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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ३८४ मारिमि जीवावेमि य सत्ते जं एवमज्झवसिदं ते। तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि।। २६१ ।। दुःखितसुखितान् सत्त्वान् करोमि यदेवमध्यवसितं ते। तत्पापबन्धकं वा पुण्यस्य वा बन्धकं भवति।। २६० ।। मारयामि जीवयामि वा सत्त्वान् यदेवमध्यवसितं ते। तत्पापबन्धकं वा पुण्यस्य वा बन्धकं भवति।। २६१ ।। य एवायं मिथ्यादृष्टेरज्ञानजन्मा रागमयोऽध्यवसाय: स एव बन्धहेतु: इत्यवधारणीयम्। न च पुण्यपापत्वेन द्वित्वाद्बन्धस्य तद्धत्वन्तरमन्वेष्टव्यं; एकेनैवानेनाध्यवसायेन दुःखयामि मारयामि इति, सुखयामि जीवयामीति च द्विधा शुभाशुभाहङ्काररसनिर्भरतया द्वयोरपि पुण्यपापयोर्बन्धहेतुत्वस्याविरोधात्।। करता तू अध्यवसान- मैं मारूँ जिवाऊँ जीवको '। वो बाँधता है पापको वा बाँधता है पुण्य को ।। २६१।। गाथार्थ:- [ सत्त्वान्] जीवोंको मैं [ दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी [ करोमि] करता हूँ' [ एवम् ] ऐसा [ यत् ते अध्यवसितं] जो तेरा *अध्यवसान, [तत् ] वही [ पापबन्धकं वा] पापका बंधक [ पुण्यस्य बन्धकं वा] अथवा पुण्यका बंधक [ भवति ] होता है। [ सत्त्वान् ] जीवोंको मैं [ मारयामि वा जीवयामि ] मारता हूँ और जिलाता हूँ' [ एवम् ] ऐसा [ यत् ते अध्यवसितं] जो तेरा अध्यवसान, [ तत्] वही [पापबन्धक वा] पापका बंधक [ पुण्यस्य बन्धकं वा ] अथवा पुण्यका बंधक [ भवति ] होता है। टीका:-मिथ्यादृष्टिके इस अज्ञानसे उत्पन्न होने वाला रागमय अध्यवसाय ही बंधका कारण है यह भलीभाँति निश्चित करना चाहिये। और पुण्य-पापरूपसे बंधका द्वित्व (दो-होना) होनेसे बंधके कारणका भेद नहीं ढूंढना चाहिये ( अर्थात् यह नहीं मानना चाहिये कि पण्यबंधका कारण दसरा है और पापबंधका कारण कोई दूसरा है); क्योंकि यह एक ही अध्यवसाय ‘दुःखी करता हूँ' मारता हूँ' इसप्रकार और सुखी करता हूँ, जिलाता हूँ' यों दो प्रकारसे शुभ-अशुभ अहंकाररससे परिपूर्णताके द्वारा पुण्य और पाप-दोनोंके बंधके कारण होनेमें अविरोध है ( अर्थात् एक ही अध्यवसायसे पुण्य और पाप-दोनोंका बंध होनेमें कोई विरोध नहीं है)। * जो परिणमन मिथ्या अभिप्राय सहित है (-स्वपरना एकत्वके अभिप्रायसे युक्त हो) अथवा वैभाविक हो उस परिणमनके लिये अध्यवसान शब्द प्रयुक्त किया जाता है। (मिथ्या) निश्चय अथवा, (मिथ्या) अभिप्राय करनेके अर्थमें भी अध्यवसान प्रयुक्त होता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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