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सम्यग्दृष्टिः पूर्वसञ्चित-कर्मोदयसम्पन्नान् विषयान् सेवमानोऽपि रागादिभावानामभावेन विषयसेवनफलस्वामित्वाभावादसेवक एव, मिथ्यादृष्टिस्तु विषयानसेवमानोऽपि रागादिभावानां सद्भावेन विषयसेवनफलस्वामित्वात्सेवक एव ।
( मन्दाक्रान्ता ) सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्ति:
स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्तया। यस्माज्ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ।। १३६ ।।
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सम्यग्दृष्टि पूर्वसंचित कर्मोदयसे प्राप्त हुए विषयोंका सेवन करता हुआ भी रागादिभावोंके अभावके कारण विषयसेवनके फलका स्वामित्व न होनेसे असेवक ही है ( सेवन करनेवाला नहीं है) और मिथ्यादृष्टि विषयोंका सेवन न करता हुआ भी रागादिभावोंके सद्भावके कारण विषयसेवनके फलका स्वामित्व होनेसे सेवन करने वाला ही है।
भावार्थ:-जैसे किसी सेठने अपनी दुकान पर किसी को नौकर रखा। और वह नौकर ही दुकानका सारा व्यापार - खरीदना, बेचना इत्यादि सारा कामकाज करता है तथापि वह सेठ नहीं है क्योंकि वह उस व्यापार का और उस व्यापार के हानि-लाभका स्वामी नहीं है; वह तो मात्र नौकर है, सेठ के द्वारा कराये गये सब कामकाज को करता है । और जो सेठ है वह व्यापार संबंधी कोई कामकाज नहीं करता, घर ही बैठा रहता है तथापि उस व्यापार तथा उसके हानि-लाभका स्वामी होनेसे वही व्यापारी ( सेठ) है। यह दृष्टांत सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि पर घटित कर लेना चाहिये। जैसे नौकर व्यापार करनेवाला नहीं है इसीप्रकार सम्यकदृष्टि विषयोंका सेवन करने वाला नहीं है, और जैसे सेठ व्यापार करने वाला है उसीप्रकार मिथ्यादृष्टि विषय सेवन करने वाला है।
अब आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ सम्यग्दृष्टेः नियतं ज्ञान-वैराग्य - शक्तिः भवति ] सम्यग्दृष्टिके नियमसे ज्ञान और वैराग्यकी शक्ति होती है; [ यस्मात् ] क्योंकि [अयं ] वह (सम्यग्दृष्टि जीव ) [ स्व- अन्य - रूप - आप्ति - मुक्तया ] स्वरूपका ग्रहण और परका त्याग करनेकी विधिके द्वारा [ स्वं वस्तुत्वं कलयितुम् ] अपने वस्तुत्वका ( यथार्थ स्वरूपका) अभ्यास करने के लिये, [ इदं स्वं च परं ] ' यह स्व है ( अर्थात् आत्मस्वरूप है) और यह पर है' [ व्यतिकरम् ] इस भेदको [ तत्त्वतः] परमार्थ से [ ज्ञात्वा ] जानकर [ स्वस्मिन् आस्ते ] स्वमें स्थिर होता है और [ परात् रागयोगात् ]
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