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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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(वियोगिनी) व्यवहारविमूढदृष्टयः परमार्थ कलयन्ति नो जनाः। तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तण्डुलम्।। २४२ ।।
(स्वागता) द्रव्यलिङ्गममकारमीलितैदृश्यते समयसार एव न। द्रव्यलिङ्गमिह यत्किलान्यतो ज्ञानमेकमिदमेव हि स्वतः।। २४३ ।।
भावार्थ:-अनादिकालीन परद्रव्यके संयोगसे होनेवाले व्यवहार ही में जो पुरुष मूढ़ अर्थात् मोहित हैं, वे यह मानते हैं कि 'यह बाह्य महाव्रतादिरूप वेश ही हमें मोक्ष प्राप्त करा देगा', परंतु जिससे भेदज्ञान होता है ऐसे निश्चयको वे नहीं जानते। ऐसे पुरुष सत्यार्थ, परमात्मरूप, शुद्धज्ञानमय समयसारको नहीं देखते।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ व्यवहार-विमूढ-दृष्टयः जनाः परमार्थ नो कलयन्ति ] जिनकी दृष्टि ( -बुद्धि ) व्यवहारमें ही मोहित है ऐसे पुरुष परमार्थको नहीं जानते, [ इह तुषबोध-विमुग्ध-बुद्धयः तुषं कलयन्ति, न तण्डुलम् ] जैसे जगतमें जिनकी बुद्धि तुषके ज्ञानमें ही मोहित है ( –मोह को प्राप्त हुई है) ऐसे पुरुष तुषको ही जानते हैं, तंदुल (चावल) को नहीं जानते।
भावार्थ:-जो धान के छिल्कों पर ही मोहित हो रहे हैं, उन्हीं को कूटते रहते हैं, उन्होंने चावलोंको जाना ही नहीं है; इसीप्रकार जो द्रव्यलिंग आदि व्यवहारमें मुग्ध हो रहे हैं (अर्थात् जो शरीरादिकी क्रियामें ममत्व किया करते हैं), उन्होंने शुद्धात्मानुभवनरूप परमार्थको जाना ही नहीं है; अर्थात् ऐसे जीव शरीरादि परद्रव्यको ही आत्मा जानते हैं, वे परमार्थ आत्माके स्वरूप को जानते ही नहीं। २४२।
अब आगामी गाथाका सूचक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [द्रव्यलिङ्ग-ममकार-मीलितैः समयसारः एव न दृश्यते] जो द्रव्यलिंगमें ममकारके द्वारा अंध-विवेकरहित हैं, वे समयसारको ही नहीं देखते; [ यत् इह द्रव्यलिङ्गम् किल अन्यतः] कारण कि इस जगतमें द्रव्यलिंग तो वास्तवमें अन्यद्रव्यसे होता है, [इदम् ज्ञानम् एव हि एकम् स्वतः ] मात्र यह ज्ञान ही निजसे ( आत्मद्रव्यसे) होता है।
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