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बंध अधिकार
३८७
एवमयमज्ञानात् यो यथा हिंसायां विधीयतेऽध्यवसायः, तथा असत्यादत्ताब्रह्मपरिग्रहेषु यश्च विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पापबन्धहेतुः। यस्तु अहिंसायां यथा विधीयते अध्यवसायः, तथा यश्च सत्यदत्तब्रह्मापरिग्रहेषु विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पुण्यबन्धहेतुः।
न च बाह्यवस्तु द्वितीयोऽपि बन्धहेतुरिति शक्यम्
वत्थु पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं। ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्थि।। २६५ ।।
वस्तु प्रतीत्य यत्पुनरध्यवसानं तु भवति जीवानाम्। न च वस्तुतस्तु बन्धोऽध्यवसानेन बन्धोऽस्ति।। २६५ ।।
टीका:-इसप्रकार (-पूर्वोक्त प्रकार) अज्ञानसे यह जो हिंसामें अध्यवसाय किया जाता है उसीप्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रहमें भी जो (अध्यवसाय) किया जाता है, वह सब पाप बंधका एकमात्र कारण है; और जो अहिंसामें अध्यवसाय किया जाता है उसीप्रकार सत्य, अचौर्य, बह्मचर्य और अपरिग्रहमें भी ( अध्यवसाय) किया जाये, वह सब पुण्यके बंधका एकमात्र कारण है।
भावार्थ:-जैसे हिंसामें अध्यवसाय वह पापबंधका कारण कहा है, उसीप्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रहका अध्यवसाय भी पापबंधका कारण है। और जैसे अहिंसामें अध्यवसाय वह पुण्यबंधका कारण है उसीप्रकार सत्य, अचौर्य (-दिया हुआ लेना वह), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहमें अध्यवसाय भी पुण्यबंधका कारण है। इसप्रकार, पाँच पापोंमें (अव्रतोंमें) अध्यवसाय किया जाये सो पापबंधका कारण है और पाँच ( एकदेश या सर्वदेश) व्रतोंमें अध्यवसाय किया जाये सो पुण्यबंधका कारण है। पाप और पुण्य दोनों के बंधनमें , अध्यवसाय ही एक मात्र बंधका कारण है।
और भी ऐसी शंका न करनी कि ‘बाह्यवस्तु वह दूसरा भी बंधका कारण होगा'। ('अध्यवसाय वह बंधका एक कारण होगा और बाह्यवस्तु वह बंधका दूसरा कारण होगा' ऐसी भी शंका करने योग्य नहीं है; अध्यवसाय ही एकमात्र बंधका कारण है, बाह्यवस्तु नहीं।) इसी अर्थकी गाथा अब कहते हैं:
जो होय अध्यवसान जीवके, वस्तु-आश्रित वो बने । पर वस्तुसे नहिं बंध, अध्यवसानसे ही बंध है ।। २६५।।
गाथार्थ:- [ पुनः ] और, [जीवानाम् ] जीवोंके [ यत् ] जो [ अध्यवसानं तु] अध्यवसान [ भवति ] होता है वह [ वस्तु] वस्तुको [ प्रतीत्य ] अवलंबकर होता है
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