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* भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला पुष्प ८६ *
- सर्वज्ञवीतरागाय नमः -
श्रीमत्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत
श्री
समयसार
मूल गाथा, संस्कृत छाया, हिन्दी पद्यानुवाद, श्री अमृतचन्द्राचार्य देव विरचित संस्कृत टीका और उसके
गुजराती अनुवाद के हिन्दी अनुवाद सहित
गुजराती अनुवादक :
श्री हिम्मतलाल जेठालाल शाह, बी . एससी .
सोनगढ़ (सौराष्ट्र)
हिन्दी अनुवादक :
श्री पं . परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ
ललितपुर (झाँसी)
प्रकाशक:
श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट
सोनगढ़ (सौराष्ट्र जि . भावनगर)
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समयसार
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my
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Version number
001
Date 16 June 2005
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समयसार
प्रथमावृत्ति १००० द्वितीयावृत्ति १५०० तृतीयावृत्ति २२०० चतुर्थावृत्ति १५०० पंचमावृत्ति २४००
पंचमावृत्ति
२५००
वीर नि. सं.
२५०१
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समयसार
पू. श्री कानजी स्वामी
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समयसार
अर्पण
जिन्होंने इस पामर परअपार उपकार किया है, जिनकी
प्रेरणासे समयसारका यह अनुवाद तैयार हुआ है,
जो द्रव्य
और
भावसे
समयसारकी
महा
प्रभावना कर रहे हैं, समयसारमें
प्ररूपित
निश्चय-व्यवहारकी संधिपूर्वक जिनका
जीवन
है, उन परमपूज्य परम
उपकारी गुरुदेव (श्री कानजी
स्वामी) को यह अनुवाद-पुष्प
अत्यन्त भक्तिभावसे
अर्पण करता
Shop
--हिम्मतलाल जे. शाह
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समयसार
ॐ
जिनजीकी वाणी
खिरें ।
सीमंधर मुखसे फुलवा जींकी कुन्दकुन्द गूँथे माला रे. जिनजी की वाणी भली रे ।
भली,
वाणी प्रभू मन लागे जिसमें सार समय शिरताज रे. जिनजी की वाणी भली रे । गूंथा पाहुड़ अरु गूंथा पंचास्ति, गूंथा जो प्रवचनसार
रे, जिनजी की वाणी भली रे । गूंथा नियमसार गूंथा रयणसार, गूंथा समयका सार रे, जिनजी की वाणी भली रे । स्याद्वादरूपी सुगन्धी भरा जो, जिनजीका ओंकारनाद रे,
जिनजी की वाणी भली रे ।
वंदूं जिनेश्वर, वंदूं मैं कुन्दकुन्द, वंदूं यह ओंकारनाद
जिनजी की वाणी भली रे हृदय रहो मेरे भावों रहो,
मेरे ध्यान रहो
जिनजी की
जिन वाण रे, वाणी भली रे । वाणीकी गूंज,
जिनेश्वरदेवकी
मेरे गूँजती रहो दिन रात रे,
सीमंधर०
सीमंधर०
सीमंधर०
जिनजी की वाणी भली रे । सीमंधर०
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७
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समयसार
प्रथमावृत्ति के प्रकाशकीय निवेदन में से
हम सब मुमुक्षुओंका महा भाग्य है जो ऐसे महान ग्रन्थराज आज हमको प्राप्त हो रहा है अतः उन महान महान उपकारी श्री कुन्दकुन्दाचार्यका हमारे ऊपर बड़ा भारी उपकार है। श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य का भी परम उपकार है जो उन्होंने गाथामें भरे हुए मूल भावोंका दोहन करके उनके भावों को टीका रूप स्पष्ट प्रकाशित कर दिया है और उनपर कलश काव्यरूप रचना भी की है। वर्तमान में तो उनसे भी महान उपकार हमारे ऊपर तो पू० कानजी स्वामी का है कि जिनने अगर पूज्य अमृतचन्द्रा-चार्यकी टीकाको इतना विस्तृत और स्पष्ट करके नहीं समझाया होता तो इस महान ग्रन्थाधिराजके मर्मको समझ सकनेका भी महान सौभाग्य हम सबको कैसे प्राप्त होता ? अभी से २००० वर्ष पूर्व भगवान श्री कुन्दकुन्द आचार्य द्वारा समयसाररूपी मूल सूत्रोंकी रचना हुई, उनके १००० वर्ष उपरान्त ही आचार्य श्रीअमृतचन्द्रदेवके द्वारा उन सूत्ररूप गाथाओं पर गाथाओंके गुप्त भावोंको प्रकाशमें ला देनेवाली आत्मख्याति नामकी टीकाकी रचना हुई और आज उन रचनाके १००० वर्ष उपरान्त ही पूज्य श्री कानजी स्वामी के द्वारा उन टीका पर विस्तृत विशद व्याख्या हो रही है, यह सब परम्परा इस बातकी द्योतक है कि जैसे जैसे जीवोंकी बुद्धि न्यून होती जा रही है वैसे ही वैसे पात्र जीवोंको यथार्थ तत्त्व समझने योग्य स्पष्टता होती चली जा रही है। यह वर्तमान के आपके प्रवचन आगामी १००० वर्ष तक, पात्र जीवोंकी परम्परा बनाये रखने के लिये निश्चय पूर्वक कारण होंगे।
इस ग्रन्थराज की रचना के सम्बन्धमें, ग्रन्थके विषयके बाबतमें गुजराती भाषामें अनुवाद करने का कारण एवं अनुवादमें कौन कौन से ग्रन्थोंका आधार लिये गया आदि अनेक विषयोंको श्री हिम्मतलाल भाई ने अपने उपोद्घात में सुन्दर रीतिसे स्पष्ट किया है वह पाठकोंको जरूर पढ़ने योग्य है।
इस समयसार के गुजराती भाषा में अनुवादकर्ता तथा गुजराती में हरीगीतिका छन्दकी रचना करने वाले तथा हिन्दी हरीगीतिका छन्दको जो इस प्रकाशन में दिये गये हैं उनका सम्पूर्णतया संशोधन करने वाले श्री हिम्मतलाल भाई बी. एससी. हैं उनकी प्रशंसा जितनी भी की जावे कम है। उनके विषयमें श्री भाई श्री रामजीभाई माणेकचन्दजी दोशी प्रमुख श्री दि० जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट ने निम्न शब्दों में प्रशंसा की है :--
___ “भाई श्री हिम्मतलाल भाई, अध्यात्मरसिक, शांत, विवेकी, गम्भीर और वैराग्यशाली सज्जन हैं इसके अलावा उच्च शिक्षा प्राप्त और संस्कृत में प्रवीण हैं। ग्रन्थाधिराज श्री समयसारजी, प्रवचनसार, नियमसार तथा पंचास्तिकायका गुजराती अनुवाद भी उन्होंने ही किया है। इस प्रकार श्रीमद् कुन्दकुन्दभगवानके
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समयसार
सर्वोत्कृष्ट परमागम शास्त्रों के अनुवाद करने का परम सौभाग्य उन्हीं को मिला है इसलिये वे यर्थाथरूपसे धन्यवाद के पात्र हैं।” ।
समयसार गुजराती टीका परसे हिन्दी अनुवाद करनेका कार्य भी कठिन परिश्रम साध्य था, उसको पूरा करने वाले श्री पं. परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ धन्यवाद के पात्र हैं।
इस अनुवाद के तैयार हो जाने पर इसको अक्षरशः मिलान करके जाँचनेका कार्य और भी कठिन था, उसमें अपना अमूल्य समय देनेवाले श्रीयुत् माननीय भाई श्री रामजीभाई माणेकचन्द दोशी, श्रीयुत् भाई श्री खीमचन्द भाई, श्री ब्र. चन्दूभाई, श्री ब्र. अमृतलालभाई और श्री ब्र. गुलाबचन्दभाईको बहुत बहुत धन्यवाद है।
इसकी गाथाओं पर हिन्दी छन्द रचना करने का मुझे अवसर मिला, यह मेरा सौभाग्य है। इस रचना के समय गाथा के भाव; पूर्णरीत्या छन्द में आजावें इस ही बात का मुख्य उद्देश्य रखा गया है। छन्द रचना की दृष्टि गौण रखी गयी अतः इस सम्बन्ध की कमी के लिये पाठक क्षमा करें।
सबके अन्त में परम उपकारी अध्यात्ममूर्ति श्री कानजीस्वामी के प्रति अत्यन्त भक्ति पूर्वक नमस्कार है कि जिनकी यथार्थ तत्त्व प्ररूपणा से अनन्त काल नहीं प्राप्त किया ऐसे यथार्थ मोक्षमार्गको समझनेका अवसर प्राप्त हुआ है तथा इस ओर की रुचि प्रगटी है। अब आन्तरिक हृदय से यह भावना है कि आपका उपदेशित हितमार्ग मेरे अन्तर में जयवंत रहे तथा उसपर अप्रतिहत भाव से चलने का बल मेरे में प्राप्त हो।
वीर निर्वाण सं० २४७९ नेमीचन्द पाटनी
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समयसार
प्रकाशकीय निवेदन
(पंचमावृत्ति)
आत्मकल्याणका स्पष्ट मार्ग बतलानेवाला परमागम श्री समयसारजी शास्त्र अद्वितीय जगतचक्षु है जिसकी महिमा अपार है। वर्तमान धर्मक्रान्ति युगमें इस शास्त्र का श्रवण, मनन और निदिध्यासन द्वारा सत्य समझने का उत्साह प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।
समयसारजी दैवीशास्त्र-भागवत शास्त्र है इसलिये उसका पारायण [ पठन - पाठन] करना तत्त्वजिज्ञासुओंके लिये नित्य कर्तव्य है। श्री अमृतचन्द्राचार्यकृत टीका सर्वोत्तम अध्यात्म टीका है। उसमें श्री कुन्दकुन्दाचार्यका हार्द विशदरूपसे खोला गया है। अनादि मोहरूप अज्ञान के कारण जो जीव अत्यन्त अप्रतिबुद्ध हो वह भी ज्ञानी का अभिप्राय समझनेमें अत्यन्त सावधान हो जावे ऐसी अनुपम शैली है। पवित्र रसमय शान्तिदायक अपूर्व जीवन कैसे प्राप्त हो यह बात समयसार द्वारा समझने का प्रयत्न करने वालोंकी संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है यह इसका सूचक है और यही सच्ची धर्म प्रभावना है।
परमोपकारी पज्य सत्परुष श्री कानजीस्वामी के इस शास्त्रके ऊपर अत्यन्त सूस्पष्ट और सुबोध प्रवचन द्वारा धर्म जिज्ञासुओंको अपूर्व यथार्थ समाधान प्राप्त हो रहा है। जो चीज पूर्व में अनंत काल में दुर्लभ थी वही चीज स्वामीजी ने जिज्ञासु पात्र जीवोंके लिये सुगम-सुलभ कर दी है। जो मध्यस्थ होकर प्रत्यक्ष समागम द्वारा यथार्थता, स्वतन्त्रता और वीतरागता ग्रहण करने का प्रयत्न करेगा उसके लिये आत्मकल्याण करने का यह उत्तम अवसर है।
श्री परमागम मंदिर में संगमरमरमें जो मूल गाथाएँ उत्कीर्ण हो गई हैं उनके अनुसार इस आवृत्ति में मूल गाथाओंमें संशोधन किया गया है। चतुर्थ आवृत्ति के अनुसार संस्कृत श्लोकोंका हिन्दी अर्थ देते हुए बीच–बीचमें वे संस्कृत शब्द भी कौंस में दिये गये हैं जिनका वह अर्थ है।
इन दोनों कार्यों में ब्र. श्री चन्दुलालजी ने अत्यन्त सावधानी पूर्वक परिश्रम किया है अतः हम उनका आभार मानते हैं।
___ श्री नेमीचन्दजी बाकलीवाल [ मालिक--कमल प्रिन्टर्स, मदनगंज-किशनगढ़ ] ने उत्तम ढंग से यह ग्रन्थ छाप दिया है, इसके लिये हम उनका भी अभार मानते हैं।
___पाठकों से प्रार्थना है कि इस शास्त्रका नयविभाग द्वारा सुचारुरूपसे अभ्यास कर त्रैकालिक ज्ञायक स्वभावी निजात्मा के आश्रय से ही शुद्धता की प्राप्तिका सतत् प्रयत्न करें।
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समयसार
श्री वीर निर्वाण सं०
साहित्य प्रकाशन कमेटी श्री दि. जैन स्वाध्याय मन्दिर सोनगढ़ [ सौराष्ट्र ]
---:: श्री वीतरागगुरवे नमः :
उपोद्घात ४ भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत यह समयप्राभृतत्त अथवा 'समयसार' नामका शास्त्र ‘द्वितीय श्रुतस्कंध' में का सर्वोत्कृष्ट आगम है।
द्वितीय श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई यह पहले अपन पट्टावालियोंके आधारसे संक्षेप में देख लेवें।
आज से २४६६ वर्ष पहले इस भरतक्षेत्र की पूण्य-भूमि में मोक्षमार्गका प्रकाश करने के लिये जगतपूज्य परम भट्टारक भगवान् श्री महावीर स्वामी अपनी सातिशय दिव्यध्वनि द्वारा समस्त पदार्थों का स्वरूप प्रगट कर रहे थे। उनके निर्वाण के पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए, उनमेंसे अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी हुवे। वहाँ तक तो द्वादशांग शास्त्रके प्ररूपणसे व्यवहारनिश्चयात्मक मोक्षमार्ग यथार्थ प्रवर्तता रहा। तत्पश्चात् कालदोष से क्रमक्रमसे अंगोंके ज्ञान की व्युच्छित्ति होती गई। इस प्रकार अपार ज्ञान-सिन्धुका बहु भाग विच्छेद हो जाने के पश्चात् दूसरे श्री भद्रबाहुस्वामी आचार्य की परिपाटी में दो महा समर्थ मुनि हुए- एक का नाम श्री धरसेन आचार्य तथा दूसरोंका नाम श्री गुणधर आचार्य था। उनसे मिले हुए ज्ञान के द्वारा उनकी परम्परा में होने वाले आचार्योंने शास्त्रोंकी रचनाएँ की और श्री वीर भगवान के उपदेश का प्रवाह प्रवाहित रखा।
श्री धरसेन आचार्यको अग्रायणी पूर्वका पाँचवाँ वस्तु अधिकार उसके महाकर्मप्रकृति नाम चौथे प्राभृत का ज्ञान था। उस ज्ञानामृत में से अनुक्रमसे उनके पीछे के आचार्यों द्वारा षट्खंडागम, धवल, महाधवल, जयधवल, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणसार, आदि शास्त्रोंकी रचना हुई। इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कंध की उत्पत्ति है। उसमें जीव और कर्म के संयोग से हुए आत्माकी संसार-पर्यायका----गुणस्थान, मार्गणा आदि का-----संक्षिप्त वर्णन है, पर्यायार्थिकनयको प्रधान करके कथन है। इस नय को अशुद्ध द्रव्यार्थिक भी कहते हैं अध्यात्मभाषा से अशुद्ध निश्चयनय अथवा व्यवहार कहते हैं।
श्री गुणधर आचार्यको ज्ञानप्रवादपूर्वकी दसवीं वस्तुके तृतीय प्राभृतका ज्ञान था। उस ज्ञान में से उनके पीछे के आचार्यों ने अनुक्रमसे सिद्धान्त रचे। इस प्रकार सर्वज्ञ भगवान् महावीर से प्रवाहित होता हुआ ज्ञान, आचार्योंकी परम्परासे भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव को प्राप्त हुआ। उन्होंने पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि शास्त्र रचे इसप्रकार द्वितीय श्रुतस्कंधकी उत्पत्ति हुई। इसमें ज्ञान को प्रधान करके शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे कथन है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन है।
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समयसार
१२
भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव विक्रम संवत् के प्रारम्भमें हो गये हैं। दिगम्बर जैन परम्परा में भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव का स्थान सर्वोत्कृष्ट है।
मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोस्तु मंगलं ।।
प्रत्येक दिगम्बर जैन, इस श्लोक को, शास्त्राध्ययन प्रारम्भ करते समय मंगलाचरणरूप बोलते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि सर्वज्ञ भगवान् श्री महावीर स्वामी और गणधर भगवान श्री गौतम स्वामी के अनन्तर ही भगवान कुन्दकुन्दाचार्य का स्थान आता है। दिगम्बर जैन साधुगण स्वयंको कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्परा का कहलाने में गौरव मानते हैं, भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव के शास्त्र साक्षात गणधर देवके वचनों जैसे ही प्रमाणभूत माने जाते हैं। उनके अनन्तर हुवे ग्रन्थकार आचार्य स्वयंके किसी कथन को सिद्ध करने के लिये कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्रों का प्रमाण देते हैं जिससे यह कथन निर्विवाद सिद्ध होता है। उनके पीछे के रचे हुवे ग्रन्थोंमें उनके शास्त्रोंमें अनेकानेक अवतरण लिये हुवे हैं। यथार्थतः भगवान कुन्दकुन्दाचार्यने स्वयंके परमागमोंमें तीर्थंकर देवोंके द्वारा प्ररूपित उत्तमोत्तम सिद्धांतोंका [ झालवी ] साध रखा है और मोक्षमार्गको टिका रखा है। वि० सं० ९९० में हुए देवसेनाचार्यवर अपने दर्शनसार नाम के ग्रन्थ में कहते हैं कि ----
जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण । ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ।[दर्शनसार]
विदेहक्षेत्र के वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमंधर स्वामीके प्राप्त किये हुवे दिव्य ज्ञान के द्वारा श्री पद्मनंदिनाथने [श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवने] बोध नहीं दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?त्त दूसरा एक उल्लेख देखिये, जिसमें कुन्दकुन्दाचार्यदेवको कलिकाल सर्वज्ञ कहा गया है, पद्मनंदि, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, ऐलाचार्य, गृध्रपिच्छाचार्य, इन पाँचों नामों से विराजित, चार अंगुली ऊपर आकाश में गमन करने की जिनको ऋद्धि थी, जिन्होंने पूर्व विदेह में जाकर श्री सीमंधर भगवान का वंदन किया था और जिनके पास से मिले हुवे श्रुतज्ञान के द्वारा जिन्होंने भारतवर्ष के भव्य जीवोंको प्रतिबोधित किया है ऐसे जो श्री जिनचंद्रसूरी भट्टारकके पट्टके आभरणरूप कलिकाल सर्वज्ञ [ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेव] उनके द्वारा रचित इस षटप्राभुत ग्रंथमें ०००००००० सूरीश्वर श्री श्रुतसागर द्वारा रचित मोक्षप्राभृत की टीका समाप्त हुई।क्त इसप्रकार षटप्राभृत की श्री श्रुतसागरसूरी कृत टीका के अन्त में लिखा हुआ है। भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेव की महत्ता बतलाने वाले ऐसे अनेकानेक उल्लेख जैन साहित्य में मिलते हैं। *शिलालेख भी अनेक हैं। इसप्रकार यह निर्णोत है कि सनातन जैन [दिगम्बर ] संप्रदाय में कलिकाल सर्वज्ञ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य का अथान अजोड़ है।
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१३
'
भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य के रचे हुवे अनेक शास्त्र हैं; उनमें से थोड़े अभी विद्यमान हैं। त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ देव के मुख से प्रवाहित श्रुतामृत की सरिता में से जो अमृत-भाजन भर लिये गये वे वर्तमान में भी अनेक आत्मार्थियों को आत्म- जीवन अर्पण करते हैं। उनके पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार नामके तीन उत्तमोत्तम शास्त्र नाटकत्रय अथवा 'प्राभृतत्रय' कहलाते हैं, इन तीनों परमागमोंमें हजारों शास्त्रोंका सार आ जाता है। इन तीन परमागमों में भी कुन्दकुन्दाचार्य के पश्चात् लिखे हुये अनेक ग्रन्थों के बीज निहित हैं ऐसा सूक्ष्म दृष्टि से अभ्यास करने पर मालूम होता है। पंचास्तिकायमें छह द्रव्यों का और नौ तत्त्वों का स्वरूप संक्षेप में कहा है । प्रवचनसार को ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र इसप्रकार तीन अधिकारों में विभाजित किया है। समयसार में नव तत्त्वोंका शुद्धनय की दृष्टि से कथन है।
श्री समयसार अलौकिक शास्त्र है। आचार्य भगवान् ने इस जगत के जीवों पर परम करुणा करके इस शास्त्रकी रचना की है। उसमें मोक्षमार्गका यथार्थ स्वरूप जैसा है वैसा कहा गया है, अन्तकाल से परिभ्रमण करते हुवे जीव को जो कुछ समझना बाकी रह गया है वो इस परमागम में समझाया गया है। परम कृपालु आचार्य भगवान् इस शास्त्र को प्रारम्भ करते ही स्वयं ही कहते हैं:- कामभोगबंधनकी कथा सब ने सुनी है, परिचय किया है, अनुभव किया है लेकिन पर से भिन्न एकत्व की प्राप्ति ही केवल दुर्लभ है। उस एकत्व की पर से भिन्न आत्मा की बात मैं इस शास्त्रमें समस्त निज वैभव से [ आगम, युक्ति, परमपरा और अनुभव से ] कहूँगा, इस प्रतीज्ञा के अनुसार आचार्य देव इस शास्त्रमें आत्मा का एकत्व पर द्रव्य से और पर भावोंसे भिन्नता - समझाते हैं। वे कहते हैं कि 'जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत,
•
समयसार
वन्द्यो विभुर्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः । कुन्द - प्रभा - प्रणयि - कीर्ति - विभूषिताशः।। यश्चारु–चारण-कराम्बुजचञ्चरीक - श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्टाम्।। [ चन्द्रगिरि पर्वतका शिलालेख ] कुन्दपुष्पकी प्रभाको धारण करनेवाली जिनकी कीर्तिके द्वारा दिशाएँ विभूषित हुई हैं, जो चारणोंके - चारणऋद्धिधारी महामुनियोंके - सुन्दर हस्तकमलोंके भ्रमर थे और जिस पवित्रात्माने भरतक्षत्रमें श्रुतकी प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किसके द्वारा वन्द्य नहीं हैं ?
अर्थः
.. कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ।। रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्येऽपि संव्यञ्जयितुं यतीशः । रजःपदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगुलं सः ।।
ooooooooo
[ विन्ध्यगिरि शिलालेख ]
अर्थः- यतीश्वर [ श्री कुन्दकुन्दस्वामी ] रजः स्थानको - - - भूमितलको - छोड़कर चार अंगुल ऊपर आकाशमें चलते थे, उससे मैं यह समझता हूँ कि वे अंतरङ्ग तथा बहिरङ्ग रजसे [ अपना ] अत्यन्त अस्पृष्टत्व व्यक्त करते थे [ - वे अंतरङ्गमें रागादिमलसे और बाह्यमें धूल से असपृष्ट थे ] |
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समयसार
१४
अविशेष और असंयुक्त देखते हैं वे समग्र जिन शासन को देखते हैं' और भी वे कहते हैं कि ऐसा नहीं देखने वाले अज्ञानी के सर्व भाव अज्ञानमय हैं'। इस प्रकार जहाँ तक जीव को स्वयं की शुद्धता का अनुभव नहीं होता वहाँ तक वो मोक्षमार्गी नहीं है; भले ही वो व्रत, समिति, गुप्ति आदि व्यवहार चारित्र पालता हो और सर्व आगम भी पढ़ चुका हो। जिसको शुद्ध आत्माका अनुभव वर्तता है वह भी सम्यग्दृष्टि है, रागादि के उदय में सम्यक्त्वी जीव कभी एकाकररूप परिणमता नहीं है परन्तु ऐसा अनुभवता है कि 'यह पुद्गलकर्मरूप राग का विपाकरूप उदय है; ये मेरे भाव नहीं है, मैं तो एक ज्ञायक भाव हूँ'। यहाँ प्रश्न होगा कि रागादि भाव होते रहने पर भी आत्मा शुद्ध कैसे हो सकता है ? उत्तर में स्फटिकमणिका दृष्टांत दिया गया है। जैसे स्फटिकमणि लाल कपड़ेके संयोगसे लाल दिखाई देती हैं--होती है तो भी स्फटिकमणि के स्वभाव की दृष्टिसे देखने पर स्फटिकमणि ने निर्मलपना छोड़ा नहीं है, उसी प्रकार आत्मा रागादी कर्मोदय के संयोग से रागी दिखाई देते है--होता है तो भी शुद्धनय की दृष्टि से उसने शुद्धता छोड़ी नहीं है। पर्यायदृष्टिसे अशुद्धता वर्तते हुवे भी द्रव्यदृष्टिसे शुद्धता का अनुभव हो सकता है। वह अनुभव चतुर्थ गुणस्थान में होता है। इससे वाचक के समझमें अवेगा कि सम्यग्दर्शन कितना दुष्कर है। सम्यग्दृष्टिका परिणमन ही पलट गया होता है। वह चाहे जो कार्य करते हुवे ही शुद्ध आत्मा को ही अनुभवता है। जैसे लोलुपी मनुष्य नमक और शाकके स्वादका भेद नहीं कर सकता; उसी प्रकार अज्ञानी ज्ञान का और राग का भेद नहीं कर सकता; जैसे अलुब्ध मनुष्य शाक से नमक का भिन्न स्वाद ले सकता है उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि राग से ज्ञान को भिन्न ही अनुभवता है।अब यह प्रश्न होता है कि ऐसा सम्यग्दर्शन किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् राग और आत्मा की भिन्नता किस प्रकार अनुभव पूर्वक समझमें आवे? आचार्य भगवान् उत्तर देते हैं कि-- प्रज्ञारूपी छेनी से छेदते वे दोनों भिन्न हो जाते हैं, अर्थात् ज्ञान से ही वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी पहिचान से ही --, अनादिकाल से राग द्वेष के साथ एकाकाररूप परिणमता आत्मा भिन्नपने परिणमने लगता है; इससे अन्य दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसलिये प्रत्येक जीव का वस्तुके यथार्थ स्वरूप की पहिचान करने का प्रयत्न सदा कर्तव्य है।
इस शास्त्र का मुख्य उद्देश्य यथार्थ आत्मस्वरूपकी पहिचान कराना है। इस इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये इस शास्त्रमें आचार्य भगवानने अनेक विषयोंका निरूपण किया है। जीव और पुद्गल के निमित्त नैमित्तिकपना होने पर भी दोनोंका अत्यन्त स्वतन्त्र परिणमन, ज्ञानी को राग-द्वेषका अकर्त्ता-अभोक्तापना, अज्ञानीको रागद्वेषका कर्त्ताभोक्तापना, सांख्यदर्शनकी एकान्तिकता, गुणस्थान आरोहणमें भावका और द्रव्यका निमित्तनैमित्तिकपना , विकाररूप परिणमन करनेमें अज्ञानीका सवयंका ही दोष , मिथ्यात्वादीका जड़पना उसीप्रकार चेतनापना, पुण्य और पाप दोनोंका बंधस्वरूपपना, मोक्षमार्गमें चरणानुयोगका स्थान इत्यादि अनेक विषय इस शास्त्र में प्ररूपण किये हैं। भव्य जीवोंको यथार्थ मोक्षमार्ग बतलाने का इन सबका उद्देश्य है। इस शास्त्रकी महत्ता देखकर अन्तर उल्लास अजाने से श्रीमद जयसेन आचार्य कहते
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समयसार
हैं कि 'जयवंत वर्ते वह पद्मनंदि आचार्य अर्थात् कुन्दकुन्द आचार्य कि जिन्होंने महातत्वसे भरे हुये प्राभृतरूपी पर्वतको
बुद्धिरूपी सिरपर उठाकर भव्य जीवोंको समर्पित किया है'। यथार्थतया इस समयमें यह शास्त्र मुमुक्षु भव्यजीवोंका परम आधार है। ऐसे दुषमकाल में भी ऐसा अद्भुत अनन्यशरणभूत शास्त्र-तीर्थंकरदेवके मुख से निकला हुआ अमृत-विद्यमान है यह अपना सबका महा सद्भाग्य है। निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक यथार्थ मोक्षमार्गकी ऐसी संकलनाबद्ध प्ररूपणा दूसरे कोई भी ग्रन्थमें नहीं है। परमपूज्य श्री कानजी स्वामीके शब्दों में कहा जावे तो –'यह समयसार शास्त्र आगमोंका भी आगम है; लाखों शास्त्रोंका सार इसमें है; जैन शासन का यह स्थम्भ है; साधक की यह कामधेनु है, कल्पवृक्ष है। चौदह पूर्वका रहस्य इसमें समाया हुवा है। इसकी हर एक गाथा छठे सातवें गुणस्थानमें झूलते हुवे महामुनिके आत्म-अनुभवमेंसे निकली हुई है। इस शास्त्रके कर्ता भगवान् कुन्दकुन्दआचार्यदेव महाविदेहक्षेत्रमें सर्वज्ञ वीतराग श्री सीमंधर भगवानके समवसरणमें गये थे और वहाँ वे आठ दिन रहे थे यह बात यथातथ्य है, अक्षरशः सत्य है, प्रमाणसिद्ध है, इसमें लेश मात्र भी शंका के लिये स्थान नहीं है। उन परमउपकारी आचार्य भगवान द्वारा रचित इस समयसार में तीर्थंकरदेवकी निरक्षरी ॐकार ध्वनिमें से निकला हुवा ही उपदेश है'।
इस शास्त्र में भगवान् कुन्दकुन्दआचार्यदेवकी प्राकृत गाथाओंपर आत्मख्याति नामकी संस्कृत टीका लिखनेवाले [ विक्रमकी दसवीं शताब्दी के लगभग होनेवाले ] श्रीमान् अमृतचन्द्राचार्यदेव हैं। जिस प्रकार इस शास्त्रके मूलकर्ता अलौकिक पुरुष हैं उसी प्रकार उसके टीकाकार भी महासमर्थ आचार्य हैं। आत्मख्याति जैसी टीका अभी तक भी दूसरे कोई जैन ग्रन्थ की नहीं लिखी गई है और तत्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्ध्य -पाय आदि स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना भी की है। उनकी एक इस आत्मख्याति टीका ही पढ़ने वाले को उनकी अध्यात्मरसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपको न्यायसे सिद्ध करनेकी उनकी असाधारण शक्ति और उत्तम काव्यशक्ति का पूरा ज्ञान हो जावेगा। अति संक्षेप में गम्भीर रहस्योंको भर देने की अनोखी शक्ति विद्वानोंको आश्चर्यचकित करती है। उनकी यह दैवी टीका श्रुतकेवली के वचनोंके समान है।
स प्रकार मूल शास्त्रकर्ता ने समस्त निजवैभवसे इस शास्त्रकी रचना की है उसी प्रकार टीकाकर ने भी अत्यन्त उत्साहपूर्वक सर्व निज-वैभव से यह टीका रची है ऐस इस टीकाके पढ़ने वालोंको स्वभावतः ही निश्चय हुये बिना नहीं रह सकता। शासन-मान्य भगवान् कुन्दकुन्दआचार्यदेवने इस कलिकाल में जगद्गुरु तीर्थंकरदेव के जैसा काम किया है और श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव ने, मानों कि वे कुन्दकुन्द भगवान् के हृदय में बैठ गये हों उस प्रकार से उनके गम्भीर आशयोंको यथार्थतया व्यक्त करके, उनके गणधर के समान कार्य किया है। इस टीका में आने वाले काव्य [ कलश] अध्यात्मरस से और आत्मानुभव की मस्ती से भरपूर है। श्री पद्मप्रभमलधारीदेव जैसे समर्थ आचार्यों पर भी उन कलशोंने गहरी छाप डाली है और आज भी वे तत्त्वज्ञान से और
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समयसार
अध्यात्मरससे भरे हुये मधुर कलश, अध्यात्मरसिकोंके हृदयके तार को झनझना देते हैं। अध्यात्म कवि रूपमें श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवका जैन साहित्यमें अद्वितीय स्थान है।
समयसार में भगवान् कुन्दकुन्दआचार्यदेवने प्राकृतमें ४१५ गाथाओं की रचना की है। उसपर श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवने आत्मख्यातिनाम की और श्री जयसेनाचार्यदेवने तात्पर्यवृत्ति नामकी संस्कृत टीका लिखी है। श्री पंडित जयचन्द्रजीने मूल गाथाओंका
और आत्मख्यातिका हिन्दीमें भाषान्तर किया और उसमें स्वयंने थोड़ा भावार्थ भी लिखा है। वह पुस्तक 'समयप्राभृत' के नाम से विक्रम सं० १९६४ में प्रकाशित हुई। उसके बाद उस पुस्तकको पंडित मनोहरलालजीने प्रचलित हिन्दी में परिवर्तित किया और श्री परमश्रुतप्रभावक मंडल श्रीमद् राजचन्द्र ग्रन्थमाला द्वारा ‘समयसार' के नाम से विक्रम सं० १९७५ में प्रकाशित हुवा। उस हिन्दी ग्रन्थके आधारसे, उसी प्रकार संस्कृत टीका के शब्दों तथा आशय से चिपटे रह कर यह गुजराती अनुवाद तैयार किया गया है।
यह अनुवाद करने का महा भाग्य मुझे प्राप्त हुवा यह मुझे अत्यन्त हर्ष का कारण है। परमपूज्य श्री कानजी स्वामी की छत्रछायामें इस गहन शास्त्रका अनुवाद हूवा है। अनुवाद करने की समस्त शक्ति मुझे पूज्यपाद श्री गुरुदेव के पास से ही मिली है। मेरी मार्फत अनुवाद हुवा इससे ‘यह अनुवाद मैंने किया है' ऐसा व्यवहारसे भले ही कहा जावे, परन्तु मुझे मेरी अल्पज्ञाता का पूरा ज्ञान होनेसे और अनुवाद की सर्व शक्ति का मूल पूज्य श्रीगुरुदेव ही होने से मैं तो बराबर समझता हूँ कि श्रीगुरुदेवकी अमृतवाणी का तीव्र वेग ही उनके द्वारा मिला हुवा अनमोल उपदेश हीयथाकाल इस अनुवादरूप में परिणमा है। जिसके बल पर ही इस अति गहन शास्त्रके अनुवाद करने का मैंने साहस किया था और जिनकी कृपा से ही यह निर्विघ्न पूरा हुवा है उन परम उपकारी श्रीगुरुदेव के चरणारविंदमें अति भक्तिभाव से वंदन करता
इस अनुवाद में अनेक भइयोंकी मदद है। भाई श्री अमृतलाल झाटकियाकी इसमें सबसे ज्यादा मदद है। उन्होंने सम्पूर्ण अनुवाद का अति परिश्रम करके बहुत ही सूक्ष्मतासे और उत्साहसे संशोधन किया है, बहुत सी अति उपयोगी सूचनाएँ उन्होंने बताईं, संस्कृत टीका की हस्त लिखित प्रतियोंका मिलान कर पठान्तरोंको ढूँढ़ कर दिया, शंका-स्थलोंका समाधान पण्डितजनों से बुलाकर दिया - आदि अनेक प्रकार से उन्होंने जो सर्वतोनुखी सहायता की है उसके लिये मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ। अपने विशाल शास्त्रज्ञान में, इस अनुवाद में पड़नेवाली छोटी मोटी दिक्कतोंको दूर कर देनेवाले माननीय श्री वकील रामजीभाई माणिकचन्द दोशीका मैं हृदय पूर्वक आभार मानता हूँ। इसके अनन्तर भी जिन जिन भाइयों की इस अनुवाद में सहायता है उन सब का भी मैं आभारी हूँ।
यह अनुवाद भव्य जीवोंको जिनदेव द्वारा प्ररूपित आत्म शांति का यथार्थ मार्ग बतावें, यह मेरी अन्तर की भावना है, श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवके शब्दोंमें यह
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समयसार
१७
शास्त्र आनन्दमय विज्ञानघन आत्मा को प्रत्यक्ष देखने वाला अद्वितीय जगत्चक्षु है। जो कोई उसके परम गम्भीर और सूक्ष्म भावोंको हृदयङ्गत करेगा उसको यह जगत्चक्षु आत्मा का प्रत्यक्ष दर्शन करावेगा, जबतक वे भाव यथार्थ प्रकार से हृदयङ्गत नहीं होवें तबतक रात दिन वह ही मंथन, वह ही पुरुषार्थ कर्तव्य है।' श्री
जयसेनाचार्यदेव के शब्दोंमें समयसारके अभ्यास आदिका फल कहकर यह उपोद्घात पूर्ण करता हूँ :
‘स्वरूपरसिक पुरुषों द्वारा वर्णित इस प्राभृतका जो कोई आदर से अभ्यास करेगा, श्रवण करेगा, पठन करेगा, प्रसिद्धि करेगा, वह पुरुष अविनाशी स्वरूपमय, अनेक प्रकारकी विभिन्नता वाले, केवल एक ज्ञानात्मक भावको प्राप्त करके अग्रपद की मुक्ति ललना में लीन होगा।'
हिम्मतलाल
दीपोत्सव व सं० १९९६ जेठालाल शाह
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समयसार
अनुवादककी ओरसे !
जैनेन्द्र प्रेस जैन ललितपुर
मैं इसे अपना परम सौभाग्य मानता हूँ कि मुझे इस युग के महान आध्यात्मिक संत श्री कानजी स्वामी के सान्निध्यका सुयोग प्राप्त हुआ, और उनके प्रवचनोंको सुनने एवं उन्हें राष्ट्रभाषा - हिन्दीमें अनूदित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। उन अनूदित ग्रन्थोंमें से 'समयसार प्रवचनादि' पहले प्रकाशित हो चुके हैं। पूज्य कानजी स्वामीके सान्निध्य में रहकर अनेक विद्वानोंने कई आध्यात्मिक ग्रंथोंकी रचना की है, अनुवाद किये हैं और सम्पादन किया है। उन विद्वनोंमें श्री हिम्मतलाल शाह तथा श्री रामजी भाई दोशी आदि प्रमुख हैं।
उपरोक्त विद्वानोंके द्वारा गुजराती भाषा में अनूदित, सम्पादित एवं लिखित अनेक ग्रन्थोंका हिन्दी भाषानुवाद करने का मुझे सुयोग मिला है, जिनमें प्रवचनसार, मोक्षशास्त्र और यह समयसार ग्रन्थ भी है। अध्यात्मप्रेमी भाई श्री कुं० नेमीचन्दजी पाटनी की प्रेरणा इस सुकार्य में विशेष साधक सिद्ध हुई है। प्रत्येक गाथा का गुजराती से हिन्दी पद्यानुवाद उन्हींने किया है। मैंने गुजराती अन्वयार्थ, टीका और भावार्थ का भाषानुवाद किया है। यद्यपि अनुवाद में सम्पूर्ण सावधानी रखी गई है, तथापि यदि कोई दोष रह गये हों तो विशेषज्ञ मुझे क्षमा करें ।
१८
०
परमेष्ठीदास
सम्पादक 'बीर'
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समयसार
विषयनुक्रमणिका पूर्वरंग
विषय
गाथा
पृष्ठ
प्रथम ३८ गाथाओंमें रंगभूमिस्थल बाँधा है, उसमें जीव नामके पदार्थका स्वरूप कहा है
मंगलाचरण, ग्रन्थप्रतीज्ञा
१
५
यह जीव-अजीवरूप छह द्रव्यात्मक लोक है इसमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चार द्रव्य तो स्वभावपरिणतिसवरूप ही हैं और जीव पुद्गल द्रव्य के अनादिकाल के संयोग से विभाव परिणति भी है, क्योंकि स्पर्श, रस, गंध, वर्ण शब्दरूप मूर्तिक पुद्गल को देखकर यह जीव रागद्वेषमोहरूप परिणमता है और इसके निमित्त से पुद्गल कर्मरूप होकर जीव के साथ बँधता है। इस तरह इन दोनोंके अनादिसे बंधावस्था है । जीव जब निमित्त पाकर रागादिकरूप नहीं परिणमता तब नवीन कर्म भी नहीं बँधते, पुराने कर्म झड़ जाते हैं, इसलिये मोक्ष होता है; ऐसे जीवके स्वसमय - परसमयकी प्रवृत्ति होती है । जब जीव सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र भावरूप अपने स्वभाव रूप परिणमता है तब स्वसमय होता है और जब मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमता है तब पुद्गल कर्म में ठहरा हुआ परसमय है ऐसा कथन जीवके पुद्गल कर्म के साथ बंध होने से परसमयपना है सो सुन्दर नहीं है, कारण कि इसमें जीव संसार में भ्रमता अनेक तरह के दुःख पाता है; इसलिये स्वभावमें स्थिर होकर सब से जुदा होकर अकेला स्थिर होय तभी सुन्दर [ ठीक ] है जीव के जुदापन और एकपन का पाना दुर्लभ है; क्योंकि बंध
की कथा तो सभी प्रणी करते हैं, एकत्व की कथा विरले जानते हैं जो कि दुर्लभ हैं, उसी संबंधी कथन इस कथा को हम सब अपने अनुभव से बुद्धिके अनुसार कहते है; उसको अन्य जीव भी अपने अनुभव से परीक्षा कर ग्रहण
करना
| शुद्धनयसे देखिये तो जीव अप्रमत्त प्रमत्त दोनों दशाओंसे जुदा एक ज्ञायकभावमात्र है जो कि जाननेवाला है वही जीव है इस ज्ञायक भावमात्र आत्माके दर्शन - ज्ञान - चारित्रके भेद कर भी अशुद्धपन नहीं है, ज्ञायक है वह ज्ञायक ही है
आत्मा को व्यवहारनय अशुद्ध कहता है उस व्यवहारनय के उपदेश का प्रयोजन
व्यवहारनय परमार्थका प्रतिपादक कैसे है ?
२
३
४
५
६
७
८
९ - १०
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१९
१४
८
१०
११–१२
१३–
१५-१६
१७-१८
१९ - २० २०-२१
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समयसार
२०
| विषय
गाथा
| पृष्ठ शुद्धनय सत्यार्थ और व्यवहारनय असत्यार्थ कहा गया है
११ | २२-२३ जो स्वरूपसे शुद्ध परमभावको प्राप्त हो गये उनको तो शुद्धनय ही प्रयोजनवान है, और जो साधक अवस्थामें है उनके व्यवहारनय
२४-२८ भी प्रयोजनवान है ऐसा कथन जीवादितत्त्वोंको शुद्धनयसे जानना सो सम्यक्त्व है ऐसा कथन
१३ | २९-३४ शुद्धनयका विषयभूत आत्मा बद्धस्पृष्ट, अन्य, अनियत, विशेष और संयुक्त इन पाँच भावोंसे रहित होने सम्बंधी कथन
१४ | ३५-४० शुद्धनयके विषयभूत आत्माको जानना सो सम्यग्ज्ञान है ऐसा कथन
१५ | ४१-४३ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप आत्मा ही साधुके सेवन करने योग्य है, उसका दृष्टांत सहित कथन
१६-१८ | ४९-५१ शुद्धनयके विषयभूत आत्माको जबतक न जाने तबतक वे जीव अज्ञानी हैं
५०-५१ | अप्रतिबुद्ध [ अज्ञानी ] को कैसे पहिचाना जा सकता है ?
२०-२२| ५२-५४ अज्ञानीको समझाने की रीति
२३-२५ | ५५-५८ अज्ञानीने जीव-देहको एक देखकर तीर्थंकरकी स्तुतिका प्रश्न | कियाउसका उत्तर
२६-२७ | ५८-५९ इस उत्तरमें जीव देहकी भिन्नताका दृश्य तथा जितेन्द्रिय ,जितमोह, क्षीणमोह
२८-३३ | ६०
६९ चारित्रमें जो प्रत्याख्यान कहने में आता है वह क्या है? ऐसे शिष्य का उत्तर प्राप्त होता है कि प्रत्याख्यान ज्ञान ही है
३४-३५ / ६९-७२ अनुभूतिद्वारा परभावका भेदज्ञान तथा ज्ञेयभावके भेदज्ञान के प्रकार | ३६-३७ | ७२-७६ दर्शनज्ञानचारित्र स्वरूप परिणत हुए आत्माका स्वरूप कह कर रंगभूमिका स्थल [३८ गाथाओंमें ] पूर्ण
३८ ७६
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समयसार
१ जीव-अजीव अधिकार
विषय
जीव-अजीव दोनों बन्धपर्यायरूप होकर एक देखने में आते है उनमेंजीव का स्वरूप न जानन े से अज्ञानीजन जीव की कल्पना
अध्यवसानादि भावरूप अन्यथा करते हैं, इस प्रकारका वर्णन जीवका स्वरूप अन्यथा कल्पते हैं उनके निषेध की गाथा अध्यवसानादिकभाव पुद्गलमय हैं जीव नहीं हैं ऐसा कथन अध्यवसानादिकभावको व्यवहारनयसे जीव कहा गया है तथा
दृष्टांत
परमार्थरूप जीवका स्वरूप अलिंगग्रहण
वर्णको आदि लेकर गुणस्थानपर्यंत जितने भाव हैं वे जीवके नहीं हैं ऐसा छह गाथाओंमें कथन
ये वर्णादिक भाव जीवके हैं ऐसा व्यवहारनय कहता है,
निश्चयनयनहीं कहता ऐसा दृष्टांतपूर्वक कथन
वर्णादिक भावोंका जीवके साथ तादात्म्य कोई अज्ञानी माने उसका निषेध
२. कर्ताकर्माधिकार
विषय
अज्ञानी जीव क्रोधादिकमें जबतक वर्तता है तबतक कर्मका बंध करता है
आस्रव और आत्माका भेदज्ञान होनेपर बन्ध नहीं होता ज्ञानमात्र से ही बन्धका निरोध कैसे होता है
आस्रवोंसे निवृत्त होने का विधान
ज्ञान होनेका और आस्रवोंकी निवृत्तिका समकाल कैसे है ? कथन ज्ञानस्वरूप हुए आत्मा का चिह्न
आस्रव और आत्माका भेदज्ञान होनेपर आत्मा ज्ञानी होता है तब कर्तृकर्मभाव भी नहीं होता
जीव-पुद्गलकर्मके परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव है तो कर्तृकर्मभाव नहीं कहा जा सकता
| निश्चयनयसे आत्मा और कर्तृकर्मभाव और भोग्तृभोग्यभाव नहीं हैं, अपने में ही कर्तृकर्मभाव और भोग्तृभोग्यभाव है व्यवहारनय आत्मा और पुद्गलकर्म के कर्तृकर्मभाव और भोग्तृभोग्यभाव कहता है
आत्माको पुद्गलकर्मका कर्ता और भोक्ता माना जाए तो महान दोष-स्वपरके अभिन्नपने का प्रसंग आता है; वह मिथ्यात्व होने से जिनदेव सम्मत नहीं है
मिथ्यात्वादि आस्रव जीव-अजीवके भेद से दो प्रकार के हैं ऐसा
गाथा
३९-४३
४४
४५
४६-४८
४९
५०-५५
५६ - ६० ६१-६८
गाथा
६९-७०
७९
७२
७३
७४
७५
७६ - ७९
८०-८२
८३
८४
८५-८६
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८०
२१
पृष्ठ
८१-८४
८४-८६
८७-८८
८८-९०
९०-९५
९५-१०१
१०२ - १०६
१०६ – ११९
१२०
पृष्ठ
१२१-१२३
१२३-२४
१२४ -२७
१२८-२९
१२९ - ३०
१३१-१३३
१३४–१३९
१४०-१४१
१४२ – १४३
१४३ – १४५
१४५ - १४९
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समयसार
की
|
८७-८८ |
१५०-१५२
८९-९२ |
९३ |
१५२-५७ १५७–१५८ १५९-१६१ १६१-१६२ १६३-१६६
९६ | ९७
।
कथन और उसका हेतु आत्माके मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति ये तीन परिणाम अनादि हैं उनका कर्तृपना और उनके निमित्त से पुद्गलका कर्मरूप होना आत्मा मिथ्यात्वादिभावरूप न परिणमे तब कर्मका कर्ता नहीं है अज्ञानसे कर्म कैसे होता है ऐसे शिष्यका प्रश्न और उसका उत्तर कर्मके कर्तापनका मल अज्ञान ही है ज्ञानके होनेपर कर्त्तापन नहीं होता व्यवहारी जीव पुद्गलकर्मका कर्त्ता आत्मा को कहते हैं यह
अज्ञान है आत्मा पुद्गलकर्मका कर्त्ता निमित्तनैमित्तिकभावसे भी नहीं है, आत्माके योग, उपयोग हैं वे निमित्तनैमित्तिकभावसे कर्त्ता हैं
और योग उपयोगका आत्मा कर्ता है ज्ञानी ज्ञान का ही कर्ता है अज्ञानी भी अपने अज्ञानभावका तो कर्त्ता है, पुद्गलकर्मका कर्ता
तो ज्ञानी या अज्ञानी कोई नहीं है क्योंकि परद्रव्योंके परस्पर
कर्तृकर्मभाव नहीं है | एक द्रव्य अन्य द्रव्यका कुछ भी कर सकता नहीं जीवको परद्रव्यके कर्त्तापनेका हेतु देख उपचार से कहा जाता है
कि यह कार्य जीवने किया है मिथ्यात्वादिक सामान्य आस्रव और विशेष गुणस्थान ये बंध के
कर्ता हैं निश्चयकर जीव इनका कर्ता भोक्ता नहीं है-स्पष्ट सूक्ष्म
कथन जीव और आस्रवोंका भेद दिखलाया है अभेद कहनेमें दूषण दिया
१०० १७०-१७१ १०१ | १७१-१७२
१०२ | १७२-७३ १०३-१०४ | १७३-१७४
१०५-१०६
१७५-७८
१०९-११२
१७९-८१
११३-११५ ।
१८२-८३
११६–१२५ | १२६-१३१ |
१८४–९० १९०-९६
संख्यमती, पुरुष और प्रकृति को अपरिणामी कहते हैं उसका
निषेध कर पुरुष और पुद्गलको परिणामी कहा है ज्ञानसे ज्ञानभाव और अज्ञानसे अज्ञानभाव ही उत्पन्न होता है अज्ञानी जीव द्रव्यकर्म बंधनेका निमित्तरूप अज्ञानादि भावों का हेतु होता है पुद्गलका परिणाम तो जीवसे जुदा है और जीवका पुद्गलसे
१३२-१३६ |
१९७-१९९
जुदा है
१३७–१४०
२००-०२
२०२-०३
कर्म जीवसे बद्धस्पृष्ट है या अबद्धस्पृष्ट, ऐसे शिष्यके प्रश्नका
निश्चय व्यवहार दोनों नयों से उत्तर जो नयोंके पक्षसे रहित है वह कर्तृकर्मभावसे रहित समयसार शुद्ध आत्मा है ऐसा कह कर अधिकार पूर्ण
१४२-१४४ |
२०३-२१
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समयसार
२२२
|
| ।
३. पुण्य-पाप अधिकार विषय शुभाशुभ कर्मके स्वभावका वर्णन | दोनों ही कर्म बंधके कारण हैं | इसलिये दोनों कर्मोंका निषेध उसका दृष्टांत और अगम की साक्षी ज्ञान मोक्ष का कारण है। व्रतादिक पाले तो भी ज्ञान बिना मोक्ष नहीं है पुण्यकर्म के पक्षपाती का दोष ज्ञानको भी परमार्थस्वरूप मोक्षका कारण कहा है और अन्यका
निषेध किया है कर्म मोक्षके कारण का घात करता है ऐसा दृष्टांत द्वारा कथन कर्म आप ही बंध स्वरूप है कर्म बंधका कारणरूप भावस्वरूप है अथात् मिथ्यात्व-अज्ञानकषायरूप है ऐसा कथन और तीनों अधिकार पूर्ण
गाथा १४५ |
| १४६
१४७ १४८-१५०
१५१ १५२–१५३
१५४ |
२२३-२५
२२६
२२७ २२७-३०
२३१ २३२-३३ २३४-३५
|
१५५-१५६ १५७–१५९
१६०
२३५-३७ २३८-४० २४०-४१
१६१-६३
२४१-४७
२४७
पृष्ठ
गाथा |
१६४-६५
२४९-५०
४. आस्रव अधिकार विषय आस्रवके स्वरूपका वर्णन अर्थात् मिथ्यात्व, अविरत, कषाय और योग-ये जीव अजीवके भेदसे दो प्रकारके हैं और वे बन्धके
कारण हैं ऐसा कथन ज्ञानी के उन आस्रवोंका अभाव कहा है राग-द्वेष-मोहरूप जीवके अज्ञानमय परिणाम हैं वे ही आस्रव हैं रागादिक बिना जीवके ज्ञानमय भाव की उत्पत्ति ज्ञानीके द्रव्य आस्रवोंका अभाव ज्ञानी निरास्रव किस तरह है ऐसे शिष्यके प्रश्न का उत्तर अज्ञानी और ज्ञानीके आस्रवका होना और न होनेका युक्ति पूर्वक
वर्णन राग-द्वेष मोह अज्ञान परिणाम हैं वही बन्धका कारणरूप आस्रव है वह ज्ञानीके नहीं है; इसलिये ज्ञानीके कर्मबंध भी नहीं है, अधिकार पूर्ण
१६६ १६७ १६८ १६९
२५०-५१ २५२-५३ २५३-५४ २५४-५५
२५६
१७०
१७१-१७६
२५६-६४
१७७-१८०
२६४-७१
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समयसार
२४
२७२
गाथा
५. संवर अधिकार विषय संवरका मूल उपाय भेदविज्ञान है उसकी रीतिका तीन गाथाओं में
कथन भेद विज्ञानसे ही शुद्धआत्मा की प्राप्ति होती है ऐसा कथन शुद्धआत्मा की प्राप्ति से ही संवर होती है ऐसा कथन संवर होने का प्रकार - तीन गाथाओंमें । संवर होनेके क्रमका कथन, अधिकार पूर्ण
१८१-१८३ १८४-१८५
१८६ | १८७-१८९ | १९०-१९२ |
२७३-७७ २७७-७९ २७९-८० २८१-८३ २८४-८८ |
।
|
गाथा | १९३ | | १९४ | | १९५ / १९६ | १९७ |
२८९
पृष्ठ | २९०-९१ २९१-९२
२९३ |
२९४ २९५-९६ |
|
|
| ।
१९८-१९९ |
२०० | २०१-०२ | |
२९७-९८ २९८-९९ ३०१-०४
३०४-०५
६. निर्जरा अधिकार विषय द्रव्यनिर्जरा का स्वरूप भावनिर्जरा का स्वरूप ज्ञानका सामर्थ्य वैराग्य का सामर्थ्य ज्ञान-वैराग्य के सामर्थ्य का दृष्टांतपूर्वक कथन सम्यग्दृष्टि सामान्यरूपसे तथा विशेषरूपसे स्व-परको कई रीतिसे
जानता है उस सम्बन्धी कथन सम्यग्दृष्टि ज्ञान-वैराग्य सम्पन्न होता है रागी जीव सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं होता है उस सम्बन्धी कथन अज्ञानी रागी प्राणी रागादिकको अपना पद जानता है उस पदको
छोड़ अपने एक वीतराग ज्ञायकभावपदमें स्थिर होनेका उपदेश आत्माका पद एक ज्ञायकस्वभाव है और वह ही मोक्षका कारण है;
ज्ञानमें जो भेद है वे कर्मके क्षयोपशमके निमित्तसे हैं ज्ञान ज्ञानसे ही प्राप्त होता है ज्ञानी परको क्यों नहीं ग्रहण करता ऐसे शिष्यके प्रश्नका उत्तर रिग्रहके त्यागका विधान ज्ञानीके सब परिग्रहका त्याग कर्मके फलकी वांछासे कर्म करता है वह कर्मसे लिप्त होता है। ज्ञानीके वांछा नहीं होनेसे वह कर्मसे लिप्त नहीं होता, उसका दृष्टांत द्वारा कथन सम्यक्त्वके आठ अंग हैं उनमेंसे प्रथमतो सम्यग्दृष्टि निःशंक तथा
सात भय रहित हैं ऐसा कथन है निष्कांक्षिता, निर्विचिकित्सा, अमूढत्व , उपगूहन, स्थितिकरण,
वात्सल्य, प्रभावना-इनका निश्चयनयकी प्रधानता से वर्णन
|
२०४ २०४-०६
२०७ | |
२०८ | २०९-१७ |
३०६-०८ ३०९-१२ ३१२-१३ ३१३-१४ ३१४-२५
|
२१८-२७
३२६-३५
२२८-२९
३३६-४२
२३०-३६
२४२-५१
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समयसार
७. बन्ध अधिकार
विषय
बन्ध के कारण का कथन
ऐसे कारणरूप आत्मा न प्रवर्ते तो बंध न हो ऐसा कथन
मिथ्यादृष्टिके बंध होता है उसके आशय को प्रगट किया है और
वह आशय अज्ञान है ऐसा सिद्ध करते हैं
अज्ञानमय अध्यवसान ही बंध का कारण है
बाह्य वस्तु बंधका कारण नहीं है, अध्यवसान ही बंधका कारण है
ऐसा कथन
अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया कर्त्ता नहीं होनेसे मिथ्या है मिथ्यादृष्टि अज्ञानरूप अध्यवसानसे अपनी आत्माको अनेक अवस्थारूप करता है ऐसा कथन
यह अज्ञानरूप अध्यवसान जिसके नहीं है उसके कर्मबंध नहीं है यह अध्यवसान क्या है ऐसे शिष्यके प्रश्न का उत्तर
इस अध्यवसानका निषेध है, वह, व्यवहारनयका ही निषेध है जो केवल व्यवहारका ही आलम्बन करता है वह अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि है; क्योंकि इसका अवलम्बन अभव्यभी करता है । व्रत, समिति, गुप्ति पालता है, गयारह अंग पढ़ता है, तो भी उसे मोक्ष नहीं है
शास्त्रोंका ज्ञान होने पर भी अभव्य अज्ञानी है
अभव्य धर्म की श्रद्धा करता है तो भी उसके भोगके निमित्त हैं,
मोक्ष के निमित्त नहीं हैं
व्यवहार - निश्चयनयका स्वरूप
रागादिक भावोंका निमित्त आत्मा है या परद्रव्य ? उसका उत्तर आत्मा रागादिक का अकर्त्ता किस रीति से है, उसका उदाहरण पूर्वकथन
गाथा
२३७ - ४१
२४२-४६
२४७-५८
२५९-६४
२६४
२६६-६७
२६८–६९
२७०
२७१
२७२
२७३
२७४
२७५
२७६-७७
२७८-८२
२८३-८७
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३५२
२५
पृष्ठ
३५३-५७
३५७-६१
३६२-७१
३७२-७६
३७६ - ७८
३७८-८०
३८१-८२
३८३-८५
३८५-८६
३८७-८८
३८८-८९
३८९-९०
३९०-९१
३९१-९३
३९४-९९
४००-०५
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समयसार
२६
८. मोक्ष अधिकार
४०६ विषय
गाथा मोक्षका स्वरूप कर्मबंधसे छूटना है जो जीव बन्धका तो छेद नहीं
करता है परन्तु मात्र बन्धके स्वरूपको जानकर ही सन्तुष्ट होता है वह मोक्ष नहीं पाता है।
२८८-९० | ४०७-०८ बन्धकी चिन्ता करनेपर भी बन्ध नहीं छूटता है
२९१ ४०९ बन्ध छेदने से ही मोक्ष होता है
| २९२-९३ | ४१०-११ बन्धका छेद किससे करना ऐसे प्रश्न का उत्तर यह है कि कर्मबंध के छेदनेको प्रज्ञा शस्त्र ही कारण है
२९४ | ४११-१४ प्रज्ञारूप कारणसे आत्मा ओर बंध दोनोंको जुदे जुदे कर प्रज्ञासे ही आत्मा को ग्रहण करना, बन्ध को छोड़ना
२९५-९६ | ४१५-१६ आत्माको प्रज्ञाके द्वारा कैसे ग्रहण करना, उस सम्बन्धी कथन
२९७-९९ | ४१७-२२ आत्माके सिवाय अन्य भावका तयाग करना, कौन ज्ञानी परभाव जानकर ग्रहण करेगा? अर्थात कोई नहीं करेगा
३०० | ४२२-२३ जो परद्रव्यको ग्रहण करता है वह अपराधी है, बन्धनमें पड़ता है जो अपराध नहीं करता, वह बन्धन में भी नहीं पड़ता
३०१-३ | ४२४-२५ अपराध का स्वरूप
३०४-०५ | ४२६-२८ शुद्ध आत्माके ग्रहणसे मोक्ष कहा; परन्तु आत्मातो प्रतिक्रमण आदि द्वारा भी दोषोंसे छूट जाता है; तो पीछे शुद्ध आत्माके ग्रहण से क्या लाभ है ? ऐसे शिष्य के प्रश्न का उत्तर यह दिया है कि प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणसे रहित अप्रतिक्रमणादिस्वरूप तीसरी अवस्था शद्ध आत्माका ही ग्रहण है. इसीसे आत्मा निर्दोष होता है | ३०६-०७ | ४२९-३४
९. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार विषय आत्माके अकर्तापना दृष्टांतपूर्वक कहते हैं कर्तापना जीव अज्ञानसे मानता है, उस अज्ञानकी सामर्थ्य दिखाते
४३५ गाथा | पृष्ठ ३०८ ११ | ४३६-३८
३१२-१३ | ४३९-४०
३१४-१५ | ४४१-४२
जब तक आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे उपजना विनशना न छोड़े तब
तक कर्ता होता है कर्तृत्वपना भोक्तृपना भी आत्मा का स्वभाव नहीं है, अज्ञानसे ही
भोक्ता है ऐसा कथन | ज्ञानी कर्मफलका भोक्ता नहीं है ज्ञानी कर्ता-भोक्ता नहीं है उसका दृष्टांत पूर्वक कथन जो आत्माको कर्ता मानते हैं उनके मोक्ष नहीं है ऐसा कथन अज्ञानी अपने भावकर्मका कर्ता है ऐसा युक्ति पूर्वक कथन आत्माके कर्तापना और अकर्तापना जिस तरह है उस तरह स्याद्वाद द्वारा तेरह गाथाओंमें सिद्ध करते हैं
३१३-१७ | ४४२-४५ ३१८-१९ | ४४५-४७ |
३२० | ४४७-४९ | ३२१-२७ | ४४९-५५ ३२८-३१ | ४५५-५९ |
३३२-४४ | ४५९-७०
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समयसार
२७
विषय
गाथा
| पृष्ठ बौद्धमति ऐसा मानते हैं कि कर्मको करनेवाला दूसरा है और भोगने वाला दूसरा है उसका युक्तिपूर्वक निषेध
३४५-४८ | ४७१-७५ कतृ कर्मका भेद-अभेद जैसा है उसी तरह नय विभाग द्वारा दृष्टांत पूर्वक कथन
३४९-५५ | ४७६-८२ | निश्चयव्यवहारके कथन को, खड़िया के दृष्टांतसे दस गाथाओंमें स्पष्ट करते हैं
३५६-६५ | ४८२-९६ 'ज्ञान और ज्ञेय सर्वथा भिन्न हैं' ऐसा जानने के कारण सम्यग्दृष्टि
को विषयों के प्रति रागद्वेष नहीं होता, वे मात्र अज्ञान दशा में प्रर्वतमान जीव के परिणाम है
३६६-७१ | ४९७
५०१ अन्य द्रव्यका अनयद्रव्य कुछ नहीं कर सकता ऐसा कथन
३७२ ५०२-०५ स्पर्श आदि पुद्गलके गुण हैं वे आत्मा को कुछ ऐसा नहीं कहते कि |
हमको ग्रहण करो और आत्मा भी अपने स्थानसे छूटकर उनमें
नहीं जाता है परन्तु अज्ञानी जीव उनसे वृथा राग-द्वेष करता है ३७३-८२ | ५०६-१३ प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना का स्वरूप
३८३-८६ | ५१३-१५ जो कर्म और कर्मफलको अनुभवता अपने को उस रूप करता है वह नवीन कर्मको बाँधता है। [ यहाँ पर टीकाकार आचार्यदेव कृत -कारित-अनुमोदनासे मन-वचन-कायसे अतीत, वर्तमान और अनागत कर्मके त्यागको उनचास उनचास भंग द्वारा कथन करके कर्मचेतना के त्यागका कथन करके कर्मफलचेतनाके
३८७-८९ । ५१६-४४ त्यागका विधान दिखाते हैं | ज्ञानको समस्त अन्य द्रव्योंसे भिन्न बतलाते हैं
३९०-४०४ | ५४६-५४ आत्मा अमूर्तिक है इसलिये इसके पुदगलमयी देह नहीं है
४०५-०७] ५५५-५६ द्रव्यलिंग देहमयी है इसलिये द्रव्यलिंग द्रव्यलिंग आत्माके मोक्ष का कारण नहीं है, दर्शनज्ञानचारित्र ही मोक्षमार्ग है ऐसा कथन
४०८-१० | ५५७-५९ मोक्षका अर्थी दर्शनज्ञानचारित्र स्वरूप मोक्षमार्गमें ही आतमाको प्रवर्तावे ऐसा उपदेश किया है
४११-४१२ | ५५९-६३ जो द्रव्यलिंग में ही ममत्व करते हैं वे समयसार को नहीं जानते हैं। ४१३ | ५६३-६५ व्यवहारनय तो मुनि श्रावक के लिंगको मोक्षमार्ग कहता है और निश्चयनय किसी लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता ऐसा कथन
४१४ | ५६५-६७ इस ग्रन्थको पूर्ण करते हुए उसके अभ्यास वगैरहका फल कहते हैं
४१५ | ५६७-६९ इस ग्रन्थमें अनन्त धर्म वाले आत्माको ज्ञानमात्र कहनेमें स्याद्वादसे विरोध कैसे नहीं आता है ? इसको बताते हुए तथा एक ही ज्ञान में उपायभाव और उपेयभाव दोनों किस तरह बनते हैं ? यह बताते हुए टीकाकार आचार्यदेव इस सर्वविशुद्व ज्ञान अधिकार के अन्तमें परिशिष्टरूप स्याद्वाद और उपाय-उपेयभाव में थोड़ा
५७० कहने की प्रतिज्ञा करते हैं एक ज्ञान में ही तत्, अतत्, एक, अनेक, सत्, असत्, नित्य, अनित्य इन भावोंके चौदह भेद कर उनके १४ काव्य कहते हैं
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५७१
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समयसार
२८
गाथा
पृष्ठ
५८८
विषय ज्ञान लक्षण है और आत्मा लक्ष्य है ज्ञानकी प्रसिद्धि ही आत्मा की प्रसिद्धि होती है इसलिये आत्माको ज्ञानमात्र कहा है, एक ज्ञान क्रियारूपही परिणत आत्मामें अनन्तशक्तियाँ प्रगट हैं उनमें से
सैंतालीस शक्तियों के नाम तथा लक्षणोंका कथन उपाय-उपेयभाव का वर्णन; उनमें आत्मा परिणामी होनेसे साधक
-पना और सिद्धपना -ये दोनों भाव अच्छी तरह बनते हैं ऐसा कथन थोड़े कलशों में अनेक विचित्रता से भरे हुए आत्मा की महिमा
करके सर्वविशुद्ध ज्ञान अधिकार सम्पूर्ण टीकाकार आचार्यदेव का वक्तव्य, आत्मख्याति टीका समपूर्ण श्री पं० जयचन्दजी छाबड़ाका वक्तव्य, ग्रन्थ समाप्त
५९३
५९८
६०४
६०५
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समयसार
प्रवचन भक्ति
सर्वाङ्गी ‘सन्मति' श्रुतधारा, गुरु गौतम ने मुख धारी;
थी करुणा हों भाव मरण बिन, तृषित तप्त भवि संसारी ।
हृदय शुद्ध मुनि कुन्दकुन्द ने वह संजीवन दया विचार; घट' प्रवचन',पंचास्ति ,समयमें ली लख शोषित अमृत धार ।।
कुन्द रचित पद सार्थक कर मुनि अमृत ने अमृत सींचा; ग्रन्थराज त्रय तुमने अद्भुत मृदुरस ब्रह्मभाव सींचा ।।
वीर वाक्य यह अहो नितारें साम्य सुधारस भर हृदयान्जुलि पियें मुमुक्षु वमें विषय विष गहरी-मूर्छा प्रबल-मोह दुस्तर-मल उतरे तज विभावहो स्वमुख परिणती ले निज लहरे यह है निश्चय ग्रन्थ भंग संयोगी भेदे अरु है प्रज्ञा शस्त्र उदय–मति संधी छेदे साधक साथी जगत सूर्य संदेश वीरका क्लान्त जगत विश्राम स्थान सतपथ सुधीरका
सुनें , समझलें, रुचे, जगत रुचिसे अलसावे पड़े बंधरस शिथिल हृदय ज्ञानी का पावे
कुन्दन पत्र बना लिखे, अक्षर रत्न तथापि कुन्द सूत्रके मूल्यका अहकन हो न कदापि
----- जयुगलक्त [ कोटा-राज]
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समयसार
शास्त्र का अर्थ करने की पद्धति
व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यको तथा उसके भावोंको एवं कारण कार्यादिको किसीके किसीमें मिलाकर निरूपण करते है, इसलिये ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व है, अतः इसका त्याग करना चाहिये । और निश्चयनय उसी को यथावत् निरूपण करता है, तथा किसीको किसीमें नहीं मिलाता, इसलिये ऐसे ही श्रद्धानसे सम्यक्त्व होता है, अत: उसका श्रद्धान करना चाहिये ।
प्रश्न-यदि ऐसा है तो, जिनमार्गमें दोनों नयोंका ग्रहण करना कहा है, उसका क्या कारण ?
जिनमार्ग में कहीं तो निश्चयनय की मुख्यता सहित व्याख्यान है, उसे तो तसत्यार्थ इसी प्रकार है क्त ऐसा समझना चाहिये, तथा कहीं व्यवहारनयकी मुख्यता लेकर कथन किया गया है, उसे ऐसा नहीं है किन्तु निमित्तादिकी अपेक्षासे यह उपचार किया हैक्त ऐसा जानना चाहिये; और इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नयोंका ग्रहण है। किन्तु दोनों नयोंके व्याख्यान [ कथन-विवेचन को समान]
सत्यार्थ जानकर इसप्रकार भी है और इस प्रकार भी हैक्त इसप्रकार भ्रमरूप प्रवर्तनेसे तो दोनों नयोंका ग्रहण करना कहा नहीं है ।
प्रश्न---- यदि व्यवहारनय असत्यार्थ है तो जिनमार्गमें उसका उपदेश क्यों दिया है ? एकमात्र निश्चयनय का ही निरूपण करना चाहिये था ?
उत्तर---- ऐसा ही तर्क इस श्री समयसार में भी करते हुए यह उत्तर दिया है कि - जैसे किसी अनार्य म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा के बिना अर्थ ग्रहण करानेमें कोई समर्थ नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश अशक्य है इसलिये व्यवहार का उपदेश है। और फिर इसी सूत्रकी व्याख्यामें ऐसा कहा है कि
इस प्रकार निश्चयको अंगीकार करानेके लिये व्यवहारके द्वारा उपदेश देते हैं, किन्तु व्यवहार -नय है वह अंगीकार करने योग्य नहीं है ।
---श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक
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समयसार
May
20
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ભગવાન શ્રી કુંદકુંદાચાર્યદેવ
भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव वनमे ताडपत्र पर शास्त्र रचते हे
भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवके सम्बन्धमें उल्लेख
वन्द्यो विभुर्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्द-प्रभा-प्रणयि-कीर्ति - विभूषिताशः । यश्चारु–चारण-कराम्बुजचञ्चरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ।। [ चन्द्रगिरि पर्वत का शिलालेख ]
अर्थः- कुन्द पुष्पकी प्रभा धारण करने वाली जिनकी कीर्ति द्वारा दिशायें विभूषित हुई हैं, जो चारणोंके - -- चारणऋद्धिधारी महामुनियोंके सुन्दर हस्तकमलोंके भ्रमर थे और जिन पवित्र आत्माने भरतक्षेत्रमें श्रुतकी प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किससे वंद्य नहीं हैं ?
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समयसार
००००००कोण्डकुंदो यतीन्द्रः ।। रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्येपि संव्यञ्जयितं यतशि:
रजःपदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगुलं सः ।।
[विंध्यगिरि – शिलालेख]
अर्थ:- यतीश्वर [ श्री कुन्दकुन्दस्वामी ] रजःस्थानको-भूमितलको----- छोड़कर चार अंगुल ऊपर आकाशमें गमन करते थे उसके द्वारा मैं ऐसा समझता हूँ कि-- वे अंतरमें तथा बाह्य में रज से [ अपनी ] अत्यन्त असपृष्टता व्यक्त करते थे [----अनतरमें वे रागादिक मलसे असपृष्ट थे और बाह्य में धूल से असपृष्ट थे] ।
जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण । ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं यथाणंति ।।
---[ दर्शनसार]
अर्थ:- [ महाविदेह क्षेत्रके वर्तमान तीर्थंकरदेव ] श्री सीमंधर स्वामी के प्राप्त हुए दिव्य ज्ञान द्वारा श्री पद्मनन्दिनाथने [ श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवने] बोध न दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?
हे कुन्दकुन्दादि आचार्यो ! आपके वचन भी स्वरूपानुसंधानमें इस पामर को पमर उपकारभूत हुए हैं। उसके लिये मैं आपको अत्यन्त भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ
[ श्रीमद् राजचन्द्र]
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समयसार
श्री समयसारजी की स्तुति
हरिगीत संसारी जीवनां भाव मरवा टालवा करुणा करी, सरिता वहावी सुधा तणी प्रभु वीर! ते संजीवनी।
शोषाती देखी सरितने करुणाभीना हृदये करी, मुनिकुन्द संजीवनी समयप्राभृत तणे भाजन भरी।।
अनुष्टुप् कुन्दकुन्द रच्यु शास्त्र, साथिया अमृते पूर्या; ग्रंथाधिराज! तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्या।
शिखरिणी अहो! वाणी तारी प्रशमरस-भावे नितरती; मुमुक्षुने पाती अमृतरस अंजलि भरी भरी। अनादिनी मूर्छा विष तणी त्वराथी उतरती; विभावेथी थंभी स्वरूप भणी दोड़े परिणती।।
शार्दूलविक्रीड़ित तूं छे निश्चयग्रन्थ, भङ्ग सघला व्यवहारना भेदवा
तूं प्रज्ञाछीणी ज्ञानने उदयनी संधि सहु छेदवा। साथी साधकनो, तूं भानु जगनो, संदेश महावीरनो, विसामो भवक्लांतना हृदयनो, तुं पंथ मुक्ति तणो।
वंसततिलका सूण्ये तने रसनिबंध शिथिल थाय, जाण्ये तने हृदय ज्ञानी तणां जणांय। तूं रुचतां जगतनी रुचि आलसे सौ, तूं रीझतां सकलज्ञायकदेव रीझे ।।
अनुष्टुप् बनावू पत्र कुन्दननां, रत्नोंना अक्षरो लखी, तथापि कुन्दसूत्रोंना अंकाये मूल्य ना कदी ।।
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समयसार
श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नमः
शास्त्र-स्वाध्याय का प्रारंभिक मंगलाचरण
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः। कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः।। १ ।।
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलङ्का। मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान्।। २ ।।
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।। ३ ।।
॥ श्रीपरमगुरवे नमः, परम्पराचार्यगुरवे नमः ॥ सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमनःप्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री समयसारनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तार: श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य आचार्यश्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचितं, श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु।।
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।। ९ ।।
सर्वमङ्गलमांगल्यं सर्वकल्याणकारक। प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्।। २ ।।
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-* नमः समयसाराय *
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचित
श्री
.:: समयसार ...:.
पूर्वरंग
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिकृता आत्मख्यातिः।
(अनुष्टुभ् )
नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते। चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे।।१।।
श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव कृत मूल गाथाओं और श्रीमद्
अमृतचन्द्रसूरि कृत आत्मख्याति नामक टीकाकी
हिन्दी भाषा वचनिका
श्री परमातमको प्रणमि, शारद सुगुरु मनाय। समयसार शासन करूं, देशवचनमय, भाय ।।१।। शब्दब्रह्मपरब्रह्मक वाचकवाच्यनियोग।
मंगलरूप प्रसिद्ध है, नमों धर्मधनभोग।। २।। नय नय लहइ सार शुभवार, पय पय दहइ मार दुखकार। लय लय गहइ पार भवधार, जय जय समयसार अविकार।। ३।।
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समयसार
(अनुष्टुभ् ) अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः। अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम् ।।२।।
शब्द अर्थ अरु ज्ञान समय त्रय आगम गाये मत सिद्धांत रु काल भेदत्रय नाम बताये। इनहिं आदि शुभ अर्थसमयवचके सुनिये बहु अर्थसमयमें जीव नाम है सार सुनहु सहु। तातें जु सार बिन कर्ममल शुद्ध जीव शुध नय कहै। इस ग्रंथ माहिं कथनी सबै समयसार बधजन गहै।। ४।। नामादिक छह ग्रन्थमुख, तामें मंगल सार। विघनहरन नास्तिक हरन, शिष्टाचार उचार।। ५।। समयसार जिनराज है, स्याद्वाद जिनवैन।
मुद्रा जिन निरग्रंथता, नमूं करै सब चैन।। ६।। प्रथम, संस्कृत टीकाकार श्रीमद् अमृतचंद्रआचार्यदेव ग्रंथके प्रारम्भमें मंगल के लिये इष्टदेवको नमस्कार करते हैं :
श्लोकार्थ :- [ नमः समयसाराय ] 'समय' अर्थात् जीव नामक पदार्थ , उसमें सार जो द्रव्यकर्म , भावकर्म, नोकर्म रहित शुद्ध आत्मा-उसे मेरा नमस्कार हो। वह कैसा है ? [ भावाय ] शुद्ध सत्तास्वरूप वस्तु है। इस विशेषणपदसे सर्वथा अभाववादी नास्तिकोंका मत खंडित हो गया। और वह कैसा है ? [ चित्स्वभावाय] जिसका स्वभाव चेतनागणरूप है। इस विशेषणसे गण-गणीका सर्वथा भेद मानने वाले नैयायिकोंका निषेध हो गया। और वह कैसा है ? [ स्वानुभूत्या चकासते] अपनी ही अनुभवनरूप क्रियासे प्रकाश करता है, अर्थात् अपनेको अपनेसे ही जानता है-प्रगट करता है। इस विशेषणसे, आत्माको तथा ज्ञानको सर्वथा परोक्ष ही माननेवाले जैमिनीय-भट्ट-प्रभाकरके भेदवाले मीमांसकोंके मतका खण्डन हो गया। तथा ज्ञान अन्य ज्ञानसे जाना जा सकता है-स्वयं अपनेको नहीं जानता, ऐसा माननेवाले नैयायिकोंका भी प्रतिषेध हो गया। और वह कैसा है ? [ सर्वभावान्तरच्छिदे] स्वतः अन्य सर्व जीवाजीव, चराचर पदार्थोंको सर्व क्षेत्र काल सम्बन्धी सर्व विशेषणोंके साथ एक ही समय में जाननेवाला है। इस विशेषणसे, सर्वज्ञका अभाव मानने वाले मीमांसक आदि का निराकरण हो गया। इसप्रकारके विशेषणों (गुणों) से शुद्ध आत्माको ही ईष्टदेव सिद्ध करके ( उसे ) नमस्कार किया है।
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पूर्वरंग
my
( मालिनी) परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावादविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः।
भावार्थ :- यहाँ मंगलके लिये शुद्ध आत्माको नमस्कार किया है। यदि कोई यह प्रश्न करे कि किसी ईष्टदेवका नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया ? तो उसका समाधान इस प्रकार है :- वास्तव में ईष्टदेवका सामान्य स्वरूप सर्व कर्म रहित, सर्वज्ञ वीतराग शुद्ध आत्मा ही है, इसलिये इस अध्यात्म ग्रंथमें ‘समयसार' कहनेसे इसमें ईष्टदेवका समावेश हो गया। तथा एक ही नाम लेनेमें अन्यमतवादी मतपक्षका विवाद करते हैं, उन सबका निराकरण समयसारके विशेषणोंसे किया है। और अन्यवादीजन अपने ईष्टदेवका नाम लेते हैं, उसमें ईष्ट शब्दका अर्थ घटित नहीं होता, उसमें अनेक बाधाएं आती हैं; और स्याद्वादी जैनोंको तो सर्वज्ञ वीतरागी शुद्ध आत्मा ही ईष्ट है; फिर चाहे भले ही ईष्टदेवको परमात्मा कहो, परमज्योति कहो, परमेश्वर, परब्रह्म , शिव, निरंजन, निष्कलंक, अक्षय, अव्यय, शुद्ध, बुद्ध , अविनाशी, अनुपम, अच्छेद्य, अभेद्य, परमपुरुष, निराबाध, सिद्ध, सत्यात्मा, चिदानंद, सर्वज्ञ, वीतराग, अर्हत्, जिन, आप्त, भगवान, समयसार-इत्यादि हजारों नामोंसे कहो; वे सब नाम कथंचित् सत्यार्थ हैं। सर्वथा एकांतवादियोंको भिन्न नामोमें विरोध है, स्याद्वादीको कोई विरोध नहीं है। इसलिये अर्थ को यथार्थ समझना चाहिये।
प्रगटै निज अनुभव करै, सत्ता चेतनरूप।
सब ज्ञाता लखिकें नमौं समयसार सब भूप।। १।। अब सरस्वतीको नमस्कार करते हैं -
श्लोकार्थ :- [अनेकान्तमयी मूर्तिः ] जिसमें अनेक अंत (धर्म) हैं ऐसे जो ज्ञान तथा वचन उसमयी मूर्ति [ नित्यम् एव ] सदा ही [प्रकाशताम् ] प्रकाशरूप हो। [अनन्तधर्मणः प्रत्यगात्मनः तत्त्वं] जो अनंत धर्मोंवाला है और परद्रव्योंसे तथा परद्रव्योंके गुण-पर्यायों से भिन्न एवं परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अपने विकारोंसे कथंचित् भिन्न एकाकार है, ऐसे आत्माके तत्त्वको अर्थात् असाधारण-सजातीय विजातीय द्रव्योंसे विलक्षण-निजस्वरूपको [ पश्यन्ती] वह मूर्ति अवलोकन करती है।
भावार्थ :- यहाँ सरस्वतीकी मूर्तिको आशीर्वचनरूपसे नमस्कार किया है। लौकिकमें जो सरस्वतीकी मूर्ति प्रसिद्ध है वह यथार्थ नहीं है, इसलिये यहाँ उसका यथार्थ वर्णन किया है। सम्यज्ञान ही सरस्वतीकी सत्यार्थ मूर्ति है। उसमें भी सम्पूर्ण ज्ञानतो केवलज्ञान है, जिसमें समस्त पदार्थ प्रत्यक्ष भासित होते हैं। वह अनन्त धर्म सहित आत्मतत्त्वको प्रत्यक्ष देखता है, इसलिये वह सरस्वतीकी मूर्ति है, और उसी के अनुसार जो श्रुतज्ञान है वह आत्मतत्त्वको परोक्ष देखता है इसलिये वह भी
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४
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समयसार
मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्तेर्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः।। ३ ।।
सरस्वतीकी मूर्ति है। और द्रव्यश्रुत वचनरूप है, वह भी उसकी मूर्ति है, क्योंकि वह वचनोंके द्वारा अनेक धर्मवाले आत्माको बतलाती है। इसप्रकार समस्त पदार्थोंके तत्त्वको बतानेवाली ज्ञानरूप तथा वचनरूप अनेकांतमयी सरस्वतीकी मूर्ति है; इसलिये सरस्वतीके वाणी, भारती, शारदा, वाग्देवी इत्यादि बहुत से नाम कहे जाते हैं। यह सरस्वतीकी मूर्ति अनंतधर्मोंको 'स्यात्' पदसे एक धर्मी में अविरोधरूपसे साधती है, इसलिये सत्यार्थ है। कितने ही अन्यवादीजन सरस्वतीकी मूर्तिको अन्यथा ( प्रकारान्तरसे ) स्थापित करते हैं, किन्तु वह पदार्थको सत्यार्थ कहनेवाली नहीं है।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि आत्माको अनंत धर्मवाला कहा है, सो उसमें वे अनंत धर्म कौन कौनसे हैं ? उसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि-वस्तुमें अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तिकत्व, अमूर्तिकत्व इत्यादि (धर्म) तो गुण हैं; और उन गुणोंका तीनों कालमें समय - समयवर्ती परिणमन होना पर्याय है, जो कि अनंत हैं। और वस्तुमें एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व आदि अनेक धर्म हैं। वे सामान्यरूप धर्म तो वचनगोचर हैं, किन्तु अन्य विशेषरूप अनन्त धर्म भी हैं जो कि वचन के विषय नहीं हैं, किन्तु वे ज्ञानगम्य हैं। आत्मा भी वस्तु है, इसलिये उसमें भी अपने अनंत धर्म हैं।
आत्माके अनंत धर्मोंमें चेतनत्व असाधारण धर्म है वह अन्य अचेतन द्रव्योंमें नहीं है। सजातीय जीवद्रव्य अनंत हैं, उनमें भी यदि चेतनत्व है तथापि सबका चेतनत्व निजस्वरूपसे भिन्न भिन्न कहा है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यके प्रदेशभेद होने से वह किसीका किसीमें नहीं मिलता। वह चेतनत्व अपने अनंत धर्मोंमें व्यापक है, इसलिये उसे आत्माका तत्त्व कहा है, उसे यह सरस्वतीकी मूर्ति देखती है और दिखाती है। इसप्रकार इसके द्वारा सर्व प्राणियोंका कल्याण होता है, इसलिये 'सदा प्रकाशरूप रहो' इसप्रकार इसके प्रति आशीर्वादरूप वचन कहा है ।। २।।
अब टीकाकार इस ग्रंथका व्याख्यान करनेका फल चाहते हुए प्रतिज्ञा करते
है :
श्लोकार्थ:- श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेव कहते हैं कि [ समयसार - व्याख्यया एव] इस समयसार ( शुद्धात्मा तथा ग्रंथ ) की व्याख्या ( टीका) से ही [ मम अनुभूतेः] मेरी अनुभूतिकी अर्थात् अनुभवनरूप परिणतिकी [ परमविशुद्धिः] परम विशुद्धि (समस्त रागादि विभावपरिणति रहित उत्कृष्ट निर्मलता ) [ भवतु ] हो। कैसी है यह मेरी परिणति ? [ परपरिणतिहेतोः मोहनाम्नः अनुभावात् ] परपरिणतिका
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पूर्वरंग
अथ सूत्रावतारः
वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते । वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभणिदं ।। १ ।।
वन्दित्वा सर्वसिद्धान् ध्रुवामचलामनौपम्यां गतिं प्राप्तान् । वक्ष्यामि समयप्राभृतमिंद अहो श्रुतकेवलिभणितम् ॥ १ ॥
कारण जो मोह नामक कर्म है, उसके अनुभाव उदयरूप विपाक ) से [ अविरतम् अनुभाव्य-व्याप्ति - कल्माषितायाः ] जो अनुभाव्य ( रागादि परिणामों) की व्याप्ति है, उससे निरंतर कल्माषित अर्थात् मैली है। और मैं [ शुद्धचिन्मात्रमूर्तेः ] द्रव्यदृष्टिसे शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ।
५
भावार्थ :- आचार्यदेव कहते है कि शुद्धद्रव्यार्थिक नयकी दृष्टिसे तो शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ, किन्तु मेरी परिणति मोहकर्मके उदयका निमित्त पाकर के मैली है-रागादिस्वरूप हो रही है। इसलिये शुद्ध आत्माकी कथनीरूप इस समयसार ग्रंथकी टीका करनेका फल यह चाहता हूँ कि मेरी परिणति रागादि रहित होकर शुद्ध हो, मेरे शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति हो । मैं दूसरा कुछ भी ख्याति, लाभ, पूजादिक नहीं चाहता, इसप्रकार आचार्यने टीका करनेकी प्रतिज्ञागर्भित उसके फलकी प्रार्थना की है ।। ३।।
अब मूलगाथासूत्रकार श्री कुंदकुंदाचार्यदेव ग्रंथके प्रारम्भमें मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करते :
( हरिगीतिका छन्द )
ध्रुव अचल अरु अनुपम गति, पाये हुए सब सिद्धको, मैं वंद श्रुतकेवलिकथित, कहूँ समयप्राभृतको अहो ।। १ ।।
गाथार्थ :- [ ध्रुवाम् ] ध्रुव, [ अचलाम् ] अचल और [ अनौपम्यां ] अनुपम - इन तीन विशेषणोंसे युक्त [ गति ] गतिको [ प्राप्तान् ] प्राप्त हुए [ सर्वसिद्धान् ] सर्व सिद्धोंको [वंदित्वा ] नमस्कार करके [ अहो ] अहो ! [ श्रुतकेवलिभणितम् ] श्रुतकेवलियोंके द्वारा कथित [ इदं ] यह [ समयप्राभृतम् ] समयसार नामक प्राभृत [ वक्ष्यामि ] कहूँगा।
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समयसार
अथ प्रथमत एव स्वभावभावभूततया ध्रुवत्वमवलंबमानामनादिभावांतरपरपरिवृत्तिविश्रान्तिवनाचलत्वमुपगतामखिलोपमानविलक्षणाद्भुतमाहात्म्यत्वेनाविद्यमान -पम्यामपवर्गसंज्ञिकां गतिमापन्नान् भगवतः सर्वसिद्धान् सिद्धत्वेन साध्यस्यात्मनः प्रतिच्छन्दस्थानीयान् भावद्रव्यस्तवाभ्यां स्वात्मनि परात्मनि च निधायानादिनिधनश्रुतप्रकाशितत्वेन निखिलार्थसार्थसाक्षात्कारिकेवलिप्रणीतत्वेन श्रुतकेवलिभि: स्वयमनुभवद्भिरभिहितत्वेन च प्रमाणतामुपगतस्यास्य समयप्रकाशकस्य प्राभृताह्वयस्याहत्प्रवचनाव- यवस्य स्वपरयोरनादिमोहप्रहाणाय भाववाचा द्रव्यवाचा च परिभाषणमुपक्रम्यते।
टीका :- यहाँ (संस्कृत टीकामें) 'अथ' शब्द मंगलके अर्थको सूचित करता है। ग्रंथके प्रारम्भमें सर्व सिद्धोंको भाव-द्रव्य स्तुतिसे अपने आत्मामें तथा परके आत्मामें स्थापित करके इस समय नामक प्राभृतका भाववचन और द्रव्यवचनसे परिभाषण (व्याख्यान) प्रारम्भ करते हैं-इसप्रकार श्री कुंदकुंदाचार्यदेव कहते हैं। वे सिद्ध भगवान, सिद्धत्वके कारण, साध्य जो आत्मा उसके प्रतिच्छंदके स्थान पर हैं,जिनके स्वरूपका संसारी भव्यजीव चितवन करके, उनके समान अपने स्वरूपको ध्याकर उन्हींके समान हो जाते हैं और चारों गतिओंसे विलक्षण पंचमगति-मोक्षको प्राप्त करते हैं। वह पंचमगति स्वभावसे उत्पन्न हुई है, इसलिये ध्रुवत्वका अवलंबन करती है। चारों गतियाँ परनिमित्तसे होती हैं, इसलिये ध्रुव नहीं किन्तु विनाशीक हैं। 'ध्रुव' विशेषणसे पंचमगतिमें इस विनाशीकताका व्यवच्छेद हो गया। और वह गति अनादिकालसे परभावोंके निमित्तसे होनेवाले परमें भ्रमण, उसकी विश्रांति ( अभाव) के वश अचलताको प्राप्त है। इस विशेषणसे, चारों गतिओंमें पर निमित्तसे जो भ्रमण होता है, उसका (पंचमगतिमें) व्यवच्छेद हो गया। और वह जगत्में जो समस्त उपमायोग्य पदार्थ हैं उनसे विलक्षण-अद्भुत महिमावाली है, इसलिये उसे किसी की उपमा नहीं मिल सकती। इस विशेषणसे चारों गतिओंमें जो परस्पर कथंचित समानता पाई जाती है, उसका (पंचमगतिमें) निराकरण हो गया। और उस गतिका नाम अपवर्ग है। धर्म, अर्थ और काम त्रिवर्ग कहलाते है; मोक्षगति इस वर्गमें नहीं है, इसलिये उसे अपवर्ग कही है। ऐसी पंचमगतिको सिद्धभगवान प्राप्त हुए हैं। उन्हें अपने तथा परके आत्मामें स्थापित करके, समयका (सर्व पदार्थोंका अथवा जीवपदार्थका) प्रकाशक जो प्राभृत नामक अर्हतप्रवचनका अवयव है उसका. अनादि कालसे उत्पन्न हुए अपने और परके मोहका नाश करनेके लिये परिभाषण करता हूँ। वह अर्हत्प्रवचनका अवयव अनादिनिधन परमागम शब्दब्रह्मसे प्रकाशित होनेसे, सर्व पदार्थों के समूहको साक्षात् करनेवाले केवली भगवान-सर्वज्ञदेव द्वारा प्रणीत होनेसे और केवलियोंके निकटवर्ती साक्षात् सुननेवाले तथा स्वयं अनुभव करनेवाले श्रुतकेवली---गणधर देवोंके द्वारा कथित होनेसे प्रमाणताको प्राप्त है। यह अन्यवादियोंके आगमकी भाँति छद्मस्थ (अल्प ज्ञानियों) की कल्पनामात्र नहीं है कि
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पूर्वरंग
तत्र तावत्समय एवाभिधीयते -
जिससे अप्रमाण हो।
भावार्थ :- गाथासूत्रमें आचार्यदेवने 'वक्ष्यामि' कहा है, उसका अर्थ टीकाकारने ‘वच् परिभाषणे' धातुसे परिभाषण किया है। उसका आशय इसप्रकार सूचित होता है कि; चौदह पूर्वोमेंसे ज्ञानप्रवाद नामक पांचवे पूर्वमें बारह 'वस्तु' अधिकार हैं; उनमें भी एक एकके बीस बीस 'प्राभृत' अधिकार हैं। उनमेंसे दशवें वस्तुमें समय नामक जो प्राभूत है उसके मल सत्रोंके शब्दोंका ज्ञान पहले बडे आचार्योंको था और उसके अर्थका ज्ञान आचार्योंकी परिपाटीके अनुसार श्री कुंदकुंदाचार्यदेव को भी था। उन्होंने समयप्राभृतका परिभाषण किया-परिभाषासूत्र बनाया। सूत्रकी दस जातियाँ कही गई हैं, उनमेंसे एक 'परिभाषा' जाति भी है। जो अधिकारको अर्थके द्वारा यथास्थान सूचित करे वह ‘परिभाषा' कहलाती है। श्री कुंदकुंदाचार्यदेव समयप्राभृतका परिभाषण करते हैं, अर्थात् वे समयप्राभृतके अर्थको ही यथास्थान बतानेवाला परिभाषासूत्र रचते हैं।
आचार्यने मंगलके लिये सिद्धोंको नमस्कार किया है। संसारीके लिये शुद्ध आत्मा साध्य है और सिद्ध साक्षात् शुद्धात्मा है, इसलिये उन्हें नमस्कार करना उचित है। यहाँ किसी ईष्टदेवका नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया ? इसकी चर्चा टीकाकारके मंगलाचरण पर की गई है, उसे यहाँ भी समझ लेना चाहिये। सिद्धोंको 'सर्व' विशेषण देकर यह अभिप्राय बताया है कि सिद्ध अनंत हैं। इससे यह मानने वाले अन्यमतियोंका खण्डन हो गया कि 'शुद्ध आत्मा एक ही है'। 'श्रुतकेवली' शब्दके अर्थमें, (१) श्रुत अर्थात् अनादिनिधन प्रवाहरूप आगम और केवली अर्थात् सर्वज्ञदेव कहे गये हैं, तथा (२) श्रुत-अपेक्षासे केवली समान ऐसे गणधरदेवादि विशिष्ट श्रुतज्ञानधर कहे गये हैं उनसे समयप्राभृतकी उत्पत्ति बताई गई है। इस प्रकार ग्रंथकी प्रमाणता बताई है, और अपनी बुद्धिसे कल्पित कहनेका निषेध किया है। अन्यवादी छद्मस्थ (अल्पज्ञ) अपनी बुद्धिसे पदार्थका स्वरूप चाहे जैसा कह कर विवाद करते हैं, उनका असत्यार्थपन बताया है।
इस ग्रंथके अभिधेय, संबंध और प्रयोजन तो प्रगट ही हैं। शुद्ध आत्माका स्वरूप अभिधेय (कहने योग्य) है। उसके वाचक इस ग्रंथमें जो शब्द हैं उनका और शुद्ध आत्माका वाच्यवाचकरूप संबंध है सो संबंध है। और शुद्धात्माके स्वरूपकी प्राप्ति का होना प्रयोजन है।
प्रथम गाथामें समयका प्राभृत कहनेकी प्रतिज्ञा की है। इसलिये यह आकांक्षा होती है कि समय क्या है ? इसलिये पहले उस समयको ही कहते हैं :
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समयसार
जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो तं हि ससमयं जाण। पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं च तं जाण परसमयं ।।२।।
जीवः चरित्रदर्शनज्ञानस्थितः तं हि स्वसमयं जानीहि।
पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं च तं जानीहि परसमयम्।।२।। योयं नित्यमेव परिणामात्मनि स्वभावेऽवतिष्ठमानत्वादुत्पादव्ययध्रौव्यैक्यानुभूति लक्षणया सत्तयानुस्यूतश्चैतन्यस्वरूपत्वान्नित्योदितविशददृशिज्ञप्तिज्योतिरनन्त
जीव चरितदर्शनज्ञानस्थित, स्वसमय निश्चय जानना;
स्थित कर्मपुद्गलके प्रदेशों, परसमय जीव जानना।। २।। गाथार्थ :- हे भव्य ! [ जीवः] जो जीव [चरित्रदर्शनज्ञानस्थितः] दर्शन, ज्ञान, चारित्रमें स्थित हो रहा है [ तं] उसे [ हि] निश्चयसे ( वास्तवमें) [ स्वसमयं] स्वसमय [जानीहि] जानो; [च] और जो जीव [पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं] पुद्गलकर्मके प्रदेशोंमें स्थित है [ तं] उसे [ परसमयं] परसमय [ जानीहि ] जानो।
टीका:- 'समय' शब्दका अर्थ इसप्रकार है :- ‘सम्' उपसर्ग है, जिसका अर्थ 'एकपना' है, और 'अय गतौ' धातु है, जिसका अर्थ गमन और ज्ञान भी है; इसलिये एक साथ ही (युगपद् ) जानना और परिणमन करना, यह दोनों क्रियायें एकत्वपूर्वक करे वह समय है। यह जीव नामक पदार्थ एकत्वपूर्वक एक ही समयमें परिणमन भी करता है और जानता भी है। इसलिये वह समय है। यह जीवपदार्थ सदा ही परिणामस्वरूप स्वभावमें रहता हुआ होनेसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यकी एकतारूप अनुभूति लक्षणयुक्त सत्ता सहित है। (इस विशेषणसे जीवकी सत्ताको न मानने वाले नास्तिकवादियोंका मत खण्डन हो गया; तथा पुरुषको-जीवको अपरिणामी माननेवाले सांख्यवादीयोंका मत परिणमनस्वभाव कहनेसे खण्डित हो गया। नैयायिक और वैशेषिक सत्ताको नित्य ही मानते हैं, और बौद्ध क्षणिक ही मानते हैं; उनका निराकरण, सत्ताको उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप कहनेसे हो गया।) और जीव चैतन्यस्वरूपतासे नित्य उद्योतरूप निर्मल स्पष्ट दर्शनज्ञानज्योतिस्वरूप है ( क्योंकि चैतन्यका परिणमन दर्शनज्ञानस्वरूप है)। इस विशेषणसे, चैतन्यको ज्ञानाकारस्वरूप न माननेवाले सांख्यमतवालोंका निराकरण हो गया।) और वह जीव अनंत धर्मों में रहनेवाला जो एकधर्मीपना है उसके कारण जिसे द्रव्यत्व प्रगट है, ऐसा है; ( क्योंकि अनंत धर्मोकी एकता द्रव्यत्व है)। (इस विशेषणसे , वस्तुको धर्मोंसे रहित मानने वाले बौद्धमतियोंका निषेध हो गया।) और वह क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवर्तमान अनेक भाव जिसका स्वभाव होनेसे जिसने गुणपर्यायों को अंगीकार किया है, ऐसा है। (पर्याय क्रमवर्ती होती है और गुण सहवर्ती होता है; सहवर्तीको अक्रमवर्ती भी कहते हैं।) (इस विशेषणसे, पुरुषको निर्गुण माननेवाले सांख्यमतवालोंका निरसन हो गया।) और वह, अपने और परद्रव्योंके आकारोंको
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पूर्वरंग
धर्माधिरूढेकधर्मित्वादुद्योतमानद्रव्यत्वः क्रमाक्रमप्रवृत्तविचित्रभावस्वभावत्वादुत्सङ्गितगुणपर्यायः स्वपराकारावभासनसमर्थत्वादुपात्तवैश्वरूप्यैकरूपः प्रतिविशिष्टावगाहगतिस्थितिवर्तनानिमित्तत्वरूपित्वाभावादसाधारणचिद्रूपतास्वभावसद्भावाचाकाशधर्माधर्मक ल-पुद्गलेभ्यो भिन्नोऽत्यन्तमनन्तद्रव्यसङ्करेऽपि स्वरूपादप्रच्यवनाट्टकोत्कीर्णचित् स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः, समयत एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति चेति निरुक्तेः।अयं खलु यदा सकलभावस्वभावभासनसमर्थविद्यासमुत्पादकविवेक ज्योतिरुद्गगमनात्समस्तपरद्रव्यात्प्रच्युत्य
दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपात्म तत्त्वैकत्वगतत्वेन वर्तते तदा दर्शनज्ञानचारित्रस्थितत्वात्स्वमेकत्वेन युगपज्जानन् गच्छंश्च स्वसमय इति, यदा त्वनाद्यविद्याकन्दलीमूलकन्दायमानमोहानुवृत्तितन्त्रतया दशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपादात्मतत्त्वात्प्रच्युत्य परद्रव्यप्रत्ययमोहरागद्वेषादिभावैकत्वगतत्वेन वर्तते तदा पुद्गलकर्म-प्रदेशस्थितत्वात्परमेकत्वेन युगपज्जानन् गच्छंश्च परसमय इति प्रतीयते। एवं किल समयस्य द्वैविध्यमुद्धावति।।
प्रकाशित करनेकी सामर्थ्य होनेसे जिसने समस्तरूपको प्रकाशनेवाली एकरूपता प्राप्त की है, ऐसा (अर्थात् जिसमें अनेक वस्तुओंके आकार प्रतिभासित होते हैं, ऐसे एक ज्ञानके आकाररूप है)। इस विशेषणसे, ज्ञान अपने को ही जानता है, परको नहीं ,-इसप्रकार एकाकार को ही माननेवालेका, तथा अपनेको नहीं जानता किन्तु परको जानता है, इसप्रकार अनेकाकार को ही माननेवालेका व्यवच्छेद हो गया। और वह, अन्य द्रव्योंके जो विशिष्ट गुण-अवगाहन-गति-स्थिति-वर्तनाहेतुत्व और रूपित्व हैं, उनके अभावके कारण और असाधारण चैतन्यरूपतास्वभावके सद्भावके कारण आकाश, धर्म, अधर्म, काल और पुद्गल-इन पाँच द्रव्योंसे भिन्न है। (इस विशेषणसे एक ब्रह्मवस्तुको ही माननेवालेका खण्डन हो गया।) और वह, अनंत अन्य द्रव्योंके साथ अत्यंत एकक्षेत्रावगाहरूप होनेपर भी, अपने स्वरूपसे न छूटनेसे टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावरूप है। (इस विशेषणसे वस्तु-स्वभावका नियम बताया है।) -ऐसा जीव नामक पदार्थ समय है।
जब यह (जीव), सर्व पदार्थोंके स्वभावको प्रकाशित करनेमें समर्थ केवलज्ञानको उत्पन्न करनेवाली भेदज्ञानज्योतिका उदय होनेसे , सर्व परद्रव्योंसे छूटकर दर्शन-ज्ञानस्वभावमें नियत वृत्तिरूप (अस्तित्वरूप) आत्मतत्त्वके साथ एकत्वरूपमें लीन होकर प्रवृत्ति करता है तब दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें स्थित होनेसे अपने स्वरूपको एकत्वरूपसे एक ही समयमें जानता तथा परिणमता हुआ वह ‘स्वसमय' है, इसप्रकार प्रतीत किया जाता है; किन्तु जब वह, अनादि अविद्यारूपी केलेके मूलकी गाँठ की भाँति (पुष्ट हुआ) मोह उसके उदयानुसार प्रवृत्तिकी आधीनतासे, दर्शनज्ञानस्वभावमें नियत वृत्तिरूप आत्मतत्त्वसे छूटकर परद्रव्यके निमित्तसे उत्पन्न मोहरागद्वेषादि भावोंमें एकतारूपसे लीन होकर प्रवृत्त होता है तब पुद्गलकर्मके (कार्माणस्कन्दरूप) प्रदेशोंमें स्थित होनेसे युगपद् परको एकत्वपूर्वक जानता और
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समयसार
अथैतद्वाध्यते
एयत्तणिच्छयगदो समओ सव्वत्थ सुंदरो लोगे। बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि।।३।।
एकत्वनिश्चयगतः समयः सर्वत्र सुन्दरो लोके। बन्धकथैकत्वे तेन विसंवादिनी भवति।।३ ।।
समयशब्देनात्र सामान्येन सर्व एवार्थोऽभिधीयते, समयत एकीभावेन स्वगुणपर्यायान् गच्छतीति निरुक्तेः। ततः सर्वत्रापि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोकेयेयावन्तः केचनाप्यर्थास्ते सर्व एव स्वकीयद्रव्यान्तर्मग्नानन्तस्वधर्मचक्रचुम्बिनोऽपि
पररूपसे एकत्वपूर्वक परिणमित होता हुआ ‘परसमय' है, इसप्रकार प्रतीति की जाती है। इसप्रकार जीव नामक पदार्थकी स्वसमय और परसमयरूप द्विविधता प्रगट होती है।
भावार्थ :-जीव नामक वस्तुको पदार्थ कहा है। 'जीव' इसप्रकार अक्षरोंका समूह 'पद' है और उस पदसे जो द्रव्यपर्यायरूप अनेकांतस्वरूपता निश्चित की जाये वह पदार्थ है। यह जीवपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी सत्तास्वरूप है, दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप है, अनंतधर्मस्वरूप द्रव्य है, द्रव्य होनेसे वस्तु है, गुणपर्यायवान है, उस का स्वपरप्रकाशक ज्ञान अनेकाकाररूप एक है, और वह (जीवपदार्थ) आकाशादिसे भिन्न असाधारण चैतन्यगुणस्वरूप है, तथा अन्य द्रव्यों के साथ एक क्षेत्रमें रहनेपर भी अपने स्वरूपको नहीं छोड़ता। ऐसा जीव नामक पदार्थ समय है। जब वह अपने स्वभावमें स्थित हो तब स्वसमय है, और परस्वभाव-रागद्वेषमोहरूप होकर रहे तब परसमय है। इसप्रकार जीवके द्विविधता आती है।। अब, समयकी द्विविधतामें आचार्य बाधा बतलाते हैं:
एकत्व-निश्चय गत समय, सर्वत्र सुंदर लोकमें। उससे बने बंधनकथा, जु विरोधिनी एकत्वमें।।३।।
गाथार्थ:- [ एकत्वनिश्चयगतः ] एकत्वनिश्चयको प्राप्त जो [ समयः ] समय है वह [ लोके] लोकमें [ सर्वत्र] सब जगह [ सुन्दर:] सुंदर है [ तेन] इसलिये [एकत्वे ] एकत्वमें [ बन्धकथा] दूसरेके साथ बंधकी कथा [ विसंवादिनी ] विसंवादविरोध करनेवाली [भवति ] है।
टीका :- यहाँ 'समय' शब्दसे सामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते हैं, क्योंकि व्युत्पत्ति के अनुसार 'समयते' अर्थात एकीभावसे ( एकत्वपूर्वक) अपने गुणपर्यायोंको प्राप्त होकर जो परिणमन करता है सो समय है। इसलिये धर्म-अधर्म-आकाशकाल-पुद्गल-जीवद्रव्यस्वरूप लोकमें सर्वत्र जो कुछ जितने जितने पदार्थ हैं
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पूर्वरंग
परस्परमचुम्बन्तोत्यन्तप्रत्यासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादपतन्तः पररूपेणापरिणमनादविनष्टानन्तव्यक्तित्वाट्टकोत्कीर्णा इव तिष्ठन्तः समस्तविरुद्धाविरुद्धकार्यहेतुतया शश्वदेव विश्वमनुगृहन्तो नियतमेकत्वनिश्चयगतत्वेनैव सौन्दर्यमापद्यन्ते, प्रकारान्तरेण सर्वसङ्करादि-दोषापत्तेः। एवमेकत्वे सर्वार्थानां प्रतिष्ठिते सति जीवाह्वयस्य समयस्य बन्धकथाया एव विसंवादापत्तिः। कुतस्तन्मूलपुद्गलकर्मप्रदेशस्थितत्वमूलपरसमयत्वोत्पादितमेतस्य द्वैविध्यम्। अतः समयस्यैकत्वमेवावतिष्ठते।
अथैतदसुलभत्वेन विभाव्यतेसुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा। एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स।। ४ ।।
वे सभी निश्चयसे ( वास्तवमें) एकत्वनिश्चयको प्राप्त होनेसे ही सुंदरताको पाते हैं, क्योंकि अन्य प्रकारसे उसमें सर्वसंकर आदि दोष आजायेंगे। वे सब पदार्थ अपने द्रव्य में अंतर्मग्न रहने वाले अपने अनंत धर्मोंके चक्रको ( समूहको) चुम्बन करते हैं-स्पर्श करते हैं तथापि वे परस्पर एक दूसरे को स्पर्श नहीं करते, अत्यन्त निकट एकक्षेत्रावगाहरूपसे तिष्ठ रहे हैं तथापि वे सदाकाल अपने स्वरूपसे च्युत नहीं होते पररूप परिणमन न करने से अनंत व्यक्तिता नष्ट नहीं होती इसलिये वे टंकोत्कीर्ण की भाँति ( शाश्वत) स्थित रहते हैं और समस्त विरुद्ध कार्य तथा अविरुद्ध कार्य दोनोंकी हेतुतासे वे सदा विश्वका उपकार करते हैं-टिकाये रखते हैं। इसप्रकार सर्व पदार्थोंका भिन्न भिन्न एकत्व सिद्ध होनेसे जीव नामक समयको बंधकी कथासे ही विसंवादकी आपत्ति आती है; तो फिर बंध जिसका मूल है ऐसा जो पुद्गलकर्मके प्रदेशोमें स्थित होना, वह जिसका मूल है ऐसा परसमयपना, उससे उत्पन्न होनेवाला ( परसमय-स्वसमयरूप) द्विविधपना उसको (जीव नामके समयको) कहाँसे हो ? इसलिये समयके एकत्वका होना ही सिद्ध होता है।
भावार्थ :- निश्चयसे सर्व पदार्थ अपने अपने स्वभावमें स्थित रहते हुए ही शोभा पाते हैं। परंतु जीव नामक पदार्थकी अनादि कालसे पुद्गलकर्म के साथ निमित्तरूप बंध-अवस्था है; उससे इस जीवमें विसंवाद खड़ा होता है, इसलिये वह शोभा को प्राप्त नहीं होता। इसलिये वास्तवमें विचार किया जाये तो एकत्व ही सुंदर है; उससे यह जीव शोभाको प्राप्त होता है।। अब उस एकत्वकी असुलभता बताते हैं :
है सर्व श्रुत-परिचित-अनुभूत, भोगबंधनकी कथा। परसे जुदा एकत्वकी , उपलब्धि केवल सुलभ ना।।४।।
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समयसार
श्रुतपरिचितानुभूता सर्वस्यापि कामभोगबन्धकथा। एकत्वस्योपलम्भः केवलं न सुलभो विभक्तस्य।। ४ ।।
इह किल सकलस्यापि जीवलोकस्य संसारचक्रक्रोडाधिरोपितस्याश्रान्तमनन्त -द्रव्यक्षेत्रकालभवभावपरावर्ती: समुपक्रान्तभ्रान्तेरेकच्छत्रीकृतविश्वतया महता मोहग्रहेण गोरिव वाह्यमानस्य प्रसभोज्जृम्भिततृष्णातङ्कत्वेन व्यक्तान्तराधेरुत्तम्योत्तम्य मृगतृष्णायमानं विषयग्राममुपरुन्धानस्य परस्परमाचार्यत्वमाचरतोऽनन्तशः श्रुतपूर्वानन्तश: परिचितपूर्वा-नन्तशोऽनुभूतपूर्वा चैकत्वविरुद्धत्वेनात्यन्तविसंवादिन्यपि कामभोगानुबद्धा कथा। इदं तु नित्यव्यक्ततयान्तः प्रकाशमानमपि कषायचक्रेण सहैकीक्रियमाणत्वादत्यन्ततिरोभूतं सत् स्वस्यानात्मज्ञतया परेषामात्मज्ञानामनुपासनाच्च न कदाचिदपि श्रुतपूर्वं , न कदाचिदपि
गाथार्थ :- [ सर्वस्य अपि] सर्व लोकको [ कामभोगबन्धकथा] कामभोगसंबंधी बंधकी कथा तो [ श्रुतपरिचितानुभूता] सुननेमें आ गई है, परिचयमें आ गई है और अनुभवमें भी आगई है, इसलिये सुलभ है; किन्तु [ विभक्तस्य ] भिन्न आत्माका [ एकत्वस्य उपलम्भः ] एकत्व होना कभी न तो सुना है, न परिचयमें आया है और न अनुभवमें आया है, इसलिये [ केवलं] एकमात्र वही [ न सुलभः ] सुलभ नहीं है।
टीका :- इस समस्त जीवलोकको, कामभोगसंबंधी कथा एकत्वसे विरुद्ध होनेसे अत्यंत विसंवाद करानेवाली है (आत्माका अत्यंत अनिष्ट करनेवाली है), तथापि पहले अनंत बार सुननेमें आई है, अनंत बार परिचयमें आई है, और अनंत बार अनुभवमें भी आई है। वह जीवलोक, संसाररूपी चक्रके मध्यमें स्थित है, निरंतर द्रव्य , क्षेत्र, काल, भव और भावरूप अनंत परावर्तन के कारण भ्रमणको प्राप्त हुआ है, समस्त विश्वको एकछत्र राज्यसे वश करनेवाला महा मोहरूपी भूत जिसके पास बैलकी भाँति भार वहन कराता है, जोरसे प्रगट हुए तृष्णारूपी रोगके दाहसे अंतरंगमें पीड़ा प्रगट हुई है, आकुलित हो होकर मृगजलकी भाँति विषयग्रामको (इन्द्रियविषयों के समूहको) जिसने घेरा डाल रखा है, और वह परस्पर आचार्यत्व भी करता है (अर्थात् दूसरोंसे कहकर उसी प्रकार अंगीकार करवाता है)। इसलिये कामभोगकी कथा तो सबके लिये सुलभ है। किन्तु निर्मल भेदज्ञानरूपी प्रकाशसे स्पष्ट भिन्न देखाई देने वाला यह मात्र भिन्न आत्माका एकत्व ही है, जो कि सदा प्रगटरूपसे अंतरंगमें प्रकाशमान है, तथापि कषायचक्र (-कषायसमूह) के साथ एकरूप जैसा किया जाता है, इसलिये अत्यंत तिरोभावको प्राप्त हुआ है (-ढक रहा है) वह अपनेमें अनात्मज्ञता होनेसे (-स्वयं आत्माको न जाननेसे) और अन्य आत्माको
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पूर्वरंग
परिचितपूर्वं, न कदाचिदप्यनुभूतपूर्वं च निर्मलविवेकालोकविविक्तं केवलमेकत्वम्। अत एकत्वस्य न सुलभत्वम्।
अत एवैतदुपदर्श्यते
तं यत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण ।
जदि दाज्ज पमाणं चुक्केज्ज छलं ण घेत्तव्वं ।। ५ ।। तमेकत्वविभक्तं दर्शयेऽहमात्मनः स्वविभवेन ।
यदि दर्शयेयं प्रमाणं स्खलेयं छलं न गृहीतव्यम् ।। ५ ।।
१३
जाननेवालोंकी संगति-सेवा न करनेसे, न तो पहले कभी सुना है, न परिचयमें आया है और न कभी अनुभवमें आया है, इसलिये भिन्न आत्माका एकत्व सुलभ नहीं है।
भावार्थ :- इस लोकमें सर्व जीव संसाररूपी चक्रपर चढ़कर पंच परावर्तन रूप भ्रमण करते हैं। वहाँ उन्हें मोहकर्मोदयरूपी पिशाच के द्वारा जोता जाता है, इसलिये वे विषयोंकी तृष्णारूपी दाहसे पीड़ित होते हैं; और उस दाहका इलाज ( उपाय ) इन्द्रियोंके रूपादि विषयोंको जानकर उनकी ओर दौड़ते हैं; तथा परस्पर भी विषयोंका ही उपदेश करते हैं। इसप्रकार काम तथा भोगकी कथा तो अनंतबार सुनी, परिचयमें प्राप्त की और उसीका अनुभव किया इसलिये वह सुलभ है । किन्तु सर्व परद्रव्योंसे भिन्न एक चैतन्यचमत्कारस्वरूप अपने आत्माकी कथाका ज्ञान अपनेको अपनेसे कभी नहीं हुआ, और जिन्हें वह ज्ञान हुआ है उनकी कभी सेवा नहीं की; इसलिये उसकी कथा न तो कभी सुनी, न परिचय किया और न अनुभव किया इसलिये उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं, दुर्लभ है ।।
अब आचार्य कहते हैं कि इसीलिये जीवोंको उस भिन्न आत्माका एकत्व बतलाते हैं :
दर्शाउँ एक विभक्तको आत्मातने निज विभवसे ।
9
दर्शाउँ तो करना प्रमाण, न छल ग्रहो स्खलना बने ।। ५॥
गाथार्थ :- [ तम् ] उस [ एकत्वविभक्त ] एकत्वविभक्त आत्माको [अहं ] मैं [ आत्मनः ] आत्माके [ स्वविभवेन ] निज वैभव से [ दर्शये ] दिखाता हूँ; [ यदि ] यदि मैं [ दर्शयेयं ] दिखाऊँ तो [ प्रमाणं ] प्रमाण ( स्वीकार) करना, [ स्खलेयं ] और यदि कहीं चूक जाऊँ तो [ छलं ] छल [ न ] नहीं [ गृहीतव्यम् ] ग्रहण करना ।
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समयसार
२०
इह किल सकलोद्भासिस्यात्पदमुद्रितशब्दब्रह्मोपासनजन्मा, समस्तविपक्षक्षोदक्षमातिनिस्तुषयुक्तयवलम्बनजन्मा,निर्मलविज्ञानघनान्तर्निमग्नपरापरगुरुप्रसादीकृतशुद्ध आत्म-तत्त्वानुशासनजन्मा, अनवरतस्यन्दिसुन्दरानन्दमुद्रितामन्दसंविदात्मकस्वसंवेदनजन्मा च यः कश्चनापि ममात्मनः स्वो विभवस्तेन समस्तेनाप्ययं तमेकत्वविभक्तमात्मानं दर्शयेहमिति बद्धव्यवसायोस्मि। किन्तु यदि दर्शयेयं तदा स्वयमेव स्वानुभवप्रत्यक्षेण परीक्ष्य प्रमाणीकर्तव्यम्। यदि तु स्खलेयं तदा तु न छलग्रहणजागरूकैर्भवितव्यम्।।
टीका :- आचार्य कहते हैं कि जो कुछ मेरे आत्माका निजवैभव है, उस सबसे मैं इस एकत्व-विभक्त आत्माको दिखाऊँगा, ऐसा मैंने व्यवसाय (उद्यम, निर्णय) किया है। मेरे आत्माका वह निज वैभव इस लोकमें प्रगट समस्त वस्तुओंका प्रकाशक है, और ‘स्यात्' पदकी मुद्रावाला जो शब्दब्रह्म-अहँतका परमागम है, उसकी उपासनासे उसका जन्म हुआ है। ('स्यात्' का अर्थ 'कथंचित्' है अर्थात किसी प्रकारसे किसी अपेक्षासे कहना। परमागमको शब्दब्रह्म कहनेका कारण यह है कि-अहँतके परमागममें सामान्य धर्मोंके-वचनगोचर समस्त धर्मों के नाम आते हैं और वचनसे अगोचर जो विशेष धर्म हैं उनका अनुमान कराया जाता है; इसप्रकार वह सर्व वस्तुओंका प्रकाशक है, इसलिये उसे सर्वव्यापी कहा जाता है, और इसीलिये उसे शब्दब्रह्म कहते हैं।) समस्त विपक्ष-अन्यवादिओंके द्वारा गृहीत सर्वथा एकांतरूप नयपक्षके निराकरणमें समर्थ अतिनिस्तुष निर्बाध युक्तिके अवलंबनसे उस निज वैभवका जन्म हुआ है। और निर्मल विज्ञानघन आत्मामें अंतर्निमग्न (अन्तरलीन) परमगुरुसर्वज्ञदेव और अपरगुरु-गणधरादिकसे लेकर हमारे गुरुपर्यंत, उनके प्रसादरूपसे दिया गया जो शुद्धात्मतत्त्वका अनुग्रहपूर्वक उपदेश तथा पूर्वाचार्योंके अनुसार जो उपदेश है उससे निज वैभवका जन्म हुआ है। निरंतर झरता हआ-स्वादमें आता हआ जो सुंदर आनंद है, उसकी मुद्रासे युक्त प्रचुरसंवेदनस्वरूप स्वसंवेदनसे निज वैभव का जन्म हुआ है। यों जिस जिस प्रकारसे मेरे ज्ञानका वैभव है उस समस्त वैभवसे दिखाता हूँ। मैं जो यह दिखाऊँ तो उसे स्वयमेव अपने अनुभव-प्रत्यक्षसे परीक्षा करके प्रमाण करना; और यदि कहीं अक्षर, मात्रा, अलंकार, युक्ति आदि प्रकरणोंमें चूक जाऊँ तो छल ( दोष) ग्रहण करनेमें सावधान मत होना। शास्त्रसमुद्रके बहुतसे प्रकरण हैं, इसलिये यहाँ स्वसंवेदनरूप अर्थ प्रधान है; इसलिये अर्थकी परीक्षा करनी चाहिये।
भावार्थ :- आचार्य आगमका सेवन, युक्तिका अवलंबन, पर और अपर गुरुका उपदेश और स्वसंवेदन-यों चार प्रकारसे उत्पन्न हुए अपने ज्ञानके वैभवसे एकत्वविभक्त शुद्ध आत्माका स्वरूप दिखाते हैं। हे श्रोताओं! उसे अपने स्वसंवेदन-प्रत्यक्षसे प्रमाण करो; यदि कहीं किसी प्रकरणमें भूल जाऊँ तो उतने दोषको ग्रहण मत करना । कहने का आशय यह है कि यहाँ अपना अनुभव प्रधान है; उससे शुद्ध
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पूर्वरंग
कोऽसौ शुद्ध आत्मेति चित्
ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो। एवं भणंति सद्धं णादो जो सो दु सो चेव ।।६।।
नापि भवत्यप्रमत्तो न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भावः।। एवं भणन्ति शुद्धं ज्ञातो यः स तु स चेव।। ६ ।।
यो हि नाम स्वतःसिद्धत्वेनानादिरनन्तो नित्योद्योतो विशदज्योतिर्ज्ञायक एको भावः स संसारावस्थायामनादिबन्धपर्यायनिरूपणया क्षीरोदकवत्कर्मपुद्गलैः सममेकत्वेऽपि द्रव्यस्वभावनिरूपणया दुरन्तकषायचक्रोदयवैचित्र्यवशेन प्रवर्तमानानां पुण्यपापनिर्वर्तका-नामुपात्तवैश्वरूप्याणां शुभाशुभभावानां स्वभावेनापरिणमनात्प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च न भवति। एष एवाशेषद्रव्यान्तरभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्यते।
स्वरूपका निश्चय करो।।।
अब यहाँ यह प्रश्न उठता है कि ऐसा शुद्ध आत्मा कौन है जिसका स्वरूप जानना चाहिये ? इसके उत्तरस्वरूप गाथासूत्र कहते है :
नहिं अप्रमत्त प्रमत्त नहीं, जो एक ज्ञायक भाव है। इस रीति शुद्ध कहाय अरु, जो ज्ञात वो तो वो हि है।।६।।
गाथार्थ :- [ यः तु] जो [ ज्ञायक: भावः ] ज्ञायक भाव है वह [अप्रमत्तः अपि ] अप्रमत्त भी [ न भवति ] नहीं और [ न प्रमत्तः ] प्रमत्त भी नहीं है,- [ एवं ] इस प्रकार [ शुद्धं ] इसे शुद्ध [ भणन्ति ] कहते हैं; [ च यः] और जो [ ज्ञात: ] ज्ञायकरूपसे ज्ञात हुआ [ सः तु] वह तो [ सः एव ] वही है, अन्य कोई नहीं।।
टीका :- जो स्वयं अपनेसे ही सिद्ध होनेसे (किसीसे उत्पन्न हुआ न होनेसे), अनादि सत्तारूप है, कभी विनाशको प्राप्त न होनेसे अनंत है, नित्यउद्योतरूप होनेसे क्षणिक नहीं है और स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है, ऐसा जो ज्ञायक एक 'भाव' है, वह संसारकी अवस्थामें अनादि बंधपर्यायकी निरूपणासे (अपेक्षासे) क्षीरनीरकी भाँति कर्मपुद्गलोंके साथ एकरूप होनेपर भी, द्रव्यके स्वभावकी अपेक्षासे देखा जाये तो दुरंत कषायचक्रके उदयकी (-कषायसमूहके अपार उदयोंकी) विचित्रताके वशसे प्रवर्तमान पुण्य-पापको उत्पन्न करनेवाले समस्त अनेकरूप शुभअशुभ भाव, उनके स्वभावरूप परिणमित नहीं होता (ज्ञायकभावसे जड़भावरूप नहीं होता) इसलिये वह प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; वही समस्त अन्यद्रव्योंके भावोंसे भिन्नरूपसे उपासित होता हुआ 'शुद्ध' कहलाता है।
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समयसार
१७
न चास्य ज्ञेयनिष्ठत्वेन ज्ञायकत्वप्रसिद्धेः दाह्यनिष्ठदहनस्येवाशुद्धत्वं, यतो हि तस्यामवस्थायां ज्ञायकत्वेन यो ज्ञातः स स्वरूपप्रकाशनदशायां प्रदीपस्येव कर्तृकर्मणोरनन्यत्वात् ज्ञायक एव।
और जैसे दाह्य (-जलने योग्य पदार्थ) के आकार होनेसे अग्निको दहन कहते हैं तथापि उसके दाह्यकृत अशुद्धता नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञेयाकार होनेसे उस 'भाव' के ज्ञायकता प्रसिद्ध है, तथापि उसके ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है; क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्थामें जो ज्ञायकरूपसे ज्ञात हुआ वह स्वरूप-प्रकाशनकी (स्वरूपको जाननेकी) अवस्थामें भी, दीपककी भाँति, कर्ता-कर्मका अनन्यत्व (एकता) होनेसे ज्ञायक ही है-स्वयं जानने वाला है इसलिये स्वयं कर्ता और अपनेको जाना इसलिये स्वयं ही कर्म है। (जैसे दीपक घटपटादिको प्रकाशित करने की अवस्थामें भी दीपक है, और अपनेको-अपनी ज्योतिरूप शिखाको प्रकाशित करनेकी अवस्थामें भी दीपक ही है, अन्य कुछ नहीं; उसीप्रकार ज्ञायकका समझना चाहिये।)
भावार्थ :- अशुद्धता परद्रव्यके संयोगसे आती है। उसमें मूल द्रव्य तो अन्य द्रव्यरूप नहीं होता, मात्र परद्रव्यके निमित्तसे अवस्था मलिन हो जाती है। द्रव्य-दृष्टिसे तो द्रव्य जो है वही है और पर्याय (अवस्था) –दृष्टिसे देखा जाये तो मलिन ही दिखाई देता है। इसीप्रकार आत्माका स्वभाव ज्ञायकत्वमात्र है; और उसकी अवस्था पुद्गलकर्मके निमित्तसे रागादिरूप मलिन है, वह पर्याय है। पर्यायदृष्टिसे देखा जाये तो वह मलिन ही दिखाई देता है और द्रव्यदृष्टिसे देखा जाय तो ज्ञायकत्व तो ज्ञायकत्व ही है; यह कहीं जड़त्व नहीं हुआ। यहाँ द्रव्यदृष्टिको प्रधान करके कहा है। जो प्रमत्त-अप्रमत्तके भेद हैं वे परद्रव्यकी संयोगजनित पर्याय हैं। यह अशुद्धता द्रव्यदृष्टिमें गौण है, व्यवहार है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है, उपचार है। द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, अभेद है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है। इसलिये आत्मा ज्ञायक ही है; उसमें भेद नहीं है इसलिये वह प्रमत-अप्रमत नहीं है। 'ज्ञायक' नाम भी उसे ज्ञेयको जाननेसे दिया जाता है; क्योंकि ज्ञेयका प्रतिबिंब जब झलकता है तब ज्ञानमें वैसा ही अनुभव होता है। तथापि उसे ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है, क्योंकि जैसा ज्ञेय ज्ञानमें प्रतिभासित हुआ वैसा ज्ञायकका ही अनुभव करने पर ज्ञायक ही है। यह जो मैं जाननेवाला हूँ सो मैं ही हूँ, अन्य कोई नहीं'-ऐसा अपनेको अपना अभेदरूप अनुभव हुआ तब इस जाननेरूप क्रिया का कर्त्ता स्वयं ही है, और जिसे जाना वह कर्म भी स्वयं ही है। ऐसा एक ज्ञायकत्वमात्र स्वयं शुद्ध है। -यह शुद्धनयका विषय है। अन्य जो परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिकनयके विषय हैं। अशुद्धद्रव्यार्थिकनय भी शुद्ध द्रव्यकी दृष्टिमें पर्यायार्थिक ही है इसलिये व्यवहारनय ही है ऐसा आशय समझना चाहिये।
यहाँ यह भी जानना चाहिये कि जिनमतका कथन स्याद्वादरूप है, इसलिये
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पूर्वरंग
१७
दर्शनज्ञानचारित्रवत्त्वेनास्याशुद्धत्वमिति चेत्ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं। ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो।।७।।
व्यवहारेणोपदिश्यते ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम्। नापि ज्ञानं न चरित्रं न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः।। ७ ।।
अशुद्धनयको सर्वथा असत्यार्थ न माना जाये; क्योंकि स्वाद्वाद प्रमाणसे शुद्धता और अशुद्धता- दोनों वस्तुके धर्म हैं और वस्तुधर्म वस्तुका सत्त्व है; अन्तरमात्र इतना ही है कि अशुद्धता परद्रव्यके संयोगसे होती है। अशुद्धनयको यहाँ हेय कहा है क्योंकि अशुद्धनयका विषय संसार है और संसारमें आत्मा क्लेश भोगता है; जब स्वयं परद्रव्यसे भिन्न होता है तब संसार छूटता है और क्लेश दूर होता है। इसप्रकार दुःख मिटानेके लिये शुद्धनयका उपदेश प्रधान है। अशुद्धनयको असत्यार्थ कहनेसे यह न समझना चाहिये कि आकाशके फूलकी भाँति वह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं है, ऐसा सर्वथा एकांत समझनेसे मिथ्यात्व होता है; इसलिये स्याद्वादकी शरण लेकर शुद्धनयका अवलंबन लेना चाहिये। स्वरूपकी प्राप्ति होनेके बाद शुद्धनयका भी आलंबन नहीं रहता। जो वस्तुस्वरूप है वह है-यह प्रमाणदृष्टि है। इसका फल वीतरागता है। इसप्रकार निश्चय करना योग्य है।
यहाँ, (ज्ञायकभाव) प्रमत्त-अप्रमत्त नहीं है ऐसा कहा है। वह गुणस्थानोंकी परिपाटीमें छठे गुणस्थान तक प्रमत्त और सातवेंसे लेकर अप्रमत्त कहलाता है। किन्तु यह सब गुणस्थान अशुद्धनयकी कथनीमें है; शुद्धनयसे तो आत्मा ज्ञायक ही है।
__ अब प्रश्न यह होता है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्रको आत्माका धर्म कहा गया है, किन्तु यह तो तीन भेद हुए; और इन भेदरूप भावोंसे आत्माको अशुद्धता आती है ? इसके उत्तरस्वरूप गाथासूत्र कहते हैं :
चारित्र, दर्शन, ज्ञान भी, व्यवहार कहता ज्ञानीके। चारित्र नहिं, दर्शन नहीं, नहिं ज्ञान, ज्ञायक शुद्ध है।।७।।
गाथार्थ :- [ज्ञानिनः] ज्ञानीके [चरित्रं दर्शनं ज्ञानम् ] चारित्र, दर्शन, ज्ञान-यह तीन भाव [ व्यवहारेण ] व्यवहारसे [ उपदिश्यते] कहे जाते हैं; निश्चयसे [ज्ञानं अपि न ] ज्ञान भी नहीं है, [ चरित्रं न] चारित्र भी नहीं है, और [ दर्शनं न] दर्शन भी नहीं है; ज्ञानी तो एक [ ज्ञायकः शुद्धः ] शुद्ध ज्ञायक ही है।
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समयसार
आस्तां तावद्वन्धप्रत्ययात् ज्ञायकस्याशुद्धत्वं, दर्शनज्ञानचारित्राण्येव न विद्यन्ते; यतो ह्यनन्तधर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यान्तेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभिः कैश्चिद्धमैस्तमनुशासतां सूरिणां धर्मधर्मिणो: स्वभावतोऽभेदेपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः। परमार्थतस्त्वेकद्रव्य-निष्पीतानन्तपर्यायतयैकं
किञ्चिन्मिलितास्वादमभेदमेकस्वभावमनुभवतो न दर्शनं न ज्ञानं न चारित्रं, ज्ञायक एवैक: शुद्धः।
टीका :- इस ज्ञायक आत्माको बंधपर्यायके निमित्तसे अशुद्धता तो दूर रहो, किन्तु उसके दर्शन, ज्ञान, चारित्र भी विद्यमान नहीं है; क्योंकि अनंत धर्मोंवाले एक धर्मीमें जो निष्णात नहीं है ऐसे निकटवर्ती शिष्योंको, धर्मीको बतलानेवाले कितने ही धर्मों के द्वारा, उपदेश करते हुए आचार्योंका-यद्यपि धर्म और धर्मीका स्वभावसे अभेद है तथापि नामसे भेद करके- व्यवहारमात्रसे ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है। किन्तु परमार्थसे देखा जाये तो अनंत पर्यायोंको एक द्रव्य पी गया होनेसे जो एक है ऐसे कुछ-मिले हुए आस्वादवाले, अभेद , एक स्वभावी ( तत्त्व) - का अनुभव करनेवालेको दर्शन भी नहीं है, ज्ञान भी नहीं है, चारित्र भी नहीं है, एक शुद्ध ज्ञायक ही है।
भावार्थ :- इस शुद्ध आत्माके कर्मबंधके निमित्तसे अशुद्धता होती है, यह बात तो दूर ही रहो, किन्तु उसके दर्शन, ज्ञान, चारित्रके भी भेद नहीं है; क्योंकि वस्तु अनंतधर्मरूप एकधर्मी है। परंतु व्यवहारीजन धर्मोको ही समझते हैं, धर्मीको नहीं जानते, इसलिये वस्तुके किन्हीं असाधारण धर्मोंको उपदेशमें लेकर अभेदरूप वस्तुमें भी धर्मोंके नामरूप भेदको उत्पन्न करके ऐसा उपदेश दिया जाता है कि ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है। इसप्रकार अभेदमें भेद किया जाता है, इसलिये वह व्यवहार है। यदि परमार्थसे विचार किया जाये तो एक द्रव्य अनंत पर्यायोंको अभेदरूपसे पी कर बैठा है, इसलिये उसमें भेद नहीं है।
यहाँ कोई कह सकता है कि पर्याय भी द्रव्यके ही भेद हैं, अवस्तु नहीं; तब फिर उन्हें व्यवहार कैसे कहा जा सकता है ? उसका समाधान यह है :- यह ठीक है, किन्तु यहाँ द्रव्यदृष्टिसे अभेदको प्रधान करके उपदेश दिया है। अभेददृष्टिमें भेदको गौण कहनेसे ही अभेद भलीभाँति मालूम हो सकता है। इसलिये भेदको गौण करके उसे व्यवहार कहा है। यहाँ यह अभिप्राय है कि भेददृष्टिमें भी निर्विकल्प दशा नहीं होती और सरागीके विकल्प होते रहते हैं; इसलिये जहाँ तक रागादिक दूर नहीं हो जाते वहाँ तक भेदको गौण करके अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराया गया है। वीतराग होनेके बाद भेदाभेदरूप वस्तुका ज्ञाता हो जाता है, वहाँ नयका अवलंबन ही नहीं रहता।
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पूर्वरंग
तर्हि परमार्थ एवैको वक्तव्य इति चेत्
जह ण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदुं । ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ।। ८ ।। यथा नापि शक्योऽनार्योऽनार्यभाषां विना तु ग्राहयितुम् । तथा व्यवहारेण विना परमार्थोपदेशनमशक्यम्।। ८ ।।
तह
"
यथा खलु म्लेच्छ: स्वस्तीत्यभिहिते सति तथाविधवाच्यवाचकसम्बन्धावबोधबहिष्कृतत्वान्न किञ्चिदपि प्रतिपद्यमानो मेष इवानिमेषोन्मेषितचक्षुः प्रेक्षत एव यदा तु स एव तदेतद्भाषासम्बन्धैकार्थज्ञेनान्येन तेनैव वा म्लेच्छभाषां समुदाय स्वस्तिपदस्याविनाशो भवतो भवत्वित्यभिधेयं प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोद्यदमन्दानन्दमयाश्रुझलज्झलल्लोचनपात्रस्तत्प्रतिपद्यत एव; तथा किल लोकोऽप्यात्मेत्यभिहिते
१९
अब यहाँ पुनः प्रश्न उठा है कि यदि ऐसा है तो एक परमार्थका ही उपदेश देना चाहिये; व्यवहार किसलिये कहा जाता है ? इसके उत्तरस्वरूप गाथासूत्र कहते है :
भाषा अनार्य बिना न, समझाना ज्यु शक्य अनार्य को । व्यवहार बिन परमार्थका, उपदेश होय अशक्य यों ।। ८ ।।
गाथार्थ :- [ यथा ] जैसे [अनार्यः] अनार्य (म्लेच्छ) जनको [ अनार्यभाषां विना तु] अनार्यभाषाके बिना [ ग्राहयितुम् ] किसी भी वस्तुका स्वरूप ग्रहण करनेके लिये [न अपि शक्यः ] कोई समर्थ नहीं है [ तथा ] उसीप्रकार [ व्यवहारेण विना ] व्यवहारके बिना [ परमार्थोपदेशनम् ] परमार्थका उपदेश देना [ अशक्यम् ] अशक्य है।
टीका :- जैसे किसी म्लेच्छसे यदि कोई ब्राह्मण ' स्वस्ति' ऐसा शब्द कहे तो वह म्लेच्छ उस शब्दके वाच्यवाचक संबंधको न जाननेसे कुछ भी न समझकर उस ब्राह्मण की ओर मेंढेकी भाँति आंखें फाड़कर टकटकी लगाकर देखता ही रहता है, किन्तु जब ब्राह्मणकी और म्लेच्छकी भाषाका - दोनोंका अर्थ जाननेवाला कोई दूसरा पुरुष या वही ब्राह्मण म्लेच्छभाषा बोलकर उसे समझता है कि 'स्वस्ति' शब्दका अर्थ यह है कि “तेरा अविनाशी कल्याण हो", तब तत्काल ही उत्पन्न होनेवाले अत्यंत आनंदमय अश्रुओंसे जिसके नेत्र भर जाते हैं ऐसा वह म्लेच्छ इस 'स्वस्ति' शब्दके अर्थको समझ जाता है; इसीप्रकार व्यवहारीजन भी 'आत्मा' शब्दके कहनेपर 'आत्मा'
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समयसार
२०
सति यथावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानबहिष्कृतत्वान्न किंचिदपि प्रतिपद्यमानो मेष इवानिमेषोन्मेषितचक्षुः प्रेक्षत एव, यदा तु स एव व्यवहारपरमार्थपथप्रस्थापितसम्यग्बोधमहारथरथिनान्येन तेनैव वा व्यवहारपथमास्थाय दर्शनज्ञानचारित्राण्यततीत्यात्मेत्यात्मपदस्याभिधेयं प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोद्यदमन्दानन्दान्तःसुन्दरबन्धुरबोधतरङ्गस्तत्प्रतिपद्यत एव। एवं म्लेच्छस्थानीयत्वाज्जगतो व्यवहारनयोऽपि म्लेच्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयः। अथ च ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्य इति वचनाद्व्यवहारनयो नानुसर्तव्यः।
कथं व्यवहारस्य प्रतिपादकत्वमिति चेत्जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्ध। तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा।।९।। जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा। णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा।। १० ।। जुम्म।।
शब्दके अर्थ का ज्ञान न होने से कुछ भी न समझकर मेंढेकी भाँति आंखें फाडकर टकटकी लगाकर देखते रहते हैं, किन्तु जब व्यवहार-परमार्थ मार्ग पर सम्यग्ज्ञानरूपी महारथको चलानेवाले सारथीकी भाँति अन्य कोई आचार्य अथवा 'आत्मा' शब्दको कहनेवाला स्वयं ही व्यवहारमार्गमें रहता हुआ आत्मा शब्दका यह अर्थ बतलाता है कि-" दर्शन-ज्ञान-चारित्रको जो सदा प्राप्त हो वह आत्मा है” तब तत्काल ही उत्पन्न होनेवाले अत्यंत आनंदसे जिसके हृदयमें सुंदर बोधतरंगें (ज्ञानतरंगें) उछलने लगती हैं ऐसा वह व्यवहारीजन उस “आत्मा" शब्दके अर्थको अच्छी तरह समझ लेता है। इसप्रकार जगत तो म्लेच्छके स्थान पर होनेसे, और व्यवहारनय भी म्लेच्छभाषाके स्थान पर होनेसे परमार्थका प्रतिपादित (कहनेवाला) है इसलिये, व्यवहारनय स्थापित करनेयोग्य है; किन्तु ब्राह्मणको म्लेच्छ नहीं हो जाना चाहिये-इस वचनसे वह ( व्यवहारनय ) अनुसरण करने योग्य नहीं है।
भावार्थ :- लोग शुद्धनयको नहीं जानते, क्योंकि शुद्धनयका विषय अभेद एकरूप वस्तु है; किन्तु वे अशुद्धनयको ही जानते हैं क्योंकि उसका विषय भेदरूप अनेकप्रकार है; इसलिये वे व्यवहारके द्वारा ही परमार्थको समझ सकते हैं। अतः व्यवहारनयको परमार्थका कहनेवाला जानकर उसका उपदेश किया जाता है। इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि यहाँ व्यवहारका आलंबन कराते हैं, प्रत्युत व्यवहारका आलंबन छुड़ाकर परमार्थमें पहुँचाते हैं,- यह समझना चाहिये।
अब, प्रश्न यह होता है कि व्यवहारनय परमार्थका प्रतिपादक कैसे है ? इसके उद्धर-स्वरूप गाथासूत्र कहते हैं :
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पूर्वरंग
यो हि श्रुतेनाभिगच्छति आत्मानमिमं तु केवलं शुद्धम्। तं श्रुतकेवलिनमृषयो भणन्ति लोकप्रदीपकाराः।।९।। यः श्रुतज्ञानं सर्व जानाति श्रुतकेवलिनं तमाहुर्जिनाः। ज्ञानमात्मा सर्व यस्माच्छ्रुतकेवली तस्मात्।। १० ।। युग्मम्।
यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत्परमार्थो; यः श्रुतज्ञानं सर्व जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहारः। तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा ? न तावदनात्मा, समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतरपदार्थपञ्चतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः। ततो गत्यन्तराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायाति। अतः श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात्।
गाथार्थ:- [ यः ] जो जीव [ हि] निश्चयसे [ श्रुतेन तु] श्रुतज्ञानके द्वारा [ इमं] इस अनुभवगोचर [ केवलं शुद्धम् ] केवल एक शुद्ध [ आत्मानम् ] आत्माको [ अभिगच्छति ] सन्मुख होकर जानता है [ तं] उसे [ लोकप्रदीपकराः ] लोकको प्रगट जाननेवाले [ऋषयः] ऋषीश्वर [ श्रुतकेवलिनम् ] श्रुतकेवली [भणन्ति] कहते है; [ यः] जो जीव [ सर्वं ] सर्व [ श्रुतज्ञानं] श्रुतज्ञानको [ जानाति] जानता है [ तम् ] उसे [ जिनाः] जिनदेव [ श्रुतकेवलिनं] श्रुतकेवली [आहुः] कहते हैं, [यस्मात् ] क्योंकि [ज्ञानम् सर्वं] ज्ञान सब [ आत्मा] आत्मा ही है [ तस्मात् ] इसलिये [ श्रुतकेवली ] ( वह जीव ) श्रुतकेवली है।
टीका :- प्रथम, “जो श्रुतसे केवल शुद्ध आत्माको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं" यह तो परमार्थ है; और “जो सर्व श्रुतज्ञानको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं” वह व्यवहार है। यहाँ दो पक्ष लेकर परीक्षा करते हैं-उपरोक्त सर्व ज्ञान आत्मा है या अनात्मा ? यदि अनात्माका पक्ष लिया जाये तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि जो समस्त जड़रूप अनात्मा आकाशादिक पांच द्रव्य हैं, उनका ज्ञानके साथ तादात्म्य बनता ही नहीं (क्योंकि उनमें ज्ञान सिद्ध नहीं है)। इसलिये अन्य पक्षका अभाव होनेसे 'ज्ञान आत्मा ही है' यह पक्ष सिद्ध हुआ। इसलिये श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है।
इस आत्मको श्रुतसे नियत, जो शुद्ध केवल जानते। ऋषिगण प्रकाशक लोकके, श्रुतकेवली उसको कहें।।९।। श्रुतज्ञान सब जानें जु, जिन श्रुतकेवली उसको कहे। सब ज्ञान सो आत्मा हि है, श्रुतकेवली उससे बने ।।१०।।
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समयसार
२२
एवं सति यः आत्मानं जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति, स तु परमार्थ एव। एवं ज्ञानज्ञानिनोर्मेदेन व्यपदिशता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते, न किञ्चिदप्यतिरिक्तम्। अथ च यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहारः परमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति।
कुतो व्यवहारनयो नानुसर्तव्य इति चेत्ववहारो भूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो।। ११ ।।
व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो दर्शितस्तु शुद्धनयः। भूतार्थमाश्रितः खलु सम्यग्दृष्टिर्भवति जीवः।। ११ ।।
ऐसा होनेसे ‘जो आत्माको जानता है, वह श्रुतकेवली है' ऐसा ही घटित होता है; और वह तो परमार्थ ही है। इसप्रकार ज्ञान और ज्ञानीके भेदसे कहनेवाला जो व्यवहार है उससे भी परमार्थमात्र ही कहा जाता है, उससे भिन्न कुछ नहीं कहा जाता। और “जो श्रुतसे केवल शुद्ध आत्माको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं,” इसप्रकार परमार्थका प्रतिपादन करना अशक्य होनेसे , “जो सर्व श्रुतज्ञानको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं" ऐसा व्यवहार परमार्थके प्रतिपादकत्वसे अपनेको दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है।
भावार्थ:- जो शास्त्रज्ञानसे अभेदरूप ज्ञायकमात्र शुद्ध आत्माको जानता है वह श्रुतकेवली है, यह तो परमार्थ (निश्चय कथन) है। और जो सर्व शास्त्रज्ञानको जानता है उसने भी ज्ञानको जाननेसे आत्माको ही जाना है, क्योंकि जो ज्ञान है वह आत्मा ही है; इसलिये ज्ञान-ज्ञानीके भेदको कहनेवाला जो व्यवहार उसने भी परमार्थ ही कहा है, अन्य कुछ नहीं कहा। और परमार्थका विषय तो कथंचित् वचनगोचर भी नहीं है, इसलिये व्यवहारनयही आत्माको प्रगटरूपसे कहता है, ऐसा जानना चाहिये।
अब, यह प्रश्न उपस्थित होता है कि -पहले यह कहा था कि व्यवहारको अंगीकार नहीं करना चाहिये, किन्तु यदि वह परमार्थको कहनेवाला है तो ऐसे व्यवहारको क्यों अंगीकार न किया जाये ? इसके उत्तररूपमें गाथासूत्र कहते हैं :
व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ है।
भूतार्थ आश्रित आत्मा, सदृष्टि निश्चय होय है।।११।। गाथार्थ :- [व्यवहार: ] व्यवहारनय [अभूतार्थः] अभूतार्थ है [ तु] और [ शुद्धनयः ] शुद्धनय [ भूतार्थ: ] भूतार्थ है, ऐसा [ दर्शितः ] ऋषीश्वरोंने बताया है; [ जीवः ] जो जीव [ भूतार्थ] भूतार्थका [अश्रित:] आश्रय लेता है वह जीव [ खलु] निश्चसे ( वास्तवमें ) [ सम्यग्दृष्टि: ] सम्यग्दष्टि [ भवति ] है।
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पूर्वरंग
व्यवहारनयो हि सर्व एवाभूतार्थत्वादभूतमर्थ प्रद्योतयति, शुद्धनय एक एव भूतार्थत्वात् भूतमर्थ प्रद्योतयति। तथा हि-यथा प्रबलपंकसंवलनतिरोहितसहजैकाच्छभावस्य पयसोऽनुभवितारः पुरुषाः पङ्कपयसोर्विवेकमकुर्वन्तो बहवोऽनच्छमेव तदनुभवन्ति; केचित्तु स्वकरविकीर्णकतकनिपातमात्रोपजनितपङ्कपयोविवेकतया स्व - पुरुषकाराविर्भावित सहजैकाच्छभावत्वादच्छमेव तदनुभवन्ति; तथा प्रबलकर्मसंवलनतिरोहितसहजैकज्ञायकभावस्यात्मनोऽनुभवितार: पुरुषा आत्मकर्मणोर्विवेकमकुर्वन्तो व्यवहारविमोहितहृदयाः प्रद्योतमानभाववैश्वरूप्य तमनुभवन्ति; भूतार्थदर्शिनस्तु स्वमतिनिपातितशुद्धनयानुबोधमात्रोपजनितात्म
कर्मविवेकतया स्वपुरुषकाराविर्भावितसहजैकज्ञायकभावत्वात् प्रद्योतमानैकज्ञायकभावं तमनुभवन्ति। तदत्र ये भूतार्थमाश्रयन्ति त एव सम्यक् पश्यन्तः सम्यग्दृष्टयो भवन्ति, न पुनरन्ये, कतकस्थानीयत्वात् शुद्धनयस्य। अत: प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारनयो नानुसर्तव्यः।
टीका :- व्यवहारनय सब ही अभूतार्थ है, इसलिये वह अविद्यमान , असत्य, अभूत अर्थको प्रगट करता है; शुद्धनय एक ही भूतार्थ होनेसे विद्यमान, सत्य, भूत अर्थको प्रगट करता है। यह बात दृष्टांतसे बतलाते हैं:-जैसे प्रबल कीचड़के मिलनेसे जिसका सहज एक निर्मलभाव तिरोभूत (आच्छादित) हो गया है, ऐसे जलका अनुभव करनेवाले पुरुष-जल और कीचड़का विवेक न करनेवाले ( दोनोंके भेदको न समझनेवाले )-बहुतसे तो उस जलको मलिन ही अनुभवते हैं, किन्तु कितनेही अपने हाथसे डाले हुए कतकफल' के पड़ने मात्रसे उत्पन्न जल-कादवके विवेकतासे, अपने पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत किये गये सहज एक निर्मलभावपनेसे उस जलको निर्मल ही अनुभव करते हैं; इसीप्रकार प्रबल कर्मोंके मिलनेसे जिसका सहज एक ज्ञायकभाव तिरोभत हो गया है. ऐसे आत्माका अनुभव करनेवाले पुरुष-आत्मा और कर्मका विवेक (भेद) न करनेवाले, व्यवहारसे विमोहित हृदयवाले तो, उसे (आत्माको) जिसमें
वोकी विश्वरूपता (अनेकरूपता) प्रगट है ऐसा अनुभव करते हैं; किन्त भूतार्थदर्शी (शुद्धनयको देखनेवाले) अपनी बुद्धिसे डाले हुए शुद्धनयके अनुसार बोध होनेमात्रसे उत्पन्न आत्मकर्मके विवेकतासे, अपने पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत किये गये सहज एक ज्ञायकभावत्वके कारण उसे ( आत्माको) जिसमें एक ज्ञायकभाव प्रकाशमान है ऐसा अनुभव करते हैं। यहाँ, शुद्धनय कतकफलके स्थानपर है, इसलिये जो शुद्धनयका आश्रय लेते हैं वे ही सम्यक् अवलोकन करनेसे सम्यग्दृष्टि हैं, दूसरे (जो अशुद्धनयका सर्वथा आश्रय लेते हैं वे) सम्यग्दृष्टि नहीं हैं। इसलिये कर्मोंसे भिन्न आत्माके देखनेवालोंको व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है।
भावार्थ :- यहाँ व्यवहारनयको अभूतार्थ और शुद्धनयको भूतार्थ कहा है। १ कतकफल= निर्मली ; ( एक औषधी जिससे कीचड़ नीचे बैठ जाता है)
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समयसार
२४
अथ च केषाञ्चित्कदाचित्सोऽपि प्रयोजनवान। यत:
सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे।। १२ ।।
शुद्धः शुद्धादेशो ज्ञातव्यः परमभावदर्शिभिः। व्यवहारदेशिताः पुनर्ये त्वपरमे स्थिता भावे।। १२ ।।
जिसका विषय विद्यमान न हो, असत्यार्थ हो, उसे अभूतार्थ कहते हैं। व्यवहारनयको अभूतार्थ कहनेका आशय यह है कि शुद्धनयका विषय अभेद एकाकाररूप नित्य द्रव्य है, उसकी दृष्टिमें भेद दिखाई नहीं देता; इसलिये उसकी दृष्टिमें भेद अविद्यमान, असत्यार्थही कहना चाहिये। ऐसा न समझना चाहिये कि भेदरूप कोई वस्तु ही नहीं है। यदि ऐसा माना जाये तो जैसे वेदान्तमतवाले भेदरूप अनित्यको देखकर अवस्तु मायास्वरूप कहते हैं और सर्वव्यापक एक अभेद नित्य शुद्धब्रह्मको वस्तु कहते हैं वैसा सिद्ध हो और उससे सर्वथा एकांत शुद्धनयके पक्षरूप मिथ्यादृष्टिका ही प्रसंग आये, इसलिये यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि जिनवाणी स्याद्वादरूप है, वह प्रयोजनवश नयको मुख्य-गौण करके कहती है। प्राणिओंको भेदरूप व्यवहारका पक्ष तो अनादि कालसे ही है और इसका उपदेश भी बहुधा सर्व प्राणी परस्पर करते हैं। और जिनवाणीमें व्यवहारका उपदेश शुद्धनयका हस्तावलंबन (सहायक) जानकर बहुत किया है; किन्तु उसका फल संसार ही है। शुद्धनयका पक्ष तो कभी आया नहीं और उसका उपदेश भी विरल है-वह कहीं कहीं पाया जाता है। इसलिये उपकारी श्रीगुरुने शुद्धनयके ग्रहणका फल मोक्ष जानकर उसका उपदेश प्रधानतासे दिया है कि --- “शुद्धनय भूतार्थ है, सत्यार्थ है; इसका आश्रय लेनेसे सम्यग्दृष्टि हो सकता है; इसे जाने बिना जब तक जीव व्यवहारमें मग्न है तबतक आत्माका ज्ञानश्रद्धानरूप निश्चय सम्यक्त्व नहीं हो सकता।" ऐसा आशय समझना चाहिये।
अब, “यह व्यवहारनय भी किसी किसी को किसी काल में प्रयोजनवान है, सर्वथा निषेध करने योग्य नहीं है; इसलिये उसका उपदेश है" यह कहते हैं:
देखै परम जो भाव उसको, शुद्धनय ज्ञातव्य है।
ठहरा जु अपरमभावमें, व्यवहारसे उपदिष्ट है।।१२।। गाथार्थ:- [ परमभावदर्शिभिः ] जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धावान हुए तथा पूर्ण ज्ञान-चारित्रवान हो गये उन्हें तो [शुद्धादेशः ] शुद्ध (आत्मा) का उपदेश (आज्ञा) करनेवाला [ शुद्धः] शुद्धनय [ ज्ञातव्यः ] जाननेयोग्य है; [ पुनः ] और [ ये तु] जो जीव [अपरमे भावे ] अपरमभावमें-अर्थात् श्रद्धा तथा ज्ञानचारित्रके पूर्ण भावको नहीं पहुँच सके हैं, साधक अवस्थामें ही [स्थिताः] स्थित हैं वे [ व्यवहारदेशिताः ] व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं।
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पूर्वरंग
२५
ये खलु पर्यन्तपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयं परमं भावमनुभवन्ति तेषां प्रथम
द्वितीयाद्यनेकपाकपरम्परापच्यमानकार्तस्वरानुभवस्थानीयापरमभावानुभवनशून्यत्वाच्छु समुद्योतितास्खलितैकस्वभावैकभावः
द्ध-द्रव्यादेशितया
शुद्धनय
प्रयोजनवान्;
तु
एवोपरितनैकप्रतिवर्णिका - स्थानीयत्वात्परिज्ञायमानः प्रथमद्वितीयाद्यनेकपाकपरम्परापच्य-मानकार्तस्वरस्थानीयमपरमं भावमनुभवन्ति तेषां पर्यन्तपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वर-स्थानीयपरमभावानुभवनशून्यत्वादशुद्धद्रव्या
देशितयोपदर्शितप्रतिविशिष्टैकभावानेकभावो
व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकाप्रयोजनवान्; तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव
स्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे
व्यवस्थितत्वात्। उक्तं च- '' 'जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्छं।।
,,
टीका:- जो पुरुष अंतिम पाकसे उतरे हुये शुद्ध सुवर्णके समान ( वस्तुके ) उत्कृष्ट भावका अनुभव करते हैं उन्हें प्रथम, द्वितीय आदि पाकोंकी परंपरासे पच्यमान ( पकाये जाते हुये ) अशुद्ध सुवर्णके समान जो अनुत्कृष्ट मध्यम भाव हैं उनका अनुभव नहीं होता; इसलिये, शुद्धद्रव्यको कहनेवाला होनेसे जिसने अचलित अखंड एकस्वभावरूप एक भाव प्रगट किया है ऐसा शुद्धनय ही, सबसे उपरकी एक प्रतिवर्णिका ( स्वर्ण-वर्ण) समान होनेसे, जाननेमें आता हुआ प्रयोजनवान है। परंतु जो पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों (तावों) की परंपरासे पच्यमान अशुद्ध स्वर्णके समान जो ( वस्तुका ) अनुत्कृष्ट मध्यमभावका अनुभव करते हैं उन्हें अंतिम तावसे उतरे हुये शुद्ध स्वर्णके समान उत्कृष्ट भावका अनुभव नहीं होता; इसलिये, अशुद्ध द्रव्यको कहनेवाला होनेसे जिसने भिन्न भिन्न एक एक भावस्वरूप अनेक भाव दिखाये हैं ऐसा व्यवहारनय, विचित्र अनेक वर्णमालाके समान होनेसे, जाननेमें आता ( - ज्ञात होता ) हुआ उस काल प्रयोजनवान है। क्योंकि तीर्थ और तीर्थके फलकी ऐसी ही व्यवस्थिति है । ( जिससे तिरा जाय वह तीर्थ है; ऐसा व्यवहारधर्म है और पार होना व्यवहारधर्मका फल है; अथवा अपने स्वरूपको प्राप्त करना तीर्थफल है । ) अन्यत्र भी कहा है कि :
अर्थ:-आचार्य कहते हैं कि हे भव्य जीवों! यदि तुम जिनमतका प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय - दोनों नयोंको मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहारनयके बिना तो तीर्थ-व्यवहारमार्गका नाश हो जायगा और निश्चयनयके बिना तत्त्व ( वस्तु ) का नाश हो जायगा ।
भावार्थ:- लोकमें सोनेके सोलह वान ( ताव ) प्रसिद्ध हैं। पंद्रहवे वान तक उसमें चूरी आदि परसंयोगकी कालिमा रहती है, इसलिये तबतक वह अशुद्ध कहलाता है; और ताव देते देते जब अंतिम तावसे उतरता है तब वह सोलहवान या सौटंची शुद्ध सोना कहलाता है । जिन्हें सोलहवानवाले सोनेका ज्ञान, श्रद्धान तथा
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समयसार
प्राप्ति हुई है उन्हें पंद्रह-वान तकका सोना कोई प्रयोजनवान नहीं होता, और जिन्हें सोलह-वानवाले शुद्ध सोनेकी प्राप्ति नहीं हुई है उन्हें तबतक पंद्रह-वान तकका सोना भी प्रयोजनवान है। इसीप्रकार यह जीव नामक पदार्थ है, जो कि पुद्गलके संयोगसे अशुद्ध अनेकरूप हो रहा है। उसका, समस्त परद्रव्योंसे भिन्न, एक ज्ञायकत्वमात्रका-ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरणरूप प्राप्ति-यह तीनों जिसे हो गये हैं उसे पुद्गलसंयोगजनित अनेकरूपताको कहनेवाला अशुद्धनय कुछ भी प्रयोजनवान (किसी मतलबका) नहीं है; किन्तु जहाँ तक शुद्धभावकी प्राप्ति नहीं हुई वहाँ तक जितना अशुद्धनयका कथन है उतना यथापदवी प्रयोजनवान है। जहाँ तक यथार्थ ज्ञानश्रद्धानकी प्राप्तिरूप सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं हुई हो वहाँ तक तो जिनसे यथार्थ उपदेश मिलता है ऐसे जिनवचनोंको सुनना, धारण करना तथा जिनवचनोंको कहने वाले श्री जिन-गुरुकी भक्ति, जिनबिंबके दर्शन इत्यादि व्यवहारमार्गमें प्रवृत्त होना प्रयोजनवान है; और जिन्हें श्रद्धान-ज्ञान तो हुआ है किन्तु साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई उन्हें पूर्वकथित कार्य, परद्रव्यका आलंबन छोड़नेरूप अणुव्रत-महाव्रतका ग्रहण, समिति, गुप्ति, और पंच परमेष्ठीका ध्यानरूप प्रवर्तन, तथा उसी प्रकार प्रवर्तन करनेवालोंकी संगति एवं विशेष जाननेके लिये शास्त्रोंका अभ्यास करना इत्यादि व्यवहारमार्गमें स्वयं प्रवर्तन करना और दूसरोंको प्रवर्तन कराना-ऐसे व्यवहारनयका उपदेश अंगीकार करना प्रयोजनवान है। व्यवहारनयको कथंचित् असत्यार्थ कहा गया है; किन्तु यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो वह शुभोपयोगरूप व्यवहारको ही छोड़ देगा और उसे शुद्धोपयोगकी साक्षात् प्राप्ति तो नहीं हुई है, इसलिये उल्टा अशुभोपयोगमें ही आकर, भ्रष्ट होकर, चाहे जैसी स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तो वह नरकादि गति तथा परंपरासे निगोदको प्राप्त होकर संसारमें ही भ्रमण करेगा। इस लिये शुद्धनयका विषय जो साक्षात् शुद्ध आत्मा है उसकी प्राप्ति जबतक न हो तब तक व्यवहार भी प्रयोजनवान है-ऐसा स्याद्वाद मतमें श्री गुरुओंका उपदेश है।
इसी अर्थका कलशरूप काव्य टीकाकार कहते हैं :
* व्यवहारनयके उपदेशसे ऐसा नहीं समझना चाहिये कि आत्मा परद्रव्यकी क्रिया कर सकता है, लेकिन ऐसा समझना की व्यवहारोपदृिष्ट शुभभावोंको आत्मा व्यवहारसे कर सकता है। और उस उपदेशसे ऐसा भी नहीं समझना चाहिये कि शुभभाव करने से आत्मा शुद्धताको प्राप्त करता है, परंतु ऐसा समझना कि साधक दशामें भूमिकाके अनुसार शुभ भाव आये बिना नहीं रहते।
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पूर्वरंग
२७
(मालिनी) उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाङ्के जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः। सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चैरनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव।। ४ ।।
श्लोकार्थ:- [ उभय-नय-विरोध-ध्वंसिनि] निश्चय और व्यवहार- इन दो नयोंके विषयके भेदसे परस्पर विरोध है; उस विरोधका नाश करनेवाला [ स्यात्पद-अंके ] ' स्यात्' पदसे चिह्नित जो [ जिनवचसि ] जिन भगवानका वचन ( वाणी) है उसमें [ ये रमन्ते ] जो पुरुष रमते हैं ( –प्रचुर प्रीति सहित अभ्यास करते हैं ) [ ते] वे [स्वयं] अपने आप ही (अन्य कारणके बिना) [ वान्तमोहाः] मिथ्यात्वकर्मके उदयका वमन करके [ उच्चः परं ज्योति: समयसारं] इस अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्माको [ सपदि ईक्षन्ते एव] तत्काल ही देखते हैं। वह समयसाररूप शुद्धआत्मा [अनवम् ] नवीन उत्पन्न नहीं हुआ; किन्तु पहले कर्मोंसे आच्छादित था सो वह प्रगट व्यक्तिरूप हो गया है। और वह [अनय-पक्ष-अक्षुण्णम् ] सर्वथा एकांतरूप कुनयके पक्षसे खंडित नहीं होता, निर्बाध है।
भावार्थ:- जिनवचन (जिनवाणी ) स्याद्वादरूप है। जहाँ दो नयोंके विषयका विरोध है-जैसे कि जो सत्प होता है वह असत्प नहीं होता, जो एक होता है वह अनेक नहीं होता, जो नित्य होता है वह अनित्य नहीं होता, जो भेदरूप होता है वह अभेदरूप नहीं होता, जो शुद्ध होता है वह अशुद्ध नहीं होता इत्यादि नयों के विषयोमें विरोध है-वहाँ जिनवचन कथंचित् विवक्षासे सत्-असत्प, एक-अनेकरूप, नित्य-अनित्यरूप, भेद-अभेदरूप, शुद्ध-अशुद्धरूप जिसप्रकार विद्यमान वस्तु है उसी प्रकार कह कर विरोध मिटा देता है, असत् कल्पना नहीं करता। जिनवचन द्रव्यार्थिक
और पर्यायार्थिक-दोनों नयोंमें, प्रयोजनवश शुद्धद्रव्यार्थिक नयको मुख्य करके उसे निश्चय कहते हैं और अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप पर्यायार्थिकनयको गौण करके व्यवहार कहते हैं। -ऐसे जिनवचनमें जो पुरुष रमण करते हैं वे इस शुद्ध आत्माको यथार्थ प्राप्त कर लेते हैं; अन्य सर्वथा-एकान्तवादी सांख्यादिक उसे प्राप्त नहीं कर पाते, क्योंकि वस्तु सर्वथा एकांत पक्षका विषय नहीं है तथापि वे एक ही धर्मको ग्रहण करके वस्तुकी असत्य कल्पना करते हैं-जो असत्यार्थ है, बाधासहित मिथ्या- दृष्टि है।। ४।।
इसप्रकार इन बारह गाथाओंमें पीठिका ( भूमिका) है।
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समयसार
૨૮
( मालिनी) व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्यामिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः। तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किञ्चित्।।५।।
__ अब आचार्य शुद्धनयको प्रधान करके निश्चय सम्यक्त्वका स्वरूप कहते हैं। अशुद्धनयकी (व्यवहारनयकी) प्रधानतामें जीवादि तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है, जब कि यहाँ उन जीवादि तत्त्वोंको शुद्धनय के द्वारा जाननेसे सम्यक्त्व होता है, यह कहते हैं। टीकाकार इसकी सूचनारूप तीन श्लोक कहते हैं; उनमेंसे प्रथम श्लोकमें यह कहते हैं कि व्यवहारनयको कथंचित् प्रयोजनवान कहा तथापि वह कुछ वस्तुभूत नहीं है :
श्लोकार्थ:- [ व्यवहरण-नयः ] जो व्यवहारनय है वह [ यद्यपि ] यद्यपि [इह प्राक्-पदव्यां] इस पहली पदवीमें (जब तक शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति नहीं हो जाती तबतक) [ निहित-पदानां] जिन्होंने अपना पैर रखा है ऐसे पुरुषोंको, [ हन्त ] अरे रे! [ हस्तावलम्ब: स्यात् ] हस्तावलंबन तुल्य कहा है, [ तद्-अपि] तथापि [ चित्चमत्कार-मात्रं पर-विरहितं परमं अर्थं अन्तः पश्यतां] जो पुरुष चैतन्य-चमत्कारमात्र, परद्रव्यभावोंसे रहित (शुद्धनयके विषयभूत) परम 'अर्थ' को अंतरङ्गमें अवलोकन करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं तथा उसरूप लीन होकर चारित्रभावको प्राप्त होते हैं उन्हें [ एषः ] यह व्यवहारनय [ किञ्चित् न ] कुछ भी प्रयोजनवान नहीं है।
भावार्थ:- शुद्ध स्वरूपका ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण होनेके बाद अशुद्धनय कुछ भी प्रयोजनकारी नहीं है।। ५।।
अब निश्चय सम्यक्त्वका स्वरूप कहते हैं :
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पूर्वरंग
_( शार्दूलविक्रीडित) एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मन: पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक्। स्म्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः।। ६ ।।
श्लोकार्थ:- [ अस्य आत्मनः ] इस आत्माको [ यद् इह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् दर्शनम् ] अन्य द्रव्योंसे पृथक देखना ( श्रद्धान करना) [ एतत् एव नियमात् सम्यग्दर्शनम् ] –ही नियमसे सम्यग्दर्शन है, यह आत्मा [व्याप्तुः ] अपने गुण-पर्यायोंमे व्याप्त रहनेवाला है, और [शुद्धनयतः एकत्वे नियतस्य ] शुद्धनयसे एकत्वमें निश्चित किया गया है तथा [ पूर्ण-ज्ञान-घनस्य ] पूर्णज्ञानघन है। [च] एवं [ तावान् अयं आत्मा ] जितना सम्यग्दर्शन है उतना ही आत्मा है, [ तत् ] इसलिये आचार्य प्रार्थना करते हैं कि “[इमाम् नव-तत्त्व-सन्ततिं मुक्त्वा] इस नवतत्त्वकी परिपाटीको छोड़कर, [अयम् आत्मा एकः अस्तु न: ] यह आत्मा एक ही हमें प्राप्त हो।”
भावार्थ:- सर्व स्वाभाविक तथा नैमित्तिक अपनी अवस्थारूप गुणपर्यायभेदोंमें व्यापनेवाला यह आत्मा शुद्धनयसे एकत्वमें निश्चित किया गया है-शुद्धनयसे ज्ञायकमात्र एक-आकार दिखलाया गया है, उसे सर्व अन्यद्रव्यों और अन्यद्रव्योंके भावोंसे अलग देखना, श्रद्धान करना सो नियमसे सम्यग्दर्शन है। व्यवहारनय आत्मा को अनेक भेदरूप कहकर सम्यग्दर्शनको अनेक भेदरूप कहता है, वहाँ व्यभिचार ( दोष) आता है, नियम नहीं रहता। शुद्धनयकी सीमा तक पहुँचने पर व्यभिचार नहीं रहता इसलिये नियमरूप है, शुद्धनयका विषयभूत आत्मा पूर्णज्ञानघन है-सर्व लोकालोकको जाननेवाला ज्ञानस्वरूप है। ऐसे आत्माका श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन है। यह कहीं पृथक पदार्थ नहीं है,-आत्माका ही परिणाम है, इसलिये आत्मा ही है। अतः जो सम्यग्दर्शन है सो आत्मा है, अन्य नहीं।
__यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि जो नय है सो श्रुतप्रमाणका अंश है, इसलिये शुद्धनय भी श्रुतप्रमाणका ही अंश हुवा। श्रुतप्रमाण परोक्ष प्रमाण है, क्योंकि वस्तुको सर्वज्ञके आगमके वचनसे जाना है। इसलिये यह शुद्धनय सर्व द्रव्योंसे भिन्न, आत्माकी सर्व पर्यायोंमें व्याप्त , पूर्ण चैतन्य केवलज्ञानरूप-सर्व लोकालोकको जानने वाले, असाधारण चैतन्यधर्मको परोक्ष दिखाता है। यह व्यवहारी छद्मस्थ जीव आगमको प्रमाण करके, शुद्धनयसे दिखायेगये पूर्ण आत्माका श्रद्धान करे सो वह श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है। जबतक केवल व्यवहारनयके विषयभूत जीवादिक भेदरूप तत्त्वोंका ही श्रद्धान रहता है तबतक निश्चय सम्यग्दर्शन नहीं होता। इसलिये आचार्य कहते हैं कि इन नव तत्त्वोंकी संतति (परिपाटीको) छोड़कर शुद्धनयका विषयभूत एक आत्मा ही हमें प्राप्त हो; हम दूसरा कुछ नहीं चाहते। यह वीतराग
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समयसार
२०
( अनुष्टुभ् ) अतः शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत्। नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुञ्चति।। ७ ।।
भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च। आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।। १३ ।।
भूतार्थेनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च। आस्रवसंवरनिर्जरा बन्धो मोक्षश्च सम्यक्त्वम्।। १३ ।।
अवस्थाकी प्रार्थना है, कोई नयपक्ष नहीं है। यदि सर्वथा नयोंका पक्षपात ही हुआ करे तो मिथ्यात्व ही है।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि-आत्मा चैतन्य है, मात्र इतना ही अनुभवमें आये तो इतनी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है या नहीं? उसका समाधान यह है:-नास्तिकोंको छोड़कर सभी मतवाले आत्माको चैतन्यमात्र मानते हैं; यदि इतनी ही श्रद्धाको सम्यग्दर्शन कहा जाये तो सबको सम्यक्त्व सिद्ध हो जायेगा, इसलिये सर्वज्ञकी वाणीमें जैसा सम्पूर्ण आत्माका स्वरूप कहा है वैसा श्रद्धान होनेसे ही निश्चय सम्यक्त्व होता है, ऐसा समझना चाहिये।। ६।।
अब, टीकाकार आचार्य निम्नलिखित श्लोकमें यह कहते हैं कि 'तत्पश्चात् शुद्धनयके आधीन, सर्व द्रव्योंसे भिन्न , आत्मज्योति प्रगट हो जाती है' :
श्लोकार्थ:- [अतः] तत्पश्चात् [शुद्धनय-आयत्तं] शुद्धनयके आधीन [ प्रत्यग-ज्योतिः] जो भिन्न आत्मज्योति है [ तत् ] वह [चकास्ति ] प्रगट होती है [ यद् ] कि जो [ नव-तत्त्व-गतत्वे अपि] नवतत्त्वोंमें प्राप्त होनेपर भी [ एकत्वं ] अपने एकत्व को [ न मुञ्चति ] नहीं छोड़ती ।
भावार्थ:- नवतत्त्वमें प्राप्त हुआ आत्मा अनेकरूप दिखाई देता है; यदि उसका भिन्न स्वरूप विचार किया जाये तो वह अपनी चैतन्य-चमत्कारमात्र ज्योतिको नहीं छोड़ता ।। ७।।
इसप्रकार ही शुद्धनयसे जानना सो सम्यक्त्व है, यह सूत्रकार इस गाथामें कहते हैं:
भूतार्थसे जाने अजीव जीव, पुण्य पाप अरु निर्जरा। आस्रव संवर बंध मुक्ति, ये हि समकित जानना।।१३।।
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पूर्वरंग
३१
नवतत्त्वेष्वेकत्वद्योतिना
अमूनि हि जीवादीनि नवतत्त्वानि भूतार्थेनाभिगतानि सम्यग्दर्शनं सम्पद्यन्त एव, अमीषु तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तमभूतार्थनयेन व्यपदिश्यमानेषु जीवाजीवपुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणेषु भूतार्थनयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोऽनुभूतेरात्मख्यातिलक्षणायाः सम्पद्यमानत्वात्। तत्र विकार्यविकारकोभयं पुण्यं तथा पापम्, आस्राव्यास्रावकोभयमास्रवः, संवार्यसंवारकोभयं संवरः, निर्जर्यनिर्जरकोभयं निर्जरा, बन्ध्यबन्धकोभयं बन्ध:, मोच्यमोचकोभयं मोक्षः स्वयमेकस्य पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षानुपपत्तेः। तदुभयं च जीवाजीवाविति । बहिर्दृष्ट्या नवतत्त्वान्यमूनि जीवपुद्गलयोरनादिबन्धपर्यायमुपेत्यैकत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि, अथ चैकजीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि ।
गाथार्थ:- [भूतार्थेन अभिगताः ] भूतार्थ नयसे ज्ञात [ जीवाजीवौ ] जीव, अजीव [च] और [ पुण्यपापं ] पुण्य, पाप [च] तथा [ आस्रवसंवरनिर्जराः] आस्रव, संवर, निर्जरा, [ बन्ध: ] बंध [ च ] और [ मोक्षः ] मोक्ष [ सम्यक्त्वम् ] - यह नव तत्त्व सम्यक्त्व हैं।
टीका:- यह जीवादि नवतत्त्व भूतार्थनयसे जाने हुवे सम्यग्दर्शन ही हैं ( यह नियम कहा ); क्योंकि तीर्थकी ( व्यवहार धर्मकी ) प्रवृत्ति के लिये अभूतार्थ (व्यवहार) नयसे कहा जाता है ऐसे नव तत्त्व - जिनके लक्षण जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष हैं - उनमें एकत्व प्रगट करनेवाले भूतार्थनयसे एकत्व प्राप्त करके, शुद्धनयरूपसे स्थापित आत्माकी अनुभूति - जिसका लक्षण आत्मख्याति है-वह प्राप्त होती है। ( शुद्धनयसे नवतत्त्वोंको जाननेसे आत्माकी अनुभूति होती है इस हेतुसे यह नियम कहा है। ) वहाँ, विकारी होने योग्य और विकार करनेवालादोनों पुण्य हैं, तथा दोनों पाप हैं, आस्रव होने योग्य और आस्रव करनेवाला- दोनों आस्रव हैं, संवररूप होने योग्य ( संवार्य ) और संवर करनेवाला ( संवारक) – दोनों संवर है, निर्जरा होनेके योग्य और निर्जरा करनेवाला- दोनों निर्जरा हैं, बँधनेके योग्य और बंधन करनेवाला- दोनों बंध हैं और मोक्ष होने योग्य तथा मोक्ष करनेवाला- दोनों मोक्ष हैं; क्योंकि एकके ही अपने आप पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्षकी उपपत्ति (सिद्धि ) नहीं बनती । वे दोनों जीव और अजीव हैं (अर्थात् उन दोनोंमें से एक जीव है और दूसरा अजीव )।
बाह्य (स्थूल) दृष्टिसे देखा जाये तो :- जीव - पुद्गलकी अनादि बंधपर्यायके समीप जाकर एकरूपसे अनुभव करने पर यह नवतत्त्व भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं, और एक जीवद्रव्यके स्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं; ( वे जीवके एकाकार स्वरूपमें नहीं हैं; )
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३२
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ततोऽमीषु नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव प्रद्योतते । तथान्तर्दृष्ट्या ज्ञायको भावो जीवो जीवस्यविकारहेतुरजीवः । केवलजीवविकाराश्च पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणाः, केवलाजीवविकारहेतवः पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षा इति। नवतत्त्वान्यमून्यपि जीवद्रव्यस्वभावमपोह्य स्वपरप्रत्ययैकद्रव्यपर्यायत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि अथ च सकलकालमेवास्खलन्तमेकं जीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि। ततोऽमीष्वपि नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव प्रद्योतते। एवमसावेकत्वेन द्योतमानः शुद्धनयत्वेनानुभूयत एव। या त्वनुभूतिः सात्मख्यातिरेवात्मख्यातिस्तु सम्यग्दर्शनमेव। इति समस्तमेव निरवद्यम्।
इसलिये इन नव तत्त्वोंमें भूतार्थनयसे एक जीव ही प्रकाशमान है। इसीप्रकार अंतर्दृष्टि से देखा जाये तोः–ज्ञायक भाव जीव है और जीवके विकारका हेतु अजीव है; और पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध तथा मोक्ष जिनके लक्षण हैं ऐसे केवल जीव के विकार हैं और पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध तथा मोक्ष-ये विकारहेतु केवल अजीव हैं। ऐसे यह नव तत्त्व, जीवद्रव्यके स्वभावको छोड़कर, स्वयं और पर जिनके कारण हैं ऐसे एक द्रव्यकी पर्यायोंके रूपमें अनुभव करनेपर भूतार्थ हैं और सर्व कालमें अस्खलित एक जीवद्रव्यके स्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। इसलिये इन तत्त्वोंमें भूतार्थनयसे एक जीव ही प्रकाशमान है। इसप्रकार, यह एकत्वरूपसे प्रकाशित होता हुआ शुद्धनयरूपसे अनुभव किया जाता है । और जो यह अनुभूति है सो आत्मख्याति ( आत्माकी पहचान ) ही है, और जो आत्मख्याति है सो सम्यग्दर्शन ही है । इसप्रकार यह सर्व कथन निर्दोष है - बाधा रहित है।
भावार्थ:- इन नव तत्त्वोंमें, शुद्धनयसे देखा जाये तो, जीव ही एक चैतन्यचमत्कारमात्र प्रकाशरूप प्रगट हो रहा है, इसके अतिरिक्त भिन्न भिन्न नव तत्त्व कुछ भी दिखाई नहीं देते। जबतक इसप्रकार जीवतत्त्वकी जानकारी जीवको नहीं है तबतक वह व्यवहारदृष्टि है, भिन्न भिन्न नव तत्त्वोंको मानता है । जीवपुद्गलकी बन्ध– पर्यांयरूप दृष्टिसे यह पदार्थ भिन्न भिन्न दिखाई देते हैं; किन्तु जब शुद्धनयसे जीवपुद्गलका निजस्वरूप भिन्न भिन्न देखा जाये तब वे पुण्य, पाप आदि सात तत्त्व कुछ भी वस्तु नहीं हैं; वे निमित्त - नैमित्तिक भावसे हुए थे इसलिये जब वह निमित्तनैमित्तिक भाव मिट गया तब जीव- पुद्गल भिन्न भिन्न होनेसे अन्य कोई वस्तु (पदार्थ) सिद्ध नहीं हो सकती । वस्तु तो द्रव्य है, और द्रव्यका निजभाव द्रव्यके साथ ही रहता है तथा निमित्त - नैमित्तिक भावका अभाव ही होता है, इसलिये शुद्धनयसे जीवको जानने से ही सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो सकती है। जबतक भिन्न भिन्न नव पदार्थोंको जाने, और शुद्धनयसे आत्माको न जाने तबतक पर्यायबुद्धि है ।
यहाँ, इस अर्थ का कलशरूप काव्य कहते हैं:
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पूर्वरंग
( मालिनी) चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे। अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं
प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम्।। ८ ।। अथैवमेकत्वेन द्योतमानस्यात्मनोऽधिगमोपायाः प्रमाणनयनिक्षेपाः ये ते खल्वभूतार्थास्तेष्वप्ययमेक एक भूतार्थः। प्रमाणं तावत्परोक्षं प्रत्यक्षं च। तत्रोपात्तानुपात्तपरद्वारेण प्रवर्तमानं परोक्षं, केवलात्मप्रतिनियतत्वेन प्रवर्तमानं प्रत्यक्षं च। तदुभयमपि प्रमातृप्रमाणप्रमेयभेदस्यानुभूयमानतायां भूतार्थम्, अथ च व्युदस्तसमस्त-भेदैकजीवस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।
श्लोकार्थ:- [इति] इसप्रकार [ चिरम् नव-तत्त्व-च्छन्नम् इदम् आत्मज्योतिः ] नव तत्त्वोंमें बहुत समयसे छिपी हुई यह आत्मज्योति, [ उन्नीयमानं] शुद्धनयसे बाहर निकालकर प्रगट की गई है, [ वर्णमाला-कलापे निमग्नं कनकम् इव] जैसे वर्गों के समूहमें छिपे हुए एकाकार सुवर्णको बाहर निकालते हैं। [अथ] इसलिये अब हे भव्य जीवों! [ सततविविक्तं ] इसे सदा अन्य द्रव्योंसे तथा उनसे होने वाले नैमित्तिक भावोंसे भिन्न, [एकरूपं] एकरूप [दृश्यताम् ] देखो। [प्रतिपदम् उद्योतमानम] यह (ज्योति). पद पदपर अर्थात प्रत्येक पर्यायमें एकरूप चित्चमत्कारमात्र उद्योतमान है।
भावार्थ:- यह आत्मा सर्व अवस्थाओंमें विविधरूपसे दिखाई देता था, उसे शुद्धनयने एक चैतन्य-चमत्कारमात्र दिखाया है; इसलिये अब उसे सदा एकाकार ही अनुभव करो, पर्यायबुद्धिका एकांत मत रखो-ऐसा श्री गुरुओंका उपदेश है।। ८।।।
टीका:- अब, जैसे नवतत्त्वोंमें एक जीवको ही जानना भूतार्थ कहा है उसी प्रकार, एकरूपसे प्रकाशमान आत्माके अधिगमके उपाय जो प्रमाण, नय, निक्षेप हैं वे भी निश्चयसे अभूतार्थ हैं, उनमें भी यह आत्मा एक ही भूतार्थ है (क्योंकि ज्ञेय और वचनके भेदोंसे प्रमाणादि अनेक भेदरूप होते हैं). उनमेंसे पहले, प्रमाण दो प्रकारके हैं-परोक्ष और प्रत्यक्ष। 'उपात्त और 'अनुपात्त पर ( पदार्थों) द्वारा प्रवर्ते वह परोक्ष है और केवल आत्मासे ही प्रतिनिश्चितरूपसे प्रवृत्ति करे सो प्रत्यक्ष है। (प्रमाण ज्ञान है। वह ज्ञान पाँच प्रकारका है-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल। उनमेंसे मति और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं, अवधि और मनःपर्ययज्ञान विकल-प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकल-प्रत्यक्ष है। इसलिये यह दो प्रकारके प्रमाण हैं।) वे दोनों प्रमाता, प्रमाण, प्रमेयके भेदका अनुभव करनेपर तो भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं; और जिसमें सर्वभेद गौण हो गये हैं ऐसे एक जीवके स्वभावका अनुभव करनेपर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं।
१. उपात्त = प्राप्त। (इंद्रिय, मन इत्यादि उपात्त पर पदाथ हैं।) २. अनुपात्त = अप्राप्त। (प्रकाश, उपदेश इत्यादि अनुपात्त पर पदाथ हैं।)
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नयस्तु द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्च। तत्र द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिकः, पर्यायं मुख्यतयानुभावयतीति पर्यायार्थिकः। तदुभयमपि द्रव्यपर्याययो: पर्यायेणानुभूयमानतायां भूतार्थम्, अथ च द्रव्यपर्यायानालीढशुद्धवस्तुमात्रजीवस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्। निक्षेपस्तु नाम स्थापना द्रव्यं भावश्च। तत्रातद्गुणे वस्तुनि संज्ञाकरणं नाम। सोऽयमित्यन्यत्र प्रतिनिधिव्यवस्थापनं स्थापना। वर्तमानतत्पर्याया- दन्यद् द्रव्यम्। वर्तमानतत्पर्यायो भावः। तच्चतुष्टयं स्वस्वलक्षणवैलक्षण्येनानुभूयमानतायां भूतार्थम्, अथ च निर्विलक्षणस्वलक्षणैकजीवस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्। अथैवममीषु प्रमाणनयनिक्षेपेषु भूतार्थत्वेनैको जीव एव प्रद्योतते।
नय दो प्रकारके हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। वहाँ द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तुमें द्रव्यका मुख्यतासे अनुभव कराये सो द्रव्यार्थिक नय है और पर्यायका मुख्यता से अनुभव कराये सो पर्यायार्थिक नय है। यह दोनों नय द्रव्य और पर्यायका पर्यायसे ( भेदसे , क्रमसे ) अनुभव करनेपर तो भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं; और द्रव्य तथा पर्याय दोनोंसे अनालिंगित (आलिंगन नहीं किया हुआ) शुद्धवस्तुमात्र जीवके (चैतन्यमात्र) स्वभावका अनुभव करनेपर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं।
निक्षेप के चार भेद हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। वस्तुमें जो गुण न हो उस गुणके नामसे ( व्यवहारके लिये) वस्तुकी संज्ञा करना सो नाम निक्षेप है। 'यह वह है' इसप्रकार अन्य वस्तुमें अन्य वस्तुका प्रतिनिधित्व स्थापित करना (-प्रतिमारूप स्थापन करना) सो स्थापना निक्षेप है। वर्तमानसे अन्य अर्थात् अतीत अथवा अनागत पर्यायसे वस्तुको वर्तमानमें कहना सो द्रव्य निक्षेप है। वर्तमान पर्यायसे वस्तुको वर्तमानमें कहना सो भाव निक्षेप है। इन चारों निक्षेपोंका अपने अपने लक्षणभेदसे ( विलक्षणरूपसे-भिन्न भिन्न रूपसे) अनुभव किये जानेपर वे भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं;
और भिन्न लक्षणसे रहित एक अपने चैतन्यलक्षणरूप जीवस्वभावका अनुभव करनेपर वे चारों ही अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। इसप्रकार इन प्रमाण-नय-निक्षेपोमें भूतार्थरूपसे एक जीव ही प्रकाशमान है।
भावार्थ:- इन प्रमाण, नय, निक्षेपोंका विस्तारसे कथन तद्विषयक ग्रंथोंसे जानना चाहिये; उनसे द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तुकी सिद्धि होती है। वे साधक अवस्थामें तो सत्यार्थ ही हैं क्योंकि वे ज्ञानके ही विशेष हैं। उनके बिना वस्तुको चाहे जैसे साधा जाये तो विपर्यय हो जाता है। अवस्थानुसार व्यवहारके अभावकी तीन रीतियाँ हैं: प्रथम अवस्थामें प्रमाणादिसे यथार्थ वस्तुको जानकर ज्ञान-श्रद्धानकी सिद्धि करना; ज्ञान-श्रद्धानके सिद्ध होनेपर श्रद्धानके लिये प्रमाणादिकी कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु अब यह दूसरी अवस्थामें प्रमाणादिके आलंबनसे विशेष ज्ञान होता है और राग-द्वेष-मोहकर्मका सर्वथा अभावरूप यथाख्यात चारित्र प्रगट होता है; उससे केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है। केवलज्ञान होनेके पश्चात् प्रमाणादिका आलंबन नहीं
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पूर्वरंग
( मालिनी ) उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम्। किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मिन्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ।। ९ ।।
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रहता। तत्पश्चात् तीसरी साक्षात् सिद्ध अवस्था है, वहाँ भी कोई आलंबन नहीं है। इसप्रकार सिद्ध अवस्थामें प्रमाण - नय - निक्षेपका अभाव ही है। इस अर्थका कलशरूप श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ :- आचार्य शुद्धनयका अनुभव करके कहते हैं कि - [ अस्मिन् सर्वङ्कपे धाम्नि अनुभवम् उपयाते ] इन समस्त भेदोंको गौण करनेवाला जो शुद्धनयका विषयभूत चैतन्य–चमत्कारमात्र तेजःपुंज आत्मा है, उसका अनुभव होनेपर [ नयश्रीः न उदयति] नयोंकी लक्ष्मी उदित नहीं होती, [ प्रमाणं अस्तम् एति ] प्रमाण अस्त हो जाता है [ अपि च ] और [ निक्षेपचक्रम् क्वचित् याति, न विद्मः ] निक्षेपोंका समूह कहाँ चला जाता है सो हम नहीं जानते । [ किम् अपरम् अभिदध्मः ] इससे अधिक क्या कहें ? [ द्वैतम् एव न भाति ] द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होता ।
भावार्थ:- भेदको अत्यंत गौण करके कहा है कि प्रमाण, नयादि भेदकी तो बात ही क्या ? शुद्ध अनुभवके होनेपर द्वैत ही भासित नहीं होता, एकाकार चिन्मात्र ही दिखाई देता है।
उत्तरः
यहाँ विज्ञानाद्वैतवादी तथा वेदांती कहते हैं कि - अन्तमें परमार्थरूप तो अद्वैत का ही अनुभव हुआ। यही हमारा मत है; इसमें आपने विशेष क्या कहा? इसका : - तुम्हारे मतमें सर्वथा अद्वैत माना जाता है । यदि सर्वथा अद्वैत माना जाये तो बाह्य वस्तुका अभाव ही हो जाये, और ऐसा अभाव तो प्रत्यक्ष विरुद्ध है । हमारे मतमें नयविवक्षा है जो कि बाह्य वस्तुका लोप नहीं करती। जब शुद्ध अनुभवसे विकल्प मिट जाता है तब आत्मा परमानंदको प्राप्त होता है इसलिये अनुभव कराने के लिये यह कहा है कि “ शुद्ध अनुभवमें द्वैत भासित नहीं होता " । यदि बाह्य वस्तुका लोप किया जाये तो आत्माका भी लोप हो जायेगा और शून्यवादका प्रसङ्ग आयेगा। इसलिये जैसा तुम कहते हो उस प्रकारसे वस्तुस्वरूपकी सिद्धि नहीं हो सकती और वस्तुस्वरूपकी यथार्थ श्रद्धाके बिना जो शुद्ध अनुभव किया जाता है वह भी मिथ्यारूप है; शून्यका प्रसङ्ग होनेसे तुम्हारा अनुभव भी आकाश - कुसुमके अनुभव के समान है ।। ९।। आगे शुद्धनयका उदय होता है उसकी सूचनारूप श्लोक कहते हैं:
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(उपजाति) आत्मस्वभावं परभावभिन्नमापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम्। विलीनसङ्कल्पविकल्पजालं
प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति।। १० ।। जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं। अविसेसमजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि।।१४ ।।
यः पश्यति आत्मानम् अबद्धस्पृष्टमनन्यकं नियतम्। अविशेषमसंयुक्तं तं शुद्धनयं विजानीहि।। १४ ।।
श्लोकार्थ:- [शुद्धनयः आत्मस्वभावं प्रकाशयन् अभ्युदेति] शुद्धनय आत्मस्वभाव को प्रगट करता हुआ उदयरूप होता है। वह आत्मस्वभावको [ परभावभिन्नम्] परद्रव्य, परद्रव्यके भाव तथा परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अपने विभाव-ऐसे परभावोंसे भिन्न प्रगट करता है। और वह, [आपूर्णम् ] आत्मस्वभाव सम्पूर्णरूपसे पूर्ण है-समस्त लोकालोकका ज्ञाता है-ऐसा प्रगट करता है; (क्योंकि ज्ञानमें भेद कर्मसंयोगसे हैं, शुद्धनयमें कर्म गौण हैं)। और वह, [ आदि-अन्त- विमुक्तम् ) आत्मस्वभावको आदि-अंतसे रहित प्रगट करता है ( अर्थात् किसी आदिसे लेकर जो किसीसे उत्पन्न नहीं किया गया, और कभी भी किसीसे जिसका विनाश नहीं होता ऐसे पारिणामिक भावको प्रगट करता है)। और वह, [ एकम् ] आत्मस्वभावको एकसर्व भेदभावोंसे (द्वैतभावोंसे ) रहित एकाकार प्रगट करता है, और [ विलीन-सङ्कल्पविकल्प-जालं] जिसमें समस्त संकल्प-विकल्पके समूह विलीन हो गये हैं ऐसा प्रगट करता है। (द्रव्यकर्म , भावकर्म, नोकर्म आदि पुद्गलद्रव्योंमें अपनी कल्पना करना सो संकल्प है, और ज्ञेयोंके भेदसे ज्ञानमें भेद ज्ञात होना सो विकल्प है।) ऐसा शुद्धनय प्रकाशरूप होता है।। १०।। उस शुद्धनयको गाथासूत्रसे कहते हैं:
अनबद्धस्पृष्ट , अनन्य अरु, जो नियत देखे आत्मको। अविशेष, अनसंयुक्त उसको शुद्धनय तू जानजो।।१४।।
गाथार्थ:- [यः ] जो नय [आत्मानम् ] आत्माको [ अबद्धस्पृष्टम् ] बंध रहित और परके स्पर्शसे रहित, [अनन्यकं ] अन्यत्व रहित, [ नियतम् ] चलाचलता रहित, [ अविशेषम् ] विशेष रहित, [ असंयुक्तं ] अन्यके संयोगसे रहित-ऐसे पांच भावरूपसे [ पश्यति ] देखता है [ तं] उसे , हे शिष्य! तू [ शुद्धनयं ] शुद्धनय [ विजानीहि ] जान।
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पूर्वरंग
३७
या खल्वबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः स शुद्धनयः, सा त्वनुभूतिरात्मैव; इत्यात्मैक एव प्रद्योतते। कथं यथोदितस्यात्मनोऽनुभूतिरिति चेद्बद्धस्पृष्टत्वादीनामभूतार्थत्वात्। तथा हि
__यथा खलु बिसिनीपत्रस्य सलिलनिमग्नस्य सलिलस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां सलिलस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः सलिलास्पृश्यं बिसिनीपत्रस्वभावमुपेत्यानुभूयमानता-यामभूतार्थम्, तथात्मनोऽनादिबद्धस्य बद्धस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां बद्धस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।
यथा च मृत्तिकायाः करककरीरकर्करीकपालादिपर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोऽप्यस्खलन्तमेकं मृत्तिकास्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् , तथात्मनो नारकादिपर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोऽप्यस्खलन्तमेकमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।
टीका:- निश्चयसे अबद्ध-अस्पृष्ट , अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त-ऐसे आत्माकी अनुभूति शुद्धनय है, और वह अनुभूति आत्मा ही है; इसप्रकार आत्मा एक ही प्रकाशमान है। (शुद्धनय, आत्माकी अनुभूति या आत्मा सब एक ही है, अलग नहीं ।) यहाँ शिष्य पूछता है कि जैसा ऊपर कहा है वैसे आत्माकी अनुभूति कैसे हो सकती है ? उसका समाधान यह है:- बद्धस्पृष्टत्व आदि भाव अभूतार्थ हैं इसलिये यह अनुभूति हो सकती है। इस बातको दृष्टांतसे प्रगट करते हैं:
जैसे कमलिनी-पत्र जलमें डूबा हुआ हो तो उसका जलसे स्पर्शित होने रूप अवस्थासे अनुभव करनेपर जलसे स्पर्शित होना भूतार्थ है-सत्यार्थ है, तथापि जलसे किंचित् मात्र भी न स्पर्शित होने योग्य कमलिनी-पत्रके स्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर जलसे स्पर्शित होना अभूतार्थ है-असत्यार्थ है; इसीप्रकार अनादि कालसे बँधे हुए आत्माका, पुद्गलकर्मोंसे बँधने- स्पर्शितहोनेरूप अवस्थासे अनुभव करनेपर बद्धस्पृष्टता भूतार्थ है-सत्यार्थ है, तथापि पुद्गलसे किंचित्मात्र भी स्पर्शित न होने योग्य आत्मस्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर बद्धस्पृष्टता अभूतार्थ हैअसत्यार्थ है।
तथा, जैसे मिट्टीका ढक्कन, घड़ा, झारी इत्यादि पर्यायोंसे अनुभव करनेपर अन्यत्व भूतार्थ है-सत्यार्थ है, तथापि सर्वत: अस्खलित (–सर्व पर्याय-भेदोंसे किंचित्- मात्र भी भेदरूप न होने वाले ऐसे) एक मिट्टीके स्वभावके समीप जाकर अनुभव करने पर अन्यत्व अभूतार्थ है-असत्यार्थ है; इसीप्रकार आत्माका, नारक आदि पर्यायोंसे अनुभव करनेपर (पर्यायोंके अन्य-अन्यरूपसे ) अन्यत्व भूतार्थ है-सत्यार्थ है, तथापि सर्वतः अस्खलित ( सर्व पर्यायभेदोंसे किंचित्मात्र भेदरूप न होने वाले) एक चैतन्याकार आत्मस्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर अन्यत्व अभूतार्थ हैअसत्यार्थ है।
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यथा च वारिधेवृद्धिहानिपर्यायेणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि नित्यव्यवस्थितं वारिधिस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्, तथात्मनो वृद्धिहानिपर्यायेणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि नित्यव्यवस्थितमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।
यथा च काञ्चनस्य स्निग्धपीतगुरुत्वादिपर्यायेणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्तविशेषं काञ्चनस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् , तथात्मनो ज्ञानदर्शनादिपर्यायेणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्त-विशेषमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।
यथा चापां सप्तार्चिःप्रत्ययौष्ण्यसमाहितत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकान्ततःशीतमप्स्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्, तथात्मन: कर्मप्रत्यय-मोहसमाहितत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः स्वयं बोधं जीवस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।।
जैसे समुद्रका, वृद्धिहानिरूप अवस्थासे अनुभव करने पर अनियतता ( अनिश्चितता) भूतार्थ है-सत्यार्थ है, तथापि नित्य-स्थिर समुद्रस्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर अनियतता अभूतार्थ है-असत्यार्थ है; इसीप्रकार आत्माका, वृद्धिहानिरूप पर्यायभेदोंसे अनुभव करनेपर अनियतता भूतार्थ है-सत्यार्थ है, तथापि नित्य-स्थिर (निश्चल) आत्मस्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर अनियतता अभूतार्थ है-असत्यार्थ है।
___ जैसे सोनेका, चीकनापन, पीलापन , भारीपन इत्यादि गुणरूप भेदोंसे अनुभव करनेपर विशेषता भूतार्थ है-सत्यार्थ है, तथापि जिसमें सर्व विशेष विलय होगये हैं ऐसे सुवर्णस्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर विशेषता अभूतार्थ है-असत्यार्थ है; इसीप्रकार आत्माका, ज्ञान, दर्शन आदि गुणरूप भेदोंसे अनुभव करनेपर विशेषता भूतार्थ है-सत्यार्थ है, तथापि जिसमें सर्व विशेष विलय होगये हैं ऐसे आत्मस्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर विशेषता अभूतार्थ है-असत्यार्थ है।
जैसे जलका, अग्नि जिसका निमित्त है ऐसी उष्णताके साथ संयुक्ततारूपतप्ततारूप-अवस्थासे अनुभव करनेपर (जलका) उष्णतारूप संयुक्तता भूतार्थ हैसत्यार्थ है, तथापि एकांत शीतलतारूप जलस्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर ( उष्णता के साथ) संयुक्तता अभूतार्थ है-असत्यार्थ है; इसीप्रकार आत्माका, कर्म जिसका निमित्त है ऐसे मोहके साथ संयुक्ततारूप अवस्थासे अनुभव करनेपर संयुक्तता भूतार्थ है-सत्यार्थ है, तथापि जो स्वयं एकांत बोधरूप (ज्ञानरूप) है ऐसे जीवस्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर संयुक्तता अभूतार्थ है-असत्यार्थ है।
भावार्थ:- आत्मा पाँच प्रकारसे अनेकरूप देखाई देता है: (१) अनादि कालसे कर्मपुद्गलके संबंधसे बँधा हुआ कर्मपुद्गलके स्पर्शवाला दिखाई देता है, (२) कर्मके निमित्तसे होनेवाली नर, नारक आदि पर्यायोंमें भिन्न भिन्न स्वरूपसे
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दिखाई देता है, (३) शक्तिके अविभाग प्रतिच्छेद ( अंश) घटते भी हैं, और बढ़ते भी हैं-यह वस्तु स्वभाव है इसलिये यह नित्य-नियत एकरूप दिखाई नहीं देता, (४) वह दर्शन, ज्ञान आदि अनेक गुणोंसे विशेषरूप देखाई देता है और (५) कर्मके निमित्तसे होनेवाले मोह, राग, द्वेष आदि परिणामों कर सहित वह सुखदुःखरूप दिखाई देता है। यह सब अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप व्यवहारनयका विषय है। इस दृष्टि ( अपेक्षा) से देखा जाये तो यह सब सत्यार्थ है। परंतु आत्माका एक स्वभाव इस नयसे ग्रहण नहीं होता, और एक स्वभावको जाने बिना यथार्थ आत्माको कैसे जाना सकता है ? इस लिये दूसरे नयको -उसके प्रतिपक्षी शुद्धद्रव्यार्थिकनयको-ग्रहण करके, एक असाधारण ज्ञायकमात्र आत्माका भाव लेकर, उसे शुद्धनयकी दृष्टिसे सर्व परद्रव्योंसे भिन्न, सर्व पर्यायोंमें एकाकार, हानिवृद्धिसे रहित, विशेषोंसे रहित और नैमित्तिक भावोंसे रहित देखा जाये तो सर्व (पाँच) भावोंसे जो अनेकप्रकारता है वह अभूतार्थ है-असत्यार्थ है।
यहाँ यह समझना चाहिये कि वस्तुका स्वरूप अनंत धर्मात्मक है, वह स्याद्वादसे यथार्थ सिद्ध होता है। आत्मा भी अनंतधर्मवाला है। उसके कुछ धर्म तो स्वाभाविक है और कुछ पुद्गलके संयोगसे होते हैं। जो कर्मके संयोगसे होते हैं, उनसे आत्माकी सांसारिक प्रवृत्ति होती है और तत् संबंधी जो सुखदुःखादि होते हैं उन्हें भोगता है। यह, इस आत्माकी अनादिकालीन अज्ञानसे पर्यायबुद्धि है; उसे अनादि-अनंत एक आत्माका ज्ञान नहीं है। इसे बतानेवाला सर्वज्ञका आगम है। उसमें शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे यह बताया है कि आत्माका एक असाधारण चैतन्यभाव है जो कि अखंड, नित्य और अनादिनिधन है। उसे जाननेसे पर्यायबुद्धिका पक्षपात मिट जाता है। परद्रव्योंसे, उनके भावोंसे और उनके निमित्तसे होनेवाले अपने विभावोंसे अपने आत्माको भिन्न जानकर जीव उसका अनुभव करता है तब परद्रव्यके भावोंस्वरूप परिणमित नहीं होता; इसलिये कर्म बंध नहीं होता और संसारसे निवृत्ति हो जाती है। इसलिये पर्यायार्थिकरूप व्यवहारनयको गौण करके अभूतार्थ ( असत्यार्थ) कहा है और शुद्धनिश्चयनयको सत्यार्थ कहकर उसका आलंबन दिया है। वस्तुस्वरूपकी प्राप्ति होने के बाद उसका भी आलंबन नहीं रहता। इस कथनसे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि शुद्धनयको सत्यार्थ कहा है इसलिये अशुद्धनय सर्वथा असत्यार्थ ही है। ऐसा माननेसे वेदांतमतवाले जो कि संसारको सर्वथा अवस्तु मानते हैं उनका सर्वथा एकांत पक्ष आजायेगा और उससे मिथ्यात्व आजायेगा, इसप्रकार यह शुद्धनयका आलंबन भी वेदान्तियोंकी भाँति मिथ्यादृष्टिपना लायेगा। इसलिये सर्वनयों की कथंचित् सत्यार्थका आलंबन भी श्रद्धान करनेसे सम्यकदृष्टि हुआ जा सकता है। इस प्रकार स्याद्वादको समझकर जिनमतका सेवन करना चाहिये, मुख्य-गौण कथनको सुनकर सर्वथा एकांत पक्ष नहीं पकड़ना चाहिये। इस गाथासूत्रका विवेचन करते हुए टीकाकार आचार्य ने भी कहा है कि आत्मा व्यवहारनयकी दृष्टिमें जो बद्धस्पृष्ट आदि
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रूप दिखाई देता है वह इस दृष्टिसे तो सत्यार्थ ही है परंतु शुद्धनयकी दृष्टिसे बद्धस्पृष्टादिता असत्यार्थ है। इस कथनमें टीकाकार आचार्यने स्याद्वाद बताया है ऐसा जानना।
यहाँ, यह समझना चाहिये कि वह नय है यह श्रुतज्ञान-प्रमाणका अंश है; श्रुतज्ञान वस्तुको परोक्ष बतलाता है; इसलिये यह नय भी परोक्ष ही बतलाता है। शुद्धद्रव्यार्थिकनयका विषयभूत, बद्धस्पृष्ट आदि पाँच भावोंसे रहित आत्मा चैतन्यशक्तिमात्र है। वह शक्ति तो आत्मामें परोक्ष है ही; और उसकी व्यक्ति कर्मसंयोग से मतिश्रुतादि ज्ञानरूप है, वह कथंचित् अनुभवगोचर होनेसे प्रत्यक्षरूप भी कहलाती है, और संपूर्णज्ञान केवलज्ञान यद्यपि छद्मस्थके प्रत्यक्ष नहीं है तथापि यह शुद्धनय आत्माके केवलज्ञानरूपको परोक्ष बतलाता है। जबतक जीव इस नयको नहीं जानता तबतक आत्माके पूर्ण रूपका ज्ञान–श्रद्धान नहीं होता। इसलिये श्रीगुरुने इस शुद्धनयको प्रगट करके उपदेश किया है कि बद्धस्पृष्ट आदि पाँच भावोंसे रहित पूर्णज्ञानघनस्वभाव आत्माको जानकर श्रद्धान करना चाहिये, पर्यायबुद्धि नहीं रहना चाहिये।
___ यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करे कि-ऐसा आत्मा प्रत्यक्ष तो दिखाई नहीं देता और बिना देखे श्रद्धान करना असत् श्रद्धान है। उसका उत्तर यह है:-देखे हुए का ही श्रद्धान करना तो नास्तिकमत है। जैनमतमें प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रमाण माने गये हैं, उनमें से आगमप्रमाण परोक्ष है; उसका भेद शुद्धनय है। इस शुद्धनयकी दृष्टिसे शुद्ध आत्माका श्रद्धान करना चाहिये, मात्र व्यवहार-प्रत्यक्षका ही एकांत नहीं करना चाहिये।
यहाँ, इस शुद्धनय को मुख्य करके कलशरूप काव्य कहते हैं :
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पूर्वरंग
(मालिनी) न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी स्फुटमुपरितरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम् । अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्तात् जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम् ।। ११ ।।
श्लोकार्थ:- [जगत् तम् एव सम्यक्स्वभावम् अनुभवतु] जगतके प्राणियों! इस सम्यक् स्वभावका अनुभव करो कि [ यत्र] जहाँ [अमी बद्धस्पृष्टभावादयः ] यह बद्धस्पृष्टादिभाव [ एत्य स्फुटम् उपरि तरन्तः अपि] स्पष्टतया उस स्वभावके ऊपर तरते हैं, तथापि वे [प्रतिष्ठाम् न हि विदधति] ( उसमें) प्रतिष्ठा नहीं पाते, क्योंकि द्रव्यस्वभाव तो नित्य है, एकरूप है और यह भाव अनित्य हैं, अनेकरूप हैं; पर्यायें द्रव्यस्वभावमें प्रवेश नहीं करती, ऊपर ही रहती हैं। [ समन्तात् द्योतमानं ] यह शुद्ध स्वभाव सर्व अवस्थाओमें प्रकाशमान है। [ अपगतमोहीभूय ] ऐसे शुद्ध स्वभावका, मोह रहित होकर जगत अनुभव करे; क्योंकि मोहकर्मके उदयसे उत्पन्न मिथ्यात्वरूपी अज्ञान जहाँ तक रहता है, वहाँ तक यह अनुभव यथार्थ नहीं होता।
भावार्थ:- यहाँ यह उपदेश है कि शुद्धनय के विषयरूप आत्माका अनुभव करो ।। ११।।
अब , इस अर्थ का सूचक कलशरूप काव्य पुनः कहते हैं, जिसमें यह कहा गया है कि ऐसा अनुभव करने पर आत्मदेव प्रगट प्रतिभासमान होता है :
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४२
( शार्दूलविक्रीडित) भूतं भान्तमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बन्धं सुधीर्यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात्। आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं नित्यं कर्मकलङ्कपङ्कविकलो देवः स्वयं शाश्वतः ।। १२ ।।
श्लोकार्थ:- [ यदि ] यदि [ कः अपि सुधी:] कोई सुबुद्धि ( सम्यग्दृष्टि ) [ भूतं भान्तम् अभूतम् एव बन्धं ] जीव भूत, वर्तमान और भविष्य-तीनों कालमें कर्मों के बंधको अपने आत्मासे [ रभसात् ] तत्काल-शीध्र [ निर्भिद्य ] भिन्न करके तथा [ मोहं] उस कर्मोदयके निमित्तसे होनेवाले मिथ्यात्व (अज्ञान) को [ हठात् ] अपने बलसे ( पुरुषार्थसे ) [ व्याहत्य] रोककर अथवा नाश करके [अन्तः ] अंतरंगमें [ किल अहो कलयति] अभ्यास करे-देखे तो [ अयम् आत्मा ] यह आत्मा [ आत्मअनुभव-एकगम्य-महिमा ] अपने अनुभवसे ही जाननेयोग्य जिसकी प्रगट महिमा है ऐसा [व्यक्तः] व्यक्त ( अनुभवगोचर ), [ ध्रुवं ] निश्चल, [ शाश्वतः ] शाश्वत, [ नित्यं कर्म-कलङ्क-पङ्कविकल: ] नित्य कर्मकलङ्ग-कर्दमसे रहित [ स्वयं देव: ] स्वयं ऐसा स्तुति करने योग्य देव [ आस्ते] विराजमान है।
भावार्थ:- शुद्धनयकी दृष्टिसे देखा जाये तो सर्व कर्मोंसे रहित चैतन्यमात्र देव अविनाशी आत्मा अंतरङ्गमें स्वयं विराजमान हैं। यह प्राणी-पर्यायबुद्धि बहिरात्मा-उसे बाहर ढूँढता है, यह महा अज्ञान है।। १२।।
अब, 'शुद्धनयके विषयभूत आत्माकी अनुभूति ही ज्ञानकी अनुभूति है' इसप्रकार आगेकी गाथाकी सूचनाके अर्थरूप काव्य कहते हैं:
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४३
( वसंततिलका) आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुव। आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्पकम्पमेकोऽस्ति नित्यमवबोधघनः समन्तात्।। १३ ।।
श्लोकार्थ:- [इति] इसप्रकार [ या शुद्धनयात्मिका आत्म-अनुभूतिः] जो पूर्व-कथित शुद्धनयस्वरूप आत्माकी अनुभूति है [ इयम् एव किल ज्ञान-अनुभूतिः] वही वास्तवमें ज्ञानकी अनुभूति है, [इति बुद्धवा] यह जानकर तथा [ आत्मनि आत्मानम् सुनिष्प्रकम्पम् निवेश्य ] आत्मामें आत्माको निश्चल स्थापित करके, [नित्यम् समन्तात् एकः अवबोध-घन: अस्ति] 'सदा सर्व ओर एक ज्ञानघन आत्मा है,' इसप्रकार देखना चाहिये।
भावार्थ:- पहले सम्यग्दर्शनको प्रधान करके कहा था; अब ज्ञानको मुख्य करके कहते हैं कि शुद्धनय के विषयस्वरूप आत्मा की अनुभूति ही सम्यग्ज्ञान है। १३।
अब, इस अर्थरूप गाथा कहते हैं:
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जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णमविसेसं। *अपदेससंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ।। १५ ।।
यः पश्यति आत्मानम अबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम।
अपदेशसान्तमध्यं पश्यति जिनशासनं सर्वम्।। १५ ।। येयमबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः सा खल्वखिलस्य जिनशासनस्यानुभूतिः, श्रुतज्ञानस्य स्वयमात्मत्वात; ततो ज्ञानानुभूतिरेवात्मानुभूतिः। किन्तु तदानीं सामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्यामनुभूयमानमपि ज्ञानमबुद्धलुब्धानां न स्वदते। तथा हि-यथा विचित्रव्यञ्जनसंयोगोपजातसामान्यविशेषतिरोभावाविर्भावाभ्यामनुभूयमानं लवणं लोकानामबुद्धानां व्यञ्जनलुब्धानां स्वदते, न पुनरन्यसंयोग-शून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्याम्;
अनबद्धस्पृष्ट , अनन्य, जो अविशेष देखे आत्मको, वो द्रव्य और जु भाव, जिनशासन सकल देखे अहो।।१५।।
गाथार्थ:- [ यः ] जो पुरुष [ आत्मानम् ] आत्माको [ अबद्धस्पृष्टम् ] अबद्धस्पृष्ट , [अनन्यम् ] अनन्य, [अविशेषम् ] अविशेष (तथा उपलक्षणसे नियत और असंयुक्त) [पश्यति ] देखता है वह [ सर्वम् जिनशासनं ] सर्व जिनशासनको [ पश्यति ] देखता है,-जो जिनशासन ['अपदेशसान्तमध्यं] बाह्य द्रव्यश्रुत तथा अभ्यंतर ज्ञानरूप भावश्रुतवाला है।
टीका:- जो यह अबद्धस्पृष्ट , अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त ऐसे पाँच भावस्वरूप आत्माकी अनुभूति है वह निश्चयसे समस्त जिनशासनकी अनुभूति है, क्यों कि श्रुतज्ञान स्वयं आत्मा ही है। इसलिये ज्ञानकी अनुभूति ही आत्माकी अनुभूति है। परंतु अब वहाँ, सामान्य ज्ञानके आविर्भाव (प्रगटपना) और विशेष ( ज्ञेयाकार ) ज्ञानके तिरोभाव (आच्छादन) से जब ज्ञानमात्रका अनुभव किया जाता है तब ज्ञान प्रगट अनुभवमें आता है तथापि जो अज्ञानी हैं, ज्ञेयोमें आसक्त है उन्हें वह स्वादमें नहीं आता। यह प्रगट दृष्टांतसे बतलाते हैं : जैसे अनेक प्रकारके शाकादि भोजनोंके संबंधसे उत्पन्न सामान्य लवणके तिरोभाव और विशेष लवणके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला जो (सामान्यके तिरोभावरूप और शाकादि के स्वाद भेदसे भेदरूपविशेषरूप) लवण है उसका स्वाद अज्ञानी, शाक लोलुप मनुष्योंको आता है किन्तु अन्यकी संबंधरहिततासे उत्पन्न सामान्यके आविर्भाव और विशेषके तिरोभावसे अनुभवमें आनेवाला जो एकाकार अभेदरूप लवण है उसका स्वाद नहीं आता;
* पाठान्तर : अपदेससुत्तमज्झं। १. अपदेश = द्रव्यश्रुत; सान्त = ज्ञानरूपी भावश्रुत।
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अथ च यदेव विशेषाविर्भावेनानु-भूयमानं ज्ञान तदेव सामान्याविर्भावेनापि। तथा विचित्रज्ञेयाकारकरम्बितत्वोपजातसामान्यविशेषतिरोभावा-विर्भावाभ्यामनुभूयमानं
ज्ञानमबुद्धानां
ज्ञेयलुब्धानां
स्वदते, न
तदेव
पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्याम्; अथ च यदेव विशेषाविर्भावेनानुभूयमानं ज्ञान सामान्याविर्भावेनापि । अलुब्धबुद्धानां तु यथा सैन्धवखिल्यो-S पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्य-विशेषाविर्भावतिरोभावाभ्याम्; अथ च यदेव विशेषाविर्भावेनानुभूयमानं लवणं तदेव सामान्याविर्भावेनापि । तथा न्यद्रव्यसंयोगव्यवच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोऽप्येकलवणरसत्वाल्लवणत्वेन स्वदते, तथात्मापि परद्रव्यसंयोगव्यवच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोऽप्येकविज्ञानघनत्वात् ज्ञानत्वेन स्वदते।
और परमार्थसे देखा जाये तो, विशेषके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला (क्षाररसरूप ) लवण ही सामान्यके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला ( क्षाररसरूप लवण है। इसप्रकार—अनेक प्रकारके ज्ञेयोंके आकारों के साथ मिश्ररूपतासे उत्पन्न सामान्यके तिरोभाव और विशेषके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला ( विशेषभावरूप, भेदरूप, अनेकाकाररूप) ज्ञान वह अज्ञानी, ज्ञेय - लुब्ध जीवोंके स्वादमें आता है किन्तु अन्य ज्ञेयाकारकी संयोगरहिततासे उत्पन्न सामान्यके आविर्भाव और विशेषके तिरोभावसे अनुभवमें आनेवाला एकाकार अभेदरूप ज्ञान स्वादमें नहीं आता; और परमार्थसे विचार किया जाये तो, जो ज्ञान विशेषके आविर्भावसे अनुभवमें आता है वही ज्ञान सामान्यके आविर्भावसे अनुभवमें आता है। अलुब्ध ज्ञानियोंको तो, जैसे सैंधवकी डली, अन्यद्रव्यके संयोगका व्यवच्छेद करके केवल सैंधवका ही अनुभव किये जानेपर, सर्वतः एक क्षाररसत्वके कारण क्षाररूप स्वादमें आती है उसीप्रकार आत्मा भी परद्रव्यके संयोगका व्यवच्छेद करके केवल आत्माका ही अनुभव किये जानेपर, सर्वतः एक विज्ञानघनताके कारण ज्ञानरूपसे स्वादमें आता है।
भावार्थ:- यहाँ आत्माकी अनुभूति को ही ज्ञानकी अनुभूति कहा गया है। अज्ञानीजन ज्ञेयोमें ही - इन्द्रियज्ञानके विषयोंमें ही - लुब्ध हो रहे हैं; वे इन्द्रियज्ञानके विषयोंसे अनेकाकार हुए ज्ञानको ही ज्ञेयमात्र आस्वादन करते है परंतु ज्ञेयोसे भिन्न ज्ञानमात्रका आस्वादन नहीं करते। और जो ज्ञानी है, ज्ञेयोंमें आसक्त नहीं हैं, वे ज्ञेयों से भिन्न एकाकार ज्ञानका ही आस्वाद लेते हैं, जैसे शाकोंसे भिन्न नमककी डलीका क्षारमात्र स्वाद आता है, उसीप्रकार आस्वाद लेते हैं, क्योंकि जो ज्ञान है सो आत्मा है और जो आत्मा है सो ज्ञान है। इसप्रकार गुण - गुणीकी अभेद दृष्टिमें आनेवाला सर्व परद्रव्योंसे भिन्न, अपनी पर्यायोंमें एकरूप, निश्चल, अपने गुणोंमें एकरूप, परनिमित्तसे उत्पन्न हुए भावोंसे भिन्न अपने स्वरूपका अनुभव, ज्ञानका अनुभव है, और यह अनुभवन भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासनका अनुभवन है। शुद्धनयसे इसमें कोई भेद नहीं
हैं।
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(पृथ्वी) अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनन्तमन्तर्बहिमहः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा। चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालम्बते यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम्।। १४ ।।
(अनुष्टुभ् ) एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः। साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम्।। १५ ।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- आचार्य कहते हैं कि [ परमम् महः नः अस्तु ] हमें वह उत्कृष्ट तेज-प्रकाश प्राप्त हो [यत् सकलकालम् चिद्-उच्छलन-निर्भरं] कि जो तेज सदाकाल चैतन्यके परिणमनसे परिपूर्ण है, [ उल्लसत्-लवण-खिल्य-लीलायितम् ] जैसे नमककी डली एक क्षाररसकी लीलाका आलंबन करती है; उसीप्रकार जो तेज [ एक-रसम् आलम्बते] एक ज्ञानरस-स्वरूपका आलंबन करता है; [ अखण्डितम् ] जो तेज अखंडित है-जो ज्ञेयोंके आकाररूप खंडित नहीं होता, [ अनाकुलं] जो अनाकुल है-जिसमें कर्मों के निमित्तसे होनेवाले रागादिसे उत्पन्न आकुलता नहीं है, [अनन्तम् अन्तः बहि: ज्वलत् ] जो अविनाशीरूपसे अंतरङ्गमें और बाहरमें प्रगट देदीप्यमान हैजाननेमें आता है, [ सहजम् ] जो स्वभावसे हुआ है-जिसे किसी ने नहीं रचा और [ सदा उद्विलासं] सदा जिसका विलास उदयरूप है-जो एकरूप प्रतिभासमान है।
भावार्थ:- आचार्यदेवने प्रार्थना की है कि यह ज्ञानानंदमय एकाकार स्वरूपज्योति हमें सदा प्राप्त रहो।। १४ ।।
अब, आगेकी गाथाका सूचनारूप श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ:- [ एषः ज्ञानघनः आत्मा] यह (पूर्वकथित) ज्ञानस्वरूप आत्मा, [ सिद्धिम् अभीप्सुभिः] स्वरूपकी प्राप्तिके इच्छुक पुरुषोंको [ साध्यसाधकभावेन ] साध्यसाधकभावके भेदसे [ द्विधा] दो प्रकारसे, [एक:] एक ही [नित्यम् समुपास्यताम् ] नित्य सेवन करने योग्य है; उसका सेवन करो।
भावार्थ:- आत्मा तो ज्ञानस्वरूप एक ही है परंतु उसका पूर्णरूप साध्यभाव है और अपूर्णरूप साधकभाव है; ऐसे भावभेदसे दो प्रकारसे एकका ही सेवन करना चाहिये।। १५।।
अब, दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप साधकभाव है यह इस गाथामें कहते हैं:
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पूर्वरंग
४७
दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो।।१६ ।।
दर्शनज्ञानचरित्राणि सेवितव्यानि साधुना नित्यम्।
तानि पुनर्जानीहि त्रीण्यप्यात्मानं चैव निश्चयतः।। १६ ।। येनैव हि भावेनात्मा साध्यः साधनं च स्यात्तेनैवायं नित्यमुपास्य इति स्वयमाकूय परेषां व्यवहारेण साधुना दर्शनज्ञानचारित्राणि नित्यमुपास्यानीति प्रतिपाद्यते। तानि पुनस्त्रीण्यपि परमार्थेनात्मैक एव, वस्त्वन्तराभावात्। यथा देवदत्तस्य कस्यचित् ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं च देवदत्तस्वभावानतिक्रमाद्देवदत्त एव, न वस्त्वन्तरम्; तथात्मन्यप्यात्मनो -ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं चात्मस्वभावानतिक्रमादात्मैव, न वस्त्वन्तरम्। तत आत्मा एक एवोपास्य इति स्वयमेव प्रद्योतते। स किल
दर्शनसहित नित ज्ञान अरु, चारित्र साधु सेविये। पर ये तीनों आत्मा ही केवल , जान निश्चयदृष्टिमें ।। १६ ।।
गाथार्थ:- [ साधुना] साधु पुरुषको [ दर्शनज्ञानचरित्राणि ] दर्शन, ज्ञान और चारित्र [ नित्यम् ] सदा [ सेवितव्यानि ] सेवन करने योग्य है; [ पुनः ] और [ तानि त्रीणि अपि] उन तीनोंको [ निश्चयतः ] निश्चयनयसे [ आत्मानं च एव ] एक आत्मा ही [ जानीहि ] जानो।
टीका:- यह आत्मा जिस भावसे साध्य तथा साधन हो उस भावसे ही नित्य सेवन करने योग्य है, इसप्रकार स्वयं विचार करके दूसरोंको व्यवहारसे प्रतिपादन करते हैं कि 'साधु पुरुषको दर्शन, ज्ञान, चारित्र सदा सेवन करने योग्य है'। किन्तु परमार्थसे देखा जाये तो यह तीनों एक आत्मा ही है क्योंकि वे अन्य वस्तु नहीं-किन्तु आत्मा की ही पर्याय हैं। जैसे किसी देवदत्त नामक पुरुषके ज्ञान, श्रद्धान और आचरण, देवदत्तके स्वभावका उल्लंघन न करनेसे (वे) देवदत्त ही हैं, अन्य वस्तु नहीं, इसीप्रकार आत्मामें भी आत्माके ज्ञान, श्रद्धान और आचरण आत्माके स्वभावका उल्लंघन न करने से आत्मा ही है-अन्य वस्तु नहीं। इसलिये यह स्वयमेव सिद्ध होता है कि एक आत्मा ही सेवन करने योग्य है।
भावार्थ:- दर्शन, ज्ञान, चारित्र-तीनों आत्माकी ही पर्यायें हैं, कोई भिन्न वस्तु नहीं हैं; इसलिये साधु पुरुषोंको एक आत्माका ही सेवन करना यह निश्चय है और व्यवहारसे दूसरोंको भी यही उपदेश करना चाहिये।
