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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्ष अधिकार
कह सो धिप्पदि अप्पा पण्णाए सो दु धिप्पदे अप्पा । जह पण्णाइ विभत्तो तह पण्णाएव घेत्तव्वो ।। २९६ ।। कथं स गृह्यते आत्मा प्रज्ञया स तु गृह्यते आत्मा । यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः ।। २९६ ।।
ननु केन शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः ? प्रज्ञयैव शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः, शुद्धस्यात्मनः स्वयमात्मानं गृह्णतो, विभजत इव, प्रज्ञैककरणत्वात् । अतो यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः ।
कथमयमात्मा प्रज्ञया गृहीतव्य इति चेत्
पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा ।। २९७ ।।
यह जीव कैसे ग्रहण हो ? जीव ग्रहण प्रज्ञादि से । ज्यों अलग प्रज्ञासे किया, त्यों ग्रहण भी प्रज्ञाहि से ।। २९६ ।।
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गाथार्थ:- (शिष्य पूछता है कि - ) [ सः आत्मा ] वह ( शुद्ध ) आत्मा [ कथं ] कैसे [ गृह्यते ] ग्रहण किया जाये ? ( आचार्यदेव उत्तर देते हैं कि - ) [ प्रज्ञया तु ] प्रज्ञा के द्वारा [ सः आत्मा ] वह ( शुद्ध ) आत्मा [ गृह्यते ] ग्रहण किया जाता है । [ यथा ] जैसे [ प्रज्ञया ] प्रज्ञा के द्वारा [ विभक्त: ] भिन्न किया, [ तथा ] उसीप्रकार [ प्रज्ञया एव ] प्रज्ञाके द्वारा ही [ गृहीतव्य: ] ग्रहण करना चाहिये ।
टीका:- यह शुद्ध आत्मा किसके द्वारा ग्रहण करना चाहिये ? प्रज्ञाके द्वारा ही यह शुद्धात्मा ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि शुद्ध आत्माको स्वयं निजको ग्रहण करने में, प्रज्ञा ही एक करण है-जैसे भिन्न करने में प्रज्ञा ही एक करण था । इसलिये जैसे प्रज्ञा द्वारा भिन्न किया था उसीप्रकार प्रज्ञाके द्वारा ही ग्रहण करना चाहिये ।
भावार्थ:-भिन्न करनेमें और ग्रहण करनेमें करण अलग-अलग नहीं है; इसलिये प्रज्ञाके द्वारा ही आत्माको भिन्न किया और प्रज्ञाके द्वारा ही ग्रहण करना चाहिये।
अब प्रश्न होता है कि इस आत्माको प्रज्ञाके द्वारा कैसे ग्रहण करना चाहिये ? इसका उत्तर कहते हैं:
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