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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ३०८ उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिदो जिणवरेहिं। ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को।। १९८ ।। उदयविपाको विविधः कर्मणां वर्णितो जिनवरैः। न तु ते मम स्वभावाः ज्ञायकभावस्त्वहमेकः।। १९८ ।। ये कर्मोदयविपाकप्रभवा विविधा भावा न ते मम स्वभावाः। एष टोत्कीर्णैकज्ञायकभावोऽहम्। सम्यग्दृष्टिर्विशेषेण तु स्वपरावेवं जानातिपोग्गलकम्मं रागो तस्स विवागोदओ हवदि एसो। ण दु एस मज्झ भावो जागगभावो हु अहमेक्को।।१९९ ।। परसे-रागके योगसे- [ सर्वतः ] सर्वतः [ विरमति ] विरमता (रुकता) है। ( यह रीत ज्ञानवैराग्यकी शक्तिके बिना नहीं हो सकती।)। १३६ । __ अब प्रथम , यह कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि सामान्यतया स्व और परको इसप्रकार जानता है: कर्मो हि के जु अनेक , उदय विपाक जिनवरने कहे । वे मुझ स्वभाव जु हैं नहीं, मैं एक ज्ञायकभाव हूँ ।। १९८ ।। गाथार्थ:- [कर्मणां] कर्मोंके [ उदयविपाक: ] उदयका विपाक (फल) [जिनवरैः ] जिनेन्द्रदेवने [विविध:] अनेक प्रकारका [ वर्णितः कहा है [ ते] वे [ मम स्वभावाः ] मेरे स्वभाव [न तु] नहीं है; [ अहम् तु] मैं तो [ एकः] एक [ ज्ञायकभावः ] ज्ञायकभाव हूँ। टीका:-जो कर्मोदयके विपाकसे उत्पन्न हुए अनेक प्रकारके भाव हैं वे मेरे स्वभाव नहीं है; मैं तो यह (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर ) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव हूँ। भावार्थ:-इसप्रकार सामान्यतया समस्त कर्मजन्य भावोंको सम्यग्दृष्टि पर जानता है और अपनेको एक ज्ञायकस्वभाव ही जानता है। __ अब यह कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि विशेषतया स्व और परको इसप्रकार जानता है: पुद्गलकर्मरूप रागहा हि, विपाकरूप है उदय ये । ये है नहीं मुझभाव, निश्चय एक ज्ञायकभाव हूँ ।। १९९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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