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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
अथ ज्ञायकस्तु भावो ज्ञानस्वभावेन तिष्ठतीति मतम्। तस्मान्नाप्यात्मात्मानं तु स्वयमात्मनः करोति ।। ३४४ ।।
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कर्मैवात्मानमज्ञानिनं करोति, ज्ञानावरणाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः। कर्मैव ज्ञानिनं करोति, ज्ञानावरणाख्यकर्मक्षयोपशममन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव स्वापयति, निद्राख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः। कर्मैव जागरयति, निद्राख्यकर्मक्षयोपशममन्तरेण तदनुपपत्तेः। कर्मैव सुखयति, सद्वेद्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः। कर्मैव दुःखयति, असद्वेद्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः। कर्मैव मिथ्यादृष्टिं करोति, मिथ्यात्वकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैवासंयतं करोति, चारित्रमोहाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैवोर्ध्वाधम्तिर्यग्लोकं भ्रमयति, आनुपूर्व्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः।
[ अथ ] अथवा यदि ' [ ज्ञायक: भावः तु ] ज्ञायक भाव तो [ ज्ञानस्वभावेन तिष्ठति ] ज्ञानस्वभावसे स्थित रहता है' [ इति मतम् ] ऐसा माना जाये, [ तस्मात् अपि ] तो इससे भी [ आत्मा स्वयं ] आत्मा स्वयं [ आत्मनः आत्मानं तु ] अपने आत्माको [ न करोति ] नहीं करता यह सिद्ध होगा ।
(इसप्रकार कर्तृत्व को सिद्ध करने के लिये विवक्षाको बदलकर जो पक्ष का है वह घटित नहीं होता । )
(इसप्रकार, यदि कर्मका कर्ता कर्म ही माना जाये तो स्यादवादके साथ विरोध आता है; इसलिये आत्माको अज्ञान - अवस्थामें कथंचित् अपने अज्ञानभावरूप कर्मका कर्ता मानना चाहिये, जिससे स्याद्वाद के साथ विरोध नहीं आता । )
टीका:- ( यहाँ पूर्वपक्ष इसप्रकार है: ) " कर्म ही आत्माको अज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानावरण नामक कर्मके उदय बिना उसकी ( - अज्ञानकी) अनुपपत्ति है; कर्म ही (आत्माको ) ज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानावरण नामक कर्मके क्षयोपशमके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही सुलाता है, क्योंकि निद्रा नामक कर्मके उदय बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही जगाता है, क्योंकि निद्रा नामक कर्मके क्षयोपशमके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही सुखी करता है, क्योंकि सातावेदनीय नामक कर्मके उदय बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही दुःखी करता है, क्योंकि असातावेदनीय नामक कर्मके उदय बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही मिथ्यादृष्टि करता है, क्योंकि मिथ्यात्वकर्मके उदय बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही असंयमी करता है, क्योंकि चारित्रमोह नामके कर्मके उदय बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही ऊर्ध्वलोकमें, अधोलोकमें और तिर्यग्लोकमें भ्रमण कराता है, क्योंकि आनुपूर्वी नामक कर्मके उदय बिना उसकी अनुपपत्ति है;
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