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________________ ३९४ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ।। २७० ।। एतानि न सन्ति येषामध्यवसानान्येवमादीनि । शुभेन शुभेन वा कर्मणा मुनयो न लिप्यन्ते ।। २७० ।। एतानि किल यानि तानि समस्तान्यपि शुभाशुभकर्मबन्धनिमित्तानि, हिनस्मीत्याद्यध्यवसानं तत्, त्रिविधान्यध्यवसानानि स्वयमज्ञानादिरूपत्वात्। तथाहि-यदिदं ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियस्य रागद्वेषविपाकमयीनां हननादिक्रियाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानात्, अस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च [ मोह - एक - कन्दः ] कि जिसका मोह ही एक मूल है वह - [ येषां इह नास्ति ] जिनके नहीं है [ ते एव यतयः ] वे ही मुनि है । १७२ । यह अध्यवसाय जिनके नहीं वे मुनि कर्मसे लिप्त नहीं होते - यह अब गाथा द्वारा कहते हैं: - इन आदि अध्यवसान विधविध वर्तते नहि जिनहिको । शुभ-अशुभ कर्म अनेकसे, मुनिराज वे नहिं लिप्त हों ।। २७०।। गाथार्थ:- [ एतानि ] यह ( पूर्व कथित ) [ एवमादीनि ] तथा ऐसे और भी [ अध्यवसानानि ] अध्यवसान [ येषाम् ] जिनके [ न सन्ति ] नहीं है, [ते मुनयः] वे मुनि [ अशुभेन ] अशुभ [ वा शुभेन ] या शुभ [ कर्मणा ] कर्मसे [ न लिप्यन्ते ] लिप्त नहीं होते। टीका:-यह जो तीनों प्रकारके अध्यवसान हैं वे सभी स्वयं अज्ञानादिरूप (अर्थात् अज्ञान, मिथ्यादर्शन और अचारित्ररूप ) होनेसे शुभाशुभ कर्मबंधके निमित्त हैं। इसे विशेष समझाते हैं: - ' मैं ( पर जीवोंको) मारता हूँ', इत्यादि जो अध्यवसान है उस अध्यवसानवाले जीवको, ज्ञानमयपने के सद्भावसे 'सत्रूप अहेतुकज्ञप्ति ही जिसकी एक क्रिया है ऐसे आत्माका और रागद्वेषके उदयमय ऐसी हनन आदि क्रियाओंका "विशेष नहीं जाननेके कारण भिन्न आत्माका अज्ञान होनेसे, वह अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान है, भिन्न आत्माका अदर्शन ( अश्रद्धान) होनेसे १। सत्प = सत्तास्वरूप; अस्तित्वस्वरूप । ( आत्मा ज्ञानमय है इसलिये सत्प अहेतुक ज्ञप्ति ही उसकी एक क्रिया है । ) २। अहेतुक = जिसका कोई कारण नहीं है ऐसी, अकारण; स्वयंसिद्ध; सहज । ३। ज्ञप्ति = जानना; जाननेरूपक्रिया । (ज्ञप्तिक्रिया सत्प है, और सत्प होनेसे अहेतुक है । ) ४। हनन = घात करना; घात करनेरूप क्रिया ( घात करना आदि क्रियायें रागद्वेषके उदयमय हैं। ) ५। विशेष= अन्तर; भिन्न लक्षण । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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