अब , इसी अर्थका कलशरूप श्लोक कहते हैं:
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समयसार
४८
( अनुष्टुभ् ) दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रित्वादेकत्वतः स्वयम्। मेचकोऽमेचकश्चापि सममात्मा प्रमाणतः।। १६ ।। दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रिभिः परिणतत्वतः। एकोऽपि त्रिस्वभावत्वाव्यवहारेण मेचकः।। १७ ।। परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैककः। सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः।। १८ ।।
श्लोकार्थ:- [प्रमाणत: ] प्रमाणदृष्टिसे देखा जाये तो [आत्मा] यह आत्मा [समम् मेचक: अमेचकः च अपि] एक ही साथ अनेक अवस्थारूप (“ मेचक') भी है
और एक अवस्थारूप ('अमेचक') भी है, [ दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः त्रित्वात् ] क्योंकि इसे दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे तो त्रित्व (तीनपना) है और [ स्वयम् एकत्वतः] अपनेसे अपनेको एकत्व है।
भावार्थ:- प्रमाणदृष्टिमें तीनकालस्वरूप वस्तु द्रव्यपर्यायरूप देखी जाती है, इसलिये आत्माको भी एक ही साथ एक-अनेकस्वरूप देखना चाहिये।। १६ ।।
अब नयविवक्षा कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [एकः अपि] आत्मा एक है, तथापि [ व्यवहारेण ] व्यवहारदृष्टिसे देखा जाये तो [ त्रिस्वभावत्वात् ] तीन-स्वभावरूपताके कारण [ मेचक:] अनेकाकाररूप ( ' मेचक') है, [ दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः त्रिभिः परिणतत्वतः ] क्योंकि वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र-इन तीन भावोंमें परिणमन करता है।
भावार्थ:- शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे आत्मा एक है; जब इस नयको प्रधान करके कहा जाता है तब पर्यायार्थिक नय गौण हो जाता है, इसलिये एकको तीनरूप परिणमित होता हुआ कहना सो व्यवहार हुआ, असत्यार्थ भी हुआ। इसप्रकार व्यवहारनयसे आत्माको दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप परिणामों के कारण मेचक 'कहा है ।। १७।।
अब परमार्थनयसे कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ परमार्थेन तु] शुद्ध निश्चयनयसे देखा जाये तो [ व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषा] प्रगट ज्ञायकत्वज्योतिमात्रसे [एकक:] आत्मा एकस्वरूप है [ सर्वभावान्तर–ध्वंसि-स्वभावत्वात् ] क्योंकि शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे सर्व अन्यद्रव्यके स्वभाव तथा अन्यके निमित्तसे होनेवाले विभावोंको दूर करनेरूप उसका स्वभाव है, [अमेचक:] इसलिये वह ‘अमेचक' है-शुद्ध एकाकार है।
भावार्थ:- भेददृष्टिको गौण करके अभेददृष्टि से देखा जाये तो आत्मा एकाकार ही है, वही अमेचक है।। १८ ।।
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पूर्वरंग
(अनुष्टुभ् ) आत्मनश्चिन्तयैवालं मेचकामेचकत्वयोः।
दर्शनज्ञानचारित्रैः साध्यसिद्धिर्न चान्यथा।। १९ ।। जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि। तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण।। १७ ।। एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्यो। अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण।। १८ ।।
आत्माको प्रमाण-नयसे मेचक, अमेचक कहा है, उस चिंताको मिटाकर जैसे साध्यकी सिद्धि हो वैसा करना चाहिये यह आगेके श्लोक में कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [आत्मनः ] यह आत्मा [ मेचक-अमेचकत्वयोः] मेचक हैभेदरूप अनेकाकार है तथा अमेचक है,-अभेदरूप एकाकार है [ चिन्तया एव अलं] ऐसी चिंतासे बस हो। [साध्यसिद्धिः] साध्य आत्माकी सिद्धि तो [ दर्शन-ज्ञानचारित्रैः ] दर्शन, ज्ञान और चारित्र-इन तीन भावोंसे ही होती है, [न च अन्यथा] अन्य प्रकारसे नहीं, ( ये नियम है)।
भावार्थ:- आत्माके शुद्ध स्वभावकी साक्षात् प्राप्ति अथवा सर्वथा मोक्ष साध्य है। आत्मा मेचक है या अमेचक, ऐसा विचार ही मात्र करते रहनेसे साध्य सिद्ध नहीं होता; परंतु दर्शन अर्थात् शुद्ध स्वभावका अवलोकन, ज्ञान अर्थात् शुद्ध स्वभावका प्रत्यक्ष जानना, और चारित्र अर्थात् शुद्ध स्वभावमें स्थिरतासे ही साध्यकी सिद्धि होती है। यही मोक्षमार्ग है, अन्य नहीं।
व्यवहारी जन पर्यायमें-भेदमें समझते हैं इसलिये यहाँ ज्ञान, दर्शन, चारित्रके भेदसे समझाया है।। १९ ।। अब, इसी प्रयोजनको दो गाथाओंमें दृष्टांतपूर्वक कहते है:
ज्यों पुरुष कोई नृपतिको भी, जानकर श्रद्धा करे। फिर यत्नसे धन-अर्थ वो, अनुचरण राजाका करै।।१७।। जीवराजको यों जानना, फिर श्रद्धना इस रीतिसे। उसका ही करना अनुचरण, फिर मोक्ष अर्थी यत्नसे।।१८।।
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५०
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समयसार
यथा नाम कोऽपि पुरुषो राजानं ज्ञात्वा श्रद्दधाति। ततस्तमनुचरति पुनरार्थिकः प्रयत्नेन।। १७ ।। एवं हि जीवराजो ज्ञातव्यस्तथैव श्रद्धातव्यः।
अनुचरितव्यश्च पुनः स चैव तु मोक्षकामेन।। १८ ।। यथा हि कश्चित्पुरुषोऽर्थार्थी प्रयत्नेन प्रथममेव राजानं जानीते, ततस्तमेव श्रद्धत्ते, ततस्तमेवानुचरति, तथात्मना मोक्षार्थिना प्रथममेवात्मा ज्ञातव्यः, ततः स एव श्रद्धातव्यः, ततः स एवानुचरितव्यश्च , साध्यसिद्धेस्तथान्यथोपपत्त्यनुपपत्तिभ्याम्।
तत्र यदात्मनोऽनुभूयमानानेकभावसङ्करेऽपि परमविवेककौशलेनायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानेन सङ्गच्छमानमेव तथेतिप्रत्ययलक्षणं श्रद्धानमुत्प्लवते तदा समस्तभावान्तरविवेकेन निःशङ्कमवस्थातुं शक्यत्वादात्मानु-चरणमुत्लवमानमात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेस्तथोपपत्तिः।।
गाथार्थ:- [ यथा नाम ] जैसे [ कः अपि कोई [अर्थार्थिकः पुरुषः] धनका अर्थी पुरुष [ राजानं ] राजाको [ ज्ञात्वा ] जानकर [ श्रद्दधाति ] श्रद्धा करता है, [ ततः पुनः] और फिर [ तं प्रयत्नेन अनुचरति] उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है अर्थात् उसकी सुंदर रीति से सेवा करता है, [ एवं हि] इसीप्रकार [ मोक्षकामेन] मोक्षके ईच्छुकको [ जीवराजः] जीवरूपी राजाको [ ज्ञातव्यः] जानना चाहिये, [ पुनः च] और फिर [ तथा एव ] इसीप्रकार [ श्रद्धातव्यः ] उसका श्रद्धान करना चाहिये [ तु च ] और तत्पश्चात् [ स एव अनुचरितव्यः ] उसीका अनुचरण करना चाहिये अर्थात् अनुभव के द्वारा तन्मय हो जाना चाहिये।
___टीका:- निश्चयसे जैसे कोई धन-अर्थी पुरुष बहुत उद्यमसे पहले तो राजाको जाने कि यह राजा है, फिर उसीका श्रद्धान करे कि 'यह अवश्य राजा ही है, इसकी सेवा करनेसे अवश्य धनकी प्राप्ति होगी' और फिर उसी का अनुचरण करे, सेवा करे, आज्ञामें रहे, उसे प्रसन्न करे; इसीप्रकार मोक्षार्थी पुरुषको पहले तो आत्माको जानना चाहिये, और फिर उसीका श्रद्धान करना चाहिये कि 'यही आत्मा है, इसका आचरण करनेसे अवश्य कर्मोंसे छूटा जा सकेगा' और फिर उसीका अनुचरण करना चाहिये-अनुभवके द्वारा उसमें लीन होना चाहिये; क्योंकि साध्य जो निष्कर्म अवस्थारूप अभेद शुद्धस्वरूप उसकी सिद्धिकी इसीप्रकार उपपत्ति है, अन्यथा अनुपपत्ति है (अर्थात् इसीप्रकार से साध्यकी सिद्धि होती है, अन्य प्रकारसे नहीं)।
(इसी बातको विशेष समझाते है:-) जब आत्माको, अनुभवमें आनेवाले अनेक पर्यायरूप भेदभावों के साथ मिश्रितता होनेपर भी सर्व प्रकारसे भेदज्ञानमें प्रवीणतासे 'जो यह अनुभूति है सो ही मैं हूँ ' ऐसे आत्मज्ञानसे प्राप्त होता हुआ, इस आत्माको जैसा जाना है वैसा ही है इसप्रकारकी प्रतीति जिसका लक्षण है ऐसा, श्रद्धान उदित होता है तब समस्त अन्यभावोंका भेद होनेसे निःशंक स्थिर होनेमें समर्थ होनेसे
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पूर्वरंग
यदा त्वाबालगोपालमेव सकलकालमेव स्वयमेवानुभूयमानेऽपि भगवत्यनुभूत्यात्मन्यात्मन्यनादिबन्धवशात् परैः सममेकत्वाध्यवसायेन विमूढस्यायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानं नोत्प्लवते, तदभावादज्ञातखरशृङ्गश्रद्धानसमानत्वात् श्रद्धानमपि नोप्लवते, तदा समस्तभावान्तरविवेकेन निःशङ्कमवस्थातुमशक्यत्वादात्मानुचरणमनुत्प्लवमानं नात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेरन्यथानु-पपत्तिः।
(मालिनी) कथमपि समुपात्तत्रित्वमप्येकताया अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम्। सततमनुभवामोऽनन्तचैतन्यचिहूं न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः ।। २० ।।
आत्माका आचरण उदय होता हुआ आत्माको साधता है। ऐसे साध्य आत्माकी सिद्धि की इसप्रकार उपपत्ति है।
परंतु जब ऐसा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबालगोपाल सबके अनुभवमें सदा स्वयं ही आने पर भी अनादि बंधके वश पर (द्रव्यों) के साथ एकत्वके निश्चयसे मूढ़-अज्ञानी जनको ‘जो यह अनुभूति है वही मैं हूँ' ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं होता और उसके अभावसे, अज्ञातका श्रद्धान गधेके सिंगके श्रद्धान समान है, श्रद्धान भी उदित नहीं होता तब समस्त अन्यभावोंके भेदसे आत्मामें निःशंक स्थिर होने की असमर्थताके कारण आत्माका आचरण उदित न होनेसे आत्माको नहीं साध सकता। इसप्रकार साध्य आत्माकी सिद्धिकी अन्यथा अनुपपत्ति है।
भावार्थ:- साध्य आत्माकी सिद्धि दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे ही है, अन्य प्रकारसे नहीं। क्योंकि:-पहले तो आत्माको जाने कि यह जो जाननेवाला अनुभवमें आता है सो मैं हूँ। इसकेबाद उसकी प्रतीतिरूप श्रद्धान होता है; क्योंकि जाने बिना किसका श्रद्धान करेगा ? तत्पश्चात् समस्त अन्यभावोंसे भेद करके अपनेमें स्थिर हो। इस प्रकार सिद्धि होती है। किन्तु यदि जाने ही नहीं , तो श्रद्धान भी नहीं हो सकता; और ऐसी स्थितिमें स्थिरता कहाँ करेगा ? इसलिये यह निश्चय है कि अन्य प्रकारसे सिद्धि नहीं होती। ___ अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते है:
श्लोकार्थ:- आचार्य कहते हैं कि: [अनन्तचैतन्यचिहं] अनंत (अविनश्वर) चैतन्य जिसका चिह्न है ऐसी [ इदम् आत्मज्योतिः] इस आत्मज्योतिका [ सततम् अनुभवामः ] हम निरंतर अनुभव करते हैं [ यस्मात् ] क्योंकि [अन्यथा साध्य-सिद्धिः न खलु न खलु ] उसके अनुभवके बिना अन्य प्रकारसे साध्य आत्माकी सिद्धि नहीं होती । यह आत्मज्योति ऐसी है कि [ कथम् अपि समुपात्तत्रित्वम् अपि एकतायाः अपतितम् ] जिसने किसी प्रकारसे त्रित्व अङ्गीकार किया है तथापि जो एकत्वसे च्युत नहीं हुई और [ अच्छम् उद्गच्छत् ] जो निर्मलतासे उदयको प्राप्त हो रही है।
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समयसार
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ननु ज्ञानतादात्म्यादात्मा ज्ञानं नित्यमुपास्त एव कुतस्तदुपास्यत्वेनानुशास्यत इति चेत्, तन्न, यतो न खल्वात्मा ज्ञानतादात्म्येऽपि क्षणमपि ज्ञानमुपास्ते, स्वयम्बुद्धबोधितबुद्धत्वकारण - पूर्वकत्वेन ज्ञानस्योत्पत्तेः । तर्हि तत्कारणात्पूर्वमज्ञान एवात्मा नित्यमेवाप्रतिबुद्धत्वात् ? एवमेतत्।
तर्हि कियन्तं कालमयमप्रतिबुद्धो भवतीत्यभिधीयताम्
कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव।। १९ ।।
भावार्थ:- आचार्य कहते हैं कि जिसे किसी प्रकार पर्यायदृष्टिसे त्रित्व प्राप्त है तथापि शुद्धद्रव्यदृष्टिसे जो एकत्वसे रहित नहीं हुई तथा जो अनंत चैतन्यस्वरूप निर्मल उदयको प्राप्त हो रही है ऐसी आत्मज्योतिका हम निरंतर अनुभव करते हैं। यह कहनेका आशय यह भी जानना चाहिये कि जो सम्यग्दृष्टि पुरुष हैं वे, जैसा हम अनुभव करते हैं वैसा अनुभव करें ।। २० ।।
टीका:- अब, कोई तर्क करे कि आत्मा तो ज्ञानके साथ तादात्म्यस्वरूप है, अलग नहीं है, इसलिये वह ज्ञानका नित्य सेवन करता है; तब फिर उसे ज्ञानकी उपासना करनेकी शिक्षा क्यों दी जाती है ? उसका समाधान यह है:- ऐसा नहीं है। यद्यपि आत्मा ज्ञानके साथ तादात्म्यस्वरूपसे है तथापि वह एक क्षणमात्र भी ज्ञानका सेवन नहीं करता; क्योंकि स्वयंबुद्धत्व ( स्वयं स्वतः जानना) अथवा बोधितबुद्धत्व ( दूसरे के बताने से जानना ) - इन कारणपूर्वक ज्ञानकी उत्पत्ति होती है। ( या तो काललब्धि आये तब स्वयं ही जान ले अथवा तो कोई उपदेश देनेवाला मिले तब जाने -जैसे सोया हुआ पुरुष या तो स्वयं ही जाग जाये अथवा कोई जगाये तब जागे ।) यहाँ पुनः प्रश्न होता है कि यदि ऐसा है तो जाननेके कारणसे पूर्व क्या आत्मा अज्ञानी ही है क्योंकि उसे सदा अप्रतिबुद्धत्व है ? उसका उत्तर: ऐसा ही है, वह अज्ञानी ही है ।
अब यहाँ पुन: पूछते हैं कि यह आत्मा कितने समय तक अप्रतिबुद्ध रहता है वह कहो। उसके उत्तररूप गाथासूत्र कहते हैं:
नोकर्म-कर्म जु' मैं', अवरु 'मैं' में कर्म नोकर्म हैं।
यह बुद्धि जबतक जीवकी, अज्ञानी तबतक वो रहे ।। १९।।
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पूर्वरंग
कर्मणि नोकर्मणि चाहमित्यहकं च कर्म नोकर्म। यावदेषा खलु बुद्धिरप्रतिबुद्धो भवति तावत्।।१९ ।।
यथा स्पर्शरसगन्धवर्णादिभावेषु पृथुबुध्नोदराद्याकारपरिणतपुद्गल-स्कन्धेषु घटोऽयमिति, घटे च स्पर्शरसगन्धवर्णादिभावाः पृथुबुध्नोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कन्धाश्चामी इति वस्त्वभेदेनानुभूतिस्तथा कर्मणि मोहादिष्वन्तरङ्गेषु नोकर्मणि शरीरादिषु बहिरङ्गेषु चात्मतिरस्कारिषु पुद्गलपरिणामेष्वहमित्यात्मनि च कर्म मोहादयोऽन्तरङ्गा नोकर्म शरीरादयो बहिरङ्गाश्चात्मतिरस्कारिणः पुद्गलपरिणामा अमी इति वस्त्वभेदेन यावन्तं कालमनुभूतिस्तावन्तं कालमात्मा भवत्यप्रतिबुद्धः। यदा कदाचिद्यथा रूपिणो दर्पणस्य स्वपराकारावभासिनी स्वच्छतैव वढेरौष्ण्यं ज्वाला च तथा नीरूपस्यात्मन: स्वपराकारावभासिनी ज्ञातृतैव पुद्गलानां कर्म नोकर्म चेति स्वतः परतो वा भेदविज्ञानमूलानुभूतिरुत्पत्स्यते तदैव प्रतिबुद्धो भविष्यति।
गाथार्थ:- [ यावत् ] जबतक इस आत्माकी [कर्मणि] ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, भावकर्म [च ] और [ नोकर्मणि ] शरीरादि नोकर्ममें [अहं ] 'यह मैं हूँ' [च ] और [ अहकं कर्म नोकर्म इति] मुझमें (-आत्मामें) 'यह कर्म-नोकर्म हैं - [ एषा खलु बुद्धिः] ऐसी बुद्धि है, [ तावत् ] तबतक [ अप्रतिबुद्धः ] यह आत्मा अप्रतिबुद्ध [ भवति] है।
टीका:- जैसे स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भावोमें तथा चौड़ा, गहरा , अवगाहरूप उदरादिके आकार परिणत हुये पुद्गलके स्कंधोमें यह घट है' इसप्रकार, और घड़ेमें ‘यह स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भाव तथा चौड़े गहरे, उदराकार आदिरूप परिणत पुद्गल-स्कंध हैं' इसप्रकार वस्तुके अभेदसे अनुभूति होती है, इसीप्रकार कर्म-मोह आदि अंतरंग परिणाम तथा नोकर्म-शरीरादि बाह्य, वस्तुयें-सब पुद्गलके परिणाम हैं और आत्माके तिरस्कार करने वाले हैं-उनमें 'यह मैं हूँ' इसप्रकार और आत्मामें ‘यह कर्म-मोह आदि अंतरंग तथा नोकर्म-शरीरादि बहिरंग, आत्म-तिरस्कारी (आत्माक तिरस्कार करनेवाले) पुद्गल-परिणाम हैं' इसप्रकार वस्तुके अभेदसे जबतक अनुभूति है तबतक आत्मा अप्रतिबुद्ध है; और जब कभी, जैसे रूपी दर्पणकी स्वच्छता ही स्व-परके आकारका प्रतिभास करनेवाली है और उष्णता तथा ज्वाला अग्निकी है इसीप्रकार अरूपी आत्माकी तो अपने को और पर को जाननेवाली ज्ञातृता ही है और कर्म तथा नोकर्म पुद्गलके हैं इसप्रकार स्वतः अथवा परोपदेशसे जिसका मूल भेदविज्ञान है ऐसी अनुभूति उत्पन्न होगी तब ही (आत्मा) प्रतिबुद्ध होगा।
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समयसार
५४
( मालिनी) कथमपि हि लभन्ते भेदविज्ञानमूलामचलितमनुभूतिं ये स्वतो वान्यतो वा। प्रतिफलननिमग्नानन्तभावस्वभावैMकुरवदविकाराः सन्ततं स्युस्त एव।। २१ ।।
ननु कथमयमप्रतिबुद्धो लक्ष्येत
भावार्थ:- जैसे स्पर्शादिमें पुद्गलका और पुद्गलमें स्पर्शादिका अनुभव होता है अर्थात् दोनों एक रूप अनुभव में आते हैं, उसी प्रकार जब तक आत्माको, कर्मनोकर्ममें आत्माकी और आत्मामें कर्म-नोकर्मकी भ्रांति होती हैं, अर्थात् दोनों एकरूप भासित होते हैं, तबतक तो वह अप्रतिबुद्ध है; और जब वह यह जानता है कि आत्मा तो ज्ञाता ही है और कर्म-नोकर्म पुद्गलके ही हैं तभी वह प्रतिबुद्ध होता है। जैसे दर्पणमें अग्निनी की ज्वाला दिखाई देती है वहाँ यह ज्ञात होता है कि “ज्वाला तो अग्निमें ही है, वह दर्पण में प्रविष्ट नहीं हैं, और जो दर्पण में देखाई दे रहे हैं वह दर्पणकी स्वच्छता ही है;" इसीप्रकार “कर्म-नोकर्म अपने आत्मामें प्रविष्ट नहीं हैं; आत्माकी ज्ञान-स्वच्छता ऐसी ही है कि जिसमें ज्ञेयका प्रतिबिंब दिखाई दे; इसीप्रकार कर्म-नोकर्म ज्ञेय हैं इसलिये वे प्रतिभासित होते हैं"-ऐसा भेदज्ञानरूप अनुभव आत्माको या तो स्वयमेव हो अथवा उपदेशसे हो तभी वह प्रतिबुद्ध होता है।
अब , इसी अर्थ का कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ ये ] जो पुरुष [ स्वतः वा अन्यतः वा] अपने ही अथवा परके उपदेशसे [ कथम् अपि हि] किसी भी प्रकारसे [ भेदविज्ञानमूलाम् ] भेदविज्ञान जिसका मूल उत्पत्तिकारण है ऐसी अपने आत्माकी [अचलितम् ] अविचल [अनुभूतिम् ] अनुभूतिको [ लभन्ते ] प्राप्त करते हैं, [ ते एव ] वे ही पुरुष [ मुकुरवत् ] दर्पणकी भाँति [प्रतिफलन-निमग्न-अनन्त-भाव-स्वभावैः] अपनेमें प्रतिबिंबित हुए अनंत भावोंके स्वभावोंसे [ सन्ततं] निरंतर [अविकाराः] विकाररहित [ स्युः] होते हैं, - ज्ञानमें जो ज्ञेयोंके आकार प्रतिभासित होते हैं उनसे रागादि विकारोंको प्राप्त नहीं होते।। १।।
अब शिष्य प्रश्न करता है कि अप्रतिबुद्ध को कैसे पहिचाना जा सकता है ? उसका चिन्ह बताइये; उसके उत्तररूप गाथा कहते हैं:
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पूर्वरंग
अहमेदं एदमहं अदमेदस्स म्हि अत्थि मम एवं। अण्णं जं परदव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा।। २० ।। आसि मम पुव्वमेदं एदस्स अहं पि आसि पुव्वं हि। होहिदि पुणो ममेदं एदस्स अहं पि होस्सामि।। २१ ।। एयं तु असब्भूदं आदवियप्पं करेदि संमूढो। भूदत्थं जाणंतो ण करेदि दु तं असंमूढो।। २२ ।।
अहमेतदेतदहं अहमेतस्यास्मि अस्ति ममैतत्। अन्यद्यत्परद्रव्यं सचित्ताचित्तमिश्र वा।। २० ।। आसीन्मम पूर्वमेतदेतस्याहमप्यासं पूर्वम्। भविष्यति पुनममैतदेतस्याहमपि भविष्यामि।। २१ ।। एतत्त्वसद्भूतमात्मविकल्पं करोति सम्मूढः। भूतार्थ जानन्न करोति तु तमसम्मूढः।। २२ ।।
मैं ये अवरु ये मैं , मैं हूँ इनका अवरु ये हैं मेरे। जो अन्य हैं परद्रव्य मिश्र, सचित्त अगर अचित्त वे ।।२०।। मेरा ही यह था पूर्व में , मैं इसी का गत कालमे। ये होयगा मेरा अवरु , मैं इसका हूँगा भावी में ।। २१ ।। अयथार्थ आत्मविकल्प ऐसा, मूढजीव हि आचरे। भूतार्थ जाननहार ज्ञानी, ए विकल्प नहीं करे ।। २२ ।।
गाथार्थ:- [अन्यत् यत् परद्रव्यं ] जो पुरुष अपनेसे अन्य जा परद्रव्य[ सचित्ताचित्तमिश्रं वा] सचित्त स्त्रीपुत्रादिक, अचित्त धनधान्यादिक अथवा मिश्र ग्रामनगरादिक हैं-उन्हें यह समझता है कि [अहं एतत् ] मैं यह हूँ, [ एतत् अहम् ] यह द्रव्य मुझ-स्वरूप है, [अहम् एतस्य अस्मि ] मैं इसका हूँ, [ एतत् मम अस्ति ] यह मेरा है, [ एतत् मम पूर्वेम् आसीत् ] यह मेरा पहले था, [ एतस्य अहम् अपि पूर्वम् आसम् ] इसका मैं भी पहले था, [ एतत् मम पुनः भविष्यति] यह मेरा भविष्यमें होगा, [ अहम् अपि एतस्य भविष्यामि] मैं भी इसका भविष्यमें होऊँगा, - [एतत् तु असद्भूतम् ] ऐसा झूठा [ आत्मविकल्पं] आत्मविकल्प [करोति] करता है वह [ सम्मूढः ] मूढ़ है, मोही है, अज्ञानी है; [ तु] और जो पुरुष [भूतार्थ ] परमार्थ वस्तुस्वरूपको [ जानन् ] जानता हुआ [तम् ] वैसा झूठा विकल्प [ न करोति] नहीं करता वह [ असम्मूढः ] मूढ नहीं, ज्ञानी है।
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समयसार
५६
यथाग्निरिन्धनमस्तीन्धनमग्निरस्त्यग्नेरिन्धनमस्तीन्धनस्याग्निरस्ति, अग्नेरिन्धनं पूर्वमासीदिन्धनस्याग्निः पूर्वमासीत्, अग्नेरिन्धनं पुनर्भविष्यती-न्धनस्याग्निः पुनर्भविष्यतीतीन्धन एवासद्भूताग्निविकल्पत्वेनाप्रतिबुद्धः कश्चि-लक्ष्येत, तथाहमेतदस्म्येतदहमस्ति ममैतदस्त्येतस्याहमस्मि, ममैतत्पूर्वमासी-देतस्याहं पूर्वमासं, ममैतत्पुनर्भविष्यत्येतस्याहं पुनर्भविष्यामीति परद्रव्य एवासद्भूतात्मविकल्पत्वेनाप्रतिबुद्धो लक्ष्येतात्मा। नाग्निरिन्धनमस्ति
नेन्धनमग्निरस्त्यग्निरग्निरस्तीन्धनमिन्धनमस्ति नाग्नेरिन्धनमस्ति नेन्धनस्याग्निरस्त्यग्नेरग्निरस्तीन्धनस्येन्धनमस्ति, नाग्नेरिन्धनं पूर्वमासीन्नेन्धनस्याग्निः पूर्वमासीदग्नेरग्निः पूर्वमासीदिन्धन-स्येन्धनं पूर्वमासीत्, नाग्नेरिन्धनं पुनर्भविष्यति नेन्धनस्याग्निः पुनर्भविष्य-त्यग्नेरग्निः पुनर्भविष्यतीन्धनस्येन्धनं पुनर्भविष्यतीति कस्यचिदग्नावेव सद्भूताग्निविकल्पवन्नाहमेतदस्मि नैतदहमस्त्यहमहमस्म्येतदेतदस्ति न ममैतदस्ति नैतस्याहमस्मि ममाहमस्म्येतस्यैतदस्ति, न ममैतत्पूर्वमासीन्नैतस्याहं पूर्वमासं ममाहं पूर्वमासमेतस्यैतत्पूर्वमासीत्,
टीका:- (दृष्टांतसे समझाते हैं:) जैसे कोई पुरुष ईंधन और अग्निको मिला हुआ देखकर ऐसा झूठा विकल्प करे कि “जो अग्नि है सो ईंधन है और ईंधन है सो अग्नि है; अग्निका ईंधन है, ईंधनकी अग्नि है; अग्निका ईंधन पहले था, ईंधनकी अग्नि पहले थी; अग्निका ईंधन भविष्यमें होगा, ईंधनकी अग्नि भविष्यमें होगी;"- ऐसा ईंधनमें ही अग्निका विकल्प करता है वह झूठा है, उसमें अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) कोई पहचाना जाता है, इसी प्रकार कोई आत्मा परद्रव्यमें असत्यार्थ आत्मविकल्प करे कि “ मैं यह परद्रव्य हूँ, यह परद्रव्य मुझस्वरूप है; यह मेरा परद्रव्य है, इस परद्रव्यका मैं हूँ; मेरा यह पहले था, मैं इसका पहले था; मेरा यह भविष्यमें होगा, मैं इसका भविष्यमें होऊँगा";-ऐसे झूठे विकल्पोंसे अप्रतिबुद्ध ( अज्ञानी) पहचाना जाता है।
और अग्नि है वह ईंधन नहीं है, ईंधन है वह अग्नि नहीं है, -अग्नि है वह अग्नि ही है, ईंधन है वह ईंधन ही है; अग्निका ईंधन नहीं, ईंधन की अग्नि नहीं, -अग्निकी अग्नि है , ईंधन का ईंधन है; अग्निका ईंधन पहले नहीं था, ईंधन की अग्नि पहले नहीं थी, -अग्निकी अग्नि पहले थी, ईंधन का ईंधन पहले था; अग्निका ईंधन भविष्यमें नहीं होगा, ईंधन की अग्नि भविष्यमें नहीं होगी, -अग्निकी अग्नि ही भविष्यमें होगी, ईंधन का ईंधन ही भविष्यमें होगा"-इसप्रकार जैसे किसीको अग्निमें ही सत्यार्थ अग्निका विकल्प हो सो प्रतिबुद्धका लक्षण है, इसीप्रकार “ मैं यह परद्रव्य नहीं हूँ, यह परद्रव्य मुझस्वरूप नहीं है-मैं तो मैं ही हूँ, परद्रव्य है वह परद्रव्य ही है; मेरा यह परद्रव्य नहीं, इस परद्रव्य का मैं नहीं, –मेरा ही मैं हूँ, परद्रव्यका परद्रव्य है; यह परद्रव्य मेरा पहले नहीं था, यह परद्रव्यका मैं पहले नहीं था, -मेरा मैं ही पहले था, परद्रव्यका परद्रव्य पहले
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पूर्वरंग
न ममैतत्पुनर्भविष्यति नैतस्याहं पुनर्भविष्यामि ममाहं तत्पुनर्भविष्यतीति स्वद्रव्य एव सद्भूतात्मविकल्पस्य प्रतिबुद्धलक्षणस्य भावात्। ( मालिनी )
पुनर्भविष्याम्येतस्यै
त्यजतु जगदिदानीं मोहमाजन्मलीढं रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत्। इह कथमपि नात्मानात्मना साकमेक: किल कलयति काले कापि तादात्म्यवृत्तिम् ।। २२ ।। अथाप्रतिबुद्धबोधनाय व्यवसाय: क्रियते
५७
भविष्यमें नहीं होऊँगा, मैं
था; यह परद्रव्य मेरा भविष्यमें नहीं होगा, इसका अपना ही भविष्यमें होऊँगा, इस ( परद्रव्य) का यह ( परद्रव्य) भविष्यमें होगा। ऐसा जो स्वद्रव्यमें ही सत्यार्थ आत्मविकल्प होता है वही प्रतिबुद्ध (ज्ञानी) का लक्षण है, इससे ज्ञानी पहिचाना जाता है ।
भावार्थ:- जो परद्रव्यमें आत्माका विकल्प करता है वह तो अज्ञानी है और जो अपने आत्माको ही अपना मानता है वह ज्ञानी है - यह अग्नि- ईंधनके दृष्टांत से दृढ़ किया है।
יי
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ जगत् ] जगत् अर्थात् जगत्के जीवों ! [ आजन्मलीढं मोहम् ] अनादि संसारसे लेकर आज तक अनुभव किये गये मोहको [ इदानीं त्यजतु ] अब तो छोड़ो और [ रसिकानां रोचनं ] रसिक जनोंको रुचिकर, [ उद्यत् ज्ञानम् ] उदय हुआ जो ज्ञान उसको [ रसयतु] आस्वादन करो; क्योंकि [ इह ] इस लोकमें [आत्मा ] आत्मा [ किल ] वास्तवमें [ कथम् अपि ] किसी प्रकार भी [ अनात्मना साकम् ] अनात्मा (परद्रव्य) के साथ [ क्व अपि काले ] कदापि [ तादात्म्यवृत्तिम् कलयति न ] ताहात्म्यवृत्ति ( एकत्व ) को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि आत्मा [ एक: ] एक है वह अन्य द्रव्यके साथ एकतारूप नहीं होता ।
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भावार्थ:- आत्मा परद्रव्यके साथ किसीप्रकार किसी समय एकताके भावको प्राप्त नहीं होता। इसप्रकार आचार्यदेवने, अनादिकालसे परद्रव्यके प्रति लगा हुआ जो मोह है उसका भेदविज्ञान बताया है और प्रेरणा की है कि इस एकत्वरूप मोहको अब छोड़ दो और ज्ञानका आस्वादन करो; मोह वृथा है, झूठा है, दुःखका कारण है।। २२।।
अब अप्रतिबुद्धको समझाने के लिये प्रयत्न करते हैं:
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समयसार
८
अण्णाणमोहिदमदी मज्झमिणं भणदि पोग्गलं दव्वं । बद्धमबद्धं च तहा जीवो बहुभावसंजुत्तो।। २३ ।। सव्वण्हुणाणदिट्ठो जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं। कह सो पोग्गलदव्वीभूदो जं भणसि मज्झमिणं ।। २४ ।। जदि सो पोग्गलदव्वीभूदो जीवत्तमागदं इदरं। तो सक्को वत्तुं जे मज्झमिणं पोग्गलं दव्वं ।। २५ ।।
अज्ञानमोहितमतिर्ममेदं भणति पुद्गलं द्रव्यम्। बद्धमबद्धं च तथा जीवो बहुभावसंयुक्तः ।। २३ ।। सर्वज्ञज्ञानदृष्टो जीव उपयोगलक्षणो नित्यम्। कथं स पुद्गलद्रव्यीभूतो यगणसि ममेदम्।। २४ ।। यदि स पुद्गलद्रव्यीभूतो जीवत्वमागतमितरत्।
तच्छक्तो वक्तुं यन्ममेदं पुद्गलं द्रव्यम्।। २५ ।। अज्ञान मोहितबुद्धि जो, बहुभावसंयुत जीव है। "ये बद्ध और अबद्ध पुद्गलद्रव्य मेरा” वो कहे ।। २३ ।। सर्वज्ञज्ञानविषै सदा, उपयोगलक्षण जीव है। वो कैसे पुद्गल हो सके जो, जो तू कहे मेरा अरे! ।। २४ ।। जो जीव पुद्गल होय , पुद्गल प्राप्त हो जीवत्वको । तू तब हि ऐसा कह सके, है मेरा' पुद्गलद्रव्य को ।। २५।।
गाथार्थ:- [ अज्ञानमोहितमतिः ] जिसकी मति अज्ञानसे मोहित है [ बहुभावसंयुक्तः ] और जो मोह, राग, द्वेष आदि अनेक भावोंसे युक्त है ऐसा [ जीव:] जीव [ भणति ] कहता है कि [इदं ] यह [ बद्धम् तथा च अबद्धं ] शरीरादिक बद्ध तथा धनधान्यादिक अबद्ध [ पुद्गलं द्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्य [मम] मेरा है। आचार्य कहते हैं कि- [सर्वज्ञज्ञानदृष्ट:] सर्वज्ञके ज्ञान द्वारा देखा गया जो [ नित्यम् ] सदा [उपयोगलक्षण: ] उपयोगलक्षणवाला [जीव: ] जीव है [ सः ] वह [ पुद्गलद्रव्योभूतः] पुद्गलद्रव्यरूप [कथं ] कैसे हो सकता है [ यत् ] जिससे कि [ भणसि ] तू कहता है कि [इदं मम] यह पुद्गलद्रव्य मेरा है ? [ यदि] यदि [सः] जीवद्रव्य [पुद्गलद्रव्यीभूतः ] पुद्गलद्रव्यरूप हो जाये और [इतरत् ] पुद्गलद्रव्य [ जीवत्वम् ] जीवत्वको [ आगतम् ] प्राप्त करे [ तत् ] तो [ वक्तुं शक्तः ] तू कह सकता है [ यत् ] कि [ इदं पुद्गलं द्रव्यम् ] यह पुद्गलद्रव्य [ मम ] मेरा है। (किन्तु ऐसा तो नहीं होता।)
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पूर्वरंग
युगपदनेकविधस्य बन्धनोपाधे: सन्निधानेन प्रधावितानामस्वभावभावानां संयोगवशाद्विचित्रोपाश्रयोपरक्त: स्फटिकोपल इवात्यन्ततिरोहितस्वभाव-भावतया अस्तमितसमस्तविवेकज्योतिर्महता स्वयमज्ञानेन विमोहितहदयो भेदमकृत्वा तानेवास्वभावभावान् स्वीकुर्वाण: पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवति किलाप्रतिबुद्धो जीवः। अथायमेव प्रतिबोध्यते-रे दुरात्मन्, आत्मपंसन् जहीहि जहीहि परमाविवेकघस्मरसतृणाभ्यवहारित्वम्। दूरनिरस्तसमस्त-सन्देहविपर्यासानध्यवसायेन विश्वकज्योतिषा सर्वज्ञज्ञानेन स्फुटीकृतं किल नित्योपयोगलक्षणं जीवद्रव्यं तत्कथं पुद्गलद्रव्यीभूतं येन पुद्गलद्रव्यं मदमेमित्यनुभवसि, यतो यदि कथञ्चनापि जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभूतं स्यात् पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रव्यीभूतं स्यात् तदैव लवणस्योदकमिव ममेदं पुद्गलद्रव्यमित्यनुभूतिः किल घटेत, तत्तु न कथञ्चनापि स्यात्।
टीका:- एक ही साथ अनेक प्रकारकी बंधनकी उपाधिकी अति निकटासे वेगपूर्वक बहते अस्वभावभावोंके संयोगवश जो (अप्रतिबुद्ध अज्ञानी जीव) अनेक प्रकारके वर्णवाले 'आश्रयकी निकटतासे रंगे हुये स्फटिक-पाषाण जैसा है, अत्यंत तिरोभूत (ढंके हुये ) अपने स्वभावभावत्वसे जिसकी समस्त भेदज्ञानरूप ज्योति अस्त हो गई है ऐसा है, और महा अज्ञानसे जिसका हृदय स्वयं स्वतः ही विमोहित हैऐसा अप्रतिबुद्ध अज्ञानी जीव स्वपरका भेद न करके, उन अस्वभावभावोंको ही (जो अपने स्वभाव नहीं हैं ऐसे विभावोंको ही) अपना करता हुआ, पुद्गलद्रव्यको ‘यह मेरा है' इस प्रकार अनुभव करता है। (जैसे स्फटिकपाषाणमें अनेक प्रकारके वर्णों की निकटतासे अनेकवर्णरूपता दिखाई देती है, स्फटिकका निज श्वेत-निर्मलभाव दिखाई नहीं देता इसी प्रकार अज्ञानीको कर्मकी उपाधिसे आत्माका शुद्ध स्वभाव आच्छादित हो रहा है -दिखाई नहीं देता इसलिये पुद्गलद्रव्यको अपना मानता है।) ऐसे अज्ञानीको अब समझाया जा रहा है कि :-रे दुरात्मन् ! आत्माघात करने वाले! जैसे परम अविवेकपूर्वक खानेवाले हाथी आदि पशु सुंदर आहारको तृण सहित खा जाते हैं उसी प्रकार खाने के स्वभावको तू छोड़, छोड़। जिसने समस्त संदेह, विपर्यय, अनध्यवसाय दूर कर दिये हैं और जो विश्वको (समस्त वस्तुओंको) प्रकाशित करने के लिये एक अद्वितीय ज्योति है, ऐसे सर्वज्ञज्ञानसे स्फुट (प्रगट) किये गये जो नित्य उपयोगस्वभावरूप जीवद्रव्य वह पुद्गलद्रव्यरूप कैसे हो गया कि जिससे तू यह अनुभव करता है कि 'यह पुद्गलद्रव्य मेरा है' ? क्योंकि किसी भी प्रकार से जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्यरूप हो और पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्यरूप हो तभी 'नमकके पानी' इसप्रकार के अनुभूतिकी भाँति ऐसी अनुभूति वास्तवमें ठीक हो सकती है कि 'यह पुद्गलद्रव्य मेरा है'; किन्तु ऐसा तो किसी भी प्रकारसे नहीं
१ आश्रय = जिसमें स्फटिकमणि रखा हुआ हो वह वस्तु
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समयसार
६०
तथा हि-यथा क्षारत्वलक्षणं लवणमुदकीभवत् द्रवत्वलक्षणमुदकं च लवणीभवत् क्षारत्वद्रवत्वसहवृत्त्यविरोधादनुभूयते, न तथा नियोपयोगलक्षणं जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभवत् नित्यानुपयोगलक्षणं पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रव्यीभवत् उपयोगानुपयोगयोः प्रकाशतमसोरिव सहवृत्तिविरोधादनुभूयते। तत्सर्वथा प्रसीद, विबुध्यस्व, स्वद्रव्यं ममेदमित्यनुभव।
(मालिनी) अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन् अनुभव भव मूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम्। पृथगथ विलसन्तं स्वं समालोक्य येन त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम्।। २३ ।।
बनता। दृष्टांत देकर इसी बातको स्पष्ट करते हैं:- जैसे खारापन जिसका लक्षण है ऐसा नमक पानीरूप होता हुआ दिखाई देता है और द्रवत्व (प्रवाहीपन) जिसका लक्षण है, ऐसा पानी नमकरूप होता दिखाई देता है,क्योंकि खारेपन और द्रवत्वका एक साथ रहनेमें अविरोध है, अर्थात् उसमें कोई बाधा नहीं आती, इसप्रकार नित्य उपयोगलक्षणवाला जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य होता हुआ दिखाई नहीं देता और नित्य अनुपयोग (जड़) लक्षणवाला पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य होता हुआ देखने में नहीं आता क्योंकि प्रकाश और अंधकारकी भाँति उपयोग और अनुपयोगका एक ही साथ रहनेमें विरोध है; जड़ और चेतन कभी भी एक नहीं हो सकते। इसलिये तू सर्व प्रकारसे प्रसन्न हो, (अपने चित्तको उज्ज्वल करके) सावधान हो, और स्वद्रव्यको ही 'यह मेरा है' इसप्रकार अनुभव कर।
भावार्थ:- यह अज्ञानी जीव पुद्गलद्रव्यको अपना मानता है; उसे उपदेश देकर सावधान किया है कि जड़ और चेतनद्रव्य दोनों सर्वथा भिन्न भिन्न हैं, कभी भी किसी भी प्रकारसे एकरूप नहीं होते ऐसा सर्वज्ञ भगवानने देखा है; इसलिये हे अज्ञानी! तू परद्रव्यको एकरूप मानना छोड़ दे; व्यर्थकी मान्यतासे बस कर।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अयि ] 'अयि' यह कोमल संबोधनका सूचक अव्यय है। आचार्य कोमल संबोधनसे कहते है कि हे भाई! तू [ कथम् अपि] किसी प्रकार महा कष्ट अथवा [ मृत्वा] मरकर भी [ तत्त्वकौतूहली सन् ] तत्त्वोंका कौतूहली होकर [ मूर्तेः मुहूर्तम् पार्श्ववर्ती भव ] इस शरीरादि मूर्त द्रव्यका एक मुहूर्त ( दो घड़ी) पड़ोसी होकर [अनुभव ] आत्मानुभव कर [ अथ येन ] कि जिससे [ स्वं विलसन्तं ] अपने आत्माके विलासरूप, [ पृथक् ] सर्व परद्रव्योंसे भिन्न [ समालोक्य ] देखकर [ मूर्त्या साकम् ] इस शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्यके साथ [ एकत्वमोहम् ] एकत्वके मोहको [ झगिति त्यजसि ] शीघ्र ही छोड़ देगा।
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अथाहाप्रतिबुद्धः-
पूर्वरंग
जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरियसंशुदी चेव । सव्वा वि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो ।। २६ ।।
यदि जीवो न शरीरं तीर्थकराचार्यसंस्तुतिश्चैव ।
सर्वापि भवति मिथ्या तेन तु आत्मा भवति देहः ।। २६ ।।
६१
यदि य एवात्मा तदेव शरीरं पुद्गलद्रव्यं न भवेत्तदा
भावार्थ:- यदि यह आत्मा दो घड़ी पुद्गलद्रव्यसे भिन्न अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव करे ( उसमें लीन हो ), परिषहके आनेपर भी डिगे नहीं, तो घातियाकर्मका नाश करके, केवलज्ञान उत्पन्न करके, मोक्षको प्राप्त हो । आत्मानुभवकी ऐसी माहिमा है तब मिथ्यात्वका नाश करके सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होना तो सुगम है; इसलिये श्री गुरु प्रधानतासे यही उपदेश दिया है ।। २३ ।।
अब अप्रतिबुद्ध जीव कहता है उसकी गाथा कहते हैं:--
जो जीव होय न देह तो, आचार्य वा तीर्थेशकी ।
मिथ्या बने स्तवना सभी, सो एकता जीवदेहकी ! ।। २६ ।।
गाथार्थ:- अप्रतिबुद्ध जीव कहता है कि-- [ यदि ] यदि [ जीवः ] जीव
[ शरीरं न ] शरीर नहीं है तो [ तीर्थकराचार्यसंस्तुतिः ] तीर्थंकरों और आचार्योंकी जो स्तुति की गई है [ सर्वा अपि ] सभी [ मिथ्या भवति ] मिथ्या है; [ तेन तु ] इसलिये हम (समझते हैं कि ) [ आत्मा ] जो आत्मा है वह [ देहः च एव ] देह ही [ भवति ]
है।
टीका:- जो आत्मा है वही पुद्गलद्रव्यस्वरूप यह शरीर है। यदि ऐसा न हो तो तीर्थंकरों और आचार्योंकी जो स्तुति की गई है वह सब मिथ्या सिद्ध होगी । वह स्तुति इसप्रकार है:
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समयसार
( शार्दूभविक्रीडित )
कान्त्यैव स्नपयन्ति ये दशदिशो धाम्ना निरुन्धन्ति ये धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये। दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरन्तोऽमृतं वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ।। २४ ।। -इत्यादिका तीर्थकराचार्यस्तुतिः समस्तापि मिथ्या स्यात् । ततो य एवात्मा तदेव शरीरं पुद्गलद्रव्यमिति ममैकान्तिकी प्रतिपत्तिः । नैवं, नयविभागानभिज्ञोऽसि---
ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को । ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो ।। २७ ।।
व्यवहारनयो भाषते जीवो देहश्च भवति खल्वेकः ।
न तु निश्चयस्य जीवो देहश्च कदाप्येकार्थः ।। २७ ।।
श्लोकार्थ:- [ते तीर्थेश्वराः सूरयः वन्द्याः ] वे तीर्थंकर और आचार्य वंदनीय हैं। कैसे हैं वे ? [ये कान्त्या एव दशदिश: स्नपयन्ति ] अपने शरीरकी कान्तिसे दसों दिशाओंको धोते हैं-निर्मल करते हैं, [ ये धाम्ना उद्दाम - महस्विनां धाम निरुन्धन्ति ] अपने तेजसे उत्कृष्ट तेजवाले सूर्यादिके तेजको ढक देते हैं, [ ये रूपेण जनमनः मुष्णन्ति ] अपने रूपसे लोगोंके मनको हर लते हैं, [ दिव्येन ध्वनिना श्रवणयोः साक्षात् सुखं अमृतं क्षरन्तः] दिव्यध्वनिसे ( भव्योंके ) कानोंमें साक्षात् सुखामृत बरसाते हैं और वे [ अष्टसहस्रलक्षणधरा: ] एक हजार आठ लक्षणोंके धारक है ।। २४।।
- ईत्यादिरूपसे तीर्थंकरों - आचार्योंकी जो स्तुति है वह सबही मिथ्या सिद्ध होती है। इसलिये हमारा तो यही एकांत निश्चय है कि जो आत्मा है वही शरीर है, पुद्गलद्रव्य है। इस प्रकार अप्रतिबुद्धने कहा ।
आचार्यदेव कहते हैं कि ऐसा नहीं है; तू नयविभागको नहीं जानता। जो नयविभाग इस प्रकार है उसे गाथा द्वारा कहते हैं:--
जीव-देह दोनों एक हैं, यह वचन है व्यवहार का । निश्चयविषै तो जीव देह, कदापि एक पदार्थ ना ।। २७ ।।
गाथार्थ:- [ व्यवहारनयः ] व्यवहारनय तो [ भाषते ] यह कहता है कि [ जीवः देह: च ] जीव और शरीर [ एकः खलु ] एक ही [ भवति ] है; [तु] किन्तु [निश्चयस्य ] निश्चयनय अभिप्रायसे [ जीव: देह: च ] जीव और शरीर [ कदा अपि ] कभी भी [ एकार्थः] एक पदार्थ [ न ] नहीं हैं।
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पूर्वरंग
६३
इह खलु परस्परावगाढावस्थायामात्मशरीरयोः समावर्तितावस्थायां कनककलधौतयोरेकस्कन्धव्यवहारवव्यवहारमात्रेणैवैकत्वं, न पुनर्निश्चयतः, निश्चयतो ह्यात्मशरीरयोरुपयोगानुपयोगस्वभावयोः
कनककलधौतयोः पीतपाण्डुरत्वादिस्वभावयोरिवात्यन्तव्यतिरिक्तत्वेनैकार्थत्वानुपपत्ते: नानात्वमेवेति। एवं हि किल नयविभागः। ततो व्यवहारनयेनैव शरीरस्तवनेनात्मस्तवनमूपपन्नम्।
तथा हिइणमण्णं जीवादो देहं पोग्गलमयं थुणित्तु मुणी। मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवली भयवं ।। २८ ।।
इदमन्यत् जीवाद्देहं पुद्गलमयं स्तुत्वा मुनिः। मन्यते खलु संस्तुतो वन्दितो मया केवली भगवान्।। २८ ।।
टीका:- जैसे इस लोकमें सोना और चांदीको गलाकर एक कर देनेसे एकपिंडका व्यवहार होता है उसीप्रकार आत्मा और शरीरकी परस्पर एक क्षेत्रमें रहनेकी अवस्था होनेसे एकपनेका व्यवहार होता है। यों व्यवहारमात्रसे ही आत्मा और शरीरका एकपना है, परंतु निश्चयसे एकपना नहीं है; क्योंकि निश्चयसे देखा जाये तो, जैसा पीलापन आदि और सफेदी आदि जिसका स्वभाव है ऐसे सोने और चाँदीमें अत्यंत भिन्नता होनेसे उनमें एकपदार्थपनेकी असिद्धि है, इसलिये अनेकत्व ही है, इसीप्रकार उपयोग और अनुपयोग जिनका स्वभाव है ऐसे आत्मा और शरीरमें अत्यंत भिन्नता होनेसे एकपदार्थपनेकी असिद्धि है इसलिये अनेकत्व ही है। ऐसा यह प्रगट नयविभाग है। इसलिये व्यवहारनयसे ही शरीरके स्तवनसे आत्माका स्तवन होता है।
भावार्थ:- व्यवहारनय तो आत्मा और शरीरको एक कहता है और निश्चयनय से भिन्न है। इसलिये व्यवहारनयसे शरीरका स्तवन करनेसे आत्माका स्तवन माना जाता है।
यही बात इस गाथामें कहते हैं:
जीवसे जुदा पुद्गलमयी, इस देहकी स्तवना करी।
माने मुनिसो केवली, वंदन हुआ स्तवना हुई।।२८।। गाथार्थ:- [जीवात् अन्यत् ] जीवसे भिन्न [इदम् पुद्गलमयं देहं ] इस पुद्गलमय देहकी [ स्तुत्वा ] स्तुति करके [ मुनिः ] साधु [ मन्यते खलु ] ऐसा मानते हैं कि [ मया ] मैंने [ केवली भगवान् ] केवली भगवानकी [ स्तुतः ] स्तुति की और [ वन्दितः ] वंदना की।
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समयसार
यथा कलधौतगुणस्य पाण्डुरत्वस्य व्यपदेशेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि कार्तस्वरस्य व्यवहारमात्रेणैव पाण्डुरं कार्तस्वरमित्यस्ति व्यपदेशः, तथा शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेः स्तवनेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य व्यवहारमात्रेणैव शुक्ललोहितस्तीर्थकरकेवलिपुरुष इत्यस्ति स्तवनम् । निश्चयनयेन तु
शरीरस्तवनेनात्मस्तवनमनुपपन्नमेव। तथा हि
तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो । केवलिगुणे थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि ।। २९ ।। तन्निश्चये न युज्यते न शरीरगुणा हि भवन्ति केवलिनः । केवलिगुणान् स्तौति यः स तत्त्वं केवलिनं स्तौति ।। २९ ।।
टीका:- जैसे, परमार्थसे सफेदी सोनेका स्वभाव नहीं है, फिर भी चाँदीका जो श्वेत गुण है, उसके नामसे सोनेका नाम 'श्वेत सवर्ण' कहा जाता है; इसीप्रकार व्यवहारमात्रसे ही कहा जाता है; इसीप्रकार, परमार्थसे शुक्ल-रक्तता तीर्थंकरकेवलीपुरुषका स्वभाव न होने पर भी, शरीरके गुण जो शुक्ल-रक्तता इत्यादि हैं, उसके स्तवनसे तीर्थंकर - केवलीपुरुषका 'शुक्ल - रक्त तीर्थंकर - केवलीपुरुष 'के रूपमें स्तवन किया जाता है वह व्यवहारमात्रसे ही किया जाता है। किन्तु निश्चयनयसे शरीरका स्तवन करनेसे आत्माका स्तवन नहीं हो सकता।
भावार्थ:- यहाँ कोई प्रश्न करे कि -- व्यवहारनय तो असत्यार्थ कहा है और शरीर जड़ है तब व्यवहाराश्रित जड़की स्तुतिका क्या फल है ? उसका उत्तर यह है:व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नहीं है, उसे निश्चयको प्रधान करके असत्यार्थ कहा है। और छद्मस्थको अपना, परका आत्मा साक्षात् दिखाई नहीं देता, शरीर दिखाई देता है, उसकी शांतरूप मुद्राको देखकर अपने को भी शान्त भाव होते हैं। ऐसा उपकार समझकर शरीरके आश्रयसे भी स्तुति करता है; तथा शान्त मुद्राको देखकर अंतरंगमें वीतराग भावका निश्चय होता है यह भी उपकार है ।
ऊपरकी बातको गाथामें कहते हैं:
निश्चयविषै नहीं योग्य ये, नहि देहगुण केवलि हि के। जो केवल गुणको स्तवे, परमार्थ केवलि वो स्तवे ।। २९ ।।
गाथार्थ:- [ तत् ] वह स्तवन [ निश्चये ] निश्चयमें [ न युज्यते ] योग्य नहीं है [हि ] क्योंकि [ शरीरगुणाः ] शरीरके गुण [ केवलिनः ] केवलीके [ न भवन्ति ] नहीं होते; [ य: ] जो [ केवलिगुणान् ] केवलीके गुणोंकी [ स्तौति ] स्तुति करता है [ सः ] वह [ तत्त्वं ] परमार्थसे [ केवलिनं ] केवलीकी [ स्तौति ] स्तुति करता है ।
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पूर्वरंग
यथा कार्तस्वरस्य कलधौतगुणस्य पाण्डुरत्वस्याभावान्न निश्चयतस्तव्यपदेशेन व्यपदेशः, कार्तस्वरगुणस्य व्यपदेशेनैव कार्तस्वरस्य व्यपदेशात; तथा तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेरभावान्न निश्चयतस्तत्स्तवनेन स्तवनं, तीर्थकरकेवलिपुरुषगुणस्य स्तवनेनैव तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य स्तवनात्।
कथं शरीरस्तवनेन तदधिष्ठातृत्वादात्मनो निश्चयेन स्तवनं न युज्यत इति चेत्
णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि। देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति।।३० ।।
नगरे वर्णिते यथा नापि राज्ञो वर्णना कृता भवति।
देहगुणे स्तूयमाने न केवलिगुणाः स्तुता भवन्ति।।३० ।। तथा हि
टीका:- जैसे चांदीका गुण जो सफेदपना, उसका सुवर्णमें अभाव है इसलिये निश्चयसे सफेदीके नामसे सोनेका नाम नहीं बनता, सुवर्णके गुण जो पीलापन आदि हैं उनके नामसे ही सुवर्णका नाम होता है; इसीप्रकार शरीरके गुण जो शुक्ल-रक्तता इत्यादि हैं, उनका तीर्थंकरकेवलीपुरुषमें अभाव है इसलिये निश्चयसे शरीरके शुक्लरक्तता आदि गुणोंका स्तवन करनेसे तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्तवन नहीं होता है, तीर्थंकर-केवलीपुरुषके गुणोंका स्तवन करनेसे ही तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्तवन होता है।
अब शिष्य प्रश्न करता है कि आत्मा तो शरीरका अधिष्ठाता है इसलिये शरीरके स्तवनसे आत्माका स्तवन निश्चयसे क्यों युक्त नहीं है ? उसके उत्तररूप दृष्टांत सहित गाथा कहते हैं :---
रे ग्राम वर्णन करनेसे, भूपाल वर्णन हो न ज्यों। त्यों देह गुणके स्तवन से , नहि केवलीगुण स्तवन हो।।३०।।
गाथार्थ:- [ यथा] जैसे [ नगरे ] नगरका [ वर्णिते अपि] वर्णन करने पर भी [ राज्ञः वर्णना] राजाका वर्णन [न कृता भवति] नहीं किया जाता, इसीप्रकार [ देहगुणे स्तूयमाने ] शरीरके गुणका स्तवन करनेपर [ केवलिगुणाः ] केवलीके गुणोंका [ स्तुताः न भवन्ति ] स्तवन नहीं होता।
टीका:- उपरोक्त अर्थका काव्य कहते हैं :--
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समयसार
(आर्या) प्राकारकवलिताम्बरमुपवनराजीनिगीर्णभूमितलम्।
पिबतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम्।। २५ ।। -इति नगरे वर्णितेऽपि राज्ञः तदधिष्ठातृत्वेऽपि प्राकारोपवनपरिखादिमत्त्वाभावाद्वर्णनं न स्यात्। तथैव
(आर्या) नित्यमविकारसुस्थितसर्वाङ्गमपूर्वसहजलावण्यम्।
अक्षोभमिव समुद्रं जिनेन्द्ररूपं परं जयति।। २६ ।। -इति शरीरे स्तूयमानेऽपि तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य तदधिष्ठातृत्वेऽपि सुस्थितसर्वाङ्गत्वलावण्यादिगुणाभावात्स्तवनं न स्यात्।
अथ निश्चयस्तुतिमाह। तत्र ज्ञेयज्ञायकसङ्करदोषपरिहारेण तावत्
श्लोकार्थ:- [इदं नगरम् हि] यह नगर ऐसा है कि जिसने [प्राकारकवलित-अम्बरम् ] कोटके द्वारा आकाशको ग्रसित कर रखा है (अर्थात् इसका कोट बहुत ऊँचा है), [ उपवन-राजी-निगीर्ण-भूमितलम् ] बगीचोंकी पंक्तिओंसे जिसने भूमितलको निगल लिया है ( अर्थात् चारों ओर बगीचोंसे पृथ्वी ढक गई है), और [ परिखावलयेन पातालम् पिबति इव ] कोटके चारों ओरकी खाईके घेरेसे मानों पाताल को पी रहा है ( अर्थात् खाई बहुत गहरी है)।।२५।।
इसप्रकार नगरका वर्णन करनेपर भी उससे राजाका वर्णन नहीं होता क्योंकि, यद्यपि राजा उसका अधिष्ठाता है तथापि, वह राजा कोट–बाग-खाई-आदिवाला नहीं है।
इसीप्रकार शरीरका स्तवन करनेपर तीर्थंकरका स्तवन नहीं होता यह भी श्लोक द्वारा कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ जिनेन्द्ररूपं परं जयति] जिनेन्द्रका रूप उत्कृष्टतया जयवंत वर्तता है। [ नित्यम्-अविकार-सुस्थित-सर्वाङ्गम् ] जिसमें सभी अंग सदा अविकार
और सुस्थित हैं, [अपूर्व-सहज-लावण्यम् ] जिसमें (जन्मसे ही) अपूर्व और स्वाभाविक लावण्य है (जो सर्व प्रिय है) और [ समुद्रं इव अक्षोभम् ] जो समुद्रकी भाँति क्षोभरहित है, चलाचल नहीं है।। २६ ।। ।
इसप्रकार शरीरका स्तवन करनेपर भी उससे तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्तवन नहीं होता क्योंकि, यद्यपि तीर्थंकर-केवलीपुरुषके शरीरका अधिष्ठात्रत्व है तथापि, सुस्थित सर्वांगता, लावण्य आदि आत्माके गुण नहीं हैं इसलिये तीर्थंकरकेवलीपुरुषके उन गुणोंका अभाव है।
अब, (तीर्थंकर-केवलीकी) निश्चयस्तुति कहते हैं। उसमें पहले ज्ञेय-ज्ञायकके संकरदोषका परिहार करके स्तुति करते हैं :---
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पूर्वरंग
६७
जो इंदिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं। तं खलु जिदिदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू।। ३१ ।। य इन्द्रियाणि जित्वा ज्ञानस्वभावाधिकं जानात्यात्मानम्। तं खलु जितेन्द्रियं ते भणन्ति ये निश्चिताः साधवः ।। ३१ ।।
यः खलु निरवधिवन्धपर्यायवशेन प्रत्यस्तमितसमस्तस्वपरविभागानि निर्मलभेदाभ्यासकौशलोपलब्धान्तःस्फुटातिसूक्ष्मचित्स्वभावावष्टम्भबलेन शरीरपरिणामापन्नानि द्रव्येन्द्रियाणि, प्रतिविशिष्टस्वस्वविषयव्यवसायितया खण्डश: आकर्षन्ति प्रतीयमानाखण्डैकचिच्छक्तितया
भावेन्द्रियाणि, ग्राह्यग्राहकलक्षणसम्बन्धप्रत्यासत्तिवशेन सह संविदा परस्परमेकीभूतानिव चिच्छक्ते: स्वयमेवानुभूयमानासङ्गतया भावेन्द्रियावगृह्यमाणान् स्पर्शादीनिन्द्रियार्थांश्च सर्वथा स्वतः पृथक्करणेन
कर इन्द्रियजय ज्ञानस्वभाव रु, अधिक जाने आत्मको। निश्चय विर्षे स्थित साधुजन, भाषै जितेन्द्रिय उन्हींको।।३१।।
गाथार्थ:- [ यः ] जो [ इन्द्रियाणि ] इंद्रियोको [ जित्वा ] जीतकर [ ज्ञानस्वभावाधिकं ] ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्यद्रव्यसे अधिक [ आत्मानम् ] आत्माको [ जानाति] जानते हैं [ तं] उन्हें, [ये निश्चिताः साधवः ] जो निश्चयनयमें स्थित साधु हैं [ ते ] वे , [खलु ] वास्तवमें [ जितेन्द्रियं ] जितेंद्रिय [ भणन्ति ] कहते हैं।
टीका- (जो मुनि द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इंद्रियोंके विषयभूत पदार्थों को-तीनोंको अपनेसे अलग करके समस्त अन्यद्रव्योंसे भिन्न अपने आत्माका अनुभव करते हैं वे मुनि निश्चयसे जितेन्द्रिय हैं।) अनादि अमर्यादरूप बंधपर्यायके वश जिसमें समस्त स्वपरका विभाग अस्त हो गया है (अर्थात् जो आत्माके साथ ऐसी एकमेक हो रही है कि भेद दिखाई नहीं देता) ऐसी शरीरपरिणामको प्राप्त द्रव्येन्द्रियोंको तो निर्मल भेदाभ्यासकी प्रवीणतासे प्राप्त अंतरंगमें प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभावके अवलंबनके बलसे सर्वथा अपनेसे अलग किया; सो वह द्रव्येन्द्रियोंकों जीतना हुआ। भिन्न भिन्न अपने अपने विषयोंमें व्यापारभावसे जो विषयोंको खंडखंड ग्रहण करती है ( ज्ञानको खंडखंडरूप बतलाती है) ऐसी भावेन्द्रियोंको, प्रतीतिमें आती हुई अखंड एक चैतन्यशक्तिके द्वारा सर्वथा अपनेसे भिन्न जाना सो यह भावेन्द्रियोंका जीतना हुआ। ग्राह्यग्राहकलक्षणवाले संबंधकी निकटताके कारण जो अपने संवेदन (अनुभव) के साथ परस्पर एक जैसी हुई दिखाई देती हैं ऐसी, भावेन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किये हुवे जो इंद्रियोंके विषयभूत स्पर्शादि पदार्थों को, अपनी चैतन्यशक्तिकी स्वयमेव अनुभवमें आनेवाली असंगता के द्वारा सर्वथा अपने से अलग किया;
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समयसार
६८
विजित्योपरतसमस्तज्ञेय-ज्ञायकसङ्करदोषत्वेनैकत्वे टोत्कीर्ण विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षोद्योततया नित्यमेवान्तःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतःसिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन सर्वेभ्यो द्रव्यान्तरेभ्यः परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मानं सञ्चेतयते स खलु जितेन्द्रियो जिन इत्येका निश्चयस्तुतिः। अथ भाव्यभावकसङ्करदोषपरिहारेण
जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आद। तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया बेंति।। ३२ ।।
यो मोहं तु जित्वा ज्ञानस्वभावाधिकं जानात्यात्मानम्। तं जितमोहं साधुं परमार्थविज्ञायका ब्रुवन्ति।। ३२ ।।
सो यह इंद्रियोंके विषयभूत पदार्थों का जीतना हुआ। इसप्रकार जो (मुनि) द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इंद्रियों के विषयभूत पदार्थोंको (तीनोंको) जीतकर, ज्ञेयज्ञायक-संकर नामक दोष आता था सो सब दूर होनेसे एकत्वमें टंकोत्कीर्ण और ज्ञानस्वभावके द्वारा सर्व अन्यद्रव्योंसे परमार्थसे भिन्न ऐसे अपने आत्माका अनुभव करते हैं वे निश्चयसे जितेन्द्रिय जिन हैं। (ज्ञानस्वभाव अन्य अचेतन द्रव्योंमें नहीं है इसलिये उनके द्वारा आत्मा सबसे अधिक, भिन्न ही है।) कैसा है वह ज्ञान स्वभाव ? विश्वके ( समस्त पदार्थों के ) ऊपर तिरता हुआ ( उन्हें जानता हुआ भी उनरूप न होता हुआ), प्रत्यक्ष उधोतपनेसे सदा अंतरंगमें प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वतःसिद्ध और परमार्थरूप-ऐसा भगवान ज्ञानस्वभाव है।
इसप्रकार एक निश्चयस्तुति तो यह हुई। (ज्ञेय तो द्रव्येंद्रियों, भावेंद्रियों तथा इंद्रियोंके विषयभूत पदार्थोंका और ज्ञायक स्वरूप स्वयं आत्माका-दोनोंका अनुभव, विषयोंकी आसक्तिसे, एकसा होता था; जब भेदज्ञानसे भिन्नत्व ज्ञात किया तब ज्ञेयज्ञायक-संकरदोष दूर हुआ ऐसा यहाँ जानना।)
अब , भाव्यभावक-संकरदोष दूर करके स्तुति कहते हैं :
कर मोहजय ज्ञानस्वभावरु , अधिक जाने आत्मा।
परमार्थ विज्ञायक पुरुष ने, उन हि जितमोही कहा।। ३२।। गाथार्थ:- [ यः तु] जो मुनि [ मोहं] मोहको [ जित्वा ] जीतकर [ आत्मानम् ] अपने आत्माको [ ज्ञानस्वभावाधिकं] ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्यद्रव्यभावोंसे अधिक [ जानाति ] जानता है [ तं साधुं ] उस मुनिको [ परमार्थविज्ञायकाः] परमार्थके जानने वाला [ जितमोहं] जितमोह [ब्रुवन्ति ] कहते हैं।
टंकोत्कीर्ण = पत्थरमें कोरी मूर्तिके जैसे एकाकार जैसा का वैसा स्थित।
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पूर्वरंग
यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवन्तमपि दूरत एव तदनुवृत्तेरात्मनो
भाव्यस्य व्यावर्तनेन
हठान्मोहं न्यक्कृत्योपरतसमस्तभाव्यभावकसङ्करदोषत्वेनैकत्वे टङ्कोत्कीर्णं विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षोद्योततया नित्यमेवान्तःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतःसिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन द्रव्यान्तरस्वभावभाविभ्यः सर्वेभ्यो भावान्तरेभ्यः परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मानं सञ्चेतयते स खलु जितमोहो जिन इति द्वितीया निश्चयस्तुतिः।
___ एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायसूत्राण्येकादश पञ्चानां श्रोत्रचक्षुर्धाणरसनस्पर्शनसूत्राणा-मिन्द्रियसूत्रेण पृथग्व्याख्यात- त्वाद्व्याख्येयानि। अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि।
अथ भाव्यभावकभावाभावेन
टीका:- मोहकर्म फल देनेकी सामर्थ्यसे प्रगट उदयरूप होकर भावकपनेसे प्रगट होता है तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है ऐसा जो अपना आत्मा-भाव्य, उसको भेदज्ञानके बल द्वारा दूरसे ही अलग करनेसे इसप्रकार बलपूर्वक मोहका तिरस्कार करके, समस्त भाव्यभावक-संकरदोष दूर हो जानेसे एकत्वमें टंकोत्कीर्ण (निश्चल) और ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्यद्रव्योंके स्वभावोंसे होनेवाले सर्व अन्यभावोंसे परमार्थतः भिन्न अपने आत्माको जो (मुनि) अनुभव करते हैं वे निश्चयसे जितमोह जिन (जिसने मोहको जीता है) हैं। कैसा है वह ज्ञानस्वभाव ? समस्त लोकके ऊपर तिरता हुआ, प्रत्यक्ष उधोतरूपसे सदा अंतरंगमें प्रकाशमान, अविनाशी, अपनेसे ही सिद्ध और परमार्थरूप ऐसा भगवान ज्ञानस्वभाव है।
इसप्रकार भाव्यभावक भावके संकरदोषको दूर करके दूसरी निश्चयस्तुति है।
इस गाथासूत्रमें एक मोहका ही नाम लिया है; उसमें 'मोह' पदको बदलकर उसके स्थानपर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय रखकर ग्यारह सूत्र व्याख्यानरूप करना और श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन-इन
सत्रोंको इंद्रियसत्रके द्वारा अलग व्याख्यानरूप करना; इसप्रकार सोलह सत्रों को भिन्न भिन्न व्याख्यानरूप करना और इस उपदेशसे अन्यभी विचार लेना।
भावार्थ:- भावक मोहके अनुसार प्रवृति करनेसे अपना आत्मा भाव्यरूप होता है उसे भेदज्ञानके बलसे भिन्न अनुभव करनेवाले जितमोह जिन हैं। यहाँ ऐसा आशय है कि श्रेणी चढ़ते हुए मोहका उदय अनुभवमें न रहे और जो अपने बलसे उपशमादि करके आत्मानुभव करता है उसे जितमोह कहा है; यहाँ मोहको जीता है; उसका नाश नहीं हुआ है।
पाँच
अब , भाव्यभावक भावके अभावसे निश्चयस्तुति कहते हैं :--
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समयसार
७०
जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हवेज्ज साहुस्स। तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविहिं।। ३३ ।।
जितमोहस्य तु यदा क्षीणो मोहो भवेत्साधोः।
तदा खलु क्षीणमोहो भण्यते स निश्चयविद्भिः।। ३३ ।। इह खलु पूर्वप्रक्रान्तेन विधानेनात्मनो मोहं न्यक्कृत्य यथोदितज्ञानस्वभावातिरिक्तात्मसञ्चेतनेन
जितमोहस्य
सतो
यदा स्वभावभावभावनासौष्ठवावष्टम्भात्तत्सन्तानात्यन्तविनाशेन पुनरप्रादुर्भावाय भावक: क्षीणो मोहः स्यात्तदा स एव भाव्यभावकभावाभावेनैकत्वे टङ्कोत्कीर्ण परमात्मानमवाप्त: क्षीणमोहो जिन इति तृतीया निश्चयस्तुतिः।
एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनो वचनकाय -श्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि। अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि।
जितमोह साधुपुरुष का जब, मोह क्षय हो जाय है। परमार्थ विज्ञायक पुरुष, क्षीणमोह तब उनको कहे ।।३३।।
गाथार्थ:- [ जितमोहस्य तु साधोः] जिसने मोहको जीत लिया है, ऐसे साधुके [ यदा] जब [क्षीण: मोहः ] मोह क्षीण होकर सत्तामेंसे नष्ट [भवेत् ] हो [तदा] तब [ निश्चयविद्भिः ] निश्चयके जाननेवाले [ खलु ] निश्चयसे [ सः] उस साधुको [ क्षीणमोहः ] 'क्षीणमोह' नामसे [ भण्यते ] कहते हैं।
टीका:- इस निश्चयस्तुतिमें पूर्वोक्त विधानसे आत्मामेंसे मोहका तिरस्कार करके, पूर्वोक्त ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्यद्रव्यसे अधिक आत्माका अनुभव करनेसे जो जितमोह हुआ है, उसे जब अपने स्वभावभावकी भावनाका भलीभाँति अवलंबन करने से मोहकी संततिका ऐसा आत्यंतिक विनाश हो कि फिर उसका उदय न हो-इस प्रकार भावकरूप मोह क्षीण हो, तब (भावक मोहका क्षय होनेसे आत्माके विभावरूप भाव्यभावका अभाव होता है, और इसप्रकार) भाव्यभावक भावका अभाव होनेसे एकत्व होनेसे टंकोत्कीर्ण (निश्चल) परमात्माको प्राप्त हुआ वह 'क्षीणमोह जिन' कहलाता है। यह तीसरी निश्चयस्तुति है।
यहाँ भी पूर्व कथनानुसार 'मोह' पदको बदलकर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्श-इन पदोंको रखकर सोलह सुत्रोंका व्याख्यान करना और इसप्रकारके उपदेशसे अन्य भी विचार लेना।
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पूर्वरंग
७१
(शार्दूलविक्रीडित) एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोर्निश्चयानुः स्तोत्र व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः। स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवेन्नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्माङ्गयोः ।। २७।।
(मालिनी) इति परिचिततत्त्वैरात्मकायैकतायां नयविभजनयुक्त्यात्यन्तमुच्छादितायाम्। अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फुटन्नेक एव।। २८ ।।
भावार्थ:-साधु पहले अपने बलसे उपशम भावके द्वारा मोहको जीतकर, फिर जब अपनी महा सामर्थ्यसे मोहको सत्तामेंसे नष्ट करके ज्ञानस्वरूप परमात्माको प्राप्त होते हैं तब वे क्षीणमोह जिन कहलाते हैं।
अब यहाँ इस निश्चय-व्यवहाररूप स्तुतिके अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [कायात्मनोः व्यवहारतः एकत्वं] शरीर और आत्माके व्यवहारनयसे एकत्व है [तु पुनः ] किन्तु [ निश्चयात् न] निश्चयनयसे नहीं है; [वपुषः स्तुत्या नुः स्तोत्रं व्यवहारतः अस्ति ] इसलिये शरीरके स्तवनसे आत्मा-पुरुषका स्तवन व्यवहारनयसे हुआ कहलाता है, [ तत्त्वत: तत् न] निश्चयनयसे नहीं; [ निश्चयत:] निश्चयसे तो [ चित्स्तुत्या एव ] चैतन्यके स्तवनसे ही [चितः स्तोत्रं भवति] चैतन्यका स्तवन होता है। [ सा एवं भवेत् ] उस चैतन्यका स्तवन यहाँ जितेन्द्रिय, जितमोह, क्षीणमोह-इत्यादिरूपसे कहा वैसा है। [अतः तीर्थकर- स्तवोत्तरबलात् ] अज्ञानीने तीर्थंकरके स्तवनका जो प्रश्न किया था उसका इसप्रकार नयविभागसे उत्तर दिया है; जिसके बलसे यह सिद्ध हुआ कि [ आत्म-अङ्गयोः एकत्वं न ] आत्मा और शरीरमें निश्चयसे एकत्व नहीं है।। २७ ।।
अब फिर, इस अर्थके जाननेसे भेदज्ञानकी सिद्धि होती है इस अर्थका सूचक काव्य कहते हैं:--
श्लोकार्थ:- [परिचित-तत्त्वैः ] जिन्होंने वस्तुके यथार्थ स्वरूपको परिचयरूप किया है ऐसे मुनिओंने [आत्म-काय-एकतायां] जब आत्मा और शरीरके एकत्व को [इति नय-विभजन-युक्त्या] इसप्रकार नयविभागकी युक्तिके द्वारा [अत्यन्तम् उच्छादितायाम् ] जड़मूलसे उखाड़ फेंका है- उसका अत्यंत निषेध किया है, तब अपने [ स्व-रस-रभस-कृष्टः प्रस्फुटन् एकः एव ] निजरसके वेगसे आकृष्ट हुए प्रगट होनेवाले एकस्वरूप होकर [ कस्य ] किसी पुरुषको वह [ बोधः ] ज्ञान [ अद्य एव] तत्काल ही [ बोधं ] यथार्थपनेको [न अवतरति ] प्राप्त न होगा ? अवश्य ही होगा।
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समयसार
७२
इत्यप्रतिबुद्धोक्तिनिरासः।
एवमयमनादिमोहसन्ताननिरूपितात्मशरीरैकत्वसंस्कारतयात्यन्तमप्रतिबुद्धोऽपि प्रसभोज्जृम्भिततत्त्वज्ञानज्योतिर्नेत्रविकारीव प्रकटोद्घाटितपटलष्टसितिप्रतिबुद्धः ? साक्षात् द्रष्टारं स्वं स्वयमेव हि विज्ञाय श्रद्धाय च तं चैवानुचरितुकामः स्वात्मारामस्यास्यान्यद्रव्याणां प्रत्याख्यानं किं स्यादिति पृच्छन्नित्थं वाच्यः
सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परे त्ति णादूणं। तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं ।। ३४ ।। सर्वान् भावान् यस्मात्प्रत्याख्याति परानिति ज्ञात्वा। तस्मात्प्रत्याख्यानं ज्ञानं नियमात् ज्ञातव्यम्।।३४ ।।
भावार्थ:-निश्चय-व्यवहारनयके विभागसे आत्माका और परका अत्यंत भेद बताया है; उसे जानकर, ऐसा कौन पुरुष है कि जिसे भेदज्ञान न हो ? होता ही है; क्योंकि जब ज्ञान अपने स्वरससे स्वयं अपने स्वरूपको जानता है, तब अवश्य ही वह ज्ञान अपने आत्माको परसे भिन्न ही बतलाता है। कोई दीर्घसंसारी ही हो तो उसकी यहाँ कोई बात नहीं है।। २८ ।।
इसप्रकार, अप्रतिबुद्धने जो यह कहा था कि -" हमारा तो यह निश्चय है कि शरीर ही आत्मा है", उसका निराकरण किया।
इसप्रकार यह अज्ञानी जीव अनादिकालीन मोहके संतानसे निरूपित आत्मा और शरीरके एकत्वके संस्कारपसे अत्यंत अप्रतिबुद्ध था वह अब तत्त्वज्ञानस्वरूप ज्योतिके प्रगट उदय होनेसे नेत्रके विकारकी भाँति (जैसे किसी पुरुषकी आँखोंमें विकार था तब उसे वर्णादिक अन्यथा दीखते थे और जब नेत्र विकार दूर हो गया तब वे ज्योंके त्यों-दिखाई देने लगे, इसीप्रकार) पटल समान आवरणकर्मोंके भली भाँति उघड़ जानेसे प्रतिबुद्ध हो गया और साक्षात् द्रष्टा आपको अपनेसे ही जानकर तथा श्रद्धान करके उसीका आचरण करनेका इच्छुक होता हुआ पूछता है कि 'इस आत्मारामको अन्य द्रव्योंका प्रत्याख्यान (त्यागना) क्या है ?' उसको आचार्य इस प्रकार कहते हैं :--
सब भाव पर ही जान , प्रत्याख्यान भावोंका करे। इससे नियमसे जानना कि, ज्ञान प्रत्याख्यान है।।३४।।
गाथार्थ:- [यस्मात् ] जिससे [ सर्वान् भावान् ] ‘अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थोंको [परान् ] पर हैं' [ इति ज्ञात्वा] ऐसा जानकर [ प्रत्याख्याति] प्रत्याख्यान करता है, [तस्मात् ] उससे, [ प्रत्याख्यानं] प्रत्याख्यान [ज्ञानं] ज्ञान ही है [ नियमात् ] ऐसा नियमसे [ ज्ञातव्यम् ] जानना। अपने ज्ञानमें त्यागरूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है, दूसरा कुछ नहीं।
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पूर्वरंग
यतो हि द्रव्यान्तरस्वभावभाविनोऽन्यानखिलानपि भावान् भगवज्ज्ञातृद्रव्यं स्वस्वभावभावाव्याप्यतया परत्वेन ज्ञात्वा प्रत्याचष्टे, ततो य एव पूर्वं जानाति स एव पश्चात्प्रत्याचष्टे, न पुनरन्य इत्यात्मनि निश्चित्य प्रत्याख्यानसमये प्रत्याख्येयोपाधिमात्रप्रवर्तितकर्तृत्वव्यपदेशत्वेऽपि परमार्थेनाव्यपदेश्यज्ञानस्वभावादप्रच्यवनात् प्रत्याख्यानं ज्ञानमेवेत्यनुभवनीयम्।
अथ ज्ञातुः प्रत्याख्याने को दृष्टान्त इत्यत आह
जह णाम को वि पुरिसो परदव्वमिणं ति जाणिदुं चयदि। तह सव्वे परभावे णाऊण विमुंचदे णाणी ।। ३५ ।। यथा नाम कोऽपि पुरुष: परद्रव्यमिदमिति ज्ञात्वा त्यजति।
तथा सर्वान् परभावान् ज्ञात्वा विमुञ्चति ज्ञानी ।। ३५ ।।
७३
टीका:- यह भगवान ज्ञाता - द्रव्य ( आत्मा ) है वह अन्यद्रव्यके स्वभावसे होने वाले अन्य समस्त परभावोंको, उनके अपने स्वभावभावसे व्याप्त न होनेसे पररूप जानकर, त्याग देता है; इसलिये जो पहले जानता है वही बाद में त्याग करता है, अन्य तो कोई त्याग करनेवाला नहीं है - इसप्रकार आत्मामें निश्चय करके, प्रत्याख्यान के ( त्यागके ) समय प्रत्याख्यान करने योग्य परभावकी उपाधिमात्रसे प्रवर्तमान त्याग के कर्तृत्वका नाम (आत्माको ) होनेपर भी, परमार्थसे देखा जाये तो परभावके त्याग - कर्तृत्वका नाम अपनेको नहीं है, स्वयं तो इस नामसे रहित है क्योंकि ज्ञानस्वभावसे स्वयं छूटा नहीं है, इसलिये प्रत्याख्यान ज्ञान ही है - ऐसा अनुभव करना चाहिये । भावार्थ:-आत्माको परभावके त्यागका कर्तृत्व है वह नाममात्र है। यह स्वयं तो ज्ञानस्वभाव है। परद्रव्यको पर जाना, और फिर परभावका ग्रहण न करना वही त्याग है। इसप्रकार, स्थिर हुआ ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ज्ञान के अतिरिक्त दूसरा कोई भाव नहीं है।
अब यहाँ यह प्रश्न होता है कि ज्ञाताका प्रत्याख्यान, ज्ञान ही कहा है तो उसका दृष्टांत क्या है ? उसके उत्तरमें दृष्टांत - दाष्टतरूप गाथा कहते हैं:
ये और का है जानकर, परद्रव्यको को नर तजे । त्यों और के हैं जानकर, परभाव ज्ञानी परित्यजे ।। ३५ ।।
गाथार्थ:- [ यथा नाम ] जैसे लोकमें [ कः अपि पुरुषः ] कोई पुरुष [ परद्रव्यम् इदम् इति ज्ञात्वा ] परवस्तुको 'यह परवस्तु है' ऐसा जाने तो ऐसा जानकर [ त्यजति ] परवस्तुका त्याग करता है, [ तथा ] उसीप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी पुरुष [ सर्वान् ] समस्त [ परभावान् ] परद्रव्योंके भावोंको [ ज्ञात्वा ] 'यह परभाव है ' ऐसा जानकर [ विमुञ्चति ] उनको छोड़े देता है।
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समयसार
७४
यथा हि कश्चित्पुरुषः सम्भ्रान्त्या रजकात्परकीयं चीवरमादायात्मीय- प्रतिपत्त्या परिधाय शयान: स्वयमज्ञानी सन्नन्येन तदञ्चलमालम्ब्य बलान्नग्नीक्रियमाणो मंक्षु प्रतिबुध्यस्वार्पय परिवर्तितमेतद्वस्त्रं मामकमित्यसकृद्वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिकैः सुष्टु परीक्ष्य निश्चितमेतत्परकीयमिति ज्ञात्वा ज्ञानी सन् मुञ्चति तचीवरमचिरात्, तथा ज्ञातापि सम्भ्रान्त्या परकीयान्भावानादायात्मीयप्रतिप-त्यात्मन्यध्यास्य शयान: स्वयमज्ञानी सन् गुरुणा परभावविवेकं कृत्वैकी क्रियमाणो मंक्षु प्रतिबुध्यस्वैक: खल्वयमात्मेत्यसकृच्छौतं वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिदै : सुष्टु परीक्ष्य निश्चितमेते परभावा इति ज्ञात्वा ज्ञानी सन् मुञ्चति सर्वान्परभावानचिरात्।
टीका:-जैसे कोई पुरुष धोबीके घरसे भ्रमवश दूसरेका वस्त्र लाकर, उसे अपना समझकर ओढ़कर सो रहा है और अपने आप ही अज्ञानी (-यह वस्त्र दूसरेका है ऐसे ज्ञान से रहित) हो रहा है; (किन्तु) जब दूसरा व्यक्ति उस वस्त्रका छोर ( पल्ला) पकड़कर खींचता है और उसे नग्न कर कहता है कि 'तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह मेरा वस्त्र बदलेमें आगया है, यह मेरा है सो मुझे देदे', तब बारंबार कहे गये इस वाक्यको सुनता हुआ वह, ( उस वस्त्रके) सर्व चिह्नोंसे भलीभाँति परीक्षा करके, “अवश्य यह वस्त्र दूसरेका ही है' ऐसा जानकर, ज्ञानी होता हुआ, उस (दूसरेके) वस्त्रको शीघ्र ही त्याग देता है। इसीप्रकार-ज्ञाता भी भ्रमवश परद्रव्यके भावोंको ग्रहण करके, उन्हें अपना जानकर, अपनेमें एकरूप करके सो रहा है और अपने आप अज्ञानी हो रहा है; जब श्री गरु परभावका विवेक (भेदज्ञान) करके उसे एक आत्मभावरूप करते हैं और कहते हैं कि 'तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा आत्मा वास्तवमें एक (ज्ञानमात्र) ही है, (अन्य सर्व परद्रव्यके भाव हैं), ' तब बारंबार कहे गये इस आगमके वाक्यको सुनता हुआ वह, समस्त (स्व-परके) चिह्नोंसे भलीभाँति परीक्षा करके, 'अवश्य यह परभाव ही हैं, ( मैं एक ज्ञानमात्र ही हूँ)' यह जानकर, ज्ञानी होता हुआ , सर्व परभावोंको तत्काल छोड़ देता है।
भावार्थ:-जबतक परवस्तुको भूलसे अपनी समझता है तभी तक ममत्व रहता है; और जब यथार्थ ज्ञान होने से परवस्तु को दूसरे की जानता है तब दूसरे की वस्तुमें ममत्व कैसे रहेगा ? अर्थात् नहीं रहे यह प्रसिद्ध है।
अब इसी अर्थ का सूचक कलशरूप काव्य कहते हैं :--
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पूर्वरंग
( मालिनी )
अवतरति न यावद् वृत्तिमत्यन्तवेगादनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः। झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव।। २९ ।। अथ कथमनुभूतेः परभावविवेको भूत इत्याशङ्क्य भावकभावविवेकप्रकारमाह
त्थि मम को विमोहो बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को । तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ।। ३६ ।। नास्ति मम कोऽपि मोहो बुध्यते उपयोग एवाहमेक: । तं मोहनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति ।। ३६ ।।
श्लोकार्थ:- [ अपर-भाव - त्याग – दृष्टान्त-दृष्टि: ] यह परभावके त्यागके दृष्टान्त की दृष्टि, [अनवम् अत्यन्त-वेगात् यावत् वृत्तिम् न अवतरति ] पुरानी न हो इसप्रकार अत्यंत वेगसे जबतक प्रवृत्तिको प्राप्त न हो, [ तावत्] उससे पूर्व ही [झटिति ] तत्काल [ सकल - भावैः अन्यदीयैः विमुक्ता ] सकल अन्यभावोंसे रहित [ स्वयम् इयम् अनुभूतिः ] स्वयं ही यह अनुभूति तो [ आविर्बभूव ] प्रगट हो जाती है। भावार्थ:-यह परभावके त्यागका दृष्टांत कहा उसपर दृष्टि पड़े उससे पूर्व, समस्त अन्यभावोंसे रहित अपने स्वरूपका अनुभवतो तत्काल हो गया; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि वस्तुको परकी जान लेनेके बाद ममत्व नहीं रहता ।। २९।।
अब, 'इस अनुभूतिसे परभावका भेदज्ञान कैसे हुआ ?' ऐसी आशंका करके, पहले तो जो भावकभाव - मोहकर्मके उदयरूप भाव, उसके भेदज्ञानका प्रकार कहते हैं:
कुछ मोह वो मेरा नहीं, उपयोग केवल एक है।
इस ज्ञानको ज्ञायक समयके, मोहनिर्ममता कहे ।। ३६ ।।
७५
*गाथार्थ:- [ बुध्यते ] जो यह जाने कि [ मोहः मम कः अपि नास्ति ] 'मोह मेरा कोई भी (संबंधी ) नहीं है, [ एक: उपयोगः एव अहम् ] एक उपयोग ही मैं हूँ'[तं ] ऐसे जानने को [ समयस्य ] सिद्धांतके अथवा स्वपर स्वरूपके [ विज्ञायका: ] जाननेवाले [ मोहनिर्ममत्वं ] मोहसे निर्ममत्व [ ब्रुवन्ति ] कहते हैं।
।
* इस गाथाका दूसरा अर्थ यह भी है कि: - ' किंचितमात्र मोह मेरा नहीं है, मैं एक हूँ' ऐसा उपयोग ही ( - आत्मा ही ) जाने, उस उपयोगको (-आत्माको ) समयके जाननेवाले मोहके प्रति निर्मल ( ममता रहित ) कहते हैं।
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समयसार
७६
इह खलु फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकेन सता पुद्गलद्रव्येणाभि-निर्वर्त्यमानष्टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकस्वभावभावस्य परमार्थत: परभावेन भावयितुमशक्यत्वात्कतमोऽपि न नाम मम मोहोऽस्ति। किञ्चेतत्स्वयमेव च विश्वप्रकाशचंचुरविकस्वरानवरतप्रतापसम्पदा चिच्छक्तिमात्रेण स्वभावभावेन भगवानात्मैवावबुध्यते यत्किलाहं खल्वेकः ततः समस्तद्रव्याणां परस्परसाधारणावगाहस्य निवारयितुमशक्यत्वात् मज्जितावस्थायामपि दधिखण्डावस्थायामिव परिस्फुटस्वदमानस्वादभेदतया मोहं प्रति निममत्वोऽस्मि, सर्वदैवात्मैकत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थितत्वात्। इतीत्थं भावकभावविवेको भूतः।
टीका:-निश्चयसे, ( यह मेरे अनुभवमें) फलदानकी सामर्थ्यसे प्रगट होकर भावकरूप होनेवाले जो पुद्गलद्रव्यसे रचित मोह मेरा कुछ नहीं लगता, क्योंकि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावभावका परमार्थसे परके भाव द्वारा *भाना अशक्य है।
और यहाँ स्वयमेव, विश्वको (समस्त वस्तुओंको) प्रकाशित करने में चतुर और विकासरूप ऐसी, निरंतर शाश्वत् प्रतापसंपत्तियुक्त है; ऐसा चैतन्यशक्तिमात्र स्वभावभावके द्वारा, भगवान आत्मा ही जानता है कि-परमार्थसे मैं एक हूँ इसलिये, यद्यपि समस्त द्रव्योंके परस्पर साधारण अवगाहका ( –एकक्षेत्रावगाहका) निवारण करना अशक्य होनेसे मेरा आत्मा और जड़, श्रीखंडकी भाँति, एकमेक हो रहे हैं तथापि, श्रीखंडकी भाँति, स्पष्ट अनुभवमें आने वाले स्वादके भेदके कारण, मैं मोहके प्रति निर्मम ही हूँ; क्योंकि सदा अपने एकत्वमें प्राप्त होनेसे समय (आत्मपदार्थ अथवा प्रत्येक पदार्थ) ज्योंका त्यों ही स्थित रहता है। (दही और शक्कर मिलानेसे श्रीखंड बनता है उसमें दही और शक्कर एक जैसे मालूम होते हैं तथापि प्रगटरूप खट्टे-मीठे स्वादके भेदसे भिन्न भिन्न जाने जाते हैं; इसीप्रकार द्रव्योंके लक्षणभेदसे जड़-चेतनके भिन्न भिन्न स्वादके कारण ज्ञात होता है कि मोहकर्मके उदयका स्वाद रागादिक है वह चैतन्यके निजस्वभावके स्वादसे भिन्न ही है।) इसप्रकार भावकभाव जो मोहका उदय उससे भेदज्ञान हुवा।
भावार्थ:-यह मोहकर्म जड़ पुद्गलद्रव्य है; उसका उदय कलुष ( मलिन) भावरूप है; वह भाव भी, मोहकर्मका भाव होनेसे, पुद्गलका ही विकार है। यह भावकका भाव जब चैतन्यके उपयोगके अनुभवमें आता है तब उपयोग भी विकारी होकर रागादिरूप मलिन दिखाई देता है। जब उसका भेदज्ञान हो कि 'चैतन्यकी शक्तिकी व्यक्ति तो ज्ञानदर्शनोपयोगमात्र है और यह कलुषता राग-द्वेषमोहरूप है वह द्रव्यकर्मरूप जड़ पुद्गलद्रव्यकी है', तब भावकभाव जो द्रव्यकर्मरूप मोहके भाव उससे अवश्य भेदज्ञान होता है और आत्मा अवश्य अपने चैतन्यके अनुभवरूप स्थित होता है।
* भाना = बनाना; भाव्यरूप करना।
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पूर्वरंग
७७
(स्वागता) सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम्। नास्ति नास्ति मम कश्चन मोह: शुद्धचिद्धनमहोनिधिरस्मि।। ३० ।।
एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि। अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि।
अथ शेयभावविवेकप्रकारमाह
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते है:---
श्लोकार्थ:- [इह ] इस लोकमें [अहं] मैं [ स्वयं] स्वतः ही [ एकं स्वं] अपने एक आत्मस्वरूपका [ चेतये] अनुभव करता हूँ, [ सर्वतः स्व-रस-निर्भर-भावं] जो स्वरूप सर्वतः अपने निजरसरूप चैतन्यके परिणमनसे पूर्ण भरे हुए भाववाला है; इसीलिये यह [ मोहः ] मोह [ मम ] मेरा [ कश्चन नास्ति नास्ति ] कुछ भी नहीं लगता अर्थात् इसका और मेरा कोई भी सम्बन्ध नहीं है। [शुद्ध-चिद्-घन-मह:-निधिः अस्मि ] मैं तो शुद्ध चैतन्यके समूहरूप तेजःपुंजका निधि हूँ। (भावभावकके भेद से ऐसा अनुभव करे।)।। ३०।।
इसीप्रकार गाथामें जो 'मोह' पद है उसे बदलकर, राग, द्वेष , क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु , ध्राण, रसन, स्पर्शन-इन सोलह पदोंके भिन्न भिन्न सोलह गाथासूत्र व्याख्यान करना, और इसी उपदेशसे अन्य भी विचार कर लेना।
अब ज्ञेयभावके भेदज्ञानका प्रकार कहते हैं :---
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समयसार
७८
णत्थि मम धम्मआदी बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति।।३७ ।।
नास्ति मम धर्मादिर्बुध्यते उपयोग एवाहमेकः।
तं धर्मनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति।। ३७ ।। अमूनि हि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवान्तराणि स्वरसविजृम्भितानिवारितप्रसरविश्वघस्मरप्रचण्डचिन्मात्रशक्तिकवलिततयात्यन्तमन्तर्मग्नानीवात्मनि प्रकाशमानानि टङ्कोत्कीर्णंकज्ञायकस्वभावत्वेन तत्त्वतोऽन्तस्तत्त्वस्य तदतिरिक्तस्वभावतया तत्त्वतो बहिस्तत्त्वरूपतां परित्यक्तुमशक्यत्वान्न नाम मम सन्ति। किञ्चैतत्स्वयमेव च नित्यमेवोपयुक्तस्तत्त्वत एवैकमनाकुलमात्मानं कलयन् भगवानात्मैवावबुध्यते
यत्किलाहं खल्वेक:
ततः संवेद्यसंवेदकभावमात्रोपजातेतरेतरसंवलनेऽपि परिस्फुटस्वदमान
धर्मादि वे मेरे नहीं, उपयोग केवल एक है। -इस ज्ञानको, ज्ञायक समयके धर्मनिर्ममता कहे।। ३७।।
*गाथार्थ:- [ बुध्यते ] यह जाने कि [धर्मादिः ] ' यह धर्म आदि द्रव्य [ मम नास्ति ] मेरे कुछ भी नहीं लगते, [ एकः उपयोगः एव ] एक उपयोग ही [अहम् ] मैं हूँ'- [तं] ऐसा जानने को [ समयस्य विज्ञायकाः] सिद्धांतके अथवा स्वपरके स्वरूपरूप समयके जानने वाले [धर्मनिर्ममत्वं] धर्मद्रव्यके प्रति निर्ममत्व [ब्रुवन्ति ] जानते हैं---कहते हैं।
टीका:- अपने निजरससे जो प्रगट हुई है, जिसका विस्तार अनिवार है तथा समस्त पदार्थों को ग्रसित करने का जिसका स्वभाव है ऐसी प्रचंड चिन्मात्रशक्तिके द्वारा ग्रासीभूत किये जाने से, मानों अत्यंत अंतर्मग्न हो रहे हों-ज्ञानमें तदाकार होकर डूब रहे हों इसप्रकार आत्मामें प्रकाशमान यह धर्म, अधर्म, आकाश, काल , पुद्गल , अन्य जीव-ये समस्त परद्रव्य मेरे संबंधी नहीं हैं; क्योंकि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावत्वसे परमार्थतः अंतरंगतत्त्व तो मैं हूँ और वे परद्रव्य मेरे स्वभावसे भिन्न स्वभाववाले होनेसे परमार्थतः बाह्यतत्त्वरूपता को छोड़ने के लिये असमर्थ हैं (क्योंकि वे अपने स्वभावका अभाव करके ज्ञानमें प्रविष्ट नहीं होते) । और यहाँ स्वयमेव, (चैतन्यमें) नित्य उपयुक्त और परमार्थसे एक, अनाकुल आत्माका अनुभवकरता हुआ भगवान आत्मा ही जानता है कि-मैं प्रगट निश्चयसे एक ही हूँ, ज्ञेयज्ञायकभावमात्रसे उत्पन्न परद्रव्यों के साथ परस्पर मिलन होनेपर भी, प्रगट स्वादमें आते
* इस गाथाका अर्थ ऐसा भी होता है:--'धर्म आदि द्रव्य मेरे नहीं हैं, मैं एक हूँ' ऐसा उपयोग ही जाने , उस उपयोगको समयके जाननेवाले धर्म प्रति निर्मम कहते हैं।
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पूर्वरंग
स्वाभावभेदतया
प्रति
निर्ममत्वोऽस्मि,
धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवान्तराणि सर्वदैवात्मैकत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थितत्वात्। इतीत्थं ज्ञेयभावविवेको भूतः ।
( मालिनी )
इति सति सह सर्वैरन्यभावैर्विवेके स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकम्। प्रकटितपरमार्थैर्दर्शनज्ञानवृत्तैः
कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्तः।। ३१ ।।
दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतस्यास्यात्मनः
अथैवं भवतीत्यावेदयन्नुपसंहरति
कीदृक् स्वरूपसञ्चेतनं
अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारुवी । ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि ।। ३८ ।।
७९
हुये स्वभावके कारण धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवोंके प्रति मैं निर्मम हूँ; क्योंकि सदा ही अपने एकत्वमें प्राप्त होनेसे समय ( आत्मपदार्थ अथवा प्रत्येक पदार्थ) ज्योंका त्यों ही स्थित रहता है; ( अपने स्वभावको कोई नहीं छोड़ता )। इसप्रकार ज्ञेयभावों से भेदज्ञान हुआ ।
यहाँ इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ :- [इति ] इसप्रकार पूर्वोक्तरूपसे भावकभाव और ज्ञेयभावों से भेदज्ञान होनेपर जब [ सर्वैः अन्यभावैः सह विवेके सति ] सर्व अन्यभावोंसे भिन्नता हुई तब [ अयं उपयोगः] यह उपयोग [ स्वयं ] स्वयं ही [ एकं आत्मानम्] अपने एक आत्माको ही [ बिभ्रत् ] धारण करता हुआ, [ प्रकटितपरमार्थेः दर्शनज्ञानवृत्तैः कृतपरिणतिः ] जिनका परमार्थ प्रगट हुआ है ऐसे दर्शनज्ञानचारित्रसे जिसने परिणति की है ऐसा, [आत्म- आरामे एव प्रवृत्तः ] अपने आत्मारूपी बाग ( क्रीड़ावन) में प्रवृत्ति करता है, अन्यत्र नहीं जाता।
भावार्थ:-सर्व परद्रव्योंसे तथा उनसे उत्पन्न हुए भावोंसे जब भेद जाना तब उपयोगके रमणके लिये अपना आत्मा ही रहा, अन्य ठिकाना नहीं रहा । इसप्रकार दर्शनज्ञान - चारित्र के साथ एकरूप हुआ वह आत्मा में ही रमण करता है ऐसा
जानना।। ३१।।
मैं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञानदृग हूँ यथार्थ से। कुछ अन्य वो मेरा तनिक, परमाणुमात्र नही अरे ! ।। ३८ ।।
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समयसार
८०
अहमेक: खलु शुद्धो दर्शनज्ञानमयः सदाऽरूपी। नाप्यस्ति मम किञ्चिदप्यन्यत्परमाणुमात्रमपि।।३८ ।।
___ यो हि नामानादिमोहोन्मत्ततयात्यन्तमप्रतिबुद्धः सन् निर्विण्णेन गुरुणानवरतं प्रतिबोध्यमानः कथञ्चनापि प्रतिबुध्य निजकरतलविन्यस्त-विस्मृतचामीकराव - लोकनन्यायेन परमेश्वरमात्मानं ज्ञात्वा श्रद्धायानुचर्य च सम्यगेकात्मारामो भूत: स खल्वहमात्मात्मप्रत्यक्षं चिन्मात्रं ज्योतिः, समस्तक्रमाक्रमप्रवर्तमानव्यावहारिक भावैश्चिन्मात्राकारेणाभिद्यमानत्वादेकः, नारकादिजीवविशेषाजीवपुण्यपापानवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणव्यावहारिक-नवतत्त्वेभ्यष्टोत्कीर्णेकज्ञायकस्वभावभावेनात्यन्तविविक्तत्वाच्छुद्धः, चिन्मात्रतया सामान्यविशेषोपयोगात्मकतानतिक्रमणादर्शनज्ञानमयः, स्पर्श-रसगन्धवर्णनिमित्तसंवेदनपरिणतत्वेऽपि स्पर्शादिरूपेण स्वयमपरिणमनात्परमार्थतः
अब, इसप्रकार दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप परिणत आत्माको स्वरूपका संचेतन कैसे होता है यह कहते हुए आचार्य इस कथनको समेटते हैं:---
गाथार्थ:- दर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणत आत्मा यह जानता है कि--- [ खलु ] निश्चयसे [ अहम् ] मैं [ एक:] एक हूँ, [शुद्धः ] शुद्ध हूँ, [ दर्शनज्ञानमयः] दर्शनज्ञानमय हूँ, [ सदा अरूपी] सदा अरूपी हूँ; [ किञ्चित् अपि अन्यत् ] किंचित्मात्र भी अन्य परद्रव्य [ परमाणुमात्रम् अपि] परमाणुमात्र भी [ मम न अपि अस्ति ] मेरा नहीं है यह निश्चय है।
टीका:-जो, अनादि मोहरूप अज्ञानसे उन्मत्तताके कारण अत्यंत अप्रतिबुद्ध था और विरक्त गुरुसे निरंतर समझाये जानेपर जो किसी प्रकार से समझकर, सावधान होकर, जैसे कोई (पुरुष) मुट्ठीमें रखे हुए सोनेको भूल गया हो और फिर स्मरण करके उस सोनेको देखे इस न्यायसे, अपने परमेश्वर (सर्व सामर्थ्य के धारक) आत्माको भूल गया था उसे जानकर, उसका श्रद्धान कर और उसका आचरण करके (-उसमें तन्मय होकर) जो सम्यक् प्रकारसे एक आत्माराम हुआ, वह मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि--मैं चैतन्यमात्र ज्योतिरूप आत्मा हूँ कि जो मेरे ही अनुभवसे प्रत्यक्ष ज्ञात होता है; चिन्मात्र आकारके कारण मैं समस्त क्रमरूप तथा अक्रमरूप प्रवर्तमान व्यावहारिक भावोंसे भेदरूप नहीं होता इसलिये मैं एक हूँ; नर, नारक आदि जीवके विशेष; अजीव , पुण्य , पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षस्वरूप जो व्यावहारिक नव तत्त्व हैं उनसे , टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावरूप भावके द्वारा, अत्यंत भिन्न हूँ इसलिये मैं शुद्ध हूँ; चिन्मात्र होनेसे सामान्य-विशेष उपयोगात्मकताका उल्लंघन नहीं करता इसलिये मैं दर्शनज्ञानमय हूँ; स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जिसका निमित्त है ऐसे संवेदनरूप परिणमित होनेपर भी स्पर्शादिरूपस्वयं
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पूर्वरंग
सदैवारूपी, इति प्रत्यगयं स्वरूपं सञ्चेतयमानः प्रतपामि। एवं प्रतपतश्च मम बहिर्विचित्रस्वरूप-सम्पदा विश्वे परिस्फुरत्यपि न किञ्चनाप्यन्यत्परमाणुमात्रमप्यात्मीयत्वेन प्रतिभाति यद्भावकत्वेन ज्ञेयत्वेन चैकीभूय भूयो मोहमुद्भावयति, स्वरसत एवापुनःप्रादुर्भावाय समूलं मोहमुन्मूल्य महतो ज्ञानोद्योतस्य प्रस्फुरितत्वात्।
(वसन्ततिलका) मज्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः।
आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीं भरेण प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः।। ३२ ।।
परिणमित नहीं हुआ इसलिये परमार्थसे मैं सदा ही अरूपी हूँ। इसप्रकार सबसे भिन्न ऐसे स्वरूपका अनुभव करता हुआ मैं प्रतापवंत हूँ। इसप्रकार प्रतापवंत वर्तते हुवे ऐसे मुझे यद्यपि ( मुझसे) बाह्य अनेक प्रकारकी स्वरूप-संपदाके द्वारा समस्त परद्रव्य स्फुरायमान हैं तथापि, कोई भी परद्रव्य परमाणुमात्र भी मुझरूप भासते नहीं कि जो मुझे भावकरूप तथा ज्ञेयरूपसे मेरे साथ एक होकर पुनः मोह उत्पन्न करें; क्योंकि निजरससे ही मोहको मूलसे उखाड़कर-पुनः अंकुरित न हो इसप्रकार नाश करके, महान ज्ञानप्रकाश मुझे प्रगट हुआ है।
भावार्थ:-आत्मा अनादि कालसे मोहके उदयसे अज्ञानी था, वह श्री गुरुओंके उपदेशसे और स्व-काललब्धिसे ज्ञानी हुआ तथा अपने स्वरूपको परमार्थसे जाना कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, अरूपी हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ। ऐसा जाननेसे मोहका समूल नाश हो गया, भावकभाव और ज्ञेयभावसे भेदज्ञान हुआ, अपनी स्वरूपसंपदा अनुभवमें आई; तब फिर पुनः मोह कैसे उत्पन्न हो सकता है ? नहीं हो सकता।
अब, ऐसा जो आत्मानुभव हुआ उसकी महिमा कहकर आचार्यदेव प्रेरणारूप काव्य कहते हैं कि--ऐसे ज्ञानस्वरूप आत्मामें समस्त लोक निमग्न हो जाओ:---
श्लोकार्थ:- [ एषः भगवान् अवबोधसिन्धुः ] यह ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा [विभ्रम-तिरस्करिणी भरेण आप्लाव्य ] विभ्रमरूपी आड़ी चादरको समूलतया डुबोकर (दूर करके) [प्रोन्मग्नः ] स्वयं स्ल्ग प्रगट हुआ है; [अमी समस्ताः लोकाः] इसलिये अब समस्त लोक [शान्तरसे ] उसके शांत रसमें [ समम् एव ] एक साथ ही [निर्भरम् ] अत्यन्त [ मज्जन्तु] मग्न हो जाओ जो शांत रस [ आलोकम् उच्छलति] समस्त लोक पर्यंत उछल रहा है।
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समयसार
भावार्थ:-जैसे समुद्रके आड़े कुछ आये तो जल दिखाई नहीं देता और जब वह आड़ दूर हो जाये तब जल प्रगट होता है; वह प्रगट होनेपर, लोगोंको प्रेरणायोग्य होता है कि 'इस जलमें सभी लोग स्नान करो'; इसीप्रकार यह आत्मा विभ्रमसे आच्छादित था तब उसका स्वरूप दिखाई नहीं देता था ; अब विभ्रम दूर हो जाने से यथास्वरूप (ज्योंका त्यों स्वरूप) प्रगट हो गया; इसलिये ‘अब उसके वीतराग विज्ञानरूप शांतरसमें एक ही साथ सर्व लोक मग्न होओ' इसप्रकार आचार्यदेवने प्रेरणा की है। अथवा इसका अर्थ यह भी है कि जब आत्माका अज्ञान दर होता है और केवलज्ञान प्रगट होनेपर समस्त लोकमें रहनेवाले पदार्थ एक ही समय ज्ञानमें झलकते हैं उसे समस्त लोक देखो।। ३२ ।।
इसप्रकार इस समयप्राभृतग्रंथकी आत्मख्याति नामक टीकामें टीकाकार ने पूर्वरंगस्थल कहा।
यहाँ टीकाकारका यह आशय है कि इस ग्रंथको अलंकारसे नाटकरूपमें वर्णन किया है। नाटकमें पहले रंगभूमि रची जाती है। वहाँ देखने वाल, नायक तथा सभा होती है और नृत्य (नाट्य , नाटक) करनेवाले होते है जो विविध प्रकारके स्वांग रखते हैं तथा श्रृंगारादिक आठ रसोंका रूप दिखलाते हैं। वहाँ श्रृंगार, हास्य, रौद्र, करुणा, वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत-यह आठ रस लौकिक रस हैं; नाटकमें इन्हींका अधिकार है। नवमा शांतरस है जो कि अलौकिक है; नृत्यमें उसका अधिकार नहीं है। इन रसोंके स्थायी भाव, सात्त्विक भाव, अनुभावी भाव, व्यभिचारी भाव और उनकी दृष्टि आदिका वर्णन रसग्रंथोंमें है वहाँ से जान लेना। सामान्यतया रसका यह स्वरूप है कि ज्ञानमें जो ज्ञेय आया उसमें ज्ञान तदाकार हुवा, उसमें पुरुषका भाव लीन हो जाये और अन्य ज्ञेयकी इच्छा नहीं रहे सो रस है। उन आठ रसोंका रूप नत्यमें नत्यकार बतलाते हैं; और उनका वर्णन करतें हए कवीश्वर जब अन्य रसको अन्य रसके समान कर भी वर्णन करते हैं तब अन्य रसका अन्य रस अंगभूत होनेसे तथा अन्यभाव रसोंका अंग होनेसे, रसवत् आदि अलंकारसे उसे नृत्यरूपमें वर्णन किया जाता है।
यहाँ पहले रंगभूमिस्थल कहा। वहाँ देखने वाले तो सम्यग्दृष्टि पुरुष हैं और अन्य मिथ्यादृष्टि पुरुषोंकी सभा है, उनको दिखलाते हैं। नृत्य करने वाले जीव-अजीव पदार्थ हैं और दोनोंका एकपना, कर्ताकर्मपना आदि उनके स्वांग हैं। उनमें वे परस्पर अनेकरूप होते हैं, -आठ रसरूप होकर परिणमन करते हैं, सो वह नृत्य है। वहाँ सम्यग्दृष्टि दर्शक जीव-अजीवके भिन्न स्वरूप को जानता है; वह तो इन सब स्वांगोंको कर्मकृत जानकर शांत रसमें ही मग्न है और मिथ्यादृष्टि जीव-अजीवके भेद नहीं जानते इसलिये वे इन स्वांगोंको ही यथार्थ जानकर उनमें लीन हो जाते हैं।
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पूर्वरंग
इतिश्रीसमयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ पूर्वरङ्गः समाप्तः।
उन्हें सम्यग्दृष्टि यथार्थ स्वरूप बतलाकर, उनका भ्रम मिटाकर, उन्हें शांतरसमें लीन करके सम्यग्दृष्टि बनाता है। उसकी सूचनारूपमें रंगभूमिके अंतमें आचार्यने ‘मज्जंतु' इत्यादि इस श्लोक की रचना की है, वह अब जीव-अजीवके स्वांगका वर्णन करेंगे इसका सूचक है ऐसा आशय प्रगट होता है। इसप्रकार यहाँ तक रंगभूमिका वर्णन किया है।
नृत्यकुतूहल तत्त्वको, मरियवि देखो धाय। निजानंद रसमें छको, आन सबै छिटकाय।
इसप्रकार [ श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत] श्री समयसार परमागमकी [श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित ] आत्मख्याति नामक टीकामें पूर्वरंग समाप्त हुआ।
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-१जीव-अजीव अधिकार
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अथ जीवाजीवावेकीभूतौ प्रविशतः।
(शार्दूलविक्रीडित) जीवाजीवविवेकपुष्कलदृशा प्रत्याययत्पार्षदान् आसंसारनिबद्धबन्धनविधिध्वंसाद्विशुद्ध स्फुटत्। आत्माराममनन्तधाम महसाध्यक्षेण नित्योदितं धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनो हादयत्।। ३३ ।।
अब जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य-वे दोनों एक होकर रंगभूमिमें प्रवेश करते हैं।
इसके आरम्भमें मंगलके आशयसे (काव्य द्वारा) आचार्यदेव ज्ञानकी महिमा करते हैं कि सर्व वस्तुओंको जाननेवाला यह ज्ञान है वह जीव-अजीवके सर्व स्वांगोंको भलीभाँति पहिचानता है। ऐसा (सभी स्वांगोंको जाननेवाला) सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है-इस अर्थरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ ज्ञानं ] ज्ञान है वह [ मनो हादयत् ] मनको आनंदरूप करता हुआ [ विलसति] प्रगट होता है। वह [ पार्षदान् ] जीव-अजीवके स्वांगको दखनेवाले महापुरुषोंके [ जीव-अजीव-विवेक-पुष्कल-दृशा] जीव-अजीवके भेदको देखनेवाली अति उज्ज्वल निर्दोष दृष्टि के द्वारा [ प्रत्याययत् ] भिन्न द्रव्यकी प्रतीति उत्पन्न कर रहा है। [आसंसार-निबद्ध-बन्धन-विधि-ध्वंसात् ] अनादि संसारसे जिसका बंधन दृढ़ बँधा हुआ है ऐसे ज्ञानावरणादि कर्मोंके नाशसे [ विशुद्धं ] विशुद्ध हुआ है, [ स्फुटत् ] स्फुट हुआ है-जैसे फूलकी कली खिलती है उसीप्रकार विकासरूप है। और [ आत्मआरामम् ] उसका रमण करने का क्रीड़ावन आत्मा ही है, अर्थात् उसमें अनंत ज्ञेयोंके आकार आकर झलकते हैं तथापि वह अपने स्वरूपमें ही रमता है; [ अनन्तधाम] उसका प्रकाश अनंत है; और वह [ अध्यक्षेण महसा नित्य-उदितं ] प्रत्यक्ष तेजसे नित्य उदयरूप है। तथा वह धीर है, उदात्त (उच्च) है और इसलिये अनाकुल है सर्व इच्छाओंसे रहित निराकुल है। (यहाँ [धीरोदात्तम् ] धीर , उदात्त [अनाकुलं] अनाकुल--यह तीन विशेषण शांतरूप नृत्यके आभूषण जानना।)
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जीव-अजीव अधिकार
अप्पाणमयाणंता मूढा दु परप्पवादिणो केई। जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूवेंति।।३९ ।। अवरे अज्झवसाणेसु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं। मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवो त्ति।। ४० ।। कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छंति। तिव्वत्तणमंदत्तणगुणेहिं जो सो हवदि जीवो।। ४१ ।। जीवो कम्मं उहयं दोण्णि वि खलु केइ जीवमिच्छति। अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छंति।।४२ ।। एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा। ते ण परमट्ठवादी णिच्छयवादीहिं णिहिट्ठा।। ४३ ।।
ऐसा ज्ञान विलास करता है।
भावार्थ:-यह ज्ञानकी महिमा कही। जीव-अजीव एक होकर रंगभूमिमें प्रवेश करते हैं उन्हें यह ज्ञान ही भिन्न जानता है। जैसे नृत्यमें कोई स्वांग धरकर आये और उसे जो यथार्थरूपमें जान ले ( पहचान ले) तो वह स्वांगकर्ता उसे नमस्कार करके अपने रूपको जैसा का तैसा ही कर लेता है उसीप्रकार यहाँ भी समझना। ऐसा ज्ञान सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको होता है; मिथ्यादृष्टि इस भेदको नहीं जानते।। ३३ ।। अब जीव-अजीवका एकरूप वर्णन करते हैं:---
को मूढ़ , आत्म अजान जो, पर आत्मवादी जीव है, 'है कर्म, अध्यवसान ही जीव' यों हि वो कथनी करे।। ३९ ।। अरु कोई अध्यवसानमें अनुभाग तीक्षण-मंद जो। उसको ही माने आत्मा, अरु अन्य को नोकर्मको।।४०।। को अन्य माने आत्मा बस, कर्म के ही उदयको । को तीव्रमंदगुणोंसहित, कर्मोही के अनुभागको।। ४१।। को कर्म आत्मा, उभय मिलकर जीवकी आशा धरें। को कर्मके संयोगसे, अभिलाष आत्मा की करें ।। ४२।। दुर्बुद्धि यों ही और बहुविध , आतमा परको कहै । वे सर्व नहिं परमार्थवादी, ये हि निश्चयविद कहै ।। ४३।।
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समयसार
आत्मानमजानन्तो मूढास्तु परात्मवादिनः केचित्। जीवमध्यवसानं कर्म च तथा प्ररूपयन्ति।।३९ ।। अपरेऽध्यवसानेषु तीव्रमन्दानुभागगं जीवम्। मन्यन्ते तथाऽपरे नोकर्म चापि जीव इति।।४० ।। कर्मण उदयं जीवमपरे कर्मानुभागमिच्छन्ति। तीव्रत्वमन्दत्वगुणाभ्यां यः स भवति जीवः।। ४१ ।। जीवकर्मोभयं द्वे अपि खलु केचिज्जीवमिच्छन्ति। अपरे संयोगेन तु कर्मणां जीवमिच्छन्ति।। ४२ ।। एवंविधा बहुविधाः परमात्मानं वदन्ति दुर्मेधसः। ते न परमार्थवादिनः निश्चयवादिभिर्निर्दिष्टाः।। ४३ ।।
इह खलु तदसाधारणलक्षणाकलनात्लीबत्वेनात्यन्तविमूढाः सन्तस्तात्त्विकमात्मानमजानन्तो बहवो बहुधा परमप्यात्मानमिति प्रलपन्ति।
गाथार्थ:- [ आत्मानम् अजानन्तः ] आत्माको न जानते हुए [ परात्मवादिनः] परको आत्मा कहनेवाले [ केचित् मूढाः तु] कोई मूढ़, मोही, अज्ञानी तो [अध्यवसानं] अध्यवसानको [ तथा च] और कोई [कर्म] कर्मको [जीवम् प्ररूपयन्ति ] जीव कहते हैं। [अपरे] अन्य कोई [ अध्यवसानेषु] अध्यवसानोंमें [ तीव्रमन्दानुभागगं] तीव्रमंद अनुभागगतको [जीवं मन्यन्ते ] जीव मानते हैं [ तथा]
और [ अपरे] दूसरे कोई [ नोकर्म अपि च] नोकर्मको [ जीवः इति] जीव मानते हैं। [अपरे ] अन्य कोई [ कर्मणः उदयं ] कर्मके उदयको [ जीवम् ] जीव मानते हैं, कोई [ यः] जो [ तीव्रत्वमन्दत्वगुणाभ्यां] तीव्रमंदतारूप गुणोंसे भेदको प्राप्त होता है [ सः] वह [ जीवः भवति] जीव है' इसप्रकार [ कर्मानुभागम् ] कर्मके अनुभागको [ इच्छन्ति ] जीव इच्छते हैं (-मानते हैं)। [ केचित् ] कोई [जीवकर्मोभयं] जीव और कर्म [ द्वे अपि खलु ] दोनों मिले हुओंको ही [ जीवम् इच्छन्ति ] जीव मानते हैं [ तु] और [अपरे] अन्य कोई [ कर्मणां संयोगेन] कर्मके संयोगसे ही [ जीवम् इच्छन्ति ] जीव मानते हैं। [ एवंविधाः] इस प्रकारके तथा [बहुविधाः] अन्य भी अनेक प्रकारके [ दुर्मेधसः ] दुर्बुद्धि-मिथ्यादृष्टि जीव [ परम् ] परको [आत्मानं ] आत्मा [ वदन्ति ] कहते हैं। [ते] उन्हें [निश्चयवादिभिः] निश्चयवादियोंने (-सत्यार्थवादियोंने ) [ परमार्थवादिनः ] परमार्थवादी ( -सत्यार्थवक्ता) [न निर्दिष्टाः ] नहीं कहा है।
टीका:-इस जगतमें आत्माका असाधारण लक्षण न जानने के कारण नपुंसकतासे अत्यंत विमूढ़ होते हुये, तात्त्विक ( परमार्थभूत ) आत्माको न जानने वाले बहुत से अज्ञानी जन अनेक प्रकार से पर को भी आत्मा कहते हैं, बकते हैं।
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जीव-अजीव अधिकार
८७
नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसानमेव जीवस्तथाविधाध्यवसानात् अङ्गारस्येव कार्ष्यादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित्। अनाद्यनन्त पूर्वापरीभूतावयवैकसंसरणक्रियारूपेण
क्रीडत्कर्मैव
जीवः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित्। तीव्रमन्दानुभव-भिद्यमान दुरन्तरागरसनिर्भराध्यवसानसन्तान
एव
जीवस्ततोऽतिरिक्तस्यान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित्। नवपुराणावस्थादिभावेन प्रवर्तमानं नोकमैव जीवः शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित्। विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामन्
कर्मविपाक
एव
जीव: शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति
केचित्। सातासातरूपेणाभिव्याप्तसमस्ततीव्रमन्दत्वगुणाभ्यां भिद्यमान: कर्मानुभव एव जीवः सुखदुःखातिरिक्तत्वे- नान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति
केचित्। मज्जितावदुभयात्मकत्वादात्म-कर्मोभयमेव
जीवः
कात्य॑तः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित्। अर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोग एव जीवः कर्मसंयोगात्खवाया ।
कोई तो ऐसा कहते हैं कि स्वाभाविक अर्थात् स्वयमेव उत्पन्न हुए राग-द्वेष के द्वारा मलिन जो अध्यवसान ( अर्थात् मिथ्या अभिप्राय युक्त विभावपरिणाम ) वह ही जीव है क्योंकि जैसे कालेपनसे अन्य अलग कोई कोयला दिखाई नहीं देता उसीप्रकार अध्यवसानसे भिन्न अन्य कोई आत्मा दिखाई नहीं देता। १। कोई कहते हैं कि अनादि जिसका पूर्व अवयव है और अनंत जिसका भविष्यका अवयव है ऐसी एक संसरणरूप (भ्रमणरूप) जो क्रिया है उस रूपसे क्रीड़ा करता हुआ कर्म ही जीव है क्योंकि कर्मसे भिन्न कोई जीव देखाई नहीं देता। २। कोई कहते हैं कि तीव्र-मंद अनुभवसे भेदरूप होते हुए, दुरंत (जिसका अंत दूर है ऐसा) रागरूप रससे भरे हुवे अध्यवसानोंकी जो संतति (परिपाटी) ही जीव है क्योंकि उससे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। ३। कोई कहता है कि नई और पुरानी अवस्था इत्यादि भाव से प्रवर्तमान नोकर्म ही जीव है क्योंकि इस शरीरसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। ४। कोई यह कहते हैं कि समस्त लोकको पुण्यपापरूपसे व्याप्त करता हुआ कर्मका विपाक ही जीव है क्योंकि शुभाशुभ भावसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। ५। कोई कहता है कि साता-असातारूपसे व्याप्त जो समस्त तीव्रमंदत्वगुणोंसे भेदरूप होनेवाला कर्मका अनुभव ही जीव है क्योंकि सुख-दुःखसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। ६। कोई कहते हैं कि श्रिखंडकी भाँति उभयरूप मिले हुए आत्मा और कर्म, दोनों ही मिलकर जीव हैं क्योंकि संपूर्णतया कर्मोंसे भिन्न कोई जीव दिखाई नहीं देता। ७। कोई कहते हैं कि अर्थक्रियामें (प्रयोजनभूत क्रियामें) समर्थ ऐसा जो कर्मका संयोग वह ही जीव है क्योंकि जैसे आठ लकड़ियोंके संयोगसे भिन्न अलग कोई पलंग दिखाई नहीं देता
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समयसार
८८
इवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित्। एवमेवंप्रकारा इतरेऽपि बहुप्रकाराः परमात्मेति व्यपदिशन्ति दुर्मेधसः, किन्तु न ते परमार्थवादिभिः परमार्थवादिन इति निर्दिश्यन्ते।
कुतःएदे सव्वे भावा पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा। केवलिजिणेहिं भणिया कह ते जीवो त्ति वृचंति।।४४ ।।
एते सर्वे भावाः पुद्गलद्रव्यपरिणामनिष्पन्नाः। केवलिजिनैणिताः कथं ते जीव इत्युच्यन्ते।। ४४ ।।
इसीप्रकार कर्मोंके संयोगसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता। (आठ लकड़ियाँ मिलकर पलंग बना तब वह अर्थक्रिया में समर्थ हुआ; इसीप्रकार यहाँ भी जानना।) ८। इसप्रकार आठ प्रकार तो यह कहे और ऐसे ऐसे अन्य भी अनेक प्रकारके दुर्बुद्धि ( विविध प्रकारसे) परको आत्मा कहते हैं; परंतु परमार्थके ज्ञाता उन्हें सत्यार्थवादी नहीं कहते।
भावार्थ:-जीव-अजीव दोनों अनादिकाल से ऐकक्षेत्रावगाहसंयोगरूप मिले हुए हैं, और अनादिकाल से ही पुद्गलके संयोगसे जीवकी अनेक विकारसहित अवस्थाएं हो रही हैं। परमार्थदृष्टिसे देखनेपर, जीव तो अपने चैतन्यत्व आदि भावोंको नहीं छोड़ता और पुद्गल अपने मूर्तिक जड़त्व आदिको नहीं छोड़ता। परंतु जो परमार्थको नहीं जानते वे संयोगसे हुवे भावोंको ही जीव कहते हैं; क्योंकि पुद्गलसे भिन्न परमार्थसे जीवका स्वरूप सर्वज्ञको दिखाई देता है तथा सर्वज्ञकी परंपराके आगमसे जाना जा सकता है, इसलिये जिनके मतमें सर्वज्ञ नहीं हैं वे अपनी बुद्धिसे अनेक कल्पनाएँ करके कहते हैं। उनमेंसे वेदांती, मीमांसक, सांख्य, योग, बौद्ध , नैयायिक, वैशेषिक, चार्वाक आदि मतोंके आशय लेकर आठ प्रकार तो प्रगट कहे हैं; और अन्य भी अपनी बुद्धिसे अनेक कल्पनाएँ करके अनेक प्रकारसे कहते हैं सो उन्हें कहाँ तक कहा जाये ? ऐसा कहनेवाले सत्यार्थवादी क्यों नहीं हैं सो कहते हैं:
पुद्गलदरब परिणामसे, उपजे हुए सब भाव ये।
सब केवलीजिन भाषिया, किस जीव रीत कहो उन्हें ।। ४४।। गाथार्थ:- [ एते] यह पूर्व कथित अध्यवसान आदि [ सर्वे भावाः] भाव हैं वे सभी [ पुद्गगलद्रव्यपरिणामनिष्पन्नाः ] पुद्गलद्रव्यके परिणामसे उत्पन्न हुए हैं इसप्रकार [ केवलिजिनैः ] केवली सर्वज्ञ जिनन्द्रदेवने [ भणिताः ] कहा है [ ते ] उन्हें [ जीवः इति] जीव ऐसा [ कथं उच्यन्ते ] कैसे कहा जा सकता है ?
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जीव-अजीव अधिकार
यतः एतेऽध्यवसानादयः समस्ता एव भावा भगवद्भिर्विश्वसाक्षिभिरर्हद्भिः पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वेन प्रज्ञप्ता: सन्तश्चैतन्यशून्यात्पुद्गलद्रव्यादतिरिक्तत्वेन प्रज्ञाप्यमानं चैतन्यस्वभावं जीवद्रव्यं भवितुं नोत्सहन्ते; ततो न खल्वागमयुक्तिस्वानुभवैर्बाधितपक्ष-त्वात् तदात्मवादिनः परमार्थवादिनः। एतदेव सर्वज्ञवचनं तावदागमः। इयं तु स्वानु-भवगर्भिता युक्ति:-न खलु नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसानं जीवस्तथाविधाध्यवसानात्कार्तस्वरस्येव श्यामिकाया अतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खल्वनाद्यनन्तपूर्वापरीभूतावयवैकसंसरणलक्षणक्रियारूपेण क्रीडत्कर्मैव जीव: कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खलु तीव्रमन्दानुभवभिद्यमानदुरन्तरागरसनिर्भराध्यवसानसन्तानो जीवस्ततोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खलु नवपुराणावस्थादिभेदेन प्रवर्तमानं नोकर्म जीवः शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खलु विश्वमपि
टीका:-यह समस्त अध्यवसानादि भाव, विश्वके ( समस्त पदार्थों के) साक्षात् देखनेवाले भगवान (वीतराग सर्वज्ञ ) अहँतदेवोंके द्वारा, पुद्गलद्रव्यके परिणाममय कहे गये हैं, इसलिये वे चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य होनेके लिये समर्थ नहीं हैं कि जो जीवद्रव्य चैतन्यभावसे शून्य ऐसे पुद्गलद्रव्यसे अतिरिक्त ( भिन्न ) कहा गया है; इसलिये जो इन अध्यवसानादिकको जीव कहते हैं वे वास्तव में परमार्थवादी नहीं हैं क्योंकि आगम, युक्ति और स्वानुभवसे उनका पक्ष बाधित है। उनमें, 'वे जीव नहीं हैं' यह सर्वज्ञका वचन है वह तो आगम है और यह (नीम्नोक्त) स्वानुभवगर्भित युक्ति
-स्वयमेव उत्पन्न हए राग-द्वेष के द्वारा मलिन अध्यवसान है वे जीव नहीं हैं क्योंकि, कालिमासे भिन्न सुवर्णकी भाँति; अध्यवसानसे भिन्न अन्य चित्स्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे चैतन्यभावको प्रत्यक्ष भिन्न अनुभव करते हैं। १। अनादि जिसका पूर्व अवयव है और अनंत जिसका भविष्यका अवयव है ऐसी जो एक संसरणरूप क्रियाके रूपमें क्रीड़ा करता हुआ कर्म भी जीव नहीं है क्योंकि कर्मसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। २। तीव्र-मंद अनुभवसे भेदरूप होनेपर, दुरंत रागरस से भरे हुए अध्यवसानोंकी संतति भी जीव नहीं है क्योंकि उस संततिसे अन्य पथक चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात वे उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ३। नई पुरानी अवस्थादिकके भेदसे प्रवर्तमान नोकर्म भी जीव नहीं है क्योंकि शरीरसे अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसे प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ४। समस्त जगतको
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पुण्यपापरूपेणाक्रामन् कर्मविपाको जीव: शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खलु सातासातरूपेणाभिव्याप्तसमस्त-तीव्रमन्दत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभवो जीवः सुखदुःखातिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खलु मज्जिता-वदुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयं जीव: कात्य॑तः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्। न खल्वर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोगो जीवः कर्मसंयोगात् खदाशायिनः पुरुषस्येवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वादिति।
पुण्यपापरूपसे व्याप्त करता कर्मविपाक भी जीव नहीं है क्योंकि शभाशुभ भावसे अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ५। साता-असातारूपसे व्याप्त समस्त तीव्रमंदतारूप गुणोंके द्वारा भेदरूप होनेवाला कर्मका अनुभव भी जीव नहीं है क्योंकि सुख-दुःखसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ६। श्रीखंडकी भाँति उभयात्मकरूपसे मिले हुए आत्मा और कर्म दोनों मिलकर भी जीव नहीं हैं क्योंकि संपूर्णतया कर्मोंसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ७। अर्थक्रिया में समर्थ कर्मका संयोग भी जीव नहीं है क्योंकि आठ लकड़ियोंके संयोगसे (-पलंगसे) भिन्न पलंग पर सोने वाले पुरुषकी भाँति, कर्मसंयोगसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ८ । (इसीप्रकार अन्य किसी दूसरे प्रकारसे कहा जाये तो वहाँ भी यही युक्ति जानना।)
भावार्थ:-चैतन्यस्वभावरूप जीव, सर्व परभावोंसे भिन्न, भेदज्ञानियोंके अनुभवगोचर है; इसलिये अज्ञानी जैसा मानते हैं वैसा नहीं है।
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जीव-अजीव अधिकार
इह खलु पुद्गलभिन्नात्मोपलब्धिं प्रति विप्रतिपन्नः साम्नैवैवमनुशास्यः।
(मालिनी) विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम्। हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धिः।। ३४ ।।
यहाँ पुद्गलसे भिन्न आत्माकी उपलब्धिके प्रति विरोध करनेवाले (-पुद्गलको ही आत्मा जानने वाले) पुरुषको ( उसकी हितरूप आत्मप्राप्तिकी बात कहकर) मीठासपूर्वक ( समभावसे) ही इसप्रकार उपदेश करना यह काव्यमें बतलाते हैं:
श्लोकार्थ:- हे भव्य! तुझे [ अपरेण ] अन्य [अकार्य-कोलाहलेन] व्यर्थ ही कोलाहल करनेसे [ किम् ] क्या लाभ है ? तू [ विरम् ] इस कोलाहलसे विरक्त हो और [एकम् ] एक चैतन्यमात्र वस्तुको [ स्वयम् अपि] स्वयं [ निभृतः सन् ] निश्चल लीन होकर [ पश्य षण्मासम् ] देख; ऐसा छह मास अभ्यास कर और देख की ऐसा करने से [ हृदय-सरसि] अपने हृदयसरोवरमें, [पुद्गगलात् भिन्नधाम्नः ] जिसका तेज, प्रताप, प्रकाश पुद्गलसे भिन्न है ऐसे उस [ पुंसः ] आत्माकी [ ननु किम् अनुपलब्धिः भाति ] प्राप्ति नहीं होती है [ किं च उपलब्धिः ] या होती है ?
भावार्थ:-यदि अपने स्वरूपका अभ्यास करे तो उसकी प्राप्ति अवश्य होती है; यदि परवस्तु हो तो उसकी तो प्राप्ति नहीं होती। अपना स्वरूप तो विद्यमान है, किन्तु उसे भूल रहा है; यदि सावधान होकर देखे तो वह अपने निकट ही है। यहाँ छह मासके अभ्यास की बात कही है इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि इतना ही समय लगेगा। उसकी प्राप्ति तो अंतर्मुहूर्तमात्रमें ही हो सकती है, परंतु यदि शिष्यको बहुत कठिन मालूम होता हो तो उसका निषेध किया है। यदि समझनेमें अधिक काल लगे तो छह माससे अधिक नहीं लगेगा; इसलिये यहाँ यह उपदेश दिया है कि अन्य निष्प्रयोजन कोलाहल का त्याग करके इसमें लग जानेसे शीघ्र ही स्वरूपकी प्राप्ति हो जायेगी ऐसा उपदेश है। ३४ ।
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समयसार
कथं चिदन्वयप्रतिभासेऽप्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावा इति चेत्
अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पोग्गलमयं जिणा बेति। जस्स फलं तं वुचदि दुक्खं ति विपच्चमाणस्स।। ४५ ।।
अष्टविधमपि च कर्म सर्वं पुद्गलमयं जिना बुवन्ति। यस्य फलं तदुच्यते दुःखमिति विपच्यमानस्य।। ४५ ।।
अध्यवसानादिभावनिर्वर्तकमष्टविधमपि च कर्म समस्तमेव पुद्गलमयमिति किल सकलज्ञज्ञप्तिः। तस्य तु यद्विपाककाष्ठामधिरूढस्य फलत्वेनाभिलप्यते तदनाकुलत्वलक्षणसौख्याख्यात्मस्वभावविलक्षणत्वात्किल दु:खं। तदन्तःपातिन एव किलाकुलत्वलक्षणा अध्यवसानादिभावाः। ततो न ते चिदन्वयविभ्रमेऽप्यात्मस्वभावाः, किन्तु पुद्गलस्वभावाः।
अब शिष्य पूछता है कि इन अध्यवसानादि भावों को जीव नहीं कहा, अन्य चैतन्यस्वभाव को जीव कहा; तो यह भाव भी कथंचित् चैतन्यके साथ ही संबंध रखने वाले प्रतिभासित होते हैं, ( वे चैतन्य के अतिरिक्त जड़के तो दिखाई नहीं देते, ) तथापि उन्हें पुद्गलके स्वभाव क्यों कहा ? उसके उत्तर स्वरूप गाथा कहते हैं:
रे! कर्म अष्ट प्रकारका , जिन सर्व पुद्गलमय कहे। परिपाकमें जिस कर्मका फल दु:ख नाम प्रसिद्ध है।। ४५।।
गाथार्थ:- [अष्टविधम् अपि च ] आठों प्रकारका [ कर्म] कर्म [ सर्व ] सब [पुद्गलमयं] पुद्गलमय है ऐसा [ जिनः] जिनेन्द्रभगवान सर्वज्ञदेव [ब्रुवन्ति ] कहते हैं- [ यस्य विपच्यमानस्य ] जो पक्व होकर उदयमें आनेवाले कर्मका [ फलं ] फल [ तत् ] प्रसिद्ध [ दुःखम् ] दुःख है [इति उच्यते ] ऐसा कहा है।
टीका:-अध्यवसानादि समस्त भावोंको उत्पन्न करनेवाला जो आठों प्रकारका ज्ञानावरणादि कर्म है वह सभी पुद्गलमय है ऐसा सर्वज्ञका वचन है। विपाककी मर्यादा को प्राप्त उस कर्मके फलरूपसे जो कहा जाता है वह, (अर्थात् कर्मफल), अनाकुलतालक्षण-सुखनामक आत्मस्वभावसे विलक्षण है इसलिये, दुःख है। उस दुःखमें ही आकुलतालक्षण अध्यवसानादि भाव समाविष्ट हो जाते हैं; इसलिये, यद्यपि वे चैतन्यके साथ संबंध होने का भ्रम उत्पन्न करते हैं तथापि, वे आत्मस्वभाव नहीं हैं किन्तु पुद्गलस्वभाव है।
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यद्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावास्तदा कथं जीवत्वेन सूचिता इति चेत्
ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं । जीवा दे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा ।। ४६ ।। व्यवहारस्य दर्शनमुपदेशो वर्णितो जिनवरैः । जीवा एते सर्वेऽध्यवसानादयो भावाः ।। ४६ ।।
सर्वे एवैतेऽध्यवसानादयो भावाः जीवा इति यद्भगवद्भिः सकलज्ञैः प्रज्ञप्तं तदभूतार्थस्यापि व्यवहारस्यापि दर्शनम् । व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव। तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात्त्रसस्थावराणां भस्मन
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भावार्थ:- जब कर्मोदय आता है तब वह आत्मा दुःखरूप परिणमित होता है और दुःखरूप भाव है वह अध्यवसान है इसलिये दुःखरूप भावोंमें ( -अध्यवसानमें ) चेतनताका भ्रम उत्पन्न होता है । परमार्थसे दुःखरूप भाव चेतन नहीं हैं, कर्मजन्य हैं इसलिये जड़ ही हैं।
अब प्रश्न होता है कि यदि अध्यवसानादि भाव हैं तो पुद्गलस्वभाव हैं तो सर्वज्ञके आगममें उन्हें जीवरूप क्यों कहा गया है ? उसके उत्तर स्वरूप गाथासूत्र कहते हैं:
व्यवहार ये दिखला दिया, जिनदेवके उपदेशमें।
ये सर्व अध्यवसान आदिक, भावको जँह जिव कहे ।। ४६ ।।
गाथार्थ:- [ एते सर्वे ] यह सब [ अध्यवसानादयः भावाः ] अध्यवसानादि भाव [ जीवाः ] जीव हैं इसप्रकार [ जिनवरै: ] जिनेन्द्रदेव ने [ उपदेशः वर्णितः] जो उपदेश दिया है सो [ व्यवहारस्य दर्शनम् ] व्यवहारनय दिखाया है।
टीका:-यह सब अध्यवसानादि भाव जीव हैं ऐसा जो भगवान सर्वज्ञदेवने कहा है वह, यद्यपि व्यवहारनय अभूतार्थ है तथापि, व्यवहारनयको भी बताया है; क्योंकि जैसे म्लेच्छोंकी म्लेच्छभाषा वस्तुस्वरूप बतलाती है उसी प्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवोंको परमार्थका कहनेवाला है इसलिये, अपरमार्थभूत होनेपर भी, धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति करने के लिये वह ( व्यवहारनय) बतलाना न्यायसंगत ही है। परंतु यदि व्यवहारनय न बताया जाये तो, परमार्थसे ( - निश्चयनयसे) शरीरसे जीव को भिन्न बताया जाने पर भी, जैसे भस्मको मसल देनेसे हिंसाका अभाव है उसी प्रकार,
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समयसार
इव निःशङ्क मुपमर्दनेन हिंसाऽभावाद्भवत्येव बन्धस्याभावः। तथा रक्तद्विष्टविमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः।
अथ केन दृष्टान्तेन प्रवृत्तो व्यवहार इति चेत्राया हु णिग्गदो त्ति य एसो बलसमुदयस्स आदेसो। ववहारेण दु उच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया।। ४७ ।।
राजा खलु निर्गत इत्येष बलसमुदयस्यादेशः। व्यवहारेण तूच्यते तत्रैको निर्गतो राजा।। ४७ ।।
त्रसस्थावर जीवोंको निःशंकतया मसल देने-कुचल देने (घात करने) में भी हिंसाका अभाव ठहरेगा और इस कारण बंधका ही अभाव सिद्ध होगा; तथा परमार्थके द्वारा जीव राग-द्वेष-मोहसे भिन्न बताया जाने पर भी, 'रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्मसे बँधता है उसे छुड़ाना'-इसप्रकार मोक्षके उपायके ग्रहणका अभाव हो जायेगा और इससे मोक्षका ही अभाव होगा। (इसप्रकार यदि व्यवहारनय न बताया जाये तो बंधमोक्षका ही अभाव ठहरता है।)
भावार्थ:-परमार्थनय तो जीवको शरीर तथा रागद्वेषमोहसे भिन्न कहता है। यदि इसीका एकांत ग्रहण किया जाये तो शरीर तथा रागद्वेषमोह पुद्गलमय सिद्ध होंगे तो फिर पुद्गलका घात करनेसे हिंसा नहीं होगी तथा रागद्वेषमोहसे बंध नहीं होगा। इसप्रकार, परमार्थसे जो संसार-मोक्ष दोनोंका अभाव कहा है एकांतसे यह ही ठहरेगा, किन्तु ऐसा एकांतरूप वस्तुका स्वरूप नहीं है; अवस्तुका श्रद्धान, ज्ञान, आचरण अवस्तुरूप ही है। इसलिये व्यवहारनयका उपदेश न्यायप्राप्त है। इसप्रकार स्याद्वादसे दोनों नयोंका विरोध मिटाकर श्रद्धान करना सो सम्यक्त्व है।
अब शिष्य पूछता है कि व्यवहारनय किस दृष्टांतसे प्रवृत्त हुआ है ? उसका उत्तर कहते हैं:
'निर्गमन इस नृपका हुआ, निर्देश सैन्यसमूहमें।
व्यवहारसे कहलाय यह, पर भूप इसमें एक है।। ४७।। गाथार्थ:-जैसे कोई राजा सेना सहित निकला वहाँ [ राजा खलु निर्गतः] 'यह राजा निकला' [इति एष:] इसप्रकार जो यह [ बलसमुदयस्य] सेनाके समुदायको [आदेशः ] कहा जाता है सो वह [ व्यवहारेण तु उच्यते ] व्यवहारसे कहा जाता है, [ तत्र] उस सेनामें ( वास्तवमें)
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जीव-अजीव अधिकार
एमेव य ववहारो अज्झवसाणादिअण्णभावाणं। जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो।। ४८ ।।
एवमेव च व्यवहारोऽध्यवसानाद्यन्यभावानाम्। जीव इति कृतः सूत्रे तत्रैको निश्चितो जीवः।। ४८ ।।
यथैष राजा पंच योजनान्यभिव्याप्य निष्क्रामतीत्येकस्य पंच योजनान्यभिव्याप्तुमशक्यत्वाव्यवहारिणां बलसमुदाये राजेति व्यवहारः, परमार्थतस्त्वेक एव राजा; तथैष जीव: समग्रं रागग्राममभिव्याप्य प्रवर्तत इत्येकस्य समग्रं रागग्राममभिव्याप्तुमशक्यत्वाव्यवहारिणामध्यवसानादिष्वन्यभावेषु जीव इति व्यवहारः, परमार्थतस्त्वेक एव जीवः।।
त्यों सर्व अध्यवसान आदिक, अन्यभावजु जीव है।
-शास्त्रन किया व्यवहार, पर वहाँ जीव निश्चय एक है।। ४८।। [ एक: निर्गतः राजा] राजा तो एक ही निकला है; [ एवम् एव च] इसीप्रकार [ अध्यवसानाद्यन्यभावानाम् ] अध्यवसानादि अन्य भावोंको [ जीवः इति ] ( यह) जीव है' इसप्रकार [ सूत्रे] परमागममें कहा है सो [ व्यवहारः कृतः ] व्यवहार किया है, [ तत्र निश्चितः ] यदि निश्चयसे विचार किया जाये तो उसमें [जीवः एकः ] जीव तो एक ही है।
टीका:-जैसे यह कहना कि राजा पाँच योजनके विस्तार में निकल रहा है सो यह व्यवहारी जनों का सेना समुदाय में राजा कह देने का व्यवहार है क्योंकि एक राजाका पाँच योजनमें फैलना अशक्य है; परमार्थसे तो राजा एक ही है, ( सेना राजा नहीं है); उसीप्रकार यह जीव समग्र रागग्राममें (-रागके स्थानोंमें ) व्याप्त होकर प्रवृत्त हो रहा है ऐसा कहना वह, व्यवहारीजनों का अध्यवसानादिक भावोंमें जीव कहने का व्यवहार है, क्योंकि एक जीवका समग्र रागग्राममें व्याप्त होना अशक्य है; परमार्थसे तो जीव एक ही है, (अध्यवसानादिक भाव जीव नहीं हैं)।
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समयसार
यद्येवं तर्हि किंलक्षणोऽसावेकष्टोत्कीर्णः परमार्थजीव इति पृष्टः प्राह
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।। ४९ ।। अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम्। जानीहि अलिङ्गग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम्।। ४९ ।।
यः खलु पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानरसगुणत्वात्, पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमरसगुणत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावादद्रव्येन्द्रियावष्टम्भेनारसनात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलम्बेनारसनात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलरसवेदनापरिणामापन्नत्वेनारसनात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य
अब शिष्य पूछता है कि यह अध्यवसानादि भाव जीव नहीं हैं तो एक, टंकोत्कीर्ण, परमार्थस्वरूप जीव कैसा है ? उसका लक्षण क्या है ? इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं:
जीव चेतनागुण, शब्द-रस-रूप-गंध-अक्तिविहीन है। निर्दिष्ट नहि संस्थान उसका, ग्रहण नहिं है लिंग से।। ४९ ।।
गाथार्थ:-हे भव्य! तू [ जीवम् ] जीवको [अरसम्] रसरहित, [अरूपम् ] रूपरहित, [अगन्धम् ] गंधरहित, [अव्यक्तं ] अव्यक्त अर्थात् इंद्रियगोचर नहीं ऐसा, [ चेतनागुणम् ] चेतना जिसका गुण है ऐसा, [ अशब्दम् ] शब्दरहित, [ अलिङ्गग्रहणं] किसी चिहसे न ग्रहण होने वाला और [ अनिर्दिष्टसंस्थानम् ] जिसका कोई आकार नहीं कहा जाता ऐसा [ जानीहि ] जान।
टीका:- जीव निश्चयसे पुद्गलद्रव्यसे भिन्न है इसलिये उसमें रसगुण विद्यमान नहीं है अत: वह अरस है। १। पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे भी भिन्न होनेसे स्वयं भी रसगुण नहीं है इसलिये अरस है। २। परमार्थसे पुद्गलद्रव्यका स्वामित्व भी उसके नहीं है इसलिये वह द्रव्येन्द्रियके आलंबन से भी रस नहीं चखता अतः अरस है। ३। अपने स्वभावकी दृष्टिसे देखा जाये तो उसके क्षायोपशमिक भावका भी अभाव होनेसे वह भावेन्द्रियके आलंबनसे भी रस नहीं चखता इसलिये अरस है। ४। समस्त विषयोंके विशेषोंमें साधारण ऐसे एक ही संवेदनपरिणामरूप उसका स्वभाव होनेसे वह केवल एक रसवेदनापरिणामको पाकर रस नहीं चखता इसलिये अरस है। ५। ( उसे समस्त ज्ञेयोंका ज्ञान होता है परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकके तादात्म्यका
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जीव-अजीव अधिकार
९७
निषेधाद्रसपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं रसरूपेणापरिणमनाचारसः। तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानरूपगुणत्वात्, पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमरूपगुणत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद्रव्येन्द्रियावष्टम्भेनारूपणात, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावागावेन्द्रियावलम्बेना-रूपणात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलरूपवेदनापरिणामापन्नत्वेनारूपणात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्रूपपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं रूपरूपेणापरिणमनाचारूपः। तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानगन्धगुणत्वात्, पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमगन्धगुणत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद्रव्येन्द्रियावष्टम्भेनागन्धनात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलम्बे-नागन्धनात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलगन्धवेदनापरिणामापन्नत्वेनागन्धनात्,
(-एकरूप होनेका) निषेध होनेसे रसके ज्ञानरूप परिणमन होने पर भी स्वयं रसरूप परिणमित नहीं होता इसलिये अरस है। ६। इसप्रकार छह तरहसे रसके निषेधसे वह अरस है।
इसप्रकार, जीव वास्तवमें पुद्गलद्रव्यसे अन्य होने के कारण उसमें रूपगुण विद्यमान नहीं है इसलिये अरूप है। १। पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे भी भिन्न होनेके कारण स्वयं भी रूपगुण नहीं है इसलिये अरूप है। २। परमार्थसे पुद्गलद्रव्यका स्वामीपना भी उसे नहीं होनेसे द्रव्येन्द्रियके आलंबन द्वारा भी रूप नहीं देखता इसलिये अरूप है। ३। अपने स्वभावकी दृष्टिसे देखने में आवे तो क्षायोपशमिक भावका भी उसे अभाव होनेसे वह भावेन्द्रियके आलंबन द्वारा भी रूप नहीं देखता इसलिये अरूप है। ४। सकल विषयों के विशेषोंमें साधारण ऐसे एक ही संवेदनपरिणामरूप उसका स्वभाव होनेसे वह केवल एक रूपवेदनापरिणामको प्राप्त होकर रूप नहीं देखता इसलिये अरूप है। ५। (उसे समस्त ज्ञेयोंका ज्ञान होता है परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकके तादात्म्यका निषेध होनेसे रूपके ज्ञानरूप परिणमित होनेपर भी स्वयं रूपरूपसे नहीं परिणमता इसलिये अरूप है। ६। इसतरह छह प्रकारसे रूपके निषेधसे वह अरूप है।
इसप्रकार, जीव वास्तवमें पुद्गलद्रव्यसे अन्य होने के कारण उसमें गंधगुण विद्यमान नहीं है इसलिये अगंध है। १। पदगलद्रव्यके गुणोंसे भी भिन्न होनेके कारण स्वयं भी गंधगुण नहीं है इसलिये अगंध है। २। परमार्थसे पुद्गलद्रव्यका स्वामीपना भी उसे नहीं होनेसे वह द्रव्येन्द्रियके आलंबन द्वारा भी गंध नहीं सूंघता इसलिये अगंध है। ३। अपने स्वभावकी दृष्टिसे देखने में आवे तो क्षायोपशमिक भावका भी उसे अभाव होवे से वह भावेन्द्रियके आलंबन द्वारा भी गंध नहीं सूंघता अतः अगंध है। ४। सकल विषयोंके विशेषोंमें साधारण ऐसे एक ही संवेदनपरिणामरूप उसका स्वभाव होनेसे वह केवल एक गंधवेदनापरिणामको प्राप्त होकर गंध नहीं सूंघता अतः अगंध है। ५।
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समयसार
९८
सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्गन्ध-परिच्छेद-परिणतत्वेऽपि स्वयं गन्धरूपेणापरिणमनाचागन्धः। तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानस्पर्शगुणत्वात्, पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमस्पर्शगुणत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद्रव्येन्द्रियावष्टम्भे-नास्पर्शनात्,
स्वभावत: क्षायोपशमिकभावाभावागावेन्द्रियावलम्बनास्पर्शनात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलस्पर्शवेदनापरिणामापन्नत्वेनास्पर्शना त्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधात्स्पर्शपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं स्पर्शरूपेणापरिणमनाचास्पर्शः। तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमान-शब्दपर्यायत्वात्, पुद्गलद्रव्यपर्यायेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमशब्दपर्यायत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद्रव्येन्द्रियावष्टम्भेन शब्दाश्रवणात्, स्वभावत: क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलम्बेन शब्दाश्रवणात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्
( उसे समस्त ज्ञेयोंका ज्ञान होता है परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकके तादात्म्यका निषेध होनेसे गंधके ज्ञानरूप परिणमित होनेपर भी स्वयं गंधरूप नहीं परिणमता अतः अगंध है। ६। इसतरह छह प्रकारसे गंधके निषेधसे वह अगंध है।
इसप्रकार, जीव वास्तवमें पुद्गलद्रव्यसे अन्य होनेके कारण उसमें स्पर्शगुण विद्यमान नहीं है इसलिये अस्पर्श है। १। पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे भी भिन्न होनेके कारण स्वयं भी स्पर्शगुण नहीं है अत: अस्पर्श है। २। परमार्थसे पुद्गलद्रव्यका स्वामीपना भी उसे नहीं होनेसे वह द्रव्येन्द्रियके आलंबन द्वारा भी स्पर्शको नहीं स्पर्शता अतः अस्पर्श है। ३। अपने स्वभावकी दृष्टिसे देखने में आवे तो क्षायोपशमिक भावका भी उसे अभाव होवे से वह भावेन्द्रियके आलंबन द्वारा भी स्पर्शको नहीं स्पर्शता अतः अस्पर्श है। ४। सकल विषयोंके विशेषोंमें साधारण ऐसे एक ही संवेदनपरिणामरूप उसका स्वभाव होनेसे वह केवल एक स्पर्शवेदनापरिणामको प्राप्त होकर स्पर्शको नहीं स्पर्शता अत: अस्पर्श है। ५। ( उसे समस्त ज्ञेयोंका ज्ञान होता है परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकके तादात्म्यका निषेध होनेसे स्पर्शके ज्ञानरूप परिणमित होनेपर भी स्वयं स्पर्शरूप नहीं परिणमता अत: अस्पर्श है। ६। इसतरह छह प्रकारसे स्पर्शके निषेधसे वह अस्पर्श है।
इसप्रकार, जीव वास्तवमें पुद्गलद्रव्यसे अन्य होनेके कारण उसमें शब्दपर्याय विद्यमान नहीं है अतः अशब्द है। १। पुद्गलद्रव्यकी पर्यायोंसे भी भिन्न होनेके कारण स्वयं भी शब्दपर्याय नहीं है अतः अशब्द है। २। परमार्थसे पुद्गलद्रव्यका स्वामीपना भी उसे नहीं होनेसे वह द्रव्येन्द्रियके आलंबन द्वारा भी शब्द नहीं सुनता अतः अशब्द है। ३। अपने स्वभावकी दृष्टिसे देखने में आवे तो क्षायोपशमिक भावका भी उसे अभाव होवे से वह भावेन्द्रियके आलंबन द्वारा भी शब्द नहीं सुनता अत: अशब्द है। ४। सकल विषयों के विशेषोंमें साधारण ऐसे एक ही संवेदनपरिणामरूपउसका स्वभाव
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जीव-अजीव अधिकार
केवलशब्दवेदनापरिणामापन्नत्वेन शब्दाश्रवणात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाच्छब्दपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं शब्दरूपेणापरिणमनाचाशब्दः। द्रव्यान्तरारब्धशरीरसंस्थानेनैव संस्थान इति निर्देष्टुमशक्यत्वात्, नियतस्वभावेनानियतसंस्थानानन्तशरीरवर्तित्वात्, संस्थाननामकर्मविपाकस्य पुद्गलेषु निर्दिश्यमानत्वात्,
प्रतिविशिष्टसंस्थानपरिणतसमस्तवस्तुतत्त्वसंवलितसहजसंवेदनशक्तित्वेऽपि स्वयमखिललोकसंवलनशून्योपजायमाननिर्मलानुभूतितयात्यन्तमसंस्थानत्वाचानिर्दिष्टसंस्थानः। षड्द्रव्यात्मक लोका-ज्ज्ञेयाव्य क्तादन्यत्वात्, कषायचक्राद्भावकाव्यक्तादन्यत्वात्, चित्सामान्यनिमग्नसमस्तव्यक्तित्वात्, क्षणिकव्यक्तिमात्राभावात्, व्यक्ताव्यक्तविमिश्रप्रतिभा-सेऽपि व्यक्तास्पर्शत्वात्, स्वयमेव हि बहिरन्तः स्फुटमनुभूयमानत्वेऽपि व्यक्तोपेक्षणेन प्रद्योत मानत्वाचाव्यक्तः।
होनेसे वह केवल एक शब्दवेदनापरिणामको प्राप्त होकर शब्द नहीं सुनता अतः अशब्द है। ५। (उसे समस्त ज्ञेयोंका ज्ञान होता है परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकके तादात्म्यका निषेध होनेसे शब्दके ज्ञानरूप परिणमित होनेपर भी स्वयं शब्दरूप नहीं परिणमता अतः अशब्द है।६। इस तरह छह प्रकारसे स्पर्शके निषेधसे वह अशब्द है।
(अब ‘अनिर्दिष्टसंस्थान' विशेषणको समझाते हैं:-) पुद्गलद्रव्यरचित शरीर के संस्थान (आकार) से जीवको संस्थानवाला नहीं कहा जा सकता इसलिये जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है। १। अपने नियत स्वभावसे अनियत संस्थानवाले अनंत शरीरोंमें रहता है इसलिये अनिर्दिष्टसंस्थान है। २। संस्थान नामकर्मका विपाक (फल) पुद्गलोंमें ही कहा जाता है (इसलिये उसके निमित्तसे भी आकार नहीं है) इसलिये अनिर्दिष्टसंस्थान है। ३। भिन्न भिन्न संस्थानरूपसे परिणमित समस्त वस्तुओंके स्वरूप के साथ जिसकी स्वाभाविक संवेदनशक्ति संबंधित (अर्थात् तदाकार) है ऐसा होने पर भी जिसे समस्त लोकके मिलापसे ( –संबंधसे) रहित निर्मल (ज्ञानमात्र) अनुभूति हो रही है ऐसा होने से स्वयं अत्यंतरूपसे संस्थान रहित है इसलिये अनिर्दिष्टसंस्थान है। ४। इसप्रकार चार हेतुओंसे संस्थानका निषेध कहा।
(अब ‘अव्यक्त' विशेषणको सिद्ध करते हैं:-) छह द्रव्यस्वरूप लोक जो ज्ञेय है और व्यक्त है उससे जीव अन्य है इसलिये अव्यक्त है। १। कषायोंका समूह जो भावकभाव व्यक्त है उससे जीव अन्य है इसलिये अव्यक्त है। २। चित्सामान्यमें चैतन्यकी समस्त व्यक्तियाँ निमग्न ( अंतर्भूत) हैं इसलिये अव्यक्त है। ३। क्षणिक व्यक्तिमात्र नहीं है इसलिये अव्यक्त है। ४। व्यक्तता तथा अव्यक्तता एकमेक मिश्रितरूपसे प्रतिभासित होनेपर भी वह केवल व्यक्तता को ही स्पर्श नहीं करता इसलिये अव्यक्त है। ५। स्वयं अपने से ही बाह्याभ्यंतर स्पष्ट अनुभमें आ रहा है तथापि व्यक्तता के प्रतिउदासीनरूपसे प्रकाशमान है इसलिये अव्यक्त है। ६। इसप्रकार छह हेतुओंसे अव्यक्तता सिद्ध की है।
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समयसार
१००
रसरूपगन्धस्पर्शशब्दसंस्थानव्यक्तत्वाभावेऽपि स्वसंवेदन-बलेन नित्यमात्मप्रत्यक्षत्वे सत्यनुमेयमात्रत्वाभावादलिङ्गग्रहणः। समस्तविप्रति-पत्तिप्रमाथिना विवेचकजनसमर्पित सर्वस्वेन सकलमपि लोकालोकं कवलीकृत्यात्यन्तसौहित्यमन्थरेणेव सकलकालमेव मनागप्यविचलितानन्य-साधारणतया स्वभावभूतेन स्वयमनुभूयमानेन चेतनागुणेन नित्यमेवान्तःप्रकाशमानत्वात् चेतनागुणश्च। स खलु भगवानमलालोक इहैकष्टोत्कीर्णः प्रत्यग्ज्योतिर्जीवः।
(मालिनी) सकलमपि विहायाहाय चिच्छक्तिरिक्तं स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम्। इममुपरि चरन्तं चारु विश्वस्य साक्षात कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनन्तम्।।३५ ।।
इसप्रकार रस, रूप, गंध, स्पर्श, शब्द, संस्थान और व्यक्तताका अभाव होनेपर भी स्वसंवेदनके बलसे स्वयं सदा प्रत्यक्ष होनेसे अनुमानगोचरमात्रता के अभावके कारण (जीवको) अलिंगग्रहण कहा जाता है।
___ अपने अनुभवमें आनेवाले चेतनागुणके द्वारा सदा अंतरंगमें प्रकाशमान है इसलिये (जीव) चेतनागुणवाला है। वह चेतनागुण समस्त विप्रतिपत्तियोंको (जीवको अन्य प्रकारसे माननेरूप झगड़ोंको) नाश करने वाला है, जिसने अपना सर्वस्व भेदज्ञानी जीवोंको सौप दिया है। जो समस्त लोकालोकको ग्रासीभूत करके मानों अत्यंत तृप्तिसे उपशान्त हो गया हो इसप्रकार ( अर्थात् अत्यंत स्वरूप-सौख्य से तृप्त तृप्त होने के कारण स्वरूपमेंसे बाहर निकलनेका अनुद्यमी हो इसप्रकार ) सर्व कालमें किंचित्मात्र भी चलायमान नहीं होता और इस तरह सदा लेशमात्र भी नहीं चलित अन्यद्रव्यसे असाधारणता होनेसे जो (असाधारण) स्वभावभूत है।
-ऐसा चैतन्यरूप परमार्थस्वरूप जीव है। जिसका प्रकाश निर्मल है ऐसा यह भगवान इस लोकमें एक, टंकोत्कीर्ण , भिन्न ज्योतिरूप विराजमान है।
__ अब इसी अर्थ का कलशरूप काव्य कहकर ऐसे आत्माको अनुभवकी प्रेरणा करते हैं:
श्लोकार्थ:- [ चित्-शक्ति-रिक्तं] चित्शक्तिसे रहित [ सकलम् अपि] अन्य समस्त भावोंको [ अहाय] मूलसे [विहाय ] छोड़कर [च] और [ स्फुटतरम् ] प्रगटरूपसे[ स्वं चित्-शक्तिमात्रम् ] अपने चित्शक्तिमात्र भावका [ अवगाह्य ] अवगाहन करके, [ विश्वस्य उपरि ] समस्त पदार्थ समूहरूप लोकके ऊपर चारु चरन्तं ] सुंदर रीतिसे प्रवर्तमान ऐसे [ इमम् ] यह [ परम् ] एकमात्र [ अनन्तम् ] अविनाशी
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(अनुष्टुभ् ) चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयम् । अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावा: पौद्गलिका अमी ।। ३६ ।।
जीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण वि रसो ण वि य फासो । ण विरूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं ।। ५० । जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसो णेव विज्जदे मोहो । णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि ।। ५१ ।।
[ आत्मानम् ] आत्माका [ आत्मा ] भव्यात्मा [ आत्मानि ] आत्मामें ही [ साक्षात् कलयतु] अभ्यास करो, साक्षात् अनुभव करो।
भावार्थ:-यह आत्मा परमार्थसे समस्त अन्यभावोंसे रहित चैतन्यशक्तिमात्र है; उसके अनुभवका अभ्यास करो ऐसा उपदेश है । ३५ ।
१०१
अब चित्शक्तिसे अन्य जो भाव हैं वे सब पुद्गलद्रव्यसंबंधी हैं ऐसी आगे की गाथाओंकी सूचनारूपसे श्लोक कहते हैं:
व्याप्त
श्लोकार्थ :- [चित् - शक्ति - व्याप्त - सर्वस्व - सारः ] चैतन्यशक्तिसे जिसका सर्वस्व - सार है ऐसा [ अयम् जीव: ] यह जीव [ इयान् ] इतना मात्र ही है; [अत: अतिरिक्ताः ] इस चित्शक्तिसे शून्य [ अमी भावा: ] जो ये भाव हैं [ सर्वे अपि ] वे सभी [ पौद्गलिकाः ] पुद्गलजन्य हैं - पुद्गलके ही हैं । ३६ ।
ऐसे इन भावोंका व्याख्यान छह गाथाओंमें करते हैं:
3
नहिं वर्ण जीवके, गंध नहिं नहिं स्पर्श, रस जीवके नहीं । नहिं रूप अर संहनन नहिं, संस्थान नहिं, तन भी नहीं ।। ५० ।।
नहिं राग जीवके, द्वेष नहिं, अरु मोह जीवके है नहीं । प्रत्यय नहीं, नहिं कर्म अरु नोकर्म भी जीवके नहीं ।। ५१ ।।
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समयसार
१०२
जीवस्स पत्थि वग्गो ण वग्गणा णेव फड्ढया केई। णो अज्झप्पट्ठाणा णेव य अणुभागठाणाणि।। ५२ ।। जीवस्स णत्थि केई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा वा। णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गणट्ठाणया केई।। ५३ ।। णो ठिदिबंधट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा। णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धिठाणा वा।। ५४ ।। णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स। जेण दु एदे सव्वे पोग्गलदव्वस्स परिणामा।। ५५ ।।
जीवस्य नास्ति वर्णो नापि गन्धो नापि रसो नापि च स्पर्शः। नापि रूपं न शरीरं नापि संस्थानं न संहननम्।। ५० ।। जीवस्य नास्ति रागो नापि द्वेषो नैव विद्यते मोहः। नो प्रत्यया न कर्म नोकर्म चापि तस्य नास्ति।। ५१ ।।
नहीं वर्ग जीवके, वर्गणा नहिं, कर्मस्पर्धक है नहीं। अध्यात्मस्थान न जीवके, अनुभागस्थान भी है नहीं।।२।। जीवके नहीं कुछ योगस्थान रु, बंधस्थान भी है नहीं। नहिं उदयस्थान न जीवके, अरु स्थान मार्गणा के नहीं ।। ५३।। स्थितिबंधस्थान न जीवके, संक्लेशस्थान भी है नहीं। जीवके विशुद्धिस्थान, संयमलब्धि स्थान भी है नहीं ।।५४।। नहिं जीवस्थान भी जीवके, गुणस्थान भी जीवके नहीं। ये सब ही पुद्गल द्रव्यके, परिणाम हैं जानो यही ।। ५५ ।।
गाथार्थ:- [ जीवस्य ] जीवके [वर्णः ] वर्ण [ नास्ति ] नहीं, [ न अपि गन्धः] गंध भी नहीं, [ रसः अपि न ] रस भी नहीं [च ] और [ स्पर्शः अपि न ] स्पर्श भी नहीं, [ रूपं अपि न ] रूप भी नहीं, [न शरीरं] शरीर भी नहीं, [ संस्थानं अपि न] संस्थान भी नहीं, [संहननम् न] संहनन भी नहीं ; [जीवस्य ] जीवके [ रागः नास्ति] राग भी नहीं, [ द्वेषः अपि न] द्वेष भी नहीं, [ मोहः ] मोह भी [न एव विद्यते] विद्यमान नहीं, [प्रत्ययाः नो] प्रत्यय (आस्रव ) भी नहीं, [ कर्म न ] कर्म भी नहीं [च ] और [ नोकर्म अपि] नोकर्म भी [ तस्य नास्ति ] उसके नहीं हैं;
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जीव-अजीव अधिकार
१०३
जीवस्य नास्ति वर्गो न वर्गणा नैव स्पर्धकानि कानिचित्। नो अध्यात्मस्थानानि नैव चानुभागस्थानानि।। ५२ ।। जीवस्य न सन्ति कानिचिद्योगस्थानानि न बन्धस्थानानि वा। नैव चोदयस्थानानि न मार्गणास्थानानि कानिचित्।। ५३ ।। नो स्थितिबन्धस्थानानि जीवस्य न संक्लेशस्थानानि वा। नैव विशुद्धिस्थानानि नो संयमलब्धिस्थानानि वा।। ५४ ।। नैव च जीवस्थानानि न गुणस्थानानि वा सन्ति जीवस्य। येन त्वेते सर्वे पुद्गलद्रव्यस्य परिणामाः।। ५५ ।।
यः कृष्णो हरितः पीतो रक्त: श्वेतो वा वर्णः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यः सुरभिर्दुरभिर्वा गन्ध: स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यः कटुक: कषायः तिक्तोऽम्लो मधुरो वा रसः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यः स्निग्धो रूक्षः शीतः उष्णो गुरुर्लधुर्मूदुः कठिनो वा स्पर्श:
[ जीवस्य] जीवके [ वर्ग: नास्ति] वर्ग नहीं, [ वर्गणा न] वर्गणा नहीं, [ कानिचित् स्पर्धकानि न एव] कोई स्पर्धक भी नहीं, [ अध्यात्मस्थानानि नो] अध्यात्मस्थान भी नहीं [च ] और [ अनुभागस्थानानि] अनुभागस्थान भी [न एव] नहीं है; [ जीवस्य] जीवके [कानिचित् योगस्थानानि ] कोई योगस्थान भी [न सन्ति ] नहीं [वा ] अथवा [ बन्धस्थानानि न] बंधस्थान भी नहीं, [च] और [ उदयस्थानानि] उदयस्थान भी [न एव] नहीं, [ कानिचित् मार्गणास्थानानि न] कोई मार्गणास्थान भी नहीं है; [ जीवस्य ] जीवके [स्थितिबन्धस्थानानि नो] स्थितिबंधस्थान भी नहीं [ वा] अथवा [ संक्लेशस्थानानि न] संकलेशस्थान भी नहीं, [ विशुद्धिस्थानानि] विशुद्धिस्थान भी [ न एव ] नहीं [ वा] अथवा [ संयमलब्धिस्थानानि ] संयमलब्धिस्थान भी [ नो] नहीं हैं; [च ] और [ जीवस्य ] जीवके [ जीवस्थानानि ] जीवस्थान भी [न एव ] नहीं [ वा ] अथवा [ गुणस्थानानि ] गुणस्थान भी [ न सन्ति ] नहीं है; [येन तु] क्योंकि [ एते सर्वे ] यह सब [ पुद्गलद्रव्यस्य ] पुद्गलद्रव्यके [ परिणामाः ] परिणाम हैं।
टीका:-जो काला, हरा, पीला, लाल और सफेद वर्ण है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यका परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १। जो सुगन्ध और दुर्गंध है वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यका परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २। जो कडुवा, कषायला, चरपरा, खट्टा और मीठा रस है
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समयसार
१०४
स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यत्स्पर्शादिसामान्यपरिणाममात्रं रूपं तन्नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्। यदौदारिकं वैक्रियिकमाहारकं तैजसं कार्मणं वा शरीरं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यत्समचतुरस्रं न्यग्रोधपरिमण्डलं स्वाति कुब्जं वामनं हुण्डं वा संस्थानं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यद्वजर्षभनाराचं वज्रनाराचं नाराचमर्धनाराचं कीलिका असम्प्राप्तासृपाटिका वा संहननं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यः प्रीतिरूपो रागः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य , पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। योऽप्रीतिरूपो द्वेष: स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्। यस्तत्त्वाप्रतिपत्तिरूपो मोह: स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्य-परिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। ये मिथ्यात्वाविरति-कषाययोगलक्षणा: प्रत्ययास्ते सर्वेऽपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्।
वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यका परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। ३। जो चिकना, रूखा, ठण्डा, गर्म, भारी, हलका, कोमल अथवा कठोर स्पर्श है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है ।४। जो स्पर्शादिसामान्यपरिणाममात्र रूप है वह जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। ५। जो औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस अथवा कार्मण शरीर है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ६। जो समचतुरस्त्र , न्यग्रोधपरिमंडल, स्वाति, कुब्जक, वामन अथवा हुंडक संस्थान हैं वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पदगलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ७। जो वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच, नाराच , अर्धनाराच, कीलिका अथवा असंप्राप्तासृपाटिका संहनन है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। ८। जो प्रीतिरूप राग है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गल –परिणाममय है इसलिये ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। ९। जो अप्रीतिरूप द्वेष है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १०। जो यथार्थ तत्त्वकी अप्रतिपत्तिरूप (अप्राप्तिरूप) मोह है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। ११। मिथ्यात्व , अविरति, कषाय और योग जिसका लक्षण हैं ऐसे जो प्रत्यय ( आस्रव) वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १२।
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जीव-अजीव अधिकार
१०५
यद् ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयवेदनीयमोहनीयायुर्ना-मगोत्रान्तरायरूपं कर्म तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यत्षट्पर्याप्तित्रिशरीरयोग्यवस्तुरूपं नोकर्म तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्। यः शक्तिसमूहलक्षणो वर्ग: स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। या वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा सा सर्वापि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि मन्दतीव्ररस-कर्मदलविशिष्टन्यासलक्षणानि स्पर्धकानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि स्वपरैकत्वाध्यासे सति विशुद्धचित्परिणामातिरिक्तत्वलक्षणान्यध्यात्मस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिरसपरिणामलक्षणान्यनुभागस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि कायवाङ्मनोवर्गणापरिस्पन्दलक्षणानि योगस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य , पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्।
जो ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतरायरूप कर्म हैं वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १३। जो छह पर्याप्तियोग्य और तीन शरीरयोग्य वस्तु (-पुद्गलस्कंध) रूप नोकर्म हैं वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १४। जो कर्मके रसकी शक्तियोंका (अर्थात् अविभाग प्रतिच्छेदोंका) समूहरूप वर्ग है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १५। जो वर्गोंका समूहरूप वर्गणा है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १६ । जो मंदतीव्र रसवाले कर्मसमूहके विशिष्ट न्यास (-जमाव ) रूप (वर्गणाके समूहरूप) स्पर्धक हैं वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १७। स्वपरके एकत्वका अध्यास (निश्चय) हो तब (वर्तने पर), विशुद्ध चैतन्यपरिणामसे भिन्न रूप जिनका लक्षण है ऐसे जो अध्यात्मस्थान हैं वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १८। भिन्न भिन्न प्रकृतियोंके रसके परिणाम जिनका लक्षण है ऐसे जो अनुभागस्थान वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १९। कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणाका कंपन जिनका लक्षण है ऐसे जो योगस्थान वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २०।
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समयसार
१०६
यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिपरिणामलक्षणानि बन्धस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूते-भिन्नत्वात्। यानि स्वफलसम्पादनसमर्थकावस्थालक्षणान्युदयस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूते-भिन्नत्वात्। यानि गतीन्द्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनलेश्याभव्य-सम्यक्त्वसंज्ञाहारलक्षणानि मार्गणास्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि प्रतिविशिष्ट-प्रकृतिकालान्तरसहत्वलक्षणानि स्थितिबन्धस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि कषायविपाकोद्रेकलक्षणानि संक्लेशस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि कषायविपाकानुद्रेकलक्षणानि विशुद्धिस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि चारित्रमोहविपाक क्रमनिवृत्तिलक्षणानि संयमलब्धिस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि पर्याप्तापर्याप्तबादरसूक्ष्मै केन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंड्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि
भिन्न भिन्न प्रकृतियों के परिणाम जिनका लक्षण है ऐसे जो बंधस्थान वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २१। अपने फल के उत्पन्न करने में फल उत्पन्न करनेमें समर्थ कर्म-अवस्था जिनका लक्षण है ऐसे जो उदयस्थान वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २२। गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार जिनका लक्षण है ऐसे जो मार्गणास्थान वे सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २३। भिन्न भिन्न प्रकृतियोंका अमुक मर्यादा तक कालान्तर में साथ रहना जिनका लक्षण है ऐसे जो स्थितिबंधस्थान वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २४। कषायोंके विपाककी अतिशयता जिनका लक्षण है ऐसे जो संकलेशस्थान वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २५। कषायोंके विपाककी मंदता जिनका लक्षण है ऐसे जो विशुद्धिस्थान वे सर्व जीवके नहीं क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २६। चरित्रमोहके विपाककी क्रमशः निवृत्ति जिनका लक्षण है ऐसे जो संयमलब्धिस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २७। पर्याप्त एवं अपर्याप्त ऐसे बादर-सूक्ष्म एकेंद्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिंद्रिय और संज्ञी-असंज्ञी पंचेंद्रिय जिनका लक्षण है
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जीव-अजीव अधिकार
१०७
जीवस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य , पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्। यानि मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयतापूर्वकरणोपशमकक्षपकानिवृत्तिबादरसाम्प रायोपशमकक्षपकसूक्ष्मसाम्परायोपशमकक्षपकोपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगकेवल्यय गकेवलिलक्षणानि गुणस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्।
(शालिनी) वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी
नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात्।।३७ ।। ऐसे जो जीवस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २८। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि , सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण-उपशमक तथा क्षपक, अनिवृत्तिबादर-सांपराय-उपशमक तथा क्षपक, सूक्ष्मसांपराय-उपशमक तथा क्षपक, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवली जिनका लक्षण है ऐसे जो गुणस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २९ । (इसप्रकार ये समस्त ही पुद्गलद्रव्यके परिणाममय भाव हैं; वे सब जीव, के नहीं हैं। जीव तो परमार्थसे चैतन्यशक्तिमात्र है।)
अब इसी अर्थ कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ वर्ण-आद्याः ] जो वर्णादिक [ वा] अथवा [ राग-मोह-आदयः वा] रागमोहादिक [ भावाः ] भाव कहे [ सर्वे एव ] वे सब ही [ अस्य पुंसः] इस पुरुष( आत्मासे) [भिन्नाः ] भिन्न हैं [ तेन एव] इसलिये [अन्तःतत्त्वतः पश्यतः] अंतर्दष्टि से देखनेवालेको [अमी नो दृष्टाः स्युः] यह सब दिखाई नहीं देते [ एक परं दृष्टं स्यात् ] मात्र एक सर्वोपरी तत्त्व ही दिखाई देता है-केवल एक चैतन्यभावस्वरूप अभेदरूप आत्मा ही दिखाई देता है।
भावार्थ:-परमार्थनय अभेद ही है इसलिये इस दृष्टि से देखनेपर भेद नहीं दिखाई देता; अतः नयकी दृष्टि में पुरुष चैतन्यमात्र ही दिखाई देता है। इसलिये वे समस्त ही वर्णादिक तथा रागादिक भाव पुरुषसे भिन्न ही हैं।
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समयसार
१०८
ननु वर्णादयो यद्यमी न सन्ति जीवस्य तदा तन्त्रान्तरे कथं सन्तीति प्रज्ञाप्यन्ते इति चेत्
ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स।।५६ ।।
व्यवहारेण त्वेते जीवस्य भवन्ति वर्णाद्याः। गुणस्थानान्ता भावा न तु केचिन्निश्चयनयस्य।। ५६ ।।
हि व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितत्वाज्जीवस्य पुद्गलसंयोगवशादनादिप्रसिद्धबन्धपर्यायस्य कुसुम्भरक्तस्य कार्पासिकवासस इवौपाधिकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमानः परभावं परस्य विदधाति; निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमान: परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति। ततो व्यवहारेण वर्णादयो गुणस्थानान्ता भावा जीवस्य सन्ति,
इह
ये वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यंत जो भाव हैं उनका स्वरूप विशेषरूपसे जानना हो तो गोम्मटसार आदि ग्रंथोंसे जान लेना। ३७।
__ अब शिष्य पूछता है कि-- यदि वर्णादिक भाव जीवके नहीं तो अन्य सिद्धांतग्रंथोमें ऐसा कैसे कहा गया है कि वे जीव के हैं' ? उसका उत्तर गाथारूपमें कहते हैं:
वर्णादि गुणस्थानांत भाव जु, जीवके व्यवहारसे। पर कोई भी ये भाव नहिं हैं , जीव के निश्चय विषै।। ५६।।
गाथार्थ:- [ एते] यह [वर्णाद्याः गुणस्थानान्ताः भावाः] वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो भाव कहे गये वे [ व्यवहारेण तु] व्यवहारनयसे तो [ जीवस्य भवन्ति] जीवके हैं (इसलिये सूत्रमें कहे गये हैं), [ तु] किन्तु [ निश्चयनयस्य] निश्चयनयके मतमें [ केचित् न ] उनमें से कोई भी जीव के नहीं हैं।
टीका:-यहाँ, व्यवहारनय पर्यायाश्रित होनेसे, सफेद रूईसे बना हुआ वस्त्र जो कि कसुंबी (लाल) रंग से रंगा हुआ है ऐसे वस्त्रके औपाधिकभाव ( -लाल रंग) की भाँति, पुद्गलके संयोगवश अनादि कालसे जिसकी बंधपर्याय प्रसिद्ध है ऐसे जीवके औपाधिक भाव (-वर्णादिक) का अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ, (वह व्यवहारनय ) दूसरे के भावको दूसरे का कहता है; और निश्चयनय द्रव्याश्रित होनेसे, केवल एक जीवके स्वाभाविक भावका अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ, दूसरेके भावको किंचित्मात्र भी दूसरे का नहीं कहता, निषेध करता है। इसलिये वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यंत जो भाव हैं वे व्यवहारनयसे जीवके हैं
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जीव-अजीव अधिकार
निश्चयेन तु न सन्तीति युक्ता प्रज्ञप्तिः।
कुतो जीवस्य वर्णादयो निश्चयेन न सन्तीति चेत्एदेहिं य संबंधो जहेव खीरोदयं मुणेदव्यो। ण य होंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा।। ५७ ।।
एतैश्च सम्बन्धो यथैव क्षीरोदकं ज्ञातव्यः।
न च भवन्ति तस्य तानि तूपयोगगुणाधिको यस्मात्।। ५७ ।। यथा खलु सलिलमिश्रितस्य क्षीरस्य सलिलेन सह परस्परावगाहलक्षणे सम्बन्धे सत्यपि स्वलक्षणभूतक्षीरत्वगुणव्याप्यतया
सलिलादधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसम्बन्धाभावात् न निश्चयेन सलिलमस्ति; तथा वर्णादिपुद्गलद्रव्यपरिणाममिश्रितस्यास्यात्मनः पुद्गलद्रव्येण सह परस्परावगाहलक्षणे सम्बन्धे सत्यपि स्वलक्षणभूतोपयोगगुणव्याप्यतया
और निश्चयनयसे जीवके नहीं हैं ऐसा (भगवानका स्याद्वादयुक्त) कथन योग्य है।
अब फिर शिष्य पूछता है कि वर्णादिक निश्चयसे जीवके क्यों नहीं हैं ? इसका कारण कहिये। इसका उत्तर गाथारूप से कहते हैं:
इन भाव से संबंध जीवका,क्षीर जलवत् जानना। उपयोग गुणसे अधिक , तिससे भाव कोई न जीवका।।५७ ।।
गाथार्थ:- [ एतैः च सम्बन्धः ] इन वर्णादिक भावोंके साथ जीवका संबंध [क्षीरोदकं यथा एव] दूध और पानी का एकक्षेत्रावगाहरूप संयोगसंबंध है ऐसा [ ज्ञातव्यः] जानना [च ] और [ तानि ] वे [ तस्य तु न भवन्ति ] उस जीवके नहीं हैं [ यस्मात् ] क्योंकि जीव [ उपयोगगुणाधिक:] उनसे उपयोगगुणसे अधिक है (-वह उपयोग गुण के द्वारा भिन्न ज्ञात होता है)।
टीका:-जैसे--जलमिश्रित दूधका, जलके साथ परस्पर अवगाहस्वरूप संबंध होनेपर भी, स्वलक्षणभूत दूग्धत्व-गुणके द्वारा व्याप्त होनेसे दूध जलसे अधिकपनेसे प्रतीत होता है; इसलिये, जैसा अग्निका उष्णताके साथ तादात्म्यस्वरूप संबंध है वैसा जलके साथ दूधका संबंध न होनेसे, निश्चयसे जल दूधका नहीं है; इसप्रकारवर्णादिक पुद्गलद्रव्यके परिणामोंके साथ मिश्रित इस आत्माका, पुद्गलद्रव्यके साथ परस्पर अवगाहस्वरूप संबंध होनेपर भी, स्वलक्षणभूत उपयोगगुण के द्वारा व्याप्त होनेसे आत्मा
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समयसार
११०
सर्वद्रव्येभ्योऽधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्रेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसम्बन्धाभावात् न निश्चयेन वर्णादिपुद्गलपरिणामाः सन्ति।
कथं तर्हि व्यवहारोऽविरोधक इति चेत्पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी। मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई।।५८ ।। तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं। जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो।। ५९ ।। गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य। सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति।। ६० ।।
पथि मुष्यमाणं दृष्ट्वा लोका भणन्ति व्यवहारिणः। मुष्यते एष पन्था न च पन्था मुष्यते कश्चित्।।५८ ।।
सर्व द्रव्योंसे अधिकपनेसे (--परिपूर्णपनेसे) प्रतीत होता है; इसलिये, जैसा अग्निका उष्णता के साथ तादात्म्यस्वरूप संबंध है वैसा वर्णादिके साथ आत्माका संबंध नहीं है, इसलिये निश्चयसे वर्णादिक पुद्गलपरिणाम आत्माके नहीं हैं।
अब यहाँ प्रश्न होता है कि इसप्रकार तो व्यवहारनय और निश्चयनयका विरोध आता है; अविरोध कैसे कहा जा सकता है ? इसका उत्तर दृष्टांत द्वारा तीन गाथाओंमें कहते हैं:
देखा लुटाते पंथमें को, 'पंथ ये लुटात है'जनगण कहे व्यवहारसे, नहिं पंथ को लुटात है।। ५८।। त्यों वर्ण देखा जीवमें इन कर्म अरु नोकर्मका। जिनवर कहे व्यवहारसे , 'यह वर्ण है इस जीवका'।। ५९ ।। त्यों गंध, रस, रूप, स्पर्श, तन, संस्थान इत्यादिक सबै।
भूतार्थ द्रष्टा पुरुषने, व्यवहारनयसे वर्णये।।६०।। गाथार्थ:- [ पथि मुष्यमाणं ] जैसे मार्गमें जाते हुए व्यक्तिको लुटता हुआ [ दृष्ट्वा ] देखकर [ एषः पन्था] यह मार्ग [ मृष्यते] लुटता है' इसप्रकार [ व्यवहारिणः लोकाः ] व्यवहारीजन [ भणन्ति ] कहते हैं; किन्तु परमार्थसे विचार किया जाये तो [कश्चित् पन्था ] कोई मार्ग तो [ न च मुष्यते] नहीं लुटता है;
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जीव-अजीव अधिकार
१११
तथा जीवे कर्मणां नोकर्मणां च दृष्ट्रा वर्णम्। जीवस्यैष वर्णो जिनैर्व्यवहारत उक्तः ।। ५९ ।। गन्धरसस्पर्शरूपाणि देहः संस्थानादयो ये च। सर्वे व्यवहारस्य च निश्चयद्रष्टारो व्यपदिशन्ति।। ६० ।।
यथा पथि प्रस्थितं कंचित्सार्थ मुष्यमाणमवलोक्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण मुष्यत एष पन्था इति व्यवहारिणां व्यपदेशेऽपि न निश्चयतो विशिष्टाकाशदेशलक्षणः कश्चिदपि पन्था मुष्येत, तथा जीवे बन्धपर्यायेणावस्थितं कर्मणो नोकर्मणो वा वर्णमुत्प्रेक्ष्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण जीवस्यैष वर्ण इति व्यवहारतोऽर्हदेवानां प्रज्ञापनेऽपि न निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणाधिकस्य जीवस्य कश्चिदपि वर्णोऽस्ति। एवं गन्धरस स्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननरागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्मवर्गवर्गणास्पर्धकाध्यात्मस्थान नुभागस्थानयोगस्थानबन्धस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबन्धस्थानसंक्लेशस्थाना वशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानजीवस्थानगुणस्थानान्यपि व्यवहारतोऽर्हदेवानां प्रज्ञापनेऽपि निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोग गुणेनाधिकस्य
[ तथा] इसीप्रकार [ जीवे ] जीवमें [कर्मणां नोकर्मणां च] कर्मोंका और नोकर्मोंका [ वर्णम् ] वर्ण [दृष्ट्वा ] देखकर [ जीवस्य] जीवका [ एषः वर्ण:] यह वर्ण है' इसप्रकार [ जिनैः ] जिनेन्द्रदेव ने [ व्यवहारतः ] व्यवहारसे [ उक्तः ] कहा है।[ एवं ] इसी प्रकार [गन्धरसस्पर्शरूपाणि ] गंध, रस, स्पर्श, रूप, [ देहः संस्थानादयः ] देह, संस्थान आदि [ये च सर्वे] जो सब हैं, [व्यवहारस्य ] वे सब व्यवहारसे [ निश्चयद्रष्टार:] निश्चयके देखनेवाले [व्यपदिशन्ति ] कहते हैं।
टीका:-जैसे व्यवहारी जन, मार्गमें जाते हुए किसी सार्थ (संघ) को लुटता देखकर, संघकी मार्गमें स्थिति होनेसे उसका उपचार करके, 'यह मार्ग लुटता है' ऐसा कहते हैं, तथापि निश्चयसे देखा जाये तो, जो आकाशके अमुक भागस्वरूप है वह मार्ग तो कुछ नहीं लुटता; इसीप्रकार भगवान अल्तदेव, जीवमें बंधपर्यायसे स्थिति को प्राप्त कर्म और नोकर्मका वर्ण देखकर, कर्म-नोकर्मकी जीव में स्थिति होने से उसका उपचार करके, 'जीवका यह वर्ण है' ऐसा व्यवहारसे प्रगट करते हैं, तथापि निश्चयसे, सदा ही जिसका अमूर्त स्वभाव है और जो उपयोगगुणके द्वारा अन्यद्रव्योंसे अधिक है ऐसे जीवका कोई भी वर्ण नहीं है। इसीप्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, जीवस्थान और गुणस्थान-यह सब ही (भाव) व्यवहारसे अहँतभगवान जीवके कहते हैं, तथापि निश्चयसे, सदा ही जिसका अमूर्त स्वभाव है और जो उपयोगगुण के द्वारा अन्यसे अधिक है
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समयसार
११२
जीवस्य सर्वाण्यपि न सन्ति , तादात्म्यलक्षणसम्बन्धाभावात्।
तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णादी। संसारपमुक्काणं णत्थि हु वण्णादओ केई।। ६१ ।। कुतो जीवस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धो नास्तीति चेत्
ऐसे जीव के वे सब नहीं हैं, क्योंकि इन वर्णादि भावोंके और जीवके तादात्म्यलक्षण संबंधका अभाव है।
भावार्थ:-ये वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यंत भाव सिद्धांतमें जीवके कहे हैं वे सब व्यवहारनयसे कहे हैं; निश्चयनयसे वे जीव के नहीं हैं क्योंकि जीव तो परमार्थसे उपयोगस्वरूप है।
यहाँ ऐसा जानना कि -पहले व्यवहारनयको असत्यार्थ कहा था सो वहाँ ऐसा न समझना कि वह सर्वथा असत्यार्थ है, किन्तु कथंचित् असत्यार्थ जानना; क्योंकि जब एक द्रव्यको भिन्न, पर्यायोंसे अभेदरूप, उसके असाधारण गुणमात्रको प्रधान करके कहा जाता है तब परस्पर द्रव्योंका निमित्तनैमित्तिकभाव तथा निमित्तसे होने वाली पर्यायें-वे सब गौण हो जाते हैं, वे एक अभेदद्रव्यकी दृष्टिमें प्रतिभासित नहीं होते, इसलियेवे सब उस द्रव्यमें नहीं हैं इसप्रकार कथंचित् निषेध किया जाता है। यदि उन भावोंको उस द्रव्यमें कहा जाये तो वह व्यवहारनयसे कहा जा सकता है। ऐसा नयविभाग है।
यहाँ शुद्धनयकी दृष्टिसे कथन है इसलिये ऐसा सिद्ध किया है कि जो यह समस्त भाव सिद्धान्तमें जीवके कहे गये हैं सो व्यवहारसे कहे गये हैं। यदि नमित्तनैमित्तिकभावकी दृष्टिसे देखा जाये तो वह व्यवहार कथंचित् सत्यार्थ भी कहा जा सकता है। यदि सर्वथा असत्यार्थ ही कहा जाये तो सर्व व्यवहारका लोप हो जायेगा और सर्व व्यवहारका लोप होनेसे परमार्थका भी लोप हो जायेगा। इसलिये जिनन्द्रदेवका उपदेश स्याद्वादरूप समझना ही सम्यग्ज्ञान है, और सर्वथा एकांत वह मिथ्यात्व है।
__अब यहाँ प्रश्न होता है कि वर्णादिके साथ जीवका तादात्म्यलक्षण संबंध क्यों नहीं है ? उसके उत्तररूप गाथाकहते हैं:
संसारी जीवके वर्ण आदिक, भाव हैं संसार में। संसारसे परिमुक्तके नहिं, भाव को वर्णादिके।। ६१।।
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तत्र भवे जीवानां संसारस्थानां भवन्ति वर्णादयः । संसारप्रमुक्तानां न सन्ति खलु वर्णादयः केचित् ।। ६१ ।।
१९३
यत्किल सर्वास्वप्यवस्थासु यदात्मकत्वेन व्याप्तं भवति तदात्मकत्वव्याप्तिशून्य न भवति, तस्य तैः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्ध: स्यात्। ततः सर्वास्वप्यवस्थासु वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्च पुद्गलस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षण: सम्बन्धः स्यात्; संसारावस्थायां कथञ्चिद्वर्णाद्यात्मकत्व-व्याप्तस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्चापि सर्वथा वर्णाद्यात्मकत्व व्याप्तिशून्यस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्याभवतश्च जीवस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धो न कथञ्चनापि स्यात्।
मोक्षावस्थायां
गाथार्थ:- [ वर्णादयः ] जो वर्णादिक हैं वे [ संसारस्थानां] संसारमें स्थित [ जीवानां ] जीवोंके [ तत्र भवे ] उस संसारमें [ भवन्ति ] होते हैं और [ संसारप्रमुक्तानां ] संसारसे मुक्त हुए जीवोंके [ खलु ] निश्चयसे [ वर्णादयः केचित् ] वर्णादिक कोई भी (भाव) [ न सन्ति ] नहीं हैं; ( इसलिये तादात्म्यसंबंध नहीं है)।
टीका:- जो निश्चयसे समस्त ही अवस्थाओंमें यद् - आत्मकपनेसे अर्थात् जिसस्वरूपपनेसे व्याप्त हो और तद् - आत्मकपनेकी अर्थात् उस-स्वरूपपनेकी व्याप्तिसे रहित न हो, उसका उनके साथ तादात्म्यलक्षण संबंध होता है । ( जो वस्तु सर्व अवस्थाओं में जिस भावस्वरूप हो और किसी अवस्थामें उस भावस्वरूपता को न छोड़, उस वस्तुका उन भावोंके साथ तादात्म्यसंबंध होता है ।) इसलिये सभी अवस्थाओंमें जो वर्णादिस्वरूपतासे व्याप्त होता है और वर्णादिस्वरूपताकी व्याप्तिसे रहित नहीं होता है ऐसे पुद्गलका वर्णादिभावोंके साथ तादात्म्यलक्षण संबंध है, और यद्यपि संसार-अवस्थामें कथंचित् वर्णादिस्वरूपता से व्याप्त होता है तथा वर्णादिस्वरूपताकी व्याप्तिसे रहित नहीं होता है तथापि मोक्ष - अवस्थामें जो सर्वथा वर्णादिस्वरूपताकी व्याप्तिसे रहित होता है और वर्णादिस्वरूपतासे व्याप्त नहीं होता ऐसे जीवका वर्णादिभावोंके साथ किसी भी प्रकारसे तादात्म्यलक्षण संबंध नहीं है ।
भावार्थ:-द्रव्यकी सर्व अवस्थाओंमें द्रव्यमें जो भाव व्याप्त होते हैं उन भावों
के साथ द्रव्यका तादात्म्यसंबंध कहलाता है। पुद्गलकी सर्व अवस्थाओंमें पुद्गलमें वर्णादिभाव व्याप्त हैं इसलिये वर्णादिभावों के साथ पुद्गलका तादात्म्यसंबंध है। संसार-अवस्थामें जीवमें वर्णादिभाव किसी प्रकारसे कहे जा सकते हैं किन्तु मोक्षअवस्थामें जीवमें वर्णादिभाव सर्वथा नहीं हैं इसलिये जीवका वर्णादिभावोंके साथ तादात्म्यसंबंध नहीं है यह बात न्यायप्राप्त है
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समयसार
११४
जीवस्य वर्णादितादात्म्यदुरभिनिवेशे दोषश्चायम्जीवो चेव हि एदे सव्वे भाव त्ति मण्णसे जदि हि। जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई।। ६२ ।।
जीवश्चैव ह्येते सर्वे भावा इति मन्यसे यदि हि।
जीवस्याजीवस्य च नास्ति विशेषस्तु ते कश्चित्।। ६२ ।। यथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ता-भिर्व्यक्तिभिः पुद्गलद्रव्यमनुगच्छन्तः पुद्गलस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयन्ति, तथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिर्जीवमनुगच्छन्तो जीवस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयन्तीति यस्याभिनिवेशः तस्य शेषद्रव्यासाधारणस्य वर्णाद्यात्मकत्वस्य पुद्गललक्षणस्य जीवेन स्वीकरणाज्जीवपुद्गलयोर-विशेषप्रसक्तौ सत्यां पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः।
अब, यदि कोई ऐसा मिथ्या अभिप्राय व्यक्त करे कि जीवका वर्णादिके साथ तादात्म्य है, तो उसमें यह दोष आता है ऐसा इस गाथा द्वारा कहते हैं:
ये भाव सब हैं जीव जो, ऐसा ही तू माने कभी। तो जीव और अजीवमें कुछ, भेद तुझ रहता नहीं!।। ६२।।
गाथार्थ:-वर्णादिकके साथ जीवका तादात्म्य माननेवाले को कहते हैं किः हे मिथ्या अभिप्रायवाले! [ यदि हि च] यदि तुम [इति मन्यसे ] ऐसे मानोगे कि [ एते सर्वे भावाः ] यह वर्णादिक सर्व भाव [ जीवः एव हि] जीव ही हैं, [ तु] तो [ ते] तुम्हारे मतमें [जीवस्य च अजीवस्य ] जीव और अजीवका [ कश्चित् ] कोई [ विशेषः] भेद [ नास्ति ] नहीं रहता।
टीका:-जैसे वर्णादिक भाव, क्रमशः आविर्भाव (प्रगट होना, उपजना) और तिरोभाव (छिप जाना, नाश हो जाना) को प्राप्त होती हुई ऐसी उन उन व्यक्तियों के द्वारा (अर्थात् पर्यायों के द्वारा) पुद्गलद्रव्यके साथ ही साथ रहते हुये, पुद्गलका वर्णादिके साथ तादात्म्य प्रसिद्ध करते हैं-विस्तारते हैं, इसीप्रकार वर्णादिक भाव, क्रमशः आविर्भाव और तिरोभावको प्राप्त होती हुई ऐसी उन उन व्यक्तियों के द्वारा जीवके साथ ही साथ रहते हुये, जीवका वर्णादि के साथ तादात्म्य प्रसिद्ध करते हैं,-ऐसा जिसका अभिप्राय है उसके मतमें, अन्य शेष द्रव्योंसे असाधारण ऐसी वर्णादिस्वरूपता कि जो पुद्गलद्रव्यका लक्षण है-उसका जीव के द्वारा अंगीकार किया जाता है इसलिये, जीव-पुद्गलके अविशेषका प्रसंग आता है, और ऐसा होने से, पुद्गलसे भिन्न ऐसा कोई जीवद्रव्य न रहनेसे , जीवका अवश्य अभाव होता है।
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संसारावस्थायामेव जीवस्य वर्णादितादात्म्यमित्यभिनिवेशेऽप्ययमेव दोष:अह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी । तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा ।। ६३ ।। एवं पोग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदी । णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं गोग्गलो पत्तो ।। ६४ ।।
अथ संसारस्थानां जीवानां तव भवन्ति वर्णादयः । तस्मात्संसारस्था जीवा रूपित्वमापन्नाः ।। ६३ ।। एवं पुद्गलद्रव्यं जीवस्तथालक्षणेन मूढमते। निर्वाणमुपगतोऽपि च जीवत्वं पुद्गलः प्राप्तः ।। ६४ ।।
भावार्थ:-जैसे वर्णादिक भाव पुद्गलद्रव्यके साथ तादात्म्यस्वरूप हैं उसी प्रकार जीवके साथ तादात्म्यस्वरूप हों तो जीव - पुद्गलमें कोई भी भेद न रहे और ऐसा होने से जीवका ही अभाव हो जाये यह महादोष आता है।
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अब, ‘मात्र संसार - अवस्थामें ही जीवका वर्णादिके साथ तादात्म्य है' इस अभिप्रायमें भी यही दोष आता है सो कहते हैं:
वर्णादि हैं संसारी जीवके, योहिं मत तुझ होय जो । संसार स्थित सब जीवगण, पाये तदा रूपित्वको ।। ६३ ।। इस रीत पुद्गल वो ही जीव, हे मूढ़मति ! समचिह्नसे। अरु मोक्षप्राप्त हुआ भि पुद्गलद्रव्य जीव बने अरे ! ।। ६४ ।।
गाथार्थ:- [ अथ ] अथवा यदि [ तव ] तुम्हारा मत यह हो कि --
[ संसारस्थानां जीवानां ] संसारमें स्थित जीवोंके ही [ वर्णादयः] वर्णादिक ( तादात्म्यस्वरूपसे ) [ भवन्ति ] हैं, [ तस्मात् ] तो इस कारणसे [ संसारस्था: जीवाः ] संसारमें स्थित जीव [ रूपित्वम् आपन्नाः] रूपित्वको प्राप्त हुये; [ एवं ] ऐसा होने से, [तथालक्षणेन] वैसा लक्षण ( अर्थात् रूपित्व लक्षण ) तो पुद्गलद्रव्यका होनेसे, [ मूढमते] हे मूढबुद्धि ! [ पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्य ही [ जीवः ] जीव कहलाया [च] और (मात्र संसारअवस्थामें ही नहीं किन्तु ) [ निर्वाणम् उपगतः अपि ] निर्वाण प्राप्त होनेपर भी [ पुद्गलः ] पुद्गल ही [ जीवत्वं ] जीवत्वको [ प्राप्तः ] प्राप्त हुआ !
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समयसार
११६
यस्य तु संसारावस्थायां जीवस्य वर्णादितादात्म्यमस्तीत्यभिनिवेशस्तस्य तदानीं स जीवो रूपित्वमवश्यमवाप्नोति। रूपित्वं च शेषद्रव्यासाधारणं कस्यचिट्टव्यस्य लक्षणमस्ति। ततो रूपित्वेन लक्ष्यमाणं यत्किञ्चिद्भवति स जीवो भवति। रूपित्वेन लक्ष्यमाणं पुद्गलद्रव्यमेव भवति। एवं पुद्गलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति, न पुनरितरः कतरोऽपि। तथा च सति, मोक्षावस्थायामपि नित्यस्वलक्षणलक्षितस्य द्रव्यस्य सर्वास्वप्यवस्थास्वनपायित्वादनादिनिधनत्वेन पुद्गलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति, न पुनरितरः कतरोऽपि। तथा च सति, तस्यापि पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः।
एवमेतत् स्थितं यद्वर्णादयो भावा न जीव इति
टीका:-फिर, जिसका यह अभिप्राय है कि--संसार-अवस्थामें जीवका वर्णादिभावोंके साथ तादात्म्यसंबंध है, उसके मतमें संसार-अवस्था के समय वह जीव अवश्य रूपित्वको प्राप्त होता है; और रूपित्व तो किसी द्रव्यका, शेष द्रव्योंसे असाधारण ऐसा लक्षण है। इसलिये रूपित्व (लक्षण) से लक्षित (लक्ष्यरूप होता हुआ) जो कुछ हो वही जीव है। रूपित्वसे लक्षित तो पुद्गलद्रव्य ही है। इसप्रकार पुद्गलद्रव्य ही स्वयं जीव है, किन्तु उसके अतिरिक्त दूसरा कोई जीव नहीं है। ऐसा होने पर, मोक्ष-अवस्थामें भी पुद्गलद्रव्य ही स्वयं जीव (सिद्ध) है, किन्तु उसके अतिरिक्त अन्य कोई जीव (सिद्ध होता) नहीं; क्योंकि सदा अपने स्वलक्षणसे लक्षित ऐसा द्रव्य सभी अवस्थाओंमें हानि अथवा ह्रासको न प्राप्त होनेसे अनादि-अनंत होता है। ऐसा होनेसे , उसके मत में भी ( अर्थात् संसार-अवस्थामें ही जीवका वर्णादिके साथ तादात्म्य माननेवालेके मतमें भी); पुद्गलोंसे भिन्न ऐसा कोई जीवद्रव्य न रहने से, जीवका अवश्य अभाव होता है।
भावार्थ:-यदि ऐसा माना जाये कि संसार-अवस्थामें जीवका वर्णादिके साथ तादात्म्यसंबंध है तो जीव मूर्तिक हुआ; और मूर्तिकत्व तो पुद्गलद्रव्यका लक्षण है; इसलिये पुद्गलद्रव्य ही जीवद्रव्य सिद्ध हुआ, उसके अतिरिक्त कोई चैतन्यरूप जीवद्रव्य नहीं रहा। और मोक्ष होनेपर भी उन पुद्गलोंका ही मोक्ष हुआ; इसलिये मोक्षमें भी पुद्गल ही जीव ठहरे, अन्य कोई चैतन्यरूप जीव नहीं रहा। इसप्रकार संसार तथा मोक्षमें पुद्गलसे भिन्न ऐसा कोई चैतन्यरूप जीवद्रव्य न रहनेसे जीवका ही अभाव हो गया। इसलिये मात्र संसार-अवस्थामें ही वर्णादिभाव जीवके हैं ऐसा माननेसे भी जीवका अभाव ही होता है।
इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि वर्णादिक भाव जीव नहीं हैं, यह अब कहते
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एकं च दोण्णि तिण्णि य चत्तारि य पंच इंदिया जीवा । बादरपज्जत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस्स ।। ६५ ।। दाहि यणिव्वत्ता जीवद्वाणा उ करणभूदाहिं । पयडीहिं पोग्गलमइहिं ताहिं कहं भण्णदे जीवो ।। ६६ ।। एकं वा द्वे त्रीणि च चत्वारि च पञ्चेन्द्रियाणि जीवाः । बादरपर्याप्तेतराः प्रकृतयो नामकर्मणः ।। ६५ ।। एताभिश्च निर्वृत्तानि जीवस्थानानि करणभूताभिः । प्रकृतिभिः पुद्गलमयीभिस्ताभिः कथं भण्यते जीवः।। ६६ ।।
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निश्चयतः कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्येन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा यथा कनकपत्रं कनकेन क्रियमाणं कनकमेव, न त्वन्यत्, तथा जीवस्थानानि बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्ताभिधानाभिः पुद्गलमयीभिः नामकर्मप्रकृतिभिः क्रियमाणानि पुद्गल एव, न तु जीवः । नामकर्मप्रकृतीनां
जीव एक-दो-त्रय-चार-पंचेन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म हैं।
पर्याप्त अनपर्याप्त जीव जु नामकर्म की प्रकृति है ।। ६५ ।।
जो प्रकृति यह पुद्गलमयी, वह करणरूप बने अरे । उससे रचित जीव स्थान जो हैं, जीव क्यों हि कहाय वे । ६६ ॥
गाथार्थ:- [ एकं वा ] एकेंद्रिय, [ द्वे ] द्वीन्द्रिय, [ त्रीणि च ] त्रीन्द्रिय,
[ चत्वारि च ] चतुरिन्द्रिय, और [ पञ्चेन्द्रियाणि ] पंचेन्द्रिय, [ बादरपर्याप्ततराः ] बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त [ जीवाः ] जीव तथा यह [ नामकर्मणः] नामकर्मकी [ प्रकृतयः ] प्रकृतियाँ हैं; [ एताभिः [] इन [ प्रकृतिभिः ] प्रकृतियों [ पुद्गलमयीभिः ताभिः] जो कि पुद्गलमय रूपसे प्रसिद्ध हैं उनके द्वारा [ करणभूताभिः ] करणस्वरूप होकर [निर्वृत्तानि ] रचित [ जीवस्थानानि ] जो जीवस्थान ( जीवसमास ) हैं वे [ जीवः ] जीव [ कथं ] कैसे [ भण्यते ] कहे जा सकते हैं ?
टीका:-निश्चयनयसे कर्म और करणकी अभिन्नता होनेसे, जो जिससे किया जाता है (-होता है) वह वही है - यह समझकर (निश्चय करके), जैसे सुवर्ण-पत्र सुवर्ण से किया जाता होने से सुवर्ण ही है, अन्य कुछ नहीं है, इसी प्रकार जीवस्थान बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त और अपर्याप्त नामक पुद्गलमयी नामकर्मकी प्रकृतियोंसे किये जाते होनेसे पुद्गल ही हैं, जीव नहीं हैं। और नामकर्मकी प्रकृतियोंकी
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समयसार
पुद्गलमयत्वं चागमप्रसिद्धं दृश्यमानशरीरादिमूर्तकार्यानुमेयं च । एवं गन्धरसस्पर्शरूप शरीरसंस्थान संहननान्यपि पुद्गलमयनामकर्मप्रकृतिनिर्वृत्तत्वे सति तदव्यतिरेकाज्जीवस्थानैरेवोक्तानि। ततो न वर्णादयो जीव इति निश्चयसिद्धान्तः।
( उपजाति) निर्वर्त्यते येन यदत्र किञ्चित् तदेव तत्स्यान्न कथञ्चनान्यत्। रुक्मेण निर्वृत्तमिहासिकोशं पश्यन्ति रुक्मं न कथञ्चनासिम्।। ३८ ।।
पुद्गलमयता तो आगमसे प्रसिद्ध है तथा अनुमानसे भी जानी जा सकती है क्योंकि प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले शरीर आदि जो मूर्तिक भाव हैं वे कर्मप्रकृतियोंके कार्य हैं इसलिये कर्मप्रकृतियाँ पुद्गलमय हैं ऐसा अनुमान हो सकता है।
इसीप्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान और संहनन भी पुद्गलमय नामकर्मकी प्रकृतियों के द्वारा रचित होनेसे पुद्गलसे अभिन्न हैं; इसलिये, मात्र जीवस्थानोंको पुद्गलमय कहने पर इन सबको भी पुद्गलमय ही कथित समझना चाहिये।
इसलिये वर्णादिक जीव नहीं हैं यह निश्चयनयका सिद्धांत है।
यहाँ इस अर्थ का कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ येन ] जिस वस्तुसे [ अत्र यद् किञ्चित् निर्वर्त्यते ] जो भाव बने, [ तत्] वह भाव [ तद् एव स्यात् ] वह वस्तु ही है, [ कथञ्चन ] किसी भी प्रकार [ अन्यत् न ] अन्य वस्तु नहीं हैं; [ इह ] जैसे जगतमें [ रुक्मेण निर्वृत्तम् असिकोशं ] स्वर्ण निर्मित म्यानको [ रुक्मं पश्यन्ति ] लोग स्वर्ण ही देखते हैं, ( उसे ) [ कथञ्चन ] किसी प्रकारसे [न असिम् ] तलवार नहीं देखते।
भावार्थ:-वर्णादि पुद्गल रचित हैं इसलिये वे पुद्गल ही हैं, जीव नहीं । ३८ ।
अब दूसरा कलश कहते हैं:
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जीव-अजीव अधिकार
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(उपजाति) वर्णादिसामग्र्यमिदं विदन्तु निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य। ततोऽस्त्विदं पुद्गल एव नात्मा यतः स विज्ञानघनस्ततोऽन्यः।। ३९ ।।
शेषमन्यव्यवहारमात्रम्पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहुमा बादरा य जे चेव। देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता।।६७ ।।
पर्याप्तापर्याप्ता ये सूक्ष्मा बादराश्च ये चैव। देहस्य जीवसंज्ञाः सूत्रे व्यवहारतः उक्ताः।। ६७ ।।
यत्किल बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्ता इति शरीरस्य संज्ञाः सूत्रे जीवसंज्ञात्वेनोक्ता: अप्रयोजनार्थ: परप्रसिद्ध्या घृतघटवद्व्यवहारः।
श्लोकार्थ:-अहो ज्ञानी जनों! [ इदं वर्णादिसामग्र्यम् ] ये वर्णादिकसे लेकर गुणस्थानपर्यंत भाव हैं उन समस्त को [ एकस्य पुद्गलस्य हि निर्माणम् ] एक पुद्गलकी रचना [ विदन्तु] जानों; [ ततः ] इसलिये [ इदं ] यह भाव [ पुद्गलः एव अस्तु] पुद्गल ही हों, [न आत्मा ] आत्मा न हों; [ यतः ] क्योंकि [ सः विज्ञानघनः ] आत्मा तो विज्ञानघन है, ज्ञानका पुंज है, [ ततः ] इसलिये [ अन्यः ] वह इन वर्णादिक भावोंसे अन्य ही है। ३९।
अब, यह कहते हैं ज्ञानघन आत्माके अतिरिक्त जो कुछ है उसे जीव कहना सो सब व्यवहारमात्र है:
पर्याप्त अनपर्याप्त जो, हैं सूक्षम अरु बादर सभी। व्यवहार से कही जीवसंज्ञ, देहको शास्त्रन महीं।। ६७।।
गाथार्थ:- [ ये] जो [ पर्याप्तापर्याप्ताः ] पर्याप्त , अपर्याप्त [ सूक्ष्माः बादराः च] सूक्ष्म और बादर आदि [ ये च एव ] जितनी [ देहस्य ] देहकी [ जीवसंज्ञाः] जीवसंज्ञा कही हैं वे सब [ सूत्रे ] सूत्रमें [व्यवहारतः ] व्यवहारसे [ उक्ताः ] कही हैं।
टीका:-बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त , अपर्याप्त-इन शरीरकी संज्ञाओंको (नामोंको) सूत्रमें जीवसंज्ञारूपसे कहा है, वह परकी प्रसिद्धिके कारण, 'घी के घड़े'की भाँति व्यवहार है
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समयसार
१२०
यथा हि कस्यचिदाजन्मप्रसिद्धैकघृतकुम्भस्य तदितरकुम्भानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं घृतकुम्भ: स मृण्मयो, न घृतमय इति तत्प्रसिद्ध्या कुम्भे घृतकृम्भव्यवहारः, तथास्याज्ञानिनो लोकस्यासंसारप्रसिद्धाशुद्धजीवस्य शुद्धजीवानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं वर्णादिमान जीव: स ज्ञानमयो, न वर्णादिमय इति तत्प्रसिद्ध्या जीवे वर्णादिमव्यवहारः।
( अनुष्टुभ् ) घृतकुम्भाभिधानेऽपि कुम्भो घृतमयो न चेत्। जीवो वर्णादिमज्जीवजल्पनेऽपि न तन्मयः।। ४० ।।
-कि जो व्यवहार अप्रयोजनार्थ है ( अर्थात् उसमें प्रयोजनभूत वस्तु नहीं है)। इसी बातको स्पष्ट कहते हैं:
___जैसे किसी पुरुषको जन्मसे लेकर मात्र ‘घी का घड़ा' ही प्रसिद्ध (ज्ञात) हो, उसके अतिरिक्त वह दूसरे घड़ेको न जानता हो, उसे समझाने के लिये जो यह ' घीका घड़ा ' है सो मिट्टीमय है, घीमय नहीं” इसप्रकार ( समझानेवाले के द्वारा) घड़ेमें - घी के घड़े ' का व्यवहार किया जाता है, क्योंकि उस पुरुष को ' घी का घड़ा ' ही प्रसिद्ध (ज्ञात) है; इसीप्रकार इस अज्ञानी लोकको अनादि संसारसे लेकर 'अशुद्ध जीव' ही प्रसिद्ध (ज्ञात) है, शुद्ध जीवको नहीं जानता, उसे समझाने के लिये (-शुद्ध जीवका ज्ञान करानेके लिये) “जो यह 'वर्णादिमान जीव' है सो ज्ञानमय है, वर्णादिमय नहीं” इसप्रकार (सूत्रमें) जीवमें वर्णादिमानपनेका व्यवहार किया गया है, क्योंकि उस अज्ञानी लोकको ‘वर्णादिमान जीव' ही प्रसिद्ध (ज्ञात)
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते है:
श्लोकार्थ:- [चेत् ] यदि [घृतकुम्भाभिधाने अपि] घीका घड़ा ' ऐसा कहने पर भी [ कुम्भः घृतमयः न] घड़ा है वह घीमय नहीं है (-मिट्टीमय ही है), [ वर्णादिमत्-जीव-जल्पने अपि] तो इसीप्रकार वर्णादिमान् जीव' ऐसा कहने पर भी [ जीवः न तन्मयः ] जीव है वह वर्णादिमय नहीं है ( -ज्ञानघन ही है)।
भावार्थ:-घी से भरे हुए घड़ेको व्यवहारसे · घीका घड़ा ' कहा जाता है तथापि निश्चयसे घड़ा घी-स्वरूप नहीं है; घी घी-स्वरूप है, घड़ा मिट्टी-स्वरूप है; इसीप्रकार वर्ण, पर्याप्ति, इन्द्रियों इत्यादिके साथ एकक्षेत्रावगाहरूप संबंधवाले जीवको सूत्रमें व्यवहारसे ‘पंचेन्द्रिय जीव, पर्याप्त जीव, बादर जीव, देव जीव, मनुष्य जीव' इत्यादि कहा गया है तथापि निश्चयसे जीव उस-स्वरूप नहीं है; वर्ण, पर्याप्ति, इन्द्रियाँ इत्यादि पुद्गलस्वरूप हैं, जीव ज्ञानस्वरूप है। ४०।
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जीव-अजीव अधिकार
१२१
एतदपि स्थितमेव यद्रागादयो भावा न जीवा इतिमोहणकम्मस्सुदया दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा। ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता।। ६८ ।। मोहनकर्मण उदयात्तु वर्णितानि यानीमानि गुणस्थानानि।
तानि कथं भवन्ति जीवा यानि नित्यमचेतनान्युक्तानि।।६८ ।। मिथ्यादृष्ट्यादीनि गुणस्थानानि हि पौद्गलिकमोहकर्मप्रकृतिविपाक-पूर्वकत्वे सति, नित्यमचेतनत्वात्, कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा, यवपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन, पुद्गल एव, न तु जीवः। गुणस्थानानां नित्यमचेतनत्वं चागमाच्चैतन्यस्वभावऽ व्याप्तस्यात्मनोऽतिरिक्तत्वेन विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वाच्च प्रसाध्यम्।एवं रागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्मवर्गवर्गणास्पर्धकाध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानबन्धस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबन्धस्थानसंक्लेशस्थान
अब कहते हैं कि (जैसे वर्णादि भाव जीव नहीं हैं यह सिद्ध हुआ उसी प्रकार ) यह भी सिद्ध हुआ कि रागादि भाव भी जीव नहीं है:
मोहनकरमके उदयसे , गुणस्थान जो ये वर्णयें। वे क्यों बने आत्मा, निरंतर जो अचेतन जिन कहे ?।। ६८।।
गाथार्थ:- [ यानि इमानि ] जो यह [ गुणस्थानानि ] गुणस्थान हैं वे [ मोहनकर्मणः उदयात् तु] मोहकर्मके उदयसे होते हैं [ वर्णितानि] ऐसा (सर्वज्ञके आगममें ) वर्णन किया गया है; [ तानि] वे [ जीवाः ] जीव [ कथं ] कैसे [ भवन्ति ] हो सकते हैं [ यानि ] कि जो [ नित्यं] सदा [ सचेतनानि ] अचेतन [ उक्तानि ] कहे गये
टीका:-ये मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान पौद्गलिक मोहकर्मकी प्रकृतिके उदयपूर्वक होते होनेसे, सदा ही अचेतन होनेसे , कारण जैसा ही कार्य होता है ऐसा समझकर ( समझकर, निश्चय कर), जौ पूर्वक होनेवाले जो जौ, वे जौ ही होते हैं इसी न्याय से, वे पुद्गल ही हैं-जीव नहीं। और गुणस्थानोंका सदा ही अचेतनत्व तो आगमसे सिद्ध होता है तथा चैतन्यस्वभावसे व्याप्त जो आत्मा उससे भिन्नपने से वे गुणस्थान भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान हैं इसलिये भी उनका सदा ही अचेतनत्व सिद्ध होता है।इसीप्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संकलेशस्थान,
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समयसार
१२२
विशुद्धिस्थान-संयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गलकर्मपूर्वकत्वे सति, नित्यमचेतनत्वात्, पुद्गल एव, न तु जीव इति स्वयमायातम्। ततो रागादयो भावा न जीव इति सिद्धम्। तर्हि को जीव इति चेत्
___ (अनुष्टुभ् ) अनाद्यनन्तमचलं स्वसंवेद्यमिदं स्फुटम्। जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते।। ४१ ।।
विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान भी पुद्गलकर्मपूर्वक होते होनेसे, सदा ही अचेतन होनेसे , पुद्गल ही हैं-जीव नहीं ऐसा स्वतः सिद्ध हो गया। इससे यह सिद्ध हुआ कि रागादिभाव जीव नहीं हैं।
भावार्थ:-शुद्धद्रव्यार्थिक नयकी दृष्टिमें चैतन्य अभेद है और उसके परिणाम भी स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान-दर्शन हैं। परनिमित्तसे होनेवाले चैतन्यके विकार, यद्यपि चैतन्य जैसे दिखाई देते हैं तथापि, चैतन्यकी सर्व अवस्थाओंमें व्यापक न होनेसे चैतन्यशून्य हैं-जड़ हैं। और आगममें भी उन्हें अचेतन कहा है। भेदज्ञानी भी उन्हें चैतन्यसे भिन्नरूप अनुभव करते हैं इसलिये भी वे अचेतन हैं, चेतन नहीं।
प्रश्न:-यदि वे चेतन नहीं हैं तो क्या हैं ? वे पुद्गल हैं या कुछ और ?
