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समयसार
१०८
ननु वर्णादयो यद्यमी न सन्ति जीवस्य तदा तन्त्रान्तरे कथं सन्तीति प्रज्ञाप्यन्ते इति चेत्
ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स।।५६ ।।
व्यवहारेण त्वेते जीवस्य भवन्ति वर्णाद्याः। गुणस्थानान्ता भावा न तु केचिन्निश्चयनयस्य।। ५६ ।।
हि व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितत्वाज्जीवस्य पुद्गलसंयोगवशादनादिप्रसिद्धबन्धपर्यायस्य कुसुम्भरक्तस्य कार्पासिकवासस इवौपाधिकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमानः परभावं परस्य विदधाति; निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमान: परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति। ततो व्यवहारेण वर्णादयो गुणस्थानान्ता भावा जीवस्य सन्ति,
इह
ये वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यंत जो भाव हैं उनका स्वरूप विशेषरूपसे जानना हो तो गोम्मटसार आदि ग्रंथोंसे जान लेना। ३७।
__ अब शिष्य पूछता है कि-- यदि वर्णादिक भाव जीवके नहीं तो अन्य सिद्धांतग्रंथोमें ऐसा कैसे कहा गया है कि वे जीव के हैं' ? उसका उत्तर गाथारूपमें कहते हैं:
वर्णादि गुणस्थानांत भाव जु, जीवके व्यवहारसे। पर कोई भी ये भाव नहिं हैं , जीव के निश्चय विषै।। ५६।।
गाथार्थ:- [ एते] यह [वर्णाद्याः गुणस्थानान्ताः भावाः] वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो भाव कहे गये वे [ व्यवहारेण तु] व्यवहारनयसे तो [ जीवस्य भवन्ति] जीवके हैं (इसलिये सूत्रमें कहे गये हैं), [ तु] किन्तु [ निश्चयनयस्य] निश्चयनयके मतमें [ केचित् न ] उनमें से कोई भी जीव के नहीं हैं।
टीका:-यहाँ, व्यवहारनय पर्यायाश्रित होनेसे, सफेद रूईसे बना हुआ वस्त्र जो कि कसुंबी (लाल) रंग से रंगा हुआ है ऐसे वस्त्रके औपाधिकभाव ( -लाल रंग) की भाँति, पुद्गलके संयोगवश अनादि कालसे जिसकी बंधपर्याय प्रसिद्ध है ऐसे जीवके औपाधिक भाव (-वर्णादिक) का अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ, (वह व्यवहारनय ) दूसरे के भावको दूसरे का कहता है; और निश्चयनय द्रव्याश्रित होनेसे, केवल एक जीवके स्वाभाविक भावका अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ, दूसरेके भावको किंचित्मात्र भी दूसरे का नहीं कहता, निषेध करता है। इसलिये वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यंत जो भाव हैं वे व्यवहारनयसे जीवके हैं
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