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समयसार
६०८
(वसन्ततिलका) स्याद्वाददीपितलसन्महसि प्रकाशे शुद्धस्वभावमहिमन्युदिते मयीति। किं बन्धमोक्षपथपातिभिरन्यभावैनित्योदयः परमयं स्फुरतु स्वभावः ।। २६९ ।।
(वसन्ततिलका) चित्रात्मशक्तिसमुदायमयोऽयमात्मा सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणखण्ड्यमानः। तस्मादखण्डमनिराकृतखण्डमेकमेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोऽस्मि।। २७० ।।
अब, यह कहते हैं कि ऐसा ही आत्मस्वभाव हमें प्रगट हो :
श्लोकार्थ:- [ स्याद्वाद-दीपित-लसत्-महसि ] स्याद्वाद द्वारा प्रदीप्त किया गया जगमगाहट करता जिसका तेज है और [शुद्ध-स्वभाव-महिमनि] जिसमें शुद्धस्वभावरूप महिमा है ऐसा [प्रकाशे उदिते मयि इति] यह प्रकाश (ज्ञानप्रकाश) जहाँ मुझमें उदयको प्राप्त हुआ है, वहाँ [बन्ध-मोक्ष-पथ-पातिभिः अन्य-भावैः किम् ] बंध-मोक्षके मार्गमें पड़नेवाले अन्य भावोंसे मुझे क्या प्रयोजन है ? [ नित्य-उदयः परम् अयं स्वभावः स्फुरतु] मुझको मेरा नित्य उदित रहनेवाला केवल यह (अनंत चतुष्टयरूप) स्वभाव ही स्फुरायमान हो।
भावार्थ:-स्याद्वादसे यथार्थ आत्मज्ञान होनेके बाद उसका फल पूर्ण आत्माका प्रगट होना है। इसलिये मोक्षका इच्छुक पुरुष यही प्रार्थना करता है किमेरा पूर्णस्वभाव आत्मा मुझे प्रगट हो; बंधमोक्षमार्गमें पड़नेवाले अन्य भावोंसे मुझे क्या काम ?। २६९।
'यद्यपि नयोंके द्वारा आत्मा साधित होता है तथापि यदि नयों पर ही दृष्टि रहे तो नयोंमें तो परस्पर विरोध भी है, इसलिये मैं नयोंका विरोध मिटाकर आत्माका अनुभव करता हूँ'-इस अर्थका काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ चित्र-आत्मशक्ति-समुदायमयः अयम् आत्मा] अनेक प्रकारकी निज शक्तियोंका समुदायमय यह आत्मा [ नय-ईक्षण-खण्ड्यमानः ] नयोंकी दृष्टिसे खंडखंडरूप किये जानेपर [ सद्यः] तत्काल [प्रणश्यति] नाशको प्राप्त होता है; [ तस्मात् ] इसलिये मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि- [अनिराकृत-खण्डम् अखण्डम् ] जिसमेंसे खंडोंको निराकृत (बहिष्कृत; दूर; रदबातल; नाकबूल) नहीं किया गया है तथापि जो अखंड है, [एकम् ] एक है, [ एकान्तशान्तम् ] एकांत शांत है (अर्थात् जिसमें कर्मोदय का उदय लेशमात्र भी नहीं है ऐसा अत्यंत शांत भावमय है) और [अचलम् ] अचल है (अर्थात् कर्मोदय से चलायमान च्युत नहीं होता) ऐसा [ चिद् महः अहम् अस्मि] चैतन्यमात्र तेज मैं हूँ।
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