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निर्जरा अधिकार
३०९
पुद्गलकर्म रागस्तस्य विपाकोदयो भवति एषः। न त्वेष मम भावो ज्ञायकभावः खल्वहमेकः।। १९९ ।।
अस्ति किल रागो नाम पुद्गलकर्म, तदुदयविपाकप्रभवोऽयं रागरूपो भावः, न पुनर्मम स्वभावः। एष टङ्कोत्कीर्णैकज्ञायकभावोऽहम्।
एवमेव च रागपदपरिवर्तनेन द्वेषमोहक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्धाणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि, अनया दिशा अन्यान्यप्यूह्यानि।
एवं च सम्यग्दृष्टि: स्वं जानन रागं मुञ्चंश्च नियमाज्ज्ञानवैराग्यसम्पन्नो भवति
एवं सम्मद्दिट्ठी अप्पाणं मुणदि जाणगसहावं। उदयं कम्मविवागं च मुयदि तचं वियाणंतो।। २०० ।।
गाथार्थ:- [ रागः ] राग [ पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्म है, [तस्य ] उसका [विपाकोदयः ] विपाकरूप उदय [ एषः भवति] यह है, [ एषः ] यह [ मम भावः ] मेरा भाव [ न तु] नहीं है; [ अहम् ] मैं तो [ खलु ] निश्चयसे [ एक: ] एक [ ज्ञायकभावः ] ज्ञायकभाव हूँ।
टीका:-वास्तवमें राग नामक पुद्गलकर्म है उसके उदयके विपाकसे उत्पन्न हुआ यह रागरूप भाव है, यह मेरा स्वभाव नहीं है; मैं तो यह ( प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव हूँ। (इसप्रकार सम्यग्दृष्टि विशेषतया स्वको और परको जानता है।)
और इसीप्रकार 'राग' पदको बदलकर उसके स्थानपर द्वेष , मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, ध्राण, रसन और स्पर्शन-ये शब्द रखकर सोलह सूत्र व्याख्यानरूप करना, और इसी उपदेशसे दूसरे भी विचारना।
इसप्रकार सम्यग्दृष्टि अपनेको जानता और रागको छोड़ता हुआ नियमसे ज्ञानवैराग्य-संपन्न होता है-यह इस गाथा द्वारा कहते हैं:
सदृष्टि इस रीत आत्मको, ज्ञायकस्वभाव हि जानता। अरु उदय कर्मविपाकको वह, तत्त्वज्ञायक छोड़ता ।। २००।।
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