखेजा लोया, सेसाणं वणस्सतिकालो। एवं पजत्सगाणं अपजत्तगाणवि अंतरं, ओहे य वायरतरु ओघनिओए यायरणिओए य कालमसंखेज अंतर सेसाण वणस्सतिकालो ॥ (सू०२३६) दीप अनुक्रम [३५७३६० HTTPCASSEX ~3830 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [9], --------------------- उद्देशक: 1, --------------------- मूलं [२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि प्रत सूत्रांक रीयावृत्तिः [२३६] ॥४१८॥ दीप अनुक्रम [३६१] 'बादरस्स णं भंते ! अंतरं कालतो' इत्यादि प्रभसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसहयेयं कालं, तमेव 8५ प्रतिपत्ती कालक्षेत्राभ्यां निरूपयति-असहषया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालत: क्षेत्रतोऽसलपेया लोकाः, यदेव हि सूक्ष्मस्य सतः कायस्थिविपरि-6 बादरस्यामाणं तदेव बादरस्यान्तरपरिमाणं सूक्ष्मस्य च कायस्थितिपरिमाणमेतदेवेति । वादरपृथिवीकायिकसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्धतोऽनन्तंन्तरं सूक्ष्मकालं, स चानन्तः कालो वनस्पतिकालः प्रागुक्तस्वरूपो वेदितव्यः । एवं बादराकायिकथादरतेजस्कायिकसूत्राण्यपि वक्तव्यानि ।। बादरयोसामान्यतो बादरवनस्पतिकायिकसूवे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽसोयं कालं, स चासवेयः कालः पृथिवीकालो वेदितव्यः, स| | रपबहुत्वं चैवम्-असोया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालत: क्षेत्रतोऽसयेया लोकाः । प्रत्येकवादरवनस्पतिकायिकसूत्रं बादरपृथिवीकायिकसूत्रवत् , उद्देशा२ सामान्यतो निगोदसूत्रं च सामान्यतो बादरवनस्पतिकायिकसूत्रवत् , बादरत्रसकाथिकसूत्रं बादरपृथिवीकायिकसूत्रबत् । एवमपर्या-18 सू०२३६विषया दशसूत्री पर्याप्त विषया च दशसूत्री यथोक्तक्रमेण वक्तव्या, नानालाभावात् ।। साम्प्रतमल्पबहुखमाह २३७ अप्पा० सम्वत्थोबा वायरतसकाइया वायरतेएकाइया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरवादरवणस्सति. असंखेज्जगुणा वायरणिओया असंखे० वापरपुढवि असंखे० आउवाउ असंखेजगुणा बायरवणस्सतिकाइया अर्णतगुणा वायरा विसेसाहिया १। एवं अपज्जत्तगाणवि २। पजत्तगाणं सव्वस्थोवा बायरतेउकाइया बायरतसकाइया असंखेजगुणा पत्तेगसरीरवायरा असंखेजगुणा सेसा तहेव जाव बादरा विसेसाहिया ३। एतेसि णं भंते! बायराणं पजत्तापजत्ताणं कयरे २१, ॥४१८ सब्वत्थोवा बायरा पजत्ता वापरा अपज्जत्तगा असंखेजगुणा, एवं सब्वे जहा बायरतसकाइया ४॥ . Jamaication अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~3840 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], ---------------------उद्देशक:-1.--------------------- मलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: E3 प्रत %AC सूत्रांक [२३७] दीप अनुक्रम [३६२] एएसि गंभंते! बायराणं बायरपुढविकाइयाणं जाच थायरतसकाइयाण य पजत्तापजत्ताणं कयरे २१, सव्यस्थोवा वायरतेउकाइया पज्जत्तगा वायरतसकाइया अपजसगा असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरवणस्सतिकाइया पज्जत्तगा असंखेजगुणा वायरणिओया पज्जत्तगा असंखेज. पुढविआउवाउपजत्तगा असंखेजगुणा बायरतेउअपज्जत्तगा असंखेवगुणा पत्तेयसरीरवायरव. णस्सतिअप० असंखे० वायरा णिओया अपज्जत्तगा असंख० बायरपुढविआजबाउ अपजसगा असंखेजगुणा वायरवणस्सइ पजत्तगा अणंतगुणा बायरपजत्तगा विसेसाहिया बायरवणस्सति अपजसा असंखगुणा बायरा अपजसगा विसेसाहिया वायरा प० विसेसाहिया ५। एएसिणं भंते! सहमाणं सुहमपुदविकाइयाणं जाव सुहमनिगोदाणं बायराणं बायरपुढचिकाइयाणं जाव बायरतसकाइयाण य कयरेरहिंतो०१, गोयमा! सव्वत्थोवा बायरतसकाइया वापरतेउकाइया असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरवणा असंखे० तहेव जाव बायरवाउकाड्या असंखेजगुणा सुहमतेउकाइया असंखे०सुहमपुढवि०विसेसाहिया सुहमआउ०मुहमवाउ०विसेसा०सहमनिओया असंखेजगुणा बायरवणस्सतिकाइया अणंतगुणा वायराविसेसाहिया सुहमवणस्सइकाइया असंखे० सुहमा विसेसा एवं अपजत्सगावि पजत्तगावि, णवरि सव्वत्थोवा वायरतेउक्काइया पजत्ता बायरतसकाइया पजत्ता असंखेजगुणा पत्तेयसरीर० सेसं तहेव जाव सुहमपज्जत्ता वि. - CECACARACK ~385 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: -,--------------------- मूलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ॥४१९॥ ACKGAR प्रत सूत्रांक [२३७] प्रतिपत्ती सूक्ष्मबादरयोरः ल्पबहुत्वं उद्देशः२ सू० २३७ दीप अनुक्रम [३६२] सेसाहिया। एएसिणं भंते ! सुहमाणं बादराण य पजत्ताणं अपजत्ताण य कयरे २१०, सव्यस्थोवा बायरा पजत्ता घायरा अपज्जत्ता असंखेनगुणा सव्वथोवा सुहुमा अपजत्ता सुहमपज्जत्ता संखेलगुणा, एवं सुहुमपुढविवायरपुढवि जाव सुहुमनिओया वायरनिओया नवरं पत्तेयसरीरबायरवण सब्वत्थोवा पजत्ता अपजत्ता असंखेजगुणा, एवं यादरतसकाइयावि ॥ सव्वेसिं पजत्तअपजत्तगाणं कयरेशहितो अप्पा वा बहुया वा?, सब्यस्थोवा वायरलेउकाइया पजत्ता वायरतसकाइया पजसगा असंखेजगुणा ते चेव अपजत्तगा असंखेजगुणा पत्तेयसरीरबायरवणस्सइअपजतगा असंखे० बायरणिओया पजत्ता असंखेज वायरपुढवि० असं० आउवाउपलत्ता असंखे० बायरतेउकाइयअपजत्ता असंखे० पत्तेय असंखे० बायरनिओयपजत्ता असं० बायरपुढवि० आउवाउकाइ अपजत्तगा असंखेजगुणा सुहुमतेउकाइया अपजत्रागा असं० सुहमपुढविआउवाउअपजत्ता विसेसा. सुहुमतेउकाइयपजसगा संखेजगुणा सुहमपुढविआउवाउपजत्तगा विसेसाहिया सुहमणिगोया अपजत्तगा असंखेजगुणा सुहुमणिगोया पजत्तगा असंखेजगुणा बायरवणस्सतिकाइया पजत्तगा अर्णतगुणा बायरा पजत्तगा विसेसाहिया बायरवणस्सइ अपजत्ता असंखेजगुणा बायरा अपज्जत्ता विसे वायरा विसेसाहिया सुहमवणस्स ॥४१२ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~386 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: -,--------------------- मूलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * % % प्रत सूत्रांक [२३७] दीप अनुक्रम [३६२] तिकाइया अपजत्तगा असंखेजगुणा सुहमा अपज्जत्ता विसेसाहिया मुहमवणस्सइकाइया पजत्ता संखेजगुणा सुहमा पजत्तगा विसेसाहिया सुहमा विसेसाहिया ।। (सू०२३७) 'एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका वादरत्रसकायिकाः, द्वीन्द्रियादीनामेव बादरत्रसवात् , तेषां च शेषकायापेक्षयाऽल्पवात , तेभ्यो | बादरतेजस्कायिका असोयगुणाः, असओयलोकाकाशप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिका असहयगुणाः,18 स्थानस्यासक्येयगुणत्वात् , बादरतेजस्लाविका हि मनुष्यक्षेत्र एव भवन्ति, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायां द्वितीय स्थानाख्ये पदे-'कहिण भंते ! बादरतेउकाइयाणं पञ्चत्तापजत्ताणं ठाणा पन्नचा?, गोयमा ! अंतो मणुस्सखेते अडाइजेसु दीवस मुद्देसु निम्बाघाएणं पन्नरससु कम्मभूमीसु वाघाएणं पंचसु महाविदेहेसु एत्थ णं वायरतेउकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पज्जत्ता, तथा-जत्येक वायरते उक्काइयाणं पजताणं ठाणा पन्नत्ता तस्येव अपजत्ताणं बायरतेउकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता' इति । बादरवनस्पतिकायिकास्तु निष्वपि लोकेषु, तथा चोक्तं | प्रज्ञापनायां तस्मिन्नेव स्थानाख्ये द्वितीये पदे-'कहि णं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता?, गोयमा! सट्ठाजेणं सत्तसु घणोदहीसु सत्तसु घणोदहिवलएसु अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु उद्दलोए कप्पेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु तिरियलोए अगढेसु तलायसु नदीसु दहेसु बाबीसु पुक्खरिणीसु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु उग्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु | वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सब्बेसु चेव जलासएसु जलहाणेसु, एत्य पं बायरवणरसइकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, तथा जस्थेव | वायरवणस्सइकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव बायरवणस्सइकाइयाणमपजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता' इति । ततः क्षेत्रस्यासोयगुणत्वादुपपद्यन्ते वावरतेजस्कायिकेभ्योऽसोयगुणाः प्रोकशरीरबादरवनस्पतिकायिकाः, तेभ्यो बादरनिगोदा असपेयगुणास्तेषा 2%95-10- ~387 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], ---------------------उद्देशक:-1.--------------------- मलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७] दीप अनुक्रम [३६२] श्रीजीवा- मत्यन्तसूक्ष्मावगाहनलात् जलेषु च सर्वत्रापि प्रायोभावात् , पनकसेवालादयो हि जलेष्ववश्यंभाविनः, ते च बादरानन्तकायिका ५ प्रतिपत्ती जीवाभि इति, वेभ्योऽपि बादरपृथिवीकायिका असयेयगुणाः, अष्टासु पृथिवीषु सर्वेषु विमानभवनपर्वतादिषु च भावात् , तेभ्योऽसयेयगुणा सूक्ष्मवामलयगि-18 बादराकायिकाः, समुद्रेषु जलप्राभूत्यात् , तेभ्यो बादरवायुकायिका असोयगुणाः, शुधिरे सर्वत्र वायुसम्भवात् , तेभ्योऽपि बादर-1|दरयोररीयावृत्तिः वनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिबादरनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् , तेभ्य: सामान्यतो बादरा विशेषाधिकाः, बादरत्रसका ल्पबहुत्वं यिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥ गतमेकमौधिकमल्पबहुत्वमिदानीमेतेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमाह-एएसि णं भंते!' इत्यादि, सर्व॥४२०॥ उद्देशा२ तोफा बादरत्रसकायिका अपर्याप्ताः, युक्तिरत्र प्रागुक्तैव, तेभ्यो बादरतेजस्कायिका अपर्याप्ता असोयगुणाः, असहयलोकाकाशप्र-131 सू०२३७ माणत्वात् , इत्येवं प्रागुक्तक्रमेणेदमप्यरूपबहुवं परिभावनीयम् ।। गत द्वितीयमल्पबहुत्वं, साम्प्रतमेतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुत्वमाह-'एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका बादरतेजस्कायिकाः पर्याप्ताः, आवलिकासमववर्गस्य कतिपयसमयन्यूनैरावलिकासमयैर्गुणि-| तस्य यावान् समयराशिर्भवति तावत्प्रमाणलात्तेषाम् , उक्त - आवलिवग्गो कमेणावलीए गुणिमो हि वायरो तेऊ" इति, तेभ्यो बादरत्रसकायिकाः पर्याप्ता असक्वेयगुणाः, प्रतरे यावन्त्यङ्गुलसक्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात्तेषां, तेभ्यः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असोयगुणाः, प्रतरे यावन्त्यङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात्तेषाम् , उक्तञ्च“पत्तेयपजतवणकाइया उ पयरं हरति लोगस्स अंगुलअसंखभागेण भाइय"मिति, तेभ्यो बादरनिगोदपर्याप्तका असङ्ख्येयगुणाः, तेषामत्यन्तसूक्ष्मावगाहनत्वात् जलाशयेषु च सर्वत्र प्रायोभावात् , तेभ्यो बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्ता असोयगुणाः, अतिप्रभूतसकोयप्रतराङ्गलासययभागखण्डमानत्वात् , तेभ्योऽपि बादराप्कायिकाः पर्याप्ता असोयगुणाः, अतिप्रभूततरासयेयप्रतराखलासले अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~388 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: -,--------------------- मूलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७] दीप अनुक्रम [३६२] यभागखण्डमानलात, तेभ्यो बादरवायुकायिकाः पर्याप्ता असल्येयगुणाः, घनीकृतस्य लोकस्यासछपेयेषु प्रतरेषु सम्हयासतमभागवर्तिपु| यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणवात्तेषां, तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां | भावान् , तेभ्यः सामान्यसो बादरपर्याप्तका विशेषाधिका:, बादरतेजस्कायिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् ॥ गतं तृतीयमल्पयहुत्वमिदानीमेतेषामेव प्रत्येक पर्याप्तापर्याप्तगतमल्पबहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि, यह वादरैकैकपर्याप्तनिश्रयाऽसोया बादरा अप प्तिा उत्पद्यन्ते, "पज्जत्तगनिस्साए अपजत्तगा बक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा" इति वचनात , ततः सर्वत्र पर्याप्तभ्यो काsपर्याप्ता असह्यपेयगुणा वक्तव्याः । वादरत्रसकायिकसूत्रं तु प्रागुक्तयुक्त्या भावनीयम् ।। गतं चतुर्थमध्यल्पबहुलं, सम्प्रत्येतेषामेव स| मुदितानां पर्याप्तापर्याप्तानां पञ्चममल्पबहुत्यमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका बादरतेजस्कायिकाः पर्याप्ताः, तेभ्यो बादरत्रस | कायिकाः पर्याप्ता असहयगुणाः, तेभ्यो बादरप्रत्येकवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असायेयगुणाः, तेभ्यो बादरनिगोदाः पर्याप्ता असनायगुणाः, तेभ्यो बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्मा असहयेयगुणाः, तेभ्यो बादराकायिकाः पर्याप्ता असङ्खये यगुणाः, तेभ्यो बादरवायु कायिकाः पर्याप्ता असोयगुणाः, एतेषु पदेषु युक्तिः प्रागुक्ताऽनुसरणीया, तेभ्यो वादरतेजस्कायिका अपर्याप्ता असलवेयगुणाः, यतो बादरवायुकाधिकाः पर्याप्पा असोयेषु लोकाकाशप्रदेशेषु यावन्त आकाशप्रदेशातावत्प्रमाणाः बादरतेजस्कायिकाश्चापर्याप्ता असङ्खयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणास्ततो भवन्त्यसहयगुणाः, ततः प्रत्येकबादरवनस्पतिकाविकवादरनिगोदवादरपृथिवीकायिकबादराकायिकबादरवायुकायिका अपर्याप्ता यथोत्तरमसयेवगुणा वक्तव्याः, यद्यपि चैते प्रत्येकमसयेवलोकाकाशप्रदेशप्रमाणास्तथाऽप्यसमातस्यासातभेद भिन्नलादित्थं यथोत्तरमसोयगुणवं न विरुध्यते, तेभ्यो दादरवायुकायिकापर्याप्तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका जीवाः प जी०७१ JEEmail ~389~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: -,--------------------- मूलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७] दीप श्रीजीवा-दर्याप्ता अनन्तगुणा: प्रतिबारैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् , तेभ्य: सामान्यतो बादराः पर्याप्मा विशेषाधिकाः, बादरतेज-४५प्रतिपत्ती जीयाभिस्कायिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यो बादरवनस्पतिकाविका अपर्याप्तका असोयगुणा एकैकपर्याप्तबादरवनस्पतिका- सूक्ष्मवामलयगि- *यिकनिगोदनिश्रयाऽसहयेयानामपर्याप्तवादरवनस्पतिकायिकनिगोदानामुत्पादात्, तेभ्यः सामान्यतो बादरा अपर्याप्त विशेषाधिका दराद्यल्परीयावृत्तिः बादरतेजस्कायिकादीनामपर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् , तेभ्य: पर्याप्तापर्याप्तविशेषणरहिता: सामान्यतो बादरा विशेषाधिका: बादरपर्याप्तते- बहुवं जस्कायिकादीनामपर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् । तदेवं गतानि बादराश्रितानि पञ्चास्पबहुत्वानि, सम्प्रति सूक्ष्मवादरसमुदायगतानि पञ्चा- उद्देशः २ ॥४२१॥ ४ाल्पवहुत्वान्यभिधित्सुराह-'एएसि ण'मित्यादि, इह प्रथमं बादरगतमल्पबहुखं तत्सूक्ष्मगताल्पयत्वपञ्चके यत्प्रथममल्पबहुलं तद्वद् | मासु०२३७ भावनीयं यावत् सूक्ष्मनिगोदचिन्ता, तदनन्तरं बादरवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः प्रतिवादरनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् , तेभ्यो बादरा विशेषाधिका वादरतेजस्कायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् , तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका असह्यपेयगुणाः, वादरनिगो देभ्यः सूक्ष्मनिगोदानामसपेयगुणखात्, वेभ्यः सामान्यत: सूक्ष्मा विशेषाधिकाः सूक्ष्मतेजस्कायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥ गतहै। मेकमल्पबहुलमिदानीमेतेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका बादरत्रसकायिका अपर्याप्ताः, ततो बादर तेजस्कायिकबादरवनस्पतिकायिकबादरनिगोदबादरपृथिवीकायिकबादराप्कायिकवादरवायुकायिकाः पर्यापाः क्रमेण यथोत्तरमसोय|गुणाः, अत्र भावना यादरगतास्पबहुसपश्चके यद्वद् द्वितीयमपर्याप्त विषयमल्पबहुलं तद्वद् भावनीया, ततो बादरवायुकायिकेभ्योऽपर्यामेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिका अपर्याप्ता असोयगुणाः, अतिप्रभूतासषेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिकसूक्ष्मा- ४२१॥ कायिकसूक्ष्मवायुकायिकसूक्ष्मनिगोदा यथोत्तरमसोयगुणाः, अत्र भावना सूक्ष्माल्पबहुत्ववद्भावनीया, पञ्चके यहितीयास्पबहुलं त-IN SCRESS अनुक्रम [३६२] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~390 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], ---------------------उद्देशक: -1.--------------------- मलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७] द्वत् , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका जीवा अपर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानो भावान् , तेभ्यः । सामान्यतो बादरा अपर्याप्पा विशेषाधिका:, बादरत्रसकायिकापर्याप्तानामपि तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असोयगुणाः, बादरनिगोदापर्याप्तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तानामसषयगुणत्वात् , तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, सूक्ष्मतेजस्कायिकापर्याप्तादीनामपि तत्र प्रक्षेपान् ।। गतं द्वितीयमल्पवहुवमिदानी तेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमल्पबहुलमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका बादरतेजस्कायिकाः पर्याप्ताः, तेभ्यो बादरत्रसकायिकबादरपोकवनस्पतिकायिकबादरनिगोदवादरपृथिवीकायिकबादराष्कायिकबादरवायुकायिका: पर्याप्ता यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणाः, अत्र भावना वादरगताल्पबहुत्वपञ्चके यत्तृतीयं पर्याप्तविषयमल्पबहुलं तद्वत्कर्त्तव्या, बादरपर्याप्तवायुकायिकेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिकाः पर्याप्ता असल्येयगुणाः, बादरवायुकाथिका हि असोयन-IN तरप्रदेशराशिप्रमाणाः, सूक्ष्मतेजस्कायिकास्तु पर्याप्ता असोयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाततोऽसयेयगुणाः, तत: सूक्ष्मपृथिवीकायिक-18 सूक्ष्माप्कायिकसूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ताः क्रमेण यथोत्तरं विशेषाधिकाः, ततः सूक्ष्मवायुकायिकेभ्यः पर्याप्तेभ्यः सूक्ष्म निगोदाः पर्याप्रका असलयेयगुणाः, तेषामतिप्रभूततया प्रतिगोलकं भावात् , तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका जीवाः पर्याप्रका अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानां भावात् , तेभ्यः सामान्यतो बादराः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, वादरतेजस्कायिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् , तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्याप्पा असहधेयगुणाः, बादरनिगोदपर्यापेभ्य: सूक्ष्मनिगोदपर्याप्तानामसोयगुणत्वात् , तेभ्यः सामातान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, सूक्ष्मनेजस्कायिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् ॥ गतं तृतीयमल्पबहुत्वमिदानीमेतेषामेव सूक्ष्मवादरादीनां प्रत्येक पर्याप्तापर्याप्तानां पृथक पृथगल्पबहुत्वमाह-एएसि णं भंते ! सुहुमाणे बायराण य पजत्तापज्जत्ताण' दीप अनुक्रम [३६२] ~391 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: -,--------------------- मूलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -54 प्रत सूत्रांक % [२३७] दीप अनुक्रम [३६२] श्रीजीवा- मित्यादि, सर्वत्रेयं भावना-सर्वस्तोका बादराः पर्यापा: परिमितक्षेत्रवर्तित्वात् , तेभ्यो बादरा अपर्याप्ता असहयगुणाः, एकैकबाद-194प्रतिपत्ती जीवाभि पर्याप्तनिभयाऽसरेयाना वापरापर्यापानामुत्पादान, तेभ्यः सूक्ष्मापर्यामा असोयगुणाः, सर्वलोकापन्नतया तेषां क्षेत्रस्यासहयगुण-18| सूक्ष्मवामलयगित्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मपर्याप्रकाः सहयेयगुणाः, चिरकालावस्थायितया तेषां सदैव सोवगुणतया प्राप्यमानत्वात् , सर्वसाध्यया चा दराद्यल्परोयावृत्तिः सप्त सूत्राणि, तद्यथा-प्रथमं सामान्यत: सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्यातविपयं द्वितीयं सूश्मयादरपृथिवीकायिकपर्याप्तापर्याप्त विषय, तृतीय बहुत्वं ॥४२२॥ सूक्ष्मवादराकायिकपर्याप्तापर्याप्त विषय, चतुर्थ सूक्ष्मवादरतेजस्कायिकपर्याप्तापर्याप्तविषय, पञ्चमं सूक्ष्मवादरवायुकायिकपर्याप्तापर्यातविषय, षष्ठं सूक्ष्मवादरवनस्पतिकायिकपर्याप्तापर्याप्तविषय, सप्तमं सूक्ष्मवादरनिगोदपर्याप्तापर्याप्त विषयमिति ॥ गतं चतुर्थमल्पबहुत्व- सू० २३७ मिदानीमेतेषामेव सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनां प्रत्येक पर्याप्तापर्याप्तानां समुदायेन पञ्चममल्पबहुखमाह-एएसिणं भंते! सुहुमाणं | सुहमपुढविकाइयाण मित्यादि, सर्वस्तोका बादरतेजस्काविका: पर्याप्ताः, आवलिकासमयवर्गे कतिपयसमयन्यूनराबलिकासमयैर्गु|णिते यापान समयराशिस्तावस्त्रमाणत्वात्तेपा, रोभ्यो वादरत्रसकायिका: पर्याप्ता असपे यगुणाः, प्रतरे यायन्यनुलास हमेयभागमा त्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात्तेषां, तेभ्यो वादरत्रसकायिका अपर्याप्पा असङ्खयेय गुणाः, प्रतरे यावन्त्यनुलासययभागमात्राणि खण्डानि | तावत्प्रमाणलातेपा, ततः प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिकवादरनिगोदवादरपृथिबीकायिकबादराकायिकबादरवायुकायिकाः पर्यात्रा यथोत्तरमसोयगुणाः, यद्यप्येते प्रत्येक प्रतरे यावन्त्यनुलासवभागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणास्तथाऽप्यनुलासयभागस्यास पेयभेदभिन्नलादित्थं यथोत्तरमसोयगुणखमभिधीयमानं न विरुध्यते, तेभ्यो बादरतेजस्कायिका अपर्याप्तका असहायगुणाः, अस-1 हायलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , ततः प्रत्येकशरीरवादरवनस्पतिकायिकवादरनिगोदवादरपूधिवीकाविकवादराकायिकवादरवायुका अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~392 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], ---------------------उद्देशक:-1.--------------------- मलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७] दीप अनुक्रम [३६२] *यिका अपर्याप्ता यथोत्तरमसमवेयगुणाः, ततो वादरवायुकायिकेभ्योऽपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिका अपर्याप्ता असाहयेयगुणाः, ततः सूक्ष्मपृथिवीकायिकसूक्ष्माकायिकसूक्ष्मवायुकायिका अपर्याप्ता यथोत्तरं विशेषाधिकाः, ततः सूक्ष्मतेजस्कायिका: पर्याप्ताः सोयगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्याप्तेभ्यः पर्वामानामोचत: सवयेयगुणत्वात् , ततः सूक्ष्मपृथियीकायिकसूक्ष्माप्कायिकसूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ता यथोत्तरं विशेषाधिकाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्त का असोयगुणाः, तेषामतिप्राभूत्येन सर्वलोकेषु भावान् , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा असोयगुणाः, सूक्ष्मेवपर्याप्तानां सदैवोपतः सहयगुणत्वात् , एते च बादरपर्याप्ततेजस्कायिकादयः पर्याप्त निगोदपर्यवसाना: पोडश पदार्थी | यद्यप्वन्यत्राविशेषेणासङ्खयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणतया संगीयन्ते तथाऽप्यसवातस्यासमातभेदभिन्नत्यादित्थमसहयगुणवं विशेषा|धिकत्वं सहायगुणत्वं च प्रतिपाद्यमानं न विरोधमागिति, तेभ्यः पर्याप्तसूक्ष्मनिगोदेभ्यो बादरवनस्पतिकाथिका अपर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिवादरैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां भावान् , तेभ्यः सामान्यतो बादरा: पर्यात्रा विशेषाधिका:, बादरपर्याप्ततेजस्कायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात्, तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असाहयेयगुणाः, एकैकपर्याप्तनिगोदनिश्रयाऽसङ्ख्येयानां बादरनिगोदापर्याप्तानामुत्पादात् , तेभ्य: सामान्यतो बादरा अपर्याप्ता विशेषाधिका:, बादरतेजस्कायिकादीनामप्यपर्यामानां तत्र प्रक्षेपात , तेभ्यः सामान्यतो बादरा विशेषाधिकाः, पर्यापानामपि तत्र प्रक्षेपान् , तेभ्यः सूक्ष्मबनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असयेय गुणाः, पादरनिगोदेभ्यः सूक्ष्मनिगोदानामपर्याप्तानामप्यसोयगुणत्वात् , ततः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्याप्रका विशेषाधिकाः, सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामप्यपपर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् , वेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिकाः पर्यापाः सत्येयगुणाः, सूक्ष्मवनस्पतिकायिकापर्याप्तभ्यो हि सूक्ष्मवनस्पतिका|यिकाः पर्वाप्ताः सहोयगुणाः, सूक्ष्मेष्वप्योपतोऽपर्याप्नभ्यः पर्यापानां सहयगुणवात् , सतः सामान्यत: सूक्ष्मपर्याप्तेभ्योऽपि सहये ~393 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३७] दीप अनुक्रम [३६२] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ /२ (मूलं + वृत्तिः ) ------------ उद्देशकः [-], • मूलं [२३७] प्रतिपत्ति: [ ५ ], ----- पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगियावृत्तिः | ॥ ४२३ ॥ यगुणाः, विशेषाधिकत्वस्य सङ्ख्यगुणत्रबाधनायोगात्, तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्माः पर्यामका विशेषाधिकाः, पर्याप्रसूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् ततः सामान्यतः पर्यात्रा पर्याप्तविशेषणरहिताः सूक्ष्मा विशेषाधिकाः, अपर्यामानामपि तत्र प्रक्षेपात् । इह पूर्व निगोदाः स्थित्यादिभिचिन्तितास्ततो निगोदवतव्यतामाह कतिविहा णं भंते! णिओया पण्णत्ता?, गोयमा ! दुविहा णिओया पण्णत्ता, तंजहा- णिओया य णिओदजीवा य ॥ णिओयाणं भंते! कतिविहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! दुविहा, पं० तंजहासुमणिओयाय बायरणिओया य ॥ सुहुमणिओया णं भंते! कतिविहा पण्णत्ता?, गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजा—पजत्तगा य अपजत्तगाय ॥ याघरणिओयावि दुबिहा पण्णत्ता, तंजापज्जन्तगा य अपजन्तगा य ॥ णिओयजीवा णं भंते! कतिविहा पण्णत्ता?, दुबिहा पण्णसा-सुमणिओदजीवाय वायरणिओयजीवा य। सुमणिगोदजीवा दुविहा पं० [सं० - पलत्तगा य अपजतगा । बादरणिगोदजीवा दुविहा पन्नत्ता तं०-पजत्तगा य अपजतगा य ॥ (सू० २३८) 'कतिविहा णमित्यादि, कतिभेदाः भदन्त ! निगोदाः प्रता: १, भगवानाह - गौतम! द्विविधा निगोदा: प्रज्ञास्तयथा- निगोदाश्च निगोदजीवाश्च, उभयेषामपि निगोदशब्दवाच्यतया प्रसिद्धलात् तत्र निगोदा-जीवाश्रयविशेषाः निगोदजीवा-विभिन्नतैजस| कार्मणा जीवा एव ।। अधुना निगोदभेदान् पृच्छति — 'निगोया णं भंते!" इत्यादि प्रभसूत्रं सुगमं भगवानाह - गौतम! द्विविधाः प्रज्ञास्तद्यथा-सूक्ष्मनिगोदान बादरनिगोदाम, तत्र सूक्ष्मनिगोदाः सर्वलोकापन्नाः बादरनिगोदा मूलकन्दादयः ॥ 'सुहमनिगोया For P&Praise Cnly प्रतिपती निगोदाधिकारः उद्देशः २ सु० २३८ ~394~ ॥ ४२३ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते — एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अथ निगोद वक्तव्यता आरब्धः Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: ], --------------------- मूलं [२३८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३८] दीप अनुक्रम [३६३] भणमित्यादि, सूक्ष्मनिगोवा भवन्त ! कतिविधाः प्रज्ञता:?, भगवानाह-गौतम! विविधाः प्रक्षपास्तपथा-पर्याप्ता अपर्याप्पाश, एवं जायादरनिगोद विषयमपि सूत्र वक्तव्यं । तदेवमुक्ता निगोदाः, अधुना निगोदजीवानधिकृत्य भेदाभसूत्रमाह-'निगोयजीवा णं भंते !! इत्यादि सुगर्म, भगवानाह-गौतम! निगोदजीवा द्विविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-सूक्ष्म निगोदजीवा बादरनिगोदजीवाश्च, पशब्दी निगोद-18 *जीवतया तुल्यतासूचकी, एवमन्यत्रापि यथायोग परिभावनीयौ । 'सुहमनिगोयजीवा णं भंते' इत्यादि पर्याप्तापर्याप्रविषय पाठसिद्धम्।। सम्प्रति सामान्यतो निगोदसङ्ख्यां जिज्ञासिपुः पृच्छति निगोदा णं भंते ! दब्वट्ठयाए कि संखेजा असंखेजा अर्णता?, गोयमा! नो संखेजा असंखेजा नो अर्णता, एवं पात्तगावि अपजत्तगावि ॥ सहमनिगोदा णं भंते! दबट्टयाए कि संखेजा असंखेजा अर्णता?, गो०! णो संखेजा असंखेजाणो अर्णता, एवं पजसगावि अपजत्तगावि, एवं बायरावि पजतगावि अपजत्तगावि णो संखेजा असंखेजाणो अणंता॥णिओदजीवा णं भंते! दबट्ठयाए कि संखेजा असंखेजा अर्णता?, गोयमा! नो संखेजा नो असंखेजा अणंता, एवं पजत्तावि अपजत्सावि, एवं सुहमणिओयजीवावि पजत्तगावि अपजत्तगावि, बादरणिओदजीवावि पजत्तगावि अपजत्तगावि ॥ णिओदा णं भंते! पदेसट्टयाए कि संखेज़ा? पुच्छा, गो. यमा! नो संखेजा नो असंखेजा अणंता, एवं पजत्तगावि अपजसगावि । एवं सुहमणिओयावि पजसगावि अपजसगावि य, पएसट्टयाए सब्वे अगंता, एवं वायरनिगोयापि पजत्तयाबि C56 NX- 2 ~395 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: ], --------------------- मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९] श्रीजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः ५ प्रतिपत्ती | निगोदा धिकार: | उद्देशा२ सू०२३९ ॥४२४॥ दीप अप्पजत्तयावि, पएसट्टयाए सब्वे अर्णता, एवं णिओदजीवा नवविहावि पएसट्टयाए सब्वे अणंता ।। एएसिणं भंते ! णिओयाणं सुहमाणं वायराणं पलत्तयाणं अपजत्तगाणं दयट्ठयाए पएसट्टयाए दब्बट्ठपएसट्टयाए कयरेशहितो अप्पा वा बहुया चा०?, गोयमा! सब्वत्थोचा बादरणिओयपजत्तगा दबट्टयाए बादरनिगोदा अपज्जत्तगा दबट्टयाए असंखेजगुणा सुहमणिओदा अपजत्तगा व्यट्टयाए असंखेजगुणा सुहमणिओदा पज्जत्रागा दम्बट्टयाए संखिजगुणा, एवं प. देसट्टयाएपि ॥ ब्वट्ठपदेसट्टयाए सब्वत्थोवा बादरणिओया य पजत्ता दुव्वट्ठपाए जाव सुहमणिओदा पजत्ता य दवट्ठयाए संखेजगुणा, सुहमणिओएहितो पज्जत्तएहितो दवट्टयाए बायरणिगोदा पजत्ता पएसट्टया अणंतगुणा बायरणिओदा अपजसा पएसट्टयाए असंख० जाव मुहमणिओया पज्जत्ता पएसट्टयाए संखेजगुणा । एवं णिओयजीवावि, णवरि संकमए जाव सुहुमणिओयजीवहिंतो पजत्तएहिंतो दबट्टयाए बायरणिओयजीवा पज० पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, सेसं तहेव जाव सुहमणिओयजीवा पजत्ता पएसट्टयाए संखेजगुणा ॥ एतेसिणं भंते! णिगोदाणं सुहमाणं बायराणं पजत्ताणं अपज्जत्ताणं णिओयजीवाणं सुहमाणं बायराणं पज्जत्तगाणं अपजत्तगाणंदब्वट्ठयाए पएसट्टयाए कयरेशहितो?०, सव्वस्थोवा पायरणिओदा पजत्ता दवट्ठयाए पापरणिओदा अपजसा बट्ठयाए असङ्खजगुणा सुहमणिगोदा अप० दबट्ठयाए अनुक्रम [३६४] ॥४२४॥ Indian अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~396 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२३९] दीप अनुक्रम [३६४] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ /२ (मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], • मूलं [ २३९ ] प्रतिपत्ति: [ ५ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः असंखेज़गुणा मुहुमणिओदा पज्ज० दव्बट्टयाए संखेज्जगुणा सुद्दमणिओएहिंतो दव्बट्टयाए बा यरणिओदजीवा पत्ता दव्वट्टयाए अनंतगुणा वायरणिओदजीवा अपज्जत्ता दुव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा सुमणिओदजीवा अपजस्ता दव्वट्टयाए असंखेज़गुणा सुहमणिओयजीवा पत्ता दव्या संखेनगुणा, पएसहयाए सव्वत्थोवा बायरणिओदजीवा पज्जत्ता परसट्टयाए बायरणिओदा अपत्ता पसट्टयाए असंखे० सुहुमणिओयजीवा अपजत्तया परसट्टयाए असंखेज्जगुणा सुमणिगोदजीवा पज्ञता परसट्टयाए संखेजगुणा सुकुमणिओदजीवेहिंतो पएसयाए बाघरणिगोदा पत्ता पदेसट्टयाए अनंतगुणा, वायरणिओया अपजता पएस० असंखेजगुणा जाव सुमणिओया पत्ता परसट्टयाए संखेजगुणा, बहुपए सपाए सन्यस्थोवा वायरणिओया पत्ता व्याए वायरणिओदा अपजत्ता दुबट्टयाए असंखेजगुणा जाव सुहुमणिगोदा पत्ता दट्टयाए संखेज्जगुणा सुहुमणिओदाहिंतो दच्बट्टयाए वायरणिओदजीवा पजता दव्बट्टयाए अनंतगुणा सेसा तहेब जाव सुमणिओदजीवा पजत्तगा दव्बट्टयाए संखेजगुणा सहमणिओयजीवेहिंतो पजत्तएहिंतो दुव्वट्टयाए पायरणिओयजीया पत्ता पदेसट्टयाए असंखेजगुणा सेसा तहेव जाब सुहमणिओया पज्जत्ता परसट्टयाए संखेज्जगुणा || सेन्तं छव्विहा संसारसभावण्णगा ॥ ( सू० २३९ ) For P&Praise Cnly ~397~ %% %%% % % 964) Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: ], --------------------- मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९] दीप अनुक्रम [३६४] श्रीजीवा- 'निगोदा णमित्यादि, 'निगोदा' जीवाश्रयविशेषा भदन्त ! 'द्रव्यार्थतया' द्रव्यरूपतया किं सहयेया असल्येया अनन्ताः | ५प्रतिपत्ती जीवाभि018 भगवानाह-गौतम ! नो सहयेयाः, अङ्गुलासपेयभागावगाहनानां तेषां सर्वलोकापन्नत्वात् , किन्लसोयाः, असञयलोकाकाशप्रदे-1| निगोदामलयगि दशप्रमाणत्वात् , नाप्यनन्तास्तथा केवलवेदसाऽनुपलम्भात् । एवमपर्याप्तसामान्यनिगोदसूत्रं पर्याप्तसामान्यनिगोदसूत्रं च भावनीयम् । | धिकारः रीयावृत्तिः यथा च सामान्यनिगोदविषयं सूत्रत्रयमुक्तम् एवं सूक्ष्म निगोद विषयमपि सूत्रत्रयं बादरनिगोदविषयमपि सूत्रत्रयं पृथग् वक्तव्यं, भावना उद्देशान ॥४२५॥तपासात सय १५ च पूर्वानुसारेण स्वयं विधेया । सम्प्रति द्रव्यार्थतया (निगोदजीव) सयां पिच्छिपुराह-'निगोयजीवा णं भंते! दबट्ठयाए० २३९ | इत्यादि प्रश्नसून सुगर्म, भगवानाह-गौतम! नो सोया नाप्यसायाः किम्वनन्ता: प्रतिनिगोदमनन्तानां निगोषद्रव्यजीवानां भावात्।। एवमपर्याप्तसूत्र पर्याप्तसूत्रं च वक्तव्यं, तदेवं सामान्यतो निगोदण्यत्रिपयं सूत्रत्रिकमुक्तम् , एवं सूक्ष्मनिगोदजीवविषयं सूत्रत्रिक वादरनिगोदजीवविषयं च सूत्रत्रिकं च वक्तव्यं सर्वसङ्ख्यया नब सूत्राणि । एवमेव प्रदेशार्थताविषयाण्यपि नव सूत्राणि नानालाभावात् , भाबना च सर्वत्रापि सुप्रतीता, ये किल द्रव्यार्थतयाऽनन्तास्ते प्रदेशार्थतया सुतरामनन्ता: प्रतिद्रव्यमसयातानां प्रदेशानां भावात् , सर्वसषया चामून्यष्टादश सूत्राणि] ॥ तदेवं द्रव्यार्थविषयाणि नव सूत्राण्युक्तानि सम्प्रति प्रदेशार्थताविषयाणि नव सूत्राणि विवक्षुः प्रथमत: सामान्यतो निगोदविषयं सूत्रत्रयमाह-निगोया णं भंते! पएसट्टयाए' इत्यादि, 'निगोदा:' उक्तस्वरूपा णमिति वाक्यालकारे भदन्त ! 'प्रदेशार्थतया' प्रदेशरूपतया चिन्यमानाः किं सख्या असोया अनन्ता:?, भगवानाह-गौतम! नो सहयेया नो असझयेयाः किन्त्वनन्ताः, एकैकस्मिन् निगोदे प्रदेशानामनन्तत्वात् , एवं शेषाण्यष्टौ सूत्राणि पूर्वक्रमेण भावनीयानि ॥ सम्प्रत्ये- ॥४२५॥ तेषामेव सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्त निगोदानां द्रव्यार्थप्रदेशाभिवार्थतया परस्परमल्पवहुत्वमाह-एएसि णं भंते ! णिगोदाणमि JaEl. com अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~398~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], ---------------------उद्देशक:-1.--------------------- मलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: * **- प्रत सूत्रांक -*--* *- [२३९] -** सत्यादि प्रभसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोका बादरनिगोदा मूलकन्दादिगताः पर्याप्तका द्रव्या/तया, प्रतिनियतक्षेत्रवर्तिलात् , है तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्तका द्रव्यार्थतयाऽसोयगुणाः, एकैकपर्याप्तवादरनिगोनियाऽसोयानामपर्याप्तानां वादरनिगोदानाभुत्पादात, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्तका द्रव्यार्थतयाऽसवेयगुणाः, सकललोकापन्नतया क्षेत्रस्यासोयगुणवान् , तेभ्यः सूक्ष्मनि गोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया सवेयगुणाः, सूक्ष्मेवोपतोऽपर्याप्तेभ्यः पर्यापानां सखये यगुणत्वात् , 'पएसटुवाए' इति अत ऊई प्रदेल शार्थतया चिन्ता क्रियते, तामेव करोति-सर्वस्तोका बादरनिगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया द्रव्याणां लोकत्वात् , तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसोयगुणा द्रव्याणामसपेयगुणत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसयेयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया सभेयगुणा: द्रव्याणां सोयगुणत्वात् । 'दवट्ठपएसट्टयाए'त्ति अधुना द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया | चिन्ता क्रियते-सर्वस्तोका बादरनिगोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया, बादरनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतया असलवेयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतया असहयगुणाः, तेभ्य: सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया सोयगुणाः, युक्ति: प्राक्तन्येव, तेभ्यो बादरनिगोदा: पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणा:, एकैकस्य निगोदस्य अनन्ताणुकानन्तस्कन्धनिष्पन्नवान् , तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया सहवेयगुणाः, द्रव्याणामसहये यगुणत्वात् , तेभ्योः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असङ्ख्य यगुणाः, युक्तिः प्राक्तन्येव, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ता: सोयगुणाः, द्रव्याणां सहयगुणवात् , साम्प्रतमेतेषामेव सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्याप्त निगोदजीवानां द्रव्या प्रदेशाभियाधतया परस्परमल्पबहुत्य माह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका बादरजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया, निगोदाना खोकलात्, है तेभ्यो यादरनिगोदजीवा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसय गुणा, निगोदानामसङ्खयेयगुणत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा: अपर्याप्तका दीप अनुक्रम [३६४] - ~399 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: ], --------------------- मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९] दीप श्रीजीवा- द्रव्यार्थतयाऽसययगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया सोयगुणाः, कारणं पूर्ववद् ऊर्जा, प्रदेशार्थतया सर्वस्तोका५प्रतिपत्ती जीवाभिवादरनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया, द्रव्याणां स्तोकत्वात् , तेभ्यो यादरनिगोदजीवा अपर्याप्पा: प्रदेशार्थतयाऽसपेयगुणाः, द्रव्या- निगोदामलयगि-हाणामसपेयगुणत्वात् , एवं तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसाध्ये यगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा: पर्याप्ताः प्रदे-13धिकारः रीयावृत्तिःशार्थतया सोयगुणाः, द्रव्यार्थप्रदेशार्थतथा सर्वस्तोका बादरनिगोदजीवा: पर्याप्ता द्रव्यार्थतया, तेभ्यो बादरनिगोदजीया अपर्याप्ता उद्देशः२ द्रव्यार्थतयाऽसोयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसवयेयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा: पर्याप्ता द्रव्यार्थ-1 सू०२३९ ॥४२६॥ तया सहयेयगुणाः, तेभ्यो बादरनिगोदजीवा: पर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसोगुणाः, प्रतिबादरनिगोदपर्याप्त जीवमसषयानां लोकाकाशन- 11 देशप्रमाणानां प्रदेशानां भावात् , तेभ्यः वादरनिगोदजीया अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसय गुणाः पादरनिगोदापनिभ्यो बादरनिगो-16. पदपर्याप्तानामसङ्ख्यातगुणत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्यातकाः प्रदेशार्थवयाऽसवये पगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ताः । ४प्रदेशार्थतयाऽसवयेयगुणाः, भावना प्रागिव ।। सम्प्रति सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्यावनिगोदनिगोदजीवानां द्रव्यार्थप्रदेशार्थोभयातया परस्परमबाल्पबहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि प्रभसूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! सर्बस्तोका पादरनिगोदाः पर्यामा द्रव्यार्थतया, तेभ्यो बादहारनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यातयाऽसयगुणाः तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसङ्ख्येवगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा: पर्याप्ता द्रव्यार्थवया सरेयगुणाः, अत्र सर्वत्रापि युक्तिः प्रागुक्तव, सूक्ष्मनिगोदेभ्यः पर्याप्तेभ्यो द्रव्यार्थतया बादरनिगोदजीवाः पर्याप्त अन-| हन्तगुणाः, एकैकस्मिन् निगोदेऽनन्तानां जीवानां भावात् , तेभ्यो बादरनिगोदजीवा: अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसहयगुणा: निगोदानाम-16 सङ्ख्यातत्वात् , एवं तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीया अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसपेयगुणा: तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा: पर्याप्ता द्रव्यार्थतया स अनुक्रम [३६४] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~400 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], ---------------------उद्देशक:-1.--------------------- मलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 4%-ex [२३९] वेयगुणाः, प्रदेशार्थतथा सर्वस्तोका बादरनिगोदजीवाः पर्याप्तका: प्रदेशार्थतया निगोदानां स्तोकलात् , तेभ्यो बादरनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशातयाऽसालयेयगुणाः निगोदानामसोयगुणत्वात् , एवं तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसहयगुणाः, Mतेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया सोयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवेभ्यः पर्याप्तेभ्यो पादरनिगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशा-18 ४ तयाऽनन्तगुणाः, एकैकस्य निगोदस्थानन्ताणुकानन्तस्कन्धनिष्पन्नत्वात् , तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसाव्येयगुणाः एकैकवादरपर्याप्त निगोदनिश्रया समयाऽतीताना बादरपर्याप्त निगोदानामुत्पादात् , तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसपा-1 तगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया सोयगुणाः, द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया सर्वतोका बादरनिगोदाः पर्याप्त द्रग्यार्थतया, ५ तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसपेयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽसोयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनि-13 & गोदाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतथा सहयगुणाः, अन्न युक्तिर्निगोदानां द्रव्यार्थतया चिन्तायामिव, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदेभ्यः पर्याप्तभ्यो पादर-11 निगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणाः प्रतिवादरनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् , तेभ्यो बादरनिगोदजीवा अपर्याप्ता द्रव्या तयाऽसवयेवगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्ता द्रव्यार्थत वाऽसहयेयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया सहयगुणाः, मन्त्र युक्तिर्निगोदजीवानां द्रव्यार्थतया चिन्तायामिव, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवेभ्यः पर्याप्तेभ्यो द्रव्यार्थतया चिन्तितेभ्यो। वादरनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽसहयगुणाः प्रतिबादरनिगोदपर्याप्तजीवमसह्यपेयाना लोकाकाशप्रदेशप्रमाणाना प्रदेशानां । भावात् , वेभ्यो बादरनिगोदजीवा अपर्याप्ता: प्रदेशार्थतयाऽसपेयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया सहोयगुणाः, युक्तिरत्र निगोदजीवानां प्रदेशार्थवया सोयगुणचिन्तावामिव, तेभ्यः सूक्ष्म निगोदजीवेभ्यः पर्याप्तेभ्यः प्रदेशार्थतया चिन्वि दीप अनुक्रम [३६४] % A2% जी०७२ ~401 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [५], --------------------- उद्देशक: ], --------------------- मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवा- तेभ्यो बादरनिगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणाः, एकैकस्मिन् निगोदेऽनन्तानामणूनों सद्भावात् , तेभ्यो बादरनिगोदा अपर्याप्ताः जीवाभिप्रदेशार्थतयाऽसङ्ख्येय गुणाः, सेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ता: प्रदेशार्थतयाऽसोयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थ- मलयगि- तया सोयगुणाः, अत्र युक्तिर्निगोदानां प्रदेशाधतया चिन्तायामित्र, उपसंहारमाह-'सेत्त'मित्यादि, एते षड्विधसंसारसमापनका रीयावृत्तिःजीवाः ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाभिगमटीकायां पञ्चम्यां प्रतिपत्ती पड्विधप्रतिपत्तिः ।। प्रतिपत्ती नैरयिक|स्थित्यादि उद्देशः २ सू०२४० सूत्रांक CCree [२३९] ॥४२७IN दीप अनुक्रम [३६४] अथ षष्ठी प्रतिपत्तिः तदेवमुक्ता षड्विधप्रतिपत्तिः, अधुना क्रमप्राप्तां सप्तविधप्रतिपत्तिमाह तत्थ जे ते एवमाहंसु सत्तविहा संसारसमावण्णगा ते एवमाहंसु, तंजहा-नेरइया तिरिक्खा तिरिक्खजोणिणीओ मणुस्सा मणुस्सीओ देवा देवीओ॥णेरतियस्स ठिती जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई, तिरिक्खजोणियस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिनि पलिओवमाई, एवं तिरिक्खजोणिणीएवि, मणुस्साणवि मणुस्सीणवि, देवाणं ठिती जहा णेरइयाणं, देवीणं जहपणेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं पणपण्णपलिओवमाणि । नेरइयदेवदेवीणं जचेव ठिती सच्चेव संचिट्ठणा । तिरिक्खजोणिणीणं जहन्नेणं अंतोमु० उक्को तिनि पलिओवमाई पुब्बकोडिपुहुत्तमन्भहियाई। एवं मणुस्सस्स मणुस्सीएवि ॥णेरइयस्स अंतरं जह० अंतो G ॥४२७॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रित अत्र पञ्चमी "षड्विधा प्रतिपत्ति: परिसमाप्ता: अथ षष्ठी "सप्तविधा" प्रतिपत्ति: आरब्धा: ... संसारिजीवानाम् सप्तविधत्वेन प्ररुपणं-नैरयिक, मनुष्य, मनुष्यस्त्री, तिर्यञ्च, तिर्यञ्चस्त्री, देव, देवी अधिकार: आरभ्यते ~402 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [६], --------------------- उद्देशक: ---------------------- मूलं [२४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४०] मु० उकोसेणं वणस्सतिकालो । एवं सव्वाणं तिरिक्खजोणियवजाणं, तिरिक्खजोणियाणं जहण्णेणं अंतोमु० उक्को. सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं ॥ अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवाओ मणुस्सीओ मणुस्सा असंखेजगुणा नेरच्या असंखेज गुणा तिरिक्खजोणिणीओ असंखेजगुणाओ देवा असंखेजगुणा देवीओ संखेजगुणाओ तिरिक्खजोणिया अर्णतगुणा। सेत्सं सत्तविहा संसारसमाव पणगा जीवा ॥ (सू०२४०) VM 'तत्थे त्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तः सप्तविधाः संसारसमापन्ना जीवा: प्रज्ञप्ता एवमुक्तवन्तस्तद्यथा--नैरयिकास्तिर्यग्योनिकास्ति यंग्योनिक्यः मनुष्या मानुष्यः देवा देव्यः । तत्रामीपां सप्तानामपि क्रमेण स्थितिमाह-'नेरझ्यस्त णं भंते' इत्यादि सप्तसूत्री, दानैरविकरूप जघन्येन दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । तिर्यग्योनिकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुसमुस्कर्षतस्त्रीणि पल्योप-16 मानि । एवं तिर्यग्योनिकीमनुष्यमानुषीसूत्राण्यपि वक्तव्यानि । देवसूत्रं नैरयिकवन् । देवीसूत्रे जघन्येन दश वर्षसहस्राणि, उत्कर्षतः पञ्चपञ्चाशत् पल्योपमानि, ईशानदेवीनामपरिगृहीतानामुत्कर्षत एतावस्थितिकत्वात् ।। सम्प्रति कायस्थितिमाह-'नेरइया णं भंते' है| इत्यादि, नैरयिकाणां यदेव भवस्थितिपरिमाणं तदेव कायस्थितिपरिमाणमपि, नैरबिकस्य मृत्वा भूयोऽनन्तरं नैरयिकेपूतादाभावात् । तिर्यग्योनिकसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तदनन्तरमन्यत्रोत्पादात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालमनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालत: क्षेत्रसोड सयेया लोका: असाहयेयाः पुद्गलपरावर्ताः, ते पुद्रलपरावर्ता आवलिकाया असहयो भागः, अस्य भावार्थव्याख्या प्रागिव । तिर्यहै योनिकीसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त तत उर्दू मृत्वाऽन्यत्रोत्पादात्, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथकलाभ्यधिकानि, तानि :SASAKACCACACCCX दीप अनुक्रम [३६५] ~4030 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [६], --------------------- उद्देशक: ], --------------------- मूलं [२४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४०] दीप अनुक्रम [३६५] श्रीजीवा निरन्तरं सप्तसु पूर्वकोट्यायुष्केषु भवेष्वष्टमे च भवे देवकुर्वादिपूत्पन्नाया द्रष्टव्यानि । एवमेव मनुष्यसूत्रं मानुषीसूत्रं च, देवस्य दे- 1 प्रतिपत्ती व्याश्च यैव भयस्थितिः सैय कायस्थितिः, देवस्य देव्याश्च सूत्वाऽनन्तरं तद्भावनोत्पादाभावात् ।। साम्प्रतमेपामन्तर चिचिन्तयिषुराह-18/ नैरयिकमलयगि 'नेरड्यस्स णं भंते !' इत्यादि, नैरथिकस्य जघन्येनान्तरमन्तर्मुहूर्त, तच्च नरकादुतस्य तिर्यग्मनुष्यगर्भ एवाशुभाध्यवसायेन मर-1 स्थित्यादि रीयावृत्तिः । णतः परिभावनीय, सामुबम्धकर्मफलमेतदिति तात्पर्यार्थः, उत्कर्पतोऽनन्तं कालं, स चानन्तः कालो बनस्पतिकालः, नरकादत्तस्य उद्देशः२ पारम्पयेणानन्त कालं वनस्पतिव्ववस्थानात, तियंग्योनिकस्य जघन्येनान्तरमन्तमुहूर्त, तश तिर्यग्योनिकभवादात्यान्यनान्तर्गत||सू० २४० ६ स्थित्वा भूयस्तिर्यग्योनिवेनोत्पद्यमानस्य वेदितव्यम् , उत्कर्षत: सागरोपमशतपृथक्वं सातिरेकम् । तियेग्योनिकीसूत्रे मनुष्यसूत्रे मा-1 नुषीसूत्रे देवीसूत्रे च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः ।। सम्प्रत्येतेषामेव सप्तानां पदानामल्पबहुत्रमाह-एएसि ण नि-2 त्यादि प्रभसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-सर्वस्तोका मानुष्यः, कतिपयकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , ताभ्यो मनुष्या असङ्ख्येयगुणाः, संमूछिम-18 मनुष्याणां श्रेण्यसाझपेयप्रदेशराशिप्रमाणलात् , तेभ्यस्तिर्यग्योनिकाः त्रियोऽसोयगुणाः, प्रतरासयेयभागवतिभेण्याकाशप्रदेशराशि प्रमाणत्वात् , ताभ्यो देवाः सोयगुणाः, धानमन्तरज्योतिष्काणामपि जलचरतिर्यग्योनिकीभ्यः सञ्चवेयगुणतया महादण्ड के पठित-IN हालात , तेभ्यो देव्यः सहयगुणा द्वात्रिंशद्गुणत्वात् , "बत्तीसगुणा बत्तीसरूवअहियाओ होति देवाणं देवीओ" इति वचनात् , ताभ्य-18 तस्तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, वनस्पतिजीवानामनन्तानन्तत्त्वात् , उपसंहारमाह-'सेत्त'मित्यादि सुगमम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचि#तायां जीवाभिगमटीकायां षष्ठया प्रतिपत्तौ सप्तविधप्रतिपत्तिः ।। का॥४२८॥ Recen CREC%ESTSLOCACY Subsc अत्र षष्ठी "सप्तविधा" परिसमाप्ता: ~404 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [७], --------------------- उद्देशक: 1, --------------------- मूलं [२४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] *ADKACANCARDCRPCSCRICKLY दीप अनुक्रम [३६६] अथ सप्तमी प्रतिपत्तिः तदेवमुक्ता सप्तविधप्रतिपत्तिरधुना क्रमप्राप्तामष्टविधप्रतिपत्तिमाहतत्थ जे ते एवमाहंसु-अट्ठविहा संसारसमावण्णगा जीवा ते एवमाहंसु-पढमसमयनेरतिया अपढमसमयनेरइया पढमसमयतिरिक्खजोणिया अपढमसमयतिरिक्खजोणिया पढमसमयमगुस्सा अपढमसमयमणुस्सा पढमसमयदेवा अपढमसमयदेवा ॥ पढमसमयनेरइयस्स णं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता?, गोयमा! पढमसमयनेरइयस्स जह० एक समयं उको० एकं समयं । अपढमसमयनेरइयरस जहा दसवाससहस्साई समऊणाई उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई समऊणाई । पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जह० एकं समयं उको एक समयं, अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जह खुड्डागं भवग्गणं समऊर्ण उको० तिन्नि पलिओचमाई समऊणाई, एवं मणुस्साणवि जहा तिरिक्खजोणियाणं, देवाणं जहा रतियाणं ठिती ।। णेरडयदेवाणं जचेव ठिती सचेव संचिट्ठणा दुबिहाणवि । पढमसमयतिरिक्खजोणिए णं भंते! पढकालओ केवचिरं होति?, गोयमा! जहा एक समयं उक्को एक समयं, अपढमतिरिक्खजोणियस्स जह खुट्टागं भवग्गहणं समऊणं उकस्सेणं घणस्सतिकालो। पढमसमयमणुस्साणं जह० उ० एफ समयं, % 2- अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अथ सप्तमी "अष्टविधा" प्रतिपत्ति: आरब्धा: ~405 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [७], --------------------- उद्देशक: -,--------------------- मूलं [२४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] श्रीजीवा-18 जीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ४७ प्रतिपत्ती प्रथमसमजयनैरयि कादिस्थित्यादि उद्देशः२ सू०२४१ ॥४२९॥ दीप अपढममणुस्स.जह खुदागं भवग्गहणं समऊणं उक्क तिन्नि पलिओवमाई पुव्यकोडिपुहसमभहियाई ॥ अंतरं पढमसमयणेरतियस्स जह• दसवाससहस्साई अंतोमुहत्तमन्भहियाई उको० वणस्सतिकालो, अपढमसमय जह० अंतोमु० उक० वणस्सतिकालो । पत्मसमयतिरिक्खजोणिए जहदो खुडागभवग्गहणाई समऊणाई उको वणस्सतिकालो, अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जह० खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं उको सागरोवमसतपुहत्तं सातिरेगे । पढमसमयमणुस्सस्स जह० दो खुड्डाई भवग्गहणाई समऊणाई उको० वणस्सतिकालो, अपढमसमयमणुस्सस्स जह० खुट्टागं भवग्गहणं समयाहियं उको० वणस्सतिकालो। देवाणं जहा नेरइयाणं जह० दसवाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई उको० वणस्सइकालो, अपढमसमय जह अंतो० उदो० वणस्सइकालो ।। अप्पाबहु० एतेसि णं भंते ! पढमसमयनेरइयाणं जाव पढमसमयदेवाण य कतरे २हिंतो०?, गोयमा! सव्यस्थोवा पहमसमयमणुस्सा पढमसमयणेरड्या असंखेजगुणा पत्मसमयदेवा असंखेजगुणा पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेजगुणा ॥ अपढमसमयनेरइयाणं जाय अपहमदेवाणं एवं चेव अप्पबह णबरि अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अर्णतगुणा । एतेसिं पढमसमयनेरइयाणं अपढमणेरतियाणं कयरे २१, सब्बत्थोवा पढमसमयणेरतिया अपढमसमयनेरइया असंखेजगुणा, एवं सब्वे ।। पढमसमयणेरइयाण जाव अपढमसमय C अनुक्रम [३६६] ॥४२९॥ ~406 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२४१] दीप अनुक्रम [३६६] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ /२ (मूलं + वृत्तिः ) उद्देशक: [-], - मूलं [२४१] प्रतिपत्ति: [७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja Eco in देवा य कयरे २१, सव्वत्थोवा पढमसमयमणुस्सा अपढमसमयमणुस्सा असंखेजगुणा पदमसमयणेरइया असंखिज्जगुणा पढमसमयदेवा असंखेनगुणा पदमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेजगुणा अपडमसमयनेरइया असंखेजगुणा अपदमसमयदेवा असंखेज्जगुणा अपदमसमयतिरिक्जोणिया अनंतगुणा । सेतं अट्टविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ॥ ( सू० २४१ ) अविहपडिवत्ती समन्ता ॥ 'तत्थे'त्यादि तत्र ये ते एवमुक्तवन्तः - अष्टविधाः संसारसमापन्ना जीवाः प्रज्ञप्तास्ते एवमुक्तवन्तस्तद्यथा - प्रथम समयनैरविका अ प्रथमसमयनैरयिकाः, प्रथमसमयतिर्यग्योनिका अप्रथमसमयतिर्यग्योनिकाः प्रथमसमयमनुष्या अप्रथमसमयमनुष्याः प्रथमसमयदेवा अप्रथमसमयदेवाः, तत्र प्रथमसमयनारका नारकायुः प्रथमसमयसंवेदिनः अप्रथमसमयनारका नारकादिसमयवर्त्तिनः एवं तिर्यग्योनिकादयो भावनीयाः ॥ साम्प्रतमेतेषामष्टानां क्रमेण स्थितिमाह 'पढमसमयनेरइयस्स ण' मित्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह-गौतम ! एकं समयं द्वयादिषु समयेषु प्रथमसमयत्व विशेषणायोगात् अप्रथम समयसूत्रं सुगमं, भगवानाह गौतम ! जघन्थेन दशवर्षसहस्राणि समयोनानि, समयातिक्रान्तावेवाप्रथम समय विशेषणत्वभावात् उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि समयोनानि । तिर्थग्योनिकादीनां प्रथमसमयानां सर्वेषामेकं समयं अप्रथमसमय तिर्यग्योनिकानां जघन्येन क्षुद्धकभवग्रहणं समयोनं, उत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि समयोनानि । एवं अप्रथमसमय मनुष्याणामपि । अप्रथमसमयदेवानां जघन्येन दश वर्षसहस्राणि समयोनानि, उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि समयोनानि || अधुनैषामेव कायस्थितिमाह – 'पढमसमयनेरइया णं भंते! पढमसमयनेरइयत्ति For P&Praise City अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते— एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~407~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [७], --------------------- उद्देशक: -,--------------------- मूलं [२४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] दीप अनुक्रम [३६६] भाजावा- कालतो केवचिर होइ ?' इति प्रभसूर्व मुगम, भगवानाह-गौतम! एक समयं, तदनन्तरं प्रथमसमयलविशेषणायोगान् । अप्रथ-18 प्रतिपत्ती जीवाभि० मसमयसूत्रे यदेव स्थितिपरिमाणं तदेव कायस्थितिपरिमाणमपि, देवनैरथिकाणां भूयो भूयस्तझावभावितया नैरन्तर्येणोत्पादायोगात् । प्रथमसममलयगि * प्रथमसमयतिर्यग्योनिकसूत्र प्रथमसमयनैरयिक सूत्रवत् , अप्रथमतिर्यग्योनिकसूत्रे जघन्येन क्षुल्लकभवग्रहणं समयोनं, समयोनता | यनैरयिरीयावृत्तिः प्रथमसमयहीनत्वात् , उत्कर्षतोऽनन्तकालं, स चानन्त: कालो बनस्पतिकाल: प्रागुक्तस्वरूपः । प्रथमसमयमनुष्यसूत्र पूर्ववन् , अन्न-18/ कादिस्थि॥४३०॥ दायमसमयमनुष्यसूत्रे जघन्यतः क्षुल्लकभवग्रहणं समयोनं, तदनन्तरं मृत्वाऽन्यत्रोत्पादार , उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्वा-तात्यादि भ्यधिकानि समयोनानि, तानि समसु भवेषु पूर्वकोट्यायुकवष्टमे भवे देवकुर्वादिपूत्पद्यमानस्य वेदितव्यानि, देवा यथा नैरयिकाः उद्देशा२ साम्प्रतमेतेषामेवाष्टानामन्तरं क्रमेण चिन्तयन्नाह-पढमसमयनेरइयस्स भंते!' इत्यादि, प्रथमसमयनैरयिकस्य भदन्त ! अन्तरं 8 सू०२४१ दकालत: कियश्चिरं भवति ?, भगवानाह-गौतम! जपन्यतो पशवर्षसहस्राणि अन्तर्मुहत्तीभ्यधिकानि, तानि दशवर्षसहस्रस्थितिकस्य | नैरयिकस्य नरकादुत्त्यान्यत्रान्तर्मुहूर्त खित्वा भूयो नैरपिकलेनोत्पद्यमानस्य वेदितव्यानि, उत्कर्पतोऽनन्तं कालं, स चानन्त: कालो वनस्पतिकालः प्रतिपत्तव्यः, नरकादुद्धृत्य पारम्पर्वेण बनस्पतिषु गलाउनन्तमपि कालमवस्थानान् , अप्रथमसमयनैरयिकसूत्रे जघन्य-15 मन्तरं समयाधिकमन्तर्मुहूर्त, तश्च नरकास तिर्यगगमें मनुष्यगर्भ वाऽन्तर्मुहू स्थित्वा भूयो नरकेपूत्पद्यमानस्य भावनीयं, समयाधिकता च प्रथमसमयस्याधिकत्वात् , कचिदन्तर्मुहूर्तमित्येव दृश्यते, तत्र प्रथमसमयोऽन्तर्मुहूर्त एवान्तर्भावित इति पृथमोक्तः, | उत्कर्षतो वनस्पतिकालः । प्रथमसमयतिर्यग्योनिकसूत्रे जघन्येनान्तरं दे क्षुल्लकभवग्रहणे समयोने, ते च क्षुल्लक मनुष्यभवग्रहणव्यवधानतः ॥४३०॥ पुनस्तियक्ष्वेवोत्पद्यमानस्यावसातव्ये, तथाहि-एक प्रथमसमयोनं तिर्यक्षुलकभवग्रहणं द्वितीयं संपूर्णमेव मनुण्यक्षुलकभवग्रहणमिति, kGROCC ~408 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२४१] दीप अनुक्रम [३६६ ] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ /२ ( मूलं + वृत्ति:) उद्देशक: [-], - मूलं [२४१] प्रतिपत्ति: [७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, तदतिक्रमे मनुष्यभवव्यवधानेन भूयः प्रथमसमयतिर्यक्त्वोपपत्तेः, अप्रथमसमयतिर्यग्योनिकसूत्रे जघन्येनान्तरं शुद्धकभवग्रहणं समयाधिकं तत्तु तिर्यग्योनिकशुद्ध कमवग्रह्णचरम समयस्याधिकृताप्रधमसमयत्वात्तत्र मृतस्य मनुष्यक्षुल्लकभवनहर्णेन व्यवधाने सति तिर्यक्वेनोत्पद्यमानस्य प्रथमसमयातिक्रमे वेदितव्यं अप्रथमसमयान्तरस्यैतावन्मात्रत्वात् उत्कर्षतः सागरो पमशतपृथक्त्वं सातिरेकं देवादिभवानामेतावन्मात्रकालत्वात् । मनुष्यवक्तव्यता तिर्यग्वक्तयतेव, नवरं वत्र तिर्यक्कभवन व्यवधानं भावनीयम् । देवसूत्रद्वयं नैरयिकसूत्रद्वयवत् ॥ सम्प्रत्येषामेव चतुर्णी प्रथमसमयानां परस्परमपबहुलमाह-'एएसि ण'मित्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम! सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः श्रेण्यसलेय भागमात्रत्वात्, तेभ्यः प्रथमसमयनैरविका असमुपेयगुणाः, अतिप्रभूतानामेकस्मिन् समये उत्पादसम्भवात् तेभ्यः प्रथमसमयदेवा असङ्ख्येयगुणाः, व्यन्तरज्योतिष्काणा| मतिप्रभूततराणामेकस्मिन् समये उत्पादसम्भवान् तेभ्यः प्रथमसमयतिर्यञ्चोऽसयगुणाः इह ये नारकादिगतित्रयादागत्य तिर्यप्रथमसमये ये वर्त्तन्ते ते प्रथमसमयतिर्यवो न शेषाः, ततो यद्यपि प्रतिनिगोदमसोयो भागः सदा विप्रगतिप्रथमसमयवत लभ्यते तथाऽपि निगोदानामपि तिर्यक्त्वान्न ते प्रथमसमयतिर्यभ्यः ते एभ्यः सङ्ख्यगुणा एव । साम्प्रतमेतेषामेव चतुर्णामप्रथम समानां परस्परमल्पबहुत्रमाह-'एएसि ण' मित्यादि प्रनसूत्रं सुगर्भ, भगवानाह - गौतम! सर्वस्तोका अप्रथमसमयमनुष्याः श्रेण्यसहय भागत्यात्, तेभ्योऽप्रथमसमयनैरविका असल्यगुणाः अङ्गुलमात्रक्षेत्र प्रदेशराशेः प्रथमवर्गमूले द्वितीय वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदे शराशिताषमाणासु श्रेणिषु यावन्ध आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणाम्, तेभ्योऽप्रथम समयदेवा असल्यगुणाः, व्यन्तरज्योतिष्काणामपि प्रभूतवान् तेभ्योऽप्रथमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, वनस्पतीनामनन्तत्वात् ॥ साम्प्रतमेतेषामेव भैरविकादीनां प्रत्येकं प्रथमसमयाप्रथमसमयगतमल्पबहुलमाह - 'एएसि णं भंते!' इत्यादि प्रनसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम! सर्वस्तोकाः For P&Praise Cinly अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते — एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~ 409~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [७], --------------------- उद्देशक: -,--------------------- मूलं [२४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] श्रीजीवा- प्रथमसमयनैरयिकाः, एकस्मिन् समये समातीताना [प्रन्थानम् १३०००] मपि स्तोकानामेवोत्पादान, तेभ्योऽप्रथमसमयनैर- प्रतिपत्तौ जीवाभियिका असङ्खयेय गुणाः, चिरकालावस्थायिनां तेषामन्याऽन्योत्पादेनातिप्रभूतभावान् । एवं तिर्यम्योनिकमनुष्यदेवसूत्राण्यपि वक्तव्यानि, हा पृषीकामलयगि- नवरं तिर्यग्योनिकसूत्रेऽप्रथमसगयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणा वक्तव्याः, वनस्पतिजीवानामनन्तस्यात् ।। साम्प्रतमेपामेव नैरयिकादीनां यादिस्थिरीयावृत्तिः। प्रथमाप्रथमसमयानां समुदायेन परस्परमल्पबहुलमाह-'एएसिण मित्यादि प्रभसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम! सर्वस्लोकाः प्रथमसम- त्यादि यमनुष्याः, एकस्मिन् समये सहयातीतानामपि स्तोकानामेवोत्पादान् । तेभ्योऽप्रथमसमयमनुष्या असहयगुणाः, चिरकालावस्थायित-151 उद्देशः२ ॥४३१॥ याऽतिप्राभूत्येन लभ्यमानत्वात् , तेभ्यः प्रथमसमयनैरविका असहयगुणाः, अतिप्रभूततराणामेकस्मिन सगये उत्पादसम्भवात् , तेभ्यःहास.२४२ प्रथमसमयदेवा असख्येयगुणाः, व्यन्तरज्योतिष्काणामेकस्मिन्नपि समये प्राचुर्येण कदाचिदुत्पादान् , तेभ्वः प्रथमसमयतिर्थग्योनिका असयेयगुणाः, नारकवर्जगतित्रयादप्युत्पादसम्भवान् , तेभ्योऽप्रथमसमयनैरयिका असपेयगुणाः, अङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशराशेः प्रथमवर्गमूले | द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणत्वान् , तेभ्योऽप्रथमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, वनस्पतिजीवानामनन्त| स्वाग, उपसंहारमाह-'सेत्त'मिलादि ।। इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाभिगमटीकायर्या सप्तम्या प्रतिपत्ती अष्टविधप्रतिपत्तिः ।। दीप अनुक्रम [३६६] 4-666 -%% अथाष्टमी प्रतिपत्तिः तदेवमुक्ताऽष्टविधप्रतिपत्रिधुना क्रमप्राप्तां नवविधप्रतिपत्तिमाह तत्थ णं जे ते एवमाहंमु णवविधा संसारसमावण्णगा ते एवमाहंसु-पुढविक्काइया आउक्काइया ॥४३१॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रित अत्र सप्तमी "अष्टविधा" प्रतिपत्ति: परिसमाप्ता: अथ अष्टमी "नवविधा" प्रतिपत्ति: आरब्धा: ... संसारिजीवानाम् षड्विधत्वेन प्ररुपणं-पृथ्वि, अप, तेउ, वायु, वनस्पतिपर्यन्त एवं द्वि-इन्द्रियादि चत्वार: जीवाधिकार: आरभ्यते ~410~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [८], --------------------- उद्देशक: -,--------------------- मूलं [२४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४२] दीप अनुक्रम तेउकाइया वाउक्काइया वणस्सइकाइया घेइंदिया तेइंदिया चाउरिंदिया पंचेंदिया ॥ ठिती सम्बेसि भाणियब्वा ॥ पुढविकाइयाणं संचिट्ठणा पुढविकालो जाव चाउकाइयाण, वस्सईणं वणस्सतिकालो, बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया संखेनं कालं, पंचेंदियाणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं ॥ अंतरं सम्वेसिं अणतं कालं, वणस्सतिकाइयाणं असंखेज कालं ॥ अप्पाबहुगं, सब्बत्थोवा पंचिद्रिया चरिंदिया विसेसाहिया तेइंदिया विसेसाहिया बेइंदिया विसेसाहिया तेउकाइया असंखे० पुढविका० आउ० बाउ० विसेसाहिया वणस्सतिकाइया अर्णतगुणा । सेतं णवविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ।। (१०२४२) णवविहपडिवत्ती समत्ता ॥ 'तत्थे'त्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तो नवविधाः संसारसमापना जीवा: प्रज्ञप्तास्ते एवमुक्तबन्तस्तद्यथा-पृथिवीकाथिका अप्कायि| कास्तेजस्कायिका बायुकायिका वनस्पतिकायिका द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः, अमीषां शब्दार्थभावना प्राग्वत् ॥ साम्प्रतमेतेपां स्थितिनिरूपणार्थ सूत्रनवकमाह-'पुढविक्काइयस्स णं भंते!' इत्यादि, एष स पार्थ:-सर्वत्रापि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त-|| मुत्कर्पतः पृथिवीकायिकस्य द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि, अपकायिकस्य सप्तवर्षसहस्रागि, तेजस्कायिकस्य त्रीणि रात्रिन्दिवानि, वायुकाविकस्य त्रीणि वर्षसहस्राणि, वनस्पतिकायिकस्य दशवर्षसह वाणि, द्वीन्द्रियस्य द्वादश संवत्सराणि, श्रीन्द्रिय कोनपश्चाशद् रात्रिंदिवानि, | चतुरिन्द्रियस्य षण्मासाः, पञ्चेन्द्रियस्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि ।। सम्प्रति कायस्थितिप्रतिपादनार्थं सूत्रनवकमाह-'पुढविकाइए भंते !' इत्यादि, सर्वत्र जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतः पृथिवीकायस्यासहधेयं कालमसझयेया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽ [३६] अ ~411 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [८], ---------------------उद्देशक:-1.--------------------- मलं [२४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४२] दीप अनुक्रम [३६७] श्रीजीवा- सयेया लोकाः, एवमप्लेजोवायुकायिकानामपि द्रष्टव्यं, वनस्पतिकायिकस्यानन्तं कालमनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽनन्ता प्रतिपत्ती जीवाभि- लोका: असयेयाः पुद्गलपरावर्ताः आवलिकाया असहाययो भागः, द्वीन्द्रियस्य सायं कालं, एवं श्रीन्द्रियस्य चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रि- पृथ्वीकामलयगि- यस्य च सागरोपमसहसं सातिरेकम् ।। साम्प्रतमन्तरप्रतिपादनार्थमाह-'पुढविकाइयस्स णमित्यादि, पृथिवीकायिकस्य भदन्त ! अ-INयादिस्थिरीयावृत्तिः दन्तरं कालत: किचचिरं भवति?, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् , अन्यत्रान्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयः पृथिवीकायिकखेन कखा- त्यादि प्युत्पादान , उत्कर्षतोऽनन्तं कालमनन्ता उत्सर्पिण्यवसपिण्यः कालत: क्षेत्रतोऽनन्ता लोका: असोयाः पुद्गलपरावर्ताः, ते च पुल- उद्देशः२ ॥४३२॥ परावा आवलिकाया असायो भागः, पृथिवीकायादुद्धृत्य वनस्पतिष्येतावन्तं कालं कस्याप्यवस्थानसम्भवात् , एवमतेजोषाधुद्वित्रिच-18 सू०२४२ नुष्पञ्चेन्द्रियाणामपि वक्तव्यं, वनस्पतिकायिकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तद्भावना प्रागिव, उत्कर्षतोऽसहयेयं कालमसङ्ख्येया उत्सर्पिण्य-16 बसपिण्यः कालत: क्षेत्रतोऽसहाया लोकाः, शेषकायेपूरकर्पतोऽप्येतावन्तं कालमवस्थानसम्भवात् ॥ साम्प्रतमेतेपामरूपबहुखमाह|४|'एएसि णमित्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! सर्वस्तोका: पञ्चेन्द्रियाः सहधेययोजनकोटीकोटीप्रमाणविष्कम्भसूचीप्रमिहातप्रतरासयेयभागवयंसहयोगिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, विष्कम्भसूच्यास्तेषां प्रभूतस ययोजनकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, वेषां विष्कम्भसूच्याः प्रभूततरसपेययोजनकोटीकोटीप्रमाण-11 1४त्वात् , तेभ्यो द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेषां विष्कम्भसूच्याः प्रभूततमसहयेययोजनकोटीकोटीप्रमाणयात, तेभ्यस्तेजस्कायिका अस श्वेयगुणाः, असहयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वान् , तेभ्यः पृथिवीकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूतास पेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , ॥४३२॥ तेभ्योऽकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततरासयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्यो वायुकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूततमासहसेयलो P rastaaryaim अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~412~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [८], --------------------- उद्देशक: -,--------------------- मूलं [२४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: काकाशप्रदेशप्रमाणलात , तेभ्यो वनस्पतिकायिका अनन्तगुणा:, अनन्त लोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , उपसंहारमाह-'सेत्त'भित्यादि मुगमम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां जीवाभिगमटीकायां अष्टम्यां प्रतिपत्ती नवविधप्रतिपत्तिः समाता ॥ प्रत सूत्रांक [२४२] दीप अनुक्रम [३६७] अथ नवमी प्रतिपत्तिः उक्ता नवविधप्रतिपत्तिः, सम्प्रति क्रमप्रानां दशविधप्रतिपत्ति प्रतिपादयति तत्य ण जे ते एवमाहंसदसविधा संसारसमावण्णगा जीवा ते एवमाहंसु तंजहा-पदमसमयएगिदिया अपढमसमयएगिदिया पढमसमयवेइंदिया अपढमसमयबेईदिया जाव पढमसमयपंचिंदिया अपढमसमयपंचिंदिया, पढमसमयएगिदियस्स णं भंते! केवतियं कालं ठिती पपणता? गोयमा! जहणणेणं एक समयं 'उको एक, अपढ मसमयएगिदियस्स जहणेणं खुट्टागं भवरगहणं समऊणं उको बावीसं वाससहस्साई समऊणाई, एवं सब्बसिं पढमसमयिकाणं जहपणेणं एको समओ उकोसेणं एक्को समओ, अपदमा जहपणेणं खुड्डागं भवग्गहर्ण समऊणं उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समऊणा जाव पंचिंदियाणं तेत्तीसं सागरोवमाई समऊणाई ।।संचिट्ठणा पढमसमयस्स जहपणेणं एक समयं उकोसेणं एक समयं, अपढमसमयकाणं जहण्णेण खुट्टागं भवग्गहणं समजणं जी०७३ अब अष्टमी "नवविधा प्रतिपत्ति: परिसमाप्ता: अथ नवमी "दशविधा" प्रतिपत्ति: आरब्धा: ~4134 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [९], --------------------- उद्देशक: -,--------------------- मूलं [२४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४३] श्रीजीवाजीनाभि मलयगिरीयावृत्तिः .तिपत्ती प्रथमसमबकादीनां स्थिातकायस्थित्यन्तराल्पबहुत्वानि उद्देशः २ ॥४३३॥ उकस्सेणं एगिदियाणं वणस्सतिकालो, बेईदियतेइंदियचउरिदिया संखेनं कालं पंचंदियाणं सागरोवमसहस्सं सातिरेग ।। पढमसमयएगिदियाणं केवतियं अंतर होति ?, गोयमा! जहन्नेणं दो खुट्टागभवग्गहणाई समऊणाई, उक्को० वणस्सतिकालो, अपडमएगिदिय. अंतरं जहपणेणं खुडागं भवग्गहणं समयाहियं उको दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाई, सेसाणं सम्बेसिं पढमसमयिकाणं अंतरं जह० दो खुड्डाई भवग्गहणाई समऊणाई उको० वणस्सतिकालो, अपढमसमयिकाणं सेसाणं जहपणेणं खुट्टागं भवग्रहणं समयाहियं 'उको० वणस्सतिकालो ।। पढमसमइयाणं सब्वेसि सव्वत्थोवा पढमसमयपंचे दिया परम चरिंदिया बिसेसाहिया पढमतेइंदिया विसेसाहिया प० बेइंदिया विसेसाहिया प० एगिदिया विसेसाहिया । एवं अपढमसमयिकावि णवरि अपतमसमयएगिदिया अणंतगुणा । दोहं अप्पबहू, सब्वस्थोषा पढमसमयएगिदिया अपढमसमयएगिदिया अणंतगुणा सेसाणं सव्वस्थोचा पढमसमयिगा अपढम० असंखेजगुणा ।। एतेसिणं भंते! पढमसमयएगिदियार्ण अपढमसमयएगिदियाणं जाव अपढमसमयपंचिंदियाण य कयरे २१, सव्वत्थोवा पढमसमयपंचेंदिया पढमसमयचउरिंदिया बिसेसाहिया पढमसमयतेइंदिया विसेसाहिया एवं हेहामुहा जाव पढमसमयएगिदिया विसेसाहिया अपढमसमयपंचेंदिया असंखेजगुणा अपढमसमयचरिंदिया विसेसाहिया जाव दीप अनुक्रम [३६८] सू०२४३ JECXI अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~414 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [९], ---------------------उद्देशक:-1.--------------------- मलं [२४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४३] अपढमसमयएगिदिया अणतगुणा ।। (सू० २४३) । सेतं दसविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, सेत्तं संसारसमावण्णगजीवाभिगमे ।। 'तत्थेत्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तो दशविधा: संसारसमापन्ना जीवाः प्रज्ञापाले एवमुक्तवन्तस्तद्यथा-प्रथमसमयकेन्द्रिया अप्रथमसमयैकेन्द्रियाः प्रथमसमयद्वीन्द्रिया अप्रथमसमयद्वीन्द्रियाः प्रथमसमयत्रीन्द्रिया अप्रथमसमयत्रीन्द्रियाः प्रथमसमयचतुरिन्द्रिया अप्रथमसमयचतुरिन्द्रियाः प्रथमसमयपश्चेन्द्रिया अप्रथमसमयपञ्चेन्द्रिया: प्रथमसमयाप्रथमसमयव्याख्यानं पूर्ववत्। साम्प्रतमेतेपामेच दशानां क्रमेण स्थिति निरूपयति-पढमसमये त्यादि, प्रथमसमयैकेन्द्रियस्य भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह-गौतम! एकं समय, द्वितीयादिषु समयेषु प्रथमसमयस्त्वविशेषणस्यायोगात् , एवं प्रथमसमयद्वीन्द्रियादिसूत्रेष्वपि वक्तव्यं, अप्रथमसमयैकेन्द्रियसूत्रे जघन्यतः क्षुल्लकभवपाहणं-षट्पश्चाशदधिकावलिकाशतद्वयप्रमाणं समयोनं, समयोनता प्रथमसमयेऽप्रथमसमयथायोगात् , उत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि समयोनानि, प्रथमसमयेन हीनत्वात् , अप्रथमसमयद्वीन्द्रियसूत्रे जघन्यं पूर्ववन् , उत्कर्षतो द्वादश संवत्सरा: समयोना: अप्रथमसमयत्रीन्द्रियसूत्रेऽपि जघन्य तथैव, उत्कर्षत एकोनपञ्चाशद्वानिन्दिवानि समयोनानि, अप्रथमसमयचतुरिन्द्रियसूत्रेऽपि जघन्यं तथैव, उत्कर्षतः षण्मासा: समयोनाः, अप्रधासमयपश्चेन्द्रियसूत्रे जघन्यं प्राग्वत् , उत्कर्षतस्त्रयविंशत्सागरोपमाणि समयोनानि, समयोनता सर्वत्रापि प्रथमसमयेन हीना प्रतिपत्तव्या । साम्प्रतमेतेषां क्रमेण कायस्थितिमाह-पढमसमये' इत्यादि, प्रथमसमयैकेन्द्रियो भदन्त ! प्रथमसमयकेन्द्रिय इति-प्रथमसमय केन्द्रियलेन कालत: 'कियश्चिरं कियन्तं कालं याबद्भपति ?, भगवानाह दीप अनुक्रम [३६८] ~415 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [९], --------------------- उद्देशक: -,--------------------- मूलं [२४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: *%%85%2-% प्रत सूत्रांक [२४३] - बहुत्वानि -- दीप अनुक्रम [३६८] श्रीजीवा- -गौतम! एक समयं तत ऊर्द्ध प्रथमसमयलायोगात् , एवं प्रथमसमवतीन्द्रियादिवपि वाच्यं । अप्रथमसमवैकेन्द्रियसूत्रे जवन्यतः ९ प्रतिपत्ती जीवाभिनवलकमवयहणं समयोनं, तत ऊर्द्ध मन्यत्र कल्याप्युत्पादान , उत्कर्पतोऽनन्त कालं, अनन्ता उत्सपिण्यवसपिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽनन्ता प्रथमसममलयगि-16लोका असोयाः पुद्गलपरावर्ताः, ते च पुद्गलपरावर्ता आवलिकाया असायो भागः, एतावन्तं कालं बनस्पतिष्ववस्वानसंभवान ।। यकादीना रीयावृत्तिः अप्रथमसमयद्वीन्द्रियसूत्रे जघन्यं तथैव, उत्कर्षत: सोयं कालं, तत ऊर्द्धभवश्य मुद्वर्तनाद्, एवमप्रथमसमयत्रिचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि व- स्थितिकाक्तव्ये, अप्रथमसमयपोन्द्रियसूत्रे जपन्य तथैव, उत्कर्षतः सातिरेक सागरोपमसहस्र, देवादिभवभ्रमणस्य सातत्येनोकर्पतोऽप्ये- 11 | यस्थित्य॥४३४॥ | तावत्कालप्रमाणत्वात् ॥ साम्प्रतमन्तरं चिचिन्तयिषुराह-'पढमसमये'त्यादि, प्रथमसमयै केन्द्रियस्य भदन्त ! अन्तरं कालतः कियशिरंभ |न्तराल्पभवति ?, भगवानाह-गौतम! जघन्यतो वे क्षुलकभवग्रहणे समयोने, ते च क्षुल्लकभवग्रहणे द्वीन्द्रियादिभवग्रह्णव्यवधानतः पुनरेके-14 न्द्रियेष्वेयोत्पद्यमानस्यावसातव्ये, तथाहि-एक प्रथमसमयोनमेकेन्द्रियक्षुल्लकभवग्रहणमेव, द्वितीयं संपूर्णमेव द्वीन्द्रियाद्यन्यत्तमक्षुल्लक-IM | उद्देशः२ भवग्रहणमिति, उत्कर्पतो वनस्पतिकालः, स चानन्ता उत्सपिण्यवसापिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽनन्ता लोका: असहया: पुद्गलपरा- |सू०२४३ वर्ताः, ते च पुनलपरावर्सा आवलिकाया असल्येयो भाग इत्येवंस्वरूपः, तथाहि-एतावन्तं हि कालं सोऽप्रथमसमयो नतु प्रथमसमयः, ततो श्रीन्द्रियादिषु क्षुल्लकभवमहणमवस्थायैकेन्द्रियलेनोत्पद्यमानः प्रथमे समये प्रथमसमय इति भवत्युत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽ-16 न्तरं, अप्रथमसमयैकेन्द्रियस्य जघन्यमन्तरं क्षुल्लकभवग्रहणं समयाधिकं, तचैकेन्द्रियभवगतचरमसमय स्याप्यप्रथमसमयत्वात्तत्र मृतस्य | द्वीन्द्रियादिक्षुलकभवग्रहणेन व्यवधाने सति भूय एकेन्द्रियलेनोत्पन्नस्य प्रथमसमयातिकमे बेदितव्यं, एतावन्तं कालमप्रथमसमयान्तर-1 ।।४३४॥ भावात् , उत्कर्पतो वे सागरोपमसहस्रे सायेयवर्षांभ्यधिके, द्वीन्द्रियादिभवभ्रमणस्योत्कर्षतोऽपि सातयेनैतावन्तं कालं सम्भवान् , प्र +- अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~416~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२४३] दीप अनुक्रम [३६८] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ /२ (मूलं + वृत्तिः ) प्रतिपत्ति: [९], उद्देशक: [-], मूलं [ २४३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Ja emri थमसमयद्वीन्द्रियस्य जघन्येनान्तरं द्वे क्षुल्लकभवग्रहणे समयोने, तद्यथा - एकं द्वीन्द्रियक्षुल्लक भवग्रहणमेव प्रथमसमयोनं, द्वितीयं स म्पूर्ण मेत्रै केन्द्रिय त्रीन्द्रियाद्यन्यतमक्षुद्धकभवग्रहणं, (मिति, एवं प्रयमसमवत्रिचतु चेन्द्रियाणामप्यन्तरं वेदितव्यं अप्रथमसमयदीन्द्रि यस्य जघन्येनान्तरं क्षुद्धकभत्र ग्रहणं समयाधिकं तच्चै केन्द्रियादिषु) [एवं नयत्रीन्द्रिय मुलकभत्रं स्थिला भूयो द्वीन्द्रियत्वेनोत्पन्नस्व प्रथमसमयातिक्रमे वेदितव्यं उत्कर्षतोऽनन्तं कालमनन्ता उत्सवसविण्यः कालतः क्षेत्रतोऽनन्ता छोका असङ्ख्याः पुलपरावर्त्ताः, ते च पुगलपरावर्त्ता आवलिकाया असल्येयो भागः, एतावांचं द्वीन्द्रियभवादुद्धृतावन्तं कालं वनस्पतिषु स्थित्वा भूयो द्वीन्द्रियलेनोत्पन्नस्य प्रथमसमयातिक्रमे भावनीयः एवमप्रथमसमवत्रिचतुष्यचेन्द्रियाणामपि जघन्यमुत्कृष्टुं चान्तरं वक्तव्यं, भावनाये सारेण स्वयं भावनीया | साम्प्रतमेतेषाम केन्द्रियादिप्रथमसमानां परमत्वमाह - 'एएसि णमित्यादि प्रनसूत्रं सुगर्भ, भगवानाह - गौतम! सर्वखोकाः प्रथमसमयय चेन्द्रियाः, अल्पानामेवैकस्मिन् समये तेषामुत्पादान् तेभ्यः प्रथमसमयचतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः प्रभूतानां तेषामेकस्मिन् समये उत्पादसम्भवात् तेभ्यः प्रथमसमयत्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः प्रभूततराणां देवः कल्लिन समये उत्पादान् सेभ्यः प्रथमसमबद्धीन्द्रिया विशेषाधिकाः प्रभूतानां तेषामेकस्मिन् समये उत्पादान् तेभ्यः प्रथमसमये केन्द्रिया विशेषाधिकाः, इह ये प्रीन्द्रियादिभ्य उडूल एकेन्द्रियत्वेनोत्पद्यन्ते त एवं प्रथमे समये वर्त्तमानाः प्रथमसमये केन्द्रिया ये नेच प्रथमसमयीन्द्रियेभ्यो विशेषाधिका एव नासङ्ख्या नानन्तगुणा इति । साम्प्रतम प्रथमसमयानामेतेषाम रुपबहुत्वमाह - 'पलि ण'मित्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! सर्वस्तोका श्रमसमयपश्चेन्द्रियाः, तेभ्योऽप्रथमसमय चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, ते स्वोऽप्रथमसमन्त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्योऽप्रथमसमयद्वीन्द्रियाविशेपावकाः अत्र युक्तिर्नवविधप्रतिपत्तो सामान्यतो द्वित्रिच For P&Praise City ~ 417 ~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [९], --------------------- उद्देशक: 1, --------------------- मूलं [२४३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४३] दीप अनुक्रम [३६८] श्रीजीवा- नुष्पवेन्द्रियाणां बहुखचिन्तायामिव भावनीया, तेभ्योऽप्रथमसमपैकेन्द्रिया अनन्तगुणा बनस्पतिजीवानामनन्तत्वात् ॥ साम्प्रतमेकेजीवाभिन्द्रियादीनां प्रत्येकं प्रथमसमयाप्रथमसमयानां परस्परमल्पबहु बमभिनित्सुः प्रथमत एकेन्द्रियाणां तावदाह-एएसि णं भंते !' इ- पधमलममलयगि- यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाइ-गौतम! सर्वस्तोकाः प्रथमसमयकेन्द्रियाः, अल्पानामे कस्मिन् समये द्वीन्द्रियादिभ्य आगतानामु- यकादीना रीयावृत्तिःपादान , तेभ्योऽप्रथमसमयैकेन्द्रिया अनन्तगुणा बनस्पतीनामनन्तत्यान् । द्वीन्द्रियसूत्रे सर्वस्तोकाः प्रथमसमयद्वीन्द्रिया अप्रथमसस- स्थितिका दायद्वीन्द्रिया असहयगुणाः, द्वीन्द्रियाणां सर्वसङ्ख्ययाऽध्यसवातवान्, एवं त्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियसूत्राण्यपि वक्तव्यानि ॥ साम्प्रतमेतेषां 6 यस्थित्य॥ ४३५॥ दशानामपि परस्परमल्यवहुलमाह-एएसि 'मित्यादि प्रशसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! सर्वलोकाः प्रथमसमयपञ्चेन्द्रियाः, न्तराल्पहातेभ्यः प्रथमसमयचतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्यः प्रथमसमवत्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्यः प्रथमसमबद्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, बहुत्वानि दातेभ्यः प्रथमसमपैकेन्द्रिया विशेषाधिकाः, अत्र युक्तिः प्रथमाल्पबहुववन् , तेभ्योऽपधगलमयपधेन्द्रिया अमवेयगुणाः, अप्रथमसम- उद्देशः २ कायैकेन्द्रिया दि द्वीन्द्रियादिभ्य उद्ध्यैकेन्द्रियभवप्रथमसमये वर्तमानास्ते च स्तोका एव, पोन्द्रियात्मप्रश्रमसमयवर्तिनश्चिरकालावस्था- सू०२४३ ४ वितया गतिचतुष्टये ऽप्यतिप्रभूतास्ततोऽसहयेषगुणाः, तेभ्योऽप्रथमसमयचतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्योऽप्रथमसमयत्रीन्द्रिया विशे पाधिकाः, तेभ्योऽप्रथमसमयद्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्योऽप्रथमसमवैकेन्द्रिया अनन्तगुणाः, अत्र युक्तिद्वितीयाल्पबहलबत् , उपसं-1 हारमाह-'सेत्तं दसविहा संसारसमापन्ना जीया' । मूलोपसंहारमाह-'सेत्तं संसारसमापन्नजीवाभिगमे ।। इति श्रीमलयनि-11 हारिविरचितायां जीवाभिगमटीकायां दुशविधप्रतिपत्ति: समाप्रा ।। तत्समाप्तौ च समाप्तः संसारसमापन्न जीवाभिगमः ।। ॥४३५॥ - अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अत्र नवमी "दशविधा" प्रतिपत्ति: परिसमाप्ता: ~418~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२४४] दीप अनुक्रम [३६९] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) ------ प्रति० प्रति० [१], • मूलं [२४४] प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः तदेवमुक्तः संसारसमापन्नजीवाभिगमः, साम्प्रतं संसारासंसारसमापन्नजीवाभिगमनभिधित्सुराह— से किं तं सवजीवाभिगमे ?, सब्बजीवेसु णं इमाओ णव पडिवत्तीओ एवमाहिति एगे एवमाहंसु - दुविहा सब्बजीवा पण्णत्ता जाय दसविहा सव्वजीवा पण्णत्ता ॥ तत्थ जे ते एवमाहंस दुबिहा सब्बजीवा पण्णसा ते एवमाहंसु, तंजहा- सिद्धा य असिद्धाय इति ॥ सिद्धे णं भंते । सिद्धेति कालतो केवचिरं होति ?, गोयमा! साती अपज्जवसिए | असिद्धे णं भंते! असिद्धेत्ति ?, गोयमा ! असिद्धे दुबिहे पण्णत्ते, तंजहा अणाइए वा अपजयसिए अणातीए वा सपज्जबसिए । सिद्धस्स णं भंते! केवतिकालं अंतरं होनि?, गोयमा! सानियस्स अपजयferre पस्थि अंतरं ।। असिद्धस्स णं भंते! केवइयं अंतरं होइ ?, गोयमा! अणातियस्स अपजयसियस्स णत्थि अंतरं, अणातियस्स सपज्जबसियस्स णत्थि अंतरं । एएसि णं भंते! सिद्धाणं असिद्धाण य कयरे २१, गोयमा । सव्वत्थोवा सिद्धा असिद्धा अनंतगुणा (सू० २४४ ) 'से किं तमित्यादि, अथ कोऽसौ सर्वजीवाभिगम: १, सर्वजीवाः संसारिमुक्तभेदाः, गुरुराह - 'सब्यजीवेसु णमित्यादि, सर्वजीवेषु सामान्येन 'एता:' अनन्तरं वक्ष्यमाणा नव प्रतिपत्तयः 'एवम्' अनन्तरमुपदश्यमानेन प्रकारेणाख्यायन्ते ता एवाह-एके एवमुक्तवन्तो द्विविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञताः, एक एवमुक्तवन्तस्त्रिविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्राः एवं यावदेके एवमुक्तवन्तो दशविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः ॥ 