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[ परिशिष्टम् ]
( पृथ्वी ) कषायकलिरेकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकतो वोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः । जगत्त्रितयमेकतः स्फुरति चिच्चकास्त्येकतः स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः ।। २७४ ।।
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देखने पर वह अनेकताको प्राप्त है और [ इतः सदा अपि एकताम् दधत् ] एक ओर से देखने पर सदा एकता को धारण करता है, [ इत: क्षण - विभङ्गुरम् ] एक ओरसे देखने पर क्षणभंगुर है और [ इतः सदा एव उदयात् ध्रुवम् ] एक ओर से देखने पर सदा उसका उदय होनेसे ध्रुव है, [ इतः परम - विस्तृतम् ] एक ओर से देखने पर परम विस्तृत है और [ इतः निजैः प्रदेशैः धृतम् ] एक ओरसे देखने पर अपने प्रदेशोंसे ही धारण कर रखा हुआ है।
भावार्थ:-पर्यायदृष्टिसे देखने पर आत्मा अनेकरूप दिखाई देता है द्रव्यदृष्टिसे देखने पर एकरूप; क्रमभावी पर्यायदृष्टिसे देखने पर क्षणभंगुर दिखाई देता है और सहभावी गुणदृष्टिसे देखने पर ध्रुव; ज्ञानकी अपेक्षावाली सर्वगतदृष्टिसे देखनेपर परम विस्तारको प्राप्त दिखाई देता है और प्रदेशोंकी अपेक्षावाली दृष्टिसे देखनेपर अपने प्रदेशोंमें ही व्याप्त दिखाई देता है। ऐसा द्रव्यपर्यायात्मक अनंतधर्मवाला वस्तुका स्वभाव है। वह (स्वभाव) अज्ञानियोंक ज्ञानमें आश्चर्य उत्पन्न करता है कि यह तो असंभवसी बात है! यद्यपि ज्ञानियोंको वस्तुस्वभावमें आश्चर्य नहीं होता फिर भी उन्हें कभी नहीं हुआ ऐसा अभूतपूर्व - अद्भुत परमानंद होता है, और इसलिये आश्चर्य भी होता है। २७३।
पुन: इसी अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ एकतः कषाय-कलिः स्खलति ] एक ओर से देखनेपर कषायोंका क्लेश दिखाई देता है और [ एकतः शान्तिः अस्ति ] एक ओर से देखने पर शान्ति ( कषायोंके अभावरूप शांतभाव) है; [ एकतः भव - उपहतिः ] एक ओर से देखने पर भवकी ( - सांसारिक) पीड़ा दिखाई देती है और [ एकत: मुक्तिः अपि स्पृशति ] एक ओर से देखनेपर ( संसारके अभावरूप ) मुक्ति भी स्पर्श करती है; [ एकतः त्रितयम् जगत् स्फुरति ] एक ओरसे देखनेपर तीनों लोक स्फुरायमान होते हैं ( - प्रकाशित होता है, दिखाई देता है) और एकत: चित् चकास्ति ] एक ओर से देखनेपर केवल एक चैतन्य ही शोभित होता [आत्मनः अद्भुतात् अद्भुतः स्वभावमहिमा विजयते ] ( ऐसी ) आत्माकी अद्भुतसे भी अद्भुत स्वभाव महिमा जयवंत वर्तती है (–अर्थात् किसीसे बाधित नहीं होता ) ।
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