________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
समयसार
६१२
( मालिनी) जयति सहजतेजःपुञ्जमज्जत्रिलोकीस्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव स्वरूपः। स्वरसविसरपूर्णाच्छिन्नतत्त्वोपलम्भ: प्रसभनियमितार्चिश्चिच्चमत्कार एषः।। २७५ ।।
भावार्थ:-यहाँ भी २७३ वें श्लोकके भावार्थानुसार ही जानना चाहिये। आत्माका अनेकांतमय स्वभाव सुनकर अन्यवादियोंको भारी आश्चर्य होता है।उन्हें यह बातमें विरोध भासित होता है। वे ऐसे अनेकांतमय स्वभावकी बातको अपने चित्तमें न तो समाविष्ट कर सकते हैं और न सहन ही कर सकते है। यदि कदाचित् उन्हें श्रद्धा हो तो प्रथम अवस्थामें उन्हें भारी अद्भुतता मालूम होती है 'अहो! यह जिनवचन महा उपकारी है, वस्तुके यथार्थ स्वरूपको बतानेवाले हैं; मैंने अनादिकाल ऐसे यथार्थ स्वरूपके ज्ञान बिना ही व्यतीत कर दिया !'-वे इसप्रकार आश्चर्यपूर्वक श्रद्धान करते हैं। २७४।।
अब टीकाकार आचार्यदेव अंतिम मंगलके अर्थ इस चित्चमत्कारको ही सर्वोत्कृष्ट कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ सहज-तेज:पुज-मज्जत्-त्रिलोकी-स्खलत्-अखिल-विकल्प: अपि एकः एव स्वरूपः ] सहज (-अपने स्वभावरूप) तेजःपुंजमें त्रिलोक के पदार्थ मग्न हो जाते हैं इसलिये जिसमें अनेक भेद होते हुए दिखाई देते हैं तथापि जिसका एक ही स्वरूप है ( अर्थात् केवलज्ञानमें सर्व पदार्थ झलकते है इसलिये जो अनेक ज्ञेयाकाररूप दिखाई देते है तथापि जो चैतन्यरूप ज्ञानाकारकी दृष्टिमें एकस्वरूप ही है), [ स्व-रस-विसर-पूर्ण-अच्छिन्न-तत्त्व-उपलम्भ:] जिसमें निज रसके विस्तारसे पूर्ण अछिन्न तत्त्वोपलब्धि है (अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मका अभाव हो जानेसे जिसमें स्वरूप-अनुभवनका अभाव नहीं होता) [प्रसभ-नियमित-अर्चिः ] और जिसकी ज्योति अत्यंत नियमित है (अर्थात् जो अनंत वीर्यसे निष्कंप रहता है) [ एष: चित्चमत्कारः जयति] ऐसा यह (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) चैतन्यचमत्कार जयवंत वर्तता है (-किसीसे बाधित नहीं किया जा सकता ऐसा सर्वोत्कृष्टरूपसे विद्यमान है)।
(यहाँ 'चैतन्यचमत्कार जयवंत वर्तता है' इस कथनमें जो चैतन्यचमत्कारका सर्वोत्कृष्टतया होना बताया है, वही मंगल है।) २७५।
अब इस श्लोकमें टीकाकार आचार्यदेव आत्माको आशीर्वाद देते हैं और साथ ही अपना नाम भी प्रगट करते हैं:
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com