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समयसार
जह विसमुवभुंजंतो वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवय दि । पोग्गलकम्मस्सुदयं तह भुंजदि णेव बज्झदे णाणी । । १९५ ।। यथा बिषमुपभुञ्जानो वैद्यः पुरुषो न मरणमुपयाति । पुद्गलकर्मण उदयं तथा भुङ्क्ते नैव बध्यते ज्ञानी ।। १९५ ।।
परेषां मरणकारणं
यथा कश्चिद्विषवैद्यः विषमुपभुञ्जानोऽपि अमोधविद्यासामर्थ्येन निरुद्वतच्छक्तित्वान्न म्रियते, तथा अज्ञानिनां रागादिभावसद्भावेन बन्धकारणं पुद्गलकर्मोदयमुपभुञ्जानोऽपि अमोधज्ञान-सामर्थ्यात् रागादिभावानामभावे सति निरुद्धतच्छक्तित्वान्न बध्यते ज्ञानी ।
अथ वैराग्यसामर्थ्य दर्शयति
ज्यों जहरके उपभोगसे भी, वैद्य जन मरता नहीं । त्यों उदयकर्म जु भोगता भी, ज्ञानी बँधता नहीं ।। १९५ ।।
गाथार्थ:- [ यथा ] जिसप्रकार [ वैद्यः पुरुषः ] वैद्य पुरुष [ विषम् उपभुञ्जानः ] विषको भोगता अर्थात् खाता हुआ भी [ मरणम् न उपयाति ] मरणको प्राप्त नहीं होता, [ तथा ] उसीप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी पुरुष [ पुद्गलकर्मणः ] पुद्गलकर्मके [ उदयं ] उदयको [भु ] भोगता है तथापि [ न एव बध्यते ] बँधता नहीं है।
टीका:- जिसप्रकार कोई विषवैद्य, दूसरोंके मरणके कारणभूत विषको भोगता हुआ भी, अमोघ ( रामबाण ) विद्याकी सामर्थ्यसे- विषकी शक्ति रुक गई होनेसे, नहीं मरता, उसीप्रकार अज्ञानियोंको रागादिभावोंका सद्भाव होनेसे बंधका कारण जो पुद्गलकर्मका उदय उसको ज्ञानी भोगता हुआ भी, अमोघ ज्ञानकी सामर्थ्य द्वारा रागादिभावोंका अभाव होनेसे - कर्मोदयकी शक्ति रुक गई होनेसे, बंधको प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ:-जैसे वैद्य मंत्र, तंत्र, औषधि इत्यादि अपनी विद्याकी सामर्थ्यसे विषकी घातक शक्तिका अभाव कर देता है जिससे विषके खा लेने पर भी उसका मरण नहीं होता, उसीप्रकार ज्ञानीके ज्ञानका ऐसा सामर्थ्य है कि वह कर्मोदयकी बंध करने की शक्तिका अभाव करता है और ऐसा होनेसे कर्मोदयको भोगते हुए भी ज्ञानी के आगामी कर्मबंध नहीं होता। इसप्रकार सम्यग्ज्ञानकी सामर्थ्य कही गई है।
अब वैराग्यका सामर्थ्य बतलाते हैं:
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