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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार १०६ यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिपरिणामलक्षणानि बन्धस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूते-भिन्नत्वात्। यानि स्वफलसम्पादनसमर्थकावस्थालक्षणान्युदयस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूते-भिन्नत्वात्। यानि गतीन्द्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनलेश्याभव्य-सम्यक्त्वसंज्ञाहारलक्षणानि मार्गणास्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि प्रतिविशिष्ट-प्रकृतिकालान्तरसहत्वलक्षणानि स्थितिबन्धस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि कषायविपाकोद्रेकलक्षणानि संक्लेशस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि कषायविपाकानुद्रेकलक्षणानि विशुद्धिस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि चारित्रमोहविपाक क्रमनिवृत्तिलक्षणानि संयमलब्धिस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि पर्याप्तापर्याप्तबादरसूक्ष्मै केन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंड्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि भिन्न भिन्न प्रकृतियों के परिणाम जिनका लक्षण है ऐसे जो बंधस्थान वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २१। अपने फल के उत्पन्न करने में फल उत्पन्न करनेमें समर्थ कर्म-अवस्था जिनका लक्षण है ऐसे जो उदयस्थान वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २२। गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार जिनका लक्षण है ऐसे जो मार्गणास्थान वे सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २३। भिन्न भिन्न प्रकृतियोंका अमुक मर्यादा तक कालान्तर में साथ रहना जिनका लक्षण है ऐसे जो स्थितिबंधस्थान वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २४। कषायोंके विपाककी अतिशयता जिनका लक्षण है ऐसे जो संकलेशस्थान वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २५। कषायोंके विपाककी मंदता जिनका लक्षण है ऐसे जो विशुद्धिस्थान वे सर्व जीवके नहीं क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २६। चरित्रमोहके विपाककी क्रमशः निवृत्ति जिनका लक्षण है ऐसे जो संयमलब्धिस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २७। पर्याप्त एवं अपर्याप्त ऐसे बादर-सूक्ष्म एकेंद्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिंद्रिय और संज्ञी-असंज्ञी पंचेंद्रिय जिनका लक्षण है Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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