उत्तर:-वे पुद्गलकर्मपूर्वक होते हैं इसलिये वे निश्चयसे पुद्गल ही हैं क्योंकि कारण जैसा ही कार्य होता है।
इसप्रकार यह सिद्ध किया कि पुद्गलकर्मके उदयके निमित्तसे होनेवाले चैतन्यके विकार भी जीव नहीं, पुद्गल हैं।
___ अब यहाँ प्रश्न होता है कि वर्णादिक और रागादिक जीव नहीं तो जीव कौन है ? उसके उत्तररूप श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अनादि] जो अनादि है अर्थात् किसी काल उत्पन्न नहीं हुआ , [अनन्तम् ] जो अनंत है अर्थात् किसी काल जिसका विनाश नहीं हुआ, [अचलं] जो अचल है अर्थात् जो कभी चैतन्यपनेसे अन्यरूप-चलाचल-नहीं होता, [ स्वसंवेद्यम् ] जो स्वसंवेद्य है अर्थात् जो स्वयं अपने आप से ही जाना जाता है [ तु] और [ स्फुटम् ] प्रगट अर्थात् छुपा हुआ नहीं-ऐसा जो [ इदं चैतन्यम् ] यह चैतन्य [ उच्चैः] अत्यंत [चकचकायते] चकचकित प्रकाशित हो रहा है, [स्वयं जीवः ] वह स्वयं ही जीव है।
भावार्थ:-वर्णादि और रागादि भाव जीव नहीं है किन्तु ऊपर कहा वैसा चैतन्यभाव ही जीव है। ४१ ।
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जीव-अजीव अधिकार
१२३
__ (शार्दूलविक्रीडित) वर्णाद्यैः सहितस्तथा विरहितो द्वेधास्त्यजीवो यतो नामूर्तत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः। इत्यालोच्य विवेचकैः समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि वा
व्यक्तं व्यञ्जितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालम्ब्यताम्।। ४२ ।। अब काव्य द्वारा यह समझाते हैं कि चेतनत्व ही जीवका योग्य लक्षण है:
श्लोकार्थ:- [यतः अजीवः अस्ति द्वधा ] अजीव दो प्रकारके हैं- [ वर्णाद्यः सहितः] वर्णादिसहित [तथा विरहितः] और वर्णादिरहित; [ततः] इसलिये [अमूर्तत्वम् उपास्य] अमूर्तत्वका आश्रय लेकर भी ( अर्थात् अमूर्तत्वको जीवका लक्षण मानकर भी) [ जीवस्य तत्त्वं] जीवके यथार्थ स्वरूपको [ जगत् न पश्यति] जगत नहीं देख सकता;- [इति आलोच्य ] इसप्रकार परीक्षा करके [ विवेचकैः ] भेदज्ञानी पुरुषोंने [न अव्यापि अतिव्यापि वा] अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दूषणोंसे रहित [चैतन्यम् ] चेतनत्वको जीवका लक्षण कहा है [ समुचितं] वह योग्य है। [ व्यक्तं] वह चैतन्यलक्षण प्रगट है, [ व्यञ्जित-जीव-तत्त्वम् ] उसने जीवके यथार्थ स्वरूपको प्रगट किया है और [अचलं] वह अचल है-चलाचलता रहित, सदा विद्यमान है। [आलम्ब्यताम् ] जगत उसीका अवलंबन करो! ( उससे यथार्थ जीवका ग्रहण होता है।)
भावार्थ:-निश्चयसे वर्णादिभाव-वर्णादिभावोंमें रागादिभाव अन्तर्हित हैं-जीवमें कभी व्याप्त नहीं होते इसलिये वे निश्चयसे जीवके लक्षण हैं ही नहीं; उन्हें व्यवहारसे जीवका लक्षण माननेपर भी अव्याप्ति नामक दोष आता है क्योंकि सिद्ध जीवोंमें वे भाव व्यवहारसे भी व्याप्त नहीं होते। इसलिये वर्णादिभावोंका आश्रय लेनेसे जीवका यथार्थ स्वरूप जाना ही नहीं जाता।
यद्यपि अमूर्तत्व सर्व जीवोंमें व्यप्त है तथापि उसे जीवका लक्षण मानने पर अतिव्याप्ति नामक दोष आता है, कारण कि पाँच अजीव द्रव्योंमेंसे एक पुद्गलद्रव्य के अतिरिक्त धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये चार द्रव्य अमूर्त होनेसे, अमूर्तत्व जीव में व्यापता है वैसे ही चार अजीव द्रव्योंमें भी व्यापता है; इसप्रकार अतिव्याप्ति दोष आता है। इसलिये अमूर्तत्वका आश्रय लेनेसे भी जीवका यथार्थ स्वरूप ग्रहण नहीं होता है। चैतन्यलक्षण सर्व जीवोंमें व्यापता होनेसे अव्याप्तिदोषसे रहित है, और जीव के अतिरिक्त किसी द्रव्यमें व्यापता न होनेसे अतिव्याप्तिदोषसे रहित है; और वह प्रगट है; इसलिये उसी का आश्रय ग्रहण करनेसेजीव के यथार्थ स्वरूपका ग्रहण हो सकता है। ४२।
अब, जबकी ऐसे लक्षणसे जीव प्रगट है तब भी अज्ञानी जनोंको उसका अज्ञान क्यों रहता है ?'-इसप्रकार आचार्यदेव आश्चर्य तथा खेद प्रगट करते हैं:
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समयसार
१२४
( वसंततिलका) जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्नं ज्ञानी जनोऽनुभवति स्वयमुल्लसन्तम्। अज्ञानिनो निरवधिप्रविजृम्भितोऽयं
मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति।।४३ ।। नानट्यतां तथापि
(वसन्ततिलका) अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः। रागादिपुद्गलविकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ।। ४४ ।।
श्लोकार्थ:- [इति लक्षणतः ] यों पूर्वोक्त भिन्न लक्षणके कारण [ जीवात् अजीवम् विभिन्नं] जीवसे अजीव भिन्न है [ स्वयम् उल्लसन्तम् ] उसे (अजीवको) अपने आप ही ( -स्वतंत्रपने, जीवसे भिन्नपने) विलसित होता हुआ-परिणमित होता हुआ [ ज्ञानी जनः] ज्ञानीजन [अनुभवति] अनुभव करते हैं, [ तत् ] तथापि [अज्ञानिनः ] अज्ञानीको [ निरवधि-प्रविजृम्भित: अयं मोह: तु] अमर्यादरूपसे फैला हुआ यह मोह (अर्थात् स्वपरके एकत्वकी भ्रान्ति) [ कथम् नानटीति] क्यों नाचता है - [अहो बत] यह हमें महा आश्चर्य और खेद है!। ४३।
अब पुनः मोहका प्रतिषेध करते हुए कहते हैं कि यदि मोह नाचता है तो नाचो ? तथापि ऐसा ही है ':
श्लोकार्थ:- [अस्मिन् अनादिनि महति अविवेक-नाटये] इस अनादि कालीन महा अविवेकके नाटकमें अथवा नाचमें [वर्णादिमान् पुद्गलः एव नटति] वर्णादिमान पुद्गल ही नाचता है, [न अन्यः ] अन्य कोई नहीं; ( अभेद ज्ञानमें पुद्गल ही अनेक प्रकारका दिखाई देता है, जीव अनेक प्रकारका नहीं है; [च] और [अयं जीवः ] यह जीव तो [ रागादि-पुद्गल-विकार-विरुद्ध-शुद्ध-चैतन्यधातुमय-मूर्तिः] रागादिक पुद्गल-विकारोंसे विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है।
भावार्थ:-रागादि चिद्विकारको (-चैतन्यविकारोंको) देखकर ऐसा भ्रम नहीं करना कि ये भी चैतन्य ही है, क्योंकि चैतन्यकी सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त हों तो चैतन्यके कहलायें। रागादि विकार सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त नहीं होते-मोक्षअवस्थामेंउनका अभाव है। और उनका अनभव भी आकलतामय दःखरूप है। इसलिये वे चेतन नहीं, जड़ हैं। चैतन्यका अनुभव निराकुल है, वही जीवका स्वभाव है ऐसा जानना ।४४।
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जीव-अजीव अधिकार
१२५
(मन्दाक्रान्ता) इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नाटयित्वा जीवाजीवौ स्फुटविघटनं नैव यावत्प्रयातः। विश्वं व्याप्य प्रसभविकसव्यक्तचिन्मात्रशक्त्या ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे।। ४५ ।।
अब, भेदज्ञानकी प्रवृत्ति के द्वारा यह ज्ञाताद्रव्य स्वयं प्रगट होता है इसप्रकार कलशमें महिमा प्रगट करके अधिकार पूर्ण करते हैं:
श्लोकार्थ:- [इत्थं ] इसप्रकार [ज्ञान-क्रकच-कलना-पाटनं] ज्ञानरूपी करवतका जो बारंबार अभ्यास है उसे [नाटयित्वा] नचाकर [यावत् ] जहाँ [जीवाजीवौ ] जीव और अजीव दोनों [ स्फुट-विघटनं त एव प्रयातः ] प्रगटरूपसे अलग नहीं हुए, [ तावत् ] वहाँ तो [ ज्ञातृद्रव्यं ] ज्ञाताद्रव्य, [ प्रसभ-विकसत्-व्यक्तचिन्मात्रशक्त्या] अत्यंत विकासरूप होती हुई अपनी प्रगट चिन्मात्रशक्ति से [ विश्वं व्याप्य] विश्वको व्याप्त करके, [स्वयम् ] अपने आप ही [अतिरसात् ] अतिवेगसे [ उच्चैः ] उग्रतया अर्थात् आत्यंतिकरूपसे [ चकाशे] प्रकाशित हो उठा।
कलशका आशय दो प्रकार का है:
उपरोक्त ज्ञानका अभ्यास करते करते जहाँ जीव और अजीव दोनों स्पष्ट भिन्न समझमें आये कि तत्काल ही आत्माका निर्विकल्प अनुभव हुआ-सम्यग्दर्शन हुआ। ( सम्यग्दृष्टि आत्मा श्रुतज्ञान से विश्वके समस्त भावोंको संक्षेपसे अथवा विस्तारसे जानता है और निश्चयसे विश्वको प्रत्यक्ष जाननेका उसका स्वभाव है; इसलिये यह कहा है कि वह विश्वको जानता है।) एक आशय तो इस प्रकार है।
दूसरा आशय इस प्रकार से है: जीव-अजीवका अनादिकालीन संयोग केवल अलग होने से पूर्व अर्थात् जीवका मोक्ष होने से पूर्व , भेदज्ञानके भाते भाते अमुक दशा होनेपर निर्विकल्प धारा जमी-जिसमें केवल आत्माका अनुभव रहा; और वह श्रेणि अत्यंत वेगसे आगे बढ़ते बढ़ते केवलज्ञान प्रगट हुआ। और फिर अघातियाकर्मोंका नाश होनेपर जीवद्रव्य अजीवसे केवल भिन्न हुवा। जीव-अजीवके भिन्न होने की यह रीति है। ४५।
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समयसार
१२६
इति जीवाजीवौ पृथग्भूत्वा निष्क्रान्तौ।
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां जीवाजीवप्ररूपकः प्रथमोऽङ्क।।
समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ
टीका:-इसप्रकार जीव और अजीव अलग अलग होकर ( रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गये।
भावार्थ:-जीव-अजीव अधिकारमें पहले रंगभूमिस्थल कहकर उसके बाद टीकाकार आचार्यने ऐसा कहा था कि नृत्यके अखाड़ेमें जीव-अजीव दोनों एक होकर प्रवेश करते हैं और दोनों ने एकत्व का स्वाँग रचा है। वहाँ, भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुषने सम्यग्ज्ञान से उन जीव-अजीव दोनों की उनके लक्षणभेदसे परीक्षा करके दोनों को पृथक् जाना इसलिये स्वाँग पूरा हुआ और दोनों अलग अलग होकर अखाड़ेसे बाहर निकल गये। इसप्रकार अलंकारपूर्वक वर्णन किया है।
जीव-अजीव अनादि संयोग मिलै लखि मूढ़ न आतम पावै, सम्यक् भेदविज्ञान भये बुध भिन्न गहे निजभाव सुदावें; श्री गुरुके उपदेश सुनै रु भले दिन पाय अज्ञान गमावै। ते जगमांहि महंत कहाय वसैं शिव जाय सुखी नित था।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें प्रथम जीवअजीवाधिकार समाप्त हुआ।
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卐555555555555555555
-२
कर्ता-कर्म अधिकार
卐 ज
अथ जीवाजीवावेव कर्तृकर्मवेषेण प्रविशतः।
(मन्दाक्रान्ता) एक: कर्ता चिदहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी इत्याज्ञानां शमयदभितः कर्तृकर्मप्रवृत्तिम्। ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदात्तमत्यन्तधीरं साक्षात्कुर्वन्निरुपधिपृथग्द्रव्यनिर्भासि विश्वम्।। ४६ ।।
दोहा--कर्ताकर्मविभावकू, मेटि ज्ञानमय होय,
कर्म नाशि शिवमें बसे , तिहें नमुं , मद खोय। प्रथम टीकाकार कहते हैं कि 'अब जीव-अजीव ही एक कर्ताकर्मके वेषमें प्रवेश करते हैं।' जैसे दो पुरुष परस्पर कोई एक स्वाँग करके नृत्यके अखाड़ेमें प्रवेश करें उसीप्रकार जीव-अजीव दोनों एक कर्ताकर्मका स्वांग करके प्रवेश करते हैं इसप्रकार यहाँ टीकाकारने अलंकार किया है।
अब पहले, उस स्वाँगको ज्ञान यथार्थ जान लेता है उस ज्ञानकी महिमाका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ इह ] 'इस लोकमें [अहम् चिद् ] मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा तो [एक: कर्ता] एक कर्ता हूँ और [ अमी कोपादयः] यह क्रोधादि भाव [ मे कर्म] मेरे कर्म हैं' [इति अज्ञानां कर्तृकर्मप्रवृत्तिम् ] ऐसी अज्ञानियोंके जो कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है उसे [ अभितः शमयत् ] सब ओर से शमन करती हुई ( –मिटाती हुई ) [ ज्ञानज्योति:] ज्ञानज्योति [ स्फुरति] स्फुरायमान होती है। वह ज्ञानज्योति ? [ परम-उदात्तम् ] परम उदात्त है अर्थात् किसीके आधीन नहीं है, [अत्यन्तधीरं] अत्यंत धीर है अर्थात् किसी भी प्रकारसे आकुलतारूप नहीं है और [निरुपधि-पृथग्द्रव्य-निर्भासि] परकी सहायताके बिना भिन्न भिन्न द्रव्योंको प्रकाशित करनेका उसका स्वभाव है इसलिये [विश्वम् साक्षात् कुर्वत् ] वह समस्त लोकालोक को साक्षात् करती है-प्रत्यक्ष जानती
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समयसार
१२८
जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोण्हं पि। अण्णाणी ताव दु सो कोहादिसु वट्टदे जीवो।। ६९ ।। कोहादिसु वढ्तस्स तस्स कम्मस्स संचओ होदि। जीवस्सेवं बंधो भणिदो खलु सव्वदरिसीहिं।।७० ।।
यावन्न वेत्ति विशेषान्तरं त्वात्मानवयोर्द्वयोरपि। अज्ञानी तावत्स क्रोधादिषु वर्तते जीवः।। ६९ ।। क्रोधादिषु वर्तमानस्य तस्य कर्मणः सञ्चयो भवति। जीवस्यैवं बन्धो भणितः खलु सर्वदर्शिभिः।। ७० ।।
यथायमात्मा तादात्म्यसिद्धसम्बन्धयोरात्मज्ञानयोरविशेषाद्भेदम
भावार्थ:-ऐसा ज्ञानस्वरूप आत्मा है वह, परद्रव्य तथा परभावोंके कर्तृत्वरूप अज्ञानको दूर करके, स्वयं प्रगट प्रकाशमान होता है।। ४६।।
अब, जब तक यह जीव आस्रवके और आत्माके विशेषको (अंतरको) नहीं जाने तबतक वह अज्ञानी रहता हुआ , आस्रवोमें स्वयं लीन होता हुआ, कर्मोंका बंध करता है यह गाथा द्वारा कहते हैं:
रे आत्मा आस्रव का जहाँ तक , भेद जीव जाने नहीं। क्रोधादिमें स्थिति होय है, अज्ञानि ऐसे जीवकी।। ६९।। जीव वर्तता क्रोधादिमें, तब करम संचय होय हैं। सर्वज्ञ ने निश्चय कहा,यों बंध होता जीवके।। ७०।।
गाथार्थ:- [ जीवः ] जीव [ यावत् ] जब तक [ आत्मास्रवयोः द्वयोः अपि तु] आत्मा और आस्रव-इन दोनोंके [विशेषान्तरं] अन्तर और भेदको [न वेत्ति] नहीं जानता [ तावत् ] तबतक [ सः] वह [ अज्ञानी] अज्ञानी रहता हुआ [ क्रोधादिषु] क्रोधादिक आस्रवोंमें [ वर्तते ] प्रवर्तता है; [ क्रोधादिषु ] क्रोधादिकमें [ वर्तमानस्य तस्य ] प्रवर्तमान उसके [ कर्मणः ] कर्मका [ सञ्चयः ] संचय [भवति] होता है। [खलुं] वास्तव में [ एवं ] इसप्रकार [ जीवस्य ] जीवके [ बन्धः] कर्मोंका बंध [ सवदर्शिभिः] सर्वज्ञदेवोंने [ भणितः ] कहा है।
टीका:-जैसे यह आत्मा, जिनके तादात्म्यसिद्ध संबंध है ऐसे आत्मा और ज्ञानमें विशेष (अन्तर, भिन्न लक्षण) न होनेसे उनके भेदको (पृथकत्वको)
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कर्ता-कर्म अधिकार
१२९
पश्यन्नविशङ्कमात्म तया ज्ञाने वर्तते, तत्र वर्तमानश्च ज्ञानक्रियायाः स्वभावभूतत्वेनाप्रतिषिद्धत्वा-ज्जानाति, तथा संयोगसिद्धसम्बन्धयोरप्यात्मक्रोधाद्यास्रवयोः स्वयमज्ञानेन विशेषमजानन् यावद्भेदं न पश्यति तावदशङ्कमात्मतया क्रोधादौ वर्तते, तत्र वर्तमानश्च क्रोधादिक्रियाणां परभावभूतत्वात्प्रतिषिद्धत्वेऽपि स्वभावभूतत्वा-ध्यासात्क्रुध्यति रज्यते मुह्यति चेति। तदत्र योऽयमात्मा स्वयमज्ञानभवने ज्ञानभवनमात्रसहजोदासीनावस्थात्यागेन व्याप्रियमाण: प्रतिभाति स कर्ता; यत्तु ज्ञानभवनव्याप्रियमाणत्वेभ्यो भिन्नं क्रियमाणत्वेनान्तरुत्प्लवमानं प्रतिभाति क्रोधादि तत्कर्म। एवमियमनादिरज्ञानजा कर्तृकर्मप्रवृत्तिः। एवमस्यात्मनः स्वयमज्ञानात्कर्तृकर्मभावेन क्रोधादिषु वर्तमानस्य तमेव क्रोधादिवृत्तिरूपं परिणामं निमित्तमात्रीकृत्य स्वयमेव परिणममानं पौगलिकं कर्म सञ्चयमुपयाति। एवं जीवपुद्गलयोः परस्परावगाहलक्षणसम्बन्धात्मा बन्धः सिध्येत्। स चानेकात्मकैकसन्तानत्वेन निरस्तेतरेतराश्रयदोषः कर्तृकर्मप्रवृत्ति
न देखता हुआ, निःशंकतया ज्ञानमें आत्मपनेसे प्रवर्तता है, और वहाँ (ज्ञानमें आत्मापनेसे ) प्रवर्तता हुआ वह, ज्ञानक्रियाका स्वभावभूत होनेसे निषेध नहीं किया गया है इसलिये, जानता है--जाननेरूपमें परिणमित होता है, इसीप्रकार जब तक यह आत्मा, जिन्हें संयोगसिद्ध संबंध है ऐसे आत्मा और क्रोधादि आस्रवोंमें भी अपने अज्ञानभाव से, विशेष न जानता हुआ उनके भेद नहीं देखता तबतक निःशंकतया क्रोधादिमें अपनेपने से प्रवर्तता है, और वहाँ (क्रोधादिमें अपनेपनेसे) प्रवर्तता हुआ वह, यद्यपि क्रोधादि क्रियाका परभावभूत होनेसे निषेध किया गया है तथापि उस स्वभावभूत होनेसे उसे अध्यास होनेसे, क्रोधरूप परिणमित होता है, रागरूप परिणमित होता है, मोहरूप परिणमित होता है। अब यहाँ, जो यह आत्मा अपने अज्ञानभावसे, 'ज्ञानभवनमात्र सहज उदासीन (ज्ञाताद्रष्टामात्र) अवस्था का त्याग करके अज्ञानभवनव्यापाररूप अर्थात् क्रोधादिव्यापाररूप प्रवर्तमान होता हुआ प्रतिभासित होता है वह कर्ता है; और ज्ञानभवनव्यापाररूप प्रवृत्ति से भिन्न, जो क्रियमाणरूपसे अंतरंगमें उत्पन्न होते हुए प्रतिभासित होते हैं, ऐसे क्रोधादिक वे, ( उस कर्ताके) कर्म हैं। इस प्रकार अनादिकालीन अज्ञानसे होने वाली यह (आत्माकी) कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है। इसप्रकार अपने अज्ञानके कारण कर्ताकर्मभावसे क्रोधादिमें प्रवर्तमान इस आत्माके, क्रोधादिकी प्रवृत्तिरूप परिणामको निमित्तमात्र करके स्वयं अपने भावसे ही परिणमित होता हुआ पौद्गलिक कर्म इकट्ठा होता है। इसप्रकार जीव और पुद्गलका, परस्पर अवगाह जिसका लक्षण है ऐसा संबंधरूप बंध सिद्ध होता है। अनेकात्मक होनेपर भी (अनादि) एक प्रवाहपना होनेसे जिसमेंसे इतरेतराश्रय दोष दूर हो गया है ऐसा वह बंध , कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका
१ भवन = होना वह; परिणमना वह; परिणमन।२ क्रियमाणरूपसे = किया जाता वह-- उस रूप से
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समयसार
१३०
निमित्तस्याज्ञानस्य निमित्तम्।
कदाऽस्याः कर्तृकर्मप्रवृत्तेर्निवृत्तिरिति चेत्जइया इमेण जीवेण अप्पणो आसवाण य तहेव। णादं होदि विसेसंतरं तु तइया ण बंधो से।। ७१ ।।
यदानेन जीवेनात्मनः आस्रवाणां च तथैव।।
ज्ञातं भवति विशेषान्तरं तु तदा न बन्धस्तस्य।। ७१ ।। इहं किल स्वभावमा 'वस्तु, स्वस्य भवनं तु स्वभावः। तेन ज्ञानस्य भवनं खल्वात्मा, क्रोधादेर्भवनं क्रोधादिः। अथ ज्ञानस्य यद्वनं तन्न क्रोधादेरपि भवनं,
निमित्त जो अज्ञान उसका निमित्त है।
भावार्थ:-यह आत्मा, जैसे अपने ज्ञानस्वभावरूप परिणमित होता है उसी प्रकार जबतक क्रोधादिरूप भी परिणमित होता है, ज्ञानमें और क्रोधादिमें भेद नहीं जानता, तबतक उसके कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है; क्रोधादिरूप परिणमित होता हुआ वह स्वयं कर्ता है और क्रोधादि उसका कर्म है। और अनादि अज्ञानसे तो कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है, कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिसे बंध है और उस बंधके निमित्तसे अज्ञान है; इसप्रकार अनादि संतान (प्रवाह) है, इसलिये उसमें इतरेतराश्रय दोष भी नहीं आता।
इसप्रकार जबतक आत्मा क्रोधादि कर्मका कर्ता होकर परिणमित होता है तबतक कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है और तबतक कर्मका बंध होता है।
अब प्रश्न करता है कि इस कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका अभाव कब होता है ? इसका उत्तर कहते हैं:
ये जीव ज्यों ही आस्रवोंका, त्यों हि अपने आत्मका। जाने विशेषांतर, तब ही बंधन नहीं उसको कहा।।७१।।
गाथार्थ:- [ यदा] जब [अनेन जीवेन ] यह जीव [ आत्मनः ] आत्माका [ तथा एव च ] और [ आस्रवाणां] आस्रवोंका [ विशेषान्तरं] अन्तर और भेद [ ज्ञातं भवति] जानता है [ तदा तु] तब [ तस्य] उसे [ बन्धः न ] बंध नहीं होता।
टीका:-इस जगतमें वस्तु है वह (अपने ) स्वभावमात्र ही है, और 'स्व 'का भवन (होना) वह स्व-भाव है ( अर्थात् अपना जो होना-परिणमना सो स्वभाव है); इसलिये निश्चयसे ज्ञानका होना-परिणमना सो आत्मा है और क्रोधादिका होनापरिणमना सो क्रोधादि है।
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कर्ता-कर्म अधिकार
१३१
यतो यथा ज्ञानभवने ज्ञानं भवद्विभाव्यते न तथा क्रोधादिरपि; यत्तु क्रोधादेर्भवनं तन्न ज्ञानस्यापि भवनं , यतो यथा क्रोधादिभवने क्रोधादयो भवन्तो विभाव्यन्ते न तथा ज्ञानमपि। इत्यात्मन: क्रोधादीनां च न खल्वेकवस्तुत्वम्। इत्येवमात्मात्मास्रवयोर्विशेषदर्शनेन यदा भेदं जानाति तदास्यानादिरप्यज्ञानजा कर्तृकर्मप्रवृत्तिनिवर्तते; तन्निवृत्तावज्ञाननिमित्तं पुद्गलद्रव्यकर्मबन्धोऽपि निवर्तते। तथा सति ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोधः सिध्येत्।
कथं ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोध इति चेत्णादूण आसवाणं असुचित्तं च विवरीयभावं च। दुक्खस्स कारणं ति य तदो णियत्तिं कुणदिं जीवो।।७२ ।।
तथा ज्ञान जो होना–परिणमना है सो क्रोधादिका भी होना–परिणमना नहीं है, क्योंकि ज्ञानके होते (-परिणमनेके) समय जैसे ज्ञान होता हुआ मालूम पड़ता है उसीप्रकार क्रोधादिक भी होते हुए मालूम नहीं पड़ते; और क्रोधादिका जो होना-परिणमना वह ज्ञानका भी होना-परिणमना नहीं है, क्योंकि क्रोधादिके होनेके ( -परिणमनेके) समय जैसे क्रोधादिक होते हुए मालूम पड़ते हैं वैसे ज्ञान भी होता हुआ मालूम नहीं पड़ता। इसप्रकार आत्मा और क्रोधादिके निश्चयसे एकवस्तुत्व नहीं। इसप्रकार आत्मा और आस्रवोंका विशेष (-अन्तर) देखनेसे जब यह आत्मा उनका भेद ( भिन्नता) जानता है तब इस आत्माके अनादि होनेपर भी अज्ञानसे उत्पन्न हुई ऐसी (परमें) कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति निवृत्त होती है; उसकी निवृत्ति होनेपर अज्ञानके निमित्तसे होता हुवा पौद्गलिक द्रव्यकर्मका बंध भी निवृत्त होता है। ऐसा होनेपर, ज्ञानमात्रसे ही बंधका निरोध सिद्ध होता है।
भावार्थ:-क्रोधादिक और ज्ञान भिन्न भिन्न वस्तुएं हैं; न तो ज्ञानमें क्रोधादि हैं और न क्रोधादिमें ज्ञान है, ऐसा उनका भेदज्ञान हो तब उनका एकत्वरूपका अज्ञान नाश होता है और अज्ञानके नाश हो जाने से कर्मका बंध भी नहीं होता। इसप्रकार ज्ञानसे ही बंधका निरोध होता है।
अब पूछता है कि ज्ञानमात्रसे ही बंधका निरोध कैसे होता है ? उसका उत्तर कहते हैं:
अशुचिपना, विपरीतता वे आस्रवोंका जानके। अरु दु:खकारण जानके, इनसे निवर्तन जीव करे।। ७२।।
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समयसार
ज्ञात्वा आस्रवाणामशुचित्वं च विपरीतभावं च। दुःखस्य कारणानीति च ततो निवृतिं करोति जीवः ।। ७२ ।।
जले जम्बालवत्कलुषत्वेनोपलभ्यमानत्वादशुचयः खल्वाम्रवाः, भगवानात्मा तु नित्यमेवातिनिर्मलचिन्मात्रत्वेनोपलम्भकत्वादत्यन्तं शुचिरेव। जडस्वभावत्वे सति परचेत्यत्वादन्यस्वभावा: खल्वास्रवाः, भगवानात्मा तु नित्यमेव विज्ञानघनस्वभावत्वे सति स्वयं चेतकत्वादनन्यस्वभाव एव। आकुलत्वोत्पादकत्वाद्दुःखस्य कारणानि खल्वास्रवाः, भगवानात्मा त नित्यमेवानाकलत्वस्वभावेनाकार्यकारणत्वाहुःखस्याकारणमेव। इत्येवं विशेषदर्शनेन यदैवायमात्मात्मास्रवयोर्भेदं जानाति तदैव क्रोधादिभ्य आम्रवेभ्यो निवर्तते, तेभ्योऽनिवर्तमानस्य पारमार्थिकतनेदज्ञानासिद्धेः। ततः क्रोधाद्यास्रवनिवृत्त्यविनाभाविनो ज्ञानमात्रादेवाज्ञानजस्य पौद्गलिकस्य कर्मणो बन्ध निरोधः सिध्येत्।
गाथार्थ:- [आस्रवाणाम्] आस्रवोंकी [अशुचित्वं च] अशुचिता और [विपरीतभावं च] विपरीतता [च ] तथा [ दुःखस्य कारणानि इति] वे दुःखके कारण हैं ऐसा [ ज्ञात्वा ] जानकर [ जीवः ] जीव [तत: निवृत्तिं ] उनसे निवृत्ति [ करोति] करता है।
टीका:-जलमें सेवाल (काई) है सो मल है या मैल है; उस सेवालकी भाँति आस्रव मलरूप या मैलरूप अनुभवमें आते हैं इसलिये वे अशुचि हैं अपवित्र हैं; और भगवान आत्मा तो सदा ही अतिनिर्मल चैतन्यमात्र स्वभावरूपसे ज्ञायक है इसलिये अत्यंत शुचि ही है --पवित्र ही है-- उज्ज्वल ही है। आस्रवोंके जड़स्वभावत्व होनेसे वे दूसरे के द्वारा जानने योग्य हैं (-क्योंकि जो जड़ हो वह अपनेको तथा परको नहीं जानता, उसे दूसरा ही जानता है-) इसलिये वे चैतन्यसे अन्य स्वभाववाले हैं;
और भगवान आत्मा तो, अपने को सदा विज्ञानघनस्वभावपना होनेसे, स्वयं ही चेतक (-ज्ञाता) है (-स्व और परको जानता है-) इसलिये वह चैतन्यसे अनन्य स्वभाववाला ही हैं ( अर्थात् चैतन्यसे अन्य स्वभाववाला नहीं है)। आस्रव आकुलताके उत्पन्न करने वाले हैं इसलिये दुःखके कारण हैं; और भगवान आत्मा तो. सदा ही निराकुलता-स्वभावके कारण किसी का कार्य तथा किसी का कारण न होनेसे, दुःखका अकारण ही है (अर्थात् दुःखका कारण नहीं)। इस प्रकार विशेष (-अन्तर) को देखकर जब यह आत्मा, आत्मा और आस्रवोंके भेद को जानता है उसी समय क्रोधादि आस्रवोंसे निवृत्त होता है, क्योंकि उनसे जो निवृत्त नहीं है उसे आत्मा और आस्रवोंके पारमार्थिक ( यथार्थ) भेदज्ञानकी सिद्धि ही नहीं हुई। इसलिये क्रोधादिक आस्रवोंसे निवृत्तिके साथ जो अविनाभावी है ऐसे ज्ञानमात्रसे ही, अज्ञानजन्य पौद्गलिक कर्मके बंध का निरोध होता है।
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१३३
किञ्च यदिदमात्मास्रवयोर्भेदज्ञानं तत्किमज्ञानं किं वा ज्ञानम् ? यद्यज्ञानं तदा तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः। ज्ञानं चेत् किमास्रवेषु प्रवृत्तं किं वास्रवेभ्यो निवृत्तम् ? आस्रवेषु प्रवृत्तं चेत्तदापि तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । आस्रवेभ्यो निवृत्तं चेत्तर्हि कथं न ज्ञानादेव बन्धनिरोधः । इति निरस्तोऽज्ञानांशः क्रियानयः। यत्त्वात्मास्रवयोर्भेदज्ञानमपि नास्रवेभ्यो निवृत्तं भवति तज्ज्ञानमेव न भवतीति ज्ञानांशो ज्ञाननयोऽपि निरस्तः।
और, जो यह आत्मा और आस्रवोंका भेदज्ञान है सो अज्ञान है या ज्ञान ? यदि अज्ञान है तो आत्मा और आस्रवोंके अभेदज्ञानसे उसकी कोई विशेषता नहीं हुई। और यदि ज्ञान है तो वह ज्ञान आस्रवोंमें प्रवृत है या उनसे निवृत्त है? यदि आस्रवोंमें प्रवृत्त होता है तो भी आत्मा और आस्रवोंके अभेदज्ञानसे कोई विशेषता नहीं हुई। और यदि आस्रवोंसे निवृत्त है तो ज्ञानसे ही बंधका निरोध सिद्ध हुआ क्यों न कहलायेगा ? (सिद्ध हुआ ही कहलायेगा । ) ऐसा सिद्ध होनेसे अज्ञानका अंश ऐसे क्रियानयका खंडन हुआ। और यदि आत्मा और आस्रवोंका भेदज्ञान आस्रवोंसे निवृत्त न हो तो वह ज्ञान ही नहीं है ऐसा सिद्ध होनेसे ज्ञानके अंश ऐसे ( एकांत ) ज्ञाननयका भी खंडन हुआ।
भावार्थ:-आस्रव अशुचि है, जड़ है, दुःखके कारण हैं और आत्मा पवित्र है, ज्ञाता है, सुखस्वरूप है। इसप्रकार लक्षणभेदसे दोनोंको भिन्न जानकर आस्रवोंसे आत्मा निवृत्त होता है और उसे कर्मका बंध नहीं होता । आत्मा और आस्रवोंका भेद जाननेपर भी यदि आत्मा आस्रवोंसे निवृत्त न हो तो वह ज्ञान ही नहीं, किन्तु अज्ञान ही है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि अविरत सम्यग्दृष्टिको मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी प्रकृतियोंका तो आस्रव नहीं होता किन्तु अन्य प्रकृतियोंका तो आस्रव होकर बंध होता. है; इसलिये उसे ज्ञानी कहना या अज्ञानी ? उसका समाधान:- सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानी ही हैं क्योंकि वह अभिप्रायपूर्वकके आस्रवोंसे निवृत्त हुआ है। उसे प्रकृतियोंका जो आस्रव तथा बंध होता है वह अभिप्रायपूर्वक नहीं है। सम्यग्दृष्टि होने के बाद परद्रव्यके स्वामित्वका अभाव है; इसलिये, जब तक उसके चारित्रमोहका उदय है तब तक उसके उदयानुसार जो आस्रव-बंध होता है उसका स्वामित्व उसको नहीं है। अभिप्रायमें तो वह आस्रव - बंधसे सर्वथा निवृत्त ही होना चाहता है। इसलिये वह ज्ञानी ही है।
जो यह कहा है कि ज्ञानीको बंध नहीं होता उसका कारण इसप्रकार है:मिथ्यात्वसंबंधी बंध जो कि अनंत संसारका कारण है वही यहाँ प्रधानतया विवक्षित है। अविरति आदिसे जो बंध होता है वह अल्प स्थिति - अनुभागवाला है, दीर्घ संसारका कारण नहीं है; इसलिये वह प्रधान नहीं माना गया । अथवा तो ऐसा कारण है कि:- ज्ञान बंधका कारण नहीं है। जब तक ज्ञानमें मिथ्यात्वका उदय था तब तक
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समयसार
१३४
( मालिनी) परपरिणतिमुज्झत् खण्डयनेदवादानिदमुदितमखण्डं ज्ञानमुच्चण्डमुचैः। ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्तैरिह भवति कथं वा पौद्गलः कर्मबन्धः ।। ४७ ।।
वह अज्ञान कहलाता था और मिथ्यात्व के जाने के बाद अज्ञान नहीं किन्तु ज्ञान ही है। उसमें जो कुछ चारित्रमोह संबंधी विकार है उसका स्वामी ज्ञानी नहीं है इसलिये ज्ञानीके बंध नहीं हैं; क्योंकि विकार जो कि बंधरूप है और बंधका कारण है, वह तो बंधकी पंक्तिमें है, ज्ञानकी पंक्तिमें नहीं। इस अर्थका समर्थनरूप कथन आगे गाथाओंमें आयेगा।
यहाँ कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [परपरिणतिम् उज्झत् ] परपरिणतिको छोड़ता हुआ, [भेदवादान् खण्डयत् ] भेदकें कथनोंको तोड़ता हुआ, [इदम् अखण्डम् उच्चण्डम् ज्ञानम् ] यह अखंड और अत्यंत प्रचंड ज्ञान [ उच्चैः उदितम् ] प्रत्यक्ष उदय को प्राप्त हुआ है, [ ननु ] अहो! [ इह ] ऐसे ज्ञानमें [ कर्तृकर्मप्रवृतेः ] ( परद्रव्यके ) कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका [कथम् अवकाशः ] अवकाश कैसे हो सकता है ? [वा] तथा [पौद्गलः कर्मबन्धः ] पौद्गलिक कर्मबंध भी [ कथं भवति ] कैसे हो सकता है ? (कदापि नहीं हो सकता।)
(ज्ञेयोंके निमित्तसे तथा क्षयोपशमके विशेषसे ज्ञानमें जो अनेक खंडरूप आकार प्रतिभासित होते थे उनसे रहित ज्ञानमात्र आकार अब अनुभवमें आया इसलिये ज्ञान को 'अखंड' विशेषण दिया है। मतिज्ञान आदि जो अनेक भेद कहे जाते थे उन्हें दूर करता हुआ उदयको प्राप्त हुआ है इसलिये भेदके कथनोंको तोडता हआ' ऐसा कहा है। परके निमित्तसे रागादिरूप परिणमित होना था उस परिणतिको छोड़ता हुआ उदयको प्राप्त हुआ है इसलिये ‘परपरिणतिको छोड़ता हुआ' ऐसा कहा है। परके निमित्तसे रागादिरूप परिणमित नहीं होता, बलवान है इसलिये ‘अत्यंत प्रचंड' कहा है।)
भावार्थ:-कर्मबंध तो अज्ञानसे हुई कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिसे था। अब जब भेदभावको और परपरिणतिको दूर करके एकाकार ज्ञान प्रगट हुआ तब भेदरूप कारककी प्रवृत्ति मिट गई; तब फिर अब बंध किस लिये होगा ? अर्थात् नहीं होगा। ४७।
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कर्ता-कर्म अधिकार
१३५
केन विधिनायमास्रवेभ्यो निवर्तत इति चेत
अहमेक्को खलु सुद्धो णिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो। तम्हि ठिदो तचितो सव्वे एदे खयं णेमि।। ७३ ।।
अहमेकः खलु शुद्धः निर्ममतः ज्ञानदर्शनसमग्रः।
तस्मिन् स्थितस्तच्चित्तः सर्वानेतान् क्षयं नयामि।। ७३ ।। अहमयमात्मा प्रत्यक्षमक्षुण्णमनन्तं चिन्मात्रं ज्योतिरनाद्यनन्तनित्यो-दितविज्ञानघनस्वभावभावत्वादेक:,
सकलकारकचक्रप्रक्रियोत्तीर्णनिर्मलानुभूतिमात्रत्वाच्छुद्धः, पुद्गलस्वामिकस्य क्रोधादिभाववैश्वरूपस्य स्वस्य स्वामित्वेन नित्यमेवापरिणमनान्निर्ममतः, चिन्मात्रस्य महसो वस्तुस्वभावत एव सामान्यविशेषाभ्यां सकलत्वात् ज्ञानदर्शनसमग्रः, गगनादिवत्पारमार्थिको वस्तुविशेषोऽस्मि। तदहमधुनास्मिन्नेवात्मनि निखिलपरद्रव्य प्रवृत्तिनिवृत्त्या निश्चलमवतिष्ठमान:
__अब प्रश्न करता है कि यह आत्मा किस विधिसे आस्रवोंसे निवृत्त होता है ? उसके उत्तररूप गाथा कहते हैं:
मैं एक , शुद्ध , ममत्वहीन रु, ज्ञानदर्शनपूर्ण हूँ। इसमें रहूँ स्थित, लीन इसमें, शीघ्र ये सब क्षय करूँ।। ७३।।
गाथार्थ:-ज्ञानी विचार करता है कि:-- [ खलु ] निश्चयसे [अहम् ] मैं [ एकः ] एक हूँ, [शुद्धः ] शुद्ध हूँ, [ निर्ममतः ] ममतारहित हूँ, [ ज्ञानदर्शनसमग्रः] ज्ञानदर्शनसे पूर्ण हूँ; [ तस्मिन् स्थितः ] उस स्वभावमें रहता हुआ, [ तचित्तः ] उसमें (-उस चैतन्य–अनुभवमें) लीन होता हुआ (मैं) [ एतान् ] इन [ सर्वान् ] क्रोधादिक सर्व आस्रवोंको [क्षयं] क्षयको [ नयामि ] प्राप्त कराता हूँ।
टीका:-मैं यह आत्मा-प्रत्यक्ष अखंड अनंत चिन्मात्र ज्योति-अनादि-अनंत नित्य-उदयरूप विज्ञानघनस्वभावभावत्वके कारण एक हूँ; ( कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरणस्वरूप) सर्व कारकोंके समूहकी प्रक्रियासे पारको प्राप्त जो निर्मल अनुभूति, उस अनुभूतिमात्रपनेसे शुद्ध हूँ; पुद्गलद्रव्य जिसका स्वामी है ऐसे जो क्रोधादिभावोंका विश्वरूपत्व (अनेकरूपत्व) उसके स्वामीपने रूप स्वयं सदा ही नहीं परिणमता होनेसे ममतारहित हूँ; चिन्मात्र ज्योतिका (आत्माका), वस्तुस्वभावसे ही सामान्य और विशेष से परिपूर्णता होनेसे, मैं ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ। -ऐसा मैं आकाशादि द्रव्यकी भाँति पारमार्थिक वस्तु विशेष हूँ। इसलिये अब मैं समस्त परद्रव्य प्रवृत्तिसे निवृत्ति द्वारा इसी आत्मस्वभावमें निश्चल रहता हुआ,
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समयसार
१३६
सकलपरद्रव्यनिमित्तकविशेषचेतनचञ्चल-कल्लोलनिरो धेनेममेव चेतयमान: स्वाज्ञानेनात्मन्युत्प्लवमानानेतान् भावानखिलानेव क्षपयामीत्यात्मनि निश्चित्य चिरसंगृहीतमुक्तपोतपात्रः समुद्रावर्त इव झगित्येवोद्वान्तसमस्त विकल्पोऽकल्पितमचलितममलमात्मा-नमालम्बमानो
विज्ञानघनभूतः खल्वयमात्मास्रवेभ्यो निवर्तते।
कथं ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वमिति चेत्जीवणिबद्धा एदे अधुव अणिच्चा तहा असरणा य। दुक्खा दुक्खफल त्ति य णादूण णिवत्तदे तेहिं।। ७४ ।। जीवनिबद्धा एते अध्रुवा अनित्यास्तथा अशरणाश्च। दुःखानि दुःखफला इति च ज्ञात्वा निवर्तते तेभ्यः।। ७४ ।।
समस्त परद्रव्यके निमित्तसे विशेषरूप चेतनमें होती हुई चंचल कल्लोलोंके निरोधसे इसको ही (इस चैतन्यस्वरूपको ही) अनुभवन करता हुआ, अपने अज्ञान से आत्मामें उत्पन्न होते हुए जो यह क्रोधादिक भाव हैं उन सबका क्षय करता हूँ-ऐसा आत्मामें निश्चय करके, जिसने बहुत समयसे पकड़े हुए जहाजको छोड़ दिया, ऐसे समुद्रके भँवर की भाँति जिसने सर्व विकल्पोंको शीघ्र ही वमन कर दिया है ऐसे , निर्विकल्प, अचलित निर्मल आत्माका अवलंबन करता हुआ, विज्ञानघन होता हुआ, यह आत्मा आस्रवोंसे निवृत्त होता है।
भावार्थ:-शुद्धनयसे ज्ञानीने आत्माका ऐसा निश्चय किया कि 'मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, परद्रव्य प्रति ममतारहित हूँ, ज्ञानदर्शनसे पूर्ण वस्तु हूँ '। जब वह ज्ञानी आत्मा ऐसे अपने स्वरूपमें रहता हुआ उसी के अनुभवरूप हो तब क्रोधादिक आस्रव क्षय को प्राप्त होते हैं। जैसे समुद्रके आवर्त (भँवर) ने बहुत समयसे जहाज को पकड़ रखा हो और जब वह आवर्त्त शमन हो जाता है तब वह उस जहाज को छोड़ देता है, इसीप्रकार आत्मा विकल्पोंके आवर्त को शमन करता हुआ आस्रवोंको छोड़ दता है।
अब प्रश्न करता है कि ज्ञान होनेका और आस्रवोंकी निवृत्तिका समकाल ( एककाल) कैसे है ? उसके उत्तररूप गाथा कहते हैं:
ये सर्व जीवनिबद्ध , अध्रुव , शरणहीन, अनित्य हैं। ये दुःख, दुखफल जानके इनसे निवर्तन जीव करे।।७४।।
गाथार्थ:- [एते] यह आस्रव [जीवनिबद्धाः] जीवके साथ निबद्ध हैं, [अध्रुवा: ] अध्रुव हैं, [ अनित्याः ] अनित्य हैं [ तथा च] तथा [ अशरणाः ] अशरण हैं, [च ] और वे [ दुःखानि ] दुःखरूप हैं, [ दुःखफलाः ] दुःख ही जिनका फल है ऐसे हैं,
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कर्ता-कर्म अधिकार
१३७
जतुपादपवद्वध्यघातकस्वभावत्वाज्जीवनिबद्धाः, खल्वास्रवाः, न पुनरविरुद्धस्वभावत्वाभावाज्जीव एव। अपस्माररयवद्वर्धमानहीयमानत्वादधुवा: खल्वास्रवाः, ध्रुवश्चिन्मात्रो जीव एव। शीतदाहज्वरावेशवत् क्रमेणोज्जृम्भमाणत्वादनित्याः खल्वास्रवाः, नित्यो विज्ञानघनस्वभावो जीव एव। बीजनिर्मोक्षक्षणक्षीयमाणदारुणस्मर- संस्कारवत्त्रातुमशक्यत्वादशरणा: खल्वास्रवाः, सशरण: स्वयं गुप्त: सहजचिच्छक्तिीव एव। नित्यमेवाकुलस्वभावत्वादु:खानि खल्वास्रवाः, अदु:खं नित्यमेवानाकुलस्वभावो जीव एव। आयत्यामाकुलत्वोत्पादकस्य पुद्गलपरिणामस्य हेतुत्वादुःखफला:खल्वास्रवाः, अदु:खफल: सकलस्यापि पुद्गलपरिणामस्याहेतुत्वाज्जीव एव। इति विकल्पानन्तरमेव शिथिलितकर्मविपाको विघटितघनौघघटनो दिगाभोग इव निरर्गलप्रसर: सहजविजृम्भमाणचिच्छक्तितया यथा यथा विज्ञानघनस्वभावो भवति तथा तथास्रवेभ्यो निवर्तते,
- [इति ज्ञात्वा ] ऐसा जानकर ज्ञानी [ तेभ्यः ] उनसे [ निवर्तते ] निवृत्ति होता है।
टीका:-वृक्ष और लाखकी भाँति वध्य-घातकस्वभावपना होनेसे आस्रव जीवके साथ बँधे हुए हैं, किन्तु अविरुद्धस्वभावतत्वका अभाव होनेसे वे जीव ही नहीं हैं। ( लाखके निमित्तसे पीपल आदि वृक्षका नाश होता है। लाख घातक है और वृक्ष वध्य घात होने योग्य )। इसप्रकार लाख और वृक्षका स्वभाव एक दूसरेसे विरुद्ध है इस लिये लाख वृक्ष के साथ मात्र बंधी हुई ही है; लाख स्वयं वृक्ष नहीं है। इसीप्रकार आस्रव घातक है और आत्मा वध्य है। इसप्रकार विरुद्ध स्वभाव होनेसे आस्रव स्वयं जीव नहीं हैं।) आस्रव मृगीके वेगकी भाँति बढ़ते-घटते होनेसे अध्रुव हैं; चैतन्यमात्र जीव ही ध्रुव है। आस्रव शीतदाहज्वर के आवेशकी भाँति अनुक्रमसे उत्पन्न होते हैं इस लिये अनित्य हैं; विज्ञानघन जिसका स्वभाव है ऐसा जीव ही नित्य है। जैसे कामसेवनमें वीर्य छूट जाता है उसी क्षण दारुण कामका संस्कार नष्ट हो जाता है, किसीसे नहीं रोका जा सकता, इसीप्रकार कर्मोदय छूट जाता है उसी क्षण आस्रव नाशको प्राप्त हो जाता है, रोका नहीं जा सकता, इसलिये वे (आस्रव) अशरण हैं; स्वयं रक्षित सहज चित्रशक्तिरूप जीव ही शरणसहित है। आस्रव सदा आकुल स्वभाववाले होनेसे दुःखरूप है; सदा निराकुल स्वभाववाला जीव ही अदुःखरूप अर्थात् सुखरूप है। आस्रव आगामी कालमें आकुलताको उत्पन्न करनेवाले ऐसे पुद्गलपरिणामके हेतु होनेसे दुःखफलरूप (दुःख जिसका फल है ऐसे) हैं; जीव ही समस्त पुद्गलपरिणामका अहेतु होने से अदुःखफल (दुःखफलरूप नहीं) है -ऐसा आस्रवोंका और जीव का भेदविज्ञान होते ही (तत्काल ही) जिसमें कर्मविपाक शिथिल हो गया है ऐसा वह आत्मा, जिसमें बादल समूह की रचना खंडित हो गई है ऐसी दशा के विस्तार की भाँति अमर्याद जिसका विस्तार है ऐसा, सहज रूप से विकास को प्राप्त चित्रशक्तिसे ज्यों ज्यों विज्ञानघन स्वभाव होता जाता है त्यों त्यों
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समयसार
१३८
यथा यथास्रवेभ्यश्च निवर्तते तथा तथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति। तावद्विज्ञानघनस्वभावो भवति यावत्सम्यगास्रवेभ्यो निवर्तते, तावदानवेभ्यश्च निवर्तते यावत्सम्यग्विज्ञानघनस्वभावो भवतीति ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वम्।
आस्रवोंसे निवृत्त होता जाता है, और ज्यों ज्यों आस्रवोंसे निवृत्त होता जाता है त्यों त्यों विज्ञानघन स्वभाव होता जाता है); उतना विज्ञानघन स्वभाव होता है जितना सम्यक्प्रकारसे आस्रवोंसे निवृत्त होता है ,और उतना आस्रवोंसे निवृत्त होता है जितना सम्यकप्रकार से विज्ञानघन स्वभाव होता है। इसप्रकार ज्ञान को और आस्रवोंकी निवृत्तिको समकालपना है।
भावार्थ:-आस्रवोंका और आत्माका जैसा ऊपर कहा है, तद्नुसार भेद जानते ही, जिस जिस प्रकारसे जितने जितने अंशमें आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता है उस उस प्रकारसे उतने उतने अंशमें वह आस्रवोंसे निवृत्त होता है। जब संपूर्ण विज्ञानघनस्वभाव होता है तब समस्त आस्रवोंसे निवृत्त होता है। इसप्रकार ज्ञानका और आस्रवनिवृत्तिका एक काल है।
यह आस्रवोंको दूर होनेका और संवर होनेका वर्णन गुणस्थानोंकी परिपाटीरूपसे तत्त्वार्थसूत्रकी टीका आदि सिद्धांतशास्त्रोंमें है वहाँसे जानना। यहाँ तो सामान्य प्रकरण है इसलिये सामान्यतया कहा है।
'आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है' इसका क्या अर्थ है ? उसका उत्तर:- आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है अर्थात् आत्मा ज्ञानमें स्थित होता जाता है।' जब तक मिथ्यात्व हो तब तक ज्ञानको ( भले ही यह क्षयोपशमिक ज्ञान अधिक हो तो भी) अज्ञान कहा जाता है और मिथ्यात्व के जाने के बाद उसे-( भले ही यह क्षयोपशमिक ज्ञान अल्प हो तो भी) विज्ञान कहा जाता है। ज्यों ज्यों वह ज्ञान अर्थात् विज्ञान स्थिर-घन होता जाता है त्यों त्यों आस्रवोंकी निवृत्ति होती जाती है और ज्यों ज्यों आस्रवोंकी निवृत्ति होती जाती है त्यों त्यों ज्ञान (विज्ञान) स्थिर-घन होता जाता है, अर्थात् आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है।
अब इसी अर्थका कलशरूप तथा आगेके कथनका सूचक काव्य कहते हैं:
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कर्ता-कर्म अधिकार
१३९
(शार्दूलविक्रीडित) इत्येवं विरचय्य सम्प्रति परद्रव्यान्निवृत्तिं परां स्वं विज्ञानघनस्वभावमभयादास्तिध्नुवानः परम्। अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशान्निवृत्तः स्वयं ज्ञानीभूत इतश्चकास्ति जगतः साक्षी पुराणः पुमान्।। ४८ ।।
कथमात्मा ज्ञानीभूतो लक्ष्यत इति चेत्
कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस्स य तहेव परिणाम। ण करेइ एयमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी।। ७५ ।। कर्मणश्च परिणामं नोकर्मणश्च तथैव परिणामम्। न करोत्येनमात्मा यो जानाति स भवति ज्ञानी।। ७५ ।।
श्लोकार्थ:- [इति एवं ] इसप्रकार पुर्वकथित विधानसे , [ सम्प्रति] अधुना (तत्काल) ही [ परद्रव्यात् ] परद्रव्यसे [ परां निवृत्तिं विरचय्य ] उत्कृष्ट ( सर्व प्रकारसे) निवृत्ति करके, [विज्ञानघनस्वभावम् परम् स्वं अभयात् आस्तिध्नुवानः ] विज्ञानघनस्वभावरूप केवल अपने पर निर्भयता से आरूढ़ होता हुआ अर्थात् अपना आश्रय करता हुआ (अथवा अपनेको निःशंकतया आस्तिक्यभावसे स्थिर करता हुआ), [अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशात् ] अज्ञानसे उत्पन्न हुई कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिके अभ्याससे उत्पन्न कलेशोंसे [ निवृत्तः ] निवृत्त हुआ, [ स्वयं ज्ञानीभूतः ] स्वयं ज्ञानस्वरूप होता हुआ, [जगतः साक्षी] जगतका साक्षी (ज्ञाताद्रष्टा), [ पुराणः पुमान् ] पुराण पुरुष (आत्मा) [इतः चकास्ति ] अब यहाँ से प्रकाशमान होता है। ४८ ।
अब पूछते हैं कि-- आत्मा ज्ञानस्वरूप अर्थात् ज्ञानी हो गया यह कैसे पहिचाना जाता है ? उसका चिह्न ( लक्षण) कहिये। उसके उत्तररूप गाथा कहते हैं:
जो कर्म का परिणाम, अरु नोकर्मका परिणाम है। सो नहिं करे जो, मात्र जाणे, वो ही आत्मा ज्ञानी है ।। ७५।।
गाथार्थ:- [यः ] जो [ आत्मा] आत्मा [ एनम् ] इस [कर्मणः परिणामं च] कर्मके परिणामको [तथा एव च तथा [ नोकर्मणः परिणामं] नोकर्मके परिणामको [ न करोति] नहीं करता किन्तु [ जानाति ] जानता है [ सः ] वह [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ भवति] है।
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समयसार
१४०
यः खलु मोहरागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणान्तरुत्प्लवमानं कर्मणः परिणाम स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दबन्धसंस्थानस्थौल्यसौक्ष्म्यादिरूपेण बहिरुत्प्लवमानं नोकर्मण: परिणामं च समस्तमपि परमार्थत: पुद्गलपरिणामपुद्गलयोरेव घटमृत्तिकयोरिव व्याप्यव्यापकभाव सद्भावात्पुद्गलद्रव्येण का स्वतन्त्रव्यापकेन स्वयं व्याप्यमानत्वात्कर्मत्वेन क्रियमाणं पुद्गलपरिणामात्मनोर्घटकुम्भकारयोरिव व्याप्यव्यापकभावाभावात् कर्तृकर्मत्वासिद्धौ न नाम करोत्यात्मा, किन्तु परमार्थतः पुद्गलपरिणामज्ञानपुद्गलयोर्घटकुम्भकारवव्याप्य
व्यापकभावाभावात कर्तृकर्मत्वासिद्धावात्मपरिणामात्मनोर्घटमृत्तिकयोरिव
व्याप्यव्यापकभावसद्भावादात्मद्रव्येण क; स्वतन्त्रव्यापकेन स्वयं व्याप्यमानत्वात्पुद्गलपरिणामज्ञानं कर्मत्वेन कुर्वन्तमात्मानं जानाति सोऽत्यन्तविविक्तज्ञानीभूतो ज्ञानी स्यात्। न चैवंज्ञातुः पुद्गलपरिणामो व्याप्यः, पुद्गलात्मनोज्ञेयज्ञायकसम्बन्ध
टीका:-निश्चयसे मोह, राग, द्वेष, सुख, दुःख आदिरूपसे अंतरंगमें उत्पन्न होता हुआ जो कर्मका परिणाम, और स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द , बंध, संस्थान, स्थूलता, सूक्ष्मता आदिरूपसे बाहर उत्पन्न होता हुआ जो नोकर्मका परिणाम, वह सब ही पुद्गलपरिणाम है। परमार्थसे, जैसे घड़ेके और मिट्टीके व्याप्यव्यापकभावका सद्भाव होनेसे कर्ताकर्मपना है उसीप्रकार पुद्गलपरिणामके और पुद्रलके ही व्याप्यव्यापकभावका सद्भाव होनेसे कर्ताकर्मपना है। पुद्गलद्रव्य स्वतंत्र व्यापक है इसलिये पुद्गलपरिणामका कर्ता है और पुद्गलपरिणाम उस व्यापक से स्वयं व्याप्त होने के कारण कर्म है। इसलिये पुद्गलद्रव्यके द्वारा कर्ता होकर कर्मरूपसे किया जाने वाला जो समस्त कर्मनोकर्मरूप पुद्गलपरिणाम है उसे जो आत्मा, पुद्गलपरिणामको और आत्माको घट और कुम्हारकी भाँति व्याप्यव्यापकभावके अभावके कारण कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि होनेसे , परमार्थसे करता नहीं है, परंतु ( मात्र) पुद्गलपरिणामके ज्ञानको (आत्माके) कर्मरूपसे करता हुआ अपने आत्माको जानता है, वह आत्मा (कर्म-नोकर्मसे) अत्यंत भिन्न ज्ञानस्वरूप होता हुआ ज्ञानी है। (पुद्गलपरिणामका ज्ञान आत्माका कर्म किस प्रकार है ? सो समझाते हैं:-) परमार्थसे पुद्गलपरिणामके ज्ञानको और पुद्गलको घट और कुम्हारकी भाँति व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेसे कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि है और जैसे घड़े और मिट्टीके व्याप्यव्यापकभावका सद्भाव होनेसे कर्ता-कर्मपना है। उसीप्रकार आत्मपरिणाम और आत्मा के व्याप्यवापक भाव का सद्भाव होनेसे कर्ताकर्मपना है। आत्म द्रव्य स्वतंत्र व्यापक होने से आत्मपरिणामका अर्थात् पुद्गलपरिणामके ज्ञानका कर्ता है और पुद्गलपरिणामका ज्ञान उस व्यापक से स्वयं व्याप्य होनेसे कर्म है। और इसप्रकार (ज्ञाता पुद्गलपरिणामका ज्ञान करता है इसलिये ) ऐसा भी नहीं है कि पुद्गलपरिणाम ज्ञाताका व्याप्य है; क्योंकि पुद्गल और आत्माके ज्ञेयज्ञायकसंबंधका
व्यवहारमात्रे सत्यपि पुद्गलपरिणामनिमित्तकस्य ज्ञानस्यैव ज्ञातुर्व्याप्यत्वात्।
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( शार्दूलविक्रोडित)
व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेन्नैवातदात्मन्यपि व्याप्यव्यापकभावसम्भवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः। इत्युद्दामविवेकघस्मरमहोभारेण भिन्दंस्तमो ज्ञानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान्।। ४९ ।।
१४१
व्यवहारमात्र होनेपर भी पुद्गलपरिणाम जिसका निमित्त है ऐसा ज्ञान ही ज्ञाता का व्याप्य है। (इसलिये वह ज्ञान ही ज्ञाताका कर्म है । )
अब इसी अर्थ का समर्थक कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ:- [ व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेत् ] व्याप्यव्यापकता तत्स्वरूपमें ही होती है, [ अतदात्मनि अपि न एव] अतत्स्वरूपमें नहीं ही होती। और [ व्याप्यव्यापक– भावसम्भवम् ऋते ] व्याप्यव्यापकभावके संभवके बिना [ कर्तृकर्मस्थितिः का] कर्ताकर्मकी स्थिति कैसे ? अर्थात् कर्ताकर्मकी स्थिति नहीं ही होती । [ इति उद्दाम-विवेक-घस्मर - महोभारेण ] ऐसे प्रबल विवेकरूप, और सबको ग्रासीभूत करनेके स्वभाव वाले ज्ञानप्रकाशके भार से [तमः भिन्दन् ] अज्ञान-अंधकारको भेदता हुआ, [ सः एषः पुमान् ] यह आत्मा [ ज्ञानीभूय ] ज्ञानस्वरूप होकर, [ तदा] उस समय [ कर्तृत्वशून्यः लसितः ] कर्तृत्वरहित हुआ शोभित होता है।
भावार्थ:-जो सर्व अवस्थाओं में व्याप्त होता है सो तो व्यापक है और कोई एक अवस्थाविशेष वह, ( उस व्यापकका) व्याप्य है । इसप्रकार द्रव्य तो व्यापक है और पर्याय व्याप्य है । द्रव्य - पर्याय अभेदरूप ही हैं। जो द्रव्यका आत्मा, स्वरूप अथवा सत्त्व है वही पर्यायका आत्मा, स्वरूप अथवा सत्य है । ऐसा होनेसे द्रव्य पर्यायमें व्याप्त होता है और पर्याय द्रव्यके द्वारा व्याप्त हो जाती है। ऐसी व्याप्यव्यापकता तत्स्वरूपमें ही ( अभिन्न सत्तावाले पदार्थमें ही ) होती है; अतत्स्वरूपमें ( जिनकी सत्ता-तत्त्व भिन्न भिन्न है ऐसे पदार्थोंमें) नहीं ही होती। व्याप्यव्यापकभाव होता है वहीं कर्ताकर्मभाव होता है; व्याप्यव्यापकभावके बिना कर्ताकर्मभाव नहीं होता। जो ऐसा जानता है वह पुद्गल और आत्माके कर्ताकर्मभाव नहीं हैं ऐसा जानता है। ऐसा जानने पर वह ज्ञानी होता है और कर्ताकर्मभावसे रहित होता है और ज्ञाताद्रष्टाजगतका साक्षीभूत होता है । ४९ ।
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१४२
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समयसार
पुद्गलकर्म जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति
चेत्
ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए । णाणी जाणतो वि हु पोग्गलकम्मं अणेयविहं ।। ७६ ।। नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये । ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मानेकविधम् ।। ७६ ।।
यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं पुद्गलपरिणामं कर्म पुद्गलद्रव्येण स्वयमन्तर्व्यापकेन भूत्वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न
अब यह प्रश्न करता है कि पुद्गलकर्मको जाननेवाले जीवके पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव है या नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं:--
बहुभाँति पुद्गलकर्म सब, ज्ञानी पुरुष जाना करे । परद्रव्यपर्यायों न प्रणमे, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे ।। ७६ ।।
गाथार्थ:- [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ अनेकविधम् ] अनेक प्रकारके [ पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्मको [ जानन् अपि ] जानता हुआ भी [ खलु ] निश्चयसे [ परद्रव्यपर्याये ] परद्रव्यकी पर्यायमें [न अपि परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [न गृह्णाति] उसे ग्रहण नहीं करता [ न उत्पद्यते ] और उस रूप उत्पन्न नहीं होता।
टीका:-प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा, व्याप्यलक्षणवाला पुद्गलका परिणामस्वरूप कर्म ( कर्ताका कार्य ), उसमें पुद्गलद्रव्य स्वयं अंतर्व्यापक होकर, आदि-मध्य और अंतमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण करता हुआ, उस-रूप परिणमन करता हुआ और उस रूप उत्पन्न होता हुआ, उस पुद्गलपरिणामको करता है। इसप्रकार पुद्गलद्रव्यसे किये जाने वाले पुद्गलपरिणामको ज्ञानी जानता हुआ भी, जैसे मिट्टी स्वयं घड़ेमें अंतर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त होकर, घड़ेको ग्रहण करती है, घड़ेकेरूपमें परिणमित होती है और घड़ेकेरूपमें उत्पन्न होती है, उसीप्रकार ज्ञानी स्वयं बाह्यस्थित ( बाहर रहनेवाले) परद्रव्यके परिणाममें अंतर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उस रूप परिणमित नही होता और उस रूप उत्पन्न नहीं होता ।
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तथोत्पद्यते च, ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य पुद्गलकर्म जानतोऽपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः ।
स्वपरिणामं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत्
ण विपरिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए । पाणी जाणतो वि हु सगपरिणामं अणेयविहं ।। ७७ ।।
"
,
इसलिये, यद्यपि ज्ञानी पुद्गलकर्मको जानता है तथापि प्राप्य विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करने वाले ज्ञानीका पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है।
१४३
भावार्थ:-जीव पुद्गलकर्मको जानता है तथापि उसे पुद्गलके साथ कर्ताकर्मपना नहीं है ।
सामान्यतया कर्ताका कर्म तीन प्रकारका कहा जाता है - निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य। कर्ताके द्वारा, जो पहले न हो ऐसा नवीन कुछ उत्पन्न किया जाये सो कर्ताका निर्वर्त्य कर्म है। कर्ता के द्वारा, पदार्थ में विकार - परिवर्तन करके जो कुछ किया जाये वह कर्ताका विकार्य कर्म है। कर्ता, जो नया उत्पन्न नहीं करता तथा विकार करके भी नहीं करता, मात्र जिसे प्राप्त करता है वह कर्ताका प्राप्य कर्म है।
जीव पुद्गलकर्मको नवीन उत्पन्न नहीं कर सकता क्योंकि चेतन जड़को कैसे उत्पन्न कर सकता है ? इसलिये पुद्गलकर्म जीवका निर्वर्त्य कर्म नही है । जीव पुद्गलमें विकार करके उसे पुद्गलकर्मरूप परिणमन नहीं करा सकता क्योंकि चेतन जड़को कैसे परिणमित करा सकता है ? इसलिये पुद्गलकर्म जीवका विकार्य कर्म भी नहीं है। परमार्थसे जीव पुद्गलको ग्रहण नहीं करता क्योंकि अमूर्तिक पदार्थ मूर्तिकको कैसे ग्रहण कर सकता है ? इसलिये पुद्गलकर्म जीवका प्राप्य कर्म भी नहीं है। इसप्रकार पुद्गलकर्म जीवका कर्म नहीं और जीव उसका कर्ता नहीं । जीवका स्वभाव ज्ञाता है इसलिये ज्ञानरूप परिणमन करता हुआ स्वयं पुद्गलकर्मको जानता है; इसलिये पुद्गलकर्मको जानने वाले ऐसे जीवका परके साथ कर्ताकर्मभाव कैसे हो सकता है ? नहीं ही हो सकता ।
अब प्रश्न करता है कि अपने परिणामको जानने वाले ऐसे जीवका पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव ( कर्ताकर्मपना ) है या नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं:
बहुभाँति निज परिणाम सब, ज्ञानी पुरुष जाना करे । परद्रव्यपर्यायों न प्रणमें, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे ।। ७७ ।।
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समयसार
१४४
नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये। ज्ञानी जानन्नपि खलु स्वकपरिणाममनेकविधम्।। ७७ ।।
यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वर्यं च व्याप्यलक्षणमात्मपरिणामं कर्म आत्मना स्वयमन्तापकेन भूत्वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च, ततः प्राप्यं विकार्य निर्वयं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणाम कर्माकुर्वाणस्य स्वपरिणामं जानतोऽपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह कर्तृकर्मभावः।
पुद्गलकर्मफलं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत्
गाथार्थ:- [ ज्ञानी] ज्ञानी [अनेकविधम् ] अनेक प्रकारके [ स्वकपरिणामम् ] अपने परिणामको [ जानन् अपि] जानता हुआ भी [ खलु ] निश्चयसे [ परद्रव्यपर्याये] परद्रव्यकी पर्यायमें [न अपि परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [न गृहाति] उसे ग्रहण नहीं करता और [ न उत्पद्यते ] उस-रूप उत्पन्न नहीं होता।
टीका:-प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा, व्याप्यलक्षणवाला आत्माका परिणामस्वरूप जो कर्म (कर्ताका कार्य), उसमें आत्मा स्वयं अंतर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण करता हुआ, उस-रूप परिणमन करता हआ और उस-रूप उत्पन्न होता हआ. उस आत्मपरिणामको करता है। इसप्रकार आत्मा के द्वारा किये जाने वाले आत्मपरिणामको ज्ञानी जानता हआ भी. जैसे मिट्टी स्वयं ही घडेमें अंतर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त होकर, घडेको ग्रहण करती है, घड़े के रूप में परिणमित होती है और घड़ेके रूपमें उत्पन्न होती है उसीप्रकार, ज्ञानी स्वयं बाह्यस्थित ऐसे परद्रव्यके परिणाममें अंतर्व्यापक होकर, आदिमध्य-अंतमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उस-रूप परिणमित नहीं होता
और उस-रूप उत्पन्न नहीं होता। इसलिये, यद्यपि ज्ञानी अपने परिणामको जानता है तथापि, प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले ऐसे उस ज्ञानीका पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है।
भावार्थ:-जैसे ७६वीं गाथामें कहा है तद्अनुसार यहाँ भी जान लेना। वहाँ 'पुद्गलकर्मको जानता हुआ ज्ञानी' ऐसा कहा था उसके स्थान पर यहाँ ‘अपने परिणामको जानता हुआ ज्ञानी' ऐसा कहा है---इतना अंतर है।
अब प्रश्न करता है कि पुद्गलकर्मके फलको जाननेवाले ऐसे जीवका पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव है या नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं:---
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कर्ता-कर्म अधिकार
__ १४५
ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए। णाणी जाणंतो वि हु पोग्गलकम्मप्फलमणंतं ।। ७८ ।।
नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये। ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मफलमनन्तम्।। ७८ ।।
यतो यं प्रायं विकार्यं निर्वत्र्यं च व्याप्यलक्षणं सुखदुःखादिरूपं पुद्गलकर्मफलं कर्म पुद्गलद्रव्येण स्वयमन्तापकेन भूत्वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तद् गृहृता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमन्तापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च, ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वत्र्वं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणाम कर्माकुर्वाणस्य सुखदुःखादिरूपं पुद्गलकर्मफलं जानतोऽपि ज्ञानिन: पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः।
पुद्गलकर्मका फल अनंता, ज्ञानी जन जाना करे। परद्रव्यपर्यायों न प्रणमें , नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे।।७८।।
गाथार्थ:- [ ज्ञानी] ज्ञानी [ पुद्गलकर्मफलम् ] पुद्गलकर्मका फल [अनन्तम् ] जो कि अनंत है उसे [जानन् अपि] जानता हुआ भी [ खलु ] परमार्थसे [ परद्रव्यपर्याये ] परद्रव्यकी पर्यायरूप [न अपि परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [ न गृह्णाति] उसे ग्रहण नहीं करता और [ न उत्पद्यते ] उसरूप उत्पन्न नहीं होता।
टीका:-प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा, व्याप्यलक्षणवाला सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मफलस्वरूप जो कर्म (कर्ताका कार्य), उसमें पुद्गलद्रव्य स्वयं अंतर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण करता हुआ, उस-रूप परिणमन करता हुआ और उस-रूप उत्पन्न होता हुआ, उस सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मफलको करता है। इसप्रकार पुद्गलद्रव्य द्वारा किये जानेवाले सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मफलको ज्ञानी जानता हुआ भी, जैसे मिट्टी स्वयं घड़ेमें अंतर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त होकर, घड़ेको ग्रहण करती है, घड़े के रूप में परिणमित होती है और घड़ेके रूपमें उत्पन्न होती है उसीप्रकार, ज्ञानी स्वयं बाह्यस्थित (बाहर रहनेवाले) ऐसे परद्रव्यके परिणाममें अंतर्व्यापक होकर, आदिमध्य-अंतमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उस-रूप परिणमित नहीं होता
और उस-रूप उत्पन्न नहीं होता। इसलिये, यद्यपि ज्ञानी सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मके फलको जानता है तथापि, प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले ऐसे उस ज्ञानीका पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है।
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१४६
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समयसार
जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य सह जीवेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत्
ण विपरिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए । पोग्गलदव्वं पि तहा परिणमदि सएहिं भावेहिं ।। ७९ ।। नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये। पुद्गलद्रव्यमपि तथा परिणमति स्वकैर्भावैः ।। ७९ ।।
यतो जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाप्यजानत्पुद्गलद्रव्यं स्वयमन्तर्व्यापकं भूत्वा परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च, किन्तु प्राप्यं विकार्यं निवृर्त्यं च
भावार्थ:- जैसा की ७६ वीं गाथामें कहा था तद्नुसार यहाँ भी जान लेना । वहाँ ‘पुद्गलकर्मको जाननेवाला ज्ञानी' कहा था और यहाँ उसके बदले में ‘पुद्गलकर्मके फलको जाननेवाला ज्ञानी' ऐसा कहा है- इतना विशेष है।
अब प्रश्न करता है कि जीवके परिणामको, अपने परिणामको और अपने परिणाम के फलको नहीं जाननेवाले ऐसे पुद्गलद्रव्यका जीवके साथ कर्ताकर्मभाव है या नहीं ? इसका उत्तर कहते हैं:
इस भाँति पुद्गलद्रव्य भी, निज भावेसे ही परिणमे । परद्रव्यपर्यायों न प्रणमें, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे ।। ७९ ।।
गाथार्थ:- [ तथा ] इसप्रकार [ पुद्गलद्रव्यम् अपि ] पुद्गलद्रव्य भी [परद्रव्यपर्याये ] परद्रव्यके पर्यायरूप [ न अपि परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [ न गृह्णाति ] उसे ग्रहण नहीं करता और [ न उत्पद्यते ] उस रूप उत्पन्न नहीं होता; क्योंकि वह [ स्वकैः भावैः ] अपने ही भावोंसे ( - भावरूपसे ) [ परिणमति ] परिणमन
करता है।
टीका:-जैसे मिट्टी स्वयं घड़ेमें अंतर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त हो कर घड़ेको ग्रहण करती है, घड़ेरूप परिणमित होती है और घड़ेरूप उत्पन्न होती है उसी प्रकार जीवके परिणामको, अपने परिणामको और अपने परिणामके फलको न जानता हुआ ऐसा पुद्गलद्रव्य स्वयं परद्रव्यके परिणाममें अंतर्व्यापक होकर, आदिमध्य और अंतमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उस रूप परिणमित नहीं होता और उस रूप उत्पन्न नहीं होता; परंतु प्राप्य विकार्य और निर्वर्त्य ऐसे जो
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कर्ता-कर्म अधिकार
१४७
व्याप्यलक्षणं स्वभावं कर्म स्वयमन्तर्व्यापकं भूत्वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तमेव गृह्णाति तथैव परिणमति तथैवोत्पद्यते च; ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वयं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणाम कर्माकुर्वाणस्य जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य जीवेन सह न कर्तृकर्मभावः।।
(स्रग्धरा) ज्ञानी जानन्नपीमां स्वपरपरिणतिं पुद्गलश्चाप्यजानन् व्याप्तृव्याप्यत्वमन्तः कलयितुमसहौ नित्यमत्यन्तभेदात्। अज्ञानात्कर्तृकर्मभ्रममतिरनयोर्भाति तावन्न यावत् विज्ञानार्चिश्चकास्ति क्रकचवददयं भेदमुत्पाद्य सद्यः।। ५० ।।
व्याप्यलक्षणवाले अपने स्वभावरूप कर्म (कर्ताके कार्य), में ( वह पुद्गलद्रव्य) स्वयं अंतर्व्यापक होकर आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त होकर, उसी को ग्रहण करता है, उसीरूप परिणमित होता है और उसी-रूप उत्पन्न होता है; इसलिये जीवके परिणामको, अपने परिणामको और अपने परिणामके फलको नहीं जानता हुआ ऐसा पुद्गलद्रव्य प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसे जो व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्यपरिणाम-स्वरूप कर्म, उसे नहीं करता होनेसे, उस पुद्गलद्रव्यको जीव के साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है।
भावार्थ:-कोई ऐसा समझे कि पुद्गल जो कि जड़ है और किसी को नहीं जानता उसका जीवके साथ कर्ताकर्मपना होगा, परंतु ऐसा भी नहीं। पुद्गलद्रव्य जीवको उत्पन्न नहीं कर सकता, परिणमित नहीं कर सकता तथा ग्रहण नहीं कर सकता इसलिये उसका जीव के साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है। परमार्थसे किसी भी द्रव्यका किसी अन्य द्रव्यके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ ज्ञानी] ज्ञानी तो [इमां स्वपरपरिणतिं] अपनी और परकी परिणतिको [जानन् अपि] जानता हुआ प्रवर्तता है [च] और [ पुद्गलः अपि अजानन् ] पुद्गलद्रव्य अपनी और परकी परिणतिको न जानता हुआ प्रवर्तता है; [नित्यम् अत्यन्त-भेदात् ] इसप्रकार इनमें सदा अत्यंत भेद होनेसे (दोनों भिन्न द्रव्य होनेसे), [ अन्तः ] वे दोनों परस्पर अंतरंगमें [ व्याप्तृव्याप्यत्वम् ] व्याप्यव्यापकभाव को [ कलयितुम् असहौ] प्राप्त होने में असमर्थ हैं। [अनयोः कर्तृकर्मभ्रममतिः] जीवपुद्गलके कर्ताकर्मभाव है ऐसी भ्रमबुद्धि [ अज्ञानात् ] अज्ञानके कारण [ तावत् भाति] वहाँ तक भासित होती है कि [यावत् ] जहाँ-तक [विज्ञानार्चिः] (भेदज्ञान करनेवाली) विज्ञानज्योति [क्रकचवत् अदयं] करवतकी भाँति निर्दयतासे ( उग्रता से) [ सद्यः भेदम् उत्पाद्य] जीव-पुद्गलका तत्काल भेद उत्पन्न करके [ न चकास्ति] प्रकाशित नहीं होती।
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१४८
इत्याह
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समयसार
जीवपुद्गलपरिणामयोरन्योऽन्यनिमित्तमात्रत्वमस्ति तथापि न तयोः कर्तृकर्मभाव
जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पोग्गला परिणमति । पोग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि ।। ८० ।। ण वि कुव्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणामं जाण दोण्हं पि ।। ८१ ।। एदेण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण । पोग्गलकम्मकदाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ।। ८२ ।।
जीवपरिणामहेतुं कर्मत्वं पुद्गलाः परिणमन्ति ।
पुद्गलकर्मनिमित्तं तथैव जीवोऽपि परिणमति ।। ८० ।। नापि करोति कर्मगुणान् जीवः कर्म तथैव जीवगुणान्। अन्योऽन्यनिमित्तेन तु परिणामं जानीहि द्वयोरपि ।। ८१ ।। एतेन कारणेन तु कर्ता आत्मा स्वकेन भावेन । पुद्गलकर्मकृतानां न तु कर्ता सर्वभावानाम् ।। ८२ ।।
भावार्थ:-भेदज्ञान होनेके बाद, जीव और पुद्गलमें कर्ताकर्मभाव है ऐसी बुद्धि नहीं रहती; क्योंकि जबतक भेदज्ञान नहीं होता तबतक अज्ञानसे कर्ताकर्मभावकी बुद्धि होती है।
यद्यपि जीवके परिणाम और पुद्गलके परिणामके अन्योन्य (परस्पर) निमित्तमात्रता है तथापि उनके कर्ताकर्मपना नहीं है ऐसा अब कहते हैं:
जीवभावहेतु पाय पुद्गल, कर्मरूप जु परिणमे । पुद्गलकरमकेनिमित्तसे, यह जीव भी त्यों परिणमे ।। ८० ।।
जीव कर्मगुण करता नहीं, नहिं जीवगुण कर्म हि करे । अन्योन्यके हि निमित्तसे परिणाम दोनों के बने ।। ८१ ।। इस हेतुसे आत्मा हुआ, कर्ता स्वयं निज भाव ही । पुद्गलकरमकृत सर्व भावोंका कभी कर्ता नहीं ।। ८२ ।।
गाथार्थ:- [ पुद्गलाः] पुद्गल [ जीवपरिणामहेतुं ] जीवके परिणामके निमित्तसे [ कर्मत्वं ] कर्मरूपमें [ परिणमन्ति ] परिणमित होते हैं, [ तथा एव ] तथा [ जीवः अपि ] जीव भी [ पुद्गलकर्मनिमित्तं ] पुद्गलकर्मके निमित्तसे
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यतो जीवपरिणामं निमित्तीकृत्य पुद्गलाः कर्मत्वेन परिणमन्ति, पुद्गलकर्म निमित्तीकृत्य जीवोऽपि परिणमतीति जीवपुद्गलपरिणाम-योरितरेतरहेतुत्वोपन्यासेऽपि जीवपुद्गलयोः परस्परं पुद्गलकर्मणोऽपि
व्याप्यव्यापक-भावाभावाज्जीवस्य जीवपरिणामानां
१४९
निमित्तनैमित्तिकभावमात्रस्याप्रतिषिद्धत्वादितरेतर
पुद्गलपरिणामानां कर्तृकर्मत्वासिद्धौ निमित्तमात्रीभवनेनैव द्वयोरपि परिणामः; ततः कारणान्मृत्तिकया कलशस्येव स्वेन भावेन स्वस्य भावस्य करणाज्जीवः स्वभावस्य कर्ता कदाचित्स्यात्, मृत्तिकया वसनस्येव स्वेन भावेन परभावस्य कर्तुमशक्यत्वात्पुद्गलभावनां तु कर्ता न कदाचिदपि स्यादिति निश्चयः।
[ परिणमति ] परिणमन करता है । [ जीवः ] जीव [कर्मगुणान् ] कर्मके गुणोंको [न अपि करोति ] नहीं करता [ तथा एव ] उसी तरह [ कर्म ] कर्म [ जीवगुणान् ] जीवके गुणोंको नहीं करता; [तु] परंतु [ अन्योऽन्यनिमित्तेन ] परस्पर निमित्तसे [ द्वयोः अपि ] दोनोंके [ परिणामं ] परिणाम [ जानीहि ] जानों । [ एतेन कारणेन तु ] इस कारणसे [ आत्मा ] आत्मा [ स्वकेन ] अपने ही [ भावेन ] भावसे [ कर्ता ] कर्ता (कहा जाता ) है [तु] परंतु [ पुद्गलकर्मकृतानां ] पुद्गलकर्मसे किये गये [ सर्वभावानाम् ] समस्त भावोंका [ कर्ता न ] कर्ता नहीं है।
टीका:-— जीवपरिणामको निमित्त करके पुद्गल कर्मरूप परिणमित होते हैं और पुद्गलकर्मको निमित्त करके जीव भी परिणमित होते हैं' - इसप्रकार जीवके परिणामके और पुद्गलके परिणामके परस्पर हेतुत्व का उल्लेख होनेपर भी जीव और पुद्गलमें परस्पर व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेसे जीवको पुद्गलपरिणामोंके साथ और पुद्गलकर्मको जीवपरिणामोंके साथ कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि होनेसे, मात्र निमित्त-नैमित्तिकभावका निषेध न होनेसे, परस्पर निमित्तमात्र होनेसे ही दोनोंके परिणाम (होता) है; इसलिये, जैसे मिट्टी द्वारा घड़ा किया जाता है (अर्थात् जैसे मिट्टी ही घड़ा बनाती है) उसीप्रकार अपने भाव से अपना भाव किया जाता है इसलिये, जीव अपने भावका कर्ता कदाचित् होता है, परंतु जैसे मिट्टीसे कपड़ा नहीं किया जा सकता उसीप्रकार अपने भावसे परभाव का किया जाना अशक्य है इसलिये (जीव ) पुद्गलभावोंका कर्ता तो कदापि नहीं हो सकता यह निश्चय है।
मात्र
भावार्थ:-जीवके परिणामके और पुद्गलके परिणामके परस्पर निमित्तनैमित्तिकपना है तो भी परस्पर कर्ताकर्मभाव नहीं है । परके निमित्तसे जो अपने भाव हुए उनका कर्ता तो जीवको अज्ञानदशामें कदाचित् कह भी सकते हैं, परंतु जीव परभावका कर्ता कदापि नहीं है ।
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समयसार
१५०
ततः स्थितमेतज्जीवस्य स्वपरिणामैरेव सह कर्तृकर्मभावो भोक्तभोग्यभावश्चणिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि। वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं।। ८३ ।।
निश्चयनयस्यैवमात्मात्मानमेव हि करोति।
वेदयते पुनस्तं चैव जानीहि आत्मा त्वात्मानम्।। ८३ ।। यथोत्तरङ्गनिस्तरङ्गावस्थयोः समीरसञ्चरणासञ्चरणनिमित्तयोरपि समीरपारावारयोर्व्याप्यव्यापकभावाभावात्कर्तृकर्मत्वासिद्धौ, पारावार एव स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वादिमध्यान्तेषूत्तरङ्गनिस्तरणावस्थे व्याप्योत्तरङ्गं निस्तरङ्गं त्वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभाति, न पुनरन्यत; यथा स एव च भाव्यभावकभावाभावात्परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वादुत्तरङ्गं निस्तरङ्गं त्वात्मानमनुभवन्नात्मानमेकमेवानुभवन् ।
इसलिये यह सिद्ध हुआ कि जीवको अपने ही परिणामों के साथ कर्ताकर्मभाव और भोक्ताभोग्यभाव (भोक्ताभोग्यपना) है ऐसा अब कहते हैं:
आत्मा करे निजको हि ये, मंतव्य निश्चयनय हि का। अरु भोगता निजको हि आत्मा, शिष्य यों तू जानना।। ८३।।
गाथार्थ:- [ निश्चयनयस्य ] निश्चयनयका [एवम् ] ऐसा मत है कि [ आत्मा ] आत्मा [आत्मानम् एव हि ] अपने को ही [ करोति ] करता है [तु पुनः ] और फिर [ आत्मा ] आत्मा [ तं च एव आत्मानम् ] अपने को ही [ वेदयते ] भोगता है ऐसा हे शिष्य! तू [ जानीहि ] जान।
टीका:-जैसे उत्तरंग और निस्तरंग अवस्थाओंको हवाका चलना और न चलना निमित्त होने पर भी हवा और समुद्रको व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेसे कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि है इसलिये, समुद्र ही स्वयं अंतर्व्यापक होकर उत्तरंग अथवा निस्तरंग अवस्थामें आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त होकर उत्तरंग अथवा निस्तरंग ऐसा अपने को करता हुआ, स्वयं एकको ही करता हुआ प्रतिभासित होता है परंतु अन्यको करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता; और फिर जैसे वही समुद्र, भाव्यभावकभावके अभावके कारण परभावका पर के द्वारा अनुभवन अशक्य होनेसे, अपनेको उत्तरंग अथवा निस्तरंगरूप अनुभवन करता हुआ स्वयं एकको ही अनुभव करता हुआ
१। उत्तरंग = जिसमें तरंगें उठती हैं ऐसा; तरंगवाला। २। निस्तरंग = जिसमें तरंगें विलय हो गई हैं एसा; बिना तरंगों का।
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कर्ता-कर्म अधिकार
१५१
प्रतिभाति, न पुनरन्यत; तथा ससंसारनि:संसारावस्थयो: पुद्गल-कर्मविपाकसम्भवा सम्भवनिमित्तयोरपि पुद्गलकर्मजीवयोर्व्याप्यव्यापक-भावाभावात्कर्तृकर्मत्वासिद्धौ, जीव एव स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वादिमध्यान्तेषु ससंसारनिःसंसारावस्थे व्याप्य ससंसारं निःसंसारं वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत; तथायमेव च भाव्यभावकभावाभावात् परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वात्ससंसारं निःसंसारं वात्मानमनुभवन्नात्मानमेकमेवानुभवन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत्।
अथ व्यवहारं दर्शयति
ववहारस्स दु आदा पोग्गलकम्मं करेदि णेयविहं। तं चेव पुणो वेयइ पोग्गलकम्मं अणेयविहं।। ८४ ।।
प्रतिभासित होता है परंतु अन्यको अनुभव करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता; इसी प्रकार संसारयुक्त और नि:संसार अवस्थाओंको पुद्गलकर्मके विपाकका संभव (होना; उत्पत्ति) और असंभव (न होना) निमित्त होनेपर भी पुद्गलकर्म और जीवको व्याप्यव्यापकभावका अभाव होने से कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि है इसलिये, जीव ही स्वयं अंतर्व्यापक होकर संसारयुक्त अथवा निःसंसार अवस्थामें आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त होकर संसारयुक्त अथवा संसाररहित ऐसा अपनेको करता हुआ अपनेको एकको ही करता हुआ प्रतिभासित हो परंतु अन्यको करता हुआ प्रतिभासित न हो; और फिर उसीप्रकार यही जीव, भाव्यभावकभावके अभावके कारण परभावका परके द्वारा अनुभवन अशक्य है इसलिये, संसारसहित अथवा संसाररहित अपनेको अनुभव करता हुआ, अपनेको एकको ही अनुभव करता हुआ प्रतिभासित हो परंतु अन्यको अनुभव करता हुआ प्रतिभासित न हो।
भावार्थ:-आत्माके परद्रव्य-पुद्गलकर्मके निमित्तसे संसारयुक्त और संसाररहित अवस्था है। आत्मा उस अवस्थारूपसे स्वयं ही परिणमित होता है। इसलिये वह अपना ही कर्ता-भोक्ता है; पुद्गलकर्मका कर्ता-भोक्ता तो कदापि नहीं
है।
अब व्यवहार बतलाते हैं:
आत्मा करे बहुभाँति पुद्गलकर्म-मत व्यवहारका । अरु वो हि पुद्गलकर्म, आत्मा नेकविधमय भोगता ।। ८४ ।।
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समयसार
१५२
व्यवहारस्य त्वात्मा पुद्गलकर्म करोति नैकविधम्। तचैव पुनर्वेदयते पुद्गलकर्मानेकविधम्।। ८४ ।।
___ यथान्तर्व्याप्यव्यापकभावेन मृत्तिकया कलशे क्रियमाणे भाव्यभावकभावेन मृत्तिकयैवानुभूयमाने च बहिर्व्याप्यव्यापकभावेन कलश-सम्भवानुकूलं व्यापारं कुर्वाण: कलशकृततोयोपयोगजां तृप्तिं भाव्यभावक-भावेनानुभवंश्च कुलालः कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावद्व्यवहारः, तथान्तर्व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलद्रव्येण कर्मणि क्रियमाणे भाव्यभावकभावेन पुद्गलद्रव्येणैवानुभूयमाने च बहिर्व्याप्यव्यापक भावेना-ज्ञानात्पुद्गलकर्मसम्भवानुकूलं परिणामं कुर्वाणः पुद्गलकर्मविपाकसम्पादित विषयसन्निधिप्रधावितां सुखदुःखपरिणतिं भाव्यभावकभावेनानुभवंश्च जीवः पुद्गलकर्म करोत्यनुभवति चेत्यज्ञानिनामासंसारप्रसिद्धोऽस्ति तावद्व्यवहारः।
गाथार्थ:- [ व्यवहारस्य तु] व्यवहारनयका यह मत है कि [ आत्मा: ] आत्मा [ नैकविधम् ] अनेक प्रकारके [ पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्मको [करोति ] करता है [ पुन: च ] और [ तद् एव ] उसी [अनेकविधम् ] अनेक प्रकारके [ पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्मको [ वेदयते ] भोगता है।
टीका:-जैसे, भीतर व्याप्यव्यापकभावसे मिट्टी घड़ेको करती है और भाव्यभावकभावसे मिट्टी ही घड़ेको भोगती है तथापि, बाह्यमें, व्याप्यव्यापकभावसे घड़े की उत्पत्ति में अनुकूल ऐसे (इच्छारूप और हाथ आदिकी क्रियारूप अपने) व्यापारको करता हुआ तथा घड़ेके द्वारा किये गये पानीके उपयोगसे उत्पन्न तृप्तिको ( अपने तृप्तिभावको) भाव्यभावकभाव के द्वारा अनुभव करता हुआ-भोगता हुआ कुम्हार घड़ेका कर्ता है और भोगता है ऐसा लोगोंका अनादिसे रूढ़ व्यवहार है; उसी प्रकार, भीतर व्याप्यव्यापकभावसे पुद्गलद्रव्य कर्मको करता है और भाव्यभावकभावसे पुद्गलद्रव्य ही कर्मको भोगता है तथापि, बाह्यमें, व्याप्यव्यापकभावसे अज्ञानके कारण पुद्गलकर्मके होनेमें अनुकूल (अपने रागादिक) परिणामोंको करता हुआ और पुद्गलकर्मके विपाकसे उत्पन्न हुई विषयोंकी निकटता से उत्पन्न (अपनी) सुखदुःखरूप परिणतिको भाव्यभावकभावके द्वारा अनुभव करता हुआ-भोगता हुआ जीव पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है ऐसा अज्ञानियोंका अनादि संसारसे प्रसिद्ध व्यवहार है।
भावार्थ:-पुद्गलकर्मको परमार्थसे पुद्गलद्रव्य ही करता है; जीव तो पुद्गलकर्मकी उत्पत्तिके अनुकूल अपने रागादिक परिणामोंको करता है। और पुद्गल द्रव्य ही पुद्गलकर्मको भोगता है; तथा जीव तो पुद्गलकर्मके निमित्तसे होनेवाले
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कर्ता-कर्म अधिकार
१५३
अथैनं दूषयतिजदि पोग्गलकम्ममिणं कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा। दोकिरियावदिरित्तो पसज्जदे सो जिणावमदं।। ८५ ।।
यदि पुद्गलकर्मेदं करोति तच्चैव वेदयते आत्मा। द्विक्रियाव्यतिरिक्तः प्रसजति स जिनावमतम्।। ८५ ।।
इह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतया न नाम परिणामतोऽस्ति भिन्ना; परिणामोऽपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वा-त्परिणामिनो न भिन्नः।
अपने रागादिक परिणामोंको भोगता है। परंतु जीव और पुद्गलका ऐसा निमित्तनैमित्तिकभाव देखकर अज्ञानीको ऐसा भ्रम होता है कि जीव पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है। अनादि अज्ञानके कारण ऐसा अनादि कालसे प्रसिद्ध व्यवहार है।
परमार्थ जीव-पुद्गलकी प्रवृत्ति भिन्न होने पर भी, जब तक भेदज्ञान न हो तबतक बाहरसे उनकी प्रवृत्ति एकसी दिखाई देती है। अज्ञानीको जीव-पुद्गलका भेदज्ञान नहीं होता इसलिये वह ऊपरी दृष्टिसे जैसा दिखाई देता है वैसा मान लेता है; इसलिये वह यह मानता है कि जीव पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है। श्री गुरु भेदज्ञान कराकर, परमार्थ जीवका स्वरूप बताकर, अज्ञानीके इस प्रतिभास को व्यवहार कहते हैं।
अब इस व्यवहारको दूषण देते हैं:
पुद्गलकरम जीव जो करे, उनको ही जो जीव भोगवे । जिनको असंमत द्विक्रियासे , एकरूप आत्मा हुवे ।। ८५।।
गाथार्थ:- [यदि] यदि [ आत्मा] आत्मा [इदं] इस [ पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्मको [ करोति] करे [च ] और [ तद् एव ] उस को [ वेदयते ] भोगे तो [ सः] वह आत्मा [ द्विक्रियाव्यतिरिक्तः ] दो क्रियाओंसे अभिन्न [प्रसजति] ठहरे ऐसा प्रसंग आता है- [जिनावमतं] जो कि जिनदेवको संमत नहीं है।
टीका:-पहले तो, जगतमें जो क्रिया है सो सब ही परिणामस्वरूप होनेसे वास्तव में परिणामसे भिन्न है ( –परिणाम ही है); परिणाम भी परिणामीसे (द्रव्यसे) भिन्न नहीं है क्योंकि परिणाम और परिणामी अभिन्न वस्तु है ( भिन्न-भिन्न दो वस्तु नहीं है)।
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समयसार
१५४
ततो या काचन क्रिया किल सकलापि सा क्रियावतो न भिन्नेति क्रियाक!र व्यतिरिक्ततायां वस्तुस्थित्या प्रतपत्यां, यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति भाव्यभावकभावेन तमेवानुभवति च जीवस्तथा व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात् भाव्यभावकभावेन तदेवानुभवेच्च ततोऽयं स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रसजन्त्यां स्वपरयोः परस्परविभागप्रत्यस्तमनादनेकात्मकमेकमात्मानमनु भवन्मिथ्या दृष्टितया सर्वज्ञावमतः स्यात्।
कुतो द्विक्रियानुभावी मिथ्यादृष्टिरिति चेत्
जम्हा दु अत्तभावं पोग्गलभावं च दो वि कुव्वंति। तेण दु मिच्छादिट्ठी दोकिरियावादिणो हुति।।८६ ।।
यस्मात्त्वात्मभावं पुद्गलभावं च द्वावपि कुर्वन्ति। तेन तु मिथ्यादृष्टयो द्विक्रियावादिनो भवन्ति।।८६ ।।
इसलिये ( यह सिद्ध हुआ कि) जो कुछ क्रिया है वह सब क्रियावानसे (द्रव्यसे) भिन्न नहीं है। इसप्रकार, वस्तुस्थितिसे ही ( अर्थात् वस्तुकी ऐसी ही मर्यादा होनेसे) क्रिया और कर्ताकी अभिन्नता सदा ही प्रगट होनेसे, जैसे जीव व्याप्यव्यापकभावसे अपने परिणामको करता है और भाव्यभावकभावसे उसीका अनुभव करता है-भोगता है उसीप्रकार व्याप्यव्यापकभावसे पुद्गलकर्मको भी करे और भाव्यभावकभावसे उसी को भोगे तो वह जीव, अपनी और परकी एकत्रित हुई दो क्रियाओंसे अभिन्नताका प्रसंग आने पर स्व-परका परस्पर विभाग अस्त (नाश) हो जाने से, अनेकद्रव्यस्वरूप एक आत्माका अनुभवकरता हुआ मिथ्यादृष्टिताके कारण सर्वज्ञके मतसे बाहर है।
भावार्थ:-दो द्रव्योंकी क्रिया भिन्न ही है। जड़की क्रियाको चेतन नहीं करता और चेतनकी क्रियाको जड़ नहीं करता। जो पुरुष एक द्रव्यको दो क्रियायें करता हुआ मानता है वह मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि दो द्रव्यकी क्रियाओंको एक द्रव्य करता है ऐसा मानना जिनेन्द्र भगवानका मत नहीं है।
अब पुनः प्रश्न करता है कि दो क्रियाओंका अनुभव करनेवाला मिथ्यादृष्टि कैसे है ? उसका समाधान करते हैं:
जीवभाव पुद्गलभाव-दोनों भावको आत्मा करे ।
इससे ही मिथ्यादृष्टि, ऐसे द्विक्रियावादी हुवे ।। ८६ ।।
गाथार्थ:- [ यस्मात् तु] क्योंकि [ आत्मभावं ] आत्माके भावको [च ] और [पुद्गलभावं ] पुद्गलके भावको- [ द्वौ अपि ] दोनोंको [ कुर्वंति ] आत्मा करते हैं ऐसा वे मानते हैं [ तेन तु] इसलिये द्विक्रियावादिनः ] एक द्रव्यके दो क्रियाओं का होना
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कर्ता-कर्म अधिकार
१५५
यतः किलात्मपरिणामं पुद्गलपरिणामं च कुर्वन्तमात्मानं मन्यन्ते तिक्रियावादिनस्ततस्ते मिथ्यादृष्टय एवेति सिद्धान्तः। मा चैकद्रव्येण द्रव्यद्वयपरिणाम: क्रियमाण: प्रतिभातु। यथा किल कुलाल: कलशसम्भवानुकूलमात्मव्यापारपरिणाममात्मनो ऽव्यतिरिक्तमात्मनोऽव्यति-रिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभाति, न पुनः कलशकरणाहङ्कारनिर्भरोऽपि स्वव्यापारानुरूपं मृत्तिकायाः कलशपरिणामं मृत्तिकायाः अव्यतिरिक्तं मृत्तिकायाः अव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभाति; तथात्मापि पुद्गलकर्मपरिणामानुकूलम-ज्ञानादात्मपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्त मात्मनोऽव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभातु, मा पुनः पुद्गलपरिणामकरणाहङ्कारनिर्भरोऽपि स्वपरिणामानुरूपं पुद्गलस्य परिणाम पुद्गलादव्यतिरिक्तं पुद्गलादव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभातु।
माननेवाला [ मिथ्यादृष्टयः ] मिथ्यादृष्टि [ भवन्ति ] है।
टीका:-निश्चयसे द्विक्रियावादी यह मानते हैं कि आत्माके परिणामको और पुद्गलके परिणामको स्वयं (आत्मा) करता है इसलिये वे मिथ्यादृष्टि ही हैं ऐसा सिद्धांत है। एक द्रव्य के द्वारा दो द्रव्योंके परिणाम किये गये प्रतिभासित न हों। जैसे कुम्हार घड़ेकी उत्पत्तिमें अनुकूल अपने (इच्छारूप और हस्तादिकी क्रियारूप) व्यापारपरिणामको जो कि अपनेसे अभिन्न है और अपनेसे अभिन्न परिणतिमात्र क्रियासे किया जाता है उसे-करता हुआ प्रतिभासित होता है, परंतु घड़ा बनानेके अहंकारसे भरा हुआ होनेपर भी ( वह कुम्हार) अपने व्यापारके अनुरूप मिट्टीके घटपरिणामको--जो मिट्टीसे अभिन्न है और मिट्टीसे अभिन्न परिणतिमात्र क्रियासे किया जाता है उसे-करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता; इसीप्रकार आत्मा भी अज्ञानके कारण पुद्गलकर्मरूप परिणामके अनुकूल अपने परिणामको-जो कि अपने से अभिन्न है और अपनेसे अभिन्न परिणतिमात्र क्रियासे किया जाता है उसे-करता हुआ प्रतिभासित हो, परंतु पुद्गलके परिणामको करनेसे अहंकारसे भरा हुआ होने पर भी ( वह आत्मा) अपने परिणामके अनुरूप पुद्गलके परिणामको-जो कि पुद्गलसे अभिन्न है और पुद्गलसे अभिन्न परिणतिमात्र क्रियासे किया जाता है उसे-करता हुआ प्रतिभासित न हो।
भावार्थ:-आत्मा अपने ही परिणामको करता हुआ प्रतिभासित हो; पुद्गलके परिणामको करता हुआ कदापि प्रतिभासित न हो। आत्माकी और पुद्गलकी-दोनोंकी क्रिया एक आत्मा ही करता है ऐसा माननेवाले मिथ्यादृष्टि हैं। जड़-चेतनकी एक क्रिया हो तो सर्व द्रव्योंके पलट जानेसे सबका लोप हो जायगा-यह महादोष उत्पन्न होगा।
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समयसार
(आर्या) यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म। या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया।। ५१ ।।
(आर्या) एकः परिणमति सदा परिणामो जायते सदैकस्य। एकस्य परिणतिः स्यादनेकमप्येकमेव यतः।। ५२ ।।
(आर्या) नोभौ परिणमतः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत। उभयोर्न परिणतिः स्वाद्यदनेकमनेकमेव सदा।। ५३ ।।
अब इसी अर्थका समर्थक कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ यः परिणमति स कर्ता] जो परिणमित होता है वह कर्ता है, [ यः परिणामः भवेत् तत् कर्म ] ( परिणमित होने वाले का ) जो परिणाम है सो कर्म है [ तु] और [ या परिणतिः सा क्रिया ] जो परिणति है सो क्रिया है; [ त्रयम् अपि] यह तीनों, [ वस्तुतया भिन्नं न ] वस्तुस्वरूपसे भिन्न नहीं हैं।
भावार्थ:-द्रव्यदृष्टिसे परिणाम और परिणामीका अभेद है और पर्यायदृष्टिसे भेद है। भेददृष्टिसे तो कर्ता, कर्म और क्रिया यह तीन कहे गये हैं किन्तु यहाँ अभेददृष्टिसे परमार्थतः यह कहा गया कि कर्ता, कर्म और क्रिया-तीनों ही एक द्रव्यकी अभिन्न अवस्थायें हैं, प्रदेशभेदरूप भिन्न वस्तुएँ नहीं हैं। ५१।
पुनः कहते हैं कि:
श्लोकार्थ:- [ एकः परिणमति सदा] वस्तु एक ही सदा परिणमित होती है, [ एकस्य सदा परिणामः जायते ] एकके ही सदा परिणाम होते हैं ( अर्थात् एक अवस्था से अन्य अवस्था एककी ही होती है) और [ एकस्य परिणतिः स्यात् ] एककी ही परिणति-क्रिया होती है; [ यतः] क्योंकि [अनेकम् अपि एकम् एव ] अनेकरूप होनेपर भी एक ही वस्तु है, भेद नहीं है।
भावार्थ:-एक वस्तुकी अनेक पर्यायें होती हैं; उन्हें परिणाम भी कहा जाता है और अवस्था भी कहा जाता है। वे संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदिसे भिन्न भिन्न प्रतिभासित होती है तथापि एक वस्तु ही हैं, भिन्न नहीं हैं; ऐसा ही भेदाभेदस्वरूप वस्तुका स्वभाव है। ५२।
और कहते हैं कि:
श्लोकार्थ:- [न उभौ परिणमतः खलु ] दो द्रव्य एक होकर परिणमित नहीं होते, [ उभयोः परिणामः न प्रजायेत ] दो द्रव्योंका एक परिणाम नहीं होता और [ उभयोः परिणति: न स्यात् ] दो द्रव्योंकी एक परिणति-क्रिया नहीं होती;
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कर्ता-कर्म अधिकार
१५७
(आर्या) नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तो द्वे कर्मणी न चैकस्य। नैकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात्।।५४ ।।
(शार्दूलविक्रीडित) । आसंसारत एव धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकैदुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहङ्काररूपं तमः। तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत् तत्कि ज्ञानघनस्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः।। ५५ ।।
[ यत् ] क्योंकि जो [अनेकम् सदा अनेकम् एव ] अनेक द्रव्य हैं सो सदा अनेक ही हैं, वह बदल कर एक नहीं हो जाते।
भावार्थ:-जो दो वस्तुएँ हैं वे सर्वथा भिन्न ही हैं, प्रदेशभेदवाली ही हैं। दोनों एक होकर परिणमित नहीं होती, एक परिणाम को उत्पन्न नहीं करती और उनकी एक क्रिया नहीं होती -ऐसा नियम है। यदि दो द्रव्य एक होकर परिणमित हों तो सर्व द्रव्योंका लोप हो जाये। ५३।
पुनः इस अर्थको दृढ़ करते हैं:
श्लोकार्थ:- [ एकस्य हि द्वौ कर्तारौ न स्त: ] एक द्रव्यके दो कर्ता नहीं होते, [च ] और [ एकस्य द्वे कर्मणी न ] एक द्रव्यकें दो कर्म नहीं होते [च ] और [ एकस्य द्वे क्रिये न] एक द्रव्यकी दो क्रियाएँ नहीं होती; [ यतः ] क्योंकि [ एकम् अनेकं न स्यात् ] एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप नहीं होता।
भावार्थ:-इसप्रकार उपरोक्त श्लोकोमें निश्चयनयसे अथवा शुद्धद्रव्यार्थिकनय से वस्तुस्थितिका नियम कहा है। ५४।
आत्माके अनादिसे परद्रव्यके कर्ताकर्मपनेका अज्ञान है यदि वह परमार्थनयके ग्रहणसे एक बार भी विलय को प्राप्त हो जाये तो फिर न आये, अब ऐसा कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इह] इस जगतमें [ मोहिनाम् ] मोही (अज्ञानी) जीवोंका [ परं अहम् कुर्वे ] परद्रव्यको मैं करता हूँ' [इति महाहङ्काररूपं तमः] ऐसा परद्रव्य के कर्तृत्वका महा अहंकाररूप अज्ञानांधकार- [ननु उच्चकैः दुर्वारं] जो अत्यंत दुर्निवार है वह- [आसंसारतः एव धावति] अनादि संसारसे चला आ रहा है। आचार्य कहते है कि: [ अहो] अहो! [ भूतार्थपरिग्रहेण ] परमार्थनयका अर्थात् शुद्धद्रव्यार्थिक अभेदनयका ग्रहण करनेसे [ यदि ] यदि [ तत् एकवारं विलयं व्रजेत् ] वह एक बार भी नाश को प्राप्त हो [ तत् ] तो [ ज्ञानघनस्य आत्मन:] ज्ञानघन आत्माको [ भूयः ] पुन: [बन्धनम् किं भवेत् ] बंधन कैसे हो सकता है ? (जीव ज्ञानघन है इसलिये यथार्थ ज्ञान होने के बाद ज्ञान कहाँ जा सकता है ? और जब ज्ञान नहीं जाता तब फिर अज्ञानसे बंध कैसे हो सकता है ? )
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समयसार
१५८
(अनुष्टुभ् ) आत्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः। आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते।।५६ ।।
भावार्थ:-यहाँ तात्पर्य यह है कि-अज्ञान तो अनादिसे ही है परंतु परमार्थनयके ग्रहणसे, दर्शनमोहका नाश होकर, एक बार यथार्थ ज्ञान होकर क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होतो पुनः मिथ्यात्व न आये। मिथ्यात्व न आनेसे मिथ्यात्वका बंध भी न हो। और मिथ्यात्व के जाने के बाद संसारका बंधन कैसे रह सकता है ? नहीं रह सकता अर्थात् मोक्ष ही होता है ऐसा जानना चाहिये। ५५ ।
अब पुनः विशेषतापूर्वक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [आत्मा] आत्मा तो [ सदा] सदा [आत्मभावान् ] अपने भावोंको [ करोति ] करता है और [ परः] परद्रव्य [ परभावान् ] परके भावोंको करता है; [ हि ] क्योंकि जो [ आत्मनः भावाः] अपने भाव हैं सो तो [ आत्मा एव] आप ही हैं और जो [ परस्य ते ] परके भाव हैं सो [ परः एव ] पर ही है [ओ नियम छ।] ।
(परद्रव्यके कर्ताकर्मपनेकी मान्यताको अज्ञान कहकर यह कहा है कि जो ऐसा मानता है सो मिथ्यादृष्टि है; यहाँ आशंका उत्पन्न होती है कि यह मिथ्यात्वादि भाव क्या वस्तु है ? यदि उन्हें जीवका परिणाम कहा जाये तो पहले रागादि भावोंको पुद्गलका परिणाम कहा था उस कथनके साथ विरोध आता है; और यदि उन्हें पुद्गलका परिणाम कहा जाये तो जिनके साथ जीवको कोई प्रयोजन नहीं है उनका फल जीव क्यों प्राप्त करे ? इस आशंकाको दूर करनेके लिये अब गाथा कहते हैं:-)
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मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं । अविरदि जोगो मोहो कोहादीया इमे भावा ।। ८७ ।। मिथ्यात्वं पुनर्द्विविधं जीवोऽजीवस्तथैवाज्ञानम् । अविरतिर्योगो मोह: क्रोधाद्या इमे भावाः ।। ८७ ।।
मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो
हि भावा: ते तु प्रत्येकं मयूरमुकुरन्दवज्जीवाजीवाभ्यां भाव्यमानत्वाज्जीवाजीवौ । तथाहि-यथा नीलहरितपीतादयो भावाः स्वद्रव्यस्वभावत्वेन मयूरेण भाव्यमाना: मयूर एव, यथा च नीलहरितपीतादयो भावाः स्वच्छताविकारमात्रेण मुकुरन्देन भाव्यमाना मुकुरन्द एव; तथा मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो भावाः स्वद्रव्यस्वभावत्वेनाजीवेन भाव्यमाना अजीव एव, तथैव च मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो भावाश्चैतन्यविकारमात्रेण जीवेन भाव्यमाना जीव एव ।
मिथ्यात्व जीव अजीव दोविध, उभयविध अज्ञान है 1 अविरमण, योग रु, मोह रु क्रोधादि उभय प्रकार है ।। ८७ ।।
१५९
गाथार्थ:- [ पुनः ] और, [ मिथ्यात्वं ] तो मिथ्यात्व कहा है वह - [ द्विविधं ]
दो प्रकारका है- [ जीवः अजीवः ] एक जीवमिथ्यात्व और दूसरा अजीवमिथ्यात्व; [ तथा एव ] और इसीप्रकार [अज्ञानम् ] अज्ञान, [ अविरतिः] अविरति, [ योगः ] योग, [ मोह: ] मोह तथा [ क्रोधाद्याः ] क्रोधादि कषाय - [ इमे भावा: ] यह ( सर्व ) भाव जीव और अजीवके भेदसे दो-दो प्रकारके हैं ।
टीका:- मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि जो भाव हैं वे प्रत्येक, मयूर और दर्पणकी भाँति, अजीव और जीवके द्वारा भाये जाते हैं इसलिये वे अजीव भी हैं और जीव भी हैं। इसे दृष्टांतसे समझाते हैं: - जैसे गहरा नीला, हरा, पीला आदि (वर्णरूप ) भाव जो कि मोरके अपने स्वभावसे मोरके द्वारा भाया जाता है (होता है ) वह मोर ही है और ( दर्पणमें प्रतिबिंबरूसे दिखाई ) देनेवाला गहरा, नीला, हरा, पीला इत्यादि भाव जो कि ( दर्पणकी) की स्वच्छताके विकारमात्रसे दर्पणके द्वारा भाया जाता है वह दर्पण ही है; इसीप्रकार मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भाव जो कि अजीवके अपने द्रव्यस्वभावसे अजीवके द्वारा भाये जाते हैं वे अजीव ही हैं और मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भाव जो कि चैतन्यके विकारमात्रसे जीवके द्वारा भाये जाते हैं वे जीव हैं।
* गाथा ८६ में द्विक्रियावादीको मिथ्यादृष्टि कहा था उनके साथ संबंध करनेके लिये यहाँ 'पुन:' शब्द हैं।
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समयसार
१६०
काविह जीवाजीवाविति चेत
पोग्गलकम्मं मिच्छं जोगो अविरदि अणाणमज्जीवं। उवओगो अण्णाणं अविरदि मिच्छं च जीवो दु।। ८८ ।।
पुद्गलकर्म मिथ्यात्वं योगोऽविरतिरज्ञानमजीवः।
उपयोगोऽज्ञानमविरतिर्मिथ्यात्वं च जीवस्तु।। ८८ ।। यः खलु मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादिरजीवस्तदमूर्ताचैतन्य
भावार्थ:-पुद्गलके परमाणु पौद्गलिक मिथ्यात्वादि कर्मरूपसे परिणमित होते हैं। उस कर्मका विपाक (उदय) होनेपर उसमें जो मिथ्यात्वादि स्वाद उत्पन्न होता है वह मिथ्यात्वादि अजीव है; और कर्मके निमित्तसे जीव विभावरूप परिणमित होता है वे विभाव परिणाम चेतनके विकार हैं इसलिये वे जीव हैं।
यहाँ अब समझना चाहिये कि:-मिथ्यात्वादि कर्मकी प्रकृतियाँ पुद्गलद्रव्यके परमाणु हैं। जीव उपयोगस्वरूप है। उसके उपयोगकी ऐसी स्वच्छता है कि पौद्गलिक कर्मका उदय होनेपर उसके उदयका जो स्वाद आवे उसके आकार उपयोग हो जाता है। अज्ञानीको अज्ञानके कारण उस स्वादका और उपयोगका भेदज्ञान नहीं है इसलिये वह स्वादको ही अपना भाव समझता है। जब उनका भेदज्ञान होता है अर्थात् जीवभावको जीव जानता है और अजीवभावको अजीव जानता है तब मिथ्यात्वका अभाव होकर सम्यग्ज्ञान होता है।
अब प्रश्न करता है कि मिथ्यात्वादिको जीव और अजीव कहा है सो वे जीव मिथ्यात्वादि और अजीव मिथ्यात्वादि कौन है ? उसका उत्तर कहते हैं:
मिथ्यात्व अरु अज्ञान आदि अजीव , पुदगलकर्म हैं। अज्ञान अरु अविरमण अरु मिथ्यात्व जीव, उपयोग है ।। ८८।।
गाथार्थ:- [ मिथ्यात्वं ] जो मिथ्यात्व , [ योगः] योग, [ अविरतिः ] अविरति और [ अज्ञानम् ] अज्ञान [अजीवः ] अजीव है सो तो [ पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्म है; [च ] और जो [अज्ञानम् ] अज्ञान, [अविरतिः ] अविरति और [ मिथ्यात्वं ] मिथ्यात्व [ जीवः ] जीव है [ तु] वह [ उपयोगः ] उपयोग है।
टीका:-निश्चयसे जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि अजीव हैं वे तो, अमूर्तिक चैतन्य
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कर्ता-कर्म अधिकार
१६१
परिणामादन्यत् मूर्तं पुद्गलकर्म; यस्तु मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादि: जीवः स मूर्तात्पुद्गलकर्मणोऽन्यश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः।
मिथ्यादर्शनादिश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः कुत इति चेत्उवओगस्स अणाई परिणामा तिण्णि मोहजुत्तस्स। मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णादव्वो।। ८९ ।।
उपयोगस्यानादयः परिणामास्त्रयो मोहयुक्तस्य। मिथ्यात्वमज्ञानमविरतिभावश्च ज्ञातव्यः ।। ८९ ।।
उपयोगस्य हि स्वरसत एव समस्तवस्तुस्वभावभूतस्वरूप-परिणामसमर्थत्वे सत्यनादिवस्त्वन्तरभूतमोहयुक्तत्वान्मिथ्यादर्शनमज्ञानम-विरतिरिति त्रिविधिः परिणाम विकारः। स तु तस्य स्फटिकस्वच्छताया इव परतोऽपि प्रभवन् दृष्टः। यथा हि स्फटिकस्वच्छतायाः स्वरूपपरिणामसमर्थत्वे सति
परिणामसे अन्य मूर्तिक पुद्गलकर्म हैं; और जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति आदि जीव हैं वे, मूर्तिक पुद्गलकर्मसे अन्य चैतन्यपरिणामके विकार हैं।
अब पुनः प्रश्न करता है कि-- मिथ्यादर्शनादि चैतन्यपरिणामका विकार कहाँ से हुआ ? इसका उत्तर गाथामें कहते हैं:
है मोहयुत उपयोगका परिणाम तीन अनादिका। -मिथ्यात्व अरु अज्ञान, अविरतभाव ये त्रय जानना।। ८९ ।।
गाथार्थ:- [ मोहयुक्तस्य ] अनादिसे मोहयुक्त होनेसे [ उपयोगस्य ] उपयोगके [अनादयः ] अनादिसे लेकर [त्रयः परिणामाः] तीन परिणाम हैं; वे [ मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्व, [अज्ञानम् ] अज्ञान [च अविरतिभावः ] और अविरतिभाव (ऐसे तीन) [ ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये।
___टीका:-यद्यपि निश्चयसे अपने निजरससे ही सर्व वस्तुओंकी अपनी स्वभावभूत स्वरूप-परिणमनमें समर्थ्य है, तथापि (आत्माका) अनादिसे अन्य-वस्तुभूत मोहके साथ संयुक्तपना होनेसे, आत्माके उपयोगका, मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरतिके भेदसे तीन प्रकारका परिणामविकार है। उपयोगका वह परिणाम विकार, स्फटिककी स्वच्छताके परिणामविकारकी भाँति, परके कारण (-परकी उपाधिसे ) उत्पन्न होता दिखाई देता है। इसी बात को स्पष्ट करते हैं:- जैसे स्फटिक की स्वच्छताकी स्वरूप-परिणमनमें (अपने उज्ज्वलतारूप स्वरूपमें परिणमन करने में) समर्थ्य होनेपर
भी.
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१६२
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त्रिविध:
कदाचिन्नीलहरितपीततमालकदलीकाञ्चनपात्रोपाश्रययुक्तत्वान्नीलो हरितः पीत इति तथोपयोगस्यानादिमिथ्यादर्शनाज्ञानाविरति
दृष्टः,
त्रिविध:
स्वभाववस्त्वन्तरभूतमोहयुक्तत्वान्मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरिति
परिणामविकारो
समयसार
परिणामविकारो दृष्टव्यः ।
अथात्मनस्त्रिविधपरिणामविकारस्य कर्तृत्वं दर्शयति
एदेसु य उवओगो तिविहो सुद्धो णिरंजणो भावो । जं सो करेदि भावं उवओगो तरस सो कत्ता ।। ९० ।। एतेषु चोपयोगस्त्रिविधः शुद्धो निरञ्जनो भावः ।
यं करोति भावमुपयोगस्तस्य स कर्ता ।। ९० ।।
कदाचित् (स्फटिकके ) काले, हरे और पीले, तमाल, केल और सोनेके पात्ररूपी आधारका संयोग होनेसे, स्फटिककी स्वच्छताका, काला, हरा और पीला ऐसे तीन प्रकारका परिणामविकार दिखाई देता है, उसीप्रकार ( आत्मा के ) अनादिसे मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति जिसका स्वभाव है, ऐसे अन्य वस्तुभूत मोहका संयोग होनेसे, आत्माके उपयोगका, मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति ऐसे तीन प्रकारका परिणामविकार समझना चाहिये।
भावार्थ:-आत्माके उपयोगमें यह तीन प्रकारका परिणामविकार अनादि कर्मके निमित्तसे है । ऐसा नहीं है कि पहले यह शुद्ध ही था और अब इसमें नया परिणामविकार हो गया है। यदि ऐसा हो तो सिद्धोंके भी नया परिणामविकार होना चाहिये। किन्तु ऐसा नहीं होता। इसलिये यह समझना चाहिये कि यह अनादिसे है।
अब आत्माके तीन प्रकारके परिणामविकारका कर्तृव बतलाते हैं:
इससे हि है उपयोग त्रयविध, शुद्ध निर्मल भाव जो । जो भाव कुछ भी वह करे, उस भावका कर्ता बने ।। ९० ।।
गाथार्थ:- [ एतेषु च ] अनादिसे ये तीन प्रकारके परिणामविकार होनेसे,
[ उपयोगः] आत्माका उपयोग - [ शुद्धः ] यद्यपि ( शुद्धनयसे) शुद्ध, [ निरञ्जन: ] निरंजन [ भावः ] (एक) भाव है तथापि - [ त्रिविधः ] तीन प्रकारका होता हुआ [ सः उपयोगः] वह उपयोग [ यं ] जिस [ भावम् ] ( विकारी) भावको [ करोति ] स्वयं करता है [ तस्य ] उस भावका [ स: ] वह [ कर्ता ] कर्ता [ भवति ] होता है।
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कर्ता-कर्म अधिकार
१६३
अथैवमयमनादिवस्त्वन्तरभूतमोहयुक्तत्वादात्मन्युत्प्लवमानेषु मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिभावेषु परिणामविकारेषु त्रिष्वेतेषु निमित्तभूतेषु परमार्थतः शुद्धनिरञ्जनानादिनिधन
वस्तुसर्वस्वभूतचिन्मात्रभावत्वेनैकविधोऽप्यशुद्धसाञ्जनानेकभावत्वमापद्यमानस्त्रिविधो भूत्वा स्वयमज्ञानीभूतः कर्तृत्वमुपढौकमानो विकारेण परिणम्य यं यं भावमात्मनः करोति तस्य तस्य किलोपयोगः कर्ता स्यात्।
अथात्मनस्त्रिविधपरिणामविकारकर्तृत्वे सति पुद्गलद्रव्यं स्वत एव कर्मत्वेन परिणमतीत्याह
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स। कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं पोग्गलं दव्वं ।। ९१ ।।
टीका:-इसप्रकार अनादिसे अन्यवस्तुभूत मोहके साथ संयुक्तताके कारण अपनेमें उत्पन्न होनेवाले जो यह तीन मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरतिभावरूप परिणामविकार हैं उनके निमित्तसे (-कारणसे) -यद्यपि परमार्थसे तो उपयोग शुद्ध, निरंजन, अनादिनिधन वस्तुके सर्वस्वभूत चैतन्यमात्रभावपने से एक प्रकारका है तथापि-अशुद्ध , सांजन अनेकभावताको प्राप्त होता हुआ तीन प्रकारका होकर, स्वयं अज्ञानी होता हुआ कर्तृत्वको प्राप्त, विकाररूप परिणमित होकर जिस जिस भावको अपना करता है उस उस भावका वह उपयोग कर्ता होता है।
भावार्थ:-पहले कहा था कि जो परिणमित होता है सो कर्ता है। यहाँ अज्ञानरूप होकर उपयोग परिणमित हुआ इसलिये जिस भावरूप वह परिणमित हुआ उस भावका उसे कर्ता कहा। इसप्रकार उपयोगको कर्ता जानना चाहिये। यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे आत्मा कर्ता नहीं है, तथापि उपयोग और आत्मा एक वस्तु होनेसे अशुद्धद्रव्यार्थिकनयसे आत्मा को भी कर्ता कहा जाता है।
अब, यह कहते हैं कि जब आत्माके तीन प्रकारके परिणामविकारका कर्तृत्व होता है तब पुद्गलद्रव्य अपने आप ही कर्मरूप परिणमित होता है:
जो भाव जीव करे स्वयं, उस भाव का कर्ता बने । उस ही समय पुद्गल स्वयं, कर्मत्व रूपहि परिणमे ।। ९१ ।।
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समयसार
यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य भावस्य। कर्मत्वं परिणमते तस्मिन् स्वयं पुद्गलं द्रव्यम्।। ९१ ।।
आत्मा ह्यात्मना तथापरिणमनेन यं भावं किल करोति तस्यायं कर्ता स्यात्, साधकवत्। तस्मिन्निमित्ते सति पुद्गलद्रव्यं कर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते। तथाहि-यथा साधक: किल तथाविधध्यानभावेनात्मना परिणममानो ध्यानस्य कर्ता स्यात्, तस्मिस्तु ध्यानभावे सकलसाध्यभावानु-कूलतया निमित्तमात्रीभूते सति साधकं कर्तारमन्तरेणापि स्वयमेव बाध्यन्ते विषव्याप्तयो, विडम्ब्यन्ते योषितो, ध्वंस्यन्ते बन्धाः। तथायमज्ञानादात्मा मिथ्यादर्शनादिभावेनात्मना परिणममानो मिथ्यादर्शनादिभावस्य कर्ता स्यात्, तस्मिस्तु मिथ्यादर्शनादौ भावे स्वानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सत्यात्मानं कर्तारमन्तरेणापि पुद्गलद्रव्यं मोहनीयादिकर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते।
गाथार्थ:- [आत्मा] आत्मा [ यं भावम् ] जिस भावको [ करोति ] करता है [ तस्य भावस्य] उस भावका [ सः ] वह [कर्ता] कर्ता [भवति] होता है; [तस्मिन्] उसके कर्ता होनेपर [ पुद्गलं द्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्य [ स्वयं] अपने आप [कर्मत्वं ] कर्मरूप [ परिणमते ] परिणमित होता है।
टीका:-आत्मा स्वयं ही उस रूप परिणमित होनेसे जिस भावको वास्तवमें करता है उसका वह –साधककी (मंत्र साधनेवालेकी) भाँति-कर्ता होता है; वह ( आत्माका भाव ) निमित्तभूत होनेपर, पुद्गलद्रव्य कर्मरूप स्वयमेव परिणमित होता है। इसी बात को स्पष्टतया समझाते हैं:-जैसे साधक उस प्रकारके ध्यानभावसे स्वयं ही परिणमित होता हआ ध्यानका कर्ता होता है और वह ध्यानभाव समस्त साध्यभावोंको ( साधकके साधनेयोग्य भावोंको) अनुकूल होनेसे निमित्तमात्र होनेपर, साधक के कर्ता हुए बिना ( सादिकका) व्याप्त विष स्वयमेव उतर जाता है, स्त्रियाँ स्वयमेव विडंबना को प्राप्त होती है और बंधन स्वयमेव टूट जाते हैं; इसीप्रकार यह आत्मा अज्ञानके कारण मिथ्यादर्शनादिभावरूप स्वयं ही परिणमित होता हुआ मिथ्यादर्शनादिभावका कर्ता होता है और वह मिथ्यादर्शनादिभाव पुद्गलद्रव्यको (कर्मरूप परिणमित होने में ) अनुकूल होनेसे निमित्तमात्र होनेपर, आत्माके कर्ता हुए बिना पुद्गलद्रव्य मोहनीय आदि कर्मरूप स्वयमेव परिणमित होते हैं।
भावार्थ:-आत्मा तो अज्ञानरूप परिणमित होता है, किसीके साथ ममत्व करता है, किसीके साथ राग करता है, और किसी के साथ द्वेष करता है; उन भावोंका स्वयं कर्ता होता है। उन भावोंके निमित्तमात्र होनेपर, पुद्गलद्रव्य स्वयं अपने भावसे ही कर्मरूप परिणमित होता है। परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव मात्र है। कर्ता तो दोनों अपने भावके भावके हैं यह निश्चय है।
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कर्ता-कर्म अधिकार
१६५
अज्ञानादेव कर्म प्रभवतीति तात्पर्यमाहपरमप्पाणं कुव्वं अप्पाणं पि य परं करितो सो। अण्णाणमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि।। ९२ ।।
परमात्मानं कुर्वन्नात्मानमपि च परं कुर्वन् सः।।
अज्ञानमयो जीवः कर्मणां कारको भवति।।९२ ।। अयं किलाज्ञानेनात्मा परात्मनोः परस्परविशेषानिर्ज्ञाने सति परमात्मानं कुर्वन्नात्मानं च परं कुर्वन्स्वयमज्ञानमयीभूतः कर्मणां कर्ता प्रतिभाति। तथाहितथाविधानुभवसम्पादनसमर्थायाः
रागद्वेषसुखदुःखादि-रूपाया: पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभवसम्पादनसमर्थायाः शीतोष्णायाः पुद्गलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलाद भिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यन्तभिन्नायास्तन्निमित्ततथाविधानुभवस्य । चात्मनोऽभिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवात्यन्तभिन्नस्याज्ञानात्परस्परविशेषानिर्ज्ञाने सत्येकत्वाध्यासात्
अब, यह तात्पर्य कहते हैं कि अज्ञानसे ही कर्म उत्पन्न होता है:
परको करे निजरूप अरु, निज आत्मको भी पर करे । अज्ञानमय ये जीव ऐसा, कर्मका कारक बनें ।। ९२।।
गाथार्थ:- [ परम् ] जो परको [ आत्माने ] अपनेरूप [ कुर्वन् ] करता है [च ] और [ आत्मानम् अपि] अपनेको भी [परं] पर [ कुर्वन् ] करता है [ सः] वह [ अज्ञानमयः जीवः ] अज्ञानमय जीव [ कर्मणां] कर्मोंका [ कारक:] कर्ता [ भवति] होता है।
टीका:-यह आत्मा अज्ञानसे अपना और परका परस्पर भेद (अन्तर) नहीं जानता हो तब वह परको अपनेरूप और अपनेको पररूप करता हुआ, स्वयं अज्ञानमय होता हुआ, कर्मोंका कर्ता प्रतिभासित होता है। यह स्पष्टतासे समझाते हैं:जैसे शीत-उष्णका अनुभव करानेमें समर्थ ऐसी शीत-उष्ण पुद्गलपरिणामकी अवस्था पुद्गलसे अभिन्नताके कारण आत्मासे सदा ही अत्यंत भिन्न है और उसके निमित्तसे होनेवाला उस प्रकारका अनुभव आत्मासे अभिन्नताके कारण पुद्गलसे सदा ही अत्यंत भिन्न है, इसीप्रकार ऐसा अनुभव कराने में समर्थ ऐसी राग-द्वेष-सुख-दुःखादिरूप पुद्गलपरिणामकी अवस्था पुद्गगलसे अभिन्नता के कारण आत्मासे सदा ही अत्यंत भिन्न है और उसके निमित्तसे होनेवाला उस प्रकारका अनुभव आत्मासे अभिन्नताके कारण पुद्गलसे सदा ही अत्यंत भिन्न है। जब आत्मा अज्ञानके कारण उस राग-द्वेषसुख-दुःखादिका और उसके अनुभवका परस्पर विशेष नहीं जानता हो तब एकत्वके अध्यासके कारण,
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समयसार
१६६
शीतोष्णरूपेणेवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणा-ज्ञानात्मना परिणममानो ज्ञानस्याज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन्स्वयमज्ञानमयीभूत एषोऽहं रज्ये इत्यादिविधिना रागादेः कर्मणः कर्ता प्रतिभाति।
ज्ञानात्तु न कर्म प्रभवतीत्याहपरमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो। सो णाणमओ जीवो कम्माणमकारगो होदि।। ९३ ।।
परमात्मानमकुर्वन्नात्मानमपि च परमकुर्वन्। स ज्ञानमयो जीवः कर्मणामकारको भवति।। ९३ ।।
शीत-उष्णकी भाँति ( अर्थात् जैसे शीत-उष्णरूपसे आत्मा के द्वारा परिणमन करना अशक्य है उसीप्रकार), जिस रूप आत्मा के द्वारा परिणमन करना अशक्य है ऐसे रागद्वेषसुखदुःखादिरूप अज्ञानात्मा के द्वारा परिणमित होता हुआ (परिणमित होना मानता हुआ), ज्ञानका अज्ञानत्व प्रगट करता हुआ, स्वयं अज्ञानमय होता हुआ, 'यह मैं रागी हूँ (अर्थात् यह मैं राग करता हूँ)' इत्यादि विधिसे रागादि कर्मका कर्ता प्रतिभासित होता है।
भावार्थ:-रागद्वेषसुखदुःखादि अवस्था पुद्गलकर्मके उदयका स्वाद है; इसलिये वह, शीत-उष्णताकी भाँति, पुद्गलकर्मसे अभिन्न है और आत्मासे अत्यंत भिन्न है। अज्ञानके कारण आत्माको उसका भेदज्ञान न होनेसे वह यह जानता है कि यह स्वाद मेरा ही है; क्योंकि ज्ञानकी स्वच्छता के कारण रागद्वेषादिका स्वाद, शीतउष्णताकी भाँति, ज्ञानमें प्रतिबिंबित होने पर, मानों ज्ञान ही रागद्वेष हो गया हो इसप्रकार अज्ञानी को भासित होता है। इसलिये वह यह मानता है कि 'मैं रागी हूँ, मैं द्वेषी हूँ, मैं क्रोधी हूँ, मैं मानी हूँ' इत्यादि। इसप्रकार अज्ञानी जीव रागद्वेषादिका कर्ता होता है।
अब यह बतलाते हैं कि ज्ञानसे कर्म उत्पन्न नहीं होता:परको नहीं निजरूप अरु, निज आत्मको नहिं पर करे । यह ज्ञानमय आत्मा अकारक कर्मका ऐसे बने ।। ९३।।
गाथार्थ:- [ परम् ] जो परको [आत्मानम् ] अपनेरूप [ अकुर्वन् ] नहीं करता [च ] और [ आत्मानम् अपि ] अपने को भी [ परम् ] पर [ अकुर्वन् ] नहीं करता [ सः] वह [ ज्ञानमयः जीवः ] ज्ञानमय जीव [ कर्मणाम् ] कर्मोंका [ अकारकः भवति ] अकर्ता होता है अर्थात् कर्ता नहीं होता।
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कर्ता-कर्म अधिकार
१६७
अयं किल ज्ञानादात्मा परात्मनोः परस्परविशेषनिर्ज्ञाने सति परमात्मानमकुर्वन्नात्मानं च परमकुर्वन्स्वयं ज्ञानमयीभूतः कर्मणामकर्ता प्रतिभाति। तथाहितथाविधानुभवसम्पादनसमर्थायाः
रागद्वेषसुखदुःखादि-रूपाया: पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभवसम्पादनसमर्थायाः शीतोष्णायाः पुद्गलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलादभिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यन्तभिन्नायास्तन्निमित्ततथाविधानुभवस्य चात्मनोऽभिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवात्यन्तभिन्नस्य ज्ञानात्परस्परविशेषनिर्ज्ञाने सति नानात्वविवेकाच्छीतोष्णरूपेणेवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणाज्ञानात्मना मनागप्यपरिणममानो ज्ञानस्य ज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन् स्वयं ज्ञानमयीभूतः एषोऽहं जानाम्येव रज्यते तु पुद्गल इत्यादिविधिना समग्रस्यापि रागादेः कर्मणो ज्ञानविरुद्धस्याकर्ता प्रतिभाति।
टीका:-यह आत्मा जब ज्ञानसे परका और अपना परस्पर विशेष (अंतर) जानता है तब परको अपनेरूप और अपने को पर नहीं करता हुआ, स्वयं ज्ञानमय होता हुआ, कर्मोंका अकर्ता प्रतिभासित होता है। इसी को स्पष्टतया समझाते हैं:-जैसे शीत-उष्णका अनुभव करानेमें समर्थ ऐसी शीत-उष्ण पुद्गलपरिणामकी अवस्था पुद्गलसे अभिन्नता के कारण आत्मासे सदा ही अत्यंत भिन्न है और उसके निमित्तसे होनेवाला उस प्रकार का अनुभव आत्मासे अभिन्नता के कारण पुदगलसे सदा ही अत्यंत भिन्न है, उसीप्रकार वैसा अनुभव करानेमें समर्थ ऐसी रागद्वेषसुखदुःखादिरूप पुद्गलपरिणामकी अवस्था पुद्गलसे अभिन्नता के कारण आत्मासे सदा ही अत्यंत भिन्न है और उसके निमित्तसे होनेवाला उस प्रकारका अनुभव आत्मासे अभिन्नता के कारण पुद्गलसे सदा ही अत्यंत भिन्न है। जब ज्ञानके कारण आत्मा उस रागद्वेषसुखदुःखादिको और उसके अनुभवका परस्पर अंतर जानता है तब, वे एक नहीं किन्तु भिन्न हैं ऐसे विवेक (भेद-ज्ञान) के कारण, शीत-उष्णकी भाँति (जैसे शीत-उष्णरूप आत्मा के द्वारा परिणमन करना अशक्य है उसीप्रकार), जिनके रूपमें आत्मा के द्वारा परिणमन करना अशक्य है ऐसे रागद्वेषसुखदुःखादिरूपसे अज्ञानात्माके द्वारा किंचित्मात्र परिणमित न होता हुआ, ज्ञानका ज्ञानत्व प्रगट करता हुआ, स्वयं ज्ञानमय होता हुआ, 'यह मैं ( रागको) जानता हूँ, रागी तो पुद्गल है ( अर्थात् राग तो पुद्गल करता है)' इत्यादि विधिसे, ज्ञानसे विरुद्ध समस्त रागादि कर्मका अकर्ता प्रतिभासित होता है।
भावार्थ:-जब आत्मा रागद्वेषसुखदुःखादि अवस्थाको ज्ञानसे भिन्न जानता है अर्थात् 'जैसे शीत-उष्णता पुद्गलकी अवस्था है उसीप्रकार रागद्वेषादि भी पुद्गलकी अवस्था है' ऐसा भेदज्ञान होता है, तब अपनेको ज्ञाता जानता है और रागादिरूप पुद्गलको जानता है। ऐसा होनेपर, रागादिका कर्ता आत्मा नहीं होता, ज्ञाता ही रहता है।
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१६८
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समयसार
कथमज्ञानात्कर्म प्रभवतीति चेत्
तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि कोहोऽहं । कत्ता तस्सुवओगस्सं होदि सो अत्तभावस्स त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति क्रोधोऽहम् । कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ।। ९४ ।।
९४ ।।
एष
खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूपस्त्रिविध: सविकारश्चैतन्यपरिणामः परात्मनोरविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषरत्या च समस्तं भेदमपह्नुत्य भावापन्नयोश्चेतनाचेतनयोः सामान्याधिकरण्येनानुभवनात्क्रोधोऽहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति ततोऽयमात्मा भ्रान्त्या सविकारेण चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सविकारचैतन्यपरिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् । एवमेव च क्रोधपदपरिवर्तनेन मानमायालोभमोहरागद्वेषकर्मनोकर्म मनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्प्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि
क्रोधोऽहमिति
षोडश व्याख्येयान्यनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ।
भाव्यभावक
अब यह प्रश्न करता है कि अज्ञानसे कर्म कैसे उत्पन्न होता है ? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं:
' मैं क्रोध ' आत्मविकल्प यह, उपयोग त्रयविध आचरे ।
तब जीव उस उपयोगरूप, जीवभावका कर्ता बने ।। ९४ ।।
गाथार्थ:- [ त्रिविधः ] तीन प्रकारका [ एषः ] यह [ उपयोगः ] उपयोग [ अहम् क्रोधः ] 'मैं क्रोध हूँ' ऐसा [ आत्मविकल्पं ] अपना विकल्प [ करोति ] करता है; इसलिये [सः] आत्मा [ तस्य उपयोगस्य ] उस उपयोगरूप [ आत्मभावस्य ] अपने भावका [ कर्ता ] कर्ता [ भवति ] होता है।
टीका:- वास्तवमें यह सामान्यता अज्ञानरूप जो मिथ्यादर्शन–अज्ञान– अविरतिरूप तीन प्रकारका सविकार चैतन्यपरिणाम है वह, परके और अपने अविशेष दर्शनसे, अविशेष ज्ञानसे और अविशेष रति ( लीनता) से समस्त भेदको छिपाकर, भाव्यभावकभावको प्राप्त चेतन और अचेतनका सामान्य अधिकरणसे ( - मानों उनका एक आधार हो इसप्रकार ) अनुभव करनेसे, ' मैं क्रोध हूँ' ऐसा अपना विकल्प उत्पन्न करता है; इसलिये ‘मैं क्रोध हूँ' ऐसी भ्रांतिके कारण जो सविकार (विकारयुक्त) है ऐसे चैतन्यपरिणामरूप परिणमित होता हुआ यह आत्मा उस सविकार चैतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है । इसीप्रकार ' क्रोध' पद को बदलकर मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, ध्राण, रसन और स्पर्शनके सोलह सूत्र व्याख्यानरूपसे लेना चाहिये; और इस उपदेशसे दूसरे भी विचार करना चाहिये।
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तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि धम्मादी । कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स ।। ९५ ।। त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति धर्मादिकम् ।
कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ।। ९५ ।।
एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूपस्त्रिविधः सविकारश्चैतन्यपरिणामः परस्परमविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषरत्या च समस्तं भेदमपह्नुत्य ज्ञेयज्ञायकभावापन्नयोः परात्मनोः समानाधिकरण्येनानुभवनाद्धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोडहं पुद्गलोडहं जीवान्तरमहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति; ततोऽयमात्मा धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोऽहं पुद्गलोऽहं जीवान्तरमहमिति सोपाधिना चैतन्यपरिणामेन परिणमन् सोपाधिचैतन्यपरिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् ।
भ्रान्त्या
१६९
' मैं धर्म आदि ' विकल्प यह, उपयोग त्रयविध आचरे । तब जीव उस उपयोगरूप, जीवभावका कर्ता बने ।। ९५ ।
भावार्थ:-अ :-अज्ञानरूप अर्थात् मिथ्यादर्शन-अज्ञान - अविरतिरूप तीन प्रकारका जो सविकार चैतन्यपरिणाम है वह अपना और परका भेद न जानकर 'मैं क्रोध हूँ, मैं मान हूँ' इत्यादि मानता है; इसलिये अज्ञानी जी उस अज्ञानरूप सविकार चैतन्यपरिणामका कर्ता होता है और वह अज्ञानरूप भाव उसका कर्म होता है।
अब इसी बातको विशेषरूपसे कहते हैं:
तस्य
गाथार्थ:- [त्रिविधः ] तीन प्रकारका [ एषः ] यह [ उपयोगः ] उपयोग [धर्मादिकम् ] 'मैं धर्मास्तिकाय आदि हूँ' ऐसा [ आत्मविकल्पं ] अपना विकल्प [ करोति ] करता है; इसलिये [ स ] आत्मा [ तस्य उपयोगस्य ] उस उपयोगरूप [ आत्मभावस्य ] अपने भावका [ कर्ता ] कर्ता [ भवति ] होता है।
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टीका:- वास्तवमें यह सामान्यरूपसे अज्ञानरूप जो मिथ्यादर्शन-अज्ञान– अविरतिरूप तीन प्रकारका सविकार चैतन्यपरिणाम है वह, परके और अपने अविशेष दर्शनसे, अविशेष ज्ञानसे और अविशेष रतिसे ( लीनता) से समस्त भेदको छिपाकर ज्ञेयज्ञायकभावको प्राप्त ऐसे स्व-परका सामान्य अधिकरणसे अनुभव करनेसे, — मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ' ऐसा अपना विकल्प उत्पन्न करता है; इसलिये, 'मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ' ऐसी भ्रांतिके कारण जो सोपाधिक ( उपाधियुक्त) है ऐसे चैतन्यपरिणामको परिणमित होता हुआ यह आत्मा उस सोपाधिक चैतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है।
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१७०
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समयसार
ततः स्थितं कर्तृत्वमूलमज्ञानम्।
एवं पराणि दव्वाणि अप्पयं कुणदि मंदबुद्धीओ । अप्पाणं अवि य परं करेदि अण्णाणभावेण ।। ९६ ।। एवं पराणि द्रव्याणि आत्मानं करोति मन्दबुद्धिस्तु । आत्मानमपि च परं करोति अज्ञानभावेन ।। ९६ ।।
क्रोधोऽहमित्यादिवद्धर्मोऽहमित्यादिवच्च
यत्किल
त्यात्मानमपि परद्रव्यीकरोत्येवमात्मा, तदयमशेषवस्तुसम्बन्धविधुरनिरवधि विशुद्धचैतन्यधातुमयोऽप्यज्ञानादेव सविकारसोपाधीकृतचैतन्यपरिणामतया तथाविधस्यात्मभावस्य कर्ता प्रतिभातीत्यात्मनो भूताविष्टध्यानाविष्टस्येव प्रतिष्ठितं कर्तृत्वमूलमज्ञानम्।
परद्रव्याण्यात्मीकरो
भावार्थ:-धर्मादिके विकल्पके समय जो, स्वयं शुद्ध चैतन्यमात्र होनेका भान न रखकर, धर्मादिके विकल्पमें एकाकार हो जाता है वह अपनेको धर्मादिद्रव्यरूप मानता
है।
इसप्रकार अज्ञानरूप चैतन्यपरिणाम अपनेको धर्मादिद्रव्यरूप मानता है इसलिये अज्ञानी जीव उस अज्ञानरूप सोपाधिक चैतन्यपरिणामका कर्ता होता है और वह अज्ञानरूप भाव उसका कर्म होता है।
'इसलिये कर्तृत्वका मूल अज्ञान सिद्ध हुआ' यह अब कहते हैं:
यह मंदबुद्धि जीव यों, परद्रव्यको निजरूप करे ।
इस भाँतिसे निज आत्मको, अज्ञानसे पररूप करे ।। ९६।।
गाथार्थ:- [ एवं तु] इसप्रकार [ मन्दबुद्धिः ] अज्ञानी [ अज्ञानभावेन ] अज्ञानभावसे [ पराणि द्रव्याणि ] पर द्रव्योंको [ आत्मानं ] अपनेरूप [ करोति ] करता है [ अपि च ] और [ आत्मानम् ] अपनेको [ परं ] पर [ करोति ] करता है ।
टीका:-वास्तवमें इसप्रकार, 'मैं क्रोध हूँ' इत्यादिकी भाँति और ' मैं धर्मद्रव्य हूँ' इत्यादिकी भाँति आत्मा परद्रव्योंको अपनेरूप करता है और अपने को भी परद्रव्यरूप करता है; इसलिये यह आत्मा, यद्यपि समस्त वस्तुओंके संबंधसे रहित अनंत शुद्ध चैतन्यधातुमय है तथापि, अज्ञानके कारण ही सविकार और सोपाधिक किये गये चैतन्यपरिणामवाला होने से उस प्रकारके अपने भावका कर्ता प्रतिभासित होता है। इसप्रकार, भूताविष्ट ( जिसके शरीरमें भूत प्रविष्ट हो ऐसे ) पुरुषकी भाँति और ध्यानाविष्ट ( ध्यान करनेवाले) पुरुषकी भाँति, आत्माके कर्तृत्वका मूल अज्ञान सिद्ध हुआ।
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कर्ता-कर्म अधिकार
१७१
तथाहि-यथा खलु भूताविष्टोऽज्ञानाद्भूतात्मानावेकीकुर्वन्नमानुषोचितविशिष्टचेष्टावष्टम्भनिर्भरभयङ्करारम्भगम्भीरामानुषव्यवहारतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति, तथायमात्माप्यज्ञानादेव भाव्यभावकौ परात्मानावेकीकुर्वन्नविकारानुभूतिमात्रभावकानुचितविचित्रभव्यक्रोधादिविकारकरम्बितचैतन्यपरिणामविकारतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति। यथा वाऽपरीक्षकाचार्यादेशेन मुग्धः कश्चिन्महिषध्यानाविष्टोऽज्ञानान्महिषात्मानावेकीकुर्वन्नात्मन्यभ्रङ्कषविषाणमहामहिषत्वाध्यासात्प्रच्युतमानुषोचितापवरकद्वारविनिस्सरणतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति, तथायमात्माऽप्यज्ञाना-द् ज्ञेयज्ञायकौ परात्मानावेकीकुर्वन्नात्मनि परद्रव्याध्यासान्नोइन्द्रियविषयीकृतधर्माधर्माकाशकालपुद्गल
जीवान्तरनिरुद्धशुद्धचैतन्यधातुतया तथेन्द्रियविषयीकृतरूपिपदार्थतिरोहित-केवलबोधतया भृतककलेवरमूछितपरमामृत विज्ञानघनतया च तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति।
यह प्रगट दृष्टांतसे समझाते हैं:-जैसे भूताविष्ट पुरुष अज्ञानके कारण भूतको और अपनेको एक करता हुआ, अमनुष्योचित विशिष्ट चेष्टाओंके अवलंबन सहित भयंकर आरंभ (कार्य) से युक्त अमानुषिक व्यवहारवाला होनेसे उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है; इसीप्रकार यह आत्मा भी अज्ञानके कारण ही भाव्य-भावकरूप परको और अपनेको एक करता हुआ, अविकार अनुभूतिमात्र भावकके लिये अनुचित विचित्र भाव्यरूप क्रोधादि विकारोंसे मिश्रित चैतन्यपरिणामविकारवाला होनेसे उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है।
जैसे अपरीक्षक आचार्यके उपदेशसे भैंसेका ध्यान करता हुआ कोई भोला पुरुष अज्ञानके कारण भैंसेको और अपनेको एक करता हुआ , ' मैं गगनस्पर्शी सींगोवाला बड़ा भैंसा हूँ' ऐसे अध्यासके कारण मनुष्योचित मकान के द्वार में से बाहर निकलने से च्युत होता हुआ उसप्रकार के भावका कर्ता प्रतिभासित होता है; इसीप्रकार यह आत्मा भी अज्ञानके कारण ज्ञेयज्ञायकरूप परको और अपनेको एक करता हुआ, 'मैं परद्रव्य हूँ' ऐसे अध्याससे कारण मनके विषयभूत किये गये धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवके द्वारा ( अपनी) शुद्ध चैतन्यधातु रुकी होनेसे तथा इंद्रियोंके विषयरूप किये गये रूपी पदार्थों के द्वारा (अपना) केवल बोध (-ज्ञान) ढंका हुआ होनेसे और मृतक शरीरके द्वारा परम अमृतरूप विज्ञानघन ( स्वयं) मूर्छित हुआ होनेसे उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है।
भावार्थ:-यह आत्मा अज्ञानके कारण, अचेतन कर्मरूप भावकके क्रोधादि भाव्यको चेतन भावकके साथ एकरूप मानता है; और वह, जड़ ज्ञेयरूप धर्मादिद्रव्योंको भी ज्ञायकके साथ एकरूप मानता है। इसलिये वह सविकार और सोपाधिक चैतन्यपरिणामका कर्ता होता है।
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१७२
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समयसार
ततः स्थितमेतद् ज्ञानान्नश्यति कर्तृत्वम्
एदेण दु सो कत्ता आदा णिच्छयविदूहिं परिकहिदो । एवं खलु जो जाणदि सो मुंचदि सव्वकत्तित्तं ।। ९७ ।। एतेन तु स कर्तात्मा निश्चयविद्भिः परिकथितः। एवं खलु यो जानाति सो मुञ्चति सर्वकर्तृत्वम् ।। ९७ ।।
येनायमज्ञानात्परात्मनोरेकत्वविकल्पमात्मनः करोति तेनात्मा निश्चयतः कर्ता प्रतिभाति, यस्त्वेवं जानाति स समस्तं कर्तृत्वमुत्सृजति, ततः स खल्वकर्ता प्रतिभाति। तथाहि-इहायमात्मा किलाज्ञानी सन्नज्ञानादा-संसारप्रसिद्धेन मिलितस्वादस्वादनेन मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिरनादित एव स्यात्ः ततः परात्मानावेकत्वेन जानाति;
यहाँ, क्रोधादिके साथ एकत्वकी मान्यतासे उत्पन्न होनेवाला कर्तृत्व समझानेके लिये भूताविष्ट पुरुषका दृष्टांत दिया है और धर्मादिक अन्यद्रव्योंके साथ एकत्वकी मान्यतासे उत्पन्न होने वाला कर्तृत्व समझानेके लिये ध्यानाविष्ट पुरुषका दृष्टांत दिया है।
'इससे यह सिद्ध हुआ कि ज्ञानसे कर्तृत्वका नाश होता है' यही अब कहते
इस हेतुसे परमार्थविद्, कर्ता कहें इस आत्म को ।
यह ज्ञान जिसको होय, वो छोड़े सकल कर्तृत्वको ।। ९७ ।।
गाथार्थ:- [ एतेन तु] इसलिये [ निश्चयविद्भिः ] निश्चयके जानने वाले ज्ञानीओंने [सः आत्मा ] उस आत्माको [ कर्ता ] कर्ता [ परिकथितः ] कहा है- [ एवं खलु ] ऐसा निश्चयसे [ य: ] जो [ जानाति ] जानता है [ स: ] वह (ज्ञानी होता हुआ ) [ सर्वकर्तृत्वम् ] सर्व कर्तृत्वको [ मुञ्चति ] छोड़ता है।
टीका:- क्योंकि यह आत्मा अज्ञानके कारण परके और अपने एकत्वका आत्मविकल्प करता है इसलिये वह निश्चयसे कर्ता प्रतिभासित होता है- जो ऐसा जानता है वह समस्त कर्तृत्वको छोड़ देता है इसलिये वह निश्चयसे अकर्ता प्रतिभासित होता है। इसे स्पष्ट समझाते है:
यह आत्मा अज्ञानी होता हुआ, अज्ञानके कारण अनादि संसारसे लेकर मिश्रित स्वादका स्वादन–अनुभवन होनेसे (अर्थात् पुद्गलकर्मका और अपने स्वादका एकमेकरूपसे मिश्र अनुभव होनेसे ), जिसकी भेदसंवेदन ( भेदज्ञान ) की शक्ति संकुचित हो गई है ऐसा अनादिसे ही है; इसलिये वह स्व-परको एकरूप जानता है;
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कर्ता-कर्म अधिकार
१७३
ततः क्रोधोऽहमित्यादि-विकल्पमात्मनः करोति; ततो निर्विकल्पादकृतकादेकस्माद्विज्ञान घनात्प्रभ्रष्टो वारंवारमनेकविकल्पैः परिणमन् कर्ता प्रतिभाति। ज्ञानी तु सन् ज्ञानात्तदादिप्रसिध्यता प्रत्येकस्वादस्वादनेनोन्मुद्रितभेदसंवेदनशक्ति: स्यात; ततोऽनादि निधनानवरतस्वदमाननिखिलरसान्तरविविक्तात्यन्तमधुरचैतन्यै-करसोऽयमात्मा मिन्नरसाः कषायास्तैः सह यदेकत्वविकल्पकरणं तदज्ञानादित्येवं नानात्वेन परात्मानौ जानाति; ततोऽकृतकमेकं ज्ञानमेवाहं, न पुनः कृतकोऽनेकः क्रोधादिरपीति क्रोधोऽहमित्यादि विकल्पमात्मनो मनागपि न करोति; ततः समस्तमपि कर्तृत्वमपास्यति; ततो नित्यमेवोदासीनावस्थी जानन् एवास्ते; ततो निर्विकल्पोऽकृतक एको विज्ञानघनो भूतोऽत्यन्तमकर्ता प्रतिभाति।
इसलिये मैं क्रोध हूँ' इत्यादि आत्मविकल्प करता है; इसलिये निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन ( स्वभाव) से भ्रष्ट होता हुआ बारम्बार अनेक विकल्परूप परिणमित होता हुआ कर्ता प्रतिभासित होता है।
और जब आत्मा ज्ञानी होता है तब, ज्ञानके कारण ज्ञानके प्रारम्भसे लेकर पृथक् पृथक् स्वादका अनुभव न होनेसे (पुद्गलकर्मका और अपने स्वादका-एकरूप नहीं किन्तु भिन्न-भिन्नरूप अनुभव होने से), जिसकी भेदसंवेदनशक्ति प्रगट हो गई है ऐसा होता है; इसलिये वह जानता है कि “अनादिनिधन, निरंतर स्वादमें आनेवाला, समस्त अन्य रसोंसे विलक्षण ( भिन्न), अत्यंत मधुर चैतन्यरस ही एक जिसका रस है ऐसा आत्मा है और कषायें उससे भिन्न रसवाली हैं; उनके साथ जो एकत्व का विकल्प करना है वह अज्ञानसे है"; इसप्रकार परको और अपनेको भिन्नरूप जानता है ; इसलिये ‘अकृत्रिम (नित्य), एक ज्ञान ही मैं हूँ किन्तु कृत्रिम ( अनित्य), अनेक जो क्रोधादिक हैं वह मैं नहीं हूँ'
ऐसा जानता हुआ — मैं क्रोध हूँ' इत्यादि आत्मविकल्प किंचित्मात्र भी नहीं करता; इसलिये समस्त कर्तृत्वको छोड़ देता है; अतः सदा ही उदासीन अवस्थावाला होता हुआ मात्र जानता ही रहता है; और इसलिये निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन होता हुआ अत्यंत अकर्ता प्रतिभासित होता है।
भावार्थ:-जो परद्रव्यके और परद्रव्यके भावोंके कर्तृत्वको अज्ञान जानता है वह स्वयं कर्ता क्यों बनेगा ? यदि अज्ञानी बना रहना हो तो परद्रव्यका कर्ता बनेगा! इसलिये ज्ञान होने के बाद परद्रव्यका कर्तृत्व नहीं रहता।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
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समयसार
१७४
( वसंततिलका) अज्ञानतस्तु सतृणाभ्यवहारकारी ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः। पीत्वा दधोक्षुमधुराम्लरसातिगृद्ध्या गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालम्।। ५७ ।।
(शार्दूलविक्रीडित) अज्ञानान्मृगतृष्णिकां जलधिया धावन्ति पातुं मृगा अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः। अज्ञानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरङ्गाब्धिवत् शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कीभवन्त्याकुलाः।। ५८ ।।
श्लोकार्थ:- [ किल ] निश्चयसे [ स्वयं ज्ञानं भवन् अपि ] स्वयं ज्ञानस्वरूप होने पर भी [ अज्ञानतः तु] अज्ञानके कारण [ यः ] जो जीव, [ सतृणाभ्यवहारकारी] घास के साथ एकमेक हुए सुंदर भोजनको खानेवाले हाथी आदि पशुओंकी भाँति, [ रज्यते] राग करता है (रागका और अपना मिश्र स्वाद लेता है) [असौ] वह, [ दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्ध्या] श्रीखंडके खाट्टे-मीठे स्वाद की अति लोलुपतासे [ रसालम् पीत्वा ] श्रीखंडको पीता हुआ [ गां दुग्धम् दोग्धि इव नूनम् ] स्वयं गायका दूध पी रहा है ऐसा माननेवाले पुरुषके समान है।
भावार्थ:-जैसे हाथीको घाससे और सुंदर आहारके भिन्न स्वादका भान नहीं होता उसीप्रकार अज्ञानीको पुद्गलकर्मका और अपने भिन्न स्वादका भान नहीं होता; इसलिये वह एकाकाररूपसे रागादिमें प्रवृत्त होता है। जैसे श्रीखंडका स्वाद लोलुप पुरुष, श्रीखंडके स्वादभेदको न जानकर, श्रीखंडके स्वादको मात्र दूधका स्वाद जानता है उसीप्रकार अज्ञानी जीव स्व-परके मिश्र स्वादको अपना स्वाद समझता है। । ५७।
अज्ञानसे ही जीव कर्ता होता है इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अज्ञानात् ] अज्ञानके कारण [ मृगतृष्णिकां जलधिया ] मृगमरीचिका में जलकी बुद्धि होनेसे [ मृगाः पातुं धावन्ति] हिरण उसे पीनेको दौड़ते हैं; [ अज्ञानात् ] अज्ञानके कारण ही [ तमसि रज्जौ भुजगाध्यासेन] अंधकारमें पड़ी हुई रस्सी में सर्पका अध्यास होनेसे [ जनाः द्रवन्ति ] लोग (भयसे) भागते हैं; [च ] और (इसीप्रकार) [अज्ञानात् ] अज्ञानके कारण [अमी] ये जीव, [ वातोत्तरङ्गाब्धिवत् ] पवनसे तरंगित समुद्रकी भाँति [विकल्पचक्रकरणात् ] विकल्पोंके समूहको करनेसे[शुद्धज्ञानमयाः अपि] यद्यपि ये स्वयं शुद्धज्ञानमय हैं तथापि- [आकुलाः ] आकुलता होते हुए [ स्वयम् ] अपने आप ही [ कीभवन्ति ] कर्ता होते हैं।
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( वसन्ततिलका) ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यो जानाति हंस इव वाःपयसोर्धिशेषम्। चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो जानीत एव हि करोति न किञ्चनापि ।। ५९ ।।
१७५
भावार्थ:-अज्ञानसे क्या-क्या नहीं होता ? हिरण बालू की चमकको जल समझकर पीने दौड़ते हैं और इसीप्रकार वे खेदखिन्न होते हैं। अंधेरे में पड़ी हुई रस्सीको सर्प मानकर लोग उससे डरकर भागते हैं । इसीप्रकार यह आत्मा, पवनसे क्षुब्ध हुये तरंगित समुद्रकी भाँति, अज्ञानके कारण अनेक विकल्प करता हुआ क्षुब्ध होता है और इसप्रकार - यद्यपि परमार्थ से वह शुद्धज्ञानघन है तथापि-अज्ञानसे कर्ता होता है। । ५८।
अब यह कहते हैं कि ज्ञानसे आत्मा कर्ता नहीं होता:
श्लोकार्थ :- [ हंसः वाः पयसोः इव ] जैसे हंस दूध और पानीके विशेष (अंतर) को जानता है उसीप्रकार [ यः ] जो जीव [ ज्ञानात् ] ज्ञानके कारण [विवेचकतया ] विवेकवाला (भेदज्ञानवाला) होनेसे [ परात्मनो: तु] परके और अपने [विशेषम् ] विशेषको [ जानाति ] जानता है [ सः ] वह ( जैसे हंस मिश्रित हुवे दूध और पानी अलग करके दूधको ग्रहण करता है उसीप्रकार ) [ अचलं चैतन्यधातुम् ] अचल चैतन्यधातुमें [ सदा ] सदा [ अधिरूढ: ] आरूढ़ होता हुआ (उसका आश्रय लेता हुआ) [ जानीत एव हि ] मात्र जानता ही है, [ किञ्चन अपि न करोति ] किंचित् मात्र भी कर्ता नहीं होता ( अर्थात् ज्ञाता ही रहता है, कर्ता नहीं होता ) ।
भावार्थ:-जो स्व-परके भेद को जानता है वह ज्ञाता ही है, कर्ता नहीं । ५९ । अब, यह कहते हैं कि जो कुछ ज्ञाता होता है वह ज्ञान से ही होता है:
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समयसार
१७६
(मन्दाक्रान्ता) ज्ञानादेव ज्वलनपयसोरोष्ण्यशैत्यव्यवस्था ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः। ज्ञानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातो: क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिन्दती कर्तृभावम्।। ६० ।।
(अनुष्टुभ् ) अज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमञ्जसा। स्यात्कर्तात्मात्मभावस्य परभावस्य न कचित्।। ६१ ।।
( अनुष्टुभ् ) आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम्। परभावस्य कत्मिा मोहोऽयं व्यवहारिणाम्।। ६२ ।।
श्लोकार्थ:- [ज्वलन-पयसोः औष्णय-शैत्य-व्यवस्था] (गर्म पानीमें ) अग्निकी उष्णताका और पानीकी शीतलताका भेद, [ज्ञानात् एव ] ज्ञानसे ही प्रगट होता है। [ लवणस्वादभेदव्युदासः ज्ञानात् एव उल्लसति] नमकके स्वादभेदका निरसन (-निराकरण, अस्वीकार, उपेक्षा) ज्ञानसे ही होता है ( अर्थात् ज्ञानसे ही व्यंजनगत नमकका सामान्य स्वाद उभर आता है और उसका स्वादविशेष निरस्त होता है)। [ स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः च क्रोधादे: भिदा] निज रससे विकसित होती हुई नित्य चैतन्यधातुका और क्रोधादि भावका भेद , [ कर्तृ भावम् भिन्दती] कर्तृत्वको (कर्तापनके भावको) भेदता हुआ, [ज्ञानात् एव प्रभवति ] ज्ञानसे ही प्रगट होता है। ६०।
___ अब, अज्ञानी भी अपने ही भावको करता है किन्तु पुद्गलके भावको कभी नहीं करता-इस अर्थका , आगेकी गाथाका सूचक श्लोक कहते है:
श्लोकार्थ:- [ एवं ] इसप्रकार [अञ्जसा] वास्तव में [आत्मानम् ] अपनेको [अज्ञानं ज्ञानम् अपि] अज्ञानरूप या ज्ञानरूप [ कुर्वत् ] करता हुआ [आत्मा आत्मभावस्य कर्ता स्यात् ] आत्मा अपने ही भावका कर्ता है, [ परभावस्य ] परभावका (पुद्गलके भावोंका) कर्ता तो [ क्वचित् न ] कदापि नहीं है। ६१।
इसी बात को दृढ़ करते हुये कहते हैं कि:
श्लोकार्थ:- [आत्मा ज्ञानं ] आत्मा ज्ञानस्वरूप है, [ स्वयं ज्ञानं ] स्वयं ज्ञान ही है; [ ज्ञानात् अन्यत् किम् करोति ] वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य क्या करे ? [ आत्मा परभावस्य कर्ता] आत्मा परभावका कर्ता है [अयं ] ऐसा मानना ( तथा कहना) सो [ व्यवहारिणाम् मोहः ] व्यवहारी जीवोंका मोह ( अज्ञान) है। ६२।
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कर्ता-कर्म अधिकार
१७७
तथापिववहारेण दु आदा करेदि घडपडरधाणि दव्वाणि। करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि।।९८ ।।
व्यवहारेण त्वात्मा करोति घटपटरथान् द्रव्याणि।
करणानि च कर्माणि च नोकर्माणीह विविधानि।।९८ ।। व्यवहारिणां हि यतो यथायमात्मात्मविकल्पव्यापाराभ्यां घटादिपरद्रव्यात्मकं बहिःकर्म कुर्वन् प्रतिभाति ततस्तथा क्रोधादिपरद्रव्यात्मकं च समस्तमन्तःकर्मापि करोत्यविशेषादित्यस्ति व्यामोहः।
स न सन्
अब कहते हैं कि व्यवहारी जन ऐसा कहते हैं:
घट-पट-रथादिक वस्तुएं, कर्मादि अरु सब इन्द्रियें । नोकर्म विधविध जगतमें, आत्मा करे व्यवहारसे ।। ९८ ।।
गाथार्थ:- [ व्यवहारेण तु] व्यवहारसे अर्थात् व्यवहारी जन मानते हैं कि [ इह ] जगतमें [ आत्मा ] आत्मा [ घटपटरथान् द्रव्याणि ] घट, पट, रथ इत्यादि वस्तुओंको, [च] और [करणानि] इंद्रियोंको, [ विविधानि] अनेक प्रकारके [ कर्माणि] क्रोधादि द्रव्यकर्मोंको [च नोकर्माणि ] और शरीरादिक नोकर्मीको [ करोति ] करता है।
टीका:-जिससे अपने (इच्छारूप) विकल्प और (हस्तादिकी क्रियारूप) व्यापारके द्वारा यह आत्मा घट आदि परद्रव्यस्वरूप बाह्यकर्मको करता हुआ ( व्यवहारीजनोंको) प्रतिभासित होता है इसलिये उसीप्रकार (आत्मा) क्रोधादि परद्रव्यस्वरूप समस्त अंतरंग कर्मको भी-(उपतोक्त) दोनों कर्म परद्रव्यस्वरूप हैं इसलिये उनमें अंतर न होनेसे-करता है, ऐसा व्यवहारी जनोंका व्यामोह (भ्रांति, अज्ञान) है।
भावार्थ:-घट-पट, कर्म-नोकर्म इत्यादि परद्रव्योंको आत्मा करता है ऐसा मानना सो व्यवहारी जनोंका व्यवहार या अज्ञान है।
अब कहते हैं कि व्यवहारी जनोंकी यह मान्यता यथार्थ नहीं है:
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समयसार
१७८
जदि सो परदव्वाणि य करेज्ज णियमेण तम्मओ होज्ज। जम्हा ण तम्मओ तेण सो ण तेसिं हवदि कत्ता।। ९९ ।। यदि स परद्रव्याणि च कुर्यान्नियमेन तन्मयो भवेत्।
यस्मान्न तन्मयस्तेन स न तेषां भवति कर्ता।। ९९ ।।
यदि खल्वयमात्मा परद्रव्यात्मकं कर्म कुर्यात् तदा परिणामपरिणामिभावान्यथा नुपपत्तेर्नियमेन तन्मयः स्यात; न च द्रव्यान्तरमयत्वे द्रव्योच्छेदापत्तेस्तन्मयोऽस्ति। ततो व्याप्यव्यापकभावेन न तस्य कर्तास्ति।
निमित्तनैमित्तिकभावेनापि न कर्तास्ति
परद्रव्यको जीव जो करे, तो जरूर वो तन्मय बने ।
पर वो नहीं तन्मय हुआ, इससे न कर्ता जीव है ।। ९९।।
गाथार्थ:- [ यदि च ] यदि [ सः ] आत्मा [ परद्रव्याणि ] परद्रव्योंको [ कुर्यात् ] करे तो वह [ नियमेन ] नियमसे [ तन्मयः ] तन्मय अर्थात् परद्रव्यमय [ भवेत् ] हो जाये; [ यस्मात् न तन्मयः ] किन्तु तन्मय नहीं है [ तेन] इसलिये [ सः ] वह [ तेषां] उनका [ कर्ता ] कर्ता [ न भवति ] नहीं है।
टीका:-यदि निश्चयसे यह आत्मा परद्रव्यस्वरूप कर्मको करे तो, अन्य किसी प्रकार से परिणाम-परिणामीभाव न बन सकनेसे, वह (आत्मा) नियमसे तन्मय (परद्रव्यमय) हो जाये; परंतु वह तन्मय नहीं है, क्योंकि कोई द्रव्य अन्यद्रव्यमय हो जाये, तो उस द्रव्यके नाश की आपत्ति ( दोष) आ जायेगा। इसलिये आत्मा व्याप्यव्यापकभावसे परद्रव्यस्वरूप कर्मका कर्ता नहीं है।
भावार्थ:- यदि एक द्रव्यका कर्ता अन्य द्रव्य हो तो दोनों द्रव्य एक हो जायें, क्योंकि कर्ताकर्मभाव अथवा परिणाम-परिणामीभाव एक द्रव्यमें ही हो सकता है। इसी प्रकार यदि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप हो जाये, तो उस द्रव्यका ही नाश हो जाये वह बड़ा दोष आ जायेगा। इसलिये एक द्रव्यको दूसरे द्रव्यका कर्ता कहना उचित नहीं
अब कहते हैं कि आत्मा (व्याप्यव्यापकभावसे ही नहीं किन्तु) निमित्तनैमित्तिकभावसे भी कर्ता नहीं है:
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जीवो ण करेदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दव्वे । जोगवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता ।। १०० ।। जीवो न करोति घटं नैव पटं नैव शेषकानि द्रव्याणि । योगोपयोगावुत्पादकौ च तयोर्भवति कर्ता ।। १०० ।।
यत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कर्म तदयमात्मा तन्मयत्वानुषङ्गात् व्याप्यव्यापकभावेन तावन्न करोति, नित्यकर्तृत्वानुषङ्गान्निमित्तनैमित्तिकभावेनापि न तत्कुर्यात्। अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ । योगोपयोगयोस्त्वा त्मविकल्पव्यापारयोः कदाचिदज्ञानेन करणादात्मापि कर्ताऽस्तु तथापि न परद्रव्यात्मककर्मकर्ता स्यात् ।
जीव नहिं करे घट पट नहीं, नहिं शेष द्रव्यों जीव करे । उपयोगयोग निमित्तकर्त्ता, जीव तत्कर्ता बने ।। १०० ।।
१७९
गाथार्थ:- [ जीवः] जीव [ घटं ] घटको [ न करोति ] नहीं करता, [ पटं न एव ] पटको नहीं करता, [ शेषकानि ] शेष कोई [ द्रव्याणि ] द्रव्योंको [ वस्तुओने ] [ न एव ] नहीं करता; [च] परंतु [ योगोपयोगौ ] जीवके योग और उपयोग [उत्पादकौ ] घटादिको उत्पन्न करनेवाले निमित्त हैं [ तयोः ] उनका [ कर्ता ] कर्ता [ भवति ] जीव होता है ।
टीका:- वास्तवमें जो घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्यस्वरूप कर्म हैं उन्हें आत्मा व्याप्यव्यापकभावसे नहीं करता क्योंकि यदि ऐसा करे तो तन्मयताका प्रसंग आ जाये; तथा वह निमित्तनैमित्तिकभावसे भी ( उनको ) नहीं करता क्योंकि यदि ऐसा करे तो नित्यकर्तृत्वका (सर्व अवस्थाओंमें कर्तृत्व होनेका) प्रसंग आ जायेगा। अनित्य (जो सर्व अवस्थाओमें व्यापत नहीं होते ऐसे ) योग और उपयोग ही निमित्तरूपसे उसके (−परद्रव्यस्वरूप कर्मके) कर्ता हैं। ( रागादिविकारयुक्त चैतन्यपरिणामरूप) अपने विकल्पको और (आत्मप्रदेशोंके चलनरूप ) अपने व्यापारको कदाचित् अज्ञानसे करने के कारण योग और उपयोगका तो आत्मा भी कर्ता ( कदाचित् ) भले हो तथापि परद्रव्यस्वरूप कर्मका कर्ता तो ( निमित्तरूपसे भी कदापि ) नहीं है।
भावार्थ:-योग अर्थात् आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्दन ( चलन) और उपयोग अर्थात् ज्ञानका कषायोंके साथ उपयुक्त होना - जुड़ना। यह योग और उपयोग घटादिक और क्रोधादिकके निमित्त हैं इसलिये उन्हें घटादिक तथा क्रोधादिकका निमित्तकर्ता कहा जावे परंतु आत्माको तो उनका कर्ता नहीं कहा जा सकता। आत्माको संसार - अवस्थामें अज्ञानसे मात्र योग-उपयोगका कर्ता कहा जा सकता है।
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समयसार
१८०
ज्ञानी ज्ञानस्यैव कर्ता स्यात्जे पोग्गलदव्वाणं परिणामा होंति णाण आवरणा। ण करेदि ताणि आदा जो जाणदि सो हवदि णाणी।।१०१ ।।
ये पुद्गलद्रव्याणां परिणामा भवन्ति ज्ञानावरणानि। न करोति तान्यात्मा यो जानाति स भवति ज्ञानी।। १०१ ।।
ये खलु पुद्गलद्रव्याणां परिणामा गोरसव्याप्तदधिदुग्धमधुराम्लपरिणामवत्पुद्गलद्रव्यव्याप्तत्वेन भवन्तो ज्ञानावरणानि भवन्ति तानि तटस्थगोरसाध्यक्ष इव न नाम करोति ज्ञानी, किन्तु यथा स गोरसाध्यक्षस्तदर्शनमात्मव्याप्तत्वेन प्रभवव्याप्य पश्यत्येव तथा पुद्गलद्रव्यपरिणाम निमित्तं ज्ञानमात्मव्याप्यत्वेन प्रभवव्याप्य जानात्येव। एवं ज्ञानी ज्ञानस्यैव कर्ता स्यात्।
तात्पर्य यह है कि:-द्रव्यदृष्टिसे कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्यका कर्ता नहीं; परंतु पर्यायदृष्टिसे किसी द्रव्यकी पर्याय किसी समय किसी अन्य द्रव्यकी पर्यायकी निमित्त होती है इसलिये अपेक्षासे एक द्रव्यके परिणाम अन्य द्रव्यके परिणामों के निमित्तकर्ता कहलाते है। परमार्थसे द्रव्य अपने ही परिणामोंका कर्ता है, अन्यके परिणामका अन्यद्रव्य कर्ता नहीं होता।
अब यह कहते हैं कि ज्ञानी ज्ञानका ही कर्ता है:
ज्ञानावरणआदिक सभी, पुद्गल दरव परिणाम है ।
करता नहीं आत्मा उन्हें , जो जानता वो ज्ञानी है ।। १०१।।
गाथार्थ:- [ये ] जो [ज्ञानावरणानि] ज्ञानावरणादिक [ पुद्गलद्रव्याणां] पुद्गलद्रव्योंके [ परिणामाः ] परिणाम [ भवन्ति ] हैं [ तानि] उन्हें [ यः आत्मा] जो आत्मा [ न करोति] नहीं करता परंतु [जानाति] जानता है [ सः] वह [ज्ञानी] ज्ञानी [ भवति ] है।
टीका:-जैसे दूध-दही जो कि गोरसके द्वारा व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले गोरसके मीठे-खट्टे परिणाम है, उन्हें गोरसका तटस्थ दृष्टा पुरुष करता नहीं है, इसीप्रकार ज्ञानावरणादिक जो कि वास्तव में पुद्गलद्रव्यके द्वारा व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं, उन्हें ज्ञानी करता नहीं है; किन्तु जैसे वह गोरस का दृष्टा, स्वतः (देखनेवालेसे) व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले गोरस-परिणामके दर्शन में व्याप्त होकर मात्र देखता ही है, इसीप्रकार ज्ञानी, स्वतः (जाननेवालेसे) व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाला , पुद्गलद्रव्य-परिणाम जिसका निमित्त है ऐसे ज्ञानमें व्याप्त होकर, मात्र जानता ही है। इसप्रकार ज्ञानी ज्ञानका ही कर्ता है।
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ज्ञानावरणपदपरिवर्तनेन
एवमेव च द्दर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायसूत्रैः
कर्मसूत्रस्य
सप्तभि:
मोहरागद्वेषक्रोधमानमायालोभ नोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्श-नसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि। अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ।
अज्ञानी चापि परभावस्य न कर्ता स्यात्
जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता। तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा ।। १०२ ।। यं भावं शुभमशुभं करोत्यात्मा स तस्य खलु कर्ता । तत्तस्य भवति कर्म स तस्य तु वेदक आत्मा ।। १०२ ।।
खल्वनादेरज्ञानात्परात्मनोरेकत्वाध्यासेन
इंह
९८१
विभागेनोपन्यासा
सह
पुद्गलकर्मविपाकदशाभ्यां मन्दतीव्रस्वादाभ्यामचलितविज्ञानघनैकस्वादस्याप्यात्मनः स्वादं भिन्दानः शुभमशुभं वा यो यं भावमज्ञानरूपमात्मा करोति
और इसीप्रकार ‘ज्ञानावरण' पद पलट कर कर्म - सूत्रका ( कर्मकी गाथाका ) विभाग करके कथन करनेसे दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतरायके सात सूत्र तथा उनके साथ मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, ध्राण, रसन और स्पर्शनके सोलह सूत्र व्याख्यानरूप करना; और इसप्रकार इस उपदेशसे अन्य भी विचार लेना ।
अब यह कहते हैं कि अज्ञानी भी परद्रव्यके भावका कर्ता नहीं है:
जो भाव जीव करे शुभाशुभ उसहि का कर्ता बने । उसका बने वो कर्म, आत्मा उस हि का वेदक बने ।। १०२ ।।
गाथार्थ:- [ आत्मा ] आत्मा [ यं ] जिस [ शुभम् अशुभम् ] शुभ या अशुभ
[ भावं ] ( अपने) भावको [ करोति ] करता है [ तस्य ] उस भावका [सः ] वह [ खलु ] वास्तवमें [ कर्ता ] कर्ता होता है, [ तत् ] वह (भाव) [ तस्य ] उसका [ कर्म ] कर्म [भवति ] होता है [ सः आत्मा तु ] और वह आत्मा [ तस्य ] उसका ( उस भावरूप कर्मका ] [ वेदक: ] भोक्ता होता है।
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टीका:-अपना अचलित विज्ञानघनरूप एक स्वाद होनेपर भी इस लोकमें जो यह आत्मा अनादिकालीन अज्ञानके कारण परके और अपने एकत्वके अध्याससे मंद और तीव्र स्वादयुक्त पुद्गलकर्मके विपाककी दो दशाओंके द्वारा अपने (विज्ञानघनरूप ) स्वादको भेदता हुआ अज्ञानरूप शुभ या अशुभ भावको करता है,
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समयसार
१८२
स आत्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य व्यापकत्वाद्भवति कर्ता, स भावोऽपि च तदा तन्मयत्वेन तस्यात्मनो व्याप्यत्वाद्भवति कर्म; स एव चात्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य भावकत्वाद्भवत्यनुभविता, स भावोऽपि च तदा तन्मयत्वेन तस्यात्मनो भाव्यत्वाद्भवत्यनुभाव्यः। एवमज्ञानी चापि परभावस्य न कर्ता स्यात्।
न च परभावः केनापि कर्तुं पार्येतजो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दव्वे। सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं ।। १०३ ।।
यो यस्मिन् गुणे द्रव्ये सोऽन्यस्मिस्तु न संक्रामति द्रव्ये। सोऽन्यदसंक्रान्तः कथं तत्परिणामयति द्रव्यम्।। १०३ ।।
वह आत्मा उस समय तन्मयता से उस भावका व्यापक होनेसे उसका कर्ता होता है और वह भाव भी उस समय तन्मयतासे उस आत्माका व्याप्य होनेसे उसका कर्म होता है; और वही आत्मा उस समय तन्मयता से उस भावका भावक होने से उसका अनुभव करनेवाला (भोक्ता) होता है और वह भाव भी उस समय तन्मयता से उस आत्माका भाव्य होनेसे अनुभाव्य (भोग्य ) होता है। इसप्रकार अज्ञानी भी परभावका कर्ता नहीं है।
भावार्थ:-पुद्गलकर्मका उदय होनेपर, ज्ञानी ज्ञानी उसे जानता ही है अर्थात् वह ज्ञानका ही कर्ता होता है और अज्ञानी अज्ञानके कारण कर्मोदयके निमित्त से होनेवाले अपने अज्ञानरूप शुभाशुभ भावोंका कर्ता होता है। इसप्रकार ज्ञानी अपने ज्ञानरूप भावका कर्ता है और अज्ञानी अपने अज्ञानरूप भावका कर्ता है; परभावका कर्ता तो ज्ञानी अथवा अज्ञानी कोई नहीं है।
अब यह कहते हैं कि परभावको कोई (द्रव्य ) नहीं कर सकता :
जो द्रव्य जो गुण-द्रव्यमें, परद्रव्य रूप न संक्रमे । अनसंक्रमा किस भाँति वह परद्रव्य प्रमाणे परिणमे ।। १०३।।
गाथार्थ:- [ यः] जो वस्तु ( अर्थात् द्रव्य) [ यस्मिन् द्रव्ये ] जिसे द्रव्यमें और [गुणे ] गुणमें वर्तती है [ सः] वह [अन्यस्मिन् तु] अन्य [ द्रव्ये ] द्रव्यमें तथा गुणमें [न सक्रामति ] संक्रमणको प्राप्त नहीं होता (बदलकर अन्यमें नहीं मिल जाती); [अन्यत् असंक्रान्तः ] अन्यरूपसे संक्रमणको प्राप्त न होती हुई [ सः ] वह ( वस्तु), [ तत् द्रव्यम् ] अन्य वस्तुको [ कथं] कैसे [ परिणामयति ] परिणमन करा सकती है।
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कर्ता-कर्म अधिकार
१८३
इह किल यो यावान् कश्चिद्वस्तुविशेषो यस्मिन् यावति कस्मिश्चिच्चिदात्मन्यचिदात्मनि वा द्रव्ये गुणे च स्वरसत एवानादित एव वृत्तः, स खल्वचलितस्य वस्तुस्थितिसीम्नो भेत्तुमशक्यत्वात्तस्मिन्नेव वर्तेत, न पुन: द्रव्यान्तरं गुणान्तरं वा संक्रामेत। द्रव्यान्तरं गुणान्तरं बाऽसंक्रामंश्च कथं त्वन्यं वस्तुविशेष परिणामयेत् ? अतः परभावः केनापि न कर्तुं पार्येत।
अतः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्तादव्वगुणस्स य आदा ण कुणदि पोग्गलमयम्हि कम्मम्हि। तं उभयमकुव्वंतो तम्हि कहं तस्स सो कत्ता।। १०४ ।।
द्रव्यगुणस्य चात्मा न करोति पुद्गलमये कर्मणि। तदुभयमकुर्वस्तस्मिन्कथं तस्य स कर्ता।। १०४ ।।
टीका:-जगत्में जो कोई जितनी वस्तु जिस किसी जितने चैतन्यस्वरूप या अचैतन्यस्वरूप द्रव्यमें और गुणमें निज रससे ही अनादिसे ही वर्तती है वह, वास्तवमें अचलित वस्तुस्थितिकी मर्यादाको तोड़ना अशक्य होनेसे, उसीमें (अपने उतने द्रव्यगुणमें ही) वर्तती है परंतु द्रव्यांतर या गुणांतररूप संक्रमण को प्राप्त नहीं होती; और द्रव्यांतर या गुणांतररूपसे संक्रमणको प्राप्त न होती हुई , अन्य वस्तुको कैसे परिणमित करा सकती है ? ( कभी नहीं करा सकती।) इसलिये परभाव किसीके द्वारा नहीं किया जा सकता।
भावार्थ:-जो द्रव्यस्वभाव है उसे कोई भी नहीं बदल सकता, यह वस्तुकी मर्यादा है।
उपरोक्त कारणसे आत्मा वास्तवमें पुद्गलकर्मका अकर्ता सिद्ध हुआ, यह कहते
आत्मा करे नहिं द्रव्य-गुण पुद्गलमयी कर्मों विषै । इन उभयको उसमें न करता, क्यों हि तत्कर्ता बने ।। १०४।।
गाथार्थ:- [आत्मा] आत्मा [पुद्गलमये कर्मणि] पुद्गलमय कर्ममें [ द्रव्यगुणस्य च ] द्रव्यको तथा गुणको [ न करोति] नहीं करता; [ तस्मिन् ] उसमें [ तद् उभयम् ] उन दोनोंको [ अकुर्वन् ] न करता हुआ [ सः ] वह [ तस्य कर्ता | उसका कर्ता [ कथं ] कैसे हो सकता है ?
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१८४
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समयसार
यथा खलु मृण्मये कलशे कर्मणि मृद्द्रव्यमृद्गुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणान्तरसंक्रमस्य वस्तुस्थित्यैव निषिद्धत्वादात्मानमात्मगुणं वा नाधत्ते स कलशकारः; द्रव्यान्तरसंक्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुनः परिणमयितुमशक्यत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो न तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभाति । तथा पुद्गलमये ज्ञानावरणादौ कर्मणि पुद्गलद्रव्यपुद्गलगुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणान्तरसंक्रमस्य विधातुमशक्यत्वा दात्मद्रव्यमात्मगुणं वात्मा न खल्वाधत्ते; द्रव्यान्तरसंक्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुन: परिणमयितुमशक्यत्वात्तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानः कथं नु तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभायात् ? ततः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता।
टीका:-जैसे – मिट्टीमय घटरूपी कर्म जो मिट्टीरूपी द्रव्यमें और मिट्टीके गुणमें निजरससे ही वर्तता है उसमें कुम्हार अपनेको या अपने गुणको डालता या मिलाता नहीं है क्योंकि ( किसी वस्तुका ) द्रव्यांतर या गुणांतररूमें संक्रमण होनेका वस्तुस्थितिसे ही निषेध है; द्रव्यांतररूपमें ( अन्यद्रव्यरूमें) संक्रमण प्राप्त किये बिना अन्य वस्तुको परिणमित करना अशक्य होनेसे, अपने द्रव्य और गुण दोनोंको उस घटरूपी कर्ममें न डालता हुआ वह कुम्हार परमार्थसे उसका कर्ता प्रतिभासित नहीं होता; इसीप्रकार–पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्म जो कि पुद्गलद्रव्यमें और पुद्गल के गुणोंमें निज रससे ही वर्तता है उसमें आत्मा अपने द्रव्यको या अपने गुणको वास्तवमें डालता या मिलाता नहीं है क्योंकि ( किसी वस्तुका ) द्रव्यांतर या गुणांतररूप में संक्रमण होना अशक्य है; द्रव्यांतररूमें संक्रमण प्राप्त किये बिना अन्य वस्तुको परिणमित करना अशक्य होनेसे, अपने द्रव्य और गुण-दोनोंको ज्ञानावरणादि कर्ममें न डालता हुआ वह आत्मा परमार्थसे उसका कर्ता कैसे हो सकता है ? ( कभी नहीं हो सकता ।) इसलिये वास्तवमें आत्मा पुद्गलकर्मोंका अकर्ता सिद्ध हुआ ।
इसलिये इसके अतिरिक्त अन्य- अर्थात् आत्माको पुद्गलकर्मोंका कर्ता कहना सो - उपचार है, अब यह कहते हैं:
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कर्ता-कर्म अधिकार
१८५
अतोऽन्यस्तूपचार:
जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणाम। जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमेत्तेण।। १०५ ।।
जीवे हेतुभूते बन्धस्य तु दृष्ट्वा परिणामम्। जीवेन कृतं कर्म भण्यते उपचारमात्रेण ।। १०५ ।।
इह खलु पौद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यात्मन्यनादेरज्ञानात्तन्निमित्तभूतेनाज्ञानभावेन परिणमनानिमित्तीभूते सति सम्पद्यमानत्वात् पौद्गलिक कर्मात्मना कृतमिति निर्विकल्पविज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्पः। स तूपचार एव, न तु परमार्थः।
जीव हेतुभूत हुआ अरे! परिणाम देख जु बंधका । उपचारमात्र कहाय यों यह कर्म आत्माने किया ।। १०५ ।।
गाथार्थ:- [जीवे ] जीव [ हेतुभूते ] निमित्तभूत्त होनेपर [ बन्धस्य तु] कर्म बंधका [परिणामम् ] परिणाम होता हुआ [दृष्ट्वा ] देखकर, [ जीवेन] जीवने [ कर्म कृतं ] कर्म किया' इसप्रकार [ उपचारमात्रेण ] उपचारमात्रसे [ भण्यते ] कहा जाता है।
___टीका:-इस लोकमें वास्तवमें आत्मा स्वभावसे पौद्गलिक कर्मका निमित्तभूत न होनेपर भी, अनादि अज्ञानके कारण पौद्गलिक कर्मको निमित्तरूप होते हुवे अज्ञानभावमें परिणमता होनेसे निमित्तभूत होनेपर, पौद्गलिक कर्म उत्पन्न होता है, इसलिये ‘पौद्गलिक कर्म आत्माने किया' ऐसा निर्विकल्प विज्ञानघनस्वभावसे, भ्रष्ट , विकल्पपरायण अज्ञानियोंका विकल्प है; वह विकल्प उपचार ही है, परमार्थ नहीं।
भावार्थ:-कदाचित् होनेवाले निमित्तनैमित्तिकभावमें कर्ताकर्मभाव कहना सो उपचार है।
अब, यह उपचार कैसे है सो दृष्टांतसे कहते हैं:
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समयसार
१८६
कथमिति चेत्जोधेहिं कदे जुद्धे राएण कदं ति जंपदे लोगो। ववहारेण तह कदं णाणावरणादि जीवेण।।१०६ ।।
योधैः कृते युद्धे राज्ञा कृतमिति जल्पते लोकः। व्यवहारेण तथा कृतं ज्ञानावरणादि जीवेन।। १०६ ।।
यथा युद्धपरिणामेन स्वयं परिणममानैः योधैः कृते युद्धे युद्धपरिणामेन स्वयमपरिणममानस्य राज्ञो राज्ञा किल कृतं युद्धमित्युपचारो, न परमार्थः। तथा ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामेन स्वयं परिणममानेन पुद्गल-द्रव्येण कृते ज्ञानावरणादिकर्मणि ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामेन स्वयमपरिणम-मानस्यात्मन: किलात्मना कृतं ज्ञानावरणादिकर्मेत्युपचारो, न परमार्थः।
योद्धा करें जहँ युद्ध , वहाँ वह भूपकृत जनगण कहें ।
त्यों जीव ने ज्ञानावरण आदिक किये व्यवहार से ।। १०६ ।।
गाथार्थ:- [ योधः ] योद्धाओंके द्वारा [ युद्ध कृते ] युद्ध किये जानेपर, [ राज्ञा कृतम् ] राजाने युद्ध किया' [इति ] इसप्रकार [ लोकः ] लोक [ जल्पते ] ( व्यवहारसे) कहते हैं [ तथा ] उसीप्रकार [ ज्ञानावरणादि] ज्ञानावरणादि कर्म [ जीवेन कृतं] जीवने किया' [ व्यवहारेण ] ऐसे व्यवहारसे कहा जाता है।
टीका:-जैसे युद्धपरिणाममें स्वयं परिणमते हुवे योद्धाओं के द्वारा युद्ध किये जानेपर, युद्धपरिणाममें स्वयं परिणमित नहीं होने वाले राजा में 'राजाने युद्ध किया' ऐसा उपचार है, परमार्थ नहीं है; इसीप्रकार ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामरूप स्वयं परिणमते हुवे पुद्गलद्रव्यके द्वारा ज्ञानावरणादि कर्म किये जानेपर, ज्ञानावरणादिकर्मपरिणमनरूप स्वयं परिणमित नहीं होनेवाले आत्मा में 'आत्माने ज्ञानावरणादि कर्म किया' ऐसा उपचार है, परमार्थ नहीं है।
भावार्थ:-योद्धाओंके द्वारा युद्ध किये जानेपर भी उपचार से यह कहा जाता है कि 'राजाने युद्ध किया' इसीप्रकार ज्ञानावरणादि कर्म पुद्गलद्रव्यके द्वारा किये जानेपर भी उपचार से यह कहा जाता है कि 'जीवने कर्म किये'।
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कर्ता-कर्म अधिकार
१८७
अत एतत्स्थितम्उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गिण्हदि य। आदा पोग्गलदव्वं ववहारणयस्स वत्तव्यं ।। १०७ ।।
उत्पादयति करोति च बध्नाति परिणामयति गृह्णाति च।
आत्मा पुद्गलद्रव्यं व्यवहारनयस्य वक्तव्यम्।। १०७ ।।
अयं खल्वात्मा न गृह्णाति, न परिणमयति, नोत्पादयति, न करोति, न बध्नाति, व्याप्यव्यापकभावाभावात्, प्राप्यं विकार्यं निर्वत्वं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म। यत्तु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि प्राप्यं विकार्यं निर्वत्र्यं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म गृह्णाति परिणमयति उत्पादयति करोति बध्नाति चात्मेति विकल्पः स किलोपचारः।
कथमिति चेत्
अब कहते हैं कि उपरोक्त हेतुसे यह सिद्ध हुआ कि:
उपजावता, प्रणमावता, ग्रहता, अवरु बांधे , करे । पुद्गलदरबको आतमा-व्यवहारनयवक्तव्य है ।। १०७।।
गाथार्थ:- [आत्मा ] आत्मा [ पुद्गलद्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्यको [ उत्पादयति] उत्पन्न करता है, [ करोति च] करता है, [ बध्नाति ] बाँधता है, [ परिणामयति] परिणमन कराता है [च ] और [ गृहाति ] ग्रहण करता है-यह [व्यवहारनयस्य ] व्यवहारनयका [ वक्तव्यम् ] कथन हैं।
टीका:-यह आत्मा वास्तवमें, व्याप्यव्यापकभावके अभावके कारण, प्राप्य , विकार्य और निर्वर्त्य-ऐसे पुद्गलद्रव्यात्मक (-पुद्गलद्रव्यस्वरूप) कर्मको ग्रहण नहीं करता, परिणमित नहीं करता, उत्पन्न नहीं करता, और न उसे करता है, न बाँधता है; तथा व्याप्य- व्यापकभावका अभाव होनेपर भी, “प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्यपुद्गलद्रव्यात्मक कर्मको आत्मा ग्रहण करता है, परिणमित करता है, उत्पन्न करता है, करता है और बाँधता है" ऐसा जो विकल्प वास्तवमें उपचार है।
भावार्थ:-व्याप्यव्यापक भावके बिना कर्तृत्वकर्मत्व कहना सो उपचार है; इसलिये आत्मा पुद्गलद्रव्यको ग्रहण करता है, परिणमित करता है, उत्पन्न करता है, इत्यादि कहना सो उपचार है।
__अब यहाँ प्रश्न करता है कि यह उपचार कैसे है ? उसका उत्तर दृष्टांतपूर्वक कहते हैं:
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समयसार
१८८
जह राया ववहारा दोसगुणुप्पादगो त्ति आलविदो। तह जीवो ववहारा दव्वगुणुप्पादगो भणिदो।।१०८ ।।
यथा राजा व्यवहारात् दोषगुणोत्पादक इत्यालपितः। तथा जीवो व्यवहारत् द्रव्यगुणोत्पादको भणितः।। १०८ ।।
यथा लोकस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि तदुत्पादको राजेत्युपचारः, तथा पुद्गलद्रव्यस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि तदुत्पादको जीव इत्युपचारः।
गुणदोषउत्पादक कहा ज्यों भूपको व्यवहारसे ।
त्यों द्रव्यगुणउत्पन्नकर्ता , जीव कहा व्यवहारसे ।। १०८।।
गाथार्थ:- [ यथा] जैसे [ राजा ] राजाको [ दोषगुणोत्पादकः इति ] प्रजाके दोष और गुणोंको उत्पन्न करनेवाला [ व्यवहारात् ] व्यवहारसे [आलपितः] कहा है , [ तथा ] उसीप्रकार [ जीव: ] जीवको [ द्रव्यगुणोत्पादक: ] पुद्गलद्रव्यके द्रव्य-गुणोंको उत्पन्न करनेवाला [ व्यवहारात् ] व्यवहारसे [ भणितः] कहा गया है।
टीका:-जैसे प्रजाके गुणदोषोंको और प्रजामें व्याप्यव्यापकभाव होनेसे स्वभावसे ही (प्रजाके अपने भावसे ही) उन गुणदोषोंकी उत्पत्ति होनेपर भी--यद्यपि उन गुणदोषोंमें और राजामें व्याप्यव्यापकभावका अभाव है तथापि-यह उपचार से कहा जाता है कि उनका उत्पादक राजा है' ; इसीप्रकार पुद्गलद्रव्यके गुणदोषोंमें और पुदगलद्रव्यमें व्याप्यव्यापकभाव होनेसे स्व-भावसे ही (पदगलद्रव्यके अपने भावसे ही) उन गुणदोषोंकी उत्पत्ति होनेपर भी-यद्यपि गुणदोषोंमें और जीवमें व्याप्य- व्यापकभावका अभाव है तथापि- उनका उत्पादक जीव है' ऐसा उपचार किया है।
भावार्थ:-जगतमें कहा जाता है कि 'यथा राजा तथा प्रजा'। इस कहावतसे प्रजाके गुणदोषोंका उत्पन्न करनेवाला राजा कहा जाता है। इसीप्रकार पुद्गलद्रव्यके गुणदोषोंको उत्पन्न करनेवाला जीव कहा जाता है। परमार्थदृष्टि से देखा जाये तो यह यथार्थ नहीं है, किन्तु उपचार है।
अब आगेकी गाथाका सूचक काव्य कहते हैं :---
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कर्ता-कर्म अधिकार
( वसन्ततिलका) जीवः करोति यदि पुद्गलकर्मनैव कस्तर्हि तत्कुरुत इत्यभिशङ्कयैव। एतर्हि तीव्ररयमोहनिवर्हणाय सङ्कीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्मकर्तृ।। ६३ ।।
सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो । मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ।। १०९ ।। तेसिं पुणो वि य इमो भणिदो भेदो दु तेरसवियप्पो। मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ।। ११० ।। एदे अचेदणा खलु पोग्गलकम्मुदयसंभवा जम्हा । ते जदि करेंति कम्मं ण वि तेसिं वेदगो आदा।। १११ ।।
श्लोकार्थ:-[ यदि पुद्गलकर्म जीवः न एव करोति ] यदि पुद्गलकर्मको जीव नहीं करता [ तर्हि ] तो फिर [ तत् कः कुरुते ] उसे कौन करता है?' [इति अभिशङ्कया एव] ऐसी आशंका करके, [ एतर्हि ] अब [ तीव्र - रय - मोह - निवर्हणाय ] तीव्र वेगवाले मोहका ( कर्तृत्वकर्मत्वके अज्ञानका ) नाश करने के लिये, यह कहते हैं कि--[ पुद्गलकर्मकर्तृ सङ्कीर्त्यते ] 'पुद्गलकर्मका कर्ता कौन है'; [ शृणुत ] इसलिये ( हे ज्ञानके इच्छुक पुरुषों ! ) इसे सुनों । ६३ ।
अब यह कहते हैं कि पुद्गलकर्मका कर्ता कौन है :
सामान्य प्रत्यय चार, निश्चय बंधके कर्ता कहे ।
- मिथ्यात्व ने अविरमण योगकषाय ये ही जानने ।। १०९ ।।
फिर उनहिका दर्शा दिया, यह भेद तेर प्रकारका । -मिथ्यात्व गुस्थानादि ले, जो चरमभेद सयोगिका ।। ११० ।।
पुद्गलकरमके उदयसे, उत्पन्न इससे अजीव वे । वे जो करें कर्मों भले, भोक्ता भि नहिं जीवद्रव्य है ।। १११ ।।
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१९०
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समयसार
गुणसणिदा दु एदे कम्मं कुव्वंति पच्चया जम्हा । तम्हा जीवोऽकत्ता गुणा य कुव्वंति कम्माणि ।। ११२ ।।
सामान्यप्रत्ययाः खलु चत्वारो भण्यन्ते बन्धकर्तारः । मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगौ च बोद्धव्याः। । १०९ ।। तेषां पुनरपि चायं भणितो भेदस्तु त्रयोदशविकल्पः। मिथ्यादृष्ट्यिादिः यावत् सयोगिनश्चरमान्तः ।। ११० ।। एते अचेतनाः खलु पुद्गलकर्मोदयसम्भवा यस्मात् । ते यदि कुर्वन्ति कर्म नापि तेषां वेदक आत्मा।। १११ ।। गुणसंज्ञितास्तु एते कर्म कुर्वन्ति प्रत्यया यस्मात् । तस्माज्जीवोऽकर्ता गुणाश्च कुर्वन्ति कर्माणि । । ११२ । ।
परमार्थसे 'गुण' नामके प्रत्यय करें इन कर्म को । तिससे अकर्ता जीव है, गुणथान करते कर्मको ।। ११२ ।।
*
गाथार्थ:- [ चत्वारः ] चार [ सामान्यप्रत्ययाः ] सामान्य * प्रत्यय [ खलु ] निश्चयसे [ बन्धकर्तारः ] बंधके कर्ता [ भण्यन्ते ] कहे जाते हैं, वे - [ मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्व, [ अविरमणं ] अविरमण [च] तथा [ कषाययोगौ ] कषाय और योग [बोद्धव्याः] जानना। [ पुनः अपि च ] और फिर [ तेषां ] उनका, [अयं] यह [त्रयोदशविकल्पः] तेरह प्रकारका [ भेदः तु] भेद [ भणितः ] कहा गया है[मिथ्यादृष्ट्यादिः] मिथ्यादृष्टि ( गुणस्थान) से लेकर [ सयोगिनः चरमान्तः यावत् ] सयोगकेवली ( गुणस्थान) के चरम समय पर्यंतका, [ एते ] यह ( प्रत्यय अथवा गुणस्थान ) [ खलु ] जो कि निश्चयसे [ अचेतना: ] अचेतन हैं [ यस्मात्] क्योंकि [ पुद्गलकर्मोदयसम्भवाः ] पुद्गलकर्मके उदयसे उत्पन्न होते हैं [ते] वे [ यदि ] यदि [कर्म] कर्म [ कुर्वन्ति ] करते हैं तो भले करें; [ तेषां ] उनका ( कर्मोंका) [ वेदक: अपि ] भोक्ता भी [आत्मा न ] आत्मा नहीं है। [ यस्मात् ] क्योंकि [ एते ] यह [ गुणसंज्ञिताः तु ] 'गुण' नामक [ प्रत्ययाः ] प्रत्यय [ कर्म ] कर्म [ कुर्वन्ति ] करते हैं [तस्मात्] इसलिये [ जीवः ] जीव तो [ अकर्ता ] कर्मोंका अकर्ता है [च] और [ गुणाः ] 'गुण' ही [ कर्माणि ] कर्मोंको [ कुर्वन्ति ] करते हैं ।
* प्रत्यय = कर्मबंधके कारण अर्थात् आस्रव
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कर्ता-कर्म अधिकार
१९१
पुद्गलकर्मणः किल पुद्गलद्रव्यमेवैकं कर्तृ; तद्विशेषाः मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा बन्धस्य सामान्यहेतुतया चत्वारः कर्तारः। ते एव विकल्प्यमाना मिथ्यादृष्ट्य दिसयोगकेवल्यन्तास्त्रयोदश
कर्तारः।
अथैते पुद्गलकर्मविपाकविकल्पत्वादत्यन्तमचेतनाः सन्तस्त्रयोदश कर्तार: केवला एव यदि व्याप्यव्यापकभावेन किञ्चनापि पुद्गलकर्म कुर्युस्तदा कुर्युरेव; किं जीवस्यात्रापतितम् ? अथायं तर्क:-पुद्गलमयमिथ्यात्वादीन् वेदयमानो जीवः स्वयमेव मिथ्यादृष्टिभूत्वा पुद्गलकर्म करोति। स किलाविवेकः, यतो न खल्वात्मा भाव्यभावकभावाभावात् पुद्गलद्रव्यमयभिथ्यात्वादिवेदकोऽपि, कथं पुन: पुद्गलकर्मण: कर्ता नाम ? अथैतदायातम्-यत: पुद्गलद्रव्यमयानां चतुर्णा सामान्यप्रत्ययानां विकल्पास्त्रयोदश विशेषप्रत्यया गुणशब्दवाच्याः केवला एव कुर्वन्ति कर्माणि, ततः पुद्गलकर्मणामकर्ता जीवो, गुणा एव तत्कर्तारः। ते तु पुद्गलद्रव्यमेव। ततः स्थितं पुद्गलकर्मण: पुद्गलद्रव्यमेवैकं कर्तृ।
टीका:-वास्तवमें पुदगलकर्मका, पुद्गलद्रव्य ही एक कर्ता है; उसके विशेषमिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग बंधके सामान्य हेतु होनेसे चार कर्ता हैं; उनहीं के भेद करनेपर मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली पर्यंत तेरह कर्ता हैं। अब, जो पुद्गलकर्मके विपाकके प्रकार होनेसे अत्यंत अचेतन हैं ऐसे यह तेरह कर्ता ही मात्र व्याप्यव्यापकभावसे यदि कुछ भी पुद्गलकर्म को करें तो भले करें; इसमें जीव का क्या आया ? ( कुछ भी नहीं।)
यहाँ यह तर्क है कि “पुद्गलमय मिथ्यात्वादिको भोगता हुआ, जीव स्वयं ही मिथ्यादृष्टि होकर पुद्गलकर्मको करता है। (इसका समाधान यह कि :-) यह तर्क वास्तव में अविवेक है, क्योंकि भाव्यभावकभावका अभाव होनेसे आत्मा निश्चयसे पुद्गलद्रव्यमय मिथ्यात्वादिका भोक्ता भी नहीं है, तब फिर पुद्गलकर्मका कर्ता कैसे हो सकता है ? इसलिये यह सिद्ध हुआ कि-जो पुद्गलद्रव्यमय चार सामान्यप्रत्ययों के भेदरूप तेरह विशेषप्रत्यय हैं जो कि 'गुण' शब्दसे (गुणस्थान नामसे) कहे जाते हैं वही केवल मात्र कर्मोको करते हैं, इसलिये जीव पुद्गलकर्मोंका अकर्ता है, किन्तु 'गुण' ही उनके कर्ता हैं; और वे 'गुण' तो पुद्गलद्रव्य ही हैं; इससे यह सिद्ध हुआ कि पुद्गलकर्मका पुद्गलद्रव्य ही एक कर्ता है।
भावार्थ:-शास्त्रमें प्रत्ययोंके बंधका कर्ता कहा गया है। गुणस्थान भी विशेष प्रत्यय ही हैं इसलिये ये गुणस्थान बंधके कर्ता हैं अर्थात् पुद्गलकर्मके कर्ता हैं। और मिथ्यात्वादि सामान्य प्रत्यय या गुणस्थानरूप विशेष प्रत्यय अचेतन पुद्गलद्रव्यमय ही हैं, इससे यह सिद्ध हुआ कि पुद्गलद्रव्य ही पुद्गलकर्मका कर्ता है; जीव नहीं। जीवको पुद्गलकर्मका कर्ता मानना अज्ञान है।
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समयसार
१९२
न च जीवप्रत्यययोरेकत्वम् जह जीवस्स अणण्णुवओगो कोहो वि तह जदि अणण्णो। जीवस्साजीवस्स य एवमणण्णत्तमावण्णं ।। ११३ ।। एवमिह जो दु जीवो सो चेव दुणियमदो तहाऽजीवो। अयमेयत्ते दोसो पच्चयणोकम्मकम्माणं ।। ११४ ।। अह दे अण्णो कोहो अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा। जह कोहो तह पच्चय कम्मं णोकम्ममवि अण्णं ।। ११५ ।।
यथा जीवस्यानन्य उपयोगः क्रोधोऽपि तथा यद्यनन्यः। जीवस्याजीवस्य चैवमनन्यत्वमापन्नम् ।।११३ ।। एवमिह यस्तु जीवः स चैव तु नियमतस्तथाऽजीवः। अयमेकत्वे दोषः प्रत्ययनोकर्मकर्मणाम्।। ११४ ।। अथ ते अन्यः क्रोधोऽन्यः उपयोगात्मको भवति चेतयिता। यथा क्रोधस्तथा प्रत्ययाः कर्म नोकर्माप्यन्यत्।। ११५ ।।
अब कहते हैं कि--जीव और उन प्रत्ययोंमें एकत्व नहीं है :--
उपयोग ज्योंहि अनन्य जीवका, क्रोध तयोंहि जीवका । तो दोष आवे जीव त्योंहि अजीवके एकत्वका ।। ११३।। यों जगतमें जो जीव वे हि अजीव भी निश्चय हुवे । नोकर्म, प्रत्यय , कर्मके एकत्वमें भी दोष ये ।। ११४ ।। जो क्रोध यों है अन्य , जीव उपयोगआत्मक अन्य है। तो क्रोधवत् नोकर्म , प्रत्यय, कर्म भी सब अन्य हैं ।। ११५ ।।
गाथार्थ:- [ यथा] जैसे [जीवस्य ] जीवके [ उपयोगः ] उपयोग [अनन्यः] अनन्य अर्थात् एकरूप है [ तथा ] उसीप्रकार [ यदि ] यदि [ क्रोधः अपि] क्रोध भी [अनन्यः] अनन्य हो तो [ एवम् ] इसप्रकार [जीवस्य ] जीवके [च] और [अजीवस्य ] अजीवके [अनन्यत्वम् ] अनन्यत्व [ आपन्नम् ] आ गया। [ एवम् च] और ऐसा होनेसे , [ इह ] इस जगत में [ यः तु] जो [ जीव: ] जीव हैं [ सः एव तु] वही [नियमत:] नियमसे [ तथा] उसीप्रकार [अजीव: ] अजीव सिद्ध हुआ; ( दोनोंके अनन्यत्व होनेमें यह दोष आया;) [ प्रत्ययनोकर्मकर्मणाम् ] प्रत्यय ,
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कर्ता-कर्म अधिकार
१९३
यदि यथा जीवस्य तन्मयत्वाज्जीवादनन्य उपयोगस्तथा जड: क्रोधोऽप्यनन्य एवेति
प्रतिपत्तिस्तदा चिद्रूपजडयोरनन्यत्वाज्जीवस्योपयोगमयत्ववज्जडक्रोधमयत्वापत्तिः। तथा सति तु य एव जीव: स एवाजीव इति द्रव्यान्तरलुप्तिः। एवं प्रत्ययनोकर्मकर्मणामपि जीवादनन्यत्वप्रतिपत्तावयमेव दोषः। अथैतद्दोषभयादन्य एवोपयोगात्मा जीवोऽन्य एव जडस्वभावः क्रोधः इत्यभ्युपगमः, तर्हि यथोपयोगात्मनो जीवादन्यो जडस्वभावः क्रोधः तथा प्रत्ययनोकर्मकर्माण्यप्यन्यान्येव, जडस्वभावत्वाविशेषात्। नास्ति जीवप्रत्यययोरेकत्वम्।
नोकर्म और कर्मके [ एकत्वे ] एकत्व में भी [अयम् दोष:] यही दोष आता है। [अथ] अब यदि (इस दोषके भयसे) [ ते] तेरे मतमें [ क्रोधः ] क्रोध [ अन्यः] अन्य है और [ उपयोगात्मक:] उपयोगस्वरूप [चेतयिता] आत्मा [अन्यः ] अन्य [भवति ] है, तो [ यथा क्रोधः ] जैसे क्रोध है [ तथा] वैसे ही [प्रत्ययाः ] प्रत्यय [कर्म] कर्म और [ नोकर्म अपि] नोकर्म भी [अन्यत् ] आत्मासे अन्य ही हैं।
टीका:-जैसे जीवके उपयोगमयत्वके कारण जीवसे उपयोग अनन्य (अभिन्न) है उसीप्रकार जड़ क्रोध भी अनन्य ही है यदि ऐसी 'प्रतिपत्ति की जाये, तो चिद्रूप (जीव) और जड़के अनन्यत्वके कारण जीवके उपयोगमयताकी भाँति जड़ क्रोधमयता भी आ जायेगी। और ऐसा होनेपर जो जीव है वही अजीव सिद्ध होगा, -इसप्रकार अन्य द्रव्यका लोप हो जायेगा। इसीप्रकार प्रत्यय, नोकर्म और कर्म भी जीवके अनन्य हैं ऐसी प्रतिपत्तिमें भी यही दोष आता है। इसलिये यदि इस दोषके भयसे यह स्वीकार किया जाये कि उपयोगात्मक जीव अन्य ही है और जड़स्वभाव क्रोध अन्य ही है, तो जैसे उपयोगात्मक जीवसे जड़स्वभाव क्रोध अन्य है उसीप्रकार प्रत्यय, नोकर्म और कर्म भी अन्य ही हैं क्योंकि उनके जड़स्वभाववत्वमें अन्तर नहीं है ( अर्थात् जैसे क्रोध जड़ है उसीप्रकार प्रत्यय, नोकर्म और कर्म भी जड़ हैं)। इसप्रकार जीव और प्रत्ययमें एकत्व नहीं।
भावार्थ:-मिथ्यात्वादि आस्रव तो जड़स्वभाव हैं और जीव चेतनस्वभाव है। यदि जड़ और चेतन एक हो जायें तो भिन्न द्रव्योंके लोप होनेका महा दोष आता है। इसलिये निश्चयनयका यह सिद्धांत है कि आस्रव और आत्मामें एकत्व नहीं है।
१। प्रतिपत्ति = प्रतीति; प्रतिपादन। २। चिद्रूप = जीव।
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समयसार
१९४
अथ पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभावत्वं साधयति सांख्यमतानुयायिशिष्यं प्रति
जीवे ण सयं बद्धं ण सयं परिणमदि कम्मभावेण। जदि पोग्गलदव्वमिणं अप्परिणामी तदा होदि।। ११६ ।। कम्मइयवग्गणासु य अपरिणमंतीसु कम्मभावेण। संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।। ११७ ।। जीवो परिणामयदे पोग्गलदव्वाणि कम्मभावेण। ते समयपरिणमंते कहं णु परिणामयदि चेदा।।११८ ।। अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पोग्गलं दव्वं । जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा।। ११९ ।। णियमा कम्मपरिणदं कम्मं चिय होदि पोग्गलं दव्वं । तह तं णाणावरणाइपरिणदं मुणसु तच्चेव।। १२० ।।
।
अब सांख्यमतानुयायी शिष्यके प्रति पुद्गलद्रव्यका परिणामस्वभावत्व सिद्ध करते हैं ( अर्थात् सांख्यमती प्रकृति-पुरुषको अपरिणामी मानते हैं उन्हें समझाते हैं) :
जीवमें स्वयं नहि बद्ध, अरु नहिं कर्मभावों परिणमे । तो वो हि पुद्गलद्रव्य भी, परिणमनहीन बने अरे! ।। ११६ ।। जो वर्गणा कार्माणकी, नहिं कर्मभावों परिणमे । संसार का हि अभाव अथवा सांख्यमत निश्चित हुवे! ।।११७।। जो कर्मभावों परिणमावे जीव पुदगलद्रव्यको । क्यों जीव उसको परिणमावे, स्वयं नहिं परिणमत जो ? ।। ११८ ।। स्वयमेव पुद्गलद्रव्य अरु , जो कर्मभावों परिणमे । जीव परिणमावे कर्मको, कर्मत्वमें-मिथ्या बने ।। ११९ ।। पुद्गलदरव जो कर्मपरिणत, नियमसे कर्म हि बने । ज्ञानावरणइत्यादिपरिणत वोहि तुम जानो उसे ।। १२० ।।
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कर्ता-कर्म अधिकार
१९५
जीवे न स्वयं बद्धं न स्वयं परिणमते कभावेन। यदि पुद्गलद्रव्यमिदमपरिणामि तदा भवति।। ११६ ।। कार्मणवर्गणासु चापरिणममानासु कर्मभावेन। संसारस्याभाव: प्रसजति सांख्यसमयो वा।।११७ ।। जीवः परिणामयति पुद्गलद्रव्याणि कर्मभावेन। तानि स्वयमपरिणाममानानि कथं नु परिणामयति चेतयिता।। ११८ ।। अथ स्वयमेव हि परिणमते कर्मभावेन पुद्गलं द्रव्यम्। जीवः परिणामयति कर्म कर्मत्वमिति मिथ्या।। ११९ ।। नियमात्कर्मपरिणतं कर्म चैव भवति पुद्गलं द्रव्यम्। तथा तद्ज्ञानावरणादिपरिणतं जानीत तच्चैव।। १२० ।।
गाथार्थ:- [इदम् पुद्गलद्रव्यम् ] यह पुद्गलद्रव्य [जीवे] जीवमें [ स्वयं] स्वयं [ बद्धं न] नहीं बँधा [ कर्मभावेन ] और कर्मभावसे [ स्वयं ] स्वयं [न परिणमते] नहीं परिणमता [ यदि] यदि ऐसा माना जाये [ तदा] तो वह [अपरिणामि] अपरिणामी [भवति] सिद्ध होता है; [च] और [ कार्मणवर्गणासु] कार्मणवर्गणाएँ [कर्मभावेन ] कर्मभावसे [अपरिणममानासु] नहीं परिणमती होने से, [ संसारस्य ] संसारका [अभावः ] अभाव [ प्रसजति] सिद्ध होता है [ वा] अथवा [ सांख्यसमयः] सांख्यमतका प्रसंग आता है।
और [ जीवः ] जीव [ पुद्गलद्रव्याणि] पुद्गलद्रव्योंको [कर्मभावेन ] कर्मभाव से [ परिणामयति ] परिणमाता है ऐसा माना जाये तो यह प्रश्न होता है कि [ स्वयम् अपरिणममानानि] स्वयं नहीं परिणमती हुई [ तानि] उन वर्गणाओंकी [ चेतयिता] चेतन आत्मा [कथं नु] कैसे [परिणामयति] परिणमन करा सकता है ? [अथ] अथवा यदि [ पुद्गलम् द्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्य [ स्वयमेव हि] अपने आप ही [ कर्मभावेन] कर्मभावसे [परिणमते] परिणमन करता है ऐसा माना जाये, तो [जीवः] जीव [कर्म] कर्मको अर्थात् पुद्गलद्रव्यको [कर्मत्वम् ] कर्मरूप [ परिणामयति] परिणमन कराता है [इति] यह कथन [ मिथ्या] मिथ्या सिद्ध होता
है।
[नियमात् ] इसलिये जैसे नियमसे [कर्मपरिणतं] कर्मरूप (कर्ता के कार्यरूपसे) परिणमित [ पुद्गलम् द्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्य [ कर्म चैव] कर्म ही [भवति] है [तथा] इसीप्रकार [ ज्ञानावरणादिपरिणतं] ज्ञानावरणादिरूप परिणमित [ तत्] पुद्गलद्रव्य [ तत् च एव ] ज्ञानावरणादि ही है [ जानीत ] ऐसा जानो।
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समयसार
१९६
यदि पुद्गलद्रव्यं जीवे स्वयमबद्धं सत्कर्मभावेन स्वयमेव न परिणमेत तदा तदपरिणाम्येव स्यात्। तथा सति संसाराभावः। अथ जीव: पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयति ततो न संसाराभावः इति तर्कः। किं स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा जीव: पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयेत् ? न तावत्तत्स्वयमपरिणममानं परेण परिणमयितुं पार्येत; न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते। स्वयं परिणममानं तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत; न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षन्ते। तत: पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु। तथा सति कलशपरिणता मृत्तिका स्वयं कलश इव जडस्वभावज्ञानावरणादिकर्मपरिणतं तदेव स्वयं ज्ञानावरणादिकर्म स्यात्। इति सिद्धे पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभावत्वम्।
(उपजाति) स्थितेत्यविध्ना खलु पुद्गलस्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः। तस्यां स्थितायां स करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता।। ६४ ।।
टीका:-यदि पुद्गलद्रव्य जीवमें स्वयं न बँधकर कर्मभावसे स्वयमेव परिणमता न हो, तो वह अपरिणामी ही सिद्ध होगा। और ऐसा होनेसे, संसारका अभाव होगा। ( क्योंकि यदि पुद्गलद्रव्य कर्मरूप नहीं परिणमे तो जीव कर्मरहित सिद्ध होवे ; तब फिर संसार किसका ?) यदि यहाँ यह तर्क उपस्थित किया जाये कि “जीव पुद्गलद्रव्यको कर्मभावसे परिणमाता है इसलिये संसार का अभाव नहीं होगा,” तो उसका निराकरण दो पक्षोंको लेकर इसप्रकार किया जाता है कि:-क्या जीव स्वयं अपरिणमते हुए पुद्गलद्रव्यको कर्मभावरूप परिणमाता है या स्वयं परिणमते हुएको ? प्रथम, स्वयं अपरिणमते हुए को दूसरे के द्वारा नहीं परिणमाया जा सकता, क्योंकि ( वस्तुमें) जो शक्ति स्वतः न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता। (इसलिये प्रथम पक्ष असत्य है।) और स्वयं परिणमते हुए को अन्य परिणमाने वाले की अपेक्षा नहीं होती; क्योंकि वस्तुकी शक्तियाँ परकी अपेक्षा नहीं रखतीं। (इसलिये दूसरा पक्ष भी असत्य है।) अतः पुद्गलद्रव्य परिणमनस्वभाववाला स्वयमेव हो। ऐसा होनेसे , जैसे घटरूप परिणमित मिट्टी ही स्वयं घट है उसीप्रकार, जड़ स्वभाववाले ज्ञानावरणादिकर्मरूप परिणमित पुद्गलद्रव्य ही स्वयं ज्ञानावरणादिकर्म है। इसप्रकार पुद्गलद्रव्यका परिणामस्वभावत्व सिद्ध हुआ।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इति] इसप्रकार [ पुद्गलस्य ] पुद्गलद्रव्यकी [ स्वभावभूता परिणामशक्ति:] स्वभावभूत परिणमनशक्ति [ खलु अविध्ना स्थिता] निर्विध्न सिद्ध हुई। [ तस्यां स्थितायां] और उसके सिद्ध होनेपर, [ सः आत्मन: यम् भावं करोति] पुद्गलद्रव्य अपने जिस भावको करता है
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कर्ता-कर्म अधिकार
१९७
जीवस्य परिणामित्वं साधयति
ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं। जदि एस तुज्झ जीवो अप्परिणामी तदा होदि।। १२१ ।। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहिं भावेहिं। संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।। १२२ ।। पोग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं। तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो।।१२३ ।। अह सयमप्पा परिणमदि कोहभावेण एस दे बुद्धी। कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा।।१२४ ।। कोहुवजुत्तो कोहो माणुवजुत्तो य माणमेवादा।
माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो।।१२५ ।। [ तस्य सः एव कर्ता ] उसका वह पुद्गलद्रव्य ही कर्ता है।
भावार्थ:-सर्व द्रव्य परिणमनस्वभाववाले है इसलिये वे अपने अपने भावके स्वयं ही कर्ता हैं। पुद्गलद्रव्य भी अपने जिस भावको करता है उसका वह स्वयं ही कर्ता है। ६४।
अब जीवका परिणमत्व सिद्ध करते हैं:नहिं बद्धकर्म , स्वयं नहीं जो क्रोधभावों परिणमे । तो जीव यह तुझ मतविर्षे परिणमनहीन बने अरे ।। १२१ ।। क्रोधादिभावों जो स्वयं नहिं जीव आप हि परिणमे । संसारका ही अभाव अथवा सांख्यमत निश्चय हुवे ।। १२२।। जो क्रोध-पुद्गलकर्म-जीवको, परिणमावे क्रोधमें । क्यों क्रोध उसको परिणमावे जो स्वयं नहिं परिणमे ।। १२३ ।। अथवा स्वयं जीव क्रोधभावों परिणमे-तुझ बुद्धिसे । तो क्रोध जीवको परिणमावे क्रोधमें-मिथ्या बने ।। १२४।। क्रोधोपयोगी क्रोध , जीव मानोपयोगी मान है। मायोपयुत माया अवरु लोभोपयुत लोभ हि बने ।। १२५ ।।
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समयसार
१९८
न स्वयं बद्धः कर्मणि न स्वयं परिणमते क्रोधादिभिः। यद्येषः तव जीवोऽपरिणामी तदा भवति।।१२१ ।। अपरिणममाने स्वयं जीवे क्रोधादिभिः भावैः। संसारस्याभाव: प्रसजति सांख्यसमयो वा।। १२२ ।। पुद्गलकर्म क्रोधो जीवं परिणामयति क्रोधत्वम्। तं स्वयमपरिणममानं कथं नु परिणामयति क्रोधः।।१२३ ।। अथ स्वयमात्मा परिणमते क्रोधभावेन एषा ते बुद्धिः । क्रोधः परिणामयति जीवं क्रोधत्वमिति मिथ्या।। १२४ ।। क्रोधोपयुक्तः क्रोधो मानोपयुक्तश्च मान एवात्मा। मायोपयुक्तो माया लोभोपयुक्तो भवति लोभः ।। १२५ ।।
गाथार्थ:-सांख्यमतानुयायी शिष्यके प्रति आचार्य कहते हैं कि हे भाई! [ एषः] यह [ जीवः ] जीव [ कर्मणि ] कर्ममें [ स्वयं] स्वयं [बद्धः न ] नहीं बँधा है और [ क्रोधादिभिः] क्रोधादिभावसे [ स्वयं] स्वयं [ न परिणमते ] नहीं परिणमता [यदि तव] यदि ऐसा यह मत है [तदा] तो वह (जीव) [अपरिणामी ] अपरिणामी [भवति] सिद्ध होता है; [जीवे] और जीव [ स्वयं] स्वयं [ क्रोधादिभिः भावैः ] क्रोधादिभावरूप [अपरिणममाने] नहीं परिणमता होनेसे, [संसारस्य] संसारका [अभावः ] अभाव [ प्रसजति ] सिद्ध होता है [वा] अथवा [ सांख्यसमयः] सांख्यमतका प्रसंग आता है।
[पुद्गलकर्म क्रोधः ] और पुद्गलकर्म जो क्रोध है वह [ जीवं] जीवको [ क्रोधत्वम् ] क्रोधरूप [ परिणामयति ] परिणमन कराता है ऐसा तू माने तो यह प्रश्न होता है कि [ स्वयम् अपरिणममानं] स्वयं नहीं परिणमते हुए [ तं] उस जीवको [ क्रोधः ] क्रोध [ कथं नु] कैसे [ परिणामयति ] परिणमन करा सकता है ? [ अथ] अथवा यदि [आत्मा] आत्मा [ स्वयम् ] अपने आप [क्रोधभावेन] क्रोधभावसे [ परिणमते ] परिणमता है [ एषा ते बुद्धि:] ऐसी तेरी बुद्धि हो, तो [ क्रोध:] क्रोध [ जीवं ] जीवको [ क्रोधत्वम् ] क्रोधरूप [ परिणामयति ] परिणमन कराता है [इति] यह कथन [ मिथ्या ] मिथ्या सिद्ध होता है।
इसलिये यह सिद्धान्त है कि [ क्रोधोपयुक्त ] क्रोधमें उप्युक्त ( अर्थात् जिसका उपयोग क्रोधाकार परिणमित हुआ है ऐसा) [ आत्मा ] आत्मा [ क्रोध ] क्रोध ही है, [ मनोपतुक्त ] मान में उपयुक्त आत्मा [ मानः एव ] मान ही है, [मायोपयुक्त ] माया में उपयुक्त आत्मा [माया ] माया है [च] और [ लोभोपयुक्त ] लोभ में उपयुक्त आत्मा [ लोभः ] लोभ [ भवति] है।
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कर्ता-कर्म अधिकार
यदि कर्मणि स्वयमबद्धः सन् जीवः क्रोधादिभावेन स्वयमेव न परिणमेत तदा स किलापरिणाम्येव स्यात्। तथा सति संसाराभावः। अथ पुद्गलकर्म क्रोधादि जीवं क्रोधादिभावेन परिणामयति ततो न संसाराभाव इति तर्कः। किं स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा पुद्गलकर्म क्रोधादि जीवं क्रोधादिभावेन परिणामयेत् ? न तावत्स्वयमपरिणममानः परेण परिणमयितुं पार्येत; न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते। स्वयं परिणममानस्तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत; न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षन्ते। ततो जीवः परिणामस्वभावः स्वयमेवास्तु। तथा सति गरुडध्यानपरिणत: साधक: स्वयं गरुड इवाज्ञानस्वभावक्रोधादिपरिणतोपयोगः स एव स्वयं क्रोधादिः स्यात्। इति सिद्धं जीवस्य परिणामस्वभावत्वम्।
टीका:-यदि जीव कर्ममें स्वयं न बँधाता हुआ क्रोधादिभावमें स्वयमेव नहीं परिणमता हो तो वह वास्तवमें अपरिणामी ही सिद्ध होगा। और ऐसा होनेसे संसार का अभाव होगा। यदि यहाँ यह तर्क किया जाये कि “पुद्गलकर्म जो क्रोधादिक हैं वे जीवको क्रोधादिभावरूप परिणमाते हैं इसलिये संसारका अभाव नहीं होता", तो उसका निराकरण दो पक्ष लेकर इसप्रकार किया जाता है:-पुद्गलकर्म क्रोधादिक है वह स्वयं अपरिणमते हुए जीवको क्रोधादिभावरूप परिणमाता है या स्वयं परिणमते हुए को ? प्रथम, स्वयं अपरिणमते परके द्वारा नहीं परिणमाया जा सकता; क्योंकि ( वस्तुमें) जो शक्ति स्वतः न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता। और स्वयं परिणमते हुए को तो अन्य परिणमानेवाले की अपेक्षा नहीं होती; क्योंकि वस्तकी शक्तियाँ परकी अपेक्षा नहीं रखती। (इसप्रकार दोनों पक्ष असत्य हैं।) इसलिये जीव परिणमनस्वभाववाला स्वयमेव हो। ऐसा होनेसे , जैसे, गरुड़के ध्यानरूप परिणमित मंत्रसाधक स्वयं गरुड़ है उसीप्रकार, अज्ञानस्वभावयुक्त क्रोधादिरूप जिसका उपयोग परिणमित हुआ है ऐसा जीव ही स्वयं क्रोधादि है। इसप्रकार जीवका परिणामस्वभावत्व सिद्ध हुआ।
भावार्थ:-जीव परिणामस्वभाव है। जब अपना उपयोग क्रोधादिरूप परिणमता है तब स्वयं क्रोधादिरूप ही होता है ऐसा जानना।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
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समयसार
२००
(उपजाति) स्थितेति जीवस्य निरन्तराया स्वभावभूता परिणामशक्तिः। तस्यां स्थितायां स करोति भावं यं स्वस्य तस्यैव भवेत्स कर्ता।। ६५ ।।
तथाहि
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स। णाणिस्स स णाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स।।१२६ ।।
यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य कर्मणः। ज्ञानिनः स ज्ञानमयोऽज्ञानमयोऽज्ञानिनः ।। १२६ ।।
एवमयमात्मा स्वयमेव परिणामस्वभावोऽपि यमेव भावमात्मनः करोति तस्यैव
श्लोकार्थ:- [इति] इसप्रकार [जीवस्य] जीवकी [स्वभावभूता परिणामशक्ति:] स्वभावभूत परिणमनशक्ति [ निरन्तराया स्थिता] निर्विघ्न सिद्ध हुई। [तस्यां स्थितायां ] यह सिद्ध होनेपर, [ सः स्वस्य यं भावं करोति ] जीव अपने जिस भावको करता है [ तस्य एव सः कर्ता भवेत् ] उसका वह कर्ता होता है।
भावार्थ:-जीव भी परिणामी है; इसलिये स्वयं जिस भावरूप परिणमता है उसका कर्ता होता है। ६५ ।
अब यह कहते हैं कि ज्ञानी ज्ञानमय भावका और अज्ञानी अज्ञानमय भावका कर्ता है:
जिस भावको आत्मा करे, कर्ता बने उस कर्मका ।
वो ज्ञानमय है ज्ञानिका , अज्ञानमय अज्ञानीका ।। १२६ ।।
गाथार्थ:- [ आत्मा ] आत्मा [यं भावम् ] जिस भावको [ करोति ] करता है [तस्य कर्मणः ] उस भावरूप कर्मका [ सः] वह [कर्ता] कर्ता [भवति ] होता है; [ ज्ञानिनः] ज्ञानीको तो [ सः ] वह भाव [ ज्ञानमयः ] ज्ञानमय है और [अज्ञानिनः] अज्ञानीको [ अज्ञानमयः ] अज्ञानमय है।
टीका:-इसप्रकार यह आत्मा स्वयमेव परिणामस्वभाववाला है तथापि अपने जिस भावको करता है उस भावका ही
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कर्ता-कर्म अधिकार
२०१
कर्मतामापद्यमानस्य कर्तृत्वमापद्येत। स तु ज्ञानिनः सम्यक्स्वपरविवेकेनात्यन्तोदितविविक्तात्मख्यातित्वात् ज्ञानमय एव स्यात्। अज्ञानिनः तु सम्यक्स्वपरविवेकाभावेनात्यन्तप्रत्यस्तमितविविक्तात्मख्यातित्वादज्ञानमय एव स्यात्।
किं ज्ञानमयभावात्किमज्ञानमयाद्भवतीत्याह
अण्णाणमओ भावो अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि। णाणमओ णाणिस्स दुण कुणदि तम्हा दु कम्माणि।। १२७ ।।
अज्ञानमयो भावोऽज्ञानिनः करोति तेन कर्माणि। ज्ञानमयो ज्ञानिनस्तु न करोति तस्मात्तु कर्माणि।। १२७ ।।
अज्ञानिनो हि सम्यक्स्वपरविवेकाभावेनात्यन्तप्रत्यस्तमितविविक्तात्मख्यातित्वा
-कर्मत्व को प्राप्त हुएका ही-कर्ता वह होता है (अर्थात् वह भाव आत्माका कर्म है और आत्मा उसका कर्ता है)। वह भाव ज्ञानीको ज्ञानमय ही है क्योंकि उसे सम्यक् प्रकारसे स्वपरके विवेकसे (सर्व परद्रव्यभावोंसे) भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यंत उदयको प्राप्त हुई है। और वह भाव अज्ञानीको तो अज्ञानमय ही हैं क्योंकि उसे सम्यक् प्रकारसे स्वपरका विवेक न होनेसे भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यंत अस्त हो गई है।
भावार्थ:-ज्ञानीको तो स्वपरका भेदज्ञान हुआ है इसलिये उसके अपने ज्ञानमय भावका ही कर्तृत्व; और अज्ञानीको स्वपरका भेदज्ञान नहीं है इसलिये उसके अज्ञानमय भावका ही कर्तृत्व है।
अब यह कहते हैं कि ज्ञानमय भावसे क्या होता है और अज्ञानमय भावसे क्या होता है :
अज्ञानमय अज्ञानिका, जिससे करे वो कर्मको । पर ज्ञानमय है ज्ञानिका, जिससे करे नहिं कर्म वो ।। १२७ ।।
गाथार्थ:- [अज्ञानिनः ] अज्ञानीके [अज्ञानमयः ] अज्ञानमय [ भावः ] भाव हैं [ तेन ] इसलिये वह [कर्माणि] कर्मोको [ करोति] करता है, [ज्ञानिनः तु] और ज्ञानीके तो [ ज्ञानमयः ] ज्ञानमय (भाव) हैं [ तस्मात् तु] इसलिये ज्ञानी [कर्माणि] कर्मोंको [ न करोति ] नहीं करता।
टीका:-अज्ञानीके सम्यक् प्रकारसे स्वपरका विवेक न होनेके कारण भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यंत अस्त हो गई होनेसे,
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२०२
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समयसार
द्यस्मादज्ञानमय
एव भाव: स्यात्, तस्मिंस्तु सति
स्वपरयोरेकत्वाध्यासेन ज्ञानमात्रात्स्वस्मात्प्रभ्रष्टः पराभ्यां रागद्वेषाभ्यां सममेकीभूय प्रवर्तिताहङ्कारः स्वयं किलैपोऽहं रज्ये रुष्यामीति रज्यते रुष्यति च; तस्मादज्ञानमयभावादज्ञानी परौ रागद्वेषावात्मानं कुर्वन् करोति कर्माणि।
ज्ञानिनस्तु
सम्यक्स्वपरविवेकेनात्यन्तोदितविविक्तात्मख्यातित्वाद्यस्मात् ज्ञानमय एवं भावः स्यात्, तस्मिंस्तु सति स्वपरयोर्नानात्वविज्ञानेन ज्ञानमात्रे स्वस्मिन्सुनिविष्टः पराभ्यां रागद्वेषाभ्यां पृथग्भूततया स्वरसत एव निवृत्ताहङ्कारः स्वयं किल केवलं जानात्येव, न रज्यते, न च रुष्यति; तस्मात् ज्ञानमयभावात् ज्ञानी परौ रागद्वेषावात्मानमकुर्वन्न करोति कर्माणि।
अज्ञानमय भाव ही होता है, और उसके होनेसे, स्वपरके एकत्वके अध्यासके कारण ज्ञानमात्र ऐसे निजमेंसे ( आत्मस्वरूपमेंसे) भ्रष्ट हुआ, पर ऐसे रागद्वेषके साथ एक होकर जिसके अहंकार प्रवर्त रहा है ऐसा स्वयं 'यह मैं वास्तवमें रागी हूँ, द्वेषी हूँ ( अर्थात् यह मैं राग करता हूँ, द्वेष करता हूँ ) ' इसप्रकार ( मानता हुआ ) रागी और द्वेषी होता है; इसलिये अज्ञानमय भावके कारण अज्ञानी अपनेको पर ऐसे रागद्वेषरूप करता हुआ कर्मोंको करता है ।
ज्ञानीके तो, सम्यक् प्रकारसे स्वपर विवेकके द्वारा भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यंत उदयको प्राप्त हुई होनेसे, ज्ञानमय भाव ही होता है, और ऐसा होने पर, स्वपरके भिन्नत्वके विज्ञानके कारण ज्ञानमात्र ऐसे निजमें सुनिविष्ट (सम्यक् प्रकारसे स्थित) हुआ, पर ऐसे रागद्वेषसे भिन्नत्व के कारण निजरससे ही जिसका अहंकार निवृत्त हुआ है ऐसा स्वयं वास्तवमें मात्र जानता ही है, रागी और द्वेषी नहीं होता ( अर्थात् रागद्वेष करता नहीं ); इसलिये ज्ञानमय भावके कारण ज्ञानी अपने को पर ऐसे रागद्वेषरूप न करता हुआ कर्मोंको नहीं करता ।
भावार्थ:-इस आत्माके क्रोधादिक मोहनीय कर्मकी प्रकृतिका ( अर्थात् रागद्वेषका ) उदय आनेपर, अपने उपयोगमें उसका रागद्वेषरूप मलिन स्वाद आता है। अज्ञानीके स्वपरका भेदज्ञान न होनेसे वह यह मानता है कि “ यह रागद्वेषरूप मलिन उपयोग ही मेरा स्वरूप है - वही मैं हूँ । ” इसप्रकार रागद्वेषमें अहंबुद्धि करता अज्ञानी अपनेको रागीद्वेषी करता है; इसलिये वह कर्मोंको करता है। इसप्रकार अज्ञानमय भावसे कर्मबंध होता है।
"
ज्ञानीके भेदज्ञान होनेसे वह जानता है कि “ ज्ञानमात्र शुद्ध उपयोग है वही मेरा स्वरूप है-वही मैं हूँ; रागद्वेष कर्मोंका रस है- मेरा स्वरूप नहीं है।
"
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कर्ता-कर्म अधिकार
२०३
(आर्या) ज्ञानमय एव भावः कुतो भवेत् ज्ञानिनो न पुनरन्यः।
अज्ञानमयः सर्वः कुतोऽयमज्ञानिनो नान्यः।। ६६ ।। णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायदे भावो। जम्हा तम्हा णाणिस्स सव्वे भावा हु णाणमया।। १२८ ।। अण्णाणमया भावा अण्णाणो चेव जायदे भावो। जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया अणाणिस्स।।१२९ ।।
ज्ञानमयाद्भावात् ज्ञानमयश्चैव जायते भावः। यस्मात्तस्माज्ज्ञानिनः सर्वे भावाः खलु ज्ञानमयाः।। १२८ ।।
इसप्रकार रागद्वेषमें अहंबुद्धि न करता हुआ ज्ञानी अपनेको रागीद्वेषी नहीं करता, केवल ज्ञाता ही रहता है; इसलिये वह कर्मोंको नहीं करता। इसप्रकार ज्ञानमय भावसे कर्मबंध नहीं होता।
अब आगे की गाथाके अर्थका सूचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ ज्ञानिनः कुतः ज्ञानमयः एव भावः भवेत् ] यहाँ प्रश्न यह है कि ज्ञानीको ज्ञानमय भाव ही क्यों होता है [ पुनः] और [अन्यः न ] अन्य (अज्ञानमय भाव) क्यों नहीं होता ? [ अज्ञानिनः कुतः सर्व: अयम् अज्ञानमयः ] तथा अज्ञानीके सभी भाव अज्ञानमय ही क्यों होते हैं तथा [अन्यः न ] अन्य [अर्थात् ज्ञानमय] क्यों नहीं होते ? । ६६।
इसी प्रश्नके उत्तररूप गाथा कहते हैं :--
ज्यों ज्ञानमय को भावमेंसे ज्ञानभाव हि उपजते । यों नियत ज्ञानीजीवके सब भाव ज्ञानमयी बनें ।। १२८ ।। अज्ञानमय को भावसे अज्ञानभाव हि उपजे ।
इस हेतुसे अज्ञानिके अज्ञानमय भाव हि बने ।। १२९ ।।
गाथार्थ:- [ यस्मात् ] क्योंकि [ ज्ञानमयात् भावात् च] ज्ञानमय भावमेंसे [ ज्ञानमयः एव ] ज्ञानमय ही [ भावः ] भाव [ जायते] उत्पन्न होत है [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानिनः] ज्ञानियोंके [ सर्वे भावाः] समस्त भाव [ खलु ] वास्तवमें [ ज्ञानमयाः ] ज्ञानमय ही होते हैं।
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समयसार
२०४
अज्ञानमयाद्भावादज्ञानश्चैव जायते भावः। यस्मात्तस्माद्भावा अज्ञानमया अज्ञानिनः।। १२९ ।।
यतो ह्यज्ञानमयाद्भावाद्यः कश्चनापि भावो भवति स सर्वोऽप्यज्ञानमयत्वमनतिवर्तमानोऽज्ञानमय एव स्यात्, ततः सर्वे एवाज्ञानमया अज्ञानिनो भावाः। यतश्च ज्ञानमयाद्भावाद्यः कश्चनापि भावो भवति स सर्वोऽपि ज्ञानमयत्वमनतिवर्तमानो ज्ञानमय एव स्यात्, ततः सर्वे एव ज्ञानमया ज्ञानिनो भावाः।
(अनुष्टुभ् ) ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ताः सर्वे भावा भवन्ति हि। सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते॥६७ ।।
अथैतदेव दृष्टान्तेन समर्थयते
[च ] और, [ यस्मात् ] क्योंकि [अज्ञानमयात् भावात् ] अज्ञानमय भावमेंसे [अज्ञान: एव ] अज्ञानमय ही [ भावः ] भाव [ जायते ] उत्पन्न होता है [ तस्मात् ] इसलिये [अज्ञानिनः ] अज्ञानियोंके [ भावाः ] भाव [ अज्ञानमयाः ] अज्ञानमय ही होते हैं।
टीका:-वास्तवमें अज्ञानमय भावमेंसे जो कोई भी भाव होता है वह सब ही अज्ञानमयताका उल्लंघन न करता हुआ अज्ञानमय ही होता है, इसलिये अज्ञानियोंके सभी भाव अज्ञानमय होते हैं। और ज्ञानमय भावमेंसे जो कोई भी भाव होता है वह सब ही ज्ञानमयताका उल्लंघन करता हुआ ज्ञानमय ही होता है, इसलिये ज्ञानियों के सब ही भाव ज्ञानमय होते हैं।
भावार्थ:-ज्ञानीका परिणमन अज्ञानीके परिणमनसे भिन्न ही प्रकार का है। अज्ञानीका परिणमन अज्ञानमय, और ज्ञानीका ज्ञानमय है; इसलिये अज्ञानीके क्रोध, मान, व्रत, तप इत्यादि समस्त भाव अज्ञानजातिका उल्लंघन करनेसे अज्ञानमय ही हैं और ज्ञानीके समस्त भाव ज्ञानजातिका उल्लंघन करनेसे ज्ञानमय ही हैं।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [ सर्वे भावाः ] समस्त भाव [ ज्ञाननिर्वृत्ताः हि] ज्ञानसे रचित [-रचायेला] [भवन्ति ] होते हैं [ तु] और [ अज्ञानिनः ] अज्ञानीके [ सर्वे अपि ते ] समस्त भाव [ अज्ञाननिर्वृत्ताः ] अज्ञानसे रचित [भवन्ति ] होते हैं। ६७।
अब इसी अर्थको दृष्टांतसे दृढ़ करते हैं:
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कर्ता-कर्म अधिकार
२०५
कणयमया भावादो जायते कुंडलादओ भावा। अयमयया भावादो जह जायंते दु कडयादी।। १३० ।। अण्णाणमया भावा अणाणिणो बहुविहा वि जायते। णाणिस्स दु णाणमया सव्वे भावा तहा होंति।।१३१ ।। कनकमयागावाज्जायन्ते कुण्डलादयो भावाः। अयोमयकाद्भावाद्यथा जायन्ते तु कटकादयः।। १३० ।। अज्ञानमया भावा अज्ञानिनो बहुविधा अपि जायन्ते। ज्ञानिनस्तु ज्ञानमयाः सर्वे भावास्तथा भवन्ति।। १३१ ।।
यथा खलु पुद्गलस्य स्वयं परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, कारणानुविधायित्वात् कार्याणां, जाम्बूनदमयागावाज्जाम्बूनदजातिमनति-वर्तमाना जाम्बूनदकुण्डलादय एव भावा भवेयुः, न पुन: कालायसवलयादयः, कालायसमयाद्भावाच्च कालायसजातिमनतिवर्तमाना: कालायसवलयादय एव भवेयुः, न पुनर्जाम्बूनदकुण्डलादयः। तथा जीवस्य स्वयं परिणामस्वभावत्वे सत्यपि,
ज्यों कनकमय को भावोंमेंसे कुंडलादिक ऊपजे । पर लोहमय को भावसे , कटकादि भावो नीपजे ।। १३० ।। त्यों भाव बहुविध ऊपजे, अज्ञानमय अज्ञानिके ।
पर ज्ञानीके तो सर्व भावहि, ज्ञानमय निश्चय बने ।। १३१ ।।
गाथार्थ:- [यथा] जैसे [कनकमयात् भावात् ] स्वर्णमय भावमेंसे [ कुण्डलादयः भावाः ] स्वर्णमय कुंडल इयतादि भाव [ जायन्ते] होते हैं [ तु] और [अयोमयकात् भावात् ] लोहमय भावोंमेंसे [कटकादयः ] लोहमय कड़ा इत्यादि भाव [ जायन्ते] होते हैं, [ तथा] उसीप्रकार [अज्ञानिन:] अज्ञानियोंके (अज्ञानमय भावमेंसे) [ बहुविधाः अपि] अनेक प्रकारके [अज्ञानमयाः भावाः] अज्ञानमय भाव [ जायन्ते ] होते हैं [ तु] और [ ज्ञानिनः ] ज्ञानियोंके (ज्ञानमय भावमेंसे ) [ सर्वे ] सभी [ ज्ञानमयाः भावाः ] ज्ञानमय भाव [ भवन्ति ] होते हैं।
टीका:-जैसे पुद्गल स्वयं परिणामस्वभावी है तथापि, कारण जैसे कार्य होते हैं इसलिये, सुवर्णमय भावमेंसे, सुवणजातिका उल्लंघन न करते हुए सुवर्णमय कुंडल आदि भाव ही होते हैं किन्तु लौहमय कड़ा इत्यादि भाव नहीं होते और लौहमय भावमें से, लौहजातिको उल्लंघन न करते हुए लौहमय कड़ा इत्यादि भाव ही होते हैं किन्तु सुवर्णमय कुंडल आदि भाव नहीं होते; इसीप्रकार जीव स्वयं परिणामस्वभावी होनेपर
भी,
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समयसार
२०६
कारणानुविधायित्वादेव कार्याणां, अज्ञानिनः स्वयमज्ञानमयाद्भावादज्ञानजातिमनतिवर्तमाना विविधा अप्यज्ञानमया एव भावा भवेयुः, न पुनर्ज्ञानमयाः, ज्ञानिनश्च स्वयं ज्ञानमयाद्भावाज्ज्ञानजातिमनतिवर्तमाना: सर्वे ज्ञानमया एव भावा भवेयुः, न पुनरज्ञानमयाः।
कारण जैसे ही कार्य होनेसे, अज्ञानीके-जो कि स्वयं अज्ञानमय भाव है उसकेअज्ञानमय भावोंमेंसे, अज्ञानजातिका उल्लंघन न करते हुए अनेक प्रकारके अज्ञानमय भाव ही होते हैं किन्तु ज्ञानमय भाव नहीं होते, तथा ज्ञानीके-जो कि स्वयं ज्ञानमय भाव है उसके–ज्ञानमय भावोंमेंसे, ज्ञानकी जातिका उल्लंघन न करते हुए समस्त ज्ञानमय भाव ही होते हैं किन्तु अज्ञानमय भाव नहीं होते।
भावार्थ:- जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है' इस न्यायसे जैसे लोहेमेंसे लौहमय कड़ा इत्यादि वस्तुएँ होती हैं और सुवर्णमेंसे सुवर्णमय आभुषण होते हैं, इसीप्रकार अज्ञानी स्वयं अज्ञानमय भाव होनेसे उसके (अज्ञानमय भावमेंसे) अज्ञानमय भाव ही होते हैं और ज्ञानी स्वयं ज्ञानमय भाव होनेसे उसके (ज्ञानमय भावमेंसे ) ज्ञानमय भाव ही होते हैं।
अज्ञानीके शुभाशुभ भावोंमें आत्मबुद्धि होनेसे उसके समस्त भाव अज्ञानमय ही
अविरत सम्यग्दृष्टि (-ज्ञानी) के यद्यपि चारित्रमोहके उदय होनेपर क्रोधादिक भाव प्रवर्तते हैं तथापि उसके उन भावों में आत्मबुद्धि नहीं है, वह उन्हें परके निमित्तसे उत्पन्न उपाधि मानता है। उसके क्रोधादिक कर्म उदयमें आकर खिर जाते हैं-वह भविष्यका ऐसा बंध नहीं करता कि जिससे संसारका परिभ्रमण बढ़े क्योंकि (ज्ञानी) स्वयं उद्यमी होकर क्रोधादिभावरूप परिणमता नहीं है यद्यपि "उदयकी बलवत्तासे परिणमता है तथापि ज्ञातृत्वका उल्लंघन करके परिणमता नहीं है; ज्ञानी का स्वामित्व निरंतर ज्ञानमें ही वर्तता है इसलिये वह क्रोधादिभावोंका अन्य ज्ञेयोंकी भाँति ज्ञाता ही है, कर्ता नहीं। इसप्रकार ज्ञानीके समस्त भाव ज्ञानमय ही हैं।
* समदृष्टिकी रुचि सर्वदा शुद्धात्मद्रव्यके प्रति ही होती है; उनको कभी रागद्वेषादि भावोंकी रुचि नहीं होती, उसको जो रागद्वेषादि भाव होते हैं वे भाव, यद्यपि उसकी स्वयं की निर्बलतासे ही एवं उसके स्वयंके अपराधसे ही होते हैं। फिर भी वे रुचि-पूर्वक नहीं होते इसकारण उन भावों को कर्मकी बलवत्तासे होनेवाले भाव' कहने में आता है, इससे ऐसा नहीं समझना कि 'जड़ द्रव्यकर्म आत्मा के ऊपर लेशमात्र भी जोर कर सकता है', परन्तु ऐसा समझना कि विकारी भावोंके होने पर भी सम्यग्दृष्टि महात्मा की शुद्धात्मद्रव्य रुचिमें किंचित् भी कमी नहीं है, मात्र चारित्रादि सम्बन्धी निर्बलता है--ऐसा आशय बतलाने के लिये ऐसा कहा है। जहाँ जहाँ 'कर्मकी बलवत्ता, कर्मकी जबरदस्ती', 'कर्मका जोर' इत्यादि कथन होवे वहाँ वहाँ ऐसा आशय समझना।
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(अनुष्टुम् ) अज्ञानमयभावानामज्ञानी व्याप्य भूमिकाम्। द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानामेति हेतुताम् ।। ६८ ।।
अण्णाणस्स स उदओ जा जीवाणं अतच्चउवलद्धी । मिच्छत्तस्स दु उदओ जीवस्स असद्दहाणत्तं ।। १३२ ।। उदओ असंजमस्स दु जं जीवाणं हवेइ अविरमणं । जो दु कलुसोवओगो जीवाणं सो कसाउदओ ।। १३३ ।। तं जाण जोगउदयं जो जीवाणं तु चिट्ठउच्छाहो । सोहणमसोहणं वा कायव्वो विरदिभावो वा ।। १३४ ।। एदेसु हेदुभूदेसु कम्मइयवग्गणागदं जं तु । परिणमदे अट्ठविहं णाणावरणादिभावेहिं ।। १३५ ।। तं खलु जीवणिबद्धं कम्मइयवग्गणागदं जइया । तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं ।। १३६ ।।
अब आगेकी गाथाका सुचक अर्थरूप श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ :- [ अज्ञानी] अज्ञानी [ अज्ञानमयभावानाम् भूमिकाम् ] ( अपने ) अज्ञानमय भावोंकी भूमिकामें [ व्याप्य ] व्याप्त होकर [ द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानाम् ] (आगामी) द्रव्यकर्मके निमित्त ( अज्ञानादि ) भावोंके [ हेतुताम् एति ] हेतुत्वको प्राप्त होता है (अर्थात् द्रव्यकर्मके निमित्तरूप भावोंका हेतु बनता है ) । ६८ ।
इसी अर्थको पाँच गाथाओं द्वारा कहते हैं:
जो तत्त्व का अज्ञान जीवके, उदय वो अज्ञानका । अप्रतीत तत्त्वकी जीवके जो, उदय वो मिथ्यात्वका ।। १३२ ।। जीवका जु अविरतभाव है, वो उदय अनसंयम हि का । जीवका कलुष उपयोग जो, वो उदय जान कषायका ।। १३३ ।। शुभ अशुभ वर्तन या निवर्तन रूप जो चेष्टा हि का । उत्साह करते जीवके, वो उदय जानो योगका ।। १३४ ।। जब होय हेतुभूत ये तब स्कंध जो कार्माणके । वे अष्टविध ज्ञानावरणइत्यादिभावों परिणमे ।। १३५ ।। कार्मणवरगणारूप वे जब, बंध पावें जीव में । आत्माहि जीव परिणाम भावोंका तभी हेतु बने ।। १३६ ।।
२०७
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समयसार
२०८
अज्ञानस्य स उदयो या जीवानामतत्त्वोपलब्धिः। मिथ्यात्वस्य तूदयो जीवस्याश्रद्दधानत्वम्।। १३२ ।। उदयोऽसंयमस्य तु यज्जीवानां भवेदविरमणम्। यस्तु कलुषोपयोगो जीवानां स कषायोदयः।। १३३ ।। तं जानीहि योगोदयं यो जीवानां तु चेष्टोत्साहः। शोभनोऽशोभनो वा कर्तव्यो विरतिभावो वा।। १३४ ।। एतेषु हेतुभूतेषु कार्मणवर्गणागतं यत्तु :। परिणमतेऽष्टविधं ज्ञानावरणादिभावैः।। १३५ ।। तत्खलु जीवनिबद्धं कार्मणवर्गणागतं यदा। तदा तु भवति हेतु वः परिणामभावानाम्।।१३६ ।।
गाथार्थ:- [जीवानाम् ] जीवोंके [ या] जो [ अतत्त्वोपलब्धिः ] तत्त्वका अज्ञान है (-वस्तुस्वरूपसे अयथार्थ-विपरीतज्ञान) [ सः] वह [अज्ञानस्य] अज्ञानका [ उदयः ] उदय है [तु] और [ जीवस्य ] जीवके [ अश्रद्दधानत्वम् ] जो (तत्त्वका) अश्रद्धान है वह [ मिथ्यात्वस्य ] मिथ्यात्वका [ उदयः ] उदय है; [ तु] और [ जीवानां] जीवोंके [ यद् ] जो [ अविरमणम् ] अविरमण अर्थात् अत्यागभाव है वह [ असंयमस्य] असंयमका [ उदयः] उदय [भवेत् ] है [ तु] और [ जीवानां] जीवोंके [ यः] जो [ कलुषोपयोगः] मलिन (ज्ञातृत्वकी स्वच्छतासे रहित) उपयोग है [ सः] वह [ कषायोदयः ] कषायका उदय है; [ तु] तथा [ जीवानां] जीवोंके [ यः ] जो [ शोभन: अशोभन: वा] शुभ या अशुभ [ कर्तव्यः विरतिभावाः वा] प्रवृत्ति या निवृत्तिरूप [ चेष्टोत्साहः ] ( मनवचनकाया-आश्रित) चेष्टाका उत्साह है [ तं] उसे [ योगोदयं | योगका उदय [ जानीहि ] जानो।
[ एतेषु ] इनको ( उदयोंको) [ हेतुभूतेषु ] हेतुभूत होनेपर [ यत् तु] जो [ कार्मणवर्गणागतं] कार्मणवर्गणागत (कार्मणवर्गणारूप) पुद्गलद्रव्य [ ज्ञानावरणादिभावै: अष्टविधं] ज्ञानावरणादिभावरूपसे आठ प्रकार [परिणमते] परिणमता है, [ तत् कार्मण-वर्गणागतं] वह कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य [ यदा] जब [ खलु ] वासतवमें [ जीवनिबद्धं ] जीवमें बँधता है [ तदा तु] तब [जीवः ] जीव [ परिणामभावानाम् ] ( अपने अज्ञानमय) परिणामभावोंका [ हेतु:] हेतु [ भवति] होता
है।
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कर्ता-कर्म अधिकार
२०९
अतत्त्वोपलब्धिरूपेण ज्ञाने स्वदमानो अज्ञानोदयः। मिथ्यात्वासंयमकषाययोगोदया: कर्महेतवस्तन्मयाश्चत्वारो भावाः। तत्त्वाश्रद्धानरूपेण ज्ञाने स्वदमानो मिथ्यात्वोदयः, अविरमणरूपेण ज्ञाने स्वदमानोऽसंयमोदयः, कलुषोपयोगरूपेण ज्ञाने स्वदमानः कषायोदयः, शुभाशुभप्रवृत्तिनिवृत्तिव्यापाररूपेण ज्ञाने स्वदमानो योगोदयः। अथैतेषु पौद्गलिकेषु मिथ्यात्वाद्युदयेषु हेतुभूतेषु यत्पुद्गलद्रव्यं कर्मवर्गणागतं ज्ञानावरणादिभावैरष्टधा स्वयमेव परिणमते तत्खलु कर्मवर्गणागतं जीवनिबद्धं यदा स्यात्तदा जीव: स्वयमेवाज्ञानात्परात्मनोरेकत्वाध्यासेनाज्ञानमयानां तत्त्वाश्रद्धानादीनां स्वस्य परिणामभावानां हेतुर्भवति।
टीका:-तत्त्वके अज्ञानरूपसे (वस्तुस्वरूपकी अन्यथा उपलब्धिरूपसे) ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ अज्ञानका उदय है। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगके उदय-जो कि (नवीन) कर्मोंके हेतु हैं वे अज्ञानमय चार भाव हैं। तत्त्वके अश्रद्धानरूपसे ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ मिथ्यात्वका उदय है; अविरमणरूपसे (अत्यागभावरूपसे) ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ असंयमका उदय है; कलुष ( मलिन) उपयोगरूपसे ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ कषायका उदय है; शुभाशुभ प्रवृत्ति या निवृत्तिके व्यापाररूपसे ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ योगका उदय है। यह पौद्गलिक मिथ्यात्वादिके उदय हेतुभूत होनेपर जो कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादिभावसे आठ प्रकार स्वयमेव परिणमता है, वह कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य जब जीवमें निबद्ध होवे तब जीव स्वयमेव अज्ञानसे स्वपरके एकत्वके अध्यासके कारण तत्त्वअश्रद्धान आदि अपने अज्ञानमय परिणामभावोंका हेतु होता है।
भावार्थ:-अज्ञानभावके भेदरूप जो मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगके उदय पुद्गलके परिणाम हैं और उनका स्वाद अतत्त्वश्रद्धानादिरूपसे ज्ञानमें आता है। वे उदय निमित्तभूत होनेपर, कार्मणवर्गणारूप नवीन पुद्गल स्वयमेव ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमते हैं और जीव के साथ बँधते हैं; और उस समय जीव भी स्वयमेव अपने अज्ञानभावसे अतत्त्वश्रद्धानादि भावरूप परिणमता है और इसप्रकार अपने अज्ञानमय भावोंका कारण स्वयं ही होता है।
मिथ्यात्वादिका उदय होना, नवीन पुद्गलोंका कर्मरूप परिणमना तथा बँधना, और जीवका अपने अतत्त्वश्रद्धानादि भावरूप परिणमना-यह तीनों ही एक समयमें ही होते हैं; सब स्वतंत्रतया अपने आप ही परिणमते हैं, कोई किसीका परिणमन नहीं कराता।
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समयसार
२१०
जीवात्पृथग्भूत एव पुद्गलद्रव्यस्य परिणामः
जइ जीवेण सह चिय पोग्गलदव्वस्स कम्मपरिणामो। एवं पोग्गलजीवा ह दो वि कम्मत्तमावण्णा।। १३७ ।। एक्कस्स दु परिणामो पोग्गलदव्वस्स कम्मभावेण। ता जीवभावहेदूहिं विणा कम्मस्स परिणामो।।१३८ ।।
यदि जीवेन सह चैव पुद्गलद्रव्यस्य कर्मपरिणामः। एवं पुद्गलजीवौ खलु द्वावपि कर्मत्वमापन्नौ।। १३७ ।। एकस्य त परिणामः पदलद्रव्यस्य कर्मभावेन। तज्जीवभावहेतुभिर्विना कर्मणः परिणामः ।। १३८ ।।
यदि पुद्गलद्रव्यस्य तन्निमित्तभूतरागाद्यज्ञानपरिणामपरिणतजीवेन सहैव कर्मपरिणामो भवतीति वितर्कः,
अब यह प्रतिपादन करते है कि पुद्गलद्रव्यका परिणाम जीव से भिन्न ही है:
जो कर्मरूप परिणाम , जीवके साथ पुद्गलका बने । तो जीव अरु पुद्गल उभय ही, कर्मपन पावें अरे! ।। १३७।। पर कर्मभावों परिणमन है, एक पुद्गलद्रव्यके । जीवभावहेतुसे अलग, तब, कर्मके परिणाम हैं ।। १३८ ।।
गाथार्थ:- [ यदि] यदि [ पुद्गलद्रव्यस्य ] पुद्गलद्रव्यका [ जीवेन सह चैव] जीवके साथ ही [ कर्मपरिणामः ] कर्मरूप परिणाम होता है (अर्थात् दोनों मिलकर ही कर्मरूपसे परिणाम होता है) ऐसा मानाजाये तो [ एवं ] इसप्रकार [ पुद्गलजीवौ द्वौ अपि] पुद्गल और जीवद्रव्य दोनों [ खलु] वास्तवमें [ कर्मत्वम् आपन्नौ ] कर्मत्वको प्राप्त हो जायें। [ तु] परंतु [ कर्मभावेन] कर्मभावसे [ परिणामः ] परिणाम तो [ पुद्गगलद्रव्यस्य एकस्य ] पुद्गलद्रव्यके एकके ही होता है [ तत्] इसलिये [ जीवभावहेतुभिः विना] जीवभावरूप निमित्तसे रहित ही अर्थात् भिन्न ही [कर्मण:] कर्मका [ परिणामः ] परिणाम है।
टीका:-यदि पुद्गलद्रव्यके, कर्मपरिणामके निमित्तभूत ऐसे रागादिअज्ञानपरिणासे परिणत जीवके साथ ही ( अर्थात् दोनों मिलकर ही), कर्मरूप परिणाम होता है-ऐसा तर्क उपस्थित किया जाये तो,
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कर्ता-कर्म अधिकार
२११
तदा पुद्गलद्रव्यजीवयोः सहभूतहरिद्रासुधयोरिव द्वयोरपि कर्मपरिणामापत्तिः। अथ चैकस्यैव पुद्गलद्रव्यस्य भवति कर्मत्वपरिणामः, ततो रागादिजीवाज्ञानपरिणामाद्धेतो: पृथग्भूत एव पुद्गलकर्मणः परिणामः।
पुद्गलद्रव्यात्पृथग्भूत एव जीवस्य परिणाम:
जीवस्स दु कम्मेण य सह परिणामा हु होति रागादी। एवं जीवो कम्मं च दो वि रागादिमावण्णा।।१३९ ।। एक्कस्स दु परिणामो जायदि जीवस्स रागमादीहिं। ता कम्मोदयहेदूहिं विणा जीवस्स परिणामो।। १४० ।। जीवस्य तु कर्मणा च सह परिणामाः खलु भवन्ति रागादयः। एवं जीवः कर्म च द्वे अपि रागादित्वमापन्ने।। १३९ ।।
जैसे मिली हुई फिटकरी और हल्दीका-दोनोंका लाल रंगरूप परिणाम होता है उसीप्रकार, पुद्गल और जीवद्रव्य दोनोंके कर्मरूप परिणामकी आपत्ति आ जाये। परंतु एक पुद्गलद्रव्यके ही कर्मत्वरूप परिणाम तो होता है; इसलिये जीवका रागादिअज्ञानपरिणाम जो कि कर्मका निमित्त है उससे भिन्न ही पुद्गलकर्मका परिणाम है।
भावार्थ:-यदि यह माना जाये कि पुद्गलद्रव्य और जीवद्रव्य दोनों मिलकर कर्मरूप परिणमते हैं तो दोनों के कर्मरूप परिणाम सिद्ध हो। परंतु जीव तो कभी भी जड़ कर्मरूप नहीं परिणम सकता ; इसलिये जीवका अज्ञानपरिणाम जो कि कर्मका निमित्त है उससे अलग ही पुद्गलद्रव्यका कर्मपरिणाम है।
अब यह प्रतिपादन करते हैं कि जीवका परिणाम पुद्गलद्रव्यसे भिन्न ही है:
जीवके, करमके साथ ही, जो भाव रागादिक बने । तो कर्म अरु जीव उभय ही, रागादिपन पावें अरे! ।। १३९ ।। पर परिणमन रागादिरूप तो, होत है जीव एकके । इससे ही कर्मोदयनिमित्तसे, अलग जीव परिणाम है ।।१४०।।
गाथार्थ:- [ जीवस्य तु] यदि जीवके [ कर्मणा च सह] कर्मके साथ ही [ रागादयः परिणामाः] रागादि परिणाम [ खलु भवन्ति ] होते हैं (अर्थात् दोनों मिलकर रागादिरूप परिणमते हैं) ऐसा माना जाये एवं ] तो इसप्रकार [ जीवः कर्म च] जीव और कर्म [ द्वे अपि] दोनों [ रागादित्वम् आपन्ने] रागादिभावको प्राप्त हो जायें।
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समयसार
२१२
एकस्य तु परिणामो जायते जीवस्य रागादिभिः। तत्कर्मोदयहेतुभिर्विना जीवस्य परिणामः ।। १४० ।।
यदि जीवस्य तन्निमित्तभूतविपच्यमानपुद्गलकर्मणा सहैव रागाद्य-ज्ञानपरिणामो भवतीति वितर्कः, तदा जीवपुद्गलकर्मणो: सहभूतसुधाहरिद्रयोरिव द्वयोरपि रागद्यज्ञानपरिणामापत्तिः। अथ चैकस्यैव जीवस्य भवति रागाद्यज्ञानपरिणामः, ततः पुद्गलकर्मविपाकाद्धेतोः पृथग्भूतो एव जीवस्य परिणामः।
किमात्मनि बद्धस्पृष्टं किमबद्धस्पृष्टं कर्मेति नयविभागेनाह
जीवे कम्मं बद्धं पुढे चेदि ववहारणयभणिदं। सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुढे हवदि कम्मं ।।१४१ ।।
[ तु] परंतु [ रागादिभिः परिणामः ] रागादिभावसे परिणाम तो [ जीवस्य एकस्य ] जीवके एकके ही [जायते] होता है [ तत् ] इसलिये [कर्मोदयहेतुभि: विना] कर्मोदयरूप निमित्तसे रहित ही अर्थात् भिन्न ही [ जीवस्य ] जीवका [ परिणामः ] परिणाम है।
टीका:-यदि जीवके, रागादि-अज्ञानपरिणामके निमित्तभूत उदयागत पुद्गलकर्मके साथ ही (दोनों एकत्रित होकर ही), रागादि-अज्ञानपरिणाम होता हैऐसा तर्क उपस्थित किया जाये तो, जैसे मिली हुई फिटकरी और हल्दीका-दोनोंका लाल रंगरूप परिणाम होता है उसीप्रकार, जीव और पुद्गलकर्म दोनोंके रागादिअज्ञानपरिणामकी आपत्ति आ जाये, परंतु एक जीवके ही रागादि-अज्ञानपरिणाम तो होता है; इसलिये पुद्गलकर्मका उदय जो कि जीवके रागादि-अज्ञानपरिणामका निमित्त है उससे भिन्न ही जीवके परिणाम हैं।
भावार्थ:-यदि जीव और पुद्गलकर्म मिलकर रागादिरूप परिणमते हैं तो दोनोंके रागादिरूप परिणाम सिद्ध हों। किन्तु पुद्गलकर्म तो रागादिरूप (जीवरागादिरूप) कभी नहीं परिणम सकता; इसलिये पुद्गलकर्मका उदय जो कि रागादिपरिणामका निमित्त है उससे भिन्न ही जीवका परिणाम है।
अब यहाँ नयविभागसे यह कहते हैं कि 'आत्मामें कर्म बद्धस्पृष्ट है या अबद्धस्पृष्ट है':--
है कर्म जीवमें बद्धस्पृष्ट जु कथन यह व्यवहारका । पर बद्धस्पृष्ट न कर्म जीवमें-कथन है नय शुद्धका ।।१४१ ।।
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कर्ता-कर्म अधिकार
२१३
जीवे कर्म बद्धं स्पृष्टं चेति व्यवहारनयभणितम्। शुद्धनयस्य तु जीवे अबद्धस्पृष्टं भवति कर्म।। १४१ ।।
जीवपुद्गलकर्मणोरेकबन्धपर्यायत्वेन तदात्वे व्यतिरेकाभावाज्जीवे बद्धस्पृष्टं कर्मेति व्यवहारनयपक्षः। जीवपुद्गकर्मणोरनेकद्रव्यत्वेनात्यन्तव्यतिरे-काज्जीवेऽबद्धस्पृष्टं कर्मेति निश्चयनयपक्षः।
ततः किम्
कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं। पक्खादिक्कतो पूण भण्णदि जो सो समयसारो।।१४२ ।।
कर्म बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जानीहि नयपक्षम्। पक्षातिक्रान्तः पुनर्भण्यते यः स समयसारः।। १४२ ।।
गाथार्थ:- [ जीवे ] जीवमें [ कर्म ] कर्म [ बद्धं ] ( उसके प्रदेशोंके साथ ) बँधा हुआ है [च] तथा [ स्पृष्टं] स्पर्शित है [इति] ऐसा [व्यवहारनयभणितम् ] व्यवहारनयका कथन है [ तु] और [ जीवे ] जीवमें [कर्म ] कर्म [ अबद्धस्पृष्टं ] अबद्ध और अस्पर्शित [ भवति ] है ऐसा [ शुद्धनयस्य ] शुद्धनयका कथन है।
टीका:-जीवको और पुद्गलकर्मको एकबंधपर्यायपनेसे देखने पर उनमें उस कालमें भिन्नताका अभाव है इसलिये जीवमें कर्म बद्धस्पृष्ट है ऐसा व्यवहारनयका पक्ष है। जीवको तथा पुद्गलकर्मको अनेकद्रव्यपनेसे देखने पर उनमें अत्यंत भिन्नता है इसलिये जीवमें कर्म अबद्धस्पृष्ट है, यह निश्चयनयका पक्ष है। १४१ ।
किन्तु इससे क्या ? जो आत्मा उन दोनों नयपक्षोंको पार कर चुका है वही समयसार है, -ऐसा अब गाथा द्वारा कहते हैं:
है कर्म जीवमें बद्ध वा अनबद्ध ये नयपक्ष है। पर पक्षसे अतिक्रांत भाषित, वो समयका सार है ।। १४२।।
गाथार्थ:- [जीवे ] जीवमें [ कर्म] कर्म [ बद्धम् ] बद्ध है अथवा [ अबद्धं ] अबद्ध है- [ एवं तु] इसप्रकार तो [ नयपक्षम् ] नयपक्ष [ जानीहि ] जानो; [ पुन:] किन्तु [यः] जो [पक्षातिक्रान्तः] पक्षातिक्रांत (पक्षको उल्लंघन करने वाला) [ भण्यते ] कहलाता है [ सः ] वह [ समयसारः] समयसार ( अर्थात् निर्विकल्प शुद्ध आत्मतत्त्व) है।
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२१४
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समयसार
नयपक्षः।
यः किल जीवे बद्धं कर्मेति यश्च जीवेऽबद्धं कर्मेति विकल्पः स द्वितयोऽपि हि य एवैनमतिक्रामति स एव सकलविकल्पातिक्रान्तः स्वयं निर्विकल्पैकविज्ञानघनस्वभावो भुत्वा साक्षात्समयसार : सम्भवति । तत्र यस्तावज्जीवे बद्धं कर्मेति विकल्पयति स जीवेऽबद्धं कर्मेति एकं पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिक्रामतिः यस्तु जीवेऽबद्धं कर्मेति विकल्पयति सोऽपि जीवे बद्धं कर्मेत्येकं पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिक्रामति; यः पुनर्जीवे बद्धमबद्धं च कर्मेति विकल्पयति स तु तं द्वितयमपि पक्षमनतिक्रामन् न विकल्पमतिक्रामति । ततो य एव समस्तनयपक्षमतिक्रामति स एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति । य एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति स एव समयसारं विन्दति ।
यद्येवं तर्हि को हि नाम नयपक्षसन्नयासभावनां न नाटयति ?
