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समयसार
३०६
अथैतदेव दर्शयति
सेवंतो वि ण सेवदि असेवमाणो वि सेवगो कोई। पगरणचेट्ठा कस्स वि ण य पायरणो त्ति सो होदि।। १९७ ।।
सेवमानोऽपि न सेवते असेवमानोऽपि सेवकः कश्चित्। प्रकरणचेष्टा कस्यापि न च प्राकरण इति स भवति।।१९७ ।।
यथा कश्चित् प्रकरणे व्याप्रियमाणोऽपि प्रकरणस्वामित्वाभावात् न प्राकरणिकः, अपरस्तु तत्राव्याप्रियमाणोऽपि तत्स्वामित्वात्प्राकरणिकः, तथा
विषय सेवन करता हुआ भी [ज्ञानवैभव-विरागता-बलात् ] ज्ञानवैभव और विरागता के बलसे [ विषयसेवनस्य स्वं फलं] विषयसेवके निजफलको (-रंजित परिणामको) [न अश्नुते] नहीं भोगता-प्राप्त नहीं होता, [ तत् ] इसलिये [ असौ] यह (पुरुष) [ सेवकः अपि असेवक: ] सेवक होनेपर भी असेवक है ( अर्थात् विषयोंका सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता)।
भावार्थ:-ज्ञान और विरागताकी ऐसी कोई अचिंत्य सामर्थ्य है कि ज्ञानी इंद्रियोंके विषयोंका सेवन करता हुआ भी उनका सेवन करनेवाला नहीं कहा जा सकता, क्योंकि विषयसेवनका फल जो रंजित परिणाम है उसे ज्ञानी नहीं भोगताप्राप्त नहीं करता। १३५ । अब इसी बातको प्रगट दृष्टांतसे बतलाते हैं:
सेता हुआ नहिं सेवता, नहिं सेवता सेवक बने । प्रकरणतनी चेष्टा करे, अरु प्राकरण ज्यों नहिं हुवे ।। १९७।।
गाथार्थ:- [ कश्चित् ] कोई तो [ सेवमानः अपि] विषयोंको सेवन करता हुआ भी [न सेवते ] सेवन नहीं करता और [ असेवमानः अपि] कोई सेवन न करता हुआ भी [ सेवक: ] सेवन करने वाला है- [कस्य अपि] जैसे किसी पुरुषके [प्रकरणचेष्टा] 'प्रकरणकी चेष्टा (कोई कार्य संबंधी क्रिया) वर्तती है [ न च सः प्राकरणः इति भवति] तथापि वह प्राकरणिक नहीं होता।
टीका:-जैसे कोई पुरुष किसी प्रकरणकी क्रियामें प्रवर्तमान होनेपर भी प्रकरणका स्वामित्व न होनेसे प्राकरणिक नहीं है और दूसरा पुरुष प्रकरणकी क्रिया प्रवृत्त न होता हुआ भी प्रकरणका स्वामित्व होनेसे प्राकरणिक है, इसीप्रकार
१। प्रकरण = कार्य,
२। प्राकरणिक = कार्य करनेवाला
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