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समयसार
विषयनुक्रमणिका पूर्वरंग
विषय
गाथा
पृष्ठ
प्रथम ३८ गाथाओंमें रंगभूमिस्थल बाँधा है, उसमें जीव नामके पदार्थका स्वरूप कहा है
मंगलाचरण, ग्रन्थप्रतीज्ञा
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यह जीव-अजीवरूप छह द्रव्यात्मक लोक है इसमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चार द्रव्य तो स्वभावपरिणतिसवरूप ही हैं और जीव पुद्गल द्रव्य के अनादिकाल के संयोग से विभाव परिणति भी है, क्योंकि स्पर्श, रस, गंध, वर्ण शब्दरूप मूर्तिक पुद्गल को देखकर यह जीव रागद्वेषमोहरूप परिणमता है और इसके निमित्त से पुद्गल कर्मरूप होकर जीव के साथ बँधता है। इस तरह इन दोनोंके अनादिसे बंधावस्था है । जीव जब निमित्त पाकर रागादिकरूप नहीं परिणमता तब नवीन कर्म भी नहीं बँधते, पुराने कर्म झड़ जाते हैं, इसलिये मोक्ष होता है; ऐसे जीवके स्वसमय - परसमयकी प्रवृत्ति होती है । जब जीव सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र भावरूप अपने स्वभाव रूप परिणमता है तब स्वसमय होता है और जब मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमता है तब पुद्गल कर्म में ठहरा हुआ परसमय है ऐसा कथन जीवके पुद्गल कर्म के साथ बंध होने से परसमयपना है सो सुन्दर नहीं है, कारण कि इसमें जीव संसार में भ्रमता अनेक तरह के दुःख पाता है; इसलिये स्वभावमें स्थिर होकर सब से जुदा होकर अकेला स्थिर होय तभी सुन्दर [ ठीक ] है जीव के जुदापन और एकपन का पाना दुर्लभ है; क्योंकि बंध
की कथा तो सभी प्रणी करते हैं, एकत्व की कथा विरले जानते हैं जो कि दुर्लभ हैं, उसी संबंधी कथन इस कथा को हम सब अपने अनुभव से बुद्धिके अनुसार कहते है; उसको अन्य जीव भी अपने अनुभव से परीक्षा कर ग्रहण
करना
| शुद्धनयसे देखिये तो जीव अप्रमत्त प्रमत्त दोनों दशाओंसे जुदा एक ज्ञायकभावमात्र है जो कि जाननेवाला है वही जीव है इस ज्ञायक भावमात्र आत्माके दर्शन - ज्ञान - चारित्रके भेद कर भी अशुद्धपन नहीं है, ज्ञायक है वह ज्ञायक ही है
आत्मा को व्यवहारनय अशुद्ध कहता है उस व्यवहारनय के उपदेश का प्रयोजन
व्यवहारनय परमार्थका प्रतिपादक कैसे है ?
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