टीका:-' जीवमें कर्म बद्ध है' ऐसा जो विकल्प तथा 'जीवमें कर्म अबद्ध है' ऐसा जो विकल्प वह दोनों नयपक्ष हैं। जो उस नयपक्षका अतिक्रम करता है (−उसे उल्लंघन कर देता है, छोड़ देता है), वही समस्त विकल्पोंका अतिक्रम करके स्वयं निर्विकल्प, एक विज्ञानघनस्वभावरूप होकर साक्षात् समयसार होता है। यहाँ (विशेष समझाया जाता है कि ) - जो जीवमें कर्म बद्ध है' ऐसा विकल्प करता है वह — जीवमें कर्म अबद्ध है' ऐसा एक पक्षका अतिक्रम करता हुआ भी विकल्पका अतिक्रम नहीं करता, और जो जीवमें कर्म अबद्ध है' ऐसा विकल्प करता है वह भी 'जीवमें कर्म बद्ध है' ऐसे एक पक्षका अतिक्रम करता हुआ भी विकल्पका अतिक्रम नहीं करता; और जो यह विकल्प करता है कि 'जीवमें कर्म बद्ध है और अबद्ध भी है', वह दोनों पक्षका अतिक्रम न करता हुआ, विकल्पका अतिक्रम नहीं करता। इसलिये जो समस्त नयपक्षका अतिक्रम करता है वहीं समस्त विकल्पका अतिक्रम करता है; जो समस्त विकल्पका अतिक्रम करता है वही समयसारको प्राप्त करता है - उसका अनुभव करता है।
•
भावार्थ:-जीव कर्मसे 'बँधा हुआ है' तथा ' नहीं बंधा हुआ है ' - यह दोनों नयपक्ष हैं। उनमेंसे किसीने बंधपक्ष ग्रहण किया, उसने विकल्प ही ग्रहण किया; किसीने अबंधपक्ष लिया, तो उसने भी विकल्प ही ग्रहण किया; और किसीने दोनों पक्ष लिये, तो उसने भी पक्षरूप विकल्पका ही ग्रहण किया । परंतु ऐसे विकल्पोंको छोड़कर जो किसी भी पक्षको ग्रहण नहीं करता वही शुद्ध पदार्थका स्वरूप जानकर उस-रूप समयसारको - शुद्धात्माको प्राप्त करता है। नयपक्षको ग्रहण करना राग है, इसलिये समस्त नयपक्षको छोड़नेसे वीतराग समयसार हुआ जाता है।
अब, यदि ऐसा है तो नयपक्षके त्यागकी भावनाको वास्तवमें कौन नहीं
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कर्ता-कर्म अधिकार
२१५
(उपेन्द्रवज्त्रा) य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम्। विकल्पजालच्युतशान्तचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति।।६९ ।।
(उपजाति) एकस्य बद्धो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७० ।।
नचायेगा ? ऐसा कहकर श्री अमृतचंद्रआचार्यदेव नयपक्षके त्यागकी भावना वाले २३ कलशरूप काव्य कहते हैं :--
श्लोकार्थ:- [ये एव ] जो [ नयपक्षपातं मुक्त्वा] नयपक्षपातको छोड़कर [ स्वरूपगुप्ताः ] ( अपने) स्वरूपमें गुप्त होकर [ नित्यम् ] सदा [ निवसन्ति ] निवास करते हैं [ ते एव ] वे ही, [ विकल्पजालच्युतशान्तचित्ताः ] जिनका चित्त विकल्पजालसे रहित शांत हो गया है ऐसे होते हुए, [ साक्षात् अमृतं पिबन्ति ] साक्षात् अमृतका पान करते हैं।
भावार्थ:-जबतक कुछ भी पक्षपात रहता है तबतक चित्तका क्षोभ नहीं मिटता। जब नयोंका सब पक्षपात दूर हो जाता है तब वीतराग दशा होकर स्वरूपकी श्रद्धा निर्विकल्प होती है, स्वरूपमें प्रवृत्ति होती है और अतीन्द्रिय सुखका अनुभव होता है। ६९।
अब २० कलशों द्वारा नयपक्षका विशेष वर्णन करते हुए कहते हैं कि जो ऐसे समस्त नयपक्षोंको छोड़ देता है वह तत्त्ववेत्ता (तत्त्वज्ञानी) स्वरूपको प्राप्त करता
है:
श्लोकार्थ:- [बद्धः ] जीव कर्मोंसे बंधा हुआ है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [ न तथा ] और नहीं बँधा हुआ है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातो] दो पक्षपात हैं। [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता ( वस्तुस्वरूपका ज्ञाता) पक्षपातरहित हैं [ तस्य ] उसे [ नित्यं] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है (अर्थात् उसे चित्स्वरूप जीव जैसा है वैसा ही निरंतर अनुभवमें आता है)।
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समयसार
२१६
(उपजाति) एकस्य मूढो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७१ ।।
(उपजाति) एकस्य रक्तो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७२ ।।
भावार्थ:-इस ग्रंथमें प्रथमसे ही व्यवहारनयनको गौण करके और शुद्धनयको मुख्य करके कथन किया गया है। चैतन्यके परिणाम परनिमित्तसे अनेक होते है उन सबको आचार्यदेव पहलेसे ही गौण कहते आये हैं और उन्होंने जीवको शुद्ध चैतन्यमात्र कहा है। इसप्रकार जीव-पदार्थको शुद्ध, नित्य, अभेद चैतन्यमात्र स्थापित करके अब कहते हैं कि-जो शुद्धनयका भी पक्षपात (विकल्प) करेगा वह भी उस शुद्ध स्वरूपके स्वादको प्राप्त नहीं करेगा। अशद्धनयकी तो बात ही क्या है ? किन्त यदि कोई शुद्धनयका भी पक्षपात करेगा तो पक्षका राग नहीं मिटेगा इसलिये वीतरागता प्रगट नहीं होगी। पक्षपातको छोड़कर चिन्मात्र स्वरूपमें लीन होनेपर ही समयसारको प्राप्त किया जाता है। इसलिये शुद्धनयको जानकर, उसका भी पक्षपात छोड़कर शुद्ध स्वरूपका अनुभव करके, स्वरूप में प्रवृत्तिरूप चारित्र प्राप्त करके, वीतराग दशा प्राप्त करनी चाहिये। ७०।
श्लोकार्थ:- [ मूढः ] जीव मूढ़ ( मोही) है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा] वह मूढ़ नहीं है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ] दो पक्षपात हैं। [ यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य] उसे [ नित्यं] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ( अर्थात् उसे चित्स्वरूप जीव जैसा है वैसा ही निरंतर अनुभवमें आता है)। ७१।
श्लोकार्थ:- [ रक्तः] जीव रागी है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है, और [न तथा] वह रागी नहीं है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति ] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [ द्वयोः ] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ] दो पक्षपात हैं। [ यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव
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( उपजाति) एकस्य दुष्टो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।। ७३ ।। ( उपजाति)
एकस्य कर्ता न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।। ७४ ।। ( उपजाति)
एकस्य भोक्ता न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव।। ७५ ।।
२१७
[ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है । ७२।
श्लोकार्थ :- [ दुष्टः ] जीव द्वेषी है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव द्वेषी नहीं है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [ इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [ द्वयोः ] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं। [ यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं ] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है । ७३ ।
श्लोकार्थ :- [ कर्ता ] जीव कर्ता है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव कर्ता नहीं है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [ इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [ द्वयोः ] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [ य: तत्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं ] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है । ७४ ।
श्लोकार्थ :- [ भोक्ता ] जीव भोक्ता
[ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव भोक्ता नहीं है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [ इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [ द्वयोः ] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं। [ यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे
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समयसार
२१८
( उपजाति) एकस्य जीवो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव।। ७६ ।।
(उपजाति) एकस्य सूक्ष्मो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७७ ।।
(उपजाति) एकस्य हेतुर्न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव।। ७८ ।।
[नित्यं ] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है। ७५।
श्लोकार्थ:- [ जीवः ] जीव जीव है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा] जीव जीव नहीं है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [ इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [ द्वयोः ] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं। [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है। ७६।
श्लोकार्थ:- [ सूक्ष्मः ] जीव सूक्ष्म है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा] जीव सूक्ष्म नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [ द्वयोः] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ] दो पक्षपात हैं। [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं ] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है। ७७।
श्लोकार्थ:- [ हेतुः ] जीव हेतु (कारण) है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [ न तथा ] जीव हेतु (कारण) नहीं [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ] दो पक्षपात हैं। [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात: ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं ] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव
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कर्ता-कर्म अधिकार
२१९
(उपजाति) एकस्य कार्यं न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७९ ।।
(उपजाति) एकस्य भावो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८० ।।
(उपजाति) एकस्य चेको न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८१ ।।
[ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है। ७८ ।
श्लोकार्थ:- [ कार्य] जीव कार्य है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा] जीव कार्य नहीं है [ परस्य] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [ द्वयोः] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं। [ यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है। ७९।
श्लोकार्थ:- [ भावः ] जीव भाव है ( अर्थात् भावरूप है ) [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव भाव नहीं है ( अर्थात् अभावरूप है) [ परस्य] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ] दो पक्षपात हैं। [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है। ८०।
श्लोकार्थ:- [एक: ] जीव एक है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है [च] और [न तथा ] जीव एक नहीं है ( –अनेक है) [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं। [ यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात:] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं ] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव
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समयसार
२२०
(उपजाति) एकस्य सान्तो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८२ ।।
(उपजाति) एकस्य नित्यो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८३ ।।
(उपजाति) एकस्य वाच्यो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८४ ।।
[ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है। ८१।
श्लोकार्थ:- [ सान्तः] जीव सांत (-अंत सहित) है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव सांत नहीं [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ] दो पक्षपात हैं। [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात:] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं ] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है। ८२।
श्लोकार्थ:- [ नित्यः ] जीव नित्य है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा] जीव नित्य नहीं [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ] दो पक्षपात हैं। [ यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं ] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है। ८३।।
श्लोकार्थ:- [ वाच्यः ] जीव वाच्य ( अर्थात् वचनसे कहा जा सके ऐसा) है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा] जीव वाच्य (-वचनगोचर) नहीं है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ] दो पक्षपात हैं। [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है
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कर्ता-कर्म अधिकार
२२१
(उपजाति) एकस्य नाना न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८५ ।।
(उपजाति) एकस्य चेत्यो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८६ ।।
(उपजाति) एकस्य दृश्यो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८७ ।। [ तस्य ] उसे [ नित्यं ] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है। ८४।
श्लोकार्थ:- [ नाना ] जीव नानारूप है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव नानारूप नहीं है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [ द्वयोः ] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ] दो पक्षपात हैं। [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं ] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है। ८५।
श्लोकार्थ:- [चेत्यः] जीव चेत्य (-जाननेयोग्य ) है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [ न तथा] जीव चेत्य नहीं है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ] दो पक्षपात हैं। [ यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य] उसे [ नित्यं ] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है। ८६।।
श्लोकार्थ:- [दृश्यः] जीव दृश्य (-देखनेयोग्य ) है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव दृश्य नहीं है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [ इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं।
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समयसार
२२२
(उपजाति) एकस्य वेद्यो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८८ ।।
(उपजाति) एकस्य भातो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८९ ।।
[ यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य] उसे [ नित्यं] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है। ८७।
श्लोकार्थ:- [ वेद्यः ] जीव वेद्य ( –वेदनेयोग्य, ज्ञातहोनेयोग्य ) है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [ न तथा] जीव वेद्य नहीं है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं। [ यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [ खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है। ८८।।
श्लोकार्थ:- [भातः ] जीव 'भात' (प्रकाशमान अर्थात् वर्तमान प्रत्यक्ष ) है [ एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [ न तथा ] जीव 'भात' नहीं है [ परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति] इसप्रकार [ चिति] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [ द्वौ पक्षपातौ] दो पक्षपात है। [ यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [ तस्य ] उसे [ नित्यं] निरंतर [ चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है। ८९ ।
भावार्थ:-बद्ध अबद्ध , मूढ़ अमूढ़ , रागी अरागी, द्वेषी अद्वेषी, कर्ता अकर्ता, भोक्ता अभोक्ता, जीव अजीव, सूक्ष्म स्थूल , कारण अकारण, कार्य अकार्य, भाव अभाव, एक अनेक, सान्त अनन्त, नित्य अनित्य , वाच्य अवाच्य, नाना अनाना, चेत्य अचेत्य, दृश्य अदृश्य, वेद्य अवेद्य, भात अभात इत्यादि नयोंके पक्षपात हैं। जो पुरुष नयोंके कथनानुसार यथायोग्य विवक्षापूर्वक तत्त्वका-वस्तुस्वरूपका निर्णय करके नयोंके पक्षपातको छोड़ता है उसे चित्स्वरूप जीवका चित्स्वरूप अनुभव होता है।
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कर्ता-कर्म अधिकार
२२३
( वसन्ततिलका) स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजालामेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम्। अन्तर्बहिः समरसैकरसस्वभावं स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम्।।९० ।।
( रथोद्धता) इन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत् पुष्कलोचलविकल्पवीचिभिः। यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः।। ९१ ।।
पक्षातिक्रान्तस्य किं स्वरूपमिति चेत्
जीवमें अनेक साधारण धर्म हैं परंतु चित्स्वभाव उसका प्रगट अनुभवगोचर असाधारण धर्म है इसलिये उसे मुख्य करके यहाँ जीवको चित्स्वरूप कहा है। ८९ ।
अब उपरोक्त २० कलशोंके कथनका उपसंहार करते हैं:
श्लोकार्थ:- [एवं] इसप्रकार [ स्वेच्छा-समुच्छलद्-अनल्प-विकल्पजालाम् ] जिसमें बहुतसे विकल्पोंका जाल अपने आप उठता है ऐसी [ महतीं] बड़ी [नयपक्षकक्षाम् ] नयपक्षकक्षाको (नपपक्षकी भूमिको) [व्यतीत्य] उल्लंघन करके (तत्त्ववेत्ता) [अन्तः बहिः] भीतर और बाहर [ समरसैकरसस्वभावं] समता-रसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है ऐसे [ अनुभूतिमात्रम् एकम् स्वं भावम् ] अनुभूतिमात्र एक अपने भावको (-स्वरूपको) [ उपयाति ] प्राप्त करता है। ९०।
अब नयपक्षकी त्यागकी भावनाका अन्तिम काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ पुष्कल-उत्-चल-विकल्प-वीचिभिः उच्छलत् ] विपुल , महान, चंचल विकल्परूपी तरंगोंके द्वारा उड़ते हुए [ इदम् एवम् कृत्स्नम् इन्द्रजालम् ] इस समस्त इंद्रजालको [ यस्य विस्फुरणम् एव ] जिसका स्फुरण मात्र ही [ तत्क्षणं ] तत्क्षण [अस्यति] उड़ा देता है [ तत् चिन्महः अस्मि ] वह चिन्मात्र तेजःपुंज मैं हूँ।
भावार्थ:-चैतन्यका अनुभव होनेपर समस्त नयोंका विकल्परूपी इंद्रजाल उसी क्षण ही विलय को प्राप्त होता है; ऐसा चित्प्रकाश मैं हूँ। ९१ । 'पक्षातिक्रान्तका स्वरूप क्या है ?'-इसके उत्तरस्वरूप गाथा कहते हैं:
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समयसार
२२४
दोण्ह वि णयाण भणिदं जाणदि णवरं तु समयपडिबद्धो। ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचि वि णयपक्खपरिहीणो।।१४३ ।।
द्वयोरपि नययोर्भणितं जानाति केवलं तु समयप्रतिबद्धः। न तु नयपक्षं गृह्णाति किञ्चिदपि नयपक्षपरिहीनः।। १४३ ।।
यथा खलु भगवान्केवली श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः विश्वसाक्षितया केवलं स्वरूपमेव जानाति, न तु सततमुल्लसितसहजविमलसकलकेवलज्ञानतया नित्यं स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात् श्रुतज्ञानभूमिकाति-क्रान्ततया समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात् कञ्चनापि नयपक्षं परिगृह्णाति, तथा किल य: श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः
क्षयोपशमविजृम्भितश्रुतज्ञानात्मकविकल्पप्रत्युद्गमनेऽपि परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौत्सुक्यतया स्वरूपमेव केवलं जानाति, न तु खरतरदृष्टिगृहीतसुनिस्तुषनित्योदितचिन्मयसमयप्रतिबद्धतया तदात्वे स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात् श्रुतज्ञानात्मकसमस्तान्तर्बहिर्जल्परूपविकल्पभूमिकातिक्रान्ततया
नयद्वयकथन जाने हि केवल समयमें प्रतिबद्ध जो। नयपक्ष कुछ भी नहिं ग्रहे, नयपक्षसे परिहीन वो ।।१४३।।
गाथार्थ:- [ नयपक्षपरिहीनः ] नयपक्षसे रहित जीव, [ समयप्रतिबद्धः ] समयसे प्रतिबद्ध होता हुआ ( अर्थात् चित्स्वरूप आत्माका अनुभव करता हुआ), [द्वयोः अपि] दोनों ही [ नययोः ] नयोंके [ भणितं ] कथनको [ केवलं तु] मात्र [ जानाति ] जानता ही है [ तु] परंतु [ नयपक्षं] नयपक्षको [ किञ्चित् अपि] किंचित्मात्र भी [ न गृह्णाति] ग्रहण नहीं करता।
टीका:-जैसे केवली भगवान, विश्वके साक्षीपनके कारण, श्रुतज्ञानके अवयवभूत व्यवहारनिश्चयनयपक्षोंके स्वरूपको ही मात्र जानते हैं परंतु, निरंतर प्रकाशमान, सहज, विमल, सकल केवलज्ञान के द्वारा सदा स्वयं ही विज्ञानघन हुआ होनेसे, श्रुतज्ञानकी भूमिकाकी अतिक्रान्तताके द्वारा (अर्थात् श्रुतज्ञानकी भूमिकाको पार कर चुकनेके कारण) समस्त नयपक्षके ग्रहणसे दूर हुवे होनेसे, किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करते, इसीप्रकार जो (श्रुतज्ञानी आत्मा), क्षयोपशमसे जो उत्पन्न होते हैं ऐसे श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उत्पन्न होनेपर भी परका ग्रहण करने के प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होने से, श्रुतज्ञानके अवयवभूत व्यवहारनिश्चयनयपक्षोंके स्वरूपको ही केवल जानते हैं परंतु, अति तीक्ष्ण ज्ञानदृष्टिसे ग्रहण किये गये निर्मल , नित्य-उदित, चिन्मय समयसे प्रतिबद्धता के द्वारा (अर्थात् चैतन्यमय आत्माके अनुभवन द्वारा) अनुभव के समय स्वयं ही विज्ञानघन हुवे होनेसे, श्रुतज्ञानात्मक समस्त अंतर्जल्परूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पोंकी भूमिकाकी अतिक्रान्तताके द्वारा
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कर्ता-कर्म अधिकार
२२५
समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात्कञ्चनापि नयपक्षं परिगृह्णाति, स खलु निखिलविकल्पेभ्यः परतरः परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्याति - रूपोऽनुभूतिमात्रः समयसारः।
(स्वागता) चित्स्वभावभरभावितभावाभावभावपरमार्थतयैकम्। बन्धपद्धतिमपास्य समस्तां चेतये समयसारमपारम्।। ९२ ।।
पक्षातिक्रान्त एव समयसार इत्यवतिष्ठते
समस्त नयपक्षके ग्रहणसे दूर हुवे होनेसे, किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करता, वह (आत्मा) वास्तवमें समस्त विकल्पोंसे अति पर, परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप अनुभूतिमात्र समयसार है।
भावार्थ:-जैसे केवली भगवान सदा नयपक्षके स्वरूपके साक्षी (ज्ञाताद्रष्टा) है उसीप्रकार श्रुतज्ञानी भी जब समस्त नयपक्षोंसे रहित होकर शुद्ध चैतन्यमात्र भावका अनुभवन करते हैं तब वे नयपक्षके स्वरूपके ज्ञाता ही हैं, यदि एक नयका सर्वथा पक्ष ग्रहण किया जाये तो मिथ्यात्वके साथ मिला हुआ राग होता है; प्रयोजनवश एक नयको प्रधान करके उसका ग्रहण करे तो मिथ्यात्वके अतिरिक्त मात्र चारित्रमोहका राग रहता है; और जब नयपक्षको छोड़कर वस्तुस्वरूपको मात्र जानते ही हैं तब उस समय श्रुतज्ञानी भी केवलीकी भाँति वीतराग जैसे ही होते हैं ऐसा जानना।
अब इस कलश में यह कहते हैं कि वह आत्मा ऐसा अनुभव करता है:
श्लोकार्थ:- [ चित्स्वभाव-भर-भावित-भाव-अभाव-भाव-परमार्थतया एकम् ] चित्स्वभावके पुंज द्वारा ही अपने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य किये जाते हैं, ऐसा जिसका परमार्थ स्वरूप है इसलिये जो एक है ऐसे [ अपारम् समयसारम् ] अपार समयसारको मैं, [ समस्तां बन्धपद्धतिम् ] समस्त बंधपद्धतिको [ अपास्य] दूर करके अर्थात् कर्मोदयसे होनेवाले सर्व भावोंको छोड़कर, [ चेतये ] अनुभव करता हूँ।
भावार्थ:-निर्विकल्प अनुभव होनेपर, जिसके केवलज्ञानादि गुणोंका पार नहीं है ऐसे समयसाररूपी परमात्माका अनुभव ही वर्तता है। मैं अनुभव करता हूँ' ऐसा भी विकल्प नहीं होता-ऐसा जानना। ९२ ।
अब यह कहते हैं कि नियमसे यह सिद्ध है कि पक्षातिक्रांत ही समयसार है:
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समयसार
२२६
सम्मइंसणणाणं एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं। सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो।। १४४ ।।
सम्यग्दर्शनज्ञानमेष लभत इति केवलं व्यपदेशम्। सर्वनयपक्षरहितो भणितो यः स समयसारः।। १४४ ।।
अयमेक एव केवलं सम्यग्दर्शनज्ञानव्यपदेशं किल लभते। यः खल्वखिलनयपक्षाक्षुण्णतया विश्रान्तसमस्तविकल्पव्यापारः स समयसारः। यतः प्रथमतः श्रुतज्ञानावष्टम्भेन ज्ञानस्वभावमात्मानं निश्चित्य, ततः खल्वात्मख्यातये, परख्यातिहेतूनखिलाएवेन्द्रियानिन्द्रियबुद्धीरवधार्य आत्मा-भिमुखीकृतमतिज्ञानतत्त्वः, तथा नानाविधनयपक्षालम्बनेनानेकविकल्पै-राकुलयन्ती: श्रुतज्ञानबुद्धीरप्यवधार्य श्रुतज्ञानतत्त्वमप्पात्माभिमुखीकुर्वन्नत्य-न्तमविकल्पो भूत्वा झगित्येव स्वरसत एव व्यक्तीभवन्तमादिमध्यान्तविमुक्तम-नाकुलभेकं केवलमखिलस्यापि विश्वस्योपरि
सम्यक्त्व और सुज्ञानकी, जिस एकको संज्ञा मिले । नयपक्ष सकल विहीन भाषित, वो समयका सार है ।।१४४।।
गाथार्थ:- [यः] जो [ सर्वनयपक्षरहितः] सर्व नयपक्षोंसे रहित [ भणितः] कहा गया है [ सः] वह [ समयसार:] समयसार है; [ एषः] इसी (-समयसारको ही) [ केवलं] केवल [ सम्यग्दर्शनज्ञानम् ] सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान [इति] ऐसी [ व्यपदेशम् ] संज्ञा (नाम) [ लभते ] मिलती है। (नामोंके भिन्न होने पर भी वस्तु एक ही है।)
टीका:-वास्तवमें समस्त नयपक्षोंके द्वारा खंडित न होनेसे समस्त विकल्पों का व्यापार रुक गया है, ऐसा समयसार है; वास्तवमें इस एकको ही केवल सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका नाम प्राप्त है। ( सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान समयसारसे अलग नहीं है, एक ही है।)
प्रथम, श्रुतज्ञानके अवलंबनसे ज्ञानस्वभाव आत्माका निश्चय करके, और फिर आत्माकी प्रगट प्रसिद्धिके लिये, पर पदार्थकी प्रसिद्धिकी कारणभूत इंद्रियोंद्वारा और मनके द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियोंको मर्यादामें लेकर जिसने मतिज्ञान-तत्त्वको ( - मतिज्ञानके स्वरूपको) आत्मसंमुख किया है ऐसा, तथा जो नानाप्रकारके नयपक्षोंके आलंबनसे होने वाले अनेक विकल्पोंके द्वारा आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञानकी बुद्धियोंको भी मर्यादामें लाकर श्रुतज्ञान-तत्त्वको भी आत्मसंमुख करता हुआ, अत्यंत विकल्परहित होकर, तत्काल निजरससे ही प्रगट होता हुआ, आदि-मध्य और अंत से रहित, अनाकुल , केवल एक, संपूर्ण हो विश्वपर मानों
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कर्ता-कर्म अधिकार
२२७
तरन्तमिवाखण्डप्रतिभासमयमनन्तं विज्ञानघनं परमात्मानं समयसारं विन्दन्नेवात्मा सम्यग्दृश्यते ज्ञायते च; ततः सम्यग्दर्शनं ज्ञानं च समयसार एव।
( शार्दूलविक्रीडित) आक्रामन्नविकल्पभावमचलं पक्षैर्नयानां विना सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम्। विज्ञानैकरसः स एष भगवान्पुण्यः पुराणः पुमान् ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किञ्चनैकोऽप्ययम्।। ९३ ।।
तैरता हो ऐसे अखंड प्रतिभासमय, अनंत, विज्ञानघन, परमात्मारूप समयसारका जब आत्मा अनुभव करता है तब उसी समय आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है ( अर्थात् उसकी श्रद्धाकी जाती है) और ज्ञात होता है इसलिये समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है।
भावार्थ:-पहले आत्माका आगमज्ञानसे ज्ञानस्वरूप निश्चय करके फिर इंद्रियबुद्धिरूप मतिज्ञानको ज्ञानमात्रमें ही मिलाकर, तथा श्रुतज्ञानरूपी नयोंके विकल्पोंको मिटाकर श्रुतज्ञानको भी निर्विकल्प करके, एक अखंड प्रतिभासका अनुभव करना ही 'सम्यग्दर्शन' और 'सम्यग्ज्ञान' के नामको प्राप्त करता है; सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहीं अनुभवसे भिन्न नहीं है।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [नयानां पक्षैः विना] नयोंके पक्षसे रहित, [अचलं अविकल्पभावम् ] अचल निर्विकल्पभावको [ आक्रामन् ] प्राप्त होता हुआ [ यः समयस्य सार: भाति] जो समयका (आत्माका) सार प्रकाशित करता है [ स: एष:] वह यह समयसार (शुद्ध आत्मा) - [ निभृतैः स्वयम् आस्वाद्यमान:] जो कि निभृत (निश्चल, आत्मलीन) पुरुषोंके द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान है (-अनुभव में आता है) वह[विज्ञान-एक-रस: भगवान् ] विज्ञान ही जिसका एक रस है ऐसा भगवान है, [ पुण्यः पुराणः पुमान् ] पवित्र पुराण पुरुष है; चाहे [ ज्ञानं दर्शनम् अपि अयं ] ज्ञान कहो या दर्शन वह यही ( समयसार) ही है; [ अथवा किम् ] अधिक क्या कहें ? [ यत् किञ्चन अपि अयम् एकः] जो कुछ है सो यह एक ही है ( –मात्र भिन्न भिन्न नामसे कहा जाता है)। ९३।
अब यह कहते हैं कि यह आत्मा ज्ञानसे च्युत हुआ था सो ज्ञानमें ही आ मिलता है:
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समयसार
२२८
( शार्दूलविक्रीडित) दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघाच्च्युतो दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात्। विज्ञानैकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्माहरन् आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत्।। ९४ ।।
___ (अनुष्टुभ् ) विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलम्। न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति।। ९५ ।।
श्लोकार्थ:- [ तोयवत् ] जैसे पानी अपने समूहसे च्युत होता हुआ दूर गहन वनमें बह रहा हो उसे दूरसे ही ढालवाले मार्गके द्वारा अपने समूहकी ओर बलपूर्वक मोड़ दिया जाये; तो फिर वह पानी, पानीको पानीके समूहकी तरफ खिंचता हुआ प्रवाहरूप होकर, अपने समूह में आ मिलता है; इसीप्रकार [ अयं] यह आत्मा [निज-ओधात् च्युतः ] अपने विज्ञानघनस्वभावसे च्युत होकर [ भूरि-विकल्प-जालगहने दूरं भ्राम्यन् ] प्रचुर विकल्पजालोंके गहन वनमें दूर परिभ्रमण कर रहा था उसे [ दूरात् एव] दूरसे ही [ विवेक-निम्न-गमनात् ] विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा [निज-ओधं बलात् नीतः] अपने विज्ञानघनस्वभावकी ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया; इसलिये [ तद्-एक-रसिनाम् ] केवल विज्ञानघनके ही रसिक पुरुषोंको [विज्ञानएक-रस: आत्मा] जो एक विज्ञानरसवाला ही अनुभवमें आता है ऐसा वह आत्मा, [ आत्मानम् आत्मनि एव आहरन् ] आत्माको आत्मामें खींचता हुआ अर्थात् ज्ञान ज्ञानको खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर), [ सदा गतातुगतताम् आयाति] सदा विज्ञानघनस्वभावमें आ मिलता है।
भावार्थ:-जैसे पानी, अपने पानीके निवासस्थलसे किसी मार्ग से बाहर निकलकर वनमें अनेक स्थानोंपर बह निकले; और फिर किसी ढलानवाले मार्ग द्वारा, ज्यों का त्यों अपने निवासस्थानमें आ मिले; इसीप्रकार आत्मा भी मिथ्यात्वके मार्गसे, स्वभावसे बाहर निकलकर विकल्पोंके वनमें भ्रमण करता हुआ किसी भेदज्ञानरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा स्वयं ही अपनेको खींचता हुआ अपने विज्ञानघनस्वभावमें आ मिलता है। ९४।
__ अब कर्ताकर्म अधिकारका उपसंहार करते हुए, कुछ कलशरूप काव्य कहते हैं; उनमेंसे प्रथम कलशमें कर्ता और कर्मका संक्षिप्त स्वरूप कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ विकल्पकः परं कर्ता] विकल्प करनेवाला ही केवल कर्ता है और [ विकल्पः केवलम् कर्म ] विकल्प ही केवल कर्म है; ( अन्य कोई कर्ता-कर्म नहीं है;) [ सविकल्पस्य ] जो जीव विकल्पसहित है उसका [ कर्तृकर्मत्वं] कर्ताकर्मपना [जातु] कभी [ नश्यति न] नष्ट नहीं होता।
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कर्ता-कर्म अधिकार
२२९
( रथोद्धता) यः करोति स करोति केवलं यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलम्। यः करोति न हि वेत्ति स क्वचित यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित्।। ९६ ।।
(इन्द्रवज्त्रा) ज्ञप्तिः करोतौ न हि भासतेऽन्तः ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः। ज्ञप्तिः करोतिश्च ततो विभिन्ने ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च।। ९७ ।।
भावार्थ:-जबतक विकल्पभाव है तबतक कर्ताकर्मभाव है; जब विकल्पका अभाव हो जाता है तब कर्ताकर्मभावका भी अभाव हो जाता है। ९५ ।
अब कहते हैं कि जो करता है सो करता ही है, और जो जानता है सो जानता ही है:
श्लोकार्थ:- [ यः करोति सः केवलं करोति ] जो करता है सो मात्र करता ही है [ तु] और [ यः वेत्ति सः तु केवलम् वेत्ति ] जो जानता है सो मात्र जानता ही है; [ यः करोति सः क्वचित् न हि वेत्ति ] जो करता है वह कभी जानता नहीं [ तु] और [ यः वेत्ति सः क्वचित् न करोति] जो जानता है वह कभी करता नहीं।
भावार्थ:-जो कर्ता है वह ज्ञाता नहीं और जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं। ९६ । इसप्रकार अब यह कहते हैं कि करने और जाननेरूप दोनों क्रियाएँ भिन्न ही
श्लोकार्थ:- [ करोतौ अन्तः ज्ञप्ति: न हि भासते] करनेरूप क्रियासे भीतर जाननेरूप क्रिया भासित नहीं होती [च] और [ ज्ञप्तौ अन्तः करोतिः न भासते] जाननेरूप क्रियाके भीतर करनेरूप क्रिया भासित नहीं होती; [ततः ज्ञप्ति: करोतिः च विभिन्ने] इसलिये ज्ञप्तिक्रिया और ‘करोति' क्रिया दोनों भिन्न हैं; [च ततः इति स्थितं] इससे यह सिद्ध हुआ कि [ ज्ञाता कर्ता न ] जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं है।
भावार्थ:- जब आत्मा इसप्रकार परिणमन करता है कि 'मैं परद्रव्यको करता हूँ' तब तो वह कर्ताभावरूप परिणमनक्रियाके करनेसे अर्थात् 'करोति' क्रियाके करनेसे कर्ता ही है और जब वह इसप्रकार परिणमन करता है कि 'मैं परद्रव्यको जानता हूँ' तब ज्ञाताभावरूप परिणमन करनेसे अर्थात् ज्ञप्तिक्रिया के करनेसे ज्ञाता ही है।
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२३०
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समयसार
( शार्दूलविक्रीडित )
कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्तरि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः । ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थितिर्नेपथ्ये बत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किम्।। ९८ ।।
अथवा नानट्यतां, तथापि -
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि अविरत - सम्यग्दृष्टि आदिको जबतक चारित्रमोहका उदय रहता है तबतक वह कषायरूप परिणमन करता है इसलिये वह उसका कर्ता कहलाता है या नहीं ? उसका समाधान:- अविरत - सम्यग्दृष्टि इत्यादिके श्रद्धा-ज्ञानमें परद्रव्यके स्वामित्वरूप कर्तृत्वका अभिप्राय नहीं है; कषायरूप परिणमन है वह उदयकी बलवत्ताके कारण है; वह उसका ज्ञाता है; इसलिये उसके अज्ञान संबंधी कर्तृत्व नहीं है । निमित्त की बलवत्ता से परिणमनका फल किंचित् होता है वह संसारका कारण नहीं है। जैसे वृक्षकी जड़ काट देनेके बाद वह वृक्ष कुछ समय तक रहे अथवा न रहे - प्रतिक्षण उसका नाश ही होता जाता है, इसीप्रकार यहाँ भी समझना। ९७ ।
पुनः इसी बात को दृढ़ करते हैं :
श्लोकार्थ :- [ कर्ता कर्मणि नास्ति, कर्म तत् अपि नियतं कर्तरि नास्ति ] निश्वयसे न तो कर्ता कर्ममें है, और न कर्म कर्तामें ही है- [ यदि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते ] यदि इसप्रकार परस्पर दोनोंका निषेध किया जाये [ तदा कर्तृकर्मस्थितिः का ] तो कर्ता-कर्मकी क्या स्थिति होगी ? ( अर्थात् जीव- पुद्गलके कर्ताकर्मपन कदापि नहीं हो सकेगा। ) [ ज्ञाता ज्ञातरि, कर्म सदा कर्मणि] इसप्रकार ज्ञाता सदा ज्ञातामें ही है और कर्म सदा कर्ममें ही है [ इति वस्तुस्थितिः व्यक्ता ] ऐसी वस्तुस्थिति प्रगट है [ तथापि बत] तथापि अरे ! [ नेपथ्ये एषः मोहः किम् रभसा नानटीति ] नेपथ्यमें यह मोह क्यों अत्यंत वेग पूर्वक नाच रहा है ? ( इसप्रकार आचार्यको खेद और आश्चर्य होता है | )
भावार्थ:-कर्म तो पुद्गल है, जीवको उसका कर्ता कहना असत्य है। उन दोनोंमें अत्यंत भेद है, न तो जीव पुद्गलमें है और न ही पुद्गल जीवमें ; तब फिर उनमें कर्ताकर्मभाव कैसे हो सकता है ? इसलिये जीव तो ज्ञाता है सो ज्ञाता ही है, पुद्गलकर्मोंका कर्ता नहीं है; और पुद्गलकर्म है वे पुद्गल ही है, ज्ञाताका कर्म नहीं है। आचार्यदेवने खेदपूर्वक कहा है कि- इसप्रकार प्रगट भिन्न द्रव्य हैं तथापि 'मैं कर्ता
* देखो गाथा १३१ के नीचे का फुटनोट ।
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कर्ता-कर्म अधिकार
(मन्दाक्रान्ता) कर्ता कर्ता भवति न यथा कर्म कर्मापि नैव ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि। ज्ञानज्योतिर्खलितमचलं व्यक्तमन्तस्तथोच्चैश्चिच्छक्तीनां निकरभरतोऽत्यन्तगम्भीरमेतत्।। ९९ ।।
हूँ और यह पुद्गल मेरा कर्म है' इसप्रकार अज्ञानीका यह मोह (-अज्ञान) क्यों नाच रहा ? । ९८।
अब यह कहते हैं कि यदि मोह नाचता है तो भले नाचे, तथापि वस्तुस्वरूप तो जैसा है वैसा ही है :
श्लोकार्थ:- [ अचलं ] अचल, [ व्यक्तं ] व्यक्त और [ चित-शक्तीनां निकरभरतः अत्यन्त-गम्भीरम् ] चित्शक्तिओंके (-ज्ञानके अविभागपरिच्छेदोंके) समूहके भारसे अत्यंत गंभीर [ एतत् ज्ञानज्योतिः ] यह ज्ञानज्योति [अन्तः ] अंतरंगमें [ उच्चैः] उग्रतासे [ तथा ज्वलितम् ] ऐसी जाज्वल्यमान हुई है कि- [यथा कर्ता कर्ता न भवति] आत्मा अज्ञानमें कर्ता होता था सो अब वह कर्ता नहीं होता और [ कर्म कर्म अपि न एव] अज्ञानके निमित्तसे पुद्गल कर्मरूप होता था सो वह कर्मरूप नहीं होता; [ यथा ज्ञानं ज्ञानं भवति च ] और ज्ञान ज्ञानरूप ही रहता है और [ पुद्गलः पुद्गलः अपि ] पुद्गल पुद्गलरूप ही रहता है।
भावार्थ:-अब आत्मा ज्ञानी होता है तब ज्ञान तो ज्ञानरूप ही परिणमित होता है, पुद्गलकर्मका कर्ता नहीं होता; और पुद्गल पुद्गल ही रहता है, कर्मरूप परिणमित नहीं होता। इसप्रकार यथार्थ ज्ञान होनेपर दोनों द्रव्योंके परिणमनमें निमित्तनैमित्तिकभाव नहीं होते। ऐसा ज्ञान सम्यग्दृष्टिके होता है। ९९ ।
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२३२
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समयसार
इति जीवाजीवौ कर्तृकर्मवेषविमुक्तौ निष्क्रान्तौ।
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां
इति कर्तृकर्मप्ररूपकः द्वितीयोऽङ्क ।।
समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ
टीका:- इसप्रकार जीव और अजीव कर्ताकर्मका वेश त्यागकर बाहर निकल गये ।
भावार्थ:-जीव और अजीव दोनों कर्ता-कर्मका वेश धारण करके एक होकर रंगभूमिमें प्रविष्ट हुए थे। जब सम्यग्दृष्टिने अपने यथार्थ दर्शक ज्ञानसे उन्हें भिन्न भिन्न लक्षणसे यह जान लिया कि वे एक नहीं किन्तु दो अलग अलग हैं, तब वे वेष का त्याग करके रंगभूमिमेंसे बाहर निकल गये । बहुरूपिया की ऐसी प्रवृत्ति होती है कि जब तक देखनेवाले उसे पहिचान नहीं लेते तबतक वह अपनी चेष्ठाएँ किया करता है, किन्तु जब कोई यथार्थरूपसे पहिचान लेता है तब वह निज रूप प्रगट करके चेष्टा करना छोड़ देता है । इसीप्रकार यहाँ भी समझना ।
जीव अनादि अज्ञान वसाय विकार उपाय वणै करता सो, ताकरि बंधन आन तणूं फल ले सुख दुःख भवाश्रमवासो; ज्ञान भये करता न बने तब बंध न होय खुलै परपासो, आतममांहि सदा सुविलास करै सिव पाय रहै निति थासो ।
इसप्रकार (श्रीमद् भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसार शास्त्रकी श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें कर्ताकर्मका प्ररूपक द्वितीय अंक समाप्त हुआ।
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-३पुण्य-पाप अधिकार
ज
अथैकमेव कर्म द्विपात्रीभूय पुण्यपापरूपेण प्रविशति
(द्रुतविलम्बित) तदथ कर्म शुभाशुभभेदतो द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन्। ग्लपितनिर्भरमोहरजा अयं स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लवः।। १०० ।।
पुण्य-पाप दोऊ करम, बंधरूप दुर् मानि ।
शुद्ध आत्मा जिन लह्यो, नमुँ चरण हित जानि ।। प्रथम टीकाकार कहते हैं कि 'अब एक ही कर्म दो पात्ररूप होकर पुण्यपापरूपसे प्रवेश करता है।'
जैसे नृत्यमंच पर एक ही पुरुष अपने दो रूप दिखाकर नाच रहा हो तो उसे यथार्थ ज्ञाता पहिचान लेता है और उसे एक ही जान लेता है, इसीप्रकार यद्यपि कर्म एक ही है तथापि वह पुण्य-पापके भेदसे दो प्रकारके रूप धारण करके नाचता है उसे, सम्यग्दृष्टिका यथार्थज्ञान एकरूप जान लेता है। उस ज्ञानकी महिमाका काव्य इस अधिकारके प्रारम्भमें टीकाकार आचार्य कहते हैं :
श्लोकार्थ:- [अथ] अब ( कर्ताकर्म अधिकारके पश्चात् ), [शुभ-अशुभभेदतः ] शुभ और अशुभके भेदसे [ द्वितयतां गतम् तत् कर्म ] द्वित्वको प्राप्त उस कर्मको [ ऐक्यम् उपानयन् ] एकरूप करता हुआ, [ग्लपित-निर्भर-मोहरजा ] जिसने अत्यंत मोहरजको दूर कर दिया है ऐसा [अयं अवबोध-सुधाप्लवः ] यह (प्रत्यक्षअनुभवगोचर ) ज्ञानसुधांशु ( सम्यग्ज्ञानरूपी चंद्रमा ) [ स्वयम् ] स्वयं [ उदेति ] उदयको प्राप्त होता है।
भावार्थ:-अज्ञानसे एक ही कर्म दो प्रकार दिखाई देता था उसे सम्यक्ज्ञानने एक प्रकारका बताया है। ज्ञानपर जो मोहरूपी रज चढ़ी हुई थी उसे दूर कर देनेसे
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समयसार
२३४
(मन्दाक्रान्ता) एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमानादन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव। द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शुद्रिकायाः
शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण।। १०१ ।। कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं। कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि।।१४५ ।।
यथार्थ ज्ञान प्रगट हुआ है; जैसे बादल या कुहरेके पटल से चंद्रमाका यथार्थ प्रकाश नहीं होता किन्तु आवरणके दूर होने पर वह यथार्थ प्रकाशमान होता है, इसीप्रकार यहाँ भी समझना चाहिये। १००।
अब पुण्य-पापके स्वरूपका दृष्टांतरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- (शूद्राके पेटसे ही साथ जन्मको प्राप्त दो पुत्रोंमेंसे एक ब्राह्मणके यहाँ और दूसरा उसी शूद्रा के यहाँ पला उनमेंसे।) [ एक:] एक तो [ ब्राह्मणत्व-अभिमानात् ] 'मैं ब्राह्मण हूँ' इसप्रकार ब्राह्मणत्वके अभिमान से [ दूरात्] दूरसे ही [ मदिरां] मदिराका [ त्यजति ] त्याग करता है, उसे स्पर्श तक नहीं करता; तब [अन्यः] दूसरा [अहम् स्वयम् शूद्रः इति] 'मैं स्वयं शुद्र हूँ' यह मानकर [ नित्यं] नित्य [ तया एव] मदिरासे ही [ स्नाति] स्नान करता है अर्थात् उसे पवित्र मानता है। एतौ द्वौ अपि] यद्यपि वे दोनों [शूद्रिकायाः उदरात् युगपत् निर्गतौ] शूद्राके पेटसे एक ही साथ उत्पन्न हुए है इसलिये [ साक्षात् शूद्रौ] (परमार्थतः) दोनों साक्षात् शूद्र हैं, [ अपि च ] तथापि वे [ जातिभेद-भ्रमेण] जाति भेदके भ्रम सहित [चरतः] प्रवृत्ति (आचरण) करते हैं। (इसी प्रकार पुण्य-पापके संबंधमें समझना चाहिये।)
भावार्थ:-पुण्य-पाप दोनों विभावपरिणतिसे उत्पन्न हुए हैं इसलिये दोनों बंधरूप ही हैं। व्यवहारदृष्टिसे भ्रमवश उनकी प्रवृत्ति भिन्न भिन्न भासित होनेसे, वे अच्छे और बुरे रूपसे दो प्रकार दिखाई देते हैं। परमार्थदृष्टि तो उन्हें एकरूप ही, बंधरूप ही, बुरा ही जानती है। १०१।
अब शुभाशुभ कर्मके स्वभावका वर्णन गाथामें करते हैं:
है कर्म अशुभ कुशील अरु जानो सुशील शुभकर्म को ! किस रीत होय सुशील जो संसारमें दाखिल करे ? ।।१४५।।
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पुण्य-पाप अधिकार
२३५
कर्म अशुभं कुशीलं शुभकर्म चापि जानीथ सुशीलम्। कथं तद्भवति सुशीलं यत्संसारं प्रवेशयति।।१४५ ।।
शुभाशुभजीवपरिणामनिमित्तत्वे सति कारणभेदात्, शुभाशुभपुद्गलपरिणाममयत्वे सति स्वभावभेदात्, शुभाशुभफलपाकत्वे सत्यनुभवभेदात्, शुभाशुभमोक्षबन्धमार्गाश्रितत्वे सत्याश्रयभेदात् चैकमपि कर्म किञ्चिच्छुभं किञ्चिदशुभमिति केषाञ्चित्किल पक्षः। स तु सप्रतिपक्षः। तथाहि-शुभोऽशुभो वा जीवपरिणाम: केवलाज्ञानमयत्वादेकः, तदेकत्वे सति कारणाभेदात् एकं कर्म। शुभोऽशुभो वा पुद्गलपरिणामः केवलपुद्गलमयत्वादेकः, तदेकत्वे सति स्वभावाभेदादेकं कर्म। शुभोऽशुभो वा फलपाक: केवलपुद्गलमयत्वादेकः, तदेकत्वे सत्यनुभवाभेदादेकं कर्म। शुभाशुभौ मोक्षबन्धमार्गौ तु प्रत्येकं केवलजीवपुद्गलमयत्वादनेकौ,
गाथार्थ:- [अशुभं कर्म ] अशुभ कर्म [ कुशीलं] कुशील है (-बुरा है) [अपि च] और [ शुभकर्म ] शुभ कर्म [ सुशीलम् ] सुशील है (-अच्छा है) ऐसा [ जानीथ ] तुम जानते हो! [ तत् ] वह [ सुशीलं ] सुशील [ कथं ] कैसे [ भवति ] हो सकता है [ यत् ] जो [ संसारं] ( जीवको) संसारमें [ प्रवेशयति] प्रवेश कराता है ?
__टीका:-किसी कर्ममें शुभ जीवपरिणाम निमित्त होनेसे और किसीमें अशुभ जीवपरिणाम निमित्त होनेसे कर्मके कारणोंमें भेद होता है; कोई कर्म शुभ पुद्गलपरिणाममय और कोई अशुभ पुद्गलपरिणाममय होनेसे कर्मके स्वभावमें भेद होता है; किसी कर्म का शुभ फलरूप और किसीका अशुभफलरूप विपाक होनेसे कर्मके अनुभवमें (–स्वादमें) भेद होता है; कोई कर्म (शुभ (अच्छे) मोक्षमार्गके) आश्रित होनेसे और कोई कर्म अशुभ (बुरे) बंधमार्गके आश्रित होने कर्मके आश्रयमें भेद होता है। (इसलिये) यद्यपि ( वास्तवमें) कर्म एक ही है तथापि-कई लोगोंका ऐसा पक्ष है कि कोई कर्म शुभ है और कोई अशुभ है। परंतु वह (पक्ष) प्रतिपक्ष सहित है। वह प्रतिपक्ष ( अर्थात् व्यवहारपक्षका निषेध करनेवाला निश्चयपक्ष) इस प्रकार है:
___ शुभ या अशुभ जीवपरिणाम केवल अज्ञानमय होनेसे एक हैं; और उनके एक होनेसे कर्मके कारणोंमें भेद नहीं होता; इसलिये कर्म एक ही है। शुभ या अशुभ पुदगलपरिणाम केवल पुद्गलमय होनेसे एक है; उसके एक होनेसे कर्मके स्वभावमें भेद नहीं होता; इसलिये कर्म एक ही है। शुभ या अशुभ फलरूप होनेवाला विपाक केवल पुद्गलमय होनेसे एक है; उसके एक होनेसे कर्मके अनुभवमें (-स्वादमें) भेद नहीं होता; इसलिये कर्म एक ही है। शुभ ( अच्छे) मोक्षमार्ग केवल जीवमय है और अशुभ (बुरे) बंधमार्ग केवल पुदगलमय है इसलिये वे अनेक ( -भिन्न भिन्न, दो) हैं; और उनके अनेक होने पर भी कर्म केवल पुद्गलमय-बंधमार्गके ही आश्रित होनेसे कर्मके आश्रयमें भेद नहीं है; इसलिये कर्म एक ही है।
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समयसार
२३६
तदनेकत्वे सत्यपि केवलपुद्गलमयबन्धमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म।
भावार्थ:-कोई कर्म तो अरहंतादिमें भक्ति-अनुराग , जीवों प्रति अनुकंपाके परिणाम और मंद कषायसे चित्तकी उज्ज्वलता इत्यादि शुभ परिणामोंके निमित्तसे होते हैं और कोई कर्म तीव्र क्रोधादिक अशुभ लेश्या, निर्दयता, विषयासक्ति, देव-गुरु आदि पुज्य पुरुषोंके प्रति विनयभावसे नहीं प्रवर्तना इत्यादि अशुभपरिणामों के निमित्तसे होते हैं; इसप्रकार हेतु भेद होनेसे कर्मके शुभ और अशुभ दो भेद हो जाते हैं। सातावेदनीय, शुभआयु, शुभनाम और शुभगोत्र-इन कर्मों के परिणामों (-प्रकृति इत्यादि-) में तथा चार घातीयकर्म, असातावेदनीय, अशुभ-आयु, अशुभनाम, अशुभगोत्र-इन कर्मों के परिणामों (-प्रकृति इत्यादि-) में भेद है; -इसप्रकार स्वभावभेद होनेसे कर्मोंके शुभ और अशुभ दो भेद हैं। किसी कर्मके फलका अनुभव सुखरूप और किसीका दुःखरूप है; इसप्रकार अनुभवका भेद होनेसे कर्मके शुभ और अशुभ दो भेद हैं। कोई कर्म मोक्षमार्गके आश्रित है और कोई कर्म बंधमार्गके आश्रित है; इसप्रकार आश्रयका भेद होनेसे कर्मके शुभ और अशुभ दो भेद हैं। इसप्रकार हेतु, स्वभाव, अनुभव और आश्रय-ऐसे चार प्रकारसे कर्ममें भेद होनेसे कोई कर्म शुभ है और कोई अशुभ है, ऐसा कुछ लोगोंका पक्ष है।
अब इस भेदपक्षका निषेध किया जाता है:-जीवके शुभ और अशुभ परिणाम दोनों अज्ञानमय हैं इसलिये कर्मका हेतु एक अज्ञान ही है; अतः कर्म एक ही है। शुभ और अशुभ पुद्गलपरिणाम दोनों पुद्गलमय ही हैं इसलिये कर्मका स्वभाव एक पुद्गलपरिणामरूप ही है; अतः कर्म एक ही है। सुख-दुःखरूप दोनों अनुभव पुद्गलमय ही हैं इसलिये कर्म का अनुभव एक पुद्गलमय ही है; अतः कर्म एक ही है। मोक्षमार्ग और बंधमार्गमें, मोक्षमार्ग तो केवल जीवके परिणाममय ही है और बंधमार्ग केवल पुद्गलके परिणाममय ही है इसलिये कर्मका आश्रय मात्र बंधमार्ग ही है ( अर्थात् कर्म एक बंधमार्गके आश्रयसे ही होता है-मोक्षमार्गमें नहीं होता); अत: कर्म एक ही है।
इसप्रकार कर्मके शुभाशुभ भेदके पक्षको गौण करके उसका निषेध किया है; क्योंकि यहाँ अभेदपक्ष प्रधान है, और यदि अभेदपक्षसे देखा जाये तो कर्म एक ही हैदो नहीं।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
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पुण्य-पाप अधिकार
२३७
(उपजाति) हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणांसदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः। तद्वन्धमार्गाश्रितमेकमिष्टंस्वयं समस्तं खलु बन्धहेतुः।। १०२ ।।
अथोभयं कर्माविशेषेण बन्धहेतुं साधयति
सोवणियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुस्सिं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।। १४६ ।।
सौवर्णिकमपि निगलं बध्नाति कालायसमपि यथा पुरुषम्। बध्नात्येवं जीवं शुभमशुभं वा कृतं कर्म।। १४६ ।।
शुभमशुभं च कर्माविशेषेणैव पुरुषं बध्नाति, बन्धत्वाविशेषात्, काञ्चनकालायस निगलवत्। अथोभयं कर्म प्रतिषेधयति
श्लोकार्थ:- [ हेतु-स्वभाव-अनुभव-आश्रयाणां ] हेतु, स्वभाव, अनुभव और आश्रय इन चारोंका [ सदा अपि] सदा ही [ अभेदात् ] अभेद होनेसे [ न हि कर्मभेद:] कर्ममें निश्चयसे भेद नहीं है; [ तद् समस्तं स्वयं] इसलिये, समस्त कर्म स्वयं [ खलु] निश्चयसे [बन्धमार्ग-आश्रितम् ] बंधमार्गके आश्रित हैं और [बन्धहेतुः] बंधका कारण हैं, अतः [एकम् इष्टं] कर्म एक ही माना गया है-उसे एक ही मानना योग्य है। १०।
अब यह सिद्ध करते हैं कि--दोनों--शुभ-अशुभकर्म , बिना किसी अन्तरके बंधके कारण हैं :
ज्यों लोहकी त्यों कनककी जंजीर जकड़े पुरुषको। इस रीतसे शुभ या अशुभ कृत, कर्म बांधे जीवको ।।१४६ ।।
गाथार्थ:- [ यथा] जैसे [ सौवर्णिकम् ] सोनेकी [ निगलं] बेड़ी [ अपि] भी [पुरुषम् ] पुरुषको [बध्नाति ] बाँधती है और [ कालायसम् ] लोहेकी [अपि] भी बाँधती है, [ एवं ] इसीप्रकार [शुभम् वा अशुभम् ] शुभ तथा अशुभ [ कृतं कर्म ] किया हुआ कर्म [ जीवं] जीवको [ बध्नाति] (अविशेषतया) बाँधता है।
टीका:-जैसे सोनेकी और लोहेकी बेड़ी बिना किसी भी अन्तरके पुरुषको बाँधती है क्योंकि बंधभावकी अपेक्षासे उनमें कोई अन्तर नहीं है, इसीप्रकार शुभ और अशुभ कर्म बिनाकिसी भी अन्तरके पुरुषको (-जीवको) बाँधते हैं क्योंकि बंधभावकी अपेक्षासे उसमें कोई अन्तर नहीं है।
अब दोनों कर्मोंका निषेध करते हैं :--
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२३८
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समयसार
तम्हा दु कुसीलेहिय रागं मा कुणह मा व संसग्गं । साहीणो हि विणासो कुसीलसंसग्गरायेण ।। १४७ ।। तस्मात्तु कुशीलाभ्यां च रागं मा कुरुत मा वा संसर्गम्। स्वाधीनो हि विनाशः कुशीलसंसर्गरागेण ।। १४७ ।।
कुशीलशुभाशुभकर्मभ्यां सह रागसंसर्गौ प्रतिषिद्धौ, बन्धहेतुत्वात्, कुशीलमनोरमामनोरमकरेणुकुट्टनीरागसंसर्गवत्।
अथोभयं कर्म प्रतिषेध्यं स्वयं दृष्टान्तेन समर्थयते
जह णाम को वि पुरिसो कुच्छियसीलं जणं वियाणित्ता । वज्जेदि तेण समयं संसग्गं रागकरणं च ।। १४८ ।। एमेव कम्मपयडीसीलसहावं च कुच्छिदं णादुं । वज्जंति परिहरति य तस्संसग्गं सहावरदा।। १४९ ।
इससे करो नहिं राग वा संसर्ग उभय कुशील का । इस कुशीलके संसर्गसे है, नाश तुम स्वातंत्र्यका ।। १४७ ।।
गाथार्थ:- [ तस्मात् तु ] इसलिये [ कुशीलाभ्यां ] इन दोनों कुशीलोंके साथ
[ रागं ] राग [ मा कुरुत ] मत करो [ वा ] अथवा [ संसर्गम् च ] संसर्ग भी [ मा] मत करो [हि ] क्योंकि [ कुशीलसंसर्गरागेण ] कुशीलके साथ संसर्ग और राग करनेसे [ स्वाधीनः विनाशः ] स्वाधीनताका नाश होता है ( अथवा अपने द्वारा ही अपना घात होता है)।
टीका:-जैसे कुशील -- मनोरम और अमनोरम हथिनीरूप कुट्टनी के साथ ( हाथीका ) राग और संसर्ग बंध ( बंधन ) का कारण होता है, उसीप्रकार कुशील अर्थात् शुभाशुभ कर्मोंके साथ राग और संसर्ग बंधके कारण होनेसे, शुभाशुभ कर्मोंके साथ राग और संसर्गका निषेध किया गया है।
अब, भगवान कुंदकुंदाचार्य स्वयं ही दृष्टांतपूर्वक यह समर्थन करते हैं कि दोनों कर्म निषेध्य हैं :
जिस भाँति कोई पुरुष, कुत्सितशील जनको जानके । संसर्ग उसके साथ त्योंही, राग करना परितजे ।। १४८ । यों कर्म प्रकृतिशील और स्वभाव कुत्सित जानके । निज भावमें रत राग अरु संसर्ग उसका परिहरे ।। १४९ ।।
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पुण्य-पाप अधिकार
यथा नाम कोऽपि पुरुषः कुत्सितशीलं जनं विज्ञाय। वर्जयति तेन समकं संसर्गे रागकरणं च।। १४८ ।। एवमेव कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं च कुत्सितं ज्ञात्वा। वर्जयन्ति परिहरन्ति च तत्संसर्गे स्वभावरताः।। १४९ ।।
यथा खलु कुशलः कश्चिद्वनहस्ती स्वस्य बन्धाय उपसर्पन्तीं चटुलमुखीं मनोरमाममनोरमां वा करेणुकुट्टनी तत्त्वतः कुत्सितशीलां विज्ञाय तया सह रागसंसर्गों प्रतिषेधयति, तथा किलात्माऽरागो ज्ञानी स्वस्य बन्धाय उपसर्पन्ती मनोरमाममनोरमां वा सर्वामपि कर्मप्रकृतिं तत्त्वत: कुत्सितशीलां विज्ञाय तया सह रागसंसर्गों प्रतिषेधयति।
अथोभयं कर्म बन्धहेतुं प्रतिषेध्यं चागमेन साधयति
गाथार्थ:- [ यथा नाम] जैसे [ कोऽपि पुरुषः ] कोई पुरुष [ कुत्सितशीलं ] कुशील अर्थात् खराब स्वभाववाले [जनं] पुरुषको [ विज्ञाय ] जानकर [ तेन समकं] उसके साथ [ संसर्ग च रागकरणं] संसर्ग और राग करना [ वर्जयति] छोड़ देता है, [ एवम् एव च] इसीप्रकार [ स्वभावरताः ] स्वभावमें रत पुरुष [ कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं] कर्मप्रकृतिके शील-स्वभावको [ कुत्सितं] कुत्सित अर्थात् खराब [ ज्ञात्वा] जानकर [ तत्संसर्ग] उसके साथ संसर्ग [ वर्जयन्ति ] छोड़ देते हैं [ परिहरन्ति च ] और राग छोड़ देते हैं।
टीका:-जैसे कोई जंगलका कुशल हाथी अपने बंधनके लिये निकट आती हुई सुंदर मुखवाली मनोरम अथवा अमनोरम हथिनीरूपी कुट्टनीको परमार्थतः बुरी जानकर उसके साथ राग या संसर्ग नहीं करता, इसीप्रकार आत्मा अरागी ज्ञानी होता हुआ अपने बंधके लिये समीप आती हुई (उदयमें आती हुई) मनोरम या अमनोरम (शुभ या अशुभ ) -सभी कर्मप्रकृतियोंको परमार्थतः बुरी जानकर उनके साथ राग तथा संसर्ग नहीं करता।
भावार्थ:-हाथीको पकड़नेके लिये हाथिनी रखी जाती है, हाथी कामांध होता हुआ उस हथिनीरूपी कुट्टनीके साथ राग तथा संसर्ग करता है इसलिये वह पकड़ा जाता है और पराधीन होकर दुःख भोगता है, जो हाथी चतुर होता है वह उस हथिनीके साथ राग तथा संसर्ग नहीं करता; इसीप्रकार अज्ञानी जीव कर्मप्रकृतिको अच्छा समझकर उसके साथ राग तथा संसर्ग करते हैं इसलिये वे बंधमें पड़कर पराधीन बनकर संसारके दुःख भोगते हैं, और जो ज्ञानी होता है वह उसके साथ कभी भी राग तथा संसर्ग नहीं करता।
अब, आगमसे यह सिद्ध करते हैं कि दोनों कर्म बन्धके कारण हैं और निषेध्य हैं :---
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समयसार
२४०
रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि जीवो विरागसंपत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज।। १५० ।।
रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते जीवो विरागसम्प्राप्तः। एषो जिनोपदेशः तस्मात् कर्मसु मा रज्यस्व ।। १५० ।।
यः खलु रक्तोऽवश्यमेव कर्म बध्नीयात् विरक्त एव मुच्येतेत्ययमागम: स सामान्येन रक्तत्वनिमित्तत्वाच्छुभमशुभमुभयं कर्माविशेषेण बन्धहेतुं साधयति, तदुभयमपि कर्म प्रतिषेधयति च।
(स्वागता) कर्म सर्वमपि सर्वविदो यद् बन्धसाधनमुशन्त्यविशेषात्। तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः।। १०३ ।।
जीव रागी बांधे कर्मको, वैराग्यगत मुक्ति लहे । -ये जिनप्रभू उपदेश है नहिं रक्त हो तु कर्म से ।। १५०।।
गाथार्थ:- [ रक्त: जीव:] रागी जीव [कर्म] कर्म [ बध्नाति] बाँधता है [ विरागसम्प्राप्तः ] और वैराग्यको प्राप्त जीव [ मुच्यते] कर्मसे छूटता है- [ एषः ] यह [जिनोपदेशः ] जिनेन्द्र भगवानका उपदेश है; [तस्मात् ] इसलिये (हे भव्य जीव! ) तू [ कर्मसु ] कर्मों में [ मा रज्यस्व ] प्रीति-राग मत कर!
टीका:-" रक्त अर्थात् रागी अवश्य कर्म बाँधता है और विरक्त अर्थात् विरागी ही कर्मसे छूटता है ” ऐसा जो यह आगमवचन है सो, सामान्यतया रागीपनकी निमित्तता के कारण शुभाशुभ दोनों कर्मोंको अविशेषतया बंधके कारणरूप सिद्ध करता है और इसलिये दोनों कर्मोंका निषेध करता है।
इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [ यद् ] क्योंकि [ सर्वविदः ] सर्वज्ञदेव [ सर्वम् अपि कर्म ] समस्त (शुभाशुभ ) कर्मको [अविशेषात् ] अविशेषतया [बन्धसाधनम् ] बंधका साधन (कारण) [ उशन्ति ] कहते हैं [ तेन ] इसलिये ( यह सिद्ध हुआ कि उन्होंने ) [ सर्वम् अपि तत् प्रतिषिद्धं ] समस्त कर्मका निषेध किया है और [ ज्ञानम् एव शिवहेतुः विहितं] ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है। १०३ ।
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पुण्य-पाप अधिकार
२४१
(शिखरिणी) निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल प्रवृत्ते नैष्कर्म्य न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः। तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं । स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः।। १०४ ।।
अथः ज्ञानं मोक्षहेतुं साधयति--
परमट्ठो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी णाणी। तम्हि द्विदा सहावे मुणिणो पावंति णिव्वाणं ।। १५१ ।।
जब कि समस्त कर्मोंका निषेध कर दिया गया तब फिर मुनियोंको किसकी शरण रही सो अब कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ सुकृतदुरिते सर्वस्मिन् कर्माणि किल निषिद्धे ] शुभ आचरणरूप कर्म और अशुभ आचरणरूप कर्म-ऐसे समस्त कर्मों का निषेध कर देनेपर [ नैष्कर्म्य प्रवृत्ते] निष्कर्म (निवृत्ति) अवस्थामें प्रवर्तमान, [ मुनयः खलु अशरणाः न सन्ति ] मुनिजन कहीं अशरण नहीं हैं; [तदा] (क्योंकि) जब निष्कर्म अवस्था प्रवर्तमान होती है तब [ ज्ञाने प्रतिचरितम् ज्ञानं हि] ज्ञानमें आचरण करता हुआ-रमण करता हुआपरिणमन करता हुआ ज्ञान ही [ एषां] उन मुनियोंको [शरणं] शरण है; [ एते] वे [ तत्र निरताः] उस ज्ञानमें लीन होते हुए [ परमम् अमृतं] परम अमृतका [ स्वयं] स्वयं [ विन्दन्ति ] अनुभव करते हैं-स्वाद लेते हैं।
भावार्थ:-किसी को यह शंका हो सकती है कि-जब सुकृत और दुष्कृतदोनोंको निषेध कर दिया गया है तब फिर मुनियोंको कुछ भी करना शेष नहीं रहता इसलिये वे किसके आश्रयसे या किस आलंबनके द्वारा मनित्वका पालन कर सकेंगे?' आचार्य देवने उसके समाधानार्थ कहा है कि:-समस्त कर्मोंका त्याग हो जाने पर ज्ञानका महा शरण है। उस ज्ञानमें लीन होनेपर सर्व आकुलतासे रहित परमानंदका भोग होता है जिसके स्वादको ज्ञानी ही जानते हैं। अज्ञानी कषायी जीव कर्मोंको ही सर्वस्व जानकर उन्हींमें लीन हो रहे हैं, वे ज्ञानानंदके स्वादको नहीं जानते। १०४।
अब यह सिद्ध करते हैं कि ज्ञान मोक्षका कारण हैं :--- परमार्थ है निश्चय , समय, शुध, केवली, मुनि, ज्ञानि है। तिष्ठे जु उसहि स्वभाव मुनिवर, मोक्षकी प्राप्ति करै ।। १५१ ।।
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समयसार
२४२
परमार्थः खलु समयः शुद्धो यः केवली मुनिर्ज्ञानी। तस्मिन् स्थिताः स्वभावे मुनयः प्राप्नुवन्ति निर्वाणम्।। १५१ ।।
ज्ञानं हि मोक्षहेतुः, ज्ञानस्य शुभाशुभकर्मणोरबन्धहेतुत्वे सति मोक्षहेतुत्वस्य तथोपपत्तेः। तत्तु सकलकर्मादिजात्यन्तरविविक्तचिज्जातिमात्र: परमार्थ आत्मेति यावत्। स तु युगपदेकीभावप्रवृत्तज्ञानगमनमयतया समयः, सकलनयपक्षासङ्कीर्णेकज्ञानतया शुद्ध:, केवलचिन्मात्रवस्तुतया केवली, मननमात्रभावतया मुनिः, स्वयमेव ज्ञानतया ज्ञानी, स्वस्य भवनमात्रतया स्वभाव: स्वतश्चितो भवनमात्रतया सद्भावो वेति शब्दभेदेऽपि न च वस्तुभेदः।
अथ ज्ञानं विधापयति
गाथार्थ:- [ खलु ] निश्चयसे [ य:] जो [ परमार्थः ] परमार्थ ( परम पदार्थ) है, [ समय: ] समय है, [शुद्धः ] शुद्ध है, [ केवली ] केवली है, [ मुनिः ] मुनि है, [ज्ञानी] ज्ञानी है, [ तस्मिन् स्वभावे ] उस स्वभावमें [ स्थिताः] स्थित [ मुनयः ] मुनि [ निर्वाणं] निर्वाणको [ प्राप्नुवन्ति ] प्राप्त होते हैं।
टीका:-ज्ञान मोक्षका कारण है, क्योंकि वह शुभाशुभ कर्मके बंधका कारण नहीं होनेसे उसके इसप्रकार मोक्षका कारणपना बनता है। वह ज्ञान, समस्त कर्म आदि अन्य जातियोंसे भिन्न चैतन्य-जातिमात्र परमार्थ ( –परम पदार्थ) है-आत्मा है। वह (आत्मा) एक ही साथ एकरूपसे प्रवर्तमान ज्ञान और गमन (परिणमन) स्वरूप होनेसे समय है. समस्त नयपक्षोंसे अमिश्रित एक ज्ञानस्वरूप होनेसे शुद्ध है, केवल चिन्मात्र वस्तुस्वरूप होनेसे केवली है, केवल मननमात्र (ज्ञानमात्र) भावस्वरूप होनेसे मुनि है, स्वयं ही ज्ञानस्वरूप होनेसे ज्ञानी है, 'स्व' का भवनमात्रस्वरूप होनेसे स्वभाव है अथवा स्वतः चैतन्यका भवनमात्रस्वरूप होनेसे सद्भाव है (क्योंकि जो स्वतः होता है वह सत्-स्वरूप ही होता है)। इसप्रकार शब्दभेद होनेपर भी वस्तुभेद नहीं है ( -यद्यपि नाम भिन्न भिन्न हैं तथापि वस्तु एक ही है)।
भावार्थ:-मोक्षका उपादान तो आत्मा ही है। परमार्थ से आत्माका ज्ञानस्वभाव है; जो ज्ञान है सो आत्मा है और आत्मा है सो ज्ञान है। इसलिये ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहना योग्य है।
अब, यह बतलाते हैं कि आगममें भी ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है:
* भवन= होना;
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पुण्य-पाप अधिकार
२४३
परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेदि। तं सव्वं बालतवं बालवदं बेंति सव्वण्हू।। १५२ ।।
परमार्थे त्वस्थितः यः करोति तपो व्रतं च धारयति।
तत्सर्वे बालतपो बालव्रतं ब्रुवन्ति सर्वज्ञः ।। १५२ ।।
ज्ञानमेव मोक्षस्य कारणं विहितं, परमार्थभूतज्ञानशून्यस्याज्ञान-कुतयोव्रततपः कर्मणोः बन्धहेतुत्वाद्वालव्यपदेशेन प्रतिषिद्धत्वे सति तस्यैव मोक्षहेतुत्वात्।
अथ ज्ञानाज्ञाने मोक्षबन्धहेतू नियमयति
वदणियमाणि धरता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता। परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विदंति।।१५३ ।।
परमार्थमे नहिं तिष्ठकर, जो तप करें, व्रतको घरें । तप सर्व उसका बाल अरु, व्रत बाल जिनवरने कहे ।। १५२।।
गाथार्थ:- [ परमार्थ तु] परमार्थमें [अस्थितः ] अस्थित [ यः ] जो जीव [ तपः करोति] तप करता है [च ] और [ व्रतं धारयति] व्रत धारण करता है, [ तत्सर्व] उसके उन सब तप और व्रतको [ सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञदेव [ बालतपः ] बालतप और [ बालव्रतं] बालव्रत [ ब्रुवन्ति ] कहते हैं।
टीका:-आगममें भी ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है (ऐसा सिद्ध होता है); क्योंकि जो जीव परमार्थभूत ज्ञानसे रहित है उसके, अज्ञानपूर्वक किये गये व्रत, तप आदि कर्म बंधके कारण हैं इसलिये उन कर्मोंको 'बाल' संज्ञा देकर उनका निषेध किया जानेसे ज्ञान ही मोक्षका कारण सिद्ध होता है।
भावार्थ:-ज्ञानके बिना किये गये तप, व्रतादिको सर्वज्ञदेवने बालतप तथा बालव्रत (अर्थात् अज्ञानतप तथा अज्ञानव्रत) कहा है, इसलिये मोक्षका कारण ज्ञान
ही है।
अब यह कहते हैं कि ज्ञान ही मोक्षका हेतु है और अज्ञान ही बंधका हेतु है यह नियम है :
व्रतनियमको धारे भले, तपशीलको भी आचरे । परमार्थसे जो बाह्य वो, निर्वाणप्राप्ति नहिं करे ।। १५३ ।।
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समयसार
२४४
व्रतनियमात् धारयन्तः शीलानि तथा तपश्च कुर्वन्तः। परमार्थबाह्या ये निर्वाणं ते न विन्दन्ति।। १५३ ।।
ज्ञानमेव मोक्षहेतुः, तदभावे स्वयमज्ञानभूतानामज्ञानिनामन्तव्रतनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मसद्भावेऽपि मोक्षाभावात्। अज्ञानमेव बन्धहेतुः, तदभावे स्वयं ज्ञानभूतानां ज्ञानिनां बहिर्वतनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मासद्भावेऽपि मोक्षसद्भावात्।
(शिखरिणी) यदेतद् ज्ञानात्मा ध्रुवमचलमाभाति भवनं शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति। अतोऽन्यद्वन्धस्य स्वयमपि यतो बन्ध इति तत् ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम्।।१०५ ।।
गाथार्थ:- [ व्रतनियमान् ] व्रत और नियमोंको [धारयन्तः ] धारण करते हुए भी [ तथा ] तथा [शीलानि च तपः ] शील और तप [ कुर्वन्तः ] करते हुए भी [ ये] जो [ परमार्थबाह्याः ] परमार्थमें बाह्य हैं (अर्थात् परम पदार्थरूप ज्ञानका-ज्ञानस्वरूप आत्माका जिसको श्रद्धान नहीं है ] [ ते ] वे [ निर्वाण ] निर्वाणको [ न विन्दन्ति ] प्राप्त नहीं होते।
टीका:-ज्ञान ही मोक्षका हेतु है; क्योंकि उसके अभावमें, स्वयं ही अज्ञानरूप होनेवाले अज्ञानियों के अंतरंगमें व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ कर्मोंका सद्भाव होनेपर भी मोक्षका अभाव है। अज्ञान ही बंधका कारण है; क्योंकि उसके अभावमें, स्वयं ही ज्ञानरूप होनेवाले ज्ञानियोंके बाह्य व्रत, नियम, शील , तप इत्यादि शुभ कर्मोंका असद्भाव होनेपर भी मोक्षका सद्भाव है।
भावार्थ:-ज्ञानरूप परिणमन ही मोक्षका कारण है और अज्ञानरूप परिणमन ही बंधका कारण है; व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ भावरूप शुभ कर्म कहीं मोक्षके कारण नहीं हैं; ज्ञानरूप परिणमित ज्ञानीके वे शुभ कर्म न होनेपर भी वह मोक्ष को प्राप्त करता है; अज्ञानरूप परिणमित अज्ञानीके वे शुभकर्म होनेपर भी, वह बंधको प्राप्त करता है।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते है :---
श्लोकार्थ:- [ यद् एतद् ध्रुवम् अचलम् ज्ञानात्मा भवनम् आभाति ] जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुवरूपसे और अचलरूपसे ज्ञानस्वरूप होता है-परिणमता हुआ भासित होता है, [अयं शिवस्य हेतुः] वही मोक्षका हेतु है [ यतः ] क्योंकि [ तत्
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पुण्य-पाप अधिकार
२४५
अथ पुनरपि पुण्यकर्मपक्षपातिनः प्रतिबोधनायोपक्षिपति
परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति। संसारगणहेदुं पि मोक्खहेदूं अजाणंता।। १५४ ।।
परमार्थबाह्या ये ते अज्ञानेन पुण्यमिच्छन्ति। संसारगमनहेतुमपि मोक्षहेतुमजानन्तः।। १५४ ।।
इह खलु केचिन्निखिलकर्मपक्षक्षयसम्भावितात्मलाभं मोक्षमभिलष-न्तोऽपि, तद्धेतुभूतं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वभावपरमार्थभूतज्ञानभवनमात्र-मैकण्यलक्षणं समयसारभूतं सामायिकं प्रतिज्ञायापि, दुरन्तकर्मचक्रोत्तरण-क्लीबतया परमार्थभूतज्ञानभवनमात्रं सामायिकमात्मस्वभावमलभमानाः, प्रतिनिवृत्तस्थूलतमसंक्लेश ।
स्वयम् अपि शिवः इति ] वह स्वयमेव मोक्षस्वरूप है; [अतः अन्यत् ] उसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ है [ बन्धस्य ] वह बंधका हेतु है [ यतः ] क्योंकि [ तत् स्वयम् अपि बन्धः इति] वह स्वयमेव बंधस्वरूप है। [तत:] इसलिये आगम में [ ज्ञानात्मत्वं भवनम् ] ज्ञानस्वरूप होनेका (-ज्ञानस्वरूप परिणमित होनेका ) अर्थात् [अनुभूतिः हि] अनुभूति करनेका ही [ विहितम् ] विधान है। १०५ ।
अब फिर भी, पुण्यकर्मके पक्षपातीको समझाने के लिये उसका दोष बतलाते हैं:
परमार्थबाहिर जीवगण, जानें न हेतू मोक्षका । अज्ञानसे वे पुण्य इच्छे, हेतु जो संसारका ।। १५४ ।।
गाथार्थ:- [ये ] जो [ परमार्थबाह्यः] परमार्थसे बाह्य हैं [ ते ] वे [ मोक्षहेतुम् ] मोक्षके हेतुको [ अजानन्तः ] न जानते हुए- [ संसारगमनहेतुम् अपि] संसारगमनका हेतु होनेपर भी- [अज्ञानेन] अज्ञानसे [ पुण्यम् ] पुण्यको (मोक्षका हेतु समझकर) [ इच्छन्ति ] चाहते हैं।
टीका:-समस्त कर्मों के पक्षका नाश करनेसे उत्पन्न होनेवाले (-निज स्वरूपकी प्राप्ति ) आत्मलाभस्वरूप मोक्षको इस जगतमें कितने ही जीव चाहते हुए भी, मोक्षकी कारणभूत सामायिककी-जो ( सामायिक ) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वभाववाले परमार्थभूत ज्ञानकी भवनमात्र है, एकाग्रतालक्षणयुक्त है और समयसारस्वरूप है उसकी-प्रतिज्ञा लेकर भी, दुरंत कर्मचक्रको पार करनेकी नपुंसकताके कारण परमार्थभूत ज्ञानके भवनमात्र सामायिकस्वरूप आत्मस्वभावको न प्राप्त होते हुए, जिनके अत्यंत स्थूल संकलेश
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समयसार
२४६
परिणामकर्मतया प्रवृत्तमानस्थूलतमविशुद्ध-परिणामकर्माण:, कर्मानु भवगुरुलाधवप्रतिपत्तिमात्रसन्तुष्टचेतसः, स्थूललक्ष्यतया
सकलं कर्मकाण्डमनुन्मूलयन्तः, स्वयमज्ञानादशुभकर्म केवलं बन्धहेतुमध्यास्य च, व्रतनियमशीलतपः प्रभृतिशुभकर्म बन्धहेतुमप्यजानन्तो, मोक्षहेतुमभ्युपगच्छन्ति।
अथ परमार्थमोक्षहेतुं तेषां दर्शयतिजीवादीसदहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं। रागादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो।। १५५ ।।
जीवादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं तेषामधिगमो ज्ञानम्। रागादिपरिहरणं चरणं एषस्तु मोक्षपथः।। १५५ ।।
परिणामरूप कर्म निवृत्त हुए है और अत्यंत स्थूल विशुद्धपरिणामरूप कर्म प्रवर्त रहे हैं ऐसे वे, कर्मके अनुभवके गुरुत्व-लधुत्वकी प्राप्तिमात्रसे ही संतुष्ट चित्त होते हुए भी, स्वयं स्थूल लक्षवाले होकर ( संकलेशपरिणामको छोड़ते हुए भी) समस्त कर्मकांडको मूलसे नहीं उखाड़ते। इसप्रकार वे, सवयं अपने अज्ञानसे केवल अशुभ कर्मको ही बंधका कारण मानकर, व्रत, नियम, शील , तप इत्यादि शुभ कर्मोको बंधका कारण होनेपर भी उन्हें बंधका कारण न जानते हुए, मोक्षके कारणरूपमें अंगीकार करते हैंमोक्षका कारणरूपमें उनका आश्रय करते हैं।
भावार्थ:-कितने ही अज्ञानीजन दीक्षा लेते समय सामायिककी प्रतिज्ञा लेते हैं, परंतु सूक्ष्म ऐसे आत्मस्वभावकी श्रद्धा, लक्ष तथा अनुभव न कर सकने से , स्थूल लक्ष्यवाले वे जीव स्थूल संकलेशपरिणामोंको छोड़कर ऐसे ही स्थूल विशुद्धपरिणामोंमें (शुभ परिणामोंमें) राचते हैं, ( संकलशपरिणाम तथा विशुद्ध परिणाम दोनों अत्यंत स्थूल हैं; आत्मस्वभाव ही सुक्ष्म है।) इसप्रकार वे, यद्यपि वास्तविकतया सर्वकर्मरहित आत्मस्वभावका अनुभवन ही मोक्षका कारण है तथापि-कर्मानुभवके अल्पबहुत्वको ही बंध-मोक्षका कारण मानकर, व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ कर्मोंका मोक्षके हेतुके रूपमें आश्रय करते हैं।
अब जीवोंको परमार्थ ( वास्तविक ) मोक्षका कारण बतलाते हैं:
जीवादिका श्रद्धान समकित, ज्ञान उसका ज्ञान है।
रागादि-वर्जन चरित है, अरु ये ही मुक्तिपंथ है ।। १५५ ।।
गाथार्थ:- [ जीवादिश्रद्धानं ] जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान [ सम्यक्त्वं ] सम्यक्त्व है, [ तेषाम् अधिगमः] उन जीवादि पदार्थोंका अधिगम [ ज्ञानम् ] ज्ञान है और [ रागादिपरिहरणं ] रागादिका त्याग [ चरणं] चारित्र है;- [ एषः तु] यही
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मोक्षहेतु: किल
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि।
तत्र सम्यग्दर्शनं
तु जीवादिश्रद्धानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम् । जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानम्। रागादिपरिहरणस्वभावेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्येकमेव परमार्थमोक्षहेतुः।
ज्ञानस्य
भवनं भवनमायातम्।
चारित्रम्। तदेवं ततो ज्ञानमेव
अथ परमार्थमोक्षहेतोरन्यत् कर्म प्रतिषेधयति
मोत्तूण णिच्छयद्वं ववहारेण विदुसा पवट्टंति । परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ ।। १५६ ।। मुक्त्वा निश्चयार्थं व्यवहारेण विद्वांसः प्रवर्तन्ते। परमार्थमाश्रितानां तु यतीनां कर्मक्षयो विहितः ।। १५६ ।।
ज्ञानस्य
[ मोक्षपथः ] मोक्षका मार्ग है।
टीका:- मोक्षका कारण वास्तवमें सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र है । उसमें, सम्यग्दर्शन तो जीवादि पदार्थोंके श्रद्धानस्वभावरूप ज्ञानका होना - परिणमन करना है; जीवादि पदार्थोंके ज्ञानस्वभावरूप ज्ञानका होना - परिणमन करना ज्ञान है; रागादिके त्यागस्वभावरूप ज्ञानका होना - परिणमन करना सो चारित्र है। अतः इसप्रकार सम्यग्दर्शन-इ - ज्ञान - चारित्र तीनों एक ज्ञानका ही भवन ( - परिणमन ) है । इसलिये ज्ञान ही परमार्थ ( वास्तविक ) मोक्षका कारण है।
भावार्थ:-आत्माका असाधारण स्वरूप ज्ञान ही है । और इस प्रकरणमें ज्ञानको ही प्रधान करके विवेचन किया है। इसलिये 'सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन तीनों स्वरूप ज्ञान ही परिणमित होता है' यह कह कर ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है। ज्ञान है वह अभेद विवक्षामें आत्मा ही है-ऐसा कहने में कुछ भी विरोध नहीं है, इसलिये टीकामें कई स्थानोंपर आचार्यदेवने ज्ञानस्वरूप आत्माको 'ज्ञान' शब्दसे कहा है।
परमार्थ मोक्षकारणसे अन्य जो कर्म उनका निषेध करते हैं
अब,
विद्वान् जन भूतार्थ तज, व्यवहारमें वर्तन करे ।
पर कर्मनाश विधान तो, परमार्थ- आश्रित संतके ।। १९५६ ॥
२४७
--
गाथार्थ:- [ निश्चयार्थ ] निश्चयनयके विषयको [ मुक्त्वा ] छोड़कर [ विद्वांसः ] विद्वान [ व्यवहारेण ] व्यवहारके द्वारा [ प्रवर्तन्ते ] प्रवर्तते हैं; [तु] परंतु [ परमार्थम् आश्रितानां ] परमार्थके ( - आत्मस्वरूपके) आश्रित [ यतीनां ] यतीश्वरोंके
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समयसार
२४८
यः खलु परमार्थमोक्षहेतोरतिरिक्तो व्रततपःप्रभृतिशुभकर्मात्मा केषाञ्चिन्मोक्षहेतु: स सर्वोऽपि प्रतिषिद्धः, तस्य द्रव्यान्तरस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानमवनस्याभवनात; परमार्थमोक्षहेतोरेवैकद्रव्यस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्य भवनात्।
(अनुष्टुभ् ) वृत्तं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा। एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्षहेतुस्तदेव तत्।। १०६ ।।
(अनुष्टुभ् ) वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि। द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत्।।१०७ ।।
ही [ कर्मक्षयः] कर्मोंका नाश [ विहितः] आगममें कहा गया है। (केवल व्यवहारमें प्रवर्तन करनेवाले पंडितोंके कर्मक्षय नहीं होता।)
टीका:-कुछ लोग परमार्थ मोक्षहेतुसे अन्य, जो व्रत, तप इत्यादि शुभकर्मस्वरूप मोक्षहेतु मानते हैं, उस समस्त ही का निषेध किया गया है; क्योंकि वह (मोक्षहेतु) अन्य द्रव्यके स्वभाववाला (पुद्गलस्वभाववाला) है इसलिये उसके स्व-भावसे ज्ञानका भवन (होना) नहीं बनता, –मात्र परमार्थ मोक्षहेतु ही एक द्रव्यके स्वभाववाला (जीवस्वभाववाला) है इसलिये उसके स्वभावके द्वारा ज्ञानका भवन (होना) बनता है।
भावार्थ:-क्योंकि आत्माका मोक्ष होता है इसलिये उसका कारण भी आत्मस्वभावी ही होना चाहिये। जो अन्य द्रव्यके स्वभाववाला है उससे आत्माका मोक्षका कैसे हो सकता है ? शुभ कर्म पुद्गलस्वभाववाले हैं इसलिये उनके भवनसे परमार्थ आत्माका भवन नहीं बन सकता; इसलिये वे आत्माके मोक्षके कारण नहीं होते। ज्ञान आत्मस्वभावी है इसलिये उसके भवनसे आत्माका भवन बनता है; अतः वह आत्माके मोक्षका कारण होता है। इसप्रकार ज्ञान ही वास्तविक मोक्षहेतु है।
अब इसी अर्थके कलशरूप दो श्लोक कहते हैं :---
श्लोकार्थ:-[ एकद्रव्यस्वभावत्वात् ] ज्ञान एकद्रव्यस्वभावी (-जीवस्वभावी-) होनेसे [ ज्ञानस्वभावेन ] ज्ञानके स्वभावसे [ सदा] सदा [ ज्ञानस्य भवनं वृत्तं] ज्ञानका भवन बनता है; [ तत् ] इसलिये [तद् एव मोक्षहेतुः ] ज्ञान ही मोक्षका कारण है। १०६।
श्लोकार्थ:- [ द्रव्यान्तरस्वभाववात् ] कर्म अन्यद्रव्यस्वभावी (-पुद्गलस्वभावी-) होनेसे [कर्मस्वभावेन] कर्मके स्वभावसे [ज्ञानस्य भवनं न हि वृत्तं] ज्ञानका भवन नहीं बनता; [ तत् ] इसलिये [ कर्म मोक्षहेतुः न ] कर्म मोक्षका कारण नहीं है। १०७।
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(अनुष्टुभ् ) मोक्षहेतुतिरोधानाद्बन्धत्वात्स्वयमेव च। मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात्तन्निषिध्यते।। १०८ ।
अथ कर्मणो मोक्षहेतुतिरोधानकरणं साधयति
वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो । मिच्छत्तमलोच्छण्णं तह सम्मत्तं खु णादव्वं ।। १५७ ।। वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो । अण्णाणमलोच्छण्णं तह णाणं होदि णादव्वं ।। १५८ ।। वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो । कसायमलोच्छण्णं तह चारित्तं पि णादव्वं ।। १५९ ।।
अब आगामी कथनका सूचक श्लोक कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [ मोक्षहेतुतिरोधानात् ] कर्म मोक्षके कारणोंका तिरोधान करने वाला है, और [ स्वयम् एव बन्धत्वात् ] वह स्वयं ही बंधस्वरूप है [च] तथा [ मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात् ] मोक्षके कारणोंका तिरोधायिभावस्वरूप (तिरोधानकर्ता) है इसीलिये [ तत् निषिध्यते ] उसका निषेध किया गया है। १०८ ।
अब पहले, यह सिद्ध करते हैं कि कर्म मोक्षके कारणोंका तिरोधान करनेवाला
मलमिलनलिप्त जु नाश पावे, श्वेतपन ज्यों वस्त्रका । मिथ्यात्वमलके लेपसे, सम्यक्त्व त्यों ही जानना ।। १५७।।
मलमिलनलिप्त जु नाश पावे, श्वेतपन ज्यों वस्त्रका । अज्ञानमलके लेपसे, सद्ज्ञान त्यों ही जानना ।। १५८ ।।
मलमिलनलिप्त जु नाश पावे, श्वेतपन ज्यों वस्त्रका । चारित्र पावे नाश लिप्त कषाय मलसे जानना ।। १५९ ।।
२४९
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समयसार
२५०
वस्त्रस्य श्वेतभावो यथा नश्यति मलमेलनासक्तः। मिथ्यात्वमलावच्छन्नं तथा सम्यक्त्वं खलु ज्ञानव्यम्।। १५७ ।। वस्त्रस्य श्वेतभावो यथा नश्यति मलमेलनासक्तः। अज्ञानमलावच्छन्नं तथा ज्ञानं भवति ज्ञातव्यम्।। १५८ ।। वस्त्रस्य श्वेतभावो यथा नश्यति मलमेलनासक्तः। कषायमलावच्छन्नं तथा चारित्रमपि ज्ञातव्यम्।। १५९ ।।
ज्ञानस्य सम्यक्त्वं मोक्षहेतुः स्वभाव: परभावेन मिथ्यात्वनाम्ना कर्ममलेनावच्छन्नत्वात्तिरोधीयते, परभावभूतमलावच्छन्नश्वेतवस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत्। ज्ञानस्य ज्ञानं मोक्षहेतु: स्वभाव: परभावेनाज्ञाननाम्ना कर्ममलेनावच्छन्नत्वात्तिरोधीयते, परभावभूतमलावच्छन्नश्वेतवस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत्। ज्ञानस्य चारित्रं मोक्षहेतुः स्वभावः परभावेन कषायनाम्ना
गाथार्थ:- [यथा] जैसे [वस्त्रस्य ] वस्रका [श्वेतभावः] श्वेतभाव [ मलमेलनासक्तः ] मैलके मिलनेसे लिप्त होता हुआ [ नश्यति ] नष्ट हो जाता है - तिरोभूत हो जाता है, [ तथा] उसीप्रकार [ मिथ्यात्वमलावच्छन्नं] मिथ्यात्वरूपी मैलसे व्याप्त होता हुआ-लिप्त होता हुआ [ सम्यफ्त्वं खलु] सम्यक्त्व वास्तवमें तिरोभूत होता है [ ज्ञातव्यम् ] ऐसा जानना चाहिये। [ यथा] जैसे [वस्त्रस्य ] वस्त्रका [ श्वेतभावः ] श्वेतभाव [ मलमेलनासक्तः] मैलके मिलनेसे लिपत होता हुआ [ नश्यति] नाशको प्राप्त होता है -तिरोभूत हो जाता है, [ तथा] उसीप्रकार [अज्ञानमलावच्छन्नं] अज्ञानरूपी मैलसे व्याप्त होता हुआ-लिप्त होता हुआ [ ज्ञानं भवति] ज्ञान तिरोभूत हो जाता है [ ज्ञातव्यम् ] ऐसा जानना चाहिये। [ यथा ] जैसे [ वस्त्रस्य ] वस्त्रका [ श्वेतभावः ] श्वेतभाव [ मलमेलनासक्तः] मैलके मिलनेसे लिप्त होता हुआ [निश्यति] नाशको प्राप्त होता है-तिरोभूत हो जाता है, [ तथा] उसीप्रकार [ कषायमलावच्छन्नं] कषायरूपी मैलसे व्याप्त होता हुआ [चारित्रम् अपि] चारित्र भी तिरोभूत हो जाता है [ ज्ञातव्यम् ] ऐसा जानना चाहिये।
टीका:-ज्ञानका सम्यक्त्व जो कि मोक्षका कारणरूप स्वभाव है वह, परभावस्वरूप मिथ्यात्व नामक कर्मरूपी मैलके द्वारा व्याप्त होनेसे , तिरोभूत हो जाता है-जैसे परभावस्वरूप मैलसे व्याप्त हुआ श्वेत वस्त्रका स्वभावभूत श्वेतस्वभाव तिरोभूत हो जाता है। ज्ञानका ज्ञान जो कि मोक्षका कारणरूप स्वभाव है वह, परभावस्वरूप अज्ञान नामक कर्ममल द्वारा व्याप्त होनेसे तिरोभूत हो जाता है-जैसे परभावस्वरूप मैलसे व्याप्त हुआ श्वेत वस्त्रका स्वभावभूत श्वेत स्वभाव तिरोभूत हो जाता है। ज्ञानका चारित्र जो मोक्षका कारणरूप स्वभाव है वह परभावस्वरूप कषाय नामक
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पुण्य-पाप अधिकार
२५१
कर्ममलेनावच्छन्नत्वात्तिरोधीयते, परभावभूतमलावच्छन्नश्वेतवस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत्। अतो मोक्षहेतुतिरोधानकरणात् कर्म प्रतिषिद्धम्।
अथ कर्मणः स्वयं बन्धत्वं साधयतिसो सव्वणाणदरिसी कम्मरएण णियेणावच्छण्णो। संसारसमावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सव्वं ।। १६० ।।
स सर्वज्ञानदर्शी कर्मरजसा निजेनावच्छन्नः। संसारसमापन्नो न विजानाति सर्वतः सर्वम्।।१६० ।।
यतः स्वयमेव ज्ञानतया विश्वसामान्यविशेषज्ञानशीलमपि ज्ञानमनादि
कर्ममल द्वारा व्याप्त होनेसे तिरोभूत होता है-जैसे परभावस्वरूप मैलसे व्याप्त हुआ श्वेत वस्त्रका स्वभावभूत श्वेत स्वभाव तिरोभूत हो जाता है। इसलिये मोक्षके कारणका ( - सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रका-) तिरोधान करनेवाला होनेसे कर्मका निषेध किया गया है।
भावार्थ:-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है। ज्ञानका सम्यक्त्वरूप परिणमन मिथ्यात्वकर्मसे तिरोभूत होता है; ज्ञानका ज्ञानरूप परिणमन अज्ञानकर्मसे तिरोभूत होता है; और ज्ञानका चारित्ररूप परिणमन कषायकर्मसे तिरोभूत होता है। इसप्रकार मोक्षके कारणभावोंको कर्म तिरोभूत करता है इसलिये उसका निषेध किया गया है।
अब, यह सिद्ध करते हैं कि कर्म स्वयं ही बंधस्वरूप है :
यह सर्वज्ञानी-दर्शि भी, निजकर्म रज आच्छादसे । संसारप्राप्त , न जानता वो सर्वको रीतसे ।।१६० ।।
गाथार्थ:- [ सः ] वह आत्मा [ सर्वज्ञानदर्शी] ( स्वभावसे) सर्वको जाननेदेखनेवाला है तथापि [ निजेन कर्मरजसा ] अपने कर्ममलसे [ अवच्छन्नः ] लिप्त होता हुआ-व्याप्त होता हुआ [ संसारसमापन्नः] संसारको प्राप्त हुआ वह [ सर्वतः] सर्व प्रकारसे [ सर्वम् ] सर्वको [ न विजानाति ] नहीं जानता।।
टीका:-जो स्वयं ही ज्ञान होनेके कारण विश्वको (-सर्व पदार्थोंको) सामान्यविशेषतया जाननेके स्वभाववाला है, ऐसा ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य , अनादि
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समयसार
२५२
स्वपुरुषापराधप्रवर्तमानकर्ममलावच्छन्नत्वादेव बन्धावस्थायां सर्वतः सर्वमप्यात्मानमविजानदज्ञानभावेनैवेदमेवमवतिष्ठते; ततो नियतं स्वयमेव कर्मैव बन्धः। अतः स्वयं बन्धत्वात् कर्म प्रतिषिद्धम्।
अथ कर्मणो मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वं दर्शयति
सम्मत्तपडिणिबद्धं मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहियं। तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिहि त्ति णादव्वो।। १६१ ।। णाणस्य पडिणिबद्धं अण्णाणं जिणवरेहि परिकहियं। तस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि णादव्वो।। १६२ ।।
कालसे अपने पुरुषार्थके अपराधसे प्रवर्तमान कर्ममलके द्वारा लिप्त या व्याप्त होनेसे ही, बंध-अवस्थामें सर्व प्रकारसे संपूर्ण अपनेको अर्थात् सर्व प्रकारसे सर्व ज्ञेयोंके जाननेवाले अपनेको न जानता हुआ, इसप्रकार प्रत्यक्ष अज्ञानभावसे (-अज्ञानदशामें) रह रहा है। इससे यह निश्चित हुआ कि कर्म स्वयं ही बंधस्वरूप है। इसलिये, स्वयं बंधस्वरूप होनेसे कर्मका निषेध किया गया है।
भावार्थ:-यहाँ भी 'ज्ञान' शब्दसे आत्मा समझना चाहिये। ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य स्वभावसे तो सबको जानने-देखनेवाला है परंतु अनादिसे स्वयं अपराधी होनेके कारण कर्मोसे आच्छादित है, इसलिये वह अपने संपूर्ण स्वरूपको नहीं जानता; यों अज्ञानदशामें रह रहा है। इसप्रकार केवलज्ञानस्वरूप अथवा मुक्तस्वरूप आत्मा कर्मोंसे लिप्त होनेसे अज्ञानरूप अथवा बद्धरूप वर्तता है, इसलिये यह निश्चित हुआ कि कर्म स्वयं ही बंधस्वरूप है। अतः कर्मोंका निषेध किया गया है।
अब, यह बतलाते हैं कि कर्म मोक्षके कारणके तिरोधायिभावस्वरूप (अर्थात् मिथ्यात्वादिभावस्वरूप) हैं :--
सम्यक्त्वप्रतिबंधक करम, मिथ्यात्व जिनवरने कहा। उसके उदयसे जीव मिथ्यात्वी बने यह जानना ।। १६१।। त्यों ज्ञानप्रतिबंधक करम, अज्ञान जिनवरने कहा। उसके उदयसे जीव अज्ञानी बने यह जानना ।। १६२।।
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पुण्य-पाप अधिकार
२५३
चारित्तपडिणिबद्धं कसायं जिणवरेहि परिकहियं। तस्सोदयेण जीवो अचरित्तो होदि णादव्वो।। १६३ ।।
सम्यक्त्वप्रतिनिबद्धं मिथ्यात्वं जिनवरैः परिकथितम्। तस्योदयेन जीवो मिथ्यादृष्टिरिति ज्ञातव्यः।। १६१ ।। ज्ञानस्य प्रतिनिबद्धं अज्ञानं जिनवरैः परिकथितम्। तस्योदयेन जीवोऽज्ञानी भवति ज्ञातव्यः।। १६२ ।। चारित्रप्रतिनिबद्धः कषायो जिनवरैः परिकथितः। तस्योदयेन जीवोऽचारित्रो भवति ज्ञातव्यः।। १६३ ।।
सम्यक्त्वस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबन्धकं किल मिथ्यात्वं, तत्तु स्वयं कमैव , तदुदयादेव ज्ञानस्य मिथ्यादृष्टित्वम्। ज्ञानस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबन्धकं किलाज्ञानं, तत्तु स्वयं कर्मैव , तदुदयादेव ज्ञानस्याज्ञानित्वम्। चारित्रस्य मोक्षहेतो: स्वभावस्य प्रतिबन्धकः किल कषायः, स तु स्वयं कर्मैव,
चारित्र प्रतिबंध करम, जिनने कषायोंको कहा। उसके उदयसे जीव चारित्रहीन हो यह जानना ।। १६३।।
गाथार्थ:- [सम्यक्त्वप्रतिनिबद्धं ] सम्यक्त्वको रोकनेवाला [ मिथ्यात्वं ] मिथ्यात्व है ऐसा [ जिनवरैः] जिनवरोंने [ परिकथितम् ] कहा है; [तस्य उदयेन] उसके उदयसे [ जीवः ] जीव [ मिथ्यादृष्टि: ] मिथ्यादृष्टि होता है [इति ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिये। [ ज्ञानस्य प्रतिनिबद्धं ] ज्ञानको रोकनेवाला [ अज्ञानं] अज्ञान है ऐसा [ जिनवरैः ] जिनवरोंने [ परिकथितम् ] कहा है; [ तस्य उदयेन ] उसके उदयसे [ जीवः ] जीव [ अज्ञानी ] अज्ञानी [ भवति ] होता है [ ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिये। [ चारित्रप्रतिनिबद्धः ] चारित्रको रोकनेवाला [कषायः] कषाय है ऐसा [जिनवरैः] जिनवरोंने [ परिकथितः] कहा है; [ तस्य उदयेन] उसके उदयसे [ जीवः ] जीव [ अचारित्रः ] अचारित्रवान [ भवति ] होता है [ ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिये।
__टीका:-सम्यक्त्व जो कि मोक्षके कारणरूप स्वभावरूप है उसे रोकनेवाला मिथ्यात्व है; वह ( मिथ्यात्व) तो स्वयं कर्म ही है, उसके उदयसे ही ज्ञानके मिथ्यादृष्टिपना होता है। ज्ञान जो कि मोक्षका कारणरूप स्वभाव है उसे रोकनेवाला अज्ञान है; वह तो स्वयं कर्म ही है, उसके उदयसे ही ज्ञानके अज्ञानीपना होता है। चारित्र जो कि मोक्षका कारणरूप स्वभाव है उसे रोकनेवाला कषाय है; वह तो स्वयं कर्म ही है,
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समयसार
२५४
तदुदयादेव ज्ञानस्याचारित्रत्वम्। अत: स्वयं मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात्कर्म प्रतिषिद्धम्।
___ (शार्दूलविक्रीडित) संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कर्मैव मोक्षार्थिना संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा। सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन नैष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति।। १०९ ।।
उसके उदयसे ही ज्ञानके अचारित्रपना होता है। इसलिये, स्वयं मोक्षके कारणका तिरोधायिभावस्वरूप होनेसे कर्मका निषेध किया गया है।
भावार्थ:-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्षके कारणरूप भाव हैं उनसे विपरीत मिथ्यात्वादि भाव हैं; कर्म मिथ्यात्वादि भाव-स्वरूप है। इसप्रकार कर्म मोक्षके कारणभूत भावोंसे विपरीत भावरूप है।
पहले तीन गाथाओंमें कहा था कि कर्म मोक्षके कारणरूप भावोंकासम्यक्त्वादिका-घातक है। बाद की एक गाथामें यह कहा है कि कर्म स्वयं ही बंधस्वरूप है। और इन अन्तिम तीन गाथाओंमें कहा है कि कर्म मोक्षके कारणरूप भावोंसे विरोधी भावस्वरूप है-मिथ्यात्वादिस्वरूप है। इसप्रकार यह बताया है कि कर्म मोक्षके कारणका घातक है, बंधस्वरूप है और बंधका कारणस्वरूप है, इसलिये निषिद्ध है।
अशुभ कर्म तो मोक्षका कारण है ही नहीं, प्रत्युत बाधक ही है, इसलिये निषिद्ध ही है; परंतु शुभ कर्म भी कर्मसामान्यमें आ जाता है इसलिये वह भी बाधक ही है इसलिये निषिद्ध ही है ऐसा समझना चाहिये।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ मोक्षार्थिना इदं समस्तम् अपि तत् कर्म एव संन्यस्तव्यम् ] मोक्षार्थीको यह समस्त ही कर्ममात्र त्याग करने योग्य है। [ संन्यस्ते सति तत्र पुण्यस्य पापस्य वा किल का कथा] जहाँ समस्त कर्मोंका त्याग किया जाता है फिर वहाँ पुण्य या पापकी क्या बात है ? (कर्ममात्र त्याज्य है तब फिर पुण्य अच्छा है और पाप बुरा है-ऐसी बातको अवकाश ही कहाँ है? कर्मसामान्यमें दोनों आ गये।) [सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनात् मोक्षस्य हेतुः भवन् ] समस्त कर्मका त्याग होनेपर, सम्यकत्वादि अपने स्वभावरूप होनेसे-परिणमन करने से मोक्षका कारणभूत होता हुआ, [ नैष्कर्म्यप्रतिबद्धम् उद्धतरसं] निष्कर्म अवस्था के साथ जिसका उद्धत (उत्कट) रस प्रतिबद्ध है ऐसा [ ज्ञानं] ज्ञान, [ स्वयं ] अपनेआप [धावति ] दौड़ा चला आता है।
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पुण्य-पाप अधिकार
२५५
( शार्दूलविक्रीडित) यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः। किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बन्धाय तन्मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः।। ११० ।।
भावार्थ:-कर्मको दूर करके, अपने सम्यक्त्वादिस्वभावरूप परिणमन करनेसे मोक्षका कारणरूप होनेवाला ज्ञान अपनेआप प्रगट होता है, तब फिर उसे कौन रोक सकता है ? । १०९।
अब आशंका उत्पन्न होती है कि जब तक अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादिके कर्मका उदय रहता है तब तक ज्ञान मोक्षका कारण कैसे हो सकता है ? और कर्म तथा ज्ञान दोनों (कर्मके निमित्तसे होनेवाली शुभाशुभ परिणति तथा ज्ञानपरिणति) एक ही साथ कैसे रह सकते हैं ? इसके समाधानार्थ काव्य कहते हैं:---
श्लोकार्थ:- [ यावत् ] जब तक [ ज्ञानस्य कर्मविरतिः ] ज्ञानकी कर्मविरति [सा सम्यक् पाकम् न उपैति] भलीभाँति परिपूर्णताको प्राप्त नहीं होती [ तावत् ] तब तक [ कर्मज्ञानसमुच्चयः अपि विहितः, न काचित् क्षतिः ] कर्म और ज्ञानका एकत्रितपना शास्त्रमें कहा है; उसके एकत्रित रहने में कोई भी क्षति या विरोध नहीं है। [ किन्तु] किन्तु [अत्र अपि] यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि आत्मामें [ अवशतः यत् कर्म समुल्लसति] अवशपने जो कर्म प्रगट होता है [ तत् बन्धाय ] वह तो बंधका कारण है,
और [ एकम् एव परमं ज्ञानं स्थितम् ] जो एक परम ज्ञान है वह एक ही [ मोक्षाय ] मोक्षका कारण है- [ स्वतः विमुक्तं] जो कि ज्ञान स्वतः विमुक्त है ( अर्थात् तीनोंकाल परद्रव्य-भावोंसे भिन्न है)।
भावार्थ:-जबतक यथाख्यात चारित्र नहीं होता तबतक सम्यग्दृष्टिके दो धाराएँ रहती हैं,-शुभाशुभ कर्मधारा और ज्ञानधारा। उन दोनोंके एक साथ रहनेमें कोई भी विरोध नहीं है। (जैसे मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञानके परस्पर विरोध है वैसे कर्मसामान्य और ज्ञानके विरोध नहीं है।) ऐसी स्थितिमें कर्म अपना कार्य करता है और ज्ञान अपना कार्य करता है। जितने अंशमें शुभाशुभ कर्मधारा है उतने अंशमें कर्मबंध होता है और जितने अंशमें ज्ञानधारा है उतने अंशमें कर्मका नाश होता जाता है। विषयकषायके विकल्प या व्रतनियमके विकल्प- अथवा शुद्ध स्वरूपका विचार तक भीकर्मबंधका कारण है; शुद्ध परिणतिरूप ज्ञानधारा ही मोक्षका कारण है। ११० ।
अब कर्म और ज्ञानका नयविभाग बतलाते हैं:
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२५६
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समयसार
( शार्दूलविक्रीडित )
मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति यन्मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः । विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं
कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ।। १११ ।।
श्लोकार्थ :- [ कर्मनयावलम्बनपराः मग्नाः ] कर्मनयके आलंबनमें तत्पर ( कर्मनयके पक्षपाती) पुरुष डूबे हुए हैं [ यत् ] क्योंकि [ ज्ञानं न जानन्ति ] वे ज्ञानको नहीं जानते। [ ज्ञाननय - एषिणः अपि मग्नाः ] ज्ञाननयके इच्छुक ( पक्षपाती) पुरुष भी डूबे हुए हैं [ यत् ] क्योंकि [ अतिस्वच्छन्दमन्द - उद्यमाः ] वे स्वच्छंदतासे अत्यन्त मंदउद्यमी हैं (वे स्वरूप प्राप्तिका पुरुषार्थ नहीं करते, प्रमादी हैं और विषयकषायोंमें वर्तते हैं)। [ते विश्वस्य उपरि तरन्ति ] वे जीव विश्वके ऊपर तैरते हैं [ ये स्वयं सततं ज्ञानं भवन्तः कर्म न कुर्वन्ति ] जो कि स्वयं निरंतर ज्ञानरूप होते हुए - परिणमते हुए कर्म नहीं करते [च] और [ जातु प्रमादस्य वशं न यान्ति ] कभी भी प्रमादवश भी नहीं होते ( - स्वरूपमें उद्यमी रहते हैं)।
भावार्थ:-यहाँ सर्वथा एकांत अभिप्रायका निषेध किया है क्योंकि सर्वथा एकांत अभिप्राय ही मिथ्यात्व है। कितने ही लोग परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप आत्माको तो जानते नहीं हैं और व्यवहार दर्शनज्ञानचारित्ररूप क्रियाकांडके आडम्बरको मोक्षका कारण जानकर उसमें तत्पर रहते हैं - उसका पक्षपात करते हैं। ऐसे कर्मनयके पक्षपाती लोग-जो ज्ञानको तो नहीं जानते और कर्मनयमें ही खेदखिन्न हैं वे -संसारमें डूबते हैं। और कितने ही लोग आत्मस्वरूपको यथार्थ नहीं जानते तथा सर्वथा एकांतवादी मिथ्यादृष्टियोंके उपदेशसे अथवा अपने आप ही अंतरंगमें ज्ञानका स्वरूप मिथ्या प्रकार से कल्पित करके उसमें पक्षपात करते हैं। वे अपनी परिणतिमें किंचित्मात्र भी परिवर्तन हुए बिना अपनेको सर्वथा अबंध मानते हैं और व्यवहार दर्शनज्ञानचारित्रके क्रियाकांडको निरर्थक जानकर छोड़ देते हैं। ऐसे ज्ञाननयके पक्षपाती लोग जो की स्वरूपका कोई पुरुषार्थ नहीं करते और शुभ परिणामोंको छोड़कर स्वच्छंदी होकर विषय - कषायमें वर्तते हैं वे भी संसारसमुद्रमें डूबते हैं।
मोक्षमार्गी जीव ज्ञानरूप परिणमित होते हुए शुभाशुभ कर्मोंको ( अर्थात् शुभाशुभभावोंको ) हेय जानते हैं और शुद्ध परिणतिको ही उपादेय जानतें हैं। वे मात्र अशुभ कर्मोंको ही नहीं किन्तु शुभ कर्मोंको भी छोड़कर, स्वरूपमें स्थिर होने के लिये निरंतर उद्यमी रहते हैं - वे संपूर्ण स्वरूपस्थित होने तक पुरुषार्थ करते ही रहते हैं । जब तक, पुरुषार्थकी अपूर्णताके कारण, शुभाशुभ परिणामोंसे छूटकर स्वरूपमें संपूर्णतया स्थिर नहीं हुआ जा सकता तबतक - - - यद्यपि स्वरूपस्थिरताका
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हैं:
( मन्दाक्रान्ता ) भेदोन्मादं भ्रमरसभरान्नाटयत्पीतमोहं मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन। हेलोन्मीलत्परमकलया सार्धमारब्धकेलि ज्ञानज्योतिः कवलिततमः प्रोज्जजृम्भे भरेण ।। ११२ ।।
आंतरिक-आलंबन (अंतः साधन ) तो शुद्ध परिणति स्वयं ही है तथापि—आंतरिकआलंबन लेनेवाले को जो बाह्य आलंबनरूप होते हैं ऐसे ( शुद्ध स्वरूपके विचार आदि) शुभ परिणामोंमें वे जीव हेयबुद्धिसे प्रवर्तते हैं, किन्तु शुभ कर्मोंको निरर्थक मानकर उन्हें छोड़कर स्वच्छंदतया अशुभ कर्मोंमें प्रवृत्त होनेकी बुद्धि कभी नहीं होती । ऐसे एकांत अभिप्राय रहित जीव कर्मोंका नाश करके, संसारसे निवृत्त होते हैं। १११।
अब पुण्य-पाप अधिकारको पूर्ण करते हुए आचार्यदेव ज्ञानकी महिमा करते
२५७
श्लोकार्थ:-[ पीतमोहं] मोहरूपी मदिरा के पीनेसे, [ भ्रम - रस-भरात् भेदोन्मादं नाटयत् ] भ्रमरसके भारसे ( अतिशयपनेसे ) शुभाशुभ कर्मके भेदरूपी उन्मादको जो नचाता है [ तत् सकलम् अपि कर्म ] ऐसे समस्त कर्म को [ बलेन ] अपने बलद्वारा [ मूलोन्मूलं कृत्वा ] समूल उखाड़कर [ ज्ञानज्योतिः भरेण प्रोज्जजृम्भे ] अत्यंत सामर्थ्य युक्त ज्ञानज्योति प्रगट हुई। यह ज्ञानज्योति ऐसी है कि जिसने [ कवलिततमः] अज्ञानरूपी अंधकारका ग्रास कर लिया है अर्थात् जिसने अज्ञानरूपी अंधकारका नाश कर दिया है, [ हेला - उन्मिलत्] जो लीलामात्रसे ( - सहज पुरुषार्थसे) विकसित होती जाती है और [ परमकलया सार्धम् आरब्धकेलि ] जिसने परम कला अर्थात् केवलज्ञानके साथ क्रीड़ा प्रारम्भ की है ऐसी ज्ञानज्योति है। ( जबतक सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ है तबतक ज्ञानज्योति केवलज्ञानके साथ शुद्धन के बल से परोक्ष क्रीड़ा करती है, केवलज्ञान होने पर साक्षात् होती है । )
भावार्थ:-आपको ( ज्ञानज्योतिको) प्रतिबंधक कर्म ( भावकर्म ) जो कि शुभाशुभ भेदरूप होकर नाचता था और ज्ञानको भुला देता था उसे अपनी शक्तिसे उखाड़कर ज्ञानज्योति संपूर्ण सामर्थ्य सहित प्रकाशित हुई। वह ज्ञानज्योति अथवा ज्ञानकला केवलज्ञानरूपी परमकलाका अंश है तथा वह केवलज्ञानके संपूर्ण स्वरूपको जानती है और उस ओर प्रगति करती है, इसलिये यह कहा है कि “ ज्ञानज्योतिने केवलज्ञानके साथ कीड़ा प्रारम्भ की है ” । ज्ञानकला सहजरूपसे विकासको प्राप्त होती जाती है और अन्तमें वह परमकला अर्थात् केवलज्ञान हो जाती है । ११२ ।
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समयसार
२५८
इति पुण्यपापरूपेण द्विपात्रीभूतमेकपात्रीभूय कर्म निष्क्रान्तम्।
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ पुण्यपापप्ररूपक: तृतीयोऽङ्कः।।
टीका:-पुण्य-पापरूपसे दो पात्रोंके रूपमें नाचनेवाला कर्म एक पात्ररूप होकर ( रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गया।
भावार्थ:-यद्यपि कर्म सामान्यतया एक ही है तथापि उसने पुण्य-पापरूपी दो पात्रोंका स्वांग धारण करके रंगभूमिमें प्रवेश किया था। जब उसे ज्ञानने यथार्थतया एक जान लिया तब वह एक पात्ररूप होकर रंगभूमिसे बाहर निकल गया, और नृत्य करना बन्द कर दिया।
आश्रय, कारण, रूप, सवादसुं भेद विचारि गिनें दोऊ न्यारे, पुण्य रु पाप शुभाशुभभावनि बंध भये सुखदुःखकरा रे। ज्ञान भये दोउ एक लखै बुध आश्रय आदि समान विचारे,
बंधके कारण हैं दोऊ रूप, इन्हें तजि जिनमुनि मोक्ष पधारे। इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामकी टीकामें पुण्यपापका प्ररूपक तीसरा अंक समाप्त हुआ।
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-४आस्रव अधिकार
ज
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अथ प्रविशत्यास्त्रवः।
(द्रुतविलम्बित) अथ महामदनिर्भरमन्थरं समररङ्गपरागतमास्रवम्। अयमुदारगभीरमहोदयो जयति दुर्जयबोधधनुर्धरः ।। ११३ ।।
---००० दोहा ०००--- द्रव्यास्त्रवतें भिन्न है, भावास्त्रव करि नास ।
भये सिद्ध परमातमा, नमूं तिनहिं, सुख आस।। प्रथम टीकाकार कहते हैं कि-- 'अब आस्रव प्रवेश करता है'। जैसे नृत्यमंच स्वाँग पर नृत्यकार स्वाँग धारण कर प्रवेश करता है उसी प्रकार यहाँ आस्रवका स्वाँग है। उस स्वाँगको यथार्थतया जाननेवाला सम्यग्ज्ञान है उसकी महिमारूप मंगल करते हैं:
श्लोकार्थ:- [अथ] अब [ समररङ्गपरागतम् ] समरांगणमें आये हुए, [ महामदनिर्भरमन्थरं] महामदसे भरे हुए मदोन्मत [आस्रवम् ] आस्रवको [अयम् दुर्जयबोधधनुर्धरः] यह दुर्जय ज्ञान–धनुर्धर [जयति] जीत लेता है, [ उदारगभीरमहोदय:] जिसका (-ज्ञानरूपी बाणावलीका) महान उदय उदार है ( अर्थात् आस्रवको जीतने के लिये जितना पुरुषार्थ चाहिये उतना वह पूरा करता है) और गंभीर है, ( अर्थात् छद्मस्थ जीव जिसका पार नहीं पा सकते)।
भावार्थ:-यहाँ आस्रवने नृत्यमंच पर प्रवेश किया है। नृत्यमें अनेक रसोंका वर्णन होता है इसलिये यहाँ रसवत् अलंकारके द्वारा शान्त रसमें वीर रसको प्रधान करके वर्णन किया है कि 'ज्ञानरूपी धनुर्धर आस्रवको जीतता है'। समस्त विश्व को जीतकर मदोन्मत्त हुआ आस्रव संगामभूमिमें आकर खड़ा हो गया; किन्तु ज्ञान तो उससे भी अधिक बलवान योद्धा है इसलिये वह आस्रवको जीत लेता है अर्थात् अंतर्मुहूर्तमें कर्मोंका नाश करके केवलज्ञान उत्पन्न करता है। ज्ञानका ऐसा सामर्थ्य है। ११३।
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समयसार
२६०
तत्रास्रवस्वरूपमभिदधाति
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य सण्णसण्णा दु। बहुविहभेया जीवे तस्सेव अणण्णपरिणामा।। १६४ ।। णाणावरणादीयस्स ते दु कम्मस्स कारणं होंति। तेसि पि होदि जीवो य रागदोसादिभावकरो।।१६५ ।।
मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगौ च संज्ञासंज्ञास्तु। बहुविधभेदा जीवे तस्यैवानन्यपरिणामाः।। १६४ ।। ज्ञानावरणाद्यस्य ते तु कर्मणः कारणं भवन्ति। तेषामपि भवति जीवश्च रागद्वेषादिभावकरः।। १६५ ।।
रागद्वेषमोहा आम्रवाः इह हि जीवे स्वपरिणामनिमित्ता: अजडत्वे सति चिदाभासाः। मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाः पुद्गलपरिणामाः, ज्ञानावरणादि
अब आस्रवका स्वरूप कहते हैं:
मिथ्यात्व अविरत अरु कषायें, योग संज्ञ असंज्ञ हैं। ये विविध भेद जु जीवमें, जीवके अनन्य हि भाव हैं ।। १६४।। अरु वे हि ज्ञानावरणआदिक, कर्मके कारण बनें । उनका भि कारण जीव बने, जो रागद्वेषादिक करे ।।१६५।।
गाथार्थ:- [ मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्व , [ अविरमणं ] अविरमण , [ कषाययोगौ च ] कषाय और योग-यह आस्रव [ संज्ञासंज्ञाः तु] संज्ञ (चेतनके विकार) भी हैं और असंज्ञ (पुद्गलके विकार) भी हैं। [ बहुविधभेदाः] विविध भेदवाले संज्ञ आस्रव[ जीवे ] जो कि जीवमें उत्पन्न होते हैं वे- [ तस्य एव] जीवके ही [अनन्यपरिणामाः] अनन्य परिणाम है। [ ते तु] और असंज्ञ आस्रव [ज्ञानावरणाद्यस्य कर्मणः ] ज्ञानावरण आदि कर्मके [ कारणं ] कारण (निमित्त) [ भवन्ति ] होते हैं [ च] और [ तेषाम् अपि] उनका भी (असंज्ञ आस्रवोंके भी कर्मबंधका निमित्त होनेमें) [ रागद्वेषादिभावकरः जीव: ] रागद्वेषादि भाव करनेवाला जीव [ भवति ] कारण [ निमित्त ] होता है।
टीका:-इस जीवमें राग, द्वेष और मोह-यह आस्रव अपने परिणामके कारणसे होते हैं इसलिये वे जड़ न होनेसे चिदाभास हैं (-अर्थात् जिसमें चैतन्यका आभास है ऐसे हैं, चिद्विकार हैं)। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग-यह पुद्गलपरिणाम, ज्ञानावरणादि
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आस्रव अधिकार
२६१
पुद्गलकर्मास्रवणनिमित्तत्वात्, किलास्रवाः। तेषां तु तदास्रवणनिमित्तत्वनिमित्तं अज्ञानमया आत्मपरिणामा रागद्वेषमोहाः। तत आस्रवणनिमित्तत्वनिमित्तत्वात् रागद्वेषमोहा एवास्रवाः। ते चाज्ञानिन एव भवन्तीति अर्थादेवापद्यते।
अथ ज्ञानिनस्तदभावं दर्शयति
णत्थि दु आसवबंधो सम्मादिट्ठिस्स आसवणिरोहो। संते पुव्वणिबद्धे जाणदि सो ते अबंधंतो।।१६६ ।।
नास्ति त्वास्रवबन्धः सम्यग्दृष्टेरास्रवनिरोधः।। सन्ति पूर्वनिबद्धानि जानाति स तान्यबनन्।। १६६ ।।
पुद्गलकर्मके आस्रवणके निमित्त होनेसे, वास्तवमें आस्रव हैं; और उनके (मिथ्यात्वादि पुद्गलपरिणामोंके) कर्म-आस्रवणके निमित्तत्व के निमित्त होने से रागद्वेषमोह हैं जो कि अज्ञानमय आत्मपरिणाम है। इसलिये ( मिथ्यात्वादि पुद्गलपरिणामोंके ) आस्रवणक निमित्तत्वके निमित्तभूत होनेसे राग-द्वेष-मोह ही आस्रव है। और वे तो ( - रागद्वेषमोह) अज्ञानीके ही होते हैं यह अर्थमेंसे ही स्पष्ट ज्ञात होता है। ( यद्यपि गाथामें स्पष्ट शब्दोंमें नहीं कहा है तथापि गाथाके ही अर्थमेंसे यह आशय निकलता है।)
भावार्थ:-ज्ञानावरणादि कर्मोंके आस्रवणका (-आगमनका) निमित्तकारण तो मिथ्यात्वादिकर्मके उदयरूप पुद्गल-परिणाम हैं, इसलिये वे वास्तवमें आस्रव हैं। और उनके कर्मास्रवणके निमित्तभूत होनेका निमित्त जीवके रागद्वेषमोहरूप ( अज्ञानमय) परिणाम हैं इसलिये रागद्वेषमोह ही आस्रव हैं। उन रागद्वेषमोहको चिद्विकार भी कहा जाता है। वे रागद्वेषमोह जीवके अज्ञान-अवस्थामें ही होते हैं। मिथ्यात्व सहित ज्ञान ही अज्ञान कहलाता है। इसलिये मिथ्यादृष्टिके अर्थात् अज्ञानीके ही रागद्वेषमोहरूप आस्रव होते हैं।
अब यह बतलाते हैं कि ज्ञानीके उन आस्रवोंका (भावास्त्रवोंका) अभाव हैं:
सद्दृष्टिको आस्रव नहीं, नहिं बंध , आम्रवरोध है । नहि बाँधता जाने हि पूर्वनिबद्ध जो सत्ताविर्षे ।। १६६ ।।
गाथार्थ:- [ सम्यग्दृष्टे: तु] सम्यग्दृष्टिके [ आस्रवबन्धः ] आस्रव जिसका निमित्त है ऐसा बंध [ नास्ति ] नहीं है, [ आस्रवनिरोधः ] ( क्योंकि ) आस्रवका (भावास्रवका) निरोध है; [ तानि ] नवीन कर्मोको [ अबध्नन् ] नहीं बाँधता हुआ
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समयसार
२६२
यतो हि ज्ञानिनो ज्ञानमयैर्भावैरज्ञानमया भावाः परस्परविरोधि-नोऽवश्यमेव निरुध्यन्ते; ततोऽज्ञानमयानां भावानां रागद्वेषमोहानां आस्रवभूतानां निरोधात् ज्ञानिनो भवत्येव आस्रवनिरोधः। अतो ज्ञानी नास्रवनिमित्तानि पुद्गलकर्माणि बध्नाति, नित्यमेवाकर्तृत्वात् तानि नवानि न बध्नन् सदवस्थानि पूर्वबद्धानि, ज्ञानस्वभावत्वात्, केवलमेव जानाति। [ सः ] वह, [ सन्ति ] सत्तामें रहे हुए [ पूर्वनिबद्धानि] पूर्व बद्ध कर्मोको [ जानाति] जानता ही है।
टीका:-वास्तवमें ज्ञानीके ज्ञानमय भावोंसे अज्ञानमय भाव अवश्य ही निरुद्धअभावरूप होते हैं क्योंकि परस्पर विरोधी भाव एकसाथ नहीं रह सकते; इसलिये अज्ञानमय भावरूप राग-द्वेष-मोह जो कि आस्रवभूत (आस्रवस्वरूप) हैं उनका निरोध होनेसे, ज्ञानीके आस्रवका निरोध होता ही है। इसलिये ज्ञानी, आस्रव जिनका निमित्त है ऐसे (ज्ञानावरणादि) पुद्गलकर्मोको नहीं बाँधता, -सदा अकर्तृत्व होनेसे नवीन कर्मोंको न बाँधता हुआ सत्तामें रहे हुए पूर्वबद्ध कर्मोको, स्वयं ज्ञानस्वभाववान् होनेसे, मात्र जानता ही है। ( ज्ञानीका ज्ञान ही स्वभाव है, कर्तृत्व नहीं; यदि कर्तृत्व हो तो कर्मको बाँधे, ज्ञातृत्व होनेसे कर्म बंध नहीं करता।)
भावार्थ:-ज्ञानीके अज्ञानमय भाव नहीं होते, और अज्ञानमय भाव न होनेसे (अज्ञानमय) रागद्वेषमोह अर्थात् आस्रव नहीं होते और आस्रव न होनेसे नवीन बंध नहीं होते। इसप्रकार ज्ञानी सदा ही अकर्ता होनेसे नवीन कर्म नहीं बाँधता और जो पूर्वबद्ध कर्म सत्तामें विद्यमान है उनका मात्र ज्ञाता ही रहता है।
अविरतसम्यग्दृष्टिके भी अज्ञानमय रागद्वेषमोह नहीं होता। जो मिथ्यात्व सहित रागादि होता है वही अज्ञानके पक्षमें माना जाता है, सम्यक्त्व सहित रागादिक अज्ञानके पक्षमें नहीं हैं। सम्यग्दृष्टिके सदा ज्ञानमय परिणमन ही होता है। उसको चारित्रमोहके उदयकी बलवत्तासे जो रागादि होता है उसका स्वामित्व उसके नहीं है; वह रागादिको रोग समान जानकर प्रवर्तता है और अपनी शक्तिके अनुसार उन्हें काटता जाता है। इसलिये ज्ञानीके जो रागादि होता है वह विद्यमान होनेपर भी अविद्यमान जैसा ही है; वह आगामी सामान्य संसारका बंध नहीं करता, मात्र अल्प स्थिति-अनुभागवाला बंध करता है। ऐसे अल्प बंधको यहाँ नहीं गिना है।
इसप्रकार ज्ञानीके आस्रव नहीं होनेसे बंध नहीं होता।
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आस्रव अधिकार
२६३
अथ रागद्वेषमोहानामास्रवत्वं नियमयतिभावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंधगो भणिदो। रागादिविप्पमुक्को अबंधगो जाणगो णवरि।।१६७ ।।
भावो रागादियुतो जीवेन कृतस्तु बन्धको भणितः। रागादिविप्रमुक्तोऽबन्धको ज्ञायक: केवलम्।। १६७ ।।
__ इह खलु रागद्वेषमोहसम्पर्कजोऽज्ञानमय एव भावः, अयस्कान्तोपलसम्पर्कज इव कालायससूची, कर्म कर्तुमात्मानं चोदयति; तद्विवेकजस्तु ज्ञानमयः, अयस्कान्तोपलविवेकज इव कालायससूची, अकर्मकरणोत्सुकमात्मानं स्वभावेनैव स्थापयति। ततो रागादिसङ्कीर्णोऽज्ञानमय एव कर्तृत्वे चोदकत्वाद्बन्धकः। तदसङ्कीर्णस्तु स्वभावोद्भासकत्वात्केवलं ज्ञायक एव, न मनागपि बन्धकः।
अब, रागद्वेषमोह ही आस्रव है ऐसा नियम कहते हैं:
रागादियुत जो भाव जीवकृत उसहिको बंधक कहा। रागादिसे प्रविमुक्त ज्ञायक मात्र , बंधक नहिं रहा ।। १६७।।
गाथार्थ:- [ जीवेन कृतः ] जीवकृत [ रागादियुतः ] रागादियुक्त [ भावः तु] भाव [ बन्धक: भणितः] बंधक (नवीन कर्मोंका बंध करनेवाला) कहा गया है। [ रागादिविप्रमुक्तः] रागादिसे रहित भाव [अबन्धकः] बंधक नहीं है, [ केवलम् ज्ञायकः ] वह मात्र ज्ञायक ही है।
टीका:-जैसे लोहचुंबक-पाषाणके साथ संसर्गसे (लोहे की सुईमें) उत्पन्न हुआ भाव लोहेकी सुईको (गति करने के लिये) प्रेरित करता है उसीप्रकार रागद्वेषमोह के साथ मिश्रित होने से ( आत्मामें) उत्पन्न हुआ अज्ञानमय भाव ही आत्माको कर्म करनेके लिये प्रेरित करता है, और जैसे लोहचुंबक-पाषाणके असंसर्गसे ( सुईमें) उत्पन्न हुआ भाव लोहे की सुईको ( गति न करनेरूप) स्वभावमें ही स्थापित करता है उसीप्रकार रागद्वेषमोहके साथ मिश्रित नहीं होनेसे (आत्मामें) उत्पन्न हुआ ज्ञानमय भाव, जिसे कर्म करने की उत्सुकता नहीं है ( अर्थात् कर्म करने का जिसका स्वभाव नहीं है) ऐसे आत्माको स्वभावमें ही स्थापित करता है; इसलिये रागादिके साथ मिश्रित अज्ञानमय भाव ही कर्तृत्वमें प्रेरित करता है अतः वह बंधक है और रागादिके साथ अमिश्रित भाव स्वभावका प्रकाशक होनेसे मात्र ज्ञायक ही है, किंचित्मात्र भी बंधक नहीं है।
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२६४
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समयसार
अथ रागाद्यसङ्कीर्णभावसम्भवं दर्शयति
पक्के फलम्हि पडिए जह ण फलं बज्झए पुणो विंटे | जीवस्स कम्मभावे पडिए ण पुणोदयमुवेदि ।। १६८ ।। पक्वे फले पतिते यथा न फलं बध्यते पुनर्वृन्तैः। जीवस्य कर्मभावे पतिते न पुनरुदयमुपैति ।। १६८ ।।
यथा खलु पक्वं फलं वृन्तात्सकृद्विश्लिष्टंः सत् न पुनर्वृन्तसम्बन्धमुपैति तथा कर्मोदयजो भावो जीवभावात्सकृद्विश्लिष्टःसन् न पुनर्जीवभावमुपैति । एवं ज्ञानमयो रागाद्यसङ्कीर्णो भावः सम्भवति।
भावार्थ:- रागादिके साथ मिश्रित अज्ञानमय भाव ही बंधका कर्ता है, और रागादिके साथ अमिश्रित ज्ञानमय भाव बंधका कर्ता नहीं है - यह नियम है। अब, रागादिके साथ अमिश्रित भावकी उत्पत्ति बतलाते हैं:
फल पक्व खिरता, वृंत सह संबंध फिर पाता नहीं । त्यों कर्मभाव खिरा, पुनः जीवमें उदय पाता नहीं ।। १६८ ।।
गाथार्थः[ यथा] जैसे [ पक्वे फले ] पके हुए फलके [ पतिते ] गिरने पर [पुनः] फिरसे [फलं ] वह फल [ वृन्तैः ] उस डंठलके साथ [ न बध्यते ] नहीं जुड़ता, उसीप्रकार [ जीवस्य ] जीवके [ कर्मभावे ] कर्मभाव [ पतिते] खिर जानेपर वह [ पुनः] फिरसे [ उदयम् न उपैति ] उत्पन्न नहीं होता ( अर्थात् वह कर्मभाव जीवके साथ पुनः नहीं जुड़ता ) ।
टीका:-जैसे पाका हुआ फल एक बार डंठलसे गिर जाने पर फिर वह उसके साथ संबंधको प्राप्त नहीं होता, इसीप्रकार कर्मोदयसे उत्पन्न होनेवाला भाव जीवभावसे एकबार अलग होने पर फिर जीवभावको प्राप्त नहीं होता। इसप्रकार रागादिके साथ मिला हुआ ज्ञानमयभाव उत्पन्न होता है।
भावार्थ:-यदि ज्ञान एकबार ( अप्रतिपाती भावसे) रागादिकसे भिन्न परिणमित हो तो वह पुन: कभी भी रागादिके साथ मिश्रित नहीं होता। इसप्रकार उत्पन्न हुआ, रागादिके साथ न मिला हुआ ज्ञानमय भाव सदा रहता है । फिर जीव अस्थिरतारूपसे रागादिमें युक्त होता है वह निश्चयदृष्टिसे युक्तता है ही नहीं और उसके जो अल्प बन्ध होता है वह भी निश्चयदृष्टिसे बंध है ही नहीं, क्योंकि अबद्धस्पृष्टरूपसे परिणमन निरंतर वर्तता ही रहता है। तथा उसे मिथ्यात्वके साथ रहनेवाली प्रकृतियोंका बंध नहीं होता और अन्य प्रकृतियाँ सामान्य संसारका कारण नहीं है; मूलसे कटे हुए वृक्षके हरे पत्तोंके समान वे प्रकृतियाँ शीघ्र ही सूखनेयोग्य हैं।
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आस्रव अधिकार
२६५
(शालिनी) भावो रागद्वेषमोहैर्विना यो जीवस्य स्याद् ज्ञाननिवृत्त एव। रुन्धन् सर्वान् द्रव्यकर्मास्रवौधान्
एषोऽभावः सर्वभावास्रवाणाम्।।११४ ।। अथ ज्ञानिनो द्रव्यास्रवाभावं दर्शयति
पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स। कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स।। १६९ ।।
पृथ्वीपिण्डसमानाः पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्ययास्तस्य। कर्मशरीरेण तु ते बद्धाः सर्वेऽपि ज्ञानिनः।। १६९ ।।
अब, “ज्ञानमय भाव ही भावात्रवका अभाव है' इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [ जीवस्य ] जीवका [ यः] जो [ रागद्वेषमोहै: विना] रागद्वेषमोह रहित, [ज्ञाननिवृत्त: एव भावः] ज्ञानसे ही रचित भाव [ स्यात् ] है और [ सर्वान् द्रव्यकर्मास्रव-ओधान् रुन्धन् ] जो सर्व द्रव्यकर्मके आस्रव समूहको (अर्थात् थोकबंध द्रव्यकर्मके प्रवाहको) रोकनेवाला है, [एषः सर्व-भावास्रवाणाम् अभावः ] वह (ज्ञानमय) भाव सर्व भावास्रवके अभावस्वरूप है।
भावार्थ:-मिथ्यात्व रहित भाव ज्ञानमय है। वह ज्ञानमय भाव रागद्वेषमोह रहित है और द्रव्यकर्मके प्रवाहको रोकनेवाला है; इसलिये वह भाव ही भावास्रवके अभावस्वरूप है।
संसारका कारण मिथ्यात्व ही है; इसलिये मिथ्यात्वसंबंधी रागादिका अभाव होनेपर, सर्व भावात्रवोंका अभाव हो जाता है यह यहाँ कहा गया है। ११४ ।
अब, यह बतलाते हैं कि ज्ञानीके द्रव्यास्त्रवका अभाव है :---
जो सर्व पूर्वनिबद्ध प्रत्यय, वर्तते हैं ज्ञानिके । वे पृथ्विपिंड समान हैं, कार्मणशरीर निबद्ध हैं ।। १६९ ।।
गाथार्थ:- [ तस्य ज्ञानिनः] उस ज्ञानीके [ पूर्वनिबद्धाः तु] पूर्वबद्ध [ सर्वे अपि] समस्त [ प्रत्ययाः ] प्रत्यय [ पृथ्वीपिण्डसमानाः ] मिट्टीके ढेलेके समान है [ तु] और [ ते ] वे [ कर्मशरीरेण ] ( मात्र) कार्मण शरीरके साथ [ बद्धाः ] बँधे हुए हैं।
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समयसार
२६६
ये खलु पूर्वमज्ञानेन बद्धा मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा द्रव्यास्रवभूताः प्रत्ययाः, ते ज्ञानिनो द्रव्यान्तरभूता अचेतनपुद्गलपरिणामत्वात् पृथ्वीपिण्डसमानाः। ते तु सर्वेऽपि स्वभावत एव कार्माणशरीरेणैव सम्बद्धाः, न तु जीवेन। अत: स्वभावसिद्ध एव द्रव्यास्रवाभावो ज्ञानिनः।
(उपजाति) भावास्त्रवाभावमयं प्रपन्नो द्रव्यास्त्रवेभ्यः स्वत एव भिन्नः। ज्ञानी सदा ज्ञानमयैकभावो निरास्रवो ज्ञायक एक एव ।। ११५ ।।
टीका:-जो पहले अज्ञानसे बँधे हुए मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप द्रव्यास्त्रवभूत प्रत्यय हैं, वे अन्यद्रव्यस्वरूप प्रत्यय अचेतन पुद्गलपरिणामवाले हैं इसलिये ज्ञानीके लिये मिट्टीके ढेलेके समान हैं (-जैसे मिट्टी आदि पुद्गलस्कंध हैं वैसे ही यह प्रत्यय हैं); वे तो समस्त ही, स्वभावसे ही मात्र कार्मण शरीरके साथ बँधे हुए हैं-संबंधयुक्त हैं, जीवके साथ नहीं; इसलिये ज्ञानीके स्वभाव से ही द्रव्यास्त्रवका अभाव सिद्ध है।
भावार्थ:-ज्ञानीके जो पहले अज्ञानदशामें बँधे हुए मिथ्यात्वादि द्रव्यास्त्रवभूत प्रत्यय हैं वे तो मिट्टीके ढेलेकी भाँति पुद्गलमय है इसलिये वे स्वभावसे ही अमूर्तिक चैतन्यस्वरूप जीवसे भिन्न हैं। उनका बंध अथवा संबंध पुद्गलमय कार्मण शरीरके साथ ही है, चिन्मय जीवके साथ नहीं है। इसलिये ज्ञानीके द्रव्यास्त्रवका अभाव तो स्वभावसे ही है। (और ज्ञानीके भावात्रवका अभाव होनेसे, द्रव्यास्रव नवीन कर्मों के आस्रवके कारण नहीं होते इसलिये इस दृष्टिसे भी ज्ञानीके द्रव्यासवका अभाव है।)
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [ भावास्रव-अभावम् प्रपन्नः] भावास्रवोंके अभावको प्राप्त और [ द्रव्यास्रवेभ्यः स्वतः एव भिन्नः] द्रव्यास्रवोंसे तो स्वभावसे ही भिन्न [ अयं ज्ञानी] ज्ञानी- [सदा ज्ञानमय-एक-भावः] जो कि सदा एक ज्ञानमय भाववाला है-- [निरास्रवः ] निरास्रव ही है, [ एकः ज्ञायक: एव ] मात्र एक ज्ञायक ही है।
भावार्थ:-ज्ञानीके रागद्वेषमोहस्वरूप भावास्सवका अभाव हुआ है और द्रव्यास्त्रवसे तो सदा स्वयमेव भिन्न ही है क्योंकि द्रव्यास्त्रव पुद्गलपरिणामस्वरूप है और ज्ञानी चैतन्यस्वरूप है। इसप्रकार ज्ञानीके भावास्त्रव तथा द्रव्यास्त्रवका अभाव होनेसे वह निरास्त्रव है। ११५ ।
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आस्रव अधिकार
२६७
कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत्
चउविह अणेयभेयं बंधते णाणदंसणगुणेहिं। समए समए जम्हा तेण अबंधो त्ति णाणी दु।। १७० ।।
चतुर्विधा अनेकभेदं बध्नन्ति ज्ञानदर्शनगुणाभ्याम्। समये समये यस्मात् तेनाबन्ध इति ज्ञानी तु।।१७० ।।
ज्ञानी हि तावदासवभावभावनाभिप्रायाभावान्निराम्रव एव। यत्तु तस्यापि द्रव्यप्रत्ययाः प्रतिसमयमनेकप्रकारं पुद्गलकर्म बध्नन्ति , तत्र ज्ञानगुणपरिणाम एव हेतुः।
कथं ज्ञानगुणपरिणामो बन्धहेतुरिति चेत्
जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि। अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो।।१७१ ।।
अब यह प्रश्न होता है कि ज्ञानी निरास्त्रव कैसे है ? उसके उत्तरस्वरूप गाथा कहते हैं :---
चउविधानव समय समय जु, ज्ञानदर्शन गुणहिसे । बहु भेद बाँधे कर्म , इससे ज्ञानि बंधक नाहिं है ।। १७०।।
गाथार्थ:- [यस्मात् ] क्योंकि [चतुर्विधाः ] चार प्रकारके द्रव्यास्रव [ ज्ञानदर्शनगुणाभ्याम् ] ज्ञानदर्शनगुणोंके द्वारा [ समये समये] समय समय पर [अनेकभेदं] अनेक प्रकारका कर्म [ बध्नन्ति ] बाँधते हैं [ तेन] इसलिये [ ज्ञानी तु] ज्ञानी तो [ अबन्धः इति ] अबंध है।
टीका:-पहले, ज्ञानी तो आस्रवभावकी भावनाके अभिप्रायके अभावके कारण निरास्त्रव ही है; परंतु जो उसे भी द्रव्यप्रत्यय प्रति समय अनेक प्रकारका पुद्गलकर्म बाँधते हैं, वहाँ ज्ञानगुणका परिणमन ही कारण है।
__ अब यह प्रश्न होता है कि ज्ञानगुणका परिणमन बंधका कारण कैसे है ? उसके उत्तरकी गाथा कहते हैं :---
जो ज्ञानगुणकी जघन्यतामें, वर्तता गुण ज्ञानका । फिरफिर प्रणमता अन्यरूप जु, उसहिसे बंधक कहा ।। १७१।।
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समयसार
२६८
यस्मात्तु जघन्यात् ज्ञानगुणात् पुनरपि परिणमते। अन्यत्वं ज्ञानगुणः तेन तु स बन्धको भणितः।। १७१ ।।
ज्ञानगुणस्य हि यावज्जघन्यो भावः तावत् तस्यान्तर्मुहूर्त-विपरिणामित्वात् पुनः पुनरन्यतयास्ति परिणामः। स तु, यथाख्यात-चारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यम्भाविरागसद्भावात् , बन्धहेतुरेव स्यात्।
एवं सति कथं ज्ञानी निराम्रव इति चेत्
दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण। णाणी तेण दु बज्झदि पोग्गलकम्मेण विविहेण ।।१७२ ।।
गाथार्थ:- [यस्मात् तु] क्योंकि [ज्ञानगुणः] ज्ञानगुण, [जघन्यात् ज्ञानगुणात् ] जघन्य ज्ञानगुणके कारण [ पुनरपि ] फिरसे भी [अन्यत्वं ] अन्यरूपसे [ परिणमते ] परिणमन करता है, [ तेन तु] इसलिये [ सः ] वह ( ज्ञानगुण ) [ बन्धकः ] कर्मोंका बंधक [ भणितः ] कहा गया है।
टीका:-जब तक ज्ञानगुणका जघन्य भाव है ( –क्षायोपशमिकभाव है ) तबतक वह (ज्ञानगुण) अंतर्मुहूर्तमें विपरिणामको प्राप्त होता है पुनः पुनः उसका अन्यरूप परिणमन होता है। वह (ज्ञानगुणका जघन्य भावसे परिणमन), यथाख्यातचारित्रअवस्थाके नीचे अवश्यंभावी रागका सद्भाव होनेसे, बंधका कारण ही है।
भावार्थ:-क्षायोपशमिक ज्ञान एक ज्ञेय पर अंतर्मुहूत ही ठहरता है, फिर वह अवश्य ही अन्य ज्ञेयको अवलंबता है; स्वरूपमें भी वह अंतर्मुहूर्त ही टिक सकता है, फिर वह विपरिणामको प्राप्त होता है। इसलिये ऐसा अनुमान भी हो सकता है कि सम्यग्दृष्टि आत्मा सविकल्प दशामें हो या निर्विकल्प अनुभवदशामें हो--उसे यथाख्यातचारित्र-अवस्था होने से पूर्व अवश्य ही रागभावका सद्भाव होता है; और राग होनेसे बंध भी होता है। इसलिये ज्ञानगुणके जघन्य भावको बंधका हेतु कहा गया
है।
___ अब पुन: प्रश्न होता है कि--यदि ऐसा है (अर्थात् ज्ञानगुणका जघन्य भाव बंधका कारण है) तो फिर ज्ञानी निरास्त्रव कैसे हैं ? उसके उत्तरस्वरूप गाथा कहते
हैं:
चारित्र दर्शन, ज्ञान तीन, जघन्य भाव जु परिणमे । उससे हि ज्ञानी विविध पुद्गलकर्मसे बंधात है ।। १७२।।
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२६९
दर्शनज्ञानचारित्रं यत्परिणमते जघन्यभावेन । ज्ञानी तेन तु बध्यते पुद्गलकर्मणा विविधेन ।। १७२ ।।
च
यो हि ज्ञानी स *बुद्धिपूर्वकरागद्वेषमोहरूपास्रवभावाभावात् निरास्रव एव । किन्तु सोऽपि यावज्ज्ञानं सर्वोत्कृष्टभावेन द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वाऽशक्तः सन् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरति तावत्तस्यापि, जघन्यभावान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानाबुद्धिपूर्वककलङ्कविपाकसद्भावात्, पुद्गलकर्मबन्ध: स्यात्। अतस्तावज्ज्ञानं द्रष्टव्यं ज्ञातव्यमनुचरितव्यं च यावज्ज्ञानस्य यावान् पूर्णो भावस्तावान् दृष्टो ज्ञातोऽनुचरितश्च सम्यग्भवति । ततः साक्षात् ज्ञानीभूतः सर्वथा निरास्रव एव स्यात् ।
गाथार्थ:- [ यत् ]
क्योंकि [ दर्शनज्ञानचारित्रं ] दर्शन - ज्ञान - चारित्र [ जघन्यभावेन] जघन्य भावसे [ परिणमते ] परिणमन करते हैं [ तेन तु] इसलिये [ज्ञानी ] ज्ञानी [ विविधेन ] अनेक प्रकारके [ पुद्गलकर्मणा ] पुद्गलकर्मसे [ बध्यते ] बँधता है।
टीका:- जो वास्तवमें ज्ञानी है, उसके बुद्धिपूर्वक ( इच्छापूर्वक ) रागद्वेषमोहरूपी आस्रवभावोंका अभाव है इसलिये, वह निरास्त्रव ही है। परंतु वहाँ इतना विशेष है कि —वह ज्ञानी जबतक ज्ञानको सर्वोत्कृष्ट भावसे देखने, जानने और आचरण करनेमें अशक्त वर्तता हुआ जघन्य भावसे ही ज्ञानको देखता, जानता और आचरण करता है तबतक उसे भी, जघन्यभावकी अन्यथा अनुपपत्तिके द्वारा ( अर्थात् जघन्य भाव अन्य प्रकारसे नहीं बनता इसलिये ) जिसका अनुमान हो सकता है ऐसे अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकके विपाकका सद्भाव होनेसे, पुद्गलकर्मका बंध होता है। इसलिये तबतक ज्ञानको देखना, जानना और आचरण करना चाहिये जबतक ज्ञानका जितना पूर्ण भाव है उतना देखने, जानने और आचरणमें भली भाँति आ जाये। तबसे लेकर साक्षात् ज्ञानी होता हुआ ( वह आत्मा ) सर्वथा निरास्त्रव ही होता है।
भावार्थ:-ज्ञानीके बुद्धिपूर्वक ( अज्ञानमय) रागद्वेषमोहका अभाव होनेसे वह निरास्त्रव ही है। परंतु जबतक क्षायोपशमिक ज्ञान है तबतक वह ज्ञानी ज्ञानको सर्वोत्कृष्ट भावसे न तो देख सकता है, न जान सकता है और न आचरण कर सकता है-किन्तु जघन्य भावसे देख सकता है, जान सकता है और आचरण कर सकता है; इससे यह ज्ञात होता कि उस ज्ञानीके अभी अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकका
विपाक
* बुद्धिपूर्वकास्ते परिणामा ये मनोद्वारा बाह्यविषयानालम्बन प्रवर्तते, प्रवर्तमानाश्च स्वानुभवगम्याः अनुमानेन परास्यापि गम्या भवन्ति । अबुद्धिपूर्वकास्तु परिणामा इन्द्रियमनोव्यापारमंतरेण केवलमोहोदय निमित्तास्ते तु स्वानुभवगोचरत्वादबुद्धिपूर्वका इति विशेषा ।
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समयसार
२७०
( शार्दूलविक्रीडित) संन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयं वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन्। उच्छिन्दन्परवृत्तिमेव सकलां ज्ञानस्य पूर्णो भवनात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा।। ११६ ।।
(चारित्रमोहसंबंधी रागद्वेष) विद्यमान है और इससे उसके बंध भी होता है। इसलिये उसे यह उपदेश है कि-जबतक केवलज्ञान उत्पन्न न हो तबतक निरन्तर ज्ञानका ही ध्यान करना चाहिये, ज्ञानको ही देखना चाहिये, ज्ञानको ही जानना चाहिये और ज्ञानका ही आचरण करना चाहिये। इसी मार्गसे दर्शन-ज्ञान-चारित्रका परिणमन बढ़ता जाता है और ऐसा करते करते केवलज्ञान प्रगट होता है। जब केवलज्ञान प्रगटता है तबसे आत्मा साक्षात ज्ञानी है और सर्व प्रकारसे निरास्त्रव है।
जबतक क्षायोपशमिक ज्ञान है तबतक अबुद्धिपूर्वक (चारित्रमोहका) राग होनेपर भी, बुद्धिपूर्वक रागके अभावकी अपेक्षासे ज्ञानीके निरास्त्रवत्व कहा है और अबुद्धिपूर्वक रागका अभाव होनेपर तथा केवलज्ञान प्रगट होनेपर सर्वथा निरास्त्रवत्व कहा। यह, विवक्षाकी विचित्रता है। अपेक्षासे समझने पर यह सर्व कथन यथार्थ है।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [ आत्मा यदा ज्ञानी स्यात् तदा] आत्मा जब ज्ञानी होता है तब , [ स्वयं ] स्वयं [ निजबुद्धिपूर्वम् समग्रं रागं] अपने समस्त बुद्धिपूर्वक रागको [ अनिशं] निरंतर [ संन्यस्यन् ] छोड़ता हुआ अर्थात् न करता हुआ, [अबुद्धिपूर्वम् ] और जो अबुद्धिपूर्वक राग है [तं अपि] उसे भी [जेतुं] जीतनेके लिये [ वारंवारम् ] बारंबार [ स्वशक्तिं स्पृशन् ] ( ज्ञानानुभवनरूप) स्वशक्तिको स्पर्श करता हुआ और (इसप्रकार) [ सकलां परवृत्तिम् एव उच्छिन्दन् ] समस्त परवृत्तिको-परपरिणतिको-उखाड़ता हुआ [ ज्ञानस्य पूर्णः भवन् ] ज्ञानके पूर्णभावरूप होता हुआ, [ हि ] वास्तवमें [ नित्यनिरास्रवः भवति ] सदा निरास्रव है।
भावार्थ:-ज्ञानीने समस्त रागको हेय जाना है। वह रागको मिटाने के लिये उद्यम किया करता है; उसके आस्रवभावकी भावनाका अभिप्राय नहीं है; इसलिये वह वह सदा निरास्त्रव ही कहलाता है।
परवृति ( परपरिणति) दो प्रकारकी है-अश्रद्धारूप और अस्थिरतारूप। ज्ञानीने अश्रद्धारूप परवृत्तिको छोड़ दिया है और वह अस्थिरतारूप परवृत्तिको जीतने के लिये निज शक्तिको बारम्बार स्पर्श करता है अर्थात् परिणतिको स्वरूप प्रति बारंबार उन्मुख किया करता है। इसप्रकार सकल परवृत्तिको उखाड़कर के केवलज्ञान प्रगट करता है।
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आस्रव अधिकार
२७१
(अनुष्टुभ् ) सर्वस्यामेव जीवन्त्यां द्रव्यप्रत्ययसन्ततौ। कुतो निरास्रवो ज्ञानी नित्यमेवेति चेन्मतिः।। ११७ ।।
सव्वे पुव्वणिबद्धा दु पच्चया अत्थि सम्मदिट्ठिस्स। उवओगप्पाओगं बंधते कम्मभावेण।।१७३ ।। होदूण णिरुवभोज्जा तह बंधदि जह हवंति उवभोज्जा। सत्तट्ठविहा भूदा णाणावरणादिभावेहिं।। १७४ ।।
'बुद्धिपूर्वक' और 'अबुद्धिपूर्वक' का अर्थ इसप्रकार है:-जो रागादिपरिणाम इच्छा सहित होते हैं सो बुद्धिपूर्वक हैं और जो रागादिपरिणाम इच्छा रहित परनिमित्त की बलवत्तासे होते हैं सो अबुद्धिपूर्वक हैं। ज्ञानीके जो रागादिपरिणाम होते है सो वे सभी अबुद्धिपूर्वक ही हैं; सविकल्प दशामें होनेवाले रागादिपरिणाम ज्ञानीको ज्ञात तो हैं तथापि अबुद्धिपूर्वक हैं क्योंकि वे बिना ही इच्छाके होते हैं।
(पण्डित राजमल्लजीने इस कलशकी टीका करते हुए 'बुद्धिपूर्वक' और अबुद्धिपूर्वक' का अर्थ इसप्रकार किया है:-जो रागादिपरिणाम मनके द्वारा, बाह्य विषयोंका अवलंबन लेकर प्रवर्तते हैं, और जो प्रवर्तते हुए जीवको निजको ज्ञात होते हैं तथा दूसरोंको भी अनुमानसे ज्ञात होते हैं वे परिणाम बुद्धिपूर्वक हैं; और जो रागादिपरिणाम इंद्रिय-मनके व्यापारके अतिरिक्त मात्र मोहोदय निमित्तसे होते हैं तथा जीवको ज्ञात नहीं होते वे अबुद्धिपूर्वक हैं। इन अबुद्धिपूर्वक परिणामोंको प्रत्यक्ष ज्ञानी जानता है और उनके अविनाभावी चिह्नोंसे वे अनुमानसे भी ज्ञात होते हैं)।११६ ।
अब शिष्यकी आशंकाका श्लोक कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [ सर्वस्याम् एव द्रव्यप्रत्ययसंततौ जीवन्त्यां] ज्ञानीके समस्त द्रव्यास्रवकी संतति विद्यमान होने पर भी [ कुतः] यह क्यों कहा है कि [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ नित्यम् एव ] सदा ही [ निरास्रवः ] निरास्रव है ?'- [इति चेत् मतिः ] यदि तेरी यह मति (आशंका) है तो अब उसका उत्तर कहा जाता है। ११७।
अब, पूर्वोक्त आशंकाके समाधानार्थ गाथा कहते हैं:
जो सर्व पूर्वनिबद्ध प्रत्यय , वर्तते सुदृष्टिके। उपयोगके प्रायोग्य बंधन, कर्मभावोंसे करे ।। १७३।। अनभोग्य रह उपभोग्य जिस विध होय उस विध बाँधते । ज्ञानावरण इत्यादि कर्म जु सप्त-अष्ट प्रकारके ।। १७४।।
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समयसार
२७२
संता दु णिरुवभोज्जा बाला इत्थी जहेह पुरिसस्स। बंधदि ते उवभोज्जे तरुणी इत्थी जह णरस्स।।१७५ ।। एदेण कारणेण दु सम्मादिट्ठी अबंधगो भणिद्रो। आसवभावाभावे ण पच्चया बंधगा भणिदा।।१७६ ।।
सर्वे पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्ययाः सन्ति सम्यग्दृष्टेः। उपयोगप्रायोग्यं बध्नन्ति कर्मभावेन।। १७३ ।। भूत्वा निरुपभोग्यानि तथा बध्नाति यथा भवन्त्युपभोग्यानि। सप्ताष्टविधानि भूतानि ज्ञानावरणादिभावैः।। १७४ ।। सन्ति तु निरुपभोग्यानि बाला स्त्री यथेह पुरुषस्य। बध्नाति तानि उपभोग्यानि तरुणी स्त्री यथा नरस्य।। १७५ ।। एतेन कारणेन तु सम्यग्दृष्टिरबन्धको भणितः। आस्रवभावाभावे न प्रत्यया बन्धका भणिताः।। १७६ ।।
सत्ता विर्षे वे निरुपभोग्य हि, बालिका ज्यों पुरुषको । उपभोग्य बनते वे हि बांधे , यौवना ज्यों पुरुषको ।। १७५।। इस हेतुसे सम्यक्त्वसंयुत, जीव अनबंधक कहे ।
आसरवभावअभावमें प्रत्यय नहीं बंधक कहे ।। १७६ ।।
गाथार्थ:- [ सम्यग्दृष्टे:] सम्यग्दृष्टिके [ सर्वे ] समस्त [ पूर्वनिबद्धाः तु] पूर्वबद्ध [प्रत्ययाः] प्रत्यय (द्रव्यास्रव) [ सन्ति ] सत्तारूपमें विद्यमान हैं वे [ उपयोगप्रायोग्यं] उपयोगके प्रयोगानुसार, [ कर्मभावेन ] कर्मभावके द्वारा (-रागादिके द्वारा) [ बध्नन्ति ] नवीन बंध करते हैं। वे प्रत्यय, [निरुपभोग्यानि] निरुपभोग्य [ भूत्वा] होकर फिर [ यथा] जैसे [उपभोग्यानि] उपभोग्य [ भवन्ति ] होते हैं [ तथा] उसीप्रकार, [ ज्ञानावरणादिभावैः] ज्ञानावरणादि भावसे [ सप्ताष्टविधानि भूतानि] सात-आठ प्रकारसे होनेवाले कर्मोंको [ बध्नाति] बाँधते हैं। [ सन्ति तु] सत्ता-अवस्थामें वे [निरुपभोग्यानि] निरुपभोग्य हैं अर्थात् भोगनेयोग्य नहीं हैं-[ यथा] जैसे [इह] जगतमें [बाला स्त्री] बाल स्त्री [पुरुषस्य ] पुरुषके लिये निरुपभोग्य है। [यथा] जैसे [ तरुणी स्त्री ] तरुण स्त्री युवती [ नरस्य ] पुरुषको बाँध लेती है, उसीप्रकार [ तानि] वे [ उपभोग्यानि] उपभोग्य अर्थात् भोगने योग्य होनेपर बंधन करते हैं। [ एतेन तु कारणेन] इस कारणसे [ सम्यदृष्टि:] सम्यग्दृष्टिको [अबन्धकः] अबंधक [ भणतिः] कहा है, क्योंकि [आस्रवभावाभावे] आस्रवभावके अभावमें [प्रत्ययाः ] प्रत्ययोंको [ बन्धकाः ] ( कर्मोंका ) बंधक [ न भणिताः] नहीं कहा है।
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आस्रव अधिकार
२७३
यतः सदवस्थायां तदात्वपरिणीतबालस्त्रीवत् पूर्वमनुपभोग्यत्वेऽपि विपाकावस्थायां प्राप्तयौवनपूर्वपरिणीतस्त्रीवत् उपभोग्यत्वात् उपयोगप्रायोग्यं पुद्गलकर्मद्रव्यप्रत्ययाः सन्तोऽपि कर्मोदयकार्यजीवभावसद्भावादेव बध्नन्ति। ततो ज्ञानिनो यदि द्रव्यप्रत्ययाः पूर्वबद्बाः सन्ति, सन्तु; तथापि स तु निरास्रव एव, कर्मोदयकार्यस्य रागद्वेषमोहरूपस्यास्रवभावस्याभावे द्रव्यप्रत्ययानाम-बन्धहेतुत्वात्।
टीका:-जैसे पहले तो तत्कालकी परिणीत बाल स्त्री अनुपभोग्य है किन्तु यौवनको प्राप्त वह पहलेकी परिणीत स्त्री यौवन-अवस्थामें उपभोग्य होती है और जिसप्रकार उपभोग्य हो तद्नुसार वह पुरुषके रागभावके कारण ही, पुरुषको बंधन करती है-वशमें करती है, इसीप्रकार जो पहले तो सत्ता-अवस्थामें अनुपभोग्य हैं किन्तु विपाक-अवस्थामें उपभोगयोग्य होते हैं ऐसे पुद्गलकर्मरूप द्रव्यप्रत्यय होनेपर भी वे जिसप्रकार उपभोग्य हों तद्नुसार ( अर्थात् उपयोगके प्रयोगानुसार), कर्मोदय के कार्यरूप जीवभावके सद्भावके कारण ही, बंधन करते हैं। इसलिये ज्ञानीके यदि पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्यय विद्यमान हैं, तो भले रहें; तथापि वह (ज्ञानी) तो निरास्त्रव ही है, क्योंकि कर्मोदयका कार्य जो रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव है उसके अभावमें द्रव्यप्रत्यय बंधके कारण नहीं हैं। (जैसे यदि पुरुषको रागभाव हो तो ही यौवनावस्थाको प्राप्त स्त्री उसे वश कर सकती है इसीप्रकार जीवको आस्रवभाव हो तब ही उदयप्राप्त द्रव्यप्रत्यय नवीन बंध कर सकते हैं।)
भावार्थ:-द्रव्यास्त्रवोंके उदय और जीवके रागद्वेषमोहभावका निमित्तनैमित्तिकभाव है। द्रव्यास्त्रवोंके उदयमें युक्त हुवे बिना जीवके भावास्रव नहीं हो सकता और इसलिये बंध भी नहीं हो सकता। द्रव्यात्रवोंका उदय होनेपर जीव जैसे उसमें युक्त हो अर्थात् जिसप्रकार उसे भावात्रव हो उसीप्रकार द्रव्यास्त्रव नवीन बंधके कारण होते हैं। यदि जीव भावास्त्रव न करे तो उसे नवीन बंध नहीं होता।
सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वका और अनंतानुबंधी कषायका उदय न होनेसे उसे उस प्रकारके भावास्त्रव तो होते ही नहीं और मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी कषाय संबंधी बंध भी नहीं होता। (क्षायिक सम्यग्दृष्टिके सत्तामेंसे मिथ्यात्वका क्षय होते समय ही अनंतानुबंधी कषायका तथा तत्संबंधी अविरति और योगभावका भी क्षय हो गया होता है इसलिये उसे उसप्रकारका बंध नहीं होता; औपशमिक सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व तथा अनंतानबंधी कषाय मात्र उपशममें सत्तामें ही होनेसे सत्तामें रहा हआ द्रव्य उदयमें आये बिना उसप्रकारके बंधका कारण नहीं होता; और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टिको भी सम्यक्त्वमोहनीयके अतिरिक्त छह प्रकृतियाँ विपाकमें ( उदयमें) नहीं आती इसलिये उसप्रकारका बंध नहीं होता।)
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२७४
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समयसार
( मालिनी )
विजहति न हि सत्तां प्रत्ययाः पूर्वबद्धा: समयमनुसरन्तो यद्यपि द्रव्यरूपाः। तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासादवतरति न जातु ज्ञानिनः कर्मबन्धः।। ११८ ।।
अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादिके जो चारित्रमोहका उदय विद्यमान है उसमें जिस प्रकार जीव युक्त होता है उसीप्रकार उसे नवीन बंध होता है; इसलिये गुणस्थानोंके वर्णनमें अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानोंमें अमुक अमुक प्रकृतियोंका बंध कहा है, किन्तु यह बंध अल्प है इसलिये उसे सामान्य संसारकी अपेक्षासे बंधमें नहीं गिना जाता। सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहके उदयमें स्वामित्वभावसे युक्त नहीं होता, वह मात्र अस्थिरतारूपसे युक्त होता है; और अस्थिरतारूप युक्तता निश्चयदृष्टिमें युक्तता ही नहीं है। इसलिये सम्यग्दृष्टिके रागद्वेषमोहका अभाव कहा गया है। जबतक जीव कर्मका स्वामित्व रखकर कर्मोदयमें परिणमित होता तबतक ही वह कर्मका कर्ता कहलाता है; उदयका ज्ञातादृष्टा होकर परके निमित्तसे मात्र अस्थिरतारूप परिणमित होता है तब कर्ता नहीं किन्तु ज्ञाता ही है। इस अपेक्षासे सम्यग्दृष्टि होनेके बाद चारित्रमोहके उदयरूप परिणमित होते हुए भी उसे ज्ञानी और अबंधक कहा गया है। जबतक मिथ्यात्वका उदय है और उसमें युक्त होकर जीव रागद्वेषमोहभावसे परिणमित होता है तबतक ही उसे अज्ञानी और बंधक कहा जाता है। इसप्रकार ज्ञानी - अज्ञानी और बंध–अबंधका यह भेद जानना । और शुद्ध स्वरूपमें लीन रहनेके अभ्यास द्वारा केवलज्ञान प्रगट होनेसे जब जीव साक्षात् संपूर्णज्ञानी होता है तब वह सर्वथा निरास्त्रव हो जाता है यह पहले कहा जा चुका है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :--
श्लोकार्थ :- [ यद्यपि ] यद्यपि [ समयम् अनुसरन्तः ] अपने अपने समयका अनुसरण करने वाले ( अपने अपने समय में उदय में आने वाले ) [ पूर्वबद्धा: ] पूर्वबद्ध (पहले अज्ञान–अवस्थामें बँधे हुए ) [ द्रव्यरूपाः प्रत्ययाः] द्रव्यरूप प्रत्यय [सत्तां ] अपनी सत्ताको [ न हि विजहति ] नहीं छोड़ते ( वे सत्तामें रहते हैं ), [ तदपि ] तथापि [ सकलरागद्वेषमोहव्युदासात्] सर्व रागद्वेषमोहका अभाव होनेसे [ ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [ कर्मबन्धः ] कर्मबंध [ जातु ] कदापि [ अवतरति न ] अवतार नहीं धरता – नहीं होते।
भावार्थ:-ज्ञानीके भी पूर्व अज्ञान - अवस्थामें बाँधे हुए द्रव्यास्रव सत्ता-अवस्था में विद्यमान हैं और वे अपने उदयकालमें उदयमें आते रहते हैं । किन्तु वे द्रव्यास्रव ज्ञानीके कर्मबंधके कारण नहीं होते, क्योंकि ज्ञानीके समस्त रागद्वेषमोहभावों का
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आस्रव अधिकार
२७५
__ (अनुष्टुभ् ) रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसम्भवः। तत एव न बन्धोऽस्य ते हि बन्धस्य कारणम्।। ११९ ।।
रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स। तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पचया होंति।।१७७ ।। हेदू चदुव्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं। तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति।।१७८ ।।
रागो द्वेषो मोहश्च आस्रवा न सन्ति सम्यग्दृष्टेः। तस्मादास्रवभावेन विना हेतवो न प्रत्यया भवन्ति।।१७७ ।। हेतुश्चतुर्विकल्पः अष्टविकल्पस्य कारणं भणितम्। तेषामपि च रागादयस्तेषामभावे न बध्यन्ते।। १७८ ।।
अभाव है। यहाँ समस्त रागद्वेषमोहका अभाव बुद्धिपूर्वक रागद्वषमोहकी अपेक्षासे समझना चाहिये। ११८ ।
अब इसी अर्थ को दृढ़ करनेवाली आगामी दो गाथाओंका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ यत् ] क्योंकि [ ज्ञानिनः रागद्वेषविमोहानां असम्भवः ] ज्ञानियोंके रागद्वेषमोहका असंभव है [ ततः एव ] इसलिये [ अस्य बन्धः न] उनके बंध नहीं है; [हि ] कारण कि [ ते बन्धस्य कारणम् ] वे ( रागद्वेषमोह) ही बंधका कारण है। ११९ ।
अब इस अर्थकी समर्थक दो गाथाएँ कहते हैं :---
नहिं रागद्वेष, न मोह-ये आस्रव नहीं सुदृष्टिके । इससे ही आस्रवभाव बिन, प्रत्यय नहीं हेतू बने ।। १७७।। हेतू चतुर्विध कर्म अष्ट प्रकारका कारण कहा। उनका हि रागादिक कहा, रागादि नहिं वहाँ बंध ना ।।१७८ ।।
गाथार्थ:- [ रागः ] राग , [ द्वेषः ] द्वेष [च मोहः ] और मोह- [ आस्रवाः ] यह आस्रव [ सम्यग्दृष्टे:] सम्यग्दृष्टिके [न सन्ति ] नहीं होते [तस्मात् ] इसलिये [ आस्रवभावेन विना] आस्रवभावके बिना [ प्रत्ययाः ] द्रव्यप्रत्यय [ हेतवः ] कर्मबंधके कारण [ न भवन्ति ] नहीं होते।
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२७६
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समयसार
रागद्वेषमोहा न सन्ति सम्यग्दृष्टेः, सम्यग्दृष्टित्वान्यथानुपपत्तेः। तदभावे न तस्य
द्रव्यप्रत्ययाः पुद्गलकर्महेतुत्वं बिभ्रति, द्रव्यप्रत्ययानां पुद्गलकर्महेतुत्वस्य
रागादिहेतुत्वात्। ततो हेतुहेत्वभावे हेतुमदभावस्य प्रसिद्धत्वात् ज्ञानिनो नास्ति बन्धः ।
[ चतुर्विकल्प हेतु: ] ( मिथ्यात्वादि ) चार प्रकारके हेतु [ अष्टविकल्पस्य ] आठ प्रकारके कर्मोंको [ कारणं ] कारण [ भणितम् ] कहे गये हैं, [च] और [ तेषाम् अपि ] उनके भी [ रागादय: ] ( जीवके ) रागादि भाव कारण हैं; [ तेषाम् अभावे ] इसलिये उनके अभावमें [ न बध्यन्ते ] कर्म नहीं बँधते । ( इसलिये सम्यग्दृष्टिके बंध नहीं हैं। )
टीका:-सम्यग्दृष्टिके रागद्वेषमोह नहीं हैं क्योंकि सम्यग्दृष्टित्वकी अन्यथा अनुपपत्ति है (अर्थात् रागद्वेषमोहके अभावके बिना सम्यग्दृष्टित्व नहीं हो सकता ); रागद्वेषमोहके अभावमें उसे ( सम्यग्दृष्टिको ) द्रव्यप्रत्यय पुद्गलकर्मका (अर्थात् पुद्गलके बंधनका) हेतुत्व धारण नहीं करते क्योंकि द्रव्यप्रत्ययोंके पुद्गलकर्मके हेतुत्व के हेतू रागादिक हैं; इसलिये हेतूके हेतूके अभाव में हेतूमानका ( अर्थात् कारणका जो कारण उसके अभावमें कार्यका) अभाव प्रसिद्ध है इसलिये ज्ञानीके बंध नहीं है।
भावार्थ:-यहाँ, रागद्वेषमोहके अभावके बिना सम्यग्दृष्टित्व नहीं हो सकता ऐसा अविनाभावी नियम बताया है सो मिथ्यात्वसंबंधी रागादिका अभाव समझना चाहिये। मिथ्यात्वसंबंधी रागादिको ही रागादि माना गया है। सम्यग्दृष्टि होनेके बाद जो कुछ चारित्रमोहसंबंधी राग रह जाता है उसे यहाँ नहीं लिया है; वह गौण है। इसप्रकार सम्यग्दृष्टिके भावास्रवका अर्थात् रागद्वेषमोहका अभाव है । द्रव्यास्रवोंको बंधका हेतु होनेमें हेतुभूत जो रागद्वेषमोह है उनका सम्यग्दृष्टिके अभाव होनेसे द्रव्यास्रव बंधके हेतु नहीं होते, और द्रव्यास्रव बंधके हेतु नहीं होते इसलिये सम्यग्दृष्टिके -ज्ञानीके - बंध नहीं होता ।
सम्यग्दृष्टिको ज्ञानी कहा जाता है वह योग्य ही है। 'ज्ञानी' शब्द मुख्यतया तीन अपेक्षाओंको लेकर प्रयुक्त होता है :- ( १ ) प्रथम तो, जिसे ज्ञान हो वह ज्ञानी कहलाता है; इसप्रकार सामान्य ज्ञानकी अपेक्षासे सभी जीव ज्ञानी हैं । (२) यदि सम्यक् ज्ञान और मिथ्या ज्ञानकी अपेक्षासे विचार किया जाये तो सम्यग्दृष्टिको सम्यग्ज्ञान होता है इसलिये उस अपेक्षासे वह ज्ञानी है, और मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है। (३) संपूर्ण ज्ञान और अपूर्ण ज्ञानकी अपेक्षासे विचार किया जाये तो केवली भगवान ज्ञानी हैं और छद्मस्थ अज्ञानी है क्योंकि सिद्धांतमें पाँच भावोंका कथन करने पर बारहवें गुणस्थान तक अज्ञानभाव कहा है। इसप्रकार अनेकांतसे अपेक्षाके द्वारा विधिनिषेध निर्बाधरूपसे सिद्ध होता है; सर्वथा एकांतसे कुछ भी सिद्ध नहीं होता ।
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आस्रव अधिकार
२७७
( वसन्ततिलका) अध्यास्य शुद्धनयमुद्धतबोधतिसमैकण्यमेव कलयन्ति सदैव ये ते। रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्त: पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारम्।। १२० ।।
(वसन्ततिलका) प्रच्युत्य शुद्धनयतः पुनरेव ये तु रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः। ते कर्मबन्धमिह बिभ्रति पूर्वबद्धद्रव्यानवैः कृतविचित्रविकल्पजालम्।। १२१ ।।
अब, ज्ञानीको बंध नहीं होता यह शुद्धनयका माहात्मय है इसलिये शुद्धनयकी महिमा दर्शक काव्य कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [उद्धतबोधचिह्नम् शुद्धनयम् अध्यास्य ] उद्धत ज्ञान (-जो कि किसी के दबाये नहीं दब सकता ऐसा उन्नत ज्ञान) जिसका लक्षण है ऐसे शुद्धनयमें रहकर अर्थात् शुद्धनयका आश्रय लेकर [ ये] जो [ सदा एव] सदा ही [ ऐकण्यम् एव] एकाग्रताका [कलयन्ति] अभ्यास करते हैं [ ते] वे, [ सततं] निरंतर [ रागादिमुक्तमनसः भवन्तः] रागादिसे रहित चितवाले वर्तते हुए, [बन्धविधुरं समयस्य सारम् ] बंधरहित समयके सारको ( अपने शुद्ध आत्मस्वरूपको) [ पश्यन्ति ] देखते हैंअनुभव करते हैं।
भावार्थ:-यहाँ शुद्धनयके द्वारा एकाग्रताका अभ्यास करनेको कहा है। 'मैं केवल ज्ञानस्वरूप हूँ, शुद्ध हूँ'-ऐसा जो आत्मद्रव्यका परिणमन वह शुद्धनय। ऐसे परिणमनके कारण वृत्ति ज्ञानकी ओर उन्मुख होती रहे और स्थिरता बढ़ती जाये सो एकाग्रताका अभ्यास है।
शुद्धनय श्रुतज्ञानका अंश है और श्रुतज्ञान तो परोक्ष है इसलिये इस अपेक्षासे शुद्धनयके द्वारा होनेवाला शुद्ध स्वरूपका अनभव भी परोक्ष है। और वह अनभव एकदेश शुद्ध है इस अपेक्षासे उसे व्यवहारसे प्रत्यक्ष भी कहा जाता है। साक्षात् शुद्धनय तो केवलज्ञान होने पर होता है। १२० ।
अब यह कहते हैं कि जो शुद्धनयसे च्युत होते हैं वे कर्म बाँधते हैं:
श्लोकार्थ:- [इह ] जगतमें [ ये] जो [ शुद्धनयतः प्रच्युत्य ] शुद्धनयसे च्युत होकर [ पुनः एव तु] पुनः [ रागादियोगम् ] रागादिके संबंधको [ उपयान्ति ] प्राप्त होते हैं [ ते] ऐसे जीव, [विमुक्तबोधाः] जिन्होंने ज्ञानको छोड़ा है ऐसे होते हुए, [ पूर्वबद्धद्रव्यास्रवैः ] पूर्वबद्ध द्रव्यास्रवके द्वारा [ कर्मबन्धम् ] कर्मबंधको [ विभ्रति ] धारण करते हैं (-कर्मोंको बाँधते हैं) - [कृत-विचित्र-विकल्प-जालम् ] जो कि कर्मबंध अनेक प्रकारके विकल्प जाल को करता है (अर्थात् जो कर्मबंध अनेक प्रकारका है)।
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समयसार
२७८
जह पुरिसेणाहारो गहिदो परिणमदि सो अणेयविहं। मंसवसारुहिरादी भावे उदरग्गिसंजुत्तो।।१७९ ।। तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं। बझंते कम्मं ते णयपरिहीणा दु ते जीवा।। १८० ।।
भावार्थ:-शुद्धनयसे च्युत होना अर्थात् 'मैं शुद्ध हूँ' ऐसे परिणमनसे छूटकर अशुद्धरूप परिणमित होना अर्थात् मिथ्यादृष्टि हो जाना। ऐसा होनेपर, जीवके मिथ्यात्व संबंधी रागादिक उत्पन्न होते हैं, जिससे द्रव्यास्रव कर्मबंधके कारण होते हैं और उससे अनेक प्रकारके कर्म बँधते हैं। इसप्रकार यहाँ शद्धनयसे च्यत होनेका अर्थ शुद्धताकी प्रतीतिसे ( सम्यक्त्वसे) च्युत होना समझना चाहिये। यहाँ उपयोगकी अपेक्षा गौण है, अर्थात् शुद्धनयसे च्युत होना अर्थात् शुद्ध उपयोगसे च्युत होना ऐसा अर्थ मुख्य नहीं है; क्योंकि शुद्धोपयोगरूप रहनेका काल अल्प रहता है इसलिये मात्र अल्प काल शुद्धोपयोगरूप रहकर और फिर उससे छूटकर ज्ञान अन्य ज्ञेयोमें उपयुक्त हो तो मिथ्यात्वके बिना जो रागका अंश है वह अभिप्रायपूर्वक नहीं है इसलिये ज्ञानीके मात्र अल्प बंध होता है और अल्प बंध संसारका कारण नहीं है। इसलिये यहाँ उपयोगकी अपेक्षा मुख्य नहीं है।
अब यदि उपयोगकी अपेक्षा ली जाये तो इसप्रकार अर्थ घटित होता है:-यदि जीव शुद्धस्वरूपके निर्विकल्प अनुभवसे छूटे परंतु सम्यक्त्वसे न छूटे तो उसे चारित्रमोहके रागसे कुछ बंध होता है। यद्यपि वह बंध अज्ञानके पक्षमें नहीं है तथापि वह बंध तो है ही। इसलिये उसे मिटानेके लिये सम्यग्दृष्टि ज्ञानीको शुद्धनयसे न छूटने का अर्थात् शुद्धोपयोगमें लीन रहने का उपदेश है। केवलज्ञान होनेपर साक्षात् शुद्धनय होता है। १२१।
अब इसी अर्थको दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैं :---
जनसे ग्रहित अहार ज्यों , उदराग्निके संयोग से । बहुभेद मांस , वसा अरु , रुधिरादि भावों परिणमे ।।१७९ ।। त्यों ज्ञानीके भी पूर्वकालनिबद्ध जो प्रत्यय रहे। बहुभेद बांधे कर्म , जो जीव शुद्धनयपरिच्युत बने ।। १८० ।।
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आस्रव अधिकार
२७९
यथा पुरुषेणाहारो गृहीतः परिणमति सोऽनेकविधम्। मांसवसारुधिरादीन् भावान् उदराग्निसंयुक्तः ।। १७९ ।। तथा ज्ञानिनस्तु पूर्व ये बद्धाः प्रत्यया बहुविकल्पम्। बध्नन्ति कर्म ते नयपरिहीनास्तु ते जीवाः।। १८० ।।
यदा तु शुद्धनयात् परिहीणो भवति ज्ञानी तदा तस्य रागादिसद्भावात्, पूर्वबद्धाः द्रव्यप्रत्ययाः, स्वस्य हेतुत्वहेतुसद्भावे हेतुमद्भावस्यानिवार्यत्वात्, ज्ञानावरणादिभावैः पुद्गलकर्म बन्धं परिणमयन्ति। न चैतदप्रसिद्धं , पुरुषगृहीताहारस्योदराग्निना रसरुधिरमांसादिभावैः परिणामकरणस्य दर्शनात्।।
गाथार्थ:-[ यथा ] जैसे [ पुरुषेण ] पुरुषके द्वारा [ गृहीतः ] ग्रहण किया हुआ [ आहारः] जो आहार है [ सः ] वह [ उदराग्निसंयुक्तः ] उदराग्निसे संयुक्त होता हुआ [ अनेकविधम् ] अनेक प्रकार [ मांसवसारुधिरादीन् ] मांस, चर्बी, रुधिर आदि [ भावान् ] भावरूप [परिणमति] परिणमन करता है, [ तथा तु] इसीप्रकार [ ज्ञानिनः] ज्ञानियोंके [ पूर्व बद्धाः ] पूर्वबद्ध [ये प्रत्ययाः] जो द्रव्यास्रव हैं [ ते] वे [ बहुविकल्पम् ] अनेक प्रकारके [कर्म] कर्म [ बध्नन्ति ] बाँधते हैं;- [ते जीवाः] ऐसे जीव [ नयपरिहीनाः तु] शुद्धनयसे च्युत हैं। (ज्ञानी शुद्धनयसे च्युत होवे तो उसके कर्म बँधते हैं।]
टीका:-जब ज्ञानी शुद्धनयसे च्युत हो तब उसके रागादिभावोंका सद्भाव होता है, इसलिये पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्यय, अपने (-द्रव्यप्रत्ययोंके) कर्मबंधके हेतुत्वके हेतुका सद्भाव होनेपर हेतुमान भावका (-कार्यभावका) अनिवार्यत्व होनेसे , ज्ञानावरणादि भावसे पुद्गलकर्मको बंधरूप परिणमित करते हैं। और यह अप्रसिद्ध भी नहीं है ( अर्थात् इसका दृष्टांत जगतमें प्रसिद्ध है-सर्व ज्ञात है); क्योंकि मनुष्यके द्वारा ग्रहण किये गये आहारको जठराग्नि रस , रुधिर, माँस इत्यादिरूपमें परिणमित करती है यह देखा जाता है।
भावार्थ:-जब ज्ञानी शुद्धनयसे च्युत हो तब उसके रागादिभावोंका सद्भाव होता है, रागादिभावोंके निमित्तसे द्रव्यास्रव अवश्य कर्मबंधके कारण होते हैं और इसलिये कार्मणवर्गणा बंधरूप परिणमित होती है। टीकामें जो यह कहा है कि " द्रव्यप्रत्यय पुद्गलकर्मको बंधरूप परिणमित कराते हैं", सो निमित्तकी अपेक्षा से कहा है। वहाँ यह समझना चाहिये कि “द्रव्यप्रत्ययोंके निमित्तभूत होनेपर कार्मणवर्गणा स्वयं बंधरूप परिणमित होती है”।
* रागादिसदभावे।
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समयसार
२८०
(अनुष्टुभ् ) इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुद्धनयो न हि। नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्बन्ध एव हि।। १२२ ।।
___ (शार्दूलविक्रीडित) धीरोदारमहिम्न्यनादिनिधने बोधे निबध्नन्धृतिं त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वकषः कर्मणाम्। तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्वहि: पूर्ण ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः।। १२३ ।।
अब इस सर्व कथनका तात्पर्यरूप श्लोक कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [अत्र ] यहाँ [ इदम् एव तात्पर्य ] यही तात्पर्य है कि [ शुद्धनयः न हि हेयः] शुद्धनय त्यागनेयोग्य नहीं है; [ हि] क्योंकि [ तत्-अत्यागात् बन्धः नास्ति ] उसके अत्यागसे ( कर्मका) बंध नहीं होता और [ तत्-त्यागात् बन्धः एव] और उसके त्यागसे बंध ही होता है। १२२ ।
'शुद्धनय त्याग करनेयोग्य नहीं है' इस अर्थको दृढ़ करने के लिये काव्य पुनः कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [धीर-उदार-महिम्नि अनादिनिधने बोधे धृति निबध्नन् शुद्धनयः] धीर (चलाचलता रहित) और उदार ( सर्व पदार्थों में विस्तारयुक्त) जिसकी महिमा है ऐसे अनादिनिधन ज्ञानमें स्थिरताको बाँधता हुआ ( अर्थात् ज्ञानमें परिणतिको स्थिर रखता हुआ) शुद्धनय- [कर्मणाम् सर्वकषः] जो कि कर्मोंका समूल नाश करनेवाला है- [ कृतिभिः ] पवित्र धर्मात्मा ( सम्यग्दृष्टि) पुरुषोंके द्वारा [जातु] कभी भी [न त्याज्यः ] छोड़नेयोग्य नहीं है। [ तत्रस्थाः] शुद्धनयमें स्थित वे पुरुष, [ बहि: निर्यत् स्वमरीचि-चक्रम् अचिरात् संहृत्य ] बाहर निकलती हुई अपनी ज्ञानकिरणोंके समुहको ( अर्थात् कर्मके निमित्तसे परोन्मुख जानेवाली ज्ञानकी विशेष व्यक्तियोंको) अल्पकालमे हीं समेटकर, [ पूर्ण ज्ञान-धन-ओधम् एकम् अचलं शान्तं महः ] पूर्ण, ज्ञानघनके पुंजरूप, एक, अचल, शांत तेजको-तेजःपुंजको- [पश्यन्ति ] देखते हैं अर्थात् अनुभव करते हैं।
भावार्थ:-शुद्धनय, ज्ञानके समस्त विशेषोंको गौण करके तथा परनिमित्तसे होनेवाले समस्त भावोंको गौण करके, आत्माको शुद्ध , नित्य, अभेदरूप, एक चैतन्यमात्र ग्रहण करता है और इसलिये परिणति शुद्धनयके विषयस्वरूप चैतन्यमात्र शुद्ध आत्मामें एकाग्र-स्थिर होती जाती है। इसप्रकार शुद्धनयका आश्रय लेनेवाले जीव बाहर निकलती हुई ज्ञानकी विशेष व्यक्तियोंका अल्पकाल में ही समेटकर, शुद्धनयमें (आत्माकी शुद्धताके अनुभवमें ) निर्विकल्पतया स्थिर होनेपर अपने
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( मन्दाक्रान्ता )
रागादीनां झगिति विगमात्सर्वतोऽप्यास्रवाणां नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु सम्पश्यतोऽन्तः। स्फारस्फारैः स्वरसविसरै: प्लावयत्सर्वभावानालोकान्तादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत्।। १२४ ।।
इति आस्रवो निष्क्रान्तः।
आत्मा को सर्व कर्मोंसे भिन्न केवलज्ञानस्वरूप, अमूर्तिक पुरुषाकार, वीतराग ज्ञानमूर्तिस्वरूप देखते हैं और शुक्लध्यानमें प्रवृत्ति करके अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्रगट करते हैं। शुद्धनयका ऐसा माहात्म्य है। इसलिये श्री गुरुओं का यह उपदेश है कि जबतक शुद्धयके अवलंबन से केवलज्ञान उत्पन्न न हो तबतक सम्यग्दृष्टि जीवोंको शुद्धनयका त्याग नहीं करना चाहिये । १२३ ।
अब, आस्रवोंका सर्वथा नाश करनेसे जो ज्ञान प्रगट हुआ उस ज्ञानकी महिमाका सूचक काव्य कहते हैं:
२८१
श्लोकार्थ:- [ नित्य-उद्योतं ] जिसका उद्योत (प्रकाश) नित्य है ऐसी [ किम् अपि परमं वस्तु] किसी परम वस्तुको [ अन्तः सम्पश्यतः ] अंतरंगमें देखनेवाले पुरुषको, [रागादीनां आस्रवाणां ] रागादि आस्रवोंका [ झगिति ] शीघ्र ही [ सर्वतः अपि ] सर्व प्रकार [ विगमात् ] नाश होनेसे, [ एतत् ज्ञानम् ] यह ज्ञान [ उन्मग्नम् ] प्रगट हुआ - [ स्फारस्फारै: ] कि जो ज्ञान अत्यंतात्यंत ( - अनंतानंत ) विस्तारको प्राप्त [ स्वरसविसरैः] निजरसके प्रसारसे [ आ-लोक - अन्तात् ] लोकके अंततकके [सर्वभावान्] सर्व भावोंको [ प्लावयत् ] व्याप्त कर देता है अर्थात् सर्व पदार्थोंको जानता है, [ अचलम् ] वह ज्ञान प्रगट हुआ तभीसे सदाकाल अचल है अर्थात् प्रगट होनेके पश्चात् सदा ज्यों का त्यों ही बना रहता है - चलायमान नहीं होता, और [ अतुलं ] वह ज्ञान अतुल है अर्थात् उसके समान दूसरा कोई नहीं है।
भावार्थ:-जो पुरुष अंतरंगमें चैतन्यमात्र परम वस्तुको देखता है और शुद्धनयके आलंबन द्वारा उसमें एकाग्र होता जाता है उस पुरुषको, तत्काल सर्व रागादिक आस्रवभावोंका सर्वथा अभाव होकर, सर्व अतीत, अनागत और वर्तमान पदार्थोंको जाननेवाला निश्चल, अतुल केवलज्ञान प्रगट होता है । वह ज्ञान सबसे महान है, उसके समान दूसरा कोई नहीं है। १२४ ।
टीका:
:- इसप्रकार आस्रव ( रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गया ।
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२८२
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इति आस्रवप्ररूपकः चतुर्थोऽङ्कः।।
समयसार
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां
समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ
भावार्थ:-रंगभूमिमें आस्रवका स्वांग आया था उसे ज्ञानने उसके यथार्थ
स्वरूपमें जान लिया इसलिये वह बाहर निकल गया ।
योग कषाय मिथ्यात्व असंयम आस्रव द्रव्यत आगम गाये, राग विरोध विमोह विभाव अज्ञानमयी यह भाव जताये; जे मुनिराज करें इन पाल सुरिद्धि समाज लये सिव थाये, काय नवाय नमूं चित लाय कहूं जय पाल लहूँ मन भाये ।
इसप्रकार श्री समयसारकी ( श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्रीसमयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामकी टीकामें आस्रवका प्ररूपक चौथा अंक समाप्त हुआ ।
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-५संवर अधिकार
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अथ प्रविशति संवरः।
(शार्दूलविक्रीडित) आसंसारविरोधिसंवरजयैकान्तावलिप्तास्रवन्यक्कारात्प्रतिलब्धनित्यविजयं सम्पादयत्संवरम्। व्यावृत्तं पररूपतो नियमितं सम्यक्स्वरूपे स्फुरज्ज्योतिश्चिन्मयमुज्ज्वलं निजरसप्राग्भारमुज्जृम्भते।। १२५ ।।
---००० दोहा ०००--- मोहरागरुष दूरि करि, समिति गुप्ति व्रत पारि ।
संवरमय आतम कियो, नमूं ताहि, मन धारि ।। प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहते हैं कि “अब संवर प्रवेश करता है” आस्रव के रंगभूमिमेंसे बाहर निकल जाने के बाद अब संवर रंगभूमिमें प्रवेश करता है।
यहाँ पहले टीकाकार आचार्यदेव सर्व स्वाँगको जाननेवाले सम्यग्ज्ञानकी महिमादर्शक मंगलाचरण करते हैं:
श्लोकार्थ:--- [आसंसार-विरोधि-संवर-जय-एकान्त-अवलिप्त-आस्रवन्यक्कारात् ] अनादि संसारसे लेकर अपने विरोधी संवरको जीतनेसे जो एकांत-गर्वित ( अत्यंत अहंकारयुक्त) हुआ है ऐसे आस्रवका तिरस्कार करनेसे [प्रतिलब्ध-नित्यविजयं संवरम् ] जिसने सदा विजय प्राप्त की है ऐसे संवरको [ सम्पादयत् ] उत्पन्न करती हुई, [पररूपतः व्यावृत्तं] पररूपसे भिन्न ( अर्थात् परद्रव्य और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले भावोंसे भिन्न), [ सम्यक्-स्वरूपे नियमितं स्फुरत् ] अपने सम्यक् स्वरूपमें निश्चलतासे प्रकाश करती हुई, [ चिन्मयम् ] चिन्मय, [ उज्ज्वलं] उज्ज्वल (-निराबाध, निर्मल, देदीप्यमान) और [निज-रस-प्राग्भारम् ] निजरसके (अपने चैतन्यरसके) भारसे युक्त-अतिशयतासे युक्त [ ज्योतिः] ज्योति [ उज्जृम्भते ] प्रगट होती है, प्रसारित होती है।
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समयसार
२८४
तत्रादावेव सकलकर्मसंवरणस्य परमोपायं भेदविज्ञानमभिनन्दतिउवओगे उवओगो कोहादिसु णत्थि को वि उवओगो। कोहो कोहे चेव हि उवओगे णत्थि खलु कोहो।।१८१ ।। अट्ठवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो। उवओगम्हि य कम्मं णोकम्मं चावि णो अत्थि।। १८२ ।। एदं तु अविवरीदं णाणं जइया दु होदि जीवस्स। तइया ण किंचि कव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा।। १८३ ।। उपयोगे उपयोगः क्रोधादिषु नास्ति कोऽप्युपयोगः। क्रोधः क्रोधे चैव हि उपयोगे नास्ति खलु क्रोधः।। १८१ ।।
भावार्थ:-अनादि कालसेजो आस्रवका विरोधी है ऐसे संवरको जीतकर आस्रव मदसे गर्वित हुआ है। उस आस्रवका तिरस्कार करके उसपर जिसने सदा के लिये विजय प्राप्त की है ऐसे संवरको उत्पन्न करता हुआ, समस्त पररूपसे भिन्न और अपने स्वरूपमें निश्चल यह चैतन्यप्रकाश निजरसकी अतिशयतापूर्वक निर्मलतासे उदयको प्राप्त हुआ है। १२५ ।
संवर अधिकारमें प्रारम्भ में ही, श्री कुंदकुंदाचार्य सकल कर्मका संवर करनेके लिये उत्कृष्ट उपाय जो भेदविज्ञान है उसकी प्रशंसा करते हैं:
उपयोगमें उपयोग , को उपयोग नहिं क्रोधादिमें । है क्रोध क्रोधविर्षे हि निश्चय , क्रोध नहिं उपयोगमें ।। १८१।। उपयोग है नहिं अष्टविध , कर्मों अवरु नोकर्ममें । वे कर्म अरु नोकर्म भी कुछ हैं नहीं उपयोगमें ।। १८२।। ऐसा विपरीत ज्ञान जब ही प्रगटता है जीवके ।
तब अन्य नहीं कुछ भाव वह उपयोगशुद्धात्मा करे ।। १८३।। गाथार्थ:- [ उपयोगः] उपयोग [ उपयोगे] उपयोगमें है, [क्रोधादिषु ] क्रोधादिमें [कोऽपि उपयोगः] कोई भी उपयोग [ नास्ति] नहीं है; [च] और [ क्रोधः ] क्रोध [ क्रोधे एव हि ] क्रोधमें ही है, [ उपयोगे] उपयोगमें [ खलु ] निश्चयसे[ क्रोधः ] क्रोध [ नास्ति ] नहीं है।
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संवर अधिकार
२८५
अष्टविकल्पे कर्मणि नोकर्मणि चापि नास्त्युपयोगः। उपयोगे च कर्म नोकर्म चापि नो अस्ति।। १८२ ।। एतत्त्वविपरीतं ज्ञानं यदा तु भवति जीवस्य। तदा न किञ्चित्करोति भावमुपयोगशुद्धात्मा।। १८३ ।।
न खल्वेकस्य द्वितीयमस्ति, द्वयोर्भिन्नप्रदेशत्वेनैकसत्तानुपपत्तेः। तदसत्त्वे च तेन सहाधाराधेयसम्बन्धोऽपि नास्त्येव। ततः स्वरूपप्रतिष्ठत्वलक्षण एवाधाराधेयसम्बन्धोऽवतिष्ठते। तेन ज्ञानं जानत्तायां स्वरूपे प्रतिष्ठितं, जानत्ताया ज्ञानादपृथग्भूतत्वात् , ज्ञाने एव स्यात्। क्रोधादीनि क्रुध्यत्तादौ स्वरूपे प्रतिष्ठितानि, क्रुध्यत्तादेः क्रोधादिभ्योऽपृथग्भूतत्वात्, क्रोधादिष्वेव स्युः। न पुन: क्रोधादिषु कर्मणि नोकर्मणि वा ज्ञानमस्ति, न च ज्ञाने क्रोधादयः कर्म नोकर्म वा सन्ति, परस्परमत्यन्तं स्वरूपवैपरीत्येन परमार्थाधाराधेयसम्बन्धशून्यत्वात्। [अष्टविकल्पे कर्मणि ] आठ प्रकारके कर्मोंमें [च अपि] और [ नोकर्मणि ] नोकर्ममें [ उपयोगः] उपयोग [ नास्ति ] नहीं है [च ] और [उपयोगे] उपयोगमें [ कर्म] कर्म [च अपि] तथा [नोकर्म ] नोकर्म [नो अस्ति ] नहीं है,- [एतत् तु] ऐसा [अविपरीतं] अविपरीत [ ज्ञानं ] ज्ञान [ यदा तु] जब [ जीवस्य ] जीवके [ भवति] होता है, [तदा] तब [ उपयोगशुद्धात्मा] वह उपयोग स्वरूप शुद्धात्मा [ किञ्चित् भावम् ] उपयोग के अतिरिक्त अन्य किसी भी भावको [ न करोति ] नहीं करता।
टीका:-वास्तवमें एक वस्तुकी दूसरी वस्तु नहीं है (अर्थात् एक वस्तु दूसरी वस्तुके साथ कोई संबंध नहीं रखती) क्योंकि दोनोंके प्रदेश भिन्न हैं इसलिये उनमें एक सत्ताकी अनुपपत्ति है (अर्थात् दोनों की सत्ताएँ भिन्न भिन्न हैं); और इसप्रकार जब कि एक वस्तुकी दूसरी वस्तु नहीं है तब उनमें परस्पर आधाराधेयसंबंध भी है ही नहीं। इसलिये (प्रत्येक वस्तुका) अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठारूप (दृढ़तापूर्वक रहनेरूप) ही आधाराधेयसंबंध है। इसलिये ज्ञान जो कि जाननक्रियारूप अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित है वह, जाननक्रियाका ज्ञानसे अभिन्नत्व होनेसे , ज्ञानमें ही है; क्रोधाधिक जो कि क्रोधादिक्रियारूप अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित है वह, क्रोधादिक्रियाका क्रोधादिसे अभिन्नत्व होनेके कारण, क्रोधादिकमें ही है। (ज्ञानका स्वरूप जाननक्रिया है, इसलिये ज्ञान आधेय है और जाननक्रिया आधार है। जाननक्रिया आधार होनेसे यह सिद्ध हुआ कि ज्ञान ही आधार है, क्योंकि जाननक्रिया और ज्ञान भिन्न नहीं है। तात्पर्य यह हुआ कि ज्ञान ज्ञानमें ही है। इसीप्रकार क्रोध क्रोधमें ही है।) और क्रोधादिकमें, कर्ममें या नोकर्ममें ज्ञान नहीं है तथा ज्ञानमें क्रोधादिक, कर्म या नोकर्म नहीं है क्योंकि उनके परस्पर अत्यंत स्वरूप-विपरीतता होनेसे ( अर्थात् ज्ञानका स्वरूप और क्रोधादिक तथा कर्म-नोकर्मका स्वरूप अत्यंत विरुद्ध होनेसे) उनके परमार्थभूत आधाराधेयसंबंध नहीं
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समयसार
२८६
न च यथा ज्ञानस्य जानत्ता स्वरूपं तथा क्रुध्यत्तादिरपि, क्रोधादीनां च यथा क्रुध्यत्तादि स्वरूपं तथा जानत्तापि कथञ्चनापि व्यवस्थापयितुं शक्येत, जानत्तायाः क्रुध्यत्तादेश्च स्वभावभेदेनोद्भासमानत्वात् स्वभावभेदाच्च वस्तुभेद एवेति नास्ति ज्ञानाज्ञानयोराधाराधेयत्वम्।
किञ्च यदा किलैकमेवाकाशं स्वबुद्धिमधिरोप्याधाराधेयभावो विभाव्यते तदा शेषद्रव्यान्तराधिरोपनिरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति। तदप्रभवे चैकमाकाशमेवैकस्मिन्नाकाश एव प्रतिष्ठितं विभावयतो न पराधाराधेयत्वं प्रतिभाति। एवं यदैकमेव ज्ञानं स्वबुद्धिमधिरोप्याधाराधेयभावो विभाव्यते तदा शेषद्रव्यान्तराधिरोपनिरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति। तदप्रभवे चैकं ज्ञानमेवैकस्मिन् ज्ञान एव प्रतिष्ठितं विभावयतो न पराधाराधेयत्वं प्रतिभाति। ततो ज्ञानमेव ज्ञाने एव , क्रोधादय एव क्रोधादिष्वेवेति साधु सिद्धं भेदविज्ञानम्।
और जैसे ज्ञानका स्वरूप जाननक्रिया है उसीप्रकार (ज्ञानका स्वरूप) क्रोधादिक्रिया भी हो, अथवा जैसे क्रोधादिका स्वरूप क्रोधादिक्रिया है उसीप्रकार (क्रोधादिकका स्वरूप) जाननक्रिया भी हो ऐसा किसी भी प्रकार से स्थापित नहीं किया जा सकता; क्योंकि जाननक्रिया और क्रोधादिक्रिया भिन्न भिन्न स्वभावसे प्रकाशित होती हैं और इस भाँति स्वभावोंके भिन्न होनेसे वस्तुएँ भिन्न ही हैं। इसप्रकार ज्ञान तथा अज्ञानमें ( क्रोधादिकमें ) आधाराधेयत्व नहीं है।
इसीको विशेष समझाते हैं:-जब एक ही आकाशको अपनी बुद्धिमें स्थापित करके (आकाशके) आधाराधेयभावका विचार किया जाता है तब आकाशको शेष अन्य द्रव्योंमें आरोपित करने का निरोध ही होनेसे (अर्थात् अन्य द्रव्योंमें स्थापित करना अशक्य ही होनेसे ) बुद्धिमें भिन्न आधारकी अपेक्षा प्रभवित (उद्भूत) नहीं होती ;
और उसके प्रभवित नहीं होनेसे , 'एक आकाश ही एक आकाशमें ही प्रतिष्ठित है' यह भलीभाँति समझ लिया जाता है और इसलिये ऐसा समझ लेने वाले के परआधाराधेयत्व भासित नहीं होते। इसप्रकार जब एक ही ज्ञान को अपनी बुद्धिमें स्थापित करके (ज्ञानका) आधाराधेयभावका विचार किया जाये तब ज्ञानको शेष अन्य द्रव्योंमें आरोपित करनेका निरोध ही होनेसे बुद्धिमें भिन्न आधारकी अपेक्षा प्रभवित नहीं होती; और उसके प्रभवित नहीं होनेसे , 'एक ज्ञान ही एक ज्ञानमें ही प्रतिष्ठित है' यह भलीभाँति समझ लिया जाता है और ऐसा समझ लेने वाले को परआधाराधेयत्व भासित नहीं होता इसलिये ज्ञान ही ज्ञानमें ही है, और क्रोधादिक ही क्रोधादिकमें ही है।
* प्रभवित नहीं होती : लागू नहीं होती, लग सकती नहीं, शमन हो जाती है, उद्भूत नहीं होती ।
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( शार्दूलविक्रीडित )
चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः कृत्वा विभागं द्वयोरन्तर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च। भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिताः शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः।। १२६ ।।
२८७
इसप्रकार ( ज्ञानका और क्रोधादिक तथा कर्म - नोकर्मका) भेदविज्ञान भली भाँति सिद्ध हुआ।
भावार्थ:- उपयोग तो चैतन्यका परिणमन होनेसे ज्ञानस्वरूप है और क्रोधादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म तथा शरीरादि नोकर्म-सभी पुद्गलद्रव्यके परिणाम होनेसे जड़ हैं; उनमें और ज्ञानमें प्रदेशभेद होनेसे अत्यंत भेद है। इसलिये उपयोगमें क्रोधादिक, कर्म तथा नोकर्म नहीं है और क्रोधादिकमें, कर्ममें तथा नोकर्ममें उपयोग नहीं है। इसप्रकार उनमें पारमार्थिक आधाराधेय संबंध नहीं है; प्रत्येक वस्तुका अपना अपना आधाराधेयत्व अपने अपने में ही है। इसलिये उपयोग उपयोगमें ही है, क्रोध क्रोधमें ही है। इसप्रकार भेदविज्ञान भलीभाँति सिद्ध हो गया ( भावकर्म इत्यादिका और उपयोगका भेद जानना सो भेदविज्ञान है । )
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः ज्ञानस्य रागस्य च ] चिद्रूपता को धारण करने वाला ज्ञान और जड़रूपताको धारण करनेवाला राग- [द्वयोः ] दोनोंका, [अन्तः] अंतरंगमें [ दारुण-दारणेन ] दारुण विदारणके द्वारा (भेद करनेवाले उग्र अभ्यास के द्वारा), [ परितः विभागं कृत्वा ] सभी ओरोंसे विभाग करके ( - सम्पूर्णतया दोनोंको अलग करके), [ इदं निर्मलम् भेदज्ञानम् उदेति ] यह निर्मल भेदज्ञान उदय को प्राप्त हुआ है ; [ अधुना ] इसलिये अब [ एकम् शुद्ध-ज्ञानघन-ओधम् अध्यासिताः ] एक शुद्ध विज्ञानघनके पुंजमें स्थित और [ द्वितीय-च्युताः ] अन्यसे अर्थात् रागसे रहित [ सन्तः] हे सत्पुरुषों ! [ मोदध्वम् ] मुदित होओ।
भावार्थ:-ज्ञान तो चेतनास्वरूप है और रागादिक पुद्गलविकार होनेसे जड़ है; किन्तु ऐसा भासित होता है कि मानों अज्ञानसे, ज्ञान भी रागादिरूप हो गया हो, अर्थात् ज्ञान और रागादिक दोनों एकरूप - जड़रूप - भासित होते हैं। जब अंतरंगमें ज्ञान और रागादिका भेद करनेका तीव्र अभ्यास करनेसे भेदज्ञान प्रगट होता है तब यह ज्ञात होता है कि ज्ञानका स्वभाव तो मात्र जाननेका ही है, ज्ञानमें जो रागादिकी कलुषता-आकुलतारूप संकल्पविकल्पभासित होते हैं वे सब पुद्गलविकार हैं, जड़ हैं। इसप्रकार ज्ञान और रागादिके भेदका स्वाद आता है अर्थात् अनुभव होता है।
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वैपरीत्यकणिकामप्यनासादयद
एवमिदं भेदविज्ञानं यदा ज्ञानस्य विचलितमवतिष्ठते, तदा शुद्धोपयोगमयात्मत्वेन ज्ञानं ज्ञानमेव केवलं सन्न किञ्चनापि रागद्वेषमोहरूपं भावमारचयति। ततो भेदविज्ञानाच्छुद्धात्मोपलम्भः प्रभवति । शुद्धात्मोपलम्भात् रागद्वेषमोहाभावलक्षणः संवरः प्रभवति।
कथं भेदविज्ञानादेव शुद्धात्मोपलम्भ इति चेत्
जह कणयमग्गितवियं पि कणयभावं ण तं परिचयदि । तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी दु णाणित्तं ।। १८४ ।। एवं जाणदि णाणी अण्णाणी मुणदि रागमेवादं । अण्णाणतमोच्छण्णो आदसहावं अयाणंतो ।। १८५ ।।
यथा कनकमग्नितप्तमपि कनकभावं न तं परित्यजति । तथा कर्मोदयतप्तो न जहाति ज्ञानी तु ज्ञानित्वम् ।। १८४ ।।
66
जब ऐसा भेदज्ञान होता है तब आत्मा आनंदित होता है क्योंकि उसे ज्ञात है कि स्वयं सदा ज्ञानस्वरूप ही रहा है, रागादिरूप कभी नहीं हुआ ” । इसलिये आचार्यदेवने कहा है कि “हे सत्पुरुषों ! अब मुदित होओ”। १२६ ।
टीका:- इसप्रकार जब यह भेदविज्ञान ज्ञानको अणुमात्र भी ( रागादिविकाररूप) विपरीतताको न प्राप्त करता हुआ अविचलरूपसे रहता है, तब शुद्धउपयोगमयात्मकता के द्वारा ज्ञान केवल ज्ञानरूप ही रहता हुआ किंचित्मात्र भी रागद्वेषमोहरूप भावको नहीं करता, इसलिये ( यह सिद्ध हुआ कि ) भेदविज्ञानसे शुद्ध आत्माकी उपलब्धि ( अनुभव ) होती है और शुद्ध आत्माकी उपलब्धिसे रागद्वेषमोहका ( अर्थात् आस्रवभावका ) अभाव जिसका लक्षण है ऐसा संवर होता है।
अब यह प्रश्न होता है कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माकी उपलब्धि ( अनुभव ) कैसे होती है ? उसके उत्तरमें गाथा कहते हैं:
ज्यों अग्नितप्त सुवर्ण भी, निज स्वर्णभाव नहीं तहे ।
त्यों कर्मउदय प्रतप्त भी, ज्ञानी न ज्ञानीपना तजे ।। १८४ ।।
जीव ज्ञानी जाने ये हि अरु अज्ञानी राग हि जीव गिनें ।
"
आत्मस्वभाव-अजान जो अज्ञानतमआच्छादसे ।। १८५ ।।
गाथार्थ:- [ यथा ] जैसे [ कनकम् ] सुवर्ण [ अग्नितप्तम् अपि ] अग्निसे तप्त होता हुआ भी [ तं ] अपने [ कनकभावं ] सुवर्णत्वको [ न परित्यजति ] नहीं छोड़ता
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संवर अधिकार
२८९
एवं जानाति ज्ञानी अज्ञानी मनुते रागमेवात्मानम्। अज्ञानतमोऽवच्छन्न: आत्मस्वभावमजानन्।। १८५ ।।
यतो यस्यैव यथोदितं भेदविज्ञानमस्ति स एव तत्सद्भावात् ज्ञानी सन्ने जानाति-यथा प्रचण्डपावकप्रतप्तमपि सुवर्णं न सुवर्णत्वमपोहति तथा प्रचण्डकर्मविपाकोपष्टब्धमपि ज्ञानं न ज्ञानत्वमपोहति, कारणसहस्रेणापि स्वभावस्यापोढुमशक्यत्वात; तदपोहे तन्मात्रस्य वस्तुन एवोच्छेदात; न चास्ति वस्तूच्छेदः, सतो नाशासम्भवात्। एवं जानंश्च कर्माक्रान्तोऽपि न रज्यते, न द्वेष्टि, न मुह्यति, किन्तु शुद्धमात्मानमेवोपलभते। यस्य तु यथोदितं भेदविज्ञानं नास्ति स तदभावादज्ञानी सन्नज्ञानतमसाच्छन्नतया चैतन्यचमत्कारमात्रमात्मस्वभावमजानन् रागमेवात्मानं मन्यमानो रज्यते द्वेष्टि मुह्यति च, न जातु शुद्धमात्मानमुपलभते। ततो भेदविज्ञानादेव शुद्धात्मोपलम्भः। [ तथा ] इसीप्रकार [ ज्ञानी ] ज्ञानी [कर्मोदयतप्तः तु] कर्मों के उदयसे तप्त होता हुआ भी [ज्ञानित्वम् ] ज्ञानित्वको [न जहाति ] नहीं छोड़ता;- [ एवं ] ऐसा [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ जानाति] जानता है, और [ अज्ञानी ] अज्ञानी [ अज्ञानतमोऽवच्छन्नः ] अज्ञानांधकारसे आच्छादित होनेसे [ आत्मस्वभावम् ] आत्माके स्वभावको [ अजानन् ] न जानता हुआ [ रागम् एव ] रागको ही [ आत्मानम् ] आत्मा [ मनुते ] मानता है।
टीका:-जिसे ऊपर कहा गया भेदविज्ञान है वही उसके (भेदविज्ञानके) सद्भावसे ज्ञानी होता हुआ इसप्रकार जानता है कि:-जैसे प्रचंड अग्निके द्वारा तप्त होता हुआ भी सुवर्ण सुवर्णत्वको नहीं छोड़ता उसीप्रकार प्रचंड कर्मोदयके द्वारा घिरा हुआ होनेपर भी (विध्न किया जाय तो भी) ज्ञान ज्ञानत्व को नहीं छोड़ता, क्योंकि हजारों कारणोंके एकत्रित होनेपर भी स्वभावको छोड़ना अशक्य है; उसे छोड़ देने पर स्वभावमात्र वस्तुका ही उच्छेद हो जायेगा, और वस्तुका उच्छेद तो होता नहीं है क्योंकि सत्का नाश होना असंभव है। ऐसा जानता हुआ ज्ञानी कर्मोंसे आक्रांत (घिरा हुआ) होता हुआ भी रागी नहीं होता, द्वेषी नहीं होता, मोही नहीं होता, किन्तु वह शुद्ध आत्माका ही अनुभव करता है। और जिसे उपरोक्त भेदविज्ञान नहीं है वह उसके अभावसे अज्ञानी होता हुआ, अज्ञानांधकार द्वारा आच्छादित होनेसे चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मस्वभावको न जानता हुआ, रागको ही आत्मा मानता हुआ, रागी होता है, द्वेषी होता है, मोही होता है, किन्तु शुद्ध आत्माका किंचित्मात्र भी अनुभव नहीं करता। इससे सिद्ध हुआ कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माकी उपलब्धि ( अनुभव ) होती है।
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समयसार
२९०
कथं शुद्धात्मोपलम्भादेव संवर इति चेत्
सुद्धं तु बियाणंतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो। जाणंतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहदि।।१८६ ।।
शुद्धं तु विजानन् शुद्धं चैवात्मानं लभते जीवः। जानंस्त्वशुद्धमशुद्धमेवात्मानं लभते।। १८६ ।।
___ यो हि नित्यमेवाच्छिन्नधारावाहिना ज्ञानेन शुद्धमात्मानमुपलभमा-नोऽवतिष्ठते स ज्ञानमयात् भावात् ज्ञानमय एव भावो भवतीति कृत्वा प्रत्यग्रकर्मास्रवणनिमित्तस्य रागद्वेषमोहसन्तानस्य निरोधाच्छुद्धमेवात्मानं प्राप्नोतिः, यस्तु नित्यमेवा
भावार्थ:-जिसे भेदविज्ञान हुआ है वह आत्मा जानता है कि 'आत्मा कभी ज्ञान स्वभावसे छटता नहीं है। ऐसा जानता हआ वह, कर्मोदय के द्वारा तप्त होता हुआ भी, रागी, द्वेषी, मोही नहीं होता है, परंतु निरंतर शुद्ध आत्माका अनुभव करता है। जिसे भेदविज्ञान नहीं है वह आत्मा, आत्माके ज्ञानस्वभावको न जानता हुआ रागको ही आत्मा मानता है, इसलिये वह रागी, द्वेषी, मोही होता है, परंतु कभी भी शुद्ध आत्माका अनुभव नहीं करता। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माकी उपलब्धि होती है।
अब यह प्रश्न होता है कि शुद्ध आत्माकी उपलब्धिसे ही संवर कैसे होता है ? इसका उत्तर कहते हैं:
जो शुद्ध जाने आत्मको, वो शुद्ध आत्म हि प्राप्त हो। अनशुद्ध जाने आत्मको, अनशुद्ध आत्म हि प्राप्त हो ।। १८६ ।।
गाथार्थ:- [ शुद्धं तु] शुद्ध आत्माको [विजानन् ] जानता हुआ अनुभव करता हुआ [ जीव: ] जीव [ शुद्धं च एव आत्मानं] शुद्ध आत्मको ही [ लभते ] प्राप्त करता है, [ तु] और [ अशुद्धम् ] अशुद्ध [ आत्मानं ] आत्माको [ जानन् ] जानता हुआ–अनुभव करता हुआ जीव [ अशुद्धम् एव ] अशुद्ध आत्माको ही [ लभते ] प्राप्त करता है।
टीका:-जो सदा ही अच्छिन्नधारावाही ज्ञानसे शुद्ध आत्माका अनुभव किया करता है वह, 'ज्ञानमय भावमेंसे ज्ञानमय भाव ही होता है' इस न्यायके अनुसार आगामी कर्मोंके आस्रवणका निमित्त जो रागद्वेषमोहकी संतति ( परंपरा) उसका निरोध होनेसे, शुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है; और जो सदा ही अज्ञानसे अशुद्ध आत्माका अनुभव किया करता है
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ज्ञानेनाशुद्धमात्मानमुपलभमानोऽवतिष्ठते सोऽज्ञानमयागावादज्ञानमय एव भावो भवतीति कृत्वा प्रत्यग्रकर्मास्रवणनिमित्तस्य रागद्वेषमोहसन्तानस्यानिरोधादशुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति। अतः शुद्धात्मोपलम्भादेव संवरः।
(मालिनी) यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते। तदयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति।।१२७ ।।
वह, 'अज्ञानमय भावमेंसे अज्ञानमय भाव ही होता है' इस न्यायके अनुसार आगामी कर्मोंके आस्रवणका निमित्त जो रागद्वेषमोहकी संतति उसका निरोध न होनेसे , अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है। अत: शुद्ध आत्माकी उपलब्धिसे ( अनुभवसे) ही संवर होता है।
भावार्थ:-जो जीव अखंडधारावाही ज्ञानसे आत्माको निरंतर शुद्ध अनुभव किया करता है उसके रागद्वेषमोहरूपी भावास्रव रुकते हैं इसलिये वह शुद्ध आत्माको प्राप्त करता है; और जो जीव अज्ञानसे आत्माका अशुद्ध अनुभव करता है उसके रागद्वेषमोहरूपी भावास्रव नहीं रुकते इसलिये वह अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है। अतः सिद्ध हुआ कि शुद्ध आत्माकी उपलब्धिसे ( अनुभवसे ) ही संवर होता है।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ यदि ] यदि [ कथम् अपि ] किसी भी प्रकार से ( तीव्र पुरुषार्थ करके ) [धारावाहिना बोधनेन ] धारावाही ज्ञानसे [ शुद्धम् आत्मानम् ] शुद्ध आत्माको [ ध्रुवम् उपलभमानः आस्ते ] निश्चलतया अनुभव किया करे [ तत् ] तो [ अयम् आत्मा ] यह आत्मा, [ उदयत्-आत्म-आरामम् आत्मानम् ] जिसका आत्मानंद प्रगट होता जाता है ( अर्थात् जिसकी आत्मस्थिरता बढ़ती जाती है) ऐसे आत्माको [ पर-परिणतिरोधात् ] परपरिणतिके निरोधसे [शुद्धम् एव अभ्युपैति] शुद्ध ही प्राप्त करता है।
भावार्थ:-धारावाही ज्ञानके द्वारा शुद्ध आत्माका अनुभव करनेसे रागद्वेषमोहरूप परपरिणतिका (भावास्रवोंका) निरोध होता है और उससे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है।
धारावाही ज्ञानका अर्थ है प्रवाहरूपज्ञान-अखण्ड रहनेवाला ज्ञान। वह दो प्रकार कहा जाता है:-एक तो, जिसमें बीचमें मिथ्याज्ञान न आये ऐसा सम्यग्ज्ञान धारावाही ज्ञान है। दूसरा, एक ही ज्ञेयमें उपयोगके उपयुक्त रहनेकी अपेक्षासे ज्ञानकी
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२९२
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समयसार
केन प्रकारेण संवरो भवतीति चेत्
अप्पाणमप्पणा रुंधिऊण दोपुण्णपावजोगेसु। दंसणणाणम्हि ठिदो इच्छाविरदो य अण्णम्हि ।। १८७ ।। जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा । ण विकम्मं णोकम्मं चेदा चिंतेदि एयत्तं ।। १८८ ।। अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमओ अणण्णमओ । लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं ।। १८९ ।। आत्मानमात्मना रुन्ध्वा द्विपुण्यपापयोगयोः।
दर्शनज्ञाने स्थितः इच्छाविरतश्चान्यस्मिन् ।। १८७ ।।
धारावाहिकता कही जाती है, अर्थात् जहाँ तक उपयोग एक ही ज्ञेयमें उपयुक्त रहता है वहाँ तक धारावाही ज्ञान कहलाता है; इसकी स्थिति (छद्मस्थके) अंतर्मुहूर्त ही है, तत्पश्चात् वह खंडित होती है। इन दो अर्थोंमेंसे जहाँ जैसी विवक्षा हो वहाँ वैसा अर्थ समझना चाहिये। अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादि नीचेके गुणस्थानवाले जीवोंके मुख्यतया पहेली अपेक्षा लागू होगी, और श्रेणी चढ़नेवाले जीवके मुख्यतया दूसरी अपेक्षा लागू होगी क्योंकि उसका उपयोग शुद्ध आत्मामें ही उपयुक्त है । १२७ ।
अब प्रश्न करता है कि संवर किस प्रकारसे होता है ? इसका उत्तर कहते
शुभ अशुभसे जो रोक कर निज आत्मको आत्मा हि से । दर्शन अवरु ज्ञानहि ठहर, परद्रव्यइच्छा परिहरे ।। १८७।। जो सर्वसंगविमुक्त, ध्यावे आत्मसे आत्मा ही को । नहिं कर्म अरु नोकर्म, चेतक चेतता एकत्वको ।। १८८ ।। वह आत्म ध्याता, ज्ञानदर्शनमय, अनन्यमयी हुआ । बस अल्प काल जु कर्मसे परिमोक्ष पावे आत्मका ।। १८९ ।।
द्वारा
गाथार्थ:- [ आत्मानम् ] आत्माको [ आत्मना ] आत्माके [ द्विपुण्यपापयोगयोः] दो पाप-पुण्यरूपी शुभाशुभयोगोंसे [ रुन्ध्वा ] रोककर [ दर्शनज्ञाने] दर्शनज्ञानमें [ स्थितः ] स्थित होता हुआ [च] और [अन्यस्मिन् ] अन्य ( वस्तु) की [ इच्छाविरतः ] इच्छासे विरत होता हुआ, [ य: आत्मा ] जो आत्मा,
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२९३
यः सर्वसङ्गमुक्तो ध्यायत्यात्मानमात्मनात्मा। नापि कर्म नोकर्म चेतयिता चिन्तयत्येकत्वम्।। १८८ ।। आत्मानं ध्यायन् दर्शनज्ञानमयोऽनन्यमयः। लभतेऽचिरेणात्मानमेव स कर्मप्रविमुक्तम्।। १८९ ।।
यो हि नाम रागद्वेषमोहमूले शुभाशुभयोगे वर्तमानं दृढतरभेद-विज्ञानावष्टम्भेन आत्मानं आत्मनैवात्यन्तं रुन्ध्वा शुद्धदर्शनज्ञानात्मन्यात्मद्रव्ये सुष्टु प्रतिष्ठितं कृत्वा समस्तपरद्रव्येच्छापरिहारेण समस्तसङ्गविमुक्तो भूत्वा नित्यमेवातिनिष्पकम्पः सन् मनागपि कर्मनोकर्मणोरसंस्पर्शेन आत्मीयमात्मा-नमेवात्मना ध्यायन् स्वयं सहजचेतयितृत्वादेकत्वमेव चेतयते, स खल्वे-कत्वचेतनेनात्यन्तविविक्तं चैतन्यचमत्कारमात्रमात्मानं ध्यायन्, शुद्धदर्शन-ज्ञानमयमात्मद्रव्यमवाप्तः, शुद्धात्मोपलम्भे सति समस्तपरद्रव्यमयत्व- मतिक्रान्तः सन्, अचिरेणैव सकलकर्मविमुक्तमात्मानमवाप्नोति। एष संवरप्रकारः।
[ सर्वसङ्गमुक्तः ] ( ईच्छारहित होनेसे ) सर्व संगसे रहित होता हुआ, [ आत्मानम् ] (अपने) आत्माको [आत्मना] आत्माके द्वारा [ध्यायति] ध्याता है- और [कर्म नोकर्म] कर्म तथा नोकर्मको [न अपि] नहीं ध्याता एवं, [ चेतयिता] ( स्वयं)
चेतयिता ( होनेसे) [ एकत्वम् ] एकत्वको ही [ चिन्तयति] चिंतवन करता है-अनुभव करता है, [ सः] वह (आत्मा), [आत्मानं ध्यायन्] आत्माको ध्याता हुआ, [ दर्शनज्ञानमयः] दर्शनज्ञानमय और [अनन्यमयः] अनन्यमय होता हुआ [अचिरेण एव ] अल्प कालमें ही [ कर्मप्रविमुक्तम् ] कर्मोंसे रहित [ आत्मानम् ] आत्माको [ लभते] प्राप्त करता है।
टीका:- रागद्वेषमोह जिसका मूल है ऐसे शुभाशुभ योगमें प्रवर्तमान जो जीव दृढ़तर भेदविज्ञानके अवलंबनसे आत्माको आत्माके द्वारा ही अत्यंत रोककर, शुद्धदर्शनज्ञानरूप आत्मद्रव्यमें भलीभाँति प्रतिष्ठित (स्थिर) करके, समस्त परद्रव्यों की इच्छाके त्यागसे सर्व संगसे रहित होकर, निरंतर अति निष्कंप वर्तता हुआ, कर्मनोकर्मका किंचित्मात्र भी स्पर्श किये बिना अपने आत्माको ही आत्मासे द्वारा ध्याता हुआ, स्वयंको सहज चेतयितापन होनेसे एकत्वका ही चेतता (-अनुभव करता), है ( ज्ञान चेतना रूप रहता है), वह जीव वास्तवमें, एकत्व-चेतन द्वारा अर्थात् एकत्वके अनुभव द्वारा (परद्रव्यसे) अत्यंत भिन्न चैतन्यचमत्कारमात्र आत्माको ध्याता हुआ, शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्मद्रव्यको प्राप्त होता हुआ, शुद्ध आत्माकी उपलब्धि (प्राप्ति) होनेपर समस्त परद्रव्यमयतासे अतिक्रांत होता हआ. अल्प कालमें ही सर्व कर्मोंसे रहित आत्माको प्राप्त करता है। यह संवरका प्रकार (विधि) है।
१। चेतयिता = ज्ञाता दृष्टा। २। अनन्यमय = अन्यमय नहीं होता है ऐसा।
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समयसार
२९४
( मालिनी) निजमहिमरतानां भेदविज्ञानशक्तया भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वोपलम्भः। अचलितमखिलान्यद्रव्यदूरेस्थितानां भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः।। १२८ ।।
केन क्रमेण संवरो भवतीति चेत्
भावार्थ:-जो जीव पहले तो रागद्वेषमोहके साथ मिले हुए मनवचनकायके शुभाशुभ योगोंसे अपने आत्माको भेदज्ञानके बलसे चलायमान नहीं होने दे, और फिर उसी को शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्मस्वरूपमें निश्चल करके तथा समस्त बाह्यअभ्यंतर परिग्रहसे रहित होकर कर्म-नोकर्मसे भिन्न अपने स्वरूपमें एकाग्र होकर उसीका ही अनुभव किया करे अर्थात् उसी के ध्यानमें रहे, वह जीव आत्माका ध्यान करनेसे दर्शनज्ञानमय होता हुआ और परद्रव्यमयताका उल्लंघन करता हुआ अल्प कालमे हीं समस्त कर्मोंसे मुक्त हो जाता है। यह संवर होने की रीति है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ मेदविज्ञानशक्तया निजमहिमरतानां एषां] जो भेदविज्ञानकी शक्तिके द्वारा अपनी (स्वरूपकी) महिमामें लीन रहते हैं उन्हें [ नियतम् ] नियमसे [शुद्धतत्त्वोपलम्भः ] शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धि [ भवीत ] होती है; [ तस्मिन् सति च] शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धि होनेपर, [अचलितम् अखिल-अन्यद्रव्य-दूरे-स्थितानां ] अचलितरूपसे समस्त अन्यद्रव्योंसे दूर वर्तते हुवे ऐसे उनके, [अक्षयः कर्ममोक्षः भवति] अक्षय कर्ममोक्ष होता है ( अर्थात् उनका कर्मोंसे ऐसा छुटकारा हो जाता है कि पुनः कभी कर्मबन्ध नहीं होता)। १२८।।
अब यह प्रश्न होता है कि संवर किस क्रम से होता है ? उसका उत्तर कहते है:
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तेसिं हेदू भणिदा अज्झवसाणाणि सव्वदरिसीहिं । मिच्छत्तं अण्णाणं अविरयभावो य जोगो य ।। १९९० ।।
दुअभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोहो । आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स वि णिरोहो । । १९१ ।। कम्मस्साभावेण य णोकम्माणं पि जायदि णिरोहो । णोकम्मणिरोहेण य संसारणिरोहणं होदि ।। १९२ ।।
तेषां तव भणिता अध्यवसानानि सर्वदर्शिभिः । मिथ्यात्वमज्ञानमविरतभावश्च योगश्च ।। १९० ।। हेत्वभावे नियमाज्जायते ज्ञानिन आस्रवनिरोधः । आस्रवभावेन विना जायते कर्मणोऽपि निरोधः।। १९१ ।। कर्मणोऽभावेन च नोकर्मणामपि जायते निरोधः । नोकर्मनिरोधेन च संसारनिरोधनं भवति ।। १९२ ।।
रागादिके हेतु कहे, सर्वज्ञ अध्यवसानको । मिथ्यात्व अरु अज्ञान, अविरतभाव त्यों ही योगको ।। ९९० ।। कारण अभाव जरूर आस्रवरोध ज्ञानीको बने । आस्रवभाव अभावमें, नहिं कर्मका आना बने ।। १९१ ।।
हैकमैके जु अभावसे, नोकर्मका रोधन बने । नोकर्मका रोधन हवे, संसारसंरोधन बने ।। १९२ ।।
२९५
गाथार्थ:- [ तेषां ] उनके ( पूर्व कथित रागद्वेषमोहरूप आस्रवोंके ) [ हेतव: ] हेतु [ सर्वदर्शिभिः] सर्वदर्शियोंने [ मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्व [ अज्ञानम् ] अज्ञान, [ अविरतभावः च ] और अविरतभाव [ योग: च ] तथा योग - [ अध्यवसानानि ] यह (चार) अध्यवसान [भणिताः ] कहे हैं । [ ज्ञानिनः ] ज्ञानियोंके [ हेत्वभावे ] हेतुवों के अभावमें [नियमात् ] नियमसे [ आस्रवनिरोध: ] आस्रवोंका निरोध [ जायते ] होता है, [ आस्रवभावेन विना ] आस्रवभावके बिना [ कर्मणः अपि ] कर्मका भी [ निरोध: ] निरोध [ जायते ] होता है, [च] और [ कर्मण: अभावेन ] कर्मके अभावसे [ नोकर्मणाम् अपि ] नोकर्मोंका भी [ निरोध: ] निरोध [ जायते ] होता है, [च] और [ नोकर्मनिरोधेन ] नोकर्मके निरोधसे [ संसारनिरोधनं ] संसारका निरोध [ भवति ] होता है।
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समयसार
२९६
सन्ति तावज्जीवस्य आत्मकमैकत्वाध्यासमूलानि मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगलक्षणानि अध्यवसानानि। तानि रागद्वेषमोहलक्षणस्यास्रवभावस्य हेतवः। आस्रवभावः कर्महेतुः। कर्म नोकर्महेतुः। नोकर्म संसारहेतुः इति। ततो नित्यमेवायमात्मा आत्मकर्मणोरेकत्वाध्यासेन मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगमयमात्मानमध्यवस्यति। ततो रागद्वेषमोहरूपमाञवभावं भावयति। ततः कर्म आस्रवति। ततो नोकर्म भवति। ततः संसार: प्रभवति। यदा तु आत्मकर्मणो दविज्ञानेन शुद्धचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मानं उपलभते तदा मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगलक्षणानां अध्यवसानानां आस्रवभावहेतूनां भवत्यभावः। तदभावे रागद्वेषमोहरूपास्रवभावस्य भवत्यभावः। तदभावे भवति कर्माभावः। तदभावेऽपि भवति नोकर्माभावः। तदभावेऽपि भवति संसाराभावः। इत्येष संवरक्रमः।
टीका:-पहले तो जीवके, आत्मा और कर्मके एकत्वका अध्यास (अभिप्राय) जिनका मूल है ऐसे मिथ्यात्व-अज्ञान-अविरति-योगस्वरूप अध्यवसान विद्यमान है, वे रागद्वेषमोहस्वरूप आस्रवभावके कारण हैं; आस्रवभाव कर्मका कारण है; कर्म नोकर्मका कारण है; और नोकर्म संसारका कारण है। इसलिये-सदा यह आत्मा, आत्मा और कर्मके एकत्वके अध्याससे मिथ्यात्व-अज्ञान-अविरति-योगमय आत्माको मानता है ( अर्थात् मिथ्यात्वादि अध्यवसान करता है); इसलिये रागद्वेषमोहरूप आस्रवभावको भाता है, उससे कर्म आस्रव होता है; उससे नोकर्म होता है; और उससे संसार उत्पन्न होत है। किन्तु जब ( वह आत्मा), आत्मा और कर्मके भेदविज्ञान के द्वारा शुद्ध चैतन्यचमत्कारमात्र आत्माको उपलब्ध करता है-अनुभव करता है तब मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योगस्वरूप अध्यवसान जो कि आस्रवभावके कारण है उनका अभाव होता है; अध्यवसानोंका अभाव होनेपर रागद्वेषमोहरूप आस्रवभावका अभाव होता है; आस्रवभावका अभाव होनेपर कर्मका अभाव होता है; कर्मका अभाव होनेपर नोकर्मका अभाव होता है; और नोकर्मका अभाव होनेपर संसारका अभाव होता है। इसप्रकार यह संवरका क्रम है।
भावार्थ:-जीवके जबतक आत्मा और कर्मके एकत्वका आशय है-भेदविज्ञान नहीं है तबतक मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योगस्वरूप अध्यवसान वर्तते हैं, अध्यवसानसे रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव होता है, आस्रवभावसे कर्म बँधता है, कर्मसे शरीरादि नोकर्म उत्पन्न होता है और नोकर्मसे संसार है। परंतु जब उसे आत्मा और कर्मका भेदविज्ञान होता है तब शुद्ध आत्माकी उपलब्धि होनेसे मिथ्यात्वादि अध्यवसानोंका अभाव होता है, और उससे रागद्वेषमोहरूप आस्रवका अभाव होता है, आस्रवके अभावसे कर्म नहीं बँधाता, कर्मके अभावसे शरीरादि नोकर्म उत्पन्न नहीं होते और नोकर्मके अभावसे संसारका अभाव होता है। इसप्रकार संवरका क्रम जानना चाहिये।
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संवर अधिकार
२९७
(उपजाति) सम्पद्यते संवर एष साक्षाच्छुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात्। स भेदविज्ञानत एव तस्मात् तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यम्।।१२९ ।।
(अनुष्टुभ् ) भावयेनेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया। तावद्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते।। १३० ।।
संवर होनेके क्रममें संवरका पहला ही कारण भेदविज्ञान कहा है अब उसकी भावनाके उपदेशका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ एषः साक्षात् संवरः] यह साक्षात् संवर [ किल] वास्तवमें [ शुद्ध-आत्म-तत्त्वस्य उपलम्भात् ] शुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धिसे [ सम्पद्यते ] होता है;
और [ सः ] वह शुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धि [ भेदविज्ञानतः एव ] भेदविज्ञानसे ही होती है। [तस्मात् ] इसलिये [ तत् भेदविज्ञानम् ] वह भेदविज्ञान [अतीव] अत्यंत [ भाव्यम् ] भाने योग्य है।
भावार्थ:-जब जीवको भेदविज्ञान होता है अर्थात् जब जीव आत्मा और कर्मको यथार्थतया भिन्न जानता है तब वह शुद्ध आत्माका अनुभव करता है, शुद्ध आत्माके अनुभवसे आस्रवभाव रुकता है और अनुक्रमसे सर्व प्रकारसे संवर होता है, इसलिये भेदविज्ञानको अत्यंत भानेका उपदेश किया है। १२९ ।
अब, काव्य द्वारा यह बतलाते हैं कि भेदविज्ञान कहाँ तक भाना चाहिये।
श्लोकार्थ:- [इदम् भेदविज्ञानम् ] यह भेदविज्ञान [अच्छिन्न-धारया ] अच्छिन्नधारासे (जिसमें विच्छेद न पड़े ऐसे अखंड प्रवाहरूपसे) [ तावत् ] तबतक [ भावयेत् ] भाना चाहिये [ यावत् ] जबतक (ज्ञान) [ परात् च्युत्वा ] परभावोंसे छूटकर [ ज्ञानं ] ज्ञान [ ज्ञाने] ज्ञानमें ही ( अपने स्वरूपमें ही) [ प्रतिष्ठते ] स्थिर हो जाये।
भावार्थ:-यहाँ ज्ञानका ज्ञानमें स्थिर होना दो प्रकारसे जानना चाहिये। एक तो मिथ्यात्वका अभाव होकर सम्यग्ज्ञान हो और फिर मिथ्यात्व न आये तब ज्ञान ज्ञानमें स्थिर हुआ कहलाता है; दूसरे, जब ज्ञान शुद्धोपयोगरूपमें स्थिर हो जाये और फिर अन्य विकाररूप परिणमित न हो तब ज्ञान ज्ञानमें स्थिर हुआ कहलाता है। जबतक ज्ञानदोनों प्रकार से ज्ञानमें स्थिर न हो जाये तबतक भेदविज्ञानको भाते रहना चाहिये। १३०।
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समयसार
२९८
( अनुष्टुभ् ) भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन। अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।। १३१ ।।
__ (मन्दाक्रान्ता) भेदज्ञानोच्छलनकलनाच्छुद्धतत्त्वोपलम्भाद्रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणां संवरेण। बिभ्रत्तोषं परमममलालोकमम्लानमेकं
ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत्।। १३२ ।। अब पुनः भेदविज्ञानकी महिमा बतलाते हैं :--
श्लोकार्थ:- [ये केचन किल सिद्धाः ] जो कोई सिद्ध हुए है [ भेदविज्ञानतः सिद्धाः ] वे भेदविज्ञानसे सिद्ध हुए हैं; [ ये केचन किल बद्धाः ] जो कोई बंधे हैं [ अस्य एव अभावतः बद्धाः] वे उसीके (-भेदविज्ञानके ही) अभावसे बँधे हैं।
भावार्थ:-अनादि कालसे लेकर जबतक जीवको भेदविज्ञान नहीं है तबतक कर्मसे बँधता ही रहता है-संसारमें परिभ्रमण ही करता रहता है; जिस जीवको भेदविज्ञान होता है वह कर्मोंसे अवश्य छूट जाता है-मोक्षको प्राप्त कर ही लेता है। इसलिये कर्मबंधका-संसारका-मूल भेदविज्ञानका अभाव ही है और मोक्षका पहला कारण भेदविज्ञान ही है। भेदविज्ञानके बिना कोई सिद्धिको प्राप्त नहीं कर सकता।
यहाँ ऐसा भी समझना चाहिये कि-विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध और वेदान्ती जो कि वस्तुको अद्वैत कहते हैं और अद्वैतके अनुभवसे ही सिद्धि कहते हैं उनका , भेदविज्ञानसे ही सिद्धि कहनेसे, निषेध हो गया; क्योंकि वस्तुका स्वरूप सर्वथा अद्वैत न होने पर भी जो सर्वथा अद्वैत मानते हैं उनके किसी भी प्रकार से भेदविज्ञान कहा ही नहीं जा सकता; जहाँ द्वैत (दो वस्तुएँ) ही नहीं मानते वहाँ भेदविज्ञान कैसा? यदि जीव और अजीव-दो वस्तुएं मानी जायें और उनका संयोग माना जाये तभी भेदविज्ञान हो सकता है और सिद्धि हो सकती है। इसलिये स्याद्वादियोंको ही सब कुछ निर्बाधतया सिद्ध होता है। १३१।
अब , संवर अधिकार पूर्ण करते हुए, संवर होनेसे ज्ञान हुआ उस ज्ञानकी महिमाका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ भेदज्ञान-उच्छलन-कलनात् ] भेदज्ञान प्रगट करनेके अभ्याससे [शुद्धतत्त्व-उपलम्भात् ] शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धि हुई, शुद्ध तत्त्वनी उपलब्धिसे [ रागग्रामप्रलयकरणात् ] राग समूहका विलय हुआ, रागना समूहके विलय करनेसे
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इति संवरो निष्क्रान्तः।
इति संवरप्ररूपकः पञ्चमोऽङ्कः।।
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां
समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ
२९९
[कर्मणां संवरेण ] कर्मोंका संवर हुआ और कर्मोंका संवर होनेसे, [ ज्ञाने नियतम् एतत् ज्ञानं उदितं ] ज्ञानमें ही निश्चल हुआ ऐसा यह ज्ञान उदय को प्राप्त हुआ- [ बिभ्रत् परमम् तोषं ] कि जो ज्ञान परम संतोषको ( परम अतीन्द्रिय आनंदको) धारण करता है, [अमल-आलोकम् ] जिसका प्रकाश निर्मल है ( अर्थात् रागादिकके कारण मलिनता थी वह अब नहीं है ), [ अम्लानम् ] जो अम्लान है (अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञानकी भाँति कुम्हलाया हुआ - निर्बल नहीं है, सर्व लोकालोकके जाननेवाला है ), [ एकं ] जो एक है ( अर्थात् क्षयोपशमसे भेद था वह अब नहीं है) और [ शाश्वतउद्योतम् ] जिसका उद्योत शाश्वत है ( अर्थात् जिसका प्रकाश अविनश्वर है ) । १३२ ।
टीका:-इसप्रकार संवर ( रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गया ।
भावार्थ:-रंग भूमिमें संवरका स्वांग आया था उसे ज्ञानने जान लिया इसलिये वह नृत्य करके बाहर निकल गया ।
* सवैया तेईसा
भेदविज्ञानकला प्रगटै, तब शुद्धस्वभाव लहै अपना ही, राग-द्वेष-विमोह सबहि गलि जाय, इमै दुठ कर्म रुकाही; उज्ज्वल ज्ञान प्रकाश करै बहु तोष धरै परमातममाहीं,
यों मुनिराज भली विधि धारतु, केवल पाय सुखी शिव जाहीं ।
इसप्रकार श्री समयसारकी ( श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेव प्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें संवरका प्ररूपक पाँचवाँ अंक समाप्त हुआ ।
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निर्जरा अधिकार
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अथ प्रविशति निर्जरा।
(शार्दूलविक्रीडित) रागाद्यास्रवरोधतो निजधुरां धूत्वा पर: संवर: कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूरान्निरुन्धन् स्थितः। प्राग्बद्धं तु तदेव दग्धुमधुना व्याजृम्भते निर्जरा ज्ञानज्योतिरपावृतं न हि यतो रागादिभिर्मूर्छति।। १३३ ।।
---००० दोहा ०००--
रागादिककू मेटि करि, नवे बंध हति संत ।
पूर्व उदयमें सम रहे, नमूं निर्जरावंत ।। प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहते हैं कि “अब निर्जरा प्रवेश करती है"। यहाँ तत्त्वोंका नृत्य है; अत: जैसे नृत्यमंच पर नृत्य करनेवाला स्वाँग धारण कर प्रवेश करता है उसीप्रकार यहाँ रंगभूमिमें निर्जराका स्वाँग प्रवेश करता है।
अब, सर्व स्वाँगको यथार्थ जाननेवाले सम्यग्ज्ञान को मंगलरूप जानकर आचार्यदेव मंगलके लिये प्रथम उसी-निर्मल ज्ञानज्योतिको ही-प्रगट करते हैं:
श्लोकार्थ:- [पर: संवरः ] परम संवर, [ रागादि-आस्रव-रोधतः ] रागादि आस्रवोंको रोकनेसे [ निज-धुरां धृत्वा] अपनी कार्य-धुराको धारण करके (-अपने कार्यको यथार्थतया संभालकर), [समस्तम् आगामि कर्म] समस्त आगामी कर्मको [भरतः दूरात् एव ] अत्यंततया दूरसे ही [ निरुन्धन् स्थितः ] रोकता हुआ खड़ा है; [ तु] और [ प्राग्बद्धं ] पूर्वबद्ध (संवर होनेके पहले बँधे हुवे) [ तत् एव दग्धुम् ] कर्म को जलानेके लिये [अधुना] अब [ निर्जरा व्याजृम्भते निर्जरा (-निर्जरारूपी अग्नि) फैल रही है [ यतः ] जिससे [ ज्ञानज्योतिः] ज्ञानज्योति [अपावृतं] निरावरण होती हुई (पुनः) [ रागादिभिः न हि मूर्छति ] रागादिभावोंके द्वारा मूर्छित नहीं होती-सदा अमूर्छित रहती है।
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उवभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं। जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ।। १९३ ।। उपभोगमिन्द्रियैः द्रव्याणामचेतनानामितरेषाम् ।
यत्करोति सम्यग्दृष्टि: तत्सर्व निर्जरानिमित्तम् ।। १९३ ।।
३०१
विरागस्योपभोगो निर्जरायै एव । रागादिभावानां सद्भावेन मिथ्यादृष्टेरचेतनान्यद्रव्योपभोगो बन्धनिमित्तमेव स्यात्। स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेर्निर्जरानिमित्तमेव स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदितम्।
भावार्थ:-संवर होने के बाद नवीन कर्म तो नहीं बँधते । और जो कर्म पहले बँधे हुए थे उनकी जब निर्जरा होती है तब ज्ञानका आवरण दूर होनेसे वह (ज्ञान) ऐसा हो जाता है कि पुनः रागादिरूप परिणमित नहीं होता - सदा प्रकाशरूप ही रहता है। १३३ ।
अब द्रव्यनिर्जराका स्वरूप कहते हैं:
चेतन अचेतन द्रव्यका,
उपभोग इंद्रिसमूहसे ।
जो जो करे सुदृष्टि वह सब, निर्जराकारण बने ।। १९३।।
गाथार्थ:- [ सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि जीव [ यत् ] जो [इन्द्रियैः] इंद्रियोंके द्वारा [अचेतनानाम् ] अचेतन तथा [ इतरेषाम् ] चेतन [ द्रव्याणाम्] द्रव्योंका [ उपभोगम् ] उपभोग [ करोति ] करता है [ तत् सर्व ] वह सर्व [ निर्जरानिमित्तम् ] निर्जराका निमित्त है ।
टीका:-विरागीका उपभोग निर्जराके लिये ही है ( वह निर्जराका कारण होता है)। रागादिभावोंके सद्भावसे मिथ्यादृष्टिके अचेतन तथा चेतन द्रव्योंका उपभोग बंधका निमित्त होता है; वही ( उपभोग ), रागादिभावोंके अभावसे सम्यग्दृष्टिके लिये निर्जराका निमित्त होता है; इसप्रकार द्रव्यनिर्जराका स्वरूप कहा ।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टिको ज्ञानी कहा है और ज्ञानीके रागद्वेषमोहका अभाव ह है; इसलिये सम्यग्दृष्टि विरागी है। यद्यपि उसके इंद्रियोंके द्वारा भोग दिखाई देता है तथापि उसे भोग की सामग्रीके प्रति राग नहीं है। वह जानता है कि “ यह ( भोगोंकी सामग्री) परद्रव्य है, मेरा और इसका कोई सम्बन्ध नहीं है; कर्मोदयके निमित्तसे इसका और मेरा संयोग-वियोग है "। जबतक उसे चारित्रमोहका उदय आकर पीड़ा करता है और स्वयं बलहीन होनेसे पीड़ाको सहन नहीं कर सकता तब तक - जैसे रोगी रोगकी पीड़ाको सहन नहीं कर सकता तब उसका औषधि इत्यादि के द्वारा
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समयसार
३०२
अथ भावनिर्जरास्वरूपमावेदयति
दव्वे उवभुजंते णियमा जायदि सुहं व दुक्खं वा। तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अध णिज्जरं जादि।।१९४ ।।
द्रव्ये उपभुज्यमाने नियमाज्जायते सुखं वा दुःखं वा। तत्सुखदुःखमुदीर्ण वेदयते अथ निर्जरां याति।।१९४ ।।
उपभुज्यमाने सति हि परद्रव्ये, तन्निमित्तः सातासात-विकल्पानतिक्रमणेन वेदनायाः सुखरूपो वा दुःखरूपो वा नियमादेव जीवस्य भाव उदेति। स तु
उपचार करता है इसीप्रकार-भोगोपभोगसामग्रीके द्वारा विषयरूप उपचार करता हुआ दिखाई देता है; किन्तु जैसे रोगी रोगको या औषधिको अच्छा नहीं मानता उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहके उदयको या भोगोपभोगसामग्रीको अच्छा नहीं मानता। और निश्चयसे तो, ज्ञातृत्वके कारण सम्यग्दृष्टि विरागी उदयागत कर्मोको मात्र जान ही लेता है, उनके प्रति उसे रागद्वेषमोह नहीं है। इसप्रकार रागद्वेषमोहके बिना ही उनके फलको भोगता हुआ दिखाई देता है, तो भी उसके कर्मका आस्रव नहीं होता, कर्मास्रवके बिना आगामी बंध नहीं होता और उदयागतकर्म तो अपना रस देकर खिर ही जाते हैं क्योंकि उदयमें आनेके बाद कर्मकी सत्ता रह ही नहीं सकती। इसप्रकार उसके नवीन बंध नहीं होता और उदयागत कर्मकी निर्जरा हो जाने से उसके केवल निर्जरा ही हुई। इसलिये सम्यग्दृष्टि विरागीके भोगोपभोगको निर्जराका ही निमित्त कहा गया है। पूर्व कर्म उदयमें आकर उसका द्रव्य खिर गया सो वह द्रव्यनिर्जरा है।
अब भावनिर्जराका स्वरूप कहते हैं:
परद्रव्यके उपभोग निश्चय, दुख वा सुख होय है। इन उदित सुखदुख भोगता, फिर निर्जरा हो जाय है ।। १९४।।
गाथार्थ:- [ द्रव्ये उपभुज्यमाने ] वस्तु भोगनेमें आनेपर, [ सुखं वा दुःखं वा] सुख अथवा दुःख [ नियमात् ] नियमसे [ जायते ] उत्पन्न होता है; [ उदीर्ण ] उदय को प्राप्त ( उत्पन्न हुवे ) [ तत् सुखदुःखम् ] उस सुखदुःखका [ वेदयते ] अनुभव करता है, [अथ] पश्चात् [ निर्जरां याति ] वह ( सुखदुःखरूप भाव ) निर्जरीको प्राप्त होता है।
टीका:-परद्रव्य भोगनेमें आनेपर, उसके निमित्तसे जीवका सुखरूप अथवा दुःखरूप भाव नियमसे ही उदय होता है अर्थात् उत्पन्न होता है, क्योंकि वेदन साता और असाता-इन दो प्रकारोंका अतिक्रम नहीं करता (अर्थात् वेदन दो प्रकारका ही है-सातारूप और असातारूप)।
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निर्जरा अधिकार
३०३
यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टे: रागादिभावानां सद्भावेन बन्धनिमित्तं भूत्वा निर्जीर्यमाणोऽप्यनिर्जीर्ण: सन् बन्ध एव स्यात्; सम्यग्दृष्टस्तु रागादिभावानामभावेन बन्धनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीर्यमाणो निर्जीर्णः सन्निर्जरैव स्यात्।
(अनुष्टुभ् ) तज्ज्ञानस्यैव सामर्थ्य विरागस्यैव वा किल। यत्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुञ्जानोऽपि न बध्यते।। १३४ ।।
अथ ज्ञानसामर्थ्य दर्शयति
जब इस (सुखरूप अथवा दुःखरूप) भावका वेदन होता है तब मिथ्यादृष्टिको, रागादिभावोंके सद्भावसे बंधका निमित्त होकर (वह भाव) निर्जरा को प्राप्त होता हुआ भी ( वास्तवमें) निर्जरित न होता हुआ, बंध ही होता है; किन्तु सम्यग्दृष्टिके, रागादिभावोंके अभावसे बंधका निमित्त हुए बिना केवलमात्र निर्जरित होनेसे ( वास्तवमें) निर्जरित होता हुआ , निर्जरा ही होती है।
भावार्थ:-परद्रव्य भोगनेमें आनेपर, कर्मोदयके निमित्तसे जीवके सुखरूप अथवा दुःखरूप भाव नियमसे उत्पन्न होता है। मिथ्यादृष्टिके रागादिके कारण वह भाव आगामी बंध करके निर्जरित होता है इसलिये उसे निर्जरित नहीं कहा जा सकता; अत: मिथ्यादृष्टिको परद्रव्यके भोगते हुए बंध ही होता है। सम्यग्दृष्टिके रागादिक न होनेसे आगामी बंध किये बिना ही वह भाव निर्जरित हो जाता है इसलिये उसे निर्जरित कहा जा सकता है; अतः सम्यग्दृष्टिके परद्रव्य भोगनेमें आनेपर निर्जरा ही होती है। इसप्रकार सम्यग्दृष्टिके भावनिर्जरा होती है।
अब आगामी गाथाओंकी सूचनाके रूपमें श्लोक कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [किल ] वास्तवमें [ तत् सामर्थ्य ] वह (आश्चर्यकारक ) सामर्थ्य [ ज्ञानस्य एव ] ज्ञानकी ही है [ वा ] अथवा [ विरागस्य एव ] विरागकी ही है [ यत् ] कि [ कः अपि] कोई ( सम्यग्दृष्टि जीव) [ कर्म भुञ्जानः अपि] कर्मोंको भोगता हुआ भी [कर्मभिः न बध्यते ] कर्मोंसे नहीं बँधाता! ( वह अज्ञानीको आश्चर्य उत्पन्न करती है और ज्ञानी उसे यथार्थ जानता है।) १३४ ।
अब ज्ञानका सामर्थ्य बतलाते हैं:
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३०४
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समयसार
जह विसमुवभुंजंतो वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवय दि । पोग्गलकम्मस्सुदयं तह भुंजदि णेव बज्झदे णाणी । । १९५ ।। यथा बिषमुपभुञ्जानो वैद्यः पुरुषो न मरणमुपयाति । पुद्गलकर्मण उदयं तथा भुङ्क्ते नैव बध्यते ज्ञानी ।। १९५ ।।
परेषां मरणकारणं
यथा कश्चिद्विषवैद्यः विषमुपभुञ्जानोऽपि अमोधविद्यासामर्थ्येन निरुद्वतच्छक्तित्वान्न म्रियते, तथा अज्ञानिनां रागादिभावसद्भावेन बन्धकारणं पुद्गलकर्मोदयमुपभुञ्जानोऽपि अमोधज्ञान-सामर्थ्यात् रागादिभावानामभावे सति निरुद्धतच्छक्तित्वान्न बध्यते ज्ञानी ।
अथ वैराग्यसामर्थ्य दर्शयति
ज्यों जहरके उपभोगसे भी, वैद्य जन मरता नहीं । त्यों उदयकर्म जु भोगता भी, ज्ञानी बँधता नहीं ।। १९५ ।।
गाथार्थ:- [ यथा ] जिसप्रकार [ वैद्यः पुरुषः ] वैद्य पुरुष [ विषम् उपभुञ्जानः ] विषको भोगता अर्थात् खाता हुआ भी [ मरणम् न उपयाति ] मरणको प्राप्त नहीं होता, [ तथा ] उसीप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी पुरुष [ पुद्गलकर्मणः ] पुद्गलकर्मके [ उदयं ] उदयको [भु ] भोगता है तथापि [ न एव बध्यते ] बँधता नहीं है।
टीका:- जिसप्रकार कोई विषवैद्य, दूसरोंके मरणके कारणभूत विषको भोगता हुआ भी, अमोघ ( रामबाण ) विद्याकी सामर्थ्यसे- विषकी शक्ति रुक गई होनेसे, नहीं मरता, उसीप्रकार अज्ञानियोंको रागादिभावोंका सद्भाव होनेसे बंधका कारण जो पुद्गलकर्मका उदय उसको ज्ञानी भोगता हुआ भी, अमोघ ज्ञानकी सामर्थ्य द्वारा रागादिभावोंका अभाव होनेसे - कर्मोदयकी शक्ति रुक गई होनेसे, बंधको प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ:-जैसे वैद्य मंत्र, तंत्र, औषधि इत्यादि अपनी विद्याकी सामर्थ्यसे विषकी घातक शक्तिका अभाव कर देता है जिससे विषके खा लेने पर भी उसका मरण नहीं होता, उसीप्रकार ज्ञानीके ज्ञानका ऐसा सामर्थ्य है कि वह कर्मोदयकी बंध करने की शक्तिका अभाव करता है और ऐसा होनेसे कर्मोदयको भोगते हुए भी ज्ञानी के आगामी कर्मबंध नहीं होता। इसप्रकार सम्यग्ज्ञानकी सामर्थ्य कही गई है।
अब वैराग्यका सामर्थ्य बतलाते हैं:
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निर्जरा अधिकार
३०५
जह मज्जं पिबमाणो अरदीभावेण मज्जदि ण पुरिसो। दव्वुवभोगे अरदो णाणी वि ण बज्झदि तहेव।। १९६ ।।
यथा मद्यं पिबन् अरतिभावेन माद्यति न पुरुषः।
द्रव्योपभोगेऽरतो ज्ञान्यपि न बध्यते तथैव।। १९६ ।। यथा कश्चित्पुरुषो मैरेयं प्रति प्रवृत्ततीव्रारतिभावः सन् मैरेयं पिबन्नपि तीव्रारतिभावसामर्थ्यान्न माद्यति, तथा रागादिभावानामभावेन सर्वद्रव्योपभोगं प्रति प्रवृत्ततीव्रविरागभावः सन् विषयानुपभुञ्जानोऽपि तीव्रविरागभावसामर्थ्यान्न बध्यते ज्ञानी।
( रथोद्धता) नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विषयसेवनस्य ना। ज्ञानवैभवविरागताबलात् सेवकोऽपि तदसावसेवकः।। १३५ ।।
ज्यों अरतिभाव जु मद्य पीकर, मत्त जन बनता नहीं। द्रव्योपभोग विर्षे अरत, ज्ञानी पुरुष बँधता नहीं ।। १९६।।
गाथार्थ:- [यथा] जैसे [पुरुषः] कोई पुरुष [मद्यं] मदिराको [ अरतिभावेन ] अरतिभावसे ( अप्रीतिसे ) [ पिबन् ] पीता हुआ [ न माद्यति] मतवाला नहीं होता, [ तथा एव ] इसीप्रकार [ ज्ञानी अपि] ज्ञानी भी [ द्रव्योपभोगे] द्रव्य के उपभोगके प्रति [अरतः ] अरत ( वैराग्यभावमें ) वर्तता हुआ [ न बध्यते ] बंधको प्राप्त नहीं होता।
टीका:-जैसे कोई पुरुष, मदिराके प्रति जिसको तीव्र अरतिभाव प्रवर्ता है ऐसा वर्तता हुआ, मदिराको पीनेपर भी, तीव्र अरतिभावकी सामर्थ्य के कारण मतवाला नहीं होता, उसीप्रकार ज्ञानी भी, रागादिभावोंके अभावसे सर्व द्रव्योंके उपभोगके प्रति जिसको तीव्र वैराग्यभाव प्रवर्ता है ऐसा वर्तता हुआ, विषयोंको भोगता हुआ भी, तीव्र वैराग्यभावकी सामर्थ्य के कारण (कर्मोंसे ) बंधको प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ:-यह वैराग्य सामर्थ्य है कि ज्ञानी विषयोंका सेवन करता हुआ भी कर्मोंसे नहीं बँधाता।
अब इस अर्थका और आगामी गाथाके अर्थका सूचक काव्य कहते हैं:श्लोकार्थ:- यत् ] क्योंकि [ ना] यह [ ज्ञानी ] पुरुष [ विषयसेवने अपि]
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समयसार
३०६
अथैतदेव दर्शयति
सेवंतो वि ण सेवदि असेवमाणो वि सेवगो कोई। पगरणचेट्ठा कस्स वि ण य पायरणो त्ति सो होदि।। १९७ ।।
सेवमानोऽपि न सेवते असेवमानोऽपि सेवकः कश्चित्। प्रकरणचेष्टा कस्यापि न च प्राकरण इति स भवति।।१९७ ।।
यथा कश्चित् प्रकरणे व्याप्रियमाणोऽपि प्रकरणस्वामित्वाभावात् न प्राकरणिकः, अपरस्तु तत्राव्याप्रियमाणोऽपि तत्स्वामित्वात्प्राकरणिकः, तथा
विषय सेवन करता हुआ भी [ज्ञानवैभव-विरागता-बलात् ] ज्ञानवैभव और विरागता के बलसे [ विषयसेवनस्य स्वं फलं] विषयसेवके निजफलको (-रंजित परिणामको) [न अश्नुते] नहीं भोगता-प्राप्त नहीं होता, [ तत् ] इसलिये [ असौ] यह (पुरुष) [ सेवकः अपि असेवक: ] सेवक होनेपर भी असेवक है ( अर्थात् विषयोंका सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता)।
भावार्थ:-ज्ञान और विरागताकी ऐसी कोई अचिंत्य सामर्थ्य है कि ज्ञानी इंद्रियोंके विषयोंका सेवन करता हुआ भी उनका सेवन करनेवाला नहीं कहा जा सकता, क्योंकि विषयसेवनका फल जो रंजित परिणाम है उसे ज्ञानी नहीं भोगताप्राप्त नहीं करता। १३५ । अब इसी बातको प्रगट दृष्टांतसे बतलाते हैं:
सेता हुआ नहिं सेवता, नहिं सेवता सेवक बने । प्रकरणतनी चेष्टा करे, अरु प्राकरण ज्यों नहिं हुवे ।। १९७।।
गाथार्थ:- [ कश्चित् ] कोई तो [ सेवमानः अपि] विषयोंको सेवन करता हुआ भी [न सेवते ] सेवन नहीं करता और [ असेवमानः अपि] कोई सेवन न करता हुआ भी [ सेवक: ] सेवन करने वाला है- [कस्य अपि] जैसे किसी पुरुषके [प्रकरणचेष्टा] 'प्रकरणकी चेष्टा (कोई कार्य संबंधी क्रिया) वर्तती है [ न च सः प्राकरणः इति भवति] तथापि वह प्राकरणिक नहीं होता।
टीका:-जैसे कोई पुरुष किसी प्रकरणकी क्रियामें प्रवर्तमान होनेपर भी प्रकरणका स्वामित्व न होनेसे प्राकरणिक नहीं है और दूसरा पुरुष प्रकरणकी क्रिया प्रवृत्त न होता हुआ भी प्रकरणका स्वामित्व होनेसे प्राकरणिक है, इसीप्रकार
१। प्रकरण = कार्य,
२। प्राकरणिक = कार्य करनेवाला
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सम्यग्दृष्टिः पूर्वसञ्चित-कर्मोदयसम्पन्नान् विषयान् सेवमानोऽपि रागादिभावानामभावेन विषयसेवनफलस्वामित्वाभावादसेवक एव, मिथ्यादृष्टिस्तु विषयानसेवमानोऽपि रागादिभावानां सद्भावेन विषयसेवनफलस्वामित्वात्सेवक एव ।
( मन्दाक्रान्ता ) सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्ति:
स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्तया। यस्माज्ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ।। १३६ ।।
३०७
सम्यग्दृष्टि पूर्वसंचित कर्मोदयसे प्राप्त हुए विषयोंका सेवन करता हुआ भी रागादिभावोंके अभावके कारण विषयसेवनके फलका स्वामित्व न होनेसे असेवक ही है ( सेवन करनेवाला नहीं है) और मिथ्यादृष्टि विषयोंका सेवन न करता हुआ भी रागादिभावोंके सद्भावके कारण विषयसेवनके फलका स्वामित्व होनेसे सेवन करने वाला ही है।
भावार्थ:-जैसे किसी सेठने अपनी दुकान पर किसी को नौकर रखा। और वह नौकर ही दुकानका सारा व्यापार - खरीदना, बेचना इत्यादि सारा कामकाज करता है तथापि वह सेठ नहीं है क्योंकि वह उस व्यापार का और उस व्यापार के हानि-लाभका स्वामी नहीं है; वह तो मात्र नौकर है, सेठ के द्वारा कराये गये सब कामकाज को करता है । और जो सेठ है वह व्यापार संबंधी कोई कामकाज नहीं करता, घर ही बैठा रहता है तथापि उस व्यापार तथा उसके हानि-लाभका स्वामी होनेसे वही व्यापारी ( सेठ) है। यह दृष्टांत सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि पर घटित कर लेना चाहिये। जैसे नौकर व्यापार करनेवाला नहीं है इसीप्रकार सम्यकदृष्टि विषयोंका सेवन करने वाला नहीं है, और जैसे सेठ व्यापार करने वाला है उसीप्रकार मिथ्यादृष्टि विषय सेवन करने वाला है।
अब आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ सम्यग्दृष्टेः नियतं ज्ञान-वैराग्य - शक्तिः भवति ] सम्यग्दृष्टिके नियमसे ज्ञान और वैराग्यकी शक्ति होती है; [ यस्मात् ] क्योंकि [अयं ] वह (सम्यग्दृष्टि जीव ) [ स्व- अन्य - रूप - आप्ति - मुक्तया ] स्वरूपका ग्रहण और परका त्याग करनेकी विधिके द्वारा [ स्वं वस्तुत्वं कलयितुम् ] अपने वस्तुत्वका ( यथार्थ स्वरूपका) अभ्यास करने के लिये, [ इदं स्वं च परं ] ' यह स्व है ( अर्थात् आत्मस्वरूप है) और यह पर है' [ व्यतिकरम् ] इस भेदको [ तत्त्वतः] परमार्थ से [ ज्ञात्वा ] जानकर [ स्वस्मिन् आस्ते ] स्वमें स्थिर होता है और [ परात् रागयोगात् ]
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समयसार
३०८
उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिदो जिणवरेहिं। ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को।। १९८ ।।
उदयविपाको विविधः कर्मणां वर्णितो जिनवरैः। न तु ते मम स्वभावाः ज्ञायकभावस्त्वहमेकः।। १९८ ।।
ये कर्मोदयविपाकप्रभवा विविधा भावा न ते मम स्वभावाः। एष टोत्कीर्णैकज्ञायकभावोऽहम्।
सम्यग्दृष्टिर्विशेषेण तु स्वपरावेवं जानातिपोग्गलकम्मं रागो तस्स विवागोदओ हवदि एसो।
ण दु एस मज्झ भावो जागगभावो हु अहमेक्को।।१९९ ।। परसे-रागके योगसे- [ सर्वतः ] सर्वतः [ विरमति ] विरमता (रुकता) है। ( यह रीत ज्ञानवैराग्यकी शक्तिके बिना नहीं हो सकती।)। १३६ ।
__ अब प्रथम , यह कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि सामान्यतया स्व और परको इसप्रकार जानता है:
कर्मो हि के जु अनेक , उदय विपाक जिनवरने कहे । वे मुझ स्वभाव जु हैं नहीं, मैं एक ज्ञायकभाव हूँ ।। १९८ ।।
गाथार्थ:- [कर्मणां] कर्मोंके [ उदयविपाक: ] उदयका विपाक (फल) [जिनवरैः ] जिनेन्द्रदेवने [विविध:] अनेक प्रकारका [ वर्णितः कहा है [ ते] वे [ मम स्वभावाः ] मेरे स्वभाव [न तु] नहीं है; [ अहम् तु] मैं तो [ एकः] एक [ ज्ञायकभावः ] ज्ञायकभाव हूँ।
टीका:-जो कर्मोदयके विपाकसे उत्पन्न हुए अनेक प्रकारके भाव हैं वे मेरे स्वभाव नहीं है; मैं तो यह (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर ) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव हूँ।
भावार्थ:-इसप्रकार सामान्यतया समस्त कर्मजन्य भावोंको सम्यग्दृष्टि पर जानता है और अपनेको एक ज्ञायकस्वभाव ही जानता है।
__ अब यह कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि विशेषतया स्व और परको इसप्रकार जानता है:
पुद्गलकर्मरूप रागहा हि, विपाकरूप है उदय ये । ये है नहीं मुझभाव, निश्चय एक ज्ञायकभाव हूँ ।। १९९ ।।
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निर्जरा अधिकार
३०९
पुद्गलकर्म रागस्तस्य विपाकोदयो भवति एषः। न त्वेष मम भावो ज्ञायकभावः खल्वहमेकः।। १९९ ।।
अस्ति किल रागो नाम पुद्गलकर्म, तदुदयविपाकप्रभवोऽयं रागरूपो भावः, न पुनर्मम स्वभावः। एष टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावोऽहम्।
एवमेव च रागपदपरिवर्तनेन द्वेषमोहक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्धाणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि, अनया दिशा अन्यान्यप्यूह्यानि।
एवं च सम्यग्दृष्टि: स्वं जानन रागं मुञ्चंश्च नियमाज्ज्ञानवैराग्यसम्पन्नो भवति
एवं सम्मद्दिट्ठी अप्पाणं मुणदि जाणगसहावं। उदयं कम्मविवागं च मुयदि तचं वियाणंतो।। २०० ।।
गाथार्थ:- [ रागः ] राग [ पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्म है, [तस्य ] उसका [विपाकोदयः ] विपाकरूप उदय [ एषः भवति] यह है, [ एषः ] यह [ मम भावः ] मेरा भाव [ न तु] नहीं है; [ अहम् ] मैं तो [ खलु ] निश्चयसे [ एक: ] एक [ ज्ञायकभावः ] ज्ञायकभाव हूँ।
टीका:-वास्तवमें राग नामक पुद्गलकर्म है उसके उदयके विपाकसे उत्पन्न हुआ यह रागरूप भाव है, यह मेरा स्वभाव नहीं है; मैं तो यह ( प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव हूँ। (इसप्रकार सम्यग्दृष्टि विशेषतया स्वको और परको जानता है।)
और इसीप्रकार 'राग' पदको बदलकर उसके स्थानपर द्वेष , मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, ध्राण, रसन और स्पर्शन-ये शब्द रखकर सोलह सूत्र व्याख्यानरूप करना, और इसी उपदेशसे दूसरे भी विचारना।
इसप्रकार सम्यग्दृष्टि अपनेको जानता और रागको छोड़ता हुआ नियमसे ज्ञानवैराग्य-संपन्न होता है-यह इस गाथा द्वारा कहते हैं:
सदृष्टि इस रीत आत्मको, ज्ञायकस्वभाव हि जानता। अरु उदय कर्मविपाकको वह, तत्त्वज्ञायक छोड़ता ।। २००।।
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समयसार
३१०
एवं सम्यग्दृष्टि: आत्मानं जानाति ज्ञायकस्वभावम्। उदयं कर्मविपाकं च मुञ्चति तत्त्वं विजानन्।। २०० ।।
एवं सम्यग्दृष्टि: सामान्येन विशेषेण च परस्वभावेभ्यो भावेभ्यो सर्वेभ्योऽपि विविच्य टङ्कोत्कीर्णेकज्ञायकभावस्वभावमात्मनस्तत्त्वं विजानाति। तथा तत्त्वं विजानंश्च स्वपरभावोपादानापोहननिष्पाद्यं स्वस्य वस्तुत्वं प्रथयन् कर्मोदयविपाकप्रभवान् भावान् सर्वानपि मुञ्चति। ततोऽयं नियमात् ज्ञानवैराग्यसम्पन्नो भवति।
(मन्दाक्रान्ता) सम्यग्दृष्टि: स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु।
गाथार्थ:- [ एवं] इसप्रकार [ सम्यग्दृष्टि: ] सम्यग्दृष्टि [ आत्मानं ] आत्माको ( अपनेको) [ ज्ञायकस्वभावम् ] ज्ञायकस्वभाव [ जानाति] जानता है [च ] और [ तत्त्वं] तत्त्वको अर्थात् यथार्थ स्वरूपको [विजानन् ] जानता हुआ [ कर्मविपाकं] कर्मके विपाकरूप [ उदयं ] उदयको [ मुञ्चति] छोड़ता है।
टीका:-इसप्रकार सम्यग्दृष्टि सामान्यतया और विशेषतया परभावस्वरूप सर्व भावोंसे विवेक (भेदज्ञान, भिन्नता) करके, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जिसका स्वभाव है ऐसा जो आत्माका तत्त्व उसको (भलीभाँति) जानता है; और इसप्रकार तत्त्वको जानता हुआ , स्वभावके ग्रहण और परभावके त्यागसे उत्पन्न होने योग्य अपने वस्तुत्वको विस्तारित (–प्रसिद्ध) करता हुआ, कर्मोदय के विपाकसे उत्पन्न हुए समस्त भावोंको छोड़ता है। इसलिये यह ( सम्यग्दृष्टि) नियमसे ज्ञानवैराग्यसंपन्न होता है ( यह सिद्ध हुआ)।
भावार्थ:-जब अपनेको तो ज्ञायकभावरूप सुखमय जाने और कर्मोदय से उत्पन्न हुए भावोंको आकुलतारूप दुःखमय जाने तब ज्ञानरूप रहना और परभावोंसे विरागता-यह दोनों अवश्य ही होते हैं। यह बात प्रगट अनुभवगोचर है। यही ( ज्ञानवैराग्य ) ही सम्यग्दृष्टिका चिह्न है।
____“जो जीव परद्रव्यमें आसक्त-रागी है और सम्यग्दृष्टित्वका अभिमान करते है वे सम्यग्दृष्टि नहीं है, वे वृथा अभिमान करतें हैं” इस अर्थका कलशरूप काव्य अब कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ अयम् अहं स्वयम् सम्यग्दृष्टिः, मे जातु बन्धः न स्यात् ] “ यह मैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे कभी बंध नहीं होता ( क्योंकि शास्त्रोंमें सम्यग्दृष्टिको बंध नहीं कहा है) " [ इति ] ऐसा मानकर [ उत्तान-उत्पुलक-वदनाः ] जिनका मुख गर्वसे
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आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः।। १३७ ।।
३११
ऊँचा और पुलकित हो रहा है ऐसे [ रागिण: ] रागी जीव (-परद्रव्य के प्रति रागद्वेषमोहभाववाले जीव - ) [ अपि ] भले [ आचरन्तु ] महाव्रतादिकका आचरण करें तथा [ समितिपरतां आलम्बन्तां ] समितियोंकि उत्कृष्टताका आलंबन करें [ते पापा:] तथापि वे पापी ( मिथ्यादृष्टि ) ही है, [ यतः ] क्योंकि वे [आत्म-अनात्मअवगम-विरहात्] आत्मा और अनात्माके ज्ञानसे रहित होनेसे [ सम्यक्त्व - रिक्ताः सन्ति ] सम्यक्त्वसे रहित है।
भावार्थ:-परद्रव्यके प्रति राग होनेपर भी जो जीव यह मानता है कि 'मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे बंध नहीं होता' उसे सम्यक्त्व कैसा ? वह व्रत-समिति का पालन भले ही करे तथापि स्वपरका ज्ञान न होनेसे वह पापी ही है। जो यह मानकर कि 'मुझे बंध नहीं होता' स्वच्छंद प्रवृत्ति करता है वह भला सम्यग्दृष्टि कैसा ? क्योंकि जबतक यथाख्यात चारित्र न हो तबतक चारित्रमोहके रागसे बंध तो होता ही है और जब तक राग रहता है तबतक सम्यग्दृष्टि तो अपनी निंदा-गर्हा करता ही रहता है। ज्ञानके होनेमात्रसे बंधसे नहीं छूटा जा सकता, ज्ञान होनेके बाद उसीमें लीनतारूपशुद्धोपयोगरूप-चारित्रसे बंध कट जाते हैं। इसलिये राग होनेपर भी, 'बंध नहीं होता' यह मानकर स्वच्छंदतया प्रवृत्ति करनेवाला जीव मिथ्यादृष्टि ही है।
यहाँ कोई पूछे कि “ व्रत - समिति शुभ कार्य है, तब फिर उनका पालन करते हुए भी उस जीवको पापी क्यों कहा गया है ?” उसका समाधान यह है -- सिद्धांतमें मिथ्यात्वको ही पाप कहते हैं; जबतक मिथ्यात्व रहता है तबतक शुभ-अशुभ सर्व क्रियाओंको अध्यात्ममें परमार्थार्तः पाप ही कहा जाता है। और व्यवहारनयकी प्रधानतामें, व्यवहारी जीवोंको अशुभसे छुड़ाकर शुभमें लगानेकी शुभ क्रियाको कथंचित् पुण्य भी कहा जाता है। ऐसा कहनेसे स्याद्वाद मतमें कोई विरोध नहीं है। 1
फिर कोई पूछता है कि - " परद्रव्यमें जबतक राग रहे तबतक जीवको मिथ्यादृष्टि कहा है सो यह बात हमारी समझमें नहीं आई। अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादि के चारित्रमोहके उदयसे रागादिभाव तो होते हैं, तब फिर उनके सम्यक्त्व कैसे है ? " उसका समाधान यह है: - यहाँ मिथ्यात्व सहित अनंतानुबंधी राग प्रधानता से कहा है । जिसे ऐसा राग होता है अर्थात् जिसे परद्रव्यमें तथा परद्रव्यसे होनेवाले भावोंमें आत्मबुद्धिपूर्वक प्रीति - अप्रीति होती है, उसे स्वपरका ज्ञानश्रद्धान नहीं है-भेदज्ञान नहीं है ऐसा समझना चाहिये। जो जीव मुनिपद लेकर व्रत-समिति पालन करे तथापि जबतक पर जीवोंकी रक्षा, शरीर संबंधी यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करना इत्यादि परद्रव्यकी क्रियासे और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले शुभ भावोंसे अपनी मुक्ति मानता है और पर जीवोंका घात होना तथा अयत्नाचाररूपसे प्रवृत्ति करना इत्यादि
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समयसार
३१२
कथं रागी न भवति सम्यग्दृष्टिरिति चेत्
परमाणुमित्तयं पि हु रागादीणं तु विज्जदे जस्स। ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि।। २०१ ।।
परद्रव्यकी क्रियासे और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अशुभ भावोंसे अपना बंध होना मानता है तबतक यह जानना चाहिये कि उसे स्वपरका ज्ञान नहीं हुआ; क्योंकि बंध-मोक्ष अपने अशुद्ध तथा शुद्ध भावोंसे ही होता था, शुभाशुभ भाव तो बंधके ही कारण थे और परद्रव्य तो निमित्तमात्र ही था, उसमें उसने विपर्ययरूप मान लिया। इसप्रकार जबतक जीव परद्रव्यसे ही भलाबुरा मानकर रागद्वेष करता है तबतक वह सम्यग्दृष्टि नहीं है।
जबतक अपनेमें चारित्रमोहसंबंधी रागादिक रहता है तबतक सम्यग्दृष्टि जीव रागादिमें तथा रागादिकी प्रेरणासे जो परद्रव्यसंबंधी शुभाशुभ क्रिया में प्रवृत्ति करता है उन प्रवृत्तियों के सम्बंधमें यह मानता है कि यह कर्मका जोर है; उससे निवृत्त होनेमें ही मेरा भला है। वह उन्हें रोगवत् जानता है। पीड़ा सहन नहीं होती इसलिये रोग का इलाज करनेमें प्रवृत्त होता है तथापि उसके प्रति उसका राग नहीं कहा जा सकता; क्योंकि जिसे वह रोग मानता है उसके प्रति राग कैसा? वह उसे मिटाने का ही उपाय करता है और उसका मिटना भी अपने ही ज्ञानपरिणामरूप परिणमनसे मानता है। अतः सम्यग्दृष्टिके राग नहीं है। इसप्रकार यहाँ परमार्थ अध्यात्मदृष्टिसे व्याख्यान जानना चाहिये। यहाँ मिथ्यात्व सहित रागको ही राग कहा है, मिथ्यात्व रहित चारित्रमोहसंबंधी परिणामको राग नहीं कहा; इसलिये सम्यग्दृष्टिके ज्ञानवैराग्यशक्ति अवश्य ही होती है। सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व सहित राग नहीं होता और जिसके मिथ्यात्व सहित राग हो वह सम्यग्दृष्टि नहीं है। ऐसे (मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके भावोंके) अन्तरको सम्यग्दृष्टि ही जानता है। पहले तो मिथ्यादृष्टिका अध्यात्मशास्त्रमें प्रवेश ही नहीं है और यदि वह प्रवेश करता है तो विपरीत समझता है-व्यवहारको सर्वथा छोड़कर भ्रष्ट होता है अथवा निश्चयको भलीभाँति जाने बिना व्यवहारसे ही मोक्ष मानता है, परमार्थ तत्त्वमें मूढ़ रहता है। यदि कोई विरल जीव यथार्थ स्याद्वादन्यायसे सत्यार्थको समझ ले तो उसे अवश्य सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है-वह अवश्य सम्यग्दृष्टि हो जाता है। १३७।। अब पूछता है कि रागी (जीव) सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं होता ? उसका उत्तर कहते हैं:
अणुमात्र भी रागादिका, सद्भाव है जिस जीव को। वो सर्वआगमधर भले ही, जानता नहिं आत्मको ।। २०१।।
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अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो। कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो।। २०२ ।।
परमाणुमात्रमपि खलु रागादीनां तु विद्यते यस्य। नापि स जानात्यात्मानं तु सर्वागमधरोऽपि।। २०१ ।। आत्मानमजानन् अनात्मानं चापि सोऽजानन्। कथं भवति सम्यग्दृष्टिर्जीवाजीवावजानन्।। २०२ ।।
यस्य रागादीनामज्ञानमयानां भावानां लेशस्यापि सद्भावोऽस्ति स श्रुतकेवलिकल्पोऽपि ज्ञानमयस्य भावस्याभावादात्मानं न जानाति। यस्त्वात्मानं न जानाति सोऽनात्मानमपि न जानाति, स्वरूपपररूपसत्तासत्ताभ्यामेकस्य वस्तुनो निश्चीयमानत्वात्। ततो य आत्मानात्मानौ न जानाति स जीवाजीवौ न जानाति। यस्तु जीवाजीवौ न जानाति स सम्यग्दृष्टिरेव न भवति। ततो रागी ज्ञानाभावान्न भवति सम्यग्दृष्टिः।
नहिं जानता जहँ आत्मको, अनआत्म भी नहिं जानता। वो क्योंहि होय सुदृष्टि जो, जीव-अजीवको नहिं जानता ? ।।२०२।।
गाथार्थ:- [ खलु] वास्तवमें [यस्य] जिस जीवके [ रागादीनां तु परमाणुमात्रम् अपि] परमाणुमात्र-लेशमात्र-भी रागादिक [ विद्यते] वर्तता है [ सः] वह जीव [ सर्वागमधरः अपि] भले ही सर्वागमका धारी (समस्त आगमोंका पढ़ा हुआ) हो तथापि [ आत्मानं तु] आत्माको [न अपि जानाति] नहीं जानता; [च] और [ आत्मानम् ] आत्माको [अजानन् ] न जानता हुआ [ सः] वह [अनात्मानं अपि] अनात्माको ( परको) भी [ अजानन् ] नहीं जानता; [ जीवाजीवौ] इसप्रकार जो जीव और अजीवको [ अजानन् ] नहीं जानता वह [ सम्यग्दृष्टि: ] सम्यग्द,ष्टि [ कथं भवति] कैसे हो सकता है ?
