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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्ष अधिकार ४२५ (स्रग्धरा) प्रज्ञाछेत्री शितेयं कथमपि निपुणैः पातिता सावधान: सूक्ष्मेऽन्तःसन्धिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य। आत्मानं मग्नमन्तःस्थिरविशदलसद्धाम्नि चैतन्यपूरे बन्धं चाज्ञानभावे नियमितमभितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ।। १८१ ।। ( अर्थात् दोनों एकपिंडरूप दिखाई देते हैं); इसलिये अनादि अज्ञान है। श्री गुरुओंका उपदेश प्राप्त करके उनके लक्षण भिन्न भिन्न अनुभव करके जानना चाहिये कि चैतन्यमात्र तो आत्माका लक्षण है और रागादिक बंधका लक्षण है, तथापि वे मात्र ज्ञेयज्ञायकभावकी अति निकटतासे वे एक जैसे ही दिखाई देते हैं। इसलिये तीक्षण बुद्धिरूपी छेनीको जो कि उन्हें भेदकर भिन्न करनेका शस्त्र है उसे-उनकी सूक्ष्म संधिको ढढकर उसमें सावधान (निष्प्रमाद) होकर पटकना चाहिये। उसके पडते ही दोनों भिन्न भिन्न दिखाई देने लगते हैं। और ऐसा होने पर, आत्माको ज्ञानभावमें ही और बंधको अज्ञानभावमें रखना चाहिये। इसप्रकार दोनोंको भिन्न करना चाहिये। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [इयं शिता प्रज्ञाछेत्री] यह प्रज्ञारूपी तीक्ष्ण छेनी [ निपुणैः ] प्रवीण पुरुषोंके द्वारा [ कथम् अपि] किसी भी प्रकारसे (–यत्नपूर्वक) [ सावधानैः] सावधानतया (निष्प्रमादतया) [ पातिता] पटकनेपर, [आत्म-कर्म-उभयस्य सूक्ष्मे अन्तःसन्धिबन्धे ] आत्मा और कर्म-दोनोंके सूक्ष्म अंतरंग संधिके बंधमें [ रभसात् ] शीघ्र [निपतति] पड़ती है। किस प्रकार पड़ती है ? [आत्मानम् अन्त:-स्थिर-विशदलसद्-धाम्नि चैतन्यपूरे मग्नम् ] वह आत्माको तो जिसका तेज अंतरंगमें स्थिर और निर्मलतया दैदीप्यमान है ऐसे चैतन्यप्रवाहमें मग्न करती हुई [च] और [बन्धम् अज्ञानभावे नियमितम् ] बंधको अज्ञानभावमें निश्चल (नियत) करती हुई- [अभितः भिन्नभिन्नौ कुर्वती ] इसप्रकार आत्मा और बंधको सर्वतः भिन्न भिन्न करती हुई पड़ती है। भावार्थ:-यहाँ आत्मा और बंधको भिन्न भिन्न करनेरूप कार्य है। उसका कर्ता आत्मा है। वहाँ करण बिना कर्ता किसके द्वारा कार्य करेगा ? इसलिये करण भी आवश्यक है। निश्चयनयसे कर्तासे करण भिन्न नहीं होता; इसलिये आत्मासे अभिन्न ऐसी यह बुद्धि ही इस कार्यमें करण है। आत्माके अनादि बंध ज्ञानावरणादि कर्म है, उसका कार्य भावबंध तो रागादिक है तथा नोकर्म शरीरादिक है। इसलिये बुद्धिके द्वारा आत्माको शरीरसे, ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मसे तथा रागादिक भावकर्मसे भिन्न एक चैतन्यभावमात्र अनुभवी ज्ञानमें ही लीन रखना सो यही (आत्मा और बंधको) दूर करना है। इसी से सर्व कर्मोंका नाश होता है, सिद्धपदकी प्राप्ति होती है, ऐसा जानना चाहिये। १८१। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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