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समयसार
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पासंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु। कुव्वंति जे ममत्तिं तेहिं ण णादं समयसारं।। ४१३ ।।
पाषण्डिलिङ्गेषु वा गृहिलिङ्गेषु वा बहुप्रकारेषु। कुर्वन्ति ये ममत्वं तैर्न ज्ञातः समयसारः।। ४१३ ।।
ये खलु श्रमणोऽहं श्रमणोपासकोऽहमिति द्रव्यलिङ्गममकारेण मिथ्याहङ्कारं कुर्वन्ति, तेऽनादिरूढव्यवहारमूढाः प्रौढविवेकं निश्चयमनारूढाः परमार्थसत्यं भगवन्तं समयसारं न पश्यन्ति।
वह समयसार शुद्ध आत्मा कैसा है ? [ नित्य-उद्योतम] नित्य प्रकाशमान है (अर्थात् कोई प्रतिपक्षी होकर उसके उदयका नाश नहीं कर सकता), [अखण्डम् ] अखंड है ( अर्थात् जिसमें अन्य ज्ञेय आदिके निमित्त खंड नहीं होते), [ एकम् ] एक है ( अर्थात् पर्यायोंसे अनेक अवस्थारूप होनेपर भी जो एकरूपत्वको नहीं छोड़ता, [ अतुलआलोकं] अतुल (-उपमारहित) प्रकाशवाला है (क्योंकि ज्ञानप्रकाशको सूर्यादिके प्रकाशकी उपमा नहीं दी जा सकती), [स्वभाव-प्रभा-प्राग्भारं] स्वभावप्रभाका पुंज है ( अर्थात् चैतन्यप्रकाशका समूहरूप है), [अमलं ] अमल है (अर्थात् रागादिविकाररूपी मलसे रहित है)।
(इसप्रकार, जो द्रव्यलिंगमें ममत्व करते हैं उन्हें निश्चय-कारणसमयसारका अनुभव नहीं है; तब फिर उनको कार्यसमयसारकी प्राप्ति कहाँ से होगी ? ) २४१। अब इस अर्थकी गाथा कहते हैं:
बहुभाँति मुनिलिंग जो अथवा गृहस्थीलिंग जो। ममता करे, उनमें नहीं जाना 'समयके सार' को ।। ४१३।।
गाथार्थ:- [ये] जो [ बहुप्रकारेषु ] बहु प्रकारके [पाषण्डिलिङ्गेषु वा] मुनिलिंगोंमें [गृहिलिङ्गेषु वा] अथवा गृहस्थलिंगोंमें [ ममत्वं कुर्वन्ति ] ममता करते हैं ( अर्थात् यह मानते हैं कि द्रव्यलिंग ही मोक्षका दाता है), [ तैः समयसारः न ज्ञातः ] उन्होंने समयसारको नहीं जाना।
टीका:-जो वास्तवमें 'मैं श्रमण हूँ, मैं श्रमणोपासक ( –श्रावक ) हूँ' इसप्रकार द्रव्यलिंगमें ममत्वभाव के द्वारा मिथ्या अहंकार करते हैं, वे अनादिरूढ़ (अनादि कालसे समागत) व्यवहारमें मूढ़ (मोही) होते हुए, प्रौढ़ विवेकवाले निश्चय (निश्चयनय) पर आरूढ़ न होते हुए, परमार्थसत्य (-जो परमार्थसे सत्य है ऐसे) भगवान समयसारको नहीं देखते-अनुभव नहीं करते।
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