टीका:-जिसके रागादि अज्ञानमय भावोंके लेशमात्रका भी सद्भाव है वह भले ही श्रुतकेवली जैसा हो तथापि वह ज्ञानमय भावोंके अभाव के कारण आत्माको नहीं जानता; और जो आत्माको नहीं जानता वह अनात्माको भी नहीं जानता क्योंकि स्वरूपसे सत्ता और पररूपसे असत्ता-इन दोनों के द्वारा एक वस्तुका निश्चय होता है; (जिसे अनात्माका-रागका निश्चय हुआ हो उसे अनात्मा और आत्मा-दोनोंका निश्चय होना चाहिये।) इसप्रकार जो आत्मा और अनात्माको नहीं जानता वह जीव और अजीवको नहीं जानता; तथा जो जीव-अजीवको नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि ही नहीं है। इसलिये रागी (जीव) ज्ञानके अभावके कारण सम्यग्दृष्टि नहीं होता।
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समयसार
३१४
(मन्दाक्रान्ता) आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमन्धाः। एतैतेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातु: शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति।।१३८ ।।
भावार्थ:-यहाँ 'राग' शब्दसे अज्ञानमय रागद्वेषमोह कहे गये हैं। और 'अज्ञानमय' कहनेसे मिथ्यात्व-अनंतानुबंधीसे हुए रागादिक समझना चाहिये, मिथ्यात्व के बिना चारित्रमोहके उदय का राग नहीं लेना चाहिये; क्योंकि अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादिको चारित्रमोहके उदय संबंधी जो राग है सो ज्ञानसहित है; सम्यग्दृष्टि उस राग को कर्मोदयसे उत्पन्न हुआ रोग जानता है और उसे मिटाना ही चाहता है; उसे उस रागके प्रति राग नहीं है। और सम्यग्दृष्टिके रागका लेशमात्र सद्भाव नहीं है ऐसा कहा है सो इसका कारण इस प्रकार है:-सम्यग्दृष्टिके अशुभ राग तो अत्यंत गौण है और जो शुभ राग होता है सो वह उसे किंचित्मात्र भी भला (अच्छा) नहीं समझता-उसके प्रति लेशमात्र राग नहीं करता, और निश्चयसे तो उसके रागका स्वामित्व ही नहीं है। इसलिये उसे लेशमात्र भी राग नहीं है।
यदि कोई जीव रागको भला जानकर उसके प्रति लेशमात्र राग करे तो- वह भले सर्व शास्त्रोंको पढ़ चुका हो, मुनि हो, व्यवहारचारित्रका पालन करता हो तथापि-यह समझना चाहिये कि उसने अपने आत्माके परमार्थस्वरूपको नहीं जाना, कर्मोदयजनित रागको ही अच्छा मान रक्खा है तथा उसीसे अपना मोक्ष माना है। इसप्रकार अपने और परके परमार्थ स्वरूपको न जाननेसे जीव-अजीवके परमार्थ स्वरूपको नहीं जानता। और जहाँ जीव तथा अजीव-इन दो पदार्थों को ही नहीं जानता वहाँ सम्यग्दृष्टि कैसा ? तात्पर्य यह है कि रागी जीव सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं, जिसे काव्यके द्वारा आचार्यदेव अनादिसे रागादिको अपना पद जानकर सोये हुए रागी प्राणियोंको उपदेश देते हैं:
श्लोकार्थ:- (श्री गुरु संसारी भव्य जीवोंको संबोधन करते हैं कि-) [अन्धाः] हे अंध प्राणियों! [ आसंसारात ] अनादि संसारसे लेकर [ प्रतिपदम् ] पर्याय पर्यायमें [ अमी रागिण: ] यह रागी जीव [ नित्यमत्ताः ] सदा मत्त वर्तते हुए [ यस्मिन् सुप्ताः ] जिस पदमें सो रहे हैं [तत् ] वह पद अर्थात् स्थान [ अपदम् अपदं] अपद है-अपद है, (तुम्हारा स्थान नहीं है,) [ विबुध्यध्वम् ] ऐसा तुम समझो। ( अपद शब्दको दो बार कहने से अति करुणाभाव सूचित होता है।) [ इतः एत एत ] इस ओर आओ-इस ओर आओ, ( यहाँ निवास करो,) [ पदम् इदम् इदं ] तुम्हारा पद यह है-यह है [ यत्र] जहाँ [ शुद्धः शुद्धः चैतन्यधातुः ] शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु
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निर्जरा अधिकार
३१५
किं नाम तत्पदमित्याह
आदम्हि दव्वभावे अपदे मोत्तूण गिण्ह तह णियदं। थिरमेगमिमं भावं उवलब्भंतं सहावेण।। २०३ ।।
आत्मनि द्रव्यभावानपदानि मुक्त्वा गृहाण तथा नियतम्। स्थिरमेकमिमं भावमुपलभ्यमानं स्वभावेन ।। २०३ ।।
[ स्व-रस-भरत:] निज रसकी अतिशयतके कारण [स्थायिभावत्वम् एति] स्थायीभावत्वको प्राप्त है अर्थात् स्थिर है-अविनाशी है। (यहाँ 'शुद्ध' शब्द दो बार कहा है जो कि द्रव्य और भाव दोनोंकि शुद्धता सुचित करता है। समस्त अन्यद्रव्योंसे भिन्न होनेके कारण आत्मा द्रव्यसे शुद्ध है और परके निमित्तसे होने वाले अपने भावोंसे रहित होनेसे भावसे शुद्ध है।)
भावार्थ:-जैसे कोई महान पुरुष मद्य पान करके मलिन स्थानपर सो रहा हो उसे कोई आकर जगाये-और संबोधित करे कि “यह तेरे सोने का स्थान नहीं है; तेरा स्थान तो शुद्ध सुवर्णमय धातुसे निर्मित, अन्य कुधातुओं के मिश्रणसे रहित शुद्ध है और अति सुदृढ़ है; इसलिये मैं तुझे जो बतलाता हूँ वहाँ आ और वहाँ शयनादि करके आनंदित हो"; इसीप्रकार ये प्राणी अनादि संसारसे लेकर रागादिको भला जानकर, उन्हीं को अपना स्वभाव मानकर, उसी में निश्चिंत होकर सो रहे हैं-स्थित हैं, उन्हें भी श्री गुरु करुणापूर्वक संबोधित करते हैं-जगाते हैं-सावधान करते हैं कि "हे अंध प्राणियों! तुम जिस पदमें सो रहे हो वह तुम्हारा पद नहीं है; तुम्हारा पद तो शुद्ध चैतन्यधातुमय है, बाह्यमें अन्य द्रव्योंकी मिलावटसे रहित तथा अंतरंगमें विकार रहित शुद्ध और स्थायी है; उस पदको प्राप्त होओ-शुद्ध चैतन्यरूप अपने भावका आश्रय करो"। १३८ ।
अब यहाँ पूछते हैं कि (हे गुरुदेव ! ) वह पद क्या है ? उसका उत्तर देते हैं:जीवमें अपद्भूत द्रव्यभावको, छोड़कर ग्रह तू यथार्थसे। थिर, नियत, एक हि भाव यह, उपलभ्य जो हि स्वभावसे ।। २०३।।
गाथार्थ:- [ आत्मनि ] आत्मामें [ अपदानि ] अपद्भूत [ द्रव्यभावान् ] द्रव्यभावोंको [ मुक्त्वा] छोड़कर [ नियतम्] निश्चित, [ स्थिरम् ] स्थिर, [ एकम् ] एक [ इमं] इस (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर ) [ भावम् ] भावको- [ स्वभावेन उपलभ्यमानं] जो कि (आत्माके) स्वभावरूपसे अनुभव किया जाता है उसे- [ तथा] (हे भव्य !) जैसा है वैसा [ गृहाण ] ग्रहण कर। ( यह तेरा पद है।)
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समयसार
३१६
इह खलु भगवत्यात्मनि बहूनां द्रव्यभावानां मध्ये ये किल अतत्स्वभावेनोपलभ्यमानाः, अनियतत्वावस्थाः, अनेके, क्षणिकाः, व्यभिचारिणो भावाः, ते सर्वेऽपि स्वयमस्थायित्वेन स्थातु: स्थानं भवितुमशक्यत्वात् अपदभूताः। यस्तु तत्स्वभावेनोपलभ्यमानः, नियतत्वावस्थः, एकः, नित्यः, अव्यभिचारी भावः, स एक एव स्वयं स्थायित्वेन स्थातु: स्थानं भवितुं शक्यत्वात् पदभूतः। ततः सर्वानेवास्थायिभावान् मुक्त्वा स्थायिभावभूतं परमार्थरसतया स्वदमानं ज्ञानमेकमेवेदं स्वाद्यम्।
(अनुष्टुभ् ) एकमेव हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं पदम्। अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः।। १३९ ।।
टीका:-वास्तवमें इस भगवान आत्मामें बहुतसे द्रव्य-भावोंके मध्यमेंसे (द्रव्यभावरूप बहुतसे भावोंके मध्यमेंसे), जो अतत्स्वभावसे अनुभवमें आते हुए ( आत्माके स्वभावरूप नहीं किन्तु परस्वभावरूप अनुभवमें आते हुए), अनियत अवस्थावाले, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भाव हैं, वे सब स्वयं अस्थायी होनेके कारण स्थाताका स्थान अर्थात् रहनेवाले का नहीं हो सकने योग्य होनेसे अप्दभूत हैं; और जो तत्स्वभावसे (आत्मस्वभावरूपसे) अनुभवमें आता हुआ, नियत अवस्थावाला, एक, नित्य. अव्यभिचारी भाव (चैतन्यमात्र ज्ञानभाव) है. वह एक ही स्वयं स्थाई होनेसे स्थाताका स्थान अर्थात् रहनेवाले का स्थान हो सकने योग्य होनेसे पद्भूत है। इसलिये समस्त अस्थायी भावोंको छोड़कर, जो स्थायीभावरूप है ऐसे परमार्थरसरूपसे स्वादमें आनेवाला यह ज्ञान एक ही आस्वादनके योग्य है।
भावार्थ:-पहले वर्णादिक गुणस्थान पर्यंत जो भाव कहे थे वे सब, आत्मामें अनियत, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भाव हैं। आत्मा स्थायी है ( -सदा विद्यमान है) और वे सब भाव अस्थायी हैं, इसलिये वे आत्माका स्थान नहीं हो सकते अर्थात् वे आत्माके पद नहीं हैं। जो यह स्वसंवेदनरूप ज्ञान है वह नियत है, एक है, नित्य है, अव्यभिचारी है। आत्मा स्थायी है और ज्ञान भी स्थायी भाव है इसलिये वह आत्माका पद हैं। वह एक ही ज्ञानियों के द्वारा आस्वाद लेने योग्य है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ तत् एकम् एव हि पदम् स्वाद्यं] वह एक ही पद आस्वादनके योग्य है [विपदाम् अपदं] जो कि विपत्तियोंका अपद है (अर्थात् जिसमें आपदायें स्थान नहीं पा सकती) और [ यत्पुरः] जिसके आगे [ अन्यानि पदानि ] अन्य (सब) पद [ अपदानि एव भासन्ते ] अपद ही भासित होते हैं।
भावार्थ:-एक ज्ञान ही आत्माका पद है। उसमें कोई भी आपदा प्रवेश नहीं कर सकती और उसके आगे अन्य सब पद अपदस्वरूप भासित होते हैं (क्योंकि वे आकुलतामय हैं-आपत्तिरूप हैं)। १३९ ।
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निर्जरा अधिकार
३१७
(शार्दूलविक्रीडित) एकज्ञायकभावनिर्भरमहास्वादं समासादयन् स्वादं द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन्। आत्मात्मानुभवानुभावविवशो भ्रश्यद्विशेषोदयं । सामान्यं कलयन् किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकताम्।।१४० ।।
तथाहि
आभिणिसुदोधिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं। सो एसो परमट्ठो जं लहिदुं णिव्वुदिं जादि।। २०४ ।।
अब यहाँ कहते हैं कि जब आत्मा ज्ञानका अनुभव करता है तब इसप्रकार करता है:
__ श्लोकार्थ:-[ एक-ज्ञायकभाव-निर्भर-महास्वादं समासादयन् ] एक ज्ञायकभावसे भरे हुए महास्वादको लेता हुआ, (इसप्रकार ज्ञानमें ही एकाग्र होनेपर दूसरा स्वाद नहीं आता इसलिये) [द्वन्द्वमयं स्वादं विधातुम् असहः ] द्वंद्वमय स्वादके लेनेमें असमर्थ (वर्णादिक, रागादिक तथा क्षायोपशमिक ज्ञानके भेदोंका स्वाद लेनेमें असमर्थ)। [आत्म-अनुभव-अनुभाव-विवश: स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् ] आत्मानुभवकेस्वादके- प्रभावके आधीन होनेसे निज वस्तुवृत्तिको (आत्माकी शुद्धपरिणतिको) जानता-आस्वाद लेता हुआ (आत्माके अद्वितीय स्वादके अनुभवनमेंसे बाहर न आता हुआ) [ एषः आत्मा] यह आत्मा [ विशेष-उदयं भ्रश्यत् ] ज्ञानके विशेषोंके उदयको गौण करता हुआ , [ सामान्यं कलयन् किल] सामान्यमात्र ज्ञानका अभ्यास करता हुआ, [ सकलं ज्ञानं ] सकल ज्ञानको [ एकताम् नयति] एकत्वमें लाता है-एकरूपमें प्राप्त करता है।
भावार्थ:-इस एक स्वरूपज्ञानके रसीले स्वादके आगे अन्य रस फीके हैं। और स्वरूपज्ञानका अनुभव करते हुए सर्व भेदभाव मिट जाते हैं। ज्ञानके विशेष ज्ञेयके निमित्तसे होते हैं। जब ज्ञानसामान्यका स्वाद लिया जाता है तब ज्ञानके समस्त भेद भी गौण हो जाते हैं, एक ज्ञान ही ज्ञेयरूप होता है। यहाँ प्रश्न होता है कि छद्मस्थको पूर्णरूप केवलज्ञानका स्वाद कैसे आवे ? इसका उत्तर पहले शुद्धनयका कथन करते हुए दिया जा चुका है कि शुद्धनय आत्माका शुद्ध पूर्ण स्वरूप बतलाता है इसलिये शुद्धनयके द्वारा पूर्णरूप केवलज्ञानका परोक्ष स्वाद आता है। १४०।
अब, कर्मके क्षयोपशमके निमित्तसे ज्ञानमें भेद होने पर भी उसके (ज्ञानके) स्वरूपका विचार किया जाये तो ज्ञान एक ही है और वह ज्ञान ही मोक्षका उपाय है। इस अर्थकी गाथा कहते हैं:
मति, श्रुत , अवधि, मनः, केवल सबहि एक हि पद जु है । वो ज्ञानपद परमार्थ है, जो पाय जीव मुक्ती लहे ।। २०४।।
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समयसार
३१८
आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलं च तद्भवत्येकमेक पदम्। स एष परमार्थो यं लब्ध्वा निर्वृतिं याति।। २०४ ।।
आत्मा किल परमार्थः, तत्तु ज्ञानम्; आत्मा च एक एव पदार्थः, ततौ ज्ञानमप्येकमेव पदं; यदेतत्तु ज्ञानं नामैकं पदं स एष परमार्थ: साक्षान्मोक्षोपायः। न चाभिनिबोधिकादयो भेदा इदमेकं पदमिह भिन्दन्ति, किन्तु तेऽपीदमेवैकं पदमभिनन्दन्ति। तथाहि-यथात्र सवितुर्घनपटला-वगुण्ठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकट्यमासादयत: प्रकाशनातिशयभेदा न तस्य प्रकाशस्वभावं भिन्दन्ति, तथा आत्मन: कर्मपटलोदयावगुण्ठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकट्यमासादयतो ज्ञानातिशयभेदा न तस्य ज्ञानस्वभावं भिन्द्युः, किन्तु प्रत्युत तमभिनन्देयुः। ततो निरस्त समस्तभेदमात्मस्वभावभूतं ज्ञानमेवैकमालम्ब्यम्। तदालम्बनादेव भवति पदप्राप्तिः, नश्यति भ्रान्तिः, भवत्यात्मलाभः, सिध्यत्यनात्मपरिहारः, न कर्म मूर्छति, न रागद्वेषमोहा उत्प्लवन्ते, न पुनः कर्म आस्रवति, न पुनः कर्म बध्यते, प्राग्बद्धं कर्म
गाथार्थ:- [ आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलं च] मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान- [ तत् ] यह [ एकम् एव ] एक ही [ पदम् भवति] पद है ( क्योंकि ज्ञानके समस्त भेद ज्ञान ही हैं); [ सः एषः परमार्थः] वह यह परमार्थ है (-शुद्धनयका विषयभूत ज्ञानसामान्य ही यह परमार्थ है-) [यं लब्ध्वा ] जिसे प्राप्त करके [ निर्वृतिं याति] आत्मा निर्वाणको प्राप्त होता है।
टीका:-आत्मा वास्तवमें परमार्थ ( परम पदार्थ) है और वह (आत्मा) ज्ञान है; और आत्मा एक ही पदार्थ है; इसलिये ज्ञान भी एक ही पद है। यह ज्ञान नामक एक पद परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्ष का उपाय है। यहाँ, मतिज्ञान आदि (ज्ञानके) भेद इस एक पदको नहीं भेदते किन्तु वे भी इसी एक पदका अभिनंदन करते हैं ( - समर्थन करते हैं)। इसी बात को दृष्टांतपूर्वक समझाते हैं:-जैसे इस जगतमें बादलोंके पटलसे ढका हुआ सूर्य जो कि बादलोंके विघटन ( बिखरने) अनुसार प्रगटताको प्राप्त होता है। उसके ( सूर्यके ) प्रकाशनकी (प्रकाश करने की) हीनाधिकतारूप भेद उसके (सामान्य) प्रकाशस्वभावको नहीं भेदते, इसीप्रकार कर्मपटलके उदयसे ढका हुआ आत्मा जो कि कर्मके विघटन (क्षयोपशम) के अनुसार प्रगटता को प्राप्त होता है, उसके ज्ञानके हीनाधिकतारूप भेद उसके (सामान्य) ज्ञानस्वभावको नहीं भेदते, प्रत्युत ( उलटे) अभिनंदन करते हैं। इसलिये जिसमें समस्त भेद दूर हुए हैं ऐसे आत्मस्वभावभूत एक ज्ञानका ही-अवलंबन करना चाहिये। उसके आलंबनसे ही (निज) पदकी प्राप्ति होती है, भ्रांतिका नाश होता है, आत्माका लाभ होता है, और अनात्माका परिहार सिद्ध होता है, ( ऐसा होनेसे ) कर्म बलवान नहीं होते, रागद्वेषमोह उत्पन्न नहीं होते, ( रागद्वेषमोह बिना) पुनः कर्मास्रव नहीं होता, (आस्रवके बिना) पुनः कर्म-बंध नहीं होता, पूर्वबद्ध कर्म भुक्त होकर
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निर्जरा अधिकार
उपभुक्तं निर्जीर्यते, कुत्स्रकर्माभावात् साक्षान्मोक्षो भवति।
(शार्दूलविक्रीडित) अच्छाच्छाः स्वयमुच्छलन्ति यदिमाः संवेदनव्यक्तयो निष्पीताखिलभावमण्डलरसप्राग्भारमत्ता इव। यस्माभिन्नरसः स एष भगवानेकोऽप्यनेकीभवन् वल्गत्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकरः।। १४१ ।।
किञ्च
निर्जरा को प्राप्तहो जाता है, समस्त कर्मोंका अभाव होनेसे साक्षात् मोक्ष होता है। ( ऐसे ज्ञानके आलंबनका ऐसा माहात्म्य है।)
भावार्थ:-कर्मके क्षयोपशमके अनुसार ज्ञानमें जो भेद हुए हैं वे कहीं ज्ञानसामान्यको अज्ञानरूप नहीं करते, प्रत्युत ज्ञानको प्रगट करते हैं; इसलिये भेदोंको गौण करके, एक ज्ञानसामान्यका आलंबन लेकर आत्माको ध्यावना; इसीसे सर्वसिद्धि होती है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [निष्पीत-अखिल-भाव-मण्डल-रस-प्राग्भार-मत्ताः इव] समस्त पदार्थों के समूहरूपी रसको पी लेने की अतिशयतासे मानों मत्त हो गई हो ऐसी [ यस्य इमाः अच्छ-अच्छाः संवेदनव्यक्तयः] जिनकी यह निर्मलसे भी निर्मल संवेदनव्यक्ति (-ज्ञानपर्याय , अनुभवमें आनेवाले ज्ञानके भेद ) [ यद् स्वयम् अच्छलन्ति ] आपनेआप उछलती है, [ सः एष: भगवान् अद्भुतनिधिः चैतन्यरत्नाकरः] वह यह भगवान अद्भुत निधिवाला चैतन्यरत्नाकर, [अभिन्नरस: ] ज्ञानपर्यायरूपी तरंगोके साथ जिसका रस अभिन्न है ऐसा, [ एक: अपि अनेकीभवन् ] एक होनेपर भी अनेक होता हुआ, [ उत्कलिकामि: ] ज्ञानपर्यायरूपी तरंगोंके द्वारा [वल्गति] दौलायमान होता हैउछलता है।
भावार्थ:-जैसे अनेक रत्नोंवाला समुद्र एक जलसे ही भरा हुआ है और उसमें छोटी बड़ी अनेक तरंगें उठती रहती हैं जो कि एक जलरूप ही हैं, इसीप्रकार अनेक गुणोंका भंडार यह ज्ञानसमुद्र आत्मा एक ज्ञानजलसे ही भरा हुआ है और कर्मोंके निमित्तसे ज्ञानके अनेक भेद-(व्यक्तिऐं) आपने आप प्रगट होते हैं उन्हें एक ज्ञानरूप ही जानना चाहिये, खंड खंडरूपसे अनुभव नहीं करना चाहिये। १४१।
अब इसी बातको विशेष कहते हैं:
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समयसार
३२०
(शार्दूलविक्रीडित) क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम्। साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं । ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि।। १४२ ।।
णाणगुणेण विहीणा एवं तु पदं बहू वि ण लहंते। तं गिण्ह णियदमेदं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं ।। २०५।।
ज्ञानगुणेन विहीना एतत्तु पदं बहवोऽपि न लभन्ते। तद् गृहाण नियतमेतद् यदीच्छसि कर्मपरिमोक्षम्।। २०५ ।।
श्लोकार्थ:- [ दुष्करतरैः ] कोई जीव तो दुष्करतर और [ मोक्ष-उन्मुखैः ] मोक्षसे पराङ्मुख [कर्मभिः ] कर्मों के द्वारा [ स्वयमेव ] स्वयमेव (जिनाज्ञाके बिना) [ क्लिश्यन्तां ] क्लेश पाते हैं तो पाओ [ च ] और [ परे ] अन्य कोई जीव [ महाव्रततप:-भारेण] ( मोक्षोन्मुख अर्थात् कथंचित् जिनाज्ञामें कथित) महाव्रत और तपके भारसे [ चिरम् ] बहुत समय तक [ भग्नाः ] भग्न होते हुए [ क्लिश्यन्तां ] क्लेश प्राप्त करें तो करो; (किन्तु) [ साक्षात् मोक्षः] जो साक्षात् मोक्षस्वरूप है, [निरामयपदं] निरामय (भावरोगादि समस्त क्लेशोंसे रहित) पद है और [ स्वयं संवेद्यमानं] स्वयं संवेद्यमान है [इदं ज्ञानं] ऐसे इस ज्ञानको [ज्ञानगुणं विना] ज्ञानगुणके बिना [कथम् अपि] किसी भी प्रकारसे [प्राप्तुं न हि क्षमन्ते ] वे प्राप्त नहीं कर सकते।
भावार्थ:-ज्ञान है वह साक्षात् मोक्ष है; वह ज्ञानसे ही प्राप्त होता है, अन्य किसी क्रियाकांडसे उसकी प्राप्ति नहीं होती। १४२।
अब यही उपदेश गाथा द्वारा कहते हैं:
रे ज्ञानगुणसे रहित बहुजन, पद नहीं यह पा सके । तू कर ग्रहण पद नियत ये, जो कर्ममोक्षेच्छा तुझे ।। २०५।।
गाथार्थ:- [ ज्ञानगुणेन विहीनाः ] ज्ञानगुणसे रहित [ बहवः अपि] बहुत से लोग ( अनेक प्रकारसे कर्म करते हुए भी) [ एतत् पदं तु] इस ज्ञानस्वरूप पदको [ न लभन्ते ] प्राप्त नहीं करते; [ तद् ] इसलिये हे भव्य ! [ यदि ] यदि तू [ कर्मपरिमोक्षम् ] कर्मसे सर्वथा मुक्ति [इच्छसि ] चाहता हो तो [ नियतम् एतत् ] नियत इस ज्ञानको [गृहाण ] ग्रहण कर।
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निर्जरा अधिकार
३२१
यतो हि सकलेनापि कर्मणा, कर्मणि ज्ञानस्याप्रकाशनात्, ज्ञानस्यानुपलम्भः। केवलेन ज्ञानेनैव, ज्ञान एव ज्ञानस्य प्रकाशनात्, ज्ञानस्योपलम्भः। ततो बहवोऽपि बहुनापि कर्मणा ज्ञानशून्या नेदमुपलभन्ते, इदमनुपलभमानाश्च कर्मभिर्न मुच्यन्ते। ततः कर्ममोक्षार्थिना केवलज्ञानावष्टम्भेन नियतमेवेदमेकं पदमुपलम्भनीयम्।
(द्रुतविलम्बित) पदमिदं ननु कर्मदुरासदं सहजबोधकलासुलभं किल। तत इदं निजबोधकलाबलात् कलयितुं यततां सततं जगत्।।१४३ ।।
टीका:-कर्ममें (कर्मकांडमें) ज्ञानका प्रकाशित होना नहीं होता इसलिये समस्त कर्मसे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती है; ज्ञानमें ही ज्ञानका प्रकाश होता है इसलिये केवल (एक) ज्ञानसे ही ज्ञानकी प्राप्ति होती है। इसलिये बहुत से ज्ञानशून्य जीव, बहुतसे कर्म करने पर भी इस ज्ञानपदको प्राप्त नहीं कर पाते ओर इस पद को प्राप्त न करते हुए वे कर्मोंसे मुक्त नहीं होते; इसलिये कर्मोंसे मुक्त होनेके इच्छुकको मात्र (एक) ज्ञानके आलंबनसे , यह नियत एक पद प्राप्त करना चाहिये।
भावार्थ:-ज्ञानसे ही मोक्ष होता है, कर्मसे नहीं; इसलिये मोक्षार्थीको ज्ञानका ही ध्यान करना ऐसा उपदेश है।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इदं पदम् ] यह ( ज्ञानस्वरूप ) पद [ ननु कर्मदुरासदं ] कर्मोंसे वास्तवमें 'दुरासद है और [ सहज-बोध-कला-सुलभ किल ] सहज ज्ञानकी कलाके द्वारा वास्तव में सुलभ है; [ ततः ] इसलये [ निज-बोध-कला-बलात् ] निजज्ञानकी कलाके बलसे [इदं कलयितुं] इस पदको अभ्यास करने के लिये ( अनुभव करने के लिये) [ जगत् सततं यततां] जगत सतत प्रयत्न करो।
भावार्थ:-समस्त कर्मोंको छुड़ाकर ज्ञानकलाके बल द्वारा ही ज्ञानका अभ्यास करनेका आचार्यदेवने उपदेश दिया है। ज्ञानकी 'कला' कहनेसे यह सूचित होता हैं कि:-जबतक सम्पूर्ण कला ( केवलज्ञान) प्रगट न हो तब तक ज्ञान हीनकलास्वरूप - मतिज्ञानादिरूप है; ज्ञानकी उस कलाके आलंबनसे ज्ञानका अभ्यास करनेसे केवलज्ञान अर्थात् पूर्ण कला प्रगट होती है। १४३।
१। दुरासद = दुष्प्राप्य; अप्राप्य; न जीता जा सके ऐसा।
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३२२
किञ्च
एदग्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि। एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं ।। २०६ ।। एतस्मिन् रतो नित्यं सन्तुष्टो भव नित्यमेतस्मिन्। एतेन भव तृप्तो भविष्यति तवोत्तमं सौख्यम्।। २०६ ।।
एतावानेव सत्य आत्मा यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्र एव नित्यमेव रतिमुपैहि। एतावत्येव सत्याशी: यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव सन्तोषमुपैहि। एतावदेव सत्यमनुभवनीयं यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव तृप्तिमुपैहि। अथैवं तव नित्यमेवात्मरतस्य, आत्मसन्तुष्टस्य, आत्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भविष्यति। तत्तु तत्क्षण एव त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि,*मा अन्यान् प्राक्षी:।
अब इस गाथामें इसी उपदेशको विशेष कहते हैं:
इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे ।
इससे हि बन तू तृप्त , उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे ।। २०६ ।।
गाथार्थ:- (हे भव्य प्राणी!) तू [ एतस्मिन् ] इसमें ( -ज्ञानमें ) [ नित्यं ] नित्य [ रतः ] रत अर्थात् प्रीतिवाला हो, [ एतस्मिन् ] इसमें [ नित्यं ] नित्य [ सन्तुष्ट: भव] संतुष्ट हो और [ एतेन] इससे [ तृप्तः भव] तृप्त हो; ( ऐसा करनेसे) [ तव ] तुझे [ उत्तमं सौख्यम् ] उत्तम सुख [ भविष्यति ] होगा।
टीका:- (हे भव्य ! ) इतना ही सत्य ( –परमार्थस्वरूप) आत्मा है जितना यह ज्ञान है-ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रमें ही सदा ही रति ( –प्रीति, रुचि) प्राप्त कर; इतना ही सत्य कल्याण है जितना यह ज्ञान है-ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रसे ही सदा ही संतोषको प्राप्त कर; इतना ही सत्य अनुभव करने योग्य है जितना यह ज्ञान है-ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रसे ही सदा ही तृप्ति प्राप्त कर। इसप्रकार सदा ही आत्मामें रत, आत्मामें संतुष्ट और आत्मासे तृप्त ऐसे तुझको वचनगोचर सुख प्राप्त होगा; और उस सुखको उसी क्षण तू ही स्वयमेव देखेगा, दूसरोंसे मत पूछ। ( वह अपनेको ही अनुभवगोचर है, दूसरोंसे क्यों पूछना पड़ेगा ?)
भावार्थ:-ज्ञानमात्र आत्मामें लीन होना, उसीसे संतुष्ट होना और उसीसे तृप्त होना परम ध्यान है। उससे वर्तमान आनंदका अनुभव होता है और थोड़े ही समयमें ज्ञानानंदस्वरूप केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है। ऐसा करने वाला पुरुष ही उस
* मा अन्यान् प्राक्षी: (दूसरोंको मत पूछ) का पाठान्तर-माऽतिप्राक्षी: (अति प्रश्न न कर)
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निर्जरा अधिकार
३२३
( उपजाति) अचिन्त्यशक्तिः स्वयमेव देवश्चिन्मात्रचिन्तामणिरेष यस्मात्। सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण।। १४४ ।।
कुतो ज्ञानी परं न परिगृह्णातीति चेत्
को णाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं। अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो।। २०७ ।।
सुखको जानता है, दूसरेका इसमें प्रवेश नहीं है।
अब, ज्ञानानुभवकी महिमाका और आगामी गाथाकी सूचनाका काव्य कहते
श्लोकार्थ:- [ यस्मात् ] क्योंकि [ एषः ] यह ( ज्ञानी) [ स्वयम् एव ] स्वयं ही [अचिन्त्यशक्तिः देवः ] अचिंत्य शक्तिवाला देव है और [ चिन्मात्र-चिन्तामणिः] चिन्मात्र चिंतामणि है इसलिये [ सर्व-अर्थ-सिद्ध-आत्मतया] जिसके सर्व अर्थ (प्रयोजन) सिद्ध हैं ऐसा स्वरूप होनेसे [ ज्ञानी ] ज्ञानी [अन्यस्य परिग्रहेण ] दूसरे परिग्रहसे [ किम् विधत्ते ] क्या करे ? ( कुछ भी करने का नहीं है।)
भावार्थ:-यह ज्ञानमूर्ति आत्मा स्वयं ही अनंत शक्तिका धारक देव है और स्वयं ही चैतन्यरूपी चिंतामणि होनेसे वांछित कार्यकी सिद्धि करनेवाला है; इसलिये ज्ञानीके सर्व प्रयोजन सिद्ध होनेसे उसे अन्य परिग्रहका सेवन करनेसे क्या साध्य है ? अर्थात् कुछ भी साध्य नहीं। ऐसा निश्चयनयका उपदेश है। १४४ ।
अब प्रश्न करता है कि ज्ञानी परको क्यों ग्रहण नहीं करता ? इसका उत्तर कहते हैं:
'परद्रव्य यह मुझ द्रव्य ' यों तो कौन ज्ञानीजन कहे । निज आत्मको निजका परिग्रह, जानता जो नियमसे ।। २०७।।
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समयसार
३२४
को नाम भणेद्बुधः परद्रव्यं ममेदं भवति द्रव्यम्। आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियतं विजानन्।। २०७ ।।
यतो हि ज्ञानी, यो हि यस्य स्वो भावः स तस्य स्वः स तस्य स्वामी इति खरतरतत्त्वदृष्ट्यवष्टम्भात्, आत्मानमात्मन: परिग्रहं तु नियमेन विजानाति, ततो न ममेदं स्वं, नाहमस्य स्वामी इति परद्रव्यं न परिगृह्णाति।
अतोऽहमपि न तत् परिगृह्णामि
मझं परिग्गहो जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज। णादेव अहं जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्झ।। २०८ ।।
गाथार्थ:- [आत्मानम् तु] अपने आत्माको ही [ नियतं] नियमसे [ आत्मनः परिग्रहं ] अपना परिग्रह [ विजानन् ] जानता हुआ [क: नाम बुधः ] कौनसा ज्ञानी [ भणेत् ] यह कहेगा कि [ इदं परद्रव्यं ] यह परद्रव्य [ मम द्रव्यम् ] मेरा द्रव्य [ भवति] है ?
टीका:-जो जिसका स्वभाव है वह उसका 'स्व' है और वह उसका (स्वभावका) स्वामी है-इसप्रकार सूक्ष्म तीक्ष्ण तत्त्वदृष्टिके आलंबनसे ज्ञानी (अपने) आत्माको ही नियमसे आत्माका परिग्रह जानता है, इसलिये “ यह मेरा 'स्व' नहीं है, मैं इसका स्वामी नहीं हूँ" ऐसा जानता हुआ परद्रव्यका परिग्रह नहीं करता (अर्थात् परद्रव्यको अपना परिग्रह नहीं करता)।
भावार्थ:-यह लोकरीति है कि समझदार सयाना पुरुष परकी वस्तुको अपनी नहीं जानता, उसे ग्रहण नहीं करता। इसीप्रकार परमार्थज्ञानी अपने स्वभावको ही अपना धन जानता है. परके भावको अपना नहीं जानता, उसे ग्रहण नहीं करता। इसप्रकार ज्ञानी परका ग्रहण-सेवन नहीं करता।
“इसलिये मैं भी परद्रव्यको ग्रहण नहीं करूँगा” इसप्रकार अब (मोक्षाभिलाषी जीव) कहता है:
परिग्रह कभी मेरा बने, तो मैं अजीव बनूं अरे । मैं नियमसे ज्ञाता हि , इससे नहिं परिग्रह मुझ बने ।। २०८ ।।
१। स्व = धन; मिल्कियत; अपनी स्वामित्व की चीज।
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मम परिग्रहो यदि ततोऽहमजीवतां तु गच्छेयम् । ज्ञातैवाहं यस्मात्तस्मान्न परिग्रहो मम ।। २०८ ।।
यदि परद्रव्यमजीवमहं परिगृह्णीयां तदावश्यमेवाजीवो ममासौ स्वः स्यात्, अहमप्यवश्यमेवाजीवस्यामुष्य स्वामी स्याम् । अजीवस्य तु यः स्वामी, स किलाजीव एव। एवमवशेनापि ममाजीवत्वमापद्येत । मम तु एको ज्ञायक एव भावः यः स्वः, अस्यैवाहं स्वामी; ततो मा भून्ममाजीवत्वं ज्ञातैवाहं भविष्यामि, न परद्रव्यं परिगृह्णामि ।
अयं च मे निश्चय:
"
छिज्जदु वा भिज्जदु वा णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं । जम्हा तम्हा गच्छदु तह वि हु ण परिग्गहो मज्झ ।। २०९ ।।
३२५
गाथार्थ:- [ यदि ] यदि [ परिग्रहः ] परद्रव्य - परिग्रह [ मम ] मेरा हो [ ततः ] तो [ अहम् ] मैं [ अजीवतां तु ] अजीवत्व को [ गच्छेयम् ] प्राप्त हो जाऊँ। [ यस्मात् ] क्योंकि [ अहं ] मैं तो [ ज्ञाता एव ] ज्ञाता ही हूँ [ तस्मात् ] इसलिये [ परिग्रहः ] (परद्रव्यरूप ) परिग्रह [ मम न ] मेरा नहीं है।
टीका:-यदि मैं अजीव परद्रव्यका परिग्रह करूँ तो अवश्यमेव वह अजीव मेरा 'स्व' हो, और मैं भी अवश्य ही उस अजीवका स्वामी होऊँ; और जो अजीवका स्वामी होगा वह वास्तवमें अजीव ही होगा। इसप्रकार अवशतः (लाचारीसे) मुझमें अजीवत्व आ पड़े। मेरा तो एक ज्ञायक भाव ही जो 'स्व' है, उसीका मैं स्वामी हूँ, इसलिये मुझको अजीवत्व न हो, मैं तो ज्ञाता ही रहूँगा, मैं परद्रव्यका परिग्रह नहीं करूँगा।
भावार्थ:-निश्चयनयसे यह सिद्धांत है कि जीवका भाव जीव ही है, उसके साथ जीवका स्व-स्वामी संबंध है, और अजीवका भाव अजीव ही है, उसके साथ अजीवका स्व-स्वामी संबंध है। यदि जीवके अजीवका परिग्रह माना जाये तो जीव अजीवत्व को प्राप्त हो जाये; इसलिये जीवके अजीवका परिग्रह मानना मिथ्याबुद्धि है । ज्ञानीके ऐसी मिथ्याबुद्धि नहीं होती । ज्ञानी तो यह मानता है कि परद्रव्य मेरा परिग्रह नहीं है, मैं तो ज्ञाता हूँ ।
6
' और मेरा तो यह ( निम्नोक्त ) निश्चय है' यह अब कहते हैं:
छेदाय या भेदाय, को ले जाय, नष्ट बनो भले ।
या अन्य को रीत जाय, पर परिग्रह न मेरा है अरे ।। २०९।।
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समयसार
३२६
छिद्यतां वा भिद्यतां वा नीयतां वाथवा यातु विप्रलयम्। यस्मात्तस्मात् गच्छतु तथापि खलु न परिग्रहो मम।। २०९ ।।
छिद्यतां वा, भिद्यतां वा, नीयतां वा, विप्रलयं यातु वा, यतस्ततो गच्छतु वा, तथापि न परद्रव्यं परिगृह्णामि; यतो न परद्रव्यं मम स्वं, नाहं परद्रव्यस्य स्वामी, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वं, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वामी, अहमेव मम स्वं, अहमेव मम स्वामी इति जानामि।
(वसन्ततिलका) इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव सामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतुम्। अज्ञानमुज्झितुमना अधुना विशेषाद् भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः।। १४५ ।।
गाथार्थ:- [ छिद्यतां वा] छिद जाये, [भिद्यतां वा] अथवा भिद जाये, [ नीयतां वा ] अथवा कोई ले जाये, [अथवा विप्रलयम् यातु] अथवा नष्ट हो जाये, [ यस्मात् तस्मात् गच्छतु] अथवा चाहे जिस प्रकारसे चला जाये, [ तथापि] फिर भी [ खलु ] वास्तवमें [परिग्रहः ] परिग्रह [ मम न ] मेरा नहीं है।
टीका:-परद्रव्य छिदे, अथवा भिदे, अथवा कोई उसे ले जाये, अथवा वह नष्ट हो जाये, या जिस प्रकार से जाये, तथापि मैं परद्रव्यको परिग्रहण नहीं करूँगा; क्योंकि 'परद्रव्य मेरा स्व नहीं है, -मैं परद्रव्यका स्वामी नहीं हूँ, परद्रव्य ही परद्रव्यका स्व है, -परद्रव्य ही परद्रव्यका स्वामी है, मैं ही अपना स्व हूँ, -मैं ही अपना स्वामी हूँ'-ऐसा मैं जानता हूँ।
भावार्थ:-ज्ञानीको परद्रव्यके बिगड़ने-सुधरनेका हर्षविषाद नहीं होता।
अब इस अर्थका कलशरूप और आगामी कथनका सूचनारूप काव्य कहते
*श्लोकार्थ:- [इत्थं] इसप्रकार [समस्तम् एव परिग्रहम् ] समस्त परिग्रहको [सामान्यतः] सामान्यतः [अपास्य ] छोड़कर [अधुना] अब [स्वपरयोः अविवेकहेतुम् अज्ञानम् उज्झितुमनाः अयं ] स्व-परके अविवेकके कारणरूप अज्ञानको छोड़नेका जिनका मन है ऐसा यह[ भूयः ] पुनः [ तम् एव ] उसीको ( –परिग्रहको ही)
* इस कलशका अर्थ इसप्रकार भी होता है:-[इत्थं] इसप्रकार [स्वपरयोः अविवेकहेतुम् समस्तम् एव परिग्रहम् ] स्व-परके अविवेकके कारणरूप समस्त परिग्रहको [ सामान्यतः ] सामान्यतः [अपास्य ] छोड़कर [अधुना] अब, [अज्ञानम् उज्झितुमनाः अयं] अज्ञानको छोड़नेका जिसका मन है ऐसा यह, [भूयः ] फिर भी [तम् एव] उसे ही [ विशेषात् ] विशेषतः [ परिहर्तुम् ] छोड़ने के लिये [ प्रवृत्तः] प्रवृत्त हुआ है।
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निर्जरा अधिकार
३२७
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे धम्म। अपरिग्गहो दुधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि।। २१० ।।
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छति धर्मम। अपरिग्रहस्तु धर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति।। २१० ।।
इच्छा परिग्रहः। तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति। इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति। ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावाद्धर्म नेच्छति। तेन ज्ञानिनो धर्मपरिग्रहो नास्ति। ज्ञानमयस्यैकस्य ज्ञायकभावस्य भावाद्धर्मस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात्।
[विशेषात् ] विशेषतः [ परिहर्तुम् ] छोड़नेको [ प्रवृत्तः ] प्रवृत्त हुआ है।
भावार्थ:-स्वपरको एकरूप जाननेका कारण अज्ञान है। उस अज्ञानको सम्पूर्णतया छोड़नेके इच्छुक जीवने पहले तो परिग्रहका सामान्यतः त्याग किया और अब ( अगामी गाथाओंमें) उस परिग्रहको विशेषतः ( भिन्न भिन्न नाम लेकर) छोड़ता है। १४५।
पहले यह कहते हैं कि ज्ञानीके धर्मका ( पुण्यका) परिग्रह नहीं है:
अनिच्छक कहा अपरिग्रही, नहिं पुण्य इच्छा ज्ञानी के । इससे न परिग्रही पुण्यका वो, पुण्यका ज्ञायक रहे ।। २१०।।
गाथार्थ:- [ अनिच्छ: ] अनिच्छकको [ अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [ भणितः ] कहा है [च ] और [ ज्ञानी ] ज्ञानी [धर्मम् ] धर्मको ( पुण्यको ) [ न इच्छति ] नहीं चाहता, [ तेन ] इसलिये [ सः] वह [धर्मस्य ] धर्मका [अपरिग्रह: तु] परिग्रही नहीं है, (किन्तु) [ ज्ञायक:] (धर्मका) ज्ञायक ही [ भवति ] है।
टीका:-इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है-जिसको इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होता है; इसलिये अज्ञानमय भाव-इच्छाके अभाव होने से ज्ञानी धर्मको नहीं चाहता है; इसलिये ज्ञानीके धर्मका परिग्रह नहीं है। ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी) धर्मका केवल ज्ञायक ही है।
अब, यह कहते हैं कि ज्ञानीके अधर्मका ( पापका) परिग्रह नहीं है:
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समयसार
३२८
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदि अधम्म। अपरिग्गहो अधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि।। २११ ।।
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छत्यधर्मम। अपरिग्रहोऽधर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति।। २११ ।।
इच्छा परिग्रहः। तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति। इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति। ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावादधर्म नेच्छति। तेन ज्ञानिनोऽधर्मपरिग्रहो नास्ति। ज्ञानमयस्यैकस्य ज्ञायकभावस्य भावादधर्मस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात्।
एवमेव चाधर्मपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि। अनया दिशाऽन्यान्यप्यूह्यानि।
अनिच्छक कहा अपरिग्रही, नहीं पाप इच्छा ज्ञानीके । इससे न परिग्रही पापका वो, पापका ज्ञायक रहे ।। २११ ।।
गाथार्थ:- [ अनिच्छ: ] अनिच्छकको [अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [ भणितः ] कहा है [च ] और [ ज्ञानी] ज्ञानी [अधर्मम् ] अधर्मको (पापको) [न इच्छति] नहीं चाहता, [ तेन] इसलिये [ सः] वह [अधर्मस्य] अधर्मका [ अपरिग्रहः ] परिग्रही नहीं है, [ ज्ञायक: ] ( अधर्मका) ज्ञायक ही [भवति ] है।
टीका:-इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है-जिसको इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होता है; इसलिये अज्ञानमय भाव-इच्छाके अभाव होने से ज्ञानी अधर्मको नहीं चाहता; इसलिये ज्ञानीके अधर्मका परिग्रह नहीं है। ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी) अधर्मका केवल ज्ञायक ही है।
इसप्रकार गाथामें 'अधर्म' शब्द बदलकर उसके स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, ध्राण, रसन और स्पर्शन-यह सोलह शब्द रखकर, सोलह गाथासूत्र व्याख्यानरूप करना और इस उपदेशसे दूसरे भी विचार करना चाहिये।
अब, यह कहते हैं कि ज्ञानीके आहारका भी परिग्रह नहीं है:
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निर्जरा अधिकार
३२९
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे असणं। अपरिग्गहो दु असणस्स जाणगो तेण सो होदि।। २१२ ।।
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छत्यशनम। अपरिग्रहस्त्वशनस्य ज्ञायकस्तेन स भवति।। २१२ ।।
इच्छा परिग्रहः। तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति। इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति। ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावादशनं नेच्छति। तेन ज्ञानिनोऽशन परिग्रहो नास्ति। ज्ञानमयस्यैकस्य ज्ञायकभावस्य भावादशनस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात्।
अनिच्छक कहा अपरिग्रही नहिं, नहीं अशन इच्छा ज्ञानीके । इससे न परिग्रही अशनका वो, अशनका ज्ञायक रहे ।। २१२।।
गाथार्थ:- [ अनिच्छः ] अनिच्छकको [ अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [ भणितः ] कहा है [ च ] और [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ अशनम् ] भोजनको [ न इच्छति ] नहीं चाहता, [ तेन] इसलिये [ सः ] वह [अशनस्य ] भोजनका [ अपरिग्रहः तु] परिग्रही नहीं है, (किन्तु) [ ज्ञायक: ] ( भोजनका ) ज्ञायक ही [ भवति ] है।
टीका:-इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है-जिसको इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होता है; इसलिये अज्ञानमय भाव-इच्छाके अभावके कारण ज्ञानी भोजनको नहीं चाहता; इसलिये ज्ञानीके भोजनका परिग्रह नहीं है। ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी) भोजनका केवल ज्ञायक ही है।
भावार्थ:-ज्ञानीके आहारकी भी इच्छा नहीं होती इसलिये ज्ञानीका आहार करना वह भी परिग्रह नहीं है। यहाँ प्रश्न होता है कि-आहार तो मुनि भी करते हैं, उनके इच्छा है या नहीं? इच्छाके बिना आहार कैसे किया जा सकता है ? समाधान:अशातावेदनीय कर्मके उदयसे जठराग्निरूप क्षुधा उत्पन्न होती है, वीर्यांतरायके उदयसे उसकी वेदना सहन नहीं की जा सकती और चारित्रमोहके उदयसे आहारग्रहणकी इच्छा उत्पन्न होती है। इस इच्छाको ज्ञानी कर्मोदयका कार्य जानते हैं, और उसे रोग समान जानकर मिटाना चाहते हैं। ज्ञानी के इच्छाके प्रति अनुरागरूप इच्छा नहीं होती अर्थात् उसके ऐसी इच्छा नहीं होती कि मेरी यह इच्छा सदा रहे। इसलिये उसके अज्ञानमय इच्छाका अभाव है। परजन्य इच्छाका स्वामित्व ज्ञानीके नहीं होता इसलिये ज्ञानी इच्छाका भी ज्ञायक ही है। इसप्रकार शुद्धनयकी प्रधानतासे कथन जानना चाहिये।
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समयसार
३३०
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे पाणं। अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणगो तेण सो होदि।। २१३ ।।
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छति पानम। अपरिग्रहस्तु पानस्य ज्ञायकस्तेन स भवति।। २१३ ।।
इच्छा परिग्रहः। तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति। इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति। ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावात् पानं नेच्छति। तेन ज्ञानिनः पानपरिग्रहो नास्ति। ज्ञानमयस्यैकस्य ज्ञायकभावस्य भावात् केवलं पानकस्य ज्ञायक एवायं स्यात्।
एमादिए दु विविहे सव्वे भावे य णेच्छदे णाणी। जाणगभावो णियदो णीरालंबो दु सव्वत्थ।। २१४ ।।
अब, यह कहते हैं कि ज्ञानीके पीनी इत्यादिके पीने का भी परिग्रह नहीं है:
अनिच्छक कहा अपरिग्रही नहिं, नहीं पान इच्छा ज्ञानीके ।
इससे न परिग्रही पानका वो, पानका ज्ञायक रहे ।। २१३।।
गाथार्थ:- [ अनिच्छ: ] अनिच्छकको [ अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [भणितः] कहा है [च ] और [ ज्ञानी] ज्ञानी [पानम् ] पानको (पेयको ) [ न इच्छति ] नहीं चाहता, [ तेन] इसलिये [ सः] वह [पानस्य ] पानका [अपरिग्रह: तु] परिग्रही नहीं, किन्तु [ ज्ञायकः ] (पानका) ज्ञायक ही [ भवति ] है।
टीका:-इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है जिसको इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होता है; इसलिये अज्ञानमय भाव जो इच्छा उसके अभावसे ज्ञानी पान को पानी इत्यादि पेय को) नहीं चाहता; इसलिये ज्ञानीके पानका परिग्रह नहीं है। ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी) पानका केवल ज्ञायक ही
भावार्थ:-आहारकी गाथाके भावार्थकी भाँति यहाँ भी समझना चाहिये।
ऐसे ही अन्य भी अनेक प्रकारके परजन्य भावोंको ज्ञानी नहीं चाहता, यह कहते हैं:
ये आदि विधविध भाव बहु ज्ञानी न इच्छे सर्वको । सर्वत्र आलंबन रहित बस, नियत ज्ञायकभाव वो ।। २१४ ।।
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निर्जरा अधिकार
३३१
एवमादिकांस्तु विविधान् सर्वान भावांश्च नेच्छति ज्ञानी।
ज्ञायकभावो नियतो निरालम्बस्तु सर्वत्र।। २१४ ।। एवमादयोऽन्येऽपि बहप्रकाराः परद्रव्यस्य ये स्वभावास्तान सर्वानेव नेच्छति ज्ञानी, तेन ज्ञानिनः सर्वेषामपि परद्रव्यभावानां परिग्रहो नास्ति। इति सिद्धं ज्ञानिनोऽत्यन्तनिष्परिग्रहत्वम्।अथैवमयमशेषभावान्तरपरिग्रहशून्यत्वादुद्वान्तसमस्ताज्ञ नि: सर्वत्राप्यत्यन्तनिरालम्बो भूत्वा प्रतिनियतटङ्कोत्कीर्णंकज्ञायकभावः सन् साक्षाद्विज्ञानघनमात्मानमनुभवति।
( स्वागता) पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकात् ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः। तद्भवत्वथं च रागवियोगात् नूनमेति न परिग्रहभावम्।। १४६ ।।
गाथार्थ:- [ एवमादिकान् तु] इत्यादिक [ विविधान् ] अनेक प्रकारके [ सर्वान् भावान् च ] सर्व भावोंको [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ न इच्छति ] नहीं चाहता; [ सर्वत्र निरालम्ब: तु] सर्वत्र ( सभीमें) निरालंब वह [ नियतः ज्ञायकभावः ] निश्चित ज्ञायकभाव ही है।
टीका:-इत्यादिक अन्य भी अनेक प्रकारके जो परद्रव्यके स्वभाव हैं उन सभी को ज्ञानी नहीं चाहता इसलिये ज्ञानीके समस्त परद्रव्यके भावोंका परिग्रह नहीं है। इसप्रकार ज्ञानीके अत्यंत निष्परिग्रहत्व सिद्ध हुआ।
अब इसप्रकार, समस्त अन्य भावोंके परिग्रहसे शून्यत्वके कारण जिसने समस्त अज्ञान का वमन कर डाला है ऐसा यह (ज्ञानी). सर्वत्र अत्यंत निरालंब होकर. नियत टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव रहता हुआ, साक्षात् विज्ञानघन आत्माका अनुभव करता है।
भावार्थ:-पुण्य, पाप, अशन, पान इत्यादि समस्त अन्यभावोंका ज्ञानीको परिग्रह नहीं है क्योंकि समस्त परभावोंको हेय जाने तब उसकी प्राप्तिकी इच्छा नहीं
होती।
अब आगामी गाथाका सूचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ पूर्वबद्ध-निज-कर्म-विपाकात् ] पूर्वबद्ध अपने कर्मके विपाकके कारण [ ज्ञानिनः यदि उपभोगः भवति तत् भवतु] ज्ञानीके यदि उपभोग हो तो हो,
* पहले, मोक्षाभिलाषी सर्व परिग्रहको छोड़नेके लिये प्रवृत्त हुआ था, उसने इस गाथा तकमें समस्त परिग्रहभावको छोड़ दिया, और इसप्रकार समस्त अज्ञानको दूर कर दिया तथा ज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव किया।
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समयसार
३३२
उप्पण्णोदयभोगो वियोगबुद्धीए तस्त सो णिच्चं। कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी।। २१५ ।।
उत्पन्नोदयभोगो वियोगबुद्ध्या तस्य स नित्यम्। कांक्षामनागतस्य च उदयस्य न करोति ज्ञानी।। २१५ ।।
कर्मोदयोपभोगस्तावत् अतीतः प्रत्युत्पन्नोऽनागतो वा स्यात्। तत्रातीतस्तावत् अतीतत्वादेव स न परिग्रहभावं बिभर्ति। अनागतस्तु आकांक्ष्यमाण एव परिग्रहभावं बिभृयात्। प्रत्युत्पन्नस्तु स किल रागबुद्ध्या प्रवर्तमान एव तथा स्यात्। न च प्रत्युत्पन्न: कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनो रागबुद्ध्या प्रवर्तमानो दृष्टः, ज्ञानिनोऽज्ञानमयभावस्य रागबुद्धेरभावात्।
[ अथ च] परंतु [ रागवियोगात् ] रागके वियोग (-अभावके) के कारण [ नूनम] वास्तवमें [ परिग्रहभावम् न एति] वह उपभोग परिग्रहभावको प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ:-पूर्वबद्ध कर्मके उदय आनेपर उपभोगसामग्री प्राप्त होती है यदि उसे अज्ञानमय रागभावसे भोगा जाये तो वह उपभोग परिग्रहत्वको प्राप्त हो। परंतु ज्ञानीके अज्ञानमय रागभाव नहीं होता। वह जानता है कि जो पहले बाँधा था वह उदयमें आगया और छूट गया है; अब मैं उसे भविष्यमें नहीं चाहता। इसप्रकार ज्ञानी के रागरूप इच्छा नहीं है इसलिये उसका उपभोग परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता।
अब, यह कहते हैं कि ज्ञानीके त्रिकाल संबंधी परिग्रह नहीं है:
सांप्रत उदयके भोगमें नित्य वियोगबुद्धि ज्ञानीके । अरु भावी कर्मविपाककी , कांक्षा नहिं ज्ञानी करे ।। २१५ ।।
गाथार्थ:- [ उत्पन्नोदयभोगः] जो उत्पन्न ( वर्तमान कालके) उदयका भोग है [ सः] वह, [ तस्य ] ज्ञानीके [ नित्यम् ] सदा [वियोगबुद्ध्या ] वियोगबुद्धिसे होता है [च ] और [अनागतस्य उदयस्य ] आगामी उदयकी [ ज्ञानी] ज्ञानी [ कांक्षाम् ] वांछा [ न करोति ] नहीं करता।
टीका:-कर्मके उदयका उपभोग तीन प्रकारका होता है-अतीत, वर्तमान और भविष्य कालका। इनमेंसे पहला, जो अतीत उपभोग है वह अतीतता ( व्यतीत हो चुका होने) के कारण ही परिग्रह भावको धारण नहीं करता। भविष्यका उपभोग यदि वांछामें आता हो तो ही वह परिग्रहभावको धारण करता है; और जो वर्तमान उपभोग है वह यदि रागबुद्धिसे हो रहा हो तो ही परिग्रहभावको धारण करता है। वर्तमान कर्मोदय उपभोग ज्ञानीके रागबुद्धिसे प्रवर्तमान दिखाई नहीं देता क्योंकि ज्ञानीके
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३३३
वियोगबुद्धयैव केवलं प्रवर्तमानस्तु स किल न परिग्रहः स्यात्। ततः प्रत्युत्पन्नः कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनः परिग्रहो न भवेत् । अनागतस्तु स किल ज्ञानिनो नाकांक्षित एव, ज्ञानिनोऽज्ञानमयभावस्याकांक्षाया अभावात् । ततोऽनागतोऽपि कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनः परिग्रहो न भवेत् ।
कुतोऽनागतमुदयं ज्ञानी नाकांक्षतीति चेत्
जो वेददि वेदिज्जदि समए समए विणस्सदे उभयं ।
तं जागो दु णाणी उभयं पि ण कंखदि कयावि ।। २९६ ।। यो वेदयते वेद्यते समये समये विनश्यत्युभयम् । तद्ज्ञायकस्तु ज्ञानी उभयमपि न कांक्षति कदापि ।। २१६ ।।
अज्ञानमयभाव जो रागबुद्धि उसका अभाव है; और केवल वियोगबुद्धि ( हेयबुद्धि) से ही प्रवर्तमान वह वास्तवमें परिग्रह नहीं है । इसलिये वर्तमान कर्मोदय-उपभोग ज्ञानीके परिग्रह नहीं है (- परिग्रहरूप नहीं है ) ।
अनागत उपभोग तो वास्तवमें ज्ञानीके वांछित ही नहीं है ( अर्थात् ज्ञानीको उसकी इच्छा ही नहीं होती ) क्योंकि ज्ञानीके अज्ञानमय भाव - वांछाका अभाव है। इसलिये अनागत कर्मोदय - उपभोग ज्ञानीके परिग्रह नहीं है ( - परिग्रहरूप नहीं है ) । भावार्थ:--अतीत कर्मोदय - उपभोग तो व्यतीत ही हो चुका है। अनागत उपभोगकी वांछा नहीं है; क्योंकि ज्ञानी जिस कर्मको अहितरूप जानता है उसके आगामी उदयके भोगकी वांछा क्यों करेगा? वर्तमान उपभोग के प्रति राग नहीं है; क्योंकि वह जिसे हेय जानता है उसके प्रति राग कैसे हो सकता है ? इसप्रकार ज्ञानीके जो तीन काल संबंधी कर्मोदयका उपभोग है वह परिग्रह नहीं है। ज्ञानी वर्तमानमें जो उपभोगके साधन एकत्रित करता है वह तो जो पीड़ा नहीं सही जा सकती उसका उपचार करता है । यह, अशक्तिका दोष है।
अब प्रश्न होता है कि ज्ञानी अनागत कर्मोदय - उपभोगकी वांछा क्यों नहीं करता? उसका उत्तर यह है :
रे! वेद्य वेदक भाव दोनों, समय समय विनष्ट है ।
ज्ञानी रहे ज्ञायक कदापि न उभयकी कांक्षा करे ।। २९६ ।।
गाथार्थ:- [ यः वेदयते ] जो भाव वेदन करता है ( अर्थात् वेदकभाव ) और [ वेद्यते ] जो भाव वेदान किया जाता है ( अर्थात् वेद्यभाव ) [ उभयम् ] वे दोनों भाव [समये समये] समय समय पर [ विनश्यति ] नष्ट हो जाते हैं- [ तद्ज्ञायकः तु ] ऐसा जानने वाला [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ उभयम् अपि ] उन दोनों भावोंकी [ कदापि ] कभी भी [ न कांक्षति ] वांछा नहीं करता ।
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समयसार
३३४
ज्ञानी हि तावद् ध्रुवत्वात् स्वभावभावस्य टङ्कोत्कीर्णंकज्ञायकभावो नित्यो भवति, यौ तु वेद्यवेदकभावौ तौ तूत्पन्नप्रध्वंसित्वाद्विभावभावानां क्षणिकौ भवतः। तत्र यो भाव: कांक्षमाणं वेद्यभावं वेदयते स यावद्भवति तावत्कांक्षमाणो वेद्यो भावो विनश्यति; तस्मिन् विनष्टे वेदको भावः किं वेदयते? यदि कांक्षमाणवेद्यभावपृष्ठभाविनमन्यं भावं वेदयते, तदा तद्भवनात्पूर्व स विनश्यति; कस्तं वेदयते ? यदि वेदकभावपृष्ठभावी भावोऽन्यस्तं वेदयते, तदा तद्भवनात्पूर्व स विनश्यति; किं स वेदयते ? इति कांक्षमाणभाववेदनानवस्था। तां च विजानन् ज्ञानी न किञ्चिदेव कांक्षति।
टीका:-ज्ञानी तो, स्वभावभावका ध्रुवत्व होनेसे, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप नित्य है; और जो वेध-वेदक (दो) भाव हैं वे, विभावभावोंका उत्पन्न-विनाशत्व होनेसे, क्षणिक हैं। वहाँ, जो भाव कांक्षमाण ( अर्थात् वांछा करने वाला) ऐसे वेद्यभावका वेदन करता है अर्थात् वेद्यभावका अनुभव करनेवाला है वह ( वेदकभाव) जबतक उत्पन्न होता है तबतक कांक्षमाण (अर्थात् वांछा करनेवाला) वेद्यभाव विनष्ट हो जाता है; उसके विनष्ट हो जाने पर, वेदकभाव किसका वेदन करेगा? यदि यह कहा जाये कि कांक्षमाण वेद्यभावके बाद उत्पन्न होनेवाले अन्य वेद्यभावका वेदन करता है, तो ( वहाँ ऐसा है कि) उस अन्य वेद्यभावके उत्पन्न होनेसे पूर्व ही वह वेदकभाव नष्ट हो जाता है; तब फिर उस दूसरे वेद्यभावका कौन वेदन करेगा? यदि यह कहा जाये कि वेदकभावके बाद उत्पन्न होनेवाला दूसरा वेदकभाव उसका वेदन करता है, तो ( वहाँ ऐसा है कि) उस दूसरे वेदकभावके उत्पन्न होनेसे पूर्व ही वह वेद्यभाव विनष्ट हो जाता है; तब फिर वह दूसरा वेदकभाव किसका वेदन करेगा ? इसप्रकार कांक्षमाण भावके वेदनकी अनवस्था है, उस अनवस्थाको जानता हुआ ज्ञानी कुछ भी नहीं चाहता।
भावार्थ:-वेदकभाव और वेद्यभावमें काल भेद है। जब वेदकभाव होता है तब वेद्यभाव नहीं होता और जब वेद्यभाव होता है तब वेदकभाव नहीं होता। जब वेदकभाव आता है तब वेद्यभाव विनष्ट हो चुकता है; तब फिर वेदकभाव किसका वेदन करेगा? और जब वेद्यभाव आता है तब वेदकभाव विनष्ट हो चकता है; तब फिर वेदकभाव के बिना वेद्यका कौन वेदन करेगा? ऐसी अव्यवस्थाको जानकर ज्ञानी स्वयं ज्ञाता ही रहता है, वांछा नहीं करता। यहाँ प्रश्न होता है कि-आत्मा तो नित्य है इसलिये वह दोनों भावोंका वेदन कर सकता है; तब फिर ज्ञानी वांछा क्यों न करे ? समाधान:-वेद्य-वेदक भाव विभावभाव है, स्वभावभाव नहीं, इसलिये वे विनाशीक है; अतः वांछा करनेवाला वेद्यभाव जबतक आता है तबतक वेदकभाव( भोगनेवाला भाव) नष्ट हो जाता है,
* वेद्य = वेदनमें आने योग्य, वेदक = वेदनेवाला, अनुभव करनेवाला।
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निर्जरा अधिकार
३३५
(स्वागता) वेद्यवेदकविभावचलत्वाद् वेद्यते न खलु कांक्षितमेव। तेन कांक्षति न किञ्चन विद्वान् सर्वतोऽप्यतिविरक्तिमुपैति।।१४७ ।।
तथाहि
बंधुवभोगणिमित्ते अज्झवसाणोदएसु णाणिस्स। संसारदेहविसएसु णेव उप्पज्जदे रागो।। २१७ ।।
बन्धोपभोगनिमित्तेषु अध्यवसानादयेषु ज्ञानिनः। संसारदेहविषयेषु नैवोत्पद्यते रागः।। २१७ ।।
और दूसरा वेदकभाव आये तबतक वेद्यभाव नष्ट हो जाता है; इसप्रकार वांछित भोग तो नहीं होता। इसलिये ज्ञानी निष्फल वांछा क्यों करे ? जहाँ मनोवांछितका वेदन नहीं होता वहाँ वांछा करना अज्ञान है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :--- __ श्लोकार्थ:- वेद्य-वेदक-विभाव-चलत्वात् ] वेद्य-वेदकरूप विभावभावोंकी चलता ( अस्थिरता) होनेसे [ खलु ] वास्तवमें [ कांक्षितम् एव वेद्यते न] वांछितका वेदन नहीं होता; [ तेन] इसलिये [ विद्वान् किञ्चन कांक्षति न] ज्ञानी कुछ भी वांछा नहीं करता; [ सर्वतः अपि अतिविरक्तिम् उपैति] सबके प्रति अति विरक्तताको ( वैराग्यभावको) प्राप्त होता है।
भावार्थ:-अनुभवगोचर वेद्य-वेदक विभावोंमें कालभेद है, उनका मिलाप नहीं होता ( क्योंकि वे कर्मके निमित्तसे होते हैं इसलिये अस्थिर हैं); इसलिये ज्ञानी आगामी काल संबंधी वांछा क्यों करे ? १४७। इसप्रकार ज्ञानीको सर्व उपभोगोंके प्रति वैराग्य है, यह कहते हैं:
संसारतनसंबंधी, अरु बंधोपभोगनिमित्त जो।
उन सर्व अध्यवसानउदय जु, राग होय न ज्ञानीको ।। २१७।। गाथार्थ:- [बन्धोपभोगनिमित्तेषु] बंध और उपभोगके निमित्तभूत [ संसारदेहविषयेषु ] संसारसंबंधी और देहसंबंधी [अध्यवसानोदयेषु ] अध्यवसानके उदयोंमें [ ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [ रागः ] राग [ न एव उत्पद्यते] उत्पन्न नहीं होता।
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समयसार
३३६
इह खल्वध्यवसानोदयाः कतरेऽपि संसारविषयाः, कतरेऽपि शरीरविषयाः। तत्र यतरे संसारविषयाः ततरे बन्धनिमित्ताः, यतरे शरीरविषयास्ततरे तूपभोगनिमित्ताः। यतरे बन्धनिमित्तास्ततरे रागद्वेषमोहाद्याः, यतरे तूपभोगनिमित्तास्ततरे सुखदुःखाद्याः। अथामीषु सर्वेष्वपि ज्ञानिनो नास्ति रागः, नानाद्रव्यस्वभावत्वेनटकोत्कीर्णैकज्ञायकभावस्वभावस्य तस्य तत्प्रतिषेधात्।
(स्वागता) ज्ञानिनो न हि परिग्रहभावं कर्म रागरसरिक्ततयैति। रङ्गयुक्तिरकषायितवस्त्रेस्वीकृतैव हि बहिर्लुठतीह।। १४८ ।।
टीका:-इस लोकमें जो अध्यवसानके उदय हैं वे कितने ही तो संसार संबंधी हैं और कितने ही शरीर संबंधी हैं। उनमेंसे, जितने संसारसंबंधी हैं, उतने बंधके निमित्त हैं और जितने शरीरसंबंधी हैं उतने उपभोगके निमित्त हैं। जितने बंधके निमित्त हैं उतने तो रागद्वेषमोहादिक हैं और जितने उपभोगके निमित्त हैं उतने सुखदुःखादिक हैं। इन सभी में ज्ञानीके राग नहीं है; क्योंकि वे सभी नाना द्रव्योंके स्वभाव हैं इसलिये, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव स्वभाववाले ज्ञानीके उनका निषेध है।
भावार्थ:-जो अध्यवसानके उदय संसार संबंधी हैं और बंधनके निमित्त हैं वे तो राग, द्वेष, मोह इत्यादि हैं तथा जो अध्यवसानके उदय देह संबंधी हैं और उपभोगके निमित्त हैं वे सुख, दुःख इत्यादि हैं। वे सभी ( अध्यवसानके उदय), नाना द्रव्योंके ( अर्थात् पुद्गलद्रव्य और जीवद्रव्य जो कि संयोगरूप हैं, उनके ) स्वभाव हैं; ज्ञानीका तो एक ज्ञायकस्वभाव है। इसलिये ज्ञानीके उनका निषेध है; अतः ज्ञानीको उनके प्रति राग या प्रीति नहीं है। परद्रव्य, परभाव संसारमें भ्रमणके कारण हैं; यदि उनके प्रति प्रीति करे तो ज्ञानी कैसा ?
__ अब इस अर्थका कलशरूप और आगामी कथनका सूचनारूप श्लोक कहते
श्लोकार्थ:- [इह अकषायितवस्त्रे ] जैसे लोध ओर फिटकरी इत्यादिसे जो कसायला नहीं किया गया हो ऐसे वस्त्रमें [ रंगयुक्तिः] रंगका संयोग, [ अस्वीकृता] वस्त्रके द्वारा अंगीकार न किया जानेसे , [ बहिः एव हि लुठति ] ऊपर ही लौटता है( रह जाता है) वस्त्रके भीतर प्रवेश नहीं करता, [ज्ञानिनः रागरसरिक्ततया कर्म परिग्रहभावं न हि एति] इसीप्रकार ज्ञानी रागरूपी रससे रहित है इसलिये उसे कर्म परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ:-जैसे लोध और फिटकरी इत्यादिके लगाये बिना वस्त्र में रंग नहीं चढ़ता उसीप्रकार रागभावके बिना ज्ञानीके कर्मोदयका भोग परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता। १४८।
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निर्जरा अधिकार
३३७
(स्वागता) ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यतः स्यात् सर्वरागरसवर्जनशीलः। लिप्यते सकलकर्मभिरेष: कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न।। १४९ ।।
णाणी रागप्पजहो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। णो लिप्पदि रजएण दु कद्दममज्झे जहा कणयं ।। २१८ ।। अण्णाणी पुण रत्तो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोहं ।। २१९ ।।
ज्ञानी रागप्रहायक: सर्वद्रव्येषु कर्ममध्यगतः। नो लिप्यते रजसा तु कर्दममध्ये यथा कनकम्।। २१८ ।। अज्ञानी पुना रक्तः सर्वद्रव्येषु कर्ममध्यगतः।
लिप्यते कर्मरजसा तु कर्दममध्ये यथा लोहम्।। २१९ ।। अब पुनः कहते हैं कि:
श्लोकार्थ:- [ यतः ] क्योंकि [ ज्ञानवान् ] ज्ञानी [ स्वरसतः अपि ] निजरससे ही [ सर्वरागरसवर्जनशीलः ] सर्व रागरसके त्यागरूप स्वभाववाला [ स्यात् ] है [ ततः ] इसलिये [एषः] वह [कर्ममध्यपतितः अपि] कर्मों के बीच पड़ा हुआ भी [ सकलकर्मभिः ] सर्व कर्मोसे [ न लिप्यते ] लिप्त नहीं होता। १४९।
अब इसी अर्थका विवेचन गाथाओं द्वारा करते हैं:
हो द्रव्य सबसे रागवर्जक , ज्ञानि कर्मों मध्यमें । पर कर्मरजसे लिप्त नहिं, ज्यों कनक कर्दममध्यमें ।। २१८ ।। परद्रव्य सबसे रागशील, अज्ञानि कर्मों मध्यमें ।
वह कर्मरजसे लिप्त हो, ज्यों लोह कर्दममध्यमें ।। २१९ ।।
गाथार्थ:- [ज्ञानी] ज्ञानी [सर्वद्रव्येषु ] जो कि सर्व द्रव्योंके प्रति [ रागप्रहायकः ] रागको छोड़ने वाला है वह [कर्ममध्यगतः ] कर्मके मध्यमें रहा हुआ हो [ तु] तो भी [ रजसा ] कर्मरूपी रजसे [ नो लिप्यते ] लिप्त नहीं होता- [ यथा] जैसे [ कनकम् ] सोना [ कर्दममध्ये ] कीचड़के बीच पड़ा हुआ हो तो भी लिप्त नहीं होता। [ पुनः ] और [ अज्ञानी ] अज्ञानी [ सर्वद्रव्येषु ] जो कि सर्व द्रव्योंके प्रति [ रक्तः] रागी है वह [कर्ममध्यगतः ] कर्मोंके मध्य रहा हुआ [ कर्मरजसा ] कर्मरजसे
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समयसार
३३८
यथा खलु कनकं कर्दममध्यगतमपि कर्दमेन न लिप्यते, तदलेपस्वभावत्वात; तथा किल ज्ञानी कर्ममध्यगतोऽपि कर्मणा न लिप्यते, सर्वपरद्रव्यकृत-रागत्यागशीलत्वे सति तदलेपस्वभावत्वात्। यथा लोहं कर्दममध्यगतं सत्कर्दमेन लिप्यते, तल्लेपस्वभावत्वात; तथा किलाज्ञानी कर्ममध्यगतः सन् कर्मणा लिप्यते, सर्वपरद्रव्यकृतरागोपादानशीलत्वे सति तल्लेपस्वभावत्वात्।
(शार्दूलविक्रीडित) यादृक् तागिहास्ति तस्य वशतो यस्य स्वभावो हि यः कर्तु नैष कथञ्चनापि हि परैरन्यादृशः शक्यते। अज्ञानं न कदाचनापि हि भवेज्ज्ञानं भवत्सन्ततं ज्ञानिन् भुक्ष्व परापराधजनितो नास्तीह बन्धस्तव।। १५० ।।
[ लिप्यते तु] लिप्त होता है- [ यथा] जैसे [ लोहम् ] लोहा [कर्दममध्ये] कीचड़के बीच रहा हुआ लिप्त हो जाता है (अर्थात् उसे जंग लग जाती है)।
टीका:-जैसे वास्तवमें सोना कीचड़के बीच पड़ा हो तो भी वह कीचड़से लिप्त नहीं होता (अर्थात् उसे जंग नहीं लगती) क्योंकि उसका स्वभाव अलिप्त रहना है, क्योंकि उसका स्वभाव अलिप्त रहना है, उसीप्रकार वास्तवमें ज्ञानी कर्मोंके मध्य रहा हुआ हो तथापि वह उनसे लिप्त नहीं होता क्योंकि सर्व परद्रव्योंके प्रति किये जाने वाला राग उसका त्यागरूप स्वभावपना होनेसे ज्ञानी अलिप्त स्वभावी है। जैसे कीचड़के बीच पड़ा हुआ लोहा कीचड़से लिप्त हो जाता है (अर्थात् उसमें जंग लग जाती है) क्यों कि उसका स्वभाव कीचड़से लिप्त होना है, इसीप्रकार वास्तवमें अज्ञानी कर्मोंके मध्य रहा हुआ कर्मोंसे लिप्त हो जाता है क्योंकि सर्व परद्रच्योंके प्रति किये जाने वाला राग उसका ग्रहणरूप स्वभावपना होनेसे अज्ञानी कर्मसे लिप्त होनेके स्वभाववाला है।
भावार्थ:-जैसे कीचड़में पड़े हुए सोनेको जंग लगती नहीं और लोहेको लग जाती है, इसीप्रकार कर्मों के मध्य रहा हुआ ज्ञानी कर्मोंसे नहीं बँधता तथा अज्ञानी बँध जाता है। यह ज्ञान-अज्ञानकी महिमा है।
इस अर्थका और आगामी कथनका सूचक कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इह ] इस लोकमें [ यस्य याहक यः हि स्वभावः ताहक तस्य वशतः अस्ति ] जिस वस्तुका जैसा स्वभाव होता है उसका वैसा स्वभाव उस वस्तुके अपने वशसे ही ( अपने आधीन ही) होता है। [ एषः ] ऐसा वस्तुका स्वभाव वह, [ परैः] परवस्तुओं के द्वारा [ कथञ्चन अपि हि] किसी भी प्रकार से [अन्यादृशः ] अन्य जैसा [कर्तुं न शक्यते] नहीं किया जा सकता। [हि] इसलिये [ सन्ततं ज्ञानं भवत् ] जो निरंतर ज्ञानरूप परिणमित होता है वह
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निर्जरा अधिकार
भुंजंतस्स वि विविहे सचित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे। संखस्स सेदभावो ण वि सक्कदि किण्हगो कादं।। २२० ।। तह णाणिस्स वि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे। भुजंतस्स वि णाणं ण सक्कमण्णाणदं णेदुं ।। २२१ ।। जइया स एव संखो सेदसहावं तयं पजहिदृण। गच्छेज्ज किण्हभावं तइया सुक्कत्तणं पजहे।। २२२ ।। तह णाणी वि हु जइया णाणसहावं तयं पजहिदूण। अण्णाणेण परिणदो तइया अण्णाणदं गच्छे।। २२३ ।।
[ कदाचन अपि अज्ञानं न भवेत् ] कभी भी अज्ञान नहीं होता; [ ज्ञानिन् ] इसलिये हे ज्ञानी! [ भुक्ष्व ] तू (कर्मोदयजनित) उपभोगको भोग, [इह ] इस जगतमें [ परअपराध-जनितः बन्धः तव नास्ति] परके अपराधसे उत्पन्न होने वाला बंध तुझे नहीं है ( अर्थात् परके अपराधसे तुझे बंध नहीं होता।)
भावार्थ:-वस्तुका स्वभाव वस्तुके अपने आधीन ही है। इसलिये जो आत्मा स्वयं ज्ञानरूप परिणमित होता है उसे परद्रव्य अज्ञानरूप कभी भी परिणमित नहीं करा सकता। ऐसा होने से यहाँ ज्ञानीसे कहा है कि-तुझे परके अपराधसे बंध नहीं होता इसलिये तू उपभोगको भोग। तू ऐसी शंका मत कर कि उपभोगके भोगनेसे मुझे बंध होगा। यदि ऐसी शंका करेगा तो 'परद्रव्य से आत्माका बुरा होता है' ऐसी मान्यता का प्रसंग आ जायेगा। इसप्रकार यहाँ परद्रव्यसे अपना बुरा होना मानने की जीव शंका मिटाई है; यह नहीं समझना चाहिये कि भोग भोगने की प्रेरणा करके स्वच्छंद कर दिया है। स्वेच्छाचारी होना तो अज्ञानभाव है यह आगे कहेंगे। १५० ।
अब इसी अर्थको दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैं:
ज्यों शंख विविध सचित्त, मिश्र, अचित्त वस्तू भोगते । पर शंखके शुक्लत्वको नहिं, कृष्ण कोई कर सके ।। २२० ।। त्यों ज्ञानी भी मिश्रित, सचित्त, अचित्त वस्तू भोगते । पर ज्ञान ज्ञानी का नहीं, अज्ञान कोई कर सके ।। २२१ ।। जब ही स्वयं वो शंख , तजकर स्वीय श्वेतस्वभाव को। पावे स्वयं कृष्णत्व तब ही, छोड़ता शुक्लत्वको ।। २२२ ।। त्यों ज्ञानी भी जब ही स्वयं निज, छोड़ ज्ञानस्वभावको। अज्ञानभावों परिणमे, अज्ञानता को प्राप्त हो ।। २२३ ।।
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३४०
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समयसार
भुञ्जानस्यापि विविधानि सचित्ताचित्तमिश्रितानि द्रव्याणि । शंखस्य श्वेतभावो नापि शक्यते कृष्णकः कर्तुम् ।। २२० ।। तथा ज्ञानिनोऽपि विविधानि सचित्ताचित्तमिश्रितानि द्रव्याणि । मुञ्जानस्यापि ज्ञानं न शक्यमज्ञानतां नेतुम् ।। २२९ ।। यदा स एव शंखः श्वेतस्वभावं तकं प्राय । गच्छेत् कृष्णभावं तदा शुक्लत्वं प्रजह्यात् ।। २२२ ।। तथा ज्ञान्यपि खलु यदा ज्ञानस्वभावं तर्क प्रहाय । अज्ञानेन परिणतस्तदा अज्ञानतां गच्छेत् ।। २२३ ।।
यथा खलु शंखस्य परद्रव्यमुपभुञ्जानस्यापि न परेण श्वेतभावः कृष्ण: कर्तु शक्येत, परस्य परभावत्वनिमित्तत्वानुपपत्तेः, तथा किल ज्ञानिनः परद्रव्यमुपभुञ्जानस्यापि न परेण ज्ञानमज्ञानं कर्तु शक्येत, परस्य परभावत्वनिमित्तत्वानुपपत्तेः ।
गाथार्थ:- [ शंखस्य ] जैसे शंख [ विविधानि ] अनेक प्रकारके [ सचित्ताचित्तमिश्रितानि ] सचित्त, अचित्त और मिश्र [ द्रव्याणि ] द्रव्योंको [ भुञ्जानस्य अपि ] भोगता है-खाता है तथापि [ श्वेतभावः ] उसका श्वेतभाव [ कृष्णकः कर्तु न अपि शक्यते ] ( किसीके द्वारा ) काला नहीं किया जा सकता, [ तथा ] इसीप्रकार [ ज्ञानिनः अपि ] ज्ञानी भी [ विविधानि ] अनेक प्रकारके [ सचित्ताचित्तमिश्रितानि ] सचित्त अचित्त और मिश्र [ द्रव्याणि ] द्रव्योंको [ भुञ्जानस्य अपि ] भोगे तथापि उसके [ ज्ञानं ] ज्ञानको [ अज्ञानतां नेतुम् न शक्यम् ] ( किसी के द्वारा ) अज्ञानरूप नहीं किया जा सकता।
[ यदा ] जब [ सः एव शंख: ] वही शंख ( स्वयं ) [ तकं श्वेतस्वभावं ] उस श्वेत स्वभावको [ प्रहाय ] छोड़कर [ कृष्णभावं गच्छेत् ] कृष्णभावको प्राप्त होता है (कृष्णरूप परिणमित होता है ) [ तदा ] तब [ शुक्लत्वं प्रजह्यात् ] शुक्लत्वको छोड़ देता है (अर्थात् काला हो जाता है ), [ तथा ] इसीप्रकार [ खलु ] वास्तवमें [ ज्ञानी अपि ] ज्ञानी भी (स्वयं) [ यदा] जब [ तकं ज्ञानस्वभावं ] उस ज्ञानस्वभावको [ प्रहाय ] छोड़कर [ अज्ञानेन ] अज्ञानरूप [ परिणतः ] परिणमित होता है [ तदा ] तब [ अज्ञानतां ] अज्ञानताको [ गच्छेत् ] प्राप्त होता है।
टीका:-जैसे यदि शंख परद्रव्यको भोगे - खाये तथापि उसका श्वेतपन अन्यके द्वारा काला नहीं किया जा सकता क्योंकि पर अर्थात् परद्रव्य किसी द्रव्यको परभावस्वरूप करनेका निमित्त (कारण) नहीं हो सकता, इसीप्रकार यदि ज्ञानी परद्रव्यको भोगे तो भी उसका ज्ञान अन्यके द्वारा अज्ञान नहीं किया जा सकता क्योंकि पर अर्थात् परद्रव्य किसी द्रव्यको परभावस्वरूप करनेका निमित्त नहीं हो
सकता।
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निर्जरा अधिकार
३४१
ततो ज्ञानिनः परापराधनिमित्तो नास्ति बन्धः। यथा च यदा स एव शंख: परद्रव्यमुपभुजानोऽनुपभुजानो वा श्वेतभावं प्रहाय स्वयमेव कृष्णभावेन परिणमते तदास्य श्वेतभावः स्वयंकृत: कृष्णभावः स्यात्, तथा यदा स एव ज्ञानी परद्रव्यमुपभुजानोऽनुपभुञ्जानो वा ज्ञानं प्रहाय स्वयमेवाज्ञानेन परिणमते तदास्य ज्ञानं स्वयंकृतमज्ञानं स्यात्। ततो ज्ञानिनो यदि (बन्धः) स्वापराधनिमित्तो बन्धः।
(शार्दूलविक्रीडित) ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचितं किञ्चित्तथाप्युच्यते भुंक्षे हन्त न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः। बन्धः स्यादुपभोगतो यदि न तत्कि कामचारोऽस्ति ते ज्ञानं सन्वस बन्धमेष्यपरथा स्वस्यापराधाधुवम्।। १५१ ।।
इसलिये ज्ञानीको दूसरेके अपराधके निमित्तसे बंध नहीं होता।
__ और जब वही शंख, परद्रव्यको भोगता हुआ अथवा न भोगता हुआ, श्वेतभाव को छोड़कर स्वयमेव कृष्णरूप परिणमित होता है तब उसका श्वेतभाव स्वयंकृत कृष्णभाव होता है (स्वयमेव किये गये कृष्णभावरूप होता है), इसीप्रकार जब वही ज्ञानी, परद्रव्यको भोगता हुआ अथवा न भोगता हुआ, ज्ञानको छोड़कर स्वयमेव अज्ञानरूप परिणमित होता है तब उसका ज्ञान स्वयंकृत अज्ञान होता है। इसलिये ज्ञानीके यदि बंध हो तो वह अपने ही अपराधके निमित्तसे ( अर्थात् स्वयं ही अज्ञानरूप परिणमित हो तब ) होता है।
भावार्थ:-जैसे श्वेत शंख परके भक्षणसे काला नहीं होता किन्तु जब वह स्वयं ही कालिमारूप परिणमित होता है तब काला हो जाता है, इसीप्रकार ज्ञानी परके उपभोगसे अज्ञानी नहीं होता किन्तु जब स्वयं ही अज्ञानरूप परिणमित होता है तब अज्ञानी होता है और तब बंध करता है।
अब इसका कलशरूप काव्य कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [ ज्ञानिन् ] हे ज्ञानी, [ जातु किञ्चित् कर्म कर्तुम् उचितं न ] तुझे कभी कोई भी कर्म करना उचित नहीं है [ तथापि] तथापि [ यदि उच्यते] यदि तू यह कहे कि [ परं मे जातु न, भुंक्षे] “परद्रव्य मेरा कभी भी नहीं है और मैं उसे भोगता हूँ", [ भोः दुर्भुक्तः एव असि ] तो तुझसे कहा जाता है कि हे भाई, तू खराब प्रकार से भोगनेवाला है; [ हन्त] जो तेरा नहीं है उसे तू भोगता है यह महा खेद की बात है! [ यदि उपभोगत: बन्ध: न स्यात् ] “ यदि तू कहे कि 'सिद्धान्तमें यह कहा है कि परद्रव्य के उपभोगसे बंध नहीं होता इसलिये भोगता हूँ",
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समयसार
३४२
(शार्दूलविक्रीडित) कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्कमैव नो योजयेत् कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः। ज्ञानं संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा । कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागैकशीलो मुनिः।। १५२ ।।
[ तत् किं ते कामचारः अस्ति] तो क्या तुझे भोगने की इच्छा है ? [ ज्ञानं सन् वस] तू ज्ञानरूप होकर (-शुद्ध स्वरूपमें) निवास कर, [अपरथा] अन्यथा (यदि भोगनेकी इच्छा करेगा-अज्ञानरूप परिणमित होगा तो) [ध्रुवम् स्वस्य अपराधात् बन्धम् एषि ] तू निश्चयतः अपने अपराधसे बंधको प्राप्त होगा।
भावार्थ:-ज्ञानीको कर्म तो करना ही उचित नहीं है। यदि परद्रव्य जानकर भी उसे भोगे तो यह योग्य नहीं है। परद्रव्यके भोक्ता को तो जगतमें चोर कहा जाता है, अन्यायी कहा जाता है। और जो उपभोगसे बंध नहीं कहा सो तो, ज्ञानी इच्छाके बिना ही परकी जबरदस्तीसे उदयमें आये हुए को भोगता है वहाँ उसे बंध नहीं कहा। यदि वह स्वयं इच्छासे भोगे तब तो स्वयं अपराधी हुवा, और तब उसे बंध क्यों न हो ? १५१।
अब आगे की गाथाका सूचकरूप काव्य कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [ यत् किल कर्म एव कर्तारं स्वफलेन बलात् नो योजयेत् ] कर्म ही उसके कर्ताको अपने फलके साथ बलात् नहीं जोड़ता (कि तू मेरे फल को भोग), [फललिप्सुः एव हि कुर्वाणः कर्मणः यत् फलं प्राप्नोति] *फलकी इच्छावाला ही कर्म को करता हुआ कर्मके फलको पाता है; [ज्ञानं सन् ] इसलिये ज्ञानरूप रहता हुआ और [ तद्अपास्त-रागरचनः ] जिसने कर्मके प्रति रागकी रचना दूर की है ऐसा [ मुनिः] मुनि, [ तत्-फल-परित्याग-एक-शील:] कर्मफलके परित्यागरूप ही एक स्वभाववाला होनेसे , [कर्म कुर्वाण: अपि हि] कर्म करता हुआ भी [ कर्मणा नो बध्यते] कर्मसे नहीं बँधता।
भावार्थ:-कर्म तो बलात् कर्ताको अपने फलके साथ नहीं जोड़ता किन्तु जो कर्मको करता हआ उसके फलकी इच्छा करता है वही उसका फल पाता है। इसलिये जो ज्ञानरूप वर्तता है और बिना ही रागके कर्म करता है वह मुनि कर्मसे नहीं बँधता क्योंकि उसे कर्मफलकी इच्छा नहीं है। १५२।
* कर्मका फल अर्थात् [१] रंजित परिणाम, अथवा [२] सुख [-रंजित परिणाम ] को उत्पन्न करनेवाले आगामी भोग ।
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पुरिसो जह को वि इहं वित्तिणिमित्तं तु सेवदे रायं । तो सो वि देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पाए।। २२४ ।। एमेव जीवपुरिसो कम्मरयं सेवदे सुहणिमित्तं । तो सो विदेदि कम्मो विविहे भोगे सुहुप्पाए ।। २२५ ।। जह पुण सो चि पुरिसो वित्तिणिमित्तं ण सेवदे रायं । तो सोण देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पाए ।। २२६ ।। एमेव सम्मदिट्ठी विसयत्थं सेवदे ण कम्मरयं । तो सोण देदि कम्मो विविहे भोगे सुहुप्पाए।। २२७ ।। पुरुषो यथा कोऽपीह वृत्तिनिमित्तं तु सेवते राजानम् । तत्सोऽपि ददाति राजा विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान्।। २२४ ।। एवमेव जीवपुरुषः कर्मरजः सेवते सुखनिमित्तम् । तत्तदपि ददाति कर्म विविधान् भोगान सुखोत्पादकान्।। २२५ ।।
अब इस अर्थको दृष्टांतसे दृढ़ करते हैं : ---
ज्यों जगतमें को पुरुष, वृत्तिनिमित्त सेवे भूपको । तो भूप भी सुखजनक विधविध भोग देवे पुरुषको ।। २२४ ।। त्यों जीवपुरुष भी कर्मरजका सुखअरथ सेवन करे । तो कर्म भी सुखजनक विधविध भोग देवे जीवको ।। २२५ ।। अरु वो ही नर जब वृत्तिहेतु भूपको सेवे नहीं ।
तो भूप भी सुखजनक विधविध भोगको देवे नहीं ।। २२६ ।। सहष्टिको त्यों विषय हेतू कर्मरजसेवन नहीं ।
तो कर्म भी सुखजनक विधविध भोगको देता नहीं ।। २२७ ।।
३४३
गाथार्थ:- [ यथा ] जैसे [ इह ] इस जगतमें [ क: अपि पुरुषः ] कोई भी पुरुष [ वृत्तिनिमित्तं तु] आजीविकाके लिये [ राजानम् ] राजाकी [ सेवते ] सेवा करता है [ तद् ] तो [ सः राजा अपि ] वह राजा भी उसे [ सुखोत्पादकान्] सुख उत्पन्न करनेवाले [ विविधान् ] अनेक प्रकारके [ भोगान् ] भोग [ ददाति ] देता है, [एवम् एव ] इसीप्रकार [जीवपुरुषः ] जीवपुरुष [ सुखनिमित्तम् ] सुखके लिये [ कर्मरजः ] कर्मरजकी [ सेवते ] सेवा करता है [ तद् ] तो [ तत् कर्म अपि ] वह कर्म भी उसे [ सुखोत्पादकान् ] सुख उत्पन्न करनेवाले [ विविधान् ] अनेक प्रकारके [ भोगान् ] भोग [ ददाति ] देता है।
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समयसार
३४४
यथा पुनः स एव पुरुषो वृत्तिनिमित्तं न सेवते राजानम्। तत्सोऽपि न ददाति राजा विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान्।। २२६ ।। एवमेव सम्यग्दृष्टि: विषयार्थ सेवते न कर्मरजः।
तत्तन्न ददाति कर्म विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान्।। २२७ ।। यथा कश्चित्पुरुषो फलार्थ राजानं सेवते ततः स राजा तस्य फलं ददाति, तथा जीवः फलार्थ कर्म सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं ददाति। यथा च स एव पुरुषः फलार्थ राजानं न सेवते ततः स राजा तस्य फलं न ददाति, तथा सम्यग्दृष्टि: फलार्थ कर्म न सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं न ददातीति तात्पर्यम्।
[पुनः ] और [यथा] जैसे [ सः एव पुरुषः] वही पुरुष [वृत्तिनिमित्तं] आजीविका के लिये [ राजानम् ] राजाकी [न सेवते ] सेवा नहीं करता [ तद् ] तो [ सः राजा अपि] वह राजा भी उसे [ सुखोत्पादकान् ] सुख उत्पन्न करनेवाले [विविधान् ] अनेक प्रकारके [ भोगान् ] भोग [ न ददाति] नहीं देता, [ एवम् एव ] इसीप्रकार [ सम्यग्दृष्टि:] सम्यग्दृष्टि [ विषयार्थ] विषयके लिये [ कर्मरजः] कर्मरजकी [न सेवते] सेवा नहीं करता [ तद् ] इसलिये [ तत् कर्म] वह कर्म भी उसे [सुखोत्पादकान् ] सुख उत्पन्न करनेवाले [ विविधान् ] अनेक प्रकारके [ भोगान् ] भोग [न ददाति ] नहीं देता।
टीका:-जैसे कोई पुरुष फल के लिये राजा की सेवा करता है तो वह राजा उसे फल देता है, इसीप्रकार जीव फलके लिये कर्मकी सेवा करता है तो वह कर्म उसे फल देता है। और जैसे वही पुरुष फलके लिये राजा की सेवा नहीं करता तो वह राजा उसे फल नहीं देता, इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि फलके लिये कर्मकी सेवा नहीं करता इसलिये वह कर्म उसे फल नहीं देता। यह तात्पर्य है।।
भावार्थ:-यहाँ एक आशय तो इसप्रकार है:---अज्ञानी विषयसुखके लिये अर्थात् रंजित परिणामके लिये उदयागत कर्मकी सेवा करता है इसलिये वह कर्म उसे ( वर्तमानमें) रंजित परिणाम देता है। ज्ञानी विषयसुखके लिये अर्थात् रंजित परिणामके लिये उदयागत कर्मकी सेवा नहीं करता इसलिये वह कर्म उसे रंजित परिणाम उत्पन्न नहीं करता।
दूसरा आशय इसप्रकार है:-अज्ञानी सुख (-रागादिपरिणाम उत्पन्न करनेवाले आगामी भोगोंकी अभिलाषासे व्रत, तप इत्यादि शुभ कर्म करता है इसलिये वह कर्म उसे रागादिपरिणाम उत्पन्न करनेवाले आगामी भोगोंको देता है। ज्ञानीके सम्बन्धमें इससे विपरीत समझना चाहिये।
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निर्जरा अधिकार
३४५
(शार्दूलविक्रीडित) त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं किंत्वस्यापि कुतोऽपि किञ्चिदपि तत्कर्मावशेनापतेत्। तस्मिन्नापतिते त्वकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः।। १५३ ।।
इसप्रकार अज्ञानी फलकी वांछासे कर्म करता है इसलिये वह फलको प्राप्त होता है और ज्ञानी फलकी वांछा बिना ही कर्म करता है इसलिये वह फलको प्राप्त नहीं करता।
अब, “जिसे फलकी इच्छा नहीं है वह कर्म क्यों करे ?” इस आशंका को दूर करने के लिये काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [येन फलं त्यक्तं सः कर्म कुरुते इति वयं न प्रतीमः ] जिसने कर्मका फल छोड़ दिया है वह कर्म करता है ऐसी प्रतीति तो हम नहीं कर सकते। [किन्तु] किन्तु वहाँ इतना विशेष है कि- [अस्य अपि कुतः अपि किंचित् अपि तत् कर्म अवशेन आपतेत् ] उसे (ज्ञानीको) भी किसी कारणसे कोई ऐसा कर्म अवशतासे (-उसके वश बिना) आ पड़ता है। [तस्मिन् आपतिते तु] उसके आ पड़ने पर भी, [अकम्प–परम-ज्ञानस्वभावे स्थितः ज्ञानी] जो अकंप परमज्ञानस्वभावमें स्थित है ऐसा ज्ञानी [ कर्म ] कर्म [ किं कुरुते अथ किं न कुरुते ] करता है या नहीं [इति कः जानाति ] यह कौन जानता है ?
भावार्थ:-ज्ञानीके परवशतासे कर्म आ पड़ता है तो भी वह ज्ञानसे चलायमान नहीं होता। इसलिये ज्ञानसे अचलायमान वह ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है ? ज्ञानीकी बात ज्ञानी ही जानता है। ज्ञानीके परिणामोंको जाननेकी सामर्थ्य अज्ञानीकी नहीं है।
अविरत सम्यग्दृष्टिसे लेकर ऊपरके सभी ज्ञानी ही समझना चाहिये। उनमेंसे, अविरत सम्यग्दृष्टि , देशविरत सम्यग्दृष्टि और आहारविहार करते हुए मुनिओंके बाह्यक्रियाकर्म होते हैं, तथापि ज्ञानस्वभावसे अचलित होनेके कारण निश्चयसे वे, बाह्यक्रियाकर्मके कर्ता नहीं हैं, ज्ञानके ही कर्ता हैं। अंतरंग मिथ्यात्वके अभावसे तथा यथासंभव कषायसे अभावसे उनके परिणाम उज्ज्वल हैं। उस उज्ज्वलताको ज्ञानी ही जानते हैं, मिथ्यादृष्टि उस उज्ज्वलताको नहीं जानते। मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा हैं, वे बाहरसे ही भला-बुरा मानते हैं; अंतरात्माकी गति बहिरात्मा क्या जाने ? १५३।
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३४६
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समयसार
( शार्दूलविक्रीडित )
सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तु क्षमन्ते परं यद्वजेऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्ताध्वनि। सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शङ्कां विहाय स्वयं जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवन्ते न हि ।। १५४ ।।
अब, इसी अर्थका समर्थक और आगामी गाथाका सूचक काव्य कहते हैं :--
श्लोकार्थ:- [ यत् भय-चलत्-त्रैलोक्य-मुक्त-अध्वनि वज्रे पतति अपि ] जिस के भयसे चलायमान होते हुवे - ( खलबलाते हुवे ) - तीनों लोक अपने मार्गको छोड़ देते हैं ऐसा वज्रपात होने पर भी, [ अमी] ये सम्यग्दृष्टि जीव, [निसर्गनिर्भयतया ] स्वभावत: निर्भय होनेसे, [ सर्वाम् एव शङ्कां विहाय ] समस्त शंकाको छोड़कर, [ स्वयं स्वम् अवध्य-बोध-वपुषं जानन्तः ] स्वयं अपनेको (आत्माको ) जिसका ज्ञानरूपी शरीर अबध्य है ऐसा जानते हुए, [ बोधात् च्यवन्ते न हि ] ज्ञानसे च्युत नहीं होते । [ इदं परं साहसम् सम्यग्दृष्टयः एव कर्तु क्षमन्ते ] ऐसा परम साहस करनेके लिये मात्र सम्यग्दृष्टि ही समर्थ है।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टि जीव निःशंकितगुणयुक्त होते हैं इसलिये चाहे जैसे शुभाशुभ कर्मोदय के समय भी वे ज्ञानरूप ही परिणमित होते हैं। जिसके भयसे तीनों लोकके जीव काँप उठते हैं-चलायमान हो उठते हैं और अपना मार्ग छोड़ देते हैं ऐसा वज्रपात होनेपर भी सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूपको ज्ञानशरीरी मानता हुआ ज्ञानसे चलायमान नहीं होता। उसे ऐसी शंका नहीं होती कि इस वज्रपातसे मेरा नाश हो जायेगा ; यदि पयार्यका विनाश हो तो ठीक ही है क्योंकि उसका तो विनाशीक स्वभाव ही है । १५४ ।
अब इस अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं:
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निर्जरा अधिकार
३४७
सम्माद्दिट्ठी जीवा णिस्संका होति णिब्भया तेण। सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका।। २२८ ।। सम्यग्दृष्टयो जीवा निरशङ्का भवन्ति निर्भयास्तेन। सप्तभयविप्रमुक्ता यस्मात्तस्मात्तु निरशङ्काः।। २२८ ।।
येन नित्यमेव सम्यग्दृष्टयः सकलकर्मफलनिरभिलाषा: सन्तोऽत्यन्तकर्मनिरपेक्षतया वर्तन्ते, तेन नूनमेते अत्यन्तनिरशङ्कदारुणाध्यवसायाः सन्तोऽत्यन्तनिर्भयाः सम्भाव्यन्ते।
(शार्दूलविक्रीडित) लोकः शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तात्मनश्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः। लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तगीः कुतो निरशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।। १५५ ।।
सम्यक्ति जीव होते निःशंक्ति इसहि से निर्भय रहे । हैं सप्तभयप्रविमुक्त वे, इसही से वे निःशंक हैं ।। २२८ ।।
गाथार्थ:- [ सम्यग्दृष्टयः जीवाः] सम्यग्दृष्टि जीव [ निरशङ्काः भवन्ति ] निःशंक होते हैं, [तेन ] इसलिये [ निर्भयाः] निर्भय होते हैं; [ तु] और [ यस्मात् ] क्योंकि वे [ सप्तभयविप्रमुक्ताः ] सप्त भयोंसे रहित होते हैं [तस्मात् ] इसलिये [ निरशङ्काः ] निःशंक होते हैं ( –अडोल होते हैं)।
टीका:-क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव सदा ही सर्व कर्मोंके फलके प्रति निरभिलाष होते हैं इसलिये वे कर्मके प्रति अत्यंत निरपेक्षतया वर्तते हैं, इसलिये वास्तवमें वे अत्यंत निःशंक दारुण ( सुदृढ़) निश्चयवाले होनेसे अत्यंत निर्भय हैं ऐसी संभावना की जाती है (अर्थात् ऐसा योग्यतया माना जाता है)।
अब सात भयोंके कलशरूप काव्य कहे जाते हैं, उसमेंसे पहले इहलोक और परलोकके भयोंका एक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ एषः ] यह चित्स्वरूप लोक ही [ विविक्तात्मनः ] भिन्न आत्माका (परसे भिन्नरूप परिणमित होते हुए आत्माका) [ शाश्वतः एकः सकल-व्यक्तः लोकः] शाश्वत, एक और सकलव्यक्त ( –सर्वकालमें प्रगट) लोक है; [ यत् ] क्योंकि [ केवलम् चित्-लोकं ] मात्र चित्स्वरूप लोकको [अयं स्वयमेव एकक: लोकयति] यह ज्ञानी
आत्मा स्वयमेव एकाकी देखता है-अनुभव करता है। यह चित्स्वरूप लोक ही तेरा है, [ तद्-अपरः ] उससे भिन्न दूसरा कोई लोक- [अयं लोकः अपर: ] यह लोक
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समयसार
३४८
(शार्दूलविक्रीडित) एषैकैव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादेकं सदानाकुलैः। नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निरशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।।१५६ ।।
या परलोक- [तव न] तेरा नहीं है ऐसा ज्ञानी विचार करता है, जानता है [ तस्य तद्-भी: कुतः अस्ति ] इसलिये ज्ञानीको इस लोकका तथा परलोकका भय कहाँसे हो? [ सः स्वयं सततं शिरशङ्क: सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरंतर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका (अपने ज्ञानस्वभावका ) सदा अनुभव करता है।
भावार्थ:-'इस भवमें जीवन पर्यंत अनुकूल सामग्री रहेगी या नहीं ?' ऐसी चिंता रहना इहलोकका भय है। ‘परभवमें मेरा क्या होगा ?' ऐसी चिंताका रहना परलोकका भय है। ज्ञानी जानता है कि-यह चैतन्य ही मेरा एक, नित्य लोक है जो कि सदाकाल प्रगट है। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई लोक मेरा नहीं है। यह मेरा चैतन्यस्वरूप लोक किसीके बिगाड़े नहीं बिगड़ता। ऐसा जाननेवाले ज्ञानीके इस लोकका अथवा परलोकका भय कहाँसे हो? कभी नहीं हो सकता वह तो अपनेको स्वाभाविक ज्ञानरूप ही अनुभव करता है। १५५ ।
अब वेदनाभयका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ निर्भेद-उदित-वेद्य-वेदक-बलात् ] अभेदस्वरूप वर्तते हुए वेद्य-वेदकके बलसे ( वेध और वेदक अभेद ही होते हैं ऐसी वस्तुस्थितिके बलसे) [ यद् एकं अचलं ज्ञानं स्वयं अनाकुलैः सदा वेद्यते ] एक अचल ज्ञान ही स्वयं निराकुल पुरुषोंके द्वारा ( –ज्ञानियों के द्वारा) सदा वेदन में आता है, [ एषा एका एव हि वेदना] यह एक ही वेदना (ज्ञानवेदन) ज्ञानियोंके है। (आत्मा वेदक है और ज्ञान वेद्य है।) [ज्ञानिनः अन्या आगत-वेदना एव हि न एव भवेत् ] ज्ञानीके दूसरी कोई आगत (-पुद्गलसे उत्पन्न) वेदना होती ही नहीं, [ तद्-भीः कुतः] इसलिये उसे वेदनाका भय कहाँ से हो ? [ सः स्वयं सततं निरशंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरंतर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है।
भावार्थ:-सुखदुःखको भोगना वेदना है। ज्ञानीके अपने एक ज्ञानमात्र स्वरूपका ही उपभोग है। वह पुद्गलसे होनेवाली वेदनाको वेदना ही नहीं समझता, इसलिये ज्ञानीके वेदनाभय नहीं है। वह तो सदा निर्भय वर्तता हुआ ज्ञानका अनुभव करता है। १५६।
अब अरक्षाभयकां काव्य कहते हैं:
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निर्जरा अधिकार
३४९
( शार्दूलविक्रीडित) यत्सन्नाशमुपैति तन्न नियतं व्यक्तेति वस्तुस्थितिर्ज्ञानं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्यापरैः। अस्यात्राणमतो न किञ्चन भवेत्तगीः कुतो ज्ञानिनो निरशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।।१५७ ।।
(शार्दूलविक्रीडित) स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूपे न यच्छक्तः कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः। अस्थागुप्तिरतो न काचन भवेत्तगीः कुतो ज्ञानिनो निरशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।।१५८ ।।
श्लोकार्थ:- [ यत् सत् तत् नाशं न उपैति इति वस्तुस्थितिः नियतं व्यक्ता] जो सत् है वह नष्ट होता नहीं ऐसी वस्तुस्थिति नियमरूपसे प्रगट है। [ तत् ज्ञानं किल स्वयमेव सत् ] यह ज्ञान भी स्वयमेव सत् ( सत्स्वरूप वस्तु) है (इसलिये नाश
को प्राप्त नहीं होता), [ ततः अपरैः अस्य त्रातं किं] इसलिये परके द्वारा उसका रक्षण कैसा ? [ अतः अस्य किञ्चन अत्राणं न भवेत् ] इसप्रकार (ज्ञान निजसे ही रक्षित है इसलिये ) उसका किंचित्मात्र भी अरक्षण नहीं हो सकता [ ज्ञानिनः तद्-भी कुतः] इसलिये ( ऐसा जाननेवाले) ज्ञानीको अरक्षाका भय कहाँसे हो सकता ? [ सः स्वयं सततं निरशंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरंतर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है।
भावार्थ:-सत्तास्वरूप वस्तुका कभी नाश नहीं होता। ज्ञान भी स्वयं सत्तास्वरूप वस्तु है; इसलिये वह ऐसी नहीं है कि जिसकी दूसरोंके द्वारा रक्षा की जाये तो रहे, अन्यथा नष्ट हो जाये। ज्ञानी ऐसा जानता है इसलिये उसे अरक्षाका भय नहीं; वह तो निःशंक वर्तता हुआ स्वयं अपने स्वाभाविक ज्ञानका सदा अनुभव करता है। १५७।
अब अगुप्तिभयका काव्य कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [ किल स्वं रूपं वस्तुनः परमा गुप्तिः अस्ति ] वास्तवमें वस्तुका स्व-रूप ही (निजरूप ही) वस्तुकी परम 'गुप्ति' है [ यत् स्वरूपे कः अपि परः प्रवेष्टुम् न शक्त:] क्योंकि स्वरूपमें कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता; [च ] और [ अकृतं ज्ञानं नुः स्वरूपं ] अकृतज्ञान (-जो किसी के द्वारा नहीं किया गया है ऐसा स्वाभाविक ज्ञान-) पुरुषका अर्थात् आत्माका स्वरूप है; (इसलिये ज्ञान आत्माकी परम गुप्ति है।) [ अतः अस्य न काचन अगुप्तिः भवेत् ] इसलिये आत्माकी किंचित्मात्र
भी
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समयसार
३५०
( शार्दूलविक्रीडित) प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित्। तस्यातो मरणं न किञ्चन भवेत्तगीः कुतो ज्ञानिनो निरशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।।१५९ ।।
अगुप्तता न होनेसे [ ज्ञानिनः तद्-भी: कुत:] ज्ञानीको अगुप्तिका भय कहाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निरशंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरंतर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है।
भावार्थ:- गुप्ति' अर्थात् जिमें कोई चोर इत्यादि प्रवेश न कर सके ऐसा किला, भोयरा ( तलघर) इत्यादि; उसमें प्राणी निर्भयतासे निवास कर सकता है। ऐसा गुप्त प्रदेश न हो और खुला स्थान हो तो उसमें रहनेवाले प्राणीको अगुप्तताके कारण भय रहता है। ज्ञानी जानता है कि-वस्तुके निज स्वरूपमें कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता इसलिये वस्तुका स्वरूप ही वस्तुकी परम गुप्ति अर्थात् अभेद्य किला है। पुरुषका अर्थात् आत्माका स्वरूप ज्ञान है; उस ज्ञानस्वरूपमें रहा हआ आत्मा गुप्त है क्योंकि ज्ञानस्वरूपमें दूसरा कोई प्रवेश नहीं कर सकता। ऐसा जानने वाले ज्ञानीको अगुप्तताका भय कहाँसे हो सकता है ? वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपका निरंतर अनुभव करता है। १५८ ।
अब मरणभयका काव्य कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [प्राणोच्छेदम् मरणं उदाहरन्ति ] प्राणोंके नाशको (लोग) मरण कहते हैं। [अस्य आत्मनः प्राणाः किल ज्ञानं] निश्चयसे आत्माके प्राण तो ज्ञान हैं। [ तत् स्वयमेव शाश्वततया जातुचित् न उच्छिद्यते] वह (ज्ञान) स्वयमेव शाश्वत होनेसे उसका कदापि नाश नहीं होता; [अतः तस्य मरणं किञ्चन न भवेत् ] इसलिये आत्माका मरण किंचित्मात्र भी नहीं होता। [ज्ञानिनः तद्-भी: कुतः ] अतः (ऐसा जाननेवाले) ज्ञानीको मरणका भय कहाँसे हो सकता है ? [ सः स्वयं सततं निरशङ्कः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है।
भावार्थ:-इंद्रियादि प्राणोंके नाश होनेको लोग मरण कहते हैं। किन्तु परमार्थतः इंद्रियादिक प्राण नहीं हैं, उसके तो ज्ञान प्राण हैं। ज्ञान अविनाशी हैउसका नाश नहीं होता; अतः आत्माको मरण नहीं है। ज्ञानी ऐसा जानता है इसलिये उसे मरणका भय नहीं है; वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने ज्ञानस्वरूपका निरंतर अनुभव करता है। १५९ ।
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३५१
_ ( शार्दूलविक्रीडित) एकं ज्ञानमनाद्यनन्तमचलं सिद्ध किलैतत्स्वतो यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः। तन्नाकस्मिकमत्र किञ्चन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निरशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।।१६० ।।
अब आकस्मिकभयका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ एतत् स्वतः सिद्धं ज्ञानम् किल एकं ] यह स्वतःसिद्ध ज्ञान एक है, [अनादि] अनादि है, [अनन्तम् ] अनंत है, [अचलं ] अचल है। [इदं यावत् तावत् सदा एव हि भवेत् ] वह जबतक है तबतक सदा ही वही है, [अत्र द्वितीयोदय: न] उसमें दूसरेका उदय नहीं है। [ तत्] इसलिये [ अत्र आकस्मिकम् किञ्चन न भवेत् ] इस ज्ञानमें आकस्मिक कुछ भी नहीं होता। [ ज्ञानिनः तद्-भी: कुतः] ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको अकस्मातका भय कहाँसे हो सकता है ? [ सः स्वयं सततं निरशङ्कसहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरंतर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है।
भावार्थ:- यदि कुछ अनिर्धारित-अनिष्ट एकाएक उत्पन्न होगा तो ?' ऐसा भय रहना आकस्मिकभय है। ज्ञानी जानता है कि-आत्माका ज्ञान स्वतःसिद्ध, अनादि, अनंत, अचल, एक है। उसमें दूसरा कुछ उत्पन्न नहीं हो सकता; इसलिये उसमें कुछ भी अनिर्धारित कहाँ से होगा अर्थात् अकस्मात् कहाँ से होगा? ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको आकस्मिक भय नहीं होता, वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने ज्ञानभावका निरंतर अनुभव करता है।
इसप्रकार ज्ञानीको सात भय नहीं होते।
प्रश्न:-अविरतसम्यग्दृष्टि आदिको भी ज्ञानी कहा है और उनके भयप्रकृतिका उदय होता है तथा उसके निमित्तसे उनके भय होता हुआ भी देखा जाता है, तब फिर ज्ञानी निर्भय कैसे हैं ?
समाधान:-भयप्रकृतिके उदयके निमित्तसे ज्ञानीको भय उत्पन्न होता है। और अंतरायके प्रबल उदयसे निर्बल होनेके कारण उस भयकी वेदना को सहन न कर सकनेसे ज्ञानी उस भयका इलाज भी करता है। परंतु उसे ऐसा भय नहीं होता कि जिससे जीव स्वरूपके ज्ञानश्रद्धानसे च्युत हो जाये। और जो भय उत्पन्न होता है वह मोहकर्मकी भय नामक प्रकृतिका दोष है; ज्ञानी स्वयं उसका स्वामी होकर कर्ता नहीं होता, ज्ञाता ही रहता है। इसलिये ज्ञानीके भय नहीं। १६०।
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३५२
(मन्दाक्रान्ता) टोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाजः सम्यग्दृष्टेर्यदिह सकलं नन्ति लक्ष्माणि कर्म। तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाकर्मणो नास्ति बन्धः
पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जरैव।। १६१ ।। जो चत्तारि वि पाए छिंददि ते कम्मबंधमोहकरे। सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २२९ ।। यश्चतुरोऽपि पादान छिनत्ति तान् कर्मबन्धमोहकरान्। स निरशङ्कश्चेतयिता सम्यग्दृष्टितिव्यः ।। २२९ ।।
अब आगेकी ( सम्यग्दृष्टिके निःशंकित आदि चिह्नों सम्बन्धी) गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [टकोत्कीर्ण-स्वरस-निचित-ज्ञान-सर्वस्व-भाजः सम्यग्दृष्टे:] टंकोत्कीर्ण निज रससे परिपूर ज्ञानके सर्वस्वको भोगनेवाले सम्यग्दृष्टिके [ यद् इह लक्ष्माणि] जो निःशंक्ति आदि चिह्न हैं वे [ सकलं कर्म] समस्त कर्मोंको [ध्नन्ति ] नष्ट करते हैं; [ तत् ] इसलिये, [ अस्मिन् ] कर्मका उदय वर्तता होनेपर भी, [ तस्य] सम्यग्दृष्टिको [पुनः ] पुनः [ कर्मणः बन्धः] कर्मका बंध [ मनाक् अपि] किंचित्मात्र भी [ नास्ति] नहीं होता, [ पूर्वोपात्तं] परंतु जो कर्म पहले बंधा था [ तद्-अनुभवतः] उसके उदयको भोगनेपर उसको [ निश्चितं] नियमसे [निर्जरा एव] उस कर्मकी निर्जरा ही होती है।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टि पहले बंधी हुई भय आदि प्रकृतियोंके उदयको भोगता है तथापि 'निःशंकित आदि गुणोंके विद्यमान होनेसे उसे शंकादिकृत (शंकादिके निमित्तसे होनेवाला) बंध नहीं होता किन्तु पूर्वकर्मकी निर्जरा ही होती है। १६१।
अब इस कथनको गाथाओं द्वारा कहते हैं, उसमेंसे पहले निःशंकित अंगकी ( अथवा निःशंकित गुणकी-चिह्नकी) गाथा इसप्रकार हैं:
जो कर्मबंधनमोहकर्ता, पाद चारों छेदता ।
चिन्मूर्ति वो शंकारहित , सम्यक्त्वदृष्टि जानना ।। २२९ ।। गाथार्थ:- [यः चेतयिता] जो *चेतयिता, [कर्मबन्धमोहकरान् ] कर्मबंध संबंधी मोह करनेवाले ( अर्थात् जीव निश्चयसे कर्म द्वारा बँधा हुआ है ऐसा भ्रम
२। शंका = संदेह; कल्पित भय। * चेतयिता =
१। निःशंकित = संदेह अथवा भय रहित। चेतनेवाला; जानने-देखनेवाला; आत्मा।
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निर्जरा अधिकार
३५३
यतो हि सम्यग्दृष्टि: टोत्कीर्णेकज्ञायकभावमयत्वेन कर्मबन्धशङ्काकरमिथ्यात्वादिभावाभावान्निरशङ्कः, ततोऽस्य शङ्काकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जरैव।
जो दु ण करेदि कंखं कम्मफलेसु तह सव्वधम्मेसु। सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २३० ।।
यस्तु न करोति कांक्षां कर्मफलेषु तथा सर्वधर्मेषु।
स निष्कांक्षश्चेतयिता सम्यग्दृष्टितिव्यः।। २३० ।। यतो हि सम्यग्दृष्टि: टङ्कोत्कीर्णेकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि कर्मफलेषु सर्वेषु वस्तुधर्मेषु च कांक्षाभावानिष्कांक्षः, ततोऽस्य कांक्षाकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जरैव।
करनेवाले) [ तान् चतुरः अपि पादान् ] मिथ्यात्वादि भावरूप चारों पादोंको [ छिनत्ति] छेदता है, [ सः] उसको [ निरशकः ] निःशंक [ सम्यग्दृष्टि: ] सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये।
टीका:-क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण कर्मबंध संबंधी शंका करनेवाले ( अर्थात् जीव निश्चयतः कर्मोंसे बंधा हुआ है ऐसा संदेह अथवा भय करनेवाले ) मिथ्यात्वादि भावोंका ( उसको) अभाव होनेसे, निःशंक है इसलिये उसे शंकाकृत बंध नहीं किन्तु निर्जरा ही है।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टिको जिस कर्मका उदय आता है उसका वह, स्वामित्वके अभावके कारण, कर्ता नहीं होता। इसलिये भयप्रकृतिका उदय आने पर भी सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक रहता है, स्वरूपसे च्युत नहीं होता। ऐसा होनेसे उसे शंकाकृत बंध नहीं होता, कर्म रस देकर खिर जाते हैं।
अब निःकांक्षित गुणकी गाथा कहते हैं:
जो कर्मफल अरु सर्व धर्मोंकी न कांक्षा धारता । चिन्मूर्ति वो कांक्षारहित सम्यक्त्वदृष्टि जानना ।। २३०।।
गाथार्थ:- [ यः चेतयिता] जो चेतयिता [कर्मफलेषु ] कर्मोंके फलोंके प्रति [ तथा] तथा [ सर्वधर्मेषु ] सर्व धर्मों के प्रति [ कांक्षां] कांक्षा [ न तु करोति] नहीं करता [ सः] उसको [ निष्कांक्षः सम्यग्दृष्टि: ] निष्कांक्ष सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्यः] जानना चाहिये।
टीका:-क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयता के कारण सभी कर्मफलों के प्रति तथा समस्त वस्तुधर्मों के प्रति कांक्षाका अभाव होनेसे, निष्कांक्ष (निर्वांछक) है, इसलिये उसे कांक्षाकृत बंध नहीं किन्तु निर्जरा ही है।
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३५४
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समयसार
जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं । सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।। २३१ ।।
यो न करोति जुगुप्सां चेतयिता सर्वेषाभेव धर्माणाम्। स खलु निर्विचिकित्सः सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ।। २३१ ।।
यतो हि सम्यग्दृष्टि: टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि वस्तुधर्मेषु जुगुप्सा भावान्निर्विचिकित्सः, ततोऽस्य विचिकित्साकृतो नास्ति बन्ध:, किन्तु निर्जरैव।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टिको समस्त कर्मफलोंकी वांछा नहीं होती; तथा सर्व धर्मोकी वांछा नहीं होती, अर्थात् सुवर्णत्व, पाषाणत्व इत्यादि तथा निंदा, प्रशंसा आदिके वचन इत्यादि वस्तुधर्मोकी अर्थात् पुद्गलस्वभावोंकी उसे वांछा नहीं है- उनके प्रति समभाव है, अथवा अन्यमतावलम्बियोंके द्वारा माने गये अनेक प्रकारके सर्वथा एकांतपक्षी व्यवहारधर्मोंकी उसे वांछा नहीं है- उन धर्मोंका आदर नहीं है । इसप्रकार सम्यग्दृष्टि वांछारहित होता है इसलिये उसे वांछासे होनेवाला बंध नहीं होता। वर्तमान वेदना सही नहीं जाती इसलिये उसे मिटानेके उपचारकी वांछा सम्यग्दृष्टिको चारित्रमोहके उदयके कारण होती है, किन्तु वह वांछाका कर्ता स्वयं नहीं होता, वह कर्मोदय समझकर उसका ज्ञाता ही रहता है, इसलिये उसे वांछाकृत बंध नहीं होता।
अब निर्विचिकित्सा गुणकी गाथा कहते हैं:
सब वस्तुधर्म विषै जुगुप्साभाव जो नहिं धारता । चिन्मूर्ति निर्विचिकित्स वो सद्दृष्टि निश्चय जानना ।। २३१ ।।
गाथार्थ:- [ यः चेतयिता ] जो चेतयिता [ सर्वेषाम् एव ] सभी [ धर्माणाम् ] धर्मों (वस्तुके स्वभावों) के प्रति [ जुगुप्सां ] जुगुप्सा ( ग्लानि ) [ न करोति ] नहीं करता [ सः] उसको [ खलु ] निश्चयसे [ निर्विचिकित्सः ] निर्विचिकित्स (विचिकित्सादोषसे रहित ) [ सम्यग्दृष्टि: ] सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्य: ] जानना चाहिये ।
टीकाः-क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण सभी वस्तुधर्मोके प्रति जुगुप्साका अभाव होनेसे, निर्विचिकित्स ( जुगुप्सारहित-ग्लानिरहित है, इसलिये उसे विचिकित्साकृत बंध नहीं किन्तु निर्जरा ही है ।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टि वस्तुके धर्मोंके प्रति ( अर्थात् क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि भावोंके प्रति तथा विष्टा आदि मलिन द्रव्योंके प्रति ) जुगुप्सा नहीं करता ।
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निर्जरा अधिकार
३५५
जो हवदि असम्मूढो चेदा सद्दिट्ठि सव्वभावेसु। सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेदव्यो।। २३२ ।। यो भवति असम्मूढः चेतयिता सदृष्टि: सर्वभावेषु।
स खलु अमूढदृष्टि: सम्यग्दृष्टितिव्यः ।। २३२ ।। यतो हि सम्यग्दृष्टि: टङ्कोत्कीर्णेकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि भावेषु मोहाभावादमूढदृष्टिः, ततोऽस्य मूढदृष्टिकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जरैव।
यद्यपि उसके जुगुप्सा नामक कर्मप्रकृतिका उदय आता है तथापि वह स्वयं उसका कर्ता नहीं होता इसलिये उसे जुगुप्साकृत बंध नहीं होता, परंतु प्रकृति रस देकर खिर जाती है इसलिये निर्जरा ही होती है।
अब अमूढदृष्टि अंगकी गाथा कहते हैं:
संमूढ नहिं सब भावमें जो,-सत्यदृष्टि धारता। वो मूढ़दृष्टिरहित सम्यग्दृष्टि निश्चय जानना ।। २३२।।
गाथार्थ:- [य: चेतयिता] जो चेतयिता [ सर्वभावेषु ] सर्व भावोंमें [ असम्मूढः ] अमूढ़ है- [ सदृष्टि: ] यथार्थ दृष्टिवाला [ भवति] है, [ सः] उसको [ खलु ] निश्चयसे [अमूढदृष्टि: ] अमूढ़दृष्टि [ सम्यग्दृष्टि:] सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये।
टीका:-क्योंकि सम्यग्दृष्टि , टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण सभी भावोंमें मोहका अभाव होनेसे , अमूढदृष्टि है, इसलिये उसे मूढदृष्टिकृत बंध नहीं किन्तु निर्जरा ही है।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टि सर्व पदार्थोंके स्वरूपको यथार्थ जानता है; उसे रागद्वेषमोहका अभाव होनेसे किसी भी पदार्थ पर अयथार्थ दृष्टि नहीं पड़ती। चारित्रमोहके उदयसे इष्टानिष्ट भाव उत्पन्न हों तथापि उसे उदयकी बलवत्ता जानकर वह उन भावोंका स्वयं कर्ता नहीं होता इसलिये उसे मूढदृष्टिकृत बंध नहीं होता परंतु प्रकृति रस देकर खिर जाती है इसलिये निर्जरा ही होती है।
अब उपगूहन गुणकी गाथा कहते हैं:
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समयसार
३५६
जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगृहणगो दु सव्वधम्माणं। सो उवगूहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २३३ ।। यः सिद्धभक्तियुक्तः उपगूहनकस्तु सर्वधर्माणाम्। स उपगूहनकारी सम्यग्दृष्टितिव्यः ।। २३३ ।।
यतो हि सम्यग्दृष्टि: टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन समस्तात्मशक्तीनामुपबृंहणादुपबृंहकः, ततोऽस्य जीवशक्तिदौर्बल्यकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जरैव।
जो सिद्धभक्तिसहित है, गोपन करे सब धर्मका । चिन्मूर्ति वो उपगुहनकर सम्यक्तदृष्टि जानना ।। २३३ ।।
गाथार्थ:- [ यः] जो (चेतयिता) [ सिद्धभक्तियुक्त:] सिद्धोंकी शुद्धात्माकी भक्ति से युक्त है [ तु] और [ सर्वधर्माणाम् उपगूहनक:] पर वस्तुओंके सर्व धर्मोको गोपनेवाला है (अर्थात् रागादि परभावोंमें युक्त नहीं होता) [ सः] उसको [ उपगूहनकारी] उपगूहन करनेवाला [ सम्यग्दृष्टि:] सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्यः] जानना चाहिये।
टीका:-क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण समस्त आत्मशक्तियोंकी वृद्धि करता है, इसलिये उपबृंहक अर्थात् आत्मशक्ति बढ़ानेवाला है, इसलिये उस जीवकी शक्तिकी दुर्बलतासे ( मंदतासे ) होनेवाला बंध नहीं किन्तु निर्जरा ही है।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टि उपगृहनगुण युक्त है। उपगूहन अर्थ छिपाना है। यहाँ निश्चयनयको प्रधान करके कहा है कि सम्यग्दृष्टिने अपना उपयोग सिद्धभक्तिमें लगाया हुआ है, और जहाँ उपयोग सिद्धभक्तिमें लगाया वहाँ अन्य धर्मों पर दृष्टि ही नहीं रही इसलिये वह समस्त अन्य धर्मोंका गोपनेवाला है और आत्मशक्तिका बढ़नेवाला है।
इस गुणका दूसरा नाम ‘उपबृंहण' भी है। उपबृंहण अर्थ है बढ़ाना। सम्यग्दृष्टिने अपना उपयोग सिद्धोंके स्वरूपमें लगाया है इसलिये उसके समस्त शक्तियाँ बढ़ती हैं-आत्मा पुष्ट होता है इसलिये वह उपबृंहणगुणवाला है।
इसप्रकार सम्यग्दृष्टिके आत्मशक्तिकी वृद्धि होती है इसलिये उसे दुर्बलतासे जो बंध होता था वह नहीं होता, निर्जरा ही होती है। यद्यपि जबतक अंतरायका उदय है तबतक निर्बलता है तथापि उसके अभिप्रायमें निर्बलता नहीं है, किन्तु अपनी शक्तिके अनुसार कर्मोदयको जीतनेका महान उद्यम वर्तता है।
अब स्थितिकरण गुणकी गाथा कहते हैं:
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निर्जरा अधिकार
३५७
उम्मग्गं गच्छंतं सगं पि मग्गे ठवेदि जो चेदा। सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २३४ ।। उन्मार्ग गच्छन्तं स्वकमपि मार्गे स्थापयति यश्चेतयिता। स स्थितिकरणयुक्त: सम्यग्दृष्टितिव्यः ।। २३४ ।।
यतो हि सम्यग्दृष्टि: टङ्कोत्कीर्णंकज्ञायकभावमयत्वेन मार्गात्प्रच्युतस्यात्मनो मार्गे एव स्थितिकरणात् स्थितिकारी, ततोऽस्य मार्गच्यवनकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जरैव।
जो कुणदि वच्छलत्तं तिण्हं साहूण मोक्खमग्गम्हि। सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २३५ ।।
उन्मार्ग जाते स्वात्मको भी, मार्गमें जो स्थापता।
चिन्मूर्ति वो थितिकरणयुत, सम्यक्तदृष्टि जानना ।। २३४ ।। गाथार्थ:- [ यः चेतयिता] जो चेतयिता [ उन्मार्ग गच्छन्तं ] उन्मार्ग में जाते हुए [ स्वकम् अपि ] अपने आत्मा को भी [ मार्गे ] मार्गमें [ स्थापयति] स्थापित करता है, [सः ] वह [स्थितिकरणयुक्तः] स्थितिकरणयुक्त [स्थितिकरणगुण सहित] [ सम्यग्दृष्टि: ] सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये।
टीका:-क्योंकि सम्यग्दृष्टि , टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण, यदि अपना आत्मा मार्गसे ( सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्गसे) च्युत हो तो उसे मार्गमें ही स्थित कर देता है, इसलिये स्थितिकारी ( स्थिति करनेवाला) है, अतः उसे मार्गसे च्युत होने के कारण होने वाला बंध नहीं किन्तु निर्जरा ही है।
भावार्थ:-जो, अपने स्वरूपी मोक्षमार्गसे च्युत होते हुए अपने आत्माको मार्गमें ( मोक्षमार्गमें) स्थित करता है वह स्थितिकरणगुणयुक्त है। उसे मार्गसे च्युत होनेके कारण होनेवाला बंध नहीं होता किन्तु उदयागत कर्म रस देकर खिर जाते हैं इसलिये निर्जरा ही होती है। अब वात्सल्य गुणकी गाथा कहते हैं:
जो मोक्षमार्गमें 'साधु 'त्रयका वत्सलत्व करे अहा! चिन्मूर्ति वो वात्सल्ययुत सम्यक्तदृष्टी जानना ।। २३५ ।।
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समयसार
३५८
यः करोति वत्सलत्वं त्रयाणां साधूनां मोक्षमार्गे। स वत्सलभावयुतः सम्यग्दृष्टिातव्यः ।। २३५ ।।
यतो हि सम्यग्दृष्टि: टङ्कोत्कीर्णेकज्ञायकभावमयत्वेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां स्वस्मादभेदबुद्ध्या सम्यग्दर्शनान्मार्गवत्सलः, ततोऽस्य मार्गानुपलम्भकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जरैव।
विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा। सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो।। २३६ ।।
विद्यारथमारूढः मनोरथपथेषु भ्रमति यश्चेतयिता। स जिनज्ञानप्रभावी सम्यग्दृष्टिातव्यः ।। २३६ ।।
गाथार्थ:- [ यः] जो (चेतयिता) [ मोक्षमार्गे] मोक्षमार्गमें स्थित [त्रयाणां साधूनां] सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी तीन साधकों-साधनोंके प्रति (अथवा व्यवहारसे आचार्य, उपाध्याय और मुनि-इन तीनों साधुओंके प्रति] [ वत्सलत्वं करोति ] वात्सल्य करता है, [ सः] वह [वत्सलभावयुतः] वत्सलभावसेयुक्त [ सम्यग्दृष्टि: ] सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये।
टीका:-क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रको अपनेसे अभेदबुद्धिसे सम्यक्तया देखता (-अनुभवन करता) है, मार्गवत्सल अर्थात् मोक्षमार्गके प्रति अति प्रीतिवाला है, इसलिये उसे मार्गकी अनुपलब्धिसे होनेवाला बंध नहीं होता, किन्तु निर्जरा ही है।
भावार्थ:-वत्सलत्वका अर्थ प्रीतिभाव। जो जीव मोक्षमार्गरूपी अपने स्वरूपके प्रति प्रीतिवाला-अनुरागवाला हो उसे मार्गकी अप्राप्तिसे होनेवाला बंध नहीं होता, परन्तु कर्म रस देकर खिर जाते हैं इसलिये निर्जरा ही होती है। अब प्रभावना गुणकी गाथा कहते हैं:
चिन्मूर्ति मन-रथपंथमें विद्यारथारूढ़ घूमता। जिनराजज्ञानप्रभावकर सम्यक्तदृष्टी जानना ।। २३६ ।।
गाथार्थ:- [ यः चेतयिता] जो चेतयिता [ विद्यारथम् आरूढः ] विद्यारूपी रथ पर आरूढ़ हुआ ( –चढ़ा हुआ) [ मनोरथपथेषु ] मनरूपी रथके पथमें
* अनुपलब्धि = प्रत्यक्ष नहीं होना वह; अज्ञान; अप्राप्ति।
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निर्जरा अधिकार
३५९
यतो हि सम्यग्दृष्टिः, टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन ज्ञानस्य समस्तशक्तिप्रबोधेन प्रभावजननात्प्रभावनाकरः, ततोऽस्य ज्ञानप्रभावनाऽप्रकर्षकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जरैव।
(ज्ञानरूपी रथके चालनेके मार्गमें) [ भ्रमति ] भ्रमण करता है, [सः] वह [ जिनज्ञानप्रभावी] जिनेन्द्रभगवानके ज्ञानकी प्रभावना करनेवाला [सम्यग्दृष्टि:] सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये।
टीका:-क्योंकि सम्यग्दृष्टि , टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण ज्ञानकी समस्त शक्तिको प्रगट करने-विकसित-फैलनेके द्वारा प्रभाव उत्पन्न करता है इसलिये, प्रभावना करनेवाला है, अत: उसे ज्ञानकी प्रभावनाके अप्रकर्षसे (ज्ञानकी प्रभावना न बढ़ानेसे ) होनेवाला बंध नहीं किन्तु निर्जरा ही है।
भावार्थ:-प्रभावनाका अर्थ है प्रगट करना, उद्योत करना इत्यादि; इसलिये जो अपने ज्ञानको निरंतर अभ्याससे प्रगट करता है-बढ़ाता है, उसके प्रभावना अंग होता है। उसके अप्रभावनाकृत कर्मबंध नहीं होता, कर्म रस देकर खिर जाता है इसलिये उसके निर्जरा ही है।
इस गाथामें निश्चयप्रभावनाका स्वरूप कहा है। जैसे जिनबिंबको रथारूढ़ करके नगर, वन इत्यादिमें फिराकर व्यवहारप्रभावना की जाती है, इसीप्रकार जो विद्यारूपी (ज्ञानरूपी) रथमें आत्माको विराजमान करके मनरूपी (ज्ञानरूपी) मार्गमें भ्रमण करता है वह ज्ञानकी प्रभावनायुक्त सम्यग्दृष्टि है, वह निश्चयप्रभावना करनेवाला है।
इसप्रकार ऊपरकी गाथाओंमें यह कहा है कि सम्यग्दृष्टि ज्ञानीको निःशंकित आदि आठ गुण निर्जराके कारण हैं। इसीप्रकार सम्यक्त्वके अन्य गुण भी निर्जराके कारण जानना चाहिये।
इस ग्रंथमें निश्चयनयप्रधान कथन होनेसे यहाँ निःशंकितादि गुणोंका निश्चय स्वरूप (स्व-आश्रित स्वरूप) बताया गया है। उसका सारांश इसप्रकार है-जो सम्यग्दृष्टि आत्मा अपने ज्ञान-श्रद्धानमें निःशंक हो, भयके निमित्तसे स्वरूपसे चलित न हो अथवा संदेहयुक्त न हो, उसके निःशंकितगुण होता है। १। जो कर्मफलकी वांछा न करे तथा अन्य वस्तुके धर्मों के प्रति वांछा न करे, उसके निःकांक्षित गुण होता है। २। जो वस्तुके धर्मों के प्रति ग्लानि न करे, उसके निर्विचिकित्सा गुण होता है। ३। जो स्वरूपमें मूढ़ न हो, स्वरूपको यथार्थ जाने, उसके अमूढदृष्टि गुण होते हैं। ४। जो आत्माको शुद्धस्वरूपमें युक्त करे, आत्माकी शक्ति बढ़ाये, और अन्य धर्मोको गौण करे, उसके उपगूहन गुण होता है। ५। जो स्वरूपसे च्युत होते हुए आत्माको स्वरूपमें स्थापित करे, उसके स्थितिकरण गुण होता है। ६।
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समयसार
३६०
जो अपने स्वरूपके प्रति विशेष अनुराग रखता है, उसके वात्सल्य गुण होता है। ७। जो आत्माके ज्ञानगुणको प्रकाशित कर-प्रगट करे, उसके प्रभावना गुण होता है। ८।
ये सभी गुण उनके प्रतिपक्षी दोषों द्वारा जो कर्मबंध होता था उसे नहीं होने देते। और इन गुणोंके सद्भावमें, चारित्रमोहके उदयरूप शंकादि प्रवर्ते तो भी उनकी (-शंकादिकी) निर्जरा ही हो जाती है, नवीन बंध नहीं होता; क्योंकि बंध तो प्रधानतासे मिथ्यात्वके अस्तित्वमें ही कहा है।
सिद्धांतमें गुणस्थानोंकी परिपाटीमें चारित्रमोहके उदयनिमित्तसे सम्यग्दृष्टिके जो बंध कहा है वह भी निर्जरारूप ही (-निर्जरा समान ही) समझना क्योंकि सम्यग्दृष्टिके जैसे पूर्वमें मिथ्यात्वके उदयके समय बंधा कर्म खिर जाता है उसीप्रकार नवीन बंधा हुआ कर्म भी खिर जाता है; उसके उस कर्मके स्वामित्वका अभाव होनेसे वह आगामी बंधरूप नहीं किन्तु निर्जरारूप ही है। जैसे-कोई पुरुष दूसरेका द्रव्य उधार लाया हो तो उसमें उसे ममत्वबुद्धि नहीं होती, वर्तमानमें उस द्रव्यसे कुछ कार्य कर लेना हो तो वह करके पूर्व निश्चयानुसार नियत समय पर उसके मालिक को दे देता है; नियत समयके आने तक वह द्रव्य उसके घर में पड़ा रहे तो भी उसके प्रति ममत्व नहीं होने से उस पुरुषको उस द्रव्यका बंधन नहीं है, वह उसके स्वामीको दे देनेके बराबर ही है; इसीप्रकार-ज्ञानी कर्मद्रव्यको पराया मानता है इसलिये उसे उसके प्रति ममत्व नहीं होता अतः उसके रहते हुए भी वह निर्जरित हुए के समान ही है ऐसा जानना चाहिये।
अब निःशंकितादि आठ गुण व्यवहारनयसे व्यवहारमोक्षमार्गमें इसप्रकार लगाना चाहिये:-जिनवचनोंमें संदेह न करना, भयके आनेपर व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे नहीं डिगना, सो निःशंकितत्व है। १। संसार-देह-भोगकी वांछासे तथा परमतकी वांछासे व्यवहारमोक्षमार्गसे चलायमान नहीं होना सो निष्कांक्षितत्व। २। अपवित्र, दुर्गंधित आदि वस्तुओंके निमित्तसे व्यवहारमोक्षमार्गकी प्रवृत्तिके प्रति ग्लानि न करना सो निर्विचिकित्सा है। ३। देव, गुरु, शास्त्र , लौकिक प्रवृत्ति , अन्यमतादिके तत्त्वार्थकें स्वरूप-इत्यादिमें मूढ़ता न रखना, यथार्थ जानकर प्रवृत्ति करना सो अमूढ़दृष्टि है। ४। धर्मात्मामें कर्मोदयसे दोष आ जाये तो उसे गौण करना और व्यवहारमोक्षमार्गकी प्रवृत्तिको बढ़ाना सो उपगूहन अथवा उपबृंहण है। ५। व्यवहारमोक्षमार्गसे च्युत होते हुए आत्माको स्थिर करना सो स्थितिकरण है। ६। व्यवहारमोक्षमार्गमें प्रवृत्ति करनेवाले पर विशेष अनुराग होना सो वात्सल्य है। ७। व्यवहारमोक्षमार्गका अनेक उपायोंसे उद्योत करना सो प्रभावना है। ८। इसप्रकार आठ गुणोंका स्वरूप व्यवहारनयको प्रधान करके कहा है। यहाँ निश्चयप्रधान कथनमें उस व्यवहारस्वरूपकी गौणता है। सम्यग्ज्ञानरूप प्रमाणदृष्टिमें दोनों प्रधान हैं। स्याद्वादमतमें कोई विरोध नहीं है।
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निर्जरा अधिकार
(मन्दाक्रान्ता) रुन्धन बन्धं नवमिति निजैः सङ्गतोऽष्टाभिरङ्गैः प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन् निर्जरोज्जृम्भणेन। सम्यग्दृष्टि: स्वयमतिरसादादिमध्यान्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा नटति गगनाभोगरज विगाह्य ।। १६२ ।।
अब, निर्जराके यथार्थ स्वरूपको जानने वाले और कर्मोंके नवीन बंधको रोककर निर्जरा करनेवाले जो सम्यग्दृष्टिकी महिमा करके निर्जरा अधिकार पूर्ण करते हैं:
श्लोकार्थ:- [इति नवम् बन्धं रुन्धन् ] इसप्रकार नवीन बंधको रोकता हुआ और [ निजैः अष्टाभिः अङ्गैः सङ्गतः निर्जरा-उज्जृम्भणेन प्रारबद्धं तु क्षयम् उपनयन्] ( स्वयं) अपने आठ अंगोंसे युक्त होने के कारण निर्जरा प्रगट होनेसे पूर्वबद्ध कर्मोका नाश करता हुआ [ सम्यग्दृष्टि:] सम्यग्दृष्टि जीव [ स्वयम् ] स्वयं [अतिरसात् ] अति रससे ( निजरसमें मस्त हुआ) [ आदि-मध्य-अन्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा ] आदि-मध्य-अंत रहित (सर्वव्यापक, एकप्रवाहरूप धारावाही) ज्ञानरूप होकर [गगन-आभोग-रङ्गं विगाह्य ] आकाशके विस्ताररूपी रंगभूमिमें अवगाहन करके (ज्ञानके द्वारा समस्त गगनमंडलमें व्याप्त होकर) [ नटति ] नृत्य करता है।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टिको शंकादिकृत नवीन बंध नहीं होता और स्वयं अष्टांगयुक्त होनेसे निर्जराका उदय होनेके कारण उसके पूर्वमें बंधका नाश होता है। इसलिये वह धारावाही ज्ञानरूपी रसका पान करके, निर्मल आकाशरूपी रंगभूमिमें ऐसे नृत्य करता है जैसे कोई पुरुष मद्य पीकर मग्न हुआ नृत्यभूमि में नाचता है।
प्रश्न:- आप यह कह चुके हैं कि सम्यग्दृष्टिके निर्जरा होती है, बंध नहीं होता किन्तु सिद्धांतमें गुणस्थानोंकी परिपाटीमें अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादिके बंध कहा गया है। और घातीकर्मोंका कार्य आत्माके गुणोंका घात करना है इसलिये दर्शन, ज्ञान, सुख , वीर्य-इन गुणोंका घात भी विघमान है। चारित्रमोहका उदय नवीन बंध भी करता है। यदि मोहके उदयमें भी बंध न माना जाये तो यह भी क्यों नहीं मान लिया जाये कि मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वअनंतानुबंधीका उदय होने पर भी बंध नहीं होता ?
समाधान:- बंधके होनेमें मुख्य कारण मिथ्यात्व-अनंतानुबंधीका उदय ही है; और सम्यग्दृष्टिके तो उनके उदयका अभाव है। चारित्रमोहके उदयसे यद्यपि सुखगुणका घात होता है तथा मिथ्यात्वअनंतानुबंधीके अतिरिक्त और उनके साथ रहनेवाली अन्य प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष घातिकर्मोंकी प्रकृतियोंका अल्प स्थितिअनुभागवाला बंध तथा शेष अघातिकर्मोंकी प्रकृतियोंका बंध होता है, तथापि जैसे मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी सहित होता है वैसा नहीं होता। अनंत संसारका कारण तो
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समयसार
३६२
इति निर्जरा निष्क्रान्ता।
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां निर्जराप्ररूपकः षष्ठोऽङ्कः।।
समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ
मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी ही है; उनका अभाव हो जाने पर फिर उसका बंध नहीं होता; और जहाँ आत्मा ज्ञानी हुआ वहाँ अन्य बंधकी गणना कौन करता है ? वृक्षकी जड़ कट जानेपर फिर हरे पत्ते रहने की अवधि कितनी होती है ? इसलिये इस अध्यात्मशास्त्रमें सामान्यतया ज्ञानी-अज्ञानी होने के सम्बन्धमें ही प्रधान कथन है। ज्ञानी होनेके बाद जो कुछ कर्म रहे हों वे सहज ही मिटते जायेंगे। निम्नलिखित दृष्टांतके अनुसार ज्ञानीके संबन्धमें समझ लेना चाहिये। कोई पुरुष दरिद्रताके कारण एक
पडेमें रहता था। भाग्योदयसे उसे धन-धान्यसे परिपर्ण बडे महलकी प्राप्ति हो गई इसलिये वह उसमें रहने को गया। यद्यपि उस महलमें बहुत दिनों का कूड़ा कचरा भरा हुआ था तथापि जिस दिन उसने आकर महलमें प्रवेश किया उस दिनसे ही वह उस महलका स्वामी हो गया, संपत्तिवान हो गया। अब वह कूड़ा कचरा साफ करना है सो वह क्रमशः अपनी शक्तिके अनुसार साफ करता है। जब सारा कचरा साफ हो जायेगा और महल उज्ज्वल हो जायेगा तब वह परमानंदको भोगेगा। इसीप्रकार ज्ञानीके संबन्धमें समझना चाहिये। १६२।
टीका:-इसप्रकार निर्जरा ( रंगभूमिमेंसे ) बाहर निकल गई।
भावार्थ:-इसप्रकार, जिसने रंगभूमिमें प्रवेश किया था वह निर्जरा अपना स्वरूप प्रगट बताकर बाहर निकल गई।
( सवैया) सम्यकवंत महंत सदा समभाव रहै दुःख संकट आये, कर्म नवीन बंधै न तबै अर पूरव बंध झडै बिन भाये; पूरण अंग सुदर्शनरूप धरै नित ज्ञान बढ़े निज पाये,
यों शिवमारग साधि निरंतर आनंदरूप निजातम थाये। इसप्रकार श्री समयसारकी ( श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें निर्जराका प्ररूपक छठवाँ अंक समाप्त हुआ।
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-७
बंध अधिकार
卐
ज
अथ प्रविशति बन्धः।
( शार्दूलविक्रीडित) रागोद्गारमहारसेन सकलं कृत्वा प्रमत्तं जगत् क्रीडन्तं रसभावनिर्भरमहानाट्येन बन्धं धुनत्। आनन्दामृतनित्यभोजि सहजावस्थां स्फुटं नाटयद् धीरोदारमनाकुलं निरुपधि ज्ञानं समुन्मज्जति।।१६३ ।।
---००० दोहा ०००---
रागादिकतें कर्मकौ , बंध जानि मुनिराय,
तजै तिनहिं समभाव करि, नमुँ सदा तिन पाँय।। प्रथम टीकाकार कहते हैं कि 'अब बंध प्रवेश करता है। जैसे नृत्यमंच पर स्वाँग प्रवेश करता है उसीप्रकार रंगभूमिमें बंधतत्त्वका स्वाँग प्रवेश करता है।
उसमें प्रथम ही, सर्व तत्त्वोंको यथार्थ जाननेवाला सम्यग्ज्ञान बंधको दूर करता हुआ प्रगट होता है, इस अर्थका मंगलरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ राग-उद्गार-महारसेन सकलं जगत् प्रमत्तं कृत्वा] जो (बंध) रागके उदयरूपी महा रस (मदिरा) के द्वारा समस्त जगतको प्रमत्त (-मतवाला) करके, [ रस-भाव-निर्भर-महा-नाट्येन क्रीडन्तं बन्धं] रसके भावसे (अर्थात् रागरूपी मतवालेपनसे) भरे हुए महा नृत्य के द्वारा खेल ( नाच) रहा है ऐसे बन्धको [धुनत् ] उड़ाता-दूर करता हुआ, [ ज्ञानं] ज्ञान [ समुन्मज्जति] उदयको प्राप्त होता है। वह ज्ञान [आनन्द-अमृत-नित्य-भोजि] आनंदरूपी अमृतका नित्य भोजन करनेवाला है, [ सहज-अवस्थां स्फुटं नाटयत् ] अपनी ज्ञातृक्रियारूप सहज अवस्थाको प्रगट नचा रहा है, [धीर-उदारम् ] धीर है, उदार ( अर्थात् महान विस्तारवाला, निश्चल है) है, [अनाकुलं] अनाकुल है ( अर्थात् जिसमें किंचित भी आकुलताका कारण नहीं है), [ निरुपधि] उपाधि रहित (अर्थात् परिग्रह रहित या जिसमें कोई परद्रव्य संबंधी ग्रहण-त्याग नहीं है ऐसा) है।
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समयसार
३६४
जह णाम को वि पुरिसो णेहब्भत्तो दु रेणुबहुलम्मि। ठाणम्मि ठाइदूण य करेदि सत्थेहिं वायाम।। २३७ ।। छिंददि भिंददि य तदा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ। सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ।। २३८ ।। उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं। णिच्छयदो चिंतेज्ज हु किंपच्चयगो दु रयबंधो।। २३९ ।। जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं।। २४० ।। एवं मिच्छादिट्ठी वर्सेतो बहुविहासु चिट्ठासु। रागादी उवओगे कुव्वंतो लिप्पदि रएण।। २४१ ।।
भावार्थ:-बंधतत्त्वने 'रंगभूमिमें' प्रवेश किया है, उसे दूर करके जो ज्ञान स्वयं प्रगट होकर नृत्य करेगा उस ज्ञानकी महिमा इस काव्यमें प्रगट की गई है। ऐसा अनंत ज्ञानस्वरूप आत्मा सदा प्रगट रहो। १६३ ।
अब बंधतत्त्वके स्वरूपका विचार करते हैं; उसमें पहले, बंधके कारणको स्पष्टतया बतलाते हैं:
जिस रीत कोई पुरुष मर्दन आप करके तेलका । व्यायाम करता शस्त्रसे, बहु रजभरे स्थानक खड़ा ।। २३७ ।। अरू ताड़, कदली, बांस आदिक छिन्नभिन्न बहू करे । उपघात आप सचित्त अवरू अचित्त द्रव्योंका करे ।। २३८ ।। बहु भाँतिके करणादिसे उपघात करते उसहिको। निश्चयपने चिंतन करो, रजबंध है किन कारणों ? ।।२३९ ।। यों जानना निश्चयपने-चिकनाई जो उस नर विडें । रजबंधकारण वो हि है, नहिं कायचेष्टा शेष है ।। २४०।। चेष्टा विविधमें वर्तता, इस भाँति मिथ्यादृष्टि जो।। उपयोगमें रागादि करता, रजहिसे लेपाय वो । २४१ ।
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बंध अधिकार
३६५
यथा नाम कोऽपि पुरुषः स्नेहाभ्यक्तस्तु रेणुबहुले। स्थाने स्थित्वा च करोति शस्त्रैर्व्यायामम्।। २३७ ।। छिनत्ति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंशपिण्डीः । सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपघातम्।। २३८ ।। उपघातं कुर्वतस्तस्य नानाविधैः करणैः। निश्चयतश्चिन्त्यतां खलु किम्प्रत्ययिकस्तु रजोबन्धः।। २३९ ।। यः स तु स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबन्धः। निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः ।। २४० ।। एवं मिथ्यादृष्टिवर्तमानो बहुविधासु चेष्टासु। रागादीनुपयोगे कुर्वाणो लिप्यते रजसा।। २४१ ।।
इह खलु यथा कश्चित् पुरुष: स्नेहाभ्यक्तः, स्वभावत एव रजोबहुलायां भूमौ स्थितः, शस्त्रव्यायामकर्म कुर्वाणः, अनेकप्रकारकरणैः सचित्ताचित्तवस्तूनि निनन्,
गाथार्थ:- [ यथा नाम ] जैसे- [क: अपि पुरुषः ] कोई पुरुष [ स्नेहाभ्यक्तः तु] ( अपने शरीर में) तेल आदि स्निग्ध पदार्थ लगाकर [च] और [ रेणुबहुले ] बहुतसी धूलीवाले [स्थाने] स्थानमें [स्थित्वा] रहकर [शस्त्रैः] शस्त्रोंके द्वारा [ व्यायामम् करोति ] व्यायाम करता है , [तथा ] तथा [ तालीतलकदलीवंशपिण्डी: ] ताड़, तमाल , केल , बाँस , अशोक इत्यादि वृक्षोंको [ छिनत्ति ] छेदता है, [भिनत्ति च] भेदता है, [ सचित्ताचित्तानां] सचित्त तथा अचित्त [द्रव्याणाम् ] द्रव्योंका [ उपघातम् ] उपघात (नाश) [ करोति ] करता है; [ नानाविधैः करणैः ] इसप्रकार नाना प्रकारके करणोंके द्वारा [ उपघातं कुर्वतः] उपघात करते हुए [ तस्य] उस पुरुषके [ रजोबन्धः तु] धूलिका बंध (चिकपना) [ खलु ] वास्तवमें [ किम्प्रत्ययिक:] किस कारणसे होता है [ निश्चयतः ] यह निश्चयसे [ चिन्त्यताम् ] विचार करो। [तस्मिन् नरे] उस पुरुषमें [ यः सः स्नेहभावः तु] जो वह तेल आदिकी चिकनाहट है [ तेन ] उससे [ तस्य] उसे [ रजोबन्धः ] धूलिका बंध होता है (-चिपकती है) [ निश्चयतः विज्ञेयं] ऐसा निश्चयसे जानना चाहिये, [शेषाभिः कायचेष्टाभिः ] शेष शारीरिक चेष्टाओंसे [न] नहीं होता। [ एवं ] इसीप्रकार- [ बहुविधासु चेष्टासु ] बहुत प्रकारकी चेष्टाओंमें [ वर्तमानः ] वर्तता हुआ [ मिथ्यादृष्टि:] मिथ्यादृष्टि [ उपयोगे] (अपने) उपयोगमें [रागादीन् कुर्वाणः] रागादि भावोंको करता हुआ [ रजसा] कर्मरूपी रजसे [लिप्यते] लिप्त होता है-बँधता है।
टीका:-जैसे--इस जगतमें वास्तवमें कोई पुरुष स्नेह ( – तेल आदि चिकने पदार्थ) से मर्दनयुक्त हुआ, स्वभावतः ही बहुतसी धूलिमय भूमिमें रहा हुआ , शस्त्रोंके व्यायामरूपी कर्म ( क्रिया) को करता हुआ , अनेक प्रकारके करणोंके द्वारा सचित्त तथा अचित्त वस्तुओंका घात करता हुआ ,
या या
का
27D
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समयसार
३६६
रजसा बध्यते। तस्य कतमो बन्धहेतु: ? न तावत्स्वभावत एव रजोबहुला भूमिः, स्नेहानभ्यक्तानामपि तत्रस्थानां तत्प्रसङ्गात्। न शस्त्रव्यायामकर्म, स्नेहानभ्यक्तानामपि तस्मात् तत्प्रसङ्गात्। नानेकप्रकारकरणानि, स्नेहानभ्यक्तानामपि तैस्तत्प्रसङ्गात्। न सचित्ताचित्तवस्तूपघातः, स्नेहानभ्यक्तानामपि तस्मिस्तत्प्रङ्गात्। ततो न्यायबलेनैवैतदायातं, यत्तस्मिन् पुरुषे स्नेहाभ्यङ्गकरणं स बन्धहेतुः। एवं मिथ्यादृष्टि: आत्मनि रागादीन् कुर्वाणः, स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणः, अनेकप्रकारकरणैः सचित्ताचित्तवस्तूनि, निनन्, कर्मरजसा बध्यते। तस्य कतमो बन्धहेतुः ? न तावत्स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुलो लोकः, सिद्धानामपि तत्रस्थानां तत्प्रसङ्गात्।
( उस भूमिकी) धूलिसे बद्ध होता है-लिप्त होता है। ( यहाँ विचार करो कि) उसमेंसे उस पुरुषके बंधका कारण कौन है ? पहले जो, स्वभावसे ही बहुत सी धूलिसे भरी हुई भूमि है वह धूलिबंधका कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो जिन्होंने तेलादिका मर्दन नहीं किया है ऐसे उस भूमिमें रहे हुई पुरुषों को भी धूलिबंधकाप्रसंग आ जाएगा। शस्त्रोंका व्यायामरूपी कर्म भी धूलिबंधका कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो जिन्होंने तेल आदिका मर्दन नहीं किया है उनके भी शस्त्र व्यायामरूपी क्रियाके करने से धूलिबंधका प्रसंग आ जाएगा। अनेक प्रकारके करण भी धूलिबंधके कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो जिन्होंने तैलादिका मर्दन नहीं किया है उनके भी अनेक प्रकारके करणोंसे धूलिबंधका प्रसंग आ जाएगा। सचित्त तथा अचित्त वस्तुओंका घात भी धूलिबंधका कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो जिन्होंने तैलादिका मर्दन नहीं किया है उन्हें भी सचित्त तथा अचित्त वस्तुओंका घात करनेसे धूलिबंधका प्रसंग आ जाएगा।
इसलिये न्यायके बलसे ही यह फलित (-सिद्ध) हआ कि, उस पुरुषमें तैलका मर्दन करना बंधका कारण है। इसीप्रकार-मिथ्यादृष्टि अपनेमें रागादिक रागादिक करता हुआ, स्वभावसे ही जो बहुतसे कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरा हुआ है ऐसे लोकमें काय-वचन-मनका कर्म ( क्रिया) करता हुआ , अनेक प्रकारके करणोंके द्वारा सचित्त तथा अचित्त वस्तुओंका घात करता हुआ, कर्मरूपी रजसे बँधता है। ( यहाँ विचार करो कि) इनमेंसे उस पुरुषके बंधका कारण कौन है ? प्रथम, स्वभावसे जो बहुतसे कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरा हुआ है ऐसा लोक बंधका कारण नहीं है; क्योंकि ऐसा हो तो सिद्धों को भी -जो कि लोकमें रह रहे हैं उनके भी बंधका प्रसंग आ जाएगा।
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बंध अधिकार
३६७
न कायवाङ्मनःकर्म, यथाख्यातसंयतानामपि तत्प्रसङ्गात्। नानेकप्रकारकरणानि, केवलज्ञानिनामपि तत्प्रसङ्गात्।न सचित्ताचित्तवस्तूपघातः, समितितत्पराणामपि तत्प्रसङ्गात्। ततो न्यायबलेनैवैतदायातं, यदुपयोगे रागादिकरणं स बन्धहेतुः।
काय-वचन-मनका कर्म (अर्थात् काय-वचन-मनकी क्रियास्वरूप योग) भी बंधका कारण नही है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो यथाख्यात-संयमियोंके भी ( काय-वचनमनकी क्रिया होनेसे) बंधका प्रसंग आ जाएगा। अनेक प्रकारके *करण भी बंधके कारण नहीं हैं; क्योंकि यदि ऐसा हो तो केवलज्ञानियों के भी ( उस करणोंसे) बंधका प्रसंग आ जाएगा। सचित्त तथा अचित्त वस्तओंका घात भी बंधका कारण नहीं है: क्योंकि यदि ऐसा हो तो जो समितिमें तत्पर हैं उनके ( अर्थात् जो यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं ऐसे साधुओंके) भी ( सचित्त तथा अचित्त वस्तुओंके घातसे ) बंधका प्रसंग आ जाएगा। इसलिये न्यायबलसे ही यह फलित हुआ कि, उपयोगमें रागादिकरण (अर्थात् उपयोगमें रागादिकका करना), बंधका कारण है।
भावार्थ:-यहाँ निश्चयनयको प्रधान करके कथन है। जहाँ निर्बाध हेतुसे सिद्धि होती है वही निश्चय है। बंधका कारण विचार करने पर निर्बाधतया यही सिद्ध हुआ कि-मिथ्यादृष्टि पुरुष जिन रागद्वेषमोहभावोंको अपने उपयोगमें करता है वे रागादिक ही बंधके कारण हैं। उनके अतिरिक्त अन्य-बहु कर्मयोग्य पुद्गलोंसे परिपूर्ण लोक, मन-वचन-कायके योग, अनेक करण तथा चेतन-अचेतनका घात-बंधके कारण नहीं हैं; यदि उनसे बंध होता हो तो सिद्धोंके, यथाख्यात चारित्रवानोंके, केवलज्ञानियों के और समितिरूप प्रवृति करनेवाले मुनियोंके बंधका प्रसंग आ जाएगा। परंतु उनके तो बंध होता नहीं है। इसलिये इन हेतुओंमें (-कारणोंमें) व्यभिचार ( दोष) आया। इसलिये यह निश्चय है कि बंधका कारण रागादिक ही हैं।
यहाँ समितिरूप प्रवृत्ति करनेवाले मुनियोंका नाम लिया गया है और अविरत, देशविरतका नाम नहीं लिया इसका कारण यह है कि-अविरत तथा देशविरतके बाह्यसमितिरूप प्रवृत्ति नहीं होती इसलिये चारित्रमोह संबंधी रागसे किंचित् बंध होता है; इसलिये सर्वथा बंधके अभावकी अपेक्षामें उनका नाम नहीं लिया। वैसे अंतरंगकी अपेक्षासे तो उन्हें भी निबंध ही जानना चाहिए।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
करणों ---इन्द्रियाँ
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समयसार
३६८
( पृथ्वी ) न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा न नैककरणानि वा न चिदचिद्वधो बन्धकृत्। यदैक्यमुपयोगभूः समुपयाति रागादिभिः स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुर्नृणाम्।।१६४ ।।
जह पुण सो चेव णरो णेहे सव्वम्हि अवणिदे संते रेणुबहुलम्मि ठाणे करेदि सत्थेहिं वायाम।। २४२ ।। छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ। सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं।। २४३ ।।
श्लोकार्थ:- [ बन्धकृत् ] कर्मबंधको करनेवाला कारण , [ न कर्मबहुलं जगत् ] न तो बहु कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरा हुआ लोक है, [न चलनात्मकं कर्म वा] न चलनस्वरूप कर्म (अर्थात् मन-वचन-कायकी क्रियारूप योग) है, [न नैककरणानि] न अनेक प्रकारके करण हैं [ वा न चिद्-अचिद्-वधः ] और न चेतनअचेतनका घात है। किन्तु [ उपयोगभूः रागादिभिः यद्-ऐक्यम् समुपयाति ] ‘उपयोगभू' अर्थात् आत्मा रागादिके साथ जो एक्यको प्राप्त होता है [ सः एव केवलं] वही एकमात्र ( –मात्र रागादिकके साथ एकत्व प्राप्त करना वही-) [ किल] वास्तवमें [ नृणाम् बन्धहेतुः भवति ] पुरुषों के बंधकारण हैं।
भावार्थ:-यहाँ निश्चयनयसे एकमात्र रागादिको ही बंधका कारण कहा है। १६४।
सम्यग्दृष्टि उपयोगमें रागादि नहीं करता, उपयोगका और रागादिका भेद जानकर रागादिका स्वामी नहीं होता, इसलिये उसे पूर्वोक्त चेष्टासे बंध नहीं होता यह कहते हैं:
जिस रीत फिर वो ही पुरुष, उस तैल सबको दूर कर । व्यायाम करत शस्त्रसे बहु रजभरे स्थानक ठहर ।। २४२।। अरु ताड़, कदली, बाँस आदिक, छिन्नभिन्न बहु करे । उपघात आप सचित्त अवरु, अचित्त द्रव्योंका करे ।। २४३।।
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बंध अधिकार
३६९
उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं। णिच्छयदो चिंतेज्ज हु किंपच्चयगो ण रयबंधो।। २४४ ।। जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्टाहिं सेसाहिं।। २४५ ।। एवं सम्मादिट्ठी वर्सेतो बहुविहेसु जोगेसु। अकरंतो उवओगे रागादी ण लिप्पदि रएण।। २४६ ।।
यथा पुनः स चैव नरः स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति। रेणुबहुले स्थाने करोति शस्त्रैर्व्यायामम्।। २४२ ।। छिनत्ति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंशपिण्डीः। सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपघातम्।। २४३ ।। उपघातं कुर्वतस्तस्य नानाविधैः करणैः। निश्चयतश्चिन्त्यतां खलु किम्प्रत्ययिको न रजोबन्धः।। २४४ ।। यः स तु स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबन्धः। निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः ।। २४५ ।। एवं सम्यग्दृष्टिवर्तमानो बहुविधेषु योगेषु। अकुर्वन्नुपयोगे रागादीन् न लिप्यते रजसा।। २४६ ।।
बहु भाँतिके करणोदिसे, उपघात करते उसहि को। निश्चयपने-चिंतन करो, रजबंध नहिं किन कारणों ।। २४४।। यों जानना निश्चयपने-चिकनाइ जो उस नर विषै । रजबंधकारण वो हि है, नहिं कायचेष्टा शेष है ।। २४५।। योगों विविधमें वर्तता, इस भाँति सम्यग्दृष्टि जो। उपयोगमें रागादि न करे, रजहि नहिं लेपाय वो ।। २४६ ।।
गाथार्थ:- [यथा पुनः] और जैसे- [सः च एव नरः] वही पुरुष, [ सर्वस्मिन् स्नेहे] समस्त तेल आदि स्निग्ध पदार्थको [अपनीते सति ] दूर किये जाने पर, [ रेणबहुले ] बहु धूलीवाले [ स्थाने ] स्थानमें [ शस्त्रैः] शस्त्रों के द्वारा व्यायामम् करोति ] व्यायाम करता है, [ तथा ] और [ तालीतलकदलीवंशपिण्डी: ] ताड़, तमाल, केल , बाँस और अशोक आदि वृक्षोंको [ छिनत्ति ] छेदता है, [ भिनत्ति च ] और भेदता है, [ सचित्ताचित्तानां] सचित्त तथा अचित्त [ द्रव्याणाम् ] द्रव्योंका [ उपघातम् ] उपघात [ करोति ] करता है; [ नानाविधैः करणैः ] ऐसे नाना प्रकारके करणोंके द्वारा [ उपघातं कुर्वतः ] उपघात करते हुए [ तस्य ] उस पुरुषको
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समयसार
३७०
यथा स एव पुरुषः, स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति, तस्यामेव स्वभावत एव रजोबहुलायां भूमौ तदेव शस्त्रव्यायामकर्म कुर्वाणः, तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन्, रजसा न बध्यते, स्नेहाभ्यङ्गस्य बन्धहेतोरभावात्; तथा सम्यग्दृष्टिः, आत्मनि रागादीनकुर्वाण: सन्, तस्मिन्नेव स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके तदेव कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणः, तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन्, कर्मरजसा न बध्यते, रागयोगस्य बन्धहेतोरभावात्।
[ रजोबन्धः] धूलिका बंध [ खलु ] वास्तवमें [ किम्प्रत्ययिक:] किस कारणसे [न] नहीं होता [ निश्चयतः] यह निश्चयसे [ चिन्त्यताम् ] विचार करो। [तस्मिन् नरे] उस पुरुषमें [ यः सः स्नेहभावः तु] जो वह तेल आदिकी चिकनाई है [ तेन] उससे [ तस्य] उसके [ रजोबन्धः] धूलिका बंध होना [ निश्चयतः विज्ञेयं] निश्चयसे जानना चाहिए, [शेषाभिः कायचेष्टाभिः] शेष कायाकी चेष्टाओंसे [न] नहीं होता। (इसलिये उस पुरुषमें तेल आदि की चिकनाहटका अभाव होनेसे ही धूलि इत्यादि नहीं चिपकती।] [ एवं ] इसप्रकार- [बहुविधेषु योगेषु ] बहुत प्रकारके योगोंमें [ वर्तमानः ] वर्तता हुआ [ सम्यग्दृष्टि:] सम्यग्दृष्टि [ उपयोगे] उपयोगमें [ रागादीन् अकुर्वन् ] रागादिको न करता हुआ [ रजसा ] कर्मरजसे [ न लिप्यते ] लिप्त नहीं होता।
टीका:-जैसे वही पुरुष, सम्पूर्ण चिकनाहटको दूर कर देने पर, उसी स्वभावसे ही अत्यधिक धूलिसे भरी हुई भूमिमें वही शस्त्रव्यायामरूपी कर्मको ( क्रिया) करता हुआ, उन्हीं अनेक प्रकारके करणोंके द्वारा उन्हीं सचित्त-अचित्त वस्तुओंका घात करता हुआ, धूलिसे लिप्त नहीं होता, क्योंकि उसके धूलके लिप्त होनेका कारण जो तेलादिका मर्दन है उसका अभाव है; इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि, अपनेमें, रागादिको नहीं करता हुआ, उसी स्वभावसे बहु कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरे हुए लोकमें वही मनवचन-कायकी क्रिया करता हुआ, उन्हीं अनेक प्रकारके करणोंके द्वारा उन्हीं सचित्ताचित्त वस्तुओंका घात करता हुआ, कर्मरूपी रजसे नहीं बँधता, क्योंकि बंधके कारणभूत रागके योगका (-रागमें जुड़नेका) अभाव है।
भावार्थ:-सम्यग्दृष्टिके पूर्वोक्त सर्व संबंध होने पर भी रागके संबंधका अभाव होनेसे कर्मबंध नहीं होता। इसके समर्थनमें पहले कहा जा चुका है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
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बंध अधिकार
३७१
( शार्दूलविक्रीडित) लोकः कर्मततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्दात्मकं कर्म तत् तान्यस्मिन्करणानि सन्तु चिदचिद्व्यापादनं चास्तु तत्। रागादीनुपयोगभूमिमनयन् ज्ञानं भवन्केवलं बन्धं नैव कुतोऽप्युपैत्ययमहो सम्यग्दृगात्मा ध्रुवम्।। १६५ ।।
(पृथ्वी) तथापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनां तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापृतिः। अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च।। १६६ ।।
श्लोकार्थ:- [ कर्मततः लोकः सः अस्तु] इसलिये, वह (पूर्वोक्त) बहु कर्मोंसे (कर्मयोग्य पुद्गलोंसे) भरा हुआ लोक है सो भले रहो, [परिस्पन्दात्मकं कर्म तत् च अस्तु] वह मन-वचन-कायाका चलनस्वरूप कर्म (योग) है सो भी भले रहो, [ तानि करणानि अस्मिन् सन्तु] वे (पूर्वोक्त) करण भी उसके भले रहें [च ] और [ तत् चिद्-अचिद्-व्यापादनं अस्तु] वह चेतन-अचेतनका घात भी भले हो, परंतु [अहो] अहो! [ अयम् सम्यग्दृग्-आत्मा] यह सम्यग्दृष्टि आत्मा, [रागादीन् उपयोगभूमिम् अनयन् ] रागादिको उपयोगभूमिमें न लाता हुआ, [ केवलं ज्ञानं भवन् ] केवल (एक) ज्ञानरूप-परिणमित होता हआ. [ कतः अपि बन्धम ध्रुवम न एव उपैति ] किसी भी कारणसे निश्चियतः बन्धको प्राप्त नहीं होता। (अहो! देखो! यह सम्यग्दर्शनकी अद्भुत महिमा है।)
भावार्थ:-यहाँ सम्यग्दृष्टिकी अद्भुत महिमा बताई है, और यह कहा है किलोक, योग, करण, चैतन्य-अचैतन्यका घात-वे बंधके कारण नहीं हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि परजीवकी हिंसासे बंधका होना नहीं कहा इसलिये स्वच्छंद होकर हिंसा करनी। किंतु यहाँ यह आशय है कि अबुद्धिपूर्वक कदाचित् परजीवका घात भी हो जाये तो उससे बंध नहीं होता। किन्तु जहाँ बुद्धिपूर्वक जीवको मारनेके भाव होंगे वहाँ अपने उपयोगमें रागादिका अस्तित्व होगा और उससे वहाँ हिंसाजन्य बंध होगा ही। जहाँ जीवको जिलानेका अभिप्राय हो वहाँ भी अर्थात् उस अभिप्रायको भी निश्चयनयमें मिथ्यात्व कहा है तब फिर जीवको मारने का अभिप्राय मिथ्यात्व क्यों न हो ? अवश्य होगा। इसलिये कथनको नयविभागसे यथार्थ समझकर श्रद्धान करना चाहिए। सर्वथा एकांत मानना मिथ्यात्व है। १६५।।
__ अब उपरोक्त भावार्थमें कथित आशयको प्रगट करनेके लिये, व्यवहारनय की प्रवृत्ति कराने के लिये, काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ तथापि ] तथापि ( अर्थात् लोक आदि कारणोंसे बंध नहीं कहा
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समयसार
३७२
__ ( वसन्ततिलका) जानाति यः स न करोति करोति यस्तु जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मरागः। रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहुमिथ्यादृशः स नियतं स च बन्धहेतुः।। १६७ ।।
और रागादिकसे ही बंध कहा है तथापि) [ज्ञानिनां निरर्गलं चरितुम् न इष्यते ज्ञानियोंको निरर्गल (-स्वछंदतापूर्वक) प्रवर्तना योग्य नहीं है, [सा निरर्गला व्यापृतिः किल तद्-आयतनम् एव ] क्योंकि यह निरर्गल प्रवर्तन वासतवमें बंधका का ही स्थान है। [ ज्ञानिनां अकाम-कृत-कर्म तत् अकारणम् मतम्] ज्ञानियोंके वांछा रहित कर्म (कार्य) होता है वह बंधका कारण नहीं कहा है, क्योंकि [ जानाति च करोति ] जानता भी है और (कर्मको) करता भी है- [द्वयं किमु न हि विरुध्यते ] यह दोनों क्रियाएँ क्या विरोधरूप नहीं है ? ( करना और जानना निश्चयसे विरोधरूप ही है।)
भावार्थ:-पहले काव्यमें लोक आदिको बंधका कारण नहीं कहा इसलिये वहाँ यह नहीं समझना चाहिए कि बाह्यव्यवहारप्रवृत्तिका बंधके कारणोंमें सर्वथा ही निषेध किया है; बाह्यव्यवहारप्रवृत्ति रागादि परिणामकी-बंधके कारणकी-निमित्तभूत है, उस निमित्तताका यहाँ निषेध नहीं समझना चाहिए। ज्ञानियोंके अबुद्धिपूर्वक-वांछा रहितप्रवृत्ति होती है इसलिये बंध नहीं कहा है, उन्हें कहीं स्वछंद होकर प्रवर्तनेको नहीं कहा; क्योंकि मर्यादा रहित (नि कुश) प्रवर्तना तो बंधका ही कारण है। जाननेमें और करनेमें तो परस्पर विरोध है; ज्ञाता रहेगा तो बंध नहीं होगा, कर्ता होगा तो अवश्य बंध होगा। १६६।
“जो जानता है सो करता नहीं और जो करता है सो जानता नहीं; करना तो कर्म का राग है, और जो राग है सो अज्ञान है तथा अज्ञान है बंधका कारण है"।- इस अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [यः जानाति सः न करोति ] जो जानता है सो करता नहीं [ तु] और [यः करोति अयं खलु जानाति न] जो करता है सो जानता नहीं । [ तत् किल कर्मरागः] करना तो वास्तवमें कर्मका राग है [ तु] और [ रागं अबोधमयम् अध्यवसायम् आहुः] रागको (मुनिने) अज्ञानमय अध्यवसाय कहा है; [ स: नियतं मिथ्यादृशः] जो कि वह (अज्ञानमय अध्यवसाय) नियमसे मिथ्यादृष्टिके होता है [च] और [ स बन्धहेतुः ] वह बंधका कारण है। १६७।
अब मिथ्यादृष्टिके आशयको गाथामें स्पष्ट कहते हैं:
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बंध अधिकार
३७३
जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो।। २४७ ।।
यो मन्यते हिनस्मि च हिंस्ये च परैः सत्त्वैः। स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः।। २४७ ।।
परजीवानहं हिनस्मि , परजीवैर्हिस्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्। स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात्सम्यग्दृष्टिः।
कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत्
जो मानता-मैं मारूँ पर अरु घात पर मेरा करे । वो मूढ है, अज्ञानी है, विपरीत इससे ज्ञानी है ।। २४७।।
गाथार्थ:- [ यः] जो [ मन्यते ] यह मानता है कि [ हिनस्मि च] 'मैं पर जीवोंको मारता हूँ [ परैः सत्त्वैः हिंस्ये च ] और पर जीव मुझे मारते हैं ', [ सः ] वह [ मूढः ] मूढ़ ( –मोही) है, [अज्ञानी] अज्ञानी है, [ तु] और [अतः विपरीतः] इससे विपरीत (जो ऐसा नहीं मानता वह) वह [ ज्ञानी ] ज्ञानी है।
टीका:- मैं पर जीवोंको मारता हूँ और पर जीव मुझे मारते हैं'-ऐसा अध्यवसाय ( मिथ्या अभिप्राय, आशय) ध्रुवरूपसे (-निश्चियतः, नियमसे) अज्ञान है। वह अध्यवसाय जिसके है वह अज्ञानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है; और जिसके वह अध्यवसाय नहीं है वह ज्ञानीपनके कारण सम्यग्दृष्टि है।
भावार्थ:-'परजीवोंको मैं मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं' ऐसा अभिप्राय अज्ञान है इसलिये जिसका ऐसा आशय है वह अज्ञानी है-मिथ्यादृष्टि है और जिसका ऐसा आशय नहीं है वह ज्ञानी है-सम्यग्दृष्टि है।
निश्चयनयसे कर्ताका स्वरूप यह है-स्वयं स्वाधीनतया जिस भावरूप परिणमित हो उस भावका स्वयं कर्ता कहलाता है। इसलिये परमार्थतः कोई किसीका मरण नहीं करता। जो परसे परका मरण मानता है, वह अज्ञानी है। निमित्त-नैमित्तिक भावसे कर्ता कहना सो व्यवहारनयका कथन है; उसे यथार्थतया (अपेक्षाको समझकर) मानना सो सम्यग्ज्ञान है।
अब यह प्रश्न होता है कि यह अध्यवसाय अज्ञान कैसे है ? उसके उत्तर स्वरूप गाथा कहते हैं:
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३७४
आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं। आउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कदं तेसिं।। २४८ ।। आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं। आउं ण हरति तुहं कह ते मरणं कदं तेहिं ।। २४९ ।।
आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम्। आयुर्न हरसि त्वं कथं त्वया मरणं कृतं तेषाम्।। २४८ ।। आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम्। आयुर्न हरन्ति तव कथं ते मरणं कृतं तैः।। २४९ ।।
मरणं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मक्षयेणैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात; स्वायुःकर्म च नान्येनान्यस्य हर्तु शक्यं, तस्य स्वोपभोगेनैव क्षयिमाणत्वात;
है आयुक्षयसे मरण जीवका, ये हि जिनवर ने कहा। तू आयु तो हरता नहीं, तैने मरण कैसे किया ? ।।२४८ ।। है आयुक्षयसे मरण जीवका , ये हि जिनवर ने कहा।
वे आयु तुझ हरते नहीं, तो मरण तुझ कैसे किया ? ।। २४९।।
गाथार्थ:- (हे भाई! तू तो यह मानता है कि 'मैं पर जीवोंको मारता हूँ' सो यह तेरा अज्ञान है।) [जीवानां] जीवोंका [ मरणं] मरण [आयुःक्षयेण] आयुकर्मके क्षयसे होता है [ जिनवरैः ] जिनेन्द्रदेव ने [प्रज्ञप्तम् ] कहा है; [त्वं ] तू [आयुः] पर जीवोंके आयुकर्मके तो [न हरसि] हरता नही है, [ त्वया] तो तूने [ तेषाम् मरणं ] उनका मरण [ कथं ] कैसे [ कृतं ] किया ?
(हे भाई! तू जो यह मानता है कि ‘पर जीव मुझे मारते हैं' सो यह तेरा अज्ञान है।) [ जीवानां] जीवोंका [ मरणं] मरण [ आयुःक्षयेण] आयुकर्मके क्षयसे होता है ऐसा [ जिनवरैः] जिनेन्द्रदेवने [प्रज्ञप्तम् ] कहा है; पर जीव [तव आयुः] तेरे आयुकर्मको तो [न हरन्ति ] हरते नहीं हैं, [ तै: ] तो उन्होंने [ ते मरणं] तेरा मरण [ कथं ] कैसे [ कृतं ] किया ?
टीका:-प्रथम तो, जीवोंका मरण वास्तवमें अपने आयुकर्मके क्षयसे ही होता है, क्योंकि अपने आयुकर्मके क्षयके अभावमें मरण होना अशक्य है; और दूसरे से दूसरेका स्व-आयुकर्म हरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह (स्व-आयुकर्म) अपने उपभोगसे ही क्षयको प्राप्त होता है;
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३७५
ततो न कथञ्चनापि अन्योऽन्यस्य मरणं कुर्यात्।ततो हिनस्मि, हिंस्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्।
जीवनाध्यवसायस्य तद्विपक्षस्य का वार्तेति चेत्जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो।। २५० ।।
इसलिये किसी भी प्रकारसे कोई दूसरा किसी दुसरेका मरण कर नहीं कर सकता। इसलिये 'मैं परजीवोंको मारता हूँ, और पर जीव मुझे मारते हैं' ऐसा अध्यवसाय ध्रुवरूपसे ( –नियमसे) अज्ञान है।
भावार्थ:-जीवकी जो मान्यता हो तदनुसार जगतमें नहीं बनता हो, तो वह मान्यता अज्ञान है। अपने द्वारा दूसरेका तथा दूसरेसे अपना मरण नहीं किया जा सकता तथापि यह प्राणी व्यर्थ में ही ऐसा मानता है सो अज्ञान है। यह कथन निश्चयनयकी प्रधानतासे है।
व्यवहार इसप्रकार है:-परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावसे पर्यायका जो उत्पादव्यय हो उसे जन्म-मरण कहा जाता है; वहाँ जिसके निमित्तसे मरण (-पर्यायका व्यय) हो उसके सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि 'इसने इसे मारा', यह व्यवहार
यहाँ ऐसा नहीं समझना कि व्यवहारका सर्वथा निषेध है। जो निश्चयको नहीं जानते, उनका अज्ञान मिटानेके लिये यहाँ कथन किया है। उसे जानने के बाद दोनों नयोंको अविरोधरूपसे जानकर यथायोग्य नय मानना चाहिये।
अब पुनः प्रश्न होता है कि " ( मरणका अध्यवसाय अज्ञान है यह कहा सो जान लिया; किन्तु अब) मरणके अध्यवसायका प्रतिपक्षी जो जीवनका अध्यवसाय है उसका क्या हाल है ?" उसका उत्तर कहते हैं:
जो मानता-मैं पर जिलावू , मुझ जीवन परसे रहे। वो मूढ है, अज्ञानी है, विपरीत इससे ज्ञानी है ।। २५०।।
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३७६
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समयसार
यो मन्यते जीवयामि च जीव्ये च परैः सत्त्वैः। स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ।। २५० ।
परजीवानहं जीवयामि, परजीवैर्जीव्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् । स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्दृष्टिः।
कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत्
आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणति सव्वण्हू ।
आउं च ण देसि तुमं कहं तए जीविदं कदं तेसिं ।। २५१ ।। आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू । आउं च ण दिंति तुहं कहं णु ते जीविदं कदं तेहिं ।। २५२ ।।
गाथार्थ:- [ यः] जो जीव [ मन्यते ] यह मानता है कि [ जीवयामि ] मैं पर जीवोंको जिलाता हूँ [ च ] और [ परैः सत्त्वै: ] पर जीव [ जीव्ये च ] मुझे जिलाते हैं, [सः] वह [ मूढः ] मूढ़ ( - मोही) है, [ अज्ञानी ] अज्ञानी है, [तु] और [अतः विपरीतः] इससे विपरीत ( जो ऐसा नहीं मानता किन्तु इससे उल्टा मानता है) वह [ ज्ञानी ] ज्ञानी है।
टीका:-' परजीवोंको मैं जिलाता हूँ, और परजीव मुझे जिलाते हैं' इसप्रकार का अध्यवसाय ध्रुवरूपसे ( - अत्यंत निश्चितरूपसे ) अज्ञान हैं । यह अध्यवसाय जिसके है वह जीव अज्ञानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है, और जिसके यह अध्यवसाय नहीं है वह जीव ज्ञानीपनेके कारण सम्यग्दृष्टि है।
भावार्थ:- यह मानना अज्ञान है कि 'परजीव मुझे जिलाता है और मैं परको जिलाता हूँ' जिसके यह अज्ञान है वह मिथ्यादृष्टि है; तथा जिसके यह अज्ञान नहीं है वह सम्यग्दृष्टि है।
अब यह प्रश्न होता है कि यह ( जीवनका ) अध्यवसाय अज्ञान कैसे है ? इसका उत्तर कहते हैं:
जीतव्य जीवनका आयुदयसे, ये हि जिनवरने कहा।
तू आयु तो देता नहीं, तैने जीवन कैसे किया ? ।।२५१।। जीतव्य जीवनका आयुदयसे, ये हि जिनवरने कहा। तो आयु तुझ देते नहीं, तो जीवन तुझ कैसे किया ? ।। २५२ ।।
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बंध अधिकार
३७७
आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणन्ति सर्वज्ञाः। आयुश्च न ददासि त्वं कथं त्वया जीवितं कृतं तेषाम्।। २५१ ।। आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणन्ति सर्वज्ञाः। आयुश्च न ददति तव कथं नु ते जीवितं कृतं तैः।। २५२ ।।
जीवितं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मोदयेनैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात; स्वायुःकर्म च नान्येनान्यस्य दातुं शक्यं, तस्य स्वपरिणामेनैव उपाय॑माणत्वात; ततो न कथञ्चनापि अन्योऽन्यस्य जीवितं कुर्यात्। अतो जीवयामि, जीव्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्।
दुःखसुखकरणाध्यवसायस्यापि एषैव गतिःजो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते त्ति। सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो।। २५३ ।।
गाथार्थ:- [ जीवः] जीव [ आयुरुदयेन ] आयुकर्मके उदयसे [ जीवति ] जीता है [ एवं] ऐसा [ सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञदेव [भणन्ति ] कहते हैं; [ त्वं] तू [आयु: च] पर जीवोंको आयुकर्म तो [ न ददासि ] नहीं देता [ त्वया ] तो (हे भाई!) तूने [ तेषाम् जीवितं] उनका जीवन (जीवित रहना) [कथं कृतं] कैसे किया ?
[जीवः ] जीव [ आयुरुदयेन ] आयुकर्मके उदयसे [ जीवति ] जीता है [ एवं ] ऐसा [ सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञदेव [ भणन्ति ] कहते हैं; पर जीव [ तव] तुझे [ आयुः च] आयुकर्म तो [ न ददति ] देते नहीं हैं[ तैः ] तो (हे भाई!) उन्होंने [ ते जीवितं] तेरा जीवन ( जीवित रहना) [ कथं नु कृतं ] कैसे किया ?
टीका:-प्रथम तो, जीवोंका जीवित (जीवन) वास्तवमें अपने आयुकर्मके उदयसे ही है, क्योंकि अपने आयुकर्मके उदयके अभावमें जीवित रहना अशक्य है; और अपना आयुकर्म दूसरे से दूसरेको नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वह (अपना आयुकर्म ) अपने परिणामसे ही उपार्जित होता है; इसलिये किसी भी प्रकारसे कोई दूसरेका जीवन नहीं कर सकता। इसलिये मैं परको जिलाता हूँ और पर मुझे जिलाता है' इसप्रकारका अध्यवसाय ध्रुवरूपसे (-नियतरूपसे) अज्ञान है।
भावार्थ:-पहले मरणके अध्यवसायके सम्बन्धमें कहा था इसीप्रकार यहाँ भी जानना। अब यह कहते हैं कि दुःख-सुख करनेके अध्यवसायकी भी यही गति है:
जो आपसे माने दुखीसुखी, मैं करुं पर जीवको। वो मूढ है, अज्ञानी है, विपरीत इससे ज्ञानी है ।। २५३ ।।
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समयसार
३७८
य आत्मना तु मन्यते दुःखितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति। स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः।। २५३ ।।
परजीवानहं दुःखितान् सुखितांश्च करोमि, परजीवैर्दुःखितः सुखितश्च क्रियेऽहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्। स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टि:, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्दृष्टिः।।
कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत्कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे। कम्मं च ण देसि तुमं दुक्खिदसुहिदा कह कया ते।। २५४ ।। कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे। कम्मं च ण दिति तुहं कदोसि कहं दुक्खिदो तेहिं।। २५५ ।।
गाथार्थ:- [ यः] जो [इति मन्यते ] यह मानता है कि [आत्मना तु] अपने द्वारा [ सत्त्वान् ] मैं (पर) जीवोंको [ दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी [ करोमि ] करता हूँ, [ सः] वह [ मूढः] मूढ (-मोही) है, [अज्ञानी] अज्ञानी है, [ तु] और [ अत: विपरीतः ] जो इससे विपरीत है वह [ ज्ञानी ] ज्ञानी है।
टीका:- परजीवोंको मैं दुःखी तथा सुखी करता हूँ और परजीव मुझे दुःखी तथा सुखी करते हैं' इसप्रकारका अध्यवसाय ध्रुवरूपसे अज्ञान है। वह अध्यवसाय जिसके है वह जीव अज्ञानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है; और जिसके वह अध्यवसाय नहीं है वह जीव ज्ञानीपनेके कारण सम्यग्दृष्टि है।
भावार्थ:- यह मानना अज्ञान है कि मैं पर जीवोंको दुःखी या सुखी करता हूँ और परजीव मुझे दुःखी या सुखी करते हैं'। जिसे यह अज्ञान है वह मिथ्यादृष्टि है; और जिसके यह अज्ञान नहीं है वह ज्ञानी है-सम्यग्दृष्टि है।
अब यह प्रश्न होता है कि अध्यवसाय अज्ञान कैसे है ? उसका उत्तर कहते
जहँ उदयकर्म जु जीव सब ही दुःखित अवरु सुखी बने । तू कर्म तो देता नहीं, कैसे तू दुखित सुखी करे ? ।। २५४ ।। जहँ उदयकर्म जु जीव सब ही दुःखित अवरु सुखी बने । वो कर्म तो देता नहीं, तो दुखित तुझ कैसे करे ? ।। २५५ ।।
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बंध अधिकार
३७९
कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे। कम्मं च ण दिति तुहं कह तं सुहिदो कदो तेहिं।। २५६ ।।
कर्मोदयेन जीवा दुःखेतसखिता भवन्ति यदि सर्वे। कर्म च न ददासि त्वं दुःखितसुखिताः कथं कृतास्ते।। २५४ ।। कर्मोदयेन जीवा दुःखितसुखिता भवन्ति यदि सर्वे। कर्म च न ददति तव कृतोऽसि कथं दुःखितस्तैः।। २५५ ।। कर्मोदयेन जीवा दुःखितसुखिता भवन्ति यदि सर्वे। कर्म च न ददति तव कथं त्वं सुखितः कृतस्तैः।। २५६ ।।
सुखदु:खे हि तावज्जीवानां स्वकर्मोदयेनैव, तदभावे तयोर्भवितुमशक्यत्वात्; स्वकर्म च नान्येनान्यस्य दातुं शक्यं, तस्य स्वपरिणामेनैवोपाय॑माणत्वात्;
जहँ उदयकर्म जु जीव सब ही दुःखित अवरु सुखी बने ।
वो कर्म तुझ देते नहीं, तो सुखित तुझ कैसे करे ? ।। २५६ ।।
गाथार्थ:- [यदि] यदि [ सर्वे जीवाः ] सभी जीव [कर्मोदयेन ] कर्मके उदयसे [ दुःखितसुखिताः ] दुःखी सुखी [ भवन्ति ] होते हैं, [च ] और [ त्वं ] तू [ कर्म] उन्हें कर्म तो [ न ददासि ] देता नहीं है, तो (हे भाई!) तूने [ ते] उन्हें [ दुःखितसुखिताः] दुःखी-सुखी [ कथं कृताः ] कैसे किया ?
[यदि] यदि [ सर्वे जीवाः ] सभी जीव [ कर्मोदयेन ] कर्मके उदयसे [ दुःखितसुखिताः ] दुःखी-सुखी [ भवन्ति ] होते हैं, [च ] और वे [ तव ] तुझे [ कर्म] कर्म तो [ न ददति] नहीं देते, तो (हे भाई!) [ तैः ] उन्होंने [ दुःखितः ] तुझको दुःखी [ कथं कृतः असि ] कैसे किया ?
[यदि] यदि [ सर्वे जीवाः ] सभी जीव [कर्मोदयेन] कर्मके उदयसे [ दुःखितसुखिताः ] दुःखी-सुखी [ भवन्ति ] होते हैं, [च ] और वे [ तव ] तुझे [ कर्म ] कर्म तो [ न ददति ] नहीं देते, तो (हे भाई!) [ तैः ] उन्होंने [त्वं] तुझको [ सुखितः ] सुखी [ कथं कृतः ] कैसे किया ?
टीका:-प्रथम तो, जीवोंको सुख-दुःख वास्तवमें कर्मोदयसे ही होता है, क्योंकि अपने कर्मोदयके अभावमें सुख-दुःख होना अशक्य है; और अपना कर्म दूसरे द्वारा दूसरेको नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वह (अपना कर्म) अपने परिणामसे ही उपार्जित होता है;
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समयसार
३८०
ततो न कथञ्चनापि अन्योऽन्यस्य सुखदुःखे कुर्यात्। अतः सुखितदुःखितान् करोमि , सुखितदुःखितः क्रिये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्।
(वसन्ततिलका) सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवित दुःखसौख्यम्। अज्ञानमेतदिह यत्तु पर: परस्य कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्।।१६८ ।।
(वसन्ततिलका) अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम्। कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवन्ति।। १६९ ।।
इसलिये किसी भी प्रकारसे एक दूसरेको सुख-दुःख नहीं कर सकता। इसलिये यह अध्यवसाय ध्रुवरूपसे अज्ञान है कि 'मैं पर जीवोंको सुखी-दुःखी करता हूँ और परजीव मुझे सुखी-दुःखी करते हैं ।
भावार्थ:-जीवका जैसा आशय हो तदनुसार जगतमें कार्य न होते हों तो वह आशय अज्ञान है। इसलिये, सभी जीव अपने अपने कर्मोदयसे सुखी-दुःखी होते हैं वहाँ यह मानना कि 'मैं परको सुखी-दुःखी करता हूँ और पर मुझे सुखी-दुःखी करता है', सो अज्ञान है। निमित्तनैमित्तिकभावके आश्रयसे (किसी को किसी के) सुखदुःखका करने वाला कहना सो व्यवहार है; जो कि निश्चयकी दृष्टिमें गौण है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इह ] इस जगतमें [ मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् ] जीवोंके मरण, जीवित, दुःख, सुख-[ सर्व सदैव नियतं स्वकीय-कर्मोदयात् भवति ] सब सदैव नियमसे (-निश्चितरूपसे) अपने कर्मोदयसे होता है; [ परः पुमान् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् कुर्यात् ] 'दुसरा पुरुष दूसरेके मरण, जीवन, दुःख, सुखको करता है' [ यत् तु] ऐसा जो मानना [ एतत् अज्ञानम् ] वह तो अज्ञान है। १६८।
पुनः इसी अर्थको दृढ़ करने वाला और आगामी कथनका सूचक काव्य कहते
श्लोकार्थ:- [ एतत् अज्ञानम् अधिगम्य ] इस (पूर्व कथित मान्यतारूप) अज्ञानको प्राप्त करके ये परात् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् पश्यन्ति ] जो पुरुष परसे परके मरण, जीवन, दुःख, सुखको देखते है अर्थात् मानते है,
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बंध अधिकार
३८१
जो मरदि जो य दुहिदो जायदि कम्मोदएण सो सव्वो। तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।। २५७ ।। जो ण मरदि ण य दुहिदो सो वि य कम्मोदएण चेव खलु। तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।। २५८ ।।
यो भ्रियते यश्च दुःखितो जायते कर्मोदयेन स सर्वः। तस्मात्तु मारितस्ते दुःखितश्चेति न खलु मिथ्या।। २५७ ।। यो न भ्रियते न च दुःखितः सोऽपि च कर्मोदयेन चैव खलु। तस्मान्न मारितो नो दुःखितश्चेति न खलु मिथ्या।। २५८ ।।
[ ते] वे पुरुष- [ अहंकृतिरसेन कर्माणि चिकीर्षवः ] जो कि इसप्रकार अहंकार-रससे कर्मो को करनेके इच्छुक हैं (अर्थात् 'मैं इन कर्मोको करता हूँ' ऐसे अहंकाररूपी रससे जो कर्म करने की-मारनेकी-जिलानेकी, सुखी-दुःखी करने की-वांछा करनेवाले हैं) वे- [नियतम् ] नियमसे [ मिथ्यादृशः आत्महनः भवन्ति ] मिथ्यादृष्टि हैं, अपने आत्माका घात करनेवाले हैं।
भावार्थ:-जो परको मारने-जिलाने का तथा सुख-दुःख करने का अभिप्राय रखते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं। वे अपने स्वरूपसे च्युतहोते हुए रागी, द्वेषी, मोही होकर स्वतः ही अपना घात करते हैं, इसलिये वे हिंसक हैं। १६९ ।
अब इसी अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं :मरता दुखी होता जु जीव सब कर्म उदयोंसे बने । मुझसे मरा अरु दुखि हुआ क्या मत न तुझ मिथ्या अरे! ।। २५७ ।। अरु नहिं मरे, नहिं दुखि बने, वे कर्म उदयों से बनें । 'मैंने न मारा दुखि करा'-क्या मत न तुझ मिथ्या अरे! ।। २५८ ।।
गाथार्थ:- [ यः म्रियते ] जो मरता है [ च ] और [ यः दुःखितः जायते ] जो दुःखी होता हैं [ सः सर्वः] वह सब [ कर्मोदयेन ] कर्मोदयसे होता है; [ तस्मात् तु] इसलिये [ मारितः च दुःखितः ] — मैंने मारा, मैंने दुःखी किया' [इति] ऐसा [ ते ] तेरा अभिप्राय [ न खलु मिथ्या ] क्या वास्तवमें मिथ्या नहीं है ?
[च ] और [ यः न म्रियते ] जो न मरता है [ च ] और [ न दुःखितः] न दुःखी होता है [ सः अपि] वह भी [ खलु] वास्तवमें [ कर्मोदयेन च एव ] कर्मोदयसे ही होता है; [ तस्मात् ] इसलिये [ न मारितः च न दुःखितः ] 'मैंने नहीं मारा , मैंने दुःखी नहीं किया' [ इति ] ऐसा तेरा अभिप्राय [ न खलु मिथ्या ] क्या वास्तवमें मिथ्या नहीं है ?