'तत्थे'त्यादि, तन ये ते एवमुक्तवन्तो द्विविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्ते एवमुक्तवन्तस्तयथा - सिद्धाश्रासिद्धाच, सितं अथ सर्वजीव प्रतिपत्तिः १ [दद्विविधा] आरब्धाः ~419~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: 4 - प्रत सूत्रांक [२४४] दीप अनुक्रम [३६९] श्रीजीवा- बद्धभष्टप्रकारं कर्म भात-भस्मीकृत बस्ते सिद्धाः, पृपोरादित्वादिष्टरूपनिष्पतिः, निर्दग्धकम्मन्धना मुक्ता इत्यर्थः, 'असिद्धाः सं- प्रतिपत्तो जीवाभि सारिणः, चशब्दो स्वगतानेकभेदसंदर्शनायौँ । सम्प्रति सिद्धव कायस्थितिमाह---'सिद्धे 'मित्यादि, सिद्धो भदन्त ! सिद्ध इति- सर्वजीवामलयगि- सिद्धलेन कालत: कियविरं भवति ?, भगवानाह-गौतम! सिद्धः सादिको उपर्यवसितः, तत्र सादिता संसारविप्रमुक्तिसमये सिद्ध-11 भिगमे सिरीयावृत्तिःकालभावात् , अपर्यवसितता सिद्धत्वकयुत्तेरसम्भवान् ।। असिद्धविषयं प्रभसूर्य भुगम, भगवानाह-गौतम! असिद्धो द्विविधः प्राप- विविध प्रमाद्धासिद्धहस्ताथा-अनादिकोऽपर्यवसितः अनादिकः सपर्यवलितः, तत्र यो न जातुचिदपि सेत्स्यति अभव्यत्वात्तथाविधसामन्यभावाद्वार | भेदादि ॥४३६ ॥ सोडनाद्यपर्यवसितः, यस्तु सिद्धिं गतः सोऽनादिसपर्यवसितः ।। साम्यतनन्तरं विचिन्तयिपुराह-'सिद्धस्स णं भंतें' इत्यादि । | उद्देशः२ प्रभसूत्रं मुगम, भगवानाह-गौतम! सिद्धस्य सादिकस्यापर्यवसितस्य नास्त्यन्तरम् , अत्र 'निमित्तकारणहेतुपु सर्वासां विभक्तीनां | सू०२४४ सपायो दर्शन मिति न्यायान् हेतौ पष्टी, तनोऽयमर्थ:-यमासिद्धः सादिरपर्यवसितस्तस्मानास्त्यन्तरम् , अन्यथाऽपर्यवसितत्वायोगात् ।। असिद्धसूत्रे असिद्धस्यानादिकस्यापर्यवसितस्य नास्त्यन्तरम्, अपर्यवसितत्वादेवासिद्धत्वाच्चुतेः, अनादिकसपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरं, भूयोऽसिद्धबायोगान् । साम्प्रतीतेपामेवाल्पवहुवमाह-एएसि 'मित्यादि प्रश्नमूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोकाः । सिद्धाः असिद्धा अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामतिप्रभूतत्वान् ।। अहवा दुविहा सब्बजीवा पणत्ता, तंजहा-सइंदिया चेव अणिंदिया चेव । सइंदिए णं भंते ! कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! सइंदिए दुविहे पत्ते-अणातीए वा अपजवसिए अणाईए ॥४३६॥ वा सपजवसिए, अणिदिए सातीए वा अपज्जवसिए, दोपहवि अंतरं नत्थि। सव्वत्थोवा अणि अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~420 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति [१], ------------------- मूलं [२४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४५] 6 +- दिया सइंदिया अर्गतगुणा । अहवा दुविहा सबजीवा पणत्ता तंजहा-सकाइया चेव अकाइया चेच एवं घेव, एवं सजोगी चेव अजोगी चेव तहेब, [एवं सलेस्सा चेच अलेस्सा चेव, ससरीरा चेव असरीरा चेच] संचिट्ठणं अंतरं अप्पायहुयं जहा सइन्दियार्ण ॥ अहवा दुविहा सब्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा-सवेदगा चेव अवेदगा चेव ॥ सवेदए णं भंते! सवे ? गोयमा! सवेयए तिबिहे प. पणते, तंजहा-अणादीए अपजवसिते अणादीए सपजवसिए साइए सपजबसिए, तत्थ ण जे से साइए सपजयसिए से जह अंतोमु. उको अर्थतं कालं जाव खेत्तओ अवह पोग्गलपरिपद देसूर्ण ॥ अवेदए णं भंते ! अवेयएत्ति कालओ केवचिरं होइ?, गोयमा! अवेदए विहे पपणत्ते, तंजहा-सातीए वा अपज्जवसिते साइए वा सपजवसिए, तत्थ णं जे से सादीए सपजयसिते से जहणेणं एवं समयं उको० अंतोमुहत्तं ।। सवेयगस्स णं भंते! केवतिकालं अंतर होइ?, अणादियस्स अपजवसियस्स पत्थि अंतरं, अणादियस्स सपज्जवसियस्स नस्थि अंतरं, सादीपस्स सपज्जवसियस्स जहपयोणं एक समयं उक्कोसेर्ण अंतोमुहत्तं ॥ अवेदगस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतर होइ?, सातीयस्स अपज्जवसियस्स पत्थि अंतरं, सातीयस्स सपजबसियस्स जह० अंलोमु 'उकोसेणं अणतं कालं जाच अवर्ल्ड पोग्गलपरियह देसूणं । अप्पायटुगं, सम्वत्थोवा अवेयगा सवेयगा अणंतगुणा । एवं सकसाई चेव अकसाई चेव २ जहा सवे दीप अनुक्रम [३७०] ECTCOCRACKXE ~421 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४५] न्द्रियका |यलेश्या दीप अनुक्रम [३७०] श्रीजीवा यके तहेव भाणियब्वे ॥ अहवा दुविहा सधजीवा-सलेसा य अलेसा य जहा असिद्धा प्रतिपत्ती जीवाभि. सिद्धा, सब्वत्थोवा अलेसा सलेसा अणंतगुणा (सू०२४५) सर्वजीवामलयगि- अथवा द्विविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-सेन्द्रियाश्च अनिन्द्रियाश्च, तब सेन्द्रियाः-संसारिणः अनिन्द्रिया:-सिद्धाः, उपाधिमे-18 | भिगमे सेरीयावृत्तिः दात्पुथगुपन्यासः । एवं सकायिकादिध्वपि भावनीयं, बत्र सेन्द्रियस्य कायस्थितिरन्तरं चासिद्धवद्वक्तव्यं, अनिन्द्रियस्य सिद्धवत् , तथैवम्-'सइंदिए भंते ! सइंदियत्ति कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! सईदिए दुविहे पन्नते, तंजहा-अणाइए वा अपज्जवसिएशायवेदकपा॥४३७॥ अणाइए वा सपजाबसिए, अणिदिए गं भंते ! अणिदिएत्ति कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! साइए अपजवसिए, सइंदियस्स गं भंते ! कालओ केवचिरं अंतरं होइ?, गोयमा! अणाइयस्स अपनवसियस नथि अंतरं, अणाइअस्स सपजव सिवस्स नथि अंतरं, अ- भेदादि पाणिदियस्स णं भंते ! अंतरं कालतो केवचिरं होई, गोबमा ! साइयस्स अपजबसियस्स नस्थि अंतर' इति, अल्पबहुखसूत्र पूर्ववदावनीय काउद्देशः २ |एवं कायस्थित्यन्तराल्पबहुलसूत्राणि सकायिकाकायिकविषयाणि सयोग्ययोगिविषयाण्यपि भावयितव्यानि, तचैवम्-'अहवा दुबिहा सू० २४५ सब्यजीवा पण्णता, तंजहा-सकाइया चेव अकाइया चेष, एवं सजोगी चेव अजोगी चेव तहेब, एवं सलेस्सा व अलेस्सा घेवY ससरीरा चेव असरीरा चेव संचिट्ठणं अंतर अप्पाबहुयं जहा सकाइयाणं ।' भूयः प्रकारान्तरेण द्वैविध्यमाह-'अहवेत्यादि, अथवा द्विविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-सवेदकाच अवेदकाश्च । तत्र सवेदकस्य कायस्थितिमाह-सवेदए णं भंते!' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम! सवेदकत्रिविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-अनाद्यपर्ववसितः अनादिसपर्यवसितः सादिसपर्ववसितश, तत्रानाद्यप- ४३७॥ Bार्यवसितोऽभब्यो भन्यो वा तथाविधसामय्यभावान्मुक्तिमगन्ता, उक्तञ्च-भव्वावि न सिग्नंति केई" इत्यादि, अनादिसपर्यवसितो REACOCCA JamacharinI अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~422 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२४५] दीप अनुक्रम [ ३७०] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) ------ प्रति० प्रति० [१], • मूलं [ २४५] प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः भव्यो मुक्तिगामी पूर्वमप्रतिपन्नोपशमश्रेणिः, सादिसपर्यवसितः पूर्व प्रतिपश्नोपशम श्रेणि:, उपशमश्रेणि प्रतिपद्य वेदोपशमोत्तरकालावेदकत्वमनुभूय श्रेणिसमामौ भवक्षयादपान्तराले मरणतो वा प्रतिपततो वेदोदये पुनः सवेदकलोपपत्तेः, तत्र योऽसौ सादिसपर्यवसितो जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त श्रेणिसमाप्तौ सवेदकत्वे सति पुनरन्तर्मुहूर्त्तेन श्रेणिप्रतिपत्ताववेदकत्वभावात्, आह- किमेकस्मिन् जन्मनि वेलाद्वयमुपशमश्रेणिलाभो भवति ? यदेवमुच्यते, सत्यमेतद्भवति, तथा चाह मूलटीकाकारः - "जैकस्मिन् जन्मनि उपशमश्रेणिः क्षपकश्रेणिच जायते, उपशमश्रेणिद्वयं तु भवत्येवे"ति, तत एवमुपपद्यते - जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुक्कर्पतोऽनन्तं कालं तमेव कालक्षेत्राभ्यां निरूपयतिअनन्वा उत्सर्पिण्यवसविण्यः एपा काढतो मार्गेणा, क्षेत्रतोऽपापुद्रपरावर्त्त देशोनम् एतावतः कालादु पूर्वप्रतिपन्नोपशमश्रेणेरवश्यं मुक्तयासन्नतया श्रेणिप्रतिपत्ताववेदकत्वभावान् ॥ 'अवेदए णं भंते!' इत्यादि प्रभसूत्रं पाठसिद्धं भगवानाह - गौतम! अवेदको द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-सादिको वाऽपर्यवसितः [समयानन्तरं] क्षीणवेदः, सादिको वा सपर्यवसित-उपशान्तवेदः, तत्र योऽसौ सादिसपर्यवसितोऽवेदकः स च जघन्येनैकं समयं, उपशमश्रेणि प्रतिपन्नस्त्व वेदोपशमसमयानन्वरेऽपि मरणे पुनः सवेदकत्वोपपत्तेः, उत्क तोऽन्तर्मुहूर्त्तमुपशान्तवेदश्रेणि कालं तत ऊर्जा श्रेणेः प्रतिपतने नियमतः सवेदकत्वभावात् । अन्तरं प्रतिपिपादयिपुराह – 'सवेदगरस णं भंते!' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगमं, भगवानाह गौतम ! अनादिकस्यापर्यवसितस्य सवेदकस्य नास्त्यन्तरं, अपर्यवसिततया सदा सद्भावापरित्यागात्, अनादिकस्य सपर्यवसितस्यापि नास्यन्तरं, अनादिसपर्यवसितो पान्तराले उपशमश्रेणिमप्रतिपद्य भावी क्षीणवेदो न च क्षीणवेदस्य पुनः सवेदकत्वं प्रतिपाताभावान्, सादिकस्य सपर्यवसितस्य सवेदकस्य जघन्येनैकं समयमन्तरं, द्वितीययारमुपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्य वेदोपशमसमयानन्तरं कस्यापि मरणसम्भवान्, उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त्त द्वितीयं वारमुपशमश्रेणि प्रतिपन्नस्योपशा For P&Pase City ~423~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४५] दीप अनुक्रम [३७०] श्रीजीवा-दन्तवेदस्य श्रेणिसमानरूईपुनः सवेदकलभावान् । अवेदकसूत्रे सादिकस्यापर्यवसितस्थावेदकस्य नास्त्यन्तर, क्षीणवेदस्य पुनः सवेद-१९प्रतिपत्तौ जीवाभि वाभावान् , वेदानां निर्मूलकाकपितत्वात् , सादिकस्य सपर्यवसिवस्व जबन्धनान्तर्मुहूर्त, उपशमणिसमाप्तौ सवेदकले सति पुनर- सर्वजीवामलयगि- न्तर्मुहूसेनोपशमणिलाभतोऽवेदकत्वोपपत्तेः, उत्कर्पतोऽनन्तं कालं, अनन्ता उत्सर्पिण्यवसापिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽपापुद्गलपराव भिगमे से देशोनं, एकवारमुपश्रेणि प्रतिपद्य तत्रावेदको भूत्वा श्रेणिसमाती सवेदकले सति पुनरेतावता कालेन श्रेणिप्रतिपत्ताबवेदकल्योपपत्तेः ।।हन्द्रियका अल्पबहुपमाह-एएसिणं भंते ! जीवा' इत्यादि पूर्ववत् ।। प्रकारान्तरेण वैविध्यमाह-'अहवे'त्यादि, अथवा द्विविधाः सर्व-नायवेदकषा॥४३८॥ जीवाः प्रज्ञप्तासयथा-सकपायिकाच अपायिकाच, सह कपाया येषां वै ते सकपायाः त एव सकपायिकाः, प्राकृतत्वान् स्थायलेश्याइकप्रत्ययः, एवं न विद्यन्ते कषाया येषां ते अकपाया: २ एवाकपायिकाः ।। सन्प्रति कायस्थितिमाह-'सकसाइयस्से यादि, सक- भेदादि पायिकस्य त्रिविधत्यापि संचिट्ठणा कायस्थितिरन्तरं च यथा सवेदकस्य, अपायिकस्य द्विविधभेदस्यापि कायस्थितिरन्तरं च यथा-1 उद्देशः२ 81वेदकस्य, सौवम्-सिक साइए णं भंते! सकसाइयत्ति कालतो केवचिर होइ?, गोयमा! सकसाइए तिविहे पन्नत्ते, तंजहा--अणा-11 सू०२४५ हाइए वा अपजबसिए अगाइए या सपजवसिए साइए वा सपनबसिए, तस्थ जे से साइए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उको-18 सेणं अणतं कालं अर्णता ओसप्पिणि उस्सप्पिणीओ कालतो खेततो अवडपोग्गलपरियटुं देसूर्ण, अकसाइए णं भंते! अकसाइयत्ति | कालओ केवचिरं होइ?, गोषमा! अकसाइए दुविहे पन्नत्ते, तंजा-साइए वा अपजवसिए साइए वा सपजवसिए, तत्थ णं जे साइए सपज्जवसिए से जहण्णेणं एक समय उकोसणं अंतोमुहुन्तं । सकसाइनस्ल गं भंते ! अंतरं कालतो केवचिरं होइ?, गोयमा! ॥४२८ ।। अणाइयस्स अपञ्चवसियम चस्थि अंतरं, अणाश्यम्स सपजवसियस्त नस्थि अंतरं, साइयस्स सपजवसियस्स जहण्णेणं एक समय। -%%AKRAM. 165 अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~424 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: AC प्रत सूत्रांक - [२४५] %% A -- उकोसेणं अंतोमुटुत्तं, अकसाइयम्स गं भंते ! केवइयं कालं अंतर होइ', सइयस अपनवसियस णस्थि अंतरं, साइयत्स सप-11 जावसियस्स जहणेणं अंतोमुहुत्तं उझोसेणं अनंत कालं जाब अबई पोग्गलपरियट्ट देसूग मिति, अस्य व्याख्या पूर्ववत् । अल्पबहुल-11 माह-एएसि णं भंते ! जीवाणं सकसाइयाणमित्यादि प्राम्बत् ।। अकारान्तरेण वैविध्यमाह णाणी चेव अण्णाणी चेव ।। णाणी णं भंते! कालओ०१, २ दुविहे पन्नत्ते-सातीए वा अपजवसिए सादीए वा सपजवसिए, तत्थ णं जे से सादीए सपजवसिते से जहाणेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं छावढिसागरोवमाइं सातिरेगाई, अण्णाणी जहा सवेदया ।। गाणिस्स अंतरं जहणणं अंतोमुत्तं उकोसेणं अणंतं कालं अबढ पोग्गलपरिच देणं । अण्णाणियस्स दोण्हवि आदिलाणं णस्थि अंतरं, सादीवस्स सपजाबसियस्स जहण्णेणं अंतोमु० उकोसेणं छावहि सागरोवमाई साइरेगाई । अप्पाबहु सब्यस्थोवा णाणी अण्णाणी अणतगुणा ॥ अहया वुविहा सध्यजीवा पनसा-सागारोवत्ता य अणागारोवउत्ता य, संचिट्ठणा अन्तरं च जहणेणं उकोसेणवि अन्तोमुहुत्तं, अप्पाबहु सागारो० संखे० (सू०२४६) 'अहवे'त्यादि, अथवा द्विविधाः सर्वजीवा: प्रज्ञाप्तास्तद्यथा-सलेश्याच अलेश्याश्च, तत्र सलेश्यस्य कायस्थितिरन्तरं चासिद्धयेथ, | अलेश्यस्य कायस्थितिरन्तरं च यथा सिद्धस्य । अल्पबहुखं प्राग्वत् । भूयः प्रकारान्तरेण द्वैविध्यमाह-'अहवे'त्यादि, अथवा द्विविधाः *सर्वजीवा: प्रज्ञप्तास्तद्यथा-ज्ञानिनश्च अज्ञानिनश्च, ज्ञानमेपामस्तीति ज्ञानिनः न ज्ञानिनोऽज्ञानिनः मिध्याज्ञाना इत्यर्थः ॥ सम्प्रति दीप अनुक्रम [३७०] 4- R-62-644 जी० ७४ JEsc ~425 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४६] सू०२४६ दीप अनुक्रम [३७१] श्रीजीवा- कायस्थितिमाह-'णाणी ण'मित्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! ज्ञानी द्विविधः प्राप्तस्तद्यथा-सादिको वाऽपर्यवसित:, प्रतिपत्ता जीवाभिम स च केवली केवलज्ञानस्य साद्यसपर्यवसितत्वात् , सादिको वा सपर्यवसितो मतिज्ञानादिमान , मतिज्ञानादीनां उपस्थिकतया सादि- सर्वजीव मलयगि- सपर्यवसितत्वात् , 'तत्थ ण नित्यादि, तत्र योऽसौ सादिकः सपर्यवसितः स जघन्येनान्तर्मुहूर्त, सम्यक्रवस्य जघन्यत एतावन्मात्र- ज्ञानिस्थिरीयावृत्तिः | कालत्वात् सम्यक्त्ववतश्च ज्ञानिलात् , यथोक्तम्- सम्यग्दृष्टानं मिथ्यालेविपर्यास" इति, उत्कर्पतः षट्पष्ट्रिः सागरोपमाणि सा-3 त्यादिः तिरेकाणि, सम्यग्दर्शनकालस्याप्युस्कर्षत एतावन्मात्रलात् , अप्रतिपतितसम्यक्त्वस्य विजयादिगमनश्रवणाग, तथा च भाष्यम्- उद्देशः २ ॥४३९॥ "दो बारे विजयाइसु गयरस तिन्निऽजुए अहव ताई । अइरेगं नरमवियं नाणाजीवाण सम्बद्धा ॥ १॥" [द्वौ वारौ विजयादिषु गत-181 |स्य अथवा श्रीनच्युने तानि । अतिरेको नरभविक नानाजीवानां सर्वीद्धा ॥१॥] 'अण्णाणी णं भंते! इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम,. भगवानाह-गौतम! अज्ञानी त्रिविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-अनादिको वाऽपर्यवसितः अनादिको वा सपर्यवसितः सादिको वा सपर्यवसितः, तत्रानापर्यवसितो यो न जातुचिदपि सिद्धिं गन्ता, अनादिसपर्यवलितो योऽनादिमिश्याइष्टिः सम्यक्षमासायाप्रतिपतितसम्यकरण एव क्षपकणि प्रतिपत्स्यते, सादिसपर्यवसितः सम्यग्रष्ठिभूखा जातमिध्यादृष्टिः, स जपम्येनान्तर्मुहूर्त सम्यक्वात् प्रतिपत्य पुनरन्तमुंहून कस्यापि सम्यग्दर्शनावाप्निसम्भवान् , उत्कणानन्त कालं, अनन्ता उत्सपिण्यवसापिण्यः कालत: क्षेत्रतोऽपाई पुद्गलपरावर्त देशोनं ।। साम्प्रतमन्तरं प्रतिपादयति–णाणिस्स णं भंते !' इत्यादि, ज्ञानिनो भदन्त ! अन्तरं कालत: कियचिरं भवति । भगवानाह-गौतम! सादिकल्यापर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं, अपर्यवसितत्वेन सदा तद्भावापरित्यागान , सादिकस्य सपर्यवसितस्य जघन्य-1।। ॥४३९॥ | तोऽन्तर्मुहूर्त, एतावता मिथ्यादर्शनकालेन व्यवधानेन भूयोऽपि ज्ञानभावान , उत्कर्षेण अनन्त कालं, अनन्ना उत्सर्पिण्यवसापिण्यः। EKEN - अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~426 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: % % % प्रत सूत्रांक % % [२४६] % दीप अनुक्रम [३७१] कालत: क्षेत्रतोऽपाद्ध पुनलपरावर्त देशोनं, सम्बग्दृष्टेः सम्यक्त्वात्प्रतिपतितस्यैतावन्तं कालं मिध्यात्वमनुभूय तदनन्तरमवश्यं सम्यक्वासाइनान् । 'अण्णाणिस्स णं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! अनाथपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं, अपर्यवसितवादेव, अनादिसपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरं अवाप्नकेवलज्ञानस्य प्रतिपाताभावान् , सादिसपर्यवसानस्य जघन्येनान्तर्मुहुर्त, जघन्यस्य सम्यग्दर्शनकालस्वैतावन्मात्रत्वात् , उरकर्पतः षट्पष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, एतावतोऽपि कालादू सम्यग्दर्शनप्रतिपाते सत्य-१ ज्ञानभावात् । अल्पबहुखसूत्र प्राग्वत् । प्रकारान्तरेण वैविध्यमाह-'अहवेत्यादि, अथवा द्विविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-साकारोपयुक्ताश्च अनाकारोपयुक्तान, सम्प्रति कायस्थितिमाह-'सागारोव उत्ताणं भंते !' इह छद्मस्था एव सर्वजीवा विवक्षिता न केवलिनोऽपि 'विचित्रत्वात् सूत्रगते'रिति द्वयानामपि कायस्थितावन्तरे च जघन्यत उत्कर्षतश्रान्तर्मुहूर्त, अन्यथा केवलिनामुपयोगस्य | साकारस्यानाकारस्य चैकसामयिकत्वात् कायस्थितावन्तरे चैकसामयिकोऽप्युच्येत । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका अनाकारोपयुक्ताः, अनाकारोपयोगस्य स्तोककालतया पुच्छासमये तेषां स्तोकानामेवावाप्यमानत्वात् , साकारोपयुक्ताः सशपेयगुणाः, अनाकारोपयोगाद्धातः साकारोपयोगाद्धायाः सहयगुणलात् ॥ अहवा दुविहा सम्बजीचा पण्णत्ता, तंजहा-आहारगा चेव अणाहारगा चेव ॥ आहारए णं भंते! जाव केवचिरं होति?, गोयमा! आहारए दविहे पण्णत्ते, तंजहा-छउमत्थआहारए य केवलिआहारए य, छउमत्थआहारए णं जाव केवचिरं होति?, गोयमा! जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं दुसमऊणं उको० असंखेनं कालं जाव काल खेत्तओ अंगुलस्स असंखेजतिभागं । ~427 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति. [१], ------------------- मूलं [२४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ॥४४०॥ प्रतिपत्तौ सर्वजीव आहारकेतरस्थित्यादि उद्देशः२ सू०२४७ [२४७] केवलि आहारए णं जाच केवचिरं होइ ?, गोयमा! जह• अंतोमु० उको० देसूणा पुब्बकोडी॥ अणाहारए णं भंते ! केवचिरं०?, गोषमा! अणाहारण दुधिहे पण्णत्ते, तंजहा-छउमस्थअणाहारए य केवलिअणाहारए य, छउमत्थअणाहारए णं जाव केवचिरं होति ?, गोयमा! जहणणं एकं समयं उकस्सेणं दो समया । केवलि अणाहारए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सिद्धकेवलिअणाहारए य भवत्थकेवलिअणाहारए य । सिद्धकेवलियणाहारए भंते ! कालओ केवचिरं होति?, सातिए अपजवसिए । भवत्यकेवलियणाहारए णं भंते! कइविहे पपणते?, भवस्थकेवलिया दुविहे पण्णरो-सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए य अजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए य । सजोगिभवस्थकेवलिअणाहारए ण भंते! कालओ केवचिरं?, अजहणमणुकोसेणं तिपिण समया। अजोगिभवत्थकेवलि० जह अंतो० उक्को० अंतोमुहुत्तं ॥ छउमस्थ आहारगस्स केवतियं कालं अंतरं?, गोयमा! जहाणेणं एक समयं उक्को दो समया। केवलिआहारगस्स अंतरं अजहण्णमणुकोसेणं तिणि समया ॥ छउमत्थअणाहारगस्स अंतरं जहन्नेणं खुडागभवग्गणं दुसमऊणं. उक० असंखेज़ कालं जाव अंगुलस्स असंखेजतिभागं। सिहकेवलिअणाहारगस्स सातीयस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं । सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारगस्स जह अंतो० उक्कोसेणवि, अ दीप अनुक्रम [३७२] 35-%C4%95% 26-2-5 हा॥४४॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~428 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४७] %25-25649 जोगिभवल्थकेवलिअणाहारगस्स पत्धि अंतरं । एएसिणं भंते ! आहारगाणं अणाहारगाण य कयरे २हिंतो अप्पा बहु०१, गोयमा! सव्वत्थोवा अणाहारगा आहारगा असंखेजा।। (सू०२४७) 'अहवे'त्यादि, अथवा द्विविधाः सर्वजीवा: प्रज्ञप्तास्तद्यथा-आहारकाच अनाहारकाश्च ॥ अधुना कायस्थितिमाह-'आहारगेणं, भंते!' इत्यादि प्रभसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम! आहारको द्विविधः प्रजातलबथा-उग्रस्थाहारकः केवस्याहारकः, तत्र छदास्थाहारको जधन्येन शुलकभवग्रहणं द्विसमयोनं, एतच्च जघन्याधिकाराद्विग्रहेणागत्य क्षुझकभवग्रहणवत्सूत्पादे परिभावनीयं, वन्न यधपि नाम लोकान्तनिष्कुटादावुत्पादे चतु:सामयिकी पश्चसामयिकी च विग्रहगतिर्भवति तथाऽपि वाहुल्येन प्रिसामयिक्येवेति तामेवाधिकृत्य सूत्रमिदमुक्तं, इत्थमेवान्येषामपि पूर्वाचार्याणां प्रवृत्तिदर्शनात , उक्तश्च-एक द्वौ वाऽनाहारकः” (तन्वा० अ०२ सू० ३१) इति, त्रिसामयिक्यां च विग्रहगताबायो द्वौ समयावनाहारक इति ताभ्यां हीनमुक्त, उत्कर्षतोऽसद्धयेयं कालम् , असाचेया उत्सपिण्यवसपिण्यः कालत:, क्षेत्रतोऽङ्गुलस्यासमवेयो भागः, किमुक्तं भवति ?--भङ्गुलमात्रक्षेत्राकुलासययभागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावन्तः प्रतिसमय मेकैकप्रदेशापहारे यावता कालेन निलेपा भवन्ति बावत्य उत्सपिण्यवसापिण्य इति, तावन्तं हि कालमविरहेणोत्पाद्यते, अविग्रहोत्पत्तौ च | सत्ततमाहारकः । केवल्याहारकप्रभसूत्रं पाठसिद्धं, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, स चान्तकृत् केवली प्रतिपत्तव्यः, उत्कपतो देशोना पूर्वकोटी, सा च पूर्वकोट्यायुषो नववर्षादारभ्योत्पन्न केवलज्ञानस्य परिभावनीया ॥ अनाहारकविषयं सूत्रमाह-'अना हारए णं भंते' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम ! अनाहारको द्विविधः प्रज्ञप्त:-छद्मस्थोऽनाहारकः केवल्यमाहारकश्च, छद्मस्थानाहारकामसूत्रं सुगम भगवानाह-गौतम! जघन्यत एक समयं, जघन्याधिकाराहिसामयिकी विप्रहगतिमपक्ष्यैतदवसातव्यं, दीप अनुक्रम [३७२] --- - 6-1-96495-%20% ~429~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२४७] दीप अनुक्रम [३७२] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ (मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रति० प्रति०] [१], • मूलं [ २४७] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ४४१ ॥ उत्कर्षतो द्वौ समयौ त्रिसामयिक्वा एव विग्रहगतेर्बाहुल्येनाश्रयणात्, आह च चूर्णिकृत् – “यद्यपि भगवत्यां चतुःसामयि कोऽनाहारक उक्तस्तथाऽप्यत्र नाङ्गीक्रियते, कदाचित्कोऽसौ भावो येन, बाहुल्यमेवाङ्गीक्रियते, बाहुल्याच समयद्वयमेवे "ति केवल्यनाहारकसूत्रं पाठसिद्धं, भगवानाह - गौतम ! केवल्यनाहारको द्विविधः प्रज्ञतस्तद्यथा भवस्थ केवल्यनाहारकः सिद्धकेवल्यनाहा| रकः || 'सिद्ध केवलिअणाहारए णं भंते!' इत्यादि प्रनसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम! सादिकापर्यवसितः सिद्धस्य साद्यपर्यव- 3 सिततयाऽनाहारकत्वस्यापि तद्विशिष्टस्य तथाभावात् || 'भवत्थकेवलि अणाहारए णं भंते!' इत्यादि सूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! भवस्थ केवल्यनाहारको द्विविधः प्रप्तः सयोगिभवस्य केवल्यनाहारको ऽयोगिभवस्य केवल्यनाहारकञ्च तत्रायोगिभवस्य केवल्यनाहारकप्र असूनं सुगमं, भगवानाह - गौतम! जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्त्त मुस्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्त, अयोगिलं नाम हि शैलेश्यवस्था तस्यां निय| मादनाहारक औदारिकादिकाययोगाभावात्, शैलेश्यवस्था च जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त्त, नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टमधिकमवसेयं, अन्यथोभयपदोपन्यासायोगात् । 'सजोगिभवत्थ केवलिअणाहारए णं भंते!" इत्यादि प्रह्मसूत्रं सुगमं भगवानाह - गौतम! अ जघन्योत्कर्षेण त्रयः समयाः, ते चाष्टसामयिक केवलिसमुदूघातावस्थायां तृतीयचतुर्थपथामरूपाः तेषु केवलकार्म्मणकाययोगभावात्, उक्तञ्च कार्म्मणशरीरयोगी चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्माद्भवत्यनाहारको नियमान् ।। १ ।।” साम्प्रतमन्तरं चिन्तयन्नाह - 'छउमत्याहारयस्स णं भंते!' इत्यादि, छद्मस्थाहारकस्य भवन्त ! अन्तरं कालतः कियभिरं भवति ?, भगवानाह - गौतम! जघन्येनैकं समयमुत्कर्षतो द्वौ समयौ, याबानेव हि कालो जघन्यत उत्कर्षतच छद्मस्थानाहारकस्य तावानाहारकस्यान्तरकाल:, स च कालो जघन्येनैकः समयः उत्कर्षतो बाहुल्यमङ्गीकृत्य व्यवहियमाणायां त्रिसामयिक्यां विग्रहगतौ द्वौ समयावित्याहारकस्या For P&Praise Cinly ९ प्रतिपत्तौ सर्वजीव आहारके तरस्थि त्यादि उद्देशः २ सू० २४७ ~430~ ॥ ४४१ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते— एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४७] 6-4-5 दीप अनुक्रम [३७२] प्यन्तरं तावदिति । केवल्याहारकप्रअसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! अजघन्योत्कर्षेण त्रयः समयाः, केवल्याहारको हि सयोगिभ वस्थकेवली, तस्य चानाहारकत्वं त्रीनेव समयान् यथोक्तं प्रागित्यन्तरं केवल्याहारकस्य तावदिति ।। सन्प्रत्यनाहारकस्यान्तरं चिचिन्त६ यिपुः प्रथमतश्छद्मस्थानाहारकस्याह-छउमधाणाहारयस्स णं भंते!' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम! जघन्येन ४ क्षुल्लकभवग्रहणं द्विसमयोन, उत्कर्षतोऽसयेयं कालं यावदङ्गुलस्यासस्येवो भागः, यावानेव हि छदास्थाहारकस्य कालस्तावानेव छद्मस्थानाहारकस्यान्तरं, छदास्थाहारकस्य च जघन्यतः कालोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसयेया उत्सपिण्यवसपिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽङ्गलस्यासोयो भागः, एतावन्तं कालं सततमविग्रहेणोत्पादसम्भवान् , ततश्छद्मस्थानाहारकस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावदन्तरमिति । अथ स्थाने २ कभवग्रहणमित्युक्तं तत्र क्षुहकभवग्रहणमिति कः शब्दार्थः १, उच्यते, क्षुलं लघु स्तोकमित्येकोऽर्थः क्षुलमेव भुतक-एकायुष्कसंवेदनकालो भवस्तस्य महणं-संबन्धनं भवग्रहणं, क्षुल्लकं च तद्भवग्रहणं च क्षुलकभवग्रहणं, तञ्चाबलिकातश्चिन्त्यमानं षट्पञ्चाशदधिकमावलिकाशतद्वयं, अथैकस्मिन आनप्राणे कियन्ति क्षुकभवग्रहणानि भवन्ति ?, उरूयते, किश्चित्समधिकानि सप्तदश, कथमिति दुच्यते-इह मुहूर्तमध्ये सर्वस रूपया पश्चषष्टिः सहस्राणि पश्च शतानि षट्त्रिंशानि क्षुल्लकभवग्रहणानां भवन्ति, यत उक्तं चूणा"पन्न हिसहस्साई पंचेष सया हवंति छत्तीसा । खुडागभवग्गणा हवंति अंतोमुहुर्तमि ॥१॥" आनप्राणाश्च मुहू बीणि सहस्राणि सप्त | शतानि त्रिसप्तत्यधिकानि, उक्तश्च-"तिन्नि सहस्सा सत्त य सयाई तेवत्तरं च ऊसासा । एस मुहुत्तो भणिओ सव्वेहिं अशंतनाणीहि ॥१॥" ततोऽत्र त्रैराशिककर्मावतारः, यदि त्रिसप्तत्यधिकसप्तशतोत्तरैत्रिभिः सहस्रैरुच्छासानां पञ्चषष्टिः सहस्राणि पञ्च शतानि षट्त्रिंशानि क्षुल्लकभवग्रहणानां भवन्ति तत एकेनोउछासेन किं लभामहे ?, राशित्रयस्थापना-३७७३।६५५३६।१। अत्रान्त्य ~431 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४७] दीप श्रीजीवा- राशिना एककलक्षणेन मध्यराशेर्गुणानाजातः स तावानेव, एकेन गुणितं तदेव भवतीति न्यायात् , तत आवेन राशिना भागहरणं, ४९ प्रतिपत्ती जीवाभि लब्धाः सप्तदश क्षुल्लकभवाः, शेषास्वंशास्तिष्ठन्ति तत्र त्रयोदश शतानि पञ्चनयत्यधिकानि, उक्तञ्च-सत्तरस भवग्गणा खुट्टाण | सर्वजीव मलयगि-1 भवंति आणुपाणुमि । तेरस चेव सयाई पंचाणइ चेव अंसाणं ॥ १॥" अर्थतायरिंशै: कियत्य आवलिका लभ्यन्ते, पुण्यते, स- 1 क्षुल्लकमरीयावृत्तिःमधिकचतुर्नवतिः, तथाहि-पट्पञ्चाशदधिकेन शतद्वयेनावलिकानां त्रयोदश शतानि पचनवतानि गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि लक्षाणि वप्ररूपणा सप्तपञ्चाशत्सहस्राणि शतमेकं विंशत्यधिकं ३५७१२०, छेदराशि: स एव ३७७३, लब्धा चतुर्नयतिरावलिकाः, शेपास्त्वंशा आब॥४४२॥ लिकायास्तिष्ठन्ति चतुर्विंशतिः शतानि अष्टपश्चाशानि, छेदः स एव 101 एवं यदा एकस्मिन्नानप्राणे आवलिका: सहयातुमिप्यन्ते तदा सप्तदश द्वाभ्यां पद्पश्चाशदधिकाभ्यां शताभ्यां गुज्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितनाश्चतुर्नवतिरावलिकाः प्रक्षिप्यन्ते, मत आवलि-1 कानां चतुश्चलारिंशत् शतानि पट्चत्वारिंशानि भवन्ति, उक्तच-"एको उ आणुपाणू चोयालीसं सया उ छायाला । आवलियपमाणेणं अगंतनाणीहि निदिहो ॥