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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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जीवो हि द्रव्यरूपेण तावन्नित्योऽसंख्येयप्रदेशो लोकपरिमाणश्च। तत्र न तावन्नित्यस्य कार्यत्वमुपपन्नं, कृतकत्वनित्यत्वयोरेकत्वविरोधात्। न चावस्थितासंख्येयप्रदेशस्यैकस्य पुद्गलस्कन्धस्येव प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणद्वारेणापि तस्य कार्यत्वं, प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणे सति तस्यैकत्वव्याघातात्।
चापि सकललोकवास्तुविस्तारपरिमितनियतनिजाभोगसंग्रहस्य प्रदेशसङ्कोचन - विकाशनद्वारेण तस्य कार्यत्वं, प्रदेशसङ्कोचनविकाशनयोरपि शुष्कार्द्रचर्मवत्प्रतिनियतनिजविस्ताराद्धीनाधिकस्य तस्य कर्तुमशक्यत्वात्। यस्तु वस्तुस्वभावस्य सर्वथापोढुमशक्यत्वात् ज्ञायको भावो ज्ञानस्वभावेन सर्वदैव तिष्ठति, तथा तिष्ठंश्च ज्ञायककर्तृत्वयोरत्यन्तविरुद्धत्वान्मिथ्यात्वादिभावानां न कर्ता भवति, भवन्ति च मिथ्यात्वादिभावाः, ततस्तेषां कर्मैव कर्तृ प्ररूप्यत इति वासनोन्मेषः स तु नितरामात्मात्मानं करोतीत्यभ्युपगममुपहन्त्येव।
(इसी को समझाते हैं:) जीव तो द्रव्यरूपसे नित्य है, असंख्यात-प्रदेशी है और लोकपरिमाण है। उसमें प्रथम, नित्यका कार्यत्व नहीं बन सकता, क्योंकि कृतकत्वके
और नित्यत्वके एकत्वका विरोध है। (आत्मा नित्य है इसलिये वह कृतक अर्थात् किसीके द्वारा किया गया नहीं हो सकता।) और अवस्थित असंख्य-प्रदेशवाले एक (-आत्मा) को पुद्गलस्कंधकी भाँति, प्रदेशोंका प्रक्षेपण-आकर्षण द्वारा भी कार्यत्व नहीं बन सकता, क्योंकि प्रदेशोंका प्रक्षेपण तथा आकर्षण हो तो उसके एकत्वका व्याघात हो जायेगा। (स्कंध अनेक परमाणुओंका बना हुआ है, इसलिये उसमेंसे परमाणु निकल जाते हैं तथा उनमें आ भी जाते हैं; परंतु आत्मा निश्चित असंख्यप्रदेशवाला एक ही द्रव्य है इसलिये वह अपने प्रदेशोंको निकाल नहीं सकता तथा अधिक प्रदेशोंको ले नहीं सकता।) और सकल लोकरूपी घरके विस्तारसे परिमित जिसका निश्चित निज विस्तार-संग्रह है ( अर्थात् जिसका लोक जितना निश्चित माप है) उसके ( -आत्माके) प्रदेशोंके संकोच-विकास द्वारा भी कार्यत्व नहीं बन सकता, क्योंकि प्रदेशोंकें संकोच-विस्तार होने पर भी, सूखे-गीले चमड़ेकी भाँति, निश्चित निज विस्तारके कारण उसे (-आत्माको) हीनाधिक नहीं किया जा सकता । (इसप्रकार आत्माके द्रव्यरूप आत्माका कर्तृत्व नहीं बन सकता।) और, “ वस्तुस्वभावका सर्वथा मिटना अशक्य होनेसे ज्ञायक भाव ज्ञानस्वभावसे ही सदा स्थित रहता है और इसप्रकार स्थित रहता हुआ, ज्ञायकत्व और कर्तृत्वके अत्यंत विरुद्धता होनेसे , मिथ्यात्वादि भावोंका कर्ता नहीं होता; और मिथ्यात्वादि भाव तो होते हैं; इसलिये उनका कर्ता कर्म ही है इसप्रकार प्ररूपित किया जाता है"-ऐसी जो वासना (अभिप्राय, झुकाव ) प्रगट की जाती है वह भी ‘आत्मा आत्माको करता है' इस (पूर्वोक्त) मान्यताका अतिशयता पूर्वक घात करती है (क्योंकि सदा ज्ञायक माननेसे आत्मा अकर्ता ही सिद्ध हुआ)।
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