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समयसार
३८२
यो हि भ्रियते जीवति वा, दुःखितो भवति सुखितो भवति वा, स खलु स्वकर्मोदयेनैव, तदभावे तस्य तथा भवितुमशक्यत्वात्। ततः मयायं मारितः, अयं जीवितः, अयं दुःखितः कृतः, अयं सुखितः कृतः इति पश्यन् मिथ्यादृष्टिः।
(अनुष्टुभ् )
मिथ्यादृष्टे: स एवास्य बन्धहेतुर्विपर्ययात्। य एवाध्यवसायोऽयमज्ञानात्माऽस्य दृश्यते।। १७० ।।
टीका:-जो मरता है या जीता है, दुःखी होता है या सुखी होता है, यह वास्तवमें अपने कर्मोदयसे ही होता है, क्योंकि अपने कर्मोदय के उदयके अभावमें उसका वैसा होना ( मरना, जीना, दुःखी या सुखी होना) अशक्य है। इसलिये ऐसा देखने वाला अर्थात् मानने वाला मिथ्यादृष्टि है कि 'मैंने इसे मारा, इसे जिलाया, इसे दुःखी किया, इसे सुखी किया'।
भावार्थ:-कोई किसी के मारे नहीं मरता और जिलाए नहीं जीता तथा किसीके सुखी-दुःखी किये सुखी-दुःखी नहीं होता; इसलिये जो मारने, जिलाने आदिका अभिप्राय करता है वह मिथ्यादृष्टि ही है-यह निश्चयका वचन है। यहाँ व्यवहारनय गौण है।
अब आगेके कथनका सूचकरूप श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अस्य मिथ्यादृष्टे: ] मिथ्यादृष्टिके [ यः एव अयम् अज्ञानात्मा अध्यवसायः दृश्यते ] जो यह अज्ञानस्वरूप अध्यवसाय दिखाई देता है [ सः एव ] वह अध्यवसाय ही, [विपर्ययात् ] विपर्ययस्वरूप (मिथ्या) होनेसे , [अस्य बन्धहेतुः ] उस मिथ्यादृष्टिके बंधका कारण है।
भावार्थ:-मिथ्या अभिप्राय ही मिथ्यात्व है, और वही बंधका कारण है-ऐसा जानना चाहिए। १७०।
अब, यह कहते हैं कि यह अज्ञानमय अध्यवसाय ही बंधका कारण है:
* जो परिणाम मिथ्या अभिप्राय सहित हो [-स्वपरके एकत्वके अभिप्रायसे सहित हो] अथवा वैभाविक हो उस परिणाम के लिये अध्यवसाय शब्द प्रयुक्त किया जाता है। [ मिथ्या] निश्चय अथवा, [ मिथ्या ] अभिप्रायके अर्थमें भी अध्यवसाय शब्द प्रयुक्त होता है।
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बंध अधिकार
३८३
एसा दु जा मदी दे दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते त्ति। एसा दे मूढमदी सुहासुहं बंधदे कम्मं ।। २५९ ।। एषा तु या मतिस्ते दुःखितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति। एषा ते मूढमतिः शुभाशुभं बध्नाति कर्म।। २५९ ।।
परजीवानहं हिनस्मि, न हिनस्मि, दु:खयामि, सुखयामि इति य एवायमज्ञानमयोऽध्यवसायो मिथ्यादृष्टे:, स एव स्वयं रागादिरूपत्वात्तस्य शुभाशुभबन्धहेतुः।
अथाध्यवसायं बन्धहेतुत्वेनावधारयति
दुक्खिदसुहिदे सत्ते करेमि जं एवमज्झवसिदं ते। तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि।। २६० ।।
ये बुद्धि तेरी-'दुखित अवरु सुखी करूं हूँ जीवको'।
वो मूढ मति तेरी अरे! शुभ अशुभ बांधे कर्मको ।। २५९ ।।
गाथार्थ:- [ते] तेरी [ या एषा मतिः तु] यह जो बुद्धि है कि मैं [ सत्त्वान् ] जीवोंको [ दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी [ करोमि इति] करता हूँ, [ एषा ते मूढमतिः] यह तेरी मूढ बुद्धि ही ( मोहस्वरूप बुद्धि ही) [ शुभाशुभं कर्म] शुभाशुभ कर्मको [ बध्नाति ] बांधती है।
टीका:- मैं पर जीवोंको मारता हूँ, नहीं मारता हूँ, दुःखी करता हूँ, सुखी करता हूँ' ऐसा जो यह अज्ञानमय अध्यवसाय मिथ्यादृष्टिके हैं, वही ( अर्थात् वह अध्यवसाय ही) स्वयं रागादिरूप होनेसे उसे (-मिथ्यादृष्टिको) शुभाशुभ बंधका कारण है।
भावार्थ:-मिथ्या अध्यवसाय बंधका कारण है।
अब, अध्यवसायको बंधके कारणके रूपमें भलीभाँति निश्चय करते है (अर्थात् मिथ्या अध्यवसाय ही बंधका कारण है ऐसा नियमसे कहते हैं) :
करता तु अध्यवसान-दुखित-सुखी करूं हूँ जीवको' । वो बाँधता है पापको वा बाँधता है पुण्य को ।। २६० ।।
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समयसार
३८४
मारिमि जीवावेमि य सत्ते जं एवमज्झवसिदं ते। तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि।। २६१ ।। दुःखितसुखितान् सत्त्वान् करोमि यदेवमध्यवसितं ते। तत्पापबन्धकं वा पुण्यस्य वा बन्धकं भवति।। २६० ।। मारयामि जीवयामि वा सत्त्वान् यदेवमध्यवसितं ते। तत्पापबन्धकं वा पुण्यस्य वा बन्धकं भवति।। २६१ ।।
य एवायं मिथ्यादृष्टेरज्ञानजन्मा रागमयोऽध्यवसाय: स एव बन्धहेतु: इत्यवधारणीयम्। न च पुण्यपापत्वेन द्वित्वाद्बन्धस्य तद्धत्वन्तरमन्वेष्टव्यं; एकेनैवानेनाध्यवसायेन दुःखयामि मारयामि इति, सुखयामि जीवयामीति च द्विधा शुभाशुभाहङ्काररसनिर्भरतया द्वयोरपि पुण्यपापयोर्बन्धहेतुत्वस्याविरोधात्।।
करता तू अध्यवसान- मैं मारूँ जिवाऊँ जीवको '।
वो बाँधता है पापको वा बाँधता है पुण्य को ।। २६१।।
गाथार्थ:- [ सत्त्वान्] जीवोंको मैं [ दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी [ करोमि] करता हूँ' [ एवम् ] ऐसा [ यत् ते अध्यवसितं] जो तेरा *अध्यवसान, [तत् ] वही [ पापबन्धकं वा] पापका बंधक [ पुण्यस्य बन्धकं वा] अथवा पुण्यका बंधक [ भवति ] होता है।
[ सत्त्वान् ] जीवोंको मैं [ मारयामि वा जीवयामि ] मारता हूँ और जिलाता हूँ' [ एवम् ] ऐसा [ यत् ते अध्यवसितं] जो तेरा अध्यवसान, [ तत्] वही [पापबन्धक वा] पापका बंधक [ पुण्यस्य बन्धकं वा ] अथवा पुण्यका बंधक [ भवति ] होता है।
टीका:-मिथ्यादृष्टिके इस अज्ञानसे उत्पन्न होने वाला रागमय अध्यवसाय ही बंधका कारण है यह भलीभाँति निश्चित करना चाहिये। और पुण्य-पापरूपसे बंधका द्वित्व (दो-होना) होनेसे बंधके कारणका भेद नहीं ढूंढना चाहिये ( अर्थात् यह नहीं मानना चाहिये कि पण्यबंधका कारण दसरा है और पापबंधका कारण कोई दूसरा है); क्योंकि यह एक ही अध्यवसाय ‘दुःखी करता हूँ' मारता हूँ' इसप्रकार और सुखी करता हूँ, जिलाता हूँ' यों दो प्रकारसे शुभ-अशुभ अहंकाररससे परिपूर्णताके द्वारा पुण्य और पाप-दोनोंके बंधके कारण होनेमें अविरोध है ( अर्थात् एक ही अध्यवसायसे पुण्य और पाप-दोनोंका बंध होनेमें कोई विरोध नहीं है)।
* जो परिणमन मिथ्या अभिप्राय सहित है (-स्वपरना एकत्वके अभिप्रायसे युक्त हो) अथवा वैभाविक हो उस परिणमनके लिये अध्यवसान शब्द प्रयुक्त किया जाता है। (मिथ्या) निश्चय अथवा, (मिथ्या) अभिप्राय करनेके अर्थमें भी अध्यवसान प्रयुक्त होता है।
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बंध अधिकार
३८५
एवं हि हिंसाध्यवसाय एव हिंसेत्यायातम्।
अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ। एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स।। २६२ ।। अध्यवसितेन बन्धः सत्त्वान् मारयतु मा वा मारयतु। एष बन्धसमासो जीवानां निश्चयनयस्य।। २६२ ।।
परजीवानां स्वकर्मोदयवैचित्र्यवशेन प्राणव्यपरोपः कदाचिद्भवतु, कदाचिन्मा भवतु, य एव हिनस्मीत्यहङ्काररसनिर्भरो हिंसायामध्यवसायः स एव निश्चयतस्तस्य बन्धहेतुः, निश्चयेन परभावस्य प्राणव्यपरोपस्य परेण कर्तुमशक्यत्वात्।
भावार्थ:-यह अज्ञानमय अध्यवसाय ही बंधका कारण है। उसमें , 'जिलाता हूँ, सुखी करता हूँ' ऐसे शुभ अहंकारसे भरा हुआ वह शुभ अध्यवसाय है और मैं मारता हूँ, दुःखी करता हूँ' ऐसे अशुभ अहंकारसे भरा हुआ वह अशुभ अध्यवसाय है। अहंकाररूप मिथ्याभाव दोनों में है; इसलिये अज्ञानमयतासे दोनों अध्यवसाय एक ही हैं। अतः यह न मानना चाहिए कि पुण्यका कारण दूसरा है और पापका कारण कोई अन्य। अज्ञानमय अध्यवसाय ही दोनोंका कारण है।
इसप्रकार वास्तवमें हिंसाका अध्यवसाय ही हिंसा है यह फलित हुआ'-यह कहते हैं:
मारो-न मारो जीवको, है बंध अध्यवसान से । -यह आतमाके बंधका, संक्षेप निश्चयनय विषै ।। २६२।।
___ गाथार्थ:- [ सत्त्वान् ] जीवोंको [ मारयतु] मारो [ वा मा मारयतु] अथवा न मारो- [बन्ध: ] कर्मबंध [अध्यवसितेन] अध्यवसानसे ही होता है। [ एष:] यह, [निश्चयनयस्य ] निश्चयनयसे , [ जीवानां] जीवोंके [ बन्धसमासः ] बंधका संक्षेप है।
टीका:-परजीवोंको अपने कर्मोदयकी विचित्रतावश प्राणोंका व्यपरोप (उच्छेद, वियोग) कदाचित् हो, कदाचित् न हो, –किन्तु 'मैं मारता हूँ' ऐसा जो अहंकाररससे भरा हुआ हिंसाका अध्यवसाय ही निश्चयसे उसके ( हिंसाका अध्यवसाय करनेवाले जीवको) बंधका कारण है, क्योंकि निश्चयसे परका भाव जो प्राणोंका व्यपरोप वह दूसरे से किया जाना अशक्य है (अर्थात् वह परसे नहीं किया जा सकता)।
भावार्थ:-निश्चयनयसे दूसरेके प्राणोंका वियोग दूसरेसे नहीं किया जा सकता; अपने कर्मोंके उदयकी विचित्रताके कारण कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं
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समयसार
३८६
अथाध्यवसायं पापपुण्ययोर्बन्धहेतुत्वेन दर्शयति
एवमलिए अदत्ते अबंभचेरे परिग्गहे चेव। कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पावं ।। २६३ ।। तह वि य सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गहत्तणे चेव। कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पुण्णं ।। २६४ ।।
एवमलीकेऽदत्तेऽब्रह्मचर्ये परिग्रहे चैव। क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पापम्।। २६३ ।। तथापि च सत्ये दत्ते ब्रह्मणि अपरिग्रहत्वे चैव। क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पुण्यम्।। २६४ ।।
होता। इसलिये जो यह मानता है-अहंकार करता है कि 'मैं पर जीवोंको मारता हूँ', उसका यह अहंकाररूप अध्यवसाय अज्ञानमय है। वह अध्यवसाय ही हिंसा है-अपने विशुद्ध चैतन्यप्राणका घात है, और वही बंधका कारण है। यह निश्चयनयका मत है।
यहाँ व्यवहारनयको गौण करके कहा है ऐसा जानना चाहिये। इसलिये यह कथन कथंचित् ( अपेक्षापूर्वक) है ऐसा समझना चाहिये; सर्वथा एकांतपक्ष मिथ्यात्व है।
__ अब, ( हिंसा-अहिंसाकी भाँति सर्व कार्योमें) अध्यवसायको ही पाप-पुण्यके बंधके कारणरूपसे दिखाते हैं:
यों झूठ मांहि , अदत्तमें , अब्रह्म अरु परिग्रह विर्षे । जो होय अध्यवसान उससे पापबंधन होय है ।। २६३ ।। इस रीत सत्य रु, दत्तमें , त्यों ब्रह्म अनपरिग्रहविर्षे । जो होय अध्यवसान उससे पुण्यबंधन होय है ।। २६४ ।।
गाथार्थ:- [ एवम ] इसीप्रकार (जैसे कि पहले हिंसाके अध्यवसायके सम्बंध में कहा गया है) उसीप्रकार [अलीके ] असत्यमें , [अदत्ते ] चोरीमें, [ अब्रह्मचर्ये ] अब्रह्मचर्यमें [च एव] और [ परिग्रहे ] परिग्रहमें [ यत् ] जो [अध्यवसानं] अध्यवसान [क्रियते] किया जाता है [ तेन तु] उससे [ पापं बध्यते ] पापका बंध होता है; [ तथापि च ] और इसीप्रकार [ सत्ये] सत्यमें , [ दत्ते ] अचौर्यमें, [ ब्रह्मणि ] ब्रह्मचर्यमें [च एव] और [अपरिग्रहत्वे] अपरिग्रहमें [यत्] जो [अध्यवसानं] अध्यवसान[ क्रियते] किया जाता है [ तेन तु] उससे [ पुण्यं बध्यते] पुण्यका बंध होता है।
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बंध अधिकार
३८७
एवमयमज्ञानात् यो यथा हिंसायां विधीयतेऽध्यवसायः, तथा असत्यादत्ताब्रह्मपरिग्रहेषु यश्च विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पापबन्धहेतुः। यस्तु अहिंसायां यथा विधीयते अध्यवसायः, तथा यश्च सत्यदत्तब्रह्मापरिग्रहेषु विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पुण्यबन्धहेतुः।
न च बाह्यवस्तु द्वितीयोऽपि बन्धहेतुरिति शक्यम्
वत्थु पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं। ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्थि।। २६५ ।।
वस्तु प्रतीत्य यत्पुनरध्यवसानं तु भवति जीवानाम्। न च वस्तुतस्तु बन्धोऽध्यवसानेन बन्धोऽस्ति।। २६५ ।।
टीका:-इसप्रकार (-पूर्वोक्त प्रकार) अज्ञानसे यह जो हिंसामें अध्यवसाय किया जाता है उसीप्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रहमें भी जो (अध्यवसाय) किया जाता है, वह सब पाप बंधका एकमात्र कारण है; और जो अहिंसामें अध्यवसाय किया जाता है उसीप्रकार सत्य, अचौर्य, बह्मचर्य और अपरिग्रहमें भी ( अध्यवसाय) किया जाये, वह सब पुण्यके बंधका एकमात्र कारण है।
भावार्थ:-जैसे हिंसामें अध्यवसाय वह पापबंधका कारण कहा है, उसीप्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रहका अध्यवसाय भी पापबंधका कारण है। और जैसे अहिंसामें अध्यवसाय वह पुण्यबंधका कारण है उसीप्रकार सत्य, अचौर्य (-दिया हुआ लेना वह), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहमें अध्यवसाय भी पुण्यबंधका कारण है। इसप्रकार, पाँच पापोंमें (अव्रतोंमें) अध्यवसाय किया जाये सो पापबंधका कारण है और पाँच ( एकदेश या सर्वदेश) व्रतोंमें अध्यवसाय किया जाये सो पुण्यबंधका कारण है। पाप और पुण्य दोनों के बंधनमें , अध्यवसाय ही एक मात्र बंधका कारण है।
और भी ऐसी शंका न करनी कि ‘बाह्यवस्तु वह दूसरा भी बंधका कारण होगा'। ('अध्यवसाय वह बंधका एक कारण होगा और बाह्यवस्तु वह बंधका दूसरा कारण होगा' ऐसी भी शंका करने योग्य नहीं है; अध्यवसाय ही एकमात्र बंधका कारण है, बाह्यवस्तु नहीं।) इसी अर्थकी गाथा अब कहते हैं:
जो होय अध्यवसान जीवके, वस्तु-आश्रित वो बने । पर वस्तुसे नहिं बंध, अध्यवसानसे ही बंध है ।। २६५।।
गाथार्थ:- [ पुनः ] और, [जीवानाम् ] जीवोंके [ यत् ] जो [ अध्यवसानं तु] अध्यवसान [ भवति ] होता है वह [ वस्तु] वस्तुको [ प्रतीत्य ] अवलंबकर होता है
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समयसार
३८८
अध्यवसानमेव बन्धहेतुः, न तु बाह्यवस्तु, तस्य बन्धहेतोरध्यवसानस्य हेतुत्वेनैव चरितार्थत्वात्। तर्हि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेधः ? अध्यवसानप्रतिषेधार्थः। अध्यवसानस्य हि बाह्यवस्तु आश्रयभूतं; न हि बाह्यवस्त्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मानं लभते। यदि बाह्यवस्त्वनाश्रित्यापि अध्यवसानं जायेत तदा, यथा वीरसूसुतस्याश्रयभूतस्य सद्भावे वीरसूसुतं हिनस्मीत्यध्यवसायो जायते, तथा वन्ध्यासुतस्याश्रय-भूतस्यासद्भावेऽपि वन्ध्यासुतं हिनस्मीत्यध्यवसायो जायेत। न च जायते। ततो निराश्रयं नास्त्यध्यवसानमिति नियमः। तत एव चाध्यवसानाश्रयभूतस्य बाह्यवस्तुनोऽत्यन्तप्रतिषेधः, हेतुप्रतिषेधेनैव हेतुमत्प्रतिषेधात्। न च बन्धहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्यवस्तु बन्धहेतु: स्यात्, ईर्यासमितिपरिणतयतीन्द्रपदव्यापाद्यमानवेगापतत्कालचोदितकुलिङ्गवत्,
[च तु] तथापि [वस्तुतः] वस्तुसे [ न बन्धः] बंध नहीं होता, [ अध्यवसानेन] अध्यवसानसे ही [ बन्धः अस्ति ] बंध होता है।
टीका:-अध्यवसान ही बंधका कारण है; बाह्यवस्तु बंधका नहीं, क्योंकि बंधका कारण जो अध्यवसान है उसके कारणत्वसे ही बाह्यवस्तुकी चलितार्थता है (अर्थात् बंधके कारणभूत अध्यवसानका कारण होनेमें ही बाह्यवस्तुका कार्यक्षेत्र पूरा हो जाता है, वह वस्तु बंधका कारण नहीं होती)। यहाँ प्रश्न होता है कि-यदि बाह्यवस्तु बंधका कारण नहीं है तो ( 'बाह्यवस्तका प्रसंग मत करो. किन्त त्याग करो' इसप्रकार) बाह्यवस्तुका प्रतिषेध (निषेध) किस लिये किया जाता है ? इसका समाधान इस प्रकार है:-अध्यवसानके निषेध के लिये बाह्यवस्तुका निषेध किया जाता है। अध्यवसानको बाह्यवस्तु आश्रयभूत है; बाह्यवस्तुका आश्रय किये बिना अध्यवसान अपने स्वरूपको प्राप्त नहीं होता अर्थात् उत्पन्न नहीं होता। यदि बाह्यवस्तुके आश्रय के बिना भी अध्यवसान उत्पन्न नहीं होता तो, जैसे आश्रयभूत वीरजननीके [ शूरवीरको जन्म देनेवाली; शूरवीरकी माता।] पुत्रके सद्भावमें (किसीको) ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न होता है कि 'मैं वीरजननीके पुत्रको मारता हूँ' इसीप्रकार अश्रयभूत बंध्यापुत्रके असद्भावमें भी (किसीको) ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न होना चाहिये कि 'मैं बंध्यापुत्रको मारता हूँ'। परंतु ऐसा अध्यवसाय तो (किसीको) उत्पन्न नहीं होता। (जहाँ बंध्याका पुत्र ही नहीं होता वहाँ मारनेका अध्यवसाय कहाँ से उत्पन्न हो ?) इसलिये यह नियम है कि (बाह्यवस्तुरूप) आश्रय के बिना अध्यवसान नहीं होता। और इसलिये अध्यवसानको आश्रयभूत बाह्यवस्तुका अत्यन्त निषेध किया है, क्योंकि कारणके प्रतिषेधसे ही कार्यका प्रतिषेध होता है। (बाह्यवस्तु अध्यवसानका कारण है इसलिये उसके प्रतिषेधसे अध्यवसानका प्रतिषेध होता है)। परंतु, यद्यपि बाह्यवस्तु बंधके कारणका (अर्थात् अध्यवसानका) कारण है तथापि वह (बाह्यवस्तु) बंधका कारण नहीं है; क्योंकि ईर्यासमितिमें परिणमित मुनींद्रके चरणसे मर जाने वाले ऐसे किसी वेगसे
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बंध अधिकार
३८९
बाह्यवस्तुनो बन्धहेतुहेतोरबन्धहेतुत्वेन बन्धहेतुत्वस्यानैकान्तिकत्वात्। अतो न बाह्यवस्तु जीवस्यातद्भावो बन्धहेतुः, अध्यवसानमेव तस्य तद्भावो बन्धहेतुः।
एवं बन्धहेतुत्वेन निर्धारितस्याध्यवसानस्य स्वार्थक्रियाकारित्वाभावेन मिथ्यात्वं दर्शयति
दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि। जा एसा मूढमदी णिरत्थया सा हु दे मिच्छा।। २६६ ।।
आपतित कालप्रेरित उड़ते हुए जीवकी भाँति, बाह्यवस्तु-जो कि बंधके कारणका कारण है वह-बंधका कारण न होने से, बाह्यवस्तुको बंधका कारणत्व मानने में अनैकांतिक हेत्वाभासत्व है-व्यभिचार आता है। (इसप्रकार निश्चयसे बाह्यवस्तुको बंधका कारणत्व निर्बाधतया सिद्ध नहीं होता।) इसलिये बाह्यवस्तु जो कि जीवको अतद्भावरूप है वह बंधका कारण नहीं है; किन्तु अध्यवसान जो कि जीवको तद्भावरूप है वही बंधका कारण है।
भावार्थ:-बंधका कारण निश्चयसे अध्यवसान ही है; और जो बाह्यवस्तुएं हैं वे अध्यवसानका आलंबन है-उनको अवलंबन कर अध्यवसान उत्पन्न होता है, इसलिये उन्हें अध्यवसानका कारण कहा जाता है। बाह्यवस्तु के बिना निराश्रयतया अध्यवसान उत्पन्न नहीं होते इसलिये बाह्यवस्तुओंका त्याग कराया जाता है। यदि बाह्यवस्तुओंको बंधका कारण कहा जाये तो उसमें व्यभिचार ( दोष) आता है। ( कारण होने पर भी कहीं कार्य दिखाई देता है और कहीं नहीं दिखाई देता उसे व्यभिचार कहते हैं और ऐसे कारणको व्यभिचारी-अनैकांतिक-कारणाभास कहते हैं।) कोई मुनि ईर्यासमितिपूर्वक यत्नसे गमन करते हों और उनके पैर के नीचे उड़ता हुआ जीव वेगपूर्वक आ गिरे तथा मर जाये तो मुनिको उसकी हिंसा नहीं लगती। यहाँ यदि बाह्य दृष्टिसे देखा जाये तो हिंसा हुई है परंतु मुनिके हिंसाका अध्यवसाय नहीं होनेसे उन्हें बन्ध नहीं होता। जैसे पैर के नीचे आकर मर जानेवाला जीव मुनिके बंधका कारण नहीं है उसीप्रकार अन्य बाह्यवस्तुओं के संबंध में भी समझना चाहिये। इसप्रकार बाह्यवस्तुको बंधका कारण माननेमें व्यभिचार आता है इसलिये बाह्यवस्तु बंधका कारण नहीं है यह सिद्ध हुआ। और बाह्यवस्तु बिना निराश्रयसे अध्यवसान नहीं होता, इसलिये बाह्यवस्तुका निषेध भी है ही।
इसप्रकार बंधके कारणरूपसे निश्चित किया गया अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करनेवाला न होनेसे मिथ्या है-यह अब बतलाते हैं:
करता दुखी-सुखी जीवको, अरु बद्ध-मुक्त करूँ अरे! ये मूढ मति तुझ है निरर्थक, इस हि से मिथ्या ही है ।। २६६ ।।
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समयसार
३९०
दुःखितसुखितान् जीवान् करोमि बन्धयामि तथा विमोचयामि। या एषा मूढमतिः निरर्थिका सा खलु ते मिथ्या।। २६६ ।।
परान् जीवान् दुःखयामि सुखयामीत्यादि, बन्धयामि मोचयामीत्यादि वा, यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि, परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात्, खकुसुमं लुनामीत्यध्यवसानवन्मिथ्यारूपं, केवलमात्मनोऽनर्थायैव।
कुतो नाध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारीति चेत्अज्झवसाणणिमित्तं जीवा बज्झंति कम्मणा जदि हि। मुच्चंति मोक्खमग्गे ठिदा य ता किं करेसि तुम।। २६७ ।।
गाथार्थ:-हे भाई! [ जीवान् ] मैं जीवोंको [ दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी [ करोमि ] करता हूँ, [ बन्धयामि ] बँधाता हूँ [ तथा विमोचयामि] तथा छुड़ाता हूँ, [ या एषा ते मूढमतिः] ऐसी जो यह तेरी मूढ़ मति [-मोहित बुद्धि ] है [ सा] वह [निरर्थिका ] निरर्थक होनेसे [ खलु ] वास्तवमें [ मिथ्या ] मिथ्या है।
टीका:-मैं पर जीवोंको दुःखी करता हूँ, सुखी करता हूँ इत्यादि तथा बँधाता हूँ, छुड़ाता हूँ इत्यादि जो यह अध्यवसान है वह सब, परभावका परमें व्यापार न होने के कारण अपनी अर्थक्रिया करने वाला नहीं है इसलिये, 'मैं आकाश पुष्प को तोड़ता हूँ' ऐसे अध्यवसानकी भाँति मिथ्यारूप है, केवल अपने अनर्थके लिये ही है (अर्थात् मात्र अपने लिये ही हानिका कारण होता है, परका तो कुछ कर नहीं सकता)।
भावार्थ:-जो अपनी अर्थक्रिया (-प्रयोजनभूत क्रिया) नहीं कर सकता वह निरर्थक है, अथवा जिसका विषय नहीं है वह निरर्थक है। जीव पर जीवोंको दुःखीसुखी आदि करने की बुद्धि करता है, परंतु पर जीव अपने किये दुःखी-सुखी नहीं होते; इसलिये वह बुद्धि निरर्थक है और निरर्थक होनेसे मिथ्या है-झूठी है।
अब यह प्रश्न होता है कि अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करनेवाला कैसे नहीं है ? इसका उत्तर कहते हैं:
सब जीव अध्यवसानकारण कर्मसे बँधते जहाँ । अरु मोक्षमार्ग थित जीव छूटें, तू ही क्या करता भला ?।।२६७।।
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बंध अधिकार
३९१
अध्यवसाननिमित्तं जीवा बध्यन्ते कर्मणा यदि हि।
मुच्यन्ते मोक्षमार्गे स्थिताश्च तत् किं करोषि त्वम्।। २६७ ।। यत्किल बन्धयामि मोचयामीत्यध्यवसानं तस्य हि स्वार्थक्रिया यद्वन्धनं मोचनं जीवानाम्। जीवस्त्वस्याध्यवसायस्य सद्भावेऽपि सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः अभावान्न बध्यते, न मुच्यते; सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः सद्भावात्तस्याध्य वसायस्याभावेऽपि बध्यते, मुच्यते च। ततः परत्राकिञ्चित्करत्वान्नेदमध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारि; ततश्च मिथ्यैवेति भावः।
__ (अनुष्टुभ् ) अनेनाध्यवसायेन निष्फलेन विमोहितः। तत्किञ्चनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत्।।१७१ ।।
गाथार्थ:-हे भाई! [ यदि हि] यदि वास्तवमें [अध्यवसाननिमित्तं ] अध्यवसानके निमित्तसे [ जीवाः] जीव [ कर्मणा बध्यन्ते] कर्मसे बँधते हैं [च] और [ मोक्षमार्गे स्थिताः] मोक्षमार्गमें स्थित [ मुच्यन्ते] छूटते हैं, [ तद् ] तो [त्वम् किं करोषि ] तू क्या करता है ? ( तेरा तो बाँधने-छोड़नेका अभिप्राय व्यर्थ गया।)
टीका:- मैं बाँधता हूँ, छुड़ाता हूँ' ऐसा जो अध्यवसान उसकी अपनी अर्थक्रिया जीवोंको बाँधना, छोड़ना है। किन्तु जीव तो, इस अध्यवसायका सद्भाव होनेपर भी, अपने सराग-वीतराग परिणामके अभावसे नहीं बँधता और मुक्त नहीं होता; तथा अपने सराग-वीतराग परिणामके सद्भावसे, उस अध्यवसायका अभाव होनेपर भी, बँधता है और छूटता है। इसलिये परमें अकिंचित्कर होनेसे ( अर्थात् कुछ नहीं कर सकता होनेसे) यह अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करनेवाला नहीं है; और इसलिये मिथ्या ही है। ऐसा भाव ( आशय ) है।
भावार्थ:-जो हेतु कुछ भी नहीं करता वह अकिंचित्कर कहलाता है। यह बाँधने-छोड़नेका अध्यवसान भी परमें कुछ नहीं करता, क्योंकि यदि वह अध्यवसान हो तो भी जीव अपने सराग-वीतराग परिणामसे बंध-मोक्षको प्राप्त होता है, और वह अध्यवसान हो तो भी अपने सराग-वीतराग परिणामके अभावसे बंध-मोक्षको प्राप्त नहीं होता। इसप्रकार अध्यवसान परमें अकिंचित्कर होनेसे स्व-अर्थक्रिया करनेवाला नहीं है इसलिये मिथ्या है।
अब इस अर्थका कलशरूप और आगामी कथनका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अनेन निष्फलेन अध्यवसायेन मोहितः] इस निष्फल (निरर्थक) अध्यवसायसे मोहित होता हुआ [ आत्मा ] आत्मा [ तत् किञ्चन अपि न एव अस्ति यत् आत्मानं न करोति ] अपनेको सर्वरूप करता है,
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समयसार
३९२
सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण तिरियणेरइए। देवमणुए य सव्वे पुण्णं पावं च णेयविहं।। २६८ ।। धम्माधम्मं च तहा जीवाजीवे अलोगलोगं च। सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण अप्पाणं ।। २६९ ।। सर्वान् करोति जीवोऽध्यवसानेन तिर्यनैरयिकान्। देवमनुजांश्च सर्वान् पुण्यं पापं च नैकविधम्।। २६८ ।। धर्माधर्म च तथा जीवाजीवौ अलोकलोकं च।
सर्वान् करोति जीवः अध्यवसानेन आत्मानम्।। २६९ ।। यथायमेवं क्रियागर्भहिंसाध्यवसानेन हिंसकं,
-ऐसा कुछ भी नहीं है जिसरूप अपनेको न करता हो।
भावार्थ:-यह आत्मा मिथ्या अभिप्रायसे भूला हुआ चतुर्गति-संसारमें जितनी अवस्थाएं हैं, जितने पदाथै हैं उन सर्वरूप अपनेको हुआ मानता है; अपने शुद्ध स्वरूपको नहीं पहिचानता। १७१।
अब इस अर्थको स्पष्टतया गाथामें कहते हैं:तिर्यंच, नारक , देव , मानव , पुण्य पाप अनेक जो। उन सर्वरूप करै जु निजको, जीव अध्यवसानसे ।। २६८।। अरु त्यों हि धर्म अधर्म, जीव-अजीव, लोक-अलोक जे । उन सर्वरूप करै जु निजको, जीव अध्यवसानसे।। २६९ ।।
गाथार्थ:- [जीवः] जीव [ अध्यवसानेन] अध्यवसानसे [ तिर्यनैरयिकान्] तिर्यंच, नारक, [ देवमनुजान् च] देव और मनुष्य [ सर्वान् ] इन सर्व पर्यायों, [च] तथा [ नैकविधम् ] अनेक प्रकारके [ पुण्यं पापं] पुण्य और पाप- [ सर्वान् ] इन सबरूप [ करोति] अपनेको करता है। [ तथा च] और उसी प्रकार [ जीवः] जीव [अध्यवसानेन] अध्यवसानसे [धर्माधर्म] धर्म-अधर्म, [जीवाजीवौ] जीव-अजीव [च ] और [अलोकलोकं ] लोक-अलोक- [ सर्वान् ] इन स्वरूप [आत्मानम् करोति] अपनेको करता है।
__टीका:-जैसे यह आत्मा पूर्वोक्त प्रकार क्रिया जिसका गर्भ है ऐसे हिंसाके अध्यवसानसे अपनेको हिंसक करता है,
* हिंसा आदिके अध्यवसान रागद्वेषके उदयमय हनन आदिकी क्रियाओंसे परिपूर्ण है, अर्थात् उन क्रियाओंके साथ आत्माकी तन्मयता होनेकी मान्यतारूप है।
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बंध अधिकार
३९३
इतराध्यवसानैरितरं च आत्मात्मानं कुर्यात्, तथा विपच्यमाननारकाध्यवसानेन नारकं, विपच्यमानतिर्यगध्यवसानेन तिर्यञ्चं, विपच्यमानमनुष्याध्यवसानेन मनुष्यं, विपच्यमानदेवाध्यवसानेन देवं, विपच्यमानसुखादिपुण्याध्यवसानेन पुण्यं, विपच्यमानदुःखादिपापाध्यवसानेन पापमात्मानं कुर्यात्। तथैव च ज्ञायमानधर्माध्यवसानेन
धर्म,
ज्ञायमानाधर्माध्यवसानेनाधर्म, ज्ञायमानजीवान्तराध्यवसानेन जीवान्तरं, ज्ञायमानपुद्गलाध्यवसानेन पुद्गलं, ज्ञायमानलोकाकाशाध्यवसानेन लोकाकाशं, ज्ञायमानालोकाकाशाध्यवसानेनालोकाकाशमात्मानं कुर्यात्।
(इन्द्रवज्त्रा) विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावादात्मानमात्मा विदधाति विश्वम्। मोहैककन्दोऽध्यवसाय एष नास्तीह येषां यतयस्त एव।। १७२ ।।
( अहिंसाके अध्यवसानसे अपने अहिंसक करता है) और अन्य अध्यवसानोंसे अपनेको अन्य करता है, इसीप्रकार उद्यमें आते हुए नारकके अध्यवसानसे अपनेको नारकी करता है, उदयमें आते हुए तिर्यंचके अध्यवसानसे अपनेको तिर्यंच करता है, उदयमें आते हुए मनुष्यके अध्यवसानसे अपनेको मनुष्य करता है, उदयमें आते हुए देवके अध्यवसानसे अपनेको देव करता है, उदयमें आते हुए सुख आदि पुण्यके अध्यवसानसे अपनेको पुण्यरूप करता है और उदयमें आते हुए दुःख आदि पापके अध्यवसानसे अपनेको पापरूप करता है; और इसीप्रकार जानने में आता हुआ जो धर्म (धर्मास्तिकाय ) है उसके अध्यवसानसे अपनेको धर्मरूप करता है, जानने में आता हुए अधर्मके (अधर्मास्तिकायके) अध्यवसानसे अपनेको अधर्मरूप करता है, जाननेमें आते हुए अन्य जीवके अध्यवसानोंसे अपनेको अन्यजीवरूप करता है, जाननेमें आते हुए पुद्गलके अध्यवसानोंसे अपनेको पुद्गलरूप करता है, जाननमें आता हुए लोकाकाशके अध्यवसानसे अपनेको लोकाकाशरूप करता है और जाननेमें आते हुए अलोकाकाशके अध्यवसानसे अपनेको अलोकाकाशरूप करता है। (इसप्रकार आत्मा अध्यवसानसे अपनेको सर्वरूप करता है।)
भावार्थ:-यह अध्यवसान अज्ञानरूप है इसलिये उसे अपना परमार्थ स्वरूप नहीं जानना चाहिये। उस अध्यवसानसे ही आत्मा अपनेको अनेक अवस्थारूप करता है अर्थात् उनमें अपनापन मानकर प्रवर्तता है।
अब इस अर्थका कलशरूप तथा आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ:- [ विश्वात् विभक्तः अपि हि] विश्वसे (समस्त द्रव्योंसे) भिन्न होनेपर भी [ आत्मा] आत्मा [ यत्-प्रभावात् आत्मानम् विश्वम् विदधाति] जिसके प्रभावसे अपनेको विश्वरूप करता है [ एषः अध्यवसाय: ] ऐसा यह अध्यवसाय
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३९४
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समयसार
एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ।। २७० ।। एतानि न सन्ति येषामध्यवसानान्येवमादीनि ।
शुभेन शुभेन वा कर्मणा मुनयो न लिप्यन्ते ।। २७० ।।
एतानि किल यानि
तानि समस्तान्यपि
शुभाशुभकर्मबन्धनिमित्तानि, हिनस्मीत्याद्यध्यवसानं तत्,
त्रिविधान्यध्यवसानानि स्वयमज्ञानादिरूपत्वात्। तथाहि-यदिदं ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियस्य रागद्वेषविपाकमयीनां हननादिक्रियाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानात्, अस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च
[ मोह - एक - कन्दः ] कि जिसका मोह ही एक मूल है वह - [ येषां इह नास्ति ] जिनके नहीं है [ ते एव यतयः ] वे ही मुनि है । १७२ ।
यह अध्यवसाय जिनके नहीं वे मुनि कर्मसे लिप्त नहीं होते - यह अब गाथा द्वारा कहते हैं:
-
इन आदि अध्यवसान विधविध वर्तते नहि जिनहिको ।
शुभ-अशुभ कर्म अनेकसे, मुनिराज वे नहिं लिप्त हों ।। २७०।।
गाथार्थ:- [ एतानि ] यह ( पूर्व कथित ) [ एवमादीनि ] तथा ऐसे और भी [ अध्यवसानानि ] अध्यवसान [ येषाम् ] जिनके [ न सन्ति ] नहीं है, [ते मुनयः] वे मुनि [ अशुभेन ] अशुभ [ वा शुभेन ] या शुभ [ कर्मणा ] कर्मसे [ न लिप्यन्ते ] लिप्त नहीं होते।
टीका:-यह जो तीनों प्रकारके अध्यवसान हैं वे सभी स्वयं अज्ञानादिरूप (अर्थात् अज्ञान, मिथ्यादर्शन और अचारित्ररूप ) होनेसे शुभाशुभ कर्मबंधके निमित्त हैं। इसे विशेष समझाते हैं: - ' मैं ( पर जीवोंको) मारता हूँ', इत्यादि जो अध्यवसान है उस अध्यवसानवाले जीवको, ज्ञानमयपने के सद्भावसे 'सत्रूप अहेतुकज्ञप्ति ही जिसकी एक क्रिया है ऐसे आत्माका और रागद्वेषके उदयमय ऐसी हनन आदि क्रियाओंका "विशेष नहीं जाननेके कारण भिन्न आत्माका अज्ञान होनेसे, वह अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान है, भिन्न आत्माका अदर्शन ( अश्रद्धान) होनेसे
१। सत्प = सत्तास्वरूप; अस्तित्वस्वरूप । ( आत्मा ज्ञानमय है इसलिये सत्प अहेतुक ज्ञप्ति ही उसकी एक क्रिया है । )
२। अहेतुक = जिसका कोई कारण नहीं है ऐसी, अकारण; स्वयंसिद्ध; सहज ।
३। ज्ञप्ति
= जानना; जाननेरूपक्रिया । (ज्ञप्तिक्रिया सत्प है, और सत्प होनेसे अहेतुक है । ) ४। हनन = घात करना; घात करनेरूप क्रिया ( घात करना आदि क्रियायें रागद्वेषके उदयमय हैं। ) ५। विशेष= अन्तर; भिन्न लक्षण ।
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बंध अधिकार
३९५
मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम्। [यत्पुनः नारकोऽहमित्याद्यध्यवसानं तदपि, ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञायकैकभावस्य कर्मोदयजनितानां नारकादिभावानां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणा-दस्ति चाचारित्रम्।] यत्पुनरेष धर्मो ज्ञायत इत्याद्यध्यवसानं तदपि, ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञानैकरूपस्य ज्ञेयमयानां धर्मादिरूपाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानात्, अस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम्। ततो बन्धनिमित्तान्येवैतानि समस्तान्यध्यवसानानि। येषामेवैतानि न विद्यन्ते त एव मुनिकुञ्जराः केचन, सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियं, सदहेतुकज्ञायकैकभावं, सदहेतुकज्ञानैकरूपं च विविक्तमात्मानं जानन्तः, सम्यक्पश्यन्तोऽनुचरन्तश्च , स्वच्छस्वच्छन्दोद्यदमन्दान्त
( वह अध्यवसान) मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्माका अनाचरण होनेसे ( वह अध्यवसान) अचारित्र है। [और 'मैं नारक हूँ' इत्यादि जो अध्यवसान है वह अध्यवसानवाले जीवको भी, ज्ञानमयपनेके सद्भावसे सत्रुप अहेतुक ज्ञायक ही जिसका एक भाव है ऐसा आत्माका और कर्मोदयजनित नारक आदि भावोंका विशेष न जानने के कारण भिन्न आत्माका अज्ञान होनेसे , वह अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान है, भिन्न आत्माका अदर्शन होनेसे ( वह अध्यवसान) मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्माका अनाचरण होनेसे ( वह अध्यवसान) अचारित्र है।] और यह धर्मद्रव्य ज्ञात होता है' इत्यादि जो अध्यवसान है उस अध्यवसानवाले जीवको भी, "ज्ञानमयपनेके सद्भावसे सप अहेतुक ज्ञान ही जिसका एक रूप है ऐसे आत्माका और ज्ञेयमय धर्मादिक रूपोंका विशेष न जानने के कारण भिन्न आत्माका अज्ञान होनेसे, वह अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान है, भिन्न आत्माका अदर्शन होनेसे ( वह अध्यवसान) मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्माका अनाचरण होनेसे ( वह अध्यवसान) अचारित्र है। इसलिये यह समस्त अध्यवसान बंधके ही निमित्त हैं।
मात्र जिनके यह अध्यवसान विद्यमान नहीं हैं वे ही कोई (विरले ) मुनिकुंजर (मुनिवरों), सत्प अहेतुक ज्ञप्ति ही जिसकी एक क्रिया है, सत्प अहेतुक ज्ञायक ही जिसके एक भाव है और सत्रुप अहेतुक ज्ञान ही जिसका एक रूप है ऐसे भिन्न आत्माको ( –सर्व अन्यद्रव्यभावोंसे भिन्न आत्माको) जानते हुए, सम्यक् प्रकारसे देखते ( श्रद्धा करते) हुए और अचरण करते हुए, स्वच्छ और स्वच्छंदतया उदयमान (स्वाधीनतया प्रकाशमान )
* आत्मा ज्ञानमय है इसलिये सत्प
अहेतुक ज्ञान ही जिसका एक रूप है।
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समयसार
३९६
कॊतिषोऽत्यन्तमज्ञानादिरूपत्वाभावात् , शुभेनाशुभेन वा कर्मणा न खलु लिप्येरन्। किमेतदध्यवसानं नामेति चेत्बुद्धी ववसाओ वि य अज्झवसाणं मदी य विण्णाणं। एक्कट्ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो।। २७१ ।।
बुद्धिर्व्यवसायोऽपि च अध्यवसानं मतिश्च विज्ञानम्। एकार्थमेव सर्व चित्तं भावश्च परिणामः ।। २७१ ।।
ऐसी अमंद अंततिको अज्ञानादिरूपताका अत्यंत अभाव होनेसे (अर्थात् अंतरंगमें प्रकाशित होती हुई ज्ञानज्योति किंचित् मात्र भी अज्ञानरूप, मिथ्यादर्शनरूप और अचारित्ररूप नहीं होती इसलिये),शुभ या अशुभ कर्मसे वास्तवमें लिप्त नहीं होते।
भावार्थ:-यह जो अध्यवसान हैं वे ' मैं परका हनन करता हूँ' इस प्रकारके हैं, 'मैं नारक हूँ' इसप्रकार के हैं तथा ' मैं परद्रव्यको जानता हूँ' इस प्रकारके हैं। वे, जबतक आत्माका और रागादिका, आत्माका और नारकादि कर्मोदयजनित भावोंका तथा आत्माका और ज्ञेयरूप अन्यद्रव्योंका भेद न जाना हो, तबतक रहते हैं। वे भेदज्ञानके अभावके कारण मिथ्याज्ञानरूप है, मिथ्यादर्शनरूप है और मिथ्याचारित्ररूप है; यों तीन प्रकारके होते हैं। वे अध्यवसान जिनके नहीं है वे मुनिकुंजर हैं। वे आत्माको सम्यक् जानते हैं, सम्यक् श्रद्धा करते हैं और सम्यक् आचरण करते हैं, इसलिये अज्ञानके अभावसे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप होते हुए कर्मोसे लिप्त नहीं होते।
" यहाँ बारम्बार अध्यवसान शब्द कहा गया है, वह अध्यवसान क्या है उसका स्वरूप भलीभाँति समझमें नहीं आया ?” ऐसा प्रश्न होने पर, अध्यवसानका स्वरूप गाथामें कहते हैं:
जो बुद्धि , मति, अवसाय, अध्यवसान, अरु विज्ञान है। परिणाम, चित्त रु भाव-शब्दहि सर्व ये एकार्थ है ।। २७१।।
गाथार्थ:- [ बुद्धिः] बुद्धि , [ व्यवसाय: अपि च ] व्यवसाय, [ अध्यवसानं ] अध्यवसान , [ मतिः च ] मति, [ विज्ञानम् ] विज्ञान , [ चित्तं ] चित्त , [ भावः ] भाव [ च] और [ परिणामः ] परिणाम- [ सर्व] ये सब [ एकार्थम् एव ] एकार्थ ही हैं (-अर्थात् नाम अलग अलग हैं किन्तु अर्थ भिन्न नहीं हैं)।
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स्वपरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवसितिमात्रमध्यवसानं; तदेव च बोधनमात्रत्वाद्बुद्धिः, व्यवसानमात्रत्वाद्व्यवसाय:, मननमात्रत्वान्मतिः, विज्ञप्तिमात्रत्वाद्विज्ञानं, चेतनामात्रत्वाच्चित्तं, चितो भवनमात्रत्वाद्भाव:, चितः परिणमनमात्रत्वात्परिणामः।
( शार्दूलविक्रीडित ) सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै
स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः। सम्यङ्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् ।। १७३ ।।
३९७
टीका:-स्व-परका अविवेक हो ( स्व-परका भेदज्ञान न हो ) तब जीवकी 'अध्यवसितिमात्र अध्यवसान है; और वही ( जिसे अध्यवसान कहा है वही ) बोधनमात्रत्व बुद्धि है, 'व्यवसानमात्रत्वसे व्यवसाय है, 'मननमात्रत्वसे मति है, विज्ञप्तिमात्रत्वसे विज्ञान है, चेतनामात्रत्वसे चित्त है, चेतनना भवनमात्रत्वसे भाव है, चेतनके परिणमनमात्रत्वसे परिणाम है। ( इसप्रकार यह सब शब्द एकार्थवाची हैं। )
भावार्थ:-यह जो बुद्धि आदि आठ नाम कहे गये हैं वे सब चेतन आत्माके परिणाम हैं। जबतक स्वपरका भेदज्ञान न हो तबतक जीवके जो अपने और परके एकत्व की निश्चयरूप परिणति पाई जाती है उसे बुद्धि आदि आठ नामोंसे कहा जाता है।
'अध्यवसान त्यागनेयोग्य कहें है इससे ऐसा ज्ञात होता है कि व्यवहारका त्याग और निश्चयका ग्रहण कराया है' - इस अर्थका एवं आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थः-आचार्यदेव कहते हैं कि:- [ सर्वत्र यद् अध्यवसानम् ] सर्व वस्तुओंमें जो अध्यवसान होते हैं [ अखिलं ] वे सब (अध्यवसान ) [ जिनैः] जिनेन्द्र भगवानने [ एवम् ] पूर्वोक्त रीतिसे [ त्याज्यं उक्तं ] त्यागनेयोग्य कहे हैं [ तत् ] इसलिये [ मन्ये ] हम यह मानते हैं कि [ अन्य - आश्रयः व्यवहारः एव निखिलः अपि त्याजितः ] पर जिसका आश्रय है ऐसा व्यवहार ही सम्पूर्ण छुड़ाया है । ' [ तत् ] तब फिर, [ अमी सन्तः] यह सत्पुरुष [ एकम् सम्यक् निश्चयम् एव निष्कम्पम् आक्रम्य ] एक सम्यक् निश्चयको ही निश्चलतया अंगीकार करके [ शुद्धज्ञानघने निजे महिम्नि ] शुद्धज्ञानघनस्वरूप निज महिमामें ( - आत्मस्वरूपमें ) [ धृतिम् किं न बध्नन्ति ] स्थिरता क्यों धारण नहीं करते ?
१। अध्यवसिति = (एकमें दूसरे की मान्यतापूर्वक ) परिणति; ( मिथ्या) निश्चिति; ( मिथ्या ) निश्चय होना । २। व्यवसान = काममें लगे रहना; उद्यमी होना; निश्चय होना । ३ । मनन = मानना; जानना ।
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समयसार
३९८
एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण। णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं ।। २७२ ।।
एवं व्यवहारनयः प्रतिषिद्धो जानीहि निश्चयनयेन। निश्चयनयाश्रिताः पुनर्मुनयः प्राप्नुवन्ति निर्वाणम्।। २७२ ।।
आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः। तत्रैवं निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यवसानं बन्धहेतुत्वेन मुमुक्षोः प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्धः, तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात्। प्रतिषेध्य एव चायं , आत्माश्रितनिश्चय- नयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात्, पराश्रितव्यवहारनयस्यैकान्तेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्या- श्रीयमाणत्वाच।
भावार्थ:-जिनेन्द्रदेवने अन्य पदार्थों में आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छुड़ाये है इससे यह समझना चाहिये कि यह समस्त पराश्रित व्यवहार ही छुड़ाया है। इसलिये आवार्यदेवने शुद्धनिश्चयके ग्रहणका ऐसा उपदेश दिया है 'शुद्धज्ञानस्वरूप अपनी आत्मामें स्थिरता रखो'। और, “जब कि भगवानने अध्यवसान छुड़ाये हैं तब फिर सत्पुरुषो निश्चयको निश्चलतापूर्वक अंगीकार करके स्वरूपमें स्थिर क्यों नहीं होते ?यह हमें आश्चर्य होता है" यह कहकर आचार्यदेवने आश्चर्य प्रगट किया है। १७३।
अब इस अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं:
व्यवहारनय इस रीत जान, निषिद्ध निश्चयनय हि से । मुनिराज जो निश्चयनयाश्रित, मोक्षकी प्राप्ति करे ।। २७२।।
गाथार्थ:- [एवं] इसप्रकार [व्यवहारनयः] (पराश्रित) व्यवहारनय [ निश्चयनयेन] निश्चयनयके द्वारा [प्रतिषिद्धः जानीहि ] निषिद्ध जान; [ पुनः निश्चयनयाश्रिताः ] निश्चयनयके आश्रित [ मुनयः ] मुनि [निर्वाणम् ] निर्वाणको [ प्राप्नुवन्ति ] प्राप्त होते हैं।
टीका:-आत्माश्रित (अर्थात् स्व-आश्रित) निश्चयनय है, पराश्रित (अर्थात् परके आश्रित) व्यवहारनय है। वहाँ, पूर्वोक्त प्रकारसे पराश्रित समस्त अध्यवसान ( अर्थात् अपने और परके एकत्वकी मान्यतापूर्वक परिणमन) बंधका कारण होनेसे मुमुक्षुओंको उसका (-अध्यवसानका) निषेध करते हुए ऐसे निश्चयनयके द्वारा वास्तवमें व्यवहारनयका ही निषेध कराया है, क्योंकि व्यवहारनयके भी पराश्रितता समान ही है (-जैसे अध्यवसान पराश्रित है उसीप्रकार व्यवहारनय भी पराश्रित है, उसमें अन्तर नहीं है)। और इसप्रकार यह व्यवहारनय निषेध करने योग्य ही है; क्योंकि आत्माश्रित निश्चयनयका आश्रय करने वाले ही (कर्मोंसे) मुक्त होते है और पराश्रित व्यवहारनयका आश्रय तो एकांततः मुक्त नहीं होनेवाला अभव्य भी करता है।
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३९९
कथमभव्येनाप्याश्रीयते व्यवहारनयः इति चेत्
वदसमिदीगुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं। कुव्वंतो वि अभव्वो अप्णाणी मिच्छदिट्ठी दु।। २७३ ।।
व्रतसमितिगुप्तयः शीलतपो जिन रै: प्रज्ञप्तम्। कुन्नप्यभव्याऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिस्तु ।। २७३ ।।
शीलतप:परिपूर्ण त्रिगुप्तिपंचसमितिपरिकलितमहिंसादिपञ्चमहाव्रतरूपं व्यवहार-चारित्रं अभव्योऽपि कुर्यात्, तथापि स निश्चारित्रोऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिरेव, निश्चय- चारित्रहेतुभूतज्ञानश्रद्धानशून्यत्वात्।
भावार्थ:-आत्माके परके निमित्तसे जो अनेक भाव होते हैं वे सब व्यवहारनयके विषय हैं इसलिये व्यवहारनय पराश्रित हैं, और जो एक अपना स्वाभाविक भाव है वही निश्चयनयका विषय है इसलिये निश्चयनय आत्माश्रित है। अध्यवसान भी व्यवहारनयका ही विषय है इसलिये अध्यवसानका त्याग व्यवहारनयका ही त्याग है, और जो पूर्वोक्त गाथाओंमें अध्यवसानके त्यागका उपदेश है वह व्यवहारनयके ही त्यागका उपदेश है। इसप्रकार निश्चयनयको प्रधान करके व्यवहारनयके त्यागका उपदेश किया है उसका कारण यह है कि-जो निश्चयनयके आश्रयसे प्रवर्तते हैं वे ही कर्मोंसे मुक्त होते हैं और जो एकांतसे व्यवहारनयके ही आश्रयसे प्रवर्तते हैं वे कर्मों से कभी मुक्त नहीं होते।
अब प्रश्न होता है कि अभव्य जीव भी व्यवहारनयका आश्रय कैसे करते हैं ? उसका उत्तर गाथा द्वारा कहते हैं:
जिनवरप्ररूपित व्रत, समिति, गुप्ति अवरु तप-शीलको। करता हुआ भी अभव्य जीव, अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है ।। २७३।।
गाथार्थ:- [जिनवरैः] जिनेन्द्रदेव के द्वारा [प्रज्ञप्तम्] कथित [ व्रतसमितिगुप्तयः ] व्रत, समिति , गुप्ति , [शीलतपः ] शील, तप [ कुर्वन् अपि] करता हुआ भी [अभव्यः ] अभव्य जीव [अज्ञानी] अज्ञानी [ मिथ्यादृष्टि: तु] और मिथ्यादृष्टि
टीका:-शील और तपसे परिपूर्ण, तीन गुप्ति और पाँच समितियोंके प्रति सावधानीसे युक्त, अहिंसादि पाँच महाव्रतरूप व्यवहारचारित्र ( का पालन ) अभव्य भी करता है; तथापि वह (अभव्य ) निश्चारित्र (-चारित्ररहित), अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही है क्योंकि वह निश्चयचारित्रके कारणरूप ज्ञान-श्रद्धानसे शून्य है।
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समयसार
४००
तस्यैकादशाङ्गज्ञानमस्ति इति चेत्
मोक्खं असद्दहंतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज्ज। पाठो ण करेदि गुणं असद्दहंतस्स णाणं तु।। २७४ ।।
मोक्षमश्रद्दधानोऽभव्यसत्त्वस्तु योऽधीयीत।
पाठो न करोति गुणमश्रद्दधानस्य ज्ञानं तु।। २७४ ।। मोक्षं हि न तावदभव्यः श्रद्धत्ते, शुद्धज्ञानमयात्मज्ञानशून्यत्वात्। ततोज्ञानमपि नासौ श्रद्धत्ते। ज्ञानमश्रद्दधानश्चाचाराधेकादशाङ्गं श्रुतमधीयानोऽपि श्रुताध्ययनगुणाभावान्न ज्ञानी स्यात्। स किल गुण: श्रुताध्ययनस्य यद्विविक्तवस्तुभूतज्ञान - मयात्मज्ञानं; तच्च विविक्तवस्तुभूतं ज्ञानमश्रद्दधानस्याभव्यस्य श्रुताध्ययनेन न विधातुं शक्येत। ततस्तस्य तद्गुणाभावः।
भावार्थ:-अभच्य जीव महाव्रत-समिति-गुप्तिरूप व्यवहार चारित्रका पालन करे तथापि निश्चय सम्यग्ज्ञानश्रद्धानके बिना वह चारित्र ‘सम्यक्चारित्र' नामको प्राप्त नहीं करता; इसलिये वह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और निश्चारित्र ही है।
अब शिष्य पूछता है कि-उसे (अभव्यको) ग्यारह अंगका ज्ञान तो होता है; फिर भी उसको अज्ञानी क्यों कहा है ? इसका उत्तर कहते हैं:
मोक्षकी श्रद्धाविहीन, अभव्य जीव शास्त्रों पढ़े। पर ज्ञानकी श्रद्धारहितको, पठन ये नहिं गुण करे ।। २७४ ।।
गाथार्थ:- [ मोक्षम् अश्रद्दधानः ] मोक्षकी श्रद्धा न करता हुआ [ यः अभव्यसत्त्वः ] जो अभव्यजीव है वह [तु अधीयीत ] शास्त्र तो पढ़ता है, [ तु] परंतु [ ज्ञानं अश्रद्दधानस्य ] ज्ञानकी श्रद्धा न करने वाले उसको [पाठ: ] शास्त्रपठन [ गुणम् न करोति ] गुण नहीं करता।
टीका:-प्रथम तो अभव्य जीव ( स्वयं) शुद्ध ज्ञानमय आत्मा के ज्ञान से शून्य होने के कारण मोक्षकी ही श्रद्धा नहीं करता। इसलिये वह ज्ञानकी भी श्रद्धा नहीं करता। और ज्ञानकी श्रद्धा न करता हुआ वह (अभव्य), आचारांग आदि ग्यारह अंगरूप श्रुतको (शास्त्रोंकी) पढ़ता हुआ भी, शास्त्रपठनके जो गुण उसके अभावके कारण ज्ञानी नहीं है। जो भिन्नवस्तुभूत ज्ञानमय आत्माका ज्ञान वह शास्त्र पठनका गुण है; और वह तो (ऐसा शुद्धात्मज्ञान तो), भिन्न वस्तुभूत ज्ञानकी श्रद्धा न करने वाले अभव्यके शास्त्र-पठनके द्वारा नहीं किया जा सकता (अर्थात् शास्त्र-पठन उसको शुद्धात्मज्ञान नहीं कर सकता); इसलिये उसके शास्त्रपठनके गुणका अभाव है;
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४०१
ततश्च ज्ञानश्रद्धानाभावत् सोऽज्ञानीति प्रतिनियतः।
तस्य धर्मश्रद्धानमस्तीति चेत्सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि। धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।। २७५ ।।
श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचयति च तथा पुनश्च स्पृशति।
धर्म भोगनिमित्तं न तु स कर्मक्षयनिमित्तम्।। २७५ ।। अभव्यो हि नित्यकर्मफलचेतनारूपं वस्तु श्रद्धत्ते, नित्यज्ञानचेतनामात्रं न तु श्रद्धत्ते, नित्यमेव भेदविज्ञानानर्हत्वात्। ततः स कर्ममोक्षनिमित्तं ज्ञानमात्रं भूतार्थ धर्म न श्रद्धत्ते, भोगनिमित्तं शुभकर्ममात्रमभूतार्थमेव श्रद्धत्ते। तत एवासौ अभूतार्थधर्मश्रद्धानप्रत्ययनरोचनस्पर्शनैरुपरितनग्रैवेयकभोगमात्रमास्कन्देत्,
इसलिये ज्ञानश्रद्धानके अभावके कारण वह अज्ञानी सिद्ध हुआ।
भावार्थ:-अभव्य जीव ग्यारह अंगोंको पढ़े तथापि शुद्ध आत्माका ज्ञान-श्रद्धान नहीं होता; इसलिये उसे शास्त्रपठनने गुण नहीं किया; और इसलिये वह अज्ञानी ही
शिष्य पुनः पूछता है कि-अभव्यको धर्मका श्रद्धान तो होता है; फिर भी यह क्यों कहा कि उसके श्रद्धान नहीं है' ? इसका उत्तर कहते हैं :
वो धर्मको श्रद्धे, प्रतीत, रुचि अरु स्पर्शन करे । वो भोगहेतु धर्मको, नहिं कर्मक्षयके हेतुको ।। २७५।।
गाथार्थ:- [ सः ] वह ( अभव्य जीव ) [ भोगनिमित्तं धर्म ] भोगके निमित्तरूप धर्मकी ही [ श्रद्दधाति च] श्रद्धा करता है, [ प्रत्येति च ] उसीकी प्रतीति करता है, [ रोचयति च] उसीकी रुचि करता है [ तथा पुनः स्पृशति च] और उसीका स्पर्श करता है, [न तु कर्मक्षयनिमित्तम् ] परंतु कर्मक्षयके निमित्तरूप धर्मको नहीं। (कर्मक्षयके निमित्तरूप धर्मकी न श्रद्धा करता है, न उसकी प्रतीति करता है, न रुचि करता है और न उसका स्पर्श करता है।)
टीका:-अभव्य जीव नित्यकर्मफलचेतनारूप वस्तुकी श्रद्धा करता है किन्तु नित्यज्ञानचेतनामात्र वस्तुकी श्रद्धा नहीं करता क्योंकि वह सदा (स्वपरके) भेदविज्ञानके अयोग्य है। इसलिये वह कर्मों से छूटने के निमित्तरूप, ज्ञानमात्र, भूतार्थ ( सत्यार्थ) धर्मकी श्रद्धा नहीं करता, किन्तु भोगके निमित्तरूप, शुभकर्ममात्र, अभूतार्थ धर्मकी ही श्रद्धा करता है; इसलिये वह अभूतार्थ धर्मकी श्रद्धा, प्रतीति, रुचि और स्पर्शनसे ऊपरके ग्रैवेयक तकके भोगमात्रको प्राप्त होता है
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४०२
न पुनः कदाचनापि विमुच्येत। ततोऽस्य भूतार्थधर्मश्रद्धानाभावात् श्रद्धानमपि नास्ति।एवं सति तु निश्चयनयस्य व्यवहारनयप्रतिषेधो युज्यत एव।
कीदृशौ प्रतिषेध्यप्रतिषेधको व्यवहारनिश्चयनयाविति चेत्आयारादी णाणं जीवादी दंसणं च विण्णेयं । छज्जीवणिकं च तहा भणदि चरित्तं तु ववहारो।। २७६ ।। आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च। आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो।। २७७ ।।
किन्तु कभी भी कर्मसे मुक्त नहीं होता। इसलिये उसे भूतार्थ धर्मके श्रद्धानका अभाव होनेसे ( यथार्थ) श्रद्धान भी नहीं है।
ऐसा होनेसे निश्चयनयके द्वारा व्यवहारनयका निषेध योग्य ही है।
भावार्थ:-अभव्य जीवके भेदज्ञान होनेकी योग्यता न होनेसे वह कर्मफलचेतनाको जानता है किन्तु ज्ञानचेतनाको नहीं जानता; इसलिये उसे शुद्ध आत्मिक धर्मकी श्रद्धा नहीं है। वह शुभ कर्मको ही धर्म समझकर उसकी श्रद्धान करता है इसलिये उसके फलस्वरूप ग्रैवेयक तकके भोगोंको प्राप्त होता है किन्तु कर्मोका क्षय नहीं होता। इसप्रकार सत्यार्थ धर्मका श्रद्धान न होनेसे उसके श्रद्धान ही नहीं कहा जा सकता।
इसप्रकार व्यवहारनयके आश्रित अभव्य जीवको ज्ञान-श्रद्धान न होनेसे निश्चयनय द्वारा किया जाने वाला, व्यवहारका निषेध योग्य ही है।
__यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि-यह हेतुवादरूप अनुभवप्रधान ग्रंथ है इसलिये इसमें अनुभवकी अपेक्षासे भव्य-अभव्यका निर्णय है। अब यदि इसे अहेतुवाद आगमके साथ मिलाएं तो-अभव्यको व्यवहारनयके पक्षका सूक्ष्म, केवलीगम्य आशय रह जाता है जो कि छद्मस्थको अनुभवगोचर नहीं भी होता, मात्र सर्वज्ञदेव जानते हैं; इसप्रकार केवल व्यवहारका पक्ष रहनेसे उसके सर्वथा एकांतरूप मिथ्यात्व रहता है। इस व्यवहारनयके पक्षका आशय अभव्यके सर्वथा कभी भी मिटता ही नहीं है।
अब यह प्रश्न होता है कि “निश्चयनयके द्वारा निषेध्य व्यवहारनय, और व्यवहारनयका निषेधक जो निश्चयनय-वे दोनों नय कैसे हैं ?” अत: व्यवहार और निश्चयनयका स्वरूप कहते है:---
'आचार' आदिक ज्ञान है, जीवादि दर्शन जानना। षट्जीवकाय चरित्र है, -ये कथन नय व्यवहारका ।। २७६ ।। मुझ आत्म निश्चय ज्ञान है, मुझ आत्म दर्शन-चरित है। मुझ आत्म प्रत्याख्यान अरु, मुझ आत्म संवर योग है ।। २७७।।
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बंध अधिकार
४०३
आचारादि ज्ञानं जीवादि दर्शनं च विज्ञेयम्। षड्जीवनिकायं च तथा भणति चरित्रं तु व्यवहारः।। २७६ ।। आत्मा खलु मम ज्ञानमात्मा मे दर्शनं चरित्रं च।
आत्मा प्रत्याख्यानमात्मा मे संवरो योगः।। २७७ ।। आचारादिशब्दश्रुतं ज्ञानस्याश्रयत्वाज्ज्ञानं, जीवादयो नवपदार्था दर्शनस्याश्रय त्वाद्दर्शनं, षड्जीवनिकायश्चारित्रस्याश्रयत्वाचारित्रमिति व्यवहारः। शुद्ध आत्मा ज्ञानाश्रयत्वाज्ज्ञानं, शुद्ध आत्मा दर्शनाश्रयत्वाद्दर्शनं, शुद्ध आत्मा चारित्राश्रयत्वाचारित्रमिति निश्चयः। तत्राचारादीनां ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यानैकान्तिकत्वाव्यवहारनयः प्रतिषेध्यः। निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यैकान्तिकत्वात्तत्प्रतिषेधकः।
तथाहि- नाचारादिशब्दश्रुतमेकान्तेन ज्ञानस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन ज्ञानस्याभावात्; न च जीवादयः पदार्था दर्शनस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन दर्शनस्याभावात; न च षड्जीवनिकाय: चारित्रस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन चारित्रस्याभावात्। शुद्ध आत्मैव ज्ञानस्याश्रयः,
गाथार्थ:- [ आचारादि] आचारांगादि शास्त्र [ ज्ञानं] ज्ञान है, [जीवादि] जीवादि तत्त्व [दर्शनं विज्ञेयम् च] दर्शन जानना चाहिये [च] तथा [षड्जीवनिकायं] छह जीव-निकाय [ चरित्रं] चारित्र है- [ तथा तु] ऐसा तो [ व्यवहारः भणति ] व्यवहारनय कहता है।
[खलु] निश्चयसे [ मम आत्मा] मेरा आत्मा ही [ ज्ञानम् ] ज्ञान है, [ मे आत्मा] मेरा आत्मा ही [ दर्शनं चरित्रं च] दर्शन और चारित्र है, [आत्मा ] मेरा आत्मा ही [प्रत्याख्यानम् ] प्रत्याख्यान है, [ मे आत्मा ] मेरा आत्मा ही [ संवर: योगः] संवर और योग (-समाधि, ध्यान) है।
टीका:-आचारांगादि शब्दश्रुतज्ञान है क्योंकि वह (शब्दश्रुत) ज्ञानका आश्रय है, जीवादि नव पदार्थ दर्शन है क्योंकि वे (नव पदार्थ) दर्शनके आश्रय है, और छह जीव-निकाय चारित्र हैं क्योंकि वह (छह जीव-निकाय) चारित्रका आश्रय है; इसप्रकार व्यवहार है। शुद्ध आत्मा ज्ञान है क्योंकि वह (शुद्धात्मा) ज्ञानका आश्रय है, शुद्ध आत्मा दर्शन है क्योंकि वह दर्शनका आश्रय है, और शुद्ध आत्मा चारित्र है क्योंकि वह चारित्रका आश्रय है; इसप्रकार निश्चय है। इनमें, व्यवहारनय प्रतिषेध्य अर्थात् निषेध्य है, क्योंकि आचारांगादिको ज्ञानादिका आश्रयत्व अनेकांतिक हैव्यभिचारयुक्त है; (शब्दश्रुतादिको ज्ञानादिका आश्रयस्वरूप माननेमें व्यभिचार आता है क्योंकि शब्दश्रुतादिके होने पर ज्ञानादि नहीं भी होते, इसलिये व्यवहारनय प्रतिषेध्य है;) और निश्चयनय व्यवहारनयका प्रतिषेधक है, क्योंकि शुद्ध आत्माके ज्ञानादिका आश्रयत्व ऐकांतिक है। (शुद्ध आत्माको ज्ञानादिक आश्रय माननेमें
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४०४
आचारादिशब्दश्रुतसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव ज्ञानस्य सद्भावात; शुद्ध आत्मैव दर्शनस्याश्रयः, जीवादिपदार्थसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव दर्शनस्य सद्भावात; शुद्ध आत्मैव चारित्रस्याश्रयः, षड्जीवनिकायसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात्।
__ (उपजाति) रागादयो बन्धनिदानमुक्तास्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः। आत्मा परो वा किमु तन्निमित्तमिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः।। १७४ ।।
व्यभिचार नहीं है क्योंकि जहाँ शुद्ध आत्मा होता है वहाँ ज्ञान-दर्शन-चारित्र होता ही है।) यही बात हेतु पूर्वक समझाई जाती है :आचारांगादि शब्दश्रुत एकांतसे ज्ञानका आश्रय नहीं है, क्योंकि उसके (अर्थात् शब्दश्रुतके ) सद्भावमें भी अभव्योंको शुद्ध आत्माके अभावके कारण ज्ञानका अभाव है; जीवादि नव पदार्थ दर्शनके आश्रय नहीं हैं, क्योंकि उनके सद्भावमें भी अभव्योंको शुद्ध आत्माके अभावके कारण दर्शनका अभाव है; छह जीव निकाय चारित्रके आश्रय नहीं है, क्योंकि उनके सद्भावमें भी अभव्योंको शुद्ध आत्माके अभावके कारण चारित्रका अभाव है। शुद्ध आत्मा ही ज्ञानका आश्रय है, क्योंकि आचारांगादि शब्दश्रुतके सद्भावमें या असद्भावमें उसके ( -शुद्ध आत्माके) सद्भावसे ही ज्ञानका सद्भाव है; शुद्ध आत्मा ही दर्शनका आश्रय है, क्योंकि जीवादि नव पदार्थों के सद्भावमें या असद्भावमें उसके ( -शुद्ध आत्माके) सद्भावसे ही दर्शनका सद्भाव है; शुद्ध आत्मा ही चारित्रका आश्रय है, क्योंकि छह जीव-निकायके सद्भावमें या असद्भावमें उसके ( -शुद्ध आत्माके) सद्भावसे ही चारित्रका सद्भाव होता है।
भावार्थ:-आचारांगादि शब्दश्रुतका ज्ञान, जीवादि नव पदार्थोंका श्रद्धान तथा छहकायके जीवोंकी रक्षा-इन सबके होते हुए अभव्यके ज्ञान, दर्शन, चारित्र नहीं होते, इसलिये व्यवहारनय तो निषेध्य है; और जहाँ शुद्धात्मा होता है वहाँ ज्ञान, दर्शन, चारित्र होता ही है, इसलिये निश्चयनय व्यवहारका निषेधक है। अतः शुद्धनय उपादेय कहा गया है।
अब आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ:- [ रागादयः बन्धनिदानम् उक्ताः ] " रागादिको बंधका कारण कहा और [ ते शुद्ध-चिन्मात्र-मह:-अतिरिक्ताः] उन्हें शुद्धचैतन्यमात्र ज्योतिसे (अर्थात् आत्मासे) भिन्न कहा; [ तद्-निमित्तम् ] तब फिर उस रागादिका निमित्त [ किमु आत्मा वा परः ] आत्मा है या कोई अन्य ?" [ इति प्रणुन्नाः पुनः एवम् आहुः ] इसप्रकार (शिष्यके ) प्रश्नसे प्रेरित होते हुए आचार्यभगवान पुनः इसप्रकार (निम्नप्रकारसे) कहते हैं। १७४।
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बंध अधिकार
४०५
जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमदि रागमादीहिं। रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहिं दव्वेहिं।। २७८ ।। एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमदि रागमादीहिं। राइज्जदि अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहिं।। २७९ ।।
यथा स्फटिकमणिः शुद्धो न स्वयं परिणमते रागाद्यैः। रज्यतेऽन्यैस्तु स रक्तादिभिर्द्रव्यैः ।। २७८ ।। एवं ज्ञानी शुद्धो न स्वयं परिणमते रागाद्यैः। रज्यतेऽन्यैस्तु स रागादिभिर्दोषैः ।। २७९ ।।
उपरोक्त प्रश्नके उत्तररूपमें आचार्यदेव कहते हैं :
ज्यों फटिकमणि है शुद्ध, आप न रक्तरूप जु परिणमे । पर अन्य रक्ता पदार्थसे, रक्तादिरूप जु परिणमे ।। २७८।। त्यों ज्ञानी' भी है शुद्ध, आप न रागरूप जु परिणमे । पर अन्य जो रागादि दूषण , उनसे वो रागी बने ।। २७९।।
गाथार्थ:- [ यथा] जैसे [ स्फटिकमणिः ] स्फटिकमणि [ शुद्धः ] शुद्ध होनेसे [ रागाद्यैः ] रागादिरूपसे (ललाई-आदिरूपसे) [ स्वयं ] अपने आप [ न परिणमते] परिणमता नहीं है [ तु] परंतु [अन्यैः रक्तादिभि: द्रव्यैः ] अन्य रक्तादि द्रव्योंसे [ सः] वह [ रज्यते] रक्त [-रातो] आदि किया जाता है, [ एवं ] इसीप्रकार [ ज्ञानी ] ज्ञानी अर्थात् आत्मा [शुद्धः] शुद्ध होनेसे [ रागाधैः ] रागादिरूप [ स्वयं ] अपनेआप [न परिणमते ] परिणमता नहीं [ तु] परंतु [अन्यैः रागादिभिः दोषैः ] अन्य रागादि दोषोंसे [ सः] वह [ रज्यते ] रागी आदि किया जाता है।
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समयसार
४०६
यथा खलु केवलः स्फटिकोपलः, परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमते, परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन, शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव, रागादिभिः परिणम्यते; तथा केवल: किलात्मा, परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमते, परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन, शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव, रागादिभिः परिणम्यते। इति तावद्वस्तुस्वभावः।।
टीका:-जैसे वास्तवमें केवल (-अकेला) स्फटिकमणि, स्वयं परिणमन स्वभाववाला होनेपर भी, अपनेको शुद्धस्वभावत्व के कारण रागादिका निमित्तत्व न होनेसे (स्वयं अपनेमें ललाई-आदिरूप परिणमनका निमित्त न होनेसे ) अपने आप रागादिरूप नहीं परिणमता, किन्तु जो अपने आप रागादिभावको प्राप्त होनेसे स्फटिकमणिके रागादिका निमित्त होता है ऐसे परद्रव्यके द्वारा ही , शुद्धस्वभावसे च्युत होता हुआ, रागादिरूप परिणमित किया जाता है; इसीप्रकार वास्तवमें केवल (अकेला) आत्मा, स्वयं परिणमन-स्वभाववाला होने पर भी, अपने शुद्धस्वभावत्वके कारण रागादिका निमित्तत्व न होनेसे (स्वयं अपनेको रागादिरूप परिणमनका निमित्त न होने से) अपने आप ही रागादिरूप नहीं परिणमता, परंतु जो अपने आप रागादिभावको प्राप्त होनेसे आत्माको रागादिका निमित्त होता है ऐसे परद्रव्य के द्वारा ही, शुद्धस्वभावसे च्युत होता हुआ ही, रागादिरूप परिणमित किया जाता है। ऐसा वस्तुका स्वभाव है।
भावार्थ:-स्फटिकमणि स्वयं तो मात्र एकाकार शुद्ध ही है; वह परिणमन स्वभाववाला होनेपर भी अकेला अपने आप ललाई-आदिरूप नहीं परिणमता किन्तु लाल आदि परद्रव्यके निमित्तसे (स्वयं ललाई-आदिरूप परिणमते ऐसे परद्रव्यके निमित्तसे) ललाई-आदिरूप परिणमता है। इसीप्रकार आत्मा स्वयं तो शुद्ध ही है; वह परिणमन स्वभाववाला होने पर भी अकेला अपने आप रागादिरूप नहीं परिणमता परंतु रागादिरूप परद्रव्यके निमित्तसे (-अर्थात् स्वयं रागादिरूप परिणमन करनेवाले परद्रव्यके निमित्तसे) रागादिरूप परिणमता है। ऐसा वस्तुका ही स्वभाव है। उसमें अन्य कोई तर्कको अवकाश नहीं है।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
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बंध अधिकार
४०७
( उपजाति) न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः। तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत्।।१७५ ।।
(अनुष्टुभ् ) इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः। रागादीन्नात्मनः कुर्यात्नातो भवति कारकः।। १७६ ।।
ण य रागदोसमोहं कुव्वदि णाणी कसायभावं वा। सयमप्पणो ण सो तेण कारगो तेसिं भावाणं ।। २८० ।।
श्लोकार्थ:- [ यथा अर्ककान्तः ] सूर्यकांतमणिकी भाँति (-जैसे सूर्यकांतमणि स्वतःसे ही अग्निरूप परिणमित नहीं होता, उसके अग्निरूप परिणमनमें सूर्य बिंब निमित्त है, उसीप्रकार) [ आत्मा आत्मनः रागादिनिमित्तभावम् जातु न याति] आत्मा अपनेको रागादिका निमित्त कभी भी नहीं होता, [तस्मिन् निमित्तं परसङ्गः एव ] उसमें निमित्त परसंग ही (-परद्रव्यका संग ही) है।- [अयम् वस्तुस्वभावः उदेति तावत् ] ऐसा वस्तुस्वभाव प्रकाशमान है। ( सदा वस्तुका ऐसा ही स्वभाव है, इसे किसी ने बनाया नहीं है।) १७५।
‘ऐसे वस्तुस्वभावको जानता हुआ ज्ञानी रागादिको निजरूप नहीं करता' इस अर्थका, तथा आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इति स्वं वस्तुस्वभावं ज्ञानी जानाति ] ज्ञानी ऐसे अपने वस्तुस्वभावको जानता है [ तेन सः रागादीन् आत्मनः न कुर्यात् ] इसलिये वह रागादिको निजरूप नहीं करता, [अतः कारकः न भवति] अतः वह (रागादिका) कर्ता नहीं है। १७६।
अब , इसीप्रकार गाथा द्वारा कहते हैं :
कभि रागद्वेषविमोह अगर कषायभाव जु निज विर्षे । ज्ञानी स्वयं करता नहीं, इससे न तत्कारक बने ।। २८०।।
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समयसार
४०८
न च रागद्वेषमोहं करोति ज्ञानी कषायभावं वा। स्वयमात्मनो न स तेन कारकस्तेषां भावानाम्।। २८० ।।
यथोक्तं वस्तुस्वभावं जानन् ज्ञानी शुद्धस्वभावादेव न प्रच्यवते, ततो रागद्वेषमोहादिभावैः स्वयं न परिणमते, न परेणापि परिणम्यते, ततष्टकोत्कीर्णैकज्ञायकभावो ज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानामकतैवेति प्रतिनियमः।
(अनुष्टुभ् ) इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेत्ति तेन सः। रागादीनात्मनः कुर्यादतो भवति कारकः।। १७७ ।।
गाथार्थ:- [ज्ञानी] ज्ञानी [ रागद्वेषमोहं] रागद्वेषमोहका [ वा कषायभावं] अथवा कषायभावको [ स्वयम् ] अपनेआप [आत्मनः ] अपनेमें [ न च करोति] नहीं करता [ तेन ] इसलिये [ सः ] वह , [ तेषां भावानाम् ] उन भावोंका [ कारकः न ] कारक अर्थात् कर्ता नहीं है।
टीका:-यथोक्त ( अर्थात् जैसा कहा वैसा) वस्तुस्वभावको जानता हुआ ज्ञानी ( अपने) शुद्धस्वभावसे ही च्युत नहीं होता इसलिये वह राग-द्वेष-मोह आदि भावरूप अवत: परिणमित नहीं होता और दूसरे के द्वारा भी परिणमित नहीं किया जाता, इसलिये टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप ज्ञानी राग-द्वेष-मोह आदि भावोंका अकर्ता ही है-ऐसा नियम है।
भावार्थ:-आत्मा जब ज्ञानी हुआ तब उसने वस्तुका ऐसा स्वभाव जाना कि 'आत्मा स्वयं तो शुद्ध ही है-द्रव्यदृष्टिसे अपरिणमनस्वरूप है, पर्यायदृष्टिसे परद्रव्यके निमित्तसे रागादिरूप परिणमित होता है'; इसलिये अब ज्ञानी स्वयं उन भावोंका कर्ता नहीं होता, जो उदय आते हैं उनका ज्ञाता ही होता है।
'अज्ञानी ऐसे वस्तुस्वभावको नहीं जानता इसलिये वह रागादि भावोंका कर्ता होता है' इस अर्थका , आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इति स्वं वस्तुस्वभावं अज्ञानी न वेत्ति] अज्ञानी अपने ऐसे वस्तुस्वभावको नहीं जानता [ तेन सः रागादीन् आत्मनः कुर्यात् ] इसलिये वह रागादिको (-रागादिभावोंको) अपना करता है, [अतः कारक: भवति ] अतः वह उनका कर्ता होता है। १७७।
अब इसी अर्थकी गाथा कहते हैं:
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बंध अधिकार
४०९
रागम्हि य दोसम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा। तेहिं दु परिणमंतो रागादी बंधदि पुणो वि।। २८१ ।।
रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः।। तैस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति पुनरपि।। २८१ ।।
यथोक्तं वस्तुस्वभावमजानंस्त्वज्ञानी शुद्धस्वभावादासंसारं प्रच्युत एव, ततः कर्मविपाकप्रभवै रागद्वेषमोहादिभावैः परिणममानोऽज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानां कर्ता भवन् बध्यत एवेति प्रतिनियमः।
ततः स्थितमेतत्
पर राग-द्वेष-कषायकर्मनिमित्त होवें भाव जो।
उन-रूप जो जीव परिणमे फिर बाँधता रागादिको ।। २८१।। गाथार्थ:- [ रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु च एव ] राग, द्वेष और कषायकर्मोके होनेपर ( अर्थात् उसके उदय होनेपर ) [ये भावाः ] जो भाव होते हैं [ तैः तु] उनरूप [परिणममान: ] परिणमित होता हुआ ( अज्ञानी) [ रागादीन् ] रागादिको [पुन: अपि ] पुनः पुनः [ बध्नाति ] बाँधता है।
टीका:-यथोक्त वस्तुस्वभावको न जानता हुआ अज्ञानी अनादि संसार से लेकर (अपने) शुद्धस्वभावसे च्युत ही है इसलिये कर्मोदयसे उत्पन्न रागद्वेषमोहादि भावरूप परिणमता हुआ अज्ञानी रागद्वेषमोहादि भावोंका कर्ता होता हुआ (कर्मोंसे) बद्ध होता ही है-ऐसा नियम है।
भावार्थ:-अज्ञानी वस्तुस्वभावको तो यथार्थ नहीं जानता और कर्मोदयसे जो भाव होते हैं उन्हें अपना समझकर परिणमता है, इसलिये वह उनका कर्ता होता हुआ पुनः पुनः आगामी कर्मोंको बाँधता है-ऐसा नियम है।
___ “अतः यह सिद्ध हुआ (अर्थात् पूर्वोक्त कारणसे निम्नप्रकार निश्चित हुआ) " ऐसा अब कहते हैं:
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समयसार
४१०
रागम्हि य दासम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा। तेहिं दु परिणमंतो रागादी बंधदे चेदा।। २८२ ।।
रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः। तैस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति चेतयिता।। २८२ ।।
य इमे किलाज्ञानिनः पुद्गलकर्मनिमित्ता रागद्वेषमोहादिपरिणामास्त एव भूयो रागद्वेषमोहादिपरिणामनिमित्तस्य पुद्गलकर्मणो बन्धहेतुरिति।
कथमात्मा रागादीनामकारक एवेति चेत्
यों राग-द्वेष-कषायकर्मनिमित्त होवें भाव जो।
उन-रूप आत्मा परिणमें , वो बांधता रागादिको ।। २८२।। गाथार्थ:- [ रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु च एव ] राग, द्वेष और कषायकर्मों के होने पर ( अर्थात् उनके उदय होनेपर) [ये भावाः] जो भाव होते हैं [ तै: तु] उन-रूप [ परिणममान:] परिणमता हुआ [ चेतयिता] आत्मा [ रागादीन् ] रागादिको [ बध्नाति ] बाँधता है।
टीका:-निश्चयसे अज्ञानीको, पुद्गलकर्म जिनका निमित्त है ऐसे जो यह रागद्वेषमोहादि परिणाम हैं, वे ही पुनः रागद्वेषमोहादि परिणामके निमित्त जो पुद्गलकर्म उसके बंधके कारण है।
भावार्थ:-अज्ञानीके कर्मके निमित्तसे जो रागद्वेषमोह आदि परिणाम होते हैं वे ही पुनः आगामी कर्मबंधके कारण होते हैं।
अब प्रश्न होता है कि आत्मा रागादिका अकारक ही कैसे है ? इसका समाधान (आगम प्रमाण देकर) करते हैं:
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बंध अधिकार
४११
अप्पडिकमणं दुविहं अपच्चखाणं तहेव विण्णेयं। एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा।। २८३ ।। अप्पडिकमणं दुविहं दव्वे भावे अपच्चखाणं पि। एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा।। २८४ ।। जावं अप्पडिकमणं अपच्चखाणं च दव्वभावाणं। कुव्वदि आदा तावं कत्ता सो होदि णादव्वो।। २८५ ।।
अप्रतिक्रमणं द्विविधमप्रत्याख्यानं तथैव विज्ञेयम्। एतेनोपदेशेन चाकारको वर्णितश्चेतयिता।। २८३ ।। अप्रतिक्रमणं द्विविधं द्रव्ये भावे तथाऽप्रत्याख्यानम्। एतेनोपदेशेन चाकारको वर्णितश्चेतयिता।। २८४ ।। यावदप्रतिक्रमणमप्रत्याख्यानं च द्रव्यभावयोः। करोत्यात्मा तावत्कर्ता स भवति ज्ञातव्यः।। २८५ ।।
अनप्रतिक्रमण दो भाँति, अणपचखाण भी दो भाँति है। -जीवको अकारक है कहा इस रीति के उपदेश से ।। २८३।। अनप्रतिक्रमण दो-द्रव्यभाव जु,योंहि अणपचखाण है। -जीवको अकारक है कहा इस रीति के उपदेश से ।। २८४ ।। अनप्रतिक्रमण अरु त्यों हि अणपचखाण द्रव्य रु भावका । जबतक करै है आत्मा, कर्ता बने है जानना ।। २८५।।
गाथार्थ:- [ अप्रतिक्रमणं ] अप्रतिक्रमण [ द्विविधम् ] दो प्रकारका [ तथा एव ] उसी तरह [ अप्रत्याख्यानं ] अप्रत्याख्यान दो प्रकारका [ विज्ञेयम् ] जानना चाहिये;[ एतेन उपदेशेन च] इस उपदेशसे [ चेतयिता] आत्मा [अकारकः वर्णितः ] अकारक कहा गया है।
[अप्रतिक्रमणं] अप्रतिक्रमण [ द्विविधं ] दो प्रकारका है- [ द्रव्ये भावे] द्रव्य संबंधी तथा भाव संबंधी; [ तथा अप्रत्याख्यानम् ] इसीप्रकार अप्रत्याख्यान भी दो प्रकारका है-द्रव्य संबंधी और भाव संबंधी;- [ एतेन उपदेशेन च] इस उपदेशसे [ चेतयिता] आत्मा [ अकारकः वर्णितः ] अकारक कहा गया है।
[ यावत् ] जब तक [आत्मा] आत्मा [ द्रव्यभावयोः] द्रव्यका और भावका [अप्रतिक्रमणम् च अप्रत्याख्यानं] अप्रतिक्रमण तथा अप्रत्याख्यान [ करोति] करता है [ तावत् ] तबतक [ सः ] वह [ कर्ता भवति ] कर्ता होता है [ ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिये।
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समयसार
४१२
आत्मात्मना रागादीनामकारक एव, अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोद्वैविध्योपदेशान्यथानुपपत्तेः। यः खलु अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोर्द्रव्यभावभेदेन द्विविधोपदेशः स, द्रव्यभावयोर्निमित्तनैमित्तिकभावं प्रथयन् , अकर्तृत्वमात्मनो ज्ञापयति। तत एतत् स्थितंपरद्रव्यं निमित्तं, नैमित्तिका आत्मनो रागादिभावाः। यद्येवं नेष्येत तदा द्रव्याप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोः कर्तृत्वनिमित्तत्वोपदेशोऽनर्थक एव स्यात्, तदनर्थकत्वे त्वेकस्यैवात्मनो रागादिभावनिमित्तत्वापत्तौ नित्यकर्तृत्वानुषङ्गान्मोक्षाभाव: प्रसजेच्च। ततः परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु। तथा सति तु रागादीनामकारक एवात्मा। तथापि यावन्निमित्तभूतं द्रव्यं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च तावन्नैमित्तिकभूतं भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च, यावत्तु भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च तावत्कर्तेव स्यात्। यदैव निमित्तभूतं द्रव्यं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदैव नैमित्तिकभूतं भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च, यदा तु भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदा साक्षादकतैव स्यात्।
टीका:-आत्मा स्वतः रागादिका अकारक ही है; क्योंकि, यदि ऐसा न हो तो ( अर्थात् यदि आत्मा स्वतः ही रागादिभावोंका कारक हो तो) अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यानकी द्विविधताका उपदेश नहीं हो सकता। अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यानका जो वास्तवमें द्रव्य और भावके भेदसे द्विविध (दो प्रकारका) उपदेश है वह, द्रव्य और भावके निमित्त-नैमित्तिकत्व को प्रकट करता हुआ, आत्माके अकर्तृत्वको ही बतलाता है। इसलिये यह निश्चित हुआ कि परद्रव्य निमित्त है और आत्माके रागादिभाव नैमित्तिक हैं। यदि ऐसा न माना जाये तो द्रव्य-अप्रतिक्रमण और द्रव्य-अप्रत्याख्यानका कर्तृत्वके निमित्तरूपका उपदेश निरर्थक ही होगा, और वह निरर्थक होनेपर एक ही आत्माको रागादिकभावोंका निमित्तत्व आ जायेगा, जिससे नित्य कर्तृत्वका प्रसंग आ जायेगा, जिससे मोक्षका अभाव सिद्ध होगा। इसलिये परद्रव्य ही आत्माके रागादिभावोंका निमित्त हो। और ऐसा होनेपर, यह सिद्ध हुआ कि आत्मा रागादिका अकारक ही है। (इसप्रकार यद्यपि आत्मा रागादिका अकारक ही है) तथापि जबतक यह निमित्तभूत द्रव्यका (-परद्रव्यका) प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता तबतक नैमित्तिकभूत भावोंका (-रागादिभावोंका) प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता, और जबतक इन भावोंका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता तबतक वह उनका कर्ता ही है; जबतक निमित्तभूत द्रव्यका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान करता है तभी नैमित्तिकभूत भावोंका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान करता है। और जब इन भावोंका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान होता है तब वह साक्षात् अकर्ता ही है।
भावार्थ:-अतीत कालमें जो परद्रव्योंका ग्रहण किया था उन्हें वर्तमानमें अच्छा समझना, उनके संस्कार रहना, उनके प्रति ममत्व रहना, वह द्रव्य अप्रतिक्रमण है और उन परद्रव्योंके निमित्तसे जो रागादिभाव हुए थे उन्हें वर्तमानमें
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बंध अधिकार
४१३
द्रव्यभावयोर्निमित्तनैमित्तिकभावोदाहरणं चैतत्
आधाकम्मादीया पोग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा। कह ते कुव्वदि णाणी परदव्वगुणा दु जे णिच्चं ।। २८६ ।। आधाकम्मं उद्देसियं च पोग्गलमयं इमं दव्वं । कह तं मम होदि कयं जं णिच्चमचेदणं वुत्तं ।। २८७ ।।
अच्छा जानना, उनके संस्कार रहना, उनके प्रति ममत्व रहना, भाव-अप्रतिक्रमण है। इसीप्रकार आगामी काल संबंधी परद्रव्योंकी इच्छा रखना, ममत्व रखना, द्रव्य अप्रत्याख्यान है और उन परद्रव्योंके निमित्तसे आगामी कालमें होनेवाले रागादिभावोंकी इच्छा रखना, ममत्व रखना, भाव-अप्रत्याख्यान है। इसप्रकार द्रव्य अप्रतिक्रमण और भाव-अप्रतिक्रमण तथा द्रव्य-अप्रत्याख्यान और भाव-अप्रत्याख्यान-ऐसा जो अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यानका दो प्रकारका उपदेश है वह द्रव्य-भावके निमित्तनैमित्तिकभावोंको बतलाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि परद्रव्य तो निमित्त हैं और रागादिभाव नैमित्तिक हैं। इसप्रकार आत्मा रागादिभावोंको स्वयमेव न करनेसे रागादिभावोंका अकर्ता ही है ऐसा सिद्ध हुआ। इसप्रकार यद्यपि यह आत्मा रागादिभावोंका अकर्ता ही है तथापि जबतक उसके निमित्तभूत परद्रव्यके अप्रतिक्रमणअप्रत्याख्यान है तबतक उसके रागादिभावोंका अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है, और जबतक रागादिभावोंका अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है तबतक वह रागादिभावोंका कर्ता ही है; यब वह निमित्तभूत परद्रव्यका प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान करता है तब उसके नैमित्तिक रागादिभावोंका भी प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान हो जाता है, और जब रागादिभावोंका प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान हो जाता है तब वह साक्षात् अकर्ता ही है।
अब द्रव्य और भावकी निमित्त-नैमित्तिकताका उदाहरण देते हैं:
है अधः कर्मादिक जु पुदगलद्रव्यके हि दोष ये । कैसे करे ज्ञानी' सदा परद्रव्यके जो गुणहि हैं ? ।। २८६ ।। उदेशि त्योंही अधःकर्मी पौद्गलिक यह द्रव्य जो। कैसे हि मुझकृत होय नित्य अजीव वर्णा जिसहि को ? ।। २८७।।
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अधः कर्माद्या: पुद्गलद्रव्यस्य य इमे दोषाः ।
कथं तान् करोति ज्ञानी परद्रव्यगुणास्तु ये नित्यम् ।। २८६ ।। अधः कर्मोद्देशिकं च पुद्गलमयमिदं द्रव्यं ।
कथं तन्मम भवति कृतं यन्नित्यमचेतनमुक्तम् ।। २८७ ।।
च
यथाधःकर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्नं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे। यथा चाध:कर्मादीन् पुद्गलद्रव्यदोषान्न नाम करोत्यात्मा परद्रव्यपरिणामत्वे सति आत्मकार्यत्वाभावात्, ततोऽधःकर्मोद्देशिकं च पुद्गलद्रव्यं न मम कार्य नित्यमचेतनत्वे सति मत्कार्यत्वाभावात्, -इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यं प्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तं भावं प्रत्याचष्टे । एवं द्रव्यभावयोरस्ति निमित्तनैमित्तिकभावः।
गाथार्थ:- [ अधःकर्माद्याः ये इमे ] अधःकर्म आदि जो यह [ पुद्गलद्रव्यस्य दोषाः ] पुद्गलद्रव्यके दोष हैं ( उनको ज्ञानी अर्थात् आत्मा करता नहीं है; ) [ तान् ] उनको [ज्ञानी] ज्ञानी अर्थात् आत्मा [ कथं करोति ] कैसे करे [ ये तु ] कि जो [ नित्यम् ] सदा [ परद्रव्यगुणाः ] परद्रव्यके गुण है ?
इसलिये [अधःकर्म उद्देशिक च] अधःकर्म और उदेशिक [ इदं ] ऐसा यह [ पुद्गलमयम् द्रव्यं ] पुद्गलमय द्रव्य है ( जो मेरा किया नहीं होता; ) [ तत् ] वह [मम कृतं] मेरा किया [ कथं भवति ] कैसे हो [ यत् ] कि जो [नित्यम्] सदा [ अचेतनम् उक्तम् ] अचेतन कहा गया है ?
टीका:-जैसे अधःकर्मसे उत्पन्न और उदेशसे उत्पन्न हुए निमित्तभूत (आहारादि) पुद्गलद्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा ( - मुनि) नैमित्तिकभूत बंधसाधक भावका प्रत्याख्यान (त्याग) नहीं करता, इसीप्रकार समस्त परद्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्तसे होनेवाले भावको नहीं त्यागता। और, “ अध:कर्म आदि जो पुद्गलद्रव्यके दोषोंको आत्मा वास्तवमें नहीं करता क्योंकि वे परद्रव्यके परिणाम हैं इसलिये उन्हें आत्माके कार्यत्वका अभाव हैं, इसप्रकार अध:कर्म और उद्देशिक पुद्गलकर्म मेरा कार्य नहीं है क्योंकि वह नित्य अचेतन है इसलिये उसको मेरे कार्यत्वका अभाव है; " - इसप्रकार तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्यका प्रत्याख्यान आत्मा ( - मुनि) जैसे नैमित्तिकभूत बंधसाधक भावका प्रत्याख्यान करता है, उसीप्रकार समस्त परद्रव्यका प्रत्याख्यान करता हुआ (त्याग करता हुआ) आत्मा उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान करता है। इसप्रकार द्रव्य और भावको निमित्त - नैमित्तिकता है।
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बंध अधिकार
४१५
(शार्दूलविक्रीडित) इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्रं बलात् तन्मूलां बहुभावसन्ततिमिमामुद्धर्तुकामः समम्। आत्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णैकसंविद्युतं येनोन्मूलितबन्ध एष भगवानात्मात्मनि स्फूर्जति।।१७८ ।।
भावार्थ:-यहाँ अधःकर्म और उदेशिक आहारके दृष्टांतसे द्रव्य और भावकी निमित्त-नैमित्तिकता दृढ़ की है।
जो पापकर्मसे आहार उत्पन्न हो उसे अधःकर्म कहते हैं, तथा उस आहारको भी अधःकर्म कहते हैं। जो आहार, ग्रहण करनेवालेके निमित्तसे ही बनाया गया हो उसे उदेशिक कहते हैं। ऐसे (अध:कर्म और उदेशिक) आहारका जिसने प्रत्याख्यान नहीं किया उसने उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान नहीं किया और जिसने तत्त्वज्ञानपूर्वक उस आहारका प्रत्याख्यान किया है उसने उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान किया है। इसप्रकार समस्त द्रव्य और भावको निमित्त-नैमित्तिकभाव जानना चाहिये। जो परद्रव्यको ग्रहण करता है उसे रागादिभाव भी होते हैं, वह उनका कर्ता भी होता है और इसलिये कर्मका बंध भी करता है; जब आत्मा ज्ञानी होता है तब उसे कुछ ग्रहण करनेका राग नहीं होता, इसलिये रागादिरूप परिणमन भी नहीं होता और इसलिये आगामी बंध भी नहीं होता। (इसप्रकार ज्ञानी परद्रव्यका कर्ता नहीं है।)
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं, जिसमें परद्रव्यके त्यागनेका उपदेश है:
श्लोकार्थ:- [इति] इसप्रकार (परद्रव्य और अपने भावकी निमित्तनैमित्तिकताको ) [ आलोच्य ] विचार करके, [ तद्-मूलां इमाम् बहुभावसन्ततिम् समम् उद्धर्तुकामः] परद्रव्यमूलक बहुभावोंकी संततिको एकसाथ उखाड़ फेंकनेका इच्छुक पुरुष, [ तत् किल समग्रं परद्रव्यं बलात् विवेच्य] उस समस्त परद्रव्यको बलपूर्वक ( - उद्यमपूर्वक, पराक्रमपूर्वक) भिन्न करके (त्याग करके), [ निर्भरवहत्-पूर्ण-एफसंविद्-युतं आत्मानं ] अतिशयता से बहते हुए ( –धारावाही) पूर्ण एक संवेदनसे युक्त अपने आत्माको [ समुपैति] प्राप्त करता है, [येन ] कि जिससे [ उन्मूलितबन्धः एषः भगवान् आत्मा] जिसने कर्मबंधनको मूलसे उखाड़ फेंका है ऐसा वह भगवान आत्मा [आत्मनि ] अपने में ही ( -आत्मामें ही) [ स्फूर्जति ] स्फुरायमान होता है।
भावार्थ:-परद्रव्य और अपने भावकी निमित्त-नैमित्तिकता जानकर समस्त परद्रव्योंको भिन्न करनेमें-त्यागनेमें आते हैं तब समस्त रागादिभावोंकी संतति कट जाती है और तब आत्मा अपना ही अनुभव करता हुआ कर्म बंधनको काटकर अपनेमें ही प्रकाशित होता है। इसलिये जो अपना हित चाहते हैं वे ऐसा ही करें। १७८ ।
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समयसार
४१६
(मन्दाक्रान्ता) रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां कार्य बन्धं विविधमधुना सद्य एव प्रणुद्य। ज्ञानज्योतिः क्षपिततिमिरं साधु सन्नद्धमेतत्
तद्वद्यद्वत्प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति।। १७९ ।। इति बन्धो निष्क्रान्तः। इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ बन्धप्ररूपक: सप्तमोऽङ्कः।।
अब बंध अधिकार पूर्ण करते हुए उसके अंतिममंगलके रूपमें ज्ञानकी महिमाके अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ कारणानां रागादीनाम् उदयं ] बंधके कारणरूप रागादिके उदयको [ अदयम् ] निर्दयता पूर्वक ( उग्र पुरुषार्थसे ) [ दारयत् ] विदारण करती हुई, [ कार्य विविधम् बन्धं ] उस रागादिके कार्यरूप ( ज्ञानावरणादि) अनेक प्रकारके बंधको [अधुना] अब [ सद्यः एव ] तत्काल ही [प्रणुद्य ] दूर करके, [ एतत् ज्ञानज्योतिः ] यह ज्ञानज्योति- [क्षपिततिमिरं] कि जिसने अज्ञानरूपी अंधकारका नाश किया है वह[ साधु ] भलीभाँति [ सन्नद्धम् ] सज्ज हुई, - [तद्-वत् यद्-वत् ] ऐसी सज्ज हुई कि [ अस्य प्रसरम अपरः कः अपि न आवणोति | उसके विस्तारको अन्य कोई आवृत्त नहीं कर सकता।
भावार्थ:-जब ज्ञान प्रगट होता है, रागादिक नहीं रहते, उनका कार्य जो बंध वह भी नहीं रहता, तब फिर उस ज्ञानको आवृत्त करनेवाला कोई नहीं रहता, वह सदा प्रकाशमान ही रहता है। १७९ ।
टीका:-इसप्रकार बंध (रंगभूमिसे) बाहर निकल गया।
भावार्थ:-रंगभूमिमें बंधके स्वांगने प्रवेश किया था। जब ज्ञानज्योति प्रगट हुई कि तब वह बंध स्वांगको अलग करके बाहर निकल गया।
* सिवैया तेईसा जो नर कोय परै रजमांहि सचिक्कण अंग लगै वह गाढे, त्यों मतिहीन जु रागविरोध लिये विचरे तब बंधन बाढै; पाय समै उपदेश यथारथ रागविरोध तजै निज चाटै,
नाहिं बंधै तब कर्मसमूह जु आप गहै परभावनि काटै। इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामकी टीकामें बंधका प्ररूपक ७ वाँ अंक समाप्त हुआ।
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-८मोक्ष अधिकार
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अथ प्रविशति मोक्षः।
(शिखरिणी) द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाद्बन्धपुरुषौ नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलम्भैकनियतम्। इदानीमुन्मज्जत्सहजपरमानन्दसरसं परं पूर्ण ज्ञानं कृतसकलकृत्यं विजयते।। १८० ।।
---००० दोहा ०००---
कर्मबंध सब काटिके , पहुँचे मोक्ष सुथान ।
नमूं सिद्ध परमातमा, करूँ ध्यान अमलान ।। प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहते हैं कि 'अब मोक्ष प्रवेश करता है'।
जैसे नृत्यमंच पर स्वाँग प्रवेश करता है उसीप्रकार यहाँ मोक्ष तत्त्वका स्वाँग प्रवेश करता है। वहाँ ज्ञान सर्व स्वाँगका ज्ञाता है, इसलिये अधिकारके प्रारम्भ में आचार्यदेव सम्यग्ज्ञानकी महिमाके रूपमें मंगलाचरण करते हैं:
श्लोकार्थ:- [इदानीम् ] अब (बंध पदार्थके पश्चात् ), [प्रज्ञा-क्रकचदलनात् बन्ध-पुरुषौ द्विधाकृत्य] प्रज्ञारूपी करवतसे विदारण द्वारा बंध और पुरुषको द्विधा (भिन्न भिन्न-दो) करके, [ पुरुषम् उपलम्भ-एक-नियतम् ] पुरुषको-कि जो पुरुष मात्र अनुभूतिके द्वारा ही निश्चित है उसे- [ साक्षात् मोक्षं नयत् ] साक्षात् मोक्ष प्राप्त कराता हुआ, [ पूर्ण ज्ञानं विजयते] पूर्ण ज्ञान जयवंत प्रवर्तता है। वह ज्ञान [ उन्मज्जत्-सहज-परम-आनन्द-सरसं] प्रगट होनेवाले सहज परमानंद के द्वारा सरस अर्थात् रसयुक्त है, [ परं] उत्कृष्ट है, और [ कृत-सकल-कृत्यं ] जिसने करने योग्य समस्त कार्य कर लिये हैं ( -जिसे कुछ भी करना शेष नहीं है ) ऐसा है।
* जितना स्वरूप-अनुभवन है इतना ही आत्मा है।
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४१८
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समयसार
जह णाम को वि पुरिसो बंधणयम्हि चिरकालपडिबद्धो । तिव्वं मंदसहावं कालं च वियाणदे तस्स ।। २८८ ।। जइ ण वि कुणदि च्छेदं ण मुचदे तेण बंधणवसो सं । काले उ बहुगेण वि ण सो णरो पावदि विमोक्खं ।। २८९ ।। इय कम्मबंधणाणं एदेसठिइपयडिमेवमणुभागं । जाणतो वि ण मुच्चदि मुच्चदि सो चेव जदि सुद्धो ।। २९० ।। यथा नाम कश्चित्पुरुषो बन्धनके चिरकालप्रतिबद्धः । तीव्रमन्दस्वभावं कालं च विजानाति तस्य ।। २८८ ।।
भावार्थ:-ज्ञ :- ज्ञान बंध और पुरुषको पृथक् करके, पुरुषको मोक्ष पहुँचाता हुआ, अपना संपूर्ण स्वरूप प्रगट करके जयवंत प्रवर्तता है। इसप्रकार ज्ञानकी सर्वोत्कृष्टताका कथन ही मंगलवचन है । १८० ।
अब,
मोक्ष प्राप्ति कैसे होती है सो कहते हैं । उसमें प्रथम तो, यह कहते हैं कि, जो जीव बंधका छेद नहीं करता किन्तु मात्र बंधके स्वरूपको जानने से ही संतुष्ट है वह मोक्ष प्राप्त नहीं करता :
ज्यों पुरुष कोई बंधनों, प्रतिबद्ध है चिरकालका ।
वो तीव्र - मंद स्वभाव त्यों ही काल जाने बंधका ।। २८८ ॥
पर जो करे नहिं छेद तो छूटे न, बंधनवश रहे ।
अरु काल बहुतहि जाय तो भी मुक्त वो नर नहिं बने ।। २८९।।
त्यों कर्मबंधनके प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभागको । जाने भले छूटे न जीव, जो शुद्ध तो ही मुक्त हो ।। २९० ।।
गाथार्थ:- [ यथा नाम ] जैसे [बन्धनके ] बंधनमें [ चिरकालप्रतिबद्धः ] बहुत समयसे बंधा हुआ [ कश्चित् पुरुषः ] कोई पुरुष [ तस्य ] उस बंधनके [ तीव्रमन्दस्वभावं ] तीव्र - मंद स्वभावको [ कालं च ] और कालको ( अर्थात् यह बंधन इतने कालसे इसप्रकार ) [ विजानाति ] जानता है,
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मोक्ष अधिकार
४१९
यदि नापि करोति छेदं न मुच्यते तेन बन्धनवशः सन्। कालेन तु बहुकेनापि न स नरः प्राप्नोति विमोक्षम्।। २८९ ।। इति कर्मबन्धनानां प्रदेशस्थितिप्रकृतिमेवमनुभागम्।
जानन्नपि न मुच्यते मुच्यते स चैव यदि शुद्धः ।। २९० ।। आत्मबन्धयोxिधाकरणं मोक्षः। बन्धस्वरूपज्ञानमात्रं तद्धेतुरित्येके, तदसत; न कर्मबद्धस्य बन्धस्वरूपज्ञानमात्रं मोक्षहेतु:, अहेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धस्वरूपज्ञानमात्रवत्। एतेन कर्मबन्धप्रपञ्चरचनापरिज्ञानमात्रसन्तृष्टा उत्थाप्यन्ते।
[ यदि] किन्तु यदि [न अपि छेदं करोति] उस बंधनको स्वयं नहीं काटता [ तेन न मुच्यते] तो वह उससे मुक्त नहीं होता [ तु] और [बन्धनवशः सन् ] बंधनवश रहता हुआ [ बहुकेन अपि कालेन ] बहुत काल में भी [ सः नरः] वह पुरुष [ विमोक्षम् न प्राप्नोति] बंधनसे छूटनेरूप मुक्तिको प्राप्त नहीं करता ; [इति] इसीप्रकार जीव [ कर्मबन्धनानां] कर्म-बंधनोंके [प्रदेशस्थितिप्रकृतिम् एवम् अनुभागम् ] प्रदेश, स्थिति, प्रकृति और अनुभागको [जानन् अपि] जानता हुआ भी [न मुच्यते ] ( कर्मबंधसे) नहीं छूटता, [ च यदि सः एव शुद्धः ] किन्तु यदि वह स्वयं ( रागादिको दूर करके) शुद्ध होता है [ मुच्यते ] तभी छूटता है-मुक्त होता है।
टीका:-आत्मा और बंधको द्विधाकरण (अर्थात् आत्मा और बंधको अलग अलग कर देना) सो मोक्ष है। कितने ही लोग कहते हैं कि 'बंधके स्वरूपका ज्ञानमात्र मोक्षका कारण है ( अर्थात् बंधके स्वरूपको जाननेमात्रसे ही मोक्ष होता है)', किन्तु यह असत् है; कर्मसे बंधे हुए (जीव) को बंधके स्वरूपका ज्ञानमात्र मोक्षका कारण नहीं है, क्योंकि जैसे बेड़ी आदिसे बंधे हुए (जीव) को बंधके स्वरूपका ज्ञानमात्र बंधसे मुक्त होनेका कारण नहीं उसी प्रकार कर्मसे बंधे हुए (जीव) को कर्मबंधके स्वरूपका ज्ञानमात्र कर्मबंधसे मुक्त होनेका कारण नहीं है। इस कथन से, उनका उत्पाथन (खण्डन), किया गया है जो कर्मबंधके प्रपंचका (–विस्तारकी) रचनाके ज्ञानमात्रसे संतुष्ट हो रहे हैं।
भावार्थ:-कोई अन्यमति यह मानते हैं कि बन्धके स्वरूपको जान लेने से ही मोक्ष हो जाता है। उनकी इस मान्यताका इस कथनसे निराकरण कर दिया गया है। जाननेमात्रसे ही बंध नहीं कट जाता, किन्तु वह काटनेसे ही कटता है।
अब यह कहते हैं कि बंधका विचार करते रहनेसे भी बंध नहीं कटता :
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समयसार
४२०
जह बंधे चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावदि विमोक्खं। तह बंधे चिंतंतो जीवो वि ण पावदि विमोक्खं ।। २९१ ।।
यथा बन्धांश्चिन्तयन् बन्धनबद्धो न प्राप्नोति विमोक्षम। तथा बन्धांश्चिन्तयन् जीवोऽपि न प्राप्नोति विमोक्षम्।। २९१ ।।
बन्धचिन्ताप्रबन्धो मोक्षहेतुरित्यन्ये, तदप्यसत; न कर्मबद्धस्य बन्धचिन्ताप्रबन्धो मोक्षहेतु:, अहेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धचिन्ताप्रबन्धवत्। एतेन कर्मबन्धविषयचिन्ताप्रबन्धात्मकविशुद्धधर्मध्यानान्धबुद्धयो बोध्यन्ते।
जो बंधनों से बद्ध वो नहिं बंधचिंतासे छुटे । त्यों जीव भी इन बंधकी चिंता करे से नहिं छुटे ।। २९१ ।।
गाथार्थ:- [ यथा] जैसे [ बन्धनबद्धः] बंधनोंसे बंधा हुआ पुरुष [ बन्धान् चिन्तयन् ] बंधोंका विचार करनेसे [ विमोक्षम् न प्राप्नोति] मुक्तिको प्राप्त नहीं करता ( अर्थात् बंधसे नहीं छूटता), [ तथा] इसीप्रकार [ जीवः अपि] जीव भी [ बन्धान् चिन्तयन् ] बंधोंका विचार करके [ विमोक्षम् न प्राप्नोति] मोक्षको प्राप्त नहीं करता।
टीका:-अन्य कितने ही लोग यह कहते हैं कि 'बंध संबंधी विचारशृंखला मोक्षका कारण है' किन्तु यह भी असत् है; कर्मसे बँधे हुए (जीव) को बंध संबंधी विचारकी शृंखला मोक्षका कारण नहीं है, क्योंकि जैसे बेड़ी आदिसे बंधे हुए (पुरुष) को उस बंध संबंधी विचारशृंखला ( -विचारकी परंपरा) बंधसे छूटनेका कारण नहीं है उसीप्रकार कर्मसे बंधे हुए (पुरुष) की कर्मबंध संबंधी विचारशृंखला कर्मबंधसे मुक्त होनेका कारण नहीं है। इस (कथन) से, कर्मबंध संबंधी विचारशृंखलात्मक विशुद्ध (-शुभ ) धर्मध्यान से जिनकी बुद्धि अंध है, उन्हें समझाया जाता है।
भावार्थ:-कर्मबंधकी चिंतामें मन लगा रहे तो भी मोक्ष नहीं होता। यह तो धर्मध्यानरूप शुभ परिणाम है। जो केवल (मात्र) शुभ परिणामसे ही मोक्ष मानते हैं उन्हें यहाँ उपदेश दिया है कि-शुभ परिणामसे मोक्ष नहीं होता।
___“ ( यदि बंधके स्वरूपके ज्ञानमात्रसे भी मोक्ष नहीं होता और बंधके विचार करनेसे भी मोक्ष नहीं होता) तब फिर मोक्षका कारण क्या है ?” ऐसा प्रश्न होनेपर अब मोक्षका उपाय बताते हैं:
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मोक्ष अधिकार
४२१
कस्तर्हि मोक्षहेतुरिति चेत्जह बंधे छेत्तूण य बंधणबद्धो दु पावदि विमोक्खं। तह बंधे छेत्तूण य जीवो संपावदि विमोक्खं ।। २९२ ।।
यथा बन्धांरिछत्वा च बन्धनबद्धस्तु प्राप्नोति विमोक्षम्। तथा बन्धांरिछत्वा च जीवः सम्प्राप्नोति विमोक्षम्।। २९२ ।।
कर्मबद्धस्य बन्धच्छेदो मोक्षहेतुः, हेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धच्छेदवत्। एतेन उभयेऽपि पूर्वे आत्मबन्धयोxिधाकरणे व्यापार्येते।
किमयमेव मोक्षहेतुरिति चेत्
बंधाणं च सहावं वियाणिदुं अप्पणो सहावं च। बंधेसु जो विरज्जदि सो कम्मविमोक्खणं कुणदि।। २९३ ।।
जो बंधनोंसे बद्ध वो नर बंधछेदन से छुट ।
त्यों जीव भी इन बंधनोंका छेद कर मुक्ति वरे ।। २९२।। गाथार्थ:- [ यथा च ] जैसे [बन्धनबद्धः तु] बंधनबद्ध पुरुष [ बन्धान् छित्वा ] बंधनों को छेदकर [ विमोक्षम् प्राप्नोति] मुक्तिको प्राप्त हो जाता है, [ तथा च] इसीप्रकार [ जीवः] जीव [ बन्धान् छित्वा ] बंधोंको छेदकर [ विमोक्षम् सम्प्राप्नोति] मोक्षको प्राप्त करता है।
टीका:-कर्मसे बँधे हुए (पुरुष) को बंधका छेद मोक्षका कारण है, क्योंकि जैसे बेड़ी आदिसे बद्धको बंधका छेद बंधसे छूटनेका कारण है उसीप्रकार कर्मसे बँधे हुए को कर्मबंधका छेद कर्मबंधसे छूटनेका कारण है। इस ( कथन) से, पूर्वकथित दोनोंको (जो बंधके स्वरूपके ज्ञानमात्रसे संतुष्ट हैं तथा जो बंधका विचार किया करते हैं उनको-) आत्मा और बंधके द्विधाकरणमें व्यापार कराया जाता है (अर्थात् आत्मा और बंधको भिन्न भिन्न करनेके प्रति लगाया जाता है-उद्यम कराया जाता है)।
___ 'मात्र यही (बंधच्छेद ही) मोक्षका कारण क्यों है ?' ऐसा प्रश्न होनेपर अब उसका उत्तर देते हैं:
रे जानकर बंधन स्वभाव, स्वभाव जान जु आत्मका । जो बंधमें हि विरक्त होवें, कर्म मोक्ष करें अहा ।। २९३।।
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समयसार
४२२
बन्धानां च स्वभावं विज्ञायात्मनः स्वभावं च। बन्धेषु यो विरज्यते स कर्मविमोक्षणं करोति।। २९३ ।।
य एव निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मस्वभावं तद्विकारकारकं बन्धानां च स्वभावं विज्ञाय, बन्धेभ्यो विरमति, स एव सकलकर्ममोक्षं कुर्यात्। एतेनात्मबन्धयोर्विधाकरणस्य मोक्षहेतुत्वं नियम्यते।
केनात्मबन्धौ द्विधा क्रियेते इति चेत्
जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं। पण्णाछेदणएण दु छिण्णा णाणत्तमावण्णा।। २९४ ।।
जीवो बन्धश्च तथा छिद्येते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्याम्। प्रज्ञाछेदनकेन तु छिन्नौ नानात्वमापन्नौ।। २९४ ।।
गाथार्थ:- [ बन्धानां स्वभावं च ] बंधोंके स्वभावको [ आत्मनः स्वभावं च] और आत्माके स्वभावको [विज्ञाय ] जानकर [बन्धेषु ] बंधोंके प्रति [यः] जो [विरज्यते ] विरक्त होता है, [ सः ] वह [ कर्मविमोक्षणं करोति ] कर्मोंसे मुक्त होता है।
टीका:-जो, निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्र आत्मस्वभावको और उस ( आत्माके) विकार करनेवाले बंधके स्वभावको जानकर, बंधोंसे विरक्त होता है, वही समस्त कर्मोंसे मुक्त होता है। इस (कथनसे) से, ऐसा नियम किया जाता है कि आत्मा और बंधका द्विधाकरण (पृथक्करण) ही मोक्षका कारण है। (अर्थात् आत्मा और बंधको भिन्न भिन्न करना ही मोक्षका कारण है ऐसा निर्णीत किया जाता है)।
'आत्मा और बंध किस (साधन) के द्वारा द्विधा (अलग ) किये जाते हैं ?' ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं:
छेदन करो जीव बंधका तुम नियत निज निज चिह्नसे । प्रज्ञा-छैनीसे छेदतें दोनों पृथक हो जाये है ।। २९४ ।।
गाथार्थ:- [जीव: च तथा बन्धः] जीव तथा बंध [नियताभ्याम् स्वलक्षणाभ्या] नियत स्वलक्षणोंसे ( अपने-अपने निश्चित लक्षणोंसे ) [ छिद्येते] छेदे जाते हैं; [ प्रज्ञाछेदनकेन ] प्रज्ञारूपी छैनीके द्वारा [ छिन्नौ तु] छेदे जाने पर [ नानात्वम् आपन्नौ ] वे नानापन को प्राप्त होते हैं अर्थात् अलग हो जाते हैं।
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मोक्ष अधिकार
४२३
आत्मबन्धयोधिाकरणे कार्ये कर्तुरात्मनः करणमीमांसायां, निश्चयतः स्वतो भिन्नकरणासम्भवात्, भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणम्। तया हि तौ छिन्नौ नानात्वमवश्यमेवापद्येते; ततः प्रज्ञयैवात्मबन्धयोद्धिधाकरणम्। ननु कथमात्मबन्धौ चेत्यचेतकभावेनात्यन्तप्रत्यासत्तेरेकीभूतौ भेदविज्ञानाभावादेकचेतकवट्यवह्रियमाणौ प्रज्ञया छेत्तुं शक्येते ? नियतस्वलक्षणसूक्ष्मान्तःसन्धिसावधाननिपातनादिति बुध्येमहि। आत्मनो हि समस्तशेषद्रव्यासाधारणत्वाच्चैतन्यं स्वलक्षणम्। तत्तु प्रवर्तमानं यद्यदभिव्याप्य प्रवर्तते निवर्तमानं च यद्यदुपादाय निवर्तते तत्तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं क्रमप्रवृत्तं वा पर्यायजातमात्मेति लक्षणीयः, तदेकलक्षणलक्ष्यत्वात;
टीका:-आत्मा और बंधके द्विधा करनेरूप कार्यमें कर्ता जो आत्मा उसके 'करण संबंधी मीमांसा करनेपर, निश्चयल: (निश्चयनयसे) अपनेसे भिन्न करणका अभाव होनेसे भगवती प्रज्ञा ही (-ज्ञानस्वरूप बुद्धि ही) छेदनात्मक (-छेदनेके स्वभाववाला) करण है। उस प्रज्ञाके द्वारा उनका छेद करनेपर वे अवश्य ही नानत्वको प्राप्त होते हैं; इसलिये उस प्रज्ञा द्वारा ही आत्मा और बंधका द्विधा किया जाता है ( अर्थात् प्रज्ञारूपी करण द्वारा ही आत्मा और बंध जुदे किये जाते हैं)।
(यहाँ प्रश्न होता है कि-) आत्मा और बंध जो कि *चेत्यचेतकभावके द्वारा अत्यंत निकटताके कारण (-एक जैसे-) ही रहे हैं, और भेदविज्ञानके अभावके कारण, मानो वे एक चेतक ही हों ऐसा जिनका व्यवहार किया जाता है, (अर्थात् जिन्हें एक आत्माके रूपमें ही व्यवहारमें माना जाता है) उन्हें प्रज्ञाके द्वारा वास्तवमें कैसे छेदा जा सकता है ?
(इसका समाधान करते हुए आचार्यदेव कहते हैं:-) आत्मा और बंधके नियत स्वलक्षणोंकी सूक्ष्म अंतःसंधिमें (अंतरंगकी संधिमें) प्रज्ञाछैनीको सावधान होकर पटकनेसे (-डालनेसे, मारनेसे ) उनको छेदा जा सकता है -अर्थात् उन्हें अलग किया जा सकता है; ऐसा हम जानते हैं।
आत्माका स्वलक्षण चैतन्य है, क्योंकि वह समस्त शेष द्रव्योंसे असाधारण है (वह अन्य द्रव्योंमें नहीं है)। वह (चैतन्य) प्रवर्तमान होता हुआ जिस जिस पर्यायको व्याप्त होकर प्रवर्तता है और निवर्तमान होता हुआ जिस जिस पर्यायको ग्रहण करके निवर्तता है वे समस्त सहवर्ती या क्रमवर्ती पर्यायें आत्मा हैं इसप्रकार लक्षित करना (लक्षणसे पहचानना) चाहिये (अर्थात जिन जिन गुणपर्यायोंमें चैतन्यलक्षण व्याप्त होता है वे सब गुणपर्यायें आत्मा हैं, ऐसा जानना चाहिये) क्योंकि आत्मा उसी एक लक्षणसे लक्ष्य है ( अर्थात् चैतन्यलक्षणसे ही पहिचाना जाता है)।
* आत्मा चेतक है और बंध चेत्य है; वे दोनों अज्ञान दशामें एकसे अनुभवमें आते हैं। १। करण = साधन; करण नामका कारक। २। मीमांसा = गहरी विचारणा; तपास, समालोचना।
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समयसार
४२४
समस्तसहक्रमप्रवृत्तानन्तपर्यायाविनाभावित्वाचैतन्यस्य चिन्मात्र एवात्मा निश्चेतव्यः, इति यावत्। बन्धस्य तु आत्मद्रव्यासाधारणा रागादयः स्वलक्षणम्। न च रागादय आत्मद्रव्यसाधारणतां बिभ्राणा: प्रतिभासन्ते, नित्यमेव चैतन्यचमत्कारादतिरिक्तत्वेन प्रतिभासमानत्वात्। न च यावदेव समस्तस्वपर्यायव्यापि चैतन्यं प्रतिभासित तावन्त एव रागादयः प्रतिभान्ति, रागादीनन्तरेणापि चैतन्यस्यात्मलाभसम्भावनात्। यत्तु रागादीनां चैतन्येन सहैवोत्प्लवनं तच्चेत्यचेतकभावप्रत्यासत्तेरेव, नैकद्रव्यत्वात; चेत्यमानस्तु रागादिरात्मनः, प्रदीप्यमानो घटादि: प्रदीपस्य प्रदीपकतामिव, चेतकतामेव प्रथयेत्, न पुना रागादिताम्। एवमपि तयोरत्यन्तप्रत्यासत्त्या भेदसम्भावनाभावादनादिरस्त्येकत्वव्यामोहः, स तु प्रज्ञयैव छिद्यत एव।
और समस्त सहवर्ती और क्रमवर्ती अनंत पर्यायोंके साथ चैतन्यका अविनाभावी भाव होनेसे चिन्मात्र ही आत्मा है ऐसा निश्चय करना चाहिये। इतना आत्माके स्वलक्षणके सम्बंध में है।
(अब बंधके स्वलक्षणके सम्बंध में कहते हैं :-) बंधका स्वलक्षण तो आत्मद्रव्यसे असाधारण ऐसे रागादि हैं। यह रागादिक आत्मद्रव्यके साथ साधारणता धारण करते हुये प्रतिभासित नहीं होते, क्योंकि वे सदा चैतन्यचमत्कारसे भिन्नरूप प्रतिभासित होते हैं। और जितना, चैतन्य आत्माकी समस्त पर्यायोंमें व्याप्त होता हुआ प्रतिभासित होता है, उतने ही, रागादिक प्रतिभासित नहीं होते, क्योंकि रागादिके बिना भी चैतन्यका आत्मलाभ संभव है (अर्थात् जहाँ रागादि न हों वहाँ भी चैतन्य होता है)। और जो, रागादिकी चैतन्य के साथ ही उत्पत्ति होती है वह चेत्यचेतकभाव (-ज्ञेयज्ञायकभाव) की अति निकटताके कारण ही है, एकद्रव्यत्व के कारण नहीं; जैसे (दीपक के द्वारा) प्रकाशित किया जाने वाला घटादिक ( पदार्थ) दीपकके प्रकाशकत्वको ही प्रगट करते हैं-घटत्वादिको नहीं, इसप्रकार (आत्माके द्वारा) चेतित होनेवाले रागादिक ( अर्थात् ज्ञानमें ज्ञेयरूपसे ज्ञात होनेवाले रागादिक भाव) आत्माके चेतकत्वको ही प्रगट करते हैं-रागादिकत्व को नहीं।
ऐसा होनेपर भी उन दोनों (-आत्मा और बंध) की अत्यंत निकटताके कारण भेदसंभावनाका अभाव होनेसे अर्थात् भेद दिखाई न देने से ( अज्ञानीको) अनादि कालसे एकत्वका व्यामोह (भ्रम) है; वह व्यामोह प्रज्ञा द्वारा ही अवश्य छेदा जाता है।
भावार्थ:-आत्मा और बंध दोनोंको लक्षणभेदसे पहचान कर बुद्धिरूपी छेनीसे छेदकर भिन्न भिन्न करना चाहिये।
आत्मा तो अमूर्तिक है और बंध सूक्ष्म पुद्गलपरमाणुओंका स्कंध है इसलिये छद्मस्थके ज्ञानमें दोनों भिन्न प्रतीत नहीं होते, मात्र एक स्कंध ही दिखाई देता है
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मोक्ष अधिकार
४२५
(स्रग्धरा) प्रज्ञाछेत्री शितेयं कथमपि निपुणैः पातिता सावधान: सूक्ष्मेऽन्तःसन्धिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य। आत्मानं मग्नमन्तःस्थिरविशदलसद्धाम्नि चैतन्यपूरे बन्धं चाज्ञानभावे नियमितमभितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ।। १८१ ।।
( अर्थात् दोनों एकपिंडरूप दिखाई देते हैं); इसलिये अनादि अज्ञान है। श्री गुरुओंका उपदेश प्राप्त करके उनके लक्षण भिन्न भिन्न अनुभव करके जानना चाहिये कि चैतन्यमात्र तो आत्माका लक्षण है और रागादिक बंधका लक्षण है, तथापि वे मात्र ज्ञेयज्ञायकभावकी अति निकटतासे वे एक जैसे ही दिखाई देते हैं। इसलिये तीक्षण बुद्धिरूपी छेनीको जो कि उन्हें भेदकर भिन्न करनेका शस्त्र है उसे-उनकी सूक्ष्म संधिको ढढकर उसमें सावधान (निष्प्रमाद) होकर पटकना चाहिये। उसके पडते ही दोनों भिन्न भिन्न दिखाई देने लगते हैं। और ऐसा होने पर, आत्माको ज्ञानभावमें ही और बंधको अज्ञानभावमें रखना चाहिये। इसप्रकार दोनोंको भिन्न करना चाहिये।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इयं शिता प्रज्ञाछेत्री] यह प्रज्ञारूपी तीक्ष्ण छेनी [ निपुणैः ] प्रवीण पुरुषोंके द्वारा [ कथम् अपि] किसी भी प्रकारसे (–यत्नपूर्वक) [ सावधानैः] सावधानतया (निष्प्रमादतया) [ पातिता] पटकनेपर, [आत्म-कर्म-उभयस्य सूक्ष्मे अन्तःसन्धिबन्धे ] आत्मा और कर्म-दोनोंके सूक्ष्म अंतरंग संधिके बंधमें [ रभसात् ] शीघ्र [निपतति] पड़ती है। किस प्रकार पड़ती है ? [आत्मानम् अन्त:-स्थिर-विशदलसद्-धाम्नि चैतन्यपूरे मग्नम् ] वह आत्माको तो जिसका तेज अंतरंगमें स्थिर और निर्मलतया दैदीप्यमान है ऐसे चैतन्यप्रवाहमें मग्न करती हुई [च] और [बन्धम् अज्ञानभावे नियमितम् ] बंधको अज्ञानभावमें निश्चल (नियत) करती हुई- [अभितः भिन्नभिन्नौ कुर्वती ] इसप्रकार आत्मा और बंधको सर्वतः भिन्न भिन्न करती हुई पड़ती है।
भावार्थ:-यहाँ आत्मा और बंधको भिन्न भिन्न करनेरूप कार्य है। उसका कर्ता आत्मा है। वहाँ करण बिना कर्ता किसके द्वारा कार्य करेगा ? इसलिये करण भी आवश्यक है। निश्चयनयसे कर्तासे करण भिन्न नहीं होता; इसलिये आत्मासे अभिन्न ऐसी यह बुद्धि ही इस कार्यमें करण है। आत्माके अनादि बंध ज्ञानावरणादि कर्म है, उसका कार्य भावबंध तो रागादिक है तथा नोकर्म शरीरादिक है। इसलिये बुद्धिके द्वारा आत्माको शरीरसे, ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मसे तथा रागादिक भावकर्मसे भिन्न एक चैतन्यभावमात्र अनुभवी ज्ञानमें ही लीन रखना सो यही (आत्मा और बंधको) दूर करना है। इसी से सर्व कर्मोंका नाश होता है, सिद्धपदकी प्राप्ति होती है, ऐसा जानना चाहिये। १८१।
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समयसार
४२६
आत्मबन्धौ द्विधा कृत्वा किं कर्तव्यमिति चेत्
जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं। बंधो छेदेदव्वो सुद्धो अप्पा य घेत्तव्यो।। २९५ ।।
जीवो बन्धश्च तथा छिद्येते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्याम्। बन्धरछेत्तव्यः शुद्ध आत्मा च गृहीतव्यः ।। २९५ ।।
आत्मबन्धौ हि तावन्नियतस्वलक्षणविज्ञानेन सर्वथैव छत्तव्यौ; ततो रागादिलक्षण: समस्त एव बन्धो निर्मोक्तव्यः, उपयोगलक्षणः शुद्ध आत्मैव गृहीतव्यः। एतदेव किलात्मबन्धयोxिधाकरणस्य प्रयोजनं यद्वन्धत्यागेन शुद्धात्मोपादानम्।
'आत्मा और बंधका द्विधा करके क्या करना चाहिये' ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं:
छेदन होवे जीव बंधका जहँ नियत निज निज चिह्न से । वह छोड़ना इस बंधको, जीव ग्रहण करना शुद्धको ।। २९५ ।।
गाथार्थ:- [ तथा ] इसप्रकार [ जीवः बन्धः च ] जीव और बंध [नियताभ्याम् स्वलक्षणाभ्यां] अपने निश्चित स्वलक्षणोंसे [छिद्येते ] छेदे जाते हैं। [ बन्ध:] वहाँ, बंधको [ छत्तव्यः ] छेदना चाहिये अर्थात् छोड़ना चाहिये [च ] और [ शुद्धः आत्मा ] शुद्ध आत्माको [ गृहीतव्यः ] ग्रहण करना चाहिये।
टीका:-आत्मा और बंधको प्रथम तो उनके नियत स्वलक्षणोंके विज्ञानसे सर्वथा ही छेद अर्थात् भिन्न करना चाहिये; तत्पश्चात् , रागादिक जिसका लक्षण है ऐसे समस्त बंधको तो छोड़ना चाहिये तथा उपयोग जिसका लक्षण है ऐसे शुद्ध आत्माको ही ग्रहण करना चाहिये। वास्तवमें यही आत्मा और बंधके द्विधा करनेका प्रयोजन है कि बंधके त्यागसे (-अर्थात् बंधका त्याग करके) शुद्ध आत्माको ग्रहण करना।
भावार्थ:-शिष्यने प्रश्न किया था कि आत्मा और बंधको द्विधा करके क्या करना चाहिये ? उसका यह उत्तर दिया है कि बंधका तो त्याग करना और शुद्ध आत्माका ग्रहण करना।
('आत्मा और बंधको भिन्न तो प्रज्ञाके द्वारा किया परंतु आत्माको किसके द्वारा ग्रहण किया जाये ?'-इस प्रश्नकी तथा उसके उत्तरको गाथा कहते हैं:
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कह सो धिप्पदि अप्पा पण्णाए सो दु धिप्पदे अप्पा । जह पण्णाइ विभत्तो तह पण्णाएव घेत्तव्वो ।। २९६ ।। कथं स गृह्यते आत्मा प्रज्ञया स तु गृह्यते आत्मा । यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः ।। २९६ ।।
ननु केन शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः ? प्रज्ञयैव शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः, शुद्धस्यात्मनः स्वयमात्मानं गृह्णतो, विभजत इव, प्रज्ञैककरणत्वात् । अतो यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः ।
कथमयमात्मा प्रज्ञया गृहीतव्य इति चेत्
पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा ।। २९७ ।।
यह जीव कैसे ग्रहण हो ? जीव ग्रहण प्रज्ञादि से । ज्यों अलग प्रज्ञासे किया, त्यों ग्रहण भी प्रज्ञाहि से ।। २९६ ।।
४२७
गाथार्थ:- (शिष्य पूछता है कि - ) [ सः आत्मा ] वह ( शुद्ध ) आत्मा [ कथं ] कैसे [ गृह्यते ] ग्रहण किया जाये ? ( आचार्यदेव उत्तर देते हैं कि - ) [ प्रज्ञया तु ] प्रज्ञा के द्वारा [ सः आत्मा ] वह ( शुद्ध ) आत्मा [ गृह्यते ] ग्रहण किया जाता है । [ यथा ] जैसे [ प्रज्ञया ] प्रज्ञा के द्वारा [ विभक्त: ] भिन्न किया, [ तथा ] उसीप्रकार [ प्रज्ञया एव ] प्रज्ञाके द्वारा ही [ गृहीतव्य: ] ग्रहण करना चाहिये ।
टीका:- यह शुद्ध आत्मा किसके द्वारा ग्रहण करना चाहिये ? प्रज्ञाके द्वारा ही यह शुद्धात्मा ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि शुद्ध आत्माको स्वयं निजको ग्रहण करने में, प्रज्ञा ही एक करण है-जैसे भिन्न करने में प्रज्ञा ही एक करण था । इसलिये जैसे प्रज्ञा द्वारा भिन्न किया था उसीप्रकार प्रज्ञाके द्वारा ही ग्रहण करना चाहिये ।
भावार्थ:-भिन्न करनेमें और ग्रहण करनेमें करण अलग-अलग नहीं है; इसलिये प्रज्ञाके द्वारा ही आत्माको भिन्न किया और प्रज्ञाके द्वारा ही ग्रहण करना चाहिये।
अब प्रश्न होता है कि इस आत्माको प्रज्ञाके द्वारा कैसे ग्रहण करना चाहिये ? इसका उत्तर कहते हैं:
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४२८
प्रज्ञया गृहीतव्यो यश्चेतयिता सोऽहं तु निश्चयतः। अवशेषा ये भावाः ते मम परा इति ज्ञातव्याः ।। २९७ ।।
यो हि नियतस्वलक्षणावलम्बिन्या प्रज्ञया प्रविभक्तश्चेतयिता, सोऽयमहं; ये त्वमी अवशिष्टा अन्यस्वलक्षणलक्ष्या व्यवहियमाणा भावाः, ते सर्वेऽपि चेतयितृत्वस्य व्यापकस्य व्याप्यत्वमनायान्तोऽत्यन्तं मत्तो भिन्नाः। ततोऽहमेव मयैव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृहामि। यत्किल गृहामि तचेतनैकक्रियत्वादात्मनश्चेतय एव; चेतयमान एव चेतये, चेतयमानेनैव चेतये, चेतयमानायैव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानमेव चेतये। अथवा- न चेतये; न चेतयमानश्चेतये, न चेतयमानेन चेतये, न चेतयमानाय चेतये, न चेतयमानाचेतये, न चेतयमाने चेतये, न चेतयमानं चेतये; किन्तु सर्वविशुद्धचिन्मात्रो भावोऽस्मि।
के ग्रहण प्रज्ञासे नियत, चेतक है सो ही मैं हि हूँ। अवशेष जो सब भाव है, मेरे से पर ही जानना ।। २९७।।
गाथार्थ:- [ प्रज्ञया] प्रज्ञाके द्वारा [ गृहीतव्यः ] ( आत्माको ) इसप्रकार ग्रहण करना चाहिये कि [ यः चेतयिता] जो चेतनवाला (चेतनस्वरूप आत्मा) है [ सः तु] वह [ निश्चयतः ] निश्चयसे [ अहं ] मैं हूँ, [अवशेषाः ] शेष [ये भावाः ] जो भाव हैं [ ते] वे [ मम पराः ] मुझसे पर है [ इति ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिये।
टीका:-नियत स्वलक्षणका अवलंबन करनेवाली प्रज्ञाके द्वारा भिन्न भिन्न किया गया जो चेतक (-चेतनेवाला, चैतन्यस्वरूप आत्मा) है सो यह मैं हूँ ; और अन्य स्वलक्षणोंसे लक्ष्य ( अर्थात् चैतन्यलक्षणके अतिरिक्त अन्य लक्षणोंसे जानने योग्य ) जो यह शेष व्यवहाररूप भाव हैं, वे सभी, चेतकत्वरूपी व्यापकके व्याप्य नहीं होते इसलिये, मुझसे अत्यंत भिन्न है। इसलिये मैं ही, अपने द्वारा ही, अपने लिये ही, अपने में से ही, अपने में ही, अपने को ही ग्रहण करता हूँ। आत्माकी, चेतना ही एक क्रिया है इसलिये, 'मैं ग्रहण करता हूँ' अर्थात् 'मैं चेतता ही हूँ'; चेतता हुआ ही चेतता हूँ, चेतते हुए द्वारा ही चेतता हूँ, चेतते हुए के लिये ही चेतता हूँ, चेतते हुए से ही चेतता हूँ, चेततेमें ही चेतता हूँ, चेततेको ही चेतता हूँ। अथवा-न तो चेतता हूँ; न चेतता हुआ चेतता हूँ, न चेतते हुए के द्वारा चेतता हूँ, न चेततेके लिये चेतता हूँ, न चेतते हुए से चेतता हूँ, न चेतते हुए में चेतता हूँ, न चेतते हुयेको चेतता हूँ; किन्तु सर्वविशुद्ध चिन्मात्र (-चैतन्यमात्र) भाव हूँ।
भावार्थ:-प्रज्ञा के द्वारा भिन्न किया गया वह चेतक मैं हूँ और शेष भाव मुझसे पर हैं; इसलिये (अभिन्न छह कारकोंसे) मैं ही, मेरे द्वारा ही, मेरे लिये ही , मुझसे ही, मुझमें ही, मुझे ही ग्रहण करता हूँ। ‘ग्रहण करता हूँ' अर्थात् 'चेतता
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४२९
__ (शार्दूलविक्रीडित) भित्त्वा सर्वमपि स्वलक्षणबतातेत्तुं हि यच्छक्यते चिन्मुद्राङ्कितनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवास्म्यहम्। भिद्यन्ते यदि कारकाणि यदि वा धर्मा गुणा वा यदि भिद्यन्तां न भिदास्ति काचन विभौ भावे विशुद्धे चिति।। १८२ ।।
क्योंकि चेतना ही आत्माकी एक क्रिया है। इसलिये मैह चेतता ही हूँ; चेतनेवाला ही, चेतनेवाले के द्वारा ही, चेतने वाले के लिये ही, चेतनेवाले से ही, चेतनेवालेमें हीं, चेतनेवाले को ही चेतता हूँ। अथवा द्रव्यदृष्टिसे तो-मुझमें छह कारकोंके भेद भी नहीं हैं, मैं तो शुद्ध चैतन्यमात्र भाव हूँ। इसप्रकार प्रज्ञाके द्वारा आत्माको ग्रहण करना चाहिये अर्थात् अपनेको चेतयिताके रूपमें अनुभव करना चाहिये।
अब इसी अर्थकां कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ यत् भेत्तुं हि शक्यते सर्वम् अपि स्वलक्षणबलात् भित्त्वा] जो कुछ भी भेदा जा सकता है उस सबको स्वलक्षणके बलसे भेदकर, [चिन्मुद्राअङ्कित-निर्विभाग-महिमा शुद्धः चिद् एव अहम् अस्ति ] जिसकी चिन्मुद्रासे अंकित निर्विभाग महिमा है ( अर्थात् चैतन्य की मुद्रासे अंकित विभागरहित जिसकी महिमा हे) ऐसा शुद्ध चैतन्य ही मैं हूँ। [ यदि कारकाणि वा यदि धर्माः वा यदि गुणाः भिद्यन्ते, भिद्यन्ताम् ] यदि कारकके, अथवा धर्मोंके, या गुणोंके भेद हों, तो भले हों; [ विभौ विशुद्धे चिति भावे काचन भिदा न अस्ति] किन्तु शुद्ध (-समस्त विभावोंसे रहित-) *विभु, ऐसा चैतन्यभावमें तो कोई भेद नहीं है। (इसप्रकार प्रज्ञा के द्वारा आत्माको ग्रहण किया जाता है।)
भावार्थ:-जिनका स्वलक्षण चैतन्य नहीं है ऐसे परभाव तो मुझसे भिन्न हैं, मैं तो मात्र शुद्ध चैतन्य ही हूँ। कर्ता, कर्म, कारण, संप्रदान, अपादान और अधिकरणरूप कारकभेद, सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व , अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व आदि धर्मभेद और ज्ञान, दर्शन आदि गुणभेद यदि कथंचित् हों तो भले हों; परंतु शुद्ध चैतन्यमात्र भावमें तो कोई भेद नहीं है। इसप्रकार शुद्धनयसे अभेदरूप आत्माको ग्रहण करना चाहिये। १८२।
(आत्माको शुद्ध चैतन्यमात्र तो ग्रहण कराया; अब सामान्य चेतना दर्शनज्ञानसामान्यमय है इसलिये अनुभवमें दर्शनज्ञानस्वरूप आत्माको इसप्रकार अनुभव करना चाहिये-सो कहते हैं:-)
* विभु = दृढ़; अचल; नित्य; समर्थ; सर्व गुणपर्यायोंमें व्यापक।
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9
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पण्णाए घित्तव्वो जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा ।। २९८ ।। पण्णाए घित्तव्वो जो णादा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा।। २९९ ।।
प्रज्ञया गृहीतव्यो यो द्रष्टा सोऽहं तु निश्चयतः । अवशेषा ये भावाः ते मम परा इति ज्ञातव्याः ।। २९८ ।। प्रज्ञया गृहीतव्यो यो ज्ञाता सोऽहं तु निश्चयतः। अवशेषा ये भावाः ते मम परा इति ज्ञातव्याः।। २९९ ।।
चेतनाया दर्शनज्ञानविकल्पानतिक्रमणाच्चेतयितृत्वमिव द्रष्टृत्वं ज्ञातृत्वं चात्मनः स्वलक्षणमेव। ततोऽहं द्रष्टारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तत्पश्याम्येव; पश्यन्नेव पश्यामि, पश्यतैव पश्यामि पश्यते एव पश्यामि पश्यत एव पश्यामि पश्यत्येव पश्यामि पश्यन्तमेव
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3
3
कर ग्रहण प्रज्ञासे नियत, दृष्टा है सो ही मैं हि हूँ । अचशेष जो सब भाव है, मेरे से पर ही जानना ।। २९८ ।
कर ग्रहण प्रज्ञासे नियत, ज्ञाता है सो मैं हि हूँ । अचशेष जो सब भाव हैं, मेरे से पर ही जानना ।। २९९ ।।
गाथार्थ:- [ प्रज्ञया ] प्रज्ञा के द्वारा [ गृहीतव्यः ] इसप्रकार ग्रहण करना चाहिये कि - [ यः द्रष्टा ] जो देखनेवाला है [ सः तु ] वह [ निश्चयतः ] निश्चयसे [अहम् ] मैं हूँ, [ अवशेषाः ] शेष [ ये भावा: ] जो भाव हैं [ ते ] [ मम पराः] मुझसे पर हैं [ इति ज्ञातव्याः ] ऐसा जानना चाहिये ।
[ प्रज्ञया ] प्रज्ञा के द्वारा [ गृहीतव्यः ] इसप्रकार ग्रहण करना चाहिये कि – [ यः ज्ञाता] जो जाननेवाला है [ सः तु ] वह [ निश्चयतः ] निश्चयसे [अहम्] मैं हूँ, [अवशेषाः ] चेष [ ये भावाः ] जो भाव हैं [ते] वे [ मम पराः ] मुझसे पर हैं [इति ज्ञातव्याः ] ऐसा जानना चाहिये ।
टीका:- चेतना दर्शनज्ञानरूप भेदोंका उल्लंघन नहीं करती है इसलिये, चेतकत्वकी भाँति दर्शकत्व और ज्ञातृत्व आत्माका स्वलक्षण ही है। इसलिये मैं देखनेवाला आत्माको ग्रहण करता हूँ । 'ग्रहण करता हूँ' अर्थात् 'देखता ही हूँ'; देखता हुआ ही देखता हूँ, देखते हुए के द्वारा ही देखता हूँ, देखते हुए के लिये ही देखता हूँ, देखते हुए से ही देखता हूँ, देखते हुए में ही देखता हूँ, देखते हुए को ही
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मोक्ष अधिकार
४३१
पश्यामि। अथवा-न पश्यामि; न पश्यन् पश्यामि, न पश्यता पश्यामि, न पश्यते पश्यामि, न पश्यतः पश्यामि, न पश्यति पश्यामि, न पश्यन्तं पश्यामि; किन्तु सर्वविशुद्धो दृङ्मात्रो भावोऽस्मि। अपि च-ज्ञातारमात्मानं गृहामि। यत्किल गृहामि तज्जानाम्येव; जानन्नेव जानामि, जानतैव जानामि, जानते एव जानामि, जानत एव जानामि, जानत्येव जानामि, जानन्तमेव जानामि। अथवा-न जानामि; न जानन् जानामि, न जानता जानामि, न जानते जानामि, न जानतो जानामि, न जानति जानामि, न जानन्तं जानामि; किन्तु सर्वविशुद्धो ज्ञप्तिमात्रो भावोऽस्मि।
देखता हूँ। अथवा-नहीं देखता; न देखते हुए को देखता हूँ, न देखते हुए के द्वारा देखता हूँ, न देखते हुएके लिये देखता हूँ, न देखते हुए से देखता हूँ, न देखते हुए में देखता हूँ, न देखत हुएको देखता हूँ; किन्तु मैं सर्वविशुद्ध दर्शनमात्र भाव हूँ। और इसीप्रकार-मैं जाननेवाले आत्माको ग्रहण करता हूँ, ग्रहण करता हूँ' अर्थात् 'जानता ही हूँ'; जानता हुआ ही जानता हूँ, जानते हुए के द्वारा ही जानता हूँ, जानते हुए के लिये ही जानता हूँ, जानते हुए से ही जानता हूँ, जानते हुए में ही जानता हूँ, जानते हुए को ही जानता हूँ। अथवा-नहीं जानता; न जानते हुए को जानता हूँ, नहीं जानते हुए के द्वारा जानता हूँ, न जानते हुए के लिये जानता हूँ, न जानते हुए से जानता हूँ, नजानते हुए में जानता हूँ, न जानते हुए को जानता हूँ; किन्तु मैं सर्वविशुद्ध ज्ञप्ति (जाननक्रिया) मात्रभाव हूँ। (इसप्रकार देखनेवाले आत्माको तथा जाननेवाले आत्माको कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरणरूप कारकोंके भेदपूर्वक ग्रहण करके, तत्पश्चात् कारकभेदोंका निषेध करके आत्माको अर्थात् अपनेको दर्शनमात्र भावरूप तथा ज्ञानमात्र भावरूप अनुभव करना चाहिये अर्थात् अभेदरूपसे अनुभव करना चाहिये।
(भावार्थ:-इन तीन गाथाओंमें, प्रज्ञाके द्वारा आत्माको ग्रहण करनेको कहा है। ‘ग्रहण करना' अर्थात् किसी अन्य वस्तुको ग्रहण करना अथवा लेना नहीं; किन्तु चेतनाका अनुभव करना ही आत्माका ‘ग्रहण करना' है। पहली गाथामें सामान्य चेतनाका अनुभव कराया गया है। वहाँ, अनुभव करनेवाला, जिसका अनुभव किया जाता है वह, और जिसके द्वारा अनुभव किया जाता है वह इत्यादि कारकभेदरूपसे आत्माको कहकर, अभेदविवक्षामें कारकभेदका निषेध करके, आत्माको एक शुद्ध चैतन्यमात्र कहा गया है।
अब इन दो गाथाओंमें दृष्टा तथा ज्ञाताका अनुभव कराया है, क्योंकि चेतनासामान्य दर्शनज्ञानविशेषोंका उल्लंघन नहीं करती। यहाँ भी, छह कारकरूप भेद-अनुभवन कराके, और तत्पश्चात् अभेद-अनुभवनकी अपेक्षासे कारकभेद दूर कराके , दृष्टाज्ञातामात्रका अनुभव कराया है।)
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४३२
ननु कथं चेतना दर्शनज्ञानविकल्पौ नातिक्रामति येन चेतयिता द्रष्टा ज्ञाता च स्यात् ? उच्यते-चेतना तावत्प्रतिभासरूपा; सा तु, सर्वेषामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात्, द्वैरूप्यं नातिक्रामति। ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने। ततः सा ते नातिक्रामति। यद्यतिक्रामति, सामान्यविशेषातिक्रान्तत्वाचेतनैव न भवति। तदभावे द्वौ दोषौ-स्वगुणोच्छेदाच्चेतनस्याचेतनतापत्तिः, व्यापकाभावे व्याप्यस्य चेतनस्याभावो वा। ततस्तदोषभयाद्दर्शनज्ञानात्मिकैव चेतनाभ्युपगन्तव्या।
( शार्दूलविक्रीडित) अद्वैतापि हि चेतना जगति चेद् दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत् तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्साऽस्तित्वमेव त्यजेत्। तत्त्यागे जडता चितोऽपि भवति व्याप्यो विना व्यापकादात्मा चान्तमुपैति तेन नियतं दृग्ज्ञप्तिरूपाऽस्तु चित्।। १८३ ।।
(टीका:-) यहाँ प्रश्न होता है कि-चेतना दर्शनज्ञानभेदोंका उल्लंघन क्यों नहीं करती कि जिससे चेतनेवाला दृष्टा तथा ज्ञाता होता है ? इसका उत्तर कहते हैं:-प्रथम तो चेतना प्रतिभासरूप है। वह चेतना द्विरूपताका उल्लंघन नहीं करती, क्योंकि समस्त वस्तुएँ सामान्यविशेषात्मक हैं। ( सभी वस्तुयें सामान्य-विशेषस्वरूप हैं, इसलिये उन्हें प्रतिभासनेवाली चेतना भी दुरूपताका उल्लंघन नहीं करती।) उसके जो दो रूप हैं वे दर्शन और ज्ञान हैं। इसलिये वह उनका (-दर्शनज्ञानका) उल्लंघन नहीं करती। यदि चेतना दर्शनज्ञानका उल्लंघन करे तो सामान्यविशेषका उल्लंघन करने से चेतना ही न रहे (अर्थात् चेतनाका अभाव हो जायेगा)। उसके अभावमें दो दोष आते हैं- (१) अपने गुणका नाश होनेसे चेतनको अचेतनत्व आ जायेगा, अथवा (२) व्यापक (-चेतना) के अभावमें व्याप्य ऐसा चेतन (आत्मा) का अभाव हो जायेगा। इसलिये उन दोषोंके भयसे चेतनाको दर्शनज्ञानस्वरूप ही अंगीकार करना चाहिये। __ अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [जगति हि चेतना अद्वैता] जगतमें निश्चयतः चेतना अद्वैत है [अपि चेत् सा दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत् ] तथापि यदि वह दर्शनज्ञानरूपको छोड़ दे [ तत्सामान्यविशेषरूपविरहात् ] तो सामान्यविशेषरूपके अभावसे (वह चेतना) [ अस्तित्वम् एव त्यजेत् ] अपने अस्तित्वको ही छोड़ देगी; और [ तत्-त्यागे] इसप्रकार चेतना अपने अस्तित्वको छोड़ने पर, (१) [ चितः अपि जडता भवति] चेतनके जड़त्व आ जायेगा--अर्थात् आत्मा जड़ हो जाय। [च] और (२) [व्यापकात् विना व्याप्यः आत्मा अन्तम् उपैति ] व्यापक (-चेतना) के बिना व्याप्य जो आत्मा वह नष्ट हो जायेगा (इसप्रकार दो दोष आते हैं)। [तेन चित् नियतंदृग्ज्ञप्तिरूपा अस्तु] इसलिये चेतना नियमसे दर्शनज्ञानरूप ही हो।
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४३३
(इन्द्रवजा) एकश्चितश्चिन्मय एव भावो भावाः परे ये किल ते परेषाम्। ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो भावाः परे सर्वत एव हेयाः।। १८४ ।।
को णाम भणिज्ज बुहो णादुं सव्वे पराइए भावे। मज्झमिणं ति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं ।। ३०० ।।
भावार्थ:-समस्त वस्तुयें सामान्यविशेषात्मक हैं। इसलिये उन्हें प्रतिभासनेवाली चेतना भी सामान्यप्रतिभासरूप ( –दर्शनरूप) और विशेषप्रतिभासरूप (-ज्ञानरूप) होना चाहिये। यदि चेतना अपनी दर्शनज्ञानरूपताको छोड़ दे तो चेतनाका ही अभाव होनेपर, या तो चेतन आत्माको (अपने चेतनागुणका अभाव होनेपर) जड़त्व आ जायेगा, अथवा तो व्यापकके अभावसे व्याप्य ऐसे आत्मा का अभाव हो जायेगा। (चेतना आत्माकी सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त होनेसे व्यापक है और आत्मा चेतन होनेसे चेतनाका व्याप्य है। इसलिये चेतनाका अभाव होनेपर आत्माका भी अभाव हो जायेगा।) इसलिये चेतनाको दर्शनज्ञानस्वरूप ही मानना चाहिये।
यहाँ तात्पर्य यह है कि-सांख्यमतावलम्बी आदि कितने ही लोग सामान्य चेतनाको ही मानकर एकांत कथन करते हैं, उनका निषेध करनेके लिये यहाँ यह बताया गया है कि 'वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषरूप है इसलिये चेतनाको सामान्यविशेषरूप अंगीकार करना चाहिये' । १८३।
अब आगामी कथनका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ चितः ] चैतन्यका ( आत्माका) तो [ एकः चिन्मयः एव भावः ] एक चिन्मय ही भाव है और, [ ये परे भावाः ] जो अन्य भाव हैं [ ते किल परेषाम् ] वे वास्तवमें दूसरोंके भाव हैं ; [ ततः ] इसलिये [ चिन्मयः भावः एव ग्राह्यः ] (एक) चिन्मय भाव ही ग्रहण करनेयोग्य है, [ परे भावाः सर्वतः एव हेयाः ] अन्य भाव सर्वथा त्याज्य हैं। १८४। अब इस उपदेशकी गाथा कहते हैं:
सब भाव जो परकीय जाने, शुद्ध जाने आत्मको । वह कौन ज्ञानी ' मेरा है यह ' यों वचन बोले अहो ?।। ३००।।
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समयसार
४३४
को नाम भणेद्बुधः ज्ञात्वा सर्वान् परकीयान् भावान्। ममेदमिति च वचनं जानन्नात्मानं शुद्धम्।। ३०० ।।
यो हि परात्मनोर्नियतस्वलक्षणविभागपातिन्या प्रज्ञया ज्ञानी स्यात्, स खल्वेकं चिन्मात्रं भावमात्मीयं जानाति, शेषांश्च सर्वानेव भावान् परकीयान् जानाति। एवं च जानन् कथं परभावान्ममामी इति ब्रूयात् ? परात्मनोर्निश्चयेन स्वस्वामिसम्बन्धस्यासम्भवात्। अतः सर्वथा चिद्भाव एव गृहीतव्यः, शेषाः सर्वे एव भावाः प्रहातव्या इति सिद्धान्तः।।
( शार्दूलविक्रीडित) सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम्। एते ये तु समुल्लसन्ति विविधा भावाः पृथग्लक्षणाएतेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि।। १८५ ।।
गाथार्थ:- [ सर्वान् भावान् ] सर्व भावोंको [ परकीयान् ] दूसरेका [ ज्ञात्वा] जानकर [क: नाम बुधः] कौन ज्ञानी, [आत्मानम् ] अपनेको [ शुद्धम् ] शुद्ध [जानम् ] जानता हुआ , [ इदम् मम ] — यह मेरा है' ( –' यह भाव मेरे हैं ' ) [ इति च वचनम् ] ऐसा वचन [ भणेत् ] बोलेगा ?
टीका:-जो (पुरुष) परके और आत्माके नियत स्वलक्षणोंके विभागमें पड़नेवाली प्रज्ञा के द्वारा ज्ञानी होता है, वह वास्तवमें एक चिन्मात्र भावको अपना जानता है और शेष सर्व भावोंको दूसरोंका जानता है। ऐसा जानता हुआ ( वह पुरुष) परभावोंको ‘यह मेरे हैं' ऐसा क्यों कहेगा ? ( नहीं कहेगा;) क्योंकि परमें और अपनेमें निश्चयसे स्वस्वामिसंबंधका असंभव है। इसलिये, सर्वथा चिद्भाव ही (एकमात्र) ग्रहण करनेयोग्य है, शेष समस्त भाव छोड़ने योग्य हैं-ऐसा सिद्धांत है।
भावार्थ:-लोकमें भी यह न्याय है कि-जो सुबुद्धि और न्यायवान होता है, वह दूसरेके धनादिको अपना नहीं कहता। इसीप्रकार जो सम्यग्ज्ञानी है, वह समस्त परद्रव्योंको अपना नहीं मानता, किन्तु अपने निजभावको ही अपना जानकर ग्रहण करता है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ उदात्तचित्तचरितैः मोक्षार्थिभिः ] जिनके चित्तका चरित्र उदात्त (-उदार, उच्च, उज्ज्वल) है ऐसे मोक्षार्थी [अयम् सिद्धान्तः] इस सिद्धांतका [ सेव्यताम् ] सेवन करें कि- [अहम् शुद्धं चिन्मयम् एकम् परमं ज्योतिः एव सदा एव अस्मि ] मैं तो सदा शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ही हूँ, तु] और
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मोक्ष अधिकार
४३५
(अनुष्टुभ् ) परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येतैवापराधवान्। बध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो यतिः।। १८६ ।।
थेपादी अवराहे जो कुव्वदि सो उ संकिदो भमदि। मा बज्झेज्जं केण वि चोरो त्ति जणम्हि वियरंतो।। ३०९ ।। जो ण कुणदि अवराहे सो णिस्संको दु जणवदे भमदि। ण वि तस्स बज्झिदुं जे चिंता उप्पज्जदि कयाइ।।३०२ ।। एवम्हि सावराहो बज्झामि अहं तु संकिदो चेदा। जइ पुण णिरावराहो णिस्संकोहं ण बज्झामि।।३०३ ।।
[ एते ये पृथग्लक्षणाः विविधाः भावाः समुल्लसन्ति ते अहं न अस्मि] जो यह भिन्न लक्षणवाले विविध प्रकारके भाव प्रगट होते हैं वे मैं नहीं हूँ, [यतः अत्र ते समग्राः अपि मम परद्रव्यम् ] क्योंकि वे सभी मेरे लिये परद्रव्य हैं'। १८५ ।
अब आगामी कथनका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [परद्रव्यग्रहं कुर्वन् ] जो परद्रव्यको ग्रहण करता है [अपराधवान् ] वह अपराधी है [ बध्यते एव] इसलिये बंधमें पड़ता है, [स्वद्रव्ये संवृतः यति:] और जो स्वद्रव्यमें ही संवृत है (अर्थात् जो अपने द्रव्यमें ही गुप्त है-मग्न हैसंतुष्ट है, परद्रव्यका ग्रहण नहीं करता) ऐसा यति [अनपराध:] निरपराधी है [न बध्येत ] इसलिये बँधता नहीं है। १८६।
अब इस कथनको दृष्टांतपूर्वक गाथामें कहते हैं:अपराध चौर्यादिक करै जो पुरुष वो शंकित फिरै। को लोक फिरते हुए को, चोर जान जु बांध ले ।। ३०१।। अपराध जो करता नहीं, निःशंक लोक विषै फिरै। 'बँध जाउँगा' ऐसी कभी, चिंता न उसको होय है ।। ३०२।। त्यों आत्मा अपराधी ' मैं बँधता हुँ' यों हि सशंक है। अरु निरपराधी आत्मा ‘नाहीं बँधू' निःशंक है ।। ३०३।।
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समयसार
४३६
स्तेयादीनपराधान् यः करोति स तु शङ्कितो भ्रमति। मा बध्ये केनापि चौर इति जने विचरन्।। ३०१ ।। यो न करोत्यपराधान् स निरशङ्कस्तु जनपदे भ्रमति। नापि तस्य बद्धं यच्चिन्तोत्पद्यते कदाचित्।।३०२ ।। एवमस्मि सापराधो बध्येऽहं तु शङ्कितश्चेतयिता।
यदि पुनर्निरपराधो निरशङ्कोऽहं न बध्ये।। ३०३ ।। यथात्र लोके य एव परद्रव्यग्रहणलक्षणमपराधं करोति तस्यै बन्ध शङ्का सम्भवति, यस्तु तं न करोति तस्य सा न सम्भवति; तथात्मापि य एवाशुद्धः सन् परद्रव्यग्रहणलक्षणमपराधं करोति तस्यैव बन्धशङ्का सम्भवति, यस्तु शुद्धः संस्तं न करोति तस्य सा न सम्भवतीति नियमः। अतः सर्वथा सर्वपरकीयभावपरिहारेण शुद्ध आत्मा गृहीतव्यः, तथा सत्येव निरपराधत्वात्।।
गाथार्थ:- [ यः ] जो पुरुष [ स्तेयादीन् अपराधान् ] चोरी आदिके अपराध [ करोति ] करता है [ सः तु] वह [ जने विचरन् ] लोकमें घूमता हुआ [ केन अपि] मुझे कोई [चौरः इति] चोर समझकर [बध्ये ] पकड़ न ले' इसप्रकार [शङ्कितः भ्रमति ] शंकित होता हुआ घूमता है; [ यः ] जो पुरुष [अपराधान् ] अपराध [न करोति ] नहीं करता [ सः तु] वह [ जनपदे ] लोकमें [ निरशङ्क: भ्रमति] निःशंक घूमता है, [ यद् ] क्योंकि [ तस्य ] उसे [बद्धं चिन्ता] बंधने की चिंता [ कदाचित् अपि] कभी भी [न उत्पद्यते] उत्पन्न नहीं होती। [ एवम् ] इसीप्रकार [ चेतयिता] अपराधी आत्मा [सापराधः अस्मि] मैं अपराधी हूँ [ बध्ये तु अहम् ] इसलिये मैं बँधूंगा' इसप्रकार [ शङ्कित:] शंकित होता है, [ यदि पुनः ] और यदि [ निरपराध:] अपराध रहित (आत्मा) हो तो '[ अहं न बध्ये ] मैं नहीं बँधूंगा इसप्रकार [ निरशङ्क: ] निःशंक होता है।
टीका:-जैसे इस जगतमें जो पुरुष, परद्रव्यका ग्रहण जिसका लक्षण है ऐसा अपराध करता है उसीको बंधकी शंका होती है और जो अपराध नहीं करता उसे बंध की शंका नहीं होती, इसीप्रकार आत्मा भी अशुद्ध वर्तता हुआ, परद्रव्यका ग्रहण जिसका लक्षण है ऐसा अपराध करता है उसीको बंधकी शंका होती है और जो शुद्ध वर्तता हुआ अपराध नहीं करता उसे बंधकी शंका नहीं होती-ऐसा नियम है। इसलिये सर्वथा समस्त परकीय भावोंके परिहार द्वारा (अर्थात् परद्रव्यके सर्व भावोंको छोड़कर) शुद्ध आत्माको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने पर ही निरपराधता होती है।
भावार्थ:-यदि मनुष्य चोरी आदि अपराध करे तो उसे बंधकी शंका हो; निरपराधको शंका क्यों होगी? इसीप्रकार यदि आत्मा परद्रव्यका ग्रहणरूप अपराध करे तो उसे बंधकी शंका अवश्य होगी; यदि अपनेको शुद्ध अनुभव करे,
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मोक्ष अधिकार
४३७
को हि नामायमपराध: ?
संसिद्धिराधसिद्धं साधियमाराधियं च एयटुं। अवगदराधो जो खलु चेदा सो होदि अवराधो।। ३०४ ।। जो पुण णिरावराधो चेदा णिस्संकिओ उ सो होइ। आराहणाइ णिच्चं वट्टेइ अहं ति जाणंतो।।३०५ ।।
संसिद्धिराधसिद्ध साधितमाराधितं चैकार्थम्। अपगतराधो यः खलु चेतयिता स भवत्यपराधः।। ३०४ ।। यः पुनर्निरपराधश्चेतयिता निरशङ्कितस्तु स भवति। आराधनया नित्यं वर्तते अहमिति जानन्।। ३०५ ।।
परका ग्रहण न करे, तो बंधकी शंका क्यों होगी ? इसलिये परद्रव्यको छोड़कर शुद्ध आत्माका ग्रहण करना चाहिये। तभी निरपराध हुआ जाता है।
अब प्रश्न होता है कि 'यह अपराध' क्या है? उसके उत्तरमें अपराधका स्वरूप कहते हैं:
संसिद्धि, सिद्धि जु राध, अरु साधित आराधित एक है। ये राधसे जो रहित है, वो आतमा अपराध है ।। ३०४।। अरु आतमा जो निरपराधी, होय है निःशङ्क होय है। वर्ते सदा आराधनासे , जानता 'मैं' आत्मको ।। ३०५ ।।
गाथार्थ:- [ संसिद्धिराधसिद्धम् ] संसिद्धि, *राध, सिद्ध , [ साधितम् आराधितं च] साधित और आराधित- [ एकार्थम् ] ये एकार्थवाची शब्द हैं; [ यः खलु चेतयिता] जो आत्मा [अपगतराधः] 'अपगतराध' अर्थात् राधसे रहित है [स:] वह आत्मा [ अपराधः ] अपराध [ भवति ] है।
[पुनः ] और [ यः चेतयिता] जो आत्मा [ निरपराधः ] निरपराध है [ सः तु] वह [ निरशङ्कितः भवति ] निःशंक होता है; [ अहम् इति जानन् ] 'जो शुद्ध आत्मा है सो ही मैं हूँ ' ऐसा जानता हुआ [ आराधनया ] आराधनासे [ नित्यं वर्तते ] सदा वर्तता है।
* राध = आराधना, प्रसन्नता; कृपा; सिद्धि; पूर्णता; सिद्ध करना; पूर्ण करना।
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४३८
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समयसार
परद्रव्यपरिहारेण शुद्धस्यात्मन: सिद्धिः साधनं वा राधः । अपगतो राधो यस्य चेतयितुः सोऽपराधः। अथवा अपगतो राधो यस्य भावस्य सोऽपराध:, तेन सह यश्चेतयिता वर्तते स सापराधः । स तु परद्रव्यग्रहणसद्भावेन शुद्धात्मसिद्धय भावाद्बन्धशङ्कासम्भवे सति स्वयमशुद्धत्वादनाराधक एव स्यात् । यस्तु निरपराध: स समग्रपरद्रव्यपरिहारेण शुद्धात्मसिद्धिसद्भावाद्बन्धशङ्काया असम्भवे सति उपयोगैकलक्षणशुद्ध आत्मैक एवाहमिति निश्चिन्वन् नित्यमेव शुद्धात्मसिद्धिलक्षणयाराधनया वर्तमानत्वादाराधक एव स्यात्।
( मालिनी ) अनवरतमनन्तबध्यते सापराधः
स्पृशति निरपराधो बन्धनं नैव जातु । नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सा
भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी ।। १८७ ।।
टीका:- परद्रव्यके परिहार से शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधन सो राध है । जो आत्मा ‘अपगतराध' अर्थात् राध रहित हो वह आत्मा अपराध है । अथवा (दूसरा समासविग्रह इसप्रकार है: ) जो भाव राध रहित हो वह भाव अपराध है; उस अपराध युक्त जो आत्मा वर्तता हो वह आत्मा सापराध है। वह आत्मा, परद्रव्यके ग्रहणके सद्भाव द्वारा शुद्ध आत्माकी सिद्धिके अभावके कारण बंधकी शंका होती है इसलिये स्वयं अशुद्ध होनेसे, अनाराधक ही है। और जो आत्मा निरपराध है वह, समग्र परद्रव्यके परिहार से शुद्ध आत्माकी सिद्धिके सद्भावके कारण बंधकी शंका नहीं होती इसलिये ‘उपयोग ही जिसका एक लक्षण है ऐसा एक शुद्ध आत्मा ही मैं हूँ' इसप्रकार निश्चय करता हुआ शुद्ध आत्माकी सिद्धि जिसका लक्षण है ऐसी आराधना पूर्वक सदा वर्तता है इसलिये, आराधक ही है ।
भावार्थ:-संसिद्धि, राध, सिद्धि, साधित और आराधित- इन शब्दोंका अर्थ एक ही है। यहाँ शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधनका नाम 'राध' है। जिसके वह राध नहीं है वह आत्मा सापराध है और जिसके वह राध है वह आत्मा निरपराध है। जो सापराध है उसे बंधकी शंका होती है इसलिये वह स्वयं अशुद्ध होनेसे अनाराधक है; और जो निरपराध है वह निःशंक होता हुआ अपने उपयोगमें लीन होता है इसलिये उसे बंधकी शंका नहीं होती, इसलिये 'जो शुद्ध आत्मा है ' ऐसे निश्चयपूर्वक वर्तता हुआ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपके एक भावरूप निश्चय आराधनाका आराधक ही है।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ :- [ सापराधः ] सापराध आत्मा [ अनवरतम् ] निरंतर [ अनन्तैः ] अनंत पुद्गलपरमाणुरूप कर्मोंसे [ बध्यते ] बँधता है; [ निरपराध: ] निरपराध आत्मा [ बन्धनम् ] बंधनको [ जातु ] कदापि [ स्पृशति न एव ] स्पर्श नहीं करता । [ अयम् ]
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४३९
ननु किमनेन शुद्धात्मोपासनप्रयासेन ? यतः प्रतिक्रमणादिनैव निरपराधो भवत्यात्मा; सापराधस्याप्रतिक्रमणादेस्तदनपोहकत्वेन विषकुम्भत्वे सति प्रतिक्रमणा देस्तदपोहकत्वेनामृतकुम्भत्वात्। उक्तं च व्यवहाराचारसूत्रे - अप्पडिकमणमप्पडिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिंदागरहासोही य विसकुंभो ।। १।। परिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य। णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो अमयकुंभो दु ।। २ ।।
जो सापराध आत्मा है वह तो [ नियतम् ] नियमसे [ स्वम् अशुद्धं भजन्] अपने को अशुद्ध सेवन करता हुआ [ सापराध: ] सापराध है; [ निरपराध: ] निरपराध आत्मा तो [ साधु ] भली भाँति [ शुद्धात्मसेवी भवति ] शुद्ध आत्मा का सेवन करने वाला होता है।
१८७ ।
(यहाँ व्यवहारनयावलंबी अर्थात् व्यवहारनयको अवलंबन करनेवाला तर्क करता है कि:-) “ शुद्ध आत्माकी उपासनाका प्रयास करनेका क्या काम है? क्योंकि प्रतिक्रमण आदिसे ही आत्मा निरपराध होता है; क्योंकि सापराधके, जो अप्रतिक्रमण आदि हैं वे, अपराधको दूर करनेवाले न होने से, विषकुंभ हैं, इसलिये जो प्रतिक्रमणादि हैं वे, अपराधको दूर करनेवाले होनेसे, अमृतकुंभ है। व्यवहारका कथन करने वाले आचारसूत्रमें भी कहा है कि :--
अप्पडिकमणमप्पडिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिंदागरहासोही य विसकुम्भो ।। १ ।। पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती च ।
अर्थः-अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिंदा, अगर्हा और अशुद्धि - - यह (आठ प्रकारका ) विषकुंभ है। १ ।
णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो अमयकुम्भो दु ।। २ ।। अत्रोच्यते
'प्रतिक्रमण, `प्रतिसरण, परिहार, धारणा, "निवृत्ति, निंदा, गर्हा और 'शुद्धि- - यह आठ प्रकारका अमृतकुंभ है। २।
चित्तको स्थिर करना ।
१। प्रतिक्रमण = कृत दोषोंका निराकरण।
२। प्रतिसरण = सम्यक्त्वादि गुणोमें प्रेरणा ।
३ । परिहार = मिथ्यात्वादि दोषोंका निवारण |
४। धारणा = पंचनमस्कारादि मंत्र, प्रतिमा इत्यादि बाह्य द्रव्योंके आलंबन द्वारा
=
५। निवृत्ति
६। निंदा = आत्मसाक्षीपूर्वक दोषोंको प्रगट करना ।
७। गर्हा = गुरुसाक्षीसे दोषोंको प्रगट करना ।
८। शुद्धि
"
= बाह्य विषयकषायादि इच्छामें प्रवर्तमान चित्तको हटा लेना ।
दोष होनेपर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि करना।
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समयसार
४४०
अत्रोच्यते--
पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य। जिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होदि विसकुंभो।।३०६ ।। अप्पडिकमणमप्पडिसरणं अप्परिहारो अधारणा चेव। अणियत्ती य अणिंदागरहासोही अमयकुंभो।। ३०७ ।।
प्रतिक्रमणं प्रतिसरणं परिहारो धारणा निवृत्तिश्च। निन्दा गर्दा शुद्धिः अष्टविधो भवति विषकुम्भः।। ३०६ ।। अप्रतिक्रमणमप्रतिसरणमपरिहारोऽधारणा चैव। अनिवृत्तिश्चानिन्दाऽगर्हाऽशुद्धिरमृतकुम्भः।। ३०७ ।।
यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादिः स शुद्धात्मसिद्ध्यभावस्वभावत्वेन स्वयमेवापराधत्वाद्विषकुम्भ एव; किं तस्य विचारेण ?
उपरोक्त तर्कका समाधान आचार्यदेव (निश्चयनयकी प्रधानतासे) गाथा द्वारा करते हैं:
प्रतिक्रमण, अरु प्रतिसरण त्यों परिहरण, निवृत्ति धारणा। अरु शुद्धि , निंदा, गर्हणा , ये अष्टविध विषकुंभ है ।। ३०६ ।। अणप्रतिक्रमण , अणप्रतिसरण , अणपरिहरण, अणधारणा।
अनिवृत्ति , अनगरे , अनिंद, अशुद्धि-अमृतकुंभ है ।। ३०७।।
गाथार्थ:- [ प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण , [प्रतिसरणम् ] प्रतिसरण, [परिहार:] परिहार, [धारणा] धारणा, [ निवृत्तिः] निवृत्ति , [ निन्दा] निंदा, [गर्दा ] गर्दा [च शुद्धिः ] और शुद्धि- [ अष्टविधः ] यह आठ प्रकारका [ विषकुम्भः ] विषकुंभ [ भवति ] हैं (क्योंकि इसमें कर्तृत्व की बुद्धि संभवित है)।
[अप्रतिक्रमणम् ] अप्रतिक्रमण, [अप्रतिसरणम् ] अप्रतिसरण, [अपरिहारः] अपरिहार, [ अधारणा] अधारणा, [ अनिवृत्तिः च] अनिवृत्ति, [अनिन्दा] अनिंदा, [अगरे ] अगरे [ च एव ] और [ अशुद्धिः ] अशुद्धि- [अमृतकुम्भः ] यह अमृतकुंभ हैं (क्योंकि इससे कर्तृत्व का निषेध है-कुछ करना ही नहीं है, इसलिये बंध नहीं होता)।
टीका:-प्रथम तो जो अज्ञानीजनसाधारण (-अज्ञानी लोगोंको साधारण ऐसे) अप्रतिक्रमणादि हैं वे तो शुद्ध आत्माकी सिद्धिके अभावरूप स्वभाववाले हैं इसलिये स्वयमेव अपराधरूप होनेसे विषकुंभ ही है; उनका विचार करनेका क्या प्रयोजन है ?
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४४१
यस्तु द्रव्यरूपः प्रतिक्रमणादिः स सर्वापराध - विषदोषापकर्षणसमर्थत्वेनामृत-कुम्भोऽपि प्रतिक्रमणा प्रतिक्रमणादिविलक्षणा- प्रतिक्रमणादिरूपां तार्तीयीकीं भूमिमपश्यतः स्वकार्यकरणासमर्थत्वेन विपक्षकार्य- कारित्वाद्विषकुम्भ एव स्यात्। अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीया भूमिस्तु स्वयं शुद्धात्मसिद्धिरूपत्वेन सर्वापराधविषदोषाणां सर्वङ्कषत्वात् साक्षात्स्वयममृतकुम्भो भवतीति व्यवहारेण द्रव्यप्रतिक्रमणादेरपि अमृतकुम्भत्वं साधयति । तयैव च निरपराधो भवति चेतयिता । तदभावे द्रव्यप्रतिक्रमणादिरप्यपराध एव । अतस्तृतीयभूमिकयैव निरपराध- त्वमित्यवतिष्ठते। तत्प्राप्त्यर्थ एवायं द्रव्यप्रतिक्रमणादिः । ततो मेति मंस्था यत्प्रति- क्रमणादीन् श्रुतिस्त्याजयति, किन्तु द्रव्यप्रतिक्रमणादिना न मुञ्चति, अन्यदपि प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणाद्यगोचराप्रतिक्रमणादिरूपं शुद्धात्मसिद्धिलक्षणमतिदुष्करं किमपि कारयति। वक्ष्यते चात्रैव - कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं। तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं ।। इत्यादि।
( क्योंकि वे तो प्रथम ही त्यागने योग्य हैं ।) और जो द्रव्यरूप प्रतिक्रमणादि हैं वे सर्व अपराधरूपी विषके दोषोको ( क्रमशः) कम करने में समर्थ होनेसे अमृतकुंभ है (ऐसा व्यवहार आचारसूत्रमें कहा है ) तथापि प्रतिक्रमण - अप्रतिक्रमणादिसे विलक्षण ऐसी अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमिका को न देखने वाले पुरुषको वे द्रव्यप्रतिक्रमणादि ( अपराध काटनेरूप ) अपना कार्य करनेको असमर्थ होनेसे विपक्ष ( अर्थात् बंधका ) कार्य करते होनेसे विषकुंभ ही है। जो अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमि है वह स्वयं शुद्धात्माकी सिद्धिरूप होने के कारण समस्त अपराधरूपी विषके दोषोंको सर्वथा नष्ट करनेवाली होनेसे, साक्षात् स्वयं अमृतकुंभ है और इसप्रकार ( वह तीसरी भूमि ) व्यवहारसे द्रव्यप्रतिक्रमणादिको भी अमृतकुंभत्व साधती है। वह तीसरी भूमि से ही आत्मा निरपराध होता है। उस ( तीसरी भूमि ) के अभाव में द्रव्यप्रतिक्रमणादि भी अपराध ही है। इसलिये, तीसरी भूमिसे ही निरपराधत्व है ऐसा सिद्ध होता है। उसकी प्राप्ति के लिये ही यह द्रव्यप्रतिक्रमणादि है । ऐसा होने से यह नहीं मानना कि (निश्चयनयका) शास्त्र द्रव्यप्रतिक्रमणादिको छुड़ाता है। तब फिर क्या करता है ? द्रव्यप्रतिक्रमणादिसे छुड़ा नहीं देता ( - अटका नहीं देता, संतोष नहीं मनवा देता ); इसके अतिरिक्त अन्य भी, प्रतिक्रमण - अप्रतिक्रमणादिसे अगोचर अप्रतिक्रमणादिरूप, शुद्ध आत्माकी सिद्धि जिसका लक्षण है ऐसा, अति दुष्कर कुछ करवाता है । इस ग्रन्थ में ही आगे कहेंगे कि- * कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं । तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं।।
* गाथा ३८३–३८५; वहाँ निश्चयप्रतिक्रमण आदिका स्वरूप कहा है।
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समयसार
४४२
अतो हताः प्रमादिनो गताः सुखासीनतां प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालम्बनम्। आत्मन्येवालानितं च चित्तमासम्पूर्णविज्ञानघनोपलब्धेः।। १८८ ।।
(अर्थ:-अनेक प्रकारके विस्तारवाले जो पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मोंसे जो अपने आत्माको निवृत्त कराता है वह आत्मा प्रतिक्रमण है।) इत्यादि।
भावार्थ:-व्यवहारनयावलंबींने कहा था कि-" लगे हुए दोषोंका प्रतिक्रमण आदि करनेसे ही आत्मा शुद्ध होता है, तो फिर पहले से ही शुद्ध आत्माके आलंबनका खेद करने का क्या प्रयोजन है ? शुद्ध होनेके बाद उसका आलंबन होगा; पहलेसे ही आलंबनका खेद निष्फल है।” उसे आचार्य समझाते है कि:-जो द्रव्यप्रतिक्रमणादिक है वे दोषोंके मिटाने वाले हैं, तथापि शुद्ध आत्मस्वरूप जो कि प्रतिक्रमणादिसे रहित है उसके आलंबनके बिना तो द्रव्यप्रतिक्रमणादिक दोषस्वरूप ही हैं, वे दोषोंके मिटाने में समर्थ नहीं; क्योंकि निश्चयकी अपेक्षा से युक्त ही व्यवहारनय मोक्षमार्गमें है, केवल व्यवहारका ही पक्ष मोक्षमार्गमें नहीं है, बंधका ही मार्ग है। इसलिये यह कहा है किअज्ञानीके जो अप्रतिक्रमणादिक हैं सो तो विषकुंभ हैं ही, उसका तो कहना ही क्या ? किन्तु व्यवहारचारित्रमें जो प्रतिक्रमणादिक कहें हैं वे भी निश्चयनयसे विषकुंभ ही हैं, क्योंकि आत्मा तो प्रतिक्रमणादिकसे रहित, शुद्ध , अप्रतिक्रमणादिस्वरूप ही है।
अब इस कथनका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अतः] इस कथनसे , [सुख-आसीनतां गताः] सुखासीन ( सुख में बैठे हुए) [ प्रमादिनः] प्रमादी जीवोंको [हताः] हत कहा है (अर्थात् उन्हें मोक्षका सर्वया अनधिकारी कहा है), [ चापलम् प्रलीनम् ] चापल्यका ( –अविचारित कार्यका) प्रलय किया है (अर्थात् आत्मप्रतीतिसे रहित क्रियाओंको मोक्षके कारणमें नहीं माना), [आलम्बनम् उन्मूलितम् ] आलबंनको उखाड़ फेंका है (अर्थात् सम्यग्दृष्टिके द्रव्यप्रतिक्रमण इत्यादि को भी निश्चयसे बंधका कारण मान कर हेय कहा है), [ आसम्पूर्ण-विज्ञान-घन-उपलब्धेः] जबतक संपूर्ण विज्ञानघन आत्माकी प्राप्ति न हो तब तक [आत्मनि एव चितम् आलानितं च] (शुद्ध) आत्मारूपी स्तम्भसे ही चित्तको बांध रखा है (-अर्थात् व्यवहारके आलंबनसे अनेक प्रवृत्तियोंमें चित्त भ्रमण करता था उसे शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मामें ही लगाने को कहा है क्योंकि वही मोक्षका कारण है)। १८८।
यहाँ निश्चयनयसे प्रतिक्रमणादिको विषकुंभ कहा और अप्रतिक्रमणादिको अमृतकुंभ कहा इसलिये यदि कोई विपरीत समझकर प्रतिक्रमणादिको छोड़कर प्रमादी हो जाये तो उसे समझानेके लिये कलशरूप काव्य कहते हैं:
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मोक्ष अधिकार
४४३
( वसन्ततिलका) यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात्। तत्कि प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोडधः किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः।। १८९ ।।
(पृथ्वी) प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलस: कषायभरगौरवादलसता प्रमादो यतः। अतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन् मुनिः परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते वाऽचिरात्।।१९० ।।
श्लोकार्थ:- [ यत्र प्रतिक्रमणम् एव विषं प्रणीतं] (हे! भाई), जहाँ प्रतिक्रमणको ही विष कहा है, [ तत्र अप्रतिक्रमणम् एव सुधा कुत: स्यात् ] वहाँ अप्रतिक्रमण अमृत कहाँसे हो सकता है ? (अर्थात् नहीं हो सकता।) [ तत् ] तब फिर [ जनः अधः अधः प्रपतन् किं प्रमाद्यति ] मनुष्य नीचे ही नीचे गिरता हुआ प्रमादी क्यों होता है ? [ निष्प्रमाद: ] निष्प्रमाद होता हुआ [ ऊर्ध्वम् ऊर्ध्वम् किं न अधिरोहति ] ऊपर ही ऊपर क्यों नहीं चढ़ता ?
भावार्थ:-अज्ञानावस्थामें जो अप्रतिक्रमणादि होते हैं उनकी तो बात ही क्या ? किन्तु यहाँ तो, शुभप्रवृत्तिरूप द्रव्यप्रतिक्रमणादिका पक्ष छुड़ाने के लिये उन्हें (द्रव्यप्रतिक्रमणादिको) निश्चयनयकी प्रधानतासे विषकुंभ कहा है क्योंकि कर्मबंधके ही कारण हैं, और प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिसे रहित ऐसी तीसरी भूमि, जो कि शुद्ध आत्मस्वरूप है तथा प्रतिक्रमणादिसे रहित होनेसे अप्रतिक्रमणादिरूप है, उसे अमृतकुंभ कहा है अर्थात् वहाँ के अप्रतिक्रमणादिको अमृतकुंभ कहा है। तृतीय भूमिपर चढ़ाने के लिये आचार्यदेव ने यह उपदेश दिया है। प्रतिक्रमणादिको विषकुंभ कहने की बात सुन कर जो लोग उल्टे प्रमादी होते हैं उनके सम्बन्धमें आचार्यदेव कहते हैं कि-'यह लोग नीचे ही नीचे क्यों गिरते हैं ? तृतीय भूमिमें ऊपर ही ऊपर क्यों नहीं चढ़ते ?' जहाँ प्रतिक्रमणको विषकुंभ कहा है वहाँ उसका निषेधरूप अप्रतिक्रमण ही अमृतकुंभ हो सकता है, अज्ञानीका नहीं। इसलिये जो अप्रतिक्रमणादि अमृतकुंभ कहे हैं वे अज्ञानीके अप्रतिक्रमणादि नहीं जानना चाहिये, किन्तु तीसरी भूमिके शुद्ध आत्मामय जानना चाहिये। १८९।
अब इस अर्थको दृढ़ करता हुआ काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ कषाय-भर-गौरवात् अलसता प्रमाद: ] कषायके भार से भारी होनेसे आलस्य होना सो प्रमाद है; [ यतः प्रमादकलितः अलसः शुद्धभावः कथं भवति] इसलिये यह प्रमादयुक्त आलस्यभाव शुद्धभाव कैसे हो सकता है ?
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समयसार
४४४
(शार्दूलविक्रीडित) त्यक्त्वाऽशुद्धिविधायि तत्किल परद्रव्यं समग्रं स्वयं स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युतः। बन्धध्वंसमुपेत्य नित्यमुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छलचैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते।। १९१ ।।
[ अतः स्वरसनिर्भरे स्वभावे नियमितः भवन् मुनिः] इसलिये निज रससे परिपूर्ण स्वभावमें निश्चल होनेवाला मुनि [ परमशुद्धतां व्रजति ] परम शुद्धताको प्राप्त होता है [ वा ] अथवा [ अचिरात् मुच्यते ] शीघ्र-अल्प कालमें [ कर्मबंधथी] छूट जाता है।
भावार्थ:-प्रमाद तो कषायके गौरवसे होता है इसलिये प्रमादीको शुद्ध भाव नहीं होता। जो मुनि उद्यमपूर्वक स्वभावमें प्रवृत्त होता है वह शुद्ध होकर मोक्षको प्राप्त करता है। १९०।
अब , मुक्त होनेका अनक्रुम-दर्शक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ यः किल अशुद्धिविधायि परद्रव्यं तत् समग्रं त्यक्त्वा ] जो पुरुष वास्तवमें अशुद्धता करनेवाले समस्त परद्रव्य को छोड़कर [ स्वयं स्वद्रव्ये रतिम् एति] स्वयं स्वद्रव्यमें लीन होता है, [ सः] वह पुरुष [नियतम् ] नियमसे [ सर्व-अपराधच्युतः ] सर्व अपराधोंसे रहित होता हुआ, [ बन्ध-ध्वंसम् उपेत्य नित्यम् उदितः ] बंधके नाशको प्राप्त होकर नित्य-उदित (सदा प्रकाशमान) होता हुआ , [ स्व-ज्योति:अच्छ-उच्छलत्-चैतन्य-अमृत-पूर-पूर्ण-महिमा] अपनी ज्योतिसे (आत्म स्वरूपके प्रकाशसे) निर्मलतया उछलता हुआ जो चैतन्यरूपी अमृतके प्रवाह द्वारा जिसकी पूर्ण महिमा है ऐसा [ शुद्धः भवन् ] शुद्ध होता हुआ , [ मुच्यते ] कर्मोंसे मुक्त होता है।
भावार्थ:-जो पुरुष, पहले समस्त परद्रव्यका त्याग करके निज द्रव्यमें (आत्मस्वरूपमें) लीन होता है, वह पुरुष समस्त रागादिक अपराधोंसे रहित होकर आगामी बंधका नाश करता है और नित्य उदयरूप केवलज्ञानको प्राप्त करके, शुद्ध होकर, समस्त कर्मोंका नाश करके, मोक्षको प्राप्त करता है। यह मोक्ष होने का अनुक्रम है । १९१।
___ अब मोक्ष अधिकार पूर्ण करते हुए उसके अंतमंगलरूप पूर्ण ज्ञानकी महिमाका ( सर्वथा शुद्ध हुए आत्मद्रव्यकी महिमाका) कलशरूप काव्य कहते हैं:
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( मन्दाक्रान्ता ) बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेतन्नित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम्। एकाकारस्वरसभरतोऽत्यन्तगम्भीरधीरं पूर्ण ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ।। १९२ ।।
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां
इति मोक्षो निष्क्रान्तः।
इति मोक्षप्ररूपकः अष्टमोऽङ्कः।।
४४५
समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ
श्लोकार्थ:- [ बन्धच्छेदात् अतुलम् अक्षय्यम् मोक्षम् कलयत् ] कर्मबंधके छेदनेसे अतुल अक्षय ( अविनाशी ) मोक्षका अनुभव करता हुआ, [ नित्य-उद्योत– स्फुटित-सहज-अवस्थम् ] नित्य उद्योतवाली ( जिसका प्रकाश नित्य है ऐसी ) सहज अवस्था जिसकी खिल उठी है ऐसा, [ एकान्त - शुद्धम् ] एकांत शुद्ध ( - कर्ममल के न रहनेसे अत्यंत शुद्ध ), [ एकाकार - स्व-रस- भरतः अत्यन्त - गम्भीर - धीरम् ] और एकाकार ( एक ज्ञानमात्र आकारमें परिणमित) निजरसकी अतिशयतासे जो अत्यंत गंभीर और धीर है ऐसा [ एतत् पूर्ण ज्ञानम् ] यह पूर्ण ज्ञान [ ज्वलितम् ] प्रकाशित हो उठा है (सर्वथा शुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट हुआ है ); और [ स्वस्य अचले महिम्नि लीनम् ] अपनी अचल महिमामें लीन हुआ है।
भावार्थ:-कर्मका नाश करके मोक्षका अनुभव करता हुआ, अपनी स्वाभाविक अवस्थारूप, अत्यंत शुद्ध, समस्त ज्ञेयाकारोंको गौण करता हुआ, अत्यंत गंभीर (जिसका पार नहीं है ऐसा ) और धीर ( आकुलता रहित ) - ऐसा पूर्ण ज्ञान प्रगट दैदीप्यमान होता हुआ, अपनी महिमामें लीन हो गया । ९९२ ।
टीका:-इसप्रकार मोक्ष ( रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गया।
भावार्थ:-रंगभूमिमें मोक्षतत्त्वका स्वांग आया था। जहाँ ज्ञान प्रगट हुआ वहाँ उस मोक्षका स्वांग रंगभूमिसे बाहर निकल गया ।
* सवैया *
ज्यों नर कोय पर्यो दृढबंधन बंधस्वरूप लखै दुखकारी, चिंत करै निति कैम कटे यह तौऊ छिदै नहि नैक टिकारी । छेनकूं गहि आयुधधाय चलाय निशंक करै दुय धारी,
बुध बुद्धि धसाय दुधा करि कर्म रु आतम आप गहारी ।। इसप्रकार श्री समयसारकी ( श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें मोक्षका प्ररूपक आठवाँ अंक समाप्त हुआ ।
ॐ
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-९सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
अथ प्रविशतिः सर्वविशुद्धज्ञानम्।
(मन्दाक्रान्ता) नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान् कर्तृभोक्त्रादिभावान् दूरीभूतः प्रतिपदमयं बन्धमोक्षप्रक्लप्तेः। शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्णपूण्याचलार्चिष्टकोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुञ्जः ।। १९३ ।।
---००० दोहा ०००--- सर्वविशुद्ध सुज्ञानमय, सदा आतमाराम । परकू करै न भोगवे, जानै जपि तसु नाम ।।
प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहते हैं कि 'अब सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता
मोक्षतत्त्वके स्वाँगके निकल जाने के बाद सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता है। रंगभूमिमें जीव-अजीव, कर्ताकर्म, पुण्य-पाप, आस्रव , संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-ये आठ स्वांग आये, उनका नृत्य हुआ और वे अपना स्वरूप बताकर निकल गये। अब सर्व स्वाँगोंके दूर होनेपर एकाकार सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता है।
उसमें प्रथम ही, मंगलरूपसे ज्ञानपुंज आत्माकी महिमाका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अखिलान् कर्तृ-भोक्त-आदि-भावान् सम्यक् प्रलयम् नीत्वा] समस्त कर्ता-भोक्ता आदि भावोंको सम्यक् प्रकारसे (भलीभाँति) नाशको प्राप्त कराके [ प्रतिपदम् ] पद पद पर ( अर्थात् कर्मोंके क्षयोपशमके निमित्तसे होनेवाली प्रत्येक पर्यायमें) [ बन्ध-मोक्ष-प्रक्लप्तेः दूरीभूतः] बंध-मोक्षकी रचनासे दूर वर्तता हुआ, [शुद्धः शुद्धः] शुद्ध-शुद्ध (अर्थात् रागादिक मल तथा आवरणसे रहित), [ स्वरसविसर-आपूर्ण-पुण्य-अचल-अर्चिः ] जिसका पवित्र अचल तेज निजरसके (ज्ञानरसके, ज्ञानचेतनारूपी रसके) विस्तारसे परिपूर्ण है ऐसा, और [ टोत्कीर्णप्रकट-महिमा] जिसकी महिमा टंकोत्कीर्ण प्रगट है ऐसा यह, [अयं ज्ञानपुञ्जः स्फूर्जति ] ज्ञानपुंज आत्मा प्रगट होता है।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४४७
( अनुष्टुभ् ) कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत्। अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः।। १९४ ।।
अथात्मनोऽकर्तृत्वं दृष्टान्तपुरस्सरमाख्याति
दवियं जं उप्पज्जइ गुणेहिं तं तेहिं जाणसु अणण्णं। जह कडयादीहिं दु पज्जएहिं कणयं अणण्णमिह।। ३०८ ।। जीवस्साजीवस्स दु जे परिणामा दु देसिदा सुत्ते। तं जीवमजीवं वा तेहिमणण्णं वियाणाहि।।३०९ ।।
भावार्थ:-शुद्धनयका विषय जो ज्ञानस्वरूप आत्मा है वह कर्तृत्वभोक्तृत्वके भावोंसे रहित है, बंधमोक्षकी रचनासे रहित है, परद्रव्यसे और परद्रव्यके समस्त भावोंसे रहित होनेसे शुद्ध है, निजरसके प्रवाहसे पूर्ण दैदीप्यमान ज्योतिरूप है और टंकोत्कीर्ण महिमामय है। ऐसा ज्ञानपुंज आत्मा प्रगट होता है। १९३।
अब सर्वविशुद्ध ज्ञानको प्रगट करते हैं। उसमें प्रथम, ‘आत्मा कर्ताभोक्ताभावसे रहित है' इस अर्थका , आगामी गाथाओंका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ कर्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः न] कतृत्व इस चित्स्वरूप आत्माका स्वभाव नहीं है, [ वेदयितृत्ववत् ] जैसे भोक्तृत्व स्वभाव नहीं है। [ अज्ञानात् एव अयं कर्ता] वह अज्ञानसे ही कर्ता है, [ तद्-अभावात् अकारकः ] अज्ञानका अभाव होनेपर अकर्ता है। १९४। अब, आत्माका अकर्तृत्व दृष्टांतपूर्वक कहते हैं:
जो द्रव्य उपजे जिन गुणोंसे , उनसे जान अनन्य वो। है जगतमें कटकादि, पर्यायोंसे कनक अनन्य ज्यों ।। ३०८।। जीव अजीवके परिणाम जो, शास्त्रों विषै जिनवर कहे। वे जीव और अजीव जान, अनन्य उन परिणामसे ।। ३०९ ।।
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समयसार
४४८
ण कुदोचि वि उप्पण्णो जम्हा कज्जं ण तेण सो आदा। उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण स होदि।।३१० ।। कम्मं पडुच्च कत्ता कत्तारं तह पडुच्च कम्माणि। उप्पज्जंति य णियमा सिद्धी दु ण दीसदे अण्णा।। ३११ ।।
द्रव्यं यदुत्पद्यते गुणैस्तत्तैर्जानीह्यनन्यत्। यथा कटकादिभिस्तु पर्यायैः कनकमनन्यदिह।।३०८ ।। जीवस्याजीवस्य तु ये परिणामास्तु दर्शिताः सूत्रे। तं जीवमजीवं वा तैरनन्यं विजानीहि।। ३०९ ।। न कुतश्चिदप्युत्पन्नो यस्मात्कार्य न तेन स आत्मा। उत्पादयति न किञ्चिदपि कारणमपि तेन न स भवति।।३१० ।। कर्म प्रतीत्य कर्ता कर्तारं तथा प्रतीत्य कर्माणि। उत्पद्यन्ते च नियमात्सिद्धिस्तु न दृश्यतेऽन्या।। ३११ ।।
उपजै न आत्मा कोईसे, इससे न आत्मा कार्य है । उपजावता नहीं कोई को, इससे न कारण भी बने ।। ३१०।। रे! कर्म-आश्रित होय कर्ता, कर्म भी करतार के ।
आश्रित हुवे उपजे नियमसे , अन्य नहीं सिद्धि दिखे ।। ३११ ।।
गाथार्थ:- [ यत् द्रव्यं ] जो द्रव्य [ गुणैः ] जिन गुणोंसे [ उत्पद्यते ] उत्पन्न होता है [ तैः ] उन गुणोंसे [ तत् ] उसे [अनन्यत् जानीहि ] अनन्य जानो; [ यथा] जैसे [इह ] जगतमें [कटकादिभिः पर्यायैः तु] कड़ा इत्यादि पर्यायोंसे [ कनकम् ] सुवर्ण [ अनन्यत् ] अनन्य है वैसे।।
[जीवस्य अजीवस्य तु] जीव और अजीवके [ ये परिणामाः तु] जो परिणाम [ सूत्रे दर्शिताः ] सूत्रमें बताये हैं, [ तैः ] उन परिणामोंसे [ तं जीवम् अजीवम् वा] उस जीव अथवा अजीव को [ अनन्यं विजानीहि ] अनन्य जानो।
[यस्मात् ] क्योंकि [ कुतश्चित् अपि] किसी से भी [न उत्पन्नः] उत्पन्न नहीं हुआ [ तेन ] इसलिये [ सः आत्मा] वह आत्मा [ कार्य न ] (किसीका) कार्य नहीं है, [किञ्चित् अपि] और किसीको [ न उत्पादयति ] उत्पन्न नहीं करता [ तेन ] इसलिये [ सः ] वह [ कारणम् अपि] ( किसीका ) कारण भी [ न भवति] नहीं है।
[नियमात् ] नियमसे [कर्म प्रतीत्य] कर्मके आश्रयसे (-कर्मका अवलंबन लेकर) [ कर्ता] कर्ता होता है; [ तथा च ] और [ कर्तारं प्रतीत्य ] कर्ताके आश्रयसे [ कर्माणि उत्पद्यन्ते ] कर्म उत्पन्न होते हैं; [ अन्या तु] अन्य किसी प्रकार से
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४४९
जीवो हि तावत्क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव, नाजीवः, एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानोऽजीव एव, न जीवः, सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामैः सह तादात्म्यात् कङ्कणादिपरिणामैः काञ्चनवत् । एवं हि जीवस्य स्वपरिणामैरुत्पद्यमानस्याप्यजीवेन सह कार्यकारणभावो न सिध्यति, सर्वद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पाद्योत्पादकभावाभावात् तदसिद्धौ चाजीवस्य जीवकर्मत्वं न सिध्यति; तदसिद्धौ च कर्तृकर्मणोरनन्यापेक्षसिद्धत्वात् जीवस्याजीवकर्तृत्वं न सिध्यति। अतो जीवोऽकर्ता अवतिष्ठते।
[ सिद्धिः ] कर्ताकर्मकी सिद्धि [ न दृश्यते ] नहीं देखी जाती।
टीका:- प्रथम तो जीव क्रमबद्ध ऐसे अपने परिणामोंसे उत्पन्न होता हुआ जीव ही है, अजीव नहीं; इसीप्रकार अजीव भी क्रमबद्ध अपने परिणामोंके उत्पन्न होता हुआ अजीव ही है, जीव नहीं; क्योंकि जैसे ( कंकण आदि परिणामोंसे उत्पन्न होने वाले ऐसे ) सुवर्णका कंकण आदि परिणामोंके साथ तादात्म्य है उसीप्रकार सर्व द्रव्योंका अपने परिणामोंके साथ तादात्म्य है। इसप्रकार जीव अपने परिणामोंसे उत्पन्न होता है तथापि उसका अजीवके साथ कार्यकारणभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि सर्व द्रव्योंका अन्य द्रव्यके साथ उत्पाद्य-उत्पादक भावका अभाव है; उसके (कार्यकारणभावके ) सिद्ध न होने पर, अजीवके जीवका कर्मत्व सिद्ध नहीं होता; और उसके (-अजीवके जीवका कर्मत्व) सिद्ध न होने पर, कर्ता-कर्मकी अन्यनिरपेक्षतया (-अन्यद्रव्यसे निरपेक्षतया, स्वद्रव्यमें ही ) सिद्धि होनेसे, जीवके अजीवका कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता। इसलिये जीव अकर्ता सिद्ध होता है।
भावार्थ:-सर्व द्रव्योंके परिणाम भिन्न भिन्न हैं। सभी द्रव्य अपने अपने परिणामोंके कर्ता हैं; वे उन परिणामोंके कर्ता हैं, वे परिणाम उनके कर्म हैं । निश्चयसे किसी का किसी के साथ कर्ताकर्मसंबंध नहीं है। इसलिये जीव अपने परिणामोंका ही कर्ता है, और अपने परिणाम कर्म हैं। इसीप्रकार अजीव अपने परिणामोंका ही कर्ता है, और अपने परिणाम कर्म हैं। इसीप्रकार जीव दूसरे के परिणामोंका अकर्ता है।
' इसप्रकार जीव अकर्ता है तथापि उसे बंध होता है यह अज्ञानकी महिमा है ' इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
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समयसार
४५०
(शिखरिणी) अकर्ता जीवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसतः स्फुरच्चिज्ज्योतिर्भिश्छुरितभुवनाभोगभवनः। तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बन्धः प्रकृतिभि: स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहनः।। १९५ ।।
चेदा दु पयडीअट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ। पयडी वि चेययटुं उप्पज्जइ विणस्सइ।। ३१२ ।। एवं बंधो उ दोण्हं पि अण्णोण्णप्पच्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे।। ३१३ ।।
श्लोकार्थ:- [ स्वरसतः विशुद्धः ] जो निजरससे विशुद्ध है, और [ स्फुरत्चित्-ज्योतिर्भि: छुरित-भुवन-आभोग-भवनः] जिसकी स्फुरायमान होती हुई चैतन्यज्योतियों के द्वारा लोकका समस्त विस्तार व्याप्त हो जाता है ऐसा जिसका स्वभाव है, [ अयं जीवः ] ऐसा यह जीव [इति] पूर्वोक्त प्रकार से (परद्रव्यका और परभावोंका) [अकर्ता स्थितः] अकर्ता सिद्ध हुआ, [ तथापि] तथापि [अस्य ] उसे [इह ] इस जगतमें [प्रकृतिभिः] कर्मप्रकृतियों के साथ [यद् असौ बन्धः किल स्यात् ] जो यह (प्रगट) बंध होता है [ सः खलु अज्ञानस्य कः अपि गहन: महिमा स्फूरति] सो वह वास्तवमें अज्ञानकी कोई गहन महिमा स्फुरायमान है।
भावार्थ:-जिसका ज्ञान सर्व ज्ञेयोंमें व्याप्त होनेवाला है ऐसा यह जीव शुद्धनयसे परद्रव्यका कर्ता नहीं है, तथापि उसे कर्मका बंध होता है यह अज्ञानकी कोई गहन महिमा है-जिसका पार नहीं पाया जाता। १९५।
(अब अज्ञानकी इस महिमाको प्रगट करते हैं:-)
पर जीव प्रकृतिके निमित्त जु, उपजता नशता अरे! अरु प्रकृतिका जीवके निमित्त, विनाश अरु उत्पाद है ।। ३१२ ।। अन्योन्यके जु निमित्तसे यों, बंध दोनोंका बने । इस जीव प्रकृति उभयका , संसार इससे होय है ।। ३१३ ।।
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चेतयिता तु प्रकृत्यर्थमुत्पद्यते विनश्यति । प्रकृतिरपि चेतकार्थमुत्पद्यते विनश्यति ।। ३१२ ।।
एवं बन्धस्तु द्वयोरपि अन्योन्यप्रत्ययाद्भवेत्। आत्मनः प्रकृतेश्च संसारस्तेन जायते।। ३१३ ।।
४५१
अयं हि आसंसारत एव प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानेन परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता सन् चेतयिता प्रकृतिनिमित्तमुत्पत्तिविनाशावासादयति; प्रकृतिरपि चेतयितृनिमित्तमुत्पत्तिविनाशावासादयति। एवमनयोरात्मप्रकृत्योः कर्तृकर्मभावाभावेऽप्यन्योन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन द्वयोरपि बन्धो दृष्टः, ततः संसारः, तत एव च तयोः कर्तृकर्मव्यवहारः ।
गाथार्थ:- [ चेतयिता तु ] चेतक अर्थात् आत्मा [ प्रकृत्यर्थम् ] प्रकृति निमित्तसे [ उत्पद्यते ] उत्पन्न होता है [ विनश्यति ] और नष्ट होता है, [ प्रकृतिः अपि] और प्रकृति भी [ चेतकार्थम् ] चेतक अर्थात् आत्माके निमित्तसे [ उत्पद्यते ] उत्पन्न होती है [ विनश्यति ] तथा नष्ट होती है। [ एवं ] इसप्रकार [अन्योन्यप्रत्ययात् ] परस्पर निमित्तसे [ द्वयोः अपि ] दोनोंका - [ आत्मनः प्रकृतेः च ] आत्माका और प्रकृतिका - [ बन्धः तु भवेत् ] बंध होता है, [ तेन ] और इससे [ संसारः ] संसार [ जायते ] उत्पन्न होता है ।
टीका:- यह आत्मा, ( उसे ) अनादि संसारसे ही ( अपने और परके भिन्न भिन्न) निश्चित स्वलक्षणोंका ज्ञान ( भेदज्ञान ) न होने से दूसरे का और अपना एकत्वका अध्यास करनेसे कर्ता होता हुआ, प्रकृतिके निमित्तसे उत्पत्ति - विनाशको प्राप्त होता है; प्रकृति भी आत्माके निमित्तसे उत्पत्ति विनाशको प्राप्त होती है ( अर्थात् आत्माके परिणामानुसार परिणमित होता है ) । इसप्रकार - यद्यपि वे आत्मा और प्रकृतिके कर्ताकर्मभावका अभाव है, तथापि - परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावसे दोनोंके बंध देखा जाता है, इससे संसार है और इसीसे उनके ( आत्मा और प्रकृतिके) कर्ताकर्मका व्यवहार है।
भावार्थ:-आत्माके और ज्ञानावरणादि कर्मोंकी प्रकृतिओंके परमार्थसे कर्ताकर्मभावका अभाव है तथापि परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावके कारण बंध होता है, इससे संसार है और इसीसे कर्ताकर्मपनका व्यवहार है ।
( अब यह कहते हैं कि जबतक आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे उपजना-विनशना न छोड़े तबतक वह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंयत है' :--)
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समयसार
४५२
जा एस पयडीअटुं चेदा णेव विमुंचए। अयाणओ हवे ताव मिच्छादिट्ठी असंजओ।। ३१४ ।। जदा विमुंचए चेदा कम्मफलमणंतयं। तदा विमुत्तो हवदि जाणओ पासओ मुणी।। ३१५ ।।
यावदेष प्रकृत्यर्थ चेतयिता नैव विमुञ्चति। अज्ञायको भवेत्तावन्मिथ्यादृष्टिरसंयतः।। ३१४ ।। यदा विमुञ्चति चेतयिता कर्मफलमनन्तकम्। तदा विमुक्तो भवति ज्ञायको दर्शको मुनिः।। ३१५ ।।
यावदयं चेतयिता प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बन्धनिमित्तं न मुञ्चति, तावत्स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायको भवति, स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन मिथ्यादृष्टिर्भवति, स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या चासंयतो भवति; तावदेव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता भवति।
उत्पाद-व्यय प्रकृतिनिमित्त जु, जब हि तक नहिं परितजे । अज्ञानी, मिथ्यात्वी, असंयत तब हि तक वो जीव रहे ।। ३१४ ।। ये आतमा जब ही करमका, फल अनंता परितजे ।
ज्ञायक तथा दर्शक तथा मुनि वो हि कर्मविमुक्त है ।। ३१५ ।।
गाथार्थ:- [ यावत् ] जबतक [एषः चेतयिता] यह आत्मा [प्रकृत्यर्थ ] प्रकृतिके निमित्तसे उपजना-विनशना [न एव विमुञ्चति ] नहीं छोड़ता, [ तावत् ] तब वह [अज्ञायक:] अज्ञायक (अज्ञानी) है, [ मिथ्यादृष्टि:] मिथ्यादृष्टि है, [असंयतः भवेत् ] असंयत है।
[ यदा] जब [ चेतयिता] आत्मा [अनन्तकम् कर्मफलम् ] अनंत कर्म फलको [विमुञ्चति ] छोड़ता है, [ तदा] तब वह [ ज्ञायकः ] ज्ञायक है, [ दर्शक: ] दर्शक है, [ मुनिः ] मुनि है, [ विमुक्तः भवति ] विमुक्त अर्थात् बंधसे रहित है।
टीका:-जबतक यह आत्मा, ( स्व-परके भिन्न भिन्न) निश्चित स्वलक्षणोंका ज्ञान (भेदज्ञान) न होने से, प्रकृतिके स्वभावको-जो कि अपनेको बंधका निमित्त है उसको- नहीं छोड़ता, तबतक स्व-परके एकत्वज्ञानसे अज्ञायक ( अज्ञानी) है, स्वपरके एकत्वदर्शनसे (एकत्वरूप श्रद्धानसे) मिथ्यादृष्टि है और स्वपरकी एकत्वपरिणतिसे असंयत है; और तभीतक परके तथा अपने एकत्व का अध्यास करनेसे कर्ता है।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४५३
यदा त्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बन्धनिमित्तं मुञ्चति, तदा स्वपरयोर्विभागज्ञानेन ज्ञायको भवति, स्वपरयोर्विभागदर्शनेन दर्शको भवति, स्वपरयोर्विभागपरिणत्या च संयतो भवति; तदैव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति।
(अनुष्टुभ् ) भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववच्चितः। अज्ञानादेव भोक्तायं तदभावादवेदकः।। १९६ ।।
अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावट्ठिदो दु वेदेदि। णाणी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि।। ३१६ ।।
और जब यही आत्मा, (अपने और परके भिन्न भिन्न) निश्चित् स्वलक्षणोंके ज्ञानके (भेदज्ञानके) कारण, प्रकृतिके स्वभावको-जो कि अपनेको बंधका निमित्त है उसकोछोड़ता है, तब स्वपरके विभागज्ञानसे (भेदज्ञानसे) ज्ञायक है, स्वपरके विभागदर्शनसे ( भेददर्शनसे) दर्शक है और स्वपरकी विभागपरिणतिसे (भेदपरिणतिसे) संयत है; और और तभी स्वपरके एकत्वका अध्यास न करनेसे अकर्ता है।
भावार्थ:-जबतक यह आत्मा स्वपरके लक्षणको नहीं जानता तबतक भेदज्ञानके अभावके कारण कर्मप्रकृतिके उदयको अपना समझकर परिणमित होता है; इसप्रकार मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, असंयमी होकर, कर्ता होकर, कर्मका बंध करता है।
और जब आत्माको भेदज्ञान होता है तब वह कर्ता नहीं होता, इसलिये कर्मका बंध नहीं करता, ज्ञातादृष्टारूपसे परिणमित होता है।
इसीप्रकार भोक्तृत्व भी आत्माका स्वभाव नहीं है' इस अर्थका , आगामी गाथाका सुचक श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ:- [ कर्तृत्ववत् ] कतृत्वकी भाँति [ भोक्तृत्वं अस्य चितः स्वभाव: स्मृतः न] भोक्तृत्व भी इस चैतन्यका (चित्स्वरूप आत्माका) स्वभाव नहीं कहा है। [ अज्ञानात् एव अयं भोक्ता] यह अज्ञानसे ही भोक्ता है, [ तद्-अभावात् अवेदक:] अज्ञानका अभाव होनेपर यह अभोक्ता है। १९६ । अब इसी अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं:
अज्ञानी स्थित प्रकृती स्वभाव सु, कर्मफल को वेदता। अरु ज्ञानी तो जाने उदयगत कर्मफल, नहीं भोगता ।। ३१६ ।।
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४५४
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समयसार
अज्ञानी कर्मफलं प्रकृतिस्वभावस्थितस्तु वेदयते । ज्ञानी पुनः कर्मफलं जानाति उदितं न वेदयते ।। ३१६ ।।
अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वज्ञानेन स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन, स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृतिस्वभावमप्यहंतया अनुभवन् कर्मफलं वेदयते । ज्ञानी तु शुद्धात्मज्ञानसद्भावात् स्वपरयोर्विभागज्ञानेन, स्वपरयोर्विभागदर्शनेन स्वपरयोर्विभागपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावादपसृतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतया अनुभवन् कर्मफलमुदितं ज्ञेयमात्रत्वात् जानात्येव, न पुनः तस्याहंतयाऽनुभवितुमशक्यत्वाद्वेदयते।
( शार्दूलविक्रीडित )
अज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः । इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणैरज्ञानिता त्यज्यतां शुद्धैकात्ममये महस्यचलितैरासेव्यतां ज्ञानिता ।। १९७ ।।
गाथार्थ:- [ अज्ञानी ] अज्ञानी [ प्रकृतिस्वभावस्थितः तु ] प्रकृतिके स्वभावमें स्थित रहता हुआ [कर्मफलं ] कर्मफलको [ वेदयते ] वेदता ( भोगता ) है [ पुनः ज्ञानी ] और ज्ञानी तो [ उदितं कर्मफलं ] उदितमें आये हुए ( उदयागत) कर्मफलको [ जानाति ] जानता है, [ न वेदयते ] वेदता है।
टीका:-अज्ञानी शुद्ध आत्माके ज्ञानके अभावके कारण स्वपरके एकत्वज्ञानसे, स्वपरके एकत्वदर्शनसे और स्वपरकी एकत्वपरिणतिसे प्रकृतिके स्वभावमें स्थित होनेसे प्रकृतिके स्वभावको भी 'अहं' रूपसे अनुभव करता हुआ ( अर्थात् प्रकृतिके स्वभावको भी 'यह मैं हूँ' इसप्रकार अनुभवन करता हुआ ) कर्मफलको वेदता-भोगता है; और ज्ञानी तो शुद्धात्माके ज्ञानके सद्भावके कारण स्वपरके विभागज्ञानसे, स्वपरके विभागदर्शनसे और स्वपरकी विभागपरिणतिसे प्रकृतिके स्वभावसे निवृत्त ( - दूरवर्ती ) होनेसे शुद्धात्माके स्वभावको एकको ही 'अहं' रूपसे अनुभव करता हुआ उदित कर्मफलको, उसके ज्ञेयमात्रताके कारण, जानता ही है, किन्तु उसका ‘अहं' रूपसे अनुभवमें आना अशक्य होनेसे, ( उसे ) नहीं वेदता ।
भावार्थ:-अज्ञानीको तो शुद्ध आत्माका ज्ञान नहीं है इसलिये जो कर्म उदयमें आता है उसी को वह निजरूप जानकर भोगता है; और ज्ञानीको शुद्ध आत्माका अनुभव हो गया है इसलिये वह उस प्रकृतिके उदयको अपना स्वभाव नहीं जानता हुआ उसका मात्र ज्ञाता ही रहता है, भोक्ता नहीं होता ।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ:- [अज्ञानी प्रकृति - स्वभाव - निरतः नित्यं वेदकः भवेत् ] अज्ञानी प्रकृतिस्वभावमें लीन-रक्त होनेसे ( - उसीको अपना स्वभाव जानता है इसलिये - )
सदा
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४५५
अज्ञानी वेदक एवेति नियम्यतेण मुयदि पयडिमभव्वो सुट्ठ वि अज्झाइदूण सत्थाणि। गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होति।।३१७ ।।
न मुञ्चति प्रकृतिमभव्यः सुष्वपि अधीत्य शास्त्राणि।
गुडदुग्धमपि पिबन्तो न पन्नगा निर्विषा भवन्ति।। ३१७ ।। यथात्र विषधरो विषभावं स्वयमेव न मुञ्चति, विषभावमोचनसमर्थसशर्करक्षीरपानाच्च न मुञ्चति; तथा किलाभव्य: प्रकृतिस्वभावं स्वयमेव न मुञ्चति, प्रकृतिस्वभावमोचनसमर्थद्रव्यश्रुतज्ञानाच न मुञ्चति, नित्यमेव भावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानाभावेनाज्ञानित्वात्।
वेदक है, [ तु] और [ ज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-विरतः जातुचित् वेदकः नो] ज्ञानी तो प्रकृतिस्वभावसे विरक्त होनेसे (-उसे परका स्वभाव जानता है इसलिये-) कदापि वेदक नहीं है। [इति एवं नियमं निरूप्य ] इसप्रकारके नियमको भलीभाँति विचार करके-निश्चय करके [ निपुणैः अज्ञानिता त्यज्यताम्] निपुण पुरुषों! अज्ञानीपनको छोड़ दो और [ शुद्ध-एक-आत्ममये महसि] शुद्ध-एक-आत्मामय तेजमें [ अचलितैः ] निश्चल होकर [ज्ञानिता आसेव्यताम् ] ज्ञानीपनेका सेवन करो। १९७।
अब, यह नियम बताया जाता है कि, 'अज्ञानी वेदक ही है ' ( अर्थात् 'अज्ञानी भोक्ता ही है ' ऐसा नियम है) :
सदरीते पढ़कर शास्त्र भी, प्रकृति अभव्य नहीं तजे । ज्यों दूध-गुड़ पतिा हुआ भी, सर्प नहिं निर्विष बने ।। ३१७।।
गाथार्थ:- [सुष्ठु ] भली भाँति [शास्त्राणि ] शास्त्रोंको [ अधीत्य अपि] पढ़कर भी [अभव्यः ] अभव्य जीव [ प्रकृतिम् ] प्रकृतिको (अर्थात् प्रकृतिके स्वभावको) [न मुञ्चति ] नहीं छोड़ता, [ गुडदुग्धम् ] जैसे मीठे दूधको [ पिबन्तः अपि] पीते हुए भी [पन्नगाः] सर्प [ निर्विषाः ] निर्विष [ न भवन्ति ] नहीं होते।
टीका:-जैसे इस जगतमें सर्प विषभावको अपने आप नहीं छोड़ता, और विषभावके मिटाने में समर्थ-मिश्र सहित दूग्धपानसे भी नहीं छोड़ता, इसीप्रकार वास्तवमें अभव्य प्रकृतिस्वभावको अपने आप नहीं छोड़ता और प्रकृतिस्वभावको छुड़ाने में समर्थभूत द्रव्यश्रुतके ज्ञानसे भी नहीं छोड़ता; क्योंकि उसे सदा ही, भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञानके अभावके कारण , अज्ञानीपन है।
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समयसार
४५६
अतो नियम्यतेऽज्ञानी प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वावेदक एव।
ज्ञानी त्ववेदक एवेति नियम्यतेणिव्वेयसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियाणेदि। महुरं कडुयं बहुविहमवेयओ तेण सो होइ।। ३१८ ।।
निर्वेदसमापन्नो ज्ञानी कर्मफलं विजानाति।
मधुरं कटुकं बहुविधमवेदकस्तेन स भवति।। ३१८ ।। ज्ञानी तु निरस्तभेदभावश्रुतज्ञानलक्षण शुद्धात्मज्ञानसद्भावेनपरतोऽत्यन्तविरक्त -त्वात् प्रकृतिस्वभावं स्वयमेव मुञ्चति, ततोऽमधुरं मधुरं वा कर्मफलमुदितं ज्ञातृत्वात् केवलमेव जानाति, न पुनर्ज्ञाने सति परद्रव्यस्याहंतयाऽनुभवितुमयोग्यत्वाद्वेदयते।
इसलिये यह नियम किया जाता है (ऐसा नियम सिद्ध होता है) कि अज्ञानी प्रकृतिस्वभावमें स्थित होनेसे वेदक (भोक्ता) ही है।
भावार्थ:-इस गाथामें, यह नियम बताया है कि अज्ञानी कर्मफलका भोक्ता ही है। यहाँ अभव्यका उदाहरण युक्त है। जैसे:--अभव्यका स्वयमेव यह स्वभाव होता है कि द्रव्यश्रुतका ज्ञान आदि बाह्य कारणोंके मिलनेपर भी अभव्य जीव, शुद्ध आत्माके ज्ञानके अभावके कारण, कर्मोदयको भोगने के स्वभावको नहीं बदलता; इसलिये इस उदाहरणसे स्पष्ट होता है कि शास्त्रोका ज्ञान इत्यादि होने पर भी जबतक जीवको शुद्ध आत्माका ज्ञान नहीं है अर्थात् अज्ञानीपन है तबतक नियमसे भोक्ता ही है।
अब,यह नियम करते हैं कि-ज्ञानी तो कर्मफलका अवेदक ही है:
वैराग्यप्राप्त जु ज्ञानिजन है, कर्मफल को जानता। कड़वे-मधुर बहुभॉति को, इससे अवेदक है अहा ।। ३१८ ।।
गाथार्थ:- [ निर्वेदसमापन्नः] निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त [ ज्ञानी] ज्ञानी [ मधुरम् कटुकम् ] मीठे-कड़वे [ बहुविधम् ] अनेक प्रकारके [ कर्मफलम् ] कर्मफलको [विजानाति ] जानता है [ तेन ] इसलिये [ सः ] वह [अवेदकः भवति ] अवेदक है।
टीका:-ज्ञानी तो जिसमेंसे भेद दूर हो गये हैं ऐसा भावश्रुतज्ञान जिसका स्वरूप है, ऐसे शुद्धात्मज्ञानके सद्भावके कारण, परसे अत्यंत विरक्त होनेसे प्रकृति (कर्मोदय) के स्वभावको स्वयमेव छोड़ देता है इसलिये उदयमें आये हुए अमधुर या मधुर कर्मफलको ज्ञातापनेके कारण मात्र जानता ही है, किन्तु ज्ञानके होनेपर (-ज्ञान हो तब) परद्रव्यको 'अहं' रूपसे अनुभव करने की अयोग्यता होनेसे (उस कर्मफलको) नहीं वेदता।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
अतो ज्ञानी प्रकृतिस्वभाव विरक्तत्वादवेदक एव ।
( वसन्ततिलका)
ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम्। जानन्परं करणवेदनयोरभावा
च्छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव।। १९८ ।।
ण विकुव्वइ ण वि वेयइ णाणी कम्माइं बहुपयाराइं । जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च ।। ३१९ ।।
इसलिये, ज्ञानी प्रकृतिस्वभावसे विरक्त होनेसे अवेदक ही है।
भावार्थ:-जो जिससे विरक्त होता है उसे वह अपने वश तो भोगता नहीं है, और यदि परवश होकर भोगता है तो वह परमार्थ से भोक्ता नहीं कहलाता। इस न्याय से ज्ञानी-जो कि प्रकृतिस्वभावको ( कर्मोदय) को अपना न जाननेसे उससे विरक्त है वह स्वयमेव तो प्रकृतिस्वभावको नहीं भोगता, और उदयकी बलवत्तासे परवश होता हुआ निर्बलतासे भोगता है तो उसे परमार्थ से भोक्ता नहीं कहा जा सकता, व्यवहारसे भोक्ता कहलाता है । किन्तु व्यवहारका तो यहाँ शुद्धनयके कथनमें अधिकार ही नहीं है; इसलिये ज्ञानी अभोक्ता ही है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ :- [ ज्ञानी कर्म न करोति च न वेदयते ] ज्ञानी कर्मको न तो करता है और न भोगता है, [ तत्स्वभावम् अयं किल केवलम् जानाति ] वह कर्मके स्वभावको मात्र जानता ही है । [ परं जानन् ] इसप्रकार मात्र जानता हुआ [ करणवेदनयोः अभावात् ] करने और भोगने के अभाव के कारण [ शुद्ध-स्वभावनियतः सः हिमुक्तः एव ] शुद्ध स्वभावमें निश्चल ऐसा वह वास्तवमें मुक्त ही है।
भावार्थ:-ज्ञानी कर्मका स्वाधीनतया कर्ता - भोक्ता नहीं है, मात्र ज्ञाता ही है; इसलिये वह मात्र शुद्धस्वभावरूप होता हुआ मुक्त ही है। कर्म उदयमें आता भी है, फिर भी ज्ञानीका क्या कर सकता है ? जबतक निर्बलता रहती है तबतक कर्म जोर चला ले; किन्तु ज्ञानी क्रमशः शक्ति बढ़ाकर अन्तमें कर्म का समूल नाश करेगा ही ।
१९८ ।
अब इसी अर्थ को पुन: दृढ़ करते हैं:
४५७
करता नहीं, नहिं वेदता, ज्ञानी करम बहुभाँतिको । बस जानता ये बंध त्यों ही कर्मफल शुभ अशुभको ।। ३१९ ।।
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समयसार
४५८
नापि करोति नापि वेदयते ज्ञानी कर्माणि बहुप्रकाराणि।
जानाति पुनः कर्मफलं बन्धं पुण्यं च पापं च ।। ३१९ ।। ज्ञानी हि कर्मचेतनाशून्यत्वेन कर्मफलचेतनाशून्यत्वेन च स्वयमकर्तृत्वादवेदयितृत्वाच्च न कर्म करोति न वेदयते च; किन्तु ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वात्कर्मबन्धं कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति।
कुत एतत् ?दिट्ठी जहेव णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव। जाणइ य बंधमोक्खं कम्मुदयं पिज्जरं चेव।। ३२० ।। __दृष्टि: यथैव ज्ञानमकारकं तथाऽवेदकं चैव। जानाति च बन्धमोक्षं कर्मोदयं निर्जरां चैव।। ३२० ।।
गाथार्थ:- [ज्ञानी ] ज्ञानी [ बहुप्रकाराणि ] बहुत प्रकारके [ कर्माणि ] कर्मों को [न अपि करोति ] न तो करता है, [ न अपि वेदयति ] और न भोगता ही है; [ पुनः] किन्तु [ पुण्यं च पापं च ] पुण्य और पापरूप [बन्धं ] कर्मबंधको [कर्मफलं] तथा कर्मफलको [जानाति ] जानता है।
टीका:-ज्ञानी कर्मचेतना रहित होनेसे स्वयं अकर्ता है, और कर्मफलचेतना रहित होनेके कारण स्वयं अभोक्ता है, इसलिये वह कर्मको न तो करता है और न भोगता है; किन्तु ज्ञानचेतनामय होने से मात्र ज्ञाता ही है, इसलिये वह शुभ अथवा अशुभ कर्मबंधको तथा कर्मफलको मात्र जानता ही है।
अब प्रश्न होता है कि- (ज्ञानी कर्ता-भोक्ता नहीं है, मात्र ज्ञाता ही है) यह कैसे है ? इसका उत्तर दृष्टांतपूर्वक कहते हैं:
ज्यों नेत्र, त्यों ही ज्ञान नहिं कारक , नहीं वेदक अहो। जाने हि कर्मोदय, निरजरा, बंध त्यों ही मोक्षको ।। ३२० ।।
गाथार्थ:- [ यथा एव दृष्टि:] जैसे नेत्र ( दृश्य पदार्थों को करता-भोगता नहीं है, किन्तु देखता ही है), [ तथा] उसीप्रकार [ ज्ञानम् ] ज्ञान [अकारकं ] अकारक [अवेदकं च एव ] तथा अवेदक है, [च ] और [बन्धमोक्षं ] बंध, मोक्ष , [कर्मोदयं] कर्मोदय [ निर्जरां च एव ] तथा निर्जराको [ जानाति ] जानता ही है।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार ।
४५९
यथात्र लोके दृष्टिदृश्यादत्यन्तविभक्तत्वेन तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात् दृश्यं न करोति न वेदयते च, अन्यथाग्निदर्शनात्सन्धुक्षणवत् स्वयं ज्वलनकरणस्य, लोहपिण्डवत्स्वयमौष्ण्यानुभवनस्य च दुर्निवारत्वात्, किन्तु केवलं दर्शनमात्रस्वभावत्वात् तत्सर्व केवलमेव पश्यति; तथा ज्ञानमपि स्वयं द्रष्टुत्वात् कर्मणोऽत्यन्तविभक्तत्वेन निश्चयतस्तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात्कर्म न करोति न वेदयते च, किन्तु केवलं ज्ञानमात्रस्वभावत्वात्कर्मबन्धं मोक्षं वा कर्मोदयं निर्जरां वा केवलमेव जानाति।
टीका:-जैसे इस जगतमें नेत्र दृश्य पदार्थसे अत्यंत भिन्नताके कारण उसे करने–वेदने (भोगने ) में असमर्थ होनेसे , दृश्य पदार्थको न तो करता है और न भोगता है-यदि ऐसा हो तो अग्निको देखने, संधु-क्षणकी (संधूकण; अग्नि जलानेवाला पदार्थ; अग्नि चेतानेवाली वस्तु।) भाँति, अपनेको ( नेत्रको) अग्निका कर्तृत्व (जलाना), और लोहेके गोलेकी भाँति अपने ( नेत्रको) अग्निका अनुभव दुर्निवार होना चाहिए ( अर्थात् यदि नेत्र दृश्य पदार्थ को करता और भोगता हो तो नेत्रके द्वारा अग्नि जलनी चाहिये और नेत्रको अग्निकी उष्णताका अनुभव अवश्य होना चाहिये; किन्तु ऐसा नहीं होता, इसलिये नेत्र दृश्य पदार्थका कर्ता-भोक्ता नहीं है) - किन्तु केवल दर्शनमात्रस्वभाववाला होनेसे वह (नेत्र) सबको मात्र देखता ही है; इसीप्रकार ज्ञान भी, स्वयं ( नेत्रकी भाँति) देखनेवाला होनेसे, कर्मसे अत्यंत भिन्नता के कारण निश्चयसे उसके करने वेदने (भोगने ) में असमर्थ होनेसे. कर्मको न तो करता है और न वेदता (भोगता) है, किन्तु केवल ज्ञानमात्रस्वभाववाला (जाननेका स्वभाववाला होनेसे कर्मके बंधको तथा मोक्षको, और कर्मके उदयको तथा निर्जराको मात्र जानता ही है।
भावार्थ:-ज्ञानका स्वभाव नेत्रकी भाँति दूरसे जानना है; इसलिये ज्ञानके कर्तृत्व-भोगतृत्व नहीं है। कर्तृत्व-भोगतृत्व मानना अज्ञान है। यहाँ कोई पूछता है कि-" ऐसा तो केवलज्ञान है। और शेष तो जबतक मोहकर्मका उदय है तबतक तो सुखदुःखरागादिरूप परिणमन होता ही है, तथा जबतक दर्शनावरण, ज्ञानावरण तथा वीर्यांतरायका उदय है तबतक अदर्शन, अज्ञान तथा असमर्थता होती ही है; तब फिर केवलज्ञान होनेसे पूर्व ज्ञातादृष्टापन कैसे कहा जा सकता है ?" उसका समाधान:पहलेसे ही यह कहा जा रहा है कि जो स्वतंत्रतया करता-भोगता है, वह परमार्थ से कर्ता–भोक्ता कहलाता है। इसलिये जहाँ मिथ्यादृष्टिरूप अज्ञानका अभाव हुआ वहाँ परद्रव्यके स्वामित्वका अभाव हो जाता है और तब जीव ज्ञानी होता हुआ स्वतंत्रतया किसीका कर्ता-भोक्ता नहीं होता, तथा अपनी निर्बलतासे कर्मके उदयकी बलवत्तासे जो कार्य होता है वह परमार्थदृष्टिसे उसका कर्ता-भोक्ता नहीं कहा जाता। और उस कार्यके निमित्तसे कुछ नवीन कर्मरज लगती भी है तो भी उसे यहाँ बंधमें नहीं गिना जाता। मिथ्यात्व है वही संसार है। मिथ्यात्वके जानेके बाद संसारका
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समयसार
४६०
(अनुष्टुभ् ) ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसा तताः।
सामान्यजनवत्तेषां: न मोक्षोऽपि मुमुक्षताम्।। १९९ ।। लोयस्स कुणदि विण्हू सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते। समणाणं पि य अप्पा जदि कुव्वदि छव्विहे काऐ।।३२१ ।।
अभाव ही होता है। समुद्रमें एक बूंदकी गिनती ही क्या है ?
और इतना विषेश जानना चाहिये कि-केवलज्ञानी तो साक्षात् शुद्धात्मस्वरूप ही है और श्रुतज्ञानी भी शुद्धनयके अवलंबनसे आत्माको ऐसा ही अनुभव करते हैं; प्रत्यक्ष और परोक्षका ही भेद है। इसलिये श्रुतज्ञानीको ज्ञान-श्रद्धानकी अपेक्षासे ज्ञातादृष्टापन ही है और चारित्रकी अपेक्षासे प्रतिपक्षी कर्मका जितना उदय है उतना घात है और उसे नष्ट करनेका उद्यम भी है। जब कर्मका अभाव हो जायेगा तब साक्षात् यथाख्यात चारित्र प्रगट होगा और तब केवलज्ञान प्रगट होगा। यहाँ सम्यग्दृष्टिको जो ज्ञानी कहा जाता है सो वह मिथ्यात्वके अभावकी अपेक्षासे कहा जाता है। यदि ज्ञानसामान्यकी अपेक्षा लें तो सभी जीव ज्ञानी हैं और विशेष की अपेक्षा लें तो जबतक किंचित्मात्र भी अज्ञान है तबतक ज्ञानी नहीं कहा जा सकताजैसे सिद्धांत ग्रन्थोंमें भावोंका वर्णन करते हुए, जबतक केवलज्ञान उत्पन्न न हो तबतक अर्थात् बारहवें गुणस्थान तक अज्ञानभाव कहा जाता है। इसलिये यहाँ जो ज्ञानी-अज्ञानीपन कहा है वह सम्यक्त्व-मिथ्यात्वकी अपेक्षासे ही जानना चाहिये।
अब, जो-जैन साधु भी-सर्वथा एकांतके आशयसे आत्माको कर्ता ही मानते हैं उनका निषेध करते हुए, आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ये तु तमसा तताः आत्मानं कर्तारम् पश्यन्ति] जो अज्ञान अंधकारसे आच्छादित होते हुए आत्माको कर्ता मानते हैं, [ मुमुक्षताम् अपि ] वे भले ही मोक्षके ईच्छुक हों तथापि [ सामान्यजनवत् ] सामान्य (लौकिक) जनोंकी भाँति [ तेषां मोक्षः न ] उनकी भी मुक्ति नहीं होती। १९९।। अब इसी अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं:
ज्यों लोक माने 'देव, नारक आदि जीव विष्णु करे । त्यों श्रमण भी माने कभी षट्कायको आत्मा करे' ।। ३२१।।
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४६१
लोयसमणाणमेयं सिद्धंतं जइ ण दीसदि विसेसो । लोयस्स कुणइ विण्हू समणाण वि अप्पओ कुणदि ।। ३२२ ।। एवं ण को विमोक्खो दीसदि लोयसमणाण दोन्हं पि । णिच्चं कुव्वंताणं सदेवमणुयासुरे लोए ।। ३२३ ।।
लोकस्य करोति विष्णुः सुरनारकतिर्यङ्मानुषान् सत्त्वान्। श्रमणानामपि चात्मा यदि करोति षड्विधान् कायान् ।। ३२१ ।। लोकश्रमणानामेकः सिद्धान्तो यदि न दृश्यते विशेषः । लोकस्य करोति विष्णुः श्रमणानामप्यात्मा करोति ।। ३२२ ।। एवं न कोऽपि मोक्षो दृश्यते लोकश्रमणानां द्वयेपामपि । नित्यं कुर्वतां सदेवमनुजासुरान् लोकान् ।। ३२३ ।।
ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यन्ति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते; लौकिकानां परमात्मा विष्णुः सुरनारकादिकार्याणि करोति,
तो लोक-मुनि सिद्धांत एक हि, भेद इसमें नहिं दिखे । विष्णु करे ज्यों लोकमतमें, श्रमणमत आत्मा करे ।। ३२२ ।। इस भाँति लोक मुनि उभयका मोक्ष कोई नहीं दिखे । -जो देव, मानव, असुरके त्रयलोक को नित्य हि करे ।। ३२३ ।। गाथार्थ:-[ लोकस्य ]
लोकके ( लौकिक जनोंके )
मत
[ सुरनारकतिर्यङ्मानुषान् सत्त्वान् ] देव, नारकी, तिर्यंच, मनुष्य - प्राणियोंको [ विष्णुः] विष्णु [करोति ] करता हैं; [च] और [ यदि ] यदि [ श्रमणानाम् अपि ] श्रमणों ( मुनियों) के मन्तव्यमें भी [ षड्विधान् कायाम् ] छह कायके जीवोंको [ आत्मा ] आत्मा [ करोति ] करता हो [ यदि लोकश्रमणानाम् ] तो लोक और श्रमणोंका [ एक: सिद्धान्तः] एक ही सिद्धांत हो गया, [ विशेष: न दृश्यते ] कोई अन्तर दिखाई नहीं देता; (क्योंकि) [ लोकस्य ] लोकके मतमें [ विष्णुः ] विष्णु [ करोति ] करता है [श्रमणानाम् अपि ] और श्रमणोंके मतमें भी आत्मा] आत्मा [ करोति ] करता है ( इसलिये कर्तृत्व की मान्यतामें दोनों समान हुए ]। [ एवं ] इसप्रकार [सदेवमनुजासुरान् लोकान् ] देव, मनुष्य और असुरलोकको [ नित्यं कुर्वतां] सदा करते हुए (अर्थात् तीनों लोकके कर्ताभावसे निरंतर प्रवर्तमान) ऐसे [ लोकश्रमणानां द्वयेषाम् अपि ] वे लोक और श्रमण दोनोंका भी [ कः अपि मोक्षः ] कोई मोक्ष [ न दृश्यते ] दिखाई नहीं देता ।
टीका:-जो आत्माको कर्ता ही देखते - मानते हैं, वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकताको अतिक्रमण नहीं करते; क्योंकि, लौकिक जनोंके मतमें परमात्मा विष्णु
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समयसार
४६२
तेषां तु स्वात्मा तानि करोतीत्यपसिद्धान्तस्य समत्वात्। ततस्तेषामात्मनो नित्यकर्तृत्वाभ्युपगमात् लौकिकानामिव लोकोत्तरिकाणामपि नास्ति मोक्षः।
(अनुष्टुभ् ) नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः। कर्तृकर्मत्वसम्बन्धाभावे तत्कर्तृता कुतः।। २०० ।।
देवनारकादि कार्य करता है,और उन ( -लोकोत्तर भी मुनियों) के मतमें अपना आत्मा वे कार्य करता है-इसप्रकार (दोनों में) "अपसिद्धांतकी समानता है। इसलिये आत्माके नित्य कर्तृत्वकी उनकी मान्यताके कारण, लौकिक जनोंकी भाँति, लोकोत्तर पुरुषों ( मुनियों) का भी मोक्ष नहीं होता।
भावार्थ:-जो आत्माको कर्ता मानते हैं, वे भले ही मुनि हो गये हों तथापि वे लौकिकजन जैसे ही हैं; क्योंकि, लोक ईश्वरको कर्ता मानता है और उन मुनियोंने आत्माको कर्ता माना है-इसप्रकार दोनों की मान्यता समान हुई। इसलिये जैसे लौकिक जनोंके मोक्ष नहीं होता उसी प्रकार उन मुनियोंके भी मुक्ति नहीं है। जो कर्ता हो वह कार्यके फलको भी अवश्य भोगेगा और जो फलको भोगेगा उसकी मुक्ति कैसी?
अब आगेके श्लोक में यह कहते हैं कि- 'परद्रव्य और आत्माका कोई भी संबंध नहीं है, इसलिये उनमें कर्ताकर्मसंबंध भी नहीं है' :
श्लोकार्थ:- [ परद्रव्य-आत्मतत्त्वयोः सर्वः अपि सम्बन्धः नास्ति ] परद्रव्य और आत्मतत्त्वका (कोई भी) संबंध नहीं है; [कर्तृ-कर्मत्व-सम्बन्ध-अभावे] इसप्रकार कर्तृत्व-कर्मके संबंधका अभाव होनेसे , [ तत्कर्तृता कुतः ] आत्माके परद्रव्यका कर्तृत्व कहाँ से हो सकता है ?
भावार्थ:-परद्रव्य और आत्माका कोई भी संबंध नहीं है, तब फिर उनमें कर्ताकर्मसंबंध कैसे हो सकता है? इसप्रकार जहाँ कर्ताकर्मसंबंध नहीं है, वहाँ आत्माके परद्रव्यका कर्तृत्व कैसे हो सकता है ? । २०० ।
अब, “जो व्यवहारनयके कथनको ग्रहण करके यह कहते हैं कि 'परद्रव्य मेरा है', और इसप्रकार व्यवहारको ही निश्चय मानकर आत्माको परद्रव्यका कर्ता मानते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं” ईत्यादि अर्थकी सुचक गाथयें दृष्टांत सहित कहते हैं:
* अपसिद्धांत = मिथ्या अर्थात् भूल भरा सिद्धांत।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४६३
ववहारमासिदेण दु परदव्वं मम भणंति अविदिदत्था। जाणंति णिच्छएण दु ण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि।। ३२४ ।। जह को वि णरो जंपदि अम्हं गामविसयणयररठें। ण य होंति तस्स ताणि दु भणदि य मोहेण सो अप्पा।। ३२५ ।। एमेव मिच्छदिट्ठी णाणी णीसंसयं हवदि एसो। जो परदव्वं मम इदि जाणंतो अप्पयं कुणदि।। ३२६ ।। तम्हा ण मे त्ति णच्चा दोण्ह वि एदाण कत्तविवसायं। परदव्वे जाणंतो जाणेज्जो दिहिरहिदाणं।। ३२७ ।।
व्यवहारभाषितेन तु परद्रव्यं मम भणन्त्यविदितार्थाः। जानन्ति निश्चयेन तु न च मम परमाणुमात्रमपि किञ्चित्।। ३२४ ।। यथा कोऽपि नरो जल्पति अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्रम।। न च भवन्ति तस्य तानि तु भणति च मोहेन स आत्मा।। ३२५ ।।
व्यवहारमूढ़ अतत्त्वविद् परद्रव्यको मेरा कहे । 'अणुमात्र भी मेरा न' ज्ञानी जानता निश्चय हि से ।। ३२४ ।। ज्यों पुरुष कोई कहे 'हमारा ग्राम , पुर अरु देश है'। पर वो नहिं उसका अरे! जीव मोहसे 'मेरा' कहे ।। ३२५ ।। इस रीत ही जो ज्ञानी भी 'मुझ' जानता परद्रव्यको। वो जरूर मिथ्यात्वी बने, निजरूप करता अन्यको ।। ३२६ ।। इससे 'न मेरा' जान जीव , परद्रव्यमें इन उभयकी। कर्तृत्वबुद्धि जानता, जाने सुदृष्टिरहितकी ।। ३२७।।
गाथार्थ:- [अविदितार्थाः ] जिन्होंने पदार्थके स्वरूप को नहीं जाना है ऐसे पुरुष [व्यवहारभाषितेन तु] व्यवहारके वचनोंको ग्रहण करके [परद्रव्यं मम ] 'परद्रव्य मेरा है' [ भणन्ति ] ऐसा कहते हैं, [ तु] परंतु ज्ञानीजन [ निश्चयेन जानन्ति ] निश्चयसे जानते हैं कि [ किञ्चित् ] 'कोई [ परमाणुमात्रम् अपि] परमाणुमात्र भी [न च मम] मेरा नहीं है।
[ यथा] जैसे [ कः अपि नरः] कोई मनुष्य [अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्रम् ] 'हमारा ग्राम, हमारा देश, हमारा नगर, हमारा राष्ट्र' [ जल्पति] इसप्रकार कहता है, [ तु] किन्तु [ तानि] वे [ तस्य ] उसके [ न च भवन्ति ] नहीं हैं, [ मोहेन च ] मोहसे [ सः आत्मा ] वह आत्मा [ भणति ] 'मेरा है' इसप्रकार कहता है;
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४६४
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समयसार
एवमेव मिथ्यादृष्टिर्ज्ञानी निःसंशयं भवत्येषः । यः परद्रव्यं ममेति जानन्नात्मानं करोति ।। ३२६ ।। तस्मान्न मे इति ज्ञात्वा द्वयेषामप्येतेषां कर्तृव्यवसायम् । परद्रव्ये जानन् जानीयात् दृष्टिरहितानाम् ।। ३२७ ।।
अज्ञानिन एव व्यवहारविमूढाः परद्रव्यं ममेदमिति पश्यन्ति । ज्ञानिनस्तु निश्चयप्रतिबुद्धाः परद्रव्यकणिकामात्रमपि न ममेदमिति पश्यन्ति । ततो यथात्र लोके कश्चिद् व्यवहारविमूढः परकीयग्रामवासी ममांय ग्राम इति पश्यन् मिथ्यादृष्टिः तथा यदि ज्ञान्यपि कथञ्चिद् व्यवहारविमूढो भूत्वा परद्रव्यं ममेदमिति पश्येत् तदा सोऽपि निस्संशयं परद्रव्यमात्मानं कुर्वाणो मिथ्यादृष्टिरेव स्यात् । अतस्तत्त्वं जानन् पुरुषः सर्वमेव परद्रव्यं न ममेति ज्ञात्वा लोकश्रमणानां द्वयेषामपि योऽयं परद्रव्ये कर्तृव्यवसाय: स तेषां सम्यग्दर्शनरहितत्वादेव भवति इति सुनिश्चितं जानीयात् ।
[ एवम् एव ] इसीप्रकार [ यः ज्ञानी ] जो ज्ञानी भी [ परद्रव्यं मम ] ‘परद्रव्य मेरा है' [इति जानन् ] ऐसा जानता हुआ [ आत्मानं करोति ] परद्रव्यको निजरूप करता है, [एषः] वह [ निःसंशयं ] निःसंदेह अर्थात् निश्चयतः [ मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि [ भवति ] होता है।
1
[तस्मात्] इसलिये तत्त्वज्ञ [ न मे इति ज्ञात्वा ] ' परद्रव्य मेरा नहीं है' यह जानकर, [ एतेषां द्वयेषाम् अपि ] इन दोनोंका ( - लोकका और श्रमणका - ) [परद्रव्ये] परद्रव्यमें [कर्तृव्यवसायं जानन् ] कर्तृत्वके व्यवसायको जानते हुए, [ जानीयात् ] यह जानते हैं कि [ दृष्टिरहितानाम् ] यह व्यवसाय सम्यग्दर्शनसे रहित पुरुषोंका है।
टीका:- अज्ञानीजन ही व्यवहारविमूढ़ ( व्यवहारमें ही विमूढ़ ) होनेसे परद्रव्यको ऐसा देखते मानते हैं कि 'यह मेरा है'; और ज्ञानीजन निश्चयप्रतिबुद्ध ( निश्चयके ज्ञाता) होनेसे परद्रव्यकी कणिकामात्रको भी 'यह मेरा है' ऐसा नहीं देखते मानते। इसलिये, जैसे इस जगतमें कोई व्यवहारविमूढ़ ऐसा दूसरेके गाँवमें रहनेवाला मनुष्य ‘यह ग्राम मेरा है' इसप्रकार देखता - मानता हुआ मिथ्यादृष्टि ( - विपरीत दृष्टिवाला ) है । उसीप्रकार ज्ञानी भी किसी प्रकारसे व्यवहारविमूढ़ होकर परद्रव्यको 'यह मेरा है' इसप्रकार देखे माने तो उस समय वह भी निःसंशयतः अर्थात् निश्चयतः, परद्रव्यको निजरूप करता हुआ, मिथ्यादृष्टि ही होता है। इसलिये तत्त्वज्ञ पुरुष 'समस्त परद्रव्य मेरा नहीं है' यह जानकर, 'यह सुनिश्चिततया जानता है कि- लोक और श्रमणदोनोंके जो यह परद्रव्यमें कर्तृत्वका व्यवसाय है वह उनकी सम्यग्दर्शनरहितताके कारण ही है'।
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( वसन्ततिलका)
एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः । तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ।। २०१ ।। ( वसन्ततिलका)
ये तु स्वभावनियमं कलयन्ति नेममज्ञानमग्नमहसो बत ते वराकाः। कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्मकर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः ।। २०२ ।।
४६५
भावार्थ:-जो व्यावहारसे मोही होकर परद्रव्यके कर्तृत्वको मानते हैं, वेलौकिक जन हों या मुनिजन हों - मिथ्यादृष्टि ही हैं। यदि ज्ञानी भी व्यवहारमूढ़ होकर परद्रव्यको ‘अपना’ मानता है, तो वह मिथ्यादृष्टि ही होता है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ :- [ यतः ] क्योंकि [ इह ] इस लोकमें [ एकस्य वस्तुनः अन्यतरेण सार्ध सकलः अपि सम्बन्धः एव निषिद्धः ] एक वस्तुका अन्य वस्तुसे साथ सम्पूर्ण संबंध ही निषेध किया गया है, [ तत् ] इसलिये [ वस्तुभेदे ] जहाँ वस्तुभेद है अर्थात् भिन्न वस्तुएँ हैं वहाँ [ कर्तृकर्मघटना अस्ति न ] कर्ताकर्मघटना नहीं होती - [ मुनयः च जनाः च] इसप्रकार मुनिजन और लौकिक जन [ तत्त्वम् अकर्तृ पश्यन्तु ] तत्त्वको (वस्तुके यथार्थ स्वरूपको) अकर्ता देखो, ( - यह श्रद्वामें लाओ कि कोई किसी का कर्ता नहीं है, परद्रव्य परका अकर्ता ही है ) । २०१ ।
“जो पुरुष ऐसा वस्तुस्वभावका नियम नहीं जानते वे अज्ञानी होते हुए कर्मको करते हैं; इसप्रकार भावकर्मका कर्ता अज्ञानसे चेतन ही होता है । ” – इस अर्थका एवं, आगामी गाथाओंका सूचक कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ :- ( आचार्यदेव खेदपूर्वक कहते हैं कि: ) [ बत ] अरे ! [ ये तु इमम् स्वभावनियमं न कलयन्ति ] जो इस वस्तुस्वभावसे नियमको नहीं जानते [ ते वराका: ] वे बिचारे, [ अज्ञानमग्नमहस: ] जिनका ( पुरुषार्थरूप - पराक्रमरूप) तेज अज्ञानमें डूब गया है ऐसे, [ कर्म कुर्वन्ति ] कर्मको करते हैं; [ ततः एव हि ] इसलिये [ भावकर्मकर्ता चेतनः एव स्वयं भवति ] भावकर्मका कर्ता चेतन ही स्वयं होता है, [अन्य: न] अन्य कोई नही।
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समयसार
४६६
मिच्छत्तं जदि पयडी मिच्छादिट्ठी करेदि अप्पाणं। तम्हा अचेदणा ते पयडी णणु कारगो पत्तो।। ३२८ ।। अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं। तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो।। ३२९ ।। अह जीवो पयडी तह पोग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं। तम्हा दोहिं कदं तं दोण्णि वि भुंजंति तस्स फलं ।। ३३० ।। अह ण पयडी ण जीवो पोग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं। तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा।। ३३१ ।।
भावार्थ:-वस्तुके स्वरूपके नियमको नहीं जानता इसलिये परद्रव्यका कर्ता होता हुआ अज्ञानी (-मिथ्यादृष्टि) जीव स्वयं ही अज्ञानभावमें परिणमित होता है; इसप्रकार अपने भावकर्मका कर्ता अज्ञानी स्वयं ही है, अन्य नहीं। २०२।
अब , (जीवके) जो मिथ्यात्वभाव होता है उसका कर्ता कौन है ?'-इस बातकी भली भाँति चर्चा करके, ‘भावकर्मका कर्ता (अज्ञानी) जीव ही है' यह युक्तिपूर्वक सिद्ध करते हैं:
मिथ्यात्व प्रकृति ही अगर, मिथ्यात्वि जो जीव को करे । तो तो अचेतन प्रकृति ही कारक बने तुझ मतविषे! ।। ३२८ ।। अथवा करे जो जीव पुद्गलद्रव्यके मिथ्यात्वको । तो तो बने मिथ्यात्वि पुद्गलद्रव्य , आत्मा नहिं बने ।। ३२९ ।। जो जीव अरु प्रकृति करे मिथ्यात्व पुद्गलद्रव्यको । तो उभयकृत जो होय तत्फल भोग भी हो उभयको ।। ३३० ।। जो प्रकृति नहिं, नहिं जीव करे मिथ्यात्व पुद्गलद्रव्यको। पुद्गलदरव मिथ्यात्व अकृत, क्या न वह मिथ्या कहो ? ।। ३३१ ।।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४६७
मिथ्यात्वं यद प्रकृतिर्मिथ्यादृष्टिं करोत्यात्मानम्। तस्मादचेतना ते प्रकृतिर्ननु कारका प्राप्ता।। ३२८ ।। अथवैष जीवः पुद्गलद्रव्यस्य करोति मिथ्यात्वम्। तस्मात्पुद्गलद्रव्यं मिथ्यादृष्टिर्न पुनर्जीवः।। ३२९ ।। अथ जीवः प्रकृतिस्तथा पुद्गलद्रव्यं कुरुतः मिथ्यात्वम्। तस्मात् द्वाभ्यां कुतं तत् द्वावपि मुजाते तस्य फलम्।। ३३० ।। अथ न प्रकृतिर्न जीव: पुद्गलद्रव्यं करोति मिथ्यात्वम्। तस्मात्पुद्गलद्रव्यं मिथ्यात्वं तत्तु न खलु मिथ्या।। ३३१ ।।
गाथार्थ:- [ यदि] यदि [ मिथ्यात्वं प्रकृतिः] मिथ्यात्व नामक ( मोहनीय कर्मकी) प्रकृति [ आत्मानम् ] आत्माको [ मिथ्यादृष्टिं ] मिथ्यादृष्टि [ करोति] करती है ऐसा माना जाये, [ तस्मात् ] तो [ ते ] तुम्हारे मतमें [ अचेतना प्रकृतिः ] अचेतन प्रकृति [ ननु कारका प्राप्ता] (मिथ्यात्वभावकी) कर्ता हो गई! ( इसलिये मिथ्यात्वभाव अचेतन सिद्ध हुआ!)
