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बंध अधिकार
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इतराध्यवसानैरितरं च आत्मात्मानं कुर्यात्, तथा विपच्यमाननारकाध्यवसानेन नारकं, विपच्यमानतिर्यगध्यवसानेन तिर्यञ्चं, विपच्यमानमनुष्याध्यवसानेन मनुष्यं, विपच्यमानदेवाध्यवसानेन देवं, विपच्यमानसुखादिपुण्याध्यवसानेन पुण्यं, विपच्यमानदुःखादिपापाध्यवसानेन पापमात्मानं कुर्यात्। तथैव च ज्ञायमानधर्माध्यवसानेन
धर्म,
ज्ञायमानाधर्माध्यवसानेनाधर्म, ज्ञायमानजीवान्तराध्यवसानेन जीवान्तरं, ज्ञायमानपुद्गलाध्यवसानेन पुद्गलं, ज्ञायमानलोकाकाशाध्यवसानेन लोकाकाशं, ज्ञायमानालोकाकाशाध्यवसानेनालोकाकाशमात्मानं कुर्यात्।
(इन्द्रवज्त्रा) विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावादात्मानमात्मा विदधाति विश्वम्। मोहैककन्दोऽध्यवसाय एष नास्तीह येषां यतयस्त एव।। १७२ ।।
( अहिंसाके अध्यवसानसे अपने अहिंसक करता है) और अन्य अध्यवसानोंसे अपनेको अन्य करता है, इसीप्रकार उद्यमें आते हुए नारकके अध्यवसानसे अपनेको नारकी करता है, उदयमें आते हुए तिर्यंचके अध्यवसानसे अपनेको तिर्यंच करता है, उदयमें आते हुए मनुष्यके अध्यवसानसे अपनेको मनुष्य करता है, उदयमें आते हुए देवके अध्यवसानसे अपनेको देव करता है, उदयमें आते हुए सुख आदि पुण्यके अध्यवसानसे अपनेको पुण्यरूप करता है और उदयमें आते हुए दुःख आदि पापके अध्यवसानसे अपनेको पापरूप करता है; और इसीप्रकार जानने में आता हुआ जो धर्म (धर्मास्तिकाय ) है उसके अध्यवसानसे अपनेको धर्मरूप करता है, जानने में आता हुए अधर्मके (अधर्मास्तिकायके) अध्यवसानसे अपनेको अधर्मरूप करता है, जाननेमें आते हुए अन्य जीवके अध्यवसानोंसे अपनेको अन्यजीवरूप करता है, जाननेमें आते हुए पुद्गलके अध्यवसानोंसे अपनेको पुद्गलरूप करता है, जाननमें आता हुए लोकाकाशके अध्यवसानसे अपनेको लोकाकाशरूप करता है और जाननेमें आते हुए अलोकाकाशके अध्यवसानसे अपनेको अलोकाकाशरूप करता है। (इसप्रकार आत्मा अध्यवसानसे अपनेको सर्वरूप करता है।)
भावार्थ:-यह अध्यवसान अज्ञानरूप है इसलिये उसे अपना परमार्थ स्वरूप नहीं जानना चाहिये। उस अध्यवसानसे ही आत्मा अपनेको अनेक अवस्थारूप करता है अर्थात् उनमें अपनापन मानकर प्रवर्तता है।
अब इस अर्थका कलशरूप तथा आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ:- [ विश्वात् विभक्तः अपि हि] विश्वसे (समस्त द्रव्योंसे) भिन्न होनेपर भी [ आत्मा] आत्मा [ यत्-प्रभावात् आत्मानम् विश्वम् विदधाति] जिसके प्रभावसे अपनेको विश्वरूप करता है [ एषः अध्यवसाय: ] ऐसा यह अध्यवसाय
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