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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जीव-अजीव अधिकार १०५ यद् ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीयवेदनीयमोहनीयायुर्ना-मगोत्रान्तरायरूपं कर्म तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यत्षट्पर्याप्तित्रिशरीरयोग्यवस्तुरूपं नोकर्म तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्। यः शक्तिसमूहलक्षणो वर्ग: स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। या वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा सा सर्वापि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि मन्दतीव्ररस-कर्मदलविशिष्टन्यासलक्षणानि स्पर्धकानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि स्वपरैकत्वाध्यासे सति विशुद्धचित्परिणामातिरिक्तत्वलक्षणान्यध्यात्मस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिरसपरिणामलक्षणान्यनुभागस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यानि कायवाङ्मनोवर्गणापरिस्पन्दलक्षणानि योगस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य , पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। जो ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतरायरूप कर्म हैं वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १३। जो छह पर्याप्तियोग्य और तीन शरीरयोग्य वस्तु (-पुद्गलस्कंध) रूप नोकर्म हैं वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १४। जो कर्मके रसकी शक्तियोंका (अर्थात् अविभाग प्रतिच्छेदोंका) समूहरूप वर्ग है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १५। जो वर्गोंका समूहरूप वर्गणा है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १६ । जो मंदतीव्र रसवाले कर्मसमूहके विशिष्ट न्यास (-जमाव ) रूप (वर्गणाके समूहरूप) स्पर्धक हैं वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १७। स्वपरके एकत्वका अध्यास (निश्चय) हो तब (वर्तने पर), विशुद्ध चैतन्यपरिणामसे भिन्न रूप जिनका लक्षण है ऐसे जो अध्यात्मस्थान हैं वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १८। भिन्न भिन्न प्रकृतियोंके रसके परिणाम जिनका लक्षण है ऐसे जो अनुभागस्थान वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १९। कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणाका कंपन जिनका लक्षण है ऐसे जो योगस्थान वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २०। Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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