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समयसार
३१०
एवं सम्यग्दृष्टि: आत्मानं जानाति ज्ञायकस्वभावम्। उदयं कर्मविपाकं च मुञ्चति तत्त्वं विजानन्।। २०० ।।
एवं सम्यग्दृष्टि: सामान्येन विशेषेण च परस्वभावेभ्यो भावेभ्यो सर्वेभ्योऽपि विविच्य टङ्कोत्कीर्णेकज्ञायकभावस्वभावमात्मनस्तत्त्वं विजानाति। तथा तत्त्वं विजानंश्च स्वपरभावोपादानापोहननिष्पाद्यं स्वस्य वस्तुत्वं प्रथयन् कर्मोदयविपाकप्रभवान् भावान् सर्वानपि मुञ्चति। ततोऽयं नियमात् ज्ञानवैराग्यसम्पन्नो भवति।
(मन्दाक्रान्ता) सम्यग्दृष्टि: स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु।
गाथार्थ:- [ एवं] इसप्रकार [ सम्यग्दृष्टि: ] सम्यग्दृष्टि [ आत्मानं ] आत्माको ( अपनेको) [ ज्ञायकस्वभावम् ] ज्ञायकस्वभाव [ जानाति] जानता है [च ] और [ तत्त्वं] तत्त्वको अर्थात् यथार्थ स्वरूपको [विजानन् ] जानता हुआ [ कर्मविपाकं] कर्मके विपाकरूप [ उदयं ] उदयको [ मुञ्चति] छोड़ता है।
टीका:-इसप्रकार सम्यग्दृष्टि सामान्यतया और विशेषतया परभावस्वरूप सर्व भावोंसे विवेक (भेदज्ञान, भिन्नता) करके, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जिसका स्वभाव है ऐसा जो आत्माका तत्त्व उसको (भलीभाँति) जानता है; और इसप्रकार तत्त्वको जानता हुआ , स्वभावके ग्रहण और परभावके त्यागसे उत्पन्न होने योग्य अपने वस्तुत्वको विस्तारित (–प्रसिद्ध) करता हुआ, कर्मोदय के विपाकसे उत्पन्न हुए समस्त भावोंको छोड़ता है। इसलिये यह ( सम्यग्दृष्टि) नियमसे ज्ञानवैराग्यसंपन्न होता है ( यह सिद्ध हुआ)।
भावार्थ:-जब अपनेको तो ज्ञायकभावरूप सुखमय जाने और कर्मोदय से उत्पन्न हुए भावोंको आकुलतारूप दुःखमय जाने तब ज्ञानरूप रहना और परभावोंसे विरागता-यह दोनों अवश्य ही होते हैं। यह बात प्रगट अनुभवगोचर है। यही ( ज्ञानवैराग्य ) ही सम्यग्दृष्टिका चिह्न है।
____“जो जीव परद्रव्यमें आसक्त-रागी है और सम्यग्दृष्टित्वका अभिमान करते है वे सम्यग्दृष्टि नहीं है, वे वृथा अभिमान करतें हैं” इस अर्थका कलशरूप काव्य अब कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ अयम् अहं स्वयम् सम्यग्दृष्टिः, मे जातु बन्धः न स्यात् ] “ यह मैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे कभी बंध नहीं होता ( क्योंकि शास्त्रोंमें सम्यग्दृष्टिको बंध नहीं कहा है) " [ इति ] ऐसा मानकर [ उत्तान-उत्पुलक-वदनाः ] जिनका मुख गर्वसे
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