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समयसार
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ववहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणि भणदि मोक्खपहे। णिच्छयणओ ण इच्छदि मोक्खपहे सव्वलिंगाणि।। ४१४ ।।
व्यावहारिक: पुनर्नयो द्वे अपि लिङ्गे भणति मोक्षपथे। निश्चयनयो नेच्छति मोक्षपथे सर्वलिङ्गानि।। ४१४ ।।
यः खलु श्रमणश्रमणोपासकभेदेन द्विविधं द्रव्यलिङ्गं भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः स केवलं व्यवहार एव, न परमार्थः, तस्य स्वयमशुद्धद्रव्यामुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वाभावात; यदेव श्रमणश्रमणोपासकविकल्पातिक्रान्तं दृशिज्ञप्तिप्रवृत्तवृत्तिमात्रं शुद्धज्ञानमेवैकमिति निस्तुषसञ्चेतनं परमार्थः, तस्यैव स्वयं शुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वात्। ततो ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्ध्या चेतयन्ते, ते समयसारमेव न सञ्चेतयन्ते; य एव परमार्थ परमार्थबुद्ध्या चेतयन्ते, ते एव समयसारं चेतयन्ते।
भावार्थ:-जो द्रव्यलिंगमें ममत्व के द्वारा अंध हैं उन्हें शुद्धात्मद्रव्यका अनुभव ही नहीं है, क्योंकि वे व्यवहार को ही परमार्थ मानते हैं इसलिये परद्रव्यको ही आत्मद्रव्य मानते हैं। २४३।
'व्यवहारनय ही मुनिलिंगको और श्रावकलिंगको-दोनों को मोक्षमार्ग कहता है निश्चयनय किसी लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता'-यह गाथा द्वारा कहते हैं:
व्यवहारनय , इन लिंग द्वय को मोक्षके पथमें कहे ।
निश्चय नहीं माने कभी को लिंग मुक्तिपथ में ।। ४१४ ।। गाथार्थ:- [ व्यावहारिकः नयः पुनः ] व्यवहारनय [ द्वे लिङ्गे अपि] दोनों लिंगोंको [ मोक्षपथे भणति ] मोक्षमार्गमें कहता है (अर्थात् व्यवहारनय मुनिलिंग और गृहीलिंगको मोक्षमार्ग कहता है); [ निश्चयनयः ] निश्चयनय [ सर्वलिङ्गानि ] सभी (किसी भी) लिंगों को [ मोक्षपथे न इच्छति ] मोक्षमार्गमें नहीं मानता।
टीका:-श्रमण और श्रमणोपासकके भेदसे दो प्रकारके द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग हैइसप्रकार का जो प्ररूपण-प्रकार ( अर्थात् इसप्रकार की जो प्ररूपणा) वह केवल व्यवहार ही है, परमार्थ नहीं, क्योंकि वह (प्ररूपणा) स्वयं अशुद्ध द्रव्यकी अनुभवनस्वरूप है इसलिये उसको परमार्थतयाका अभाव है; श्रमण और श्रमणोपासकके भेदोंसे अतिक्रांत, दर्शनज्ञानमें प्रवृत्त परिणतिमात्र ( –मात्र दर्शन-ज्ञानमें प्रवृत्त परिणतिरूप) शुद्ध ज्ञान ही एक है-ऐसा जो निस्तुष (-निर्मल) अनुभवन ही परमार्थ है, क्योंकि वह ( अनुभवन) स्वयं शुद्ध द्रव्यका अनुभवनस्वरूप होनेसे उसी के परमार्थत्व है।
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