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समयसार
३८६
अथाध्यवसायं पापपुण्ययोर्बन्धहेतुत्वेन दर्शयति
एवमलिए अदत्ते अबंभचेरे परिग्गहे चेव। कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पावं ।। २६३ ।। तह वि य सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गहत्तणे चेव। कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पुण्णं ।। २६४ ।।
एवमलीकेऽदत्तेऽब्रह्मचर्ये परिग्रहे चैव। क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पापम्।। २६३ ।। तथापि च सत्ये दत्ते ब्रह्मणि अपरिग्रहत्वे चैव। क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पुण्यम्।। २६४ ।।
होता। इसलिये जो यह मानता है-अहंकार करता है कि 'मैं पर जीवोंको मारता हूँ', उसका यह अहंकाररूप अध्यवसाय अज्ञानमय है। वह अध्यवसाय ही हिंसा है-अपने विशुद्ध चैतन्यप्राणका घात है, और वही बंधका कारण है। यह निश्चयनयका मत है।
यहाँ व्यवहारनयको गौण करके कहा है ऐसा जानना चाहिये। इसलिये यह कथन कथंचित् ( अपेक्षापूर्वक) है ऐसा समझना चाहिये; सर्वथा एकांतपक्ष मिथ्यात्व है।
__ अब, ( हिंसा-अहिंसाकी भाँति सर्व कार्योमें) अध्यवसायको ही पाप-पुण्यके बंधके कारणरूपसे दिखाते हैं:
यों झूठ मांहि , अदत्तमें , अब्रह्म अरु परिग्रह विर्षे । जो होय अध्यवसान उससे पापबंधन होय है ।। २६३ ।। इस रीत सत्य रु, दत्तमें , त्यों ब्रह्म अनपरिग्रहविर्षे । जो होय अध्यवसान उससे पुण्यबंधन होय है ।। २६४ ।।
गाथार्थ:- [ एवम ] इसीप्रकार (जैसे कि पहले हिंसाके अध्यवसायके सम्बंध में कहा गया है) उसीप्रकार [अलीके ] असत्यमें , [अदत्ते ] चोरीमें, [ अब्रह्मचर्ये ] अब्रह्मचर्यमें [च एव] और [ परिग्रहे ] परिग्रहमें [ यत् ] जो [अध्यवसानं] अध्यवसान [क्रियते] किया जाता है [ तेन तु] उससे [ पापं बध्यते ] पापका बंध होता है; [ तथापि च ] और इसीप्रकार [ सत्ये] सत्यमें , [ दत्ते ] अचौर्यमें, [ ब्रह्मणि ] ब्रह्मचर्यमें [च एव] और [अपरिग्रहत्वे] अपरिग्रहमें [यत्] जो [अध्यवसानं] अध्यवसान[ क्रियते] किया जाता है [ तेन तु] उससे [ पुण्यं बध्यते] पुण्यका बंध होता है।
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