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आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः।। १३७ ।।
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ऊँचा और पुलकित हो रहा है ऐसे [ रागिण: ] रागी जीव (-परद्रव्य के प्रति रागद्वेषमोहभाववाले जीव - ) [ अपि ] भले [ आचरन्तु ] महाव्रतादिकका आचरण करें तथा [ समितिपरतां आलम्बन्तां ] समितियोंकि उत्कृष्टताका आलंबन करें [ते पापा:] तथापि वे पापी ( मिथ्यादृष्टि ) ही है, [ यतः ] क्योंकि वे [आत्म-अनात्मअवगम-विरहात्] आत्मा और अनात्माके ज्ञानसे रहित होनेसे [ सम्यक्त्व - रिक्ताः सन्ति ] सम्यक्त्वसे रहित है।
भावार्थ:-परद्रव्यके प्रति राग होनेपर भी जो जीव यह मानता है कि 'मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे बंध नहीं होता' उसे सम्यक्त्व कैसा ? वह व्रत-समिति का पालन भले ही करे तथापि स्वपरका ज्ञान न होनेसे वह पापी ही है। जो यह मानकर कि 'मुझे बंध नहीं होता' स्वच्छंद प्रवृत्ति करता है वह भला सम्यग्दृष्टि कैसा ? क्योंकि जबतक यथाख्यात चारित्र न हो तबतक चारित्रमोहके रागसे बंध तो होता ही है और जब तक राग रहता है तबतक सम्यग्दृष्टि तो अपनी निंदा-गर्हा करता ही रहता है। ज्ञानके होनेमात्रसे बंधसे नहीं छूटा जा सकता, ज्ञान होनेके बाद उसीमें लीनतारूपशुद्धोपयोगरूप-चारित्रसे बंध कट जाते हैं। इसलिये राग होनेपर भी, 'बंध नहीं होता' यह मानकर स्वच्छंदतया प्रवृत्ति करनेवाला जीव मिथ्यादृष्टि ही है।
यहाँ कोई पूछे कि “ व्रत - समिति शुभ कार्य है, तब फिर उनका पालन करते हुए भी उस जीवको पापी क्यों कहा गया है ?” उसका समाधान यह है -- सिद्धांतमें मिथ्यात्वको ही पाप कहते हैं; जबतक मिथ्यात्व रहता है तबतक शुभ-अशुभ सर्व क्रियाओंको अध्यात्ममें परमार्थार्तः पाप ही कहा जाता है। और व्यवहारनयकी प्रधानतामें, व्यवहारी जीवोंको अशुभसे छुड़ाकर शुभमें लगानेकी शुभ क्रियाको कथंचित् पुण्य भी कहा जाता है। ऐसा कहनेसे स्याद्वाद मतमें कोई विरोध नहीं है। 1
फिर कोई पूछता है कि - " परद्रव्यमें जबतक राग रहे तबतक जीवको मिथ्यादृष्टि कहा है सो यह बात हमारी समझमें नहीं आई। अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादि के चारित्रमोहके उदयसे रागादिभाव तो होते हैं, तब फिर उनके सम्यक्त्व कैसे है ? " उसका समाधान यह है: - यहाँ मिथ्यात्व सहित अनंतानुबंधी राग प्रधानता से कहा है । जिसे ऐसा राग होता है अर्थात् जिसे परद्रव्यमें तथा परद्रव्यसे होनेवाले भावोंमें आत्मबुद्धिपूर्वक प्रीति - अप्रीति होती है, उसे स्वपरका ज्ञानश्रद्धान नहीं है-भेदज्ञान नहीं है ऐसा समझना चाहिये। जो जीव मुनिपद लेकर व्रत-समिति पालन करे तथापि जबतक पर जीवोंकी रक्षा, शरीर संबंधी यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करना इत्यादि परद्रव्यकी क्रियासे और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले शुभ भावोंसे अपनी मुक्ति मानता है और पर जीवोंका घात होना तथा अयत्नाचाररूपसे प्रवृत्ति करना इत्यादि
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