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निर्जरा अधिकार
३०५
जह मज्जं पिबमाणो अरदीभावेण मज्जदि ण पुरिसो। दव्वुवभोगे अरदो णाणी वि ण बज्झदि तहेव।। १९६ ।।
यथा मद्यं पिबन् अरतिभावेन माद्यति न पुरुषः।
द्रव्योपभोगेऽरतो ज्ञान्यपि न बध्यते तथैव।। १९६ ।। यथा कश्चित्पुरुषो मैरेयं प्रति प्रवृत्ततीव्रारतिभावः सन् मैरेयं पिबन्नपि तीव्रारतिभावसामर्थ्यान्न माद्यति, तथा रागादिभावानामभावेन सर्वद्रव्योपभोगं प्रति प्रवृत्ततीव्रविरागभावः सन् विषयानुपभुञ्जानोऽपि तीव्रविरागभावसामर्थ्यान्न बध्यते ज्ञानी।
( रथोद्धता) नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विषयसेवनस्य ना। ज्ञानवैभवविरागताबलात् सेवकोऽपि तदसावसेवकः।। १३५ ।।
ज्यों अरतिभाव जु मद्य पीकर, मत्त जन बनता नहीं। द्रव्योपभोग विर्षे अरत, ज्ञानी पुरुष बँधता नहीं ।। १९६।।
गाथार्थ:- [यथा] जैसे [पुरुषः] कोई पुरुष [मद्यं] मदिराको [ अरतिभावेन ] अरतिभावसे ( अप्रीतिसे ) [ पिबन् ] पीता हुआ [ न माद्यति] मतवाला नहीं होता, [ तथा एव ] इसीप्रकार [ ज्ञानी अपि] ज्ञानी भी [ द्रव्योपभोगे] द्रव्य के उपभोगके प्रति [अरतः ] अरत ( वैराग्यभावमें ) वर्तता हुआ [ न बध्यते ] बंधको प्राप्त नहीं होता।
टीका:-जैसे कोई पुरुष, मदिराके प्रति जिसको तीव्र अरतिभाव प्रवर्ता है ऐसा वर्तता हुआ, मदिराको पीनेपर भी, तीव्र अरतिभावकी सामर्थ्य के कारण मतवाला नहीं होता, उसीप्रकार ज्ञानी भी, रागादिभावोंके अभावसे सर्व द्रव्योंके उपभोगके प्रति जिसको तीव्र वैराग्यभाव प्रवर्ता है ऐसा वर्तता हुआ, विषयोंको भोगता हुआ भी, तीव्र वैराग्यभावकी सामर्थ्य के कारण (कर्मोंसे ) बंधको प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ:-यह वैराग्य सामर्थ्य है कि ज्ञानी विषयोंका सेवन करता हुआ भी कर्मोंसे नहीं बँधाता।
अब इस अर्थका और आगामी गाथाके अर्थका सूचक काव्य कहते हैं:श्लोकार्थ:- यत् ] क्योंकि [ ना] यह [ ज्ञानी ] पुरुष [ विषयसेवने अपि]
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