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जीव-अजीव अधिकार
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जीवस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य , पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्। यानि मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयतापूर्वकरणोपशमकक्षपकानिवृत्तिबादरसाम्प रायोपशमकक्षपकसूक्ष्मसाम्परायोपशमकक्षपकोपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगकेवल्यय गकेवलिलक्षणानि गुणस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्।
(शालिनी) वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी
नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात्।।३७ ।। ऐसे जो जीवस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २८। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि , सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण-उपशमक तथा क्षपक, अनिवृत्तिबादर-सांपराय-उपशमक तथा क्षपक, सूक्ष्मसांपराय-उपशमक तथा क्षपक, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवली जिनका लक्षण है ऐसे जो गुणस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २९ । (इसप्रकार ये समस्त ही पुद्गलद्रव्यके परिणाममय भाव हैं; वे सब जीव, के नहीं हैं। जीव तो परमार्थसे चैतन्यशक्तिमात्र है।)
अब इसी अर्थ कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ वर्ण-आद्याः ] जो वर्णादिक [ वा] अथवा [ राग-मोह-आदयः वा] रागमोहादिक [ भावाः ] भाव कहे [ सर्वे एव ] वे सब ही [ अस्य पुंसः] इस पुरुष( आत्मासे) [भिन्नाः ] भिन्न हैं [ तेन एव] इसलिये [अन्तःतत्त्वतः पश्यतः] अंतर्दष्टि से देखनेवालेको [अमी नो दृष्टाः स्युः] यह सब दिखाई नहीं देते [ एक परं दृष्टं स्यात् ] मात्र एक सर्वोपरी तत्त्व ही दिखाई देता है-केवल एक चैतन्यभावस्वरूप अभेदरूप आत्मा ही दिखाई देता है।
भावार्थ:-परमार्थनय अभेद ही है इसलिये इस दृष्टि से देखनेपर भेद नहीं दिखाई देता; अतः नयकी दृष्टि में पुरुष चैतन्यमात्र ही दिखाई देता है। इसलिये वे समस्त ही वर्णादिक तथा रागादिक भाव पुरुषसे भिन्न ही हैं।
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