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समयसार
६१०
( पृथ्वी) क्वचिल्लसति मेचकं क्वचिन्मेचकामेचकं क्वचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम। तथापि न विमोहयत्यमलमेधसां तन्मनः परस्परसुसंहतप्रकटशक्तिचक्रं स्फुरत्।। २७२ ।।
. (पृथ्वी )
इतो गतमनेकतां दधदितः सदाप्येकतामितः क्षणविभङ्गुरं ध्रुवमितः सदैवोदयात्। इतः परमविस्तृतं धृतमितः प्रदेशैर्निजैरहो सहजमात्मनस्तदिदमद्भुतं वैभवम्।। २७३ ।।
ज्ञानकी ही तरंगें हैं। वे ज्ञान तरंगें ही ज्ञानके द्वारा ज्ञात होती है। इसप्रकार स्वयं ही स्वतः जाननेयोग्य होनेसे ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञेयरूप है। और स्वयं जाननेवाला होनेसे ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञाता है। इसप्रकार ज्ञानमात्र भाव ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता-इन तीनों भावोंसे युक्त सामान्यविशेषस्वरूप वस्तु है। 'ऐसा ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ' इसप्रकार अनुभव करने वाला पुरुष अनुभव करता है। २७१।
आत्मा मेचक, अमेचक इत्यादि अनेक प्रकारसे दिखाई देता है तथापि यथार्थ ज्ञानी निर्मल ज्ञानको नहीं भूलता -इस अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- (ज्ञानी कहते हैं:) [ मम तत्त्वं सहजम एव ] मेरे तत्त्वका ऐसा स्वभाव ही है कि [ क्वचित् मेचकं लसति] कभी तो वह (आत्मतत्त्व) मेचक (अनेकाकार, अशुद्ध) दिखाई देता है, [क्वचित् मेचक-अमेचकं ] कभी मेचक-अमेचक ( दोनोंरूप) दिखाई देता है [ पुनः क्वचित् अमेचकं ] और कभी अमेचक ( -एकाकार, शुद्ध) दिखाई देता है; [ तथापि] तथापि [ परस्पर-सुसंहत-प्रकट-शक्ति-चक्रं स्फुरत् तत् ] परस्पर सुसंहत (–सुमिलित, सुग्रथित) प्रगट शक्तियोंके समूहरूपसे स्फूरायमान वह आत्मतत्त्व [अलम-मेधसां मनः] निर्मल बुद्धिवालोंके मनको [न विमोहयति ] विमोहित (-भ्रमित) नहीं करता।
भावार्थ:-आत्मतत्त्व अनेक शक्तियोंवाला होनेसे किसी अवस्थामें कर्मोदयके निमित्तसे अनेकाकार अनुभवमें आता है, किसी अवस्थामें शुद्ध एकाकार अनुभव में
आता है और किसी अवस्थामें शुद्धाशुद्ध अनुभवमें आता है; तथापि यथार्थ ज्ञानी स्याद्वादके बलके कारण भ्रमित नहीं होता, जैसा है वैसा ही मानता है, ज्ञानमात्रसे च्युत नहीं होता। २७२।
___आत्माका अनेकांतस्वरूप ( –अनेक धर्मस्वरूप) वैभव अद्भुत (आश्चर्यकारक ) है-इस अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अहो आत्मनः तद् इदम् सहजम् अद्भुतं वैभवम् ] अहो! आत्माका तो यह सहज अद्भुत वैभव है कि- [ इतः अनेकतां गतम् ] एक ओर से
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