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बंध अधिकार
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एसा दु जा मदी दे दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते त्ति। एसा दे मूढमदी सुहासुहं बंधदे कम्मं ।। २५९ ।। एषा तु या मतिस्ते दुःखितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति। एषा ते मूढमतिः शुभाशुभं बध्नाति कर्म।। २५९ ।।
परजीवानहं हिनस्मि, न हिनस्मि, दु:खयामि, सुखयामि इति य एवायमज्ञानमयोऽध्यवसायो मिथ्यादृष्टे:, स एव स्वयं रागादिरूपत्वात्तस्य शुभाशुभबन्धहेतुः।
अथाध्यवसायं बन्धहेतुत्वेनावधारयति
दुक्खिदसुहिदे सत्ते करेमि जं एवमज्झवसिदं ते। तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि।। २६० ।।
ये बुद्धि तेरी-'दुखित अवरु सुखी करूं हूँ जीवको'।
वो मूढ मति तेरी अरे! शुभ अशुभ बांधे कर्मको ।। २५९ ।।
गाथार्थ:- [ते] तेरी [ या एषा मतिः तु] यह जो बुद्धि है कि मैं [ सत्त्वान् ] जीवोंको [ दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी [ करोमि इति] करता हूँ, [ एषा ते मूढमतिः] यह तेरी मूढ बुद्धि ही ( मोहस्वरूप बुद्धि ही) [ शुभाशुभं कर्म] शुभाशुभ कर्मको [ बध्नाति ] बांधती है।
टीका:- मैं पर जीवोंको मारता हूँ, नहीं मारता हूँ, दुःखी करता हूँ, सुखी करता हूँ' ऐसा जो यह अज्ञानमय अध्यवसाय मिथ्यादृष्टिके हैं, वही ( अर्थात् वह अध्यवसाय ही) स्वयं रागादिरूप होनेसे उसे (-मिथ्यादृष्टिको) शुभाशुभ बंधका कारण है।
भावार्थ:-मिथ्या अध्यवसाय बंधका कारण है।
अब, अध्यवसायको बंधके कारणके रूपमें भलीभाँति निश्चय करते है (अर्थात् मिथ्या अध्यवसाय ही बंधका कारण है ऐसा नियमसे कहते हैं) :
करता तु अध्यवसान-दुखित-सुखी करूं हूँ जीवको' । वो बाँधता है पापको वा बाँधता है पुण्य को ।। २६० ।।
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