[ अथवा] अथवा, [ एषः जीवः ] यह जीव [ पुद्गलद्रव्यस्य ] पुद्गलद्रव्यके [ मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्वको [ करोति] करता है ऐसा माना जाये, [ तस्मात् ] तो [ पुद्गलद्रव्यं मिथ्यादृष्टि: ] पुद्गलद्रव्य मिथ्यादृष्टि सिद्ध होगा!- [न पुनः जीवः ] जीव नहीं!
[अथ ] अथवा यदि [ जीवः तथा प्रकृतिः ] जीव और प्रकृति दोनों [ पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्यको [ मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्वभावरूप [ कुरुतः ] करते हैं ऐसा माना जाये, [ तस्मात् ] तो [द्वाभ्यां कृतं तत् ] जो दोनोंके द्वारा किया [ तस्य फलम् ] उसका फल [ द्वौ अपि मुजाते ] दोनों भोगेंगे!
[अथ] अथवा यदि [पुद्गलद्रव्यं] पुद्गलद्रव्यको [ मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्वभावरूप [न प्रकृतिः करोति] न तो प्रकृति करती है [ न जीवः ] और न जीव करता है (-दोनोंमेंसे कोई नहीं करता) ऐसा माना जाय, [ तस्मात् ] तो [ पुद्गलद्रव्यं मिथ्यात्वम् ] पुद्गलद्रव्य स्वभावसे ही मिथ्यात्वभावरूप सिद्ध होगा! [ तत् तु न खलु मिथ्या ] क्या यह वास्तवमें मिथ्या नहीं है ?
(इससे यह सिद्ध होता है कि अपने मिथ्यात्वभावका-भावकर्मका-कर्ता जीव ही है।)
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समयसार
४६८
जीव एव मिथ्यात्वादिभावकर्मणः कर्ता, तस्याचेतनप्रकृतिकार्यत्वेऽचेतनत्वानुषङ्गात्। स्वस्यैव जीवो मिथ्यात्वादिभावकर्मण: कर्ता, जीवेन पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादिभावकर्मणि क्रियमाणे पुद्गलद्रव्यस्य चेतनानुषङ्गात्। न च जीवः प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो द्वौ कर्तारौ, जीववदचेतनायाः प्रकृतेरपि तत्फलभोगानुषङ्गात्। न च जीवः प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो द्वावप्यकर्तारौ, स्वभावत एव पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादिभावानुषङ्गात्। ततो जीवः कर्ता, स्वस्य कर्म कार्यमिति सिद्धम्।
टीका:-जीव ही मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है; क्योंकि यदि वह (भावकर्म) अचेतन प्रकृतिका कार्य हो तो उसे ( –भावकर्मकी) अचेतनत्वका प्रसंग आ जायेगा। जीव अपने ही मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है; क्योंकि यदि जीव पुद्गलद्रव्यके मिथ्यात्वादि भावकर्मको करे तो पुद्गलद्रव्यको चेतनत्वका प्रसंग आ जायेगा। और जीव तथा प्रकृति दोनों मिथ्यात्वादि भावकर्मके कर्ता ऐसा भी नहीं है; क्योंकि यदि वे दोनों कर्ता हों तो जीवकी भाँति अचेतन प्रकृतिको भी उस (-भावकर्म) का फल भोगनेका प्रसंग आ जायेगा। और जीव तथा प्रकृति दोनों मिथ्यात्वादि भावकर्मके अकर्ता हों सो ऐसा भी नहीं है; क्योंकि यदि वे दोनों अकर्ता हों तो स्वभावसे ही पुद्गलद्रव्यको मिथ्यात्वादि भावका प्रसंग आ जायेगा। इससे यह सिद्ध हुआ कि-जीव कर्ता है और अपना कर्म कार्य है (अर्थात् जीव अपने मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है और अपना भावकर्म अपना कार्य है)।
भावार्थ:-इन गाथाओंमें यह सिद्ध किया है कि भावकर्म कर्ता जीव ही है। यहाँ यह जानना चाहिये कि-परमार्थसे अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यके भावका कर्ता नहीं होता इसलिये जो चेतनके भाव है उनका कर्ता चेतन ही हो सकता है। इस जीवके अज्ञानसे जो मिथ्यात्वादि भावरूप जो परिणाम हैं वे चेतन हैं, जड़ नहीं; अशुद्धनिश्चयनयसे उन्हें चिदाभास भी कहा जाता है। इसप्रकार वे परिणाम चेतन हैं, इसलिये उनका कर्ता भी चेतन ही है, क्योंकि चेतन कर्म का कर्ता चेतन ही होता है-यह परमार्थ है। अभेददृष्टि में तो जीव शुद्धचेतनामात्र ही है, किन्तु जब वह कर्म
के
निमित्त से परिणमित होता है तब वह उन उन परिणामोंसे युक्त होता है और तब परिणाम-परिणामीकी भेददृष्टिमें अपने अज्ञानभावरूप परिणामोंका कर्ता जीव ही है। अभेददृष्टिमें तो कर्ताकर्मभाव ही नहीं है, शुद्धचेतनामात्र जीववस्तु है। इसप्रकार यथार्थतया समझना चाहिये कि चेतनकर्मका कर्ता चेतन ही है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :---
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( शार्दूलविक्रीडित )
कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयोरज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलभुग्भावानुषङ्गात्कृतिः । नैकस्याः प्रकृतेरचित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्ता ततो जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः ।। २०३ ।। ( शार्दूलविक्रीडित )
कर्मैव प्रवितर्क्य कर्तृ हतकैः क्षिप्त्वात्मनः कर्तृतां कर्तात्मैष कथञ्चिदित्यचलिता कैश्चिच्छ्रुतिः कोपिता । तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुद्धये स्याद्वादप्रतिबन्धलब्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते ।। २०४ ।।
४६९
श्लोकार्थ:- [कर्म कार्यत्वात् अकृतं न ] जो कर्म ( अर्थात् भावकर्म ) है वह कार्य है, इसलिये वह अकृत नहीं हो सकता अर्थात् किसी के द्वारा किये बिना नहीं हो सकता। [च] और [ तत् जीव-प्रकृत्योः द्वयोः कृतिः न ] ऐसा भी नहीं है कि वह (भावकर्म) जीव और प्रकृति दोनों की कृति हो, [ अज्ञायाः प्रकृतेः स्व-कार्य-फलभुग्-अनुषङ्गात् ] क्योंकि यदि वह दोनोंका कार्य हो तो ज्ञानरहित (जड़) प्रकृतिको भी अपने कार्यका फल भोगनेका प्रसंग आ जायेगा । [ एकस्याः प्रकृतेः न ] और वह ( भावकर्म) एक प्रकृतिकी कृति ( - अकेली प्रकृतिका कार्य — ) भी नहीं है, [ अचित्त्वलसनात् ] क्योंकि प्रकृतिका तो अचेतनत्व प्रगट है ( अर्थात् प्रकृति तो अचेतन हे और भावकर्म चेतन है ) । [ ततः ] इसलिये [ अस्य कर्ता जीवः ] उस भावकर्मका कर्ता जीव ही है [च] और [ चिद् - अनुगं ] चेतनका अनुसरण करनेवाला अर्थात् चेतनके साथ अन्वयरूप ( - चेतनके परिणामरूप - ) ऐसा [ तत्] वह भावकर्म [ जीवस्य एव कर्म ] जीवका ही कर्म है, [ यत् ] क्योंकि [ पुद्गलः ज्ञाता न ] पुद्गल तो ज्ञाता नहीं है (इसलिये वह भावकर्म पुद्गलका कर्म नहीं हो सकता ) ।
भावार्थ:-चेतनकर्म चेतनके ही होता है; पुद्गल जड़ है, इसलिये उसके चेतनकर्म कैसे हो सकता है । २०३ ।
अब आगे की गाथाओंमें, जो भावकर्मका कर्ता भी कर्मको ही मानते हैं उन्हें समझानेके लिये स्याद्वाद अनुसार वस्तुस्थिति कहेंगे, पहले उसका सुचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ :- [ कैश्चित् हतकैः ] कोई आत्माके घातक ( सर्वथा एकांतवादी ) [कर्म एव कर्तृ प्रवितर्क्य ] कर्मको ही कर्ता विचार कर [ आत्मनः कर्तृतां क्षिप्त्वा ] आत्माके कर्तृत्वको उड़ाकर, ' [ एषः आत्मा कथञ्चित् कर्ता ] यह आत्मा कथंचित् कर्ता है ' [ इति अचलिता श्रुतिः कोपिता ] ऐसा कहने वाली अचलित श्रुतिको कोपित करते हैं (-निर्बाध जिनवाणीकी विराधना करते हैं );
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समयसार
४७०
कम्मेहि दु अण्णाणी किज्जदि णाणी तहेव कम्मेहिं। कम्मेहि सुवाविज्जदि जग्गाविज्जदि तहेव कम्मेहिं।। ३३२ ।। कम्मेहि सुहाविज्जदि दुक्खाविज्जदि तहेव कम्मेहिं। कम्मेहि य मिच्छत्तं णिज्जदि णिज्जदि असंजमं चेव।। ३३३ ।। कम्मेहि भमाडिज्जदि उड्डमहो चावि तिरियलोयं च। कम्मेहि चेव किज्जदि सुहासुहं जेत्तियं किंचि।। ३३४ ।।
[ उद्धत-मोह-मुद्रित-धियां तेषाम् बोधस्य संशुद्धये] जिनकी बुद्धि तीव्र मोहसे मुद्रित हो गई है ऐसे उन आत्मघातकोंके ज्ञानकी संशुद्धिके लिये [वस्तुस्थितिः स्तूयते ] ( निम्नलिखित गाथाओं द्वारा) वस्तुस्थिति कही जाती है- [ स्याद्वाद-प्रतिबन्ध-लब्धविजया ] जिस वस्तुस्थितिने स्याद्वादके प्रतिबंध द्वारा विजय प्राप्त की है ( अर्थात् जो वस्तुस्थिति स्याद्वादरूप नियमसे निर्बाधतया सिद्ध होती है।
भावार्थ:-कोई एकांतवादी सर्वथा एकांततः कर्मका कर्ता कर्मको ही कहते हैं और आत्माको अकर्ता ही कहते हैं; वे आत्माके घातक हैं। उनपर जिनवाणीका कोप है, क्योंकि स्याद्वादसे वस्तुस्थितिको निर्बाधतया सिद्ध करनेवाली जिनवाणी तो आत्माको कथंचित् कर्ता कहती है। आत्माको अकर्ता ही कहनेवाले एकान्तवादियोंकी बुद्धि उत्कट मिथ्यात्वसे ढक गयी है; उनके मिथ्यात्वको दूर करनेके लिये आचार्यदेव स्याद्वादानुसार जैसी वस्तुस्थिति है वह, निम्नलिखित गाथाओंमें कहते हैं। २०४।
'आत्मा सर्वथा अकर्ता नहीं है, कथंचित् कर्ता भी है' इस अर्थकी गाथायें अब कहते हैं:
“कर्महि करें अज्ञानि त्योंही ज्ञानि भी कर्महि करे । कर्महि सुलाते जीवको , त्यों कर्महि जगृत करें ।। ३३२।। अरु कर्म ही करते सुखी, कर्महि दुखी जीवको करे। कर्महि करे मिथ्यात्वि त्योंहि असंयमी कर्महि करे ।। ३३३ ।। कर्महि भ्रमावे ऊर्ध्व लोक रु, अधः अरु तिर्यक् विर्षे । अरु कुछ भी जो शुभ या अशुभ उन सर्वको कर्महि करे ।। ३३४।।
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जम्हा कम्मं कुव्वदि कम्मं देदि हरदि त्ति जं किंचि । तम्हा उ सव्वजीवा अकारगा होंति आवण्णा ।। ३३५ ।। पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसदि । एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुदी ।। ३३६ ।। तम्हाण को वि जीवो अबंभचारी दु अम्ह उवदेसे। जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं अहिलसदि इदि भणिदं ।। ३३७ । जम्हा धादेदि परं परेण घादिज्जदे य सा पयडी । एदेणत्थेणं किर भण्णदि परघादणामेत्ति ।। ३३८ ।। तम्हाण को वि जीवो वधादओ अत्थि अम्ह उवदेसे । जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं घादेदि इदि भणिदं ।। ३३९ ।। एवं संखुवएसं जे दु परूवेंति एरिसं समणा ।
करता करम, देता करम, हरता करम, - सब कुछ करे । इस हेतुसे यह है सुनिश्चित जीव अकारक सर्व है ।। ३३५ ।। 'पुंकर्म इच्छे नारिको स्त्रीकर्म इच्छे पुरुषको ' । -ऐसी श्रुति आचार्यदेव परंपरा अवतीर्ण है ।। ३३६ ।।
इस रीत 'कर्महि कर्मको ईच्छे ' कहा है शास्त्रमें । अब्रह्मचारी यों नहिं जो जीव हम उपदेशमें ।। ३३७ ।।
अरु जो हने परको, हनन हो परसे, वोह प्रकृति है । -इस अर्थमें परघात नामक कर्मका निर्देश है ।। ३३८ ।। इस रीत' कर्म हि कर्मको हनता ' कहा है शास्त्रमें । इससे न को भी जीव है हिंसक जु हम उपदेशमें ।। ३३९ ।।
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४७१
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समयसार
४७२
तेसिं पयडी कुव्वदि अप्पा य अकारगा सव्वे।। ३४० ।। अहवा मण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि। एसो मिच्छसहावो तुम्हें एयं मुणंतस्स।। ३४१ ।। अप्पा णिच्चोऽसंखेज्जपदेसो देसिदो दु समयम्हि। ण वि सो सक्कदि तत्तो हीणो अहिओ य का, जे।।३४२ ।। जीवस्स जीवरूवं वित्थरदो जाण लोगमेत्तं खु। तत्तो सो किं हीणो अहिओ य कहं कुणदि दव्वं ।। ३४३ ।। अह जाणगो दु भावो णाणसहावेण अच्छदे त्ति मदं। तम्हा ण वि अप्पा अप्पयं तु सयमप्पणो कुणदि।। ३४४ ।।
यों सांख्यका उपदेश ऐसा, जो श्रमण वर्णन करे । उस मतसे सब प्रकृति करे जीव तो अकारक सर्व है ।। ३४०।। अथवा तु माने 'आतमा मेरा स्वआत्माको करे'। तो ये जो तुझ मंतव्य भी मिथ्या स्वभाव ही तुझ अरे ।। ३४१ ।। जीव नित्य है त्यों, है असंख्यप्रदेशी दर्शित समयमें । उससे न उसको हीन, त्योंहि न अधिक कोई कर सके ।। ३४२।। विस्तारसे जीवरूप जीवका लोकमात्र प्रमाण है। क्या उससे हीन रु अधिक बनता द्रव्यको कैसे करें ।।३४३।। माने तु-ज्ञायक भाव तो ज्ञानस्वभाव स्थिर रहे'। तो यों भि यह आत्मा स्वयं निज आतमाको नहिं करे ।। ३४४।।
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कर्मभिस्तु अज्ञानी क्रियते ज्ञानी तथैव कर्मभिः। कर्मभिः स्वाप्यते जागर्यते तथैव कर्मभिः ।। ३३२ ।। कर्मभिः सुखी क्रियते दुःखी क्रियते तथैव कर्मभिः । कर्मभिश्च मिथ्यात्वं नीयते नीयतेऽसंयमं चैव ।। ३३३ ।। कर्मभिर्भ्राम्यते ऊर्ध्वमधश्चापि तिर्यग्लोकं च । कर्मभिश्चैव क्रियते शुभाशुभं यावद्यत्किञ्चित् ।। ३३४ ।। यस्मात्कर्म करोति कर्म ददाति हरतीति यत्किञ्चित् । तस्मात्तु सर्वजीवा अकारका भवन्त्यापन्नाः ।। ३३५ ।। पुरुष: स्त्र्यभिलाषी स्त्रीकर्म च पुरुषमभिलषति। एषाचार्यपरम्परागतेदृशी तु श्रुतिः ।। ३३६ ।। तस्मान्न कोऽपि जीवोऽब्रह्मचारी त्वस्माकमुपदेशे । यस्मात्कर्म चैव हि कर्माभिलषतीति भणितम् ।। ३३७ ।।
४७३
गाथार्थ:-“ [ कर्मभिः तु] कर्म [ अज्ञानी क्रियते ] ( जीवको) अज्ञानी करते हैं [ तथा एव ] उसी तरह [ कर्मभिः ज्ञानी ] कर्म ( जीवको ) ज्ञानी करते हैं, [ कर्मभिः स्वाप्यते ] कर्म सुलाते हैं [ तथा एव ] उसी तरह [ कर्मभिः जागर्यते ] कर्म जगाते हैं, [ कर्मभिः सुखी क्रियते ] कर्म सुखी करते हैं [ तथा एव ] उसी तरह [ कर्मभिः दुःखी क्रियते ] कर्म दुःखी करते हैं, [ कर्मभि: च मिथ्यात्वं नीयते ] कर्म मिथ्यात्व को प्राप्त कराते हैं [ च एव ] और [ असंयमं नीयते ] कर्म असंयम को प्राप्त कराते हैं, [कर्मभिः] कर्म [ उर्ध्वम् अधः च अपि तिर्यग्लोकं च ] ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोकमें [ भ्राम्यते ] भ्रमाण कराते हैं, [ यत्किञ्चित् यावत् शुभाशुभं ] जो कुछ भी जितना शुभ और अशुभ है वह सब [ कर्मभिः च एव क्रियते ] कर्म ही कराते हैं। [यस्मात् ] इसलिये [ कर्म करोति ] कर्म करता हैं, [ कर्म ददाति ] कर्म देता है, [ हरति ] कर्म हर लेता है - [ इति यत्किञ्चित् ] इसप्रकार जो कुछ भी करता है वह कर्म ही करता है, [तस्मात् तु ] इसलिये [ सर्वजीवाः ] सभी जीव [अकारकाः आपन्नाः भवन्ति ] अकारक ( अकर्ता) सिद्ध होते हैं।
और, [ पुरुष: ] पुरुषवेदकर्म [ स्त्र्यभिलाषी ] स्त्रीका अभिलाषी है [च] और [स्त्रीकर्म] स्त्रीवेदकर्म [ पुरुषम् अभिलषति ] पुरुषकी अभिलाषा करता है - [ एषा आचार्यपरम्परागता ईदृशी तु श्रुतिः ] ऐसी यह आचार्यकी परंपरासे आई हुई श्रुति है; [तस्मात्] इसलिये [अस्माकम् उपदेशे तु ] हमारे उपदेशमें तो [ कः अपि जीवः ] कोई भी जीव [ अब्रह्मचारी न ] अब्रह्मचारी नहीं है, [ यस्मात् ] क्योंकि [ कर्म च एव हि ] कर्म ही [कर्म अभिलषति ] कर्मकी अभिलाषा करता है [ इति भणितम्] ऐसा कहा है।
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समयसार
यस्माद्धन्ति परं परेण हन्यते च सा प्रकृतिः । एतेनार्थेन किल भण्यते परघातनामेति ।। ३३८ ।। तस्मान्न कोऽपि जीव उपघातकोऽस्त्यस्माकमुपदेशे। यस्मात्कर्म चैव हि कर्म हन्तीति भणितम् ।। ३३९ ।। एवं साङ्ख्योपदेशं ये तु प्ररूपयन्तीदृशं श्रमणाः । तेषां प्रकृतिः करोत्यात्मानश्चाकारकाः सर्वे ।। ३४० ।। अथवा मन्यसे ममात्मात्मानमात्मनः करोति । एष मिथ्यास्वभावः तवैतज्जानतः ।। ३४१ ।। आत्मा नित्योऽसङ्खयेयप्रदेशो दर्शितस्तु समये । नापि स शक्यते ततो हीनोऽधिकश्च कर्तु यत् ।। ३४२ ।। जीवस्य जीवरूपं विस्तरतो जानीहि लोकमात्रं खलु । ततः स किं हीनोऽधिको वा कथं करोति द्रव्यम् ।। ३४३ ।।
और, [ यस्मात् परं हन्ति ] जो परको मारता है [च] और [ परेण हन्यते ] जो परके द्वारा मारा जाता है [ सा प्रकृतिः ] वह प्रकृति है - [ एतेन अर्थन किल ] इस अर्थमें [ परघातनाम इति भण्यते ] परघातनामकर्म कहा जाता है, [ तस्मात् ] इसलिये [ अस्माकम् उपदेशे ] हमारे उपदेशमें [ कः अपि जीवः ] कोई भी जीव [ उपघातकः न अस्ति ] उपघातक ( मारनेवाला) नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ कर्म च एव हि ] कर्म ही [ कर्म हन्ति ] कर्मको मारता है [ इति भणितम् ] ऐसा कहा है।
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(आचार्यदेव कहते हैं कि:- ) [ एवं तु ] इसप्रकार [ ईदृशं साङ्ख्योपदेशं ] ऐसा सांख्यमतका उपदेश है [ ये श्रमणाः ] जो श्रमण ( जैन मुनि ) [ प्ररूपयन्ति ] प्ररूपित करते हैं [तेषां] उनके मतमें [ प्रकृतिः करोति ] प्रकृति ही करती है [आत्मानः च सर्वे ] और आत्मा तो सर्ब [ अकारका: ] अकारक है ऐसा सिद्ध होता है !
[ अथवा ] अथवा (कर्तृत्वका पक्ष सिद्ध करने के लिये ) [ मन्यसे ] यदि तुम यह मानते हो कि ' [ मम आत्मा ] मेरा आत्मा [ आत्मनः ] अपने [ आत्मानम् ] (द्रव्यरूप) आत्माको [ करोति ] करता है', [ एतत जानतः तव ] तो ऐसा जानने वाले का तुम्हारा [ एष: मिथ्यास्वभाव: ] यह मिथ्यात्वभाव है; [ यद् ] क्योंकि[समये ] सिद्धांतमें [आत्मा ] आत्माको [ नित्यः ] नित्य, [ असङ्ख्येय- प्रदेश: ] असंख्यात–प्रदेशी [ दर्शितः तु ] बताया गया है, [ततः ] उससे [ सः] वह [ हीनः अधिक: च] हीन या अधिक [ कर्तु न अपि शक्यते ] नहीं किया जा सकता; [विस्तरतः ] और विस्तारसे भी [ जीवस्य जीवरूपं ] जीवका जीवरूप [ खलु ] निश्चयसे [लोकमात्रं जानीहि ] लोकमात्र जानों; [ ततः ] उससे [ किं स: हीनः अधिक: वा ] क्या वह हीन अथवा अधिक होता है ? [ द्रव्यम् कथं करोति ] तब फिर ( आत्मा ) द्रव्यको (अर्थात् द्रव्यरूप आत्माको ) कैसे करता है ?
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अथ ज्ञायकस्तु भावो ज्ञानस्वभावेन तिष्ठतीति मतम्। तस्मान्नाप्यात्मात्मानं तु स्वयमात्मनः करोति ।। ३४४ ।।
४७५
कर्मैवात्मानमज्ञानिनं करोति, ज्ञानावरणाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः। कर्मैव ज्ञानिनं करोति, ज्ञानावरणाख्यकर्मक्षयोपशममन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव स्वापयति, निद्राख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः। कर्मैव जागरयति, निद्राख्यकर्मक्षयोपशममन्तरेण तदनुपपत्तेः। कर्मैव सुखयति, सद्वेद्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः। कर्मैव दुःखयति, असद्वेद्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः। कर्मैव मिथ्यादृष्टिं करोति, मिथ्यात्वकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैवासंयतं करोति, चारित्रमोहाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैवोर्ध्वाधम्तिर्यग्लोकं भ्रमयति, आनुपूर्व्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः।
[ अथ ] अथवा यदि ' [ ज्ञायक: भावः तु ] ज्ञायक भाव तो [ ज्ञानस्वभावेन तिष्ठति ] ज्ञानस्वभावसे स्थित रहता है' [ इति मतम् ] ऐसा माना जाये, [ तस्मात् अपि ] तो इससे भी [ आत्मा स्वयं ] आत्मा स्वयं [ आत्मनः आत्मानं तु ] अपने आत्माको [ न करोति ] नहीं करता यह सिद्ध होगा ।
(इसप्रकार कर्तृत्व को सिद्ध करने के लिये विवक्षाको बदलकर जो पक्ष का है वह घटित नहीं होता । )
(इसप्रकार, यदि कर्मका कर्ता कर्म ही माना जाये तो स्यादवादके साथ विरोध आता है; इसलिये आत्माको अज्ञान - अवस्थामें कथंचित् अपने अज्ञानभावरूप कर्मका कर्ता मानना चाहिये, जिससे स्याद्वाद के साथ विरोध नहीं आता । )
टीका:- ( यहाँ पूर्वपक्ष इसप्रकार है: ) " कर्म ही आत्माको अज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानावरण नामक कर्मके उदय बिना उसकी ( - अज्ञानकी) अनुपपत्ति है; कर्म ही (आत्माको ) ज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानावरण नामक कर्मके क्षयोपशमके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही सुलाता है, क्योंकि निद्रा नामक कर्मके उदय बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही जगाता है, क्योंकि निद्रा नामक कर्मके क्षयोपशमके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही सुखी करता है, क्योंकि सातावेदनीय नामक कर्मके उदय बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही दुःखी करता है, क्योंकि असातावेदनीय नामक कर्मके उदय बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही मिथ्यादृष्टि करता है, क्योंकि मिथ्यात्वकर्मके उदय बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही असंयमी करता है, क्योंकि चारित्रमोह नामके कर्मके उदय बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही ऊर्ध्वलोकमें, अधोलोकमें और तिर्यग्लोकमें भ्रमण कराता है, क्योंकि आनुपूर्वी नामक कर्मके उदय बिना उसकी अनुपपत्ति है;
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समयसार
४७६
अपरमपि यद्यावत्किञ्चिच्छुभाशुभं तत्तावत्सकलमपि कर्मैव करोति, प्रशस्ताप्रशस्तरागाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः। यत एवं समस्तमपि स्वतन्त्र कर्म करोति, कर्म ददाति, कर्म हरति च, ततः सर्व एव जीवाः नित्यमेवैकान्तेनाकार एवेति निश्चिनुमः। किञ्च-श्रुतिरप्येनमर्थमाह; पुवेदाख्यं कर्म स्त्रियमभिलषति, स्त्रीवेदाख्यं कर्म पुमांसमभिलषति इति वाक्येन कर्मण एव कर्माभिलाषकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्याब्रह्मकर्तृत्वप्रतिषेधात्, तथा यत्परं हन्ति, येन च परेण हन्यते तत्परघातकर्मेति वाक्येन कर्मण एव कर्मघातकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्य घातकर्तृत्वप्रतिषेधाच सर्वथैवाकर्तृत्वज्ञापनात्। एवमीदृशं सांख्यसमय स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमानाः केचिच्छुमणाभासाः प्ररूपयन्ति; तेषां प्रकृतेरेकान्तेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकान्तेनाकर्तृत्वापत्तेः जीवः कर्तेति श्रुतेः कोपो दुःशक्य: परिहर्तुम्। यस्तु कर्म आत्मनोऽज्ञानादिसर्वभावान् पर्यायरूपान् करोति, आत्मा त्वात्मानमेवैकं द्रव्यरूपं करोति, ततो जीवः कर्तेति श्रुतिकोपो न भवतीत्यभिप्रायः स मिथ्यैव।
दूसरा भी जो कुछ जितना शुभ-अशुभ है वह सब कर्म ही करता है, क्योंकि प्रशस्त-अप्रशस्त राग नामक कर्मके उदय बिना उनकी अनुपपत्ति है। इसप्रकार सब कुछ स्वतंत्रतया कर्म ही करता है, कर्म ही देता है, कर्म ही हर लेता है, इसलिये हम यह निश्चय करते हैं कि-सभी जीव सदा एकांतसे अकर्ता ही हैं। और श्रुति (भगवानकी वाणी, शास्त्र) भी इसी अर्थको कहती है; क्योंकि, ( वह श्रुति) 'पुरुषवेद नामक कर्म स्त्रीकी अभिलाषा करता है और स्त्रीवेद नामक कर्म पुरुषकी अभिलाषा करता है' इस वाक्यसे कर्मको ही कर्मकी अभिलाषाके कर्तृत्वके समर्थन द्वारा जीवको अब्रह्मचर्यके कर्तृत्वका निषेध करती है, तथा ‘जो परको हनता है और जो परके द्वारा हना जाता है वह परघातकर्म है' इस वाक्यसे कर्म ही कर्मके घातका कर्तत्व होनेके समर्थन द्वारा जीवके घातके कर्तृत्वका निषेध करती है, और इसप्रकार (अब्रह्मचर्यके तथा घातके कर्तृत्वके निषेध द्वारा) जीवका सर्वथा ही अकर्तृत्व बतलाती है।"
(आचार्यदेव कहते हैं कि:-) इसप्रकार ऐसे सांख्यमतको, अपनी प्रज्ञा (बुद्धि) के अपराधसे सूत्रके अर्थको न जानने वाले कुछ श्रमणाभास प्ररूपित करते हैं; उनकी , एकांत प्रकृतिके कर्तृत्वकी मान्यतासे, समस्त जीवोंके एकांतसे अकर्तृत्व आ जाता है इसलिये ‘जीव कर्ता है' ऐसी जो श्रुति है उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है (अर्थात् भगवानकी वाणीकी विराधना होती है)। और, 'कर्म आत्माके अज्ञानादि सर्व भावोंको-जो कि पर्यायरूप हैं उन्हें-करता है, और आत्मा तो आत्माको ही एकको द्रव्यरूपको करता है इसलिये जीव कर्ता है; इसप्रकार श्रुतिका कोप नहीं होता'-ऐसा जो अभिप्राय है वह मिथ्या ही है।
* श्रमणाभास = मुनिके गुण नहीं होने पर भी अपनेको मुनि कहलानेवाले।
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४७७
जीवो हि द्रव्यरूपेण तावन्नित्योऽसंख्येयप्रदेशो लोकपरिमाणश्च। तत्र न तावन्नित्यस्य कार्यत्वमुपपन्नं, कृतकत्वनित्यत्वयोरेकत्वविरोधात्। न चावस्थितासंख्येयप्रदेशस्यैकस्य पुद्गलस्कन्धस्येव प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणद्वारेणापि तस्य कार्यत्वं, प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणे सति तस्यैकत्वव्याघातात्।
चापि सकललोकवास्तुविस्तारपरिमितनियतनिजाभोगसंग्रहस्य प्रदेशसङ्कोचन - विकाशनद्वारेण तस्य कार्यत्वं, प्रदेशसङ्कोचनविकाशनयोरपि शुष्कार्द्रचर्मवत्प्रतिनियतनिजविस्ताराद्धीनाधिकस्य तस्य कर्तुमशक्यत्वात्। यस्तु वस्तुस्वभावस्य सर्वथापोढुमशक्यत्वात् ज्ञायको भावो ज्ञानस्वभावेन सर्वदैव तिष्ठति, तथा तिष्ठंश्च ज्ञायककर्तृत्वयोरत्यन्तविरुद्धत्वान्मिथ्यात्वादिभावानां न कर्ता भवति, भवन्ति च मिथ्यात्वादिभावाः, ततस्तेषां कर्मैव कर्तृ प्ररूप्यत इति वासनोन्मेषः स तु नितरामात्मात्मानं करोतीत्यभ्युपगममुपहन्त्येव।
(इसी को समझाते हैं:) जीव तो द्रव्यरूपसे नित्य है, असंख्यात-प्रदेशी है और लोकपरिमाण है। उसमें प्रथम, नित्यका कार्यत्व नहीं बन सकता, क्योंकि कृतकत्वके
और नित्यत्वके एकत्वका विरोध है। (आत्मा नित्य है इसलिये वह कृतक अर्थात् किसीके द्वारा किया गया नहीं हो सकता।) और अवस्थित असंख्य-प्रदेशवाले एक (-आत्मा) को पुद्गलस्कंधकी भाँति, प्रदेशोंका प्रक्षेपण-आकर्षण द्वारा भी कार्यत्व नहीं बन सकता, क्योंकि प्रदेशोंका प्रक्षेपण तथा आकर्षण हो तो उसके एकत्वका व्याघात हो जायेगा। (स्कंध अनेक परमाणुओंका बना हुआ है, इसलिये उसमेंसे परमाणु निकल जाते हैं तथा उनमें आ भी जाते हैं; परंतु आत्मा निश्चित असंख्यप्रदेशवाला एक ही द्रव्य है इसलिये वह अपने प्रदेशोंको निकाल नहीं सकता तथा अधिक प्रदेशोंको ले नहीं सकता।) और सकल लोकरूपी घरके विस्तारसे परिमित जिसका निश्चित निज विस्तार-संग्रह है ( अर्थात् जिसका लोक जितना निश्चित माप है) उसके ( -आत्माके) प्रदेशोंके संकोच-विकास द्वारा भी कार्यत्व नहीं बन सकता, क्योंकि प्रदेशोंकें संकोच-विस्तार होने पर भी, सूखे-गीले चमड़ेकी भाँति, निश्चित निज विस्तारके कारण उसे (-आत्माको) हीनाधिक नहीं किया जा सकता । (इसप्रकार आत्माके द्रव्यरूप आत्माका कर्तृत्व नहीं बन सकता।) और, “ वस्तुस्वभावका सर्वथा मिटना अशक्य होनेसे ज्ञायक भाव ज्ञानस्वभावसे ही सदा स्थित रहता है और इसप्रकार स्थित रहता हुआ, ज्ञायकत्व और कर्तृत्वके अत्यंत विरुद्धता होनेसे , मिथ्यात्वादि भावोंका कर्ता नहीं होता; और मिथ्यात्वादि भाव तो होते हैं; इसलिये उनका कर्ता कर्म ही है इसप्रकार प्ररूपित किया जाता है"-ऐसी जो वासना (अभिप्राय, झुकाव ) प्रगट की जाती है वह भी ‘आत्मा आत्माको करता है' इस (पूर्वोक्त) मान्यताका अतिशयता पूर्वक घात करती है (क्योंकि सदा ज्ञायक माननेसे आत्मा अकर्ता ही सिद्ध हुआ)।
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समयसार
४७८
ततो ज्ञायकस्य भावस्य सामान्यापेक्षया ज्ञानस्वभावावस्थितत्वेऽपि कर्मजानां मिथ्यात्वादिभावानां ज्ञानसमयेऽनादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञानशून्यत्वात् परमात्मेति जानतो विशेषापेक्षया त्वज्ञानरूपस्य ज्ञानपरिणामस्य करणात्कर्तृत्वमनुमन्तव्यं; तावद्यावत्तदादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञानपूर्णत्वादात्मानमेवात्मेति जानतो विशेषापेक्षयापि ज्ञानरूपेणैव ज्ञानपरिणामेन परिणममानस्य केवलं ज्ञातृत्वात्साक्षादकर्तृत्वं स्यात्।
इसलिये, ज्ञायक भाव सामान्य अपेक्षासे ज्ञानस्वभावसे अवस्थित होनेपर, कर्मसे उत्पन्न होते हुए मिथ्यात्वादि भावोंके ज्ञानके समय, अनादिकालसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानसे शून्य होनेसे , परको आत्माके रूपमें जाता हुआ वह (ज्ञायक भाव) विशेष अपेक्षासे अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामको करता है (-अज्ञानरूप ऐसा जो ज्ञानका परिणमन उसको करता है) इसलिये, उसके कर्तृत्वको स्वीकार करना ( अर्थात् ऐसा स्वीकार करना कि वह कथंचित कर्ता है); वह भी तबतक ही जबतक भेदविज्ञानके प्रारम्भसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानसे पूर्ण (अर्थात् भेदविज्ञान सहित) होनेके कारण आत्माको ही आत्माके रूपमें जानता हुआ वह (ज्ञायक भाव), विशेष अपेक्षासे भी ज्ञानरूप ही ज्ञानपरिणामसे परिणमित होता हुआ (-ज्ञानरूप ऐसा जो ज्ञानका परिणमन उसरूप ही परिणमित होता हुआ), मात्र ज्ञातृत्वके कारण साक्षात् अकर्ता हो।
भावार्थ:-कितने ही जैन मुनि भी स्याद्वाद-वाणीको भली भाँति न समझकर सर्वथा एकांतका अभिप्राय करते हैं और विवक्षा बदलकर यह कहते हैं कि-"आत्मा तो भावकर्मका अकर्ता ही है, कर्मप्रकृतिका उदय ही भावकर्मको करता है; अज्ञान, ज्ञान, सोना, जागना, सुख, दुःख, मिथ्यात्व, असंयम, चार गतिओंमें भ्रमण-इन सबको , तथा जो कुछ शुभ-अशुभ भाव है उन सबको कर्म ही करता है; जीव तो अकर्ता है।" और वे मुनि शास्त्रका भी ऐसा ही अर्थ करते हैं कि-“वेदके उदयसे स्त्री-पुरुषका विकार होता है और उपघात तथा परघात प्रकृतिके उदयसे परस्पर घात होता है।” इसप्रकार, जैसे सांख्यमतावलम्बी सब कुछ प्रकृतिका ही कार्य मानते हैं और पुरुषको अकर्ता मानते हैं उसीप्रकार, अपनी बुद्धिके दोषसे इन मुनियोंकी भी ऐसी ही एकांतिक मान्यता हुई। इसलिये जिनवाणी तो स्याद्वाद रूप है, अतः सर्वथा एकांतको माननेवाले उन मुनियों पर जिनवाणीका कोप अवश्य होता है। जिनवाणीके कोपके भयसे यदि वे विवक्षाको बदलकर यह कहें कि-"भावकर्मका कर्ता कर्म है और अपनी आत्माका ( अर्थात् अपनेको) कर्ता आत्मा है; इसप्रकार हम आत्माको कथंचित् कर्ता कहते हैं, इसलिये वाणीका कोप नहीं होता;" तो उनका यह कथन भी मिथ्या
आत्मा द्रव्यसे नित्य है. असंख्यात प्रदेशी है लोकपरिमाण है इसलिये उसमें तो कुछ नवीन करना नहीं है; और जो भावकर्मरूप पर्यायें हैं उनका कर्ता तो वे मुनि कर्मको ही कहते हैं; इसलिये आत्मा तो अकर्ता ही रहा! तब फिर वाणीका कोप कैसे मिट गया ? इसलिये आत्माके कर्तृत्व और अकर्तृत्व
ही है
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४७९
_ ( शार्दूलविक्रीडित) माऽकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हताः कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः। ऊर्ध्वम् तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम्।। २०५ ।।
की विवक्षाको यथार्थ मानना ही स्याद्वादको यथार्थ मानना है। आत्माके कर्तृत्वअकर्तृत्वके सम्बन्धमें सत्यार्थ स्याद्वाद-प्ररूपण इसप्रकार है:
आत्मा सामान्य अपेक्षासे तो ज्ञानस्वभावमें ही स्थित है; परंतु मिथ्यात्वादि भावोंको जानते समय, अनादि कालसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानके अभावके कारण, ज्ञेयरूप मिथ्यात्वादि भावोंको आत्माके रूप में जानता है, इसलिये इसप्रकार विशेष अपेक्षासे अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामको करनेसे कर्ता है; और जब भेदविज्ञान होनेसे आत्माको ही आत्माके रूपमें जानता है तब विशेष अपेक्षासे भी ज्ञानरूप ज्ञानपरिणाममें ही परिणमित होता हुआ मात्र ज्ञाता रहनेसे साक्षात् अकर्ता है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ अमी आर्हताः अपि यह आर्हत् मतके अनुयायी अर्थात् जैन भी [पुरुषं ] आत्माको, [सांख्याः इव] सांख्यमतियोंकी भाँति, [ अकर्तारम् मा स्पृशन्तु] ( सर्वथा) अकता मत मानो; | भेद-अवबोधात् अधः | भेदज्ञान होनेसे पर्व | तं किल | उसे [ सदा] निरन्तर [ कर्तारम् कलयन्तु] कर्ता मानो, [ तु] और [ ऊर्ध्वम् ] भेदज्ञान होनेके बाद [ उद्धत-बोध-धाम-नियतं स्वयं प्रत्यक्षम् एनम् ] उद्धत ज्ञानधाम में निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्माको [च्युत-कर्तृभावम् अचलं एकं परम् ज्ञातारम् ] कर्तृत्व रहित, अचल, एक परम ज्ञाता ही [ पश्यन्तु] देखो।
भावार्थ:-सांख्यमतावलम्बी पुरुषको सर्वथा एकांतसे अकर्ता, शुद्ध उदासीन चैतन्यमात्र मानते हैं। ऐसा माननेसे पुरुषको संसारके अभावका प्रसंग आता है; और यदि प्रकृतिको संसार माना जाये तो वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि प्रकृति तो जड़ है, उसे सुखदुःख आदिका संवेदन नहीं है, तो उसे संसार कैसा ? ऐसे अनेक दोष एकांत मान्यतामें आते हैं। सर्वथा एकांत वस्तुका स्वरूप ही नहीं है। इसलिये सांख्यमती मिथ्यादृष्टि है; और यदि जैन भी ऐसा मानें तो वे भी मिथ्यादृष्टि हैं। इसलिये आचार्यदेव उपदेश देते हैं कि-सांख्यमतियोंकी भाँति जैन आत्माको सर्वथा अकर्ता न मानें; जबतक स्वपरका भेदविज्ञान न हो तबतक तो उसे रागादिका-अपने चेतनरूप भावकर्मोंका-कर्ता मानो, और भेदविज्ञान होनेके बाद शुद्ध विज्ञानघन ,
* ज्ञानधाम = ज्ञानमंदिर; ज्ञानप्रकाश।
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समयसार
४८०
( मालिनी) क्षणिकमिदमिहैकः कल्पयित्वात्मतत्त्वं निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोर्विभेदम्। अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतौधैः स्वयमयमभिषिञ्चश्चिच्चमत्कार एव।। २०६ ।।
समस्त कर्तृत्वके भावसे रहित, एक ज्ञाता ही मानो। इसप्रकार एक ही आत्मामें कर्तृत्व तथा अकर्तृत्व-ये दोनों भाव विवक्षावश सिद्ध होते हैं। ऐसा स्याद्वाद मत जैनोंका है;
और वस्तुस्वभाव भी ऐसा ही है, कल्पना नहीं है। ऐसा (स्याद्वादानुसार) माननेसे पुरुषको संसार-मोक्ष आदिकी सिद्धि होती है; और सर्वथा एकांत माननेसे सर्व निश्चय-व्यवहारका लोप होता है। २०५।
आगेकी गाथाओंमें, ‘कर्ता अन्य है और भोक्ता अन्य है' ऐसा माननेवाले क्षणिकवादी बौद्धमतियोंकी सर्वथा एकांत मान्यतामें दूषण बतायेंगे और स्याद्वाद अनुसार जिसप्रकार वस्तुस्वरूप अर्थात् कर्ताभोक्तापन है उसीप्रकार कहेंगे। उन गाथाओंका सूचक काव्य प्रथम कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इह ] इस जगतमें [ एक:] कोई एक तो ( अर्थात् क्षणिकवादी बौद्धमती) [इदम् आत्मतत्त्वं क्षणिकम् कल्पयित्वा ] इस आत्मतत्त्वको क्षणिक कल्पित करके [ निज-मनसि ] अपने मनमें [ कर्तृ-भोक्त्रोः विभेदं विधत्ते ] कर्ता और भोक्ताका भेद करते हैं ( –कर्ता अन्य है और भोक्ता अन्य है, ऐसा मानते हैं); [ तस्य विमोहं] उनके मोहको (अज्ञानको) [अयम् चित्-चमत्कार: एव स्वयम् ] यह चैतन्यचमत्कार ही स्वयं [नित्य-अमृत-ओधैः] नित्यतारूप अमृतके ओघ (-समूह) के द्वारा [ अभिषिञ्चन् ] अभिसिंचन करता हुआ , [अपहरति ] दूर करता है।
भावार्थ:-क्षणिकवादी कर्ता-भोक्तामें भेद मानते हैं, अर्थात् वे यह मानते हैं कि-प्रथम क्षणमें जो आत्मा था वह दूसरे क्षणमें नहीं है। आचार्यदेव कहते हैं कि हम उसे क्या समझायें ? वह चैतन्य ही उसका अज्ञान दूर कर देगा-कि जो (चैतन्य) अनुभवगोचर नित्य है। प्रथम क्षणमें जो आत्मा था वही द्वितीय क्षणमें कहता है कि 'मैं जो पहले था वहीं हूँ'; इसप्रकारका स्मरणपूर्वक प्रत्यभिज्ञान आत्माकी नित्यता बतलाता है। यहाँ बौद्धमती कहता है कि-'जो प्रथम क्षणमें था वहीं मैं दूसरे क्षणमें हूँ' ऐसा मानना वह तो अनादिकालीन अविद्यासे भ्रम है; यह भ्रम दूर हो तो तत्त्व सिद्ध हो, और समस्त कलेश मिटे। उसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि -" हे बौद्ध ! तू यह तो तर्क ( दलील) करता है उस सम्पूर्ण तर्कको करनेवाला एक ही आत्मा है या अनेक आत्मा हैं ? और तेरे सम्पूर्ण तर्क को एक ही आत्मा सुनता है ऐसा मानकर तू तर्क करता है या सम्पूर्ण तर्कको पूर्ण होने तक अनेक आत्मा बदल जाते हैं ऐसा
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४८१
( अनुष्टुभ् ) वृत्त्यंशभेदतोऽत्यन्तं वृत्तिमन्नाशकल्पनात्। अन्यः करोति भुंक्तेऽन्य इत्येकान्तश्चकास्तु मा।। २०७ ।।
मानकर तर्क करता है ? और तेरी सम्पूर्ण तर्क एक ही आत्मा सुनता है ऐसा मान कर तू तर्क करता है या सम्पूर्ण तर्क पूर्ण होने तक अनेक आत्मायें पलट जाये हैं ऐसा मान कर तर्क करता है? यदि अनेक आत्मा बदल जातें हो तो तेरे सम्पूर्ण तर्कको कोई आत्मा सुनता नहीं है; तब फिर तर्क करनेका क्या प्रयोजन है ? * यों अनेक प्रकार से विचार करने पर तुझे ज्ञात होगा कि आत्माको क्षणिक मानकर प्रत्यभिज्ञानको भ्रम कह देना वह यथार्थ नहीं है। इसलिये यह समझना चाहिये किआत्माको एकांतत: नित्य या एकांततः अनित्य मानना वह दोनों भ्रम हैं, वस्तुस्वरूप नहीं; हम (जैन) कथंचित् नित्यानित्यात्मक वस्तुस्वरूप कहते हैं वही सत्यार्थ है।" २०६।
पुनः, क्षणिकवादका युक्ति द्वारा निषेध करता हुआ, और आगेकी गाथाओंका सुचक काव्य कहते हैं :--
श्लोकार्थ:- [वृति-अंश-भेदतः] वृत्त्यंशोंके अर्थात् पर्यायके भेदके कारण [अत्यन्तं वृत्तिमत्-नाश-कल्पनात् ] 'वृत्तिमान अर्थात् द्रव्य सर्वथा नष्ट हो जाता है' ऐसी कल्पनाके द्वारा [अन्यः करोति] 'अन्य करता है और [अन्यः भुंक्ते] अन्य भोगता है' [इति एकान्तः मा चकास्तु] ऐसा एकांत प्रकाशित मत करो।
भावार्थ:-द्रव्यकी पर्यायें प्रतिक्षण नष्ट होती हैं इसलिये बौद्ध यह मानते हैं कि 'द्रव्य ही सर्वथा नष्ट होता है। ऐसी एकांत मान्यता मिथ्या है। यदि पर्यायवान पदार्थका ही नाश हो जाये तो पर्याय किसके आश्रयसे होगी? इसप्रकार दोनोंके नाशका प्रसंग आनेसे शून्यका प्रसंग आता है। २०७।
अब निम्नलिखित गाथाओंमें अनेकांतको प्रगट करके क्षणिकवादका स्पष्टतया निषेध करते हैं:
* यदि यह कहा जाये कि 'आत्मा तो नष्ट हो जाता है किन्तु वह संस्कार छोड़ता जाता है तो यह भी
यथार्थ नहीं है; यदि आत्मा नष्ट हो जाये तो आधारके बिना संस्कार कैसे रह सकता है ? और यदि कदाचित् एक आत्मा संस्कार छोड़ता जाये , तो भी उस आत्माके संस्कार दूसरे आत्मामें प्रविष्ट हो जायें ऐसा नियम न्यायसंगत नहीं है।
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समयसार
४८२
केहिंचि दु पज्जएहिं विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो। जम्हा तम्हा कुव्वदि सो वा अण्णो व णेयंतो।।३४५ ।। केहिंचि दु पज्जएहिं विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो। जम्हा तम्हा वेददि सो वा अण्णो व णेयंतो।।३४६ ।। जो चेव कुणदि सो चिय ण वेदए जस्स एस सिद्धंतो। सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो।।३४७ ।। अण्णो करेदि अण्णो परिभुजदि जस्स एस सिद्धंतो। सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो।।३४८ ।।
कैश्चित्तु पर्यायैर्विनश्यति नैव कैश्चित्तु जीवः। यस्मात्तस्मात्करोति स वा अन्यो वा नैकान्तः।। ३४५ ।।
पर्याय कुछसे नष्ट जीव, कुछसे न जीव विनष्ट है। इससे करे हैं वो ही या को अन्य नहीं एकांत है ।।३४५।। पर्याय कुछसे नष्ट जीव , कुछसे न जीव विनष्ट है । यों जीव वेदै वो ही या को अन्य नहीं एकांत है ।। ३४६ ।। जीव जो करै वह भोगता नहिं-जिसका यह सिद्धांत है। अर्हतके मतका नहीं वो जीव मिथ्यादृष्टि है ।। ३४७।। जीव अन्य करता, अन्य वेदे-जिसका यह सिद्धांत है।
अहँतके मतका नहीं वो जीव मिथ्यादृष्टि है ।।३४८। गाथार्थ:- [ यस्मात् ] क्योंकि [जीवः] जीव [ कैश्चित् पर्यायैः तु] कितनी ही पर्यायोंसे [ विनश्यति] नष्ट होता है [ तु] और [ कैश्चित् ] कितनी ही पर्यायोंसे [न एव ] नष्ट नहीं होता, [ तस्मात् ] इसलिये [ सः वा करोति ] ( जो भोगता है) वही करता है' [ अन्यः वा ] अथवा 'दूसरा ही करता है' [ न एकान्तः ] ऐसा एकांत नहीं है ( –स्याद्वाद है)।
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कैश्चित्तु पर्यायैर्विनश्यति नैव कैश्चित्तु जीवः । यस्मात्तस्माद्वेदयते स वा अन्यो वा नैकान्तः।। ३४६ ।। यश्चैव करोति य चैव न वेदयते यस्य एष सिद्धान्तः । सजीवो ज्ञातव्यो मिथ्यादृष्टिरनार्हतः ।। ३४७ ।। अन्यः करोत्यन्यः परिभुंक्ते यस्य एष सिद्धान्तः। सजीवो ज्ञातव्यो मिथ्यादृष्टिरनार्हतः ।। ३४८ ।।
४८३
यतो हि प्रतिसमयं सम्भवदगुरुलधुगुणपरिणामद्वारेण क्षणिकत्वादचलितचैतन्यान्वयगुणद्वारेण नित्यत्वाच्च जीवः कैश्चित्पर्यायैर्विनश्यति, कैश्चित्तु न विनश्यतीि द्विस्वभावो जीवस्वभावः । ततो य एव करोति स एवान्यो वा वेदयते, य एव वेदयते स एवान्यो वा करोतीति नास्त्येकान्तः। एवमनेकान्तेऽपि यस्तत्क्षणवर्तमानस्यैव
[यस्मात् ] क्योंकि [ जीवः ] जीव [ कैश्चित् पर्यायैः तु ] कितनी ही पर्यायोंसे [ विनश्यति ] नष्ट होता है [ तु] और [ कैश्चित् ] कितनी ही पर्यायोंसे [न एव ] नष्ट नहीं होता है, [तस्मात् ] इसलिये [ सः वा वेदयते ] ' ( जो करता है) वही भोगता है' [अन्य: वा ] अथवा 'दूसरा ही भोगता है' [न एकान्तः ] ऐसा एकांत नहीं है (- स्याद्वाद है)।
' [ यः च एव करोति ] जो करता है [ सः च एव न वेदयते ] वही नहीं भोगता' [एषः यस्य सिद्धान्तः ] ऐसा जिसका सिद्धांत है, [ स जीवः ] वह जीव [मिथ्यादृष्टिः] मिथ्यादृष्टि [ अनार्हतः ] अनार्हत ( - अर्हत्के मतको न माननेवाला ) [ ज्ञातव्य: ] जानना चाहिये ।
' [ अन्यः करोति ] दूसरा करता है [ अन्य: परिभुंक्ते ] और दूसरा भोगता है' [ एषः यस्य सिद्धान्तः ] ऐसा जिसका सिद्धांत है, [ स जीवः ] वह जीव [ मिथ्यादृष्टि: ] मिथ्यादृष्टि, [ अनार्हतः ] अनार्हत ( - अजैन ) [ सज्ञातव्यः ] जानना चाहिये ।
टीका:-जीव, प्रतिसमय संभवते ( - होनेवाले) अगुरुलघुगुणके परिणाम द्वारा क्षणिक होनेसे और अचलित चैतन्यके अन्वयरूप गुण द्वारा नित्य होनेसे, कितनी ही पर्यायोंसे विनाशको प्राप्त होता है और कितनी ही पर्यायोंसे विनाशको नहीं प्राप्त होता है - इसप्रकार दो स्वभाववाला जीवस्वभाव है; इसलिये ' जो करता है वही भोगता है' अथवा 'दूसरा ही भोगता है', 'जो भोगता है वही करता है' अथवा 'दूसरा ही करता है - ऐसा एकांत नहीं है । इसप्रकार अनेकांत होनेपर भी, 'जो ( पर्याय ) उससमय होती है, उसी को
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समयसार
४८४
परमार्थसत्त्वेन वस्तुत्वमिति वस्त्वंशेऽपि वस्तुत्वमध्यास्य शुद्धनयलोभादृजुसूत्रैकान्ते स्थित्वा य एव करोति स एव न वेदयते, अन्यः करोति अन्यो वेदयते इति पश्यति स मिथ्यादृष्टिरेव द्रष्टव्यः, क्षणिकत्वेऽपि वृत्त्यंशानां वृत्तिमतश्चैतन्यचमत्कारस्य टकोत्कीर्णस्यैवान्तःप्रतिभासमानत्वात्।
परमार्थ सत्व है, इसलिये वही वस्तु है' इसप्रकार वस्तुके अंशमें वस्तुत्वका अध्यास करके शुद्धनयके लोभसे ऋजुसूत्रनयके एकांतमें रहकर जो यह देखता-मानता है कि " जो करता है वही नहीं भोगता, दूसरा करता है और दूसरा भोगता है", उस जीवको मिथ्यादृष्टि ही देखना-मानना चाहिये; क्योंकि, वृत्त्यंशों (पर्यायों) का क्षणिकत्व होने पर भी, वृत्तिमान (पर्यायमान) जो चैतन्यचमत्कार (आत्मा) है वह तो टंकोत्कीर्ण (नित्य) ही अंतरंगमें प्रतिभासित होता है।
भावार्थ:-वस्तुका स्वभाव जिनवाणीमें द्रव्यपर्यायस्वरूप कहा है; इसलिये स्याद्वादसे ऐसा अनेकांत सिद्ध होता है कि पर्याय-अपेक्षासे तो वस्तु क्षणिक है और द्रव्य-अपेक्षासे नित्य है। जीव भी वस्तु होनेसे द्रव्यपर्यायस्वरूप है। इसलिये, पर्यायदृष्टिसे देखा जाये तो कार्य को करती है एक पर्याय, और भोगती है दूसरी पर्याय; जैसे मनुष्यपर्यायने शुभाशुभ कर्म किये और उनका फल देवादिपर्यायने भोगा। द्रव्यदृष्टिसे देखा जाये तो, जो करता है वही भोगता है; जैसे कि-मनुष्यपर्यायमें जो जीवद्रव्यने शुभाशुभ कर्म किये, उसी जीवद्रव्यने देवादि पर्यायमें स्वयं किये गये कर्मके फलको भोगा।
इसप्रकार वस्तुका स्वरूप अनेकांतरूप सिद्ध होने पर भी, जो जीव शुद्धनयको समझे बिना शुद्धनयके लोभसे वस्तुके एक अंशको ( –वर्तमान कालमें वर्तती पर्यायको) ही वस्तु मानकर ऋजुसूत्रनयके विषयका एकांत पकड़कर ऐसा मानता है कि 'जो करता है वही नहीं भोगता -अन्य भोगता है, और जो भोगता है वही नहीं करता-अन्य करता है', वह जीव मिथ्यादृष्टि है, अहँतके मतका नहीं है; क्योंकि, पर्यायोंका क्षणिकत्व होने पर भी, द्रव्यरूप चैतन्यचमत्कार तो अनुभवगोचर नित्य है; प्रत्यभिज्ञानसे ज्ञात होता है कि 'जो मैं बालक अवस्थामें था वही मैं तरुण अवस्थामें था और वही मैं वृद्ध अवस्थामें हूँ'। इसप्रकार जो कथंचित् नित्यरूपसे अनुभवगोचर है-स्वसंवेदनमें आता है और जिसे जिनवाणी भी ऐसा ही कहती है, उसे जो नहीं मानता वह मिथ्यादृष्टि है ऐसा समझना चाहिये।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४८५
(शार्दूलविक्रीडित) आत्मानं परिशुद्धमीप्सुभिरतिव्याप्तिं प्रपद्यान्धकै: कालोपाधिबलादशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परैः। चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य पृथुकैः शुद्धर्जुसूत्रे रतैरात्मा व्युज्झित एष हारवदहो निःसूत्रमुक्तेक्षिभिः।। २०८ ।।
श्लोकार्थ:- [ आत्मानं परिशुद्धम् ईप्सुभिः परैः अन्धकैः ] आत्माको सम्पूर्णतया शुद्ध चाहनेवाले अन्य किन्ही अंधोंने- [ पृथुकैः ] बालिशजनोंने (बौद्धोंने ) – [ कालउपाधि-बलात् अपि तत्र अधिकाम् अशुद्धिम् मत्वा ] कालकी उपाधिके कारण भी आत्मामें अधिक अशुद्धि मानकर [अतिव्याप्तिं प्रपद्य ] अतिव्याप्तिको प्राप्त होकर, [शुद्ध-ऋजुसूत्रे रतैः ] शुद्ध ऋजुसूत्रनयमें रत होते हुए [चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य ] चैतन्यको क्षणिक कल्पित करके, [अहो एषः आत्मा व्युज्झित:] इस आत्माको छोड़ दिया; [ निःसूत्र-मुक्ता-ईक्षिभिः हारवत् ] जैसे हारके सूत्र (डोरे) को न देखकर मात्र मोतियों की ही देखनेवाले हारको छोड़ देते हैं।
भावार्थ:-आत्माको सम्पूर्णतया शुद्ध मानने के इच्छुक बौद्धोंने विचार किया कि-" यदि आत्माको नित्य माना जाये तो नित्यमें कालकी अपेक्षा होती है इसलिये उपाधि लग जायेगी; इसप्रकार कालकी उपाधि लगनेसे आत्माको बड़ी अशुद्धि आ जायेगी और इससे अतिव्याप्ति दोष लगेगा।” इस दोषके भयसे उन्होंने शुद्ध ऋजुसूत्रनयका विषय जो वर्तमान समय है, उतना ही मात्र (-क्षणिक ही-) आत्माको माना और उसे (आत्माको) नित्यानित्यस्वरूप नहीं माना। इसप्रकार आत्माको सर्वथा क्षणिक माननेसे उन्हें नित्यानित्यस्वरूप-द्रव्यपर्यायस्वरूप सत्यार्थ आत्माकी प्राप्ति नहीं हुई; मात्र क्षणिक पर्यायमें आत्माकी कल्पना हुई; किन्तु वह आत्मा सत्यार्थ नहीं है।
मोतियोंके हारमें, डोरेमें अनेक मोती पिराये होते हैं; जो मनुष्य उस हार नामक वस्तुको मोतियों तथा दोरी सहित नहीं देखता-मात्र मोतियोंको ही देखता है, वह पृथक् पृथक् मोतियों को ही ग्रहण करता है, हारको छोड़ देता है; अर्थात् उसे हारकी प्राप्ति नहीं होती। इसीप्रकार जो जीव आत्माके एक चैतन्यभावको ग्रहण नहीं करते और समय समय पर वर्तनापरिणामरूप उपयोगकी प्रवृत्तिको देखकर आत्माको अनित्य कल्पित करके, ऋजुसूत्रनयका विषय जो वर्तमान समयमात्र क्षणिकत्व है उतना मात्र ही आत्माको मानते हैं (अर्थात जो जीव आत्माको द्रव्यपर्यायस्वरूप नहीं मानते–मात्र क्षणिक पर्यायरूप ही मानते हैं), वे आत्माको छोड़ देते हैं; अर्थात् उन्हें आत्माकी प्राप्ति नहीं होती। २०८।
अब इस काव्यमें आत्मानुभव करने को कहते हैं:
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४८६
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समयसार
( शार्दूलविक्रीडित )
कर्तुर्वेदयितुश्च युक्तिवशतो भेदोऽस्त्वभेदोऽपि वा कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव सञ्चिन्त्यताम्। प्रोता सूत्र इवात्मनीह निपुणैर्भेत्तुं न शक्या क्वचिच्चिच्चिन्तामणिमालिकेयमभितोऽप्येका चकास्त्वेव नः।। २०९ ।।
( रथोद्धता ) व्यावहारिकदृशैव केवलं कर्तृ कर्म च विभिन्नमिष्यते। निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते कर्त कर्म च सदैकमिष्यते।। २१० ।।
श्लोकार्थ:- [ कर्तुः च वेदयितुः युक्तिवशतः भेदः अस्तु वा अभेदः अपि ] कर्ताका और भोक्ताका युक्तिके वशसे भेद हो या अभेद हो, [ वा कर्ता च वेदयिता मा भवतु] अथवा कर्ता और भोक्ता दोनों न हों; [ वस्तु एव सञ्चिन्त्यताम् ] वस्तुका ही अनुभव करो। [निपुणैः सूत्रे इव इह आत्मनि प्रोता चित्- चिन्तामणि-मालिका क्वचित् भेत्तुं न शक्या ] जैसे चतुर पुरुषोंके द्वारा डोरेमें पिरोयी गई मणियोंकी माला भेदी नहीं जा सकती, उसी प्रकार आत्मामें पिरोई गई चैतन्यरूप चिंतामणिकी माला भी कभी किसी से भेदी नहीं जा सकती; [ इयम् एका ] ऐसी यह आत्मारूपी माला एक ही, [नः अभितः अपि चकास्तु एव ] हमें सम्पूर्णतया प्रकाशमान हो (अर्थात् नित्यत्व, अनित्यत्व आदिके विकल्प छूट कर हमें आत्माका निर्विकल्प अनुभव हो ) ।
भावार्थ:-आत्मा वस्तु होनेसे द्रव्यपर्यायात्मक है; इसलिये उसमें चैतन्यके परिणमनस्वरूप पर्यायके भेदोंकी अपेक्षासे तो कर्ता-भोक्ताका भेद है और चिन्मात्र द्रव्यकी अपेक्षासे भेद नहीं है; इसप्रकार भेद - अभेद हो अथवा चिन्मात्र अनुभवनमें भेद-अभेद क्यों कहना चाहिये ? ( आत्माको ) कर्ता-भोक्ता ही न कहना चाहिये, वस्तुमात्र का अनुभव करना चाहिये। जैसे मणियोंकी मालामें मणियोंकी और डोरेकी विवक्षासे भेद–अभेद है परंतु मालामात्रके ग्रहण करने पर भेदाभेद - विकल्प नहीं है, इसीप्रकार आत्मामें पर्यायोंकी और द्रव्यकी विवक्षासे भेद - अभेद है परंतु आत्मवस्तुमात्रका अनुभव करने पर विकल्प नहीं है। आचार्य देव कहते हैं कि - ऐसा निर्विकल्प आत्माका अनुभव हमे प्रकाशमान हो । २०९ ।
अब आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ :- [ केवलं व्यावहारिकदृशा एव कर्तृ च कर्म विभिन्नम् इष्यते ] केवल व्यावहारिक दृष्टिसे ही कर्ता और कर्म भिन्न माने जाते हैं;
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४८७
जह सिप्पिओ दु कम्मं कुव्वदि ण य सो दु तम्मओ होदि। तह जीवो वि य कम्मं कुव्वदि ण य तम्मओ होदि।। ३४९ ।। जह सिप्पिओ दु करणेहिं कुव्वदि ण सो दु तम्मओ होदि। तह जीवो करणेहिं कुव्वदि ण य तम्मओ होदि।। ३५० ।। जह सिप्पिओ दु करणाणि गिण्हदि ण सो दु तम्मओ होदि। तह जीवो करणाणि दु गिण्हदि ण य तम्मओ होदि।। ३५१ ।। जह सिप्पि दु कम्मफलं भुंजदि ण य सो दु तम्मओ होदि। तह जीवो कम्मफलं भुंजदि ण य तम्मओ होदि।। ३५२ ।। एवं ववहारस्स दु वत्तव्वं दरिसणं समासेण। सुणु णिच्छयस्स वयणं परिणामकदं तु जं होदि।। ३५३ ।।
[ निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते ] यदि निश्चयसे वस्तुका विचार किया जाये, [ कर्तृ च कर्म सदा एकम् इष्यते ] तो कर्ता और कर्म सदा एक माना जाता है।
भावार्थ:-केवल व्यवहार-दृष्टिसे ही भिन्न द्रव्योंमें कर्तृत्व-कर्मत्व माना जाता है; निश्चय-दृष्टिसे तो एक ही द्रव्यमें कर्तृत्व-कर्मत्व घटित होता है। २१० ।
अब इस कथनको दृष्टांत द्वारा गाथामें कहते हैं:
ज्यों शिल्पि कर्म करे परंतु वो नहीं तन्मय बने । त्यों कर्म को आत्मा करे पर वो नहीं तन्मय बने ।। ३४९ ।। ज्यों शिल्पि करणों से करे पर वो नहीं तन्मय बने । त्यों जीव करणों से करे पर वो नहीं तन्यम बने ।। ३५० ।। ज्यों शिल्पि करण आहे परंतु वो नहीं तन्मय बने । त्यों जीव करणोंको ग्रहे पर वो नहीं तन्मय बने ।। ३५१ ।। शिल्पी करमफल भोगता, पर वो नहीं तन्मय बने । त्यों जवि करमफल भोगता, पर वो नहीं तन्मय बने ।। ३५२।। -इस भाँति मत व्यवहारका संक्षेपसे वक्तव्य है। सुनलो वचन परमार्थका, परिणामविषयक जो हि है ।। ३५३ ।।
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समयसार
४८८
जह सिप्पिओ दु चेटुं कुव्वदि हवदि य तहा अणण्णो से। तह जीवो वि य कम्मं कुवदि हवदि य अणण्णो से।। ३५४ ।। जह चेटुं कुव्वंतो दु सिप्पिओ णिच्चदुक्खिओ होदि। तत्तो सिया अणण्णो तह चेट्ठतो दुही जीवो।। ३५५ ।।
यथा शिल्पिकस्तु कर्म करोति न च स तु तन्मयो भवति। तथा जीवोऽपि च कर्म करोति न च तन्मयो भवति।। ३४९ ।। यथा शिल्पिकस्तु करणैः करोति न च स तु तन्मयो भवति। तथा जीवः करणैः करोति न च तन्मयो भवति।। ३५० ।। यथा शिल्पिकस्तु करणानि गृह्णाति न च स तु तन्मयो भवति। तथा जीवः करणानि तु गृह्णाति न च तन्मयो भवति।। ३५१ ।।
शिल्पी करे चेष्टा अवरु, उस ही से शिल्पी अनन्य है। त्यों जीव कर्म करे अवरु, उस ही से जीव अनन्य है ।। ३५४ ।। चेष्टित हुआ शिल्पी निरन्तर दुखित जैसा होय है । अरु दुखसे शिल्पी अनन्य, त्यों जीव चेष्टमान दुखी बने ।। ३५५ ।।
गाथार्थ:- [ यथा] जैसे [ शिल्पिकः तु] शिल्पी (-स्वर्णकार-सोनी आदि कलाकार) [ कर्म] कुंडल आदि कर्म (कार्य) [ करोति] करता है [ सः तु] परंतु वह [ तन्मयः न च भवति] तन्मय ( उसमय, कुंडकादिमय) नहीं होता, [ तथा] उसीप्रकार [जीवः अपि च] जीव भी [ कर्म ] पुण्यपापादि पुद्गल कर्म [ करोति] करता है [ न च तन्मयः भवति ] परंतु तन्मय [ पुद्गलकर्ममय ] नहीं होता। [ यथा] जैसे [ शिल्पिकः तु] शिल्पी [ करणैः ] हथौड़ा आदि करणों ( साधनों) के द्वारा [ करोति] (कर्म) करता है [ सः तु] परंतु वह [ तन्मयः न च भवति] तन्मय (हथौड़ा आदि करणमय) नहीं होता, [ तथा] उसीप्रकार [ जीवः ] जीव [करणै: ] (मन-वचन-कायरूप) करणों के द्वारा [ करोति] (कर्म) करता है [ न च तन्मयः भवति] परंतु तन्मय (मन-वचन-कायरूप करणमय) नहीं होता। [यथा] जैसे [ शिल्पिक: तु] शिल्पी [ करणानि ] करणोंको [ गृहाति] ग्रहण करता है [ स: तु] परंतु वह [ तन्मयः न च भवति ] तन्मय नहीं होता, [ तथा ] उसीप्रकार [ जीवः ] जीव [करणानि तु] करणोंको [गृह्णाति] ग्रहण करता है [ न च तन्मयः भवति] परंतु तन्मय (करणमय) नहीं होता।
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४८९
यथा शिल्पी तु कर्मफलं भुंक्ते न च स तु तन्मयो भवति। तथा जीवः कर्मफलं भुंक्त न च तन्मयो भवति।। ३५२ ।। एवं व्यवहारस्य तु वक्तव्यं दर्शनं समासेन। शृणु निश्चयस्य वचनं परिणामकृतं तु यद्भवति।। ३५३ ।। यथा शिल्पिकस्तु चेष्टां करोति भवति च तथानन्यस्तस्याः। तथा जीवोऽपि च कर्म करोति भवति चानन्यस्तस्मात्।। ३५४ ।। यथा चेष्टां कुर्वाणस्तु शिल्पिको नित्यदुःखितो भवति। तस्माच्च स्यादनन्यस्तथा चेष्टमानो दुःखी जीवः ।। ३५५ ।।
यथा खलु शिल्पी सुवर्णकारादिः कुण्डलादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति,
[ यथा] जैसे [ शिल्पी तु] शिल्पी [ कर्मफलं] कुंडल आदि कर्मके फलको ( खानपानादिको) [ भुंक्ते] भोगता है [ सः तु] परंतु वह [ तन्मयः न च भवति] तन्मय (खानपानादिमय) नहीं होता, [ तथा] उसीप्रकार [जीवः] जीव [कर्मफलं] पुण्यपापादि पुद्गलकर्मके फलको (पुद्गलपरिणामरूप सुखदुःखादिको) [ भुंक्ते] भोगता है [ न च तन्मयः भवति ] परंतु तन्मय (पुद्गलपरिणामरूप सुखदुःखादिमय ) नहीं होता।
[ एवं तु] इसप्रकार तो [व्यवहारस्य दर्शनं] व्यवहारका मत [ समासेन] संक्षेपसे [वक्तव्यम् ] कहने योग्य है। [ निश्चयस्य वचनं ] ( अब) निश्चयका वचन [ शृण] सुनों [ यत् ] जो कि [ परिणामकृतं तु भवति ] परिणाम विषयक है।
[यथा] जैसे [ शिल्पिक: तु] शिल्पी [चेष्टां करोति ] चेष्टारूप कर्म (अपने परिणामरूप कर्मको) करता है [ तथा च] और [ तस्याः अनन्यः भवति ] उससे अनन्य है, [ तथा] उसीप्रकार [जीवः अपि च] जीव भी [ कर्म करोति] ( अपने परिणामरूप) कर्मको करता है [च ] और [ तस्मात् अनन्यः भवति] उससे अनन्य है। [ यथा] जैसे [ चेष्टां कुर्वाणः] चेष्टारूप कर्म करता हुआ [ शिल्पिक: तु] शिल्पी [ नित्यदुःखितः भवति] नित्य दुःखी होता है [ तस्मात् च] और उससे (दुःखसे) [अनन्यः स्यात् ] अनन्य है, [ तथा] उसीप्रकार [ चेष्टमान:] चेष्टा करता हुआ (अपने परिणामरूप कर्मको करता हुआ) [ जीवः ] जीव [ दुःखी] दुःखी होता है (और दुःखसे अनन्य है)।
टीका:-जैसे--शिल्पी (स्वर्णकार) आदि कुंडल आदि जो परद्रव्य परिणामात्मक कर्म करता है,
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४९०
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करोति, हस्तकुट्टकादीनि
हस्तकुट्टकादिभिः परद्रव्यपरिणामात्मकैः करणैः परद्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि गृह्णाति ग्रामादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कुण्डलादिकर्मफलं भुंक्ते च, नत्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति, ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः। तथात्मापि पुण्यपापादिपुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति, कायवाङ्मनोभिः पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकैः करणै: करोति, कायवाङ्मनांसि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि गृह्णाति, सुखदुःखादिपुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं पुण्यपापादिकर्मफलं भुंक्ते च, नत्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति; ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः। यथा च स एव शिल्पी चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलं भुंक्ते च, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति; ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः। तथात्मापि चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं
हथौड़ा आदि परद्रव्यपरिणामात्मक करणों के द्वारा करता है, हथौड़ा आदि जो परद्रव्यपरिणामात्मक करणों को ग्रहण करता है और कुंडल आदि कर्मका जो ग्रामादि परद्रव्यपरिणामात्मक फल उसको भोगता है, परंतु अनेकद्रव्यत्व के कारण उनसे (कर्म, करण आदिसे ) अन्य होनेसे तन्मय ( कर्मकरणादिमय) नहीं होता; इसलिये निमित्तनैमित्तिकभावमात्रसे ही वहाँ कर्तृ - कर्मत्वका और भोक्ता - भोग्यत्वका व्यवहार है; इसीप्रकार - आत्मा भी पुण्यपाप आदि जो पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक (-पुद्गलद्रव्यके परिणामस्वरूप) कर्मको करता है, काय - वचन - मनरूप पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक करणोंके द्वारा करता है, काय - वचन - मनरूप पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक करणोंको ग्रहण करता है और पुण्यपाप आदि कर्मके सुखदुःखादि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक फलको भोगता है, परंतु अनेकद्रव्यत्वके कारण उसने अन्य होनेसे तन्मय नहीं होता; इसलिये निमित्त-नैमित्तिकभावमात्रसे ही वहाँ कर्तृत्व- कर्मत्व और भोक्ता-भोग्यत्वका व्यवहार है।
और जैसे- वही शिल्पी करनेका इच्छुक होता हुआ, चेष्टारूप ( अर्थात् कुंडल आदि करनेके अपने परिणामरूप और हस्तादिके व्यापाररूप) जो स्वपरिणामात्मक कर्म को करता है तथा दुःखस्वरूप ऐसा जो चेष्टारूप कर्मके स्वपरिणामात्मक फलको भोगता है, और एकद्रव्यत्वके कारण उनसे ( कर्म और कर्मफलसे) अनन्य होनेसे तन्मय (कर्ममय और कर्मफलमय ) है; इसलिये परिणाम - परिणामीभावसे वहीं कर्ताकर्मपनका और भोक्ता - भोग्यपनका निश्चय है; उसीप्रकार - आत्मा भी करनेका इच्छुक होता हुआ, चेष्टारूप ( - रागादिपरिणामरूप और प्रदेशोंके व्यापाररूप) ऐसा जो आत्मपरिणामात्मक फल उसको करता है, तथा दुःखस्वरूप ऐसा जो
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चेष्टारूपकर्मफलं भुंक्ते च एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति; ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः।
( नर्दटक )
ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः
स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत्। न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः ।। २९९ ।। (पृथ्वी)
बहिर्लुठति यद्यपि स्फुटदनन्तशक्तिः स्वयं तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्त्वन्तरम्। स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्त्विष्यते स्वभावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिश्यते ।। २१२ ।।
४९१
चेष्टारूप कर्मके आत्मपरिणामात्मक फल उसको भोगता है, और एकद्रव्यत्वके कारण उसने अनन्य होनेसे तन्मय है; इसलिये परिणाम - परिणामीभावसे वहीं कर्ता - कर्मपनका और भोक्ता - भोग्यपनका निश्चय है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ ननु परिणामः एव किल विनिश्चयतः कर्म ] वास्तवमें परिणाम ही निश्चयसे कर्म हैं, और [ सः परिणामिनः एव भवेत्, अपरस्य न भवति ] परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामीका ही होता है, अन्यका नहीं ( क्योंकि परिणाम अपने अपने द्रव्यके आश्रित हैं, अन्यके परिणामका अन्य आश्रय नहीं होता ); [ इह कर्म कर्तृशून्यम् न भवति ] और कर्म कर्ता के बिना नहीं होता, [ च वस्तुनः एकतया स्थितिः इह न ] तथा वस्तुकी एकरूप ( कूटस्थ ) स्थिति नहीं होती ( क्योंकि वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप होनेसे सर्वथा नित्यत्व बाधासहित है); [ ततः तद् एव कर्तृ भवतु ] इसलिये वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्मका कर्ता है ( - यह निश्चय - सिद्धांत है ) । २११ ।
अब आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते है:
श्लोकार्थ:- [स्वयं स्फुटत्-अनन्त-शक्तिः] जिसको स्वयं अनंत शक्ति प्रकाशमान है ऐसी वस्तु [ बहि: यद्यपि लुठति ] अन्य वस्तुके बहार यद्यपि लोटती है [ तथापि अन्य-वस्तु अपरवस्तुनः अन्तरम् न विशति ] तथापि अन्य वस्तु अन्य वस्तुके भीतर प्रवेश नहीं करती, [ यतः सकलम् एव वस्तु स्वभाव - नियतम् इष्यते ] क्योंकि समस्त वस्तुएँ अपने अपने स्वभावमें निश्चित हैं ऐसा माना जाता है।
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४९२
( रथोद्धता) वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत्। निश्चयोऽयमपरोऽपरस्य क: किं करोति हि बहिर्जुठन्नपि।। २१३ ।।
(आचार्यदेव कहते हैं कि-) [ इह ] ऐसा होने पर भी, [ मोहितः] मोहित जीव, [ स्वभाव-चलन-आकुल: ] अपने स्वभावसे चलित होकर आकुल हता हुआ, [ किम् क्लिश्यते ] क्यों क्लेश पाता है ?
भावार्थ:-वस्तुस्वभाव तो नियमसे ऐसा है कि किसी वस्तु में कोई वस्तु नहीं मिलती। ऐसा होने पर भी, मोही प्राणी, 'परज्ञेयोंके साथ अपने पारमार्थिक संबंध है' ऐसा मानकर, क्लेश पाता है, वह महा अज्ञान है। २१२।
पुनः आगेकी गाथाओंका सूचक दूसा काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ इह च ] इस लोकमें [ येन एकम् वस्तु अन्यवस्तुनः न ] एक वस्तु अन्य वस्तुकी नहीं है, [ तेन खलु वस्तु तत् वस्तु] इसलिये वास्तवमें वस्तु वस्तु ही है- [अयम् निश्चयः ] यह निश्चय है। [क: अपर: ] ऐसा होनेसे कोई अन्य वस्तु [ अपरस्य बहि: लुठन् अपि हि] अन्य वस्तुके बाहर लोटती हुए भी [ किं करोति ] उसका क्या कर सकती है ?
भावार्थ:-वस्तुस्वभाव तो ऐसा है कि एक वस्तु अन्य वस्तुको नहीं बदला सकती। यदि ऐसा न हो तो वस्तुका वस्तुत्व ही न रहे। इसप्रकार जहाँ एक वस्तु अन्यको परिणमित नहीं कर सकती वहाँ एक वस्तुने अन्यका क्या किया ? कुछ नहीं। चेतन-वस्तुके साथ पुद्गल एकक्षेत्रावगाहरूपसे रह रहे हैं तथापि वे चेतनको जड़ बनाकर अपनेरूपमें परिणमित नहीं कर सके; तब फिर पुद्गलने चेतनका क्या किया ? कुछ भी नहीं।
इससे यह समझना चाहिये कि-व्यवहारसे परद्रव्योंका और आत्माका ज्ञेयज्ञायक संबंध होने पर भी परद्रव्य ज्ञायकका कुछ भी नहीं कर सकते और ज्ञायक परद्रव्यका कुछ भी नहीं कर सकता। २१३।
अब, इसी अर्थको दृढ़ करनेवाला तीसरा काव्य कहते हैं:
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४९३
( रथोद्धता) यत्तु वस्तु कुरुतेऽन्यवस्तुनः किञ्चनापि परिणामिनः स्वयम्। व्यावहारिकदृशैव तन्मतं नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात्।। २१४ ।।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि। तह जाणगो दु ण परस्स जाणगो जाणगो सो दु।। ३५६ ।।
श्लोकार्थ:- [ वस्तु] एक वस्तु [ स्वयम् परिणामिनः अन्य-वस्तुनः] स्वयं परिणमित होती हुई अन्य वस्तुका [ किञ्चन अपि कुरुते] कुछ भी कर सकती है[ यत् तु] ऐसा जो माना जाता है, [तत् व्यावहारिक-दृशा एव मतम् ] वह व्यवहारदृष्टिसे ही माना जाता है। [ निश्चयात् ] निश्चयसे [इह अन्यत् किम् अपि न अस्ति] इस लोकमें अन्य वस्तुको अन्य वस्तु कुछ भी नहीं है ( अर्थात् एक वस्तुको अन्य वस्तु के साथ कुछ भी संबंध नहीं ) है।
भावार्थ:-एक द्रव्यके परिणमनमें अन्य द्रव्यको निमित्त देखकर यह कहना कि 'अन्य द्रव्यने यह किया', वह यह व्यवहारनयकी दृष्टिसे ही है; निश्चयसे तो उस द्रव्यमें अन्य द्रव्यने कुछ भी नहीं किया है। वस्तु पर्यायस्वभावके कारण वस्तुका अपना ही एक अवस्थासे दूसरी अवस्थारूप परिणमन होता है; उसमें अन्य वस्तु अपना कुछ भी नहीं मिला सकती।
इससे यह समझना चाहिये कि-परद्रव्यरूप ज्ञेय पदार्थ उनके भावसे परिणमित होते हैं और ज्ञायक आत्मा अपने भावरूप परिणमन करता है; वे एक दूसरे का परस्पर कुछ नहीं कर सकते। इसलिये यह व्यवहार से ही माना जाता है कि 'ज्ञायक परद्रव्योंको जानता हैं' निश्चयसे ज्ञायक तो बस ज्ञायक ही है। २१४ ।
(खड़िया मिट्टी अर्थात् पोतनेका चूना या कलई तो खड़िया मिट्टी ही है' यह निश्चय है; 'खड़िया-स्वभावसे परिणमित खड़िया दीवाल-स्वभावरूप परिणमित दीवाल को सफेद करती है' यह कहना भी व्यवहार कथन है। इसीप्रकार ‘ज्ञायक तो ज्ञायक ही है' यह निश्चय है: 'जायकस्वभावरूप परिणमित जायक परद्रव्यस्वभारू परद्रव्योंको जानता है' यह कहना भी व्यवहारकथन है।) ऐसे निश्चय-व्यवहार कथनको अब गाथाओं द्वारा दृष्टांतपूर्वक स्पष्ट कहते हैं:
ज्यों सेटिका नहिं अन्यकी, है सेटिका बस सेटिका । ज्ञायक नहीं त्यों अन्यका, ज्ञायक अहो ज्ञायक तथा ।। ३५६ ।।
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४९४
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि। तह पासगो दु ण परस्स पासगो पासगो सो दु।।३५७ ।। जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि। तह संजदो दु ण परस्स संजदो संजदो सो दु।। ३५८ ।। जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि। तह दंसणं दु ण परस्स दंसणं दंसणं तं तु।। ३५९ ।। एवं तु णिच्छयणयस्स भासिदं णाणदंसणचरित्ते। सुणु ववहारणयस्स य वत्तव्वं से समासेण।।३६० ।। जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण। तह परदव्वं जाणदि णादा वि सएण भावेण।। ३६१ ।। जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण। तह परदव्वं पस्सदि जीवो वि सएण भावेण ।। ३६२ ।।
ज्यों सेटिका नहिं अन्य की, है सेटिका बस सेटिका । दर्शक नहीं त्यों अन्यका, दर्शक अहो दर्शक तथा ।। ३५७।। ज्यों सेटिका नहिं अन्य की , है सेटिका बस सेटिका । संयत नहीं त्यों अन्यका, संयत अहो संयत तथा ।। ३५८ ।। ज्यों सेटिका नहिं अन्य की, है सेटिका बस सेटिका । दर्शन नहीं त्यों अन्यका , दर्शन अहो दर्शन तथा ।। ३५९ ।। यों ज्ञान-दर्शन-चरितविषयक कथन नय परमार्थका । सुनलो वचन संक्षेपसे, इस विषयमें व्यवहारका ।। ३६०।। ज्यों श्वेत करती सेटिका, परद्रव्य आप स्वभावसे । ज्ञाता भी त्यों ही जानता, परद्रव्यको निज भावसे ।। ३६१ । ज्यों श्वेत करती सेटिका, परद्रव्य आप स्वभावसे । आत्मा भी त्यों ही देखता, परद्रव्यको निज भाव से ।। ३६२।।
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४९५
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण। तह परदव्वं विजहदि णादा वि सएण भावेण।। ३६३ ।। जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण। तह परदव्वं सद्दहदि सम्मदिट्ठी सहावेण।। ३६४ ।। एवं ववहारस्स दु विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते। भणिदो अण्णेसु वि पज्जएसु एमेव णादव्वो।। ३६५ ।।
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति। तथा ज्ञायकवस्तु न परस्य ज्ञायको ज्ञायक: स तु।। ३५६ ।। यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति। तथा दर्शकस्तु न परस्य दर्शको दर्शकः स तु।। ३५७ ।।
ज्यों श्वेत करती सेटिका, परद्रव्य आप स्वभावसे । ज्ञाता भी त्यों ही त्यागता, परद्रव्यको निज भाव से ।। ३६३ ।। ज्यों श्वेत करती सेटिका, परद्रव्य आप स्वभावसे । सुदृष्टि त्यों ही श्रद्धता, परद्रव्यको निज भाव से ।। ३६४।। यों ज्ञान-दर्शन-चरितमें निर्णय कहा व्यवहारका । अरु अन्य पर्यय विषयमें भी इस प्रकार हि जानना ।। ३६५ ।।
गाथार्थ:- ( यद्यपि व्यवहारसे परद्रव्योंका और आत्माका ज्ञेय-ज्ञायक , दृश्यदर्शक , त्याज्य-त्याजक इत्यादि संबंध है, तथापि निश्चयसे तो इसप्रकार है:-) [ यथा] जैसे [ सेटिका तु] खड़िया मिट्टी या पोतनेका चूना या कलई [परस्य न] परको (-दीवाल आदिकी) नहीं है, [ सेटिका] कलई [ सा च सेटिका भवति ] वह तो कलई ही है, [ तथा] उसीप्रकार [ ज्ञायक: तु] ज्ञायक (जाननेवाला , आत्मा) [ परस्य न] परका (परद्रव्यका) नहीं है, [ज्ञायक: ] ज्ञायक [ सः तु ज्ञायक: ] वह तो ज्ञायक ही है। [ यथा] जैसे [ सेटिका तु] कलई [ परस्य न] परकी नहीं है, [ सेटिका ] कलई [ सा च सेटिका भवति] वह तो कलई ही है, [ तथा] उसीप्रकार [ दर्शकः तु] दर्शक ( देखनेवाला आत्मा) [ परस्य न ] परका नहीं है, [ दर्शक: ] दर्शक [ सः तु दर्शक:] वह तो दर्शक ही है।
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४९६
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति। तथा संयतस्तु न परस्य संयतः संयतः स तु।। ३५८ ।। यथा सेटिका तु न परस्स सेटिका सेटिका च सा भवति। तथा दर्शनं तु न परस्य दर्शनं दर्शनं तत्तु।। ३५९ ।। एवं तु निश्चयनयस्य भाषितं ज्ञायदर्शनचरित्रे। शृणु व्यवहारनयस्य च वक्तव्यं तस्य समासेन।।३६० ।। यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन। तथा परद्रव्यं जानाति ज्ञातापि स्वकेन भावेन।। ३६१ ।। यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन। तथा परद्रव्यं पश्यति जीवोऽपि स्वकेन भावेन।। ३६२ ।। यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन। तथा परद्रव्यं विजहाति ज्ञातापि स्वकेन भावेन।। ३६३ ।।
[ यथा] जैसे [ सेटिका तु] कलई [परस्य न] परकी (-दीवाल आदिकी) नहीं है, [ सेटिका] कलई [ सा च सेटिका भवति] वह तो कलई ही है, [ तथा ] उसीप्रकार [ संयतः तु] संयत (त्याग करनेवाला , आत्मा) [ परस्य न] परका (परद्रव्यका) नहीं है, [ संयतः] संयत [ सः तु संयतः ] यह तो संयत ही है। [ यथा] जैसे [ सेटिका तु] कलई [ परस्य न] परकी नहीं है, [ सेटिका ] कलई [ सा च सेटिका भवति] वह तो कलई ही है, [ तथा] उसीप्रकार [ दर्शनं तु] दर्शन अर्थात् श्रद्धान [ परस्य न] परका नहीं है, [ दर्शनं तत् तु दर्शनम् ] दर्शन वह तो दर्शन ही है अर्थात् श्रद्धान वह तो श्रद्धान ही है।
[एवं तु] इसप्रकार [ ज्ञानदर्शनचरित्रे ] ज्ञान-दर्शन-चारित्रमें [निश्चयनयस्य भाषितम् ] निश्चयनयका कथन है। [ तस्य च ] और उस सम्बन्धमें [ समासेन ] संक्षेपसे [ व्यवहारनयस्य वक्तव्यं ] व्यवहारनयका कथन [ शृणु ] सुनो।
[ यथा] जैसे [ सेटिका] कलई [आत्मनः स्वभावेन] अपने स्वभावसे [ परद्रव्यं ] (दीवाल आदि) परद्रव्यको [ सेटियति] सफेद करती है, [तथा] उसीप्रकार [ज्ञाता अपि] ज्ञाता भी [ स्वकेन् भावेन ] अपने स्वभावसे [परद्रव्यं] परद्रव्यको [जानाति] जानता है। [यथा] जैसे [ सेटिका] कलई [आत्मनः स्वभावेन ] अपने स्वभावसे [ परद्रव्यं ] परद्रव्यको [ सेटयति ] सफेद करती है, [ तथा ] उसीप्रकार [ जीव: अपि] जीव भी [ स्वकेन भावेन ] अपने स्वभावसे [ परद्रव्यं ] परद्रव्यको [ पश्यति] देखता है। [ यथा] जैसे [ सेटिका कलई [आत्मनः स्वभावेन] अपने स्वभावसे [ परद्रव्यं ] परद्रव्यको [ सेटयति] सफेद करती है, [ तथा ] उसीप्रकार [ ज्ञाता अपि] ज्ञाता भी [ स्वकेन भावेन ] अपने स्वभावसे [ परद्रव्यं] परद्रव्यको [ विजहाति ] त्यागता है।
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४९७
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन। तथा परद्रव्यं श्रद्धत्ते सम्यग्दृष्टिः स्वभावेन।। ३६४ ।। एवं व्यवहारस्य तु विनिश्चयो ज्ञानदर्शनचरित्रे। भणितोऽन्येष्वपि पर्यायेषु एवमेव ज्ञातव्यः।। ३६५ ।।
सेटिकात्र तावच्छेतगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम्। तस्य तु व्यवहारेण श्वैत्यं कुड्यादिपरद्रव्यम्। अथात्र कुड्यादेः परद्रव्यस्य श्वैत्यस्य श्वेतयित्री सेटिका किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यते-यदि सेटिका कुड्यादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति, यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति सेटिका -कुड्यादेर्भवन्ती कुड्यादिरेव भवेत; एवं सति सेटिकायाः स्वद्रव्योच्छेदः। न च द्रव्यान्तरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाव्यस्यास्त्युच्छेदः। ततो न भवति सेटिका -- कुड्यादेः। यदि न भवतिसेटिका कुड्यादेस्तर्हि कस्य सेटिका भवति ? सेटिकाया एव सेटिका भवति। ननु
[ यथा] जैसे [ सेटिका] कलई [आत्मनः स्वभावेन] अपने स्वभावसे [ परद्रव्यं] परद्रव्यको [ सेटयति] सफेद करती है, [ तथा] उसीप्रकार [ सम्यग्दृष्टि:] सम्यग्दृष्टि [ स्वभावेन] अपने स्वभावसे [ परद्रव्यं] परद्रव्यको [ श्रद्धत्ते ] श्रद्धान करता है। [ एवं तु] इसप्रकार [ ज्ञानदर्शनचरित्रे ] ज्ञान-दर्शन-चारित्र में [ व्यवहारनयस्य विनिश्चयः ] व्यवहारनयका निर्णय [भणित:] कहा है; [अन्येषु पर्यायेषु अपि] अन्य पर्यायोंमें भी [ एवम् एव ज्ञातव्यः] इसीप्रकार जानना चाहिये।
टीका:-इस जगतमें कलई है वह श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है। दीवार-आदि परद्रव्य व्यवहारसे उस कलईका श्वैत्य है (अर्थात् कलई द्वारा श्वेत किये जाने योग्य पदार्थ है)। अब , 'श्वेत करनेवाली कलई , श्वेत की जाने योग्य जो दीवार आदि परद्रव्य की है या नहीं?' इसप्रकार उन दोनों के तात्त्विक ( पारमार्थिक) संबंधका यहाँ विचार किया जाता है:-यदि कलई दीवार-आदि परद्रव्यकी हो तो क्या हो वह प्रथम विचार करते हैं: ‘जिसका जो होता है वह वही होता है, जैसे आत्माका ज्ञान होने से ज्ञान वह आत्मा ही है ( पृथक द्रव्य नहीं);'-ऐसा तात्त्विक संबंध जीवित ( अर्थात् विद्यमान) होनेसे, कलई यदि दीवार-आदिकी हो तो कलई वह दीवार आदि ही होगी ( अर्थात् कलई दीवार-आदिस्वरूप ही होना चाहिये, दीवारआदिसे पृथक द्रव्य नहीं होना चाहिये); ऐसा होनेपर, कलई स्वद्रव्यका उच्छेद ( नाश) हो जायेगा। परंतु द्रव्यका उच्छेद तो नहीं होता, क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपमें सक्रमण होनेका तो पहले ही निषेध किया है। इससे ( यह सिद्ध हुआ कि) कलई दीवार-आदिकी नहीं है। (अब आगे और विचार करते हैं:) यदि कलई दीवार-आदिकी नहीं, तो कलई किसकी है ? कलई की ही कलई है।
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कतराऽन्या सेटिका सेटिकायाः यस्या: सेटिका भवति ? न खल्वन्या सेटिका सेटिकायाः किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ । किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि । तर्हि न कस्यापि सेटिका, सेटिका सेटिकैवेति निश्चयः । यथायं दृष्टान्तस्तथायं दार्ष्टान्तिकः-चेतयितात्र तावद् ज्ञानगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम् । तस्य तु व्यवहारेण ज्ञेयं पुद्गलादिपरद्रव्यम्। अथात्र पुद्गलादेः परद्रव्यस्य ज्ञेयस्य ज्ञायकश्चेतयिता किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यते - यदि चेतयिता पुद्गलादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति चेतयिता पुद्गलादेर्भवन् पुद्गलादिरेव भवेत्; एवं सति चेतयितुः स्वद्रव्योच्छेदः। न च द्रव्यान्तरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः। ततो न भवति चेतयिता पुद्गलादेः। यदि न भवति चेतयिता पुद्गलादेस्तर्हि कस्य चेतयिता भवति ? चेतयितुरेव चेतयिता भवति । ननु कतरोऽन्यश्चेतयिता चेतयितुर्यस्य चेतयिता भवति ? न खल्वन्यश्चेतयिता चेतयितुः, किन्तु किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि।
स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ।
(इस) कलई से भिन्न ऐसी दूसरी कौन सी कलई है कि जिसकी (यह ) कलई है ? (इस) कलई से भिन्न अन्य कोई कलई नहीं है, किन्तु वे दो स्व-स्वामीरूप अंश ही हैं। यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशोंके व्यवहारसे क्या साध्य है ? कुछ भी साध्य नहीं है । तब फिर कलई किसीकी नहीं है, कलई कलई ही है - यह निश्चय है । जैसे यह दृष्टांत है, उसीप्रकार यह दृात है: - इस जगतमें चेतयिता है ( चेतनेवाला अर्थात आत्मा) वह ज्ञानगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है। पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारसे उस चेतयिताका ( आत्माका ) ज्ञेय ( - ज्ञाता होने योग्य ) । अब, ज्ञायक ( - जाननेवाला) चेतयिता, ज्ञेय जो पुद्गलादि परद्रव्य उनका है या नहीं ? ' - इसप्रकार यहाँ उन दोनोंके तात्त्विक संबंधका विचार करते हैं:- यदि चेतयिता पुद्गलादिका हो तो क्या हो इसका प्रथम विचार करते हैं: ‘जिसका जो होता है वह वही होता है, जैसे आत्माका ज्ञान होनेसे ज्ञान वह आत्मा ही है; ' - ऐसा तात्त्विक संबंध जीवित ( विद्यमान ) होनेसे, चेतयिता यदि पुद्गलादिका हो तो चेतयिता पुद्गलादि ही होवे ( अर्थात् चेतयिता पुद्गलादि स्वरूप ही होना चाहिये, पुद्गलादिसे भिन्न द्रव्य नहीं होना चाहिये ); ऐसा होने पर, चेतयिताके स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायेगा। किन्तु द्रव्यका उच्छेद तो नहीं होता, क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपमें सक्रमण होनेका तो पहले ही निषेध कर दिया है। इससे (यह सिद्ध हुआ कि ) चेतयिता पुद्गलादिका नहीं है । ( आगे और विचार करते हैं:) यदि चेतयिता पुद्गलादि नहीं है तो किसका है ? चेतयिताका ही चेतयिता है। (इस) चेतयितासे भिन्न दूसरा ऐसा कौन सा चेतयिता है कि जिसका (यह ) चेतयिता है? (इस) चेतयितासे भिन्न अन्य कोई चेतयिता नहीं है, किन्तु वे दो स्वस्वामी अंश ही है। यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशोंके व्यवहारसे क्या साध्य है ? कुछ भी साध्य नहीं है।
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४९९
तर्हि न कस्यापि ज्ञायकः, ज्ञायको ज्ञायक एवेति निश्चयः।
किञ्च सेटिकात्र तावच्छेतगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम्। तस्य तु व्यवहारेण श्वैत्यं कुड्यादिपरद्रव्यम्। अथात्र कुड्यादे: परद्रव्यस्य श्वैत्यस्य श्वेतयित्री सेटिका किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यते-यदि सेटिका कुड्यादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति सेटिका कुड्यादेर्भवन्ती कुड्यादिरेव भवेत; एवं सति सेटिकायाः स्वद्रव्योच्छेदः। न च द्रव्यान्तरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाव्यस्यास्त्युच्छेदः। ततो न भवति सेटिका - कुड्यादेः। यदि न भवति सेटिका कुड्यादेस्तर्हि कस्य सेटिका भवति ? सेटिकाया एव सेटिका भवति। ननु कतराऽन्या सेटिका सेटिकायाः यस्या: सेटिका भवति ? न खल्वन्या सेटिका सेटिकाया:, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ।
तब फिर ज्ञायक किसीका नहीं है, ज्ञायक ज्ञायक ही है-यह निश्चय है।
(इसप्रकार यहाँ यह बताया है कि: ‘आत्मा परद्रव्यको जानता है'-यह व्यवहार-कथन है; 'आत्मा अपनेको जानता है'-इस कथनमें भी स्व-स्वामीअंशरूप व्यवहार है; 'ज्ञायक ज्ञायक ही है'-यह निश्चय है।)
और (जिसप्रकार ज्ञायकके सम्बन्धमें दृष्टांत-दार्टीतसे कहा है) इसीप्रकार ही दर्शकके सम्बन्धमें कहा जाता है:-इस जगतमें कलई श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है। दीवार-आदि परद्रव्य व्यवहारसे उस कलईका श्वैत्य (कलईके द्वारा श्वेत किये जानेयोग्य पदार्थ) है। अब, 'श्वेत करनेवाली कलई, श्वेत करानेयोग्य दीवारआदि परद्रव्य की है या नहीं ?'-इसप्रकार उन दोनोंके तात्त्विक संबंधका यहाँ विचार किया गया है:-यदि कलई दीवार-आदि परद्रव्यकी हो तो क्या हो यह प्रथम विचार करते हैं: ‘जिसका जो होता हे वह वही होता है, जैसा आत्मा का ज्ञान होनेसे ज्ञान वह आत्मा ही है;'-ऐसा तात्त्विक संबंध जीवंत (विद्यमान) होनेसे, कलई यदि दीवार-आदिकी हो तो कलई उन दीवार आदि ही होनी चाहिये (अर्थात् कलई दीवार-आदिस्वरूप ही होनी चाहिये); ऐसा होनेपर, कलई के स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायेगा। किन्त द्रव्यका उच्छेद तो नहीं होता. क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपमें सक्रमण होनेका तो पहले ही निषेध किया गया है। इसलिये ( यह सिद्ध हुआ कि ) कलई दीवार-आदिकी नहीं है। (आगे और विचार करते हैं:) यदि कलई दीवारआदिकी नहीं है तो कलई किसकी है ? कलई की ही कलई है। (इस) कलई से भिन्न ऐसी दूसरी कौन सी कलई है कि जिसकी ( यह) कलई है ? (इस) कलई से भिन्न अन्य कोई कलई नहीं है, किन्तु वे दो स्व-स्वामीरूप अंश ही हैं।
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५००
किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि। तर्हि न कस्यापि सेटिका, सेटिका सेटिकैवेति निश्चयः। यथायं दृष्टान्तस्तथायं दार्शन्तिक:-चेतयितात्र तावदर्शनगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम्। तस्य तु व्यवहारेण दृश्यं पुद्गलादिपरद्रव्यम्। अथात्र पुद्गलादे: परद्रव्यस्य दृश्यस्य दर्शकश्चेतयिता किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यते-यदि चेतयिता पुद्गलादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति चेतयिता पुद्गलादेर्भवन् पुद्गलादिरेव भवेत; एवं सति चेतयितु: स्वद्रव्योच्छेदः। न च द्रव्यान्तरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाव्यस्यास्त्युच्छेदः। ततो न भवति चेतयिता पुद्गलादेः। यदि न भवति चेतयिता पुद्गलादेस्तर्हि कस्य चेतयिता भवति ? चेतयितुरेव चेतयिता भवति। ननु कतरोऽन्यश्चेतयिता चेतयितुर्यस्य चेतयिता भवति ? न खल्वन्यश्चेतयिता चेतयितु:, किन्तु स्वस्वाम्यंशा- वेवान्यौ। किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि। तर्हि न कस्यापि दर्शकः, दर्शको दर्शक एवेति निश्चयः।
यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशोंके व्यवहारसे क्या साध्य है ? कुछ भी साध्य नहीं है। तब फिर कलई किसीकी नहीं है, कलई कलई ही है-यह निश्चय है। जैसे यह दृष्टांत है, उसीप्रकार यह दृार्टात है:-इस जगतमें चेतयिता दर्शन गुणसे परिपुर्ण स्वभाववाला द्रव्य है। पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारसे उस चेतयिताका दृश्य है। अब, 'दर्शक ( देखनेवाला अथवा श्रद्धान करनेवाले) चेतयिता, दृश्य ( देखनेयोग्य या श्रद्धान करने योग्य) जो पुद्गलादि परद्रव्योंका है या नहीं ?'-इसप्रकार उन दोनोंके तात्त्विक संबंधका यहाँ विचार करते हैं:-यदि चेतयिता पुद्गलादिका हो तो क्या हो यह पहले विचार करते हैं: “जिसका जो होता है वह वही होता है, जैसे आत्माका ज्ञान होनेसे ज्ञान वह आत्मा ही है;'-ऐसा तात्त्विक संबंध जीवंत होनेसे, चेतयिता यदि पुद्गलादिका हो तो चेतयिता पुद्गलादि ही होना चाहिये (अर्थात् चेतयिता पुद्गलादिस्वरूप ही होना चाहिये)। ऐसा होनेपर, चेतयिताके स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायेगा। किन्तु द्रव्यका उच्छेद तो नहीं होता, क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपमें सक्रमण होनेका तो पहले ही निषेध कर दिया है। इससे ( यह सिद्ध हुआ के) चेतयिता पुद्गलादिका नहीं है। (आगे और विचार करते हैं:) चेतयिता यदि पुद्गलादिका नहीं है, तो चेतयिता किसका है ? चेतयिताका ही चेतयिता है। (इस ) चेतयितासे भिन्न दूसरा ऐसा कौन सा चेतयिता है कि जिसका (यह) चेतयिता है ? (इस) चेतयितासे भिन्न अन्य कोई चेतयिता नहीं है, किन्तु वे दो स्व-स्वामीरूप अंश ही हैं, यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशोंके व्यवहारसे क्या साध्य है ? कुछ भी साध्य नहीं है। तब फिर दर्शक किसी का नहीं, दर्शक दर्शक ही है-यह निश्चय है।
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५०१
अपि च सेटिकात्र तावच्छेतगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम्। तस्य तु व्यवहारेण श्वैत्यं कुड्यादिपरद्रव्यम्। अथात्र कुड्यादेः परद्रव्यस्य श्वैत्यस्य श्वेतयित्री सेटिका किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यते-यदि सेटिका कुड्यादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति सेटिका कुड्यादेर्भवन्ती कुड्यादिरेव भवेत्, एवं सति सेटिकायाः स्वद्रव्योच्छेदः। न च द्रव्यान्तरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाव्यस्यास्त्युच्छेदः। ततो न भवति सेटिका - कुड्यादेः। यदि न भवति सेटिका कुड्यादेस्तर्हि कस्य सेटिका भवति ? सेटिकाया एव सेटिका भवति। ननु कतराऽन्या सेटिका सेटिकाया यस्याः सेटिका भवति ? न खल्वन्या सेटिका सेटिकायाः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ। किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि। तर्हि न कस्यापि सेटिका, सेटिका सेटिकैवेति निश्चयः।
(इसप्रकार यहाँ यह बताया गया है कि: ‘आत्मा परद्रव्यको देखता है अथवा श्रद्धा करता है'-यह व्यवहारकथन है; 'आत्मा अपनेको देखता है अथवा श्रद्धा करता है'-इस कथन में भी स्व-स्वामी अंशरूप व्यवहार है; 'दर्शक दर्शक ही है, –यह निश्चय है।)
और (जिसप्रकार ज्ञायक तथा दर्शकके सम्बन्धमें दृष्टांत-दासतसे कहा है) इसीप्रकार अपोहक (त्याग करनेवाले) के सम्बन्धमें कहा जाता है:-इस जगतमें कलई है वह श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है। दीवार-आदि परद्रव्य व्यवहारसे उस कलई का श्वैत्य है (अर्थात् कलई द्वारा श्वेत किये जाने योग्य पदार्थ है)। जिसका जो होता है, 'अब श्वेत करनेवाली कलई, श्वेत की जाने योग्य जो दीवारआदि परद्रव्य की है या नहीं?'-इसप्रकार उन दोनोंके तात्त्विक संबंधका यहाँ विचार किया जाता है:- यदि कलई दीवार-आदि परद्रव्यकी हो तो क्या हो, सो पहले यह विचार करते हैं: ‘जिसका जो होता है वह वही होता है, जैसे आत्माका ज्ञान होनेसे ज्ञान वह आत्मा ही है;'-ऐसा तात्त्विक संबंध जीवंत (विद्यमान) होनेसे, कलई यदि दीवार-आदिको हो तो कलई वह दीवार-आदि ही होना चाहिये ( अर्थात् कलई दीवार-आदि स्वरूप ही होना चाहिये); ऐसा होने पर, कलई के स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायेगा परंतु द्रव्यका उच्छेद तो नहीं होता, क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपमें सक्रमण होनेका तो पहले ही निषेध किया गया है। इसलिये ( यह सिद्ध हुआ कि) कलई दीवार-आदि की नहीं है। (आगे और विचार करते हैं:) यदि कलई दीवारआदिकी नहीं तो कलई किसकी है ? कलई की ही कलई है। (इस) कलई से भिन्न ऐसी दूसरी कौन सी कलई है जिसकी (यह ) कलई है ? (इस) कलई से भिन्न अन्य कोई कलई नहीं है, किन्तु वे दो स्व-स्वामीरूप अंश ही है। यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशोंके व्यवहारसे क्या साध्य है ? कुछ साध्य नहीं है। तब फिर कलई किसी की नहीं है, कलई कलई ही है-यह निश्चय है।
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५०२
यथायं
तावद
दृष्टान्तस्तथायं दार्टान्तिक:-चेतयितात्र ज्ञानदर्शनगुणनिर्भरपरापोहनात्मकस्वभावं द्रव्यम्। तस्य तु व्यवहारेणापोह्यं पुद्गलादिपरद्रव्यम्। अथात्र पुद्गलादेः परद्रव्यस्यापोह्यस्यापोहकश्चेतयिता किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यते-यदि चेतयिता पुद्गलादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति चेतयिता पुद्गलादेर्भवन पुद्गलादिरेव भवेत; एवं सति चेतयितु: स्वद्रव्योच्छेदः। न च द्रव्यान्तरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाव्यस्यास्त्युच्छेदः। ततो न भवति चेतयिता पुद्गलादेः। यदि न भवति चेतयिता पुद्गलादेस्तर्हि कस्य चेतयिता भवति? चेतयितुरेव चेतयिता भवति। ननु कतरोऽन्यश्चेतयिता चेतयितुर्यस्य चेतयिता भवति? न खल्वन्यश्चेतयिता चेतयितुः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ। किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि। तर्हि न कस्याप्यपोहक:, अपोहकोऽपोहक एवेति निश्चयः।
जैसे यह दृष्टांत है, उसीप्रकार यहाँ नीचे दार्टीत है:-इस जगतमें जो चेतयिता है वह, जिसका ज्ञानदर्शनगुणसे परिपूर्ण, परके अपोहनस्वरूप (त्यागस्वरूप) स्वभाव है ऐसा द्रव्य है। पुद्गलादि परद्रव्य व्यवहारसे उस चेतयिताका अपोह्य (त्याज्य ) है। अब, 'अपोहक ( त्याग करनेवाला) चेतयिता, अपोह्य ( त्याज्य ) जो पुद्गलादि परद्रव्य का है या नहीं ?'-इसप्रकार उन दोनोंका तात्त्विक संबंध यहाँ विचार किया जाता हैं:-यदि चेतयिता पुद्गलादिका हो तो क्या हो यह पहले विचार करते हैं: ‘जिसका जो होता है वह वही होता है, जैसे आत्माका ज्ञान होनेसे ज्ञान वह आत्मा ही है;'ऐसा तात्त्विक संबंध जीवंत होनेसे, चेतयिता यदि पुद्गलादिकी हो तो चेतयिता उस पुद्गलादि ही होना चाहिये (अर्थात् चेतयिता पुद्गलादिस्वरूप ही होना चाहिये); ऐसा होनेपर, चेतयिताके स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायेगा। किन्तु द्रव्यका उच्छेद तो नहीं होता. क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपमें संक्रमण होनेका तो पहले ही निषेध किया है। इसलिये ( यह सिद्ध हुआ कि) चेतयिता पुद्गलादिका नहीं है। (आगे और विचार करते हैं:) यदि चेतयिता पुद्गलादिका नहीं है तो चेतयिता किसका है ? चेतयिताका ही चेतयिता है। (इस) चेतयितासे भिन्न ऐसा दूसरा कौन सा चेतयिता है कि जिसका (यह) चेतयिता है ? (इस) चेतयितासे भिन्न अन्य कोई चेतयिता नहीं है, किन्तु वे दो स्व-स्वामीरूप अंश ही है। यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशोंके व्यवहारसे क्या साध्य है ? कुछ भी साध्य नहीं। तब फिर अपोहक (त्याग करनेवाला) किसी का नहीं, अपोहक अपोहक ही है-यह निश्चय है।
[इसप्रकार यहाँ यह बताया गया है कि: 'आत्मा परद्रव्यको त्यागता है'-यह व्यवहारकथन है; 'आत्मा ज्ञानदर्शनमय ऐसा निजको ग्रहण करता है'-ऐसा कहने में भी स्व-स्वामीअंशरूप व्यवहार है; 'अपोहक अपोहक ही है' यह निश्चय है।
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५०३
अथ व्यवहारव्याख्यानम्-यथा च सैव सेटिका श्वेतगुणनिर्भरस्वभावा स्वयं - कुड्यादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममाना कुड्यादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन्ती - कुड्यादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनः श्वेतगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमाना कुड्य दि-परद्रव्यं सेटिकानिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन श्वेतयतीति व्यवहियते, तथा चेतयितापि ज्ञानगुणनिर्भरस्वभावः स्वयं पुद्गलादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममान: पुद्गलादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन् पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो ज्ञानगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चेतयितृनिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन जानातीति व्यवहियते।
किञ्च-यथा च सैव सेटिका श्वेतगुणनिर्भरस्वभावा स्वयं कुड्यादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममाना कुड्यादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन्ती कुड्यादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनः श्वेतगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमाना कुड्य
अब व्यवहारका विवेचन किया जाता है:
जिसप्रकार श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाली यही कलई, स्वयं दीवार-आदि परद्रव्यके स्वभावरूप परिणमित न होती हुई और दीवार-आदि परद्रव्यको अपने स्वभावरूप परिणमित न करती हई, दीवार-आदि परद्रव्य जिसको निमित्त है ऐसे अपने श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होती हुई, कलई जिसको निमित्त है ऐसे अपने (-दीवार आदिके-) स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए दीवार-आदि परद्रव्यको, अपने (-कलईके-) स्वभावसे श्वेत करती है-ऐसा व्यवहार किया जाता है; इसीप्रकार ज्ञानगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाला चेतयिता भी, स्वयं पुद्गलादि परद्रव्यके स्वभावरूप परिणमित न होता हुआ और पुद्गलादि परद्रव्यको अपने स्वभावरूप परिणमित न कराता हुआ, पुद्गलादि परद्रव्य जिसमें निमित्त हैं ऐसे अपने ज्ञानगुणसे परिपूर्ण स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होता हुआ, चेतयिता जिसको निमित्त है ऐसे अपने (-पुद्गलादिके-) स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए पुद्गलादि परद्रव्यको , अपने ( –चेतयिताको-) स्वभावसे जानता है-ऐसा व्यवहार किया जाता है।
और (जिसप्रकार ज्ञानगुणका व्यवहार कहा है) इसीप्रकार दर्शनगुणका व्यवहार कहा जाता है:-जिसप्रकार श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाली वही कलई, स्वयं दीवार- आदि परद्रव्यके स्वभावरूप परिणमित न होती हुई और दीवार-आदि परद्रव्यको अपने स्वभावरूप परिणमित न कराती हुई, दीवार-आदि परद्रव्य जिसको निमित्त है ऐसे अपने श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होती हुई,
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ादिपरद्रव्यं सेटिकानिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन श्वेतयतीति व्यवह्रियते, तथा चेतयितापि दर्शनगुणनिर्भरस्वभावः स्वयं पुद्गलादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन् पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो दर्शनगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चेतयितृनिमित्तकेनात्मन: स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन पश्यतीति व्यवह्रियते ।
अपि च-यथा च सैव सेटिका श्वेतगुणनिर्भरस्वभावा स्वयं कुड्यादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममाना कुड्यादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन्ती कुड्यादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनः श्वेतगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमाना कुड्यादिपरद्रव्यं सेटिकानिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन श्वेतयतीति व्यवह्रियते, तथा चेतयितापि ज्ञानदर्शनगुणनिर्भरपरापोहनात्मकस्वभावः स्वयं पुद्गलादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममानः
कलई जिसको निमित्त हैं ऐसे अपने ( - दीवार - आदिके - ) स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होती हुई दीवार - आदि परद्रव्यको अपने ( - कलईके - ) स्वभावसे श्वेत करती है - ऐसा व्यवहार किया जाता है, इसीप्रकार दर्शनगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाला चेतयिता भी, स्वयं पुद्गलादि परद्रव्यके स्वभावरूप परिणमित न होता हुआ और पुद्गलादि परद्रव्यको अपने स्वभावरूप परिणमित न कराता हुआ, पुद्गलादि परद्रव्य जिसको निमित्त हैं ऐसे अपने दर्शनगुणसे परिपूर्ण स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होता हुआ, चेतयिता जिसको निमित्त है ऐसे अपने ( - पुद्गलादिके — ) स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए पुद्गलादि परद्रव्यको अपने ( - चेतयिताके - ) स्वभावसे देखता है अथवा श्रद्धा करता है - ऐसा व्यवहार किया जाता है।
और (जिस प्रकार ज्ञान - दर्शन गुणका व्यवहार कहा है) इसीप्रकार चारित्रगुणका व्यवहार कहा जाता है: - जैसे श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाली वही कलई, स्वयं दीवार—आदि परद्रव्यके स्वभावरूप परिणमित न होती हुई और दीवार-आदि परद्रव्यको अपने स्वभावरूप परिणमित न कराती हुई, दीवार - आदि परद्रव्य जिनको निमित्त है ऐसे अपने श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होती हुई, कलई जिसको निमित्त है ऐसे अपने ( - दीवार - आदिके - ) स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए दीवार - आदि परद्रव्यको, अपने ( - कलई - ) के स्वभावसे श्वेत करती है - ऐसा व्यवहार किया जाता है, इसीप्रकार जिसका ज्ञानदर्शनगुणसे परिपूर्ण, परके अपोहनस्वरूप स्वभाव है ऐसा चेतयिता भी, स्वयं पुद्गलादि परद्रव्यके स्वभावरूप परिणमित नहीं होता हुआ
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५०५
पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो
पुद्गलादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेना परिणमयन् ज्ञानदर्शनगुण निर्भरपरापोहनात्मकस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमान: पुद्गलादिपरद्रव्यं चेतयितृनिमित्तकेनात्मन: स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेनापोहतीति व्यवह्रियते।
एवमयमात्मनो ज्ञानदर्शनचारित्रपर्यायाणां निश्चयव्यवहारप्रकारः। एवमेवान्येषां सर्वेषामपि पर्यायाणां द्रष्टव्यः ।
और पुद्गलादि परद्रव्यको अपने स्वभावरूप परिणमित न कराता हुआ, पुद्गलादि परद्रव्य जिसको निमित्त है ऐसे अपने ज्ञानदर्शनगुणसे परिपूर्ण पर-अपोहनात्मक (परके त्यागस्वरूप) स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होता हुआ, चेतयिता जिसको निमित्त है ऐसे अपने ( - पुद्गलादिके — ) स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए पुद्गलादि परद्रव्यको, अपने ( - चेतयिताके - ) स्वभावसे अपोहता है अर्थात् त्याग करता है - इसप्रकार व्यवहार किया जाता है।
इसप्रकार यह, आत्माके ज्ञान-दर्शन- चारित्र पर्यायोंका निश्चय - व्यवहार प्रकार है। इसीप्रकार अन्य समस्त पर्यायोंका भी निश्चय - व्यवहार प्रकार समझना चाहिये।
भावार्थ:-शुद्धनयसे आत्माका एक चेतनामात्र स्वभाव है। उसके परिणाम जानना, देखना, श्रद्धा करना, निवृत्त होना इत्यादि है । वहाँ निश्चयनयसे विचार किया जाये तो आत्माको परद्रव्यका ज्ञायक नहीं कहा जा सकता, दर्शक नहीं कहा जा सकता, श्रद्धान करनेवाला नहीं कहा जा सकता, त्याग करनेवाला नहीं कहा जा सकता; क्योंकि परद्रव्यके और आत्माके निश्चयसे कोई भी संबंध नहीं है। जो ज्ञान, दर्शन, श्रद्धान, त्याग इत्यादि भाव हैं, वे स्वयं ही हैं; भाव-भावकका भेद कहना वह भी व्यवहार है । निश्चयसे भाव और भाव करनेवाले भेद नहीं हैं।
अब व्यवहारनयके सम्बन्धमें । व्यवहारनयसे आत्माको परद्रव्यका ज्ञाता, द्रष्टा, श्रद्धान करनेवाला, त्याग करनेवाला कहा जाता है; क्योंकि परद्रव्य और आत्माके निमित्तनैमित्तिकभाव हैं। ज्ञानादि भावोंका परद्रव्य निमित्त होता है इसलिये व्यवहारीजन कहतें हैं कि-आत्मा परद्रव्य को जानता है, परद्रव्यको देखता है, परद्रव्यका श्रद्धान करता है, परद्रव्यका त्याग करता है 1
इसप्रकार निश्चय-व्यवहारके प्रकारको जानकर यथावत् ( जैसा कहा है उसीप्रकार ) श्रद्धान करना ।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
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समयसार
५०६
__ (शार्दूलविक्रीडित) शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पितमतेस्तत्त्वं समुत्पश्यतो नैकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यातरं जातुचित्। ज्ञानं ज्ञेयमवैति यत्तु तदयं शुद्धस्वभावोदयः किं द्रव्यान्तरचुम्बनाकुलधियस्तत्त्वाच्च्यवन्ते जनाः।। २१५ ।।
(मन्दाक्रान्ता) शुद्धद्रव्यस्वरसभवनात्कि स्वभावस्य शेषमन्यद्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः। ज्योत्स्नारूपं स्नपयति भुवं नैव तस्यास्ति भूमिनिं ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव।। २१६ ।।
श्लोकार्थ:- [शुद्ध-द्रव्य-निरूपण-अर्पित-मतेः तत्त्वं समुत्पश्यतः ] जिसने शुद्ध द्रव्यके निरूपणमें बुद्धिको लगाया है और जो तत्त्वका अनुभव करता है, उस पुरुषको [ एकद्रव्य-गतं किम्-अपि द्रव्य-अन्तरं जातुचित् न चकास्ति] एक द्रव्यके भीतर कोई भी अन्य द्रव्य रहता हुआ कदापि भासित नहीं होता। [यत् तु ज्ञानं ज्ञेयम् अवैति तत् अयं शुद्ध-स्वभाव-उदयः ] ज्ञान ज्ञेयको जानता है वह तो यह ज्ञानके शुद्ध स्वभावका उदय है। [ जनाः] जब कि ऐसा है तब फिर लोग [ द्रव्य–अन्तरचुम्बन-आकुल-घियः] ज्ञानको अन्य द्रव्यके साथ स्पर्श होनेकी मान्यतासे आकुल बुद्धिवाले होते हुए [ तत्त्वात् ] तत्त्वसे ( शुद्ध स्वरूपसे ) [ किं च्यवन्ते ] क्यों च्युत होते
हैं?
भावार्थ:-शुद्धनयकी दृष्टिसे तत्त्वका स्वरूप विचार करने पर अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यमें प्रवेश दिखाई नहीं देता। ज्ञानमें अन्य द्रव्य प्रतिभासित होते हैं सो तो यह ज्ञानकी स्वच्छताका स्वभाव है; कहीं ज्ञान उन्हें स्पर्श नहीं करता अथवा वे ज्ञानको स्पर्श नहीं करते। ऐसा होने पर भी, ज्ञानमें अन्य द्रव्योंका प्रतिभास देखकर यह लोग ऐसा मानते हुए ज्ञानस्वरूपसे च्युत होते हैं कि 'ज्ञानको परज्ञेयोंके साथे परमार्थ संबंध है' , यह उनका अज्ञान है। उनपर करुणा करके आचार्यदेव कहते हैं कि-यह लोग तत्त्वसे क्यों च्युत हो रहे हैं ? २१५।
पुनः इसी अर्थको दृढ़ करते हुए कहते हैं :
श्लोकार्थ:- [शुद्ध-द्रव्य-स्वरस-भवनात् ] शुद्ध द्रव्यका (आत्मा आदि द्रव्यका) निजरसरूप (-ज्ञानादि स्वभावमें) परिणमन होता है इसलिये, [शेषम् अन्यत्-द्रव्यं किं स्वभावस्य भवति ] क्या शेष कोई अन्यद्रव्य उस (ज्ञानादि) स्वभावका हो सकता है ? (नहीं।) [ यदि वा स्वभावः किं तस्य स्यात् ] अथवा क्या वह (ज्ञानादि स्वभाव) किसी अन्यद्रव्यका हो सकता है ? (नहीं । परमार्थसे एक द्रव्यका अन्य द्रव्यके साथ संबंध नहीं है।)
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( मन्दाक्रान्ता ) रागद्वेषद्वयमुदयते तावदेतन्न यावत्
ज्ञानं ज्ञानं भवति न पुनर्बोध्यतां याति बोध्यम् । ज्ञानं ज्ञानं भवतु तदिदं न्यक्कृताज्ञानभावं भावाभावौ भवति तिरयन् येन पूर्णस्वभावः ।। २१७ ।।
५०७
[ ज्योत्स्नारूपं भुवं स्नपयति ] चांदनीका रूप पृथ्वीको उज्ज्वल करता है [ भूमि: तस्य न एव अस्ति ] तथापि पृथ्वी चांदनीकी कदापि नहीं होती; [ ज्ञानं ज्ञेयं सदा कलयति ] इसप्रकार ज्ञान ज्ञेयको सदा जानता है [ ज्ञेयम् अस्य अस्ति न एव ] तथापि ज्ञेय ज्ञानका कदापि नहीं होता ।
भावार्थ:-शुद्धनयकी दृष्टिसे देखा जाये तो किसी द्रव्यका स्वभाव किसी अन्य द्रव्यरूप नहीं होता। जैसे चांदनी पृथ्वीको उज्ज्वल करती है किन्तु पृथ्वी चांदनीकी किंचित्मात्र भी नहीं होती, इसीप्रकार ज्ञान ज्ञेयको जानता है किन्तु ज्ञेय ज्ञानका किंचित्मात्र भी नहीं होता । आत्माका ज्ञानस्वभाव है इसलिये उसकी स्वच्छतामें ज्ञेय स्वयमेव झलकता है, किन्तु ज्ञानमें उन ज्ञेयोंका प्रवेश नहीं होता । २१६ ।
अब आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ :- [ तावत् राग-द्वेष-द्वयम् उदयते ] राग-द्वेषका द्वंद्व तबतक उदयको प्राप्त होता है [ यावत् एतत् ज्ञानं ज्ञानं न भवति ] कि जबतक वह ज्ञान ज्ञानरूप न हो [ पुनः बोध्यम् बोध्यतां न याति ] और ज्ञेय ज्ञेयत्व को प्राप्त न हो। [ तत् इदं ज्ञानं न्यक्कृत - अज्ञानभावं ज्ञानं भवतु ] इसलिये यह ज्ञान, अज्ञानभावको दूर करके, ज्ञानरूप हो— [ येन भाव -अभावौ तिरयन् पूर्णस्वभावः भवति] कि जिससे भाव-अभाव (राग-द्वेष ) को रोकता हुआ पूर्णस्वभाव (प्रगट ) हो जाये।
भावार्थ:-ज् [:- जबतक ज्ञान ज्ञानरूप न हो, ज्ञेय ज्ञेयरूप न हो, तबतक रागद्वेष उत्पन्न होता है; इसलिये इस ज्ञान, अज्ञानभावको दूर करके, ज्ञानरूप होओ, कि जिससे ज्ञानमें जो भाव और अभावरूप दो अवस्थाऐं होती हैं वे मिट जायें और ज्ञान पूर्णस्वभावको प्राप्त हो जाये। यह प्रार्थना है । २१७।
' ज्ञान और ज्ञेय सर्वथा भिन्न हैं, आत्माके दर्शनज्ञानचारित्रादि कोई गुण परद्रव्योंमें नहीं हैं' ऐसा जानने के कारण सम्यग्दृष्टिको विषयोंके प्रति राग नहीं होता; और रागद्वेषादि जड़ विषयोंमें भी नहीं होते; वे मात्र अज्ञानदशामें प्रवर्तमान जीवके परिणाम हैं। - इस अर्थकी गाथाएं कहते हैं:
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समयसार
५०८
दंसणणाणचरत्तिं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे विसए। तम्हा कि घादयदे चेदयिदा तेसु विसएसु।। ३६६ ।। दसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे कम्मे। तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तम्हि कम्मम्हि।। ३६७ ।। दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे काए। तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु काएसु।। ३६८ ।। णाणस्स दंसणस्स य भणिदो घादो तहा चरित्तस्स। ण वि तहिं पोग्गलदव्वस्स को वि घादो दु णिद्दिट्ठो।। ३६९ ।। जीवस्स जे गुणा केइ णत्थि खलु ते परेसु दव्वेसु। तम्हा सम्मादिविस्स णत्थि रागो दु विसएस।।३७० ।। रागो दासो मोहो जीवस्सेव य अणण्णपरिणामा। एदेण कारणेण दु सद्दादिसु णत्थि रागादी।। ३७१ ।।
चारित्र-दर्शन-ज्ञान किंचित् नहिं अचेतन विषयमें । इस हेतु से यह आत्मा क्या हन सके उन विषयमें ?।। ३६६।। चारित्र-दर्शन-ज्ञान किंचित् नहिं अचेतन कर्ममें । इस हेतु से यह आत्मा क्या हन सके उन कर्ममें ?।। ३६७।। चारित्र-दर्शन-ज्ञान किंचित् नहिं अचेतन कायमें । इस हेतु से यह आत्मा क्या हन सके उन कायमें ? ।। ३६८।। है ज्ञानका, सम्यक्तका, उपघात चरितका कहा। वहाँ और कुछ भी नहिं कहा उपघात पुद्गलद्रव्यका ।। ३६९।। जो जीवके गुण है नियत वो कोई नहिं परद्रव्यमें । इस हेतुसे सद्दृष्टि जीवको राग नहिं है विषय में ।। ३७०।। अरु राग, द्वेष, विमोह तो जीवके अनन्य परिणाम हैं। इस हेतु से शब्दादि विषयों में नहीं रागादि हैं ।।३७१।।
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५०९
दर्शनज्ञानचारित्रं किञ्चिदपि नास्ति त्वचेतने विषये। तस्मात्किं हन्ति चेतयिता तेषु विषयेषु ।। ३६६ ।। दर्शनज्ञानचारित्रं किञ्चिदपि नास्ति त्वचेतने कर्मणि। तस्मात्किं हन्ति चेतयिता तत्र कर्मणि।। ३६७ ।। दर्शनज्ञानचारित्रं किञ्चिदपि नास्ति त्वचेतने काये। तस्मात्किं हन्ति चेतयिता तेषु कायेषु।। ३६८ ।। ज्ञानस्य दर्शनस्य च भणितो घातस्तथा चारित्रस्य। नापि तत्र पुद्गलद्रव्यस्य कोऽपि घातस्तु निर्दिष्टः।। ३६९ ।। जीवस्य ये गुणाः केचिन्न सन्ति खलु ते परेषु द्रव्येषु। तस्मात्सम्पग्दृष्टेर्नास्ति रागस्तु विषयेषु।। ३७० ।।
गाथार्थ:- [ दर्शनज्ञानचारित्रम् ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [ अचेतने विषये तु] अचेतन विषयमें [ किञ्चित् अपि] किंचित्मात्र भी [न अस्ति] नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ चेतयिता] आत्मा [ तेषु विषयेषु ] उन विषयोंमें [ किं हन्ति ] क्या घात करेगा?
[दर्शनज्ञानचारित्रम् ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [अचेतने कर्मणि तु] अचेतन कर्ममें [ किञ्चित् अपि ] किंचित्मात्र भी [ न अस्ति] नहीं, [ तस्मात् ] इसलिये [ चेतयिता] आत्मा [ तत्र कर्मणि ] उन कर्ममें [ किं हन्ति ] क्या घात करेगा? (कुछ भी घात नहीं कर सकता।)
[दर्शनज्ञानचारित्रम् ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [अचेतने काये तु] अचेतन कायामें [किञ्चित् अपि] किंचित्मात्र भी [न अस्ति ] नहीं, [तस्मात् ] इसलिये [ चेतयिता] आत्मा [ तेषु कायेषु ] उन कायोंमें [ किं हन्ति ] क्या घात करेगा ? ( कुछ भी घात नहीं कर सकता।)
[ ज्ञानस्य ] ज्ञानका, [दर्शनस्य च] दर्शनका [तथा चारित्रस्य ] तथा चारित्रका [घात: भणित: ] घात कहा है, [ तत्र] वहाँ [पुद्गलद्रव्यस्य] पुद्गलद्रव्यका [घातः तु] घात [कः अपि] किंचित्मात्र भी [न अपि निर्दिष्ट:] नहीं कहा है। ( अर्थात् दर्शन-ज्ञान-चारित्रके घात होनेपर पुद्गलद्रव्यका घात नहीं होता।)
(इसप्रकार ) [ये केचित् ] जो कोई [ जीवस्य गुणाः ] जीवके गुण हैं, [ ते खलु ] वे वास्तवमें [ परेषु द्रव्येषु ] पर द्रव्यमें [ न सन्ति ] नहीं हैं; [ तस्मात् ] इसलिये [ सम्यग्दृष्टे:] सम्यग्दृष्टिके [ विषयेषु ] विषयोंके प्रति [ रागः तु] राग [ न अस्ति] नहीं है।
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रागो द्वेषो मोहो जीवस्यैव चानन्यपरिणामाः। एतेन कारणेन तु शब्दादिषु न सन्ति रागादयः।। ३७१ ।।
यद्धि यत्र भवति तत्तद्धाते हन्यत एव , यथा प्रदीपघाते प्रकाशो हन्यते; यत्र च यद्भवति तत्तद्धाते हन्यत एव, यथा प्रकाशघाते प्रदीपो हन्यते। यत्तु यत्र न भवति तत्तद्धाते न हन्यते, यथा घटघाते घटप्रदीपो न हन्यते; यत्र च यन्न भवति तत्तद्धाते न हन्यते, यथा घटप्रदीपघाते घटो न हन्यते। अथात्मनो धर्मा दर्शनज्ञानचारित्राणि पुद्गलद्रव्यघातेऽपि न हन्यन्ते, न च दर्शनज्ञानचारित्राणां घातेऽपि पुद्गलद्रव्यं हन्यते; एवं दर्शनज्ञानचारित्राणि पुद्गलद्रव्ये न भवन्तीत्यायाति; अन्यथा तद्धाते पुद्गलद्रव्य
[च ] और [ रागः द्वेषः मोहः ] राग, द्वेष और मोह [ जीवस्य एव ] जीवके ही [ अनन्यपरिणामाः] अनन्य (एकरूप) परिणाम हैं. [एतेन कारणेन त] इस कारणसे [ रागादयः] रागादिक [ शब्दादिषु ] शब्दादि विषयोंमें (भी) [ न सन्ति ] नहीं है।
(रागद्वेषादि न तो सम्यग्दृष्टि आत्मामें है और न जड़ विषयोंमें, वे मात्र अज्ञानदशामें रहनेवाले जीवके परिणाम हैं।)
टीका:-वास्तवमें जो जिसमें होता है वह उसका घात होनेपर नष्ट होता ही है (अर्थात् आधारका घात होनेपर आधेयका घात हो ही जाता है), जैसे दीपकके घात होनेपर ( उसमें रहने वाला) प्रकाश हो जाता है; तथा जिमें जो होता है वह उसका नाश होनेपर अवश्य नष्ट हो जाता है (अर्थात् आधेयका घात होनेपर आधारका घात हो ही जाता है), जैसे प्रकाशका घात होनेपर दीपकका घात हो जाता है। और जो जिसमें नहीं होता वह उसका घात होनेपर नष्ट नहीं होता, जैसे घड़ेका नाश होनेपर “घट-प्रदीप का नाश नहीं होता; तथा जिसमें जो नहीं होता वह उसका घात होनेपर नष्ट नहीं होता, जैसे घट-प्रदीपका घात होनेपर घट का घात नहीं होता। (इसप्रकार से न्याय कहा है।) अब, आत्माके धर्म-दर्शन, ज्ञान और चारित्र-पुद्गलद्रव्यका घात होनेपर भी नष्ट नहीं होते और दर्शन-ज्ञान-चारित्रका घात होनेपर भी पुद्गलद्रव्यका नाश नहीं होता ( यह तो स्पष्ट है); इसलिये इसप्रकार यह सिद्ध होता है कि 'दर्शन-ज्ञान-चारित्र पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं'; क्योंकि, यदि ऐसा न हो तो दर्शन-ज्ञान-चारिश्का घात होनेपर
* घट-प्रदीप = घड़ेमें रखा हुआ दीपक। ( परमार्थतः दीपक घड़ेमें नहीं है, घड़े के ही गुण हैं।)
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घातस्य , पुद्गलद्रव्यघाते तद्धातस्य दुर्निवारत्वात्। यत एवं ततो ये यावन्तः केचनापि जीवगुणास्ते सर्वेऽपि परद्रव्येषु न सन्तीति सम्यक् पश्यामः, अन्यथा अत्रापि जीवगुणघाते पुद्गलद्रव्यघातस्य, पुद्गलद्रव्यघाते जीवगुणघातस्य च दुर्निवारत्वात्। यद्येवं तर्हि कुतः सम्यग्दृष्टेर्भवति रागो विषयेषु ? न कुतोऽपि। तर्हि रागस्य कतरा खानि: ? रागद्वेषमोहा हि जीवस्यैवाज्ञानमयाः परिणामाः, ततः परद्रव्यत्वाद्विषयेषु न सन्ति, अज्ञानाभावात्सम्यग्दृष्टौ तु न भवन्ति। एवं ते विषयेष्वसन्तः सम्यग्दृष्टेर्न भवन्तो, न भवन्त्येव।
पुद्गलद्रव्यका घात, और पुद्गलद्रव्यका घात होनेपर दर्शन-ज्ञान-चारिअका घात अवश्य ही होना चाहिए। ऐसा होनेपर जीवके जो जितने गुण हैं वे सब परद्रव्योंमें नहीं हैं यह हम भली भाँति देखते-मानते हैं ; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो, यहाँ भी जीवके गुणोंका घात होनेपर पुद्गलद्रव्यका घात, और पुद्गलद्रव्यके घात होनेपर जीवके गुणका घात होना अनिवार्य हो जाता है। (किन्तु ऐसा नहीं होता, इससे सिद्ध हुआ कि जीवके कोई गुण पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं।)
[प्रश्न:-] यदि ऐसा है तो सम्यग्दृष्टिको विषयोंमें राग किस कारण से होता है ? [ उत्तर:-] किसी भी कारणसे नहीं होता। [प्रश्न:-] तब फिर रागकी खान ( उत्पत्ति स्थान) कौन सी है ? [ उत्तर:-] राग-द्वेष-मोह, जीवके ही अज्ञानमय परिणाम हैं (अर्थात् जीवका अज्ञान ही रागादिको उत्पन्न करने की खान है); इसलिये वे रागद्वेषमोह, विषयोंमें नहीं हैं क्योंकि विषय परद्रव्य हैं, और सम्यग्दृष्टिमें (भी) नहीं है क्योंकि उनके अज्ञानका अभाव है; इसप्रकार रागद्वेषमोह, विषयोंमें न होनेसे और सम्यग्दृष्टिके (भी) न होनेसे , ( वे ) हैं ही नहीं।
भावार्थ:-आत्माके अज्ञानमय परिणामरूप रागद्वेषमोह उत्पन्न होनेपर आत्मा के दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि गुणोंका घात होता है, किन्तु गुणोंके घात होनेपर भी अचेतन पुद्गलद्रव्य का घात नहीं होता; और पुद्गलद्रव्यके घात होनेपर दर्शनज्ञान-चारित्रादि का घात नहीं होता; इसलिये जीवके कोई भी गुण पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं। ऐसा जानता हुआ सम्यग्दृष्टिको अचेतन विषयोंमें रागादिक नहीं होते। रागद्वेषमोह पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं, वे जीवके ही अस्तित्वमें अज्ञानसे उत्पन्न होते हैं; जब अज्ञान का अभाव हो जाता है अर्थात् सम्यग्दृष्टि होता है, तब राग-द्वेषादि उत्पन्न नहीं होते। इसप्रकार रागद्वेषमोह न तो पुद्गलद्रव्यमें हैं और न सम्यग्दृष्टिमें भी होते हैं, इसलिये शुद्धद्रव्यदृष्टिसे देखने पर वे हैं ही नहीं और पर्यायदृष्टिसे देखने पर वे जीव को अज्ञान-अवस्थामें हैं। ऐसा जानना चाहिये।
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५१२
(मन्दाक्रान्ता) रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात् तौ वस्तुत्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किञ्चित्। सम्यग्दृष्टि: क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्ट्या स्फुटं तौ ज्ञानज्योतिर्व्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्चिः।। २१८ ।।
(शालिनी) रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्ट्या नान्यव्यं वीक्ष्यते किञ्चनापि। सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति व्यक्तात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात्।। २१९ ।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इह ज्ञानम् हि अज्ञानभावात् राग-द्वेषौ भवति ] इस जगतमें ज्ञान ही अज्ञानभावसे रागद्वेषरूप परिणमित होता है; [ वस्तुत्व-प्रणिहित-दृशा दृश्यमानौ तौ किञ्चित् न ] वस्तुत्वमें स्थापित ( -एकाग्र की गई) दृष्टि से देखने पर ( अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे देखने पर ), वे रागद्वेष कुछ भी नहीं है (-द्रव्यरूप पृथक वस्तु नहीं है)। [ ततः सम्यग्दृष्टि: तत्त्वदृष्ट्या तौ स्फुट क्षपयतु] इसलिये ( आचार्यदेव प्रेरणा करते हैं कि) सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्त्वदृष्टि से उन्हें ( रागद्वेषको) स्पष्टतया क्षय करो, [ येन पूर्ण-अचल-अर्चिः सहजं ज्ञानज्योतिः ज्वलति] कि जिससे, पूर्ण और अचल जिसका प्रकाश है ऐसी ( दैदीप्यमान) सहज ज्ञानज्योति प्रकाशित हो।
भावार्थ:-रागद्वेष कोई पृथक द्रव्य नहीं है, वे ( रागद्वेषरूप परिणाम) जीवके अज्ञानभावसे होते है; इसलिये सम्यग्दृष्टि होकर तत्त्वदृष्टि से देखा जाये तो वे ( रागद्वेष ) कुछ भी वस्तु नहीं हैं ऐसा दिखाई देता है, और घातिकर्मका नाश होकर केवलज्ञान उत्पन्न होता है। २१८ ।
अब आगेकी गाथामें यह कहेंगे कि 'अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यको गुण उत्पन्न नहीं कर सकता' इसका सुचक काव्य कहते हैं :--
श्लोकार्थ:- [ तत्त्वदृष्ट्या ] तत्त्वदृष्टि से देखा जाये तो, [ राग-द्वेष-उत्पादक अन्यत् द्रव्यं किञ्चन अपि न वीक्ष्यते] रागद्वेषको उत्पन्न करने वाला अन्य द्रव्य किंचित्मात्र भी दिखाई नहीं देता, [ यस्मात् सर्व-द्रव्य-उत्पत्तिः स्वस्वभावेन अन्तः अत्यन्तं व्यक्ता चकास्ति] क्योंकि सर्व द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने स्वभावसे ही होती हुई अंतरंगमें अत्यंत प्रगट ( स्पष्ट) प्रकाशित होती है।
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अण्णदविएण अण्णदवियस्स णो कीरए गुणुप्पाओ । तम्हा दु सव्वदव्वा उप्पज्जंते सहावेण ।। ३७२ ।। अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यस्य न क्रियते गुणोत्पादः । तस्मात्तु सर्वद्रव्याण्युत्पद्यन्ते स्वभावेन ।। ३७२ ।।
न च
जीवस्य परद्रव्यं रागादीनुत्पादयतीति शङ्कयम्; अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यगुणोत्पादकरणस्यायोगात्; सर्वद्रव्याणां स्वभावेनैवोत्पादात्। तथाहि मृत्तिका कृम्भभावेनोत्पद्यमाना किं कुम्भकारस्वभावेनोत्पद्यते, मृत्तिकास्वभावेन ? कुम्भकारस्वभावेनोत्पद्यते
किं
यदि
तदा
कुम्भकरणाहङ्कारनिर्भरपुरुषाधिष्ठितव्यापृतकर-पुरुषशरीराकारः कुम्भः स्यात्। न च तथास्ति, द्रव्यान्तरस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पाद
भावार्थ:-रागद्वेष चेतनके ही परिणाम हैं। अन्य द्रव्य आत्माको रागद्वेष उत्पन्न नहीं करा सकता; क्योंकि सर्व द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने अपने स्वभावसे ही होती है, अन्य द्रव्यमें अन्य द्रव्यके गुणपर्यायोंकी उत्पत्ति नहीं होती। २१९। अब इस अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं:
को द्रव्य दूसरे द्रव्यमें उत्पाद नहिं गुणका करे ।
इस हेतु से सब ही द्रव्य उत्पन्न आप स्वभावसे ।। ३७२ ।।
५१३
गाथार्थ:- [ अन्यद्रव्येण ] अन्य द्रव्यसे [ अन्यद्रव्यस्य ] अन्य द्रव्यके
[ गुणोत्पाद: ] गुणकी उत्पत्ति [ न क्रियते ] नहीं की जा सकती, [तस्मात् तु] इससे ( यह सिद्धांत हुआ कि ) [ सर्वद्रव्याणि ] सर्व द्रव्य [ स्वभावेन ] अपने आप स्वभाव [ उत्पद्यन्ते ] उत्पन्न होते हैं ।
टीका :- और भी ऐसी शंका नहीं करना चाहिये कि - पर द्रव्य जीवको रागादिक उत्पन्न करते हैं; क्योंकि अन्य द्रव्यके द्वारा अन्य द्रव्यके गुणोंको उत्पन्न करने की अयोग्यता है; क्योंकि सर्व द्रव्योंका स्वभावसे ही उत्पाद होता है। यह बात दृष्टांत पूर्वक समझाई जा रही है:
मिट्टी घट भावरूप से उत्पन्न होती हुई कुम्हार के स्वभाव से उत्पन्न होती है या मिट्टी के ? यदि कुम्हार के स्वभाव से उत्पन्न होती हो तो जिसमें घट को बनाने के अहंकारसे भरा हुआ पुरुष विद्यमान है और जिसका हाथ ( घड़ा बनानेका) व्यापार करता है ऐसे पुरुषके शरीराकार घट होना चाहिये । परंतु ऐसा तो नहीं होता, क्योंकि अन्यद्रव्यके स्वभावसे किसी द्रव्यके परिणामका उत्पाद
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स्यादर्शनात्। यद्येवं तर्हि मृत्तिका कुम्भकारस्वभावेन नोत्पद्यते, किन्तु मृत्तिकास्वभावेनैव, स्वस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्य दर्शनात्। एवं च सति मृत्तिकाया: स्वस्वभावानतिक्रमान्न कुम्भकार: कुम्भस्योत्पादक एव; मृत्तिकैव कुम्भकारस्वभावमस्पृशन्ती स्वस्वभावेन कुम्भभावेनोत्पद्यते। एवं सर्वाण्यपि द्रव्याणि स्वपरिणामपर्यायेणोत्पद्यमानानि किं निमित्तभूतद्रव्यान्तरस्वभावेनोत्पद्यन्ते, किं स्वस्वभावेन ? यदि निमित्तभूतद्रव्यान्तरस्वभावेनोत्पद्यन्ते तदा निमित्तभूतपरद्रव्याकारस्तत्परिणाम: स्यात्। न च तथास्ति, द्रव्यान्तरस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्यादर्शनात्। यद्येवं तर्हिन सर्वद्रव्याणि निमित्तभूतपरद्रव्यस्वभावेनोत्पद्यन्ते, किंतु स्वस्वभावेनैव, स्वस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्य दर्शनात्। एवं च सति सर्वद्रव्याणां स्वस्वभावानतिक्रमान्न निमित्तभूतद्रव्यान्तराणि स्वपरिणामस्योत्पादकान्येव; सर्वद्रव्याण्येव निमित्तभूतद्रव्यान्तरस्वभावमस्पृशन्ति स्वस्वभावेन स्वपरिणामभावेनोत्पद्यन्ते। अतो न परद्रव्यं जीवस्य रागादीनामुत्पादकमुत्पश्यामो यस्मै कुप्यामः। देखने में नहीं आता। यदि ऐसा है तो फिर मिट्टी कुम्हारके स्वभावसे उत्पन्न नहीं होती, परंतु मिट्टीके स्वभावसे ही उत्पन्न होती है क्योंकि (द्रव्यके) अपने स्वभावरूपसे द्रव्यके परिणामका उत्पाद देखा जाता है। ऐसा होनेसे, मिट्टी अपने स्वभावको उल्लंघन नहीं करती इसलिये, कुम्हार घड़ेका उत्पादक है ही नहीं; मिट्टी ही कुम्हार के स्वभावको स्पर्श न करती हुई, अपने स्वभावसे कुंभभावरूप से उत्पन्न होती है।
इसीप्रकार-सभी द्रव्य स्वपरिणामपर्यायसे (अर्थात् अपने परिणाम भावरूपसे) उत्पन्न होते हुए, निमित्तभूत अन्यद्रव्योंके स्वभावसे उत्पन्न होते हैं कि अपने स्वभाव से? यदि निमित्तभूत अन्यद्रव्योंके स्वभावसे उत्पन्न होते हों तो उनके परिणाम निमित्तभूत अन्यद्रव्यों के आकार के होने चाहिये। परंतु ऐसा तो नहीं होता, क्योंकि अन्यद्रव्यके स्वभावरूपसे किसी द्रव्यके परिणामका उत्पाद दिखाई नहीं देता। जब की ऐसा है तो सर्व द्रव्य निमित्तभूत अन्यद्रव्योंके स्वभावसे उत्पन्न नहीं होते, परंतु अपने स्वभावसे ही उत्पन्न होते हैं क्योंकि (द्रव्यके) अपने स्वभावरूपसे द्रव्यके परिणामका उत्पाद देखने में आता है। ऐसा होने से, सर्व द्रव्य अपने स्वभावको उल्लंघन न करते होने से, निमित्तभूत अन्यद्रव्य अपने (अर्थात् सर्व द्रव्योंके) परिणामोंके उत्पादक हैं ही नहीं; सर्व द्रव्य ही, निमित्तभूत अन्यद्रव्यके स्वभावको स्पर्श न करते हुए, अपने स्वभावसे अपने परिणामभावरूप से उत्पन्न होते हैं।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
( मालिनी) यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र। स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः।। २२० ।।
इसलिये (आचार्यदेव कहते हैं कि) हम जीवके रागादिका उत्पादक परद्रव्य को नहीं देखते ( –मानते) कि जिस पर कोप करें।
भावार्थ:-आत्माको रागादिक उत्पन्न होते हैं सो वे अपने ही अशुद्ध परिणाम हैं। यदि निश्चयनयसे विचार किया जाये तो अन्यद्रव्य रागादिका उत्पन्न करने वाला नहीं है, अन्यद्रव्य उनका निमित्तमात्र है; क्योंकि अन्यद्रव्यके अन्यद्रव्य गुणपर्याय उत्पन्न नहीं करता यह नियम है। जो यह मानते हैं-ऐसा एकांत ग्रहण करते हैं कि'परद्रव्य ही मुझमें रागादिक उत्पन्न करते हैं', वे नयविभागको नहीं समझते, वे मिथ्यादृष्टि हैं। यह रागादिक जीवके सत्त्वमें उत्पन्न होते हैं, परद्रव्य तो निमित्तमात्र हैं-ऐसा मानना सम्यग्ज्ञान है। इसलिये आचार्यदेव कहते हैं कि हम रागद्वेषकी उत्पत्तिमें अन्य द्रव्य पर क्यों कोप करें? राग-द्वेषका उत्पन्न होना तो अपना ही अपराध है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इह ] इस आत्मामें [ यत् राग-द्वेष-दोष-प्रसूतिः भवति ] जो रागद्वेषरूप दोषोंकी उत्पत्ति होती है [ तत्र परेषां कतरत् अपि दूषणं नास्ति ] उसमें परद्रव्यका कोई भी दोष नहीं है, [ तत्र स्वयम् अपराधी अयम् अबोधः सर्पति ] वहाँ तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलाता है;- [विदितम् भवतु] इस प्रकार विदित हो और [अबोधः अस्तं यातु] अज्ञान अस्त हो जाये; [ बोधः अस्मि ] मैं तो ज्ञान हूँ।
भावार्थ:-अज्ञानी जीव परद्रव्यमें रागद्वेषकी उत्पत्ति होती हुई मान कर परद्रव्य पर कोप करता है कि 'यह परद्रव्य मुझे रागद्वेष उत्पन्न कराता है, उसे दूर करूँ'। ऐसे अज्ञानी जीवको समझाने के लिये आचार्यदेव उपदेश देते हैं किरागद्वेषकी उत्पत्ति अज्ञानसे आत्मामें ही होती है और वे आत्माके ही अशुद्ध परिणाम हैं। इसलिये इम अज्ञानको नाश करो, सम्यग्ज्ञान प्रगट करो, आत्मा ज्ञानस्वरूप है ऐसा अनुभव करो; परद्रव्यको रागद्वेषका उत्पन्न करनेवाला मानकर उसपर कोप न करो। २२०।
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५१६
हैं:
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समयसार
( रथोद्धता ) रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते । उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः।। २२१ ।।
अब इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिये आगामी कथनका सूचक काव्य कहते
श्लोकार्थ:- [ ये तु राग- जन्मनि परद्रव्यम् एव निमित्ततां कलयन्ति ] जो रागकी उत्पत्तिमें परद्रव्यका ही निमित्तत्व ( कारणत्त्व) मानते हैं, ( अपना कुछ भी कारणत्व नहीं मानते, ) [ ते शुद्ध-बोध-विधुर - अन्ध - बुद्धयः ] वे - जिनकी बुद्धि शुद्धज्ञान से रहित अंध है ऐसे ( अर्थात् जिनकी बुद्धि शुद्धनयके विषयभूत शुद्ध आत्मस्वरूपके ज्ञानसे रहित अंध है ऐसे ) [ मोह-वाहिनीं न हिं उत्तरन्ति ] मोहनदीको पार नहीं कर सकते ।
-
भावार्थ::- शुद्धनयका विषय आत्मा अनंत शक्तिवान, चैतन्यचमत्कारमात्र, नित्य, अभेद, एक है। वह अपने ही अपराधसे रागद्वेषरूप परिणमित होता है। ऐसा नहीं है कि जिसप्रकार निमित्तभूत परद्रव्य परिणमित कराता है उसीप्रकार आत्मा परिणमित होता है, और उसमें आत्माका कोई पुरुषार्थ ही नहीं है । जिन्हें आत्माके ऐसे स्वरूपका ज्ञान नहीं है वे यह मानते हैं कि परद्रव्य आत्माको जिसप्रकार परिणमन कराता है उसीप्रकार आत्मा परिणमित होता है। ऐसा माननेवाले मोहरूपी नदीको पार नहीं कर सकते ( अथवा मोह सैन्यको नहीं हरा सकते), उनके रागद्वेष नहीं मिटते; क्योंकि रागद्वेष करनेमें यदि अपना पुरुषार्थ हो तो वह उनके मिटाने में भी हो सकता है, किन्त यदि दूसरे के कराये ही रागद्वेष होते हों तो पर तो रागद्वेष कराया ही करे, तब आत्मा उन्हें कहाँ से मिटा सकेगा ? इसलिये रागद्वेष अपने किये होते और अपने मिटाये मिटते हैं - इसप्रकार कथंचित् मानना, सो सम्यग्ज्ञान है । २२१ ।
स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दादिरूप परिणमते पुद्गल आत्मासे कहीं यह नहीं कहते हैं कि 'तू हमें जान', और आत्मा भी अपने स्थानसे छूटकर उन्हें जाननेको नहीं जाता। दोनों सर्वथा स्वतंत्रतया अपने अपने स्वभावसे ही परिणमित होते हैं। इसप्रकार आत्मा परके प्रति उदासीन ( - संबंध रहित, तटस्थ ) है, तथापि अज्ञानी जीव स्पर्शादिको अच्छे-बुरे मानकर रागीद्वेषी होता है यह उसका अज्ञान है।
इस अर्थ की गाथा कहते हैं:
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णिंदिदसंथुदवयणाणि पोग्गला परिणमंति बहुगाणि । ताणि सुणिदूण रूसदि तूसदि य पुणो अहं भणिदो ।। ३७३ ।। पोग्गलदव्वं सद्दत्तपरिणदं तस्स जदि गुणो अण्णो । तम्हा ण तुमं भणिदो किंचि वि किं रूससि अबुद्धो ।। ३७४ ।। असुहो सुहो व सद्दो ण तं भणदि सुणसु मं ति सो चेव । ण य एदि विणिग्गहिदुं सोदविसयमागदं सद्दं ।। ३७५ ।। असुहं सुहं व रूवं ण तं भणदि पेच्छ मं ति सो चेव । ण य एदि विणिग्गहिदुं चक्खुविसयमागदं रूवं ।। ३७६ ।। अहो सुहो व गंधो ण तं भणदि जिग्ध मं ति सो चेव । ण य एदि विणिग्गहिदुं घाणविसयमागदं गंधं ।। ३७७ ।। असुहो सुहो व रसोण तं भणदि रसय मं ति सो चेव । ण य एदि विणिग्गहिदुं रसणविसयमागदं तु रसं ।। ३७८ ।।
पुद्गल दरब बहु भाँति निंदा-स्तुतिवचनरूप परिणमे ।
सुनकर उन्हें, ' मुझको कहा ' गिन, रोष तोष जु जवि करे ।। ३७३ ।। पुद्गलदरब शब्दत्वपरिणत, उसका गुण जो अन्य है । तो नहिं कहा कुभी तुझे, हे अबुध ! रोष तूं क्यों करे ।। ३७४ ।।
शुभ या अशुभ जो शब्द वो ' तूं सुन मुझे ' न तुझे कहे । अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे कर्णगोचर शब्दको ।। ३७५ ।।
शुभ या अशुभ जो रूप वो ' तू देख मुझको ' नहिं कहे । अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे चक्षुगोचर रूपको ।। ३७६।।
शुभ या अशुभ जो गंध वो 'तू सूंघ मुझको ' नहिं कहे । अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे घ्राणगोचर गंधको ।। ३७७।।
५१७
शुभ या अशुभ रस कोई भी ' तू चाख मुझको ' नहिं कहे । अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे रसनगोचर स्वाद को ।। ३७८ ।।
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५१८
असुहो सुहो व फासो ण तं भणदि फुससु मं ति सो चेव। ण य एदि विणिग्गहिदुं कायविसयमागदं फासं।। ३७९ ।। असुहो सुहो व गुणो ण तं भणदि बुज्झ मं ति सो चेव। ण य एदि विणिग्गहिदुं बुद्धिविसयमागदं तु गुणं ।। ३८० ।। असुहं सुहं व दव्वं ण तं भणदि बुज्झ मं ति सो चेव। ण य एदि विणिग्गहिदुं बुद्धिविसयमागदं दव्वं ।। ३८१ ।। एयं तु जाणिऊणं उवसमं णेव गच्छदे मूढो। णिग्गहमणा परस्स य सयं च बुद्धिं सिवमपत्तो।।३८२ ।।
निन्दितसंस्तुतवचनानि पुद्गलाः परिणमन्ति बहुकानि। तानि श्रुत्वा रुष्यति तुष्यति च पुनरहं भणितः।। ३७३ ।।
शुभ या अशुभ जो स्पर्श वो 'तू स्पर्श मुझको' नहिं कहे । अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे कायगोचर स्पर्शका ।। ३७९ ।। शुभ या अशुभ गुण कोई भी 'तू जान मुझको' नहिं कहे। अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे बुद्धिगोचर गुण करे ।। ३८०।। शुभ या अशुभ जो द्रव्य वो 'तू जान मुझको' नहिं कहे । अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे बुद्धिगोचर द्रव्य करे ।। ३८१ ।। यह जान कर भी मूढ जीव पावे नहिं उपशम अरे!
शिव बुद्धिको पाया नहि वो पर ग्रहण करना चहे।। ३८२।। गाथार्थ:- [ बहुकानि] बहुत प्रकारके [ निन्दितसंस्तुतवचनानि ] निंदाके और स्तुतिके वचनरूप [पुद्गलाः ] पुद्गल [ परिणमन्ति] परिणमित होते हैं; [ तानि श्रुत्वा पुनः ] उन्हें सुनकर अज्ञानी जीव [ अहं भणितः ] 'मुझसे कहा' ऐसा मानकर [ रुष्यति तुष्यति च] रोष और संतोष करता है (अर्थात् क्रोध करता है और प्रसन्न होता है)।
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पुद्गलद्रव्यं शब्दत्वपरिणतं तस्य यदि गुणोऽन्यः। तस्मान्न त्वं भणितः किञ्चिदपि किं रुष्यस्यबुद्धः ।। ३७४ ।। अशुभ: शुभो वा शब्दो न त्वां भणति शृणु मामिति स एव। न चैति विनिर्ग्रहीतुं श्रोत्रविषयमागतं शब्दम्।। ३७५ ।। अशुभं शुभं वा रूपं न त्वां भणति पश्य मामिति स एव। न चैति विनिर्ग्रहीतुं चक्षुर्विषयमागतं रूपम्।। ३७६ ।। अशुभः शुभो वा गन्धो न त्वां भणति जिघ्र मामिति स एव। न चैति विनिर्ग्रहीतुं घ्राणविषयमागतं गन्धम्।। ३७७ ।। अशुभः शुभो वा रसो न त्वां भणति रसय मामिति स एव। न चैति विनिर्ग्रहीतुं रसनविषयमागतं तु रसम्।। ३७८ ।।
[पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्य [शब्दत्वपरिणतं] शब्दरूपसे परिणमित हुआ है; [ तस्य गुणः ] उसका गुण [ यदि अन्यः ] यदि ( तुझसे ) अन्य है, [तस्मात् ] तो हे । अज्ञानी जीव ! [ त्वं न किञ्चित् अपि भणितः ] तुझसे कुछ भी नहीं कहा; [ अबुद्धः ] तू अज्ञानी होता हुआ [ किं रुष्यसि ] क्यों रोष करता है ?
[अशुभ: वा शुभः शब्दः ] अशुभ अथवा शुभ शब्द [ त्वां न भणति ] तुझसे यह नहीं कहता कि [ माम् शुणु इति] 'तू मुझे सुन'; [ सः एव च ] और आत्मा भी ( अपने स्थानसे च्युत होकर), [श्रोत्रविषयम् आगतं शब्दम् ] श्रोत्रेन्द्रियके विषयमें आये हुए शब्दको [ विनिर्ग्रहीतुं न एति ] ग्रहण करने को (जाननेको) नहीं जाता।
[अशुभं वा शुभं रूपं ] अशुभ अथवा शुभ रूप [ त्वां न भणति] तुझसे यह नहीं कहता कि [ माम् पश्य इति] 'तू मुझे देख'; [ सः एव च ] और आत्मा भी (अपने स्थानसे छूटकर), [चक्षुर्विषयम् आगतं] चक्षु-इंद्रियके विषयमें आये हुए [ रूपम् ] रूपको [ विनिर्ग्रहीतुं न एति ] ग्रहण करनेको नहीं जाता।
[अशुभ: वा शुभ: गन्धः ] अशुभ अथवा शुभ गंध [ त्वां न भणति ] तुझसे यह नहीं कहती कि [ माम् जिघ्र इति ] 'तू मुझे सूंघ '; [ सः एव च ] और आत्मा भी [घ्राणविषयम् आगतं गन्धम् ] घ्राण इंद्रियके विषयमें आई हुई गंधको [ विनिर्ग्रहीतुं न एति] ( अपने स्थानसे च्युत होकर ) ग्रहण करने नहीं जाता।
[अशुभ: वा शुभः रस: ] अशुभ अथवा शुभ रस [त्वां न भणति] तुझसे यह नहीं कहता कि [ माम् रसय इति] 'तू मुझे चख'; [ सः एव च ] और आत्मा भी [ रसनविषयम् आगतं तु रसम्] रसना-इंद्रियके विषयमें आये हुए रसको [ विनिर्ग्रहीतुं न एति ] ( अपने स्थानसे च्युत होकर ) ग्रहण करने नहीं जाता।
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५२०
अशुभ: शुभो वा स्पर्शो न त्वां भणति स्पृश मामिति स एव। न चैति विनिर्ग्रहीतुं कायविषयमागतं स्पर्शम्।। ३७९ ।। अशुभ: शुभो वा गुणो न त्वां भणति बुध्यस्व मामिति स एव। न चैति विनिर्ग्रहीतुं बुद्धिविषयमागत तु गुणम्।।३८० ।। अशुभं शुभं वा द्रव्यं न त्वां भणति बुध्यस्व मामिति स एव। न चैति विनिर्ग्रहीतुं बुद्धिविषयमागतं द्रव्यम्।। ३८१ ।। एतत्तु ज्ञात्वा उपशमं नैव गच्छति मूढः। विनिर्ग्रहमनाः परस्य च स्वयं च बुद्धिं शिवामप्राप्तः।। ३८२ ।।
यथेह बहिरर्थो घटपटादि:, देवदत्तो यज्ञदत्तमिव हस्ते गृहीत्वा, 'मां प्रकाशय' इति स्वप्रकाशने न प्रदीपं प्रयोजयति, न च
[अशुभ: वा शुभ: स्पर्श:] अशुभ अथवा शुभ स्पर्श [ त्वां न भणति] तुझसे यह नहीं कहता कि [ माम् स्पृश इति] 'तू मुझे स्पर्श कर'; [ सः एव च] और आत्मा भी, [ कायविषयम् आगतं स्पर्शम् ] कायके ( –स्पर्शेन्द्रियके ) विषयमें आये हुए स्पर्शको ( अपने स्थानसे च्युत होकर), [विनिर्ग्रहीतुं न एति] ग्रहण करने नहीं जाता।
[अशुभः वा शुभः गुणः ] अशुभ अथवा शुभ गुण [ त्वां न भणति ] तुझसे यह नहीं कहता कि [ माम् बुध्यस्व इति] 'तू मुझे जान'; [ सः एव च ] और आत्मा भी ( अपने स्थानसे च्युत होकर), [ बुद्धिविषयम् आगतं तु गुणम् ] बुद्धिके विषयमें आये हुए गुणको [ विनिर्ग्रहीतुं न एति ] ग्रहण करने नहीं जाता।
[अशुभं वा शुभं द्रव्यं ] अशुभ अथवा शुभ द्रव्य [ त्वां न भणति] तुझसे यह नहीं कहता कि [ माम् बुध्यस्व इति ] 'तू मुझे जान'; [ सः एव च ] और आत्मा भी ( अपने स्थानसे च्युत होकर), [बुद्धिविषयम् आगतं द्रव्यम् ] बुद्धिके विषयमें आये हुए द्रव्यको [ विनिर्ग्रहीतुं न एति] ग्रहण करने नहीं जाता।
[ एतत् तु ज्ञात्वा ] ऐसा जान कर भी [ मूढः ] मूढ़ जीव [ उपशमं न एव गच्छति] उपशमको प्राप्त नहीं होता; [च और [ शिवाम् बुद्धिम् अप्राप्तः च स्वयं] शिव बुद्धिको (कल्याणकारी बुद्धिको, सम्यग्ज्ञानको) न प्राप्त हुआ स्वयं [ परस्य विनिर्ग्रहमनाः ] परको ग्रहण करने का मन करता है।
टीका:-प्रथम दृष्टांत कहते है: इस जगतमें बाह्यपदार्थ-घटपटादि-, जैसे देवदत्त नामक पुरुष यज्ञदत्त नामक पुरुषको हाथ पकड़कर किसी कार्यमें लगाता है इसीप्रकार, दीपकको स्वप्रकाशनमें ( अर्थात् बाह्यपदार्थको प्रकाशित करने के कार्यमें) नहीं लगता कि 'तू मुझे प्रकाशित कर',
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५२१
प्रदीपोऽप्ययःकान्तोपलकृष्टाय:सूचीवत् स्वस्थानात्प्रच्युत्य तं प्रकाशयितुमायाति; किन्तु वस्तुस्वभावस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्तत्वाच्च यथा तदसन्निधाने तथा तत्सन्निधानेऽपि स्वरूपेणैव प्रकाशते। स्वरूपेणैव प्रकाशमानस्य चास्य वस्तुस्वभावादेव विचित्रां परिणतिमासादयन् कमनीयोऽकमनीयो वा घटपटादिर्न मनागपि विक्रियायै कल्प्यते। तथा बहिरर्थाः शब्दो, रूपं, गन्धो, रसः, स्पर्शो , गुणद्रव्ये च , देवदत्तो यज्ञदत्तमिव हस्ते गृहीत्वा , 'मां शृणु, मां पश्य, मां जिघ्र , मां रसय, मां स्पृश, मां बुध्यस्व' इति स्वज्ञाने नात्मानं प्रयोजयन्ति, न चात्माप्ययःकान्तोपलकृष्टायःसूचीवत् स्वस्थानात्प्रच्युत्य तान् ज्ञातुमायाति; किन्तु वस्तुस्वभावस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्तत्वाच्च यथा तदसन्निधाने तथा तत्सन्निधानेऽपि स्वरूपेणैव जानीते। स्वरूपेणैव जानतश्चास्य वस्तुस्वभावादेव विचित्रां परिणतिमासादयन्तः कमनीया अकमनीया वा शब्दादशो बहिरा न मनागपि विक्रियायै कल्प्येरन्।
और दीपक भी लोहचुंबक-पाषाणसे खींची गई लोहे की सुई की भाँति अपने स्थानसे च्युत होकर उसे (बाह्यपदार्थको) प्रकाशित करने नहीं जाता; परंतु, वस्तुस्वभाव दूसरे से उत्पन्न नहीं किया जा सकता इसलिये तथा वस्तुस्वभाव परको उत्पन्न नहीं कर सकता इसलिये, दीपक जैसे बाह्यपदार्थकी समीपतामें भी अपने स्वरूपसे ही प्रकाशता है। उसीप्रकार बाह्यपदार्थकी समीपतामें भी अपने स्वरूपसे ही प्रकाशता है । (इसप्रकार ) अपने स्वरूपसे ही प्रकाशता है ऐसे दीपकको, वस्तुस्वभावसे ही विचित्र परिणतिको प्राप्त होता हुआ मनोहर या अमनोहर घटपटादि बाह्यपदार्थ किंचित्मात्र भी विक्रिया उत्पन्न नहीं करता।
इसीप्रकार दृष्र्टात कहते हैं: बाह्य पदार्थ-शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श तथा गुण और द्रव्य-, जैसे देवदत्त यज्ञदत्तको हाथ पकड़कर किसी कार्यमें लगाता है उसीप्रकार, आत्माको स्वज्ञानमें (बाह्यपदार्थोंके जाननेके कार्यमें) नहीं लगाते कि 'तू मुझे सुन, तू मुझे देख , तू मुझे सूंघ, तू मुझे चख, तू मुझे स्पर्श कर, तू मुझे जान',
और आत्मा भी लोहचुंबक-पाषाणसे खींची हुई लोहेकी सुई की भाँति अपने स्थानसे च्युत होकर उन्हें (बाह्यपदार्थोंको) जानने को नहीं जाता; परंतु, वस्तुस्वभाव पर के द्वारा उत्पन्न नहीं किया जा सकता इसलिये तथा वस्तुस्वभाव परको उत्पन्न नहीं कर सकता इसलिये, आत्मा जैसे बाह्यपदार्थों की असमीपतामें (अपने स्वरूपसे ही जानता है) उसीप्रकार बाह्यपदार्थों की समीपतामें भी अपने स्वरूपसे ही जानता है। (इसप्रकार) अपने स्वरूपसे ही जानते हुए उस (आत्मा) को, वस्तुस्वभावसे ही विचित्र परिणतिको प्राप्त मनोहर अथवा अमनोहर शब्दादि बाह्यपदार्थ किंचित्मात्र भी विक्रिया उत्पन्न नहीं करते।
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समयसार
५२२
एवमात्मा प्रदीपवत् परं प्रति उदासीनो नित्यमेवेति वस्तुस्थितः, तथापि यद्रागद्वेषौ तदज्ञानम्।
(शार्दूलविक्रीडित) पूर्णकाच्युतशुद्धबोधमहिमा बोधो न बोध्यादयं यायात्कामपि विक्रियां तत इतो दीपः प्रकाश्यादिव। तद्वस्तुस्थितिबोधवन्ध्यधिषणा एते किमज्ञानिनो रागद्वेषमयीभवन्ति सहजां मुञ्चन्त्युदासीनताम्।। २२२ ।।
इसप्रकार आत्मा दीपककी भाँति परके प्रति सदा उदासीन (अर्थात् संबंध रहित , तटस्थ है) -ऐसी वस्तुस्थिति है, तथापि जो रागद्वेष होता है सो अज्ञान है।
भावार्थ:-शब्दादिक जड़ पुद्गलद्रव्यके गुण हैं। वे आत्मासे कहीं यह नहीं कहते, कि 'तू हमें ग्रहण कर ( अर्थात् तू हमें जान)'; और आत्मा भी अपने स्थानसे च्युत होकर उन्हें ग्रहण करने के लिये ( -जानने के लिये) उनकी ओर नहीं जाता। जैसे शब्दादिक समीप न हों तब भी आत्मा अपने स्वरूपसे ही जानता है, इसप्रकार शब्दादिक समीप हों तब भी आत्मा अपने स्वरूपसे ही जानता है। इसप्रकार अपने स्वरूपसे ही जाननेवाले ऐसे आत्माको अपने अपने स्वभावसे ही परिणमित होते हुए शब्दादिक किंचित्मात्र भी विकार नहीं करते, जैसे कि अपने स्वरूपसे ही प्रकाशित होने वाले दीपकको घटपटादि पदार्थ विकार नहीं करते। ऐसा वस्तुस्वभाव है, तथापि जीव शब्दको सुनकर , रूपको देखकर, गंधको सूंघकर, रसका स्वाद लेकर , स्पर्शको छूकर, गुण-द्रव्यको जानकर, उन्हें अच्छा-बुरा मानकर राग-द्वेष करता है, वह अज्ञान ही है।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ पूर्ण-एक-अच्युत-शुद्ध-बोध-महिमा अयं बोद्धा] पूर्ण, एक , अच्युत और ( -निर्विकार) ज्ञान जिसकी महिमा है ऐसा यह ज्ञायक आत्मा [ बोध्यात् ] ज्ञेय पदार्थोंसे [ काम् अपि विक्रियां न यायात् ] किंचित्मात्र भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होता, [ दीपः प्रकाश्यात् इव] जैसे दीपक प्रकाश्य (-प्रकाशित होने योग्य घटपटादि ) पदार्थों से विक्रिया को प्राप्त नहीं होता। [ ततः इतः ] तब फिर [ तद्-वस्तुस्थितिबोध-बन्ध्य-धिषणाः एते अज्ञानिनः ] जिनकी बुद्धि ऐसी वस्तुस्थिति के ज्ञानसे रहित है, ऐसे यह अज्ञानी जीव [ किम् सहजाम् उदासीनताम् मुञ्चन्ति, रागद्वेषमयीभवन्ति ] अपनी सहज उदासीनताको क्यों छोड़ते हैं तथा रागद्वेषमय क्यों होते हैं ? (इसप्रकार आचार्यदेवने सोच किया है।)
भावार्थ:-जैसे दीपकका स्वभाव घटपटादिको प्रकाशित करने का है
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५२३
( शार्दूलविक्रीडित) रागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः पूर्वागामिसमस्तकर्मविकला भिन्नास्तदात्वोदयात्। दूरारूढचरित्रवैभवबलाच्चञ्चच्चिदर्चिर्मयीं। विन्दन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवनां ज्ञानस्य सञ्चेतनाम्।। २२३ ।।
उसीप्रकार ज्ञानका स्वभाव ज्ञेय को जानने का ही है। ऐसा वस्तु स्वभाव है। ज्ञेयको जाननेमात्रसे ज्ञानमें विकार नहीं होता। ज्ञेयोंको जानकर, उन्हें अच्छा-बुरा मानकर, आत्मा रागीद्वेषी-विकारी होता है जो कि अज्ञान है। इसलिये आचार्यदेवने सोच किया है कि-'वस्तुका स्वभाव तो ऐसा है, फिर भी यह आत्मा अज्ञानी होकर रागद्वेषरूप क्यों परिणमित होता है ? अपनी स्वाभाविक उदासीन-अवस्थारूप क्यों नहीं रहता ?' इसप्रकार आचार्यदेवने जो सोच किया है सो उचित ही है, क्योंकि जब तक शुभ राग है तबतक प्राणियोंको अज्ञानसे दुःखी देखकर करुणा उत्पन्न होती है और उससे सोच भी होता है। २२२।
अब आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [राग-द्वेष-विभाव-मुक्त-महसः ] जिनका तेज रागद्वेषरूपी विभावसे रहित है, [ नित्यं स्वभाव-स्पृशः ] जो सदा (अपने चैतन्यचमत्कारमात्र) स्वभावको स्पर्श करनेवाले हैं, [ पूर्व-आगामि-समस्त-कर्म-विकला:] जो भूत कालके तथा भविष्य कालके समस्त कर्मोंसे रहित है और [ तदात्व-उदयात्-मिन्नाः] जो वर्तमान कालके कर्मोदयसे भिन्न है, [ दूर-आरूढ-चरित्र-वैभव-बलात् ज्ञानस्य सञ्चेतनाम् विन्दन्ति ] वे (-ऐसे ज्ञानी-) अति प्रबल चारित्रके वैभवके बलसे ज्ञानकी संचेतनाका अनुभव करते हैं- [चञ्चत्-चिद्-अर्चिर्मयीं] जो ज्ञान-चेतना चमकती हुई चैतन्यज्योतिमय है और [ स्व-रस-अभिषिक्त-भुवनाम् ] जिसने अपने (ज्ञानरूपी) रससे समस्त लोकको सींचा है।
भावार्थ:-जिनका रागद्वेष दूर हो गया, अपने चैतन्यस्वभावको जिन्होंने अंगीकार किया और अतीत, अनागत तथा वर्तमान कर्मका ममत्व दूर हो गया है ऐसे ज्ञानी सर्व परद्रव्योंसे अलग होकर चारित्र अंगीकार करते हैं। उस चारित्रके बलसे, कर्मचेतना और कर्मफलचेतनासे भिन्न जो अपनी चैतन्यकी परिणमनस्वरूप ज्ञानचेतना है उसका अनुभव करते हैं।
यहाँ यह तात्पर्य समझना चाहिये कि: -जीव पहले तो कर्मचेतना और कर्मफलचेतनासे भिन्न अपनी ज्ञानचेतनाका स्वरूप आगम-प्रमाण, अनुमान-प्रमाण और स्वसंवेदनप्रमाणसे जानता है और उसका श्रद्धान (प्रतीति) दृढ़ करता है;
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समयसार
५२४
कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं। तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं ।। ३८३ ।। कम्मं जं सुहमसुहं जम्हि य भावम्हि बज्झदि भविस्सं। तत्तो णियत्तदे जो सो पच्चक्खाणं हवदि चेदा।।३८४ ।। जं सुहमसुहमुदिण्णं संपडि य अणेयवित्थरविसेसं। तं दोसं जो चेददि सो खलु आलोयणं चेदा।। ३८५ ।।
यह तो अविरत, देशविरत और प्रमत्त अवस्थामें भी होता है। और जब अप्रमत्त अवस्था होती है तब जीव अपने स्वरूपका ही ध्यान करता है; उस समय, उसने जिस ज्ञानचेतनाका प्रथम श्रद्धान किया था उसमें वह लीन होता है और श्रेणि चढ़कर, केवलज्ञान उत्पन्न करके, साक्षात् "ज्ञानचेतनारूप हो जाता है। २२३।
जो अतीत कर्म के प्रति ममत्व छोड़ दे वह आत्मा प्रतिक्रमण है, जो अनागत कर्म न करने की प्रतिज्ञा करे ( अर्थात् जो भावोंसे आगामी कर्म बंधे उन भावोंका ममत्व छोड़े) वह आत्मा प्रत्याख्यान है और उदयमें आये हुए वर्तमान कर्मका ममत्व छोड़े वह आत्मा आलोचना है; सदा ऐसे प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचनापूर्वक प्रवर्तमान आत्मा चारित्र है। ऐसे चारित्रका विधान इन गाथाओं के द्वारा करते हैं:
शुभ और अशुभ अनेकविध के कर्म पूरब जो किये। उनसे निवर्ते आत्मको , वो आतमा प्रतिक्रमण है ।। ३८३।। शुभ और अशुभ भावी करमका बंध हो जिन भावमें । उससे निवर्तन जो करे, वो आतमा पचखाण है ।। ३८४ ।। शुभ और अशुभ अनेकविध हैं उदित जो इस काल में । उन दोषको जो चेततो, आलोचना वह जीव है ।। ३८५।।
* केवलज्ञानी जीवके साक्षात् ज्ञानचेतना होती है। केवलज्ञान होनेसे पूर्व भी, निर्विकल्प अनुभवके समय
जीवके उपयोगात्मक ज्ञानचेतना होती है। ज्ञानचेतनाके उपयोगात्मकत्वको मुख्य न किया जाये तो, सम्यग्दृष्टिके ज्ञानचेतना निरंतर होती है, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना नहीं होती; क्योंकि उसका निरंतर ज्ञानके स्वामित्वभावसे परिणमन होता है। कर्मके और कर्मफलके स्वामित्वभावसे परिणमन नहीं होता।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५२५
णिचं पच्चक्खाणं कुव्वदि णिचं पडिक्कमदि जो य। णिचं आलोचेयदि सो हु चरित्तं हवदि चेदा।।३८६ ।।
कर्म यत्पूर्वकृतं शुभाशुभमनेकविस्तरविशेषम्। तस्मान्निवर्तयत्यात्मानं तु यः स प्रतिक्रमणम्।। ३८३ ।। कर्म यच्छुभमशुभं यस्मिंश्च भावे बध्यते भविष्यत्। तस्मान्निवर्तते यः प्रत्याख्यानं भवति चेतयिता।।३८४ ।। यच्छुभमशुभमुदीर्ण सम्प्रति चानेकविस्तरविशेषम्। तं दोषं यः चेतयते स खल्वालोचनं चेतयिता।।३८५ ।। नित्यं प्रत्याख्यानं करोति नित्यं प्रतिक्रामति यश्च । नित्यमालोचयति स खलु चरित्रं भवति चेतयिता।। ३८६ ।।
पचखाण नित्य करे अरु प्रतिक्रमण जो नित्य हि करे । नित्यहि करे आलोचना, वो आत्मा चारित्र है ।। ३८६ ।।
गाथार्थ:- [ पूर्वकृतं] पूर्वकृत [ यत् ] जो [अनेकविस्तरविशेषम् ] अनेक प्रकारके विस्तारवाला [शुभाशुभम् कर्म] (ज्ञानावरणीय आदि) शुभाशुभ कर्म है [तस्मात् ] उससे [ यः] जो आत्मा [ आत्मानं तु] अपनेको [ निवर्तयति ] दूर रखता है, [ सः ] वह आत्मा [ प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण है।
[भविष्यत् ] भविष्य कालका [ यत् ] जो [शुभम् अशुभम् कर्म ] शुभ-अशुभ कर्म [ यस्मिन् भावे च ] जिस भावमें [ बध्यते ] बँधता है [ तस्मात् ] उस भावसे [ यः] जो आत्मा [ निवर्तते ] निवृत्त होता है, [ सः चेतयिता] वह आत्मा [ प्रत्याख्यानं भवति ] प्रत्याख्यान है।
[सम्प्रति च] वर्तमान कालमें [उदीर्ण] उदयागत [यत्] जो [ अनेकविस्तरविशेषम् ] अनेक प्रकारके विस्तारवाला [ शुभम् अशुभम् ] शुभ-अशुभ कर्म है [ तं दोषं ] उस दोषको [ यः ] जो आत्मा [ चेतयते ] चेतता है-अनुभव करता हैज्ञाताभावसे जान लेता है (अर्थात् उसके स्वामित्व-कर्तृत्वको छोड़ देता है), [ स: चेतयिता] वह आत्मा [ खलु ] वास्तवमें [ आलोचनम् ] आलोचना है।
[यः] जो [ नित्यं ] सदा [प्रत्याख्यानं करोति ] प्रत्याख्यान करता है, [ नित्यं प्रतिक्रामति च] सदा प्रतिक्रमण करता है और [ नित्यम् आलोचयति] सदा आलोचना करता है, [ सः चेतयिता] वह आत्मा [ खलु ] वास्तवमें [ चरित्रं भवति ] चारित्र है।
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समयसार
५२६
यः खलु पुद्गलकर्मविपाकभवेभ्यो भावेभ्यश्चेतयितात्मानं निवर्तयति, स तत्कारणभूतं पूर्व कर्म प्रतिक्रामन् स्वयमेव प्रतिक्रमणं भवति। स एव तत्कार्यभूतमुत्तरं कर्म प्रत्याचक्षाण: प्रत्याख्यानं भवति। स एव वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यन्तभेदेनोपलभमानः आलोचना भवति। एवमयं नित्यं प्रतिक्रामन्, नित्यं प्रत्याचक्षाणो, नित्यमालोचयंश्च, पूर्वकर्मकार्येभ्य उत्तरकर्मकारणेभ्यो भावेभ्योऽत्यन्तं निवृत्तः, वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यन्तभेदेनोपलभमानः, स्वस्मिन्नेव खलु ज्ञानस्वभावे निरन्तरचरणाचारित्रं भवति। चारित्रं तु भवन् स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भावः।
टीका:-जो आत्मा पुद्गलकर्मके विपाक (उदय) से हुये भावोंसे अपनेको छुड़ाता है, वह आत्मा उन भावोंके कारणभूत पूर्वकर्मोंको (भूतकालके कर्मोंको) प्रतिक्रमता हुआ स्वयं ही प्रतिक्रमण है; वही आत्मा, उन भावोंके कार्यभूत उत्तरकर्मों को ( भविष्यकालके कर्मों) प्रत्याख्यानरूप करता हुआ, प्रत्याख्यान है; वही आत्मा , वर्तमान कर्मविपाकको अपनेसे (आत्मासे) अत्यंत भेदपूर्वक अनुभव करता हुआ; आलोचना है। इसप्रकार यह आत्मा सदा प्रतिक्रम करता हुआ, सदा प्रत्याख्यान करता हुआ और सदा आलोचना करता हुआ, पूर्वकर्मोंके कार्यरूप और उत्तरकर्मोंके कारणरूप भावोंसे अत्यंत निवृत्त होता हुआ, वर्तमान कर्मविपाकको अपनेसे (आत्मासे) अत्यंत भेदपूर्वक अनुभव करता हुआ , अपनेमें ही-ज्ञानस्वभावमें हीनिरंतर चरनेसे (-आचरण करने से) चारित्र है (अर्थात् स्वयं ही चारित्रस्वरूप है)।
और चारित्रस्वरूप होता हुआ अपनेको-ज्ञानमात्रको-चेतता ( अनुभव करता) है इसलिये ( वह आत्मा) स्वयं ही ज्ञानचेतना है, ऐसा आशय है।
भावार्थ:-चारित्रमें प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचनाका विधान है। उसमें, पहले लगे हुए दोषोंसे आत्माको निवृत करना सो प्रतिक्रमण है, भविष्यमें दोष लगाने का त्याग करना सो प्रत्याख्यान है और वर्तमान दोषसे आत्माको पृथक् करना सो आलोचना है। यहाँ निश्चयचारित्रको प्रधान करके कथन है; इसलिये निश्चयसे विचार करने पर, जो आत्मा त्रिकालके कर्मोंसे अपनेको भिन्न जानता है, श्रद्धा करता है और अनुभव करता है, वह आत्मा स्वयं ही प्रतिक्रमण है, स्वयं ही प्रत्याख्यान है और स्वयं ही आलोचना है। इसप्रकार प्रतिक्रमणस्वरूप, प्रत्याख्यानस्वरूप और आलोचना स्वरूप आत्माका निरंतर अनुभवन ही निश्चयचारित्र है। जो यह निश्चयचारित्र है, वही ज्ञानचेतना ( अर्थात् ज्ञानका अनुभवन) है। उसी ज्ञानचेतनासे ( अर्थात् ज्ञानके अनुभवनसे) साक्षात् ज्ञानचेतनास्वरूप केवलज्ञानमय आत्मा प्रगट होता है।
अब आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं, जिसमें ज्ञानचेतना और अज्ञानचेतना (अर्थात् कर्मचेतना और कर्मफलचेतना) फल प्रगट करते हैं:
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५२७
(उपजाति) ज्ञानस्य सञ्चेतनयैव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धम्। अज्ञानसञ्चेतनया तु धावन् बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि बन्धः ।। २२४ ।।
वेदंतो कम्मफलं अप्पाणं कुणदि जो दु कम्मफलं। सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं।। ३८७ ।। वेदंतो कम्मफलं मए कदं मुणदि जो दु कम्मफलं। सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं।। ३८८ ।।
श्लोकार्थ:- [ नित्यं ज्ञानस्य सञ्चेतनया एव ज्ञानम् अतीव शुद्धम् प्रकाशते] निरंतर ज्ञानकी संचेतनासे ही ज्ञान अत्यंत शुद्ध प्रकाशित होता है; [ तु] और [अज्ञानसञ्चेतनया ] अज्ञानकी संचेतनासे [बन्धः धावन् ] बंध दौड़ता हुआ [ बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि ] ज्ञानकी शुद्धताको रोकता है-अर्थात् ज्ञानकी शुद्धता नहीं होने देता।
भावार्थ:-कोई ( वस्तु) के प्रति एकाग्र होकर उसी का अनुभवरूप स्वाद लिया करना वह उसका संचेतन कहलाता है। ज्ञानके प्रति एकाग्र उपयुक्त होकर उस
ओर ही ध्यान रखना वह ज्ञानका संचेतन अर्थात् ज्ञानचेतना है। उससे ज्ञान अत्यंत शुद्ध होकर प्रकाशित होता है अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न होता है। केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर संपूर्ण ज्ञानचेतना कहलाती है।
अज्ञानरूप (अर्थात् कर्मरूप और कर्मफलरूप) उपयोगको करना, उसी की ओर (-कर्म और कर्मफलकी ओर ही-) एकाग्र होकर उसीका अनुभव करना, वह अज्ञानचेतना है। उससे कर्मका बंध होता है, जो बन्ध ज्ञानकी शुद्धताको रोकता है।
२२४।
अब इसी को गाथाओं द्वारा कहते हैं:
जो कर्मफलको वेदता जीव कर्मफल निजरूप करे । वो पुनः बाँधे अष्टविधके कर्मको-दुःखबीजको ।। ३८७।। जो कर्मफलको वेदता जाने 'करमफल मैं किया। वो पुन: बाँधे अष्टविधके कर्मको-दुःखबीजको ।। ३८८।।
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समयसार
५२८
वेदंतो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो य हवदि जो चेदा। सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं ।। ३८९ ।।
वेदयमानः कर्मफलमात्मानं करोति यस्तु कर्मफलम्। स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविधम्।। ३८७ ।। वेदयमानः कर्मफलं मया कृतं जानाति यस्तु कर्मफलम्। स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविधम्।।३८८ ।। वेदयमानः कर्मफलं सुखितो दुःखितश्च भवति यश्चेतयिता। स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविधम्।। ३८९ ।।
जो कर्मफलको वेदता आत्मा सुखी-दुःखी होय है।
वो पुनः बाँधे अष्टविधके कर्मको-दुःखबीजको ।। ३८९ ।। गाथार्थ:- [ कर्मफलम् वेदयमानः ] कर्मके फलका वेदन करता हुआ [ यः तु] जो आत्मा [कर्मफलम् ] कर्मफलको [आत्मानं करोति] निजरूप करता (-मानता) है, [ सः] वह [ पुनः अपि] फिरसे भी [ अष्टविधम् तत् ] आठ प्रकारके कर्मको[ दुःखस्य बीजं ] दुःखके बीजको- [ बध्नाति ] बाँधता है।
[ कर्मफलं वेदयमानः ] कर्मके फलका वेदन करता हुआ [ यः तु] जो आत्मा [ कर्मफलम् मया कृतं जानाति] यह जानता (मानता) है 'कर्मफल मैंने किया', [ सः] वह [ पुनः अपि] फिरसे भी [अष्टविधम् तत् ] आठ प्रकारके कर्मको- [ दुःखस्य बीजं] दुःखके बीजको- [ बध्नाति ] बाँधता है।
[कर्मफलं वेदयमानः ] कर्मफलको वेदन करता हुआ [ यः चेतयिता] जो आत्मा [ सुखितः दुःखितः च ] सुखी और दुःखी [भवति ] होता है, [ सः] वह [ पुनः अपि ] फिर से भी [ अष्टविधम् तत् ] आठ प्रकारके कर्मको- [ दुःखस्य बीजं ] दुःखके बीजको- [ बध्नाति] बाँधता है।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५२९
ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनम् अज्ञानचेतना। सा द्विधा-कर्मचेतना कर्मफलचेतना च। तत्र ज्ञानादन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचेतना; ज्ञानादन्यत्रेदं वेदयेऽहमिति चेतनं कर्मफलचेतना। सा तु समस्तापि संसारबीजं; संसारबीजस्याष्टविधकर्मणो बीजत्वात्। ततो मोक्षार्थिना पुरुषेणाज्ञानचेतनाप्रलयाय सकलकर्मसंन्यासभावनां सकलकर्मफलसंन्यासभावनां च नाटयित्वा स्वभावभूता भगवती ज्ञानचेतनैवैका नित्यमेव नाटयितव्या।
तत्र तावत्सकलकर्मसंन्यासभावनां नाटयति
(आर्या) कृतकारितानुमननैस्त्रिकालविषयं मनोवचनकायैः। परिहृत्य कर्म सर्व परमं नैष्कर्म्यमवलम्बे।। २२५ ।।
टीका:-ज्ञानसे अन्यमें (-ज्ञान सिवा अन्य भावोंमें) ऐसा चेतना ( अनुभव करना) कि 'यह मैं हूँ', सो अज्ञानचेतना है। वह दो प्रकार की है-कर्मचेतना और कर्मफलचेतना। उसमें , ज्ञानसे अन्यमें ( अर्थात् ज्ञानके सिवा अन्य भावोमें) ऐसा चेतना कि 'इसको मैं करता हूँ', वह कर्मचेतना है; और ज्ञानसे अन्यमें ऐसा चेतना कि 'इसे मैं भोगता हूँ', वह कर्मफलचेतना है। (इसप्रकार अज्ञानचेतना दो प्रकार से है।) वह समस्त अज्ञानचेतना संसारका बीज है; क्योंकि संसारके बीज जो आठ प्रकारके (ज्ञानावरणादि) कर्म, उनका बीज वह अज्ञानचेतना है (अर्थात् उससे कर्मोंका बँध होता है)। इसलिये मोक्षार्थी पुरुषको अज्ञानचेतनाका प्रलय करनेके लिये सकल कर्मोंके संन्यास (त्याग) की भावनाको तथा सकल कर्मफलके संन्यासकी भावनाको नचाकर , स्वभावभूत ऐसी भगवती ज्ञानचेतनाको ही एकको सदा नचाना चाहिये।
इसमें पहले , सकल कर्मोंके संन्यासकी भावनाको नचाते हैं:( वहाँ प्रथम , काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:- [त्रिकालविषयं] त्रिकालके (अर्थात् अतीत, वर्तमान और अनागत काल संबंधी) [ सर्व कर्म] समस्त कर्मको [ कृत-कारित–अनुमननैः ] कृतकारित-अनुमोदनासे और [ मनः-वचन-कायैः ] मन-वचन-कायासे [परिहृत्य ] त्याग करके [ परमं नैष्कर्म्यम् अवलम्बे ] मैं परम नैष्कर्म्यका (-उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्थाका) अवलम्बन करता हूँ। (इसप्रकार, समस्त कर्मोंका त्याग करनेवाला ज्ञानी प्रतिज्ञा करता है।) । २२५।
( अब टीकामें प्रथम, प्रतिक्रमण-कल्प अर्थात् प्रतिक्रमणकी विधि कहते हैं:-) ( प्रतिक्रमण करनेवाला कहता है कि:)
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५३०
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समयसार
यदहमकार्षं, यदचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३। यदहमकार्षं, यदचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ५। यदहमकार्षं, यदचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ६ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ७ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, मनसा च वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ८ । यदहमकार्षं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या दुष्कृतमिति ९। यदहमचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १० ।
9
जो मैंने (अतीतकाल में कर्म) किया, कराया और दूसरे करते हुए का अनुमोदन किया, मनसे, वचनसे तथा कायसे, यह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। (कर्म करना, कराना और अन्य करनेवालेका अनुमोदन करना वह संसारका बीज है यह जानकर उस दुष्कृत के प्रति हेयबुद्धि आई तब जीव ने उसके प्रति ममत्व छोड़ा, यही उसका मिथ्या करना है ) । १ ।
जो मैंने (अतीतकाल में कर्म) किया, कराया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया, मनसे तथा वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । २। जो मैंने (पूर्वे में) किया, कराया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया, मनसे तथा कायासे, यह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । ३ । जो मैंने ( पूर्वेमें) किया, कराया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया, वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । ४ ।
जो मैंने (अतीतकाल में ) किया, कराया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया, मनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । ५ । जो मैंने (पूर्वेमें) किया, कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । ६ । जो मैंने (पूर्वेमें) किया, कराया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया, कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । ७ ।
जो मैंने (पूर्वेमें) किया और कराया मनसे, वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । ८। जो मैंने (पूर्वेमें) किया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया मनसे, वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । ९ । जो मैंने (पूर्वमैं ) कराया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया मनसे, वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। १० ।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५३१
यदहमकार्ष, यदचीकरं, मनसा च वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ११ । यदहमकार्षं , यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १२। यदहमचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १३। यदहमकार्ष , यदचीकरं, मनसा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १४। यदहमकार्षं , यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च कायेन च , तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १५। यदहमचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १६ । यदहमकार्ष, यदचीकरं, वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १७। यदहमकार्षं , यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १८। यदहमचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १९। यदहमकार्ष, यदचीकरं, मनसा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २०। यदहमकार्ष, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २१। यदहमचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २२ । यदहमकार्ष, यदचीकरं, वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २३।।
जो मैंने (अतीतकाल में) किया और कराया मनसे तथा वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ११। जो मैंने (पूर्वेमें) किया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया मनसे तथा वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। १२। जो मैंने (पूर्वेमें) कराया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया मनसे तथा वचनसे , वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। १३। जो मैंने (पूर्वेमें) किया और कराया मनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। १४। जो मैंने (पूर्वेमें) किया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया मनसे तथा कायसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। १५। जो मैंने (पूर्वेमें) कराया और अन्य करते हए का अनमोदन किया मनसे तथा कायासे. वह मेरा दष्कत मिथ्या हो। १६ । जो मैंने (पूर्वेमें) किया और कराया वचनसे तथा कायासे , वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। १७। जो मैंने (पूर्वेमें) किया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया वचनसे तथा कायासे , वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। १८। जो मैंने (पूर्वेमें) कराया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। १९ ।
जो मैंने (अतीतकाल में) किया और कराया मनसे , वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। २०। जो मैंने ( पूर्वेमें) किया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया मनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। २१। जो मैंने (पूर्वेमें) कराया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया मनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। २२। जो मैंने (पूर्वेमें) किया और कराया वचनसे , वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। २३।
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५३२
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समयसार
यदहमकार्षं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २४।यदहमचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २५। यदहमकार्षं, यदचीकरं, कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २६ । यदहमकार्षं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २७। यदहमचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २८। यदहमकार्षं मनसा च वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २९। यदहमचीकरं मनसा च वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३० । यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३१। यदहमकार्षं मनसा च वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३२ । यदहमचीकरं मनसा च वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३३ । यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३४ । यदहमकार्षं मनसा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३५ । यदहमचीकरं मनसा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३६ ।
जो मैंने (पूर्वेमें ) किया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । २४ । जो मैंने (पूर्वेमें) कराया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । २५ । जो मैंने ( पूर्वेमें) किया और कराया कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । २६ । जो मैंने (पूर्वेमें) किया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । २७ । जो मैंने (पूर्वेमें) कराया और अन्य करते हुए का अनुमोदन किया कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।
२८ ।
जो मैंने (अतीतकाल में ) किया मनसे, वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। २९। जो मैंने (पूर्वेमें) कराया मनसे, वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । ३० । जो मैंने अन्य करते हुए का अनुमोदन किया मनसे, वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । ३१ ।
जो मैंने (अतीतकाल में ) किया मनसे तथा वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ३२। जो मैंने (पूर्वेमें) कराया मनसे तथा वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ३३। जो मैंने (पूर्वेमें) अन्य करते हुए का अनुमोदन किया मनसे तथा वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । ३४ । जो मैंने ( पूर्वेमें) किया मनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । ३५ । जो मैंने (पूर्वेमें) कराया मनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । ३६ ।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार ।
यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३७। यदहमकार्ष वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३८। यदहमचीकरं वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३९। यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४०। यदहमकार्षं मनसा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४१। यदहमचीकरं मनसा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४२। यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४३। यदहमकार्षं वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४४। यदहमचीकरं वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ५। यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४६। यदहमकार्षं कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४७। यदहमचीकरं कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४८। यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४९।
जो मैंने (पूर्वेमें) अन्य करते हुए का अनुमोदन किया मनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ३७। जो मैंने (पूर्वेमें) किया वचनसे तथा कायासे , वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ३८। जो मैंने (पूर्वेमें) कराया वचनसे तथा कायासे , वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ३९। जो मैंने ( पूर्वेमें) अन्य करते हुए का अनुमोदन किया वचनसे तथा कायासे , वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ४०।
जो मैंने (अतीतकाल में) किया मनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ४१। जो मैंने (पूर्वेमें) कराया मनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ४२। जो मैंने (पूर्वेमें) अन्य करते हुए का अनुमोदन किया मनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ४३। जो मैंने (पूर्वेमें) किया वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ४४। जो मैंने (पूर्वेमें) कराया वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ४५। जो मैंने (पूर्वेमें) अन्य करते हुए का अनुमोदन किया वचनसे , वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ४६। जो मैंने (पूर्वेमें) किया कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ४७। जो मैंने (पूर्वेमें) कराया कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ४८। जो मैंने (पूर्वे ) अन्य करते हुए का अनुमोदन किया कायासे , वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। ४९ ।
(इन ४९ भंगोंके अंदर, पहले भंगमें कृत, कारित , अनुमोदना-ये तीन लिये हैं और उनपर मन, वचन, काय-ये तीन लगाये हैं। इसप्रकार बने हुए इस एक भंगको "३३ 'की समस्यासे-संज्ञासे–पहिचाना जा सकता है। २ से ४ तकके भंगोंमें कृत, कारित, अनुमोदना के तीनों लेकर उनपर मन, वचन, कायामेंसे दो दो लगाये हैं।
* कृत, कारित, अनुमोदना-यह तीनों लिये गये हैं सो उन्हें बताने के लिये पहले '३'का अंक रखना, और फिर मन, वचन, काय-यह तीन लिये हैं सो उन्हें बताने के लिये उसी के पास दूसरा '३' का अंक रखना चाहिये। इसप्रकार यह '३३'की समस्या हुई।
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समयसार
५३४
(आर्या) मोहाद्यदहमकार्षं समस्तमपि कर्म तत्प्रतिक्रम्य। आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते।। २२६ ।।
इसप्रकार बने हुए इन तीनों भंगोको, ‘३२ 'की संज्ञासे पहिचाना जा सकता है। ५ से ७ तकके भंगोंमें कृत, कारित, अनुमोदना के तीनों लेकर उनपर मन, वचन, कायामेंसे एक एक लगाया है। इन तीनों भंगोंको '३१' की संज्ञासे पहिचाना जा सकता है। ८ से १० तकके भंगोंमें कृत, कारित , अनुमोदना मेंसे दो-दो लेकर उनपर मन, वचन, काया तीनों लगाए हैं। इन तीनों भंगोंको ‘२३ 'की संज्ञावाले भंग के रूप में पहिचाना जा सकता है। ११ से १९ तकके भंगोंमें कृत, कारित, अनुमोदनामेंसे दोदो लेकर उनपर मन, वचन, कायमें से दो लगाये हैं। इन नौ भंगोंको ‘२२' की संज्ञा से पहिचाना जा सकता है। २० से २८ तकके भंगोंमें कृत, कारित, अनुमोदनामेंसे दो-दो लेकर उनपर मन, वचन, कायामेंसे एक एक लगाया है। इन नौ भंगोंको ‘२१'की संज्ञावाले भंगों के रूप में पहिचाना जा सकता है। २९ से ३१ तकके भंगोंमें कृत, कारित, अनुमोदनामेंसे एक एक लेकर उनपर मन, वचन, काय तीनों लगाये हैं। इन तीनों भंगोंको ‘१३ 'की संज्ञासे पहिचाना जा सकता है। ३२ से ४० तकके भंगोंमें कृत, कारित, अनुमोदनामेंसे एक-एक लेकर उनपर मन, वचन , कायामेंसे दो-दो लगाये हैं। इन नौ भंगोंको ‘१२ 'की संज्ञासे पहिचाना जा सकता है। ४१ से ४९ तकके भंगोंमें कृत, कारित, अनुमोदनामेंसे एक-एक लेकर उनपर मन, वचन, कायामेंसे एक एक लगाया है। इन नौ भंगोंको ‘११ 'की संज्ञासे पहिचाना जा सकता है। इसप्रकार सब मिलकर ४९ भंग हुये।)
अब इस कथनका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ यद् अहम् मोहात् अकार्षम् ] मैंने जो मोहसे अथवा अज्ञानसे ( भूत कालमें) कर्म किये हैं, [ तत् समस्तम् अपि कर्म प्रतिक्रम्य ] उन समस्त कर्मोंका प्रतिक्रमण करके [ निष्कर्मणि चैतन्य आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] मैं निष्कर्म ( अर्थात् समस्त कर्मोंसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही (-निज से ही-) निरंतर वर्त रहा हूँ (इसप्रकार ज्ञानी अनुभव करता है)।
* कृत, कारित, अनुमोदना तीनों लिये हैं यह बताने के लिये पहले '३'का अंक रखना चाहिये; और फिर
मन, वचन, कायामेंसे दो लिये हैं यह बताने के लिये '३' के पास '२'का अंक रखना चाहिये। इसप्रकार '३२ की संज्ञा हुई।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५३५
इति प्रतिक्रमणकल्पः समाप्तः।
न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति १। न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा चेति २। न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च कायेन चेति ३। न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा च कायेन चेति ४। न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा चेति ५। न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा चेति ६। न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि , कायेन चेति ।
भावार्थ:-भूत कालमें किये गये कर्मको ४९ भंगपूर्वक मिथ्या करनेवाले प्रतिक्रमण करके ज्ञानी ज्ञानस्वरूप आत्मामें लीन होकर निरंतर चैतन्यस्वरूप आत्माका अनुभव करे, इसकी यह विधि है। 'मिथ्या' कहने का प्रयोजन इसप्रकार है:-जैसे, किसी ने पहले धन कमा कर घरमें रख छोड़ा था; और फिर जब उसके प्रति ममत्व छोड़ दिया तब उसे भोगने का अभिप्राय न नहीं रहा; उस समय, भूत कालमें जो धन कमाया था वह नहीं कमाने के समान ही है; इसीप्रकार, जीवने पहले कर्म बंध किया था; फिर जब उसे अहितरूप जानकर उसके प्रति ममत्व छोड़ दिया और उसके फलमें लीन न हुआ, तब भूत कालमें जो कर्म बाँधा था वह नहीं बाँधने के समान मिथ्या ही है। २२६ ।
इसप्रकार प्रतिक्रमण-कल्प ( अर्थात् प्रतिक्रमणकी विधि ) समाप्त हुआ। ( अब टीकामें आलोचनाकल्प कहते हैं:-)
मैं ( वर्तमानमें कर्म) न तो करता हूँ। न कराता हूँ और न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे, वचनसे तथा कायसे। १।
मैं ( वर्तमानमें कर्म ) न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे तथा वचनसे। २। मैं ( वर्तमानमें) न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे तथा कायसे। ३। मैं न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, वचनसे तथा कायसे ।।
मैं न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे। ५। मैं न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, वचनसे। ६। मैं न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, कायासे। ७।
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समयसार
५३६
न करोमि, न कारयामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति ८। न करोमि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति ९। न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति १०। न करोमि, न कारयामि, मनसा च वाचा चेति ११। न करोमि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा चेति १२। न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा चेति १३। न करोमि, न कारयामि, मनसा च कायेन चेति १४ । न करोमि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च कायेन चेति ५। न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च कायेन चेति १६ । न करोमि, न कारयामि, वाचा च कायेन चेति १७। न करोमि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा च कायेन चेति १८। न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा च कायेन चेति १९ । न करोमि, न कारयामि, मनसा चेति २०। न करोमि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा चेति २१। न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा चेति २२। न करोमि, न कारयामि, वाचा चेति २३। न करोमि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा चेति २४। न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा चेति २५। न करोमि, न कारयामि, कायेन चेति २६ ।
न मैं करता हूँ, न कराता हूँ, मनसे, वचनसे तथा कायसे। ८। न तो मैं करता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे, वचनसे तथा कायासे। ९। न मैं कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे, वचनसे तथा कायासे। १०।
न मैं करता हूँ, न कराता हूँ, मनसे तथा वचनसे। ११। न मैं करता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे तथा वचनसे। १२। न तो मैं कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे तथा वचनसे। १३। न मैं करता हूँ, न कराता हूँ, मनसे तथा कायासे। १४। न मैं करता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे तथा कायासे। १५ । न मैं कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे तथा कायासे। १६। न मैं करता हूँ, न कराता हूँ, वचनसे तथा कायासे। १७। न मैं करता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, वचनसे तथा कायासे। १८ । न मैं कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, वचनसे तथा कायासे। १९।
न तो मैं करता हूँ, न कराता हूँ, मनसे। २०। न मैं करता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे। २१। न मैं कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे। २२। न मैं करता हूँ, न कराता हूँ, वचनसे। २३। न मैं करता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, वचनसे। २४। न मैं कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, वचनसे। २५। न मैं करता हूँ, न कराता हूँ, कायासे। २६।
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५३७
न करोमि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि , कायेन चेति २७। न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, कायेन चेति २८। न करोमि मनसा च वाचा च कायेन चेति २९। न कारयामि मनसा च वाचा च कायेन चेति ३०। न कुर्वन्तमप्यन्य समनुजानामि मनसा च वाचा च कायेन चेति ३१। न करोमि मनसा च वाचा चेति ३२। न कारयामि मनसा च वाचा चेति ३३। न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च वाचा चेति ३४। न करोमि मनसा च कायेन चेति ३५। न कारयामि मनसा च कायेन चेति ३६ । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च कायेन चेति ३७। न करोमि वाचा च कायेन चेति ३८। न कारयामि वाचा च कायेन चेति ३९ । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि वाचा च कायेन चेति ४०। न करोमि मनसा चेति ४१। न कारयामि मनसा चेति ४२। न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि मनसा चेति ४३। न करोमि वाचा चेति ४४। न कारयामि वाचा चेति ४५। न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि वाचा चेति ४६ । न करोमि कायेन चेति ४७। न कारयामि कायेन चेति ४८ । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि कायेन चेति ४९ ।
न मैं करता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, कायासे। २७। न मैं कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, कायासे। २८ ।
न मैं करता हूँ मनसे, वचनसे तथा कायासे। २९। न मैं कराता हूँ मनसे , वचनसे तथा कायासे। ३०। मैं अन्य करते हुएका अनुमोदन नहीं करता मनसे, वचनसे तथा कायासे। ३१।
न मैं करता हूँ मनसे तथा वचनसे। ३२। न मैं कराता हूँ मनसे तथा वचनसे। ३३। न मैं अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ मनसे तथा वचनसे। ३४। न मैं करता हूँ मनसे तथा कायासे। ३५। न मैं कराता हूँ मनसे तथा कायासे। ३६। न मैं अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ मनसे तथा कायासे। ३७। न मैं करता हूँ वचनसे तथा कायासे। ३८। न मैं करता हूँ वचनसे तथा कायासे। ३९। न मैं अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ वचनसे तथा कायासे। ४०।
न मैं करता हूँ मनसे। ४१। न मैं कराता हूँ मनसे। ४२। न मैं अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ मनसे। ४३। न मैं करता हूँ वचनसे। ४४। न मैं कराता हूँ वचनसे। ४५। न मैं अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ वचनसे। ४६। न मैं करता हूँ कायासे। ४७। न मैं कराता हूँ कायासे। ४८। न मैं अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ कायासे। ४९। (इसप्रकार, प्रतिक्रमणके समान आलोचनामें भी ४९ भंग कहे।)
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५३८
(आर्या) मोहविलासविजृम्भितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य। आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते।। २२७ ।।
इत्यालोचनाकल्प: समाप्तः।
न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति १। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा चेति २। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च कायेन चेति ३।
अब इस कथनका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- (निश्चयचारित्रको अंगीकार करनेवाला कहता है कि-) [ मोहविलासविजृम्भितम् इदम् उदयत् कर्म] मोहके विलाससे फैला हुआ जो यह उदयमान (उदयमें आता हुआ) कर्म [ सकलम् आलोच्य ] उस सभी की आलोचना करके (-उन सर्व कर्मोकी आलोचना करके-) [ निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] मैं निष्कर्म ( अर्थात् सर्व कर्मोंसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही निरंतर वर्त रहा हूँ।
भावार्थ:- वर्तमान कालमें कर्मका उदय आता है उसके विषयमें ज्ञानी यह विचार करता है कि पहले जो कर्म बाँधा था उसका यह कार्य है, मेरा तो यह कार्य नहीं। मैं इसका कर्ता नहीं, मैं तो शुद्धचैतन्यमात्र आत्मा हूँ। उसकी दर्शनज्ञानरूप प्रवृत्ति है। उस दर्शनज्ञानरूप प्रवृतिके दारा मैं इस उदयागत कर्म को देखनेजाननेवाला हूँ। मैं अपने स्वरूपमें ही प्रवर्तमान हूँ। ऐसा अनुभव करना ही निश्चयचारित्र है। २२७।
इसप्रकार आलोचनाकल्प समाप्त हुआ। ( अब टीकामें प्रत्याख्यानकल्प अर्थात् प्रत्याख्यानकी विधि कहते हैं:(प्रत्याख्यान करने वाला कहता है कि:-)
मैं ( भविष्यमें कर्म) न तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे, वचनसे तथा कायसे।१। मैं ( भविष्यमें कर्म) न तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे तथा वचनसे। २। मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे तथा कायसे।
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न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, वाचा च कायेन चेति ४। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा चेति ५। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, वाचा चेति । न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, कायेन चेति ७। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति ८। न करिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति ९। न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति १०। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, मनसा च वाचा चेति ११। न करिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा चेति १२। न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा चेति १३। न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, मनसा च कायेन चेति १४। न करिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च कायेन चेति १५। न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च कायेन चेति १६ । न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, वाचा च कायेन चेति १७। न करिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, वाचा च कायेन चेति १८ ।
मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, वचनसे तथा कायसे। ४।
मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे। ५। मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, वचनसे। ६। मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, कायसे। ७।
मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, मनसे, वचनसे तथा कायसे। ८। मैं न तो करूँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे, वचनसे तथा कायसे ९। मैं न तो कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे, वचनसे तथा कायासे। १०।
मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, मनसे तथा वचनसे। ११। मैं न तो करूँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे तथा वचनसे। १२। मैं न तो कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे तथा वचनसे। १३। मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, मनसे तथा कायासे। १४। मैं न तो करूँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे तथा कायसे। १५। मैं न तो कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे तथा कायसे। १६। मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, वचनसे तथा कायासे। १७। मैं न तो करूँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, वचनसे तथा कायासे। १८।
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करिष्यामि, न कारयिष्यामि मनसा चेति २०। न करिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा चेति २१ । न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा चेति २२ । न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, वाचा चेति २३ । न करिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, वाचा चेति २४ । न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, वाचा चेति २५ । न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, कायेन चेति २६। न करिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, कायेन चेति २७ । न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, कायेन चेति २८ । न करिष्यामि मनसा च वाचा च कायेन चेति २९। न कारयिष्यामि मनसा च वाचा च कायेन चेति ३० । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा च कायेन चेति ३१ । न करिष्यामि मनसा च वाचा चेति ३२। न कारयिष्यामि मनसा च वाचा चेति ३३ । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा चेति ३४। न करिष्यामि मनसा च कायेन चेति ३५ । न कारयिष्यामि मनसा च कायेन चेति ३६ । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च कायेन चेति ३७ । न करिष्यामि वाचा च कायेन चेति ३८ । न कारयिष्यामि वाचा च कायेन चेति ३९। न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि वाचा च कायेन चेति ४०।
मैं न तो कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, वचनसे तथा कायसे ।
१९ ।
मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, मनसे । २० । मैं न तो करूँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे । २१। मैं न तो कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे । २२ । मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, वचनसे । २३। मैं न तो करूँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, वचनसे २४ । मैं न तो कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, वचनसे । २५। मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, कायसे। २६। मैं न तो करूँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, कायसे। २७। मैं न तो कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, कायसे । २८।
मैं न तो करूँगा मनसे, वचनसे तथा कायसे । २९ । मैं न तो कराऊँगा मनसे, वचनसे तथा कायसे । ३० । मैं न तो अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा मनसे, वचनसे तथा कायासे । ३१ ।
मैं न तो करूँगा मनसे तथा वचनसे । ३२ । मैं न तो कराऊँगा मनसे तथा वचनसे। ३३। न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा मनसे तथा वचनसे। ३४ मैं न तो करूँगा मनसे तथा कायासे । ३५ । मैं न तो कराऊँगा नहीं मनसे तथा कायासे । ३६। मैं न तो अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा मनसे तथा कायसे । ३७। मैं न तो करूँगा वचनसे तथा कायासे । ३८। मैं न तो कराऊँगा वचनसे तथा कायसे ३९ । मैं न तो अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा वचनसे तथा कायसे । ४० ।
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न करिष्यामि मनसा चेति ४१। न कारयिष्यामि मनसा चेति ४२। न कुर्वन्तमप्यन्य समनुज्ञास्यामि मनसा चेति ४३। न करिष्यामि वाचा चेति ४४। न कारयिष्यामि वाचा चेति ४५। न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि वाचा चेति ४६ । न करिष्यामि कायेन चेति ४७। न कारयिष्यामि कायेन चेति ४८। न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि कायेन चेति ४९।
(आर्या) प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसम्मोहः। आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते।। २२८ ।।
इति प्रत्याख्यानकल्पः समाप्तः।
मैं न तो करूँगा मनसे। ४१। मैं न तो कराऊँगा मनसे। ४२। मैं न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा मनसे। ४३। मैं न तो करूँगा वचनसे। ४४। मैं न तो कराऊँगा वचनसे। ४५। मैं न तो अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा वचनसे। ४६। मैं न तो करूँगा कायसे। ४७। मैं न तो कराऊँगा कायासे। ४८। मैं न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा कायसे। ४९।।
(इसप्रकार, प्रतिक्रमणके समान ही प्रत्याख्यानमें भी ४९ भंग कहे।) अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- (प्रत्याख्यान करनेवाला ज्ञानी कहता है कि-) [ भविष्यत् समस्तं कर्म प्रत्याख्याय] भविष्यके समस्त कर्मोंका प्रत्याख्यान (-त्याग) करके, [ निरस्त-सम्मोहः निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते] जिसका मोह नष्ट हो गया है ऐसा मैं निष्कर्म (अर्थात् समस्त कर्मोसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही (-अपनेसे ही-) निरंतर वर्त रहा हूँ।
भावार्थ:-निश्चयचारित्रमें प्रत्याख्यानका विधान ऐसा है कि-समस्त आगामी कर्मोसे रहित, चैतन्यकी प्रवृत्तिरूप ( अपने) शुद्धोपयोगमें रहना सो प्रत्याख्यान है। इससे ज्ञानी आगामी समस्त कर्मोका प्रत्याख्यान करके अपने चैतन्यस्वरूपमें रहता है।
यहाँ तात्पर्य इसप्रकार जानना चाहिये:-व्यवहारचारित्रमें तो प्रतिज्ञामें जो दोष लगता है उसका प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान होता है। यहाँ निश्चयचारित्रकी प्रधानता से कथन है इसलिये शुद्धोपयोगसे विपरीत सर्व कर्म आत्माके दोषस्वरूप हैं। उन समस्त कर्मचेतनास्वरूप परिणामोंका-तीनों कालके कर्मोंका-प्रतिक्रमण , आलोचना तथा प्रत्याख्यान करके ज्ञानी सर्व कर्मचेतनासे भिन्न अपने शुद्धोपयोगरूप आत्माके ज्ञानश्रद्धान द्वारा और उसमें स्थिर होनेके विधान द्वारा
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(उपजाति) समस्तमित्येवमपास्य कर्म त्रैकालिकं शुद्धनयावलम्बी। विलीनमोहो रहितं विकारै
श्चिन्मात्रमात्मानमथावलम्बे।। २२९ ।। अथ सकलकर्मफलसंन्यासभावनां नाटयति
(आर्या) विगलन्तु कर्मविषतरुफलानि मम भुक्तिमन्तरेणैव। सञ्चेतयेऽहमचलं चैतन्यात्मानमात्मानम्।। २३० ।।
निष्प्रमाद दशाको प्राप्त होकर, श्रेणी चढ़कर, केवलज्ञान उत्पन्न करने के सन्मुख होता है। यह, ज्ञानीका कार्य है। २२८ ।
इसप्रकार प्रत्याख्यानकल्प समाप्त हुआ।
अब समस्त कर्मोंके संन्यास (त्याग) की भावनाकी नचने के सम्बन्धका कथन समाप्त करते हुए, कलशरूप काव्य कहते हैं:
__श्लोकार्थ:- (शुद्धनयका आलंबन करनेवाला कहता है कि-) [इति एवम् ] पूर्वोक्त प्रकारसे [ त्रैकालिकं समस्तम् कर्म] तीनों कालके समस्त कर्मोको [अपास्य] दूर करके-छोड़कर, [शुद्धनय-अवलम्बी] शुद्धनयावलंबी (अर्थात् शुद्धनयका अवलंबन करनेवाला) और [ विलीन-मोहः] विलीनमोह (अर्थात् जिसका मिथ्यात्व नष्ट हो गया है) ऐसा मैं [अथ] अब [विकारैः रहितं चिन्मात्रम् आत्मानम् ] (सर्व) विकारोंसे रहित चैतन्यमात्र आत्माका [ अवलम्बे ] अवलंबन करता हूँ। २२९ ।
अब समस्त कर्मफल संन्यासकी भावनाको नचाते हैं:( उसमें प्रथम , उस कथनके समुच्चय-अर्थका काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:- ( समस्त कर्मफलकी संन्यास भावना का करनेवाला कहता है कि-) [ कर्म-विष-तरु-फलानि] कर्मरूपी विषवृक्षके फल [ मम भक्तिम् अन्तरेण एव] मेरे द्वारा भोगे बिना ही [ विगलन्तु] खिर जायें; [अहम् चैतन्य-आत्मानम् आत्मानम् अचलं सञ्चेतये ] मैं (अपने) चैतन्यस्वरूप आत्माका निश्चलतया संचेतनअनुभव करता हूँ।
भावार्थ:-ज्ञानी कहता हैं कि-जो कर्म उदयमें आता है उसके फल को मैं ज्ञाता-द्रष्टारूपसे जानता-देखता हूँ, उसका भोक्ता नहीं होता, इसलिये मेरे द्वारा भोगे बिना ही वे कर्म खिर जायें; मैं अपने चैतन्यस्वरूप आत्मामें लीन होता हुआ उसका ज्ञाता-दृष्टा ही होऊँ।
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५४३
नाहं मतिज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १। नाहं श्रुतज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये । नाहमवधिज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ३। नाहं मनःपर्ययज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ४। नाहं केवलज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ५।
नाहं चक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ६। नाहमचक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये । नाहमवधिदर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ८। नाहं केवलदर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९। नाहं निद्रादर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०। नाहं निद्रानिद्रादर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११।
यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि-अविरत, देशविरत तथा प्रमत्तसंयत दशामें तो ऐसा ज्ञान–श्रद्धान ही प्रधान है, और जब जीव अप्रमत्त दशाको प्राप्त होकर श्रेणी चढ़ता है तब यह अनुभव साक्षात् होता है। २३०।
(अब टीकामें समस्त कर्मफलके संन्यासकी भावनाको नचाते हैं:-) मैं (ज्ञानी होनेसे ) मतिज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ अर्थात् एकाग्रतया अनुभव करता हूँ। ( यहाँ 'चेतना' अर्थात् अनुभव करना, वेदना, भोगना। 'सं' उपसर्ग लगनेसे , 'संचेतना' अर्थात् 'एकाग्रतया अनुभव' ऐसा अर्थ यहाँ समस्त पाठोंमें समझना चाहिये।) १। मैं श्रुतज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन–अनुभव करता हूँ। २। मैं अवधिज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ३। मैं मनःपर्ययज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ४। मैं केवलज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ५।
मैं चक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ६। मैं अचक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ७। मैं अवधिदर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ८। मैं केवलदर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९। मैं निद्रादर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०। मैं निद्रानिद्रादर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११ ।
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५४४
नाहं प्रचलादर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२। नाहं प्रचलाप्रचलादर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३। नाहं स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४।।
नाहं सातवेदनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १५॥ नाहमसातवेदनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १६।।
नाहं सम्यक्त्वमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १७। नाहं मिथ्यात्वमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १८। नाहं सम्यक्त्वमिथ्यात्वमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १९ । नाहमनन्तानुबन्धिक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये २०। नाहमप्रत्याख्यानावरणीयक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये २१। नाहं प्रत्याख्यानावरणीयक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये २२। नाहं संज्वलन क्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये २३ । नाहमनन्तानुबन्धिमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलंभुजे ,चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये २४।
मैं प्रचलादर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२। मैं प्रचलाप्रचलादर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३। मैं स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १४।
मैं शातावेदनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १५। मैं अशातावेदनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १६ ।
मैं सम्यक्त्वमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १७। मैं मिथ्यात्वमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १८। मैं सम्यक्त्वमिथ्यात्वमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १९। मैं अनंतानुबंधिक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। २०। मैं अप्रत्याख्यानावरणीयक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। २१। मैं प्रत्याख्यानावरणीयक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता. चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। २२। मैं संज्वलनक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। २३। मैं अनंतानुबंधिमान - कषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। २४।
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५४५
भुजे,
नाहमप्रत्याख्यानावरणीयमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये २५। नाहं प्रत्याख्यानावरणीयमान कषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये २६। नाहं सज्वलनमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये २७। नाहमनन्तानुबन्धिमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये २८। नाहमप्रत्याख्यानावरणीयमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये २९। नाहं प्रत्याख्यानावरणीयमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ३०। नाहं सज्वलनमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ३१। नाहमनन्तानुबन्धिलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ३२। नाहमप्रत्याख्यानावरणीयलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ३३। नाहं प्रत्याख्यानावरणीयलोभकषायवेदनीय-मोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ३४। नाहं सज्वलनलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ३५॥ नाहं हास्यनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ३६।
मैं अप्रत्याख्यानावरणीयमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। २५। मैं प्रत्याख्यानावरणीयमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। २६। मैं संज्वलनमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। २७। मैं अनंतानुबंधिमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। २८ । मैं अप्रत्याख्यानावरणीयमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। २९। मैं प्रत्याख्यानावरणीयमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ३० मैं संज्वलनमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ३१। मैं अनंतानुबंधिलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ३२। मैं अप्रत्याख्यानावरणीयलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ३३। मैं प्रत्याख्यानावरणीयलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ३४। मैं संज्वलनलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ३५। मैं हास्यनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ३६।
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भुञ्जे,
नाहं रतिनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेवसञ्चेतये ३७। नाहमरतिनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ३८ । नाहं शोकनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्मफलं भुञ्जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ३९। नाहं भयनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ४० । नाहं जुगुप्सानोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ४९ । नाहं स्त्रीवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुञ्जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ४२। नाहं पुंवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ४३। नाहं नपुंसकवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ४४ । नाहं नरकायुः कर्मफलं भुञ्जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ४५ । नाहं तिर्यगायुःकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ४६ । नाहं मानुषायुःकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ४७ । नाहं देवायुः कर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ४८। नाहं नरकगतिनामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ४९।
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मैं रतिनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ । ३७। मैं अरतिनोकषायवेदनीय - मोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ३८। मैं शोकनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्मका ही संचेतन करता हूँ। ३९ । मैं भयनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ४०। मैं जुगुप्सानोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ४१ । मैं स्त्रीवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ४२ । मैं पुरुषवेदनोकषाय - वेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ४३ । मैं नपुंसकवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ । ४४ ।
मैं नरक–आयुकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ४५। मैं तिर्यंचआयुकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ४६ । मैं मनुष्यआयुकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ ४७ । मैं देवआयुकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ । ४८ । मैं नरकगतिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ४९ ।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५४७
नाहं तिर्यग्गतिनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ५०। नाहं मनुष्यगतिनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ५१। नाहं देवगतिनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ५२। नाहमेकेन्द्रियजातिनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ५३। नाहं द्वीन्द्रियजातिनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ५४। नाहं त्रीन्द्रियजातिनामकर्मफलं भुले, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ५५। नाहं चतुरिन्द्रियजातिनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ५६। नाहं पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ५७। नाहमौदारिकशरीरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ५८। नाहं वैक्रियिकशरीरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ५९। नाहमाहारकशरीरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ६०। नाहं तैजसशरीरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ६१। नाहं कार्मणशरीरनामकर्मफलं भुजे, चेतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ६२। नाहमौदारिकशरीराङ्गोपाङ्गनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ६३। नाहं वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम कर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ६४।
मैं तिर्यंचगतिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ५०। मैं मनुष्यगतिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ५१। मैं देवगतिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ५२। मैं एकेन्द्रियजातिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ५३। मैं द्वींद्रियजातिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ५४। मैं त्रीन्द्रियजातिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ५५। मैं चतुरिन्द्रियजातिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ५६। मैं पंचेन्द्रियजातिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ५७। मैं औदारिकशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ५८। मैं वैक्रियिकशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ५९। मैं आहारकशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ६०। मैं तैजसशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ६१। मैं कार्मणशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ ६२। मैं औदारिकशरीर-अंगोपांगनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ६३। मैं वैक्रियिकशरीरअंगोपांगनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ६४।
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५४८
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समयसार
नाहमाहारकशरीराङ्गोपाङ्गनामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ६५। नाहमौदारिकशरीरबन्धननामकर्मफलं भुञ्जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ६६ । नाहं वैक्रियिकशरीरबन्धननामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ६७। नाहमाहारकशरीरबन्धननामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ६८। नाहं तैजसशरीरबन्धननामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ६९। नाहं कार्मणशरीरबन्धननामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ७० । नाहमौदारिकशरीरसङ्घातनामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ७१। नाहं वैक्रियकशरीरसङ्घातनामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ७२ । नाहमाहारकशरीरसङ्घातनामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ७३। नाहं तैजसशरीरसङ्घातनामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ७४ । नाहं कार्मणशरीरसङ्घातनामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ७५। नाहं समचतुरस्रसंस्थाननामकर्मफलं भुञ्जे, चेतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ७६ । नाहं न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ७७। नाहं स्वातिसंस्थाननामकर्मफलं भुञ्जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ७८ । नाहं कुब्जसंस्थाननामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ७९।
मैं आहारकशरीरअंगोपांगनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ६५ । मैं औदारिकशरीरबंधननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ६६ । मैं वैक्रियिकशरीरबंधननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ६७ । मैं आहारकशरीरबंधननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ६८ । मैं तैजसशरीरबंधननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ । ६९ । मैं कार्मणशरीरबंधननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता ७० । मैं औदारिकशरीरसंघातनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ७१ । मैं वैक्रियिकशरीरसंघातनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ । ७२ । मैं आहारकशरीरसंघातनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ७३ । मैं तैजसशरीरसंघातनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ७४ । मैं कार्मणशरीरसंघातनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ७५ । मैं समचतुरस्रसंस्थाननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ७६ । मैं न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थाननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ७७ । मैं सातिकसंस्थाननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ । ७८ । मैं कुब्जकसंस्थाननाकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ । ७९ ।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
