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समयसार
४७६
अपरमपि यद्यावत्किञ्चिच्छुभाशुभं तत्तावत्सकलमपि कर्मैव करोति, प्रशस्ताप्रशस्तरागाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः। यत एवं समस्तमपि स्वतन्त्र कर्म करोति, कर्म ददाति, कर्म हरति च, ततः सर्व एव जीवाः नित्यमेवैकान्तेनाकार एवेति निश्चिनुमः। किञ्च-श्रुतिरप्येनमर्थमाह; पुवेदाख्यं कर्म स्त्रियमभिलषति, स्त्रीवेदाख्यं कर्म पुमांसमभिलषति इति वाक्येन कर्मण एव कर्माभिलाषकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्याब्रह्मकर्तृत्वप्रतिषेधात्, तथा यत्परं हन्ति, येन च परेण हन्यते तत्परघातकर्मेति वाक्येन कर्मण एव कर्मघातकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्य घातकर्तृत्वप्रतिषेधाच सर्वथैवाकर्तृत्वज्ञापनात्। एवमीदृशं सांख्यसमय स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमानाः केचिच्छुमणाभासाः प्ररूपयन्ति; तेषां प्रकृतेरेकान्तेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकान्तेनाकर्तृत्वापत्तेः जीवः कर्तेति श्रुतेः कोपो दुःशक्य: परिहर्तुम्। यस्तु कर्म आत्मनोऽज्ञानादिसर्वभावान् पर्यायरूपान् करोति, आत्मा त्वात्मानमेवैकं द्रव्यरूपं करोति, ततो जीवः कर्तेति श्रुतिकोपो न भवतीत्यभिप्रायः स मिथ्यैव।
दूसरा भी जो कुछ जितना शुभ-अशुभ है वह सब कर्म ही करता है, क्योंकि प्रशस्त-अप्रशस्त राग नामक कर्मके उदय बिना उनकी अनुपपत्ति है। इसप्रकार सब कुछ स्वतंत्रतया कर्म ही करता है, कर्म ही देता है, कर्म ही हर लेता है, इसलिये हम यह निश्चय करते हैं कि-सभी जीव सदा एकांतसे अकर्ता ही हैं। और श्रुति (भगवानकी वाणी, शास्त्र) भी इसी अर्थको कहती है; क्योंकि, ( वह श्रुति) 'पुरुषवेद नामक कर्म स्त्रीकी अभिलाषा करता है और स्त्रीवेद नामक कर्म पुरुषकी अभिलाषा करता है' इस वाक्यसे कर्मको ही कर्मकी अभिलाषाके कर्तृत्वके समर्थन द्वारा जीवको अब्रह्मचर्यके कर्तृत्वका निषेध करती है, तथा ‘जो परको हनता है और जो परके द्वारा हना जाता है वह परघातकर्म है' इस वाक्यसे कर्म ही कर्मके घातका कर्तत्व होनेके समर्थन द्वारा जीवके घातके कर्तृत्वका निषेध करती है, और इसप्रकार (अब्रह्मचर्यके तथा घातके कर्तृत्वके निषेध द्वारा) जीवका सर्वथा ही अकर्तृत्व बतलाती है।"
(आचार्यदेव कहते हैं कि:-) इसप्रकार ऐसे सांख्यमतको, अपनी प्रज्ञा (बुद्धि) के अपराधसे सूत्रके अर्थको न जानने वाले कुछ श्रमणाभास प्ररूपित करते हैं; उनकी , एकांत प्रकृतिके कर्तृत्वकी मान्यतासे, समस्त जीवोंके एकांतसे अकर्तृत्व आ जाता है इसलिये ‘जीव कर्ता है' ऐसी जो श्रुति है उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है (अर्थात् भगवानकी वाणीकी विराधना होती है)। और, 'कर्म आत्माके अज्ञानादि सर्व भावोंको-जो कि पर्यायरूप हैं उन्हें-करता है, और आत्मा तो आत्माको ही एकको द्रव्यरूपको करता है इसलिये जीव कर्ता है; इसप्रकार श्रुतिका कोप नहीं होता'-ऐसा जो अभिप्राय है वह मिथ्या ही है।
* श्रमणाभास = मुनिके गुण नहीं होने पर भी अपनेको मुनि कहलानेवाले।
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