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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [परिशिष्टम् ] ६०७ ( वसन्ततिलका) चित्पिण्डचण्डिमविलासिविकासहास: शुद्धप्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः। आनन्दसुस्थितसदास्खलितैकरूपस्तस्यैव चायमुदयत्यचलार्चिरात्मा।। २६८ ।। (पुरुष), [ज्ञान-क्रिया-नय-परस्पर-तीव्र-मैत्री-पात्रीकृतः] ज्ञाननय और क्रियानयकी परस्पर तीव्र मैत्रीका पात्ररूप होता हुआ , [ इमाम् भूमिम् श्रयति ] इस ( ज्ञानमात्र निजभावमय) भूमिकाका आश्रय करता है। भावार्थ:-जो ज्ञाननयको ही ग्रहण करके क्रियानयको छोड़ता है, उस प्रमादी और स्वच्छंदी पुरुषको इस भूमिकाकी प्राप्ति नहीं हुई है। जो क्रियानयको ही ग्रहण करके ज्ञाननयको नहीं जानता, उस (व्रत-समिति-गुप्तिरूप) शुभ कर्मसे संतुष्ट पुरुषको भी इस निष्कर्म भूमिकाकी प्राप्ति नहीं हुई है। जो पुरुष अनेकांतमय आत्माको जानता है (-अनुभव करता है) तथा सुनिश्चिल संयममें प्रवृत्त है (रागादिक अशुद्ध परिणतिका त्याग करता है), और इसप्रकार जिसने ज्ञाननय तथा क्रियानयकी परस्पर तीव्र मैत्री सिद्ध की है, वही पुरुष इस ज्ञानमात्र निजभावमय भूमिकाका आश्रय करनेवाला है। ज्ञाननय और क्रियानयके ग्रहण-त्यागका स्वरूप तथा फल ‘पंचास्तिकायसंग्रह' ग्रन्थके अंतमें कहा है, वहाँ से जानना चाहिये। २६७। इसप्रकार जो पुरुष इस भूमिकाका आश्रय लेता है, वही अनंत चतुष्टयमय आत्माको प्राप्त करता है-इस अर्थका काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [ तस्य एव] (पूर्वोक्त प्रकारसे जो पुरुष इस भूमिकाका आश्रय लेता है) उसीके, [चित्-पिण्ड-चण्डिम-विलासि-विकास-हासः] चैतन्यपिंडके निरर्गल विलसित जो विकासरूप जिसका खिलना है (अर्थात् चैतन्यपुंजका अत्यंत विकास होना ही जिसका खिलना है), [शुद्ध-प्रकाश-भर-निर्भर-सुप्रभातः ] शुद्ध प्रकाशकी अतिशयताके कारण जो सुप्रभातके समान है, [आनन्द-सुस्थित-सदाअस्खलित-एक-रूपः] आनंदमें सुस्थित ऐसा जिसका सदा अस्खलित एक रूप है [च ] और [ अचल-अर्चिः ] जिसकी ज्योती अचल है ऐसा [ अयम् आत्मा उदयति] यह आत्मा उदयको प्राप्त होता है। भावार्थ:-यहाँ ‘चित्पिण्ड' इत्यादि विशेषणसे अनंतदर्शनका प्रगट होना, 'शुद्धप्रकाश' इत्यादि विशेषणसे अनंत ज्ञानका प्रगट होना, 'आनन्दसुस्थित' इत्यादि विशेषणसे अनंत सुखका प्रगट होना और 'अचलार्चि' विशेषणसे अनंत वीर्यका प्रगट होना बताया है। पूर्वोक्त भूमिका आश्रय लेनेसे ही ऐसे आत्माका उदय होता है। २६८ । Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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