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समयसार
३१२
कथं रागी न भवति सम्यग्दृष्टिरिति चेत्
परमाणुमित्तयं पि हु रागादीणं तु विज्जदे जस्स। ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि।। २०१ ।।
परद्रव्यकी क्रियासे और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अशुभ भावोंसे अपना बंध होना मानता है तबतक यह जानना चाहिये कि उसे स्वपरका ज्ञान नहीं हुआ; क्योंकि बंध-मोक्ष अपने अशुद्ध तथा शुद्ध भावोंसे ही होता था, शुभाशुभ भाव तो बंधके ही कारण थे और परद्रव्य तो निमित्तमात्र ही था, उसमें उसने विपर्ययरूप मान लिया। इसप्रकार जबतक जीव परद्रव्यसे ही भलाबुरा मानकर रागद्वेष करता है तबतक वह सम्यग्दृष्टि नहीं है।
जबतक अपनेमें चारित्रमोहसंबंधी रागादिक रहता है तबतक सम्यग्दृष्टि जीव रागादिमें तथा रागादिकी प्रेरणासे जो परद्रव्यसंबंधी शुभाशुभ क्रिया में प्रवृत्ति करता है उन प्रवृत्तियों के सम्बंधमें यह मानता है कि यह कर्मका जोर है; उससे निवृत्त होनेमें ही मेरा भला है। वह उन्हें रोगवत् जानता है। पीड़ा सहन नहीं होती इसलिये रोग का इलाज करनेमें प्रवृत्त होता है तथापि उसके प्रति उसका राग नहीं कहा जा सकता; क्योंकि जिसे वह रोग मानता है उसके प्रति राग कैसा? वह उसे मिटाने का ही उपाय करता है और उसका मिटना भी अपने ही ज्ञानपरिणामरूप परिणमनसे मानता है। अतः सम्यग्दृष्टिके राग नहीं है। इसप्रकार यहाँ परमार्थ अध्यात्मदृष्टिसे व्याख्यान जानना चाहिये। यहाँ मिथ्यात्व सहित रागको ही राग कहा है, मिथ्यात्व रहित चारित्रमोहसंबंधी परिणामको राग नहीं कहा; इसलिये सम्यग्दृष्टिके ज्ञानवैराग्यशक्ति अवश्य ही होती है। सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व सहित राग नहीं होता और जिसके मिथ्यात्व सहित राग हो वह सम्यग्दृष्टि नहीं है। ऐसे (मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके भावोंके) अन्तरको सम्यग्दृष्टि ही जानता है। पहले तो मिथ्यादृष्टिका अध्यात्मशास्त्रमें प्रवेश ही नहीं है और यदि वह प्रवेश करता है तो विपरीत समझता है-व्यवहारको सर्वथा छोड़कर भ्रष्ट होता है अथवा निश्चयको भलीभाँति जाने बिना व्यवहारसे ही मोक्ष मानता है, परमार्थ तत्त्वमें मूढ़ रहता है। यदि कोई विरल जीव यथार्थ स्याद्वादन्यायसे सत्यार्थको समझ ले तो उसे अवश्य सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है-वह अवश्य सम्यग्दृष्टि हो जाता है। १३७।। अब पूछता है कि रागी (जीव) सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं होता ? उसका उत्तर कहते हैं:
अणुमात्र भी रागादिका, सद्भाव है जिस जीव को। वो सर्वआगमधर भले ही, जानता नहिं आत्मको ।। २०१।।
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