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समयसार
४२६
आत्मबन्धौ द्विधा कृत्वा किं कर्तव्यमिति चेत्
जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं। बंधो छेदेदव्वो सुद्धो अप्पा य घेत्तव्यो।। २९५ ।।
जीवो बन्धश्च तथा छिद्येते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्याम्। बन्धरछेत्तव्यः शुद्ध आत्मा च गृहीतव्यः ।। २९५ ।।
आत्मबन्धौ हि तावन्नियतस्वलक्षणविज्ञानेन सर्वथैव छत्तव्यौ; ततो रागादिलक्षण: समस्त एव बन्धो निर्मोक्तव्यः, उपयोगलक्षणः शुद्ध आत्मैव गृहीतव्यः। एतदेव किलात्मबन्धयोxिधाकरणस्य प्रयोजनं यद्वन्धत्यागेन शुद्धात्मोपादानम्।
'आत्मा और बंधका द्विधा करके क्या करना चाहिये' ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं:
छेदन होवे जीव बंधका जहँ नियत निज निज चिह्न से । वह छोड़ना इस बंधको, जीव ग्रहण करना शुद्धको ।। २९५ ।।
गाथार्थ:- [ तथा ] इसप्रकार [ जीवः बन्धः च ] जीव और बंध [नियताभ्याम् स्वलक्षणाभ्यां] अपने निश्चित स्वलक्षणोंसे [छिद्येते ] छेदे जाते हैं। [ बन्ध:] वहाँ, बंधको [ छत्तव्यः ] छेदना चाहिये अर्थात् छोड़ना चाहिये [च ] और [ शुद्धः आत्मा ] शुद्ध आत्माको [ गृहीतव्यः ] ग्रहण करना चाहिये।
टीका:-आत्मा और बंधको प्रथम तो उनके नियत स्वलक्षणोंके विज्ञानसे सर्वथा ही छेद अर्थात् भिन्न करना चाहिये; तत्पश्चात् , रागादिक जिसका लक्षण है ऐसे समस्त बंधको तो छोड़ना चाहिये तथा उपयोग जिसका लक्षण है ऐसे शुद्ध आत्माको ही ग्रहण करना चाहिये। वास्तवमें यही आत्मा और बंधके द्विधा करनेका प्रयोजन है कि बंधके त्यागसे (-अर्थात् बंधका त्याग करके) शुद्ध आत्माको ग्रहण करना।
भावार्थ:-शिष्यने प्रश्न किया था कि आत्मा और बंधको द्विधा करके क्या करना चाहिये ? उसका यह उत्तर दिया है कि बंधका तो त्याग करना और शुद्ध आत्माका ग्रहण करना।
('आत्मा और बंधको भिन्न तो प्रज्ञाके द्वारा किया परंतु आत्माको किसके द्वारा ग्रहण किया जाये ?'-इस प्रश्नकी तथा उसके उत्तरको गाथा कहते हैं:
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