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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार २०६ कारणानुविधायित्वादेव कार्याणां, अज्ञानिनः स्वयमज्ञानमयाद्भावादज्ञानजातिमनतिवर्तमाना विविधा अप्यज्ञानमया एव भावा भवेयुः, न पुनर्ज्ञानमयाः, ज्ञानिनश्च स्वयं ज्ञानमयाद्भावाज्ज्ञानजातिमनतिवर्तमाना: सर्वे ज्ञानमया एव भावा भवेयुः, न पुनरज्ञानमयाः। कारण जैसे ही कार्य होनेसे, अज्ञानीके-जो कि स्वयं अज्ञानमय भाव है उसकेअज्ञानमय भावोंमेंसे, अज्ञानजातिका उल्लंघन न करते हुए अनेक प्रकारके अज्ञानमय भाव ही होते हैं किन्तु ज्ञानमय भाव नहीं होते, तथा ज्ञानीके-जो कि स्वयं ज्ञानमय भाव है उसके–ज्ञानमय भावोंमेंसे, ज्ञानकी जातिका उल्लंघन न करते हुए समस्त ज्ञानमय भाव ही होते हैं किन्तु अज्ञानमय भाव नहीं होते। भावार्थ:- जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है' इस न्यायसे जैसे लोहेमेंसे लौहमय कड़ा इत्यादि वस्तुएँ होती हैं और सुवर्णमेंसे सुवर्णमय आभुषण होते हैं, इसीप्रकार अज्ञानी स्वयं अज्ञानमय भाव होनेसे उसके (अज्ञानमय भावमेंसे) अज्ञानमय भाव ही होते हैं और ज्ञानी स्वयं ज्ञानमय भाव होनेसे उसके (ज्ञानमय भावमेंसे ) ज्ञानमय भाव ही होते हैं। अज्ञानीके शुभाशुभ भावोंमें आत्मबुद्धि होनेसे उसके समस्त भाव अज्ञानमय ही अविरत सम्यग्दृष्टि (-ज्ञानी) के यद्यपि चारित्रमोहके उदय होनेपर क्रोधादिक भाव प्रवर्तते हैं तथापि उसके उन भावों में आत्मबुद्धि नहीं है, वह उन्हें परके निमित्तसे उत्पन्न उपाधि मानता है। उसके क्रोधादिक कर्म उदयमें आकर खिर जाते हैं-वह भविष्यका ऐसा बंध नहीं करता कि जिससे संसारका परिभ्रमण बढ़े क्योंकि (ज्ञानी) स्वयं उद्यमी होकर क्रोधादिभावरूप परिणमता नहीं है यद्यपि "उदयकी बलवत्तासे परिणमता है तथापि ज्ञातृत्वका उल्लंघन करके परिणमता नहीं है; ज्ञानी का स्वामित्व निरंतर ज्ञानमें ही वर्तता है इसलिये वह क्रोधादिभावोंका अन्य ज्ञेयोंकी भाँति ज्ञाता ही है, कर्ता नहीं। इसप्रकार ज्ञानीके समस्त भाव ज्ञानमय ही हैं। * समदृष्टिकी रुचि सर्वदा शुद्धात्मद्रव्यके प्रति ही होती है; उनको कभी रागद्वेषादि भावोंकी रुचि नहीं होती, उसको जो रागद्वेषादि भाव होते हैं वे भाव, यद्यपि उसकी स्वयं की निर्बलतासे ही एवं उसके स्वयंके अपराधसे ही होते हैं। फिर भी वे रुचि-पूर्वक नहीं होते इसकारण उन भावों को कर्मकी बलवत्तासे होनेवाले भाव' कहने में आता है, इससे ऐसा नहीं समझना कि 'जड़ द्रव्यकर्म आत्मा के ऊपर लेशमात्र भी जोर कर सकता है', परन्तु ऐसा समझना कि विकारी भावोंके होने पर भी सम्यग्दृष्टि महात्मा की शुद्धात्मद्रव्य रुचिमें किंचित् भी कमी नहीं है, मात्र चारित्रादि सम्बन्धी निर्बलता है--ऐसा आशय बतलाने के लिये ऐसा कहा है। जहाँ जहाँ 'कर्मकी बलवत्ता, कर्मकी जबरदस्ती', 'कर्मका जोर' इत्यादि कथन होवे वहाँ वहाँ ऐसा आशय समझना। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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