नाहं वामनसंस्थाननामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ८०। नाहं हुण्डकसंस्थाननामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ८१। नाहं वज्रर्षभनाराचसंहनननामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ८२। नाहं वजनाराचसंहनननामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ८३। नाहं नाराचसंहनननामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ८४। नाहमर्धनाराचसंहनननामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ८५। नाहं कीलिकासंहनननामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ८६। नाहमसम्प्राप्तासपाटिकासंहनननामकर्मफलं भले. चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ८७। नाहं निग्धस्पर्शनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ८८। नाहं रूक्षस्पर्शनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ८९। नाहं शीतस्पर्शनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९०। नाहमुष्णस्पर्शनामकर्मफलं मुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९१। नाहं गुरुस्पर्शनाम कर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९२। नाहं लघुस्पर्शनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९३। नाहं मृदुस्पर्शनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९४।
मैं वामनसंस्थाननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ८०। मैह हुंडकसंस्थाननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ८१। मैं वज्रर्षभनाराचसंहनननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ८२। मैं वज्रनाराचसंहनननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता है। ८३। मैं नाराचसंहनननामकर्मके फलको नहीं भोगता. चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ८४। मैं अर्धनाराचसंहनननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ८५। मैं कीलिकासंहनननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ८६। मैं असंप्राप्तासृपाटिकासंहनननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ८७। मैं स्निग्धस्पर्शनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ८८। मैं रूक्षस्पर्शनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ८९। मैं शीतस्पर्शनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९०। मैं उष्णस्पर्शनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९१। मैं गुरुस्पर्शनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९२। मैं लघुस्पर्शनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९३। मैं मृदुस्पर्शनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९४।
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समयसार
५५०
नाहं कर्कशस्पर्शनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९५। नाहं मधुररसनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९६ । नाहमाम्लरसनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९७। नाहं तिक्तरसनामकर्मफलं मुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९८। नाहं कटुकरसनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ९९। नाहं कषायरसनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १००। नाहं सुरभिगन्धनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०१। नाहमसुरभिगन्धनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०२। नाहं शुक्लवर्णनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०३। नाहं रक्तवर्णनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०४। नाहं पीतवर्णनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०५। नाहं हरितवर्णनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०६। नाहं कृष्णवर्णनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०७। नाहं नरकगत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०८। नाहं तिर्यग्गत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १०९।
मैं कर्कशस्पर्शनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९५। मैं मधुररसनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९६। मैं आम्लरसनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९७। मैं तिक्तरसनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९८। मैं कटुकरसनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ९९। मैं कषायरसनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १००। मैं सुरभिगंधनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०१। मैं असुरभिगंधनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०२। मैं शुक्लवर्णनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०३। मैं रक्तवर्णनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०४। मैं पीतवर्णनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०५। मैं हरितवर्णनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०६। मैं कृष्णवर्णनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०७। मैं नरकगत्यानुपूर्वीनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०८। मैं तिर्यंचगत्यानुपूर्वीनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १०९ ।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५५१
नाहं मनुष्यगत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११०। नाहं देवगत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १११। नाहं निर्माणनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११२। नाहमगुरुलघुनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११३ । नाहमुपघातनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११४। नाहं परघातनामकर्मफलं भुले, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११५ । नाहमातपनामकर्मफलं भुले, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११६ । नाहमुद्योतनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११७। नाहमुच्छ्रासनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११८। नाहं प्रशस्तविहायोगतिनामकर्मफलं भुञ्चे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये ११९ । नाहमप्रशस्तविहायोगतिनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२० । नाहं साधारणशरीरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२१। नाहं प्रत्येकशरीरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२२। नाहं स्थावरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२३ । नाहं त्रसनामकर्मफलं भुञ्ज , चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२४।।
मैं मनुष्यगत्यानुपूर्वीनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११०। मैं देवगत्यानुपूर्वीनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १११। मैं निर्माणनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११२। मैं अगुरुलघुनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११३। मैं उपघातनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११४। मैं परघातनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११५। मैं आतपनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११६। मैं उद्योतनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११७। मैं उच्छवासनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११८। मैं प्रशस्तविहायोगतिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। ११९। मैं अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ मैं साधारणशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२१। मैं प्रत्येकशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२२। मैं स्थावरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२३। मैं त्रसनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२४।
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५५२
नाहं सुभगनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२५। नाहं दुर्भगनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२६। नाहं सुस्वरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२७। नाहं दुःस्वरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२८ । नाहं शुभनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १२९। नाहमशुभनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३०। नाहं सूक्ष्मशरीरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३१। नाहं बादरशरीरनामकर्मफलं भुले, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३२। नाहं पर्याप्तनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३३। नाहमपर्याप्तनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३४। नाहं स्थिरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३५। नाहमस्थिरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३६। नाहमादेयनामकर्मफलं चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३७। नाहमनादेयनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३८। नाहं यशःकीर्तिनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १३९। नाहमयश:कीर्तिनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४०। नाहं तीर्थकरत्वनामकर्मफलं भुजे,
भुजे,
मैं सुभगनामकर्मके । १२५। मैं दुर्भगनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२६। मैं सुस्वरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२७। मैं दुःस्वरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२८। मैं शुभनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १२९ । मैं अशुभनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३०। मैं सूक्ष्मशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३१। मैं बादरशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३२। मैं पर्याप्तनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३३। मैं अपर्याप्तनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३४। मैं स्थिरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३५। मैं अस्थिरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३६। मैं आदेयनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३७। मैं अनादेयनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३८ । मैह यश:कीर्तिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १३९। मैं अयशःकीर्तिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १४०। मैं तीर्थंकरनामकर्मके फलको नहीं
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चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४१।
नाहमुच्चैर्गोत्रकर्मफलं भुञ्जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४२। नाहं नीचैर्गोत्रकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४३।
नाहं दानान्तरायकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४४ । नाहं लाभान्तरायकर्मफलं भुञ्जे चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४५ । नाहं भोगान्तरायकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४६ । नाहमुपभोगान्तरायकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४७। नाहं वीर्यान्तरायकर्मफलं भुञ्जे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव सञ्चेतये १४८।
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ । १४१ ।
मैं उच्चगोत्रकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १४२ । मैं नीचगोत्रकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १४३ ।
मैं दानांतरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १४४। मैं लाभांतरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १४५ । मैं भोगांतरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ। १४६ । उपभोगांतरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ । १४७। मैं वीर्यांतरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ । १४८ । ( इसप्रकार ज्ञानी सकल कर्मोके फलके संन्यासकी भावना करता है ) ।
( यहाँ भावना का अर्थ बारम्बार चिंतवन करके उपयोगका अभ्यास करना है । जब जीव सम्यग्दृष्टि - ज्ञानी होता है तब उसे ज्ञान - श्रद्धान तो हुआ ही है कि 'मैं शुद्धनयसे समस्त कर्म और कर्मके फलसे रहित हूँ' । परंतु पूर्वबद्ध कर्म उदयमें आने पर उनसे होनेवाले भावोंका कर्तृत्व छोड़कर, त्रिकाल संबंधी ४९ - ४९ भंगों के द्वारा कर्मचेतनाके त्यागकी भावना करके तथा समस्त कर्मोंका फल भोगनेके त्यागकी भावना करके, एक चैतन्यस्वरूप आत्माको ही भोगना शेष रह जाता है। अविरत, देशविरत और प्रमत्त अवस्थावाले जीवको ज्ञानश्रद्धानमें निरंतर यह भावना तो है ही; और जब जीव अप्रमत्त दशा प्राप्त करके एकाग्र चित्तसे ध्यान करे, केवल चैतन्यमात्र आत्मामें उपयोग लगाये और शुद्धोपयोगरूप हो, तब निश्चयचारित्ररूप शुद्धोपयोगभावसे श्रेणी चढ़कर केवलज्ञान उत्पन्न करता है। उससमय इस भावनाका फल जो कर्मचेतना और कर्मफलचेतनासे रहित साक्षात् ज्ञानचेतनारूप परिणमन है वह होता है। पश्चात् आत्मा अनंत काल तक ज्ञानचेतनारूप ही रहता हुआ परमानंदमें मग्न रहता है। )
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समयसार
५५४
( वसन्ततिलका) निःशेषकर्मफलसंन्यसनान्ममैवं सर्वक्रियान्तरविहारनिवृत्तवृत्तेः। चैतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतत्त्वं कालावलीयमचलस्य वहत्वनन्ता।। २३१ ।।
(वसन्ततिलका) यः पूर्वभावकृतकर्मविषद्रुमाणां भुंक्ते फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः। आपातकालरमणीयमुदर्करम्यं निष्कर्मशर्ममयमेति दशान्तरं सः।। २३२ ।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- (सकल कर्मोंके फलका त्याग करके ज्ञानचेतनाकी भावना करनेवाला ज्ञानी कहता है कि:) [ एवं] पूर्वोक्त प्रकारसे [निःशेष-कर्म-फलंसंन्यसनात् ] समस्त कर्मके फलका संन्यास करनेसे [चैतन्य-लक्ष्म आत्मतत्त्वं भृशम् भजतः सर्व-क्रियान्तर-विहार-निवृत्त-वृत्तेः ] मैं चैतन्य लक्षण आत्मतत्त्वको अतिशयता भोगता हूँ और उसके अतिरिक्त अन्य सर्व क्रियामें विहारसे मेरी वृत्ति निवृत्त है ( अर्थात् आत्मतत्त्वके उपभोगके अतिरिक्त अन्य जो उपयोगकी क्रिया-विभावरूप क्रिया-उसमें मेरी परिणति विहार-प्रवृत्ति नहीं करती); [ अचलस्य मम] इसप्रकार आत्मतत्त्वके उपभोग में अचल ऐसा मुझे , [इयम् काल-आवली] यह कालकी आवली जो कि [अनन्ता] प्रवाहरूपसे अनंत है वह, [ वहतु] आत्मतत्त्वके उपभोग में ही बहती रहे; ( उपयोगकी प्रवृत्ति अन्यमें कभी भी न जाये।)
भावार्थ:-ऐसी भावना करनेवाला ज्ञानी ऐसा तृप्त हुआ है कि मानों भावना करता हुआ साक्षात् केवली ही हो गया हो; इससे वह अनंत काल ऐसा ही रहना चाहता है। और यह योग्य ही है; क्योंकि इसी भावनासे केवली हुआ जाता है। केवलज्ञान उत्पन्न करने का परमार्थ उपाय यही है। बाह्य व्यवहारचारित्र इसीका साधनरूप है; और इसके बिना व्यवहारचारित्र शुभकर्मको बाँधता है, मोक्षका उपाय नहीं है। २३१।
अब पुनः काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ पूर्व-भाव-कृत-कर्म-विषद्रुमाणां फलानि यः न भुंक्ते ] पहले अज्ञानभावसे उपार्जित कर्मरूपी विषवृक्षोंके फलको जो पुरुष ( उसका स्वामी होकर) नहीं भोगता और [ खलु स्वतः एव तृप्तः] वास्तव में अपने से ही ( -आत्मस्वरूपसे ही) तृप्त है, [ सः आपात-काल-रमणीयम् उदर्क-रम्यम् निष्कर्म-शर्ममयम् दशान्तरम्
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५५५
(स्रग्धरा) अत्यन्तं भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाच्च प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसञ्चेतनायाः। पूर्ण कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसञ्चेतनां स्वां सानन्दं नाटयन्तः प्रशमरसमितः सर्वकालं पिबन्तु।। २३३ ।।
एति] वह पुरुष, जो वर्तमान काले में रमणीय है और भविष्यकालमें भी जिसका फल रमणीय है ऐसे निष्कर्म-सुखमय दशांतरको प्राप्त होता है (अर्थात् जो पहले संसारअवस्थामें कभी नहीं हुई थी ऐसी भिन्न प्रकारकी कर्म रहित स्वाधीन सुखमयदशाको प्राप्त होता है)।
भावार्थ:-ज्ञानचेतनाकी भावनाका फल यह है। उस भावनासे जीव अत्यंत तृप्त रहता है-अन्य तृष्णा नहीं रहती, और भविष्यमें केवलज्ञान उत्पन्न करके समस्त कर्मोंसे रहित मोक्ष-अवस्थाको प्राप्त होता है। २३२।
____ 'पूर्वोक्त रीतिसे कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाके त्यागकी भावना करके अज्ञानचेतनाके प्रलयको प्रगटतया नचाकर, अपने स्वभावको पूर्ण करके , ज्ञानचेतनाको नचाते हुए ज्ञानीजन सदाकाल आनंदरूप रहो'-ऐसा उपदेशका दर्शक काव्य कहते
श्लोकार्थ:- [ अविरतं कर्मणः तत्फलात् च विरतिम् अत्यन्तं भावयित्वा ] ज्ञानी जन, अविरतपने कर्मसे और कर्मके फलसे विरतिको अत्यंत भा कर ( अर्थात् कर्म और कर्मफल के प्रति अत्यंत विरक्त भावको निरंतर भा कर), [अखिल-अज्ञानसञ्चेतनायाः प्रलयनम् प्रस्पष्टं नाटयित्वा] (इस भाँति) समस्त अज्ञानचेतनाके नाशको स्पष्टतया नचाकर, [ स्व-रस-परिगतं स्वभावं पूर्णं कृत्वा] निजरससे प्राप्त अपने स्वभावको पूर्ण करके, [स्वां ज्ञानसञ्चेतनां सानन्दं नाटयन्तः इतः सर्व-कालं प्रशमरसम् पिबन्तु] अपनी ज्ञानचेतनाको आनंदपूर्वक नचाते हुए अबसे सदाकाल प्रशमरसको पियो अर्थात् कर्मके अभावरूप आत्मिक रसको-अमृतरसको-अभी से लेकर अनंत काल तक पियो। इसप्रकार ज्ञानीजनोंको प्रेरणा की है)।
भावार्थ:-पहले तो त्रिकाल संबंधी कर्मके कर्तृत्वरूप कर्मचेतनाके त्यागकी भावना ( ४९ भंगपूर्वक) कराई। और फिर १४८ कर्मप्रकृतियोंके उदयरूप कर्मफलके त्यागकी भावना कराई। इसप्रकार अज्ञानचेतनाका प्रलय कराकर ज्ञानचेतनामें प्रवृत्त होनेका उपदेश दिया है। यह ज्ञानचेतना सदा आनंदरूप अपने स्वभावकी अनुभवरूपहै। ज्ञानीजन सदा उसका उपभोग करो-ऐसा श्री गुरुओंका उपदेश है। २३३।
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समयसार
५५६
(वंशस्थ) इतः पदार्थप्रथनावगुण्ठनाद्विना कृतेरेकमनाकुलं ज्वलत्। समस्तवस्तुव्यतिरेकनिश्चयाद्विवेचितं ज्ञानमिहावतिष्ठते।। २३४ ।।
यह सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार है, इसलिये ज्ञानको कर्तृत्वभोक्तृत्वसे भिन्न बताया; अब आगे की गाथाओंमें अन्य द्रव्यों और अन्य द्रव्योंके भावोंसे ज्ञानको भिन्न बतायेंगे। पहले उन गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इतः इह ] यहाँ से अब (इस सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमें आगेकी गाथाओंमें यह कहते हैं कि-) [ समस्त-वस्तु-व्यतिरेक-निश्चयात् विवेचितं ज्ञानम् ] समस्त वस्तुओंसे भिन्नत्व के निश्चय द्वारा पृथक किया गया ज्ञान, [पदार्थप्रथन-अवगुण्ठनात् कृते: विना] पदार्थ के विस्तार के साथ गूंथित होने से (-अनेक पदार्थों के साथ, ज्ञेय-ज्ञानसंबंधके कारण, एक जैसा दिखाई देने से) उत्पन्न होनेवाली (-अनेक प्रकारकी) क्रिया उनसे रहित [ एकम् अनाकुलं ज्वलत् ] एक ज्ञानक्रियामात्र, अनाकुल (-सर्व आकुलतासे रहित) और दैदीप्यमान होता हुआ, [ अवतिष्ठते ] निश्चल रहता है।
भावार्थ:-आगामी गाथाओंमें ज्ञानको स्पृष्टतया सर्व वस्तुओंसे भिन्न बतलाते हैं। २३४।
अब इसी अर्थकी गाथाएँ कहते हैं:
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सत्थं गाणं ण हवदि जम्हा सत्थं ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सत्थं जिणा बेंति ।। ३९० ।। सद्दो णाणं ण हवदि जम्हा सद्दो ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सद्दं जिणा बेंति ।। ३९१ ।। रूवं णाणं ण हवदि जम्हा रूवं ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं रूवं जिणा बेंति ।। ३९२ ।। वण्णो णाणं ण हवदि जम्हा वण्णो ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं वण्णं जिणा बेंति ।। ३९३ ।। गंध णाणं ण हवदि जम्हा गंधो ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं गाणं अण्णं गंधं जिणा बेंति ।। ३९४ ।।
रसो दुहवदि णाणं जम्हा दु रसो ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं रसं च अण्णं जिणा बेंति ।। ३९५ ।। फासो ण हवदि णाणं जम्हा फासो ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं फासं जिणा बेंति ।। ३९६ ।।
रे! शास्त्र है नहिं ज्ञान क्योंकि शास्त्र कुछ जाने नहीं । इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु शास्त्र अन्य प्रभु कहे ।। ३९० ।। रे! शब्द है नहिं ज्ञान क्योंकि शब्द कुछ जाने नहीं । इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु शब्द अन्य प्रभु कहे ।। ३९१ ।। रे! रूप है नहिं ज्ञान क्योंकि रूप कुछ जाने नहीं । इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु रूप अन्य प्रभु कहे ।। ३९२ ।। रे! वर्ण है नहिं ज्ञान क्योंकि वर्ण कुछ जाने नहीं । इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु वर्ण अन्य प्रभु कहे ।। ३९३ ।। रे! गंध है नहिं ज्ञान क्योंकि गंध कुछ जाने नहीं । इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु गंध अन्य प्रभु कहे ।। ३९४ ।। रे! रस है नहिं ज्ञान क्योंकि रस कुछ जाने नहीं ।
इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु रस जिनवर प्रभु कहे ।। ३९५ ।। रे! स्पर्श है नहिं ज्ञान क्योंकि स्पर्श कुछ जाने नहीं । इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु स्पर्श अन्य प्रभु कहे ।। ३९६ ।।
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समयसार
कम्मं णाणं ण हवदि जम्हा कम्मं ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं कम्मं जिणा बेंति ।। ३९७ ।। धम्मो णाणं ण हवदि जम्हा धम्मो ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं धम्मं जिणा बेंति ।। ३९८ ।। णाणमधम्मो ण हवदि जम्हाधम्मो ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णमधम्मं जिणा बेंति ।। ३९९ ।। कालो णाणं ण हवदि जम्हा कालो ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं गाणं अण्णं कालं जिणा बेंति ।। ४०० ।। आयासं पि ण णाणं जम्हायासं ण याणदे किंचि । तम्हायासं अण्णं अण्णं णाणं जिणा बेंति ।। ४०१ ।। णज्झवसाणं णाणं अज्झवसाणं अचेदणं जम्हा । तम्हा अण्णं गाणं अज्झवसाणं तहा अण्णं ।। ४०२ ।। जम्हा जाणदि णिच्चं तम्हा जीवो दु जाणगो णाणी । गाणं च जाणयादो अव्वदिरित्तं मुणेयव्वं ।। ४०३ ।।
रे! कर्म है नहिं ज्ञान क्योंकि कर्म कुछ जाने नहीं ।
इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु कर्म अन्य जिनवर कहे ।। ३९७ ।। रे! धर्म है नहिं ज्ञान क्योंकि धर्म कुछ जाने नहीं ।
इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु धर्म अन्य जिनवर कहे ।। ३९८ ।। रे! अधर्म है नहिं ज्ञान क्योंकि अधर्म कुछ जाने नहीं । इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु अधर्म अन्य प्रभु कहे ।। ३९९ ।। रे! काल है नहिं ज्ञान क्योंकि काल कुछ जाने नहीं । इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु काल अन्य प्रभु कहे ।। ४०० ।। रे! आकाश है नहिं ज्ञान क्योंकि आकाश कुछ जाने नहीं । इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु आकाश अन्य प्रभु कहे ।। ४०१ ।। रे! ज्ञान अध्यवसान नहिं क्योंकि अचेतन रूप है ।
इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु अन्य अध्यवसान है ।। ४०२ ।। रे! सर्वदा जाने हि इससे जीव ज्ञायक ज्ञानी है । अरु ज्ञान है ज्ञायकसे अव्यतिरिक्त यों ज्ञातव्य है ।। ४०३ ।।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५५९
णाणं सम्मादिढिं दु संजमं सुत्तमंगपुव्वगयं। धम्माधम्मं च तहा पव्वज्जं अब्भवंति बहा।। ४०४ ।।
शास्त्रं ज्ञानं न भवति यस्माच्छास्त्रं न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यच्छास्त्रं जिना ब्रुवन्ति।। ३९०।। शब्दो ज्ञानं न भवति यस्माच्छब्दो न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं शब्दं जिना ब्रुवन्ति।। ३९९ ।। रूपं ज्ञानं न भवति यस्म द्रूपं न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यद्रूपं जिना ब्रुवन्ति।। ३९२।। वर्णो ज्ञान न भवति यस्माद्वर्णो न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं वर्ण जिना ब्रुवन्ति।। ३९३ ।। गन्धो ज्ञान न भवति यस्माद्गन्धो न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं गन्धं जिना ब्रुवन्ति।। ३९४ ।।
सम्यक्त्व, अरु संयम, तथा पूर्वांगगत सब सूत्र जो। धर्माधरम, दीक्षा सबहि, बुध पुरुष माने ज्ञानको ।। ४०४।।
गाथार्थ:- [ शास्त्रं ] शास्त्र [ ज्ञानं न भवति ] ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ शास्त्रं किञ्चित् न जानाति] शास्त्र कुछ जानता नहीं ( – वह जड़ है,) [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [शास्त्रम् अन्यत् ] शास्त्र अन्य है- [जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं। [शब्द: ज्ञानं न भवति] शब्द ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [शब्द: किञ्चित् न जानाति] शब्द कुछ जानता नहीं है, [तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [शब्दं अन्यं] शब्द अन्य है- [जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं। [ रूपं ज्ञानं न भवति] रूप ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ रूपं किञ्चित् न जानाति] रूप कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [ रूपम् अन्यत् ] रूप अन्य है- [जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं, [ वर्ण: ज्ञानं न भवति] वर्ण ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ वर्णः किञ्चित् न जानाति] वर्ण कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [ वर्णम् अन्यम् ] वर्ण अन्य है- [ जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं। [ गन्धः ज्ञानं न भवति] गंध ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ गन्धः किञ्चित् न जानाति] गंध कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [ गन्धम् अन्यम् ] गंध अन्य है- [ जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं।
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समयसार
५६०
न रसस्तु भवति ज्ञानं यस्मात्तु रसो न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानं रसं चान्यं जिना ब्रुवन्ति।। ३९५ ।। स्पर्शो न भवति ज्ञानं यस्मात्स्पर्शो न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं स्पर्श जिना ब्रुवन्ति।। ३९६ ।। कर्म ज्ञानं न भवति यस्मात्कर्म न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यत्कर्म जिना ब्रुवन्ति।। ३९७ ।। धर्मो ज्ञानं न भवति यस्माद्धर्मो न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं धर्म जिना ब्रुवन्ति।। ३९८ ।। ज्ञानमधर्मो न भवति यस्मादधर्मो न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यमधर्म जिना ब्रुवन्ति।। ३९९ ।।
[ रसः तु ज्ञानं न भवति] रस ज्ञान नहीं है [ यस्मात् तु] क्योंकि [ रसः किञ्चित् न जानाति ] रस कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है [ रसं च अन्यं ] और रस अन्य है- [जिनाः ब्रुवन्ति] ऐसा जिनदेव कहते हैं। [स्पर्श: ज्ञानं न भवति] स्पर्श ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ स्पर्श: किञ्चित् न जानाति ] स्पर्श कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [ स्पर्श अन्यं ] स्पर्श अन्य है- [ जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं। [ कर्म ज्ञानं न भवति ] कर्म ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ कर्म किञ्चित् न जानाति] कर्म कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [ कर्म अन्यत् ] कर्म अन्य है- [जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं। [धर्म: ज्ञानं न भवति] धर्म (अर्थात् धर्मास्तिकाय) ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [धर्म: किञ्चित् न जानाति ] धर्म कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [धर्म अन्यं] धर्म अन्य है- [जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं[ अधर्मः ज्ञानं न भवति] अधर्म ( अर्थात् अधर्मास्तिकाय) ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ अधर्म: किञ्चित् न जानाति ] अधर्म कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [ अधर्म अन्यम् ] अधर्म अन्य है- [जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते
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कालो ज्ञानं न भवति यस्मात्कालो न जानाति किञ्चित्। तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं कालं जिना ब्रुवन्ति।। ४०० ।। आकाशमपि न ज्ञानं यस्मादाकाशं न जानाति किञ्चित्। तस्मादाकाशमन्यदन्यज्ज्ञानं जिना ब्रुवन्ति।। ४०१ ।। नाध्यवसानं ज्ञानमध्यवसानमचेतनं यस्मात्। तस्मादन्यज्ज्ञानमध्यवसानं तथान्यत्।। ४०२ ।। यस्माज्जानाति नित्यं तस्माज्जीवस्तु ज्ञायको ज्ञानी। ज्ञानं च ज्ञायकादव्यतिरिक्तं ज्ञानव्यम्।। ४०३ ।। ज्ञानं सम्यग्दृष्टिं तु संयमं सूत्रमणपूर्वगतम्। धर्माधर्म च तथा प्रव्रज्यामभ्युपयान्ति बुधाः।। ४०४ ।।
न श्रुतं ज्ञानमचेतनत्वात् , ततो ज्ञानश्रुतयोर्व्यतिरेकः। न शब्दो
[ कालः ज्ञानं न भवति] काल ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ काल: किञ्चित् न जानाति ] काल कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [ कालं अन्यं] काल अन्य है- [जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं। [ आकाशम् अपि ज्ञानं न] आकाश भी ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ आकाशं किञ्चित् न जानाति] आकाश कुछ जानता नहीं है, [ तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [आकाशम् अन्यत् ] आकाश अन्य है- [जिना: ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं। [ अध्यवसानं ज्ञानम् न ] अध्यवसान ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ अध्यवसानम् अचेतनं] अध्यवसान अचेतन है, [ तस्मात् ] इसलिये [ ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है [ तथा अध्यवसानं अन्यत् ] तथा अध्यवसान अन्य है ( –ऐसा जिनदेव कहते हैं)।
[यस्मात् ] क्योंकि [ नित्यं जानाति] (जीव) निरंतर जानता है [ तस्मात् ] इसलिये [ज्ञायक: जीवः तु] ज्ञायक ऐसा जीव [ज्ञानी] ज्ञानी (-ज्ञानवाला , ज्ञानस्वरूप) है, [ज्ञानं च ] और ज्ञान [ ज्ञायकात् अव्यतिरिक्तं ] ज्ञायकसे अव्यतिरिक्त है ( –अभिन्न है, जुदा नहीं) [ ज्ञातव्यम् ] ऐसा जानना चाहिये।
[बुधाः ] बुध पुरुष (अर्थात् ज्ञानी जन) [ ज्ञानं ] ज्ञानको ही [ सम्यग्दृष्टिं तु] सम्यग्दृष्टि, [ संयमं] (ज्ञानको ही) संयम, [अङ्गपूर्वगतम् सूत्रम् ] अंगपूर्वगत सूत्र, [धर्माधर्म च] और धर्म-अधर्म (पुण्य-पाप) [ तथा प्रव्रज्याम् ] तथा दीक्षा [ अभ्युपयान्ति ] मानते हैं।
टीका:-श्रुत (अर्थात् वचनात्मक द्रव्यश्रुत) ज्ञान नहीं है, क्योंकि श्रुत अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और श्रुतके व्यतिरेक ( अर्थात् भिन्नता) है। शब्द ज्ञान
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समयसार
५६२
ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानशब्दयोर्व्यतिरेकः ।न रूपं ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानरूपयोर्व्यतिरेकः। न वर्णो ज्ञानमचेतनत्वात् , ततो ज्ञानवर्णयोर्व्यतिरेकः। न गन्धो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानगन्धयोर्व्यतिरेकः। न रसो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानरसयोर्व्यतिरेकः। न स्पर्शो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानस्पर्शयोर्व्यतिरेकः। न कर्म ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानकर्मणोर्व्यतिरेकः। न धर्मो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानधर्मयोर्व्यतिरेकः। नाधर्मो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानाधर्मयोर्व्यतिरेकः। न कालो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानकालयोर्व्यतिरेकः। नाकाशं ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानाकाशयोर्व्यतिरेकः। नाध्यवसानं ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानाध्यवसानयोर्व्यतिरेकः। इत्येवं ज्ञानस्य सर्वैरेव परद्रव्यैः सह व्यतिरेको निश्चयसाधितो द्रष्टव्यः।
अथ जीव एवैको ज्ञानं, चेतनत्वात; ततो ज्ञानजीवयोरेवाव्यतिरेकः। न च जीवस्य स्वयं ज्ञानत्वात्ततो व्यतिरेकः कश्चनापि शङ्कनीयः।
नहीं है, क्योंकि शब्द (पुद्गलद्रव्यकी पर्याय है,) अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और शब्दके व्यतिरेक (अर्थात् भेद) है। रूप ज्ञान नहीं है, क्योंकि रूप (पुद्गलद्रव्यका गुण है,) अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और रूपके व्यतिरेक है ( अर्थात् दोनों भिन्न हैं )। वर्ण ज्ञान नहीं है, क्योंकि वर्ण (पुद्गलद्रव्यका गुण है,) अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और वर्णके व्यतिरेक है (अर्थात् ज्ञान अन्य है, वर्ण अन्य है)। गंध ज्ञान नहीं है, क्योंकि गंध (पुद्गलद्रव्यका गुण है,) अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और गंधके व्यतिरेक (-भेद, भिन्नता) है। रस ज्ञान नहीं है, क्योंकि रस (पुद्गलद्रव्यका गुण है,) अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और रसके व्यतिरेक है। स्पर्श ज्ञान नहीं है, क्योंकि स्पर्श (पुद्गलद्रव्यका गुण है,) अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और स्पर्शके व्यतिरेक है। कर्म ज्ञान नहीं है, क्योंकि कर्म अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और कर्मके व्यतिरेक है। धर्म (-धर्मद्रव्य) ज्ञान नहीं है, क्योंकि धर्म अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और धर्मके व्यतिरेक है। अधर्म (-अधर्मद्रव्य) ज्ञान नहीं है, क्योंकि अधर्म अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और अधर्मके व्यतिरेक है। काल (-कालद्रव्य) ज्ञान नहीं है, क्योंकि काल अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और कालके व्यतिरेक है। आकाश ( –आकाशद्रव्य ) ज्ञान नहीं है, क्योंकि आकाश अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और आकाशके व्यतिरेक है। अध्यवसान ज्ञान नहीं है, क्योंकि अध्यवसान अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और (कर्मके उदयकी प्रवृत्तिरूप) अध्यवसानके व्यतिरेक है। इसप्रकार यों ज्ञानका समस्त परद्रव्यों के साथ व्यतिरेक निश्चयसाधित देखना चाहिये (अर्थात् निश्चय से सिद्ध हुआ समझना-अनुभव करना चाहिये)।
अब, जीव ही एक ज्ञान है, क्योंकि जीव चेतन है; इसलिये ज्ञानके और जीवके ही अव्यतिरेक (-अभेद) है। और ज्ञानका जीवके साथ व्यतिरेक किंचित्मात्र भी शंका करने योग्य नहीं है ( अर्थात् ज्ञानकी जीवसे भिन्नता होगी ऐसी जरा भी
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५६३
एवं तु सति ज्ञानमेव सम्यग्दृष्टि:, ज्ञानमेव संयमः, ज्ञानमेवाङ्गपूर्वरूपं सूत्रं, ज्ञानमेव धर्माधर्मो, ज्ञानमेव प्रव्रज्येति ज्ञानस्य जीवपर्यायैरपि सहाव्यतिरेको निश्चयसाधितो द्रष्टव्यः। अथैवं सर्वपरद्रव्यव्यतिरेकेण सर्वदर्शनादिजीवस्वभावाव्यतिरेकेण वा अतिव्याप्तिव्याप्तिं च परिहरमाणमनादिविभ्रममूलं धर्माधर्मरूपं परसमयमुद्वम्य स्वयमेव प्रव्रज्यारूपमापद्य दर्शनज्ञानचारित्रस्थितिरूपं स्वसमयमवाप्य मोक्षमार्गमात्मन्येव परिणतं कृत्वा समवाप्तसम्पूर्णविज्ञानघनस्वभावं हानोपादानशून्यं साक्षात्समयसारभूतं परमार्थरूपं शुद्धंज्ञानमेकमवस्थितं द्रष्टव्यम्।
शंका करनेयोग्य नहीं है), क्योंकि जीव स्वयं ही ज्ञान है।ऐसा (ज्ञान जीवसे अभिन्न) होनेसे , ज्ञान ही सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान ही संयम है, ज्ञान ही अंगपूर्वरूप सूत्र है, ज्ञान ही धर्म-अधर्म (अर्थात् पुण्य-पाप) है, ज्ञान ही प्रव्रज्या ( दीक्षा, निश्चयचारित्र) हैइसप्रकार ज्ञानका जीवपर्यायोंके साथ भी अव्यतिरेक निश्चयसाधित देखना (अर्थात् निश्चय द्वारा सिद्ध हुआ समझना-अनुभव करना) चाहिये।।
अब, इसप्रकार सर्व परद्रव्यों के साथ व्यतिरेकके द्वारा और सर्व दर्शनादि जीवस्वभावोंके साथ अव्यतिरेक के द्वारा अतिव्याप्तिको और अव्याप्तिको दूर करता हुआ, अनादि विभ्रम जिसका मूल है ऐसे धर्म-अधर्मरूप (पुण्य-पापरूप, शुभअशुभरूप) परसमयको दूर करके, स्वयं ही प्रव्रज्यारूपको प्राप्त करके ( अर्थात् स्वयं ही निश्चयचारित्ररूप दीक्षाभावको प्राप्त करके), दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें स्थितिरूप स्वसमयको प्राप्त करके, मोक्षमार्गको अपनेमें ही परिणत करके, जिसने संपूर्ण विज्ञानघनस्वभावको प्राप्त किया है ऐसा, त्याग-ग्रहणसे रहित, साक्षात् समयसारभूत , परमार्थरूप शुद्ध-ज्ञान एक अवस्थित ( -निश्चल) देखना (अर्थात् प्रत्यक्ष स्वसंवेदनसे अनुभव करना) चाहिये।
भावार्थ:-यहाँ ज्ञानको सर्व परद्रव्योंसे भिन्न और अपनी पर्यायोंसे अभिन्न बताया है, इसलिये अतिव्याप्ति और अव्याप्ति नामक लक्षण दोष दूर हो गये। आत्माका लक्षण उपयोग है, और उपयोगमें ज्ञान प्रधान है; वह (ज्ञान) अन्य अचेतन द्रव्योंमें नहीं है इसलिये वह अतिव्याप्तिवाला नहीं है, और अपनी सर्व अवस्थाओंमें है इसलिये अव्याप्तिवाला नहीं है। इसप्रकार ज्ञानलक्षण कहनेसे अतिव्याप्ति और अव्याप्ति दोष नहीं आते।
यहाँ ज्ञानको ही प्रधान करके आत्माका अधिकार है, क्योंकि ज्ञानलक्षणसे ही आत्मा सर्व परद्रव्योंसे भिन्न अनुभवगोचर होता है। यद्यपि आत्मामें अनंत धर्म हैं, तथापि उनमेंसे कितने ही तो छद्मस्थके अनुभवगोचर ही नहीं है;उन धर्मों के कहनेसे छद्मस्थ ज्ञानी आत्माको कैसे पहिचान सकता है ? और कितने ही धर्म अनुभवगोचर है, परंतु उनमेंसे कितने ही तो-अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि तो-अन्य द्रव्योंके साथ सामान्य अर्थात् समान ही हैं इसलियेउनके कहनेसे पृथक् आत्मा नहीं जाना जा
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समयसार
५६४
___ (शार्दूलविक्रीडित) अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं बिभ्रत्पृथग्वस्तुतामादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञानं तथावस्थितम्। मध्याद्यन्तविभागमुक्तसहजस्फारप्रभाभासुरः । शुद्धज्ञानघनो यथाऽस्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति।। २३५।।
सकता, और कितने ही (धर्म) परद्रव्यके निमित्तसे हुए हैं उन्हें कहने से परमार्थभूत आत्माका शुद्ध स्वरूप कैसे जाना जा सकता है ? इसलिये ज्ञानके कहनेसे ही छद्मस्थ ज्ञानी आत्माको पहिचान सकता है ।
यहाँ ज्ञानको आत्माका लक्षण कहा है इतना ही नहीं, किन्तु ज्ञानको ही आत्मा कहा है; क्योंकि अभेदविवक्षामें गुणगुणीका अभेद होनेसे , ज्ञान है सो ही आत्मा है। अभेदविवक्षामें ज्ञान कहो या आत्मा कहो-कोई विरोध नहीं है; इसलिये यहाँ ज्ञान कहनेसे आत्मा ही समझना चाहिये।
टीकामें अंत में यह कहा गया है कि-जो, अपने में अनादि अज्ञानसे होनेवाले शुभाशुभ उपयोगरूप परसमयकी प्रवृत्तिको दूर करके, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें प्रवृत्तिरूप स्वसमयको प्राप्त करके, उस स्वसमयरूप परिणमनस्वरूप मोक्षमार्गमें अपने को परिणमित करके, संपूर्णविज्ञानघनस्वभावको प्राप्त हुआ है, और जिसमें कोई त्याग-ग्रहण नहीं है, ऐसे साक्षात् समयसारस्वरूप, परमार्थभूत, निश्चल रहा हुआ, शुद्ध, पूर्ण ज्ञानको ( पूर्ण आत्म द्रव्यको) देखना चाहिये। यहाँ ‘देखना' तीन प्रकारसे समझना चाहिये। १-शुद्धनयका ज्ञान करके पूर्ण ज्ञान श्रद्धान करना सो प्रथम प्रकारका देखना है। वह अविरत आदि अवस्थामें भी होता है। २-ज्ञान-श्रद्धान होनेके बाद बाह्य सर्व परिग्रहका त्याग करके उसका (–पूर्ण ज्ञानका) अभ्यास करना, उपयोगको ज्ञानमें ही स्थिर करना, जैसे शुद्धनयसे अपने स्वरूपको सिद्ध समान जाना-श्रद्धान किया था वैसे ही ध्यानमें लेकर चित्तको एकाग्र-स्थिर करना, और पुनः पुनः उसी का अभ्यास करना, सो दूसरे प्रकार का देखना है। इसप्रकार देखना अप्रमत्त दशामें होता है। जहाँ तक उस प्रकार के अभ्याससे केवलज्ञान उत्पन्न न हो वहाँ तक ऐसा अभ्यास निरंतर रहता है। यह, देखनेका दूसरा प्रकार हुआ। यहाँ तक तो पूर्ण ज्ञानका शुद्धनयके आश्रयसे परोक्ष देखना है। और ३-जब केवलज्ञान उत्पन्न होता है तब साक्षात् देखना है सो यह तीसरे प्रकारका देखना है। उस स्थितिमें ज्ञान सर्व विभावोंसे रहित होता हुआ सबका ज्ञाता-दृष्टा है, इसलिये यह तीसरे प्रकार का देखना पूर्ण ज्ञानका प्रत्यक्ष देखना है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अन्येभ्यः व्यतिरिक्तम् ] अन्य द्रव्योंसे भिन्न, [ आत्म-नियतं] अपने में ही नियत, [ पृथक्-वस्तुताम् बिभ्रत् ] पृथक् वस्तुत्वको धारण करता हुआ (-वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषात्मक होनेसे स्वयं भी सामान्यविशेषात्मकताको
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
( उपजाति) उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत् तथात्तमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मनः संहृतसर्वशक्ते: पूर्णस्य सन्धारणमात्मनीह ।। २३६ ।। (अनुष्टुभ् )
व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं ज्ञानमवस्थितम्। कथमाहारकं तत्स्याद्येन देहोऽस्य शङ्क्यते।। २३७ ।।
५६५
धारण करता हुआ), [ आदान- उज्झन - शून्यम् ] ग्रहण - त्यागसे रहित, [ एतत् अमलं ज्ञानं] यह अमल ( - रागादिक मलसे रहित ) ज्ञान [ तथा-अवस्थितम् यथा ] इसप्रकार अवस्थित ( - निश्चल) अनुभवमें आता है कि जैसे [ मध्य - आदि - अन्तविभाग-मुक्त-सहज-स्फार - प्रभा - भासुरः अस्य शुद्ध - ज्ञान - घनः महिमा आदिमध्य-अंतरूप विभागोंसे रहित ऐसी सहज फैली हुई प्रभाके द्वारा दैदीप्यमान ऐसी उसकी शुद्धज्ञानघनरूप महिमा [ नित्य - उदितः तिष्ठति ] नित्य-उदित रहे ( - शुद्ध ज्ञानकी पुंजरूप महिमा सदा उदयमान रहे)।
भावार्थ:-ज्ञानका पूर्ण रूप सबको जानना है। वह जब प्रगट होता है तब सर्व विशेषणोंसे सहित प्रगट होता है; इसलिये उसकी महिमा को कोई बिगाड़ नहीं सकता, वह सदा उदयमान रहती है । २३५।
‘ऐसे ज्ञानस्वरूप आत्माका आत्मामें धारण करना सो ही ग्रहण करने योग्य सब कुछ ग्रहण किया और त्यागने योग्य सब कुछ त्याग किया है' – इस अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ संहृत-सर्व- शक्तेः पूर्णस्य आत्मनः ] जिसने सर्व शक्तियोंको समेट लिया है ( -अपनेमें लीन कर लिया है ) ऐसे पूर्ण आत्माका [ आत्मनि इह ] आत्मामें [यत् सन्धारणम् ] धारण करना [ तत् उन्मोच्यम् अशेषतः उन्मुक्तम्] वही छोड़ने योग्य सब कुछ छोड़ा है [ तथा ] और [ आदेयम् तत् अशेषतः आत्तम् ] ग्रहण करने योग्य सब ग्रहण किया है।
भावार्थ:-पूर्णज्ञानस्वरूप, सर्व शक्तियोंका समूहरूप जो आत्मा है उसे आत्मामें धारण कर रखना सो यही, जो कुछ त्यागने योग्य था उस सबको त्याग दिया और ग्रहण करने योग्य जो कुछ था उसे ग्रहण किया। यही कृतकृत्यता है।
२३६ ।
'ऐसे ज्ञानको देह ही नहीं है ' - इस अर्थका आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं:
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समयसार
५६६
अत्ता जस्सामुत्तो ण हु सो आहारगो हवदि एवं। आहारो खलु मुत्तो जम्हा सो पोग्गलमओ दु।। ४०५।। ण वि सक्कदि घेत्तुं जंण विमोत्तुं जं च जं परद्दव्वं । सो को वि य तस्स गुणो पाउगिओ विस्ससो वा वि।। ४०६ ।। तम्हा दु जो विसुद्धो चेदा सो णेव गेण्हदे किंचि। णेव विमुंचदि किंचि वि जीवाजीवाण दव्वाणं।। ४०७ ।।
आत्मा यस्यामूर्तो न खलु स आहारको भवत्येवम्। आहारः खलु मूर्तो यस्मात्स पुद्गलमयस्तु।। ४०५।। नापि शक्यते ग्रहीतुं यत् न विमोक्तुं यच्च यत्परद्रव्यम्। स कोऽपि च तस्य गुणः प्रायोगिको वस्रसो वाऽपि।। ४०६ ।।
श्लोकार्थ:- [ एवं ज्ञानम् परद्रव्यात् व्यतिरिक्तं अवस्थितम् ] इसप्रकार (पूर्वोक्त रीतीसे) ज्ञान परद्रव्यसे पृथक् अवस्थित (-निश्चल रहा हुआ) है; [ तत् आहारकं कथम् स्यात् येन अस्य देहः शङ्कयते ] वह (ज्ञान) आहारक (अर्थात् कर्मनोकर्मरूप आहार करने वाला) कैसे हो सकता है कि जिससे उसके देहकी शंका कि जा सके ? ( ज्ञानके देह हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसके कर्म-नोकर्मरूप आहार ही नहीं है।) २३७।
अब इस अर्थको गाथाओंमें कहते हैं:
यों आतमा जिसका अमूर्तिक वो न आहारक बने । पुद्गलमयी आहार यों आहार तो मूर्तिक अरे ।। ४०५।। जो द्रव्य है पर, ग्रहण नहिं, नहिं त्याग उसका हो सके। ऐसा ही उसका गुण कोई प्रायोगि अरु वैनसिक है ।। ४०६ ।। इस हेतु से जो शुद्ध आत्मा वो नहीं कुछ भी ग्रहे । छोड़े नहीं कुछ भी अहो! परद्रव्य जीव अजीव में ।। ४०७।।
गाथार्थ:- [ एवम् ] इसप्रकार [ यस्य आत्मा ] जिसका आत्मा [अमूर्तः ] अमूर्तिक है [ सः खलु ] वह वास्तव में [ आहारकः न भवति] आहारक नहीं है; [ आहारः खलु ] आहार तो [ मूर्तः ] मूर्तिक है [ यस्मात् ] क्योंकि [ सः तु पुद्गलमयः ] वह पुद्गलमय है।
[ यत परद्रव्यम् ] जो परद्रव्य है [ न अपि शक्यते ग्रहीतुं यत् ] वह ग्रहण नहीं किया जा सकता [ न विमोक्तुं यत् च ] और छोड़ा नहीं जा सकता
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५६७
तस्मात्तु यो विशुद्धश्चेतयिता स नैव गृह्णाति किञ्चित्। नैव विमुञ्चति किञ्चिदपि जीवाजीवयोर्द्रव्ययोः।। ४०७ ।।
ज्ञानं हि परद्रव्यं किञ्चिदपि न गृह्णाति न मुञ्चति च, प्रायोगिकगुणसामर्थ्यात् वैनसिकगुणसामर्थ्याद्वा ज्ञानेन परद्रव्यस्य गृहीतुं मोक्तुं चाशक्यत्वात्। परद्रव्यं च न ज्ञानस्यामूर्तात्मद्रव्यस्य मूर्तपुद्गलद्रव्यत्वादाहारः। ततो ज्ञानं नाहारकं भवति। अतो ज्ञानस्य देहो न शङ्कनीयः।
[ सः कः अपि च ] ऐसा ही कोई [ तस्य ] उसका (-आत्माका) [ प्रायोगिकः वा अपि वैस्रसः गुण ] प्रायोगिक तथा वैनसिक गुण है।
[तस्मात् तु] इसलिये [यः विशुद्धः चेतयिता] जो विशुद्ध आत्मा है [ सः] वह [जीवाजीवयोः द्रव्ययोः ] जीव और अजीव द्रव्योंमें (-परद्रव्योंमें) [ किञ्चित् न एव गृह्णाति ] कुछ भी ग्रहण नहीं करता [ किञ्चित् अपि न एव विमुञ्चति ] तथा कुछ भी त्याग नहीं करता।
टीका:-ज्ञान परद्रव्यको किंचित्मात्र न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता है, क्योंकि प्रायोगिक ( अर्थात् पर निमित्तसे उत्पन्न) गुणकी सामर्थ्यसे तथा वैस्रसिक ( अर्थात् स्वाभाविक) गुणकी सामर्थ्य से ज्ञानके द्वारा परद्रव्यका ग्रहण तथा त्याग करना अशक्य है। और, (कर्म-नोकर्मादिरूप) परद्रव्य ज्ञानका अमूर्तिक आत्मद्रव्यका-आहार नहीं है, क्योंकि वह मूर्तिक पुद्गलद्रव्य है; ( अमूर्तिकके मूर्तिक आहार नहीं होता)। इसलिये ज्ञान आहारक नहीं है। इसलिये ज्ञानके देहकी शंका नहीं करनी चाहिये।
(यहाँ 'ज्ञान' से 'आत्मा' समझना; क्योंकि, अभेद विवक्षासे लक्षणमें ही लक्ष्यका व्यवहार किया जाता है। इस न्यायसे टीकाकार आचार्यदेव आत्माको ज्ञान ही कहते आये हैं।)
भावार्थ:-ज्ञानस्वरूप आत्मा अमूर्तिक है और आहार तो कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलमय मूर्तिक है; इसलिये परमार्थतः आत्माके पुद्गलमय आहार नहीं है। और आत्माका ऐसा ही स्वभाव है कि वह परद्रव्यको कदापि ग्रहण नहीं करता;-स्वभावरूप परिणमित हो या विभावरूप परिणमित हो, अपने ही परिणामका ग्रहणत्याग होता है, परद्रव्यका ग्रहण-त्याग तो किंचित्मात्र भी नहीं होता।
इसप्रकार आत्माके आहार न होनेसे उसके देह ही नहीं है।
जब कि आत्माके देह है ही नहीं, इसलिये पुद्गलमय देहस्वरूप लिंग (वेष, बाह्य चिह्न) मोक्षका कारण नहीं है-इस अर्थका, आगामी गाथाओंका सूचक काव्य कहते है :
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समयसार
५६८
(अनुष्टुभ् ) एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते। ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिङ्गं मोक्षकारणम्।। २३८ ।।
पासंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि। घेत्तुं वदंति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो त्ति।। ४०८ ।। ण दु होदि मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा। लिंगं मुइत्तु दंसणणाणचरित्ताणि सेवंति।। ४०९ ।।
पाषण्डिलिङ्गानि वा गृहिलिङ्गानि वा बहुप्रकाराणि। गृहीत्वा वदन्ति मूढा लिङ्गमिदं मोक्षमार्ग इति।। ४०८।। न तु भवति मोक्षमार्गो लिङ्गं यद्देहनिर्ममा अर्हन्तः। लिङ्ग मुक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवन्ते।। ४०९।।
श्लोकार्थ:- [ एवं शुद्धस्य ज्ञानस्य देहः एव न विद्यते] इसप्रकार शुद्धज्ञानके देह ही नहीं है; [ ततः ज्ञातुः देहमयं लिङ्गं मोक्षकारणम् न] इसलिये ज्ञाताको देहमय चिह मोक्षका कारण नहीं है। अब इसी अर्थको गाथाओं द्वारा कहते हैं:
मुनिलिंगको अथवा गृहस्थीलिंगको बहुभाँतिके । ग्रहकर कहत है मूढजन 'यह लिंग मुक्तिमार्ग है'।। ४०८ ।। वह लिंग मुक्तिमार्ग नहिं, अहंत निर्मम देहमें । बस लिंग तजकर ज्ञान अरु चारित्र, दर्शन सेवते।। ४०९।।
गाथार्थ:- [ बहुप्रकाराणि ] बहुत प्रकारके [ पाषण्डिलिङ्गानि वा ] मुनिलिंगोंको [ गृहिलिङ्गानि वा] अथवा गृहीलिंगोंको [गृहीत्वा] ग्रहण करके [ मूढाः] मूढ (अज्ञानी) जन [ वदन्ति ] यह कहते हैं कि [इदं लिङ्गम् ] यह (बाह्य) लिंग [ मोक्षमार्गः इति ] मोक्षमार्ग है'।
[तु] परंतु [ लिङ्गम् ] लिंग [ मोक्षमार्गः न भवति ] मोक्षमार्ग नहीं है; [ यत् ] क्योंकि [अर्हन्तः] अर्हतदेव [ देहनिर्ममाः] देह के प्रति निर्मम वर्तते हुये [ लिङ्गम् मुक्त्वा ] लिंगको छोड़कर [ दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवन्ते ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र का ही सेवन करते है।
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केचिद्द्रव्यलिङ्गमज्ञानेन मोक्षमार्ग मन्यमानाः सन्तो मोहेन द्रव्यलिङ्गमेवोपाददते। तदनुपपन्नम्; सर्वेषामेव भगवतामर्हद्देवानां, शुद्धज्ञानमयत्वे द्रव्यलिङ्गाश्रयभूतशरीरममकारत्यागात्,
तदाश्रितद्रव्यलिङ्गत्यागेन
दर्शनज्ञानचारित्राणां मोक्षमार्गत्वेनोपासनस्य दर्शनात्।
अथैतदेव साधयति
ण वि एस मोक्खमग्गो पासंडीगिहिमयाणि लिंगाणि । दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा बेंति ।। ४९० ।। नाप्येष मोक्षमार्गः पाषण्डिगृहिमयानि लिङ्गानि । दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग जिना ब्रुवन्ति ।। ४१० ।।
५६९
टीका:- कितने ही लोग अज्ञानसे द्रव्यलिंगको मोक्षमार्ग मानते हुए मोहसे द्रव्यलिंगको ही ग्रहण करते हैं, यह ( - द्रव्यलिंगको मोक्षमार्ग मानकर ग्रहण करना सो) अनुपपन्न अर्थात् अयुक्त है; क्योंकि सभी भगवान अर्हंतदेवोंके, शुद्धज्ञानमयता होने से द्रव्यलिंग आश्रयभूत शरीरके ममत्वका त्याग होता है इसलिये शरीराश्रित द्रव्यलिंगके त्यागसे दर्शनज्ञानचारित्रकी मोक्षमार्गरूपसे उपासना देखी जाती है (अर्थात् वे शरीराश्रित द्रव्यलिंगका त्याग करके दर्शनज्ञानचारित्रको मोक्षमार्गके रूप में सेवन करते हुए देखे जाते हैं ) ।
सति
भावार्थ:-यदि देहमय द्रव्यलिंग मोक्षका कारण होता तो अर्हंतदेव आदि देहका ममत्व छोड़कर दर्शन - ज्ञान - चारित्रका सेवन क्यों करते हैं ? द्रव्यलिंगसे ही मोक्ष प्राप्त कर लेते! इससे यह निश्चय हुआ कि - देहमय लिंग मोक्षमार्ग नहीं है, परमार्थतः दर्शनज्ञान - चारित्ररूप आत्मा ही मोक्षका मार्ग है ।
मुनिलिंग अरु गृहीलिंग- ये नहिं लिंग मुक्तिमार्ग है । चारित्र-दर्शन-ज्ञानको बस मोक्षमार्ग प्रभू कहे ।। ४९० ।।
अब यही सिद्ध करते हैं (अर्थात् द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं है, दर्शन-ज्ञानचारित्र ही मोक्षमार्ग है- यह सिद्ध करते हैं ) :
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गाथार्थ:- [ पाषण्डिगृहिमयानि लिङ्गानि ] मुनियों और गृहस्थके लिंग (चिन्ह) [ एषः ] यह [ मोक्षमार्गः न अपि ] मोक्षमार्ग नहीं है; [ दर्शनज्ञानचारित्राणि ] दर्शन-ज्ञान-चारित्रको [ जिना: ] जिनदेव [ मोक्षमार्ग ब्रुवन्ति ] मोक्षमार्ग कहते हैं ।
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समयसार
५७०
न खलु द्रव्यलिङ्गं मोक्षमार्गः, शरीराश्रितत्वे सति परद्रव्यत्वात्। दर्शनज्ञानचारित्राण्येव मोक्षमार्गः, आत्माश्रितत्वे सति स्वद्रव्यत्वात्।
यत एवम्
तम्हा जहित्तु लिंगे सागारणगारए हे वा गहिदे। दंसणणाणचरित्ते अप्पाणं जंज मोक्खपहे।। ४११ ।।
तस्मात् जहित्वा लिङ्गानि सागारैरनगारकैर्वा गृहीतानि। दर्शनज्ञानचारित्रे आत्मानं युक्ष्व मोक्षपथे।। ४११ ।।
टीका:-द्रव्यलिंग वास्तवमें मोक्षमार्ग नहीं है, क्योंकि (द्रव्यलिंग) शरीराश्रित होनेसे परद्रव्य है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग है, क्योंकि वे आत्माश्रित होनेसे स्वद्रव्य हैं।
भावार्थ:-जो मोक्ष है सो सर्व कर्मके अभावरूप आत्मपरिणाम (-आत्माके परिणाम) हैं, इसलिये उसका कारण भी आत्मा परिणाम ही होना चाहिये। दर्शनज्ञान-चारित्र आत्माके परिणाम हैं; इसलिये निश्चयसे वही मोक्षका मार्ग है।
जो लिंग है सो देहमय है; और जो देह है वह पुद्गलद्रव्यमय है; इसलिये आत्माके लिये देह मोक्षमार्ग नहीं है। परमार्थसे अन्य द्रव्यको अन्य द्रव्य कुछ नहीं करता ऐसा नियम है।
जब कि ऐसा है (अर्थात् यदि द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं है और दर्शनज्ञानचारित्र ही मोक्षमार्ग है) तो इसप्रकार (निम्नप्रकार) से करना चाहिये-यह उपदेश है:
यों छोड़कर सागार या अनगार-धारित लिंग को ।। चारित्र-दर्शन-ज्ञानमें तू जोड़ रे! निज आत्मको ।। ४११ ।।
गाथार्थ:- [ तस्मात् ] इसलिये [ सागारैः ] सागारों द्वारा ( -गृहस्थों द्वारा) [अनगारकैः वा ] अथवा अणगारोंके द्वारा (-मुनियोंके द्वारा) [ गृहीतानि ] ग्रहण किये गये [लिङ्गानि] लिंगोंको [जहित्वा] छोड़कर, [दर्शनज्ञानचारित्रे] दर्शनज्ञानचारित्रमें- [ मोक्षपथे] जो कि मोक्षमार्ग है उसमें- [आत्मानं युंक्ष्व ] तू आत्माको लगा।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५७१
यतो द्रव्यलिङ्गं न मोक्षमार्गः, ततः समस्तमपि द्रव्यलिङ्गं त्यक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्रेष्वेव , मोक्षमार्गत्वात् , आत्मा योक्तव्य इति सूत्रानुमतिः।
(अनुष्टुभ् ) दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मनः। एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा।। २३९ ।।
मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय। तत्थेव विहर णिचं मा विहरसु अण्णदव्वेसु।। ४१२ ।।
टीका:-क्योंकि द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं है, इसलिये समस्त द्रव्यलिंगका त्याग करके दर्शनज्ञानचारित्रमें ही, वह ( दर्शनज्ञानचारित्र) मोक्षमार्ग होनेसे , आत्माको लगाना योग्य है-ऐसी सूत्रकी अनुमति है।
भावार्थ:-यहाँ द्रव्यलिंगको छोड़कर आत्माको दर्शनज्ञानचारित्रमें लगानेका वचन है वह सामान्य परमार्थ वचन है। कोई यह समझेगा कि मुनि-श्रावकके व्रतोंके छुड़ानेका उपदेश है। परंतु ऐसा नहीं है। जो मात्र द्रव्यलिंगको ही मोक्षमार्ग जानकर वेश धारण करते हैं, उन्हें द्रव्यलिंगका पक्ष छुड़ानेका उपदेश दिया है कि-वेशमात्र से( वेशमात्रसे, बाह्यव्रतमात्रसे) मोक्ष नहीं होता। परमार्थ मोक्षमार्ग तो आत्माके परिणाम जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र है वही हैं। व्यवहार आचारसूत्रके कथनानुसार जो मुनि श्रावकके बाह्य व्रत हैं, वे व्यवहारसे निश्चयमोक्षमार्गके साधक हैं; उन व्रतोंको यहाँ नहीं छुड़ाया है, किन्तु यह कहा है कि उन व्रतोंका भी ममत्व छोड़कर परमार्थ मोक्षमार्गमें लगनेसे मोक्ष होता है, केवल वेशमात्रसे-व्रतमात्रसे मोक्ष नहीं होता।
अब इस अर्थको दृढ़ करनेवाली आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [आत्मनः तत्त्वम् दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रय-आत्मा ] आत्माका तत्त्व दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मक है ( अर्थात् आत्माका यथार्थ रूप दर्शन, ज्ञान और चारित्रके त्रिकस्वरूप है); [ मुमुक्षुणा मोक्षमार्ग: एकः एव सदा सेव्यः ] इसलिये मोक्षके इच्छुक पुरुषको ( यह दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप) मोक्षमार्ग एक ही सदा सेवन करने योग्य है। २३९ । अब इसी उपदेश को गाथा द्वारा कहते हैं:
तूं स्थाप निजको मोक्षपथमें, ध्या, अनुभव तू उसे । उसमें ही नित्य विहार कर, न विहार कर परद्रव्यमें ।। ४१२ ।।
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५७२
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समयसार
मोक्षपथे आत्मानं स्थापय तं चैव ध्यायस्व तं चेतयस्व । तत्रैव विहर नित्यं मा विहार्षीरन्यद्रव्येषु ।। ४१२ ।।
आसंसारात्परद्रव्ये रागद्वेषादौ नित्यमेव
स्वप्रज्ञादोषेणावतिष्ठमानमपि,
तथा
सकलकर्मकर्मफलचेतनासंन्यासेन
स्वप्रज्ञागुणेनैव ततो व्यावर्त्य दर्शनज्ञानचारित्रेषु नित्यमेवावस्थापयातिनिश्चलमात्मानं; तथा समस्तचिन्तान्तरनिरोधेनात्यन्तमेकाग्रो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्राण्येव ध्यायस्व; शुद्धज्ञानचेतनामयो भूत्वादर्शनज्ञानचारित्राण्येव चेतयस्व; तथा द्रव्यस्वभाववशतः प्रतिक्षणविजृम्भमाण परिणामतया तन्मयपरिणामो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्रेष्वेव विहर; ज्ञानरूपमेकमेवाचलितमवलम्बमानो ज्ञेयरूपेणोपाधितया सर्वत एव प्रधावत्स्वपि परद्रव्येषु सर्वेष्वपि मनागपि मा विहार्षीः।
तथा
गाथार्थ:- (हे भव्य ! ) [ मोक्षपथे ] तू मोक्षमार्गमें [आत्मानं स्थापय ] अपने आत्माको स्थापित कर, [ तं च एव ध्यायस्व ] उसी का ध्यान कर, [ तं चेतयस्व ] उसी को चेत- अनुभव कर [ तत्र एव नित्यं विहर ] और उसी में निरंतर विहार कर; [ अन्यद्रव्येषु मा विहार्षीः ] अन्य द्रव्योंमें विहार मत कर।
टीका :- (हे भव्य ! ) स्वयं अर्थात् अपना आत्मा अनादि संसारसे लेकर अपनी प्रज्ञाके (-बुद्धिके) दोषसे परद्रव्यमें - रागद्वेषादिमें निरंतर स्थित रहता हुआ भी अपनी प्रज्ञाके गुण द्वारा ही उसमें से पीछे हटाकर उसे अति निश्चलता पूर्वक दर्शन-ज्ञानचारित्रमें निरंतर स्थापित कर; तथा समस्त अन्य चिंताके निरोध द्वारा अत्यंत एकाग्र होकर दर्शन - ज्ञान - चारित्रका ही ध्यान कर; तथा समस्त कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाके त्याग द्वारा शुद्धज्ञानचेतनामय होकर दर्शन - ज्ञान - चारित्रको ही चेतअनुभव कर; तथा द्रव्यके स्वभावके वशसे ( अपनेको) प्रतिक्षण जो परिणाम उत्पन्न होते हैं- उनके द्वारा ( अर्थात् परिणामीपनेके द्वारा ) तन्मय परिणामवाला (दर्शनज्ञानचारित्रमय परिणामवाला) होकर दर्शन - ज्ञान - चारित्रमें ही विहार कर; तथा ज्ञानरूपको एकको ही अचलतया अवलंबन करता हुआ, जो ज्ञेयरूप होनेसे उपाधिस्वरूप है ऐसे सर्व ओरसे फैलते हुए समस्त परद्रव्योंमें किंचित्मात्र भी विहार
मत कर ।
भावार्थ:-परमार्थरूप आत्माके परिणाम दर्शन - ज्ञान - चारित्र है; वही मोक्षमार्ग है। उसी में ( - दर्शनज्ञानचारित्रमें ही ) आत्माको स्थापित करना चाहिये, उसीका ध्यान करना चाहिये, उसीका अनुभव करना चाहिये और उसी में विहार ( - प्रवर्तन ) करना चाहिये, अन्य द्रव्योंमें प्रवर्तन नहीं करना चाहिये । यहाँ परमार्थ से यही उपदेश है कि-निश्चय मोक्षमार्गका सेवन करना चाहिये, मात्र व्यवहारमें ही मूढ़ नहीं रहना चाहिये।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५७३
(शार्दूलविक्रीडित) एको मोक्षपथो य एष नियतो दृग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति। तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन् सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति।। २४० ।।
(शार्दूलविक्रीडित) ये त्वेनं परिहृत्य संवृतिपथप्रस्थापितेनात्मना लिङ्गे द्रव्यमये वहन्ति ममतां तत्त्वावबोधच्युताः। नित्योद्योतमखण्डमेकमतुलालोकं स्वभावप्रभाप्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यन्ति ते।। २४१ ।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ दृग्-ज्ञप्ति-वृत्ति-आत्मकः यः एषः एक नियतः मोक्षपथः ] दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप जो यह एक नियत मोक्षमार्ग है, [ तत्र एव यः स्थितिम् एति] उसीमें जो पुरुष स्थिति प्राप्त करता है अर्थात् स्थित रहता है, [ तम् अनिशं ध्यायेत् ] उसीका निरंतर ध्यान करता है, [तं चेतति] उसीको चेतता है-उसीका अनुभव करता है, [च द्रव्यान्तराणि अस्पृशन् तस्मिन् एव निरन्तरं विहरति] और अन्य द्रव्योंको स्पर्श न करता हुआ निरंतर विहार करता है, [ स: नित्य-उदयं समयस्य सारम् अचिरात् अवश्यं विन्दति] वह पुरुष, जिसका उदय नित्य रहता है ऐसे समयके सारको ( अर्थात् परमात्मके रूपको) अल्पकाल में ही अवश्य प्राप्त करता है अर्थात् उसका अनुभव करता है।
भावार्थ:-निश्चयमोक्षमार्गके सेवनसे अल्पकाल में ही मोक्षकी प्राप्ति होती है यह नियम है। २४०।
____ 'जो द्रव्यलिंगको ही मोक्षमार्ग मानकर उसमें ममत्व रखते हैं, उन्होंने समयसारको अर्थात् शुद्ध आत्माको नहीं जाना'-इसप्रकार गाथा द्वारा कहते हैं।
यहाँ प्रथम उसका सुचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ये तु एनं परिहृत्य संवृति-पथ-प्रस्थापितेन आत्मना द्रव्यमये लिङ्गे ममतां वहन्ति ] जो पुरुष इस पूर्वोक्त परमार्थ स्वरूप मोक्षमार्गको छोड़कर व्यवहार मोक्षमार्गमें स्थापित अपने आत्माके द्वारा द्रव्यमय लिंगमें ममता करते हैं ( अर्थात् यह मानते हैं कि यह द्रव्यलिंग ही हमें मोक्ष प्राप्त करा देगा), [ ते तत्त्वअवबोध-च्युताः अद्य अपि समयस्य सारम् न पश्यन्ति ] वे पुरुष तत्त्वके यथार्थ ज्ञानसे रहित होते हुए अभीतक समयके सारको (अर्थात् शुद्ध आत्माको ) नहीं देखते-अनुभव नहीं करते।
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समयसार
५७४
पासंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु। कुव्वंति जे ममत्तिं तेहिं ण णादं समयसारं।। ४१३ ।।
पाषण्डिलिङ्गेषु वा गृहिलिङ्गेषु वा बहुप्रकारेषु। कुर्वन्ति ये ममत्वं तैर्न ज्ञातः समयसारः।। ४१३ ।।
ये खलु श्रमणोऽहं श्रमणोपासकोऽहमिति द्रव्यलिङ्गममकारेण मिथ्याहङ्कारं कुर्वन्ति, तेऽनादिरूढव्यवहारमूढाः प्रौढविवेकं निश्चयमनारूढाः परमार्थसत्यं भगवन्तं समयसारं न पश्यन्ति।
वह समयसार शुद्ध आत्मा कैसा है ? [ नित्य-उद्योतम] नित्य प्रकाशमान है (अर्थात् कोई प्रतिपक्षी होकर उसके उदयका नाश नहीं कर सकता), [अखण्डम् ] अखंड है ( अर्थात् जिसमें अन्य ज्ञेय आदिके निमित्त खंड नहीं होते), [ एकम् ] एक है ( अर्थात् पर्यायोंसे अनेक अवस्थारूप होनेपर भी जो एकरूपत्वको नहीं छोड़ता, [ अतुलआलोकं] अतुल (-उपमारहित) प्रकाशवाला है (क्योंकि ज्ञानप्रकाशको सूर्यादिके प्रकाशकी उपमा नहीं दी जा सकती), [स्वभाव-प्रभा-प्राग्भारं] स्वभावप्रभाका पुंज है ( अर्थात् चैतन्यप्रकाशका समूहरूप है), [अमलं ] अमल है (अर्थात् रागादिविकाररूपी मलसे रहित है)।
(इसप्रकार, जो द्रव्यलिंगमें ममत्व करते हैं उन्हें निश्चय-कारणसमयसारका अनुभव नहीं है; तब फिर उनको कार्यसमयसारकी प्राप्ति कहाँ से होगी ? ) २४१। अब इस अर्थकी गाथा कहते हैं:
बहुभाँति मुनिलिंग जो अथवा गृहस्थीलिंग जो। ममता करे, उनमें नहीं जाना 'समयके सार' को ।। ४१३।।
गाथार्थ:- [ये] जो [ बहुप्रकारेषु ] बहु प्रकारके [पाषण्डिलिङ्गेषु वा] मुनिलिंगोंमें [गृहिलिङ्गेषु वा] अथवा गृहस्थलिंगोंमें [ ममत्वं कुर्वन्ति ] ममता करते हैं ( अर्थात् यह मानते हैं कि द्रव्यलिंग ही मोक्षका दाता है), [ तैः समयसारः न ज्ञातः ] उन्होंने समयसारको नहीं जाना।
टीका:-जो वास्तवमें 'मैं श्रमण हूँ, मैं श्रमणोपासक ( –श्रावक ) हूँ' इसप्रकार द्रव्यलिंगमें ममत्वभाव के द्वारा मिथ्या अहंकार करते हैं, वे अनादिरूढ़ (अनादि कालसे समागत) व्यवहारमें मूढ़ (मोही) होते हुए, प्रौढ़ विवेकवाले निश्चय (निश्चयनय) पर आरूढ़ न होते हुए, परमार्थसत्य (-जो परमार्थसे सत्य है ऐसे) भगवान समयसारको नहीं देखते-अनुभव नहीं करते।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५७५
(वियोगिनी) व्यवहारविमूढदृष्टयः परमार्थ कलयन्ति नो जनाः। तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तण्डुलम्।। २४२ ।।
(स्वागता) द्रव्यलिङ्गममकारमीलितैदृश्यते समयसार एव न। द्रव्यलिङ्गमिह यत्किलान्यतो ज्ञानमेकमिदमेव हि स्वतः।। २४३ ।।
भावार्थ:-अनादिकालीन परद्रव्यके संयोगसे होनेवाले व्यवहार ही में जो पुरुष मूढ़ अर्थात् मोहित हैं, वे यह मानते हैं कि 'यह बाह्य महाव्रतादिरूप वेश ही हमें मोक्ष प्राप्त करा देगा', परंतु जिससे भेदज्ञान होता है ऐसे निश्चयको वे नहीं जानते। ऐसे पुरुष सत्यार्थ, परमात्मरूप, शुद्धज्ञानमय समयसारको नहीं देखते।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ व्यवहार-विमूढ-दृष्टयः जनाः परमार्थ नो कलयन्ति ] जिनकी दृष्टि ( -बुद्धि ) व्यवहारमें ही मोहित है ऐसे पुरुष परमार्थको नहीं जानते, [ इह तुषबोध-विमुग्ध-बुद्धयः तुषं कलयन्ति, न तण्डुलम् ] जैसे जगतमें जिनकी बुद्धि तुषके ज्ञानमें ही मोहित है ( –मोह को प्राप्त हुई है) ऐसे पुरुष तुषको ही जानते हैं, तंदुल (चावल) को नहीं जानते।
भावार्थ:-जो धान के छिल्कों पर ही मोहित हो रहे हैं, उन्हीं को कूटते रहते हैं, उन्होंने चावलोंको जाना ही नहीं है; इसीप्रकार जो द्रव्यलिंग आदि व्यवहारमें मुग्ध हो रहे हैं (अर्थात् जो शरीरादिकी क्रियामें ममत्व किया करते हैं), उन्होंने शुद्धात्मानुभवनरूप परमार्थको जाना ही नहीं है; अर्थात् ऐसे जीव शरीरादि परद्रव्यको ही आत्मा जानते हैं, वे परमार्थ आत्माके स्वरूप को जानते ही नहीं। २४२।
अब आगामी गाथाका सूचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [द्रव्यलिङ्ग-ममकार-मीलितैः समयसारः एव न दृश्यते] जो द्रव्यलिंगमें ममकारके द्वारा अंध-विवेकरहित हैं, वे समयसारको ही नहीं देखते; [ यत् इह द्रव्यलिङ्गम् किल अन्यतः] कारण कि इस जगतमें द्रव्यलिंग तो वास्तवमें अन्यद्रव्यसे होता है, [इदम् ज्ञानम् एव हि एकम् स्वतः ] मात्र यह ज्ञान ही निजसे ( आत्मद्रव्यसे) होता है।
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समयसार
५७६
ववहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणि भणदि मोक्खपहे। णिच्छयणओ ण इच्छदि मोक्खपहे सव्वलिंगाणि।। ४१४ ।।
व्यावहारिक: पुनर्नयो द्वे अपि लिङ्गे भणति मोक्षपथे। निश्चयनयो नेच्छति मोक्षपथे सर्वलिङ्गानि।। ४१४ ।।
यः खलु श्रमणश्रमणोपासकभेदेन द्विविधं द्रव्यलिङ्गं भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः स केवलं व्यवहार एव, न परमार्थः, तस्य स्वयमशुद्धद्रव्यामुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वाभावात; यदेव श्रमणश्रमणोपासकविकल्पातिक्रान्तं दृशिज्ञप्तिप्रवृत्तवृत्तिमात्रं शुद्धज्ञानमेवैकमिति निस्तुषसञ्चेतनं परमार्थः, तस्यैव स्वयं शुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वात्। ततो ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्ध्या चेतयन्ते, ते समयसारमेव न सञ्चेतयन्ते; य एव परमार्थ परमार्थबुद्ध्या चेतयन्ते, ते एव समयसारं चेतयन्ते।
भावार्थ:-जो द्रव्यलिंगमें ममत्व के द्वारा अंध हैं उन्हें शुद्धात्मद्रव्यका अनुभव ही नहीं है, क्योंकि वे व्यवहार को ही परमार्थ मानते हैं इसलिये परद्रव्यको ही आत्मद्रव्य मानते हैं। २४३।
'व्यवहारनय ही मुनिलिंगको और श्रावकलिंगको-दोनों को मोक्षमार्ग कहता है निश्चयनय किसी लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता'-यह गाथा द्वारा कहते हैं:
व्यवहारनय , इन लिंग द्वय को मोक्षके पथमें कहे ।
निश्चय नहीं माने कभी को लिंग मुक्तिपथ में ।। ४१४ ।। गाथार्थ:- [ व्यावहारिकः नयः पुनः ] व्यवहारनय [ द्वे लिङ्गे अपि] दोनों लिंगोंको [ मोक्षपथे भणति ] मोक्षमार्गमें कहता है (अर्थात् व्यवहारनय मुनिलिंग और गृहीलिंगको मोक्षमार्ग कहता है); [ निश्चयनयः ] निश्चयनय [ सर्वलिङ्गानि ] सभी (किसी भी) लिंगों को [ मोक्षपथे न इच्छति ] मोक्षमार्गमें नहीं मानता।
टीका:-श्रमण और श्रमणोपासकके भेदसे दो प्रकारके द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग हैइसप्रकार का जो प्ररूपण-प्रकार ( अर्थात् इसप्रकार की जो प्ररूपणा) वह केवल व्यवहार ही है, परमार्थ नहीं, क्योंकि वह (प्ररूपणा) स्वयं अशुद्ध द्रव्यकी अनुभवनस्वरूप है इसलिये उसको परमार्थतयाका अभाव है; श्रमण और श्रमणोपासकके भेदोंसे अतिक्रांत, दर्शनज्ञानमें प्रवृत्त परिणतिमात्र ( –मात्र दर्शन-ज्ञानमें प्रवृत्त परिणतिरूप) शुद्ध ज्ञान ही एक है-ऐसा जो निस्तुष (-निर्मल) अनुभवन ही परमार्थ है, क्योंकि वह ( अनुभवन) स्वयं शुद्ध द्रव्यका अनुभवनस्वरूप होनेसे उसी के परमार्थत्व है।
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५७७
(मालिनी) अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पैरयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः। स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रान्न खलु समयसारादुत्तरं किञ्चिदस्ति।। २४४ ।।
(अनुष्टुभ् ) इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम्। विज्ञानघनमानन्दमयमध्यक्षतां नयत्।। २४५ ।।
इसलिये जो व्यवहारको ही परमार्थबुद्धिसे (-परमार्थ मानकर) अनुभव करते हैं, वे समयसारका ही अनुभव नहीं करते; जो परमार्थको परमार्थबुद्धिसे अनुभव करते हैं, वे ही समयसारका अनुभव करते हैं।
भावार्थ:-व्यवहारनयका विषय तो भेदरूप अशुद्धद्रव्य है, इसलिये वह परमार्थ नहीं है; निश्चयनयका विषय अभेदरूप शुद्धद्रव्य है, इसलिये वही परमार्थ है। इसलिये, जो व्यवहारको ही निश्चय मानकर प्रवर्तन करते हैं समयसारका अनुभव नहीं करते; जो परमार्थको परमार्थ मानकर प्रवर्तन करते हैं वे ही समयसारका अनुभव करते हैं ( इसलिये वे ही मोक्षको प्राप्त करते हैं)।
'अधिक कथनसे क्या, एक परमार्थका ही अनुभव करो'-इस अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अतिजल्पैः अनल्पैः दुर्विकल्पैः अलम् अलम् ] बहुत कथनसे और बहुत दुर्विकल्पोंसे बस होओ; बस होओ; [ इह ] यहाँ मात्र इतना ही कहना है कि [अयम् परमार्थः एकः नित्यम् चेत्यताम् ] इस एक मात्र परमार्थका ही निरंतर अनुभव करो; [ स्व-रस-विसर-पूर्ण-ज्ञान-विस्फूर्ति-मात्रात् समयसारात् उत्तरं खलु किञ्चित् न अस्ति ] क्योंकि निज रसके प्रसारसे पूर्ण जो ज्ञान उसके स्फुरायमान होनेमात्र जो समयसार (-परमात्मा) उससे उच्च वास्तवमें दूसरा कुछ भी नहीं है (-समयसार के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी सारभूत नहीं है)।
भावार्थ:-पूर्णज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव करना चाहिये; इसके अतिरिक्त वासतवमें दूसरा कुछ भी सारभूत नहीं है। २४४।
अब अंतिम गाथा में यह समयसार ग्रंथके अभ्यास इत्यादिका फल कहकर आचार्यभगवान इस ग्रंथको पूर्ण करते हैं; उसका सूचक श्लोक पहले कहा जा रहा
है:
श्लोकार्थ:- [आनन्दमयम् विज्ञानघनम् अध्यक्षतां नयत्] आनंदमय विज्ञानघनको (-शुद्ध परमात्माको, समयसारको) प्रत्यक्ष करता हुआ ,
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५७८
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समयसार
जो समयपाहुडमिणं पढिदूणं अत्थतच्चदो णादुं । अत्थे ठाही चेदा सो होही उत्तमं सोक्खं ।। ४१५ ।। यः समयप्राभृतमिदं पठित्वा अर्थतत्त्वतो ज्ञात्वा।
अर्थे स्थास्यति चेतयिता स भविष्यत्युत्तमं सौख्यम् ।। ४१५ ।।
यः खलु समयसारभूतस्य भगवतः परमात्मनोऽस्य विश्वप्रकाशकत्वेन विश्वसमयस्य प्रतिपादनात् स्वयं शब्दब्रह्मायमाणं शास्त्रमिदमधीत्य, विश्वप्रकाशनसमर्थपरमार्थभूतचित्प्रकाशरूपमात्मानं निश्चिन्वन् अर्थतस्तत्त्वतश्च परिच्छिद्य, अस्यैवार्थभूते भगवति एकस्मिन् पूर्णविज्ञानघने परमब्रह्मणि सर्वारम्भेण स्थास्यति चेतयिता, स साक्षात्तत्क्षणविजृम्भमाणचिदेकरस
[ इदम एकम् अक्षयं जगत् - चक्षः ] यह एक ( - अद्वितीय) अक्षय चक्षु ( - समयप्राभृत) [ पूर्णताम् याति ] पूर्णताको प्राप्त होता है ।
भावार्थ:-यह समयप्राभृत ग्रंथ वचनरूपसे तथा ज्ञानरूपसे- दोनों प्रकारसे जगतको अक्षय (अर्थात् जिसका विनाश न हो ऐसे ) अद्वितीय नेत्र समान है, क्योंकि जैसे नेत्र घटपटादिको प्रत्यक्ष दिखलाता है, उसीप्रकार समयप्राभृत आत्माके शुद्ध स्वरूपको प्रत्यक्ष अनुभवगोचर दिखलाता है । २४५ ।
अब भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव इस ग्रंथको पूर्ण करते हैं इसलिये उसकी महिमाके रूप में उसके अभ्यास इत्यादिका फल गाथामें कहते हैं:
यह समयप्राभृत पठन करके जान अर्थ अरु तत्त्वसे । ठहरे अरथमें जीव जो वो, सौख्य उत्तम परिणमे ।। ४९५ ।।
गाथार्थ:- [ यः चेतयिता ] जो आत्मा ( - भव्य जीव) [ इदं समयप्राभृतम् पठित्वा ] इस समयप्राभृतको पढ़कर, [ अर्थतत्त्वतः ज्ञात्वा ] अर्थ और तत्त्वसे जानकर, [ अर्थे स्थास्यति ] उसके अर्थमें स्थित होगा, [ सः ] वह [ उत्तमं सौख्यम् भविष्यति ] उत्तम सौख्यस्वरूप होगा।
टीका:-समयसारभूत भगवान परमात्माका - जो कि विश्वका प्रकाशक होनेसे विश्वसमय है उसका - प्रतिपादन करता है इसलिये जो स्वयं शब्दब्रह्मके समान है ऐसे इस शास्त्रको जो आत्मा भलीभाँति पढ़कर, विश्वको प्रकाशित करने में समर्थ ऐसे परमार्थभूत, चैतन्य-प्रकाशरूप आत्माका निश्चय करता हुआ ( इस शास्त्रको ) अर्थसे और तत्त्वसे जानकर, उसीके अर्थभूत भगवान एक पूर्णविज्ञानघन परमब्रह्ममें सर्व उद्यमसे स्थित होगा, वह आत्मा, साक्षात् तत्क्षण प्रगट होनेवाले एक चैतन्यरस से
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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५७९
निर्भरस्वभाव सुस्थितनिराकुलात्मरूपतया परमानन्द-शब्दवाच्यमुत्तममनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं स्वयमेव भविष्यतीति।
(अनुष्टुभ् ) इतीदमात्मनस्तत्त्वं ज्ञानमात्रमवस्थितम्। अखण्डमेकमचलं स्वसंवेद्यमबाधितम्।। २४६ ।।
परिपूर्ण स्वभाव में सुस्थित और निराकुल (-आकुलता बिनाका) होने से जो ( सौख्य ) 'परमानंद' शब्दसे वाच्य है, उत्तम है और अनाकुलता-लक्षणयुक्त है ऐसा सौख्यस्वरूप स्वयं ही हो जायेगा।
भावार्थ:-इस शास्त्रका नाम समयप्राभृत है। समय अर्थ है पदार्थ, अथवा समय अर्थात् आत्मा। उसका कहनेवाला शास्त्र है। और आत्मा तो समस्त पदार्थों का प्रकाशक है। ऐसे विश्वप्रकाशक आत्माको कहता हुआ होनेसे यह समयप्राभृत शब्दब्रह्मके समान है; क्योंकि जो समस्त पदार्थोका कहनेवाला होता है उसे शब्दब्रह्म कहा जाता है। द्वादशांगशास्त्र शब्दब्रह्म है और इस समयप्राभूतशास्त्रको भी शब्दब्रह्मकी उपमा दी गई है। यह शब्दब्रह्म ( अर्थात् समयप्राभृतशास्त्र) परब्रह्मको (अर्थात् शुद्ध परमात्माको) साक्षात् दिखाता है। जो इस शास्त्रको पढ़कर उसके यथार्थ अर्थमें स्थित होगा, वह परब्रह्मको प्राप्त करेगा; और उससे जिसे ‘परमानंद' कहा जाता है ऐसे उत्तम, स्वात्मिक, स्वाधीन, बाधारहित, अविनाशी सुखको प्राप्त करेगा। इसलिये हे भव्य जीवों! तुम अपने कल्याणके लिये इसका अभ्यास करो, इसका श्रवण करो, निरंतर इसका ही स्मरण और ध्यान करो, कि जिससे अविनाशी सुखकी प्राप्ति हो। ऐसा श्री गुरुओंका उपदेश है।
अब इस सर्वविशुद्धज्ञानके अधिकारकी पूर्णताका कलशरूप श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इति इदम् आत्मनः तत्त्वं ज्ञानमात्रम् अवस्थितम् ] इसप्रकार यह आत्माका तत्त्व ( अर्थात् परमार्थभूत स्वरूप) ज्ञानमात्र निश्चित हुआ- [अखण्डम् ] कि जो (आत्माका) ज्ञानमात्र तत्त्व अखंड है ( अर्थात् अनेक ज्ञेयाकारोंसे और प्रतिपक्षी कर्मोसे खंड खंड दिखाई देता है तथापि ज्ञानमात्रमें खंड नहीं है), [ एकम् ] एक है ( अर्थात् अखंड होनेसे एकरूप है), [अचलं] अचल है ( अर्थात् ज्ञानरूपसे चलित नहीं होता-ज्ञेयरूप नहीं होता), [स्वसंवेद्यम् ] स्वसंवेद्य है ( अर्थात् अपनेसे ही ज्ञाता होने योग्य है), [अबाधितम् ] और अबाधित है (अर्थात् किसी मिथ्यायुक्तिसे बाधा नहीं पाता)।
भावार्थ:-यहाँ आत्माका निज स्वरूप ज्ञान ही कहा है इसका कारण यह है:आत्मामें अनंत धर्म हैं; किन्तु उनमें कितने ही तो साधारण हैं, इसलिये वे
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समयसार
५८०
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां सर्वविशुद्धज्ञानप्ररूपक: नवमोऽङ्कः।।
समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ
अतिव्याप्तियुक्त हैं, उनसे आत्माको पहिचाना नहीं जा सकता; और कुछ (धर्म)पर्यायाश्रित हैं-किसी अवस्थामें होते हैं और किसी अवस्थामें नहीं होते, इसलिये वे अव्याप्तियुक्त हैं, उनसे भी आत्मा नहीं पहिचाना जा सकता। चेतनता यद्यपि आत्माका (अतिव्याप्ति और अव्याप्ति रहित) लक्षण है, तथापि वह शक्तिमात्र है, अदृष्ट है; उसकी व्यक्ति दर्शन और ज्ञान है। उस दर्शन और ज्ञानमें भी ज्ञान साकार है, प्रगट अनुभवगोचर है; इसलिये उसके द्वारा ही आत्मा पहिचाना जा सकता है। इसलिये यहाँ इस ज्ञानको ही प्रधान करके आत्माका तत्त्व कहा है।
यहाँ ऐसा नहीं समझना चाहिये कि 'आत्माको ज्ञानमात्र तत्त्ववाला कहा है इसलिये इतना ही परमार्थ है और अन्य धर्म मिथ्या है, वे आत्मामें नहीं हैं'; ऐसा सर्वथा एकांत ग्रहण करनेसे तो मिथ्यादृष्टित्व आ जाता है, विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धोंका और वेदांतियोंका मत आ जाता है; इसलिये ऐसा एकांत बाधासहित है। ऐसे एकांत अभिप्रायसे कोई मुनिव्रत भी पाले और आत्माका-ज्ञानमात्रका ध्यान भी करे, तो भी मिथ्यात्व नहीं कट सकता; मंद कषायोंके कारण भले ही स्वर्ग प्राप्त हो जाये किन्तु मोक्षका साधन तो नहीं होता। इसलिये स्याद्वादसे यथार्थ समझना चाहिये। २४६।
(सर्वया) सरवविशुद्धज्ञानरूप सदा चिदानंद करता न भोगता न परद्रव्यभावको, मूरत अमूरत जे आनद्रव्य लोकमांहि ते भी ज्ञानरूप नहीं न्यारे न अभावको; यहै जानि ज्ञानी जीव आपकू भजै सदीव ज्ञानरूप सुखतूप आन न लगावको, कर्म-कर्मफलरूप चेतनाकू दूरि टारि ज्ञानचेतना अभ्यास करे शुद्ध भावको।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामकी टीकामें सर्वविशुद्धज्ञानका प्ररूपक नवमाँ अंक समाप्त हुआ।
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[परिशिष्टम्]
( अनुष्टुभ् ) अत्र स्याद्वादशुद्ध्यर्थ वस्तुतत्त्वव्यवस्थितिः। उपायोपेयभावश्च मनाग्भूयोऽपि चिन्त्यते।। २४७ ।।
[ परिशिष्ट]
(यहाँ तक भगवत् कुंदकुंदाचार्यदेवकी ४१५ गाथाओंका विवेचन टीकाकार श्री अमृतचंद्राचार्यदेवने किया, और उस विवेचन में कलशरूपसे तथा सूचनिकारूपसे २४६ काव्य कहे हैं। अब टीकाकार आचार्यदेवे विचारते हैं कि-इस शास्त्रमें ज्ञानको प्रधान करके आत्माको ज्ञानमात्र कहते आये हैं; इसलिये कोई यह तर्क करे कि 'जैनमत तो स्याद्वाद है; तब क्या आत्माको ज्ञानमात्र कहनेसे एकांत नहीं हो जाता ? अर्थात् स्यादवादके साथ विरोध नहीं आता? और एक ही ज्ञानमें उपायतत्त्व तथा उपेयतत्त्व-दोनों कैसे घटित होते हैं ? ' ऐसे तर्कका निराकरण करनेके लिये टीकाकार आचार्यदेव यहाँ सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारके अन्त में परिशिष्टरूपसे कुछ कहते हैं। उसमें प्रथम श्लोक इसप्रकार है:-)
श्लोकार्थ:- [अत्र ] यहाँ [ स्याद्वाद-शुद्धि-अर्थ ] स्याद्वादकी शुद्धिके लिये [ वस्तु-तत्त्व-व्यवस्थितः] वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था [च] और [ उपाय-उपेय-भावः] ( एक ही ज्ञानमें उपाय-उपेयत्व कैसे घटित होता है यह बतलाने ले लिये) उपायउपेयभावका [ मनाक् भूयः अपि ] जरा फिरसे भी [ चिन्त्यते] विचार करते हैं।
भावार्थ:-वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषात्मक अनेक-धर्मस्वरूप होनेसे वह स्याद्वादसे ही सिद्ध किया जा सकता है। इसप्रकार स्याद्वादकी शुद्धता (प्रमाणिकता, सत्यता, निर्दोषता, निर्मलता, अद्वितीयता) सिद्ध करने के लिये इस परिशिष्टमें वस्तुस्वरूपका विचार किया जाता है। (इससे यह भी बताया जायेगा कि इस शास्त्रमें आत्माको ज्ञानमात्र कहा है फिर भी स्याद्वादके साथ विरोध नहीं आता।) और दूसरे, एक ही ज्ञानमें साधकत्त्व तथा साध्यत्त्व कैसे बन सकता है यह समझाने के लिये ज्ञानका उपाय-उपेयभाव अर्थात् साधकसाध्यभाव भी इस परिशिष्टमें विचार किया जावेगा। २४७।
(अब प्रथम आचार्यदेव वस्तुस्वरूपके विचार द्वारा स्याद्वादको सिद्ध करते
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समयसार
५८२
__ स्याद्वादो हि समस्तवस्तुतत्त्वसाधकमेकमस्खलितं शासनमर्हत्सर्वज्ञस्य। स तु सर्वमनेकान्तात्मकमित्यनुशास्ति, सर्वस्यापि वस्तुनोऽनेकान्तस्वभावत्वात्। अत्र त्वात्मवस्तुनि ज्ञानमात्रतया अनुशास्यमानेऽपि न तत्परिकोपः, ज्ञानमात्रस्यात्मवस्तुनः स्वयमेवानेकान्तत्वात्। तत्र यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत्तदेवासत्,
यदेव
नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाश-नमनेकान्तः। तत्स्वात्मवस्तुनो ज्ञानमात्रत्वेऽप्यन्तश्चकचकायमानज्ञानस्वरूपेण तत्त्वात्, बहिरुन्मिषदनन्तज्ञेयतापन्नस्वरूपातिरिक्तपररूपेणातत्त्वात्, सहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशसमुदयरूपाविभागद्रव्येणैकत्वात्
अविभागैकद्रव्यव्याप्तसहक्रम प्रवृत्तानन्तचिदंशरूपपर्यायै-रनेकत्वात्, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावभवनशक्तिस्वभाववत्त्वेन सत्त्वात्, परद्रव्यक्षेत्रकाल- भावाभवनशक्तिस्वभाववत्त्वेनाऽसत्त्वात्,
स्याद्वाद समस्त वस्तुओंके स्वरूपको सिद्ध करनेवाला, अर्हत् सर्वज्ञका एक अस्खलित ( –निर्बाध ) शासन है। वह ( स्याद्वाद) 'सब अनेकान्तात्मक है' इसप्रकार उपदेश करता है, क्योंकि समस्त वस्तु अनेकांत-स्वभाववाली है। ('सर्व वस्तुएँ अनेकांतस्वरूप है' इसप्रकार जो स्याद्वाद कहता है सो वह असत्यार्थ कल्पनासे नहीं कहता, परंतु जैसा वस्तुका अनेकांत स्वभाव है वैसा ही कहता है।)
यहाँ आत्मा नामक वस्तुको ज्ञानमात्रतासे उपदेश करनेपर भी स्याद्वादका कोप नहीं है, क्योंकि ज्ञानमात्र आत्मवस्तुके स्वयमेव अनेकांतात्मकत्व है। वहाँ (अनेकांतका ऐसा स्वरूप है कि), जो (वस्तु) तत् है वही अतत् है, जो (वस्तु) एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य हैइसप्रकार ‘एक वस्तुमें वस्तुत्वकी उपजानेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तिओंका प्रकाशित होना अनेकांत है।' इसलिये अपनी आत्मवस्तुको भी, ज्ञानमात्रता होने पर भी, तत्-अतत्, एकत्व-अनेकत्व, सत्व-असत्व और नित्यत्व और अनित्यत्वपना प्रकाशता ही है; क्योंकि-उसके (ज्ञानमात्र आत्मवस्तुके) अंतरंगमें चकचकित प्रकाशते ज्ञानस्वरूप के द्वारा तत्पना है, और बाहर प्रगट होते, अनंत, ज्ञेयत्वको प्राप्त, स्वरूपसे भिन्न ऐसे पररूपके द्वारा ( -ज्ञानस्वरूपसे भिन्न ऐसे परद्रव्यके रूप द्वारा-) अतत्पना है (अर्थात् ज्ञान उस रूप नहीं है); सहभूत (-साथ ही) प्रवर्तमान और क्रमशः प्रवर्तमान अनंत चैतन्य-अंशोंके समुदायरूप अविभाग द्रव्यके द्वारा एकत्व है, और अविभाग एक द्रव्यमें व्याप्त, सहभूत प्रवर्तमान तथा क्रमशः प्रवर्तमान अनंत चैतन्य-अंशरूप ( –चैतन्यके अनंत अंशोंरूप) पर्यायोंके द्वारा अनेकत्व है; अपने द्रव्यक्षेत्र-काल-भावरूपसे होनेकी शक्तिरूप जो स्वभाव है उस स्वभाववानपने के द्वारा ( अर्थात् ऐसे स्वभाववाली होनेसे ) सत्त्व है, और परके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप न होने की शक्तिरूप जो स्वभाव है उस स्वभाववानपने के द्वारा असत्व है;
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[परिशिष्टम् ]
५८३
अनादिनिधनाविभागैकवृत्तिपरिणतत्वेन
नित्यत्वात्, क्रमप्रवृत्तैकसमयावच्छिन्नानेकवृत्त्यंशपरिणतत्वेनानित्यत्वात्, तदतत्त्वमेका-नेकत्वं सदसत्त्वं नित्यानित्यत्वं च प्रकाशत एव। ननु यदि ज्ञानमात्रत्वेऽपि आत्मवस्तुनः स्वयमेवानेकान्त प्रकाशते, तर्हि किमर्थमर्हद्भिस्तत्साधनत्वेनाऽनुशास्यतेऽनेकान्तः ? अज्ञानिनां ज्ञानमात्रात्मवस्तुप्रसिद्ध्यर्थमिति ब्रूमः। न खल्वनेकान्तमन्तरेण ज्ञानमात्रमात्मवस्त्वेव प्रसिध्यति। तथाहि-इह हि स्वभावत एव बहुभावनिर्भरे विश्वे सर्वभावानां स्वभावेनाद्वैतेऽपि द्वैतस्य निषेधुमशक्यत्वात् समस्तमेव वस्तु स्वपररूपप्रवृत्तिव्यावृत्तिभ्यामुभयभावाध्यासितमेव। तत्र यदायं ज्ञानमात्रो भावः शेषभावै: सह स्वरसभरप्रवृत्तज्ञातृज्ञेयसम्बन्धतयाऽनादिज्ञेयपरिणमनात् ज्ञानतत्त्वं पररूपेण प्रतिपद्याज्ञानी भूत्वा नाशमुपैति, तदा स्वरूपेण तत्त्वं द्योतयित्वाज्ञातृत्वेन परिणमनाज्ज्ञानी कुर्वन्ननेकान्त एव तमुद्गमयति ।
अनादिनिधन अविभाग एक वृत्तिरूपसे परिणतपने के द्वारा नित्यत्व है, और क्रमशः प्रवर्तमान, एक समयकी मर्यादावाले अनेक वृत्ति-अंशोंरूपसे परिणतपने के द्वारा अनित्यत्व है। (इसप्रकार ज्ञानमात्र आत्मवस्तुको भी, तत्-अतत्पना इत्यादि दो-दो विरुद्ध शक्तियाँ स्वयमेव प्रकाशित होती हैं, इसलिये अनेकांत स्वयमेव प्रकाशित होता है।)
(प्रश्न-) यदि आत्मवस्तुको, ज्ञानमात्रता होनेपर भी, स्वयमेव अनेकांत प्रकाशता है, तब फिर अहँत भगवान उसके साधनके रूपमें अनेकांतका (स्याद्वादका) उपदेश क्यों देते हैं ? ( उत्तर-) अज्ञानियोंके ज्ञानमात्र आत्मवस्तुकी प्रसिद्धि करने के लिये उपदेश देते हैं ऐसा हम कहते हैं। वास्तवमें अनेकांत (स्याद्वाद) के बिना ज्ञानमात्र आत्मवस्तु ही प्रसिद्ध नहीं हो सकती। इसी को इस प्रकार समझाते हैं:
स्वभावसे ही बहुत से भावोंसे भरे हुए इस विश्वमें सर्व भावोंका स्वभावसे अद्वैत होने पर भी, द्वैतका निषेध करना अशक्य होनेसे समस्त वस्तु स्वरूपमें प्रवृत्ति
और पररूपसे व्यावृत्तिके द्वारा दोनों भावोंसे अध्यासित है (अर्थात् समस्त वस्तु स्वरूपमें प्रवर्तमान होनेसे और पररूपसे भिन्न रहने से प्रत्येक वस्तुमें दोनों भाव रह रहे हैं)। वहाँ, जब यह ज्ञानमात्र भाव (-आत्मा), शेष (बाकीके) भावोंके साथ निज रसके भारसे प्रवर्तित ज्ञाता-ज्ञेयके संबंधके कारण और अनादि कालसे ज्ञेयोंके परिणमनके कारण ज्ञानतत्त्वको पररूप मानकर ( अर्थात् ज्ञेयरूपसे अंगीकार करके) अज्ञानी होता हुआ नाशको प्राप्त होता है, तब ( उसे ज्ञानमात्र भावका) स्व-रूपसे ( -ज्ञानरूपसे) तत्पना प्रकाशित करके ( अर्थात् ज्ञान ज्ञानरूपसे प्रगट करके), ज्ञातारूपसे परिणमनके कारण ज्ञानी करता हुआ अनेकांत ही (स्याद्वाद ही) उसका उद्धार करता है-नाश नहीं होने देता। १।
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५८४
यदा तु सर्व वै खल्विदमात्मेति अज्ञानतत्त्वं स्वरूपेण प्रतिपद्य विश्वोपादानेनात्मानं नाशयति, तदा पररूपेणातत्त्वं द्योतयित्वा विश्वाद्भिन्नं ज्ञानं दर्शयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति २। यदानेकज्ञेयाकारैः खण्डितसकलैकज्ञानाकारो नाशमुपैति, तदा द्रव्येणैकत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ३। यदा त्वेकज्ञानाकारोपादानायानेकज्ञेयाकारत्यागेनात्मानं नाशयति, तदा पर्यायैरनेकत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति ४ । यदा ज्ञायमानपरद्रव्यपरिणमनाद् ज्ञातृद्रव्यं परद्रव्यत्वेन प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वद्रव्येण सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ५। यदा तु सर्वद्रव्याणि अहमेवेति परद्रव्यं ज्ञातृद्रव्यत्वेन प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परद्रव्येणासत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति ६ ।
समयसार
और जब वह ज्ञानमात्र भाव 'वास्तवमें यह सब आत्मा है' इसप्रकार अज्ञानतत्त्वको स्व-रूपसे (ज्ञानरूपसे) मानकर - अंगीकार करके विश्वके ग्रहण द्वारा अपना नाश करता है ( - सर्व जगतको निजरूप मानकर उसका ग्रहण करके जगतसे भिन्न ऐसे अपने को नष्ट करता है ), तब ( उस ज्ञानमात्र भावका ) पररूपसे अतत्पना प्रकाशित करके (अर्थात् ज्ञान पररूप नहीं है यह प्रगट करके ) विश्व से भिन्न ज्ञानको दिखाता हुआ अनेकांत ही उसे अपना ( - ज्ञानमात्र भावका ) नाश नहीं करने देता। २।
जब यह ज्ञानमात्र भाव अनेक ज्ञेयाकारोंके द्वारा ( - ज्ञेयोंके आकारों द्वारा ) अपना सकल (–अखंड, सम्पूर्ण ) एक ज्ञान - आकार खंडित ( - खंड-खंडरूप) हुआ मानकर नाशको प्राप्त होता है, तब ( उस ज्ञानमात्र भावका ) द्रव्यसे एकत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे जीवित रखता है- नष्ट नहीं होने देता । ३।
और जब वह ज्ञानमात्र भाव एक ज्ञान - आकारका ग्रहण करनेके लिये अनेक ज्ञेयाकारोंके त्याग द्वारा अपना नाश करता है ( अर्थात् ज्ञानमें जो अनेक ज्ञेयोंके आकार आते हैं उनका त्याग करके अपनेको नष्ट करता है ), तब ( उस ज्ञानमात्र भावका) पर्यायोंसे अनेकत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे अपना नाश नहीं करने देता । ४।
जब यह ज्ञानमात्र भाव, जानने में आनेवाले ऐसे परद्रव्योंके परिणमनके कारण ज्ञातृद्रच्तको परद्रव्यरूपसे मानकर - अंगीकार करके नाश को प्राप्त होता है, तब ( उस ज्ञानमात्र भावका ) स्वद्रव्यसे सत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे जिलाता है- नष्ट नहीं होने देता । ५।
और जब यह ज्ञानमात्र भाव ' सर्व द्रव्य मैं ही हूँ ( अर्थात् सर्व द्रव्य आत्मा ही है)' इसप्रकार परद्रव्यका ज्ञातृद्रव्यरूपसे मानकर - अंगीकार करके अपना नाश करता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका ) परद्रव्यसे असत्व प्रकाशित करता हुआ (अर्थात् आत्मा परद्रव्यरूपसे नहीं है, इसप्रकार प्रगट करता हुआ ) अनेकांत ही उसे अपना नाश नहीं करने देता । ६ ।
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[ परिशिष्टम् ]
५८५
यदा परक्षेत्रगतज्ञेयार्थपरिणमनात् परक्षेत्रेण ज्ञानं सत् प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वक्षेत्रेणास्तित्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ७। यदा तु स्वक्षेत्रे भवनाय परक्षेत्रगतज्ञेयाकारत्यागेन ज्ञानं तुच्छीकुर्वन्नात्मानं नाशयति, तदा स्वक्षेत्र एव ज्ञानस्य परक्षेत्रगतज्ञेयाकारपरिणमनस्वभावत्वात्परक्षेत्रेण नास्तित्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति ८ । यदा पूर्वालम्बितार्थविनाशकाले ज्ञानस्यासत्त्वं प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वकालेन सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ९ । यदा त्वर्थालम्बनकाल एव ज्ञानस्य सत्त्वं प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परकालेनासत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति १० । यदा ज्ञायमानपरभावपरिणमनात् ज्ञायकभावं परभावत्वेन प्रतिपद्य नाशमुपैति तदा स्वभावेन सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति १९ । यदा तु सर्वे भावा अहमेवेति परभावं ज्ञायकभावत्वेन
जब यह ज्ञानमात्र भाव परक्षेत्रगत ( - परक्षेत्रमें रहे हुए ) ज्ञेय पदार्थोंके परिणमनके कारण परक्षेत्रसे ज्ञानको सत् मानकर - अंगीकार करके नाश को प्राप्त होता है, तब ( उस ज्ञानमात्र भावका ) स्व- क्षेत्रसे अस्तित्व प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे जिलाता है- नष्ट नहीं होने देता । ७।
और जब वह ज्ञानमात्र भाव स्वक्षेत्रमें होनेके लिये ( - रहने के लिये, परिणमनेके लिये ) परक्षेत्रगत ज्ञेयोंके आकारोंके त्याग द्वारा (अर्थात् ज्ञानमें जो परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेयोंका आकार आता है उनका त्याग करके) ज्ञानको तुच्छ करता हुआ अपना नाश करता है, तब स्वक्षेत्रमें रहकर ही परक्षेत्रगत ज्ञेयोंके आकाररूपसे परिणमन करने का ज्ञानका स्वभाव होनेसे ( उस ज्ञानमात्र भावका ) परक्षेत्रसे नास्तित्व प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे नाश नहीं करने देता । ८ ।
जब यह ज्ञानमात्र भाव पूर्वालंबित पदार्थोंके विनाशकालमें ( - पूर्व में जिनका आलंबन किया था ऐसे ज्ञेय पदार्थोंके विनाश के समय ) ज्ञानका असत्पना मानकरअंगीकार करके नाशको प्राप्त होता है, तब ( उस ज्ञानमात्र भावका ) स्वकालसे (ज्ञानके कालसे) सत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे जिलाता है - न - नष्ट नहीं होने देता। ९।
और जब वह ज्ञानमात्र भाव पदार्थोंके आलंबनकालमें ही ( - मात्र ज्ञेय पदार्थों को जानते समय ही ) ज्ञानका सत्पना मानकर - अंगीकार करके अपना नाश करता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका ) परकालसे ( - ज्ञेयके कालसे) असत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे अपना नाश नहीं करने देता । १० ।
और जब वह ज्ञानमात्र भाव, जानने में आते हुए परभावोंके परिणमनके कारण ज्ञायकस्वभावको परभावरूपसे मानकर - अंगीकार करके नाशको प्राप्त होता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका ) स्व-भावसे सत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे जिलाता है - नष्ट नहीं होने देता । ११ । और जब वह ज्ञानमात्र भाव ' सर्व भाव मैं ही हूँ' इसप्रकार परभावको ज्ञायकभावरूपसे मानकर - अंगीकार
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समयसार
५८६
प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परभावेनासत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति १२। यदाऽनित्यज्ञानविशेषैः खण्डितनित्यज्ञानसामान्यो नाशमुपैति, तदा ज्ञानसामान्यरूपेण नित्यत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति १३। यदा तु नित्यज्ञानसामान्योपादानायानित्यज्ञानविशेषत्यागेनात्मानं नाशयति, तदा ज्ञानविशेषरूपेणानित्यत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति १४ ।
भवन्ति चात्र श्लोका:
(शार्दूलविक्रीडित) बाह्याथैः परिपीतमुज्झितनिजप्रव्यक्तिरिक्तीभवद् विश्रान्तं पररूप एव परितो ज्ञानं पशोः सीदति। यत्तत्तत्तदिह स्वरूपत इति स्याद्वादिनस्तत्पुनदूंरोन्मग्नघनस्वभावभरतः पूर्ण समुन्मज्जति।। २४८ ।।
करके अपना नाश करता है, तब ( उस ज्ञानमात्र भावका) परभावसे असत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे अपना नाश नहीं करने देता। १२ ।
जब यह ज्ञानमात्र भाव अनित्य ज्ञानविशेषोंके द्वारा अपना नित्य ज्ञानसामान्य खंडित हुआ मानकर नाशको प्राप्त होता है, तब ( उस ज्ञानमात्र भावका) ज्ञानसामान्यरूपसे नित्यत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे जिलाता है-नष्ट नहीं होने देता। १३।
__ और जब वह ज्ञानमात्र भाव नित्य ज्ञानसामान्यका ग्रहण करने के लिये अनित्य ज्ञानविशेषोंके त्यागके द्वारा अपना नाश करता है (अर्थात् ज्ञानके विशेषोंका त्याग करके अपने को नष्ट करता है). तब ( उस ज्ञानमात्र भावका) ज्ञानविशेषरूपसे अनित्यत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकांत ही उसे अपना नाश नहीं करने देता। १४।
(यहाँ तत्-अतत्के २ भंग, एक-अनेकके २ भंग, सत्-असत्के द्रव्य-क्षेत्रकाल-भावसे ८ भंग, और नित्य-अनित्यके २ भंग-इसप्रकार सब मिलकर १४ भंग हुए। इन चौदह भंगोंमें यह बताया है कि-एकांतसे ज्ञानमात्र आत्माका अभाव होता है और अनेकांतसे आत्मा जीवित रहता है; अर्थात् एकांतसे आत्मा जिस स्वरूप है उस स्वरूप नहीं समझा जाता, स्वरूपमें परिणमित नहीं होता, और अनेकांतसे वह वास्तविक स्वरूपसे समझा जाता है, स्वरूपमें परिणमित होता है।)
यहाँ निम्न प्रकारसे (१४ भंगोंके कलशरूप ) १४ काव्य भी कहे जा रहे हैं: ( उनमें से पहले , प्रथम भंगका कलशरूप काव्य इसप्रकार है:-)
श्लोकार्थ:- [ बाह्य-अथैः परिपीतम् ] बाह्य पदार्थों के द्वारा सम्पूर्णतया पिया
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[परिशिष्टम् ]
५८७
(शार्दूलविक्रीडित) विश्वं ज्ञानमिति प्रतय॑ सकलं दृष्ट्वा स्वतत्त्वाशया भूत्वा विश्वमयः पशुः पशुरिव स्वच्छन्दमाचेष्टते। यत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वाददर्शी पुनविश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत्।। २४९ ।।
गया, [ उज्झित-निज-प्रव्यक्ति-रिक्तीभवत् ] अपनी व्यक्ति (प्रगटता) को छोड़ देनेसे रिक्त ( -शून्य) हुआ, [ परितः पररूपे एव विश्रान्तं] सम्पूर्णतया पररूपमें ही विश्रांत ( अर्थात् पररूपके ऊपर ही आधार रखता हुआ) ऐसे [ पशोः ज्ञानं] पशुका ज्ञान ( - पशुवत् एकांतवादीका ज्ञान) [ सीदति] नाशको प्राप्त होता है ; [ स्याद्वादिनः तत् पुनः] और स्याद्वादीका ज्ञान तो, [ 'यत् तत् तत् इह स्वरूपतः तत्' इति ] 'जो तत है वह स्वरूपसे तत है (अर्थात प्रत्येक तत्त्वको-वस्तको स्वरूपसे तत्पना है)' ऐसी मान्यताके कारण, [दूर-उन्मग्न-घन-स्वभाव-भरत:] अत्यंत प्रगट हुए ज्ञानघनरूप स्वभावके भारसे , [ पूर्ण समुन्मज्जति ] संपूर्ण उदित ( प्रगट) होता है।
भावार्थ:-कोई सर्वथा एकांतवादी तो यह मानता है कि-घटज्ञान घटके आधारसे ही होता है इसलिये ज्ञान सर्व प्रकारसे ज्ञेयों पर ही आधार रखता है। ऐसा माननेवाले एकांतवादीके ज्ञानको तो ज्ञेय पी गये हैं, ज्ञान स्वयं कुछ नहीं रहा। स्याद्वादी तो ऐसा मानते हैं कि-ज्ञान अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप (-ज्ञानस्वरूप) ही है, ज्ञेयाकार होनेपर भी ज्ञानत्वको नहीं छोड़ता। ऐसी यथार्थ अनेकांत समझके कारण स्याद्वादीको ज्ञान (अर्थात् ज्ञानस्वरूप आत्मा) प्रगट प्रकाशित होता है।
इसप्रकार स्वरूपसे तत्पनेका भंग कहा है। २४८ । ( अब दूसरे भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी , [ 'विश्वं ज्ञानम्' इति प्रतय॑] 'विश्व ज्ञान है ( अर्थात् सर्व ज्ञेयपदार्थ आत्मा हैं)' ऐसा विचार करके [ सकलं स्वतत्त्व-आशया दृष्ट्वा ] सबको (-समस्त विश्वको) निजतत्त्वकी आशासे देखकर [विश्वमयः भूत्वा] विश्वमय (-समस्त ज्ञेयपदार्थमय) होकर, [पशु: इव स्वच्छन्दम् आचेष्टते] पशुकी भाँति स्वच्छंदतया चेष्टा करता है-प्रवृत्त होता है; [ पुनः] और [ स्याद्वाददर्शी] स्याद्वादका देखनेवाला तो यह मानता है कि, [* यत् तत् तत् पररूपतः न तत्' इति ] 'जो तत् है वह पररूपसे तत् नहीं है ( अर्थात् प्रत्येक तत्त्वको स्वरूपसे तत्पना होनेपर भी पररूपसे अतत्पना है)' इसलिये, [ विश्वात् भिन्नम् अविश्व-विश्वघटितं] विश्वसे भिन्न ऐसे तथा विश्वसे (-विश्वके निमित्त से) रचित होने पर भी विश्वरूप न होने वाले ऐसे (अर्थात् समस्त ज्ञेय वस्तुओंके आकाररूप होनेपर भी समस्त ज्ञेयवस्तुसे भिन्न ऐसा)
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समयसार
५८८
(शार्दूलविक्रीडित) बाह्यार्थग्रहणस्वभावभरतो विष्वग्विचित्रोल्लसज्ज्ञेयाकारविशीर्णशक्तिरभितस्त्रुट्यन्पशुर्नश्यति। एकद्रव्यतया सदाप्युदितया भेदभ्रमं ध्वंसयन्नेकं ज्ञानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकान्तवित्।। २५० ।।
[तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ] अपने तत्त्वका स्पर्श –अनुभव करता है।
भावार्थ:-एकांतवादी यह मानता है कि-विश्व (-समस्त वस्तुएँ ) ज्ञानरूप अर्थात् निजरूप है। इसप्रकार निजको और विश्वको अभिन्न मानकर, अपनेको विश्वमय मानकर, एकांतवादी, पशु की भाँति हेय-उपादेयके विवेक बिना सर्वत्र स्वच्छंदतया प्रवृत्ति करता है। स्याद्वादी तो यह मानता है कि-जो वस्तु अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप है, वही वस्तु परके स्वरूपसे अतत्स्वरूप है; इसलिये ज्ञान अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप है, परंतु पर ज्ञेयोंके स्वरूपसे अतत्स्वरूप है अर्थात् पर ज्ञेयोंके आकाररूप होने पर भी उनसे भिन्न है।
इसप्रकार पररूपसे अतत्पनेका भंग कहा है। २४९ । ( अब तीसरे भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [ बाह्य-अर्थग्रहण-स्वभाव-भरत:] बाह्य पदार्थों को ग्रहण करके (ज्ञानके) स्वभावकी अतिशयता के कारण, [ विष्वग-विचित्र-उल्लसत्-ज्ञेयाकार-विशीर्ण-शक्ति: ] चारों ओर (सर्वत्र) प्रगट होनेवाले अनेक प्रकारके ज्ञेयाकारोंसे जिसकी शक्ति विशीर्ण (छिन्न-भिन्न) हो गई है ऐसा होकर ( अर्थात् अनेक ज्ञेयोंके आकारों के ज्ञान में ज्ञात होनेपर ज्ञानकी शक्तिको छिन्नभिन्न-खंड-खंडरूप हो गई मानकर) [ अभितः त्रट्यन] सम्पर्णतया खंड-खंड होता हुआ ( अर्थात् खंडखंडरूप-अनेकरूप होता हुआ) [ नश्यति] नष्ट हो जाता है; [अनेकान्तवित् ] और अनेकांतका जानकर तो, [ सदा अपि उदितया एक-द्रव्यतया ] सदा उदित ( –प्रकाशमान) एक द्रव्यत्वके कारण [ भेदभ्रमं ध्वंसन् ] भेदके भ्रमको नष्ट करता हुआ (अर्थात् ज्ञेयोंके भेदसे ज्ञानमें सर्वथा भेद पड़ जाता है ऐसे भ्रमको नाश करता हुआ), [ एकम् अबाधित-अनुभवनं ज्ञानम् ] जो एक है ( - सर्वथा अनेक नहीं है) और जिसका अनुभवन निर्बाध है ऐसे ज्ञानको [ पश्यति] देखता है-अनुभव करता है।
भावार्थ:-ज्ञान है वह ज्ञेयोंके आकाररूप परिणमित होनेसे अनेक दिखाई देता है, इसलिये सर्वथा एकांतवादी उस ज्ञानको सर्वथा अनेक-खंडखंडरूप-देखता हुआ ज्ञानमय ऐसा निजका नाश करता है; और स्याद्वादी तो ज्ञानको, ज्ञेयाकार होनेपर भी, सदा उदयमान द्रव्यतत्वके द्वारा एक देखता है।
इसप्रकार एकत्वका भंग कहा है । २५० ।
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[परिशिष्टम् ]
५८९
( शार्दूलविक्रीडित) ज्ञेयाकारकलङ्कमेचकचिति प्रक्षालनं कल्पय न्नेकाकारचिकीर्षया स्फुटमपि ज्ञानं पशुर्नेच्छति। वैचित्र्येऽप्यविचित्रतामुपगतं ज्ञानं स्वतःक्षालितं पर्यायैस्तदनेकतां परिमृशन् पश्यत्यनेकान्तवित्।। २५१ ।।
(शार्दूलविक्रीडित) प्रत्यक्षालिखितस्फुटस्थिरपरद्रव्यास्तितावञ्चितः स्वद्रव्यानवलोकनेन परितः शून्यः पशुर्नश्यति। स्वद्रव्यास्तितया निरूप्य निपुणं सद्यः समुन्मज्जता स्याद्वादी तु विशुद्धबोधमहसा पूर्णो भवन् जीवति।। २५२ ।।
(अब चौथे भंगका कलशरूप काव्य कहा जाता है:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [ ज्ञेयाकारकलङ्क-मेचक-चिति प्रक्षालनं कल्पयन्] ज्ञेयकार-रूपी कलंकसे (अनेकाकाररूप) मलिन ऐसा चेतनमें प्रक्षालनकी कल्पना करता हुआ (अर्थात् चेतनकी अनेकाकाररूप मलिनताको धो डालने की कल्पना करता हुआ), [एकाकार-चिकीर्षया स्फुटम् अपि ज्ञानं न इच्छति] एकाकार करनेकी इच्छासे ज्ञानको- यद्यपि वह ज्ञान अनेकाकाररूपसे प्रगट है तथापि-नहीं चाहता (अर्थात् ज्ञानको सर्वथा एकाकार मानकर ज्ञानका अभाव करता है); [अनेकान्तवित् ] और अनेकांतको जाननेवाला तो, [पर्यायैः तद्-अनेकतां परिमृशन् ] पर्यायोंसे ज्ञानकी अनेकता को जानता (अनुभवता) हुआ, [ वैचित्र्ये अपि अविचित्रताम् उपगतं ज्ञानं] विचित्र होनेपर भी अविचित्रताको प्राप्त ( अर्थात् अनेकरूप होनेपर भी एकरूप) ऐसे ज्ञानके [ स्वतःक्षालितं ] स्वतःक्षालित ( स्वयमेव धोया हुआ शुद्ध ) [ पश्यति ] अनुभव करता है।
भावार्थ:-एकांतवादी ज्ञेयाकाररूप ( अनेकाकाररूप) ज्ञानको मलिन जानकर, उसे धोकर-उसमेंसे ज्ञेयाकारोंको दूर करके, ज्ञानको ज्ञेयाकारोंसे रहित एकआकाररूप करनेको चाहता हुआ, ज्ञानका नाश करता है; और अनेकांती तो सत्यार्थ वस्तुस्वभाव को जानता है, इसलिये ज्ञानका स्वरूपसे ही अनेकाकारपना मानता है।
इसप्रकार अनेकत्वका भंग कहा है। २५१। ( अब पाँचवें भंगका कलशरूप काव्य कहते है:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [ प्रत्यक्षआलिखित-स्फुट-स्थिर-परद्रव्य-अस्तिता-वञ्चितः ]
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समयसार
५९०
(शार्दूलविक्रीडित) सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य पुरुष दुर्वासनावासितः स्वद्रव्यभ्रमतः पशुः किल परद्रव्येषु विश्राम्यति। स्याद्वादी तु समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां जानन्निर्मलशुद्धबोधमहिमा स्वद्रव्यमेवाश्रयेत्।। २५३ ।।
प्रत्यक्ष "आलिखित ऐसे प्रगट ( –स्थूल) और स्थिर (-निश्चल) परद्रव्योंके अस्तित्वसे ठगाया हुआ, [ स्वद्रव्यअनवलोकनेन परितः शून्यः ] स्वद्रव्यको (स्वद्रव्यके अस्तित्वको) नहीं देखता होनेसे सम्पूर्णतया शून्य होता हुआ [ नश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [ स्याद्वादी तु] और स्याद्वादी तो, [ स्वद्रव्य-अस्तितया निपुणं निरूप्य ] आत्माको स्वद्रव्यरूपसे अस्तिपने निपुणतया देखता है इसलिये, [ सद्यः समुन्मज्जता विशुद्धबोध-महसा पूर्ण: भवन् ] तत्काल प्रगट विशुद्ध ज्ञानप्रकाशके द्वारा पूर्ण होता हुआ [ जीवति ] जीता है-नाशको प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ:-एकांती बाह्य परद्रव्यको प्रत्यक्ष देखकर उसके अस्तित्वको मानता है, परंतु अपने आत्मद्रव्यको इंद्रियप्रत्यक्ष नहीं देखता इसलिये उसे शून्य मानकर आत्माका नाश करता है। स्याद्वादी तो ज्ञानरूपी तेजसे अपने आत्माका स्वद्रव्यसे अस्तित्व अवलोकन करता है इसलिये जीता है-अपना नाश नहीं करता।
इसप्रकार स्वद्रव्य-अपेक्षासे अस्तित्वका ( –सत्पनेका) भंग कहा है। २५२।
( अब छठे भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:- [पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [ दुर्वासनावासितः ] दुर्वासनासे (कुनयकी वासनासे) वासित होता हुआ, [ पुरुषं सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य ] आत्माको सर्वद्रव्यमय मानकर, [ स्वद्रव्य-भ्रमतः परद्रव्येषु किल विश्राम्यति] (परद्रव्योंमें) स्वद्रव्यके भ्रमसे परद्रव्योंमें विश्रान्त करता है; [ स्याद्वादी तु] और स्याद्वादी तो, [ समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां जानन्] समस्त वस्तुओंमें परद्रव्यस्वरूपसे नास्तित्वको जानता हुआ, [ निर्मल-शुद्ध-बोध-महिमा] जिसकी शुद्धज्ञानमहिमा निर्मल है ऐसा वर्तता हुआ, [ स्वद्रव्यम् एव आश्रयेत् ] स्वद्रव्यका ही आश्रय करता है।
भावार्थ:-एकांतवादी आत्माको सर्वद्रव्यमय मानकर, आत्मामें जो परद्रव्यकी अपेक्षासे नास्तित्व है उसका लोप करता है; और स्याद्वादी तो सर्व पदार्थों में परद्रव्य की अपेक्षासे नास्तित्व मानकर निज द्रव्यमें रमता है।
इसप्रकार परद्रव्य-अपेक्षासे नास्तित्वका (-असत्पनेका) भंग कहा है। २५३ ।
* आलिखित = आलेखन किया हुआ; चित्रित, स्पर्शित; ज्ञात।
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[परिशिष्टम् ]
५९१
(शार्दूलविक्रीडित) भिन्नक्षेत्रनिषण्णबोध्यनियतव्यापारनिष्ठः सदा सीदत्येव बहिः पतन्तमभितः पश्यन्पुमांसं पशुः । स्वक्षेत्रास्तितया निरुद्धरभसः स्याद्वादवेदी पुनस्तिष्ठत्यात्मनिखातबोध्यनियतव्यापारशक्तिर्भवन।। २५४ ।।
(शार्दूलविक्रीडित) स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झनात् तुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति चिदाकारान् सहाथैर्वमन्। स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदन्नास्तितां त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान्।। २५५ ।।
( अब सातवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [भिन्न क्षेत्रनिषण्ण-बोध्य-नियत-व्यापार-निष्ठ: ] भिन्न क्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेयपदार्थों में जो ज्ञेयज्ञायक संबंधरूप निश्चित व्यापार है उसमें प्रवर्तता हुआ, [पुमांसम् अभितः बहि: पतन्तम् पश्यन् ] आत्माको सम्पूर्णतया बाहर ( परक्षेत्रमें) पड़ता देखकर ( -स्वक्षेत्रसे आत्माका अस्तित्व न मानकर) [ सदा सीदति एव] सदा नाशको प्राप्त होता है; [ स्याद्वादवेदी पुनः ] और स्याद्वादके जाननेवाले तो, [ स्वक्षेत्र-अस्तितया निरुद्ध-रभसः ] स्वक्षेत्रसे अस्तित्वके कारण जिसका वेग रुका हुआ है ऐसा होता हुआ (अर्थात् स्वक्षेत्रमें वर्तता हुआ), [ आत्म-निखात-बोध्य-नियत-व्यापार-शक्तिः भवन् ] आत्मामें ही आकाररूप हुए ज्ञेयोंमें निश्चित व्यापारकी शक्तिवाला होकर, [ तिष्ठति ] टिकता है-जीता है (नाश को प्राप्त नहीं होता)।
भावार्थ:-एकांतवादी भिन्न क्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थों को जाननेके कार्यमें प्रवृत्त होने पर आत्माको बाहर पड़ता ही मानकर, (स्वक्षेत्रसे अस्तित्व न मानकर,) अपनेको नष्ट करता है; और स्याद्वादी तो, 'परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेयोंको जानता हुए अपने क्षेत्रमें रहा हुआ आत्मा स्वक्षेत्रसे अस्तित्व धारण करता है' ऐसा मानता हुआ टिकता है-नाशको प्राप्त नहीं होता।
इसप्रकार स्वक्षेत्रसे अस्तित्वका भंग कहा है। २५४ । (अब आठवें भंगका कलशरूपे काव्य कहते है:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [ स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विध-परक्षेत्र-स्थित-अर्थ-उज्झनात् ] स्वक्षेत्रमें रहनेके लिये भिन्न भिन्न परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थोंको छोड़नेसे, [ अथै: सह चिद्-आकारान् वमन् ] ज्ञेय पदार्थों के साथ चैतन्यके आकारोंको भी वमन करता हुआ (अर्थात् ज्ञेय
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समयसार
(शार्दूलविक्रीडित) पूर्वालम्बितबोध्यनाशसमये ज्ञानस्य नाशं विदन् सीदत्येव न किञ्चनापि कलयन्नत्यन्ततुच्छ: पशुः। अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन स्याद्वादवेदी पुन: पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि।। २५६ ।।
पदार्थों के निमित्तसे चैतन्यमें जो आकार होता है उनको भी छोड़ता हुआ) [ तुच्छीभूय ] तुच्छ होकर [ प्रणश्यति] नाशको प्राप्त होता है; [ स्याद्वादी तु] और स्याद्वादी तो [स्वधामनि वसन् ] स्वक्षेत्रमें रहता हुआ, [ परक्षेत्रे नास्तितां विदन् ] परक्षेत्रमें अपना नास्तित्व जानता हुआ, [त्यक्त-अर्थ: अपि] ( परक्षेत्रमें रहे हुए) ज्ञेय पदार्थोंको छोड़कर भी [ परान् आकारकर्षी ] वह पर पदार्थों में से चैतन्यके आकारोंको खींचता है ( अर्थात् ज्ञेय पदार्थों के निमित्तसे होनेवाले चैतन्यके आकारोंको नहीं छोड़ता) [ तुच्छताम्-अनुभवति न ] इसलिये तुच्छताको प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ:- परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थों के आकाररूप चैतन्यके आकार होते हैं उन्हें यदि मैं अपना बनाऊँगा तो स्वक्षेत्रमें ही रहने के स्थानपर परक्षेत्रमें भी व्याप्त हो जाऊँगा' ऐसा मानकर अज्ञानी एकांतवादी परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थों के साथ ही साथ चैतन्यके आकारोंको भी छोड़ देता है; इसप्रकार स्वयं चैतन्यके आकारोंसे रहित तुच्छ होता है, नाशको प्राप्त होता है। और स्याद्वादी तो स्वक्षेत्रमें रहता हुआ, परक्षेत्रमें अपना नास्तित्व को जानता हुआ, ज्ञेय पदार्थोंको छोड़कर भी चैतन्यके आकारोंको नहीं छोड़ता; इसलिये वह तुच्छ नहीं होता, नष्ट नहीं होता।
इसप्रकार परक्षेत्रकी अपेक्षासे नास्तित्वका भंग कहा है। २५५।। ( अब नवमे भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:-[पशुः] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [ पूर्वआलम्बित-बोध्य- नाश-समये ज्ञानस्य नाशं विदन् ] पूर्वालंबित ज्ञेय पदार्थों के नाशके समय ज्ञानका भी नाश जानता हुआ, [न किञ्चन अपि कलयन् ] और इसप्रकार ज्ञानको कुछ भी ( वस्तु) न जानता हुआ (अर्थात् ज्ञानवस्तुका अस्तित्व ही नहीं मानता हुआ), [अत्यन्त-तुच्छ: ] अत्यंत तुच्छ होत हुआ [ सीदति एव ] नाशको प्राप्त होता है ; [ स्याद्वादवेदी पुनः ] और स्याद्वादका ज्ञाता तो [अस्य निज-कालतः अस्तित्वं कलयन् ] आत्माका निज कालसे अस्तित्व जानता हुआ, [ बाह्यवस्तुषु मुहुः भूत्वा विनश्यत्सु अपि] बाह्य वस्तुएं बारम्बार होकर नाश को प्राप्त होती है, फिर भी [ पूर्णः तिष्ठति ] स्वयं पूर्ण रहता है।
भावार्थ:-पहले जिन ज्ञेय पदार्थों को जाने थे वे उत्तर कालमें नष्ट हो गये; उन्हें देखकर एकांतवादी अपने ज्ञानका भी नाश मानकर अज्ञानी होता हुआ
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[परिशिष्टम् ]
५९३
(शार्दूलविक्रीडित) अर्थालम्बनकाल एव कलयन् ज्ञानस्य सत्त्वं बहि ज़ैयालम्बनलालसेन मनसा भ्राम्यन् पशुर्नश्यति। नास्तित्वं परकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुनस्तिष्ठत्यात्मनिखातनित्यसहजज्ञानैकपुञ्जीभवन्।। २५७ ।।
(शार्दूलविक्रीडित) विश्रान्तः परभावभावकलनान्नित्यं बहिर्वस्तुषु नश्यत्येव पशुः स्वभावमहिमन्येकान्तनिश्चेतनः
सर्वस्मान्नियतस्वभावभवनज्ञानाद्विभक्तो भवन स्याद्वादी तु न नाशमेति सहजस्पष्टीकृतप्रत्ययः ।। २५८ ।।
आत्माका नाश करता है। और स्याद्वादी तो, ज्ञेय पदार्थों के नष्ट होनेपर भी, अपना अस्तित्व अपने कालसे ही मानता हुआ नष्ट नहीं होता।
इसप्रकार स्वकाल-अपेक्षासे अस्तित्वका भंग कहा है। २५६। ( अब दशवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् अज्ञानी एकांतवादी, [अर्थ-आलम्बन-काले एव ज्ञानस्य सत्त्वं कलयन् ] ज्ञेय पदार्थों के आलंबन कालमें ही ज्ञानका अस्तित्व जानता हुआ, [बहि:-ज्ञेय-आलम्बन-लालसेन मनसा भ्राम्यन् ] बाह्य ज्ञेयोंके आलंबनकी लालसावाले चित्तसे ( बाहर ) भ्रमण करता हुआ [ नश्यति] नाशको प्रापत होता है; [ स्याद्वादवेदी पनुः ] और स्यादवादका ज्ञाता तो [ पर-कालतः अस्य नास्तित्वं कलयन् ] परकालसे आत्माका नास्तित्व जानता हुआ, [ आत्म-निखातनित्य-सहज-ज्ञान-एक-पुजीभवन् ] आत्मामें दृढ़तया रहा हुआ नित्य सहज ज्ञानके एक पुंजरूप वर्तता हुआ [ तिष्ठति] टिकता है-नष्ट नहीं होता।
भावार्थ:-एकांतवादी ज्ञेयोंके आलंबनकालमें ही ज्ञानका सत्पना जानता है इसलिये, ज्ञेयोके आलंबनमें मनको लगाकर बाहर भ्रमण करता हुआ नष्ट हो जाता है। स्याद्वादी तो पर ज्ञेयोंके कालसे अपने नास्तित्व को जानता है, अपने ही काल से अपने अस्तित्व को जानता है; इसलिये ज्ञेयोंसे भिन्न ऐसा ज्ञानके पुंजरूप वर्तता हुआ नाश को प्राप्त नहीं होता।
इसप्रकार परकाल की अपेक्षासे नास्तित्वका भंग कहा है। २५७। ( अब ग्यारहवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, [ परभाव-भावकलनात् ] परभावोंके भवन ( अस्तित्व–परिणमन) को ही जानता है,
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समयसार
५९४
(शार्दूलविक्रीडित) अध्यास्यात्मनि सर्वभावभवनं शुद्धस्वभावच्युतः सर्वत्राप्यनिवारितो गतभयः स्वैरं पशुः क्रीडति। स्याद्वादी तु विशुद्ध एव लसति स्वस्य स्वभाव भरादारूढ: परभावभावविरहव्यालोकनिष्कम्पितः।। २५९ ।।
( अर्थात् परभावसे ही अपना अस्तित्व मानता है,) इसलिये [ नित्यं बहि:-वस्तुषु विश्रान्तः] सदा बाह्य वस्तुओंमें विश्राम करता हुआ, [ स्वभाव-महिमनि एकान्तनिश्चेतनः ] ( अपने) स्वभावकी महिमामें अत्यंत निश्चेतन (जड़) वर्तता हुआ, [ नश्यति एव ] नाशको प्राप्त होता है; [ स्याद्वादी तु] और स्याद्वादी तो [ नियत-स्वभावभवन-ज्ञानात् सर्वस्मात् विभक्त: भवन् ] (अपने) नियत स्वभावके भवनस्वरूप ( परिणमनस्वरूप) ज्ञानके कारण सब (परभावों) से भिन्न वर्तता हुआ, [ सहजस्पष्टीकृत-प्रत्ययः] जिसने सहज स्वभावका प्रतीतिरूप ज्ञातृत्व स्पष्ट प्रत्यक्षअनुभवरूप किया है ऐसा होता हुआ, [नाशम् एति न] नाश को प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ:-एकांतवादी परभावोंसे ही अपना सत्पना मानता है, इसलिये बाह्य वस्तुओंमें विश्राम करता हुआ आत्माका नाश करता है; और स्याद्वादी तो, ज्ञानभाव ज्ञेयाकार होनेपर भी ज्ञानभावका स्वभावसे अस्तित्व जानता हुआ, आत्माका नाश नहीं करता।
इसप्रकार स्व-भावकी ( अपने भावकी) अपेक्षासे अस्तित्वका भंग कहा है। २५८।
( अब बारहवें भंगका कलशरूपसे काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् अज्ञानी एकांतवादी, [ सर्व-भाव-भवनं आत्मनि अध्यास्य शुद्ध-स्वभाव-च्युतः ] सर्व भावरूप भवनका आत्मामें अध्यास करके ( अर्थात् सर्व ज्ञेय पदार्थों के भावरूप है, ऐसा मानकर) शुद्ध स्वभावसे च्युत होता हुआ, [अनिवारितः सर्वत्र अपि स्वैरं गतभयः क्रीडति ] किसी परभावको शेष रखे बिना सर्व परभावोंमें स्वच्छंदता पूर्वक निर्भयतासे (निःशंकतया) क्रीडा करता है; [ स्याद्वादी तु] और स्याद्वादी तो [ स्वस्य स्वभावं भरात् आरूढः ] अपने स्वभावमें अत्यंत आरूढ़ होता हुआ, [ परभाव-भाव-विरह-व्यालोक-निष्कम्पित: ] परभावरूप भवनके अभावकी दृष्टिके कारण (अर्थात् आत्मा परद्रव्योंके भावोंरूपसे नहीं है -ऐसा जानता होनेसे ) निष्कंप वर्तता हुआ, [विशुद्धः एव लसति ] शुद्ध ही विराजित रहता है।
भावार्थ:-एकांतवादी सर्व परभावोंको निजरूप जानकर अपने शुद्ध स्वभावसे च्युत होता हुआ सर्वत्र ( सर्व परभावोंमें) स्वेच्छाचारिता से निःशंकतया प्रवृत्त होता है; और स्याद्वादी तो, परभावोंको जानता हुआ भी, अपने शुद्ध ज्ञानस्वभावको सर्व परभावोंसे भिन्न अनुभव करता हुआ शोभित होता है।
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( शार्दूलविक्रीडित ) प्रादुर्भावविराममुद्रितवहज्ज्ञानांशनानात्मना निर्ज्ञानात्क्षणभङ्गसङ्गपतितः प्रायः पशुर्नश्यति । स्याद्वादी तु चिदात्मना परिमृशंश्चिद्वस्तु नित्योदितं टङ्कोत्कीर्णघनस्वभावमहिम ज्ञानं भवन् जीवति ।। २६० ।। ( शार्दूलविक्रीडित )
टङ्कोत्कीर्णविशुद्धबोधविसराकारात्मतत्त्वाशया वाञ्छत्युच्छलदच्छचित्परिणतेर्भिन्नं पशुः किञ्चन।
ज्ञान नित्यमनित्यतापरिगमेऽप्यासादयत्युज्ज्वलं स्याद्वादी तदनित्यतां परिमृशंश्चिद्वस्तुवृत्तिक्रमात्।। २६१ ।।
इसप्रकार परभाव - अपेक्षासे नास्तित्वका भंग कहा है । २५९ । ( अब तेरहवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:- )
श्लोकार्थ :- [ पशुः ] पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, [ प्रादुर्भाव -विराममुद्रित-वहत् - ज्ञान - अंश - नाना - आत्मना निर्ज्ञानात् ] उत्पाद - व्ययसे लक्षित ऐसे बहते (-परिणमित होते) हुए ज्ञानके अंशरूप अनेकात्मकके द्वारा ही ( आत्माका) निर्णय अर्थात् ज्ञान करता हुआ, [ क्षणभङ्ग - सङ्ग - पतितः ] * क्षणभंगके ( क्षण-क्षण होता हुआ नाश; क्षणभंगुरता; अनित्यता) संगमें पड़ा हुआ, [ प्रायः नश्यति ] बहुलतासे नाशको प्राप्त होता है; [ स्याद्वादी तु ] और स्यादवादी तो [ चिद् - आत्मना चिद्-वस्तु नित्यउदितं परिमृशन्] चैतन्यात्मकताके द्वारा चैतन्यवस्तुको नित्य-उदित अनुभव करता हुआ, [टङ्कोत्कीर्ण-घन - स्वभाव - महिम ज्ञानं भवन् ] टंकोत्कीर्णघनस्वभाव (टंकोत्कीर्ण पिंडरूप स्वभाव ) जिसकी महिमा है ऐसे ज्ञानरूप वर्तता हुआ, [ जीवति ] जीता है।
५९५
भावार्थ:-एकांतवादी ज्ञेयोंके आकार अनुसार ज्ञानको उत्पन्न और नष्ट होता हुआ देखकर, अनित्य पर्यायोंके द्वारा आत्माको सर्वथा अनित्य मानता हुआ, अपनेको नष्ट करता है; और स्याद्वादी तो, यद्यपि ज्ञान ज्ञेयानुसार उत्पन्न- विनष्ट होता है फिर भी, चैतन्यभावका नित्य उदय अनुभवकरता हुआ जीता है-नाशको प्राप्त नहीं होता।
इसप्रकार नित्यत्वका भंग कहा है । २६० ।
( अब चौदहवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं: - )
श्लोकार्थ :- [ पशुः ] पशु अर्थात् एकांतवादी अज्ञानी, [ टङ्कोत्कीर्ण-विशुद्धबोध-विसर - आकार- आत्म-तत्त्व - आशया ] टंकोत्कीर्ण विशुद्ध ज्ञानके विस्ताररूप एक आकार (सर्वथा नित्य ) आत्मतत्त्वकी आशासे, [ उच्छलत् -अच्छ-चित्परिणतेः भिन्नं
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समयसार
५९६
(अनुष्टुभ् ) इत्यज्ञानविमूढानां ज्ञानमात्रं प्रसाधयन्। आत्मतत्त्वमनेकान्तः स्वयमेवानुभूयते।। २६२ ।।
किञ्चन वाञ्छति ] उछलती हुई निर्मल चैतन्यपरिणतिसे भिन्न कुछ ( आत्मतत्त्वको) । चाहता है (किन्तु ऐसा कोई आत्मतत्त्व है नहीं); [ स्याद्वादी ] और स्याद्वादी तो, [ चिद्-वस्तु-वृत्ति-क्रमात् तद्-अनित्यतां परिमृशन् ] चैतन्यवस्तुकी वृत्तिके (परिणतिके, पर्यायके ) क्रम द्वारा उसकी अनित्यताका अनुभव करता हुआ, [ नित्यम् ज्ञानं अनित्यता परिगमे अपि उज्ज्वलम् आसादयति ] नित्य ऐसे ज्ञानको अनित्यतासे व्याप्त होनेपर भी उज्ज्वल (-निर्मल ) मानता है-अनुभव करता है।
भावार्थ:-एकांतवादी ज्ञानको सर्वथा एकाकार-नित्य प्राप्त करनेकी वांछासे, उत्पन्न होनेवाली और नाश होने वाली चैतन्यपरिणतिसे भिन्न कुछ ज्ञानको चाहता है; परंतु परिणामके अतिरिक्त कोई पृथक् परिणामी तो नहीं होता। स्याद्वादी तो यह मानता है कि-यद्यपि द्रव्यापेक्षासे ज्ञान नित्य है तथापि क्रमशः उत्पन्न होनेवाली और नष्ट होनेवाली चैतन्यपरिणतिके क्रमके कारण ज्ञान अनित्य भी है; ऐसा ही वस्तुस्वभाव है।
इसप्रकार अनित्यत्वका भंग कहा गया। २६१।
'पूर्वोक्त प्रकारसे अनेकांत, अज्ञानसे मूढ़ हुए जीवोंको ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध कर देता है-समझा देता है' इस अर्थका काव्य कहा जाता है:
श्लोकार्थ:- [इति] इसप्रकार [अनेकान्तः ] अनेकांत अर्थात् स्याद्वाद [ अज्ञान-विमूढानां ज्ञानमात्रं आत्मतत्त्वम् प्रसाधयन् ] अज्ञानमूढ़ प्राणियोंको ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करता हुआ [ स्वयमेव अनुभूयते ] स्वयमेव अनुभव में आता है।
भावार्थ:-ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अनेकांतमय है। परंतु अनादि कालसे प्राणी अपने आप अथवा एकांतवादका उपदेश सुनकर ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व संबंधी अनेक प्रकारसे पक्षपात करके ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वका नाश करते हैं। उनको (अज्ञानी जीवोंको) स्याद्वाद ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वका अनेकांतस्वरूपपना प्रगट करता हैसमझाता है। यदि अपने आत्माकी ओर दृष्टिपात करके अनुभव करके देखा जाये तो ( स्याद्वादके उपदेश अनुसार) ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अपनेआप अनेक धर्मयुक्त प्रत्यक्ष अनुभवगोचर होती है। इसलिये हे प्रवीण पुरुषो! तुम ज्ञानको तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप, एकस्वरूप, अनेकस्वरूप, अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे सत्स्वरूप, परके द्रव्य-क्षेत्रकाल-भावसे असत्स्वरूप, नित्यस्वरूप, अनित्यस्वरूप इत्यादि अनेक धर्मस्वरूप प्रत्यक्ष अनुभवगोचर करके प्रतीतिमें लाओ। यही सम्यग्ज्ञान है। सर्वथा एकांत मानना वह मिथ्याज्ञान है। २६२।
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[परिशिष्टम्]
५९७
__ (अनुष्टुभ् ) एवं तत्त्वव्यवस्थित्या स्वं व्यवस्थापयन् स्वयम्। अलञ्चयं शासनं जैनमनेकान्तो व्यवस्थितः।। २६३ ।।
नन्वनेकान्तमयस्यापि किमर्थमत्रात्मनो ज्ञानमात्रतया व्यपदेशः ? लक्षणप्रसिद्ध्या लक्ष्यप्रसिद्ध्यर्थम्। आत्मनो हि ज्ञानं लक्षणं, तदसाधारणगुणत्वात्। तेन ज्ञानप्रसिद्ध्या तल्लक्ष्यस्यात्मनः प्रसिद्धः।
ननु किमनया लक्षणप्रसिद्ध्या, लक्ष्यमेव प्रसाधनीयम्। नाप्रसिद्धलक्षणस्य लक्ष्यप्रसिद्धिः, प्रसिद्धलक्षणस्यैव तत्प्रसिद्धेः।
ननु किं तल्लक्ष्यं यज्ज्ञानप्रसिद्ध्या ततो भिन्नं प्रसिध्यति ?
'पूर्वोक्त प्रकारसे वस्तुका स्वरूप अनेकांतमय होनेसे अनेकांत अर्थात् स्याद्वाद सिद्ध हुआ' इस अर्थका काव्य अब कहा जाता है:
श्लोकार्थ:- [ एवं ] इसप्रकार [अनेकान्तः ] अनेकांत- [जैनम् अलङ्घयं शासनम् ] कि जो जिनदेवका अलंध्य (किसीसे तोड़ा न जाये ऐसा) शासन है वह[ तत्त्व-व्यवस्थित्वा] वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी व्यवस्थिति ( व्यवस्था) द्वारा [ स्वयम् स्वं व्यवस्थापयन् ] स्वयं अपने आपको स्थापित करता हुआ [ व्यवस्थितः ] स्थित हुआ-निश्चित हुआ-सिद्ध हुआ।
भावार्थ:-अनेकांत अर्थात् स्याद्वाद, वस्तुस्वरूपको यथावत् स्थापित करता हुआ, स्वतः सिद्ध हो गया। वह अनेकांत ही निर्बाध जिनमत है और यथार्थ वस्तुस्थितिको कहनेवाला है कहीं किसीके असत् कल्पनासे वचनमात्र प्रलाप नहीं किया है। इसलिये हे निपुण पुरुषो! भली भाँति विचारकरे प्रत्यक्ष अनुमान-प्रमाणसे अनुभव कर देखो। २६३।
( यहाँ आचार्यदेव अनेकांतके सम्बन्धमें विशेष चर्चा करते हैं:-)
[प्रश्न:-] आत्मा अनेकांतमय है फिर भी यहाँ उसका ज्ञानमात्रता क्यों व्यपदेश ( कथन; नाम) किया जाता है ? ( यद्यपि आत्मा अनंत धर्मयुक्त है तथापि उसे ज्ञानमात्ररूप क्यों कहा जाता है ? ज्ञानमात्र कहनेसे तो अन्यधर्मोंका निषेध समझा जाता है।)
[उत्तर:-] लक्षणकी प्रसिद्धिके द्वारा लक्ष्यकी प्रसिद्धि करने के लिये आत्माका ज्ञानमात्ररूपसे व्यपदेश किया जाता है। आत्माका ज्ञान लक्षण है, क्योंकि ज्ञान आत्माका असाधारण गुण है ( -अन्य द्रव्योंमें ज्ञानगुण नहीं है)। इसलिये ज्ञानकी प्रसिद्धिके द्वारा उसके लक्ष्यकी-आत्माकी-प्रसिद्धि होती है।
[प्रश्न:-] इस लक्षणकी प्रसिद्धिसे क्या प्रयोजन है ? मात्र लक्ष्य ही प्रसाध्य अर्थात् प्रसिद्ध करने योग्य है। (इसलिये लक्षणको प्रसिद्ध किये बिना मात्र लक्ष्यको ही-आत्माको ही-प्रसिद्ध क्यों नहीं करते ?]
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समयसार
५९८
न ज्ञानाद्भिन्नं लक्ष्य, ज्ञानात्मनोर्द्रव्यत्वेनाभेदात्।
तर्हि किं कृतो लक्ष्यलक्षण विभाग: ? प्रसिद्धप्रसाध्यमानत्वात् कृतः। प्रसिद्ध हि ज्ञानं, ज्ञानमात्रस्य स्वसंवेदनसिद्धत्वात; तेन प्रसिद्धेन प्रसाध्यमानस्तदविनाभूतानन्तधर्मसमुदयमूर्तिरात्मा। ततो ज्ञानमात्राचलितनिखातया दृष्ट्या क्रमाक्रमप्रवृत्तं तदविनाभूतं अनन्तधर्मजातं यद्यावलक्ष्यते तत्तावत्समस्तमेवैक: खल्वात्मा। एतदर्थमेवात्रास्य ज्ञानमात्रतया व्यपदेशः।
ननु क्रमाक्रमप्रवृत्तानन्तधर्ममयस्यात्मनः कथं ज्ञानमात्रत्वम् ?
[उत्तर:-] जिसे लक्षण अप्रसिद्ध हो उसे (अर्थात् जो लक्षणको नहीं जानता ऐसे अज्ञानी जनको) लक्ष्यकी प्रसिद्धि नहीं होती। जिसे लक्षण प्रसिद्ध होता है उसी को लक्ष्यकी प्रसिद्धि होती है। (इसलिये अज्ञानीको पहले लक्षण बतलाते हैं और उसके बाद वह लक्ष्यको ग्रहण कर सकता है।)
[प्रश्न:-] ऐसा कौन सा लक्ष्य है कि जो ज्ञानकी प्रसिद्धि के द्वारा उससे ( - ज्ञानसे) भिन्न प्रसिद्ध होता है ?
[ उत्तर:-] ज्ञानसे भिन्न लक्ष्य नहीं है, क्योंकि ज्ञान और आत्मामें द्रव्यपनेसे अभेद है।
[प्रश्न:-] तब फिर लक्षण और लक्ष्यका विभाग किस लिये किया गया है ?
उत्तर:-] प्रसिद्धत्व और प्रसाध्यमानत्वके कारण लक्षण और लक्ष्यका विभाग किया गया है। ज्ञान प्रसिद्ध है, क्योंकि ज्ञानमात्रको स्वसंवेदनसे सिद्धपना है ( अर्थात् ज्ञान सर्व प्राणियोंको स्वसंवेदनरूप अनुभवमें आता है); वह प्रसिद्ध ऐसे ज्ञान के द्वारा प्रसाध्यमान, तद-अविनाभूत (-ज्ञानके साथ अविनाभावी संबंधवाला) अनंत धर्मोंका समुदायरूप मूर्ति आत्मा है। (ज्ञान प्रसिद्ध है; और ज्ञानके साथ जिनका अविनाभावी संबंध है ऐसे अनंत धर्मोंका समुदायस्वरूप आत्मा उस ज्ञान के द्वारा प्रसाध्यमान है।) इसलिये ज्ञानमात्रमें अचलितपनेसे स्थापित दृष्टि के द्वारा, क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवर्तमान, तद्-अविनाभूत (-ज्ञानके साथ अविनाभावी संबंधवाला) अनंतधर्मसूमह जो कुछ जितना लक्षित होता है, वह सब वास्तवमें एक आत्मा है।
इसी कारणसे यहाँ आत्माका ज्ञानमात्रतासे व्यपदेश है।
[प्रश्न:-] जिसमें क्रम और अक्रमसे प्रवर्तमान अनंत धर्म हैं ऐसे आत्माके ज्ञानमात्रता किसप्रकार है ?
* प्रसाध्यमान = जो प्रसिद्ध किया जाता हो। (ज्ञान प्रसिद्ध है और आत्मा प्रसाध्यमान है।)
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[परिशिष्टम्]
परस्पर-व्यतिरिक्तानन्तधर्मसमुदायपरिणतैकज्ञप्तिमात्रभावरूपेण स्वयमेव भवनात्। अत एवास्य ज्ञानमात्रैकभावान्तःपातिन्योऽनन्ताः शक्तयः उत्प्लवन्ते। आत्मद्रव्यहेतुभूतचैतन्यमात्र भावधारणलक्षणा जीवत्वशक्ति: १। अजडत्वात्मिका चितिशक्ति: २। अनाकारोपयोगमयी दृशिशक्ति: ३। साकारोपयोगमयी ज्ञानशक्ति: ४। अनाकुलत्वलक्षणा सुखशक्ति: ५। स्वरूपनिर्वर्तनसामर्थ्यरूपा वीर्यशक्तिः ६। अखण्डितप्रतापस्वातन्त्र्यशालित्वलक्षणा प्रभुत्वशक्ति: ७। सर्वभावव्यापकैकभावरूपा विभुत्वशक्ति: ८। विश्वविश्वसामान्यभावपरिणतात्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति: ९। विश्वविश्वविशेषभावपरिणतात्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति: १०।।
[उत्तर:-] परस्पर भिन्न ऐसे अनंत धर्मोंके समुदायरूपसे परिणत एक ज्ञप्तिमात्र भावरूपसे स्वयं ही है (अर्थात परस्पर भिन्न ऐसे अनंत धर्मोंके समदायरूप से परिणमित जो एक जानन क्रिया है वह जाननक्रियामात्र भावरूपसे स्वयं ही है इसलिये) आत्माके ज्ञानमात्रता है। इसीलिये उसके ज्ञानमात्र एक भावकी अंतःपातिनी (-ज्ञानमात्र एक भावके भीतर आ जानेवाली) अनंत शक्तियाँ उछलती हैं। (आत्माके जितने धर्म हैं उन सबको, लक्षणभेदसे भेद होनेपर भी, प्रदेशभेद नहीं है; आत्माके एक परिणाममें सभी धर्मोंका परिणमन रहता है। इसलिये आत्माके एक ज्ञानमात्र भावके भीतर अनंत शक्तियाँ रहती हैं। इसलिये ज्ञानमात्र भावमें-ज्ञानमात्र भावस्वरूप आत्मामें-अनंत शक्तियाँ उछलती हैं।) उनमेंसे कितनी ही शक्तियाँ निम्नप्रकार हैं:
आत्मद्रव्य के कारणभूत चैतन्यमात्र भावका धारण जिसका लक्षण अर्थात् स्वरूप है ऐसी जीवत्वशक्ति है। (आत्मद्रव्यके कारणभूत ऐसे चैतन्यमात्रभावरूपी भावप्राणका धारण करना जिसका लक्षण है ऐसी जीवत्व नामक शक्ति ज्ञानमात्र भावमें-आत्मामें-उछलती है।) १। अजड़त्वस्वरूप चितिशक्ति। (अजड़त्व अर्थात् चेतनत्व जिसका स्वरूप है ऐसी चितिशक्ति।) २। अनाकार उपयोगमयी दृशिशक्ति। (जिसमें ज्ञेयरूप आकार अर्थात् विशेष नहीं है ऐसी दर्शनोपयोगमयी-सत्तामात्र पदार्थमें उपयुक्त होनेरूप-दृशिशक्ति अर्थात् दर्शनक्रियारूप शक्ति।) ३। साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति। (जो ज्ञेय पदार्थों के विशेषरूप आकारोंमें उपयुक्त होती है ऐसी ज्ञानोपयोगमयी ज्ञानशक्ति।) ४। अनाकुलता जिसका लक्षण अर्थात् स्वरूप है ऐसी सुखशक्ति। ५। स्वरूपकी (-आत्मस्वरूपकी) रचनाकी सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति। ६। जिसका प्रताप अखंडित है अर्थात् किसीसे खंडित की नहीं जा सकती ऐसी स्वातंत्र्यसे (-स्वाधीनतासे) शोभायमानपना जिसका लक्षण है ऐसी प्रभुत्वशक्ति। ७। सर्व भावोंमें व्यापक ऐसे एक भावरूप विभुत्वशक्ति। (जैसे, ज्ञानरूपी एक भाव सर्व भावोंमें व्याप्त होता है।) ८। समस्त विश्वके सामान्य भावको देखनेरूप (अर्थात् सर्व पदार्थों के समूहरूप लोकालोकको सत्तामात्र ग्रहण करने रूपसे) परिणमित ऐसे आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति। ९। समस्त विश्वके विशेष भावोंको जाननेरूपसे परिणमित ऐसे आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति। १०।
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समयसार
६००
नीरूपात्मप्रदेशप्रकाशमानलोकालोकाकारमेचकोपयोगलक्षणा स्वच्छत्वशक्ति: ११। स्वयम्प्रकाशमानविशदस्वसंवित्तिमयी प्रकाशशक्ति: १२। क्षेत्रकालानवच्छिन्नचिद्विलासात्मिका असङ्कुचितविकाशत्वशक्ति: १३। अन्याक्रियमाणान्याकारकैकद्रव्यात्मिका अकार्यकारणत्वशक्ति: १४। परात्मनिमित्तक-ज्ञेयज्ञानाकारग्रहणग्राहणस्वभावरूपा परिणम्यपरिणामकत्वशक्ति: १५। अन्यूनातिरिक्त-स्वरूपनियतत्वरूपा त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति: १६। षट्स्थानपतितवृद्धिहानिपरिणत-स्वरूपप्रतिष्ठत्वकारणविशिष्टगुणात्मिका अगुरुलघुत्वशक्ति: १७। क्रमाक्रमवृत्तवृत्तित्वलक्षणा उत्पादव्ययध्रुवत्वशक्ति: १८। द्रव्यस्वभावभूतध्रौव्यव्ययोत्पादालिङ्गितसदृशविसदृशरूपैकास्तित्वमात्रमयी परिणामशक्ति: १९।
अमूर्तिक आत्मप्रदेशोंमें प्रकाशमान लोकालोकके आकारोंसे मेचक (अर्थात् अनेकआकाररूप) ऐसा उपयोग जिसका लक्षण है ऐसी स्वच्छत्वशक्ति। (जैसे दर्पणकी स्वच्छत्वशक्तिसे उसकी पर्यायमें घटपटादि प्रकाशित होते हैं, उसीप्रकार आत्माकी स्वच्छत्वशक्तिसे उसके उपयोगमें लोकालोकके आकार प्रकाशित होते हैं।) ११। स्वयं प्रकाशमान विशद ( –स्पष्ट ) ऐसी स्वसंवेदनमयी (-स्वानुभवमयी) प्रकाशशक्ति। १२। क्षेत्र और कालसे अमर्यादित ऐसी चिद्विलासस्वरूप (-चैतन्यके विलासस्वरूप) असंकुचितविकासत्वशक्ति। १३। जो अन्यसे नहीं किया जाता और अन्यको नहीं करता ऐसे एक द्रव्यस्वरूप अकार्यकारणत्वशक्ति, (जो अन्य का कार्य नहीं है और अन्यका कारण नहीं है ऐसा जो एक द्रव्य उस-स्वरूप अकार्यकारणत्वशक्ति।) १४। पर और स्व जिनके निमित्त हैं ऐसे ज्ञेयाकारों तथा ज्ञानाकारोंको ग्रहण करनेके और ग्रहण करानेके स्वभावरूप परिणम्यपरिणामकत्वशक्ति। (पर जिनके कारण हैं ऐसे ज्ञेयाकारोंके ग्रहण करनेके और स्व जिनका कारण है ऐसे ज्ञानाकारोंको ग्रहण करानेके स्वभावरूप परिणम्यपरिणामकत्वशक्ति।) १५। जो कम-बढ़ नहीं होता ऐसे स्वरूपमें नियतत्वरूप (-निश्चित्तया यथावत् रहनेरूप-) त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति। १६। षट्स्थानपतित वृद्धिहानिरूपसे परिणमित, स्वरूप-प्रतिष्ठत्वका कारणरूप (वस्तुके स्वरूपमें रहनेके कारणरूप) ऐसा जो विशिष्ट (-खास) गुण है उस-स्वरूप अगुरुलघुत्वशक्ति। (इस षट्स्थानपतित वृद्धिहानिका स्वरूप ‘गोम्मटसार' ग्रन्थ से जानना चाहिये । अविभाग परिच्छेदोकी संख्यारूप षट्थानोंमें पतित-समाविष्टवस्तुस्वभावकी वृद्धिहानि जिससे (-जिस गुणसे) होती है और जो ( गुण) वस्तुको स्वरूपमें स्थिर होने का कारण है ऐसा कोई गुण आत्मामें है; उसे अगुरुलघुत्वगुण कहहा जाता है। ऐसी अगुरुलघुत्वशक्ति भी आत्मामें है।) १७। क्रमवृत्तिरूप और अक्रमवृत्तिरूप वर्तन जिसका लक्षण है ऐसी उत्पादव्ययध्रुवत्वशक्ति। (क्रमवृत्तिरूपपर्याय उत्पादव्ययरूप है और अक्रमवृत्तिरूप गुण ध्रुवत्वरूप है।) १८। द्रव्यके स्वभावभूत ध्रौव्य-व्यय-उत्पादसे आलिंगित (-स्पर्शित), सदृश और विसदृश जिसका रूप है ऐसे एक अस्तित्वमात्रमयी परिणामशक्ति। १९ ।
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[परिशिष्टम्]
६०१
कर्मबन्धव्यपगमव्यञ्जितसहज-स्पर्शादिशून्यात्मप्रदेशात्मिका अमूर्तत्वशक्ति: २०। सकलकर्मकृतज्ञातृत्वमात्रातिरिक्त परिणामकरणोपरमात्मिका अकर्तृत्वशक्ति: २१। सकलकर्मकृतज्ञातृत्वमात्रातिरिक्त-परिणामानुभवोपरमात्मिका अभोक्तृत्वशक्ति: २२। सकलकर्मोपरमप्रवृत्तात्मप्रदेश-नैष्पन्द्यरूपा निष्क्रियत्वशक्ति: २३ । आसंसारसंहरणविस्तरणलक्षितकिञ्चिदूनचरमशरीरपरिमाणावस्थितलोकाकाशसम्मित आत्मावयवत्वलक्षणा नियतप्रदेशत्वशक्तिः २४। सर्वशरीरैकस्वरूपात्मिका स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति: २५। स्वपरसमानासमानसमानासमानत्रिविधभावधारणात्मिका साधारणासाधारणसाधारणासाधारणधर्मत्वशक्ति:
२६। विलक्षणानन्तस्वभावभावितैकभावलक्षणा अनन्तधर्मत्वशक्ति:
२७। तदतद्रूपमयत्वलक्षणा विरुद्धधर्मत्वशक्तिः २८। तद्रूपभवनरूपा
कर्मबंधके अभावसे व्यक्त किये गये, सहज, स्पर्शादिशून्य (-स्पर्श, रस, गंध और वर्णसे रहित) ऐसे आत्मप्रदेशस्वरूप अमूर्तत्वशक्ति। २०। समस्त, कर्मों के द्वारा किये गये, ज्ञातृत्वमात्रसे भिन्न जो परिणाम उन परिणामोंके करणके उपरमस्वरूप (उन परिणामोंको करनेकी निवृित्तस्वरूप) अकर्तृत्वशक्ति। (जिस शक्तिसे आत्मा ज्ञातृत्वके अतिरिक्त, कर्मोंसे किये गये परिणामों का कर्ता नहीं होता, ऐसी अकर्तृत्व नामक एक शक्ति आत्मामें है।) २१। समस्त, कर्मोंके किये गये, ज्ञातृत्वमात्रसे भिन्न परिणामोंके अनुभवकी ( –भोक्तृत्वकी) उपरमस्वरूप अभोक्तृत्वशक्ति। २२। समस्त कर्मोके उपरमसे प्रवृत्त आत्मप्रदेशोंकी निस्पंदतास्वरूप (-अकंपतास्वरूप) निष्क्रियत्वशक्ति। (जब समस्त कर्मोंका अभाव हो जाता है तब प्रदेशोंका कंपन मिट जाता है इसलिये निष्क्रियत्वशक्ति भी आत्मामें है।) २३। जो अनादि संसारसे लेकर संकोचविस्तारको प्राप्त होते हैं और जो चरम शरीरके परिमाणसे कुछ न्यून परिमाणसे अवस्थित होता है ऐसा लोकाकाशके माप जितना मापवाला आत्म-अवयवत्व जिसका लक्षण है ऐसी नियतप्रदेशत्वशक्ति। (आत्माके लोकपरिमाण असंख्य प्रदेश नियत ही हैं। वे प्रदेश संसार-अवस्थामें सकोचविस्तार को प्राप्त होते हैं और मोक्ष-अवस्थामें चरम शरीर से कुछ कम परिमाणसे स्थित रहते हैं।) २४। सर्व शरीरोंमें एकस्वरूपात्मक ऐसी स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति। (शरीरके धर्मरूप न होकर अपने अपने धर्मोंमें व्यापनेरूप शक्ति सो स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति।) २५। स्व-परके समान, असमान और समानासमान ऐसे तीन प्रकारके भावोंकी धारणस्वरूप साधारण-असाधारणसाधारणासाधारणधर्मत्वशक्ति। २६। विलक्षण (-परस्पर भिन्न लक्षणयुक्त) अनंत स्वभावोंसे भावित ऐसा एक भाव जिसका लक्षण है ऐसी अनंतधर्मत्वशक्ति। २७। तद्पमयता और अतद्रूपमयता जिसका लक्षण है एसी विरुद्धधर्मत्वशक्ति। २८ । तद्रूप भवनरूप ऐसी तत्त्वशक्ति। (तत्स्वरूप होनेरूप अथवा तत्स्वरूप परिणमनरूप ऐसी तत्त्वशक्ति आत्मामें है।
* उपरम = निवृति; अंत; अभाव।
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समयसार
६०२
तत्त्वशक्तिः २९। अतद्रूपभवनरूपा अतत्त्वशक्तिः ३०। अनेकपर्यायव्यापकैकद्रव्यमयत्वरूपा एकत्वशक्ति: ३१।। एकद्रव्य व्याप्यानेकपर्यायमयत्वरूपा अनेकत्वशक्ति: ३२। भूतावस्थत्वरूपा भावशक्ति: ३३। शून्यावस्थत्वरूपा अभावशक्तिः ३४। भवत्पर्यायव्ययरूपा भावाभावशक्तिः ३५। अभवत्पर्यायोदयरूपा अभावभावशक्ति: ३६। भवत्पर्यायभवनरूपा भावभावशक्ति: ३७। अभवत्पर्यायाभवनरूपा अभावाभावशक्ति: ३८। कारकानुगतक्रियानिष्क्रान्तभवनमात्रमयी भावशक्ति: ३९। कारकानुगतभवत्तारूपभावमयी क्रियाशक्तिः ४०। प्राप्यमाणसिद्धरूपभावमयी कर्मशक्ति: ४१। भवत्तारूपसिद्धरूपभावभावकत्वमयी कर्तृशक्ति: ४२। भवद्भावभवनसाधकतमत्वमयी करणशक्ति: ४३। स्वयं दीयमानभावोपेयत्वमयी सम्प्रदानशक्तिः ४४। उत्पादव्ययालिङ्गितभावापायनिरपायध्रुवत्वमयी अपादानशक्तिः ४५। भाव्यमानभावाधारत्वमयी अधिकरणशक्ति: ४६ । स्वभावमात्रस्वस्वामित्वमयी सम्बन्धशक्ति: ४७।
इस शक्तिसे चेतन चेतनरूपसे रहता है-परिणमित होता है।) २९। अतद्प भवनरूप ऐसी अतत्त्वशक्ति। (तत्स्वरूप नहीं होनेरूप अथवा तत्स्वरूप नहीं परिणमनेरूप अतत्त्वशक्ति आत्मामें है। इस शक्तिसे चेतन जड़रूप नहीं होता।) ३०। अनेक पर्यायोंमें व्यापक ऐसी एकद्रव्यमयतारूप एकत्वशक्ति। ३१। एक द्रव्यसे व्याप्य जो अनेक पर्यायें उसमयपनेरूप अनेकत्वशक्ति। ३२। विद्यमान अवस्थायुक्ततारूप भावशक्ति। (अमुक अवस्था जिसमें विद्यमान हो उसरूप भावशक्ति।) ३३। शून्य (-अविद्यमान) अवस्थायुक्ततारूप अभावशक्ति। (अमुक अवस्था जिसमें अविद्यमान हो उसरूप अभावशक्ति।) ३४। भवते हुए (-प्रवर्तमान) पर्यायके व्ययरूप भावाभावशक्ति। ३५ । नहीं भवते हुए (अप्रवर्तमान) पर्यायके उदयरूप अभावभावशक्ति। ३६। भवते हुए (प्रवर्तमान) पर्यायके भवनरूप भावभावशक्ति। ३७। नहीं भवते हुए (अप्रवर्तमान) पर्यायके अभवनरूप अभावाभावशक्ति। ३८। ( कर्ता, कर्म आदि) कारकोंके अनुसार जो क्रिया उससे रहित भवनमात्रमयी (-होवामात्रमयी) भावशक्ति। ३९। कारकोंके अनुसार परिणमित होनेरूप भावमयी क्रियाशक्ति। ४०। प्राप्त किया जाता जो सिद्धरूप भाव उसमयी कर्मशक्ति। ४१। होनेपनरूप और सिद्धरूप भावके भावकत्वमयी कर्तृत्वशक्ति। ४२। भवते हुए (प्रवर्तमान) भावके भवनके (-होनेके) साधकतमपनेमयी (-उत्कृष्ट साधकत्वमयी, उग्र साधनत्वमयी) करणशक्ति। ४३। अपने द्वारादिया जाता जो भाव उसके उपेयत्वमय (-उसे प्राप्त करनेके योग्यपनामय, उसे लेनेके पात्रपनामय) संप्रदानशक्ति। ४४। उत्पादव्ययसे आलिंगित भावका अपाय (-हानि, नाश) होनेसे हानि को प्राप्त न होनेवाले ध्रुवत्वमयी अपादानशक्ति। ४५। भाव्यमान ( अर्थात् भावनेमें आत हुऐ) भावके आधारत्वमयी अधिकरणशक्ति। ४६। स्वभावमात्र स्व-स्वामित्वमयी संबंधशक्ति। (अपना भाव अपना स्व और स्वयं उसका स्वामी है-ऐसे संबंधमयी संबंधशक्ति।) ४७।
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[ परिशिष्टम् ]
( वसन्ततिलका)
इत्याद्यनेकनिजशक्तिसुनिर्भरोऽपि यो ज्ञानमात्रमयतां न जहाति भावः । एवं क्रमाक्रमविवर्तिविवर्तचित्रं तद्द्रव्यपर्ययमयं चिदिहास्ति वस्तु।। २६४ ।। ( वसन्ततिलका)
नैकान्तसङ्गतदृशा स्वयमेव वस्तुतत्त्वव्यवस्थितिमिति प्रविलोकयन्तः। स्याद्वादशुद्धिमधिकामधिगम्य सन्तो ज्ञानीभवन्ति जिननीतिमलङ्घयन्तः।। २६५ ।।
६०३
' इत्यादि अनेक शक्तिओंसे युक्त आत्मा है तथापि वह ज्ञानमात्रताको नहीं छोड़ता '–इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ इत्यादि - अनेक - निज - शक्ति - सुनिर्भर: अपि ] इत्यादि ( - पूर्व कथित ४७ शक्तियाँ इत्यादि) अनेक निज शक्तियोंसे भलीभाँति परिपूर्ण होनेपर भी [यः भावः ज्ञानमात्रमयतां न जहाति ] जो भाव ज्ञानमात्रमयताको नहीं छोड़ता, [ तद् ] ऐसा वह, [ एवं क्रम- अक्रम-विवर्ति-विवर्त - चित्रम् ] पूर्वोक्त प्रकारसे क्रमरूप और अक्रमरूपसे वर्तमान विवर्त्तसे ( - रूपांतरसे, परिणमनसे) अनेक प्रकारका, [ द्रव्यपर्ययमयं ] द्रव्यपर्यायमय [ चिद् ] चैतन्य ( अर्थात् ऐसा वह चैतन्यभाव - आत्मा ) [ इह ] इस लोकमें [ वस्तु अस्ति ] वस्तु है।
T
भावार्थ:-कोई यह समझ सकता है कि आत्माको ज्ञानमात्र कहा है इसलिये एकस्वरूप ही होगा । किन्तु ऐसा नहीं है । वस्तुका स्वरूप द्रव्यपर्यायमय है। चैतन्य भी वस्तु है, द्रव्यपर्यायमय है। वह चैतन्य अर्थात् आत्मा अनंत शक्तियोंसे परिपूर्ण है और क्रमरूप तथा अक्रमरूप अनेक प्रकारके परिणामोंके विकारोंके समूहरूप अनेकाकार होता है फिर भी ज्ञानको - जो कि असाधारणभाव है उसे नहीं छोड़ता; उसकी समस्त अवस्थाएं-परिणाम-पर्याय ज्ञानमय ही हैं । २६४ ।
‘इन अनेकस्वरूप- अनेकांतमय-वस्तुको जो जानते हैं, श्रद्धा करते हैं और अनुभव करते हैं, वे ज्ञानस्वरूप होते हैं ' - इस आशयका, स्याद्वादका फल बतलानेवाला काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इति वस्तु-तत्त्व - व्यवस्थितिम् नैकान्त-सङ्गत-दृशा स्वयमेव प्रविलोकयन्तः ] ऐसी ( अनेकांतात्मक) वस्तुतत्त्वकी व्यवस्थितिको अनेकांत-संगत (अनेकांतके साथ सुसंगत, अनेकांतके साथ मेलवाली ) दृष्टि के द्वारा स्वयमेव देखते हुए, [ स्याद्वाद-शुद्धिम् अधिकाम् अधिगम्य ] स्याद्वादकी अत्यंत शुद्धिको जानकर, [ जिन-नीतिम् अलङ्घयन्तः ] जिन नीतिका ( जिनेश्वरदेवके मार्गका )
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६०४
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अथास्योपायोपेयभावश्चिन्त्यते
समयसार
आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेऽप्युपायोपेयभावो विद्यत एव; तस्यैकस्यापि स्वयं साधकसिद्धरूपोभयपरिणामित्वात्। तत्र यत्साधकं रूपं स उपायः, यत्सिद्धं रूपं स उपेयः। अतोऽस्यात्मनोऽनादिमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रैः स्वरूपप्रच्यवनात् संसरतः सुनिश्चलपरिगृहीतव्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपाकप्रकर्षपरम्परया क्रमेण स्वरूपमारोप्यमाणस्यान्तर्मग्ननिश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रविशेषतया तथापरमप्रकर्षमकरिकाधिरूढरत्नत्रयातिशयप्रवृत्तसकलकर्मक्षयप्रज्वलितास्खलित
साधकरूपेण
उल्लंघन न करते हुए, [ सन्तः ज्ञानीभवन्ति ] सत्पुरुष ज्ञानस्वरूप होते हैं।
भावार्थ:-जो सत्पुरुष अनेकांतके साथ सुसंगत दृष्टि के द्वारा अनेकांतमय वस्तुस्थितिको देखते हैं, वे इसप्रकार स्याद्वादकी शुद्धिको प्राप्त करके - जानकरके, जिनदेवके मार्गको–स्याद्वादन्यायको - उल्लंघन न करते हुए, ज्ञानस्वरूप होते हैं।
२६५ ।
( इसप्रकार स्यादवादके सम्बन्धमें कहकर, अब आचार्यदेव उपाय - उपेयभाव सम्बन्धमें कुछ कहते हैं:
अब इसके (-ज्ञानमात्र आत्मवस्तुके उपाय - उपेयभाव विचारा जाता है (अर्थात् आत्मवस्तु ज्ञानमात्र है फिर भी उसमें उपायत्व और उपेयत्व दोनों कैसे घटित होते हैं सो इसका विचार किया जाता है ) :
आत्मवस्तुको ज्ञानमात्रता होनेपर भी उसे उपाय - उपेयभाव ( उपायउपेयपना) है ही; क्योंकि वह एक होने पर भी *स्वयं साधक रूपसे और सिद्ध रूपसे - दोनों प्रकार से परिणमित होता है । उसमें जो साधक रूप है वह उपाय है और जो सिद्ध रूप है वह उपेय है। इसलिये, अनादि कालसे मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र द्वारा (मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र द्वारा ) स्वरूपसे च्युत होनेके कारण संसारमें भ्रमण करते हुए, सुनिश्चतया ग्रहण किये गये व्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रके पाकके प्रकर्षकी परंपरासे क्रमशः स्वरूपमें आरोहण कराये जाते इस आत्माको, अंतर्मग्न जो निश्चय- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेद हैं- तद्रूपता के द्वारा स्वयं साधक रूपसे परिणमित होता हुआ, तथा परम प्रकर्षकी पराकाष्ठाको प्राप्त रत्नत्रयकी अतिशयतासे प्रवर्तित जो सकल कर्मके क्षय उससे प्रज्वलित देदीप्यमान ) हुए जो
अस्खलित
* उपेय अर्थात् प्राप्त करनेयोग्य, और उपाय अर्थात् प्राप्त करनेयोग्य जिसके द्वारा प्राप्त किया जावे। आत्माका शुद्ध (-सर्व कर्म रहित ) स्वरूप अथवा मोक्ष उपेय है और मोक्षमार्ग वह उपाय है।
* आत्मा परिणामी है और साधकत्व तथा सिद्धत्व ये दोनों परिणाम हैं।
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[परिशिष्टम् ]
६०५
-विमलस्वभाव-भावतया सिद्धरूपेण च स्वयं परिणममानं ज्ञानमात्रमेकमेवोपायोपेयभावं साधयति। एवमुभयत्रापि ज्ञानमात्रस्यानन्यतया नित्यमस्खलितैकवस्तुनो निष्कम्पपरिग्रहणात् तत्क्षण एव मुमुक्षूणामासंसारादलब्धभूमिकानामपि भवति भूमिकालाभः। ततस्तत्र नित्यदुर्ललितास्ते स्वत एव क्रमाक्रमप्रवृत्तानेकान्तमूर्तयः साधकभावसम्भव-परमप्रकर्षकोटिसिद्धिभावभाजनं भवन्ति । ये तु नेमामन्तींतानेकान्तज्ञानमात्रैकभावरूपां भूमिमुपलभन्ते ते नित्यमज्ञानिनो भवन्तो ज्ञानमात्रभावस्य स्वरूपेणाभवनं पररूपेण भवनं पश्यन्तो जानन्तोऽनुचरन्तश्च मिथ्यादृष्टयो मिथ्याज्ञानिनो मिथ्याचारित्राश्च
विमल स्वभावभावत्व द्वारा स्वयं सिद्ध रूपसे परिणमता ऐसा एक ही ज्ञान
परिणमता ऐसा एक ही ज्ञानमात्र उपायउपेयभाव सिद्ध करता है।
भावार्थ:-यह आत्मा अनादि कालसे मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रके कारण संसारमें भ्रमण करता है। वह सुनिश्चलतया ग्रहण किये गये व्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी वृद्धिकी परंपरासे क्रमश: स्वरूपका अनुभव करता है तबसे ज्ञान साधक रूपसे परिणमित होता है, क्योंकि ज्ञानमें निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेद अंतर्भूत हैं। निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी प्रारम्भसे लेकर स्वरूपानुभवकी वृद्धि करते करते जबतक निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी पूर्णता न हो, तबतक ज्ञानका साधक रूपसे परिणमन है। जब निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी पूर्णतासे समस्त कर्मोंका नाश होता है अर्थात् साक्षात् मोक्ष होता है तब ज्ञान सिद्ध रूपसे परिणमित होता है, क्योंकि उसका अस्खलित निर्मल स्वभावभाव प्रगट दैदीप्यमान हुआ है। इसप्रकार साधक रूपसे और सिद्ध रूपसे-दोनों रूपसे परिणमित होता हुआ एक ही ज्ञान आत्मवस्तुकी उपाय-उपेयताको साधित करता है।)
इसप्रकार दोनों में ( –उपाय तथा उपेयमें-) ज्ञानमात्रकी अनन्यता है अर्थात् अन्यपना नहीं है; इसलिये सदाय अस्खलित एक वस्तुका ( -ज्ञानमात्र आत्मवस्तुका) निष्कंप ग्रहण करनेसे, मुमुक्षुओंको कि जिन्हें अनादि संसारसे भूमिकाकी प्राप्ति न हुई हो उन्हें भी, तत्क्षण ही भूमिकाकी प्राप्ति होती है। फिर उसी में नित्य मस्ती करते हुए (लीन रहते हुए) वे मुमुक्षु-जो कि स्वतः ही, क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवर्तमान अनेक अंतकी (अनेक धर्मकी) मूर्तियाँ हैं वे-साधकभावसे उत्पन्न होनेवाली परम प्रकर्षकी *कोटिरूप सिद्धिभावके भाजन होते हैं। परंतु जिसमें अनेक अंत अर्थात् धर्म गर्भित हैं ऐसे एक ज्ञानमात्र भावका स्वरूपसे भूमिको जो प्राप्त नहीं करते, वे सदा अज्ञानी रहते हुए, ज्ञानमात्र भावका स्वरूपसे अभवन और पररूपसे भवन देखते (-श्रद्धा करते) हुए, जानते हुए तथा आचरण करते हुए, मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी और मिथ्याचारित्री
* कोटि = अंतिमता; उत्कृष्टता; ऊँचेमें ऊँचे बिंदु; हद
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समयसार
६०६
भवन्तोऽत्यन्तमुपायोपेयभ्रष्टा विभ्रमन्त्येव।
(वसन्ततिलका) ये ज्ञानमात्रनिजभावमयीमकम्पां भूमिं श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः। ते साधकत्वमधिगम्य भवन्ति सिद्धा मूढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति।। २६६ ।।
( वसन्ततिलका) स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः। ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्रीपात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः।। २६७ ।।
होते हुए, उपाय-उपेयभावसे अत्यंत भ्रष्ट होते हुए संसारमें परिभ्रमण ही करते हैं।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ये] जो पुरुष, [कथम् अपि अपनीत-मोहाः] किसी भी प्रकारसे जिनका मोह दूर हो गया है ऐसा होता हुआ , [ ज्ञानमात्र-निज-भावमयीम् अकम्पां भूमिं] ज्ञानमात्र निजभावमय अकंप भूमिकाका (अर्थात् ज्ञानमात्र जो अपना भाव उस–मय निश्चल भूमिकाका) [श्रयन्ति ] आश्रय लेते हैं, [ ते साधकत्वम् अधिगम्य सिद्धाः भवन्ति] वे साधकत्वको प्राप्त करके सिद्ध हो जाते हैं; [ तु] परंतु [ मूढाः ] जो मूढ़ ( –मोही, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि) है वे [ अमूम् अनुपलभ्य ] इस भूमिकाको न प्राप्त करके [ परिभ्रमन्ति ] संसारमें परिभ्रमण करते हैं।
भावार्थ:-जो भव्य पुरुष, गुरुके उपदेशसे अथवा स्वयमेव काललब्धिको प्राप्त करके मिथ्यात्वसे रहित होकर, ज्ञानमात्र अपने स्वरूपको प्राप्त करते हैं, उसका आश्रय लेते हैं, वे साधक होते हुए सिद्ध हो जाते हैं; परंतु जो ज्ञानमात्र निजको प्राप्त नहीं करते, वे संसारमें परिभ्रमण करते हैं। २६६।
इस भूमिका का आश्रय करनेवाला जीव कैसा होता है सो अब कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [यः] जो पुरुष [ स्याद्वाद-कौशल-सुनिश्चल-संयमाभ्यां] स्याद्- वादमें प्रवीणता तथा ( रागादिक अशुद्ध परिणतिके त्यागरूप) सुनिश्चल संयम-इन दोनोंके द्वारा [ इह उपयुक्तः] अपने में उपयुक्त रहता हुआ ( अर्थात् अपने ज्ञानस्वरूप आत्मामें उपयोगको लगाता हुआ) [अहः अहः स्वम् भावयति ] प्रतिदिन अपनेको भाता है ( –निरंतर अपने आत्माकी भावना करता है), [ सः एकः] वही एक
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[परिशिष्टम् ]
६०७
( वसन्ततिलका) चित्पिण्डचण्डिमविलासिविकासहास: शुद्धप्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः। आनन्दसुस्थितसदास्खलितैकरूपस्तस्यैव चायमुदयत्यचलार्चिरात्मा।। २६८ ।।
(पुरुष), [ज्ञान-क्रिया-नय-परस्पर-तीव्र-मैत्री-पात्रीकृतः] ज्ञाननय और क्रियानयकी परस्पर तीव्र मैत्रीका पात्ररूप होता हुआ , [ इमाम् भूमिम् श्रयति ] इस ( ज्ञानमात्र निजभावमय) भूमिकाका आश्रय करता है।
भावार्थ:-जो ज्ञाननयको ही ग्रहण करके क्रियानयको छोड़ता है, उस प्रमादी और स्वच्छंदी पुरुषको इस भूमिकाकी प्राप्ति नहीं हुई है। जो क्रियानयको ही ग्रहण करके ज्ञाननयको नहीं जानता, उस (व्रत-समिति-गुप्तिरूप) शुभ कर्मसे संतुष्ट पुरुषको भी इस निष्कर्म भूमिकाकी प्राप्ति नहीं हुई है। जो पुरुष अनेकांतमय आत्माको जानता है (-अनुभव करता है) तथा सुनिश्चिल संयममें प्रवृत्त है (रागादिक अशुद्ध परिणतिका त्याग करता है), और इसप्रकार जिसने ज्ञाननय तथा क्रियानयकी परस्पर तीव्र मैत्री सिद्ध की है, वही पुरुष इस ज्ञानमात्र निजभावमय भूमिकाका आश्रय करनेवाला है।
ज्ञाननय और क्रियानयके ग्रहण-त्यागका स्वरूप तथा फल ‘पंचास्तिकायसंग्रह' ग्रन्थके अंतमें कहा है, वहाँ से जानना चाहिये। २६७।
इसप्रकार जो पुरुष इस भूमिकाका आश्रय लेता है, वही अनंत चतुष्टयमय आत्माको प्राप्त करता है-इस अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ तस्य एव] (पूर्वोक्त प्रकारसे जो पुरुष इस भूमिकाका आश्रय लेता है) उसीके, [चित्-पिण्ड-चण्डिम-विलासि-विकास-हासः] चैतन्यपिंडके निरर्गल विलसित जो विकासरूप जिसका खिलना है (अर्थात् चैतन्यपुंजका अत्यंत विकास होना ही जिसका खिलना है), [शुद्ध-प्रकाश-भर-निर्भर-सुप्रभातः ] शुद्ध प्रकाशकी अतिशयताके कारण जो सुप्रभातके समान है, [आनन्द-सुस्थित-सदाअस्खलित-एक-रूपः] आनंदमें सुस्थित ऐसा जिसका सदा अस्खलित एक रूप है [च ] और [ अचल-अर्चिः ] जिसकी ज्योती अचल है ऐसा [ अयम् आत्मा उदयति] यह आत्मा उदयको प्राप्त होता है।
भावार्थ:-यहाँ ‘चित्पिण्ड' इत्यादि विशेषणसे अनंतदर्शनका प्रगट होना, 'शुद्धप्रकाश' इत्यादि विशेषणसे अनंत ज्ञानका प्रगट होना, 'आनन्दसुस्थित' इत्यादि विशेषणसे अनंत सुखका प्रगट होना और 'अचलार्चि' विशेषणसे अनंत वीर्यका प्रगट होना बताया है। पूर्वोक्त भूमिका आश्रय लेनेसे ही ऐसे आत्माका उदय होता है। २६८ ।
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समयसार
६०८
(वसन्ततिलका) स्याद्वाददीपितलसन्महसि प्रकाशे शुद्धस्वभावमहिमन्युदिते मयीति। किं बन्धमोक्षपथपातिभिरन्यभावैनित्योदयः परमयं स्फुरतु स्वभावः ।। २६९ ।।
(वसन्ततिलका) चित्रात्मशक्तिसमुदायमयोऽयमात्मा सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणखण्ड्यमानः। तस्मादखण्डमनिराकृतखण्डमेकमेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोऽस्मि।। २७० ।।
अब, यह कहते हैं कि ऐसा ही आत्मस्वभाव हमें प्रगट हो :
श्लोकार्थ:- [ स्याद्वाद-दीपित-लसत्-महसि ] स्याद्वाद द्वारा प्रदीप्त किया गया जगमगाहट करता जिसका तेज है और [शुद्ध-स्वभाव-महिमनि] जिसमें शुद्धस्वभावरूप महिमा है ऐसा [प्रकाशे उदिते मयि इति] यह प्रकाश (ज्ञानप्रकाश) जहाँ मुझमें उदयको प्राप्त हुआ है, वहाँ [बन्ध-मोक्ष-पथ-पातिभिः अन्य-भावैः किम् ] बंध-मोक्षके मार्गमें पड़नेवाले अन्य भावोंसे मुझे क्या प्रयोजन है ? [ नित्य-उदयः परम् अयं स्वभावः स्फुरतु] मुझको मेरा नित्य उदित रहनेवाला केवल यह (अनंत चतुष्टयरूप) स्वभाव ही स्फुरायमान हो।
भावार्थ:-स्याद्वादसे यथार्थ आत्मज्ञान होनेके बाद उसका फल पूर्ण आत्माका प्रगट होना है। इसलिये मोक्षका इच्छुक पुरुष यही प्रार्थना करता है किमेरा पूर्णस्वभाव आत्मा मुझे प्रगट हो; बंधमोक्षमार्गमें पड़नेवाले अन्य भावोंसे मुझे क्या काम ?। २६९।
'यद्यपि नयोंके द्वारा आत्मा साधित होता है तथापि यदि नयों पर ही दृष्टि रहे तो नयोंमें तो परस्पर विरोध भी है, इसलिये मैं नयोंका विरोध मिटाकर आत्माका अनुभव करता हूँ'-इस अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ चित्र-आत्मशक्ति-समुदायमयः अयम् आत्मा] अनेक प्रकारकी निज शक्तियोंका समुदायमय यह आत्मा [ नय-ईक्षण-खण्ड्यमानः ] नयोंकी दृष्टिसे खंडखंडरूप किये जानेपर [ सद्यः] तत्काल [प्रणश्यति] नाशको प्राप्त होता है; [ तस्मात् ] इसलिये मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि- [अनिराकृत-खण्डम् अखण्डम् ] जिसमेंसे खंडोंको निराकृत (बहिष्कृत; दूर; रदबातल; नाकबूल) नहीं किया गया है तथापि जो अखंड है, [एकम् ] एक है, [ एकान्तशान्तम् ] एकांत शांत है (अर्थात् जिसमें कर्मोदय का उदय लेशमात्र भी नहीं है ऐसा अत्यंत शांत भावमय है) और [अचलम् ] अचल है (अर्थात् कर्मोदय से चलायमान च्युत नहीं होता) ऐसा [ चिद् महः अहम् अस्मि] चैतन्यमात्र तेज मैं हूँ।
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[परिशिष्टम् ]
६०९
न द्रव्येण खण्डयामि, न क्षेत्रेण खण्डयामि, न कालेन खण्डयामि, न भावेन खण्डयामि; सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्रो भावोऽस्मि।
(शालिनी) योऽयं भावो ज्ञानमात्रोऽहमस्मि ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानमात्रः स नैव। ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानकल्लोलवल्गन् ज्ञानज्ञेयज्ञातृमद्वस्तुमात्रः ।। २७१ ।।
भावार्थ:-आत्मामें अनेक शक्तियाँ हैं और एक एक शक्तिका ग्राहक एक एक नय है; इसलिये यदि नयोंकी एकांत दृष्टिसे देखा जाये तो आत्माका खंड खंड होकर उसका नाश हो जाये। ऐसा होनेसे स्याद्वादी, नयोंका विरोध दूर करके चैतन्यमात्र वस्तुको अनेकशक्तिसमूहरूप, सामान्यविशेषस्वरूप, सर्वशक्तिमय एकज्ञानमात्र अनुभव करता है। ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है, इसमें विरोध नहीं है। २७०।।
अब, ज्ञानी अखंड आत्माका ऐसा अनुभव करता है इसप्रकार आचार्यदेव गद्यमें कहते हैं:
(ज्ञानी शुद्धनयका आलंबन लेकर ऐसा अनुभव करता है-) मैं अपनेको अर्थात् मेरे शुद्धात्मस्वरूपको न द्रव्यसे खंडित करता हूँ, न क्षेत्रसे खंडित करता हूँ, न कालसे खंडित करता हूँ, न भावसे खंडित करता हूँ; सुविशुद्ध एक ज्ञानमात्र भाव
भावार्थ:-यदि शुद्धनयसे देखा जाये तो शुद्ध चैतन्यमात्र भावमें द्रव्य-क्षेत्रकाल-भावसे कुछ भी भेद दिखाई नहीं देता। इसलिये ज्ञानी अभेदज्ञानस्वरूप अनुभवमें भेद नहीं करता।
ज्ञानमात्र भाव स्वयं ही ज्ञान है, स्वयं ही अपना ज्ञेय है और स्वयं ही अपना ज्ञाता है-इस अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [यः अयं ज्ञानमात्र: भावः अहम् अस्मि सः ज्ञेय-ज्ञानमात्र: एव नज्ञेयः ] जो यह ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ वह ज्ञेयोंका ज्ञानमात्र ही नहीं जानना चाहिये; [ ज्ञेय-ज्ञान-कल्लोल-वल्गन्] (परंतु) ज्ञेयोंके आकारसे होनेवाले ज्ञानकी कल्लोलोंके रूपमें परिणमित होता हुआ वह, [ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातृमत्-वस्तुमात्र: ज्ञेयः ] ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातामय वस्तुमात्र जानना चाहिये ( अर्थात् स्वयं ही ज्ञान, स्वयं ही ज्ञेय, स्वयं ही ज्ञाता-इसप्रकार ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातारूप तीनों भावयुक्त वस्तुमात्र जानना चाहिये)।
भावार्थ:-ज्ञानमात्र भाव ज्ञातृक्रियारूप होनेसे ज्ञानस्वरूप है। और वह स्वयं ही निम्न प्रकारसे ज्ञेयरूप है। बाह्य ज्ञेय ज्ञानसे भिन्न है, वे ज्ञानमें प्रविष्ट नहीं होते; ज्ञेयोंके आकारकी झलक ज्ञानमें पड़ने पर ज्ञान ज्ञेयाकाररूप देखाई देता है परंतु वे
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समयसार
६१०
( पृथ्वी) क्वचिल्लसति मेचकं क्वचिन्मेचकामेचकं क्वचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम। तथापि न विमोहयत्यमलमेधसां तन्मनः परस्परसुसंहतप्रकटशक्तिचक्रं स्फुरत्।। २७२ ।।
. (पृथ्वी )
इतो गतमनेकतां दधदितः सदाप्येकतामितः क्षणविभङ्गुरं ध्रुवमितः सदैवोदयात्। इतः परमविस्तृतं धृतमितः प्रदेशैर्निजैरहो सहजमात्मनस्तदिदमद्भुतं वैभवम्।। २७३ ।।
ज्ञानकी ही तरंगें हैं। वे ज्ञान तरंगें ही ज्ञानके द्वारा ज्ञात होती है। इसप्रकार स्वयं ही स्वतः जाननेयोग्य होनेसे ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञेयरूप है। और स्वयं जाननेवाला होनेसे ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञाता है। इसप्रकार ज्ञानमात्र भाव ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता-इन तीनों भावोंसे युक्त सामान्यविशेषस्वरूप वस्तु है। 'ऐसा ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ' इसप्रकार अनुभव करने वाला पुरुष अनुभव करता है। २७१।
आत्मा मेचक, अमेचक इत्यादि अनेक प्रकारसे दिखाई देता है तथापि यथार्थ ज्ञानी निर्मल ज्ञानको नहीं भूलता -इस अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- (ज्ञानी कहते हैं:) [ मम तत्त्वं सहजम एव ] मेरे तत्त्वका ऐसा स्वभाव ही है कि [ क्वचित् मेचकं लसति] कभी तो वह (आत्मतत्त्व) मेचक (अनेकाकार, अशुद्ध) दिखाई देता है, [क्वचित् मेचक-अमेचकं ] कभी मेचक-अमेचक ( दोनोंरूप) दिखाई देता है [ पुनः क्वचित् अमेचकं ] और कभी अमेचक ( -एकाकार, शुद्ध) दिखाई देता है; [ तथापि] तथापि [ परस्पर-सुसंहत-प्रकट-शक्ति-चक्रं स्फुरत् तत् ] परस्पर सुसंहत (–सुमिलित, सुग्रथित) प्रगट शक्तियोंके समूहरूपसे स्फूरायमान वह आत्मतत्त्व [अलम-मेधसां मनः] निर्मल बुद्धिवालोंके मनको [न विमोहयति ] विमोहित (-भ्रमित) नहीं करता।
भावार्थ:-आत्मतत्त्व अनेक शक्तियोंवाला होनेसे किसी अवस्थामें कर्मोदयके निमित्तसे अनेकाकार अनुभवमें आता है, किसी अवस्थामें शुद्ध एकाकार अनुभव में
आता है और किसी अवस्थामें शुद्धाशुद्ध अनुभवमें आता है; तथापि यथार्थ ज्ञानी स्याद्वादके बलके कारण भ्रमित नहीं होता, जैसा है वैसा ही मानता है, ज्ञानमात्रसे च्युत नहीं होता। २७२।
___आत्माका अनेकांतस्वरूप ( –अनेक धर्मस्वरूप) वैभव अद्भुत (आश्चर्यकारक ) है-इस अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अहो आत्मनः तद् इदम् सहजम् अद्भुतं वैभवम् ] अहो! आत्माका तो यह सहज अद्भुत वैभव है कि- [ इतः अनेकतां गतम् ] एक ओर से
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[ परिशिष्टम् ]
( पृथ्वी ) कषायकलिरेकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकतो वोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः । जगत्त्रितयमेकतः स्फुरति चिच्चकास्त्येकतः स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः ।। २७४ ।।
६१९
देखने पर वह अनेकताको प्राप्त है और [ इतः सदा अपि एकताम् दधत् ] एक ओर से देखने पर सदा एकता को धारण करता है, [ इत: क्षण - विभङ्गुरम् ] एक ओरसे देखने पर क्षणभंगुर है और [ इतः सदा एव उदयात् ध्रुवम् ] एक ओर से देखने पर सदा उसका उदय होनेसे ध्रुव है, [ इतः परम - विस्तृतम् ] एक ओर से देखने पर परम विस्तृत है और [ इतः निजैः प्रदेशैः धृतम् ] एक ओरसे देखने पर अपने प्रदेशोंसे ही धारण कर रखा हुआ है।
भावार्थ:-पर्यायदृष्टिसे देखने पर आत्मा अनेकरूप दिखाई देता है द्रव्यदृष्टिसे देखने पर एकरूप; क्रमभावी पर्यायदृष्टिसे देखने पर क्षणभंगुर दिखाई देता है और सहभावी गुणदृष्टिसे देखने पर ध्रुव; ज्ञानकी अपेक्षावाली सर्वगतदृष्टिसे देखनेपर परम विस्तारको प्राप्त दिखाई देता है और प्रदेशोंकी अपेक्षावाली दृष्टिसे देखनेपर अपने प्रदेशोंमें ही व्याप्त दिखाई देता है। ऐसा द्रव्यपर्यायात्मक अनंतधर्मवाला वस्तुका स्वभाव है। वह (स्वभाव) अज्ञानियोंक ज्ञानमें आश्चर्य उत्पन्न करता है कि यह तो असंभवसी बात है! यद्यपि ज्ञानियोंको वस्तुस्वभावमें आश्चर्य नहीं होता फिर भी उन्हें कभी नहीं हुआ ऐसा अभूतपूर्व - अद्भुत परमानंद होता है, और इसलिये आश्चर्य भी होता है। २७३।
पुन: इसी अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ एकतः कषाय-कलिः स्खलति ] एक ओर से देखनेपर कषायोंका क्लेश दिखाई देता है और [ एकतः शान्तिः अस्ति ] एक ओर से देखने पर शान्ति ( कषायोंके अभावरूप शांतभाव) है; [ एकतः भव - उपहतिः ] एक ओर से देखने पर भवकी ( - सांसारिक) पीड़ा दिखाई देती है और [ एकत: मुक्तिः अपि स्पृशति ] एक ओर से देखनेपर ( संसारके अभावरूप ) मुक्ति भी स्पर्श करती है; [ एकतः त्रितयम् जगत् स्फुरति ] एक ओरसे देखनेपर तीनों लोक स्फुरायमान होते हैं ( - प्रकाशित होता है, दिखाई देता है) और एकत: चित् चकास्ति ] एक ओर से देखनेपर केवल एक चैतन्य ही शोभित होता [आत्मनः अद्भुतात् अद्भुतः स्वभावमहिमा विजयते ] ( ऐसी ) आत्माकी अद्भुतसे भी अद्भुत स्वभाव महिमा जयवंत वर्तती है (–अर्थात् किसीसे बाधित नहीं होता ) ।
[
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समयसार
६१२
( मालिनी) जयति सहजतेजःपुञ्जमज्जत्रिलोकीस्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव स्वरूपः। स्वरसविसरपूर्णाच्छिन्नतत्त्वोपलम्भ: प्रसभनियमितार्चिश्चिच्चमत्कार एषः।। २७५ ।।
भावार्थ:-यहाँ भी २७३ वें श्लोकके भावार्थानुसार ही जानना चाहिये। आत्माका अनेकांतमय स्वभाव सुनकर अन्यवादियोंको भारी आश्चर्य होता है।उन्हें यह बातमें विरोध भासित होता है। वे ऐसे अनेकांतमय स्वभावकी बातको अपने चित्तमें न तो समाविष्ट कर सकते हैं और न सहन ही कर सकते है। यदि कदाचित् उन्हें श्रद्धा हो तो प्रथम अवस्थामें उन्हें भारी अद्भुतता मालूम होती है 'अहो! यह जिनवचन महा उपकारी है, वस्तुके यथार्थ स्वरूपको बतानेवाले हैं; मैंने अनादिकाल ऐसे यथार्थ स्वरूपके ज्ञान बिना ही व्यतीत कर दिया !'-वे इसप्रकार आश्चर्यपूर्वक श्रद्धान करते हैं। २७४।।
अब टीकाकार आचार्यदेव अंतिम मंगलके अर्थ इस चित्चमत्कारको ही सर्वोत्कृष्ट कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ सहज-तेज:पुज-मज्जत्-त्रिलोकी-स्खलत्-अखिल-विकल्प: अपि एकः एव स्वरूपः ] सहज (-अपने स्वभावरूप) तेजःपुंजमें त्रिलोक के पदार्थ मग्न हो जाते हैं इसलिये जिसमें अनेक भेद होते हुए दिखाई देते हैं तथापि जिसका एक ही स्वरूप है ( अर्थात् केवलज्ञानमें सर्व पदार्थ झलकते है इसलिये जो अनेक ज्ञेयाकाररूप दिखाई देते है तथापि जो चैतन्यरूप ज्ञानाकारकी दृष्टिमें एकस्वरूप ही है), [ स्व-रस-विसर-पूर्ण-अच्छिन्न-तत्त्व-उपलम्भ:] जिसमें निज रसके विस्तारसे पूर्ण अछिन्न तत्त्वोपलब्धि है (अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मका अभाव हो जानेसे जिसमें स्वरूप-अनुभवनका अभाव नहीं होता) [प्रसभ-नियमित-अर्चिः ] और जिसकी ज्योति अत्यंत नियमित है (अर्थात् जो अनंत वीर्यसे निष्कंप रहता है) [ एष: चित्चमत्कारः जयति] ऐसा यह (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) चैतन्यचमत्कार जयवंत वर्तता है (-किसीसे बाधित नहीं किया जा सकता ऐसा सर्वोत्कृष्टरूपसे विद्यमान है)।
(यहाँ 'चैतन्यचमत्कार जयवंत वर्तता है' इस कथनमें जो चैतन्यचमत्कारका सर्वोत्कृष्टतया होना बताया है, वही मंगल है।) २७५।
अब इस श्लोकमें टीकाकार आचार्यदेव आत्माको आशीर्वाद देते हैं और साथ ही अपना नाम भी प्रगट करते हैं:
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[ परिशिष्टम्]
६१३
(मालिनी) अविचलितचिदात्मन्यात्मनात्मानमात्मन्यनवरतनिमग्नं धारयद् ध्वस्तमोहम्। उदितममृतचन्द्रज्योतिरेतत्समन्ताज्ज्वलतु विमलपूर्ण निःसपत्नस्वभावम्।। २७६ ।।
श्लोकार्थ:- [अविचलित-चिदात्मनि आत्मनि आत्मानम् आत्मना अनवरतनिमग्नं धारयत् ] जो अचल-चेतनास्वरूप आत्मामें आत्माको अपने आप ही निरंतर निमग्न रखती है (अर्थात् प्राप्त किये स्वभावको कभी नहीं छोड़ती), [ध्वस्त-मोहम्] जिसने मोहका (अज्ञानांधकारका) नाश किया है, [ निःसपत्नस्वभावम् ] जिसका स्वभाव निःसपत्न ( प्रतिपक्षी कर्मोंसे रहित) है, [विमल-पूर्ण] जो निर्मल है और जो पूर्ण है; ऐसी [ एतत् उदितम् अमृतचन्द्र-ज्योतिः] यह उदय को प्राप्त अमृतचंद्रज्योति (-अमृतमय चंद्रमाके समान ज्योति, ज्ञान, आत्मा) [ समन्तात् ज्वलतु] सर्वतः जाज्वल्यमान रहो।
भावार्थ:-जिसका न तो मरण होता है और न जिससे दूसरे का नाश होता है वह अमृत है; और जो अत्यंत स्वादिष्ट ( –मीठा) होता है उसे लोग रूढ़िसे अमृत कहते हैं। यहाँ ज्ञानको-आत्माको-अमृतचंद्रज्योति (-अमृतमय चंद्रमाके समान ज्योति) कहा है, जो कि लुप्तोपमालंकार है; क्योंकि 'अमृतचन्द्रवत् ज्योतिः 'का समास करने पर 'वत्' का लोप होकर 'अमृतचन्द्रज्योतिः' होता है।
(यदि ‘वत्' शब्द न रखकर 'अमृतचंद्ररूप ज्योति' अर्थ किया जाये तो भेदरूपक अलंकार होता है। और 'अमृतचंद्रज्योति' ही आत्माका नाम कहा जाय तो अभेदरूपक अलंकार होता है।)
आत्माको अमृतमय चंद्रमाके समान कहने पर भी, यहाँ कहे गये विशेषणों के द्वारा आत्माका चंद्रमा के साथ व्यतिरेक भी है; क्योंकि--'ध्वस्तमोह' विशेषण अज्ञान-अंधकारका दूर होना बतलाता है, 'विमलपूर्ण' विशेषण लांछनरहितता तथा पूर्णता बतलाता है, निःसपत्नस्वभाव' विशेषण राहुबिंबसे तथा बादल आदिसे आच्छादित न होना बतलाता है, और 'समंतात् ज्वलतु' सर्व क्षेत्र और सर्व कालमें प्रकाश करना बतलाता है; चंद्रमा ऐसा नहीं है।
_इस श्लोकमें टीकाकार आचार्यदेवने अपना 'अमृतचंद्र' नाम भी बताया है। समास बदलकर अर्थ करनेसे 'अमृतचंद्र' के और 'अमृतचंद्रज्योति' के अनेक अर्थ होते हैं जो कि यथासंभव जानने चाहिये। २७६ ।
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समयसार
६१४
( शार्दूलविक्रीडित) यस्माद् द्वैतमभूत्पुरा स्वपरयोर्भूतं यतोऽत्रान्तरं रागद्वेषपरिग्रहे सति यतो जातं क्रियाकारकैः। भुञ्जाना च यतोऽनुभूतिरखिलं खिन्ना क्रियायाः फलं तद्विज्ञानघनौघमग्नमधुना किञ्चिन्न किञ्चित्किल।। २७७ ।।
अब श्रीमान् अमृतचंद्राचार्यदेव दो श्लोक कहकर इस समयसारग्रन्थकी आत्मख्याति नामकी टीका पूर्ण करते हैं।
'अज्ञानदशामें आत्मा स्वरूपको भूलकर रागद्वेषमें प्रवृत्त होता था, परद्रव्यकी क्रियाका कर्ता बनता था, क्रियाके फलका भोक्ता होता था, -इत्यादि भाव करता था; किन्तु अब ज्ञानदशामें वे भाव कुछ भी नहीं है ऐसा अनुभव किया जाता है।' इसी अर्थका प्रथम श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ यस्मात् ] जिससे ( अर्थात् जो पर संयोगरूप बंधपर्याय जनित अज्ञानसे) [ पुरा] प्रथम [ स्व-परयोः द्वैतम् अभूत् ] अपना और परका द्वैत हुआ ( अर्थात् स्वपरके मिश्रितपनारूप भाव हुआ), [यतः अत्र अन्तरं भूतं] द्वैतभाव होनेसे जिससे स्वरूपमें अंतर पड़ गया ( अर्थात् बंधपर्याय ही निजरूप ज्ञात हुई, [ यतः राग-द्वेष-परिग्रहे सति] स्वरूपमें अंतर पड़नेपर जिससे रागद्वेषका ग्रहण हुआ, [ क्रिया-कारकै: जातं] रागद्वेषका ग्रहण होनेपर जिससे क्रियाके कारक उत्पन्न हुए ( अर्थात् क्रिया और कर्ता-कर्मादि कारकोंका भेद पड़ गया), [ यतः च अनुभूति: क्रियायाः अखिलं फलं भुञ्जाना खिन्ना] कारक उत्पन्न होनेपर जिससे अनुभूति क्रियाके समस्त फलको भोगती हुई खिन्न हो गई, [ तत् विज्ञान-घन-ओघ-मग्नम् ] वह अज्ञान अब विज्ञानघन समूह में मग्न हुआ (अर्थात् ज्ञानरूप परिणमित हुआ) [ अधुना किल किञ्चित् न किञ्चित् ] इसलिये अब वह सब वास्तवमें कुछ भी नहीं है।
भावार्थ:-परसंयोगसे ज्ञान ही अज्ञानरूप परिणमित हुआ था, अज्ञान कहीं पृथक वस्तु नहीं था; इसलिये अब वह जहाँ ज्ञानरूप परिणमित हुआ कि वहाँ वह (अज्ञान ) कुछ भी नहीं रहा, अज्ञानके निमित्तसे राग, द्वेष , क्रियाके कर्तृत्व, क्रियाके फलका (-सुखदुःखका) भोक्तृत्व आदि भाव हुए थे वे भी विलय हो गये हैं; एक ज्ञान ही रह गया है। इसलिये अब आत्मा स्व-परके त्रिकालवर्ती भावोंको ज्ञाता-द्रष्टा होकर-जानते-देखते ही रहो। २७७।
___‘पूर्वोक्त प्रकारसे ज्ञानदशामें परकी क्रिया अपनी भासित न होनेसे , इस समयसारकी व्याख्या करने की क्रिया भी मेरी नहीं है, शब्दोंकी है'-इस अर्थका , समयसारकी व्याख्या करनेके अभिमानरूप कषायके त्यागका सुचक श्लोक अब कहते हैं:
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[परिशिष्टम्]
६१५
(उपजाति) स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्त्वैर्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः। स्वरूपगुप्तस्य न किञ्चिदस्ति ।
कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ।। २७८ ।। इति श्रीमदमृतचन्द्राचार्यकृता समयसारव्याख्या आत्मख्यातिः समाप्ता।।
श्लोकार्थ:- [स्व-शक्ति-संसूचित-वस्तु-तत्त्वैः शब्दैः] जिनने अपनी शक्तिसे वस्तुतत्त्व (-यथार्थ स्वरूप) को भलीभाँति कहा है ऐसे शब्दोंनें [इयं समयस्य व्याख्या ] इस समयकी व्याख्या ( -आत्मवस्तुका व्याख्यान अथवा समयप्राभृत शास्त्रकी टीका) [ कृता] की है; [ स्वरूप-गुप्तस्य अमृतचन्द्रसूरेः ] स्वरूपगुप्त ( - अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूप गुप्त) अमृतचंद्रसूरिका (इसमें) [ किञ्चित् एव कर्तव्यम् न अस्ति ] [ तेमां] कुछ भी कर्तव्य नहीं है।
भावार्थ:-शब्द तो पुद्गल है। वे पुरुषके निमित्तसे वर्ण-पद-वाक्यरूपसे परिणमित होते हैं; इसलिये उनमें वस्तुस्वरूपको कहनेकी शक्ति स्वयमेव है, क्योंकि शब्दका और अर्थका वाच्यवाचक संबंध है। इसप्रकार द्रव्यश्रुतकी रचना शब्दोंने की है यही बात यथार्थ है। आत्मा तो अमूर्तिक है, ज्ञानस्वरूप है। इसलिये वह मूर्तिक पुद्गलकी रचना कैसे कर सकता है ? इसीलिये आचार्यदेवने कहा है कि इस समयप्राभृतकी टीका शब्दोंने की है, मैं तो स्वरूपमें लीन हूँ, उसमें ( -टीका करनेमें) मेरा कोई कर्तव्य (कार्य) नहीं है।' यह कथन आचार्यदेवकी निर्भिमानताको भी सूचित करता है। अब यदि निमित्तनैमित्तिक व्यवहारसे ऐसा ही कहा जाता है कि अमुक पुरुषने यह अमुक कार्य किया है। इस न्यायसे यह आत्मख्याति नामकी टीका भी अमृतचंद्राचार्यकृत है ही। इसलिये पढ़ने-सुननेवालोंको उनका उपकार मानना भी युक्त है; क्योंकि इसके पढ़ने-सुननेसे पारमार्थिक आत्माका स्वरूप ज्ञात होता है, उसका श्रद्धान तथा आचरण होता है, मिथ्या ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण दूर होता है और परंपरासे मोक्षकी प्राप्ति होती है। मुमुक्षुओंको इसका निरंतर अभ्यास करना चाहिये। २७८।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामकी टीका समाप्त हुई।
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[अब पण्डित जयचंद्रजी भाषा टीका पूर्ण करते हैं:-]
कुंदकुंदमुनि कियो गाथाबंध प्राकृत है प्राभृतसमय शुद्ध आतम दिखावनूं, सुधाचंद्रसूरि करी संस्कृत टीका वर आत्मख्याति नाम यथातथ्य भावनूं; देशकी वचनिकामें लिखि जयचंद्र पढ़े संक्षेप अर्थ अल्पबुद्धिकू पावनूं, पढ़ो सुनो मन लाय शुद्ध आतमा लखाय ज्ञानरूप गहौ चिदानंद दरसावनूं। १
-दहा
समयसार अविकारका , वर्णन कर्ण सुनंत; द्रव्य-भाव-नोकर्म तजि , आतमतत्त्व लखंत। २।
इसप्रकार इस समयप्राभृत (अथवा समयसार) नामक शास्त्रकी आत्मख्याति नामकी संस्कृत टीकाकी देशभाषामय वचनिका लिखी है। इसमें संस्कृत-टीकाका अर्थ लिखा है और अति संक्षिप्त भावार्थ लिखा है, विस्तार नहीं किया है। संस्कृत टीकामें न्यायसे सिद्ध हुए प्रयोग हैं। यदि उनका विस्तार किया जाय तो अनुमान प्रमाणके पाँच अंगपूर्वक-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमनपूर्वक-स्पष्टतासे व्याख्यान करनेपर ग्रंथ बहुत बढ़ जाय; इसलिये आयु, बुद्धि , बल और स्थिरताकी अल्पताके कारण, जितना बन सका है उतना, संक्षेपसे प्रयोजनमात्र लिखा है। इसे पढ़कर भव्य जन पदार्थको समझना। किसी अर्थमें हीनाधिक्ता हो तो बुद्धिमान जन मूल ग्रंथानुसार यथार्थ समझ लेना। इस ग्रंथके गुरु-संप्रदायका ( -गुरुपरंपरागत उपदेशका) व्युच्छेद हो गया है, इसलिये जितना हो सके उतना यथाशक्ति अभ्यास हो सकता है। तथापि जो स्याद्वादमय जिनमतनी आज्ञा मानते हैं, उन्हें विपरीत श्रद्धान नहीं होता। यदि कहीं अर्थको अन्यथा समझना भी हो जाये तो विशेष बुद्धिमानका निमित्त मिलनेपर यथार्थ हो जाता है। जिनमतके श्रद्धालु हठग्राही नहीं होते।
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[अब पण्डित जयचंद्रजी भाषा टीका पूर्ण करते हैं:-]
६१७
___ अब अंतिम मंगल के लिये पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करके ग्रन्थ समाप्त करते
मंगल श्री अरहंत घातिया कर्म निवारे, मंगल सिद्ध महंत कर्म आठों परजारे; आचारज उवज्झाय मुनि मंगलमय सारे, दीक्षा शिक्षा देय भव्यजीवनिकू तारे; अठवीस मूलगुण धार जे सर्वसाधु अनगार हैं, मैं नमुं पंचगुरुचरणकू मंगल हेतु करार हैं। १। जैपुर नगरमांहि तेरापंथ शैली बड़ी । बड़े बड़े गुनी जहां पढ़े ग्रंथ सार है, जयचंद्रनाम मैं हूं तिनिमें अभ्यास किछू कियो बुद्धिसारु धर्मरागतें विचार है; समयसार ग्रंथ ताकी देशके वचनरूप भाषा करी पढ़ो सुनौ करो निरधार है, आपापर भेद जानि हेय त्यागि उपादेय गहो शुद्ध आतमकू, यहै बात सार है। २।
(दोहा) संवत्सर विक्रम तणूं, अष्टादश शत और; चौसठि कातिक बदि दशै, पूरण ग्रंथ सुठौर। ३।
इसप्रकार श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत समयप्राभृत नामक प्राकृतगाथाबद्ध परमागमकी श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामकी संस्कृत टीका अनुसार पंडित जयचंद्रजी कृत संक्षेपभावार्थमात्र देशभाषामय वचनिकाके आधारसे श्री हिंमतलाल जेठालाल शाह कृत गुजराती अनुवादका हिन्दी अनुवाद समाप्त हुआ।
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संसारका बीज
एवमयं कर्मकृतैर्भावैरसमाहितोऽपि युक्त इव । प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभासः स खलु भव बीजम् ।। १४ ।।
(पुरुषार्थसिद्धि-उपाय)
अर्थ:--- इसप्रकार यह आत्मा कर्मकृत (रागादि और शरीरादि) भावोंसे असंयुक्त होनेपर भी अज्ञानियोंको संयुक्त जैसे प्रतिभासित होता है; वह प्रतिभास वास्तवमें संसारका बीज है।
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श्री समयसारकी वर्णानुक्रम गाथासूची
गाथा | पृष्ठ
| गाथा | पृष्ठ
५०६
११५
| १८२
१
अ
असुहं सुहं व दव्वं
३८१ ५०९ अज्ज्ञवसाणणिमित्तं
२६७ । | ३७९ | असुहं सुहं व रूवं
३७६ | ५०६ अज्झवसिदेण बन्धो
| २६२ । ३७४ | असुहो सुहो व गंधो | ३७७ | ५०७ अट्ठवियप्पे कम्मे
१८२ | २७३ | असुहो सुहो व गुणो | ३८० | ५०९ अट्टविहं पि य कम्म ४५ । ८७ असुहो सुहो व फासो
३७९
५०९ अण्णदविएण
३७२ | ५०२ असुहो सुहो व रसो ३७८ अण्णाणमओ भावो १२७ । १९१ असुहो सुहो व सद्दो
३७५
५०३ अण्णाणमया भावा १२९ | १९३ अह जाणगो दु भावो ३४४
४८१ अण्णाणमया भावा
१३१ | १९५ अह जीवो पयडी तह ३३० ४५५ अण्णाणमोहिदमदी
अह ण पयडी ण जीवो ३३१ ४५५ अण्णाणस्स स उदओ
१३२ । १९७ अह दे अण्णो कोहो अण्णाणी कम्मफलं
३१६ ४४२ अहमिक्को खलु सुद्धो ३८ । ७६ अण्णाणी पुण रत्तो २१९ |३२६ अहमिक्को खलु सुद्धो
७३ | १२८ अण्णो करेदि अण्णो ३४८ । ४७१ | अहमेदं एदमहं
२० । ५२ अत्ता जस्सामुत्तो ४०५ ५५५ | अहवा एसो जीवो
३२९ । ४५५ अप्पडिकमणं दुविहं
| २८३ | ४०० | अहवा मण्णसि मज्झं |३४१ अप्पडिकमणं दुविहं दवे २८४
४००
अह सयमप्पा परिणमदि । १२४ १८७ अपरिग्गहो अणिच्छो
२१० । | ३१६ अह सयमेव हि परिणमदि । ११९ | १८४ अपरिग्गहो अणिच्छो २११ | ३१७ | अह संसारत्थाणं
| ६३
| १०९ अपरिग्रहो अणिच्छो
२१२ । | ३१८
आ अपरिग्गहो अणिच्छो २१३ । ३१९ | आउक्खयेण मरणं
२४८ ३६३ अपरिणमंतम्हि सयं १२२ | १८७ | आउक्खयेण मरणं
२४९ अप्पडिकमणमप्पडिसरणं ३०७ ४२९ | आऊदयेण जीवदि
२५१ | ३६५ अप्पाणं झायंतो १८९ | २८१ । आऊदयेण जीवदि
२५२ |३६५ अप्पाणमप्पाणा रुधिऊण | १८७ | २८१ | आदम्हि दव्वभावे
२०३ |३०४ अप्पाणमयाणंता ३९ । ७१ | आदा खु मज्झ णाणं २७७
| ३९१ अप्पाणमयाणतो २०२ |३०२ आधाकम्मं उद्देसियं
२८७ ४०२ अप्पा णिच्चो असंखिज्जपदेसो | ३४२ | ४६१ | आधाकम्माईया
२८६ ४०२ अरसमरूवमगंधं ४९ । ९० । आभिणिसुदोधि
२०४ अवरे अज्झवसाणेसु ४० । ८१ | आयारादी णाणं
२७६ । ४९१
| ३६३
वि
३०६
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६२०
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आयासं प ण णाणं
आसि मम पुव्वमेदं
इ
इणमण्णं जीवादो इय कम्मबंधणाणं
उ
उदओ असंजमस्स दु उदयविवागो विविहो
उप्पण्णोदयभोगो
उप्पादेदि करेदि य
उम्मग्गं गच्छंतं
उवओगस्स अणाई
उवओगे उवओगो
उवघायं कुव्वंतस्स
उवघायं कुव्वंतस्स उवभोगभिंदियेहिं
ए
एएण कारणेण दु एए सव्वे भावा एएसु य उवओगो
एहिं य संबंध
एक्कं च दोण्णि तिण्णि
एकस्स दु परिणामो
एकस्स दु परिणामो एदम्हि रदो णिच्चं
एदाणि णत्थि जेसिं
दाहिं यणिव्वत्ता
एदे अचेदणा खलु
एदेण कारणेण दु
एण दुसो कत्ता एदेसु हेदुभूदेसु मादिए दु विवि
गाथा
४०१
२१
२८
२९०
१३३
१९८
२१५
१०७
२३४
८९
१८९
२३९
२४४
१९३
८२
४४
९०
५७
६५
१४०
१३८
२०६
२७०
६६
१११
१७६
९७
१३५
२९४
समयसार
पृष्ठ
५४७
५२
६०
४०७
१९७
२९७
३२१
१७७
३४६
१५२
२७३
३५३
३५८
२९०
१४०
८४
१५३
१०३
१११
२०१
२००
३११
३८३
११११
१७९
२६१
१६३
१९७
३१९
एमेव कम्मपयडी
एमेव जीवपुरिसो
एमेव मिच्छदिट्ठी
एमेव य ववहारो
एमेव सम्मदिट्ठी
एयं तु अविवरीदं
एयं तु जाणिऊण एयत्तणिच्छयगओ
एयत्तु असंभूदं एवमलिये अदत्ते एवमिह जो दु जीवो एवहि सावराहो
एवं जाणदि णाणी
एवं ण को वि मोक्खो
एवं णाणी सुद्धो
एवं तु णिच्छयणयस्स
एवं पराणि दव्वाणि एवं पुग्गलदव्वं
एवं बंधो उ दुण्हं वि
एवं मिच्छादिट्ठी
एवं ववहारणओ
एवं ववहारस्स दु
एवं ववहारस्स दु
एवंविहा बहुविहा
एवं संखुवएसं
एवं सम्मद्दिट्ठी
एवं सम्मादिट्ठी
एवं हि जीवराया
एसा दुजा मदी दे
क
कणयमया भावादो
कम्मइयवग्गणासु य कम्मं जं पुव्वकयं
गाथा
१४९
२२५
३२६
४८
२२७
३३२
४५२
८९*
२२७
३३२
१८३
२७३
३८२ ५०९
३
१०
२२
५२
२६३
३७५
१९४
१८२
३०३ ४२४
१८५
२७७
४५०
३९४
४८३
१६१
१०९
४३९
३५३
३८७
४७९
४८४
८२
३२३
२७९
३६०
९६
६४
३१३
२४१
२७२
३५३
३६५
४३
३४०
२००
२४६
१८
२५९
१३०
१९७
३८३
पृष्ठ
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४६१
३९८
३५८
४६
३७२
१९५
९८४
५१३
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श्री समयसारकी वर्णानुक्रम गाथासूची
| गाथा | पृष्ठ |
गाथा | पृष्ठ ।
| ३८४ ३९७ ३११ १४२ १४५ १९२
७५ ४१
कम्मं जं सुहमसुहं कम्मं णाणं ण हवदि कम्मं पडुच्च कत्ता कम्मं बद्धमबद्धं कम्ममसुहं कुसीलं कम्मस्सा भावेण य कम्मस्स य परिणाम कम्मस्सुदयं जीवं कम्मे णोकम्मम्हि य कम्मेहि दु अण्णाणी कम्मेहि भमाडिज्जदि कम्मेहि सुहाविज्जदि कम्मोदएण जीवा कम्मोदएण जीवा कम्मोदएण जीवा | कह सो घिप्पदि अप्पा कालो णाणं ण हवदि केहिंचि दु पज्जएहिं केहिंचि दु पज्जएहिं को णाम भणिज्ज बुहो को णाम भणिज्ज बुहो कोहाइसु वटुंतस्स कोहुवजुत्तो कोहो
३३२
३३४ | ३३३ | २५४ | २५५
२५६ |२९६
४००
३४५ | ३४६
२०७ | ३००
७०
| ५१३ । छिंददि भिंददि य तहा |२४३ । ३५७ ५४७ | छिज्जदु वा भिज्जदु वा । २०९ ।३१४ ।
४३७ | २०३ | २२३ | जं कुणदि भावमादा | ९१ | १५४ | २८४ | जं कुणदि भावमादा । १२६ । १९० | १३१ |जं भावं सुहमसुहं | १०२ | १७२ । ८२ | जं सुहमसुहमुदिण्णं ।३८५ ।५१३ | ४९ | जइ जीवेण सह च्चिय | १३७ २०० | ४५९ | जइ ण वि कुणदि च्छेदं | २८९ ४०७ ४५९ | जइया इमेण जीवेण
७१ | १२३ | ४५९ | जइया स एव संखो |२२२ । ३२८ ३६७ | जदि जीवो ण सरीरं
| ५८ । ३६७ | जदि पुग्गलकम्ममिण । ८५ | १४५ ३६८ | जदि सो परदव्वाणि य । ९९ १६९ ४१६ । जदि सो पुग्गलदव्वी २५ । ५५ | ५४६ | जम्हा कम्मं कुव्वदि | ३३५ ४६० |४७१ | जम्हा घादेदि परं
३३८ | ४६० ४७१ | जम्हा जाणदि णिच्चं | ४०३ ।५४७ | ३१२ | जम्हा दु अत्तभावं
८६ | १४६ | ४२२ | जम्हा दु जहण्णादो | १७१ ।२५६ | १२१ | जदा विमुंचए चेया ३१५ १८७ | जह कणयमग्गितवियं
१८४ २७७ | जह को वि णरो जंपद |३२५ ४५२ | १०४ |जह चेहूँ कुव्वंतो
३५५
| ४७७ | जह जीवस्स
१८२ अणण्णुवओगो | १८० जह ण वि सक्कमणज्जो । ८ । १९
जह णाम को वि पुरिसो । १७ । ४६ | २५६ |जह णाम को वि पूरिसो | ३५ । ७० | २४२ | जह णाम को वि पुरिसो | १४८ । २२७ |४३९ |जह णाम को वि पुरिसो |२३७ ।। | ३५३
जह णाम को वि पुरिसो २८८ ४०७
जह परदव्वं सेडदि ३६१ । ४८३ ३५३ | जह परदव्वं सेडदि | ३६२ | ४८३ ।।
१२५
गंधरसफासरूवा गंधो णाणं ण हवदि
| ६०
३९४
११३
गुणसण्णिदा दु एदे
११२
चउविह अणेयभेयं चारितपडिणिबद्धं चेदा दु पयडीअटुं
१७० | १६३ | ३१२
| छिंददि भिंददि य तहा
| २३८
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समयसार
६२२
| गाथा | पृष्ठ |
| गाथा | पृष्ठ
८
१७१
शाद
जह परदव्वं सेडदि | ३६३ | ४८४ | जीवस्साजीवस्स दु ३०९ । ४३६ जह परदव्वं सेडदि ३६४ | ४८४ | जीवादीसदहणं
१५५ २३५ जह पुण सो चिय पुरिसो २२६ ३३२ | जीवे कम्मं बद्धं ।
१४१ । २०२ जह पुण सो चेव णरो २४२ । ३५७ | जीवे ण सयं बद्धं
११६ १८४ जह पुरिसेणाहारो १७९ २६७ | जीवो कम्म उहयं
४२ जह फलिहमणी सुद्धो
२७८
३९४ | जीवो चरित्तदंसण जह बंधे चिंतंतो २९१ ४०९ | जीवो चेव हि एदे
६२ । १०८ जह बंधे छित्तूण य २९२ ४१० | जीवो ण करेदि घडं
१०० । १७० जह मज्जं पिबमाणो १९६ २९४ | जीवो परिणामयदे
११८ १८४ जह राया ववहारा १०८ | १७८ | जीवो बंधो य तहा
२९४ । ४११ जह विसमुव जंतो १९५ | २९३ | जीवो बंधो य तहा
२९५ । ४१५ जह सिप्पि दु कम्मफलं | ३५२ | ४७६ | जे पुग्गलदव्वाणं
१०१ । जह सिप्पिओ दु कम्म ३४९ | ४७६ | जो अप्पणा दु मण्णदि २५३ ३६६ जह सिप्पिओ दु करणाणि । ३५१ ४७६ | जो इंदिये जिणित्ता
३१ । ६४ जह सिप्पिओ दु करणेहिं ३५० ४७६ | जो कुणदि वच्छलत्तं २३५ । ३४७ जह सिप्पिओ दु चिट्ठ | ३५४ ४७७ | जो चत्तारि वि पाए २२९ ३४१ जह सेडिया दु ण परस्स | ३५६ | ४८२ | जो चेव कुणदि सो चिय । | ३४७
| ४८३ जह सेडिया दु ण परस्स ३५७ . | ४८३ | जो जम्हि गुणे दव्वे १०३ ।
१७३ जह सेडिया दु ण परस्स ३५८ ४८३ | जो ण करेदि जुगुप्पं २३१ । ३४३ | जह सेडिया दु ण परस्स | ३५९ ४८३ | जो ण कुणदि अवराहे |३०२ ४२४ जा एस पयडीअटुं ३१४ ४४१ | जो ण मरदि ण य दुहिदो
| २५८
३७० जावं अप्पडिकमणं
२८५ | ४०० | जो दु ण करेदि कंखं जाव ण वेदि विसेसंतरं ६९ | १२१ | जोधेहिं कदे जुद्धे
| १७६ जिदमोहस्स दु जइया ३३ । ६७ | जो पस्सदि अप्पाणं
१४ जीवणिबद्धा एए ७४ | १२९ | जो पस्सदि अप्पाणं
१५
| ४१ जीवपरिणामहेदं
। ८० | १४० | जो पुण णिरवराधो | ३०५ ४२६ जीवम्हि हेदुभूदे | १७५ | जो मण्णदि जीवेमि य
३३४ जीवस्स जीवरूवं
|३४३ | ४७६ | जो मण्णदि हिंसामि य |२४७ | ३६२ जीवस्स जे गुणा केइ
| ४९७ | जो मरदि जो य दुहिदो । २५७ ३७० जीवस्स णत्थि केइ
९६ | जो मोहं तु जिणित्ता जीवस्स णत्थि रागो । ५१ ९५ जो वेददि वेदिज्जदि |२१६ ३२२ जीवस्स णत्थि वग्गो
५२
| ९६ | जो समयपाहुडमिणं ।
४१५ ५६७ जीवस्स पत्थि वण्णो
५० ९५ | जो सव्वसंगमुक्को | १८८ २८१ जीवस्स दु कम्मेण य | २०१ | जो सिद्धभत्तिजुत्तो
२३३ ३४५
२३०
३४२
१०६
१०५
| १७
|
२५०
।
३७०
३२
६५
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श्री समयसारकी वर्णानुक्रम गाथासूची
६२३
|
| गाथा | पृष्ठ |
| गाथा | पृष्ठ ।
| जो सुयणाणं सव्वं
जो सो दु णेहभावो | जो सो दु णेहभावो | जो हवदि असम्मढो | जो हि सुएणहिगच्छइ
। २१८
७२ ३७३
३८६ । ८३
|३२६ ।। | १२४
५०६ । ५१३
| १४२
१२०
| १८४ | ४४५
३१८
३१७
ण कुदोचि वि उप्पण्णो णज्झवसाणं णाणं णत्थि दु आसवबंधो णत्थि मम को वि मोहो णत्थि मम धम्मआदी | ण दु होदि मोक्खमग्गो ण मुयदि पयडिमभव्यो णयरम्भि वण्णिदे जह ण य रागदोसमोहं ण रसो दु हवदि णाणं ण वि एस मोक्खमग्गो ण वि कुव्वदि कम्मगुणे ण वि कुव्वइ ण वि वेयइ ण वि परिणमदि ण गिण्हदि ण वि परिणमदि ण गिण्हदि ण वि परिणमदि ण गिण्हदि ण वि परिणमदि ण गिण्हदि ण वि सक्कदि धेत्तु ज ण वि होदि अप्पमत्तो | ण सयं बद्धो कम्मे
णाणं सम्मादिटुं | णाणगुणेण विहीणा णाणमधम्मो ण हवइ णाणमया भावाओ णाणस्स दंसणस्स य णाणस्स पडिणिबद्धं णाणावरणादीयस्स
| १० | २० |णाणी रागप्पजहो
२४० | ३५३ । णादूण आसवाणं २४५ । ३५८ |णिंदियसंथ्यवयणाणि |२३२ ३४४ णिच्चं पच्चक्खाणं । ९ । २० णिच्छयणयस्स एवं
णियमा कम्मपरिणदं
णिव्वेयसमावण्णो ३१० ४३७ णेव य जीवट्ठाणा ४०२
५४७ । णो ठिदिबंधट्ठाणा | १६६ | २५० ।
त | ३६ । ७२ | तं एयत्तविहत्तं | ३७ | ७५ | तं खलु जीवणिबद्धं | ४०९ ५५७ । तं णिच्छये ण जुज्जदि
| तं जाण जोगउदय ३० । ६२ । तत्थ भवे जीवाणं
३९६ | तम्हा दु जो विसुद्धो | ३९५ ।५४६ | तम्हा जहित्तु लिंगे
४१० ५५८ । | तम्हा ण को वि जीवो | ८१ | १४० | तम्हा ण को वि जीवो ३१९ ।
तम्हा ण मे त्ति णचा । ७६ १३४ तम्हा दु कुसीलेहिं य । ७७ | १३५ तह जीवे कम्माणं
७८ १३७ | तह णाणिस्स दु पुव्वं
७९ । १४८ तह णाणिस्स वि विविहे | ४०६ ५५५ | तह णाणी वि ह जइया | ६ | १५ | तह वि य सच्चे दत्ते | १२१ | १८७ |तिविहो एसुवओगो
४०४ | ५४८ | तिविहो एसुवओगो | २०५ | ३०९ । तेसिं पुणोवि य इमो
| ५४७ । तेसिं हेदू भणिदा १२८ | १९३ | ३६९ | ४९७ थेयादी अवराहे १६२ | २४१ १६५ | २४९ | दंसणणाणचरित्तं
| १३६ ।। | १९७ । २९ । ६१
१३४ | १९७ |६१ १०६
४०७ ५५५ ४११ |३३७ ४६० | ३३९ ।। | ४६०
३२७ । ४५२
१४७ । २२७ । ५९ | १०४
१८० । | २६७ |२२१ | ३२८ | २२३ । ३२८
|३७५ ९४ | १५९
२६४
| ११०
१९०
। १७९ | २८४
३०१
। ४२४
१७२
| २५७
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६२४
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दंसणणाणचरित्तं किंचि दंसणणाणचरित्तं किंचि
दंसणणाणचरित्तं किंचि
दंसणणाणचरित्ताणि
दव्वगुणस्स य आदा
दवियं ज उप्पज्जइ दव्वे उवभुंजंते दिट्ठी जव णाणं दुक्खिदसुहिदे जीवे दुक्खिदसुहिदे सत्ते
दोह वि णयाण भणिदं
ध
धम्माधम्मं च तहा धम्मो णाणं ण हवदि
प
पंथे मुस्तं पस्सिदूण पक्के फलम्हि पडिए
पज्जत्तापज्जत्ता पडिकमण पडिसरणं पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा
पण्णा घित्तव्वो जो णादा
पण्णाए घित्तव्वो जो दट्ठा
परमट्ठबाहिरा जे
परमट्ठम्हि दु अठिदो
परमट्ठो खलु समओ
परमप्पाणं कुव्वं
परमप्पाणमकुव्वं परमाणुमित्तयं पहु
पासंडीलिंगाणि व
पासंडीलिंगेसु व पोग्गलकम्मं कोहो
पोग्गलकम्मं मिच्छं
गाथा पृष्ठ
३६६
३६७
३६८
१६
१०४
३०८
१९४
२६९
३९८
समयसार
३२०
२६६ ३७८
२६०
३७२
१४३
२१४
५८
१६८
६७
३०६
२९७
२९९
२९८
१५४
१५२
१५१
४९७
४९७
४९७
४४
१७४
४३६
२९१
४४७
३७९
५४७
१०४
२५३
१९३
४२९
४१६
४१९
४१९
२३४
२३२
२३०
९२
१५६
९३
१५७
२०१
३०१
४०८
५५७
४१३ ५६३
१२३
१८७
८८
१५१
पोग्गलकम्मं रागो पुढवीपिंडसमाणा पुरिसित्थियाहिलासी रिस जह को वि इहं पोग्गलदव्वं सद्दत्तपरिणयं
फ
फासो ण हवदि णाणं
ब
बंधाणं च सहावं
बंधुभणिमित् बुद्धी ववसाओ वि य
भ
भावो रागादिजुदो भुंजंतस्स वि विविहे भूयत्थेणाभिगदा
म
मज्झं परिग्गहो जदि
मारिभि जीवावेमि य
मिच्छत्तं अविरमणं
मिच्छत्तं जदि पयडी
मिच्छत्तं पुण दुविहं
मोक्खं असद्दहंतो
मोक्खहे अप्पाणं
मोत्तूण णिच्छ मोहणकम्मस्सुदया
र
रत्तो बंधदि कम्मं
रागो दोसो मोहो जीवस्सेव
रागो दोसो मोहो य
रागम्हि य दोसम्हि य
रागम्हि य दोसम्हि य
गाथा
१९९
१६९
३३६
२२४
३७४
३९६
२९३
२१७
२७१
१६७
२२०
१३
२०८
२६१
१६४
३२८
८७
२७४
४१२
१५६
६८
१५०
३७१
१७७
२८१
२८२
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पृष्ठ
२९७
२५४
४६०
३३२
५०६
५४६
४१०
३२४
३८५
२५२
३२८
२९
३१३
३७३
२४९
४५५
१५०
३८९
५६०
२३६
१९५
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२६४
३९६
३९८
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श्री समयसारकी वर्णानुक्रम गाथासूची
६२५
|
| गाथा | पृष्ठ |
| गाथा | पृष्ठ ।
|३८९
| ५१७
| राया ह णिग्गदो त्ति य रूवं णाणं ण हवदि
लोयसमणाणमेयं लोयस्स कुणदि विण्हू
व वंदित्तु सव्वसिद्धे वण्णो णाणं ण हवदि वत्थस्स सेदभावो वत्थस्स सेदभावो वत्थस्स सेदभावो वत्थु पडुच्च जं पुण वदणियमाणि धरंता वदसमिदीगुत्तीओ ववहारणयो भासदि ववहारभासिदेण ववहारस्स दरीसणववहारस्स दु आदा । ववहारिओ पुण णओ ववहारेण दु आदा ववहारेण दु एदे ववहारेणुवदिस्सइ ववाहारोऽभूयत्थो विज्जारहमारूढो वेदंतो कम्मफलं अप्पाणं वेदंतो कम्मफलं मए
| ४७ । ८९ | वेदंतो कम्मफलं सुहिदो ३९२ । | ५४६
संता दुणिरुवभोज्जा |३२२ | ४५० | संसिद्धिराधसिद्धं ३२१ ४४९ सत्थं णाणं ण हवदि
सद्दहदि य पत्तेदि य
सद्दो णाणं ण हवदि ३९३ ५४६ | सम्मत्तपडिणिबद्धं १५७ २३८ | सम्मईसणणाणं १५८ २३८ | सम्मद्दिट्ठी जीवा
२३८ | सव्वण्हुणाणदिह्रो | २६५ । ३७६ | सव्वे करेदि जीवो।
२३२ | सव्वे पुव्वणिबद्धा २७३ | ३८८ | सव्वे भावे जम्हा २७ । ५९ | सामण्णपच्चया खलु ३२४ । ४५२ | सुदपरिचिदाणुभूदा ४६ । ८८ | सुद्धं तु वियाणंतो ८४ | १४३ । | सुद्धो सुद्धादेसो ४१४ ५६३ | सेवंतो वि ण सेवदि ९८ | १६८ | सोवण्णियं पि णियलं ५६ | १०२ | सो सव्वणाणदरिसी ७ । १७ ।
ह ११ । २२ । | २३६ |३४९ | हेउअभावे णियमा ३८७
| हेदू चदुवियप्पो | ३८८ | ५१६ |होदूण णिरुवभोज्जा
|१७५ २६१ | ३०४ ४२६ ।
३९० । २७५ | ३९० ३९१ १६१ २४१ १४४ २१६ २२८ | ३३६
२४ । ५५ २६८ । | ३७९ १७३ | २६०
३४ १०९ | १७९
१८६ | १२ १९७ १४६ १६०
२७९ | २५ । २९५ । २२६ | २४०
१९१ | २८४ ।। | १७८ | २६४ १७४ | २६० ।
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कलशकाव्योंकी वर्णानुक्रम सूची
कलश | पृष्ठ
कलश | पृष्ठ
१४४
१४९
१३८
अ | अस्मिन्ननादिनि
४४ | ११८ अकर्ता जीवोऽयं १९५ ४३९
आ अखंडितमनाकुलं
। १४ । ४३ | आक्रामन्नविकल्पभावमचलं । ९३ अचिन्त्यशक्ति: स्वयमेव | ३१२ | आत्मनश्चिंतयैवालं
| ४६ अच्छाच्छाः स्वयमच्छलन्ति । १४१ ३०८ | आत्मभावान्करोत्यात्मा
५६ अज्ञानतस्तु सतृणाभ्यव- ५७ | १६५ | आत्मस्वभावं परभावभिन्न- । १० ३५ अज्ञानमयभावानामज्ञानी ६८ | २९७ । | आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं
१६७ अज्ञानमेतदधिगम्य १६९ |३५१ . आत्मानं परिशुद्धमीप्सूभि
२०८ ४७४ अज्ञानान्मृगतृष्णिकां जलधिया | ५८ | १६५ । आत्मानुभूतिरिति
१३ ४० अज्ञानं ज्ञानमप्येवं ६१ | १६७ । असंसारत एव धावति
११९ अज्ञानी प्रकृतिस्वभाव- १९७ | ४४३ | आसंसारविरोधिसंवर
१२५ २७२ अतो हताः प्रमादिनो १८८ । ४३१ | आसंसारात्प्रतिपदममी
३०३ अतः शुद्धनयायत्तं
७ । २९ अत्यन्तं भावयित्वा विरति- |२३३ ।५४४ अत्र स्याद्वादशुद्ध्यर्थ २४७ | ५७० | इति परिचितत्त्वै
२८ । ६८ अथ महामदनिर्भरमन्थरं
२४८ | इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी । १७६ |३९६ अद्वैतापि हि चेतना
| १८३ | ४२१ । इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी | १७७ |३९७ अध्यास्य शुद्धनय१२० | २६६ | इति सति सह
३१ । ७६ अध्यास्यात्मनि सर्वभावभवनं । २५९ ५८३ | इतीदमात्मनस्तत्त्वं ।
२४६ | ५६८ अनंतधर्मणस्तत्त्वं २ | २ | इतः पदार्थप्रथनावगंठना
२३४
५४५ अनवरतमनन्तै१८७ | ४२७ | इतो गतमनेकतां
२७३ अनाद्यनंतमचलं
४१ । ११६ | इत्थं ज्ञानक्रकचकलनाअनेनाध्यवसायेन १७१ ३७० | इत्थं परिग्रहमपास्य
१४५ । ३१५ अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं | २३५ ५५३ | इत्यज्ञानविमूढानां
२६२ । ५८५ अयि कथमपि मृत्वा । २३ । ५७ | इत्याद्यनेकनिजशक्ति-
२६४ ६०६ अर्थालम्बनकाल एव कलयन् | २५७ ।५८२ | इत्यालोच्य विवेच्य
| १७८ । ३९८ अलमलमतिजल्पै२४४ ५६६ | इत्येवं विरचय्य संप्रति
४८ अवतरति न यावद २९ | ७२ | इदमेकं जगच्चक्षु
२४५ ५६६ | अविचलितचिदात्म-
__
२७६ ।६०२ | इदमेवात्र तात्पर्य २७६ ६०२ | इदमवात्र तात्पर्य
| १२२ २६९ |
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कलशकाव्योंकी
६२७
-
|
| कलश | पृष्ठ |
| कलश | पृष्ठ |
इन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत्
। ९१
उदयति न नयश्रीउन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत् उभयनयविरोध
९ २३६ ४
१५
८६
| एकज्ञायकभावनिर्भर- १४० एकत्वं व्यवहारतो न तु
२७ एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो । ६ एकमेव हि तत्स्वाद्यं
१३९ एकश्चितश्चिन्मय एव भावो १८४ एकस्य कर्ता
७४ एकस्य कार्य एकस्य चेत्यो एकस्य चैको
८१ एकस्य जीवो
| ७६ एकस्य दुष्टो
७३ एकस्य दृश्यो
| ८७ एकस्य नाना
८५ एकस्य नित्यो एकस्य बद्धो एकस्य भातो एकस्य भावो एकस्य भोक्ता
७५ एकस्य मूढो एकस्य रक्तो
| ७२ एकस्य वस्तुर्न इहान्यतरेण । एकस्य वाच्यो एकस्य वेद्यो
८८ एकस्य सान्तो
८२ एकस्य सूक्ष्मो
७७ एकस्य हेतुर्न
। ७८
| २१३ । एकं ज्ञानमनाद्यनन्तमचलं | १६० ३४० ।
एक: परिणमति सदा | ५२ | १४८ एक: कर्ता चिदहमिह
१२० । ३४ | एको दुरात्त्यजति मदिरां
१०१
२२३ ५५४ । एको मोक्षपथो य एष २०४ । । २६ | एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य
२३८ ५५७ एवं तत्त्वव्यवस्थित्या
२६३ ६८६ एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा
। ४३ ३०६ । एषैकैव हि वेदना
| १५६ ३३७ ।। ६८ । २८ | ३०५ । कथमपि समुपात्त
२० । ४८ ४२२ | कथमपि हि लभन्ते
२१ २०७ | कर्ता कर्ता भवति न यथा
| २२१ २०९ | कर्ता कर्मणि नास्ति । ९८ २२० । २११ | कर्तारं स्वफलेन यत्किल । २०९ | कर्तुर्वेदयितुश्च युक्तिवशतो | २०९ ४७५ | २०८ | कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्य १९४ ४३६
२०७ | कर्म सर्वमपि सर्वविदो १०३ | २२९ | २११ | कर्मैव प्रवितर्व्य कर्तृ हतकैः | २०४ । ४५८ | २११ | कषायकलिरेकत:
२७४ ।६०० २१० | कान्त्यैव स्नपयन्ति ये
२४ । ५९ २०५ | कार्यत्वादकृतं न कर्म
२०३ ४५८ | २१२ | कृतकारितानुमननै
२२५
| ५१८ २०९ | क्लिश्यन्तां स्वयमेव
१४२
| ३०९ २०९ | क्वचिल्लसति मेचकं
२७२ ५९९ २०६ | २०६ | ४५४ । क्षणिकमिदमिहैक:
२०६ ४६९ २१०
घ २१२ २१० | घृतकुम्भाभिधानेऽपि __ ४०
४० | ११४ । | २०७
च २०८ | चिच्छक्तिञ्याप्तसर्वस्व- | ३६ ९५ ।
| ८३
७१
२०१
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समयसार
६२८
|
| कलश | पृष्ठ |
| कलश | पृष्ठ ।
| चित्पिण्डचण्डिमविलासि- चित्रात्मशक्तिसमुदायमयो चिरमिति नवतत्त्वचित्स्वभावभरभावितभावाचैद्रूप्यं जड़पतां च
४५
जयति सहजतेज:जानाति यः स न करोति जीवः करोति यदि पुद्गलकर्म जीवाजीवविवेकपुष्कलदृशा जीवादजीवमिति
ज्ञ ज्ञप्तिः करोतौ न हि ज्ञानमय एव भाव: ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि ज्ञानस्य सञ्चेतनयैव नित्यं ज्ञानादेव ज्वलनपयसोज्ञानाद्विवेचकतया तु ज्ञानिन् कर्म न जातु ज्ञानिनो न हि परिग्रहभावं ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ताः ज्ञानी करोति न ज्ञानी जानन्नपीमां ज्ञेयाकारकलङ्कमेचकचिति
| २६८ । ५९६ | त्यक्तं येन फलं स कर्म | १५३ ३३४ ।। | २७० | ५९७ | त्यक्त्याऽशुद्धिविधायि | १९१ । ४३३ | ८ | ३२ । त्यजतु जगदिदानीं
२२ । ५४ ९२ | २१५ | १२६ । २७६ ।
दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा | २३९ ५६०
दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रित्वा- | १६ । ४५ २७५ ६०१ दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रिभिः | १७ | | १६७ |३६१ | दूरं भूरिविकल्पजालगहने | ९४ । २१८
| १७९ | द्रव्यलिङ्गममकारमीलितै- | २४३ ८० | द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकच
४०६ | ४३ । ११८ ।
धीरोदारमहिम्न्यनादिनिधने | १२३ । २६९ । ९७ । २१९
६६ | १९३ | १४९ ३२६ । न कर्मबहुलं जगन्न | १६४ ३५३ ।। | २२४ ।५१६ । न जातु रागादि- ___ | १७५ | ३९६ . ६० | १६७ | नन परिणाम एव किल । २११ ।५८०
| १६६ | नमः समयसाराय | १५१ ३३० । न हि विदधति बद्ध- ११ । ३९ | १४८ । ३२५ | नाश्नुते विषयसेवनेऽपि । १३५ । २९४ . | नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः
२०० | ४५१ १९८ । ४४६ | निजमहिमरतानां
२२८ ५३० ५० | १३९ | नित्यमविकारसस्थित२५१ । ५७८ | निर्वर्त्यते येन यदत्र किञ्चित् । ३८ ११२ निःशेषकर्मयफल
२३१ ५४३ निषिद्धे सर्वस्मित्
१०४ २३० | २६१ ।५८४ ।। नीत्वा सम्यक् प्रलय
४३५ १६१ | ३४१ | नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ ५४ | १४९
| नैकान्तसङ्कतदृशा स्वयमेव |२६५ ।६०१ नोमौ परिणमतः खलु
| १४८ १३४ | २९२ १६६ । ३६० | १०० | २२२ | पदमिदं ननु कर्मदुरासदं | १४३ ३१० |
टङ्कोत्कीर्णविशुद्धबोधविसरा- | टङ्कोत्कीर्णस्वरसनिचित-
तज्ज्ञानस्यैव सामर्थ्य तथापि न निरर्गलं | तदथ कर्म शुभाशुभभेदतो
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कलशकाव्योंकी वर्णानुक्रम सूची
६२९
|
| कलश | पृष्ठ |
| कलश | पृष्ठ |
।२४५
७८ । ४६८
३७१
२३८ | ५२७
५२३
| ४१४
२०५
परद्रव्यग्रहं कुर्वन्
१८६ ४२४ परपरिणतिहेतो
३ | ४ | मग्नः कर्मनयावलम्बनपरा |१११ परपरिणतिमुज्झत् । ४७ | १२७ | मजुन्तु निर्भरममी
३२ परमार्थेन तु व्यक्त
१८ । ४५ | माऽकर्तारममी स्पृशन्तु २०५ | पूर्णकाच्युतशुद्धबोधमहिमा | २२२ | ५११ | मिथ्यादृष्टे: स एवास्य | १७० पूर्वबद्धनिजकर्म१४६ | ३२० | मोक्षहेतुतिरोधानाद्
१०८ पूर्वालम्बितबोध्यनाशसमये २५६ ।५८१ | मोहविलासविजृम्भित- २२७ प्रच्युत्य शुद्धनयत: १२१ ।२६६ | मोहाद्यदहमकार्ष
२२६ प्रज्ञाछेत्री शितेयं १८१
य प्रत्यक्षालिखितस्फुटस्थिर- २५२ । ५७८ | य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म २२८ ५३० | यत्तु वस्तु कुरुते प्रमादकलितः कथं भवति । १९० । ४३२ | यत्सन्नाशमुपैति तन्न नियतं | १५७ प्राकारकवलिताम्बर-
२५ । ६३ । यदि कथमपि धारावाहिना | १२७ | प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं | १५९ ३३९ | यदिह भवति रागद्वेष- २२० प्रादुर्भावविराममुद्रित२६० ।५८४ | यदेतद ज्ञानात्मा
१०५ यत्र प्रतिक्रमणमेव
१८७ बन्धच्छेदात्कलयदतलं
१९२ ४३४ यस्माद् द्वैतमभूत्पुरा २७७ बहिर्लुठति यद्यपि
२१२ ४८० । यः करोति स करोति ९६
केवलं बाह्यार्थग्रहणस्वभावभरतो २५० | ५७७ | यः परिणमित स कर्ता बाह्याथैः परिपीतमुज्झित- २४८ ५७५ | यः पूर्वभावकृतकर्म | २३२ भ
यादृक् तादृगिहास्ति | १५० भावयेद्भेदविज्ञान
|२८६ | यावत्पाकमुपैति कर्मविरति- | ११० भावास्रवाभावमयं प्रपन्नो ११५ | २५५ । ये तु कर्तारमात्मानं भावो रागद्वेषमोहैर्विना यो । ११४ | २५४ | ये तु स्वभावनियम
२०२ भित्त्वा सर्वमपि स्वलक्षण- । १८२ | ४१८ | ये त्वेनं परिहत्य
२४१ भिन्नक्षेत्रनिषण्णबोध्य- २५४ ५८० | ये ज्ञानमात्रनिजभावमयी | २६६ भूतं भान्तमभूतमेव
१२ । | ४० | योऽयं भावो ज्ञानमात्रो २७१ | भेदज्ञानोच्छलन-
१३२ २८७ | | भेदविज्ञानतः सिद्धाः | १३१ ।२८७ | भेदोन्मादं भ्रमरसभरा
११२ २४६ | रागजन्मनि निमित्ततां २२१ भोक्तत्वं न स्वभावोऽस्य १९६ ४४२ | रागद्वेषद्वयमुदयते
२१७
४८२ |३३८
२८० ।५०४ ।
२३३ ।
६०३ | २१९
४२७
१३०
१४८ ५४३ ।। ३२७ २४४ ४४९ | ४५४
५६२ । ५९५ |५९८
मितता
५०५ । ४९६
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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार 630 | | कलश | पृष्ठ | | कलश | पृष्ठ / 564 / / 475 495 495 | रागद्वेषविभावमुक्तमहसो | 223 / 512 | व्यवहारविमूढदृष्टयः | 242 रागद्वेषविमोहानां 119 | 264 | व्याप्यव्यापकतातदात्मनि / 49 रागद्वेषाविह हि भवति 218 / 501 | व्यावहारिकदृशैव केवलं / 210 रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्ट्या | 219 / 501 | शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पित 215 रागादयो बन्धनिदानमुक्ता- 174 | 393 | शुद्धद्रव्यस्वरसभवनात्किं / 296 रागादीनामुदयमदयं 179 405 रागादीनां झगिति विगमात् 124 270 | सकलमपि विहायाहाय / 35 रागाद्यास्रवरोधतो 133 289 | समस्तमित्येवमपास्य कर्म | 229 रागोद्गारमहारसेन सकलं 352 | संन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रुन्धन् बन्धं नवमिति 162 |350 | संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि / 109 ल | सम्पद्यते संवर एष | 121 लोक: कर्मततोऽस्तु | 165 360 | सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं | 154 लोक: शाश्वत एक एष | 155 336 | सम्यग्दृष्टि: स्वयमयमहं |137 व सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं | 136 वर्णादिसामग्रयमिदं विदन्तु / 39 | 112 | सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं | 30 | वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा / 37 / 101 | सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं | 173 वर्णाद्यैः सहितस्तथा 42 | 117 | सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य 253 वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो 213 | 481 | सर्वस्यामेव जीवन्त्यां 117 विकल्पक: परं कर्ता / | 218 / सर्वं सदैव नियतं 168 विगलन्तु कर्मविषतरु 230 | 531 | सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्त- 185 विजहति न हि सत्तां | 118 | 263 | | स्थितेति जीवस्य निरन्तराया विरम किमपरेणाकार्य 34 / स्थितेत्यविघ्ना खलु पुद्गलस्य | विश्रान्त: परभावभावकलना | 258 582 | स्याद्वादकौशलसुनिश्चलविश्वाद्विभक्तोऽपि हि 172 |382 | स्याद्वाददीपितलसन्महस | 269 | विश्वं ज्ञानमिति प्रतय॑ | 249 576 | स्वशक्तिसंसूचितवस्तुत्वत्त्वै | वृत्तं कर्मस्वभावेन / 107 / 237 | स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विध- | वृत्तं ज्ञानस्वभावेन 106 237 | स्वेच्छासमुच्छलदनल्प 90 वृत्त्यंशभेदतोऽत्यन्तं | 207 470 | स्वं रूपं किल वस्तुनो | 158 वेद्यवेदकविभावचलत्वाद 147 | 324 व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं 267 603 | हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां | 102 | व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि 5 / 27 / | 94 / 531 259 / 243 | 286 335 / / | 299 / / | 296 / 74 / 386 579 | 260 | 369 423 | 190 186 | 267 | 595 / 597 |604 580 213 338 | 226 Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com