________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
बंध अधिकार
३८५
एवं हि हिंसाध्यवसाय एव हिंसेत्यायातम्।
अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ। एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स।। २६२ ।। अध्यवसितेन बन्धः सत्त्वान् मारयतु मा वा मारयतु। एष बन्धसमासो जीवानां निश्चयनयस्य।। २६२ ।।
परजीवानां स्वकर्मोदयवैचित्र्यवशेन प्राणव्यपरोपः कदाचिद्भवतु, कदाचिन्मा भवतु, य एव हिनस्मीत्यहङ्काररसनिर्भरो हिंसायामध्यवसायः स एव निश्चयतस्तस्य बन्धहेतुः, निश्चयेन परभावस्य प्राणव्यपरोपस्य परेण कर्तुमशक्यत्वात्।
भावार्थ:-यह अज्ञानमय अध्यवसाय ही बंधका कारण है। उसमें , 'जिलाता हूँ, सुखी करता हूँ' ऐसे शुभ अहंकारसे भरा हुआ वह शुभ अध्यवसाय है और मैं मारता हूँ, दुःखी करता हूँ' ऐसे अशुभ अहंकारसे भरा हुआ वह अशुभ अध्यवसाय है। अहंकाररूप मिथ्याभाव दोनों में है; इसलिये अज्ञानमयतासे दोनों अध्यवसाय एक ही हैं। अतः यह न मानना चाहिए कि पुण्यका कारण दूसरा है और पापका कारण कोई अन्य। अज्ञानमय अध्यवसाय ही दोनोंका कारण है।
इसप्रकार वास्तवमें हिंसाका अध्यवसाय ही हिंसा है यह फलित हुआ'-यह कहते हैं:
मारो-न मारो जीवको, है बंध अध्यवसान से । -यह आतमाके बंधका, संक्षेप निश्चयनय विषै ।। २६२।।
___ गाथार्थ:- [ सत्त्वान् ] जीवोंको [ मारयतु] मारो [ वा मा मारयतु] अथवा न मारो- [बन्ध: ] कर्मबंध [अध्यवसितेन] अध्यवसानसे ही होता है। [ एष:] यह, [निश्चयनयस्य ] निश्चयनयसे , [ जीवानां] जीवोंके [ बन्धसमासः ] बंधका संक्षेप है।
टीका:-परजीवोंको अपने कर्मोदयकी विचित्रतावश प्राणोंका व्यपरोप (उच्छेद, वियोग) कदाचित् हो, कदाचित् न हो, –किन्तु 'मैं मारता हूँ' ऐसा जो अहंकाररससे भरा हुआ हिंसाका अध्यवसाय ही निश्चयसे उसके ( हिंसाका अध्यवसाय करनेवाले जीवको) बंधका कारण है, क्योंकि निश्चयसे परका भाव जो प्राणोंका व्यपरोप वह दूसरे से किया जाना अशक्य है (अर्थात् वह परसे नहीं किया जा सकता)।
भावार्थ:-निश्चयनयसे दूसरेके प्राणोंका वियोग दूसरेसे नहीं किया जा सकता; अपने कर्मोंके उदयकी विचित्रताके कारण कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com