१॥" यदि पुनर्मुहूर्ते आवलिकाः सल्यातुमिप्यन्ते तत एतान्येव चतुश्चत्वारिंशच्छतानि त्रिसप्त-18 ४ा त्यधिकानि भवन्तीति सप्तविच्छ शसैखिसप्तत्यधिकैर्गुण्यन्ते, जाता एका कोटी सप्तपष्ठिः शतसहस्राणि चतुःसप्ततिः सहस्राणि सप्त-18 शतानि अष्टाप चाशदधिकानि १६७७४४५८, येऽपि चावलिकाया अंशाश्चतुर्विशतिशतानि अनुपश्चाशदधिकानि २४५८ तेऽपि | मुहूर्त्तगतोच्छासराशिना ३७७३ गुण्यन्ते, अस्वैव छेदस्य ते अंशा इत्याबलिकानयनाय तेनैव भागो हियते, लब्धास्तावत्य एबावलिकाश्चतुर्विशतिशतान्यष्टापञ्चाशानि २४५८, तानि मूलराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाता मूलराशिरेका कोटिः सप्तपष्टिलक्षाः सप्तसप्ततिः सहसाणि द्वे शते षोडशोत्तरे, एतावत्य आवलिका मुहूर्ते भवन्ति, यदिका मुहूर्चगतानां क्षुल्लकभवग्रहणानां पञ्चषष्टिः सहस्राणि पञ्च -9-% *-3 अनुक्रम [३७२] ॥४४२ Jaixi अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~432 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत 6-46-5-45* सूत्रांक [२४७] शतानि पत्रिंशानि एकभवप्रणाप्रमाणेन पट्पञ्चाशेन शतद्वयेनावलिकानां गुण्यन्ते तथाऽपि तावत्य एवावलिका भवन्ति, उक्तश्च"एगा कोडी सत्तहि लक्ख सत्तत्तरी सहस्सा य । दो य सया सोलहिया आवलियाओ मुहुत्तंमि ॥१॥" एवं च यदुग्यते 'संखेजाओ आवलियाओ एगे उसासनीसासे' इत्यादि तदतीच समीचीनमिति कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः । तत्र सयोगिभवस्थकेवल्यनाहारकस्यान्तरमभिधित्सुराह-सजोगिभवस्थकेवलि अणाहारयरसणं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पणाप्यन्तर्मुहूर्ग, समुद्घातप्रतिपत्तेरनन्तरमेवान्तर्मुहूर्तेन शैलेशीप्रतिपत्तिभावात् , नवरं जघन्यपदादुत्कृष्ठपदं विशेषा|धिकमवसातव्यं अन्यथोभयपदोपन्यासायोगात् । अयोगिभवस्थ केवल्यनाहारकसूत्रे नास्यन्तरं, अयोग्यवस्थायां सर्वस्याप्यनाहार करवान् । एवं सिद्धस्यापि सावपर्यवसितस्यानाहारकस्यान्तराभावो भावनीयः ॥ साम्प्रनमेतेयामाहारकानाहारकाणामल्पबहुत्वमाह-एएसि णं भंते !' इत्यादि प्रभमूत्र सुगम, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोका अनाहारकाः, सिद्धविग्रहगल्यापन्नसमुदूधातगतसयोगिफेवस्ययोगिकेयलिनामेवानाहारकत्वात् , तेभ्य आहारका असक्वेवगुणाः, अघ सिद्धेभ्योऽनन्तगुणा वनस्पतिजीवास्ते च प्राब आहारका इत्यनन्तगुणाः कथं न भवन्ति ?, उच्यते, इह प्रतिनिगोदमसङ्ख्ययो भागः प्रतिसमयं सदा विग्रहगत्यापन्नो लभ्यते, विग्रहगत्यापन्ना अनाहारकाः, “विग्गहगइमावन्ना केवलिणो समुहया अजोगी य । सिद्धा य भणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥१॥" [विग्रहगत्यापन्नाः समुद्धताः अयोगिनश्च केवलिनः सिद्धाश्चानाहारा: शेषा आहारका जीवाः ॥ १॥"] इतिवचनात् ततोऽसहव्यगुणा एवाहा|रका घटन्ते नानन्तगुणा इति ॥ प्रकारान्तरेण भूयो वैविध्यमाह अहवा दुविहा सब्वजीवा पणत्ता, तंजहा-सभासगा अभासगा य ॥ सभासए णं भंते ! म AEX दीप अनुक्रम [३७२] AE% E5%- 5 ~433 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवा-1 जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक [२४८] ९ प्रतिपत्ती सर्वजीव भाषकसशरीरेतर. उद्देशः२ सू० २४८ दीप अनुक्रम [३७३] भासएत्तिकालओ केवचिरं होति?, गोयमा! जहण्णेणं एक समयं उक्को अंतोमुहत्तं ॥ अभासए णं भंते०, गोयमा! अभासए दुविहे पण्णत्ते-साइए वा अपञ्जवसिए सातीए वा सपजवसिए, तत्थ ण जे से साइए सपञ्जवसिए से जह० अंतो० उको० अणंतं कालं अणंता उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ बणस्सतिकालो॥ भासगस्स णं भंते! केवतिकालं अंतरं होति, जह अंतो उक्क० अणतं कालं वणस्सतिकालो । अभासग सातीयस्स अपलवसियस्स पत्थि अंतरं, सातीयसपजवसियस्स जहण्णेणं एक समयं उक्क० अंतो 1 अप्पायहु० सव्वस्थोवा भासगा अभासगा अणंतगुणा ।। अहवा दुविहा सव्वजीवा ससरीरी य असरीरीय असरीरी जहा सिद्धा, थोवा असरीरी ससरीरी अणंतगुणा ।। (सू०२४८) 'अहवे'त्यादि, अथवा द्विविधाः सर्वजीवा: प्रज्ञप्तास्तद्यथा-भाषकाच अभाषकाच, भाषमाणा भापका इतरेऽभाषकाः ॥ सम्प्रति । काय स्थितिमाह-'सभासए गं भंते' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनैकं समयं भाषाद्रव्यग्रहणसमय एव मरणतोऽन्यतो था कुतश्चित्कारणातत्यापारस्याप्युपरमान् , उत्कणान्तर्मुहूर्त, नावन्तं कालं निरन्तरं भाषाद्रव्यग्रहणनिसर्गसम्भवात् , तत उद्ध जीवस्वाभाव्यान्नियमत एवोपरमति ।। अभाषकप्रभसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! अभावको द्विविधः प्रज्ञप्रस्तद्यथा-सादिको वाडपर्यवसित: सिद्धः, सादिको वा सपर्यवसितः स च पृथिव्यादिः, तत्र योऽसौ सादिः सपर्यवसितः स जघन्येनान्तर्मुहूर्त, भाषणादु- परम्यान्तर्मुहसेन कस्यापि भूयोऽपि भाषणप्रवृत्तेः, पृथिव्यादिभवन्य वा जपन्यत एतावन्मात्रकालवान् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, ४४३ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~4344 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४८] स चानन्ता उत्सपिण्यवसपिण्यः कालत: क्षेत्रतोऽनन्ता लोका असोया: पुद्गलपरावर्ताः से च पुलपरावा आवलिकाया अस-1 येयो भागः, एतावन्तं कालं वनस्पतिष्वभाषकल्लान् । साम्प्रतमन्तरं चिचिन्तयिपुराह-भासगस्स णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रंट सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहर्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः, अभाषककालस्य भापकान्तरत्वात् । अभाषकसूत्रे साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् , सादिसपर्यवसितस्य जघन्येनैक समयमुस्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, भाषककालस्याभाषकान्तरत्वात् । तस्य |च जघन्यत उत्कर्पतश्चैतावन्मात्रत्वात् , अल्पबटुल सूत्रं प्रतीतम् || 'अहवेत्यादि, सशरीरा:-असिद्धा अशरीरा:-सिद्धाः, तत्त: सर्वाण्यपि सशरीराशरीरसूत्राणि सिद्धासिद्धसूत्राणीय भावनीयानि ।। अहवा दुविहा सचजीवा पण्णत्ता, तंजहा-चरिमा चेव अचरिमा चेव ॥ चरिमे णं भंते ! चरिमेत्ति कालतो केवचिरं होति ?, गोयमा! चरिम अणादीए सपजवसिए, अचरिमे दुबिहे-अणातीए वा अपजवसिए सातीए अपज्जवसिते, दोपहंपि णस्थि अंतरं, अप्पायहुं सब्बत्थोवा अचरिमा चरिमा अणंतगुणा । [अहवा दुविहा सबजीवा सागारोवउत्ता य अणागारोवउत्ता य, दोहंपि संचिट्टणावि अंतरंपि जह० अंतो० उ० अंतो०, अप्पाबहु० सव्वस्थोवा अणागारो वउत्ता सागारोवउत्ता असंखेजगुणा] सेत्तं दुविहा सव्यजीवा पन्नत्ता] ॥ (सू० २४९) 'अहवे'त्यादि, चरमा:-चरमभववन्तो भव्यविशेषा ये सेत्स्यन्ति, तद्विपरीता अचरमा:-अभव्याः सिद्धाश्च । कायस्थितिसूत्रे चरमोऽनादिसपर्यवसितोऽन्यथा चरमत्वायोगात् । अचरमसूत्रेऽचरमो द्विविधः प्रज्ञप्रस्तद्यथा-अनादिको वाऽपर्यवसितः साविको वाऽ-1 Mikkkkx SkARRORSCRRok दीप अनुक्रम [३७३] ~435 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [१], ------------------- मूलं [२४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४९] दीप श्रीजीया पर्यवसितः, तत्रानाद्यपर्यवसितोऽभव्यः सायपर्वकसितः सिद्धः ॥ साम्प्रतमन्तरमाह-'परिमस्स गं भंते !' इत्यादि प्रभसूत्रं सुगम, ९प्रतिपत्ती जीवाभि | भगवानाह-गौतम! अनादिकख सपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं, चरमवापगमे सति पुनश्चरमवायोगात्, अचरमस्याप्यनाथपर्यवसितस्य सर्वजीव मलयगि-18 साद्यपर्यवसितस्य वा नास्त्यन्दरं अविद्यमानचरमत्वात् । अल्पबहुवे सर्वस्तोका अचरमाः, अभव्यानां सिद्धानामेव चाचरमत्त्वात् , 16 चरमेतर० रीयावृत्तिः चरमा अनन्तगुणाः, सामान्यभन्यापेक्षमेतत् , अन्यथाऽनन्तगुणत्वायोगान, आह च मूलटीकाकार:-"चरमा अनन्तगुणाः, सम्यग्दसामान्यभल्यापेक्षमेतदिति भावनीय, दुर्लक्ष्यः सूत्राणां विषयविभागः" इति । सम्प्रत्युपसंहारमाह-'सेतं दुविहा' ते एते द्विविधाः | ॥४४४॥ सर्वजीवाः, अत्र कचिद्विविधवकव्यतासह निगाथा--"सिद्धसईदियकाए जोए वेए कसायलेसा य । नाणुवओगाहारा भाससरीरी|| टयादि य चरमो य ॥ १॥" सम्प्रति त्रिविधवक्तव्यतामाह उद्देशः २ तस्थ णं जे ते एबमाहंसु तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एबमासु, तंजहा-सम्मदिट्ठी मिपछादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्टी। सम्मदिट्ठीणं भंते! कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! सम्मदिट्टी दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सातीए वा अपनवसिए साइए वा सपजयसिए, तत्थ जे ते सातीए सपजवसिते से जहा अंतो० उक० छावहि सागरोवमाइं सातिरेगाई, मिच्छादिट्ठी तिविहे साइए वा सपजवसिए अणातीए वा अपजवसिते अणातीए वा सपञ्जवसिते, तस्थ जे ते सातीए सपजपसिए से जह• अंतो. उक० अणतं कालं जाव अवडं पोग्गलपरियई देसूर्ण ॥४४४॥ सम्मामिच्छादिट्ठी जह० अंतोजक अंतोमुहुत्तं ॥ सम्मदिहिस्स अंतरं साइयस्स अपज्जब ४ासू०२४८ २४९ अनुक्रम [३७४] XECRUAGE अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रित अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: १-द्विविधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: २-(त्रिविधा] आरब्धा: ~4364 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [२], ------------------- मूलं [२५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [२५०] - सियस्स नत्थि अंतरं, सातीयस्स सपज्जवसियस जड अंतो० उको अणंतं कालं जाव अवहुं पोग्गलपरियई, मिच्छादिहिस्स अणाढीयस्स अपजवलियस्स णस्थि अंतरं, अणातीयस्स सपज्जवसियस्स नस्थि अंतरं, साइ यस्म सपजवमियरस जह० अंतो० उको छावहि सागरोवमाई सातिरेगाई, सम्मानिच्छादिहिस्स जह अंतो० उक्को० अणंतं कालं जाव अबह पोग्गलपरियह देसूर्ण । अप्पाबहरु सच्चस्थोवा सम्मामिच्छाविट्ठी सम्मदिही अणंतगुणा मिच्छादिट्टी अणंतगुणा ।। (मू०२५०) 'तत्थ ण जे ते' इत्यादि, शन ये एवमुक्तवन्तस्विविधाः सर्वजीचा: प्रज्ञापाले पत्रमुक्तयन्तस्तव्यथा-सम्बाहटयो निण्यादृष्टयः। सम्यग्मिध्यादृष्टयश्च, अमीपां शब्दार्थभावना प्राग्यन् ।। सम्प्रति कायस्थितिमाह-'सम्मदिट्टी णं भंते!' इत्यादि प्रशानूनं सुगम, भगवानाह-गौतम ! सम्यग्दृष्टिविविधः प्राप्तस्तद्यथा-सादिको वाऽपर्ववसित: भाविकसम्याष्टिः, सादिको वा सपर्यवसितः भायो- II पशमिकादिसम्यग्दर्शनी, सन योऽसौ मादिसपर्यवसितः स जमन्येनान्तर्मुटून, कर्मपरिणामस्य विचित्रत्वेनैतावतः कालाद्ध पुन-11 मिथ्यात्वगमनान् , उत्कर्षत: पट्पष्टिः सागरोपमाणि, नत क नियमतः प्रायोपशामिकसम्यग्दर्शनापगमान् । मिथ्याष्ट्रिय भास्त्र सुगर्ग, भगवानाह-गौतम ! मिथ्याधिविविधः प्रजातन्नदाथा-अनायपर्यवसितः अनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसिनश्य, तत्र यो-11 | ऽसौ सादिसपर्यवसितः स जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तावता कालेन पुनः कस्यापि सम्यग्दर्शनलाभान , उत्कपतोऽनन्तं कालं, अनन्ता उत्मपिण्य वसपिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽपा पुगलपरावत देशोनं, पूर्वप्रतिपत्र सम्यक्त्वस्यैतावत: कालादूई पुनरवश्यं सम्यादर्शनलाभान्, - दीप अनुक्रम [३७५] -- - - जी० ७५ ~437 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [२], ------------------- मूलं [२५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५०] दीप अनुक्रम [३७५] श्रीजीवा- पूर्वसम्यक्त्वप्रभावेन संसारस्य परित्तीकरणात् । सम्यग्मिध्याष्टिसूत्रे जचन्यतोऽप्यन्त मुहत्तमुत्कर्पतोऽप्यन्तर्मुहुर्त, सम्यग्मिध्यादर्शन- प्रतिपत्र जीवाभिनकालन्य स्वभावत एवैतावन्मात्रखात् , नवरं जघन्यपदाटुकृष्टपदमधिकमबसातव्यम् ।। साम्प्रतमन्तरमाह-सम्मदिद्विस्स णं भंते सर्वजीव मलयगि- इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगर्म, भगवानाह-गौतम! सारापर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् , सादिसपर्यवसितमा जघन्येनान्तर्मुहूर्त, चरमेतर० रीयावृत्तिः सम्यक्त्वात् प्रतिपत्यान्तर्मुहून भूयः कस्यापि सम्यक्त्वप्रतिपत्तेः, उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावदपा पुलपरावर्तम् । मिथ्यादृष्टिसूत्रे- सम्यग्द उनाद्यपर्यवसितस्य नास्वन्तरमपरित्यागात् , अनादिसपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरं, अन्यथाऽनादिलायोगान् , सादिसपर्यवसितस्य ज-शयादि ॥४४५॥ धन्येनान्तर्मुहुर्तमुत्कर्पतः पट्पष्ठिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, सम्यग्दर्शनकाल एव हि मिन्यादर्शनम्प प्रायोऽन्तरं, सम्यग्दर्शन-8 उद्देशः२ कालच जघन्यत उत्कर्षतश्चैताबानिति । सम्यग्मिध्यादृष्टिसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुदत्त, सम्यग्मिध्यादर्शनात् प्रतिपलान्तर्मुहू तेन भूवः सू०२५० कस्यापि सम्यग्मिध्यादर्शनभानान , उत्कर्षतोऽनन्त कालं यावदपार्द्ध पुद्गलपरावर्त देशोनं, यदि सम्यग्मिन्यादर्शनान प्रतिपतितस्य भूयः २५१ सम्यग्मिध्यादर्शनलाभलत एतावता कालेन नियमेन अन्यथा तु मुक्तिः । अल्पबहुल्यचिन्तायां सर्वतो का: सम्बग्मियादृष्टयः, तत्परिहै गामस्य लोककालतया पृच्छासमये तेषां स्तोकानामघाप्यमानखान, सम्यग्दृष्टयोऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तखान, तेभ्यो मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः, वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् तेषां च मियादृष्टिवान् ।। अहवा तिविहा सध्यजीवा पण्णसा-परित्ता अपरित्ता नोपरित्तानोअपरिसा । परिसे गं भंते ! कालतो केवचिरं होति?, परित्ते दुविहे पण्णत्ते-कायपरिरो य संमारपरिसे च । कायपरित्ते णं भंते, जह अंतोनु उक्को असंवेनं कालं जाव असंवेझा लोगा । संसारपरित्ते पण ॥४४५॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~438~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [२], ------------------- मूलं [२५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: -- प्रत सूत्रांक ute [२५१] भंते ! संसारपरित्तेत्ति कालओ केवचिरं होति?, जह अंतो० उक्को अर्णतं कालं जाव अवह पोग्गलपरियह देसूर्ण । अपरित्ते णं भंते !०, अपरित्ते दुविहे पणत्ते, कायअपरित्ते य संसारअपरित्ते य, कायअपरिसे णं जह० अंतो० उक्को० अणतं कालं, वणस्सतिकालो, संसारापरित्ते दविहे पण्णते-अणादीए या अपजयसिते अणादीए वा सपजवसिते. णोपरित्तेणोअपरित्ते सातीए अपज्जवसिते । कायपरिसस्म जहा अंतरं अंतो० उको० वणस्सतिकालो, संसारपरितस्स णस्थि अंतरं, कायापरित्तस्स जह० अंतो 'उको० असंखिनं कालं पुढविकालो । संसारापरित्तस्स अणाइयस्स अपजवसियस्स नस्थि अंतरं, अणाइयस् सपजवसियरस नस्थि अंतरं, णोपरीत्तनोअपरिसस्सवि णस्थि अंतरं । अप्पाबह सव्यस्थोवा परित्ता णोपरिसानोअप. रित्ता अनंतगुणा अपरित्ता अनंतगुणा (म०२५१) ___ 'अहवे'त्यादि, अथवा सर्वजीवास्विविधाः प्रशनालयथा-परीक्षा अपरीता नोपरित्तानोअपरीतः ।। सम्बति कायस्थितिचिन्ता-13 परीत्तविषयं प्रश्नसूत्रं सुगम, भगबानाह-गौतम! परीतो द्विविध: प्रज्ञमस्तद्यथा-कायपरीत्त: संसारपरीतञ्च, कायपरीत्तो नाम प्रत्येकसरीरी, संसारपरीतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्तान्त:संसारः, तत्र कायपरीतविपयं प्रभसून सुगमं, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मु-11 हूर्त, स च साधारणेभ्यः परीसेवन्तर्मुहूर्त खित्वा पुनः साधारणेपु गच्छतो वेदितव्यः, उत्कर्षतोऽसहयेयं कालं, असशपया उत्स-1 प्पिण्यवसप्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसयेया लोकाः, तथा चाह-पृथिवीकाल:, किमुक्त भवति -पृथिव्यादिप्रत्येकशरीरकालः, तत दीप अनुक्रम [३७६] -20* k Fo-2 ~439~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [२], ------------------- मूलं [२५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५१] दीप श्रीजीया- ऊर्द्ध नियमतः संसारिणः साधारणभावान् ।। संसारपरीत्तविपर्व प्रश्नसूत्रं पाठसिद्ध, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहर्त, ताव- प्रतिपत्ती जीवाभिOMता कालेगान्तकृत्केवलखेन सिद्धिगमनान , उत्कणानन्त काल, अनन्ता उत्सर्जिण्यवसस्पिण्यः कालतः, क्षेत्रनो देशोनमपाई पुतलपरा- सर्वजीव मलयांग-गवते यावन् , तत कई नियमतः सिद्धिगमनाइ, अन्यथा संसारपरीत्तत्वायोगात् ।। 'अपरीत्ते णं भंते ! इत्यादि प्रभसूत्रं सुगनं, त्रैविध्ये रायावृत्तिभगवानाह-गौतम! अपरीतो द्विविधः प्रमखयथा-कायापरीत: संसारापरीतश्र, कायापरीतः साधारणः, संसारापरीत्त:-कृष्ण-IMपरित्तादि ॥४४६11 पाक्षिकः, तत्र कायापरीत्तविपर्य प्रश्नसूत्र मुगर्म, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहस, तत कई कस्यापि प्रत्येकशरीरेषु गमनान उद्देशः२ उत्कर्पतोऽनन्त कालं, स च वनस्पतिकालः, अनन्ता उत्सपिण्यासप्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽनन्दा लोका असझयेयाः पुद्गलपरावत्ता: ०२५१ ते च पुद्गलपरावर्ता आवलिकाया असहयो भागः । संसारापरीत्तप्रश्नसूत्रं प्रतीतं, अगवानाह-गौतम! संसारापरीचो द्विविधः प्रज्ञप्तस्तथधा-अनादिकोऽपर्यवसितो, वो न जातुचिदपि सिद्धि गन्ता, अनादिको वा सपर्यवसितो भव्यविशेषः । नोपरीत्तनोअप-12 रीतविषयं प्रभसूत्रं प्रतीतं, नोपरीत्तनोअपरीत्तो दि सिद्धः, स च साचपर्यवसित एवं प्रतिपाताभावान् ॥ साम्प्रतमन्तरमाहN'कायापरीत्तस्स णमित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्त, साधारणेचन्तहत स्थित्वा भूयः प्रत्येकशरी रेवागमनात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, स चानन्तः कालः प्रागुक्तस्वरूपो वनस्पतिकालः, तावन्तं कालं साधारणेष्ववस्थानात् ।। संसारपरीत्तविषयं प्रभसूत्र मुगम, भगवानाह-गौतम! नास्त्यन्तरं, संसारपरीतत्वापगमे पुनः संसारपरीतवाभावात् , मुक्तस्य प्रतिपातासम्भवात् । कायापरीतसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, प्रत्येकशरीरेष्वन्तर्मुहू स्थित्वा भूयः कायापरीत्तेपु कस्याप्यागमनसम्भवात् , 'उत्क-131॥४४६।। पतोऽसयेयं कालं यावद, असहये या उत्सर्जिण्यवसपिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसङ्ख्यया लोकाः, पुथिज्यादिप्रत्येकशरीरभयभ्रमणकाल % अनुक्रम [३७६] ८२-M. X अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~440 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२५१] दीप अनुक्रम [३७६ ] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------ प्रति。प्रति० [२], - मूलं [२५१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः स्योत्कर्षतोऽप्येतावन्मात्रात्, तथा चाह- पृथिवीकालः पृथिव्यादिप्रत्येकशरीरकाल इत्यर्थः । संसारापरीत्तसूत्रेऽनाद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात्, अनादिसपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं संसारापरीतलापगमे पुनः संसारापरीतत्वस्यासम्भवात् नोपरीतनोअपरीतस्यापि सायपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः परीताः, कायपरीतानां संसारपरीत्तानां चाल्पत्वात् नोपरीत्तानो अपरीत्ता अनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तलात्, अपरीता अनन्तगुणाः, कृष्णपाक्षिकाणामतिप्रभूतत्वात् ॥ अहवा तिविहा सव्यजीवा पं० तं०-पजत्तगा अपजसगा नोपजत्तगानोअपज्जतगा, पज्जत्तके णं भंते 10, जह० अंतो० उक्को० सागरोवमसतपुहुतं साइरेगं । अपजन्तगे णं भंते!, जह० अंतो० उक्को० अंतो० नोपज्जत्तणोअपलत्तए सातीए अपजवसिते । पज्जत्तगस्स अंतरं जह० अंतो० उक्को० अंतो०, अपजत्तगस्स जह० अंतो० उक्को० सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं तइयरस णत्थि अंतरं । अप्पाबहु० सव्वत्थोवा नोपात्तगनोअपजत्तगा अपजत्तगा अनंतगुणा पजत्तगा संखिजगुणा (सू० २५२) 'अवेयादि, अथवा प्रकारान्तरेण सर्वजीवास्त्रिविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा पर्याप्तका अपर्याप्तका नोपर्यातकानोअपर्याप्तकाञ्च तत्र पर्याप्तककायस्थितिचिन्तायां जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त, अपर्याप्रकेभ्यः पर्याप्तेस्यान्तर्मुहूर्त्तत्परतोऽपर्याप्तकेषु भूयोऽपि गमनात् उत्कर्षतः सागरोपमश पृथक्त्वं सातिरेकं तत ऊर्द्ध नियमतोऽपर्यातकभावात्, लध्यपेक्षं चेदं सूत्रं तेनावान्तराले उपपातापर्यातकलेऽपि न कश्चिद्दोषः । अपर्याप्तकसूत्रे जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्त, अपर्याप्तलब्धेर्जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावन्मात्रकालखातू, नवरं For P&Pealise Cinly ~441~ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [२], ------------------- मूलं [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५२] दीप अनुक्रम [३७७] श्रीजीवा- जघन्यपदादुत्कृष्टपदमधिकमवसातव्यं, अन्यथोभयपदोपन्यासायोगास् , उभयप्रतिषेधवर्ती सिद्धः, स च सायपर्यवसितः । अन्तर-13९ प्रतिपत्ती जीवाभि चिन्तायां पर्याप्तकस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्तमन्तरं, अपर्याप्तकाल एव हि पर्याप्तकस्यान्तरं, अपर्याप्तककालश्च जघन्यत उत्कर्ष- सर्वजीव मलयगि- तश्चान्तर्मुहूर्त, अपर्याप्तकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षत: सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेक, पर्याप्तककालस्य जघन्यत उत्कर्यंतश्चैताव- त्रैविध्ये रीयावृत्तिः प्रमाणवात् , नोपर्याप्तनोअपर्याप्तकस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् ।। अल्पबहुखचिन्तायां सर्वस्तोका नोपर्याप्तकनोअपर्याप्तकाः, सि-18 पर्याप्तत्वा विद्वानां शेषजीवापेक्षयाऽल्पलात्, अपर्याप्तका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामपर्याप्तानामनन्तानन्तानां सदा लभ्यमानत्वात् , तेभ्यः प. दि सुक्ष्म॥४४७॥ याप्रका: सायेयगुणाः, सूक्ष्मेष्वोचतोऽपर्याप्तकेभ्यः पर्याप्तकानां सङ्ख्येय गुणतयाऽवाप्यमानत्वात् ।। त्वादि अहवा तिविहा सव्वजीवा पं० सं०-सुहुमा बायरा नोसुहमानोबायरा, सुहुमे णं भंते! सु- उद्देशः२ हमेति कालओ केवचिरं०१, जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसे असंखिज कालं पुढविकालो, वा सू०२५२यरा जह• अंतो० उक्को० असंखिजं कालं असंखिजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ खेतओ अंगुलस्स असंखिजहभागो, नोमुहुमनोवायरए साइए अपजवसिए, सुहुमस्स अंतरं वायरकालो, बायरस्स अंतरं सुहमकालो, तइयस्स नोमुहुमणोवायरस्स अंतरं नस्थि । अप्पाबहु० सम्वत्थोवा मोसुहमानोवायरा बायरा अणंतगुणा सुहमा असंखेजगुणा ॥ || ४४७॥ 'अहवे'त्यादि, अथवा प्रकारान्तरेण सर्वजीवास्त्रिविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-सूक्ष्मा बादरा: नोसूक्ष्मानोबादराः । कायस्थितिचिन्तायांत २५३ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~442 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [२], ------------------- मूलं [२५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ACOCACANCE प्रत सूत्रांक [२५३] सुक्ष्मस्य जघन्यतोऽन्तर्महरी, तत कई भूयोऽपि बादरेषु कस्याप्यागमनात् , उत्कर्षतोऽसत्येयं कालं, असठया उत्सपिण्यवसपिण्यः । कालत: क्षेत्रतोऽसवयेया लोकाः, बादरस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तदनन्तरं कस्यचिद् भूयोऽपि सूक्ष्भेषु गमनात् , उत्कर्पतोऽसयेयं । कालं, असङ्खये या उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽङ्गुलस्यासक्येयो भागः, एतावतः कालादूई नियोगक्षः संसारिणः सूक्ष्मेषु गमनात् , उभयप्रतिषेधवर्ती सिद्धः स च सायपर्यबसितः ॥ अन्तरचिन्तायां सूक्ष्मस्यान्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त उत्कर्षतोऽसहोयं । कालमसङ्खयेया उत्सपिण्यवसपिण्यः कालत: क्षेत्रतोऽङ्गुलस्यासोयो भागः, बादरकालस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावत्प्रमाणत्वात् । बादरस्यान्तरं जघन्येनान्तर्मुहू उत्कर्षतोऽसयेयं कालं, असक्वेया उत्सपिण्यवसपिण्यः कालत: क्षेत्रतोऽसङ्ख्यया लोकाः, सूक्ष्मस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावत्कालप्रमाणत्वात् , नोसूक्ष्मनोबादरस्य साद्यपर्यवसितस्य, हेतौ षष्ठी, 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां । प्रायो दर्शन मिति न्यायात् , ततोऽयमर्थ:-साद्यपर्यवसितत्वान्नास्त्यन्तरमन्यथाऽपर्यवसितखायोगात् । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका | नोसूक्ष्मानोवादराः, सिद्धानामरूपत्वात् , तेभ्यो बादरा अनन्तगुणाः, वादरनिगोदजीवानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् , तेभ्यः सूक्ष्मा । असज्ञापेयगुणाः, वादरनिगोदेभ्यः सूक्ष्मनिगोदानामसच्यातगुणत्वात् ॥ अहवा तिविहा सव्वजीव्वा पण्णता, तंजहा-सण्णी असण्णी नोसपणीनोअसण्णी, सन्नी भंते! कालओ०१, जह. अंतो० उक्को सागरोवमसतपुहत्तं सातिरेगं, असपणी जह. अंतो० उको० वणस्सतिकालो, मोसपणीनोअसण्णी साइए अपजवसिते। सपिणस्स अंतरं जह• अंतो० उको वणस्सतिकालो, असपिणस्स अंतरं जह० अंतो० उक्को सागरोक्मसयपुहुत्तं सातिरेगं, दीप अनुक्रम [३७८] RASACRE ~443~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [२], ------------------- मूलं [२५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५४] श्रीजीवाततियस्स णस्थि अंतरं । अप्पाबह सव्यस्थोवा सपणी नोसन्नीनोअसण्णी अर्णतगुणा असणी प्रतिपत्ती जीवामिल अणंतगुणा ॥ (सू०२५४) | सर्वजीव मलयगि 'अहवा तिविहा' इत्यादि, अधवा' प्रकारान्तरेण त्रिप्रकाराः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-सब्जिनोऽसजिनो नोसज्जिलनोऽस- त्रैविध्ये रीयावृत्तिः ब्जिनश्न, तत्र सब्जिन:-समनस्का: असब्जिन:-अमनस्का: उभयप्रतिषेधवर्तिनः सिद्धाः । कायस्थितिचिन्तायां सब्जिनो जघन्येना- संज्ञित्वादि ॥४४८॥ |न्तर्मुहूर्त, तत ऊ भूयोऽपि कस्यचिद् सब्जिषु गमनात् , उत्कर्पतः सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेक, तत कईमवश्यं संसारिणः सतोs-1टा देशा सन्हिपु गमनात् , असब्जिनो जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्त, तत कई कस्यापि पुनरपि सब्जिपु गमनात् , पत्कर्षतोऽनन्त कालं, स चा-II सू० २५४ नन्तः काली पनस्पतिकालः, स चैवं-अनन्ता उत्सर्पिण्यवसपिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽनन्ता लोकाः, असाहयेयाः पुगलपरावताः, ते च81 | पुद्गलपरावतों आवलिकाया असहयो भागः, उभयप्रतिषेधवती सिद्धः, स च साद्यपर्यवसितः । अन्तरचिन्तायां सब्जिनोऽन्तरं | जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त उत्कर्षतोऽनन्त कालं, स चानन्तकालो वनस्पतिकालः, असम्झिकालय जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावत्प्रमाण खात् , अ-| सब्जिानोऽन्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः सागरोपमशतपथक्वं, सब्ज्ञिकालस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावत्प्रमाणखात्, नोसब्जिनोनोअसम्झिनः सायपर्यवसित्तस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः सब्जिनो, देवनारकगर्भग्युत्क्रान्तिकतियग्मनुष्याणामेव सब्जियात्, तेभ्य उभयप्रतिषेधवर्तिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतिवर्जशेषजीवेभ्य: सिद्धानामनन्तगुणत्वात् , तेभ्योऽसंज्ञिनोऽनन्तगुणाः वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणवात् ।। 6.1॥४४८॥ अहवा तिविहा सधजीवा पण्णसा, तंजहा-भवसिद्धिया अभवसिद्धिया नोभवसिद्धिया OMSACANCE दीप अनुक्रम [३७९] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~4444 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [२], ------------------- मूलं [२५५-२५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५५२५६] नोअभवसिद्धिया, अणाइया सपजवसिया भवसिद्धिया, अणाया अपज्जवसिया अभवसिद्रिया, साई अपजवसिया नोभवसिद्धियानोअभवसिदिया। तिण्हपि नस्थि अंतरं । अप्पाबहु० सध्यस्थोवा अभवसिद्धिया गोभवसिद्धीयानोअभवसिद्दीया अनंतगुणा भवसिद्धिया अणंतगुणा। (सू० २५५) अहवा तिविहा सब्ब० तंजहा तसा थाघरा नोतसानोधावरा, तसस्स गं भंते ! कालओ०१, जह अंतो० उक्को दो सागरोवमसहस्साई साइरेगाई, थावरस्स संचिट्ठणा वणस्सतिकालो, णोतसानोधावरा साती अपजबसिया । तसस्स अंतरं वणस्सतिकालो, थावरस्स अंतरं दो सागरोवमसहस्साई साइरेगाई, णोतसथावरस्स णस्थि अंतरं । अप्पाबहु० सव्वस्थोवा तसा नोतसानोधावरा अणंतगुणा थावरा अणंतगुणा । से तं तिविधा सम्बजीवा पण्णत्ता (सू० २५६) 'अहवे'त्यादि, अथवा-प्रकारान्तरेण त्रिविधाः सर्वजीवाः प्रशतास्तद्यथा-'भवसिद्धिकाः' भवे सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिका | भव्या इत्यर्थः, अभवसिद्धिका-अभव्याः, नोभवसिद्धिकानोअभवसिद्धिकाः सिद्धाः, सिद्धानां संसारातीततया भवसिद्धिकलाभवसिद्धिकत्यविशेषणरहितत्वात् । कायस्थितिचिन्तार्या भवसिद्धिकोऽनादिसपर्यवसितोऽन्यथा भवसिद्धिकखाबोगात् , अभवसिद्धिकोऽनाथपर्यवसितः, अभवसिद्धिकरखादेवान्यथा तद्भावायोगान, नोभवसिद्धिकोनोअभवसिद्धिक: सायपर्यवसितः, सिद्धस्य संसारक्षया-1 |स्त्रादुर्भूतस्य प्रतिपातासम्भवात् । अन्तरचिन्तायां भवसिद्धिकस्यानादिसपर्ववसितस्य नास्त्यन्तरं, भवसिद्धिकलापगमे पुनर्भवसिद्धिकला दीप अनुक्रम [३८० -३८१] JaEcA ~445 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [२], ------------------- मूलं [२५५-२५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत मौजीवाजीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक [२५५२५६] ४४९॥ योगात् , अभवसिद्धिकस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसिततया सदा तद्भावापरित्यागात् , नोभवसिद्धिकनोभभवसिद्धिकस्यापि साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्ववसितत्वात् । अल्पबहु त्यचिन्तायां सर्वस्तोका अभवसिद्धिकाः, अभव्यानां जघन्ययुक्तानन्तकतुल्यत्वात् , नोभवसि- |द्धिकानोअभवसिद्धिका अनन्तगुणाः, सिद्धानामभव्येभ्योऽनन्तगुणत्वात् , तेभ्यो भवसिद्धिका अनन्तगुणा:, भव्यराशेः सिद्धेभ्यो- ऽप्यमन्तगुणत्वात् । उपसंहारमाह-'सेत्तं तिविहा सव्वजीवा पन्नत्ता' ।। तदेवं त्रिविधसर्वजीवप्रतिपत्तिरुक्ता, सम्प्रति चतुर्विध- सर्वजीवप्रतिपत्तिमभिधित्सुराह तत्थ जे ते एवमाहंसु-चउब्विहा सब्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंमत-मणजोगी वइजोगी कायजोगी अजोगी। मणजोगी णं भंते! जह० एकं समयं उक्को० अंतोमु०, एवं वइजोगीवि, कायजोगी जह० अंतो० उक्को० वणस्सतिकालो, अजोगी सातीए अपज्जवसिए । मणजोगिस्स अंतरं जहणणं अंतोमुत्तं उदो० वणस्सइकालो, एवं वइजोगिस्सवि, कायजोगिस्स जह एक समयं उन्को अंतो०, अयोगिस्स णस्थि अंतरं । अप्पाबहु० सव्वत्थोवा मणजोगी वहजोगी ___ संखिजगुणा अजोगा अणंतगुणा कायजोगी अणंतगुणा ॥ (सू०२५७) 'तत्थ जे ते एव'मित्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तश्चतुर्विधाः सर्वजीवा: प्रज्ञप्तास्त एवमुक्तवन्तस्तयथा-मनोयोगिनो वाग्योगिनः काययोगिनोऽयोगिनश्चेति, तत्र काय स्थितिचिन्तायां मनोयोगी जघन्यत एक समय, विशिष्टमनोयोग्यपुरलग्रहणापेक्षमेतत्सूत्रं, ततो द्वितीये समये मरणेनोपरमतो भाषकवदेकसमयता प्रतिपत्तव्या, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, तथा च जीवस्वभावतया नियनत उपरमात् ९ प्रतिपत्ती सर्वजीव त्रैविध्ये भव्यत्वादिवसादि | मनोयो| गादि | उद्देशः२ सू०२५५२५७ दीप अनुक्रम [३८०-३८१] ॥४४९॥ Jnts अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: २-(त्रिविधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ३-चतुर्विधा] आरब्धा: ~446~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [३], ------------------- मूलं [२५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५७] दीप अनुक्रम [३८२] भाषकवत, मनोयोगरहितवाग्योगवानेव वाग्योगी द्वीन्द्रियादिः, जघन्यत एक समयमुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, एतदपि सूत्र विशिष्टबागद्रव्यग्रहणापेक्षमवसातव्यं, काययोगी वाग्योगमनोयोगविकल एकेन्द्रियादिः, जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, द्वीन्द्रियादिभ्य उद्धृत्य पृथिव्यादिष्वन्तर्मुहूर्त स्थित्वा भूयः कस्यापि द्वीन्द्रियादिषु गमनात्, उत्कर्षतः प्रागुक्तस्वरूपो वनस्पतिकालः, अयोगी सिद्धः, स च साापर्यघ-12 सितः । अन्तरचिन्तायां मनोयोगिनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तत ऊ भूयो विशिष्टमनोयोग्यपुद्गलपहणसम्भवात् , उत्कर्पतो वन| पतिकालः, तावन्तं कालं स्थित्वा भूयो मनोयोगिष्वागमनसम्भवात् , एवं वाग्योगिनोऽपि जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तरं भावनीय, औदा-1 रिककाययोगिनो जघन्यत एक समय, औदारिकलक्षणं कायमपेक्ष्यैतत्सूत्र, यतो द्विसामायिक्यामपान्तरालगतावेकः समयोऽन्तरं, | उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, इदं हि सूत्रं परिपूर्णीदारिकशरीरपर्याप्तिपरिसमाप्त्यपेक्षं, तन्न विग्रहसमयादारभ्य यावदौदारिकशरीरपर्याप्तिपरिसमाप्तिस्तावदन्तर्मुहूर्त, तत उक्तमुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, न चैतत्स्वमनीषिकाविजृम्भितं, यत्त आह चूर्णिकृत्-'कम्यजोगिस्स जहर एकं समयं, कहं ?, एकसामायिकविग्रहगतस्य, उकोसं अंतरं अंतोमुहुत्तं, विग्रहसमयादारभ्य औदारिकशरीरपर्याप्तकस्य यावदेवमन्तमुहूर्त द्रष्टव्य"मिति, सूत्राणि ह्यमूनि विचित्राभिप्रायतया दुर्लक्ष्याणीति सम्यक्संप्रदायादवसातव्यानि, सम्प्रदायश्च यथोक्तस्वरूप इति न काचिदनुपपत्तिः, न च सूत्राभिप्रायमज्ञात्वा अनुपपत्तिरुद्भावनीया, महाशातनायोगतो महाऽनर्थप्रसक्तेः, सूत्रकृतो हि भगवन्दो महीयांस:: प्रमाणीकृताश्च महीयस्तरैस्तत्कालवर्तिभिरन्यैर्विद्वद्भिस्ततो न तत्सूत्रेयु मनागप्यनुपपतिः, केवलं सम्प्रदायावसाये | यत्रो विधेयः, ये तु सूत्राभिप्रायमज्ञात्वा यथा कथञ्चिदनुपपत्तिमुद्भावयन्ते ते महतो महीयस आशातयन्तीति दीर्घतरसंसारभाजः, है आह च टीकाकार:-"एवं विचित्राणि सूत्राणि सम्बक्संप्रदायादवसेयानीत्यविज्ञाय तदभिप्रायं नानुपपत्तिचोदना कार्या, महाशा ~447 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [३], ------------------- मूलं [२५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५७] दीप अनुक्रम [३८२] श्रीजीवा- तनायोगतो महाऽनर्थप्रसादिति” एवं च ये सम्प्रति दुष्षमानुभावतः प्रवचनस्योपप्लवाय धूमकेतव इवोत्थिताः सकलकालसुकरा- प्रतिपत्ती व्यवच्छिन्नसुविधिमार्गानुष्ठातृसुविहितसाधुषु मत्सरिणस्तेऽपि वृद्धपरम्परायातसम्प्रदायादवसेयं सूत्राभिप्रायमपास्योत्सूत्रं प्ररूपयन्तो सर्वजीव मलयनि- 18 महाशातनाभाजः प्रतिपत्तव्या अपकर्णयितव्याश्च दूरतस्तत्त्ववेदिभिरिति कृतं प्रसङ्गेन । सम्प्रत्यल्पबहुत्वमाह-'एएसि णमित्यादि|४| वैविध्ये रीयावृत्तिःप्रभसूत्रं सुगर्म, भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोका मनोयोगिनो, देवनारकगर्भजतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्याणामेव मनोयोगित्यात्, तेभ्यो दाखीवेदादि वाग्योगिनोऽसोयगुणाः, द्वित्रिचतुरसज्ञिपोन्द्रियाणां वाग्योगित्वात् , अयोगिनोऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तत्वात , तेभ्यः काय-II उद्देशा२ ॥४५॥ योगिनोऽनन्तगुणा: वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तस्यात् ।। सू० २५८ अहवा चउब्विहा सब्बजीवा पण्णत्ता, तंजहा-इत्थिवेयगा पुरिसवेयगा नपुंसगवेयगा अवे. यगा, इस्थिवेयगा णं भंते ! इत्थिवेदएत्ति कालतो केवचिरं होति?, गोयमा! (एगेण आएसेण०) पलियसयं दसुत्तरं अट्ठारस चोदस पलितपुहुत्तं, समओ जहणो, पुरिसवेवस्स जह० अंतो. उक्को सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं, नपुंसगवेदस्स जह० एकं समयं उक्को० अणंतं कालं वणस्सतिकालो । अवेयए दुविहे प०-सातीए वा अपजवसिते सातीए वा सपज्जवसिए से जह० एक स० उको० अंतोमु० । इत्थिवेदस्स अंतरं जह• अंतो० उक्को० वणस्सतिकालो, पुरि- HI||४५०॥ सवेदस्स जह० एगं समयं उक्को वणस्सइकालो, नपुंसगवेदस्स जह० अंतो० उको सागरोव Jatical अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रित ~448~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [३], ------------------- मूलं [२५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५८] दीप अनुक्रम [३८३] मसयपुष्टुत्तं सातिरेगं, अवेदगो जहा हेट्ठा । अप्पायहु० सम्वत्थोवा पुरिसवेदगा इस्थिवेदगा संखेजगुणा अवेदगा अणंतगुणा नपुंसगवेयगा अर्णतगुणा ॥ (सू०२५८) 'अइवे'त्यादि, 'अथवा' प्रकारान्तरेण चतुर्विधाः सर्वजीनाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-खीवेदकाः पुरुषवेदका नपुंसकवेदका अवेदकाः ।। कायस्थितिचिन्तायां स्त्रीबेदकस्य 'एगेणं आएसेणं जह० एगं समय मित्यादि पूर्व विविधप्रतिपत्तो प्रपश्चतो व्याख्यासमिति न भूयो व्याख्यायते, पुरुषवेदस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, स्त्रीवेदादिभ्य उद्धृत्य पुरुषवेदानामन्तर्मुहूर्व जीवित्वा भूयः स्त्रीवेदादिषु कस्यापि गमनात् । अथ यथा श्रीवेदस्य नपुंसकस्य वा उपशमश्रेणावुपशमे जाते तदनन्तरमेकं समयं तं वेदमनुभूय मृतस्यैकसमयता व्यावयेते तथा पुरुषवेदस्यापि जघन्यत एकसमयता कस्मान्न भवति ?, उच्यते, उपशमश्रेण्यन्तर्गतो मृतः सर्वोऽपि पुरुषवेदेधूत्पद्यते नान्यवेदेषु, तेन स्त्रीवेदस्य नपुंसकवेदस्य चोक्तप्रकारेण जघन्यत एकसमयता लभ्यते, न पुरुषवेदस्य, तस्य जन्मान्तरेऽपि सातत्येन गमनात्, ततो जघन्यं पुरुषवेदस्योपदर्शितेनैव प्रकारेणेत्यन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेकं, तच्च देवमनुष्यतिर्यग्भवभ्रमणेन वेदितव्यं, नपुंसकवेदो जघन्यत एक समय, स चैकः समय उपशमश्रेणी वेदोपशमानन्तरमेकं समय नपुंसकवेवमनुभूय मृतस्य परि| भावनीयो मरणानन्तरं पुरुषवेदेषुत्पादात्, उत्कर्षतो बनस्पतिकालः, स च प्रागनेकधा दर्शितः, अवेदको द्विविधः-साद्यपर्ववसितः क्षीणवेदः सादिसपर्यवसित उपशान्तवेदः, स च जघन्यत एक समयं, द्वितीये समये मरणतो देवगतौ पुरुषवेदसम्भवात् , उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त, तदनन्तरं मरणत: पुरुषवेदसक्रान्त्या प्रतिपाततो येन वेदेनोपशमश्रेणि प्रतिपन्नतवेदोदयापत्त्या सवेदकलान् । अन्तरचिन्तायां बीवेदस्यान्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहू, तमोपशान्तवेदे पुनरन्तर्मुहर्तेन वीवेदोदयापत्या, यदिवा स्त्रीभ्य उदृत्य पुरुषवेदेषु नपुं-1 जी०७६ R angam ~449~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [३], ------------------- मूलं [२५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवा- जीवाभि मलयगिरीयावृत्तिः सूत्रांक प्रतिपत्ती सर्वजीव चातुर्विध्ये चक्षुदेशनादि उद्देश२ सू०२५९ [२५८] ॥४५१॥ दीप सकवेदेषु वाऽन्तर्मुहूर्त जीविला पुनः स्त्रीलेनोत्पत्या भावनीयं, उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, पुरुषवेदस्यान्तरं जपन्यत एक समयं, पुरु- षस्य स्ववेदोपशमसमयानन्तरं मरणे पुरुषेष्वेवोत्पादात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, नपुंसकवेदस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तच बीवेदोक्त- प्रकारेण भावयितव्यं, उत्कर्षत: सागरोपमशतपृथक्लं सातिरेक, वत ऊर्ब नियमतः संसारिणः सतो नपुंसकोदोदवभावात् , अवे- दकस्य साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् , सादिसपर्यवसितस्य जघन्येनान्तर्मुहून कस्यापि श्रेणिसमारम्भात् , उत्कर्षतोड- नन्तं कालं, अनन्ता उत्सपिण्यवसापिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽपार्द्ध पुद्रलपराव देशोनं, तावत: कालादूई पूर्वप्रतिपन्नोपशमश्रेणिकस्य पुनः श्रेणिसमारम्भात् । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः पुरुषवेदकाः गतित्रयेऽप्यल्पलात्, खीवेदकाः स यगुणाः, तिर्यग्गतौ त्रि- गुणलात् (मनुष्यगतौ सप्तविंशतिगुणत्वात्) देवगतौ द्वात्रिंशद्गुणत्वात् , अवेदका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , नपुंसकवेदका अनन्तगुणाः, वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् ।। अहया चउब्विहा सव्वजीवा पपणत्ता, तंजहा-चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी अवधिदसणी केवलिदसणी ॥ चक्खुदंसणी णं भंते!०१. जह० अंतो० उको सागरोवमसहस्सं सातिरेगं, अचखुर्दसणी दुविहे पपणसे-अणातीए वा अपज्जवसिए अणाइए वा सपज्जवसिए । ओहिदसणिस्स जह० इकं समयं उक्को दो छावट्ठी सागरोवमाणं साइरेगाओ, केवलदसणी साइए अपजयसिए । चक्खुदंसणिस्स अंतरं जह. अंतोमु० उक्को वणस्सतिकालो । अचखुदंसणिस्स दुविहस्स नत्थि अंतरं । ओहिदंसणस्स जह० अंतोमु० उकोसे वणस्सइकालो। केवलदं अनुक्रम [३८३] ॥४५ ॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~450 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [३], ------------------- मूलं [२५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५९] GANGACE सणिस्स णस्थि अंतरं । अप्पायहुयं सब्बत्थोवा ओहिदंसणी चक्खुदंसणी असंखेनगुणा केवलदसणी अणंतगुणा अचकखुदसणी अणंतगुणा ॥ (सू० २५९) 'अहवे'त्यादि, 'अथवा' प्रकारान्तरेण चतुर्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-चक्षुर्दर्शनिनोऽचक्षुर्देर्शनिनोऽवधिदर्शनिनः केवलपर्शनिनः ॥ अमीषा कायस्थितिमाह-चखुदंसणी णं भंते !' इत्यादि, चक्षुर्दर्शनी जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, अचक्षुर्दर्शनिभ्य उद्धृत्य च-16 क्षुर्दर्शनिपूरपद्य तावन्तं कालं स्थित्वा पुनरचक्षुर्दर्शनिषु कस्यापि गमनात्, उत्कर्षत: सागरोपमसहस्रं सातिरेक, अचक्षुदर्शनी द्विविधः | प्रज्ञप्तस्तद्यथा-अनाद्यपर्यवसितो यो न जातुचिदपि सिद्धिं गन्ता, अनादिसपर्यवसितो भन्यविशेषो यः सेत्स्यति, अवधिदर्शनी जघन्यत एक समयं, अवधिप्रतिपत्त्यनन्तरमेव कस्यापि मरणतो मिथ्यात्वगमनतो दुष्टाध्यवसायभावतोऽवधिप्रतिपातात्, उत्कर्षतो वे पषष्टी सागरोपमाणां सातिरेके, तत्रैका षट्षष्टिः एवं-विभङ्गज्ञानी तिर्यपञ्चेन्द्रियो मनुष्यो वाऽधः सप्तम्यामुत्पन्नः, तत्र प्रयस्त्रिंशतं 5 सागरोपमाणि स्थित्वा तत्र च प्रत्यासन्ने उद्वर्तनाकाले सम्यक्तं प्राप्य पुनः परित्यजति ततोऽप्रतिपतितेनैव विभङ्गेन पूर्वकोट्यायुष्केषु तिर्यक्षु जातस्ततः पुनरव्यप्रतिपतितविभङ्ग एवाध: सप्तम्यामुत्पन्नः, तत्र च त्रयस्त्रिंशतं सागरोपमाणि स्थित्वा पुनरप्युदर्जनाकाले प्रत्या-13 सन्ने सम्यक्त्वं प्राप्य पुनः परित्यजति, ततः पुनरप्यप्रतिपतितेनैव विभङ्गेन पूर्वकोट्यायुष्केषु तिर्यरुपजातो, वेलायमपि चाविप्रहेणाधः सप्तम्यास्तिर्यक्षुत्पादयितव्यः, विद्महे विर्भशस्य प्रतिषेधात्, उक्तं च-"विभंगनाणी पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूया य आहारगा नो अणाहारगा" इति, नन्धपान्तराले किमर्थ सम्यक्त्वं प्रतिपाद्यते ?, उच्यते, विभङ्गस्य स्तोककालावस्थायित्वात्, उक्तवविभगनाणी जह० एवं समयं उको० तेचीसं सागरोवमाई देसूणाए पुब्बकोडीए अब्भहियाई"ति, तदनन्तरमप्रतिपतितविभङ्ग एव मनु दीप अनुक्रम [३८४] ~451 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [३], ------------------- मूलं [२५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत श्रीजीवा- जीवाभि मलयगि- रीयावृत्तिः सूत्रांक [२५९] ॥४५२॥ | नादि दीप अनुक्रम [३८४] प्यत्वं प्राप्य सम्यक्त्वपूर्व संयममासाथ विजयादिषु वारद्वयमुत्पद्यमानस्य द्वितीया षट्वष्टिर्भावनीया, अवधिदर्शनं च विभङ्गेऽवधि- प्रतिपत्ती ज्ञाने च तुल्यमतो वे षट्पष्टी सागरोपमाणां सातिरेके स्थितिरवधिदर्शनिनः, केवलदर्शनी साद्यपर्यवसितः ॥ साम्प्रतमन्तरमाह-3 सर्वजीव चक्खुदंसणिस्स णं भंते !' इत्यादि, चक्षुर्दर्श निनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त तावत्प्रमाणेनाचक्षुदर्शनभवेन व्यवधानात् , उत्कर्षतो चातुर्विध्ये वनस्पतिकालः, स च प्रागुक्तस्वरूपः, अचक्षुर्दर्शनिनोऽनाद्यपर्यबसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् , अनादिसपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं | चक्षुर्दअचक्षुर्दर्शनिखापगमे भूयोऽचक्षुर्दर्शनिलायोगात् , क्षीणघातिकर्मणः प्रतिपातासम्भवात् , अवधिदर्शनिनो जघन्येनैके समयमन्तरं, प्रतिपातसमयानन्तरसमय एवं कस्यापि पुनस्तल्लाभभावात् , कचिदन्तर्मुहूर्तमिति पाठः, स च सुगम: तावता व्यवधानेन पुनस्तल्ला- उद्देशः२ भभावात् , न चार्य निर्मूल: पाठो, मूलटीकाकारेणापि मतान्तरेण समर्थितत्वात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, तावत: कालादूईमव. श्यमवधिदर्शनसम्भवात् अनादिमिध्यादृष्टेरप्यविरोधात् , ज्ञानं हि सम्बकत्लसचिव न दर्शनमपीति भावना, केबलदर्शनिनः साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितखात् । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका अवधिदर्शनिनो, देवनारककतिपयगर्भजतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुयाणामेव तद्भापात् , चक्षुदर्शनिनोऽसङ्ख्येयगुणाः, संमूछिमतिर्यपञ्चेन्द्रियचतुरिन्द्रियाणामपि तस्य भावात्, केवलदर्शनिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽचक्षुर्दर्शनिनोऽनन्तगुणाः, एकेन्द्रियाणामप्यचक्षुर्दर्शनित्वात् ।। अहवा चउब्विहा सव्वजीवा पपणत्ता, तंजहा-संजया असंजया संजयासंजया नोसंजयानोअसंजयानोसंजयासंजया। संजए णं भंते!०? जह० एक समयं उक्को० देसूणा पुच्चकोडी, असंजया जहा अण्णाणी, संजयासंजते जह० अंतोमु० उक्को० देसूणा पुब्दकोडी, नोसंजतनो अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~452 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [३], ------------------- मूलं [२६०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६०] असंजयनोसंजयासंजए सातीए अपज्जवसिए, संजयस्स संजयासंजयस्स दोपहवि अंतरं जह अंतोमु० उक्को अवई पोग्गलपरियह देसूर्ण, असंजयस्स आदिदुवे णस्थि अंतरं, सातीयस्स सपज्जवसियस्स जह० एफ स० उकोदेसूणा पुवकोडी, चउत्थगस्स णस्थि अंतरं ॥ अप्पाबहु० सम्वत्थोवा संजयासंजया संजया असंखेजगुणा णोसंजयणोअसंजयणोसंजयासंजया अर्णतगुणा असंजया अर्णतगुणा । सेत्तं चउम्विहा सबजीया पणत्ता (सू०२६०) 'अहवे'यादि, 'अथवा' प्रकारान्तरेण सर्वेजीवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-संयता: असंयताः संयतासंयता: नोसंथतानोअसंयतानो संयतासंयताः ।। कायस्थितिमाह-संजए णं भंते !' इत्यादि, संयतो जघन्यत एक समयं, सर्वविरतिपरिणामसमयानन्तरसमय एव कस्यापि मरणात् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, असंयतत्रिविधः-अनाद्यपर्यवसितः अनादिसपर्ववसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्रानाद्यपर्यवसितो यो न जातुचिदपि संयम प्राप्स्यति, अनादिसपर्यवसितो यः संयम लप्स्यति, लब्धेन च तेनैव संयमेन सिद्धिं गन्ता, सादिसपर्यवसितो सर्वविरतर्देशविरतेयं परिभ्रष्टः, स हि सादिः नियमभाविसपर्यवसितत्वापेक्षया च सपर्यवसितः, स च जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तावता कालेन कस्यापि संयतललाभात् 'तिण्डं सहस्स पुहुत्त'मित्यादि वचनात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽपाई पुद्गलपरावर्त देशोनं, संयतासंयतो जघन्येनान्तर्मुहूर्त, संयतासंयतत्त्वप्रतिपत्तेः भङ्गबहुलतया जघन्यतोऽप्येतावन्मात्रकालप्रमाणत्वात् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, बालकाले तदभावात् , त्रितयप्रतिषेधवर्ती सिद्धः, सच साद्यपर्यवसित एव । अन्तरमाह-संजयस्स णमित्यादि, संयतस्य जघन्येनान्तरमन्तर्मुहू, तावता कालेन पुनः कस्यापि सं दीप अनुक्रम [३८५] ~453 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [३], ------------------- मूलं [२६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६०] श्रीजीवा- यतत्वलाभात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, अनन्ता उत्सपिण्यवसपिण्यः कालत: क्षेत्रतोऽपार्द्ध पुद्गलपरावर्त देशोनम् , एतावत: कालादूई ९प्रतिपत्तौ जीवाभि पूर्वमवाप्तसंयमस्य नियमत: संयमलाभात्, अनायपर्यवसितस्यासंयतस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् , अनादिसपर्यवसितस्यापि ना- सर्वजीव मलयगि- त्यन्तरं, तस्य प्रतिपातासम्भवात् , सादिसपर्ववसितस्य जघन्यत एक समयं, स चैकसमयः प्राग्व्यावर्णित: संयतसमयः, एवमुत्कर्षतो चातुर्विध्ये रीयावृत्तिः देशोना पूर्वकोटी, असंयतत्वव्यवधायकस्य संयतकालस्य संयतासंयतकालस्य वा उत्कर्षतोऽप्येतावत्प्रमाणत्वात् , संयतासंयतस्य जप-18/चक्षुर्वर्श.. दिन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तद्भावपाते एतावता कालेन वल्लाभसिद्धेः, उत्कर्षत: संयतवत्, त्रितवप्रतिषेधवर्तिनः सिद्धय साधपर्यवसितस्य नादि ॥४५३॥ नास्त्यन्तरं अपर्यवसिततया सदा तद्भावापरित्यागात् ॥ अल्पबहुत्वमाह-एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका जीवा: संयताः, सलो- उद्देश:२ यकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , संयतासंयंता असहयगुणाः, असोयानां तिरश्च देशविरतिभावात् , त्रितयप्रतिषेधवर्तिनोऽनन्तगुणाः, सू०२६१ सासिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽसंयता अनन्तगुणाः वनस्पतीनां सिद्धेभ्यो ऽप्यनन्तत्वात् । उपसंहारमाह-'सेत्त'मित्यादि । उक्ताश्चतुविधा: सर्वजीवाः, सम्प्रति पञ्चविधानाह तत्थ जे ते एवमासु पंचविधा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एचमाहंसु, तंजहा-कोहकसायी माणकसायी मायाकसायी लोभकसायी अकसायी। कोहकसाई माणकसाई मायाकसाई णं जह अंतो० उक्को अंतोमु०, लोभकसाइस्स जह० एकं स० उक्को. अंतो, अकसाई विहे जहा हेट्ठा । कोहकसाई माणकसाईमायाकसाईणं अंतरं जह० एकं० स० उक्को अंतो० लोहकसाइस्स अंतरं जह० अंतो० उको अंतो०, अकसाई तहा जहा हेट्ठा । अप्पाबहु-अकसाइणो SCAMERICA दीप अनुक्रम [३८५] ॥४५३ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ३-चतुर्विधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ४-(पञ्चविधा] आरब्धा: ~454~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२६१] + गाथा दीप अनुक्रम [३८६ -३८७] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३/२ (मूलं + वृत्तिः) प्रति० प्रति०] [४], - मूलं [२६१] + गाथा प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः Een in सत्वा माणसाई तहा अनंतगुणा । कोहे माया लोभे विसेसमहिया मुणेतव्वा ॥ १ ॥ ( सू० २६१ ) 'तत्थ जे ते' इत्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तः पञ्वविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्ते एवमुक्तवन्तस्तद्यथा - क्रोधकषायिणो मानकथाविणो मायाकषायिणो लोभकपायिणोऽरूपाविणा || अमीषां कार्यस्थितिमाह-- 'कोहकसाई णं भंते' इत्यादि, कोधकषायी जबन्येनाप्यन्तर्मुहूर्त्त, "क्रोधाद्युपयोगकालोऽन्तर्मुहूर्त्त" मिति वचनात् एवं मानकषायी मायाकषायी च वक्तव्यः, लोभकषायी जघन्येनैकं समयं स चोपशमश्रेणेः प्रतिपतन् लोभकषायोदयप्रथमसमयानन्तरं मृतः प्रतिपत्तव्यो मरणसमये कस्यापि क्रोधाद्युदयसम्भवात्, क्रमेण प्रतिपतनं हि मरणाभावे न तु मरणेऽपीति, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त्त, अकषायी द्विविधः सायपर्यवसितः केवली, सादिसपर्यवसित उपशान्तकषायः, स च जघन्येनैकं समयं द्वितीये समये मरणतः क्रोधादयेन सकपायत्वप्राप्तेः, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुपशान्तमोहगुणस्थानक कालस्यैतावत्प्रमाणत्वादित्येके, अन्ये त्वभिदधति - जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्त, न लोभोपशमप्रवृत्तस्यान्तेऽन्तर्मुहूर्त्तादधो मरणमिति वृद्धवादात्, उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्तमुपशान्त मोहगुणस्थानक कालस्योत्कर्षतोऽप्येतावन्मात्रत्वात् नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टपदं विशेषाधिकमव सातव्यं युक्तं चैतत् सूत्रकृतोऽभिप्रायेण प्रतिभासते, लोभकषायिणो जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त्तान्तराभिधानात् वक्ष्यति च - " लोभकसाइयस्स जह० अंतो० उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्त मंतर "मिति । साम्प्रतमन्तरमाह 'कोहकसाइस्स णं भंते !" इत्यादि, क्रोधकषायिणोऽन्तरं जघन्येनैकं समयं तदुपशमसमयानन्तरं मरणे भूयः कस्यापि तदुदयात्, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त्त एवं मानकषायिमाया कषायिसूत्रे अपि वक्तव्ये, लोभकषायिणो जघन्येनोत्कृष्टेनाप्यन्तर्मुहूर्त्त नवरंमुत्कृष्टं वृहत्तरमवसातव्यम्, अकषा For P&Pase City ~ 455 ~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [४], ------------------- मूलं [२६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६१] गाथा श्रीजीवा-माविण: सायपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं अपर्यवसितत्वात् , सादिसपर्यवसितस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त, तावता कालेन भूयः श्रेणिलाभात, प्रतिपत्ती जीवाभिकर्षो उत्कर्षतोऽनन्तं कालं, अनन्ता उत्सर्पिण्यवसपिण्यः कालत:, क्षेत्रतोऽपार्द्ध पुद्गलपरावतै देशोनं, पूर्वमनुभूताकपायित्वस्यैतावता | सर्वजीव मलयगि कालेन भूयो नियमेनाकषायित्वभावात् ।। अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका अकषायिणः, सिद्धानामेवाकषायित्वात् , तेभ्यो मानकषा- चातुर्विध्ये रीयावृत्तिःयिणोऽनन्तगुणाः, निगोदजीवानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् , तेभ्यः क्रोधकषाविणो विशेषाधिकाः, क्रोधकषायोदयस्य चिरकालाब-18|चक्षुदर्श॥४५४॥ खाबिलात्, एवं तेभ्यो मायाकषायिणो विशेषाधिकाः, तेभ्यो लोभकषाविणो विशेषाधिकाः, मायालोभोदययोचिरतरकालावस्था- नादि यित्वात् ॥ | उद्देशा अहवा पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा-णेरड्या तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा सिद्धा। सू०२६२ संचिट्ठणांतराणि जह हेट्ठा भणियाणि । अप्पाबहु० थोवा मणुस्सा णेरहया असंखेजगुणा देवा असंखेजगुणा सिद्धा अर्णतगुणा तिरिया अणंतगुणा । सेत्तं पंचविहा सब्वजीवा पपणत्ता ।। (सू० २६२) 'अहर्वे'त्यादि, 'अथवा' प्रकारान्तरेण पञ्चविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-नैरविका स्तिर्ययो मनुष्या देवाः सिद्धाः, अमीषां IN४५४॥ काय स्थितिरन्तरमल्पबहुत्वं च प्रागेवाभिहितमिति न भूयो भाम्यते । उपसंहारमाह-'सेत्तं पंचविहा सव्वजीवा पन्नत्ता' ।। ववे-18 वमुक्ताः पञ्चविधाः सर्वजीवाः, सम्प्रति पड्विधानाह दीप अनुक्रम [३८६-३८७]] अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ४-(पञ्चविधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ५-[षविधा] आरब्धा: ~4560 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [५], ------------------- मूलं [२६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६३] दीप अनुक्रम [३८९] तत्थ जे ते एक्माहंसु छविहा सब्बजीया पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तंजहा-आभिणियोहियणाणी सुयणाणी ओहिनाणी मणपजवणाणी केवल नाणी अण्णाणी, आभिणियोहियणाणी णं भंते ? आभिणियोहियणाणित्ति कालओ केवचिरं होइ?, गोयमा! जह• अन्तोमुहुत्तं उको छावडिं सागरोवमाई साइरेगाई एवं सुयणाणीवि, ओहिणाणी णं भंते!०१, जह० एकं समयं उक्को जवहिं सागरोषमाई साइरेगाई, मणपज्जवणाणी णं भंते !०१, जह० एक समयं उको देसूणा पुवकोडी, केवलनाणी णं भंते!? सादीए अपजयसिए, अन्नाणिणो तिबिहा पं० २०-अणाइए वा अपजवसिए अणाइए वा सपज्जवसिए साइए वा सपज्जवसिए, तत्थ साइए सपज्जवसिए जह० अंतो० उक्को० अणतं कालं अवडं पुग्गलपरियह देसूर्ण । अंतरं आभिणियोहियणाणिस्स जह० अंतो० उक्को० अणतं कालं अवई पुग्गलपरियह देसूर्ण, एवं सुय० अंतरं० मणपजव०, केवलनाणिणो णस्थि अंतरं, अन्नाणिसाइसपज्जवसियस्स जह० अंतो उको छावर्द्धि सागरोचमाई साइरेगाई। अप्पा० सम्वत्थोवा.मण. ओहि असंखे० आभि सुप०विसेसा० सट्टाणे दोषि तुल्ला केव० अणंत अण्णाणी अणंतगुणा ।। अहवा छब्विहा सव्वजीचा पण्णत्ता तंजहा-(एवंविधः पाठ इतः प्राग आवश्यको न चोपलब्धो दृश्यमानादर्शपु कचिदपि) एगिदिया बेदिया तेंदिया चरिंदिया पंचेंदिया अजिंदिया। संचिट्ठणांतरा जहा हेवा । अप्पाबहु - ~457 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [५], ------------------- मूलं [२६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक चक्षुर्द [२६३] दीप अनुक्रम [३८९] श्रीजीवा- सम्वत्थोचा पंचेंदिया चउरिदिया विसेसा तेइंदिया विसेसा० बेंदिया विसेसा एगिंदिया अणं- प्रतिपत्ती जीवाभि तगुणा अणिंदिया अणंतगुणा ।। (सू०२६३) सर्वजीव मलयगि- 'तत्थे' यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तः षड्विधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्ते एवमुक्तवन्तस्तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽ-18|चातुर्विध्ये रीयावृत्तिः विधिज्ञानिनो मनःपर्यवज्ञानिन: केवलज्ञानिनोऽशानिनश्च । सम्प्रत्यमीषां कायस्थितिमाह-'आभिणिबोहियनाणी णं भंते!' इत्यादि, आभिनिवोधिकज्ञानी जघन्येनान्तर्मुहूर्त, सम्यक्त्वकालस्य जघन्यत एतावन्मात्रखात् , उत्कर्षतः षट्पष्टिः सागरोपमाणि सातिरे- नादि काणि, तानि च विजयादिषु वारद्वयादिगमनेन भावनीयानि, एवं श्रुतज्ञानिनोऽपि वक्तव्यं, आभिनिबोधिकश्रुतज्ञानयोः परस्परा- उद्देशः२ विनाभूतत्वान्, 'जत्थ आभिणिबोहियणाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ आभिणिबोहियनाणं, दोवि एयाई अण्णोण्णम- सू०२६३ गुगयाई' इति वचनात् , अवधिज्ञानी जघन्यत एक समयं, सा चैकसमयता मरणत: प्रतिपातेन मिध्यात्लगमनतो वा विभङ्गशान-8 भावतः प्रतिपत्तन्या, उत्कर्यतः घट्पष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, तान्याभिनिवोधिकज्ञानवद्भावनीयानि, मनःपर्यवज्ञानी जधन्यत एक समय, द्वितीय समये मरणतः प्रतिपातात् , उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, चारित्रकालस्योत्कर्षतोऽप्येतावन्मात्रत्वात् , केवलहानी साद्यपर्यवसितः । अज्ञानी त्रिविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-अनाद्यपर्ववसित: अनादिसपर्यबसितः सादिसपर्यवसितश्च, तत्र योऽसौ सादिसपर्यवसितोऽसौ जयन्येनान्तर्मुहूर्त, वत उई कस्यापि सम्यक्त्वलाभतो भूयोऽपि शानिलभावात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावद|पार्द्ध देशोनं पुद्गलपरावर्त, ज्ञानिनात्परिभ्रष्टस्यैतावता कालेन नियमतो भूयोऽपि ज्ञानित्वभावात् । अन्तरचिन्तायामाभिनियोधिक ज्ञानिनो जघन्येनान्तरमन्तर्मुहूर्त, कस्याप्येतावत्कालेन भूयोऽप्याभिनिबोधिकज्ञानिखभावात् , उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावदपाई पुद्गलJatic IME अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~458~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [५], ------------------- मूलं [२६३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६३] दीप अनुक्रम [३८९] परावर्त देशोनं, एवं श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनो मनःपर्यवज्ञानिनश्चान्तरं वक्तव्यं, केवलज्ञानिनः साद्यपर्यवसितत्यानास्त्यन्तरं, अज्ञा-1 निनोऽनाद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं अपर्यवसितत्वात् , अनादिसपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरं भूयस्तझावायोगात्, पुनरज्ञानिलं हि भवत् सादिसपर्यवसितं भवति न खनादिसपर्यवसितं, सादिसपर्यवसितस्य जघन्यवोऽन्तर्मुहूर्त, तावता कालेन भूयोऽपि कस्याप्यज्ञा-12 नित्वप्राप्तः, उत्कर्षतः षट्षष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि | अल्पबहुलचिन्तायां सर्वस्तोका मनःपर्यवज्ञानिनश्चारित्रिणामेव केषाभिवत्तद्भावात् तं संजयस्स सव्वप्पमावरहियस्स विविधरिद्धिमतो' इति वचनात् , तेभ्योऽवधिज्ञानिनोऽसलयातगुणाः, देवनारकाणामप्यवधिज्ञानभावात् , तेभ्य आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्च द्वयेऽपि विशेषाधिकाः, स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्या:, आभि| निवोधिकश्रुतज्ञानयोः परस्पराविनाभावात् , तेभ्यः केवल ज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतिकायाना सिद्धेभ्योऽप्यनन्तलात् ॥ 'अहवे'त्यादि, अथवा' प्रकारान्तरेण पडिधाः सर्वजीवाः प्राप्तास्तद्यथा-एकेन्द्रिया द्वीन्द्रि-I यात्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पश्चेन्द्रिवा अनिन्द्रियाः । एतेषां कायस्थितिरन्तरमल्पबहुत्वं प्रागेव भावितम् ॥ अहवा छव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता तंजहा-ओरालियसरीरी वेउब्वियसरीरी आहारगसरीरी तेयगसरीरी कम्मगसरीरी असरीरी ॥ ओरालियसरीरी गं भंते ! कालओ केवचिरं होइ?, जहपणेणं खुडागं भवगहणं दुसमऊर्ण, उक्कोसेणं असंखिज्ज कालं जाव अंगुलस्स असंखेजतिभागं, वेउब्वियसरीरी जह. एक समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, आहारगसरीरी जह० अंतो० उको० अंतो०, तेयगसरीरी दुविहे-अणादीए वा अपजवसिए अणादीए ~459 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [५], ------------------- मूलं [२६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६४] दीप अनुक्रम [३९०] श्रीजीवा- वा सपजवसिते, एवं कम्मगसरीरीवि, असरीरी सातीए अपजवसिते ॥ अंतरं ओरालियसरी- प्रतिपत्ती जीवाभिम रस्स जह० एकं समयं उको तेत्तीसं सागरोबमाइं अंतोमुत्तमम्भहियाई, वेउब्वियसरीरस्स सर्वजीव मलयगि-18 जह अंतोषको अणंतं कालं वणस्सतिकालो, आहारगस्स सरीरस्स जह• अंतो उक्को. चातुर्विध्ये रीयावृत्तिः अणतं कालं जाव अवडं पोग्गलपरियई देसूर्ण, तेय० कम्मसरीरस्स य दुपहषि णस्थि अंतरं ॥ चक्षुर्दर्श अप्पाबहु० सव्वस्थोवा आहारगसरीरी वेउब्वियसरीरी असंखेजगुणा ओरालियसरीरी असं॥४५६॥ मा नादि खेजगुणा असरीरी अर्णतगुणा तेयाकम्मसरीरी दोवि तुल्ला अर्णतगुणा ॥ सेतं छव्यिहा सब- उद्देशः२ जीवा पण्णत्ता ॥ (सू० २६४) दसू० २६४ | 'अहवे'त्यादि, अथवा प्रकारान्तरेण पहिधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-औदारिकशरीरिण: बैफियशरीरिणः आहारकशरीरिणः || जसशरीरिणः कार्मणशरीरिणः अशरीरिणश्च ।। अमीषां कायस्थितिमाह-ओरालियसरीरी णं भंते' इत्यादि, औदारिकशरीरी131 जघन्यतः क्षुलकभवग्रहणं द्विसमयोनं, विग्रहे आथयोवोः समययो: कार्मणशरीरित्वात् , उत्कर्षतोऽसायं कालं तावन्त कालमविनहेणोत्पादसम्भवात् । वैक्रियशरीरी जघन्येनेक समयं, विकुणासमयानन्तरसमये एव कस्यापि मरणसम्भवात् , उत्कर्षतत्रयस्त्रिंशसागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, तानि चैव-कश्चिारित्रवान वैक्रियशरीरं कृत्वाऽन्तर्मुहर्स जीवित्वा स्थितिक्षयादविग्रहेणानुतरसुरेपूपजायते, आहारकशरीरी जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त, तैजसशरीरी कार्मणशरीरी च प्रत्येक द्विविधः-अनाद्य-18 ॥४५६॥ पर्यवसितो यो न मुक्तिं गन्ता, अनादिसपर्यवसितो मुक्तिगामी, अशरीरी साद्यपर्यवसितः । अन्तरचिन्तायामौदारिकशरीरिणोs-12 A mataayaire अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~460 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [५], ------------------- मूलं [२६४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६४] न्तरं जघन्यत एकः समयः, स च द्विसामयिक्यामपान्तरालगतौ भावनीयः, प्रथमे समये कार्मणशरीरोपेतत्वात् , उत्कर्षतत्यत्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहर्ताभ्यथिकानि, उत्कृष्टो वैक्रियकाल इति भावः, वैक्रियशरीरिणोऽन्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, सकद्वैक्रिय करणे एतावता कालेन पुनक्रियकरणात् मानवदेवेषु भावात् , उत्कर्षतो वनस्पतिकालः प्रकट एव, आहारकशरीरिणो जघन्येनान्तप्रामुहूर्त, सकृत्करणे एतावता कालेन पुन: करणात् , उत्कर्षतोऽनन्त कालं यावदपा पुद्गलपरावर्त, तैजसकार्मणशरीरयोधिाऽपियर नास्त्यन्तरं । अल्पबहुवचिन्तायां सर्वस्तोका आहारकशरीरिणः, उत्कर्षतोऽपि सहस्रपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्यो बैंक्रियशरीरिगोऽसोयगुणाः, देवनारकाणां कतिपयगर्भजतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यवायुकायिकानां च बैक्रियशरीरित्वात् , तेभ्य औदारिकशरीरिणोऽसयगुणाः, इहानन्तानामपि जीवानां यस्मादेकमौदारिक शरीरं ततः स एक औदारिकशरीरी परिगृह्यते ततोऽसयेवगुणा एवी-| दारिकशरीरिणो नानन्तगुणाः, आह च मुलटीकाकार:-औदारिकशरीरिभ्योऽशरीरा अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , औ-| दारिकशरीरिणां च शरीरापेक्षयाऽसहयेयत्वा"दिति, तेभ्योऽशरीरिणोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तवात् , तेभ्यसैजसशरीरिणः कार्मजणशरीरिणश्वानन्तगुणाः, स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, तैजसकार्मणयोः परस्पराविनाभावात् , इह तैजसशरीरं कार्मणशरीर पाच निगोदेष्वपि प्रतिजीब विद्यत इति सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वम् । उपसंहारमाह-'सेत्तं छबिहा सव्वजीवा पन्नत्ता' ॥ उक्ताः डिधाः सर्वजीवाः, सम्प्रति सप्तविधानाह तस्थ जे ते एवमाहमु सत्सविधा सब्यजीवा पं० ते एवमाहंसु, तंजहा-पुढधिकाइया आउका इंया तेउकाइया बाउकाइया वणस्सतिकाइया तसकाइया अकाइया । संचिट्ठणंतरा जहा हेट्टा। जी०७७ 123455SCARBORD- 5 दीप अनुक्रम [३९०] ट -%% अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ५-[षविधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ६-[सप्तविधा] आरब्धा: ~461 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [६], ------------------- मूलं [२६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६५]] दीप श्रीजीवा- अप्पाबहु० सव्वत्थोथा तसकाइया तेउकाइया असंखेजगुणा पुढविकाइया विसे० आउ० विसे. प्रतिपत्ती जीवाभि० वाउ.विसेसा०सिद्धा अणंतगुणा वणस्सइकाइया अर्णतगुणा ।। (सू०२६५) सर्वजीव मलयगि- 'तत्थ जे ते' इत्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तः सप्तविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञाप्तास्ते एवमुक्तवन्तस्तयथा-पृथिवीकायिका अकायिकाः सप्तविधत्वं रीयावृत्तिःलातेजस्कायिका वायुकायिका वनस्पतिकायिकाः नसकायिकाः अकायिकाश्च । पृथिवीकायिकादीनां कायस्थितिरन्तरमल्पबहुत्वं च प्रा-IX कायले गेव भावितमिति न भूयो भाव्यते ॥ ॥४५७॥ श्याभ्यां अहवा सत्तविहा सब्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा-कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा तेउस्लेस्सा 5 उद्देशः २ पम्हलेस्सा सुकलेस्सा अलेस्सा। कण्हलेसे णं भंते! कण्हलेसत्ति कालओ केवचिरं होई, गोयमा! सू०२६५ज० अंतो उको तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, णीललेस्से णं जह अंतो० उक० - २६६ दस सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेजतिभागअन्भहियाई, काउलेस्से णं भंते !०, जह अंतो जक्क० तिन्नि सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागमभहियाई, तेउलेस्से णं भंते !, जह अं० उक० दोषिण सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेजइभागमभहियाई, पम्हलेसे णं भंते !, जह• अंतो० उ० दस सागरोवमाई अंतोमुत्तमम्भहियाई, सुक्कलेसे णं भंते 10१, जहनेणं अंतो० उकोसेणं तित्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तमभहियाई, अलेस्सेणं भंते! सादीए अपज्जवसिते॥ कण्हलेसस्त णं भंते! अंतरं कालओ केबचिरं होति?, जह. अंतो० उको ते अनुक्रम [३९१] ॥४५७॥ JaEL अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~462 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [६], ------------------- मूलं [२६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६६] सीसं सागरोचमाई अंतोमुहत्तम०, एवं नीललेसस्सधि, काउलेसस्सवि, सेउलेसस्स णं भंते। अंतरं का.?, जह. अंतोउको वणस्सतिकालो, एवं पम्हलेसस्सवि सुक्कलेसस्सवि दोण्हवि एवमंतरं, अलेसस्स णं भंते! अंतरं कालओ०?, गोयमा!' सादीयस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं ॥ एतेसिणं भंते! जीवाणं कण्हलेसाणं नीललेसाणं काउले० तेउ० पम्ह सुक० अलेसाण य कयरे २१०, गोयमा! सम्वत्थोवा मुक्कलेस्सा पम्हलेस्सा संखेजगुणा तेउलेस्सा संखिजगुणा अलेस्सा अर्णतगुणा काउलेस्सा अणंतगुणा नीललेस्सा विसेसाहिया कण्हलेस्सा विसेसाहिया । सेत्तं सत्तविहा सव्वजीवा पन्नत्ता।। (सू०२६६) 'अहवेत्यादि, 'अथवा' प्रकारान्तरेण सर्वजीवाः सप्तविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-कृष्णलेश्या: नीललेश्याः कापोतलेश्याः तेजोलेश्या: पद्मलेश्याः शुक्ललेश्या: अलेश्याः ॥ साम्प्रतमेतेषां कायस्थितिमाह-कपहलेसे णं भंते !' इत्यादि, कृष्णलेश्या जपन्यतोऽन्तर्मुहूर्त, तिर्यअनुष्याणां कृष्णलेश्याया अन्तर्मुहुर्तावस्थायित्वात् , उत्कर्षतस्रयविंशत्सागरोपमाणि अन्तर्मुहर्ताभ्यधिकानि, देवनारका हि पाश्वात्यभवगतचरमान्तर्मुहूर्तादारभ्यागेतनभवगतप्रथमान्तर्मुहू यावदवस्थितलेश्याकाः, अधःसप्तमपृथिवीनारकाश्च कृष्णलेश्याकाः पा श्रात्याप्रेतनभवगतचरमादिमान्तर्मुहू द्वे अप्येकमन्तर्मुहूर्त, तस्यासलातभेदात्मकत्वात् , तत उपपद्यन्ते कृष्णलेश्याकस्यान्तर्मुहूर्ताभ्य४धिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, नीललेश्याको जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त तच्च प्राग्वत् , उत्कर्षको दश सागरोपमाणि पल्योपमासयभा-18 लागाधिकानि, धूमप्रभाप्रथमप्रस्तदनारकाणां नीललेश्याकानामेतावस्थितिकत्वात्, पाश्चात्याप्रेतनभवगते च परमादिमान्तर्मुहर्ने पस्यो दीप अनुक्रम [३९२] ~463 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२६६ ] दीप अनुक्रम [३९२] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) ------ प्रति० प्रति० [६], - मूलं [ २६६ ] प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ।। ४५८ ।। पमासयेयभागान्तः प्रविष्ठे न पृथग्विवक्षिते, कापोतलेश्याको जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त प्राग्वत्, उत्कर्षतस्त्रीणि सागरोपमाणि पत्योपमासङ्घयेयभागाभ्यधिकानि, बालुकाप्रथमप्रस्तटगतनारकाणां कापोतलेश्याकानामेतावरिस्थतिकत्वात् तेजोलेश्याको जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त तथैव उत्कर्षतो द्वे सागरोपमे पस्योपमा सयभागाभ्यधिके, ते पेशानदेवानामवसातथ्ये, पद्मलेश्याको जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त प्राग्वत्, उत्कर्षतो दश सागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि तानि ब्रह्मलोकवासिनां देवानामचसातव्यानि शुकुलेश्याको जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त प्राग्वत्, उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि तानि चानुत्तरसुराणां प्रतिपत्तव्यानि तेषां शुकुलेश्याकत्वात् ॥ अन्तर चिन्तायां कृष्णलेश्याकस्यान्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त तिर्ययनुष्याणामन्तर्मुहूर्त्तेन लेश्यापरावर्त्तनात् उत्कर्षतस्त्रयत्रिंशत्सागरोपमाण्यन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि, शुकुलेश्योत्कृष्टकालस्य कृष्णलेश्यान्तरोत्कुष्टकालत्वात् एवं नीढलेश्याकापोवलेश्वयोरपि जघन्थत उत्क तश्चान्तरं वक्तव्यं तेजः पद्मशुकानामन्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः, स च प्रतीत एवेति, अलेश्यस्य साद्यपर्ववसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् ॥ अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः कुलेश्या, लान्तकादिदेवानां पर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्त्रिककतिपयपञ्चेन्द्रियतिर्थव्यनुष्याणां शुकुलेश्वासम्भवात् तेभ्यः पद्मलेश्याः सङ्ख्येयगुणाः, सनत्कुमार माहेन्द्रमा लोककल्पवासिनां सर्वेषां प्र भूतपर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्थमनुष्याणां च पद्मलेश्याकत्यात्, अथ लान्तकादिदेवेभ्यः सनत्कुमारादिकल्पन्त्रयवासिनो देवा असङ्ख्यातगुणाः ततः शुकुलेश्येभ्यः पद्मलेश्या असङ्ख्यातगुणाः प्राप्नुवन्ति कथं समेयगुणा उक्ता: १, उच्यते, इह जधन्यपदेऽप्यसङ्ख्यातानां सनत्कुमारादिकल्पन्त्रयवासिभ्योऽसयेयगुणानां पञ्चेन्द्रियविरचां शुकुलेश्या, ततः पद्मलेश्याकाः शुकुलेश्याकेभ्यः सङ्ख्येयगुणाः, तेजोलेश्याकाः तेभ्योऽपि सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि सङ्ख्यगुणेषु तिर्यक्पचेन्द्रियमनुष्येषु भवनपतिव्यन्तर ज्योतिष्कसौधर्मेश /नदेवेषु च For P&Praise Cinly १९ प्रतिपत्ता सर्वजीव सप्तविधत्वं | कायले. श्याभ्यां | उद्देशः २ सू० २६६ ~ 464~ ।। ४५८ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते — एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति• [६], ------------------- मूलं [२६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: ARENCC प्रत सूत्रांक [२६६] वेजोलेश्याभावात् , भावना सवेयगुणखे प्राग्वत् , तेभ्योऽध्यनन्तगुणा अलेश्याः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽपि कापोतलेश्या अनन्तगुणाः, सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणानां वनस्पतिकायिकानां कापोतलेश्यावतां सद्भावात् , तेभ्योऽपि नीललेश्या विशेषाधिकाः, तेभ्योFISपि कृष्णलेश्या विशेषाधिका:, क्लिष्टतराध्यवसायानां प्रभूततराणां सद्भावात् । उपसंहारमाह-'सेतं सत्तविहा सव्वजीया पन्नत्ता'। उक्ताः सप्तविधा: सर्व जीवाः, साम्प्रतमष्टविधानाह तत्थ जे ते एवमाहंसु अवविहा सबजीवा पण्णत्ता ते णं एवमाहंसु, तंजहा-आभिणियोहियनाणी सुय० ओहि मण. केवल मतिअन्नाणी सुयअण्णाणी विभंगअण्णाणी ॥ आभिणिबोहियणाणी णं भंते! आभिणिबोहियणाणीत्ति कालओ केबचिरं होति ?, गोयमा! जह• अंतो. उको छावहिसागरोवमाई सातिरेंगाई, एवं सुयणाणीवि । ओहिणाणी णं भंते !?, जह० एक समयं उको छावहिसागरोवमाई सातिरेगाई, मणपजवणाणी णं भंते !०१ जह० एक स० उक० देसूणा पुच्चकोडी, केवलणाणी णं भंते !०१ सादीए अपज्जवसिते, मतिअण्णाणी णं भंते!? महअपणाणी तिविहे पण्णत्ते तं० अणाइए वा अपज्जवसिए अणादीए वा सपज्जवसिए सातीए वा सपज्जवसिते, तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिते से जह० अंतो उको अर्थतं कालं जाव अपहुं पोग्गलपरियह देसूर्ण, सुथअण्णाणी एवं चेव, विभंगअण्णाणी णं भंते! विभंग जह एक समयं उ० तेत्तीसं सागरोवमाइंदेसूणाए पुब्वकोडीए अमहियाई । आभिणियोहियणाणिस्स दीप अनुक्रम [३९२] A % 4 Jhc अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ६-सप्तविधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ७-[अष्टविधा] आरब्धा: ~465 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२६७ ] दीप अनुक्रम [३९३] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) ------ प्रति० प्रति० [७], प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र -[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः - मूलं [२६७ ] श्रीजीवाजीवाभि० मलयगि रीयावृत्तिः ॥ ४५९ ॥ र्ण भंते! अंतरं कालओ०१, जह० अंतो० उ० अणतं कालं जाव अब योग्गलपरियहं बेतूणं, एवं सुपणाणिस्सवि, भहिणाणिस्सवि, मणपञ्जवणाणिस्सवि, केवलणाणिस्स णं भंते! अंतरं०१, सादीयस्स अपजवसियस्स णत्थि अंतरं । महअण्णाणिस्स णं भंते! अंतरं०१, अणादीयस्स अपज्जवसियस थि अंतरं, अणादीयस्स सपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं, सादीयस्स सपज्जबसिस्स जह० अंतो० उक्को० छावहिं सागरोवमाई सातिरेगा, एवं सुयअण्णाणिस्सवि, विभंगणाणिस्स णं भंते! अंतरं० १, जह० अंतो० उक्को० वणस्सतिकालो । एएसि णं भंते! आभिनियोहियणाणीणं सुपणाणि० ओहि० मण० केवल० महअण्णाणि० सुयअण्णाणि विभंगणाणीण य कतरे०१, गोयमा ! सब्वस्थोवा जीवा मणपज्जवणाणी ओहिणाणी असंखेज्जगुणा आभिणिवोहियणाणी सुयणाणी एए दोषि तुल्ला विसेसाहिया, विभंगणाणी असंखिज्जगुणा, केवाणी अनंतगुणा, महअण्णाणी सुयअण्णाणी य दोषि तुल्ला अनंतगुणा || (सू०२३७ ) 'तत्थे'त्यादि, तन्न येते एवमुक्तवन्तोऽष्टविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्त एवमुक्तवन्तस्तद्यथा - आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवविज्ञानिनो मनः पर्यवज्ञानिनः केवलज्ञानिनो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्गवानिनश्च ॥ कायस्थितिचिन्तायामाभिनिवोधिकशानी जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः षट्षष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, एवं श्रुतज्ञान्यपि, अवधिज्ञानी जघन्यत एकं समयमुत्कर्षतः पटषष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, मनः पर्यवज्ञानी जघन्वत एकं समयमुत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, केवलज्ञानी सायपर्यवसितः, म For P&Praise City ९ प्रतिपत्ती सर्वजीवाष्टविधत्वं ~466~ ज्ञाना ज्ञानैः उद्देशः २ सू० २६७ ॥ ४५९ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते — एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति [७], ------------------- मूलं [२६७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६७] त्वज्ञानी त्रिविधस्तद्यथा-अनावपर्यवसितः अनादिसपर्यवसितः सादिसपर्यवसितच, तत्र योऽसौ सादिसपर्यवसित: स जघन्येनान्तशर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽनन्त कालं यावदपार्द्ध पुद्गलपराव देशोनं, एवं भुताज्ञान्यपि, विभनशानी जघन्येनैकं समय, द्वितीयसमये मरणतः | प्रतिपाते सम्यक्ललाभतो ज्ञानभावेन वा विभङ्गामावान् , उत्कर्षतस्त्रयसिंशत्सागरोपमाणि देशोनया पूर्वकोट्याऽभ्यधिकानि, तानि 8 हैच सुप्रतीतानि, अप्रतिपतितविभङ्गानां धन्वन्तरिप्रमुखाणां बहूनां सप्तमपृथिवीनरकगमनभवणात् ॥ अन्तरचिन्तायामाभिनियोधिक ज्ञानिनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावदपार्द्ध पुद्गलपरावर्स देशोनं, एवं भुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनो मन:पर्यवज्ञानिनश्चान्तरं वक्तव्यं, केवलज्ञानिनः साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं, मत्यज्ञानिनः श्रुताशानिनधानाधपर्यवसितस्यानादिसपर्यवसितस्य च नास्त्यन्तरं, सादिसपर्यवसितस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः षट्षष्टिः सागरोपमाणि, विभङ्गज्ञानिनो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽनन्तं कालं वनस्पतिकालः ।। भल्पबहुपचिन्तायां सर्वस्तोका मन:पर्यवशानिनः, तेभ्योऽवधिमानिनोऽसोयगुणाः, तेभ्योऽप्याभिनिबोधिकहानिनः श्रुतज्ञानिनश्च विशेषाधिका:, स्वस्थाने तु द्ववेऽपि परस्परं तुल्या:, तेभ्योऽपि विभङ्गज्ञानिनोऽसयेवगुणाः, मिथ्याशा प्राभूत्यात् , एतेभ्योऽपि केवलज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽपि मत्यज्ञानिनः भुताहानिनश्च प्रत्येकमनन्तगुणाः, छ खस्थाने तु परस्परं तुल्याः, भावना सर्वत्रापि प्राग्वत् , फेवळ सूत्रपुस्तकेष्वतिसङ्केप इति विघृतं ॥ अहवा अढविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, संजहा-णेरड्या तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ मणुस्सा मणुस्सीओ देवा देवीओ सिद्धा ।। णेरइए भंते। मेरायति कालो केवचिरं होति?, गोपमा? जहन्नेर्ण- दस वाससहस्साई उ० तेतीसं साग्योषमाई, तिरिक्खजोणिएर्ष दीप अनुक्रम [३९३] ACCOCKASACL+CROSES ~467~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [७], ------------------- मूलं [२६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: श्रीजीवाजीवाभि. मलयगिरीयावृत्तिः ॥४६॥ ९प्रतिपत्तौ सर्वजीवा| ष्टविधत्वं प्रत सूत्रांक [२६८] 5-5 नारकतैर्य | ग्योनतैर्य ग्योन्या. . भंते १०२, जह• अंतोमु०.उको वणस्सतिकालो, तिरिक्खजोणिणी णं भंते १०१, जह• अंतो. उको तिनि पलिओवमाई पुष्वकोडिपुहुत्तमम्भहियाई, एवं मणूसे मणूसी, देवे जहा नेरइए, देवी गं भंते !0१, जह० दस बाससहस्साई उ० पणपत्रं पलिओवमाई, सिद्धे णं भंते! सिद्धेति०१, गोयमा! सादीए अपज्जवसिए। रइयस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होति. जह अंतो० को० वणस्सतिकालो, तिरिक्खजोणिपस्स गं भंते! अंतरं काल ओ०१. जह अंतो उको सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं, तिरिक्खजोणिणी ण भंते ! अंतरंकाल ओ केचचिरं होति ?, गोयमा जह अंतीमुहुत्तं उक० वणस्सतिकालो, एवं मणुस्सस्सवि मणुस्सीएवि, देवस्सवि देवीएवि, सिद्धस्स णं भंते! अंतरं सादीयस्स अपज्जवसियस्स णधि अंतरं । एतेसि णं भंते! णेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीणं मणूसाणं मणूसीणं देवाणं देवीणं सिद्धाण य कयरे०१, गोयमा सम्वत्थोवा मणुस्सीओ मणुस्सा असंखेनगुणा नेरहया असंखिजगुणा तिरिक्खजोणिणीओ असंखिजगुणाओ देवा संखिजगुणा देवीओ संखेजगुणाओ सिद्धा अर्णतगुणा तिरिक्खजोणिया अनंतगुणा । सेत्तं अढविहा सब्बजीवा पण्णत्ता ॥ (सू०२६८) | 'अहवेत्यादि, 'अथवा' प्रकारान्तरेण अष्टविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-नैरयिकास्तियंग्योनास्तिर्यम्योन्यो मनुष्या मनुष्यो देवा देव्य: सिद्धाः । तत्र नैरविकादीनां देवीपर्यन्तानां कायस्थितिरन्तरं च संसारसमापन्नसप्तविधप्रतिपत्ताविव, सिद्धस्तु कायस्थितिचि ARCAS दीप | दिभेदैः उद्देशा२ सू०२६८ अनुक्रम [३९४] ॥४६०॥ JanAXI अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~468 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [८], ------------------- मूलं [२६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६८] न्तायां साद्यपर्यवसितः, अन्तरचिन्तायां नास्त्यन्तरं ।। अल्पबहुलं, सर्वस्तोका मनुष्याः, सङ्ख्येयकोटीकोटीप्रमाणत्वात् , ताभ्यो मानु प्योऽसोयगुणाः, श्रेण्यसयभागप्रमोणत्वात् , तेभ्यो नैरविका असहयगुणाः, तेभ्यस्तिर्यग्योन्योऽसयेयगुणाः, ताभ्यो देवा: सजयगुणाः, तेभ्यो देव्यः सोयगुणाः, युक्तिः सर्वत्रापि संसारसमापन्नसप्तविधप्रतिपचाविव, देवीभ्यः सिद्धा अनन्तगुणाः, तेभ्यो ऽपि नियंग्योनिका अनन्तगुणाः । उपसंहारमाह-'सेतं अट्ठविहा सबजीवा पन्नत्ता' उक्ता अष्टविधाः सर्वजीवाः, सम्प्रति नवविधानाह तत्थ णं जे ते एवमाहंसु णवविधा सव्वजीवा पं० ते णं एवमाहंसु, तंजहा-एगिदिया बेंदिया तेंदिया चरिंदिया णेरइया पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा देवा सिद्धा ॥ एगिदिए णं भंते ! एगिंदियत्ति कालओ केवचिरं होइ?, गोयमा! जह० अंतोमु० उक्को० वणस्स०, दिए णं भंते! जह• अंतो० उत्को संखेनं कालं, एवं तेइंदिएवि, चउ०, णेरड्या भंते !०२ जह दस वाससहस्साई उक्को० तेत्तीसं सागरोवमाई, पंचेदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! जह० अंतो उको तिणि पलिओवमाई पुवकोडिपुहत्तमभहियाई, एवं मणसेवि, देवा जहाणेरइया, सिडेणं भंते!०२१ सादीए अपज्जवसिए । एगिंदियस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होति ?, गोयमा! जह• अंतो० उक्को दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाई, बंदियस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! जह• अंतो० उक्को वणस्सति दीप अनुक्रम [३९४] अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ७-[अष्टविधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ८-नवविधा] आरब्धा: ~469~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२६९] दीप अनुक्रम [३९५] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र -३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रति० प्रति०] [८], • मूलं [ २६९] प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः ॥ ४६१ ॥ कालो, एवं तदियस्सवि चरदिपस्सव फेरइनस्सवि पंचेद्रियतिरिक्कोपिक्सवि रवि देवस्सवि सब्बेसिमेवं अंतरं माणिपव्वं, सिद्धस्स णं मंते अंतरं कालो०१, सास अपावसियस्स णत्थि अंतरं ॥ एतेसि णं मते। एर्मिदियाणं बेईदि० तेवि चरिंदियाणं रश्याणं पंचेंद्रियतिरिक्खजोणियाणं मणूसणं देषाणं सिद्धाय व कयरे २१, मोयमा ! सव्धस्वोवा मणुस्सा णेरइया असंस्केजगुणा देषा असंखेखगुणा पंचेंद्रियतिरिक्सजोणिया असंखेजगुणा चरिंदिया विसेसाहिया तेइंदिया विसेसाहिया बेंदिया विसे० सिद्धा अनंतगुणा एि दिया अनंतगुणा ॥ ( सू० २६९ ) 'तत्थे'त्यादि, तत्र ये ते एवमुक्तवन्तो नवविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्त एवमुक्तवन्तस्तद्यथा- एकेन्द्रिया द्वीन्द्रियाखीन्द्रियाश्रतुरिन्द्रिया नैरविकास्तिर्यग्योनिका मनुष्या देवाः सिद्धाः ॥ अमीयां कायस्थितिचिन्तायामेकेन्द्रियस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः, द्वीन्द्रियस्थ जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्त्तमुत्कर्षतः सङ्ख्येयं कालं, एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिययोरपि वक्तव्यं, नैरविकस्य जघन्यतो दश वर्षसह लाणि उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, तिर्यग्योनिकष चेन्द्रियस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकानि त्रीणि पल्योपमानि एवं मनुष्यस्यापि देवानां यथा नैरविकाणां । अन्तरचिन्तायामेकेन्द्रियस्य जघन्यमन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो द्वे सागरोपमसहसे सयवर्षाभ्यधिके, द्वित्रिचतुरिन्द्रियनैरथिकतिर्यक्पश्वेन्द्रियमनुष्यदेवानां जघन्यतः प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः, सिद्धस्य साथपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं ॥ अल्पबहुत्खचिन्तायां सर्वस्तोका मनुष्या नैरयिका असत्येवगुणाः देवा असह्येयगुणाः तिर्य For P&Praise Cly ९ प्रतिपत्ती सर्वजीवनवविधत्वं इन्द्रियग तिसिद्धैः उद्देशः २ सू० २६९ ~ 470 ~ ॥ ४६१ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते — एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [८], ------------------- मूलं [२६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६९] सापञ्चेन्द्रिया असलवेयगुणा: चतुरिन्द्रिया विशेषाधिका: त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः द्वौन्द्रिया विशेषाधिका: सिद्धा अनन्तगुणाः एकेन्द्रिया अनन्तगुणाः ॥ अहवा णवविधा सव्यजीवा पण्णता, तंजहा-पढमसमयनेरड्या अपढमसमयणेरडया पढमसमयतिरिक्खजोणिया अपढमसमयतिरिक्खजोणिया पढमसमयमणूसा अपढमसमयमणूसा पढमसमयदेवा अपढमसमयदेवा सिद्धा य॥ पढमसमयणेरड्या णं भंते!?, गोयमा! एकं समयं, अपढमसमयणेरइयस्स णं भंते !० २१, जहन्नेणं दस वाससहस्साई समऊणाई, उको तेत्तीसं सागरोबमाई समऊणाई, पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भंते!०१, एक समयं, अपहमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भंते ०१, जह० खुड्डागं भवग्गहणं समऊणं उफो० वणस्सतिकालो, पतमसमयमणूसे णं भंते 10, एक समयं, अपढमसमयमणूस्से णं भंते!०१,जह खुहागं भवग्गहणं समऊणं उक्को तिन्नि पलिओवमाई पुवकोडिपुहुत्तमभहियाई, देवे जहा णेरइए, सिद्धे णं भंते ! सिद्धेत्ति कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! सादीए अपज्जनसिते ॥ परमसमयणेरड्यस्स णं भंते। अंतरं कालओ०१, गोयमा ! जह. इस वाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भ-' हियाई कोसेणं वणस्सतिकालो, अपढमसमयणेरड्यस्स णं मंते। अंतरं०१, जह• अंतो उको० वणस्सतिकालो, पढमसमयतिरिक्खजोणिपस्सणं भंते। अंतरं कालतो०१, जब दो ख दीप अनुक्रम [३९५] ~471 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [८], ------------------- मूलं [२७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीजीवाजीवाभि० मलयगिरीयावृत्तिः [२७०] प्रतिप्रत्ता सर्वजीवनवविधत्वं प्रथमानथमसमयनारकादिभिः उद्देश:२ ॥४६२॥ हागाई भवग्गहणाई समऊणाई उको० वण०, अपढमसमयतिरिक्खजोणिपस्स णं भंते! अंतरं कालतो०१, जह खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं उ० सागरोवमसयपुहुतं सातिरेगे, पढमसमयमणूसस्स जहा पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स, अपढमसमयमणूसस्स र्ण भंते! अंतरं कालओ०१, ज० खुड्डागं भवग्गह समयाहियं उ० वण, पढमसमयदेवस्स जहा पढमसमयणेरतियस्स, अपतमसमयदेवस्स जहा अपलमसमयणेरहयस्स, सिद्धस्स णं भंते !०, सादीयस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं ॥ एएसिणं भंते! पढमसमयनेरइयाण पढमस. तिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं पढमस.देवाण य कपरे०२१, गोयमा! सब्यस्थोवा पढमसमयमणूसा पढमसमयणेरड्या असंखिज्जगुणा पढमसमयदेवा असं० पढमसतिरिक्खजो० असं०। एएसि गंभंते। अपढमस० नेरहयाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणि अपढमसमयमणूसाणं अपढमसमयदेवाण य कयरे०२१, गोयमा सव्वत्थोवा अपढमसमयमणूसा अपढमसम नेरइ० असं० अपत्मसमयदेवा अस० अपढमसमयतिरि० अणंतगुणा । एतेसि णं भंते ! पढमस नेरइयाणं अपढमसमक रइयाण य कयरे०२१, गोयमा! सब्बत्थोवा पढमसमयणेरड्या अपढमसमयणेरइया असंखेजगुणा, एतेसि णं भंते! पढमसमयतिरिजोक्ख० अपढमस तिरि जोणि कतरे०१, गोयमा! सव्व० पढमसमयतिरि० अपढमसमयतिरि० जोणि अणंत०, मणुयदेवअप्पाबहुयं जहा णेरह दीप अनुक्रम [३९६] सू०२७० 56456 ॥४६२॥ अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~472 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२७०] दीप अनुक्रम [३९६] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र -३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः प्रति० प्रति०] [८], • मूलं [ २७०] जी० ७८ या । एतेसि णं भंते! पढमस० णेरइ० पढमस० तिरिक्खाणं पढमस० मणूसाणं पढमसमयदेवाणं अपढमसमय रह० अपढमसमयतिरिक्खजोणि० अपढमसमयमणूसा० अपढमसमयदेवाणं सिद्धाण य करे० २१, गोयमा । सव्व० पदमस० मणूसा अपढमसम० मणु० असं० पढ मसमयनेरइ० असं० पढमसमयदेवा असंखे० पढमसमयतिरिक्खजो० असं० अपदमसमयनेर० असं अपढमस० देवा असंखे० सिद्धा अनं० अपढमस० तिरि० अनंतगुणा । सेतं नवविहा सव्वजीवा पण्णत्ता ॥ ( सू० २७० ) 'अवे'त्यादि, 'अथवा' प्रकारान्तरेण नवविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञतास्तद्यथा- प्रथमसमयनैरयिका अप्रथम समयनैरयिकाः प्रथमसमयतिर्यग्योनिका अप्रथमसमयतिर्यग्योनिकाः प्रथमसमयमनुध्या अप्रथमसमयमनुष्याः प्रथमसमयदेषा अप्रथमसमयदेवाः सिद्धाः ॥ कार्यस्थितिचिन्तायां प्रथमसमयनैरधिकस्य कार्यस्थितिरेकं समयं अप्रथमसमयनैरविकस्य जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि समयोनानि | उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि समयोनानि, प्रथमसमयतिर्यग्योनिकस्यैकं समयं अप्रथमसमवतिर्यग्योनिकस्य जघन्यतः मुलकभवग्रहणं समयोनमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः, प्रथमसमयमनुध्यस्यैकं समयं अप्रथम समयस्य जयम्वतः क्षुल्लकभवग्रहणं समयोन गुरुकर्षतः पूर्वकोटिपृयक्त्वाभ्यधिकानि त्रीणि पल्योपमानि देवा यथा नैरयिकाः सिद्धाः साद्यपर्यवसिताः ॥ अन्तरचिन्तायां प्रथमसमयनैरविकस्य जयम्यमन्तरं दशवर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि उत्कर्षतो वनस्पत्तिकाल:, अप्रथमसमयनैरमिकस्य जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः, प्रथमसमयतिर्यग्योनिकस्य जघन्यतो द्वे कभवग्रहणे समयोने उत्कर्षतो वनस्पतिकाल:, अत्र For P&Pase Cnly ~ 473~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [८], ------------------- मूलं [२७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७०] दीप अनुक्रम [३९६] श्रीजीवा- थमसमयतिर्यग्योनिकस्य जघन्यतः क्षुलकभवग्रहणं समयाधिकं उत्कर्षतः सागरोपमशतपथक्लं सातिरेक, प्रथमसमयमनुष्यस्य ज- ९प्रतिपत्ती जीवाभि० घन्यतो द्वे क्षुहकभवमहणे समयोने उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, अप्रथमसमयमनुष्यस्य जघन्यतः क्षुल्लकभवप्रहणं समयाधिकमुत्कर्षतोमा सजीवमलयगि- दि वनस्पतिकालः, प्रथमसमयदेवस्य जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि उत्कर्षतो वनस्पतिकालः, अप्रथमसमयदेवस्य | नवविधरीयावृत्तिः जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः, सिद्धस्य साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं ॥ सम्प्रत्यल्पबहुत्नचिन्ता, तत्रास्पबहुत्लान्यत्र च- ताप्रथमा 18 खारि, तद्यथा-प्रथमं प्रथमसमयनैरयिकादीनां, द्वितीयमप्रथमसमयनैरथिकादीनां, तृतीयं प्रथमाप्रथमसमयनैरयिकादीनां प्रत्येक, प्रथमसम॥४३॥ तिचतुर्थं सर्वसमुदायेन, तत्र प्रथममिदम्-सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः, तेभ्यः प्रथमसमयनैरयिका असङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यः प्रथमस- यनारकाPमयदेवा असङ्ख्येय गुणाः, तेभ्यः प्रथमसमयतिर्यग्योनिका असोयगुणाः, नारकादिशेषगतित्रयादागतानामेव प्रथमसमये वर्तमानानां दिसिद्धैः ४ प्रथमसमवतियंग्योनिकलात् । द्वितीयमेवम्-सर्वस्तोका अप्रथमसमयमनुष्याः, तेभ्योऽप्रथमसमयनैरविका असहयगुणाः, तेभ्योऽप्रथ-| उद्देशः२ तमसमयदेवा असल्यगुणाः, तेभ्योऽप्रथमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामनन्तखात् । तृतीयमेवम्-सर्वस्तोकाः सू०२७० प्रथमसमयनैरयिका अप्रथमसमयनैरयिका असोयगुणाः, तथा प्रथमसमयतिर्यग्योनिका: सर्वस्तोका: अप्रथमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, तथा सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्या: अप्रथमसमयमनुष्या असपेयगुणाः, तथा सर्वस्तोकाः प्रथमसमयदेवा: अप्रथमसमयदेवा असोयगुणाः । सर्वसमुदायगतं चतुर्थमेवम्-सर्वस्तोका: प्रथमसमयमनुष्याः अप्रथमसमवमनुष्या असोयगुणाः, तेभ्यः प्रथमसमयनैरयिका असोयगुणाः, तेभ्योऽपि प्रथमसमयदेवा असल्यगुणाः, तेभ्योऽपि प्रथमसमयतिर्यचोऽसहयगुणाः, तेभ्यो ॥४६३॥ ऽपि अप्रथमसमयनैरयिका असोयगुणाः, तेभ्योऽप्यप्रथमसमयदेवा असोयगुणाः, तेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणाः, तेभ्योऽप्रथमसमय JaElcuamine अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~4744 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [९], ------------------- मूलं [२७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७१] दीप अनुक्रम [३९७] दितियग्योनिका अनन्तगुणाः । उपसंहारमाह-'सेत्तं नवविहा सधजीवा पण्णत्ता' । उक्ता नवविधाः सर्वजीवाः, सम्प्रति दशविधानाह तत्थ णं जे ते एवमासु दसविधा सम्बजीवा पपणता ते णं एवमाहंसु, तंजहा-पदविकाहया आउकाइया तेजकाइया वाउकाइया वणस्सतिकाइया बिंदिया तिदिया चरिं० पं. अणिंदिया ॥ पुढधिकाइए णं भंते ! पुढविकाइएत्ति कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! जह• अंतो. पक्को असंखेज कालं असंखेजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ असंखेना लोया, एवं आउतेउवाउकाइए, वणस्सतिकाइए णं भंते !०२१, गोयमा! जह• अंतो० उक्को वणस्सलिकालो, दिए भंते!?, जह. अंतो उको संखेजं कालं, एवं तेईदिएवि चउरिदिएवि, पंचिंदिए णं भंते !?, गोयमा! जह० अंतो० उक्को सागरोवमसहस्सं सातिरेग, अणिदिए थे भंते !०१, सादीए अपजवसिए ॥ पुढविकाइयस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिटोति?, गोयमा जह० अंतोषको वणस्सतिकालो, एवं आउकाइयस्स तेउ० वाउ०. वणस्सइकाइयस्स भंते ! अंतरं कालओ०१, जा चेव पुढविकाइयरस संचिट्ठणा, वियतियचउरिंदियपंचेंदियाणं एतेर्सि चजण्हंपि अंतरं जह• अंतो० उक्को० वणस्सइकालो, अणिविपस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! सादीयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं ॥ ए. अत्र सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ८-नवविधा] परिसमाप्ता अथ सर्वजीव-प्रतिपत्ति: ९-दशविधा] आरब्धा: ~475 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [९], ------------------- मूलं [२७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७१] श्रीजीवा-6 तेसि णं भंते! पुढविकाइयाणं आउ० तेउ० वाउ० वण दियाणं तेइंदियाणं चउरि० पंचेंदिजीवाभि० याणं अणिदियाण य कतरे २०१, गोयमा! सव्वत्थोवा पंचेंदिया चतुरिंदिया विसेसाहिया मलयगि- तेइंदि०विसे० दि० विसे० तेउकाइया असंखिजगुणा पुढविकाइया वि० आज० वि० वाउ. रीयावृत्तिः वि० अणिंदिया अणंतगुणा वणस्सतिकाइया अणंतगुणा ॥ (सू०२७१) ॥४६४॥ 'तत्थे'यादि, तन ये ते एवमुक्तवन्तो दशविधाः सर्वजीवा: प्रज्ञप्तास्त एवमुक्तवन्तस्तद्यथा-पृथिवीकायिका: अकायिका: तेजस्का- यिकावायुकायिकाः वनस्पतिकायिकाः द्वीन्द्रियाः त्रीन्द्रियाः चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः अनिन्द्रियाः, सत्र पृथिवीकायिकस्य काय- स्थितिर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसङ्ख्येयं कालं, असोया उत्सर्पिण्यक्सपिण्यः कालतः क्षेत्रतोऽसलोया लोकाः, एवमप्तेजोवायूनामपि वक्तव्यं, वनस्पतिकायिकस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतोऽनन्तं कालं, अनन्ता उत्सपिण्यवसर्पिण्य: कालत: क्षेत्रतोऽनन्ता लोका असोयाः पुद्गलपरावर्ता आबलिकाया असलेयो भागः, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां जघन्यत: प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षत: प्रत्येक स- क्वेयः कालः, पञ्चेन्द्रियस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षत: सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेक, अनिन्द्रियः साद्यपर्यवसितः ॥ अन्तरचिन्तायां पृथिवीकायिकस्स जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतो वनस्पतिकालः, एवं यावत्पचेन्द्रियस्य, नवरं बनस्पतिकायिकस्योत्कर्षतोउसोयं कालं, असोया उत्सपिण्यवसपिण्यः कालत: क्षेत्रतोऽसोया लोकाः, अनिन्द्रियस्य नास्त्यन्तरं, साद्यपर्यवसितत्वात् | ला अल्पबहुवचिन्तायां सर्वतोकाः पञ्चेन्द्रियाश्चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः श्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः तेजस्कायिका प्रतिपत्ती सर्वजीवदशवि० पृथ्व्यादिभिः प्रथमाप्रथमसमयना दीप अनुक्रम [३९७] तारकादिभिः उद्देशः२ सू०२७१ nge ॥४६४।। अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~476~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [९], ------------------- मूलं [२७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७१] असोयगुणाः पृथिवीकायिका विशेषाधिकाः अप्कायिका विशेषाधिकाः वायुकामिका विशेषाधिका: अविन्द्रिमा अबन्दागुणाः वनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः ।। अहवा वसविहा सव्वजीचा पण्णता, तंजहा-पढमसमयणेरड्या अपरमसमयनेरहया पढमसमयतिरिक्खजोणिया अपढमसमयतिरिक्खजोणिचा पढमसमयमणूसा अपढमसमयमणसा पढमसमयदेवा अपढमसमयदेवा पढमसमयसिद्धा अपढमसमयसिरा पहमसमयबेरायाणं भंते। पत्मसमयणेरहपत्ति कालओ केवचिरं होति?, गोयमा! एकं समर्ष, अपरमसमयनेरइए णं भंते १०१ जहन्नेणं दस वाससहस्साई समऊणाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोचमाई समऊणाई, पढमसमयतिरिक्खजोणिया गं भंते!० २१, गोयमा! एकं समर्थ, अपदमसमयतिरिक्व.जह खुड्डागं भवग्गहणं समऊणं उको० वणस्सहकालो, पढमसमयमणूसे पं भंते १०२, एक समयं, अपढमसमणूसे णं भंते !०१, जह० खुडागं भवग्गहर्ण समकणं उकोतिपिण पलिओवमाई पुब्बकोडिपुत्समभहियाई, देवे जहा णेरइए, पढमसमपसिद्धे णं भंते !०२१, एक समयं, अपतमसमयसिद्धे ण भंते ०२१, सादीए अपज्जवसिए। पढमसमपणेर भंते! अंतर कालओ.?, ज. दस वाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई उको० वण, अपढमसमपणेर अंतरं कालओ केव०१, जह० अंतो० उ० वण०, पढमसमयतिरिक्खजोणियस्त अंत्वरं केवचिरं होह ?, गो दीप अनुक्रम [३९७] VOCALSARDACOCRACKS ~477 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२७२] दीप अनुक्रम [३९८] [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र - ३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रति० प्रति०] [९], • मूलं [ २७२] प्रतिपत्तिः [सर्वजीव], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः श्रीजीवा जीवाभि० मलयगि• रीयावृत्तिः ॥ ४६५ ॥ यमा! जह० दो खुड्डागभवग्गहणाई समऊणाई उक्कों० वण०, अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भंते ०१, जह०. खुड्डागभवरगहणं समयाहियं उक्को० सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं, पढमसमयमसस्स णं. भंते! अंतरं कालओ०१, जह० दो खुड्डागभवग्गहणाई समऊणाई उक्को० वण०, अपढमसमयमणूसस्स णं भंते! अंतरं० ?, जह० खुड्डागं भव० समग्राहियं उक्को० वणस्स०, देवरस णं अंतरं जहा णेरइयस्स, पढमसमयसिद्धस्स णं भंते! अंतरं?, णत्थि, अपढमसमयसिद्धस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवचिरं होति ?, गोयमा ! सादीयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं ॥ एतेसि णं भंते! पढमस० णेर० पदमस० तिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं पढमसमयदेवाणं पढमसमयसिद्धाण य कतरे २०१, गोयमा । सम्वत्थोवा पढमसमयसिद्धा पढमसमयमणूसा असंखे० पढमस० णेरड्या असंखेज्जगुणा पढमस० देवा असं० पढमस० तिरि० असं० । एतेसि णं भंते! अपढमसमयनेरइयाणं जाव अपढमसमयसिद्धाण य कपरे ०१, गोयमा! सव्वत्थोवा अपढमस० मणूसा अपढमसः नेरइया असंखि० अपढमस० देवा असंखि अपमस० सिद्धा अनंतगुणा अपढमस० तिरि० जो० अनंतगुणा । एतेसि णं भंते! पढमस० रइयाणं अपढमस० णेरइयाण य कतरे २१, गोयमा। सव्वत्थोवा पढमस० रइया अपढमस० नेरइया असंखे०, एतेसि णं भंते! पढमस० तिरिक्खजोणियाणं अपढमस० तिरिक्खजोणि- For P&Praise City 2 ~478~ ९ प्रतिपत्तौ सर्वजीव दशवि० प्रथमाप्र थमसमय नारकादिभिः उद्देशः २ सू० २७२ ॥ ४६५ ॥ अत्र मूल संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते — एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशकः वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देशः २" इति निरर्थकम् मुद्रितं Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति : [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [९], ------------------- मूलं [२७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४], उपांगसूत्र-३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२] याण य कतरे २१ गोषमा! सव्वत्थोवा पढमसमयतिरिक्खजो अपढमसतिरिक्खजोणिया । अणंतगुणा, एतेसि णं भंते! पढमस० मणूसाणं अपढमसमयमणूसाण य कतरे २१, गोयमा! सव्वत्थोवा पढमसम० मणूसा अपढमस० मणूसा असंखे०, जहा मणूसा तहा देवावि, एतेसि णं भंते। पढमसमयसिद्धाणं अपढमसमयसिद्धाण य कयरे २ अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वत्थोवा पढमसमयसिद्धा अपढमसम सिद्धा अणंतगुणा। एतेसि णं भंते ! पढमसमयणेरइयाणं अपढमसमयणेरइयाणं पढमस तिरि० जोणि अपढमस० तिरि० जो० प० समयमणू. अपढमस०म० पढ० स० देवाणं अप० सम० देवाणं पढमस० सिद्धाणं अपढमसम० सिद्धाण य कतरे २ अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसे०१, गोयमा! सव्वत्थोवा पढमस० सिद्धा पढमस० मणू. असं० अप० सम० मणू. असंखि० पढमसम० णेरइ० असं० पढमस० देवा असं० पढमस तिरि० असं० अपतमसणेर० असंखे० अपडमस० देवा असं० अपढमस० सिद्धा अर्णत० अपढमस० तिरि० अर्णतगुणा । सेत्तं दसविहा सब्बजीवा पण्णत्ता । सेत्तं सव्वजीवाभिगमे ॥ (सू०२७२) ॥ इति जीवाजीवाभिगमसुतं सम्मत्तं ॥ सूत्रे ग्रन्थाग्रम् ४७५०॥ 'अहवे'त्यादि, 'अथया' प्रकारान्तरेण दशविधाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-प्रथमसमयनैरयिकाः अप्रथमसमयनैरविकाः प्रथम दीप अनुक्रम [३९८] ~479~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम" - प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], ------------------ प्रति प्रति० [९], ------------------- मूलं [२७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[१४] उपांगसूत्र-[३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७२] दीप अनुक्रम [३९८] श्रीजीवा- समयतिर्यग्योनिकाः अप्रथमसमयतिर्यग्योनिकाः प्रथमसमयमनुष्याः अप्रथमसमयमनुष्याः प्रथमसमयदेवा: अप्रथमसमवद्देवाः प्रथम- प्रतिपत्ती जीवाभि समयसिद्धा: अप्रथमसमयसिद्धाः ॥ कायस्थितिरन्तरं च प्रथमसमयनारकादीनामप्रथमसमयदेवपर्यन्तानां पूर्ववत् , प्रथमसमयसिद्धस्य सर्वजीव मलयगि & कायस्थितिरेक समय, अप्रथमसमयसिद्धः साद्यपर्यवसितः, प्रथमसमयसिद्धस्य नास्त्यन्तरं, भूयः प्रथमसमथसिद्धत्वाभावात् , अप्रथ- दशवि० रीयावृत्तिःमसमयसिद्धस्यापि नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् ।। अल्पबहुलान्यत्रापि चत्वारि, तत्र प्रथममिदं-सर्वस्तोकाः प्रथमसमयसिद्धाः, अष्टो- उपसंहा त्तरशतादूर्द्धमभावात् , तेभ्यः प्रथमसमयमनुष्या असङ्खयेयगुणा: वेभ्यः प्रथमसमवनैरयिका असल्येयगुणाः तेभ्यः प्रथमसमयदेवा || रश्च ॥४६६॥ असङ्ख्येयगुणाः तेभ्यः प्रथमसमयतिर्ययोऽसोयगुणाः । द्वितीयमिदं सर्वस्तोका अप्रथमसमयमनुष्या अप्रथमसमयनैरविका अस- उद्देशा२ व्यगुणाः अप्रथमसमयदेवा असपेयगुणा: अप्रथमसमयसिद्धा अनन्तगुणा: अप्रथमसमयतिर्यचोऽनन्तगुणाः । तृतीयं प्रत्येकभा- सू०२७२ विनरयिकतिर्यअनुष्यदेवानां पूर्ववत् , सिद्धानामेयं-सर्वस्त्रोकाः प्रथमसमयसिद्धा अप्रथमसमयसिला अनन्तगुणाः । समुदायगतं | चतुर्थमेवं-सर्वस्तोकाः प्रथमसमयसिद्धा: तेभ्यः प्रथमसमयमनुष्या असोयगुणाः वेभ्योऽप्रथमसमयमनुष्या असोयगुणा: तेभ्यः प्रथमसमयनैरविका असोयगुणाः वेभ्यः प्रथमसमयदेवा असोयगुणा: वेभ्यः प्रथमसमयतिर्ययोऽसोयगुणाः तेभ्योऽप्रथमस-10 दमयनरयिका असोयगुणाः तेभ्योऽप्रथमसमयदेवा असोयगुणाः तेभ्योऽप्रथमसमयसिद्धा अनन्तगुणाः तेभ्योऽप्रथमसमयतिर्यचो ऽनन्तगुणाः, भावना सर्वत्रापि प्राग्वन , नवरं सूजे संक्षेप इति विवृतम् । निगमनमाइ-सेवं दखविन सबजीया पन्नत्ता, महानिगमनमाह-सोऽयं सर्वजीवाभिगम इति । विवृतयुदेसकोऽध्ययनशाखमपनमित्येतदविगम्भीराई, अविषयोऽख सार: स्थू- ॥४६६॥ द्रलबुद्धीना, न खलु पश्यवि सूक्ष्मान रूपविशेषण बन्दकोचर, स्थूळदर्शचसपि हिताय मध्वाखान्य, देवयवोगयोगाय वरफलयो अत्र मूल-संपादने शिर्षक-स्थाने एका स्खलना वर्तते- एता प्रतिपतौ न कोऽपि उद्देशक: वर्तते, तत् कारणात् अत्र “उद्देश: २" इति निरर्थकम् मुद्रितं ~480 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१४) प्रत सूत्रांक [२७२] दीप अनुक्रम [३९८] भाग 17 [भाग-१७] “जीवाजीवाभिगम” – उपांगसूत्र -३ / २ ( मूलं + वृत्ति:) प्रति० प्रति०] [९], • मूलं [ २७२] प्रतिपत्ति: [सर्वजीव], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [१४] उपांगसूत्र- [३] "जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीता वृत्तिः गात्, पक्षपातोऽप्यत्र कल्याण हेतुः, राजयक्ष्माऽहङ्कारादिदुःखसमुदयस्य विपर्यस्तदर्शनं वनर्थायेति त्याज्य एतदनुगुणो व्यवहारः, कार्या सदैव सन्मार्गप्रतिपत्तये मार्गानुसारिबोध बहुश्रुतजनैः सङ्गतिः, तद्योगतः सकलापायविरहिणां चिरमभिमतफलसिद्धेः ॥ जयति परिस्फुटविमल ज्ञानविभासितसमस्तवस्तुगणः । प्रतिहतपरतीर्थिमतः श्रीवीरजिनेश्वरो भगवान् ॥ १ ॥ सरस्वती तमोवृन्दं, शरज्योत्स्लेव निम्नती । नित्यं वो मङ्गलं दिश्यान्मुनिभिः पर्युपासिता ॥ २ ॥ जीवाजीवाभिगमं विवृण्वताऽवापि मलयगिरिणेह कुशलं तेन लभन्तां मुनयः सिद्धान्तसद्बोधम् ॥ ३ ॥ ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचिता श्रीजीवाजीवाभिगमवृत्तिः समाप्ता ॥ प्रन्थायम् १४००० ॥ ~~~~~~~~ ॥ इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहितविवरणयुतं श्रीमजीवा जीवाभिगमाख्यमुपाङ्गं समाप्तिं गतम् ॥ wwwwwwwwwwwwwr इति श्रेष्ठि देवचन्द लालभाई जैनपुस्तकोद्वारे ग्रन्थाङ्कः ५० । For P&Praise Chly जीवाजीवाभिगम - उवंगसूत्र [ ३/२] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ताः मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] ~ 481~ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग 01 02 03 04 05 06 07 08 09 10 सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग - १ श्रुतस्क्न्ध-१, अध्ययन- १,२ आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग - १ | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ भाग-२ | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध- २ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १ से १३ श्रुतस्कन्ध- १, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ स्थान- १ से ४ स्थान- ५ से १० संपूर्ण भाग-१ शतक- १ से ६ भाग-२ शतक- ७ से ११ | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. आगम-७,८,९,१० उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. भाग-३ शतक- १२ से २० भाग-४ शतक - २१ से ४१ संपूर्ण 11 12 13 14 15 16 17 | आगम १४ जीवाजीवाभिगम भाग - २ मूलं एवं वृत्ति. [ प्रतिपत्ति-३ - अतर्गत ] सूत्र - १३९ से प्रतिपत्ती - १० संपूर्ण 18 आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद- १ से ५ 19 आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. पद- ६ से २२ 20 आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. पद- २३ से ३६ पूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम-११, १२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. आगम १४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [ प्रतिपत्ति ३ अतर्गत सूत्र- १ से १३८ ~ 482 ~ कुलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ४२६ ५१४ ३३६ ६१० Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलपृष्ठ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४ ३१२ 27 ३३० ४६६ ४४२ सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, ___ भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-५ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूल एवं वृत्ति. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूल एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ | आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. ४६४ ४२६ ४७२ ३७६ ५९० ५२२ से ४८२ मूलं एवं वन्ति भाग-२, अध्ययन ४६६ 38 | ५२८ ५६० ३९४ ~4834 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित - सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः आगम [14/2] पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधितः संपादितश्च “जीवाजीवाभिगम (उपांगसूत्र - ३/२) [ मूलं एवं मलयगिरि-प्रणित वृत्तिः] (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलितः “जीवाजीवाभिगम” मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्तः “सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि” श्रेणि, भाग- 17 ~ 484~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावाम राजन रायम सिवायमा समाजमा ਸ਼ ਹਾਸ ਰਸ ਸ਼ ਹਿਰ ਨੂੰ ਵਰਗਲ किया आगम वाचना शताब्दी वर्षा ~485 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता OM MAHARMARRER M पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज __ आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] MAITANEntendows प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 198253062751 ~486 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता KHREpikalincal श्री आगम मंदिर पालिताणा a HOSEHOREOF ~487 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आगमन आजम मूल संशोधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आम आजम आगम आगम आगम आगम। आगम 14 “जीवाजीवाभिगम" मूलं एवं वृत्ति: [2] आजम् अभिनव-संकलनकर्ता आजम / आजम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आगम [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आगम आगम आगम आजम -488