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समयसार
३८८
अध्यवसानमेव बन्धहेतुः, न तु बाह्यवस्तु, तस्य बन्धहेतोरध्यवसानस्य हेतुत्वेनैव चरितार्थत्वात्। तर्हि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेधः ? अध्यवसानप्रतिषेधार्थः। अध्यवसानस्य हि बाह्यवस्तु आश्रयभूतं; न हि बाह्यवस्त्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मानं लभते। यदि बाह्यवस्त्वनाश्रित्यापि अध्यवसानं जायेत तदा, यथा वीरसूसुतस्याश्रयभूतस्य सद्भावे वीरसूसुतं हिनस्मीत्यध्यवसायो जायते, तथा वन्ध्यासुतस्याश्रय-भूतस्यासद्भावेऽपि वन्ध्यासुतं हिनस्मीत्यध्यवसायो जायेत। न च जायते। ततो निराश्रयं नास्त्यध्यवसानमिति नियमः। तत एव चाध्यवसानाश्रयभूतस्य बाह्यवस्तुनोऽत्यन्तप्रतिषेधः, हेतुप्रतिषेधेनैव हेतुमत्प्रतिषेधात्। न च बन्धहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्यवस्तु बन्धहेतु: स्यात्, ईर्यासमितिपरिणतयतीन्द्रपदव्यापाद्यमानवेगापतत्कालचोदितकुलिङ्गवत्,
[च तु] तथापि [वस्तुतः] वस्तुसे [ न बन्धः] बंध नहीं होता, [ अध्यवसानेन] अध्यवसानसे ही [ बन्धः अस्ति ] बंध होता है।
टीका:-अध्यवसान ही बंधका कारण है; बाह्यवस्तु बंधका नहीं, क्योंकि बंधका कारण जो अध्यवसान है उसके कारणत्वसे ही बाह्यवस्तुकी चलितार्थता है (अर्थात् बंधके कारणभूत अध्यवसानका कारण होनेमें ही बाह्यवस्तुका कार्यक्षेत्र पूरा हो जाता है, वह वस्तु बंधका कारण नहीं होती)। यहाँ प्रश्न होता है कि-यदि बाह्यवस्तु बंधका कारण नहीं है तो ( 'बाह्यवस्तका प्रसंग मत करो. किन्त त्याग करो' इसप्रकार) बाह्यवस्तुका प्रतिषेध (निषेध) किस लिये किया जाता है ? इसका समाधान इस प्रकार है:-अध्यवसानके निषेध के लिये बाह्यवस्तुका निषेध किया जाता है। अध्यवसानको बाह्यवस्तु आश्रयभूत है; बाह्यवस्तुका आश्रय किये बिना अध्यवसान अपने स्वरूपको प्राप्त नहीं होता अर्थात् उत्पन्न नहीं होता। यदि बाह्यवस्तुके आश्रय के बिना भी अध्यवसान उत्पन्न नहीं होता तो, जैसे आश्रयभूत वीरजननीके [ शूरवीरको जन्म देनेवाली; शूरवीरकी माता।] पुत्रके सद्भावमें (किसीको) ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न होता है कि 'मैं वीरजननीके पुत्रको मारता हूँ' इसीप्रकार अश्रयभूत बंध्यापुत्रके असद्भावमें भी (किसीको) ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न होना चाहिये कि 'मैं बंध्यापुत्रको मारता हूँ'। परंतु ऐसा अध्यवसाय तो (किसीको) उत्पन्न नहीं होता। (जहाँ बंध्याका पुत्र ही नहीं होता वहाँ मारनेका अध्यवसाय कहाँ से उत्पन्न हो ?) इसलिये यह नियम है कि (बाह्यवस्तुरूप) आश्रय के बिना अध्यवसान नहीं होता। और इसलिये अध्यवसानको आश्रयभूत बाह्यवस्तुका अत्यन्त निषेध किया है, क्योंकि कारणके प्रतिषेधसे ही कार्यका प्रतिषेध होता है। (बाह्यवस्तु अध्यवसानका कारण है इसलिये उसके प्रतिषेधसे अध्यवसानका प्रतिषेध होता है)। परंतु, यद्यपि बाह्यवस्तु बंधके कारणका (अर्थात् अध्यवसानका) कारण है तथापि वह (बाह्यवस्तु) बंधका कारण नहीं है; क्योंकि ईर्यासमितिमें परिणमित मुनींद्रके चरणसे मर जाने वाले ऐसे किसी वेगसे
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