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[परिशिष्टम् ]
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न द्रव्येण खण्डयामि, न क्षेत्रेण खण्डयामि, न कालेन खण्डयामि, न भावेन खण्डयामि; सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्रो भावोऽस्मि।
(शालिनी) योऽयं भावो ज्ञानमात्रोऽहमस्मि ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानमात्रः स नैव। ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानकल्लोलवल्गन् ज्ञानज्ञेयज्ञातृमद्वस्तुमात्रः ।। २७१ ।।
भावार्थ:-आत्मामें अनेक शक्तियाँ हैं और एक एक शक्तिका ग्राहक एक एक नय है; इसलिये यदि नयोंकी एकांत दृष्टिसे देखा जाये तो आत्माका खंड खंड होकर उसका नाश हो जाये। ऐसा होनेसे स्याद्वादी, नयोंका विरोध दूर करके चैतन्यमात्र वस्तुको अनेकशक्तिसमूहरूप, सामान्यविशेषस्वरूप, सर्वशक्तिमय एकज्ञानमात्र अनुभव करता है। ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है, इसमें विरोध नहीं है। २७०।।
अब, ज्ञानी अखंड आत्माका ऐसा अनुभव करता है इसप्रकार आचार्यदेव गद्यमें कहते हैं:
(ज्ञानी शुद्धनयका आलंबन लेकर ऐसा अनुभव करता है-) मैं अपनेको अर्थात् मेरे शुद्धात्मस्वरूपको न द्रव्यसे खंडित करता हूँ, न क्षेत्रसे खंडित करता हूँ, न कालसे खंडित करता हूँ, न भावसे खंडित करता हूँ; सुविशुद्ध एक ज्ञानमात्र भाव
भावार्थ:-यदि शुद्धनयसे देखा जाये तो शुद्ध चैतन्यमात्र भावमें द्रव्य-क्षेत्रकाल-भावसे कुछ भी भेद दिखाई नहीं देता। इसलिये ज्ञानी अभेदज्ञानस्वरूप अनुभवमें भेद नहीं करता।
ज्ञानमात्र भाव स्वयं ही ज्ञान है, स्वयं ही अपना ज्ञेय है और स्वयं ही अपना ज्ञाता है-इस अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [यः अयं ज्ञानमात्र: भावः अहम् अस्मि सः ज्ञेय-ज्ञानमात्र: एव नज्ञेयः ] जो यह ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ वह ज्ञेयोंका ज्ञानमात्र ही नहीं जानना चाहिये; [ ज्ञेय-ज्ञान-कल्लोल-वल्गन्] (परंतु) ज्ञेयोंके आकारसे होनेवाले ज्ञानकी कल्लोलोंके रूपमें परिणमित होता हुआ वह, [ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातृमत्-वस्तुमात्र: ज्ञेयः ] ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातामय वस्तुमात्र जानना चाहिये ( अर्थात् स्वयं ही ज्ञान, स्वयं ही ज्ञेय, स्वयं ही ज्ञाता-इसप्रकार ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातारूप तीनों भावयुक्त वस्तुमात्र जानना चाहिये)।
भावार्थ:-ज्ञानमात्र भाव ज्ञातृक्रियारूप होनेसे ज्ञानस्वरूप है। और वह स्वयं ही निम्न प्रकारसे ज्ञेयरूप है। बाह्य ज्ञेय ज्ञानसे भिन्न है, वे ज्ञानमें प्रविष्ट नहीं होते; ज्ञेयोंके आकारकी झलक ज्ञानमें पड़ने पर ज्ञान ज्ञेयाकाररूप देखाई देता है